________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अपस्मार
या "सच दृष्टश्चतुर्विधः" वातपित्त कफैन णांचतुर्थः सन्निपाततः।
(सु०) अर्थान्-(१) वातज, (२) पित्तज, (३)कफज और (४) सन्निपातज। (यह रोग नैमित्तिक है)
डाक्टरी मत से यह दो प्रकार का होता है(१) प्रैण्डमाल ( Grand Mal) या हॉट माल ( IIaut Mal) अर्थात् उग्र अपस्मार या सरअ शदीद और (२)पेटिट माल ( Petit Mal) अर्थात् साधारण अपस्मार या सरन खतीक । परंतु इस रोगका इससे भी एक साधारण प्रकार वह है जिसको अंगरेज़ी में एपिलेप्टिक वर्टिगो ( Epileptic Vertigo ) अर्थात् : प्रापस्मारिक शिरोघूर्णन या दुवार सरइ कहते । हैं। इससे भिन्न अपस्मार की एक और अवस्था है जिसको गरेजी में स्टेटस एपिलेप्टिकस ( Status Epilepticus ) अर्थात् प्रापस्मारिकावस्था या सरश मुत्वातिर कहते हैं । इसके अतिरिक्र बच्चोंके अपस्मारको बाल अपस्मार: वा शिश्वपस्मार तथा अंगरेजी में इन्फेण्टाइल कन्वल्शन (Infantile convulsion)
और अरबी में सड़ल अतफाल या उम्मुरिसिध्यान आदि नामों से पुकारते हैं। - नोट-यूनानी भेदों के लिए देखिए सरऋ ।
पूर्व रूप जो किसी किसी समय रोगाक्रमण काल के बहुत समीप उपस्थित होता है। यहाँ तक कि रोगी अपने श्रापको सँभाल नहीं सकता और कभी उससे एक वा दो दिवस पूर्व उपस्थित होता है । पूर्वरूप में से यह एक प्रधान लक्षण है कि रोगी को अपने शरीर के किसी मुख्य भाग साधारणतः हस्तपाद की अंगलियों या पेट पर से सुरसुराहट मालूम होती है, जो वहाँ से प्रारंभ होकर ऊपर को जाती हुई शिर तक पहुँचते ही रोगी को मूच्छित कर देती है और रोग का दौरा हो जाता है। उक्र प्रकार की | सुरसुराहट को डॉक्टरी की परिभाषा में पारा एपिलेप्टिका (Aura Epileptica) अर्थात् |
नसीम सरन (मृगी की सुरसुराहट) कहते हैं । इसके अतिरिक्त रोगाक्रमण से पूर्व शिरोशूल एवं शिरोघून होता है अथवा नासिका से एक प्रकार की गंध आने लगती है और आँखों के सामने चिनगारियाँ सी उड़ती प्रतीत होती हैं । कभी दौरे से पूर्व भयावह रूप दिखाई देते और कर्णनाद होता है, बुन्द्रि भ्रंश एवं किञ्चिन् निर्बलता होती, कभी ज्वरका वेग होता और कभी श्राक्षेप होकर शिर किचित् एक कंधे की ओर झुक जाता है, जो एक प्रधान लक्षण है | कभी कभी कोई रूप प्रगट नहीं होता | आयुर्वेद में भी प्रायः यही बातें लिखी है, यथाहृत्कम्पः शुन्यता स्वेदो ध्यान मूर्छा प्रमूदता । निद्रानाशश्च तस्मिंश्च भविष्यति भवत्यथ ॥
मा० नि। अर्थात्- हृदय को काँपनी, हृदयकी शून्यता, स्वेदस्राव, विस्मित सा रहजाना, मूर्छा ( मनोमोह ), अत्यन्त प्रचेतता और अनिद्रा आदि लक्षण अपस्मार रोग होने से पूर्व होते हैं।
रोगाक्रमणकालीन सामान्य लक्षण
जब इस रोग का अाक्रमण होता है सब रोगी . साधारणतः एक चीख़ मारकर और मूञ्छित हो. कर पृथ्वी पर गिर पड़ता और तड़पने लगता है । हस्तपाद प्राकुचित होकर मुखमण्डल भया. वह और नीलवण का हो जाता है, नेत्रपिण्ड · ऊपर को फिर जाते एवं निश्चेष्ट हो जाते हैं। परन्तु, कभी कभी उनमें गति भी होती है, हृदय धड़कता है, श्वास कष्ट से प्राता और मुंह से झाग पाता है । कभी जिहा दाँतोके भीतर भाकर कट जाती है । मूर्छितावस्था में ही मन व मूत्र का प्रवर्तन और शुक्र का स्खलन हो जाता है। फिर एक ओर से हस्तपाद में एक मटका सा लगकर आक्षेप प्रशमित हो जाता है तथा रोगी एक सर्द श्राह भरकर कुछ काल तक मूपिईस पड़ा रहता है। तदनन्तर ज्ञान होने पर उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती । अपितु, क्रान्ति, जिरोशूल, शिरोभ्रमण, अजीण स्थानिक प्राप था पक्षाघात तथा बुद्धिभ्रंश आदि विकार शेष व
For Private and Personal Use Only