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अनीसन
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इतिहास -- धनीसून अति प्राचीन श्रोपधियों में से है। सारिस्तुस (Theop hrastus) और दीसकुरादूस (Dioscorides ) ग्रादि यूनानी तथा प्लाइनी ( Pliny) प्रमति रूमी चिकित्सकों ने भी इसका उल्लेख किया है। पर, ऐसा ज्ञात होता है कि प्राचीन हिन्दुओं को इस श्रोषधि का ज्ञान नहीं था; क्योंकि आयुर्वेदीय ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं | पाया जाता है। अनुमान किया जाता है कि मुसलमान आक्रमणकारी इसे फारस से अपने साथ लाए जहाँ से कि अब भी यह बम्बई के बाज़ारों में लाया जाता है ।
वानस्पतिक वर्णन - इसका पौधा लगभग १ गज़ ऊँचा होता है । शाखाएँ घनाकार पतली होती हैं । पत्र एला पत्रवत् किंतु छोटे एवं सुगंधियुक होते हैं। प्रत्येक शाखाके सिरे पर श्वेताभ पुष्प होते हैं, जिनके भीतर कोषावृत्त जीरा के समान छोटे छोटे बीज होते हैं । प्रनीसू के फल का श्राकार एक सा नहीं होता। उत्तम भूमि में होने वाला २ से, इं० लंबा होता है । सासा
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न्यतः ये ६० लंबे श्रौर, ६० चौड़े होते
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हैं। ये किसी प्रकार गोल, अंडाकार, किनारों पर से दबे हुए, लोमश, ख़ाकी या भूरे रंग के और दो भागों में विभक्र होते हैं । इनके संधिस्थल पर एक छोटी सी दंडी होती है । प्रत्येक फल पर इस उभरी हुई रेखाएँ होती हैं । ये सौंफ से छोटे और रंग में उनकी अपेक्षा हरित एवम् श्यामाभायुपीतवर्ण के होते हैं । इनकी गंध श्रत्यन्त प्रिय होती है। शुष्क बीजें को कूटने और फटकने पर इनके कोप भूमीकी तरह पृथक् हो जाते हैं I इनमें सर्वोत्तम प्रकार वह हैं जो आकार में अपेक्षाकृत वृहत् एवं तीव्र सुगंधिमय है। और जिनके ऊपर से भूसी के समान छिलका न उतरे । क्योंकि इनका प्रभाव अधिकतया इनके कोप में ही है । स्वाद-सुगंधियुक्त, प्रत्यन्त प्रिय एवं मधुर |
परीक्षा - यद्यपि धनीसून के बीज, शतपुष्प ( Dill ), बिलायती जीरा ( कराविया ), सौंफ
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अनीसुन
( Fennel ) और शूकरान ( Conium ) तोभी, अपने विशेष वानस्पपहिचाने जा सकते हैं ।
के समान होते हैं। तिक लक्षणों द्वारा
रासायनिक संगठन - फल में २ से ३ प्रतिशत उडनशील तेल होता है जिसको अभीसून का तेल कहते हैं । इसमें एनीथोल ( श्रनीसून सत्व ) या एनिस कैम्फर ( Anise camph 01 ) ८० प्रतिशत, एनिस एल्डीहाइड ( An ise aldehyde ) तथा मीथिल - केविकोल ( Methyl chavicol ) होते हैं ।
प्रयोगांश- श्रीतुल्य इसके बीज (फल) ही अधिकतर व्यवहार में आते हैं ।
प्रकृति- तीसरी कक्षा में रूस और जालानूस के दो भिन्न उद्धरणों के आधार पर इसकी उष्णता दूसरी या तीसरी कक्षा में है । परन्तु, म, खूज़नुल्अद्विग्रह के लेखक के मतानुसार यह दूसरी कक्षा में उष्ण और तीसरी कक्षा में रूक्ष है ।
प्रतिनिधि - सोना, श्रामाशय के लिए सौंफ और कामोद्दीपन हेतु तुख्म जुरह । हानिकर्तातथा दर्पन - वस्ति को हानिकर हैं और बुस्सूस ( मुलेठी के सत ) से उसका सुधार होता है । उस प्रकृति वालों में शिरःशूल उत्पन करता है और सिकञ्जबीन से वह दूर होता है । मात्रा -- १॥ सा० से ६ मा० तक । शर्बत की मात्रा ७ मा० ले ६ मा० है ।
औषध निर्माण - युनानी चिकित्सा में इसके हर प्रकार के मिश्रण, यथा क्वाथ, श्रकं, तैल, घनसत्व (रु), अजून, शर्बत, चूर्ण, अनुलेपन, हुमूल (पिचुक्रिया ) और धूमी (धूपन ) प्रभुति व्यवहार में थाती हैं। इनमें से कतिपय मिश्रण निम्न प्रकार हैं
(१) श्रनोसुन का मिश्रित काथ-नीसून, हुबह ( मेथिका ), लोबिया सुख प्रत्येक १५ मा०, सुदाब १० || मा० । निर्माण-विधि— सबको तीनपात्र पानी में क्वाथ करें। जब एक पाव रह जाए तब उतार कर साफ करें। सेवनविधि - धोड़ा गुड़ मिलाकर सेवन करें। गुणश्रावप्रवर्तक और अवरोध उद्घाटक I
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