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मन्त्र-वृद्धि
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(इन कारणों से वात प्रकुपित होने के कारण) वे छिद्र और भी बड़े हो जाते हैं, तथा उन्हीं के द्वारा काल पाकर बड़ी भैतड़ियों का (अथवा छोटी भैतदियों का भी) कुछ भाग नीचे उतर कर सरस मार्ग से वरुण संधि से होते हुए वृषणों में प्रवेश कर जाता है। ऐसी स्थिति में जब उन छिद्रों में प्राकुमन की क्रिया होती है तब उन अंसदियों में दयाव के पड़ने से अत्यन्त वेदना होती है।
चिरकारी कास, अत्यन्त श्रम और चिरकारी । मलावरोध इत्यादि कारणों से भी यह रोग हो जाता है।
(१) जमरस्नायु को दुर्बल या शिथिल करने वाले कारण-मेदोवृद्धि, प्रांत्रपतन रोग इत्यादि।
(0) अस्पश्मरी प्रभृति के कारण अब मूत्राबरोध हो, जिससे मूत्रोत्सर्ग काल में कॉसना या पा जोर लगाना पड़े, तब भी प्रायः यह शिकायत हो जाती है।
(च) गर्भावस्था में उदर की दीवार पर जोर पदकर उसके तनने से भी उदरांत्रवृद्धि की उत्पत्ति होती है।
(क) उसी प्रकार वृद्धावस्था में जब सदर शिथिल होकर तोंद निकल पाता है तब उग्र कास प्रभृति से इस रोग के होने का भय होता है।
(ज) स्थूल या मेदावी व्यनियों को भी यह रोग अधिक हुआ करता है। क्योंकि उदरस्थ मेदवृद्धि के कारण उदरीय अवयवों पर भार पड़ कर पेट तना रहता है, इत्यादि ।
वृद्धि के भाग प्रत्येक वृद्धि सम्बन्धी अधुद के तीन भाग होते हैं । यथा-(1) ग्रीवा, (२) गात्र और (३) मुख ।
अस्तु आँस का हिस्सा जहाँ निकलता है उसको प्रीवा और जहाँ ठहरता है उसे गात्र कहते हैं। कई बार ग्रीवा के तंग होने के कारण या ग्रीवा का मुख बंद हो जाने के कारण मंत्रवृद्धि विन्यस्त नहीं हो सकती।
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अंत्रवृद्धि भेद स्थानानुसार एवं विविध लक्षणों से युक्त होने के कारण अंत्रवृद्धि रोग कई प्रकार का होता है। यह। उनमें से प्रत्येक का विस्तृत वर्णम दिया जाता है :
(.) वंक्षणांत्रवृद्धि-जब अस्त्रका कस्ता वंक्षण स्थान में विदीर्ण हो जाए, जिससे कोई वस्तु (अंत्र वा वसा प्रमति) उदर में से नीचे श्राकर वंक्षण अर्थात् चट्टे की मली में एक जाए, किंतु अंडकोष में न उतरे, तब उसको उक्त माम से अभिहित करते हैं। भरवी में इसे फ्रत्कुल उर्मिय्यह वा फ्रस्क फज़ी सथा अंगरेजी में म्युबोनोसील ( Bubonocele) कहते हैं।
नोट--ज्ञात रहे कि वंक्षण में दो प्राकृतिक नलिया होती है-(.) पण नलिका (Inguinal canal) इस मार्ग से होकर अंर मपनो डोरी (भएरधारक रज्जु) से भण्डकोष में उतरता है । और (२) अन्वं नखिका ( Femoral canal) इसके रास्ते उरु की रगें गुजरती हैं। अस्तु जब उदर में से मन्त्र वा वसा वंसय नलिका में उतर कर उभर पाए तब उसको बंषणांत्रवृद्धि कहते हैं और यदि यह उई नलिका (जो वंक्षण के बाहर की ओर स्थित है) में उतर कर उभर पाए तो उसको ऊचात्रवृद्धि कहते हैं। अब इनमें से प्रत्येक का अलग अलग वर्णन किया जाता है।
__वंक्षणांत्रवृद्धि चढेका फतक-30 1 फत्कुल उर्विय्यह-०। इंग्विनल हर्निया ( Inguinal hernia) -५० । इसके मुख्य ४ भेद हैं
(1) वंक्षण सरलांवृद्धि, (२) क्षण तिर्यग् (सरल) अन्त्रवृद्धि, (३) सहर्जात्रवृद्धि और ( ४ ) कोषाकार वृद्धि । रोग की उन्नति के विचार से पुनः इनकी ये अवस्थाएँ होती हैं । अस्तु, यदि वृद्धि वंक्षण की नली के भीतर ही रहे, बाहर न निकले तो उसे अपूर्ण मन्त्रवृद्धि, अरबी में तत्क नाकिस तथा भंगरेजी में इन्कम्प्लीट हर्मिया ( Incomplete
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