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अतसी
अतसी
फरकोजर तथा हेनबरो अपने फार्माकोपिया (पृ. ८६ )में पाश्चात्य अतसी दुप के इतिहास का सारोल्लेख करते हैं और २३ वीं शताब्दि बो० सी० (मसीहसेपूर्व) में इसके उपयोगका पता देते | हैं। दोसकरोदस और प्लाइनीने लिनम् नान से इसका वर्णन किया है । गैलेस्की ( १७६७) ने चित्रकारों के उदरशूल ( Painter's colic ) तथा अन्य प्रान्त्रीय प्राप विकारों में इसके तेल के उपयोग को बड़ी प्रशंसा की है। !
अतसी के प्रभाव तथा प्रयोग . आयुर्वेद
अतसी मधुर, बलकारक, कफवातबबूक, कुछ कुछ पित्त की नाश करमे वाली और कुछ तथा वात की जीतने वाली है। रा०नि० व. १६ । धन्व०नि०।
अतसी मधुर, तिक, किग्ध तथा भारी और पाक में कटु है, उष्ण, दृष्टि को हानिकर एवं शुक्र, वात, कफ तथा पित्त की नाशक है। धन्व०नि०।
अतसी दृष्टि के लिए हानिकारक, शुक्र को नष्ट करने वाली, स्निग्ध तथा भारी और बातरक को जीतने वाली है। मद०व०१०। ।
अतसी उष्ण, तिक, वातघ्नी, कफ पित्तजनक और स्वाद्वग्ल ( मधुराम्ल ) है। राजवल्लभः।।
अतसी मधुर, तिक, स्निग्ध, भारी, पाक में कट, उष्ण, दृष्टि को हानिकारक, शुक्र तथा । वातनाशक और कफ एवं पित्त को नष्ट करने वाली है । भाव।
पाक में कटु, तिक तथा कफ वात और प्रण। को नाश करने वाली है । पृष्ठशूल, सूजन, पित्त, शुक्र और दष्टि का नाश करने वाली है । वृ० नि०र०।
अतसी तैल मधुर, पिच्छिल, वातनाशक, मदगंधि तथा कपाय है और कफ एवं कास को हरण करती है । रा०नि० २०१५।
आग्नेय, स्निग्ध, उपण तथा कफपित्तनाशक पाक में कटु, चतु को अहितकर, बल्य, वात
नाशक तथा गुरु है, मलकारक, रस में मधुर, ग्राही, स्वग्दोष एवं हृद्रोग को नष्ट करने वाली और वात प्रशमनार्थ वस्ति, पान, अभ्यङ्ग, नस्य और कण पूरण रूप से तथा अनुपान रूप से भी प्रयोजनीय है। भा० पू० तेल० ब० । __अतसी तैन उष्णवीर्य और कटुपाकी है। (गजवल्लभः)।
মরা স্বল্প तीसी का पत्ता खाँसी तथा कफ बात और श्वास तथा हृद्रोग नाश करने वाला है । वृक्ष नि. र०। | ময়দ্ধ ম স্বৰী স্কা ওয়া।
चरक-(१) फोड़ा पकाने के लिए, अलसी को जल में पीसकर उसमें किञ्चित् जब का सत्त योजित करें और अम्लवधि के साथ इसका फोड़ा पर प्रलेप करें। इससे फोड़ा पक जाएगा । (त्रि० १३ श्र०)।
(२) वातप्रधान व्रण में जो दाह और वेदनान्वित हो तिल और अलसी को भूनकर गोदुग्ध के साथ निर्वापित करें। शीतल होनेपर इसको उसी दुग्ध के साथ पीस कर फोड़ा पर प्रलेप करें। (चि. १३ अ०)
(३) पक शोथ प्रभेदन हेतु अतसी"xx उमाथ गुग्गुल: xx1"
अलसी का प्रलेप करने से फोड़ा फट जाता है। (चि०१३ अ०)।
सुश्रुत-(.) वाताधिक वातरक्त में वेदना प्रशमनार्थ अलसी को दुग्ध में पीस कर प्रलेप करें। (चि० २६०)।
(२) प्रमेह में अतसी तैल प्रमेह रोगी को सेवन कराना चाहिए, जैसे"कुसुम्भ सर्षपातसी x x स्नेहाः प्रमेहषु' (चि० ३१ अ०) मात्रा-प्राधा से १ तो० ।
वक्तव्य चरक और सुश्रत में उपनाह स्वेद (जिसे अंगरेजी में पुल्टिस कहते हैं। ) के उपादान स्वरूप अतसी व्यवहूत हुई है- "उमया
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