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अडूसा
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सिंहपत्री, सुगेन्द्राणी और सिंहानन ये अडूसे के संस्कृत नाम अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं. )
बाकस, ग्रारूसा, बासक, छोटावासक, वासन्तीफुलेर गाछ - य० । हशीशतुस्सु झाल्ऋ० । बाँस, बाँसा, ख़्वाजह - का० । ऐढाटोडा वैसिका ( Adhatoda vasica, Nees. ), अडे - मैन्थेरा वैसिका ( Adenanthera vasica ), जस्टीशिया ऐडाटोडा ( Justicia adhatode, koab; Linn. ), श्रीशेकीलम इण्डिकम् ( Orocylum indicum .) -ले० । ऐडाटोडा ( Adhatoda ), मलाबार नट ट्री ( Malabar nut tree ) -- इं० । आडाटोडई, अघडोडे ता० । अड्डुसरम्, अडम्पाकु, पेद्दामानु, अडसरा, अहसर ते०, तै० । आलोटकम्--मल० | ब्राउसोगे-सम्पु, आडूसाल, श्राडूसोगे-कना० । शोणा, शोढीलमर-करना० । श्राडाटोड, पावह - लि० । मेस. म. बिहू-बर्मी । बसूटी, तोरबंजा, याशङ्ग-श्ररूप, भिक्कर- हिं० | अडुलसा मह० । श्रडुलसो, बाँस, श्रडूरसा (सो), अरसी ( शी ) -- गु० । बाइक एटरअगा- । श्राडसांगे का० । भीड़ - पं० । सीई (श्रारुप ) वर्ग A. C. Acathaceur.)
उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष के अधिकतर भाग, पंजाब और अासाम से लेकर लङ्का एवं सिङ्गापुर पर्यन्त । राजपूताना, शाहजहाँपूर, रनबीरसिंह (जमूँ, कशमीर ) प्रभृति स्थान | वानस्पतिक विवरण -- यह क्षुप जाति की वनस्पति है; परन्तु किसी किसी स्थान में इसके बहुत बड़े बड़े वृष्ठ पाए जाते हैं। शरद ऋतु में इसमें पुष्प आते हैं । प्रकाण्ड सीधा; त्वचा सम, धूसर वय शाखाएँ श्रर्द्ध सरल, स्वचा प्रकांड के सदृश किन्तु समतर; पत्र सम्मुखवर्ती, ५ से ६ इंच लम्बे और १॥ इंच चौड़े, नुकीले, जिनके दोनों पृष्ठ चिकने होते हैं, पोटिल ( Petiole ) अर्थात् पत्रवृन्त सूक्ष्म, पुष्प प्रधानाक्ष कम्बा, शाखा रहित, बालियाँ गा कक्षीय और अकेली; पुष्पडंठल ( पुष्पवृन्त ) छोटा और बड़े बड़े बन्धनियाँ |
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अडूसा
( Brackts ) से ढका होता है । पुष्प सम्मुखत्त, बड़े, श्वेत रंग के होते हैं जिनके भीतरी भाग पर रक्राभायुक्त लोहित वर्ण के होते हैं, पुष्प के दो श्री सिंह मुखाकृति के होते हैं जिनकी भीतरी पृष्ठों पर बैंगनी रंगको धारियाँ पड़ी होती हैं। बन्धनियाँ तीन, सम्मुखवत्तों और . एक पुष्पीय, तीनों में से वाह्य बन्धनी ( Brackt बड़ी, अण्डाकार, अस्पष्टतया पञ्चशिरायुक और भीतरी दो अत्यन्त छोटी होती हैं। ये सब स्थायी होती हैं। पुरा कोष (Calyx) पाँच समान भागों में विभाजित होता है; पुषश्राभ्यन्तर- कोष ( Corolla ) विस्तीर्ण श्रोष्ठीय, लघुनालिकेय, विशाल मैत्र, ऊर्ध्वं श्रोष्ट नौकाकार, जिसका मध्य भाग परिखा युक्त होता है जिसमें रति केशर स्थान पाता है, निम्न श्र चौड़ा, जिसमें तीन भाग होते रुप-केशर तन्तु लम्बा और ऊर्ध्व श्रोषीय खात के सहारे रहता है और ये संख्या में दो होते हैं ।
प्रयोगांश - पञ्चांग, चार । प्रयोगाभिप्रायश्रौषध, रङ्ग, खाद्य |
रासायनिक सङ्गठन - एक सुगन्धित उड़नशील सत्व, वसा, राल ( Resin ), एक तिक्रक्षारीय सच जिसे वासीसीन ( Vasicine) जिसे संस्कृत में वासीन वा दासकीन कह सकते हैं, एक सेन्द्रियक अम्ल (बासाउल) ऐहायोटिक एसिड ( Adhatodic Acid ), शर्करा, निर्यास, रंजक पदार्थ, और लवण । वासीन का अधिक परिमाण असे की मूल त्वचा और पत्र से प्राप्त होता है । वासीन के स्वच्छ श्वेत रखे होते हैं जो अल हॉल ( मधसार ) में सरलतापूर्वक घुल जाते हैं। ये जल में भी विलेय होते हैं । इनकी प्रतिक्रिया वारीय होती है। खनिजाम्लों के साथ यह स्फटिकवत् लवण बनाता है । अमोनिया भी किसी अंश में विद्यमान होती है।
श्रीषध निर्माण - शीत कषाय ( १० भाग जल में १ भाग ); मात्रा - १| तो० से ५ तो०; तरल सत्य; मात्रा -२ से १ रत्ती । पत्र स्वररू; ७ ॥ मा० से १ तो० ३ मा० : टिङ्कबर ( १० में १ ), मात्रा - २ मा० से ४ मा० । संयुक्त क. थ,
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