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अपराजिता
जलोदर एवं प्लीहा व यकृत वृद्धि मेंअपराजिता की जड़, शंखिनी, दन्तीभूल और नीलिनी । इनको समभाग लेकर जल के साथ इमलशनवत् प्रस्तुत करें और गोमूत्र के साथ सेवन करें ।
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वक्तव्य
सुश्रुत में दर्वीकर सर्प की चिकित्सा में धन्य द्रव्यों के साथ अपराजिता का प्रयोग दिखाई देता है, यथा- 'श्वेत गिरिहवा कणिही सिताच' (०५ अ० ) । सुश्रुतोक्त शोथ एवं उन्माद की चिकित्सामें अपराजिताका उल्लेख नहीं है। सुश्रुत सूत्रस्थान के ३६ वं अध्याय के वासक द्रव्यों ! की तालिका अपराजिता का नाम नहीं थाया है; किंतु शिरोविरेचन वर्ग की श्रोषधियों में अपराजिता का उल्लेख है । यथा
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"करवीरादीनामतानां मूलानि ”
वाक्य में अपराजिता के मूल को शिरोविरेचक माना गया है।
चरको वान्तिकर द्रव्यों में अपराजिता का पाठ नहीं है (वि० अ० ) ।
नरक में सुतवत् शिरोविरेचन द्रव्यों के वर्ग
拼
इसका पद आया है । ( सू० ४ ० ) ।
चरको शोथ चिकित्सा में अपराजिता का प्रयोग ।
नहीं दिखाई देता । किंतु उन्माद चिकित्सा में द्रव्यांतर के साथ इसका प्रयोग श्राया है । दत्त के शोथ और शूल की चिकित्सा में अपराजिता का प्रयोग नहीं है
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नव्यमत
डिमक महोदय के कथनानुसार विरेचक व मूत्रल गुणों के कारण इसकी मारियूने हिंदी ( Indian mezereon ) नाम से अभिहित किया गया है। किंतु यहाँ पर यह बतला देना आव श्यक प्रतीत होता है कि माज़रियून उदरीय शोध को दूर करने के लिए व्यवहार में लाया जाता है । और यह फार्माकोपियां वर्णित माजरिपून नहीं है।
वे और भी लिखते हैं कि कोंकण में इसकी जड़ का रस दो तोला की मात्रा में शीतल दुग्ध के
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अपराजिता
साथ पुरातन काम में कराड्य (कफ निस्सारक) रूप सेव्यहार में आता है । इससे उकेश (मतली) तथा वमन जनित होता है । विभेदक में ताराजिता की जड़ का रस नकुलों द्वारा फूंका जाता है I
एन्सली विवसियाजननी किंवा वामक प्रभाव के लिए घुडिकास वा स्वरवनी कास (Croup) में अपराजिता की जड़ के उपयोग का वर्णन क रते हैं ।
"गाल डिस्पेंसेटरी" नामक पुस्तक के रचयिता बहुत से प्रयोगों के पश्चात् अपराजिता के वांतिकरन गुण को स्वीकार करते है । वे लिखते हैं कि अपराजिता की जड़ का " एल्कोहलिक् एक्सट्रैक्ट" ५ से १० येन की मात्रा में शीघ्र विरेचक सिद्ध हुआ। किंतु इसके सेवन से रोगी के पेट में दर्द ( ऐन ) एवं बारम्बार मल त्यागने की इच्छा होती है और बहुत वेदना के बाद थोड़ा मल निकलता है । सुतरां वे इसे व्यवहार करने का परामर्श नहीं देते।
सर्व प्रथम इसका बीज टमैटी ( Ternate)
द्वीप से जो मलक्काद्वीपों में से एक है, इंगलैंड में
लाया गया। अस्तु, इस पौधे का यह प्रधान नाम
हुआ । हेंस ( Haines ) इसके ( नीलापराजिता पुष्प ) टिंकचर को लिट्मस ( चारचोतक ) की प्रतिनिधि बतलाते हैं । ( फा० इं० १ खंड, ४५६--४६० ) ।
डॉ० आर० एन० खोरी-अपराजिता की जह, स्निग्ध, मूत्रकारक एवं मृहुरेचक है और पुरातन कास, जलोदर, शोध एवं प्लीहा व यकृत विवृद्धि तथा उवर और स्वरधनी कास ( Croup ) में व्यवहृत होती है । श्रपराजिता की जड़ को शीत कषाय स्निग्ध ( Demulcent) रूप से वस्ति तथा मूत्र प्रणालीस्थ क्षोभ श्रौर कास में व्यवहार किया जाता है। श्रद्धविभेदक अर्थात् धकपाली रोग में इसकी ताजी जड़ के रस का नस्य देते हैं। इसका ऐक्सट्रैक्ट शीघ्र रेचक तथा कालादाना, गुलबास बीज और जलापा की उत्तम प्रतिनिधि हैं । (मेटिरिया मेडिका श्रॉफ इंडिया २ य खंड २०६ १० ) ।
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