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“અહો શ્રુતજ્ઞાન ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૩૫
'શ્રીસિદ્ધહેમચન્દ્રશબ્દાનુશાસનમ્ સ્વોપજ્ઞશબ્દમહાર્ણવન્યાસ બૃહન્યાસ અધ્યાય-૩-(૨) (૩)
કદ્રવ્ય સહાયક :
પૂજ્ય સાધ્વિજી શ્રી જયવંતાશ્રીજી મ.સા. તથા
અન્ય ઠાણાની પ્રેરણાથી શ્રી સાબરમતી જૈન આરાધના ભવન ટ્રસ્ટ સંચાલિત શ્રી અભયસાગરજી આરાધના ભવનના જ્ઞાનખાતાના ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬પ ઈ.સ. ૨૦૦૯
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* श्री विजय नेमिसूरीश्वर ग्रन्थ माला रत्नम् ६२
॥ श्राशैशवशीलशालिने श्रीनेमोशानाय नमः ॥
कुमारपाल भूपाल प्रतिबोधक सुगृहीतनामधेय, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरि भगवत्प्रणीतं ।
॥ श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासनम् ॥
[ स्वोपज्ञ तत्व प्रकाशिकाभिध वृहद्वृत्ति शब्दमहार्णवन्यास तदनुसन्धान सहितम् ]
तत्र
तृतीयाऽध्यायस्य द्वितीय-तृतीयपादौ
नम्र सूचन
इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें.
न्यासा मुसन्धामकारः संपादकश्च
जगद्गुरु शासनसम्राट् सूरिचक्रचक्रवत तपोगच्छाधिपति विविध तीर्थोद्धारक
परम पूज्याचार्यदेवेश श्रीविजयनेमिसूरीश्वर पट्टालङ्कार-व्याकरण वाचस्पति कविरत्न शास्त्रविशारद इति पदाङ्कृत श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वरः ।
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प्रकाशिका :श्री सिद्ध हेम प्रकाशन समितिः
कार्यवाहक :--
शाह नरोक्तमदास गुलाबचन्द्रः।
घाटकोपर मुबई...
श्रीविजयलावण्यसूरीश्वर
ज्ञान मन्दिर, बोटाद ( सौराष्ट्र ) गुजरात
- सरस्वती पुस्तक भण्डार प्राप्ति
रतनपोल-हाथी खाना, स्थामम् ।
अहमदाबाद (गुजरात)
वीर संवत् २५०२
नेमि सवत् २७
विक्रम संवत् २०३२
SKAR
मुल्यम १०रुप्याकाणि
प्रकाश प्रिन्टर्स, जालोरी गेट, जोधपुर ( राजस्थान )
99999999999999999999994545555
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SIDEOHENDISATISATISHEDEEWERSEMEDISHMISSINESS
प्रकाशकीय निवेदन
श्री विजय नेमिसूरीश्वर ग्रन्थ-माला में ६२ रत्न स्वरूप श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन का न्यासानुसन्धान सहित वृहवृत्ति के तृतीयाऽध्यायान्तर्गत द्वितीयपादादिज्ञान जिज्ञासु महानुभावों के समक्ष इस भाग को उपस्थापित करता हुआ अत्यन्त आनन्द को प्राप्त कर रहा है।
इसमें तृतीयाध्याय के द्वितीयपाद एवं तृतीपाद मात्र है। श्रीसिद्धहेमव्याकरण की भव्यता-विशिष्टता तथा प्रत्युपयोगिता सर्वत्र विदित है । इस प्रकरण में कहने योग्य विषय तृतीयाध्याय के प्रथम पाद को प्रापकी सेवा में उपस्थापन करते समय में ही वृहद् रूप से कहा गया है।
अग्रिम सब अध्यायों के पठन-पाठन में उपयोगार्थ शीघ्राति-शीघ्र प्रकाशन हेतु प्रयास जारी है। यत्र-तत्र नगर के प्रसिद्ध प्रेस में प्रकाशन हेतु प्रारूप दिया हुआ है। कई भाग छप चुके हैं। पञ्चम अध्याय भी जोधपुर नगर के प्रसिद्ध कुम्भट प्रेस से प्रकाशित हो चुका है।
यह तृतीय अध्याय यत्र-तत्र प्रेस में छपने पर मी अपूर्ण ही रहा जिसको हम आपके समक्ष सपित कर रहे हैं।
इसके कुछ भाग बनारस भार्गव प्रेस में कुछ भाग जोधपुर के भूतपूर्व कुम्भट प्रिण्टर्स में तथा वर्तमान यह भाग प्रकाशप्रिण्टर्स जालोरीगेटमें छपाहै । इसमें तृतीय अध्याय के प्रथम, द्वितीय व तृतीय पाद मात्र है। चतुर्थ पाद काल कवलित हो गया है। पूज्यपाद प्रकाण्डपण्डित (इस गन्थ के लेखक ) सूरीश्वरजी की दिवंगतता के कारण वाध्य होकर खण्डित प्रन्थ ही उपस्थापित किया जाता है।
इस प्रस्तुत अध्याय के भी शब्द महार्णव न्यास के सम्पूर्ण अनुसन्धान जगद्गुरु शासन-सम्राट् सूरि चक्र-चक्र वत्ति तपोगच्छाधिपति बाल-ब्रह्मचारी परमाराध्य परम-पूज्य आचार्य देवेश श्रीमद् विजय नेमिसूरिश्वरजी म. श्रीजी के पट्टालङ्कार व्याकरण वाचस्पति कविरत्न' शास्त्र विशारद साधिक सप्त लक्ष श्लोक प्रमाण नूतन संस्कृत साहित्य-सर्जक अनुपम-व्याख्यान सुधात्ति पूज्य-पाद आचार्य देव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी महाराज ने किया है ।
तृतीय अध्याय में व्याकरण के समास प्रत्यय आदि मनोरम विषय का अनुसन्धान महर्षि श्री हेमचन्द्रजी ने अति सुन्दर ढंग से लिखा है, उसी के आधार पर सुन्दर सरल रसप्रद विशाल-काय यह पुस्तक है। इसमें सूक्ष्माति सूक्ष्म विषय को सरल प्राञ्जल रीति से वर्णन और चिन्तन है।
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रचनाकार महर्षि के प्रत्येक रचना में अनेकविध ग्रन्थों का चिन्तन मनन तथा परिशीलन है इसमें प्रकाण्ड पाण्डित्य प्रतिभा का झलक है। यह किसी भी साक्षर से अविदित नहीं है।
भावी जिज्ञासुओं के बोध और उपकार की कामना से पूज्यपाद आचार्य देवजी अपने शारीरिक कमजोरी स्वास्थ्य आदि की परवाह किये बिना अनेक प्रकार शासन प्रभावना आदि शुभ कार्यों को करते हुये भी साथ २ न्यासानुसन्धान कार्य को शीघ्र परिपूर्ण करने हेतु अविरत प्रयत्न शाली रहे। इस प्रकार प्राचार्य देव श्री की अप्रमत्त ज्ञानदया प्राणी मात्र को भाव पूर्वक अभिवादन करने योग्य बनाती रही। इस प्रकार महान् बुद्धि वैभवी परमाराध्य आचार्य देव श्री के सर्वोपयोगी चिरस्थायी साहित्य के प्रकाशन करने का अमूल्य लाभ एवं ज्ञान सेवा में यत् किञ्चित् अवसर पाकर उनके विद्वान् शिष्य प्रशिष्य गण अपने को भाग्यशाली समझते हैं।
परम पूज्य आचार्य देव के सब ग्रन्थों को पाठक वर्ग और जिज्ञासु विज्ञ महानुभावों ने जो सानन्द भावपूर्वक सत्कार तथा अभिनन्दन किया है उसी प्रकार अधिकाधिक उपयोग के साथ इसको भी अभिनन्दित करेंगे एवं हृदयङ्गम करके प्रसन्न होंगे ऐसी आशा है।
परस्पराम्पह जीवादाम
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। अहँ ।
आशैशवशीलशालिने श्रीनेमीश्वराय नमो नमः | कलिकाल सर्वज्ञ - श्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीतं
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् ।
[ स्वोपज्ञतत्त्वप्रकाशिकाभिधबृहद्वृत्ति-तत्त्वप्रकाशिका - प्रकाशशब्दमहार्णवन्याससंवलितम् ]
तत्र
परस्परान्योन्येतरेतरस्याम् स्यादेर्वा पुंसि ॥३, २.१ ॥
त० प्र०—- परस्परादीनामपुंसि - स्त्रियां नपुंसके च प्रयुज्यमानानां संबन्धिनः स्यादेः स्थाने आमादेशो वा भवति । इमे सख्य परस्परां भोजयतः, परस्परं भोजयतः; आभिः सखीभिः परस्परां भोज्यते, परस्परेण भोज्यते; इमाः सख्यः 15 परस्परां प्रयच्छन्ति, परस्परस्मै प्रयच्छन्ति; इमाः परस्परां । दीनां समाहारः, ततः षष्ठी, लाघवात् सर्वत्राचार्यैः समाहारापरस्परस्माद् वा बिभ्यति, इमाः परस्परां परस्परस्य वा दरस्यैव दृष्टत्वात् तात्पर्यविशेपसूचनार्थमेव क्वचित् । यद्यपि परपरश्चान्योऽन्यश्चेतरेतरश्चेति स्मरन्ति, इमाः परस्परां परस्परस्मिन् वा स्निह्यन्ति इमे !
