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अग्नि
अमिफरीरसः ( भापकासा) कहते हैं। यह हमारा प्राचीन अग्नि-(१५) वैद्यकके मससे अग्नि तीन प्रकार तेजस् सत्य है । हवा, पानी की भाप, इत्यादि । की मानी गई है-यथा-(क) भौम, जो तृण इसके उदाहरण हैं। किसी पदार्थ को जब बहुत | काष्ठ आदि के जलनेसे उत्पन्न होती है । (ख) गर्मी दी जाती है तो वह अंत में इस रूप को ! दिग्य-जो प्राकारा में बिजली से उत्पन्न होती है, धारण करता है। तेजस दम्यों में कुछ सो घरय : (ग) उदर व जठर, जो पित्त रूप से नाभि के हैं अर्थात् देख पड़ते हैं और कुछ प्राश्य, इनमें : उपर हृदयके नीचे रहकर भोजन भस्म करती है। दो विशेष गुण है, एक तो अपना इसका कोई इसी प्रकार कर्मकांड में अग्नि छः प्रकार की श्राकार नहीं होता, जैसे वर्तम में भर दीजिए ! मानी गई है । गार्हपत्य, प्राहवनीय, दक्षिलाग्नि, उसी प्रकार का हो जायगा। गीले, चौखटे । सभ्याग्नि, पावसथ्य, प्रौपासनाम्नि । इममें तिकोने आकार के धारण करने में इसे कोई कति पहिली तीन प्रधान हैं। (१६) वेद के तीन नाई नहीं होती । दूसरी बात जो इसमें पाई जाती प्रधान देवताओं (अग्नि, वायु और सूर्य) में से है वह यह है कि इसका कोई अपना परिमाण नहीं ।
एक। होता । एक हत्र की शीशी लीजिए। अभी उसमें अग्नि-बार axmi-ara-नेपा० अयार, यज्ञ छाल । गंध के परिमाणु याप्प रूप से हैं, किंतु उनका- मे मो०। परिमाल उतना ही जितनी कि शीशी में खाली अथित
जी : अनिउ ignin-कुमा० बसोटा, बक्रार । मे०
minा . प्रयोगा aare जगह है। यदि आप शीशीकी डाट खोल दीजिए।
मोर तो अभी गंध सारी कोठरी में फैल जायगी । अर्थात् अब वही परमाणु बढ़कर कोठरी के बराबर हो ।
अग्निउम् ugnium-हिं० पु. बसौटा, बझाच । गया । अतः वाप्पीय द्रव्य वे हैं जो अपना स्वयं
_ अग्निरुहा, मांसरोहिणी-सं० ।
अग्निक agnika-हिं० संज्ञा पु. कोई परिमाण या श्राकार नहीं रखने प्रत्युत्त अग्निकः agnikah स०ए० ) गोप, वीर.
(.)इन्द्र जिस पात्र में रक्खे जाते हैं उसी के प्राकार और .
बहटी । अषाढ़े पोका-वं० । an insect of परिमाल को महल कर लेते हैं । भौ० वि०।
ih bright scarlet colour (Mutella (५)चित्रका चीता (Plumbago Ze. occitlen talis) सु. मि. अाहे. ylanica, Linn.) सियो० ग्रहणी चि०।
च. ४ का । (२) चित्रक वृक्ष (Plum. विस्वाच शृत । बासू० १५ १० प्रारग्यध bago zeylanica, tinn.) वा.चि. प० । (६) अमिजार वृक्ष (agnijara) ७१०। (३) भिलावा, महासक वृत्त (Se. रा०नि० २०२३। (.) पीतबालक |
mecarpus anacardium, Linn. ) (८) केशर, Saffron (Crocuss ations : भा० ३.१ भा. ह. व.। Linm.) () पित्त (Bile), (१०) अनिकर चूर्ण agnikara-churna-हिं. अम (१)निम्बुक वा नीयू (Citrus me. पु. शरा, अनार दाना, हा, सोचर नॉन, कुडे dicin, (Gold.)। रा०मि.ब.२१ । (१२) की छाल, इनका चूर्ण अग्नि संदीपक चौर अतिस्वर्ण, मुबा (Aurum)। रा०नि०५० सार नाशक है । व्यास. यो. स। १३ । (१३) भल्लातक, भिखादों (Seme. अग्निकरो रसः agnikaro rasah-सं०५० varjus amacardium, Linn.) रा. शिंगरक को काले बैंगन के रस से ३ वार भारिस निव..। (१४) रक चित्रक, लाल करें। पुमः वन भोटा, चित्रक, पीपल की छाला, चीता ( Plunbago Rosea, Linn.): अमली और केले की जड़ इनके रसों अथवा रा.नि.व. ६ । च. ३० प्रहणी चि.।।
कार्यों की क्रम से भावमा दें । फिर उसमें मेष. कपिरथाप्टक ।
नगद (चौलाई वारदार ) श्राक, थूहर, चिर्चिटा,
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