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अगा (गं) रिकस एल्बस
अमा (ग) रिकसगल्बस
और तिकता जले हुए पर्धिकांश के कारण होती ।
चरपरापन-(हिरात) भाग्नेयांश के कारण श्रीर।। संकोच ( कपाय, कटज) पार्थिवांश के कारण होता है। कि यह हलकी होती है, अस्तु इसमें वायव्यका अधिकता के साथ होना आवश्यक है। इसी कारण इसकी उपणता कम और रूहता . अधिक होती है। हानिका -व्याकुलता और गले में रोध उत्पन्न ! करती है। दर्पनाशक-जुन्दबेदस्तर,नाजादुग्ध,नमन कराना। प्रतिनिधि-निशोथ, इन्द्रायण का गूदा, शुगली, बसफाइज। गुण कम प्रयोग--अपनी उपणता के कारण यह ! लय कर्ता और सान्द्र (गादे) दोषों की छेदक एवं उनको रेचन करने वाली है, क्योंकि दोष त्रय (बलगम, सफा , सौदा ) को छेदन करती एवं उनको स्वच्छ करती है और कटुता ना छेदकन्त्र के अतिरिक्त तारत्य (लताफ़न) उत्पन्न करती है। अपनी उष्णता के कारण सम्पूर्ण अबरोधी को उद्घाटित करती तथा मवादमें तारल्योत्पादन । करती है। पार्थिवांश के कारण सङ्कोचक है। अपने विशेष गुण (खासियत ) से वान तानिस्तक : मलों को शुद्ध करती हैं इस कार्य में रांगोद्घाटक, छेदक, निर्मल कारिणी एवं लयकारिणी शक्ति इसकी खासियत को सहायता करती है। यह सम्पूर्ण संधिशोथों, गृध्रसो, अपस्मार, श्वास तथा रोधयुक्र रक्ताल्पता ( यौन सुद्दी) में लान प्रदान करती है । ये समग्र लाभ इसकी तारल्य जनक (तल्लीफ ), लयकारिणी तथा रोधोद्घाटिनी शक्ति के कारण होते हैं । सिकञ्जबीनके साथ यह पाहा शोथ के लिए हिरा है, क्योकि सिकंजबीन इसकी छेदक व रोधोद्घाटक शक्ति को बढ़ा देता है । इसकी पूरी मात्रा - ७ मा: है। यह अपनी रोगोद्घाटक तथा तारल्यकारी शकि कं कारण मृत्र एवं अातंत्र का प्रवर्तन करती है। : तनफी0। · विशेष प्रभाव-श्लेष्मा तथा वायु की रेचक,
मृत्र तथा पाच प्रवत्तक 'पौर रोशनाटक है।
कफज शिरथल तथा प्रर्दशीशी को लाभप्रद विशेष कर हरीतकी तथा नस्तगी के साथ, काबा. निया के साथ अपस्मार को लाभदायक है । इसका गड़प शोथ लयकर्ता तथा रक निवन को हित और रुबुस्सुस (सत्व मुलही) के साथ उरी. व्यथा की नाशक तथा श्वास काठिन्य को हित है। रेवन्दचीनी के साथ श्रामाशय तथा यकृद्रोगों की गुण दायक तथा पांडु वा प्लीहा को हित, वृक व वस्त्यश्मरी निस्सारक तथा जलोदर को गुण प्रद है । इसका प्रस्तर शोथ लयकर्ता है। मद्य के साथ इसे उपयोग करने से सर्प विषघ्न है। बु. मु.। वायुशाथ और गुल्म लयकर्ता, नाड़ी, हृदय और मस्तिष्क को बलबान करता, प्रायः विष का दर्पनाशक है। कफ ज्वर को लाभ करता है। इसका पान करना उचित नहीं है ( निधिल है परन्तु इसमें एक वस्तु नख के समान होती है, वह विष और घातक है)
डाक्टरी मतानुसार छत्रिका चूर्ण १५ ग्रेन (७॥ रत्ती ) को मात्रा में या अगारीसीन या अगारिक एविड, छत्रिका सत्य, छत्रिकाम्ल यह श्वेत स्फटिकवत् पूर्ण है। 'ग्रेन की मात्रामें यदमा रोगियोंके रात्रि स्वेदको
रोकने में अपना निश्चित प्रभाव रखता है। पहिले यह विरेचक रूप से उपयोग में प्राता था। अधिक मात्रा में यह जलवन् मल प्रवर्तन करना है, थोड़ी मात्रा में प्रापसार तथा प्रवाहिका को रोकता है तथा रक निजीवन में गुण दायक होता है । यह वायु प्रणालियों तथा स्तन विषयक स्रावी (Svetations) को (अर्थात् कास तथा स्तन्यस्त्राव को ) कम करता है । साधारण स्वेदनाव में ग्रेन की मात्रा का एक ही बार उपयोग पर्याप्त होता है परन्तु धर्माधिक्य में उतनी ही मात्रा में करने से ५ घंटा पश्चात् स्वेदावरोध अथवा उसे बढ़ा बढ़ा कर बारम्बार उपयोग होता है । पर इच्छित प्रभाव हेतु इसके उपयोग की सर्वोत्तम विधेि यह है कि इसे ( इसके सूदुक प्रभाव को रोकने के लिए)
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