श० म० न्यासानुसन्धानम् - परस्परा० । परस्परा
तदनादरः
कुले परस्परां भोजयतः, परस्परं भोजयत इत्यादि । इमे विग्रहेऽन्योन्येतरेतरशब्दयोः स्वराद्यदन्तत्वमितरेतरशब्दापेक्षया 40 सख्यौ कुले वा अन्योन्यामन्योन्यं वा भोजयतः सखीभिः चान्योऽन्यशब्दस्याल्पस्वरत्वमिति तस्यैव पूर्वनिपात उचितः, 20 कुलैर्वा अन्योन्यामन्योन्येन वा भोज्यते । इमे सख्यौ कुले वा तथापि सूत्रकारनिर्देशवलात् तस्य धर्मार्थादिगणे पाठोऽनुमेयः, इतरेतरामितरेतरं वा भोजयतः; सखीभिः कुलैर्वा इतरेतरा- | समासद्वयकल्पने गौरवात्, त्रयाणामपि सहैव विवक्षितत्वेन मितरेतरेण वा भोज्यते । अपुंसीति किम् ? इमे नराः पूर्वमन्योन्येतरेतरशन्दयोर्द्वन्द्वकरणे प्रमाणाभावात्, दृश्यते च परस्परं भोजयन्ति, नरैः परस्परेण भोज्यते; नरैः परस्परस्मैपदद्रयसमासेऽपि सूत्रकृतां पूर्वनिपातनियमपरित्यागः, यथा -- 45 दीयते । "समुद्राभ्राद्धः " [ पा० सू० ४. ४. ११८. ] “ लक्षण हेत्वोः " [ पा० सू० ३.२.१२६. ] इति पाणिनिसूत्रयोः स्वराद्यदन्तत्वात्पस्वरत्वप्रयुक्तपूर्वनिपातनियमपरित्यागः पूर्वत्रा भ्रशब्दस्य स्वराद्यदन्तत्वात् पूर्वनिपातः प्राप्तोऽपरत्र हेतु शब्दस्यात्पस्वरत्वात्, अर्ध्यत्वं तु न विवक्षितुं शक्यतेऽनर्थकत्वात् । अत एव च नवीना निर्दिष्टसूत्रद्वयशैल्या पूर्वनिपातनियमानां सर्वेषाभेव क्वाचित्कत्वं मन्यन्तेः अत एव स सौष्ठवौदार्यविशेष
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[ तृतीयाध्याये द्वितीयपादः ]
अपरोऽर्थः - परस्परादीनामपुंसि प्रयुज्यमानानां संबन्धिनः स्यादेरमादेशो वा भवति । आभिः सखीभिः कुलैर्वा परस्परं परस्परेण वा भोज्यते, स्त्रीभिः कुलैर्वा परस्परं परस्परस्मै वा दीयते ।
अपरोऽर्थः——-परस्परादोनां पुंसि प्रयुज्यमानानां संबन्धिनः 30 स्यादेरम् वा भवति । एभिर्नरैः परस्परं परस्परेण वा भोज्यते,
।
एभिर्नरैः परस्परं परस्परस्मै वा दीयते । एवं च स्त्रीनपुंसकयोरमामौ द्वावादेशौ वा भवत इति त्रैरूप्यम् । इमे परस्परादयः शब्दाः स्वभावादेकत्व -पुंस्त्ववृत्तयः कर्मव्यतीहारविषयाः अस्मादेव च निर्देशात् पराऽन्येतरशब्दानां सर्वनाम्नां द्विर्वचनादि निपात्यते ॥ १ ॥
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र -१)
शालिनीम् " [ कि० अ० १ २ ] इति भारविप्रयोगे - औदार्यस्य तन्न रोचयामहे - प्रयोज्यप्रयोजकभावस्येहोभयत्र सत्त्वात्,
~~~
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परप्रयोगः समाधीयत इत्यन्यदेतत् । एते च परस्परादयो । कर्मसंज्ञायाः कर्तुं संज्ञया वाधेन कर्मत्वासंभवात्, यत्र हि प्रयोज - 40 नाखण्डाः शब्दा अपि तु परान्येतरशब्दानां द्विरुक्तानां रूप- कभिन्नः प्रयोज्यस्तत्रैव प्रयोज्यकर्तुः कर्मत्वसंभवात् । तथा च विशेषाः, तत्र कथं द्विरुक्तिः कथं वा पूर्वपदेऽपि सकारादीनां अथवा प्रथमैकवचनस्यामादेश:' इति समाधानमपि नावश्य5 श्रुतिरित्येतद् विवेचयिष्यतं सूत्रशेषे । अत्र सूत्रे पञ्च पदानि - कम्, प्रथमान्तोदाहरणाभावेन तत्रामादेशस्य सत्त्वे प्रमाणाप्रथमं पष्ठयन्तम्, तत आमिति, अमिति वा, स्यादेरिति षष्ठ्य भावात् । स्त्रियां सप्तम्यन्तमुदाहृत्य नपुंसकेऽप्युदाहरण दिसं न्तम्, वेत्यव्ययम्, ततः अपुंसि इति पुंसि इति वा तत्र 'आम्, प्रदर्शयति- इमे कुले परस्परां भोजयतः इति-अत्र विकल्प- 45 अपुंसि' इति पदच्छेदमाश्रित्य सूत्रं व्याख्यायते - परस्परा | पक्षे एकवचनान्तस्यैवोदाहरणादेकवचनस्यैवाम्भाव इति दीनामपंसि इति, अपुंसीति पर्युदासः, स च सद्ग्ग्राही, सादृश्यं । स्वमतमग्रे वक्ष्यते । अन्ये तु द्विवचनादीन्यप्युदाहरन्ति, किन्तु
च लिङ्गत्वेनैव ग्राह्यं प्रत्यासत्तेः साजात्याद् वा, तथा चापुंसीत्यस्य पुंभिन्ने तत्सदृशे लिङ्गे इत्यर्थात् पर्यवसितमर्थमाहस्त्रियां नपुंसके चेति ।
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तत्र सर्वत्र पुंवदेव रूपम्, केवलं द्वितीयायाम् - अन्योन्ये, परस्परे, इतरेतरे, अन्योन्यानि, परस्पराणि, इतरेतराणीति विशेषो नपुंसके, स्त्रियांच-न विशेषः, आपोऽभावस्येष्टत्वात् । परस्परशब्दस्योदाहरणमुक्त्वा अन्योऽन्येत र शब्दयोरप्युदाहरणमाह-इमे सख्यौ कुले वा अन्योन्यामित्यादिना । उत्तरयति-इमे पदकृत्यं पृच्छति -- अपुंसीति किमिति । नराः परस्परं भोजयन्तीत्यादिना ।
|
इमे सख्यौ परस्परां भोजयतः इति प्रथमा सखी भुक्ते तामन्या [द्वितीया] प्रेरयति, सा च भुक्ते तां प्रथमा प्रेरयती ! 15 त्येकस्यैव भुजिक्रियार्थक प्रेरणस्योभाभ्यां व्यतिहारेण सम्पादनं । प्रतीयते, तथा चत्रियाव्यतीहारे परान्येतरशब्दानां स्याद्य न्तानां यथायोगं स्त्रीनपुंसकलिङ्गानां निपातनाद् द्वित्वं, पूर्वभागस्थस्य' स्यादेः सत्त्वमोत्त्वं परान्यशब्दविषये; इतर शब्द विषये च निपातनादेव पूर्वभागस्थ विभक्तेर्लुप्, उत्तरभागस्थाया 20 विभक्ताभाव इति प्रक्रिया । अन्ये च वैयाकरणा इह । सविभक्तिकानां हित्वे कृते पूर्वपदस्थाया विभक्तेः सादेशं विदधति, इतरशब्दे च समासवद्भावं विदधति, आमादेशश्च समानः । कथञ्चिदिष्टरूपसिद्धिः कार्येति स्वमते सर्वं स्वभावादेवेत्याथत्रिष्यते । अत्र च स्त्रियामापोऽभावः, क्लीवे चान्येतर 25 शब्दयोद्वितीयैकवचने “पञ्चतोऽन्यादेः ०" [१.४. ५८. ] : इति सूत्रेण दत्वाभावश्चान्यैर्ब्रहुलग्रहणात् साधितः, स्वमते च स्वभावादेव साध्य इति आमोऽभावपक्षे पुंबदेव रूपं दृश्यते । तदाह - परस्परं भोजयतः इति । क्रमेणान्यासामपि विभक्तीनामुदाहरणान्याह आभिः सखीभिरित्यादिना । अन्ये च । रेकत्वपुंस्स्ववृत्तिभिरेव कर्मव्यतीहारः स्त्री-नपुंसकविषयोऽभि30 वैयाकरणा आमादेशी द्वितीयाया एवेत्याहुः, तथैव महाभाष्ये । धीयत इति तादृशत्वमेवैषां साधुतया स्वीकरणीयमिति भावः । समुदाहरणात् । अपरे तुदाहरणस्य दिङमात्रत्वात् सर्वविभक्ती - कर्मव्यतिहारविषयाः इति-कर्म चात्र क्रिया, तस्या व्यतीहारो नामामादेशमाहुः, अत एव भाष्ये 'न चोदाहरणमादरणीयम्' विनिमयः, विषयो येषामिति विग्रहः । एकत्ववृत्तित्वेन कर्त्रादीनां बहुत्वेऽपि तेषामेकवचनान्तत्वमेव । कैश्विश्च तन इत्युक्तम्, तस्यायमाशयः -- एतावन्त्येवोदाहरणानीत्यादरो न स्वीक्रियते, दीक्षितादिभिः 'अन्योन्यो, अन्योन्यान्' इत्यादीनाकर्तव्यः, उदाहरणस्य दिङमात्रदर्शनार्थत्वादिति । अत एवाचार्येण सर्वविभक्तीनामुदाहरणानि प्रदशितानि । केचित्- मुदाहरणात्,“अन्योन्येषां पुष्करैरामृशन्तः” इति शिशुपालवधे "आभिः सखीभिः परस्परेण भोज्यते" इत्यत्र करणे सहायें | माघकविप्रयोगः, “क्षितिनभःसुरलोकनिवासिभिः कृतनिकेतवा तृतीयायामेो जिग्, कर्त्तरि तृतीयायां विग्द्वयम्" इत्याहुः, मदृष्टपरस्पर: ।" इति भारविप्रयोगश्च यद्यपि एकवचना
