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मन्त्रद्धि ।
hernia) watateta (Bubono- समान इस पर भी छः परदे होते हैं। इस सरह cele) कहते हैं.। और जब वह बाहर निकल की पदिध में कौषीय धमनियों और अवधारक पाए तब उसको क्रमशः पूर्ण अन्त्रवृदिध, फ़्तक रज्जुएँ वृद्धि की प्रीया की वास और और अगर कामिल तथा कम्पलीट हर्निया ( Cmpie te पीछे की ओर स्थित मालूम होते है । वृद्धि hernia) कहते हैं। चूं कि पुरुषामें यह अण्ड- अबुदाकार गोल शकल की उपस्थमल के समीप कोष में चली जाती है। अस्तु इसको अण्डकोष
स्थित होती है। वृद्धि (मुष्क वृद्धि) तक सिजन वा मोत का
(ग) जातज वा पैदायशी (सहज) अंत्रवृद्धि तक और स्कोटल हर्निया ( Sctotal her
__ पैदायशी फरक-3.। फरक मौलूदी-१०। nia) कहते हैं। स्त्री के शरीर में यह वंचया या
कन्जेनिटल हर्निया ( Congenital her. उरुसंधि के कुछ नीचे प्रकट होती है। स्त्रियों की
mia)-ई। अपेक्षा यह पुरुषों को ही हुआ करती है। इसे
यह भी एक प्रकार की तिर्यग श्रृंग्रवृद्धि है जो मायुर्वेद में बन कहा गया है। इनमें से यहाँ
जन्म काल अथवा जन्मके पश्चात् उपस्थित होती प्रत्येक का पृथक् पृथक् वर्णन किया जाता है
है । इस में वसा वा मंत्र का भाग फ्रोतों के साथ (क) तिर्यग् वंक्षण-अंत्रवृद्धि
अंडवेष्ट में उतर पाता है और उसके कोठों में घईका तिर्था तक-उ० । प्रत सुख उर्बिय्य. रहता है। इसकी थैली उन वेष्टके परदों से बनती मुन्हरिश-अ.। मॉब्लीक इंग्बीननं हर्निया | है और अंत्र अण्ड के पीछे रहती है। इस प्रकार (Oblione inguinal hernia)-ई०1. की वृद्धि की रसौली (पद) गोल और
इस प्रकार की प्रांत्रवृधि वंक्षण प्रणाली उसकी ग्रीवा संकुचित होती है। यद्यपि अण्ड (Inguinal canal) में होती है, उससे वृद्धि से पृथक् होते हैं। परन्तु, उससे श्रावृत्त बाहर नहीं निकलती। लक्षण-इस प्रकार की होते है। इसके साथ अण्डकोष में जल संचित बृद्धिव में रोगी के खड़े होने या खांसने से
(कुरण्ड-हाइड्रोसील ) भी होता है। संक्षण की नाली के भीतर उभार प्रतीत होता
नोट-गर्भावस्था में अण्ड उदरमें उदरच्छदाहै। यदि नाली के भीतर अगुली प्रविष्ट कर
कला ( परिविस्तृत कला) के पीछे और वृक्क के रोगी को खांसने की आज्ञा दे तो वासने से
नीचे रहते हैं। पाँचवें मास में वृषण की गोलियाँ भगुली पर उन सृद्धि के प्राधात का बोध होता
वृषणों में उतरती है। किसी किसी के मत से ५ है। इस भौति की तियंग वक्षण वृद्धि में वृद्धि
या ६ मास हो जाने पर ये गुलियाँ उदर गह्वर से अण्डाकार होती है। उस पर छः परत होते हैं।
वस्ति नहर में प्राती हैं, फिर सातवें मास में कौशेयी धमनियों और अण्डधारक रज्जु उक्र
कमर के सामने और आठवे मास में अपने वृषण वृद्धि के पीछे तथा अण्डकोष उसके मीचे होते
स्थान में उतर पड़ती हैं। जब अर८ उदर में से
उतर कर अण्डकोष में आता है, तब उस प! (ख)सरल वक्षरण
उदर की दीवार के मांस एवं सौनिक पाँच चढेका सीधा फत्क-उ० । प्रस्कल उर्बिट्यह
कोषों के अतिरिक्र एक कोष उदरककला (Pur मुस्तकीम-ऋ० । डायरेक्ट इंम्बीनल हनिया ritoneum) का भी होता है। इसके दो (Direct inguinal heruia)-ई.। भाग होते हैं। प्रथम वह जो अण्डधारक रज्जु
लक्षण-इस प्रकार की वृद्धि में आंत्र प्रभृति को अाच्छादित करता है और द्वितीय जो अण्ड दमण नलिका में से न निकल कर उसके बहि- को भावरित करता है। जन्म के बाद भण्डधारक रिषद के पीछे से निकलती हैं। इस दशा में रज्जु को आच्छादित करने वाला उदरक कला का सद्धि अत्यन्त स्थूल होती है। तिर्मम् सद्धि के भाग नष्ट हो जाता है भौर परायाला भाग
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