________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अगोसून
लक्षण-एनीधोल की श्वेत रवेदार डलियाँ । होती हैं जिनसे अनीसून की तीब्र सुगन्धि पाती है। स्वाद-किञ्चिन्मधर । यह ६८° फारनहाइट के उत्ताप पर पिघल जाता है। द्रव रूप में यह घणरहित होता है और इसमें से सूर्यरश्मि बक्रीभूत होकर गुजरती है।
विलेयता-यह एक भाग लगभग ३ भाग ऐलकोहल (२०००) में विलेय होता है।
मात्रा-१ से २ बुद-( ०६ से १२ घन सतांश मीटर )।
अनीसून के प्रभाव तथा उपयोग
यूनानी मतानुसार-(१) यह वृक्ष, वस्ति, जराषु एवं प्लीहा व यकृत् के अवरोधों का उद्घाटक है। क्योंकि यह चरपरा और तेज है। और इनका कर्म रोधोद्घाटन है। (२) अपने | संशोधक, विलायक और उत्तापजनक प्रभाव के कारण यह वायुनिस्सारक है, विशेषकर जब यह | भुना हुआ हो । व्योंकि भूनने से इसकी प्राता कम हो जाती है एवं इसकी तीक्ष्णता बढ़ जाती है । (३) मुख तथा हस्तपाद के मंदशोथ के लिए लाभदायक है। क्योंकि यह प्रवर्तनकर्ता | है और अवरोधउद्धाटन एवं किञ्चित् संकोच द्वारा यकृत को शक्ति प्रदान करता है। (४) नेत्र में लगाने से पुरातन सबल रोग को लाभदायक है। क्योंकि यह उसके माहाको लय करता | है। (१)शिरः शूल होता तथा सिर चकराता ! हो, ऐसी दशा में इसका नस्य एवं धूपन (धूनी) अत्यन्त गुणदायक है। क्योंकि यह उनके माहों। को लय करता है।
(६) यदि इसको गुल रोगन में खरल करके कान में डालें तो अपने थोड़े संकोच के कारण ठोकर या घोट के द्वारा उत्पस हुए कर्ण क्षतको अच्छा करता है और विलायक शनि से कर्णशूल को दूर करता है।
(.) रोध उद्घाटन तथा उष्मा बाहुल्य से मूत्र, प्रार्तव और जरायुस्थ भाईता को रेचक
भनोसम क्योंकि यह श्लेष्मा को पिघलाता एवं लय करता है ।
(१) स्तन्यजनक एवं शुक्रवर्द्धक है। क्योंकि आहारीय पथों को मुक तथा स्तन की ओर उद्घाटित कर देता है।
(१०)विषदोपन है। क्योंकि मूत्र तथा प्रार्तव के प्रवत्त न द्वारा स्रोतों को विष से शुद्ध कर देता है।
(११) प्रायः यह उदरीय विष्टभ उस्पन कर देता है। क्योंकि यह रुचताजनक एवं प्रवर्तक है और पाहार को अवयवों की ओर प्रविष्ट करा देता है जिससे प्रांत्र में रूक्षता उरपा हो जाती एवं कब्ज हो जाता है । (नफ़ो.)
नव्यमत:--एलोपैथिक मेटिरिया मेडिका(एनियम तथा एनिसम), डिल (सोमा, शतपुष्प ), एनिस (अनीसून ), कोरिएण्डर (धान्यक), फेनेल (सौंफ मधुरिका) और कारवी अर्थात् करवे ( Caraway ) प्रभाव में समान हैं । ये सशक पचमनिवारक है। अधिक मात्रा में ये सार्वाजीय उत्तेजक हैं तथा विरेचक औषधों के ऐंठन के निवारवार्थ चायुनिस्सारक रूप से और बासकों के उदरशूल एवं प्राध्मानजन्य पीड़ा के लिए इनका व्यवहार किया जाता है । इस हेतु अनीसून अधिकतर उपयोग में आता है। सम्भवतः इन अन्तिम दशात्रों में ये परावत्तित क्रिया द्वारा
आक्षेपहर प्रभाव करते हैं । थोड़ी मात्रा में इनसे प्रामाशयिक रस का और सम्भवतः अान्यायिक रस का भी नाव बढ़ जाता है। श्वास द्वारा निःसरित होते समय श्वासोश्वास सम्बन्धी कलाओं को उसेजित कर इन सबका निर्बल कराच्य ( श्लेष्मानिस्सारक ), प्रभाव होता है। पूर्ण ( वयस्क) मात्रा में इनमें मन्द निद्राजनक शनि है। किन्तु, यदि इनको अन्त:क्षेप द्वारा सीधे रुधिराभिसरण में पहुँचाया जाएं तो इनका सशक हृदयावसादक प्रभाव होता है। (सर वि. हिटला)
(-) श्लेष्मज तृषा को प्रशमन करता है।
For Private and Personal Use Only