'अम्' इति च्छेदपक्षमाश्रित्य सूत्रं व्याख्याति -- अपरोऽर्थः 55 इत्यादिना, तथैव चोदाह्रियते परस्परं परस्परेण वा भोज्यते इति, द्वितीयायां रूपे विशेषाभावात् तृतीयामारभ्योदाहृतम् । एवं पुंसीति च्छेदमाश्रित्य सूत्रार्थमाह-अपरोऽर्थः इति । तथा च फलितं निगमयति एवं च स्त्रीनपुंसकयोरिति- अमामयो रूपद्वयं तदभावे च शुद्धं रूपमिति त्रैरूप्यम् । स्त्रियामापोऽ- 60 भावस्य नपुंसके च दादेशाभावस्य दर्शनात् कथं तदिति शङ्कामपनुदति--इमे परस्परादयः शब्दाः इति, स्वभावादितिस्वाभाविकी हि शब्देष्वर्थाभिधानशक्तिः, यादृशेन यल्लिङ्गेन यद्वचनेन च योऽर्थोऽनादिपरम्परयाऽभिधीयते, स एव शब्दः कथं चिच्छास्त्रेणान्वाख्यायते, न तु काचिन्नवीना शक्तिर्नवीनं वा रूपं शब्दानां विधीयते, तथा चैभिः परस्परादिभिः शब्द
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तत्र हेतुं चाहु:-भोजनार्थत्वेन प्रयोज्यकर्तुः कर्मत्वं स्यादिति । तेन विग्रहेऽपि साधयितुं शक्यते तथापि क्षितिनिवासिनो नभो
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[ पाद-२, सूत्र - १ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
निवासिनः सुरलोकनिवासिनश्च स्वसमानलोकनिवासिनोऽपि उद्योते इत्थमुक्तम् - "परे तु डतरादिभ्यो विहितयोः स्वमोर
द्वित्यर्थस्य "सर्वादि" [पा० सू० १. १. २७.] सूत्रे भाष्ये 40 उक्तत्वात् 'इतरेतरम्' इत्यादी नाद्ड: प्राप्तिः, अन्योन्यमिमे ब्राह्मण्यावित्यादावपि 'क्षुदुपहन्तुं शक्यम्' इतिवत् सामान्ये नपुंसकमिति रीत्याऽन्यशब्दस्यैव द्वित्वेन टाप एवाभाव: । स्त्रीनपुंसकयोरित्यस्य तत्समानाधिकरणयोरित्यर्थ इत्याहु:" इति ।
45
परस्परं न पश्यन्तीति विस्तृतत्वस्य विवक्षितत्वात् तत्रापि बहुवचनान्तेनैव विग्रहस्य युक्तत्वात् । पुंस्त्ववृत्तित्वाच्च न स्त्रीनिमित्त आप, नवा नपुंसकत्वनिमित्त कोऽन्योऽन्येतरे - 5 तरशब्दयोर्दादेश इति तात्पर्यम् ।
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पाणिनीये च नये दीक्षितेनैतत् सर्व बाहुलकात् समाहितम्, तथा चोक्तं तेन--"दलद्वये टाबभावः क्लीबे चाविरहः स्वमोः, समासे सोरलुक् चेति सिद्धं बाहुलकात् त्रयम् ।" इति । व्याख्यातं च तेनेत्थम् - - " तथाहि - अन्योन्यं परस्परमित्यत्र दलद्वयेऽपि टापु प्राप्तः न च सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः, अन्यपरयोरसमासवद्भावात् न च द्विर्वचनमेव वृत्तिः " यां यां प्रियः प्रक्षत कातराक्षी सा साहिया" इत्यादा- | वतिप्रसङ्गात् ।। अन्योऽन्यमितरेतरमित्यत्र च " अद्द्भुतरादिभ्यः " [पा० सू० ७ १ २५.] इत्यद्ड् प्राप्तः, 'अन्योन्यसंसवामहस्त्रियामम्' 'अन्योन्याश्रयः, परस्पराक्षिसादृश्यम्, अदृष् परस्परैः' इत्यादौ सोर्लुक् च प्राप्तः, सर्व बाहुलकेन सम/धेयम् । प्रकृतवार्तिकभाष्योदाहरणं -- “ स्त्रियाम्" [पा० सू० ४. १. ३. ] इति सूत्रे अन्योन्यसंश्रयत्वे तदिति भाष्यं चात्र प्रमाणमिति" इति ।
15
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|
अस्यायमाशयः -- कृतद्विर्वचनानां नपुंसके सेरमश्च अद्ड् [ स्वमते द् ] आदेशो न भवति, सर्वादिगणे पठितानुपूर्वीकशब्दविहितस्यैव सेरमश्च तदादेशविधानात्, इह च कृतद्विर्वचनस्य शब्दान्तरत्वमेव । स्त्रियां च नापः प्राप्तिः, विशेष्यस्य ब्राह्मण्यादेः स्त्रीत्वेऽपि विशेषणभूतानामन्योन्यादिशब्दानां 50 सामान्यविवक्षया नपुंसकलिङ्गत्वात् दृश्यते च विशेषणे नपुंसकलिङ्गविवक्षा 'क्षुदुपहन्तुं शक्यम्' इत्यादिभाष्यप्रयोगे । न चैवमाम्विधायके "स्त्रीनपुंसकयोरुत्तरपदस्थाया विभक्ते - राम्भावो वक्तव्यः" इति वातिके स्त्रीनपुंसकयोरित्युक्तत्वात् स्त्रीत्वाभावे आम् न स्यादिति वाच्यम्, स्त्रीनपुंसकयोरित्यस्य स्त्रीसमानाधिकरणे नपुंसकसमानाधिकरणे चेत्यर्थाद् विशेषणे नपुंसकत्वविवक्षायामपि तस्य स्त्रीसमानाधिकरणत्वाक्षतेरिति । अन्योन्याश्रय इत्यादिसमासे पूर्व भागस्थसोरलुक् च तस्यादेश स्वरूपत्वेन ऐकार्थ्यघटितत्वाभावादिति । वस्तुतस्तुएतादृशं समाधानमप्यगतिकगतिरेवेति स्वभाववादान्नाति 60 रिच्यत इत्यवधेयम् ।
।
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अयमाशयः--"कर्मव्यतीहारे सर्वनाम्नो द्वे वाच्ये समासवच्च बहुलम्” इति वार्त्तिकं "प्रकारे गुणवचनस्य" इति सूत्रे पठश्यते, तेनान्यपरेतरशब्दानां सर्वादीनां कर्मव्यतीहारे द्विर्वचनमित्त रशब्दस्य च द्वित्वे कृते समासवद्भावो विधीयते, अन्यपरशब्दयोश्च न समासवद्भावः केवलं पूर्वपदस्थाया विभक्तेः 25 ‘सुः' [ स्वमते सिः ] आदेशो विधीयते परस्परशब्दे सत्वं च तस्य कस्कादिगणेपाठानुमानात् । तत्र स्त्रीविषये प्रयोगे उभयत्र भागे आपः प्राप्तिः, नपुंसके च- आदिष्टस्य सोः परभागे विधीयमानस्यामश्च दादेशः प्राप्तः, यत्र व समस्तः प्रयोगः, यथा——‘अन्योन्यसंसक्तम्’ 'अन्योन्याश्रयः' 'परस्पराक्षिसा -
।
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३
केचित्तु -- सर्वादेः सर्वत्र वृत्तौ पुंवदेव रूपमिति वार्तिकोक्तिमाश्रित्य द्विर्वचनस्यापि वृत्तित्वं चाश्रित्य कृतद्विर्वच - नानां स्त्री नपुंसकनिमित्तककार्याभावमाहुः, तन्न- "यां यां प्रियः प्रेक्षत कातराक्षी, सा सा हिया नम्रमुखी बभूव ।" इति शिशु- 65 पालवधे तृतीयसर्गे माघकविप्रयोगे पुंवद्भावापत्तेः । किञ्च, "अकथितं च" [पा० सू० १.४. २१.] इति सूत्रे " कारकं
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30 श्यम्' 'अदृष्टपरस्परैः' इत्यादि, तत्रान्योन्यपरस्परशब्दपूर्व- । चेद् विजानीयात् यां यां मन्येत सा भवेत्” इति भाष्यभागस्थस्य [सोः ] सेः ऐकार्थ्यं लुप् च प्राप्तः, सर्वमेतद् बाहुल- | प्रयोगेऽपि 'यां याम्' इत्यत्र पुंवद्भावापत्तिः । स्वमते च केन समाधेयमिति प्रकृतसूत्रस्थभाष्योदाहरणादिभिर्निश्चीयत "सर्वादयोऽस्यादी" [३. २. ६१.] इति सूत्रेण स्यादौ परतः इति । बाहुलकमप्यभिधानस्वाभाव्यान्नातिरिच्यत इत्यन्यैर- पुंवद्भावस्य पर्युदस्तत्वादेषा शङ्कव नोदेति । पीदृशस्थले स्वभाववाद एवाश्रीयत इत्येतदर्थं परमतमिहोपन्यस्तम् ।
