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अग्नाया
अनायो agvayi-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं०]
The wifo of agní ani goless
of fire अग्नि की स्त्री स्वाहा । त्रेतायुग। अग्नाशयः ngnishayinh-सं० अग्न्याशयः । ... ( Paickas) अग्नाशयद्रव aynashaya driva-हि. पु.
अग्नाशय रस (pancreutic juice) अग्नाशय प्रदाह Ignāshaya-pradaha. हि.
नोम ग्रन्थि प्रदाह, अग्न्याशय प्रदाह, अग्नाशय; का शोथ, (Pancreantitis), इल्तिहाब बन्कर्यास, बर्म बकरास-अ० । सोज़िश :
लयलबह, लबलबह की सूजन-उ.1 अग्नाशय रसmashayau Tash-हिं०५०।
नोम रस | अग्नि रस । Pancreatic .
jilies) अग्नाशयिक प्रणालो Augashayika pran. :
ali-हिं० स्त्री० (Pancreatic duct). श्रोम ग्रयस्थ प्रणालो । मजीयुल बाकरास : -० । बाकरास या लबलबह की नाली --उ० । इस नाली द्वारा अग्नाशय रस
द्वादशांगुलांत्र में गिरता है। अग्नाशयक क्षय ॥p nashiyika-kshayaहिं० पु. ( IPancreatic phthisis) अग्न्याशय जन्य क्षय रोग । सिल्ल इन्करासी-श्र। लबलबह की सिल-30 | इस प्रकार का क्षय अग्नाशय के विकृत होकर संकुचित होजाने से । उत्पन्न होता है । इसमें भी रोगी दिन दिन निर्बल.
होता जाता है। अग्निः aghih-सं० पु. । The fire अग्नि nghi हिं० संज्ञा स्त्री० । of the
stomach,ligestive faculty.जठराग्नि, पाचनशक्कि । यह मन्द, तांदण विषम और सम भेद से चार प्रकार की होती है। यथा मनुष्य के . कफ की अधिकता से मन्दाग्नि, पित्त की अधि- कता से तीक्ष्णाग्नि, वात की अधिकता से विष माग्नि तथा तीनों दोषों की समता से समाग्नि होती है। बिषमाग्नि वातज रोगों को, तीचणाग्नि पित्तज रोगों को और मन्दाग्नि कफज रोगों को :
उत्पन्न करती है । लक्षण-समाग्नि वाले का किया हुश्रा यथोचित भोजन सम्यग् रूप से पत्र जाता है । मन्दाग्नि बाले मनुष्य का किया हुश्रा थोड़ा सा भी भोजन अच्छे प्रकार नहीं पचता
और विषमारित वाले मनुष्यका किया हुअाभोजन कभी भली प्रकार पचता और कभी नहीं पचता; तथा जिस मनुष्य को अत्यन्त किया हुआ भोजन भी सुख पूर्वक पच जाए उसको सीक्षण अम्बि कहते हैं। इन चारों प्रकार की अग्नियों में समाग्नि उत्तम है । मा० नि० अग्नि० मा० (२) पाचक, रञ्जक प्रभृति पञ्चपित्त [ देखोपित्त ] । (३) तेज पदार्थ विशेष, तेजका गोचर रूप,उष्णता,श्राग-हिं० । फायर (Fire)- नार,यरह, भातश-अ०,फा० । प्रागुनि-बं०।यह पृथ्वी, जल, वायु, श्राकाश श्रादि पंच भूती वा पंच तत्वों में से एक है । इसके संस्कृत पर्याय
वैश्वानर, वह्नि, बीतिहोत्र, धनञ्जय, कृषीटयोनि, ज्वलन, जातवेदस्, तनूनपात, . तनूनपा, यर्हि, शुष्मा, कृष्णवर्त मा, शोचिष्कता, उपर्बुध, प्राश्रयाश, प्राशयाश, वृहद्भानु, कृशानु, पावक, अनल, रोहिताश्व, वायुसखा, शिखावान्, शिखी, श्राशुशुचणि, हिरण्यरेता, हुतभुक्, हव्यभुक्, दहन, हव्यवाहन, ससार्चि, दमुना, शुक्र, चित्रभानु, विभावसु, सुचि, अप्पित्ती (अटी) वृषाकपि, जुवान्, कपिल, पिंगल, अरणि, अगिर, पाचन, विश्वप्सा, छागवाहन, कृष्णार्चि, भास्कर, जुवार, उदार्थ, वसु, शुष्म, हिमराति, तमोनुत्, सुशिखः सप्तजिह, अपपरिक, सर्वदेवमुख (ज)। अग्निताप के गुण-वात, कफ, स्तब्धता, शीत तथा कम्प नाशक, प्रामाशयकर और रक पित्त को कुपित करने वाला है। राज० भा० ।
आग्नेय द्रव्य--प्राग्नेय द्रम्य रूत, तीक्ष्ण, उष्ण, विशद (सूक्ष्म स्रोतों में जाने वाले ) और रूप गुण बहुल होते हैं। ये दाह, काति, वर्ण और पाक कारक होते हैं। बा० स०अ०६। (४) द्रव्यों का तीसरा रूप जिसे वायवीय अर्थात् गेसियस (Gaseous) कहने हैं इसे वाप्पीय
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