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श्रन्त्रअन्योन्यानुप्रविष्ट
स्थूलांत्र का एक भाग उसी के अन्य भाग में प्रविष्ट होजाता है, इसे स्थूलांत्रिक(Colica): कहते हैं । ५० प्रतिशत से भी अधिक रोगियों में अधर हात्र और अंजपुट को बृहदांत्र में प्र. विष्ट होते हुए देखा गया है। इस प्रकार की ग्रंत्रप्रवेशन क्रिया को अधःसुद्रांत्रपुटिक (IleoCocalis) कहते हैं। इसीप्रकार अधर शुद्रांत्र, उत्तर तुद्रांत्र तथा द्वादशांगुलांत्र का भी न्याघर्तन होता है। किसी किसी में अधर तुद्रात्र अपने एक अन्य भाग में प्रविष्ट होकर अधरक्षुद्रांपुटिक कपाट से गुज़र कर वृहदांत्र में पहुँच जाती है। इसके अधरनु द्रवृहदांत्रिक ( Ileo. colica) कहते हैं।
निदान श्रांत्र प्रदाह, प्रोत्र क्षत तथा प्रांत्रस्थ मांसा. खुद के कारण प्रांत्रावरोध होना, प्रांत्र के ऊर्ध्व भाग का अधःभाग में उतर जाना और अंग्रवद्धि में प्रांबावरोध का हो जाना प्रभृति ।
लक्षण तीब्र, श्राशुकारी, प्रांत्रांत्रप्रवेशजन्य धात्रावरोध विशेषकर छोटे बच्चों में पाया जाता है। इसके कारण बच्चों को कभी कभी प्राक्षेप होता होता है। रोगों को सस्त मलावरोध होता है. बार बार वमन अाता है, अंततः वमन में मल विसर्जित होने लगता है जो इस रोग का एक नैदानिक लक्षण है। उदरशूल होता है और उदराध्मान द्वारा वह फूलकर ढोलवत् हो जाता है। रत और श्लेष्मा मिश्रित मल निकलता, रोगी अत्यधिक कॉस्खता रहता और बलाय आदि लक्षण होते हैं । बलक्षय से बालक २४ घंटे में गत प्राय हो जाता है। यदि उल अवधि के भीतर गत प्राण न हो तो उदरककलाप्रदाह के लक्षण ( श्वास, हिक्का, तीब ज्वर, हृदय को स्वरित गति इत्यादि होते हैं। विकारी स्थल एक । उभार सा मालूम होता है। रोगी अत्यंत तड़फड़ाता है और बड़े कष्ट से प्राण निकलते हैं।
रांगविनिश्चय बाल्यकाल एवं अस्युग्र अंत्रअन्योन्यानुप्रविष्ट ।
अन्त्रअन्योन्यानप्रविष्ट की दशा में प्रागुन लक्षणों को भली प्रकार देखने से सरलतापूर्वक इसका निदान हो जाता है। परंतु कतिपय शति पुरातन दशाओं में, जो प्रौदावस्था में होता है, इसका निदान करना सर्वथा सरल नहीं। इसका सरूप चिरकारी प्रांत्रावरोध जैसा ही व्यक्त होता है। उदर को चीरकर देखने पर ही इसका वास्तविक रूप समझ में ग्रा सकता है।
चिकित्सा इस रोग में कदापि विरेचन न देना चाहिए । बल्कि प्रारम्भ में जब शूल, प्राध्मान और अधिक यल नय हो तर उष्ण जल, तेल वा तैल व पतले मंड की यम्ति देनी चाहिए अथवा धौंकनी द्वारा प्रांतों में वायु प्रविष्ट कराना या रोगी को उलटा करके बलपूर्वक हिलाना उपयोगी होता है। परंतु, जब वेदना व श्राधमान अत्यधिक हों और पल जय गुवं निर्बलता असीम हो उस समय सिवा शल्यक्रिया अर्थात् चीर फाड़की चिकित्साके
और कोई उपाय नहीं । अस्तु, जितमाशीघ्र प्रॉपरेशन किया जाए उतना ही अख्छा हो । परंतु इसे कोई दक्ष शल्यशास्त्री ही कर सकता है।
नोट-वस्तिदान काल में सेर सवासेर उष्ण जल वस्तियंत्र की नली द्वारा अंत्र में दूर तक पहुँचाना चाहिए। जल बाहर निकल पाने पर उदर को नीचे से ऊपर की ओर धीरे धीरे मलना माहिए। यदि रोगी को उलटा कर हिलाना हो तो पहिले उसको ईथर वा कोरोफॉर्म सुंघाकर विसंज्ञ कर लेना चाहिए।
पायुर्वेद के अनुसार उदावर्त रोगाधिकार में वणित चिकित्सा कुछ अंशमें. इसरोग के प्रतीकारार्थ सफलीभूत हो सकती है। श्रस्तु, खूब सोच समझ कर तदनुसार कोई औषध की व्यवस्था करने से रोगी लाभ अनुभव करता है और वह चीर फाइ के बखेड़े से बच जाता है। किंतु दत्रा का प्रबंध यथासम्भव शीघ्र ही करना चाहिए।
प्राचीन यूनानी चिकित्सकों ने चूंकि इसके वास्तविक रूप को समझने में धोखा खाया; अतएव उन्होंने इसकी चिकित्सा अवरोध जन्य
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