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अतिसार
श्रतिसार
अत्यन्त राहो, सूजन हो, अनिसार के उपइवयुका जिसकी गुदा पक गई हो और शरीर शीतल हो उसको वैद्य त्याग दे। और भी जी मनुष्य श्याम, शूल तथा प्यास से पीड़ित हो, बल मांस हीन हो तथा स्वर से पीडितहो उसका और विशेष कर वृह रोगी का अतीसार नाश कर
अतिसार निवृत्ति के लक्षण जिस मनुष्य के मल से भिन्न मृत्र उतर अर्थात् दोनों की क्रियाएं पृथक पृथक हों, मल अलग उतरे और मूत्र अलग, शुद्ध अपानवायु खुले, । अग्नि दीप्त और कोठा हलका हो उसको अती. सार से मुक जानना चाहिए। अतोसार को सामान्य चिकित्सा
प्रतीमारी को सुखपूर्वक शय्या पर लिटाए रखें और उसके शरीर को गरम रखें । रोगारम्भ काल से २४ घंटे पश्चात् तक उसे किसी प्रकारका ! श्राहार न दें, प्रत्युत उपवास रूप लंघन कराएँ।। यथा वाग्भट्टः
अनीसारोहि भूयिष्ठं सवत्यामाशयान्वयः हत्वाग्नि वातजेऽप्यस्मात्माक तस्मिन्लंघनं : हितम् । वा. चि० अ०६ ।
अर्थात्-अग्नि को मन्द करके अतिसार रोग प्रामाशय में उत्पन्न होता है, इसलिए यातज अतिसार में भी प्रथम उपवास रूप लंघन देना हित है। अपि शब्द से कफादि जन्य अतिसार में भी लंघन हित है । प्राक् शब्द के प्रयोग से यह समझना चाहिए कि उत्तर काल में लंघन कराना हित नहीं है ।।
अपरञ्च यदि रोगी बलवान हो तभी लंघन भी कराना चाहिए । अन्यथा दुर्बलता की दशा ! में लधु पथ्य (पाचक तथा अग्निसंदीपक ) की | व्यवस्था करनी चाहिए।
अस्तु, केवल क्वथित कर शीतल किया हुश्रा जल, फाद्दे हुए दृध का पानी तथा पत्र, अतीस, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, नेवाला, और सोंठ, | इनमें से किसी एक के साथ पकाया हुया पानी १ छ. की मात्रा में ३-३ घंटा पश्चात् रोगी को तृषा उत्पन्न होने पर देते रहें। २४ घंटे पश्चात्
सुधा लगने पर उपयुक्त भोजन काल में उसको अधोग तरल आहार २-२ छ, की मात्रा में ३-३ घंटा के अन्तर से है। हलकं अन्न से रोगी की शीन हो अन्न में रुचि बढ़ जाती है और उसकी जयराग्नि प्रदीप्त तथा देह बलिष्ट होता चला जाता है।
अतः पका कर शीतल किया हुया दुध उत्तम श्राहार है। उन दूध में ३ ग्रेन सोडियम् साइट्रेट प्रति १ ई० दृध में मिलाकर देना उपयोगी होता है। अथवा पावभर दृध में ३० बुद मधुर चूर्णादक (मीठा चूने का पानी) मिलाकर देना लाभदायक है। यदि दृध से उदराध्मान हो तो दूध के स्थान में अरारोट या सागू (साबूदाना ) पका कर दें। पुनः मूंग के दाल का पानी, दाल भात, शोरबा चावल, खिचड़ी और दूध तथा पाव रोटी प्रभति भी सकते हैं।
अतिसार रोगो को जल के स्थान में तक्र. पेया, तर्पण, सुरा और मधु यथा सात्म्य अर्थात् प्रकृति के अनुकूल व्यवहार कराएँ । पके केले को जल में भली भाँत्ति मल छान कर पुनः कित्रित मिश्री मिला कर श्राहार के स्थान में व्यवहार कराते रहना अत्युपयोगी है। उसके आहार में ग्राही, अग्निसंदीपक और पाचन प्रोपधियों का समावेश होना अत्यावश्यक है।
उक्त प्रतीकारों द्वारा जब रोग शमन हो जाए तब रोगी को क्रमशः उसके पूर्व श्राहार पर ले झाएँ । परन्तु, अधिक जल वा दुग्ध से परहेज रखें।
मीठे अनार का स्वरस थोड़ी मिश्री मिलाकर देना रोगों के बल का रक्षक एवं आमाशय की क्षोभ का नाशक है। और किसी वस्तु को न देकर केवल इसको ही देते रहना पर्याप्त है।
उपचार चिकित्सक को रोगी तथा रोग की दशा की भली प्रकार परीक्षा करने के पश्चात् खव सोच समझ कर ही किसी औषध की व्यवस्था करना उचित है। प्रारम्भ में ही किसी संग्राही घोषध को देकर तरक्षण दस्त बन्द कर देना उचित नहीं। यथा
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