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श्रपराजिता
मि० मोहीदीन शरीफ स्वानुभव के ग्राधार पर इसकी जड़ की छाल के १-२ डाम को मात्रा के शीत कपय की वस्ति एवं सूत्रप्रणाली अन्य क्षोभों में स्निग्ध प्रभाव करने की बड़ी प्रशंसा करते हैं। साथ ही इसका मूत्रजनक और किसी किसी में महुरेत्रक प्रभाव होता है ।
इसके बीज रेचक हैं | फा० ई० ।
इसके पत्र का शीत कपाय विस्फोटक ( Eruptions ) में व्यवहृत होता है । वैद० |
इसके पत्ते के रस को आईक के साथ मिला कर तपेदिक ( Iletic fever) में स्वेद थाने की हालत में व्यवहार करते हैं। टेलर ।
कर्णशूल में विशेषतया उस अवस्था में जब कि कान के आस पास की अंथियाँ सूज गई हों, तब कान के चारों ओर अपराजिता के पशे के रस में सेंधानमक मिलाकर गरमागरम लेप करें। ए० सी० मुकर्जी ।
डॉ० नरकारिणो- अपराजिता के बीज को भून कर चूर्ण प्रस्तुत करें। इसको जलोदर और नीहा व यकृत त्रिवृद्धि में २० से ६० ग्रेन ( १५ से ३० रत्ती ) की मात्रा में प्रयुक्त करें । साधारणतः इसको इस प्रकार वर्तते है -२ भाग क्रीम ऑफ़ टार्टर, १ भाग सौंठ और १ भाग अपराजिता के बीज, इनका चूर्ण बनाएँ । मात्रासे १ ड्रम |
उपयोग- इनको दृष्टिनैर्बल्य, कंक्षत, श्लेष्मविकार, बुदि, स्वग्दोष तथा शोध आदि रोगों मैं बते हैं ।
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एक दो वा अधिक बीजों को भूनकर फिर मानुषी दुग्ध में पीसकर वा घीमें भूनकर बालकों के उदरशूल तथा मलावरोध में देते हैं। जड़ का एल्कोहलिक एक्सट्रैक्ट भी एक से दो ड्राम की मात्रा में उपयोगो है | ( इंडियन मेटिरिया मेडिका पृष्ठ २२१-२२२ ) ।
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धार० एन० त्रोप्रा - श्रपराजिता की जड़ अलशोधक तथा मूल है और सर्प के त्रिष में यु होती है ।
( इं० ० ० पृ० ४७६ ) । अपराजिता की पक्षी का कुल्क प्रस्तुत कर ना
श्रपराजिता लेहः..
खन खोर अर्थात् नरकहिया ( Whitlow) फोड़े पर बाँधने और निरन्तर जल से तर रखने से बहुत शीघ्र लाभ होता है | परीक्षित |
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( २ ) पीत निगुण्डी । ( ६ ) जयन्ती वृत । रा०नि० ० २३, ४ । ( ४ ) शालपर्णी | भा० पू० २ भा० । (१) श्वेत सिंधुबार 1 ( ६ ) ब्रह्मी : ( ७ ) एक प्रकार की शमी | रा०नि० ० ८ ( ८ ) शेफालिका | रा० नि० ० ४ । ( ६ ) शङ्खिनी । (१०) एक प्रकार का पुषा । ( ११ ) एक प्रकारका हषुषा । रा० नि० ० ४
अपराजिता धूपः
aparajita-dhūpah - सं०
० बिनौला, मोरपंख, बड़ी कटेरी, शिवनि. मोदय, सगर, तज, वंशलोचन, बिल्ली का बि धान के तुप ( भूसी ), वच, मनुष्य के बाल, काले साँप की केचुली, हाथीदाँत, गौ का सींग, हींग, मिर्च, इन्हें बराबर लेकर धूप बनाएँ । यह धूप पसीना, उन्माद, पिशाच, राक्षस, देवता का आवेश, उवर इन सबका नाश करता है। गृह में इनकी धूप ( धूनी ) दे तो सब बालग्रहों को दूर करता है और पिशाच तथा राक्षसों को निकालकर सब उवरों को नाश करता है । यो० चिन्ता म० ।
श्रपराजिनायोगः aparajitáyogah सं० पुं० सफेद कोयल की जड़ को पीस प्रातः काल पीएँ तो गलगण्डरोग नष्ट होता है। इसके ऊपर से शुद्ध गोघृत पीएँ और पथ्य से रहें। योग० त० गल० ग० नि० ।
अपराजितालेह : aparajitälehah-सं० पु० (१) काकड़ासिंगी, कचूर, पीपल, भारंगी, गुड़, नागरमोथा, जवासा, तैल इनका लेह ( चटनी ) बना चाटने से वात की खाँसी नष्ट होती है। चक्र० द० ।
( २ ) मजीठ २ तो०, कुड़ा सो०, भांगरा की जड़ २ तो० इन्हें कूट कर ६४ तो० जल में पकाएँ । जब चतुर्थांश शेष रहे तो छानकर रस निकालें और उसमें = तो० मिश्री, बकरी का दूध १६ सो०, बेल फल अतीस इनका पूर्व
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