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.अन्त्रवृद्धि
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अन्त्रवृद्धिः
अन्त्रवृद्धि antra-vriddhi-हिं० संज्ञा स्त्री अन्त्रवृद्धिः antria-vrikThih-सं० स्त्रो० ।।
अंत्रांडवृद्धि, प्रांत्रवृद्धि । (Intestinal Her- ! mia, Hernia): फ्रक मिश्राई, फ़क्र मियू वी-अ०। गाँत का फ़क्र-301 प्रांत उतरना । अाँत उतरने का रोग । एक रोग जिसमें आँत का : कोई भाग ढीला होकर नाभि के नीचे उतर कर ! फोते में चला पाता है और फोता फूल जाता है, जिससे अण्डकोष में पीड़ा उत्पन्न होती है। अतएव केवल लक्षण की ओर ध्यान रखकर श्रायुवेद में इसे वृषण विकारांतर्गत मान लिया गया है । परंतु अण्डवृद्धि एक अलग रोग है जिसको डॉक्टरी में प्रॉर्काइटिस (Orchitis) अर्थात् ! अण्डमदाह कहते हैं। देखो--वृद्धि।
नोट-चिकित्सा प्रणाली के ग्रंथों के । गवेषणापूर्ण सुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि आयुर्वेदीय चिकित्सा ग्रंथों में वृद्धि शब्द का प्रयोग जिन प्रों में होता है प्रायः उन्हीं अर्थो में मैंगरेजी शब्द हनिया ( Hernia ) और अरबी , तत्क का होता है । यद्यपि ये तुल्यार्थक नहीं और न इनका सर्वाश में समान भावों के लिए .. उपयोग ही होता है, तोभीशल्प सामान्य भेदोंके सिवा इनमें समानता काही अधिक भाव सन्निविष्ट है। अस्तु इनका पूर्णत: समान अर्थों में प्रयोग . करना हमें उतर जान पड़ता है। पर्ण विवेचन के लिए देखिए वृद्धि।
तीनों चिकित्सा प्रणाली के मत से अंत्रवृद्धि . वृद्धि रोग का केवल एक भेद मात्र है।
निदान लक्षण–चानप्रकोपक श्राहार करने, .. शीतल जल में डुबकी लगाकर नहाने, मल मूत्र के वेग रोकने अथवा मल मूत्र का वेग न होते हुए बलपूर्वक उनके प्रवर्तन करने, बलवान के साथ यद्ध करने. अधिक बोझ उठाने. अत्यंत । मार्ग चलने, अङ्गों के टेढ़ा मेढ़ा चलाने इत्यादि । कारणों से तथा अन्य वातप्रकोषक कारणों द्वारा : प्रकुपित बात तुद्रांग्रीय अवयवों को विकृत (संकु. चित)कर उनको जब अपने स्थान से नीचे लेजाता|
है तब वे वंक्षण की संधि में स्थित हो वहाँ गॉड के समान सूजन को प्रकट करते हैं । इसे ही अन्त्रवृद्धि कहते हैं । फिर वहाँ ग्रंथि रूप से स्थित हो कुछ काल में यह फलकोपों में प्राप्त होती है । इसकी चिकित्सा न करने से श्राध्मान, पीड़ा तथा स्तम्भयुक मुल्कवृद्धि उत्पन्न होती है। मा० नि• वृद्धिा ___ चूँ कि आंत्रवृद्धि रोग कभी तो जातज होता है और कभी सम्पादित । अस्तु, इसके हेतु भी दो प्रकार के होते हैं । अर्थात एक जातज और दूसरा संपादित | अब इनमें से प्रत्येक का पृथक पृथक् सविस्तार वर्णन किया जाता है :(1)जातज या सहज अर्थात् पैदायशी कारण
(क । विटा प्रदेश में अण्वमार्ग का बंद म होना, बालकों में एड का वपण में देर से अथवा कम उतरना ।
(ख) उदर की दीवार तथा मांस पेशियों का जन्म से कमजोर होना और बंक्षण की नाली प्रभृति के छिद्रों का कोमल होना।
(ग) प्रांत्र के बंधन अथवा उस पर की वसामय झिल्ली का अस्वाभाविक रूप से लम्बा होना भी इस रोग का हेतु है।
(घ ) सहज रूप से उदर की दीवार के कति. पय मांसपेशियों के सम्मुख छिद्र या दरार का रह जाना जिनके मार्ग से प्रत्र (वा वसा) प्रभूति ऊपर को उभर आती है। उदरीय वृद्धि का प्रायः यही कारण हुश्रा करता है।
(क) जन्म काल में नामि का विकृत रह जाना, जिससे नाभ्यं वृद्धि होती है।
(२) संपादित हेतु (क) उदर पर चोट का लगना ।
(ख ) शस्त्रक्रिया करने के पश्चात् क्षत का यथार्थ रूप से परित न होना ।
(ग) अधिफ भार वहन, अधिक भार उठाना विशेषतः उठाकर सीधे खड़ा हो जाना या चलना, क्योंकि उक अवस्था में उदर पर जोर पड़ता है, विषमांग प्रवर्तन, खाँसने आदि चेष्टाओं से
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