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प्रतिसाम्या
अनिसार
अतिसाम्या ati-samya-सं० नो० मुलेठो की
लता, काली मुख वाली गुञ्जाकी बेल | (A brus |
precatorius ) 1 970 || प्रतिसारः anti-sarah-सं० पु. । (१)पर्यटक अतितार atisira-हिं० संज्ञा पु "
-सं० । पित्तराड़ा, पापा-हि। (olden landia corymbosa) (२) स्वनाम.ख्यात उदरामय रोग । वहुदवमलनिःसारण रोग । एकरोग जिसमें मल बढ़कर उदराग्निको मंद करता हमा और शरीर के स्लों को लेता वृत्रा बार बार निकलता है। इसमें श्रामाशय की भीतरी मिनियों में शोथ हो जाने के कारण खाया हुत्रा पदार्थ नहीं हरता और अंतड़ियों में से दस्त के रूप में निकल जाता है ।
पर्याय-इसहाल-अ० । शिकम रवी, ! पा रथी-फ़ा। डायरिया Diarrhoea, डीफ्लक्सियो Defluxio, एल्वी फ्लक्सस Alvi fluxus, कैधार्सिस Catharsis, पगैंशन Purgation--इं० । दस्त, दस्त पाना, दस्त लाना, पेट चलना-हि, उ०। कोर्स डी वेण्ट्री Cours (le ventre, डीवायमेण्ट Devoyement-फ्रां। और डर्खफाल Der Dutchfall, बॉनफ्लस Bauchfluss, डुर्खलाफ Durchlauf -जर।
परिभाषा-प्रकृतिका अतिक्रमण कर गुदा मार्ग द्वारा अत्यन्त प्रवाहित होना अति(ती)सार कहलाता है।
नोट-जिस अवयव विकार द्वारा यह रोग होता है उसीके नाम से इसे अभिहित करते हैं। जैसेश्रामाशयातीसार, प्रांत्रातिसार तथा यकृदातीसार प्रभुति । इसी भाँति मल में जिस दोष की उल्व. णता होती है उसी दोष के नाम से इसे अभिधानित करते हैं। जैसे पित्तज अतिसार, कफज अतिसार तथा यातज अतिसार यादि।
डॉक्टरी नोट-जब रोग के कारण दस्त श्राएं तय डायरिया और जब विरेचन द्वारा धाएँ
तब उगे कथासिस तथा पगेंशन कहते हैं। ___ कोई कोई डॉक्टर इसकी रोगोंमें गणना न कर केवल इसको उपसर्ग मानते हैं ।
निदान भारी ( मात्रा गुरु, स्वभाव गुरु ) गुण और पाक में भारी, अत्यन्त चिकनी, अत्यन्त रूखी, अत्यन्त गर्म, अत्यन्त पतली चीजों के ख.नेसे, अति स्थूल (अति कठिन), अति शीतल, विरुद्ध ( संयोग विरुद्ध, देश विरुद्ध, समय वि. रुद्ध और मात्रा विरुद्र). अध्यशन अर्थात् एक भोजन के बिना पचे फिर भोजन करने तथा अजीर्ण और विपस भोजन करने आदि कारणों तथा स्नेह, स्वेद, वमन विरेचनादि के प्रतियोग, श्रयोग और मिथ्यायोग से, विष भक्षण, भय, शोक, दूषित जलपान, अतिशय मद्यपान, स्वभाव तथा ऋतु विपरीत और जल क्रीड़ा करने से, मल मुयादि के वेग को रोकने से तथा कृमि. दोष आदि कारणों से यह रोग उत्पन्न होता है। सु० उ०४००। मानि ।
सम्प्राप्ति शरीर के दूपित रस, रन, जल, स्वेद, मेद, और मूत्र श्रादि सम्पूर्ण जलीय धातु बढ़कर मन्दाग्नि को पैदा कर मल के साथ मिल जाते और वायु द्वारा नीचे की ओर प्रेरित होकर अधिक मात्रा में निःसत होते हैं, इसी को अतिसार कहते हैं। वैद्यक के अनुसार इसके ६ भेद हैं ।
(1) वायुजन्य, (२) पित्तजन्य, (३) कफजन्य, (४) सभिपात जन्य, (५) शोकजन्य और (६) श्रामजन्य ।
नोट-उपयुक भेदों के अतिरिक शाधर में भयजन्य अतिसार भी लिखा है। प्रस्तु, उनके मत से अतिसार सात प्रकार का हुअा ! वाग्भट्ट महोदय उक्र छः प्रकार के अतिसारों में नामजन्य की गणना न कर उसके स्थान में भयज अतिसार के वर्णन द्वारा उछः भेदों की गणना की पूर्ति करते हैं । वे पुनः कुल अतिसारों को दो भागों में बाँटते हैं। जैसे (१) साम और (२) निराम तथा एक सरल और दूसरा निरन ।
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