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असान
की तीन झिल्लियाँ - उ० । गर्भ कला, भ्रूणावर - हिं० फीटल मेम्ब्रेन्स (Foetal membranes.) डेसिडस ( Decidus. ) - ई० । ये तीन कलाएँ हैं जो जरायुस्थ भ्रूण के चारों थोर लिपटी रहती हैं। इनमें से धन को हिंदी में भ्रूण वाह्यावरण, अरबी में अनुक्रम और कोरिया ( Chorion ) और द्वितीय को क्रमशः भ्रूणान्तरावरण, नीव तथा जनित्रांन ( Amnion.) और तृतीय को क्रमशः भ्रूण मध्या वरण, लफ़ाफ़ी और ऐलनटाइस | ( Allantois. ) कहते हैं । श्रसान aghsán - ग्र० ( ० ० ) गुरुत ( ५० ब० ) शात्राएँ, दहनियाँ । आन्चेज ( Branches- ) - इं०
श्रव agha-संज्ञा पुं० [सं० ] ( 1 ) दुःख । (२) व्यसन |
श्रघनम् aghanam--सं० डी० दधि, दही - हिं० दई वं० । ( कर्ड ( Curd ) - ई० । हला० । i श्रश्रम् agham-सं० ० ( Distress )
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कष्ट | अ० सू० ६, २६, को० ८ ।
अघडांडे aghadod -ते० असा, रूस है. ( Adhatoda vasica, Ners. ), धर्म aghrmit - ० ० (not hor, cold) शीतल । श्रविषः aghavishahi-० ० सर्प, साँप (A serpent, A snake) i अघाटः aghátah--सं० पु० अपामार्ग (Achyranthes aspera Linn.) रा० श्रघाडा, -डा aghada, ra-हिं० अपामार्ग, कीवाली ( Achyranthes aspera, Linn.)
श्रप्रेरन agherau हिं संज्ञा प ं० [ देश ] औ
का मोटा थाटा |
घोड़ी-ड़ो achori, o- गु० मार्ग | अवर aghora-सं० पु० रस शास्त्र के पूर्व श्राचार्य 'शिव' | धोरसिंह ( हो ) रसः aghoranrisimha, ho, rush सं० पु० सान्निपातिक ज्वर में प्रयुक्त होने वाला रम | देखो -- घारनृसिंहरसः ।
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रेश गुटिका
ताम्र भस्त ง भा० लौह भस्म २ भा० बङ्ग करून ३ भा० श्रभ्रक भस्न ४ भा० तथा स्वर्ण भस्न १ भा०, पारद १ भा० गन्धक १ भा० शु० मैनसिल : भा० शु० त्रिष २ भा० त्रिकुटा २ भा० श्रथवा समस्त वस्तु समान भाग ले और बिन सब से द्विगुण ले इन्हें चूर्ण कर मछली, भैसा, और मोर के पित्त तथा चित्रक के रस में पृथकू २ एक २ पहर वोटे, पुनः सरसों बराबर गोलियां बनाए, धूप . में सुखा कर रक्खे, इसको जल के साथ खाने
से तेरह प्रकार के सन्निपात, विसूचिका, प्रतिसार विशेष जन्य बांसी, त्रिदशेप ज्वर, इत्यादि दूर होते हैं । इस पर दही घौर शीतल जल का पथ्य देना योग्य है ।
अघोर-मंत्रः aghora-mantrah-s० पु० ॐ द्यावोरेभ्यश्च घोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्यश्च । सर्वतः सर्वसर्वेभ्यो नमोsस्तु रुद्र रूपेभ्यः ॥ 'इस मंत्र-से रस क्रिया की सिद्धि होती हैं । भै० र० mai te: aghorastrorasal-tio पुं० शुद्ध पारा, शु० गंधक, शु० बच्छनाग, शु० हरताल, शु० संखिया, सोहागा, तांबा ( भस्म ) और शु० नीलाथोथा इन्हें समान भाग लें खरल मैं वारीक घोट रक्खें । मात्रा - १ रत्ती । गुण-यह सम्पूर्ण सन्निपातों को दूर करता है । योगेश गुटिका aghoreshagutika-स ं० स्त्री० मुरड लोह ( बीड़ लोह ) की कड़ाही में ऊपर और नीचे धान की भूसी रख कर बीच में पारा रक्वें । फिर जामुन के रस मे उस कड़ाही को पूर्ण कर १ रात तक रहने दें। प्रातःकाल जामुन रस अलग करके दिन में कड़ाही को सुखाकर फिर सायंकाल पूर्वक विधि से पारे को रख दें। फिर इसी तरह ३ रात तक उक्त नियम से पारे में भावना । फिर समान भाग चक्र मिलाकर कजली बनाएँ। फिर इसका १ गोला बनाकर धतूर के फल के भीतर रख पुटपाक करें, इसी तरह ७ पुटपाक करें। फिर उस गोले पर धतूर के गाढ़े रसका लेप चढ़ा कर भङ्ग के लुगदी में बन्द करके भङ्ग के इसमें दोला यंत्र में पकाएँ ।
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