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सूत्रास्पृष्टमेकत्वं पुंस्त्वं च स्वभावबलात् प्रसाध्य सूत्रस्पृष्टमर्थं सूत्रेणैव साधयति---अम्मादेव च निर्देशादिति । सर्वनाम्नामिति - सर्वेषां नाम सर्वनामेति योगार्थमाश्रित्य सर्वादीनामिह सर्वनामपदेन कथनं तेषां संज्ञोपसर्जनदशायां 75
नवीना नागेशादयश्चान्यथैव आपोऽभावादिकं समादधति न स्वभाववाद नवा बाहुलकमाश्रयन्ति । तथा हि-शेन
।
" प्रकारे गुणवचनस्य" [पा० सू० ८. १. १२. ] इति सूत्र पे प्रकृतसूत्र लम्यकार्याभावप्रतिपादनाय । द्विर्वचनादीत्यादि
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- बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलित
[पाद-२, सूत्र.१-२]
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शब्देन पूर्वभागस्थविभक्तेः सादेशः, इतरेतरशब्दे च तल्लुप्, । कुम्भसामीप्ययुतं पश्येति द्वितीया । उपकुम्भं देहीति-कुम्भतस्य समस्तत्वं वा, यत्किञ्चिदलाक्षणिक कार्य तत् सर्वं संगृ- , सामीप्ययुताय देहीति चतुर्थी । उपकुम्भस्वामीति-कुम्भसाह्यते ॥३. २. १. ॥
, मीप्ययुतस्य स्वामीति षष्ठी; ततीयासप्तम्योरग्रे विकल्पयिष्य
माणत्वादत्र नोदाहृतम् । अव्ययीभावस्येति किमिति-समास- 40 अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः । ३. २.२॥ विशेषग्रहणं किमर्थ सामान्येनाकारान्तस्य समासस्य सम्बन्धिनः ।
। स्यादेरित्यर्थ एव स्वीकार्य इति प्रश्नाशयः, अव्ययीभावस्येति 5 त० प्र०---अव्ययीभावसमासस्याकारान्तस्य संबन्धिनः
पदमपनीय तत्स्थाने समासस्येति पठनीयमिति यावत्, अन्यथा स्यादेरमित्ययमादेशो भवति, अपञ्चम्या:-पञ्चमी च
अव्ययीभावस्येत्यस्याभावेऽकारान्तात् परस्य स्यादेः, अका. वर्जयित्वा । उपकुम्भं तिष्ठति, उपकुम्भं पश्य, उपकुम्भ
रान्तसम्बन्धिनः स्यादेरिति वार्थे 'देवः, कृष्णः' इत्याद्येव 45 देहि, उपकुम्भं स्वामी। अव्ययीभावस्यति किम ? कष्ट
प्रत्युदाहृतं स्यात, 'कष्टश्रितः' इति समस्ताकारान्तप्रत्युदाश्रितः। तत्संबन्धिनः स्यादेरिति किम् ? प्रियोपकुम्भस्ति
.: हरणानुसरणं व्यर्थमेव स्यात् । श्रितादित्वादन तत्पुरुषः । प्रिष्ठति, योपकुम्भाय देहि । अत इति किम् ? अधिस्त्रि, : उपवध, उपकतं । अपञ्चम्या इति किम् । उपकुम्भात् ॥ | षष्ठी स्वीकर्तव्या-.अव्ययीभावस्याकारान्तस्य समीपे यः
" तत्सम्बन्धिनः स्यादेरिति किमिति, तथा च समीपार्थिका श०म०न्यासानुसन्धानम्-अमव्ययी। 'अव्ययीभाव
स्थादिस्तस्यामादेश इति स्वीकार्यम् , अथवा-अव्ययीभाबादत 50 स्यात.' इति पदद्वयं विशेप्यविशेषणभावापन्नम, न तु अवयवाब- इति पञ्चम्यन्त एव पाठः कार्य:-अकारान्तादव्ययीभावात यविभावसम्बन्धे षष्ठी, तथा सति वैयधिकरण्येनान्वयप्रसङ्गा- | परस्य स्यादेरमित्यर्थः कार्य इति प्रश्नाशयः । प्रियोपकुम्भा
ल्लक्ष्यासिद्धेश्च, किञ्च सम्भवति सामानाधिकरण्ये वैयधि- इति--प्रियमुपकुम्भं यस्येति अव्ययीभावोत्तरपदको बहव्रीहिः, 15
करण्यमन्याय्यमिति न्यायोऽपि सामानाधिकरण्यान्वयसाधकः, अत्र चोपकुम्भेत्यव्ययीभावात् परस्य तत्समीपस्थस्य वा तथा चात इति विशेषणमव्ययीभावस्येति विशेष्यम्, "विशेषण- | सेरमादेशः स्यादिति प्रत्युदाहरणाशयः, तत्सम्बन्धिनः' इत्यक्तौ र मन्तः"[ ७.४.११३. 1 इति न्यायसहकारेण च तदन्तार्थलाभ तु नायं सिरुपकुम्भसम्बन्धी, किन्तु प्रियोपकुम्भेति बहुव्रीहि
इत्याह---अकारान्तस्येति । स्यादेरिति पूर्वसूत्रादनुवृत्तम्, सम्बन्धीति तस्यामादेशो न भवति ।एवं--प्रियोपकुम्मायेत्य- . 20 तन्निरूपितसम्बन्ध एवाव्ययीभावस्येत्यत्र षष्ठी, तथा चाव्ययी- । त्रापि चतुर्थी नाव्ययीभावसम्बन्धिनीति न भवत्यमादेशः।
भावसंज्ञोत्तरं नामसंज्ञायां समुदायादुत्पद्यमानस्य स्यादेरमादेश: । अत इति किमिति, अयमाशयः-"अनतो लुप्" [ ३. २. ६.1 सिध्यति । अपञ्चम्याः इति पदं पृथगेव व्याख्याति-पञ्चमी. इति सूत्रेणाकारान्तभिन्नाव्ययीभावसम्बन्धिनः स्यादेर्लब वर्जयित्वेति---पञ्चम्या न भवतीत्यर्थः । वस्तुतस्त्वि है विधीयते, स च प्रकृतसूत्रात् परो विधिरित्यकारान्तभिन्ने सर्वत्र पथग व्याख्याने गौरवमिति 'अपञ्चम्याः' इति पर्युदासार्थक- स एव भविष्यतीति परिशेषादकारान्तसम्बन्धिन एव स्यादेरमेवाश्रयणीयमिति पञ्चमीभिन्नस्य स्यादेरित्यवार्थो युक्तो नेनामादेशो भविष्यतीत्यत इति व्यर्थ व्यावयाभावादिति । लाघवात : पूर्वममादेशं प्रसज्य तनिषेधापेक्षया तत्प्रसक्तेरेव । व्यावर्त्यमाह--अधिस्वीति--स्त्रियामिति---अधिस्त्रि, विभवारणस्य युक्तत्वात, "प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दुरादस्पर्शन , क्त्यर्थेऽत्राव्ययीभावः, वध्वाः समीपमिति-उपवध, कर्त: वरम" इति सिद्धान्तात, अथाप्येवं व्याख्यानं स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थं समीपमिति--उपकते. उभयत्र समीपार्थे ऽव्ययीभावः; अय
ज्ञेयम् । प्रथमात आरम्य सप्तमीपर्यन्तं विभक्तिसप्तकमध्ये । माशयः--एतत्सूत्रे 'अतः' इत्यस्य सत्त्वेऽस्य विषये परत्वाल्लु30 पञ्चम्याः प्रकृतसूत्रेण पर्युदस्तत्वात् तृतीयासप्तम्योरग्रेविकल्पे- : पोऽप्रवृत्त्यर्थमेव लुब्विधायके अनतः' इति पठ्यते, अत्र चात
नामोविधानात्पर्यवसितानां चतसृणां विभक्तीनां रूपाण्युदाह- - इत्यस्याभावेऽस्य व्यापकत्वेनैतद्विषयपरिहारस्य कर्तुमशक्यरति-उपकम्भतिष्ठतीत्यादिना, कुम्भस्य समीपमिति विग्रहे । तया तत्राप्यनत इति व्यर्थमेव, ततश्च तेनापि सामान्येन लुब्न समीपेऽव्ययीभावसमासः, अलौकिकप्रक्रियावाक्यस्थाया विभ-विधास्यते । इत्थं च द्वयोः क्वापि स्वातन्त्र्येणावकाशाभावा
क्तेस्तु “ऐकायें "[ ३.२. ८.] इति लुप्, ततः समुदायादुत्पन्न- दुभयशास्त्रप्रामाण्येनोभयमपि सर्वत्र प्रतिष्यत इत्यका35 विभक्तेरनेनामादेशः। उपकुम्भ तिष्ठतीति-कुम्भसामीप्य- रान्तस्यापि स्यादेलप स्यादनकारान्तस्याप्यमादेशः स्यादिति
युतं यत् किञ्चित् तिष्ठतीति प्रथमा। उपकुम्भ पश्येति- सर्वत्र रूपद्वयापत्तिः स्यादिति विषयव्यवस्थार्थमत्रात इत्यस्या
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[ पाद-२, सूत्र- २-४ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
।
वश्यकत्वम्, कृते चात इति निर्देशे तत्रानत इत्यस्याभावेऽ • देशो विधीयते, तथा चापञ्चम्या कृति विहाय पूर्वसूत्रं सर्वमकारान्तेऽपि तस्य प्रवृत्तिर्मा भूदित्येतदर्थं तत्राप्यनत इत्यावनुवर्त्तते, तदाह-अकारान्तस्याव्ययीभावस्येति । किं न उपवश्यकमित्युभयोर्विषयविभागः सिध्यतीति । अथवाऽत्र अत ! कुम्भमिति - - उपकुम्भमिति रूपस्यान्यविभक्तिसाधारण्येन इत्यस्याभावे “अनतो लुप्” [ ३. २. ६. ] इति सूत्रमनत इति तृतीयान्तत्वप्रतीत्यर्थं किं नः' इति पदद्रयमुपन्यस्तम्, तथा च 40 5 पर्युदासाश्रयणेनाकारान्तभिन्नस्य तत्सदृशस्य स्वरान्तस्याव्ययी - नः उपकुम्भेन कि साध्यं ? किमपि न साध्यमित्यर्थस्य विवक्षितभावस्य सम्बन्धिन एव स्यादेर्लुपं विधास्यति, व्यञ्जनान्तेषु त्वात् गम्यमानां साधनक्रियां प्रति उपकुम्भस्य करणत्वेन तस्याऽप्रवृत्त्या तेष्वस्य [ प्रकृतसूत्रस्य ] प्रवृत्तिः स्यादिति करणे तृतीयैषा, तस्याश्च पाक्षिकोऽमादेशः । अव्ययीभाव‘उपसमित्' इत्यादावप्यमादेशः स्यादित्यपि प्रत्युदाहर्तुं शक्यते स्येत्यनुवृत्त्या तृतीयायास्तत्सम्बन्धित्वं दिज्ञ. यते, तस्य प्रयोजनं अपचम्या इति किमिति-अव्ययीभाव स्याव्ययार्थप्राधान्येना- स्फोरयति - तत्सम्बन्धिन्यास्तृतीयाया इति किमिति । पूर्व- 45 व्यये च कारक-संख्यादिसम्बन्धासम्भवात् पदत्वार्थं प्रथमैक- सूत्रवत् यत्राव्ययीभावस्यान्यसमासान्तः पातित्वं तत्र तृतीयायाः वचनस्य ततः प्राप्तावप्यन्यासां विभक्तीनां तत उत्पत्त्यसम्भ समुदायसम्बन्धिन्या व्यावर्त्तनाय तदावश्यकमित्याह-किं नः वात् पञ्चमीवर्जनमनर्थकमिति भावः । उपकुम्भादिति । प्रियोपकुम्भेनेति प्रियमुपकुम्भमस्य तेन तथा ॥। ३. २. ३.॥ अयमाशयः -- अव्ययीभावस्याव्ययार्थप्राधान्येऽपि शब्दशक्तिस्वाभाव्यादव्ययीभावेनाभिधीयमानोऽव्ययार्थः कारकसंख्या- । योगी भवतीति विज्ञायते, अत्र चात्रत्यम् 'अपञ्चम्याः' इति, "वा तृतीयायाः " [ ३. २. ३. ] “ सप्तम्या वा " [ ३.२.४.] इति सूत्रद्वयं च मानम्, ततश्चाव्ययीभावात् पञ्चम्यपि भविष्यत्येवेति तस्या अमादेशाभावार्थमपञ्चम्या इत्या वश्यकमेव ।
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श०म० न्यासानुसन्धानम्-- वा तृ० । पूर्वसूत्रेण तृतीयाया अवर्जनात् तस्या नित्यममादेशे प्राप्तेऽनेन पाक्षिको मा
केचित् तु — अव्ययीभावस्याव्ययसंज्ञामारभन्ते, तेनाव्ययेभ्यः परस्य स्यादेर्लुब्विधायक सूत्रेणैवाव्ययीभावादपि परस्य स्यादेर्लुव् विधीयते, प्रकृतसूत्रे च निषेधोऽपि पठ्यते, योगविभागश्च क्रियते, पूर्वेण योगेनाकारान्तादव्ययीभावात् परस्य स्यादेर्लुब् निषिध्यते, परेण च पञ्चमीवजितस्यादेरमा -
स्वमते चाव्ययत्वमव्ययीभावस्येष्टमेव नहि, लुप् चानतो विधीयत इति सर्वमनवद्यम् । एवं चोपकुम्भादित्यादी पञ्चम्या अमादेशाभावार्थं प्रकृतसूत्रे पञ्चमी परिवर्जनमावश्यकमेव
25 देशो विधीयत इत्यमादेशाभावेऽपि पञ्चम्या लुब् न भवति । । भावस्यातोऽपञ्चम्या:" [ ३. २. ३. ] इति सूत्रापवाद एव, तेन नित्यं प्राप्तस्यामो विकल्पविधानार्थत्वात् । तत्र पूर्वसूत्र (0 एव " तृतीया सप्तम्योर्वा" इति सह निर्देशे कर्त्तव्ये योगविभागस्य प्रयोजनं किमिति शङ्कामपनुदति-- योगविभाग उत्तरार्थः इति-- उत्तरसूत्रे केवलं सप्तम्याः सम्बन्धो यथा स्यादित्येतदर्थं पृथक् सूत्रकरणमिति भावः, अन्यथा एकयोगनिर्दिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः इति न्यायेन तृतीयासप्तम्योरुभयोरेव तत्र सम्बन्धः स्यात् स चानिष्टः । यद्यपि लक्ष्यानुरोधात् क्वचिदेकदेशानुवृत्तिरपि स्वीकृता, अतोऽन्यैस्तावन्मात्रे स्वरितत्वं प्रतिज्ञातं तथा च क्वचिदेकदेशोऽप्यनुवर्त्तते
॥। ३. २. २. ॥
वा तृतीयायाः । ३. २.३ ॥
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त० प्र०--अकारान्तस्याव्ययीभावस्य संबन्धिन्यास्तृतीयाया: स्थाने वा अम् भवति । किं न उपकुम्भम्, किं न उपकुम्भेन । तत्संबधिन्यास्तृतीयाया इति किम् ? किं नः प्रियोपकुम्भेन ॥ ३ ॥
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५
सप्तम्या वा । ३.२.४ ।।
त० प्र०--अकारान्तस्याव्ययीभावस्य संबन्धिन्याः सप्त- 50 म्या अमादेशो भवति वा । उपकुम्भं निषेहि, उपकुम्भे निधेहि । तत्संबन्धिन्याः सप्तम्या इति किम् ? प्रियोपकुम्भे निधेहि । योगविभाग उत्तरार्थः ॥ ४ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - सप्त० । उपकुम्भं निधेहीति -- कुम्भसमीपे निधेहीत्यर्थः, अमोऽभावे च उपकुम्भे 55 निधेहीति । पृच्छति तत्सम्बन्धिन्याः सप्तम्या इति किमिति प्रत्युदाहरणमुखेनोत्तरयति--प्रियोपकुम्भे निधेहीति - प्रियमुपकुम्भमस्य तस्मिंस्तथा । पूर्वसूत्रवदिदमपि " अमव्ययी -
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.
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।
इति न्यायान्तरमपि स्वीकृतम्, तथापि एकदेशे स्वरितत्वप्रतिज्ञा, तद्बोधनाय तथा व्याख्यानमित्यादिक्लेशापनोदाय पृथक् सूत्रमेव 70 कृतं व्याख्यानाद् वरं करणम्' इति सिद्धान्तात् ।।३.२.४.।।
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बृहद्वृत्ति-हबृन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र.५]
ऋद्ध-नदी-वंश्यस्य । ३.२.५॥
संज्ञायामव्ययीभावः । द्वे यमुने इति--समाहृते इति शेषः,
इदं च समासार्थदर्शकं लौकिकं वाक्यम्, न तु प्रकृतप्रयोगार्थत० प्र०--ऋद्ध-समृद्धम्, यस्य समृद्धिः सुशब्दादिना
परिचायक, प्रयोगस्य सप्तम्यर्थप्राधान्यात् । तथा च प्रयोगार्थ- 40 घोत्यते तदन्तस्य, नद्यन्तस्य, बंश्यान्तस्य चाकारान्तस्या
परिचयाथ तत्रेति पदमपि देयम् , द्वियमुनमिति च "संख्या व्ययीभावस्य सम्बन्धिन्याः सप्तम्याः स्थानेऽमादेशो भवति।
| समाहारे" [३.१.२८.] इति समाहारेऽव्ययीभावः, एवमुत्तरत्र, 5 ऋद्ध-मगधानां समृद्धिः-सुमगधं वसति, सुमद्रं वसति। अतिदिशति-एवमिति । सप्त गोदावर्यः समाहृताः-सप्तगोनवी-उन्मत्तागङ्गा यस्मिन्नन्मत्तगङ्गं देश वसति, एवं-लोहित
दावरम् । वंश्यसमासमुदाहर्तुमाह-वंश्येति, एकविंशतिगङ्ग शनैर्गङ्गं तूष्णींगङ्ग वसति; द्वे यमुने-द्वियमुनं वसति, ।,
'र्भारद्वाजा इति विग्रहः, यद्यपि भरद्वाजशब्दो बिदादिपठितः, 45 एवं-सप्तगोदावरम् । वंश्य-एकविंशतिर्भारद्वाजा वंश्याः
ततश्चापत्यार्थे विहितस्यानो “यअञोऽश्यापर्णान्तगोपएकविंशतिभारद्वाजं वसति, एवं-त्रिपञ्चाशद्गौतमम्, त्रिको
वनादेः" [ ६. १. १२६.] इति बहुत्वे लुप् स्यादिति 'एक10 शलम् । प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणादिह न भवति-उपगङ्ग,
विशतिर्भरद्वाजाः' इति विग्रहो यक्तः,तथाप्याचार्यवचनप्रामाउपयमुने। पूर्वेण तु विकल्पो भवत्येव, नित्यार्थ वचनम् !
ण्याद् भरद्वाजशब्दस्योपकादिषु पाउं परिकल्प्य लुपो वैकल्पि| कत्वमेष्टव्यम् । केचित् तु--"प्रकृतदोषपरिहारायापत्यार्थं 50
परित्यज्येदमर्थे तस्येदमित्यण्" इत्याहुः, तन्न युक्तम्-वंश्यत्वश०म० न्यासानुसन्धानम्--ऋद्ध ऋद्धपदेन
- विज्ञानायापत्यार्थमुच्चार्येव व्युत्पत्तेरावश्यकत्वात् । कैयटेन "विभक्तिसमीपसमृद्धि ०" [ ३. १. ३९. ] इति सूत्रोक्त- । - समद्धयर्थे विहिताव्ययीभावस्य ग्रहणं व्याख्यानादित्याह--
च--"तृतीया-सप्तम्योर्बहुलम्" [पा० सू० २.४.८४.] इति 'ऋद्धं समृद्धमिति । समृद्धं च समद्धयर्थयोगि, स चार्थः कथं सूत्र--"सप्तम्या ऋद्धनदीसमाससंख्यावयवेभ्यो नित्यम" प्रतीयत इति द्योतनायाह-यस्य समृद्धिरित्यादिना । सु
इत वार्तिक-भाष्योदाहरणम्--'एकविंशतिभारद्वाजम्' इति 55 शब्दादिनेत्यत्रादिशब्द: प्रकारे, सुशब्दसदृशसमृद्धयर्थबोधक
व्याचक्षाणेन "एकविंशतिर्भरद्वाजा वंश्या इति "संख्या शब्देनेत्यर्थः । तथा च क्वचिदन्यशब्देनापि तदर्थबोधने भवति
वंश्येन" [पा० सू० २. १. १८.] इति समासः । तत्र प्रकृतसूत्रप्रवत्तिः, यद्यप्यन्यस्तादशोऽव्ययशब्दो नोपलभ्यते । वत्तिपदानां स्वार्थीपसर्जनार्थान्तराभिधायित्वाद गौतमतथापि शब्दस्वभावस्यापरिच्छेद्यत्वादित्थमक्तिः । समगध-! भारद्वाजशब्दयोरकत्वविशिष्टऽर्थान्तरे सङक्रमाल्लगभावः" मित्यादौ मगधानां समृद्धिः सुशब्देन द्योत्यत इति स समासो । इत्युक्तम् । नागेशन चनद्वयाख्यानसमये उद्योते.-'एकविंशतिऋद्धान्तो विज्ञायत इति तत्त्वम् । नद्यन्तस्येति--"नदी- । भरद्वाजाः' इत्यनयोः स्वार्थोपसर्जनवंश्या इत्यर्थाभिधायित्वाभिर्नाम्नि" ।३.१.२७. 1 इत्यादिसूत्रविहितसमासस्येति | दित्यर्थः । एवं हि अङ्गानतिक्रान्तोऽत्यङ्ग इति न सिध्येत : भाव: । वंश्यान्तस्येति--"वश्येन पूर्वार्थ" [३. १. २९.1
तस्मात् भाष्यकारप्रयोगादत्र लुगभाव इति हरदत्तः । इति सूत्रविहितसमासस्येति भावः । पूर्वसूत्रेण सप्तम्या युक्ततरं चैतत्, अन्यथा बिदानामपत्यं बैद इति सिद्धयर्थ विकल्पेनामादेशः प्राप्तः, एषु च समासेषु सप्तम्या नित्य
"तद्राज." [पा० सू०२.४. ६२. सूत्रे उक्तवासिक-भाष्या- 65 ममादेशो विधीयते । क्रमेणोदाहर्तुमनाः पूर्वमृद्धसमासमुदा- । सङ्गत्यापत्तिः । एतद्भाष्यप्रामाण्यादिमौ उपकादिषु बोध्या30 हर्तुमाह-ऋद्धति, मगधानां समृद्धि:---सुमगधमिति, मद्राणां | विति बोध्यमिति।।
समृद्धि:--सुमद्रमिति, सप्तम्यन्तताविज्ञानाय वसतीति । अयमाशय:--कयटेन विग्रहवाक्ये 'भरद्वाजाः' इत्येव पदं प्रयुक्तं वासस्याधिकरणापेक्षत्वात् । नदीमुदाहर्तुमाह--- | प्रयुक्तम्, प्रयोगे च भारद्वाजशब्दो भाष्ये पठितः, तत्र नदीति, उन्मत्ता गङ्गा यस्मिन् इति विग्रहः, उन्मत्तगङ्गमिति । वत्तिपदयोः समासे गुणीभूतत्वेन समासार्थ प्रत्युपसर्जनीभावा- 70 च समासः, उन्मत्तगङ्गायुतस्य कस्यचिन्नेदं विशेषणमपितू । देकत्वविशिष्टेऽर्थ एव पर्यवसानमिति समासे सति भारद्वाजदेशविशेषस्य संज्ञेत्याह-देशे इति, सप्तमीज्ञापनाय वसतीति, । स्यैकत्वार्थ विशिष्टतया बहुत्वविनिवत्तेबहत्त्वनिमित्तो लब एवमत्तरत्रिके,लोहिता गङ्गा यत्रेति-लोहितगडमिति, मन्दा । विनिवर्तते। एषैव रीतिस्त्रिपञ्चाशदगौतममित्यत्रापि । गङ्गा यत्रेति-शनगङ्गमिति, अशब्दायमाना गङ्गा यत्रेति- नागेशेन वैतादृशार्थस्वीकारेऽनुपपत्तिःप्रदशिता, तस्यायतूष्णींगङ्गमिति, एषु “नदीभिर्नाम्नि" [ ३. १. २७. ] इति । माशय:-एवमन्यपदार्थप्राधान्ये स्वार्थबहुत्वनिवृत्ती स्वीकृता. 75
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[पाद-२, सूत्र-६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
याम् ‘अङ्गानतिक्रान्तोऽत्यङ्ग' इति प्रयोगो न सिध्येत् । अङ्गा । अनतो लप। ३. २.६ ॥ इत्यत्रापि हि बहुत्वनिमित्तक एवापत्यार्थस्य लुब् भवति, तच्च बहुत्वमतिक्रमणकर्तुरेकत्वेन तत्प्राधान्यान्निवृत्तमिति तन्नि- त० प्र०---अकारान्तं वर्जयित्वाऽन्यस्याव्ययीभावस्य
मित्ते प्रत्ययलुपि निवृत्ते सति अत्याङ्ग इति प्रयोगः स्यात् । संबन्धिनः स्यादेर्लब भवति । स्त्रीष-अधिस्त्रि, उपवधु, 5 सच भाष्यकृतामनिष्टः, स्पष्टं चेदं “तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रि- उपकर्तृ । अनत इति किम् ? उपकुम्भात, उपकुम्भाभ्याम, 40
याम" [पा सू०२.४. ६२.] इति सूत्रे महाभाष्ये । तस्माद् उपकुम्भेभ्यः, उपकुम्भेन, उपकुम्भे । तत्संबन्धिविज्ञानादिह भाष्यकार प्रयोगादेवान प्रत्ययस्य लब नेति हरदत्तोक्तमेवा- न भवति-प्रियोपवधुः, अत्युपवधः ॥ ६ ॥ दरणीयम् । तथा च सति बिदानामपत्यं बैद इति सिद्धयर्थ "तद्राज [पा० २०२. ४. ६२.] सूत्रे “गोत्रस्य बहुषु लोपिन
श० म०न्यासानुसन्धानम्-अनतो। 'अनतः' इति 10 बहुवचनान्तस्य प्रवृत्तौ द्वयंकयारलुक्” इति वात्तिक यदुक्त । पर्यदासः, सच पूर्वतोऽनवत्तस्याव्ययीभावस्येत्यस्य विशेषणम, तस्याप्यसङ्कत्यापत्तिः । अनेन वात्तिकेन हि बिदानामपत्यं
अत इत्यस्य विशेषणकोटिप्रविष्टत्वेन तदन्तपरत्वमित्यकारान्ता- 45 बंद इति सिद्धयर्थं प्रत्ययस्यालुक् चोद्यते, [ भाप्यकृता च
| र्थत्वम्, नत्रश्च वर्जनमर्थ इत्याह--अकारान्तं वर्जयित्वेति । सोऽर्थोऽन्यथा साध्यत इत्यत्यदेतत् ] तच्च कैयटोक्तरीत्या
तद्वर्जने च तत्सदृशस्यान्यस्य ग्रहणं * नजिवयुक्तमन्यसदृशाव्यर्थमेव स्यात् , यतोऽपत्यस्यैकत्वेन तस्यैव च प्राधान्येन पूर्व
धिकरणे * इति न्यायलभ्यमेवेति, तदाह--अन्यस्येति, तथा 15 बहुत्वनिवृत्तौ लुकः प्राप्ति रेव नेत्यलुम्वचनमनर्थकमेव, तस्माद् ।
नयकमवा तस्माद चाकारान्तस्य सम्बन्धिनः स्यादेलब न भवति, तदन्यस्य सर्वस्य यथा विग्रहवाक्ये लप विधीयते तर्थव समासे कृतेऽपि तस्य ! भवतीति फलति । स्त्रीय इति विग्रहः, अधिस्त्रि इति विभक्त्य- .. स्थितिः स्यादेवेति प्रकृतभाष्यप्रयोगप्रामाण्येन भरद्वाजगोतम
जगातम । र्थेऽव्ययीभावः, तत्सम्बन्धिनः स्यादेर्लप । वध्वा: समीपमिति शब्दयोरुपकादिगणे पाठः कल्पनीयः, येन "वोपकादेः" [६.१.
--उपवधु इति समीपेऽव्ययीभावः, तथैव उपकत इत्यपि । १३०.] इति विकल्पेन लुकि भरद्वाजा भारद्वाजा इति प्रयोग- |
अन्त इति किभिति, अयमाशय:--अदन्ताव्ययीभावसम्बan दयमपि सिध्येदिति । एतदेव स्वमतेऽपि स्वीकतंयमित्युक्तं धिनः स्यादेरमादेशः "अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्याः" [३. प्रागेवेत्यपत्यस्येदमर्थतया विवक्षणं नाश्रयणीयम्। एकविंशा
१. २.] इति सूत्रेण विहितः, तत्सामोच्च तद्विषये लुपः भारद्वाजमिति च "वश्येन पूर्वार्थ" [३. १. २९.] इत्यव्ययी
प्रवृत्तिरेव न भविष्यतीत्यनत इति वर्जनमनावश्यकमेवेति । भावः । अतिदिशति--एवमिति, त्रिपञ्चाशद् गौतमा वंश्या
व्यावर्त्यमाह--उपकुम्भादित्यादिना, अयमाशयः--यत्राइति-त्रिपञ्चाशदगौतमम, त्रयः कौशला वश्या इति
मादेशप्रवृत्तिनित्या तत्र तद्विधानसामर्थ्याल्लुपोऽप्रवृत्तिरस्तु, 25 त्रिकोशलमिति ।
यत्र चामादेशो न भवति, यत्र वा विकल्पेन भवति तत्र लुपः प्रकृतसूत्रे च नदीशब्दमुच्चार्य विहितस्यैव समासस्य नदी- प्रवृत्ती बाधकाभावात् 'उपकुम्भात्' इत्यादि रूपं न स्यादिति . शब्देन ग्रहणं * लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रह
'अनत' इति वर्जनमावश्यकमेव । अत एव पञ्चम्यन्तणम इति न्यायादित्याह--प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणादिह
तृतीयान्तसप्तम्यन्तान्येव प्रत्युदाहृतानि । तत्सम्बन्धिविज्ञानेति-प्रतिपदोक्तत्वं च तच्छब्दोच्चारणेन विहितत्वम, उन्मत्त
दिति--अकारान्तभिन्नाव्ययीभावसम्बन्धित्वविज्ञानाद् यत्रात्य30 गङ्गमित्यादौ हि “नदीभिर्नाम्नि" [३. १. २७.] इति विहितः
समासघटकत्वमव्ययीभावस्य तत्सम्बन्धिनः स्यादेनं भवतीति समासो नदीशब्दमुच्चार्यव, 'उपगङ्ग इत्यादौ च समीपार्थे
भावः। तथा च तत्र यथायथं स्यादिः श्रूयत एवेत्याह-प्रियोप"विभक्तिसमीप." [३. १. ३९.] इति समासः, स च न नदी- । वधुरित्यादि । प्रियमुपवधु यस्येति--प्रियोपवधुरिति बहुशब्दोच्चारणेनेति लाक्षणिकत्वादिह न गृह्यत इति न नित्य- व्रीहिः, वधूसामीप्याभिलाषीति तदर्थः । अतिक्रान्त उपवधु
ममादेशोऽपि तु विकल्पेनैव, तदाह-पूर्वेण विकल्पो भवत्ये- इति-अत्युपवधुरिति तत्पुरुषः, वधूसामीप्यातिक्रमणकर्ता 35 वेति । पूर्वेण सिद्धिमाशङ्कधाह--नित्यार्थवचनमिति, एत- । विरक्त इति तदर्थः ।। ३. २. ६.।।
दुक्तं प्रागेव ।।३. २. ५. ॥
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बृहबृत्ति-बृहन्न्याससंवलित
[ पाद-२, सूत्र.७]
अव्ययस्य। ३.२.७॥
भविष्यत्यनुपदमेव । कृत्वेति---"क्त्वातुमम्" [ १. १. ३५.]
इत्यव्ययसंज्ञा, भोज भोजमित्यत्रापि तेनैव । ततः, तत्रेतित० प्र०--अव्ययसंबन्धिनः स्यादेलूप भवति । स्वः,
। “अधण्तस्वाद्याशसः" [ १. १. ३२. ] इत्यव्ययसंज्ञा । कथप्रातः, उच्चैः, परमोच्चैः, कृत्वा, भोज भोज व्रजति, ततः,
मिति--"विभक्तिथमन्त०"[ १. १. ३३. ] इत्यव्ययसंज्ञा । 40 तत्र, कथं, ब्राह्मणवत्, पचतितराम, द्विधा, अस्ति । तत्संबन्धिविज्ञानादिह न भवति-अतिस्वरः, अत्यच्चसः । अत एव । ब्राह्मणवत्, पचतितरामिति--"वत्तस्थाम" [१.१.३४.1 लढविधानादत्र्ययेन्यः स्यादयोऽनमीयन्ते, ततश्च 'अथो स्वस्ते इत्यव्ययसज्ञा । द्विधति--"अधण्तस्वाद्याशसः" १.१.३२.] गहम, अथोच्चम गहम' इत्यादौ "सपर्वात प्रथमान्ताद वा" । इत्यव्ययत्वम्। अस्ताति--"विभक्ति०" [ १. १. ३३. 1
_1 इत्यव्ययसंज्ञा । तत्सम्बन्धिविज्ञानादिति---तत्पदमिह मुख्य[२.१.३२.1 इति विकल्पेन 'ते में आदेशो, पदसंज्ञा च .
। तत्परमित्यव्ययार्थस्योपसर्जनत्वं यत्र तत्र तत्त्वमेव नास्तीति 45 सिद्धा भवति ॥ ७ ॥
कुतस्तत्सम्बन्धित्वमिति तादृशस्थले न भवति लुप्,क्वेत्याह--
हो ! अतिस्वरः इति--स्वरतिक्रान्ता इत्यर्थः । अत्युच्चैसः इति10 श०म०न्यासानुसन्धानम् --अव्ययस्य। "स्वरादयोऽव्ययम्" [१. १. ३०.] इत्यादिसूत्रैः स्वरादिगणपठिताना, उच्चरतिक्रान्ता इत्यर्थः । तथा चात्रातिक्रमणकर्त: प्राधा
न्येनातिस्वरादीनां सत्त्वप्राधान्याल्लिङ्गसंख्यायोगित्वेन चादीनामन्येषां चाव्ययसंज्ञोक्ता, त एवेहाव्ययशब्देन ,
पूर्वोक्तरूपेणाव्ययत्वं नास्तीति तत्सम्बन्धिनः स्यादेव्यिय- En तत्सम्बन्धिनः स्यादेरनेन लुब् विधीयते । 'स्वः, प्रात
सम्बन्धित्वमिति लुप् न भवति । अत्रेदं शङ्कयते--उच्चैःइति स्वरादिपठिताः । परमोच्चैरिति--तदन्तस्याप्यव्यय
शब्दस्याधिकरणशक्तिप्रधानत्वेन कर्मत्वायोगादतिक्रमण15 संज्ञा भवतीति परमोच्चरित्यस्याप्यव्ययत्वम् । न च गण
कर्मत्वेन विग्रहवाक्ये तस्य कथं समावेश इति, सत्यम्---शक्तिपठितानपूर्वीकभिन्नानां कथमव्ययसंज्ञा, “विशेषणमन्तः"
। प्रधानान्यव्ययानि वृत्तिविषये शक्तिमत्प्रधानानि क्वचिद १७.४. ११३.] इति परिभाषयाऽपि न सिद्धिः विशेष्यानिर्देशा-।
भवन्तीति स्वीकारादुच्चस्त्ववद्रव्यपरत्वमुच्चैःशब्दस्यति दिति वाच्यम्, शब्दस्वरूपं विशेष्यमध्याहृत्य तत्सिद्धेः।।
'। तस्य कर्मत्वसंभवात् । नन्वव्ययानां संख्या-कारकसम्बन्धाभावकिञ्चाव्ययमिति महासंज्ञाकरणेनापि तदन्तविधिरिति विज्ञा-'
1- स्याव्ययमिति महासंज्ञया सूचितत्वेनैकत्वादिविशिष्टकर्तत्वा20 यते, यतो 'लध्वर्थं हि संज्ञाकरणम्' इति सिद्धान्ताद '' 'द्रि' :
न्तिा दुद्र । दिवोधिकानां स्यादिविभक्तीनां तत उत्पत्तेरेवाभावेन प्रकृतइत्यादिसंज्ञावदेकाक्षरैव काचित् संज्ञा स्वरादीनां विधया, । सत्रेण स्यादेलब्विधानं व्यर्थमेवेति चेदत्राह-अत एव लडिवमहती चेयमव्ययसंज्ञा विधीयते, ततश्च तस्या अन्वर्थसंज्ञात्वं । धानादिति--आचार्येण स्यादे बनेन सूत्रेण विधीयते, न च 60 विज्ञास्यते । अव्ययशब्दार्थश्च
स्याद्युत्पत्ति विना लुब्विधानमुपपद्यत इत्यनुपपन्नं लुबिधान"सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु ! मव्ययेभ्यः स्याद्युत्पत्तिमाक्षिपतीति भावः । ननु एवं स्याधु
वचनेषु च सर्वेषु, यन्न व्येति तदव्ययम् ॥” इति कारि- | त्पत्ति कल्पयित्वा तस्य लुम्विधानं व्यर्थ क्वचिदपि तस्य श्रवकया प्रदर्शितः, तत्र चतुर्थचरणेनाव्ययपदव्युत्पत्तिरुक्ता-न। णाभावादिति चेदवाह-ततश्चाथो स्वस्ते गृहम , अथोच्चमें .. व्येति-विविधं विकारं न गच्छतीति सत्त्वधर्माणां लिङ्गसंख्या- गृहमिति, अयमाशय:-मास्तु क्वचित् स्यादीनां श्रवणं तथापि दीनामभावस्तत्र सूच्यते; तथैव शेषेण चरणत्रयेण तद्वयाख्या- प्रत्यय लक्षणेन स्यादिनिमित्तकं पदत्वं तथा प्रथमान्तनम्, ततश्च तादृशो योगार्थवत एव स्वरादेरव्ययसंज्ञेति महा- । स्वादिकं तत्र विज्ञायत इति "सपूर्वात् प्रथमान्ताद वा" [२.१. संज्ञया सूचितम् । एतादृशं सूचनं चोपसर्जनभूतानां संज्ञा- ; ३२. इति सूत्रण प्रकृत
३२.इति सूत्रेण प्रकृतप्रयोगे स्वःशब्दोच्चैःशब्दयोः प्रथमान्त30
भूतानां च निवृत्त्यर्थम्, तत्रोपसर्जनत्वं च पदान्तरसम्बन्धं विना त्वेन ग्रहणाद् विकल्पेन 'ते मे' आदेशी भवतः, पदत्वं च तस्य न संभाव्यते, पदान्तरसम्बन्धे चानपभेदः सतरामिति । भवतीत्यपद न प्रयुञ्जतिति निषधातिक्रमश्च न भवतीति। तद्वयावृत्त्यर्थं क्रियमाणा महासंज्ञा तदन्तस्यापि संज्ञा ज्ञापयतीति महाभाष्ये चान्यथापि स्वाद्युत्पत्तिः साधिता। तथाहि
परमोच्चरित्यादौ यत्राव्ययार्थस्यैव प्राधान्यं तत्राव्ययलक्षण- | "अव्ययादाप्सुपः” पा.सू.२.४.८२.] इति सूत्रेऽव्ययाद् विहित26 सत्त्वे बाधकाभावाद् भवत्येवाव्ययसंज्ञेति तत्सम्बन्धिनः स्यादे- । स्यापः सुपः[ स्यादेः च लुब्विधायके शङ्गितम्-"अव्यया
रनेन लबपि भवत्येव, यत्र च न तदर्थप्राधान्यं तत्र नेति स्फुटी- दापो लुग्वचनानर्थक्यं लिङ्गाभावात्" इति वात्तिकेन, अस्याय
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[ पाद-२, सूत्र ७-८ ]
मर्थ:- अव्ययादापो लुग्वचनं व्यर्थ, स्त्रियां ह्या विधीयते । न चास्ति तस्य [ अव्ययस्य ] लिङ्गमिति लिङ्गाभावादाप उत्पत्तिरेव नेति किं लुग्वचनेनेति । न च स्त्रियामित्यस्य स्त्रीसमानाधिकरणे इत्यर्थः, तथा चाव्ययेषु स्वतो लिङ्गाभावेऽपि 5 स्त्रिया सह तेषां सामानाधिकरण्यं भवत्येवेत्यापः संभावनाऽस्ती ति वाच्यम्, तस्य पक्षस्य भाष्यकृतैव तत्र सूत्रे खण्डितत्वात् तथा च ‘भूतमियं ब्राह्मणी' इति भाष्यकृता प्रयुक्तम्, तत्र भूत - शब्दस्य स्त्रीसामानाधिकरण्ये सत्यपि न तत आप्, ततश्चापोऽभावान्न लुग्वचनप्रयोजनमिति शङ्किते, आक्षिपति -- "किमिदं 10 भवान् सुपो लुकं मृष्यति, आपो लुकं न मृष्यति, यथैव ह्यलिङ्ग
मव्ययमेवमसंख्यमपि” इति समाधत्ते -- "सत्यमेवमेतत्, प्रत्ययलक्षणमाचार्यः प्रार्थयमानः सुपो लुकं मृष्यति । आप: : पुनरस्य लुकि सति न किचिदपि प्रयोजनमस्ति ।" इति । पुनराक्षिपति - " उच्यमानेष्येतस्मिन् स्वाद्युत्पत्तिर्न प्राप्नोति । 15 किं कारणम् ? एकत्वादीनामभावात्, एकत्वादिष्वर्थेषु स्वाददयो विधीयन्ते, न चैषामेकत्वादयः सन्ति " इति । ततः समाहितम्–“अविशेषेणोत्पद्यन्ते, उत्पन्नानां नियमः क्रियते । अथवा प्रकृतानर्थानपेक्ष्य नियमः क्रियते । के च प्रकृताः ? एकत्वाद-:
|
श० म० न्यासानुसन्धानम् - ऐकार्थ्ये । एकार्थस्य भाव ऐकार्थ्यमिति प्रतीयमाने न विवक्षितार्थसिद्धिरिति ऐकार्थ्यपदमिह यदर्थे प्रयुक्तं तदाह- ऐकार्थ्यमैकपद्यमिति - एकोऽर्थो ययोर्येषां वा तानि -- एकार्थानि तेषां भाव इत्यैकार्थ्य शब्दव्युत्पत्ती सत्यामपि पृथक्पदानामथैक्यस्यासम्भव एव 55 यः । एकस्मिन्नेवैकवचनं न द्वयोर्न बहुषु । द्वयोरेव द्विवचनं । पर्यायस्थलेऽपि यथाकथञ्चिदर्थभेदसत्त्वात्, तथा चैकार्थ्यशब्दे
20 कस्मिन्न बहुषु । बहुष्वेव बहुवचनं नै कस्मिन्न द्वयोरिति" इति ।
|
!
नेह पृथगुपस्थापितार्थानां पदानां वृत्तिवशादेकोपस्थितिजनकत्वरूप एकार्थीभाव एवाभिधीयत इति स्वीकार्यम्, एकार्थीभावे च सत्येकपदत्वमेव भवति, अन्यथैकोपस्थितिजनकत्वासंभवात् । तथा चार्थत एकार्थस्यैकपदमर्थः, तस्य भावश्चैक- 60 पद्यमित्यार्थिकार्थकथनमिदं न तु स्वरूपार्थकथनम् ।
अयमाशयः--लिङ्गाभावाद् यथा आप् न प्राप्नोति तथैव यद्यपि संख्याभावात् स्यादिरपि न प्राप्नोति तथापि यथा आप उत्पत्तौ स्त्रीलिङ्गापेक्षा, न तथा स्यादीनामुत्पत्ती संख्यापेक्षा । द्विधा हि स्याद्युत्पत्तौ नियमः -- प्रत्ययनियमोऽर्थ25 नियमश्च तत्र अर्थनियमपक्षेऽविशेषेणोत्पन्नानां प्रत्ययानां शास्त्रेणार्थं नियमादन्येषां निवृत्तिर्भवति, तथा चैकार्थप्रतिपिपादिषायामेकवचनमेव तिष्ठति, न द्विवचनादि, अत्र पक्षेऽव्ययेभ्यो विभक्त्युत्पत्तौ बाधकाभाव:, उत्पन्नानामेकत्वादि
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
ऐकार्थ्यं । ३. २.८ ।।
६
त० प्र०-
|
० - - ऐकार्थ्यम् - ऐकपद्यं तन्निमित्तस्य स्यादेर्लुम् भवति । चित्रा गावो यस्य-चित्रगुः, राजपुरुषः, पुत्रमिच्छति - 40 पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति, कुम्भं करोति -- कुम्भकारः; उपगोरपत्यम् - औपगवः । एषु 'चित्र जस [अस]' 'गो जस् [अस]' 'राजन् ङस् [अस् ]' 'पुरुष सि [स]' 'पुत्र अम् क्य [य]' 'पुत्र अम् काम्य' 'कुम्भ अम् कार' 'उपगु ङस् [अस]' अण् [ अ ]' इति स्थिते ऐकार्थ्ये सति तनिमित्तस्य स्यादेर्लुप् । 45 अत एव च लुग्विधानात् " नाम नाम्ने० " [३. १.१८. ] इत्युक्तावपि विभक्त्यन्तानामेव समासो विज्ञायते । 'ऐका' इति निमित्तसप्तमीविज्ञानादेकार्थ्योत्तर कालस्य न भवतिचित्रगुः । ऐकार्थ्यं इति किम् ? चित्रा गावो यस्येत्यादिवाक्ये न भवति ॥ ८ ॥
50
निवृत्त्या निवृत्तिश्चेदस्तु, सँव निवृत्तिरनेन सूत्रेणानुशास्यते । 30 प्रत्ययनियमपक्षे च एकस्मिन्नेवैकवचनमित्यादिक्रमेण बोधे द्वित्वादिव्यवच्छेदे एव तात्पर्यम्, न तु एकत्वादिसंख्याया
केचित् त्वैकार्थ्य शब्दमित्थं व्याचक्षते -- एक इवाचरत्येकंति, एकतीत्येकः, आरोपितकत्ववान्, अनेकेष्वेकत्वाहरणमारोपितैकत्वम्, आरोपितकत्वधर्मवानर्थो यस्य स एकार्थः, तस्य भाव ऐकार्थ्य मेकार्थीभाव इति यावत् । तथा च विचित्रा: 65 शब्दशक्तय इति सिद्धान्तात् पृथगर्थानां स्वार्थद्रव्यादिपञ्चवि धार्थान्वयक्रमेण पृथग्भूतार्थकानां पदानां विशेष्यविशेषणभावमहिम्ना समन्वीयमानेष्वर्थेष्वेकत्वघीर्या संवेकत्वस्याहार्यारोपः, तद्भाव एवैकार्थ्यम्, तच्चैकपदत्वे सत्येव भवतीत्यैकअसत्वे न स्याद्युत्पत्तिरित्यत्रेति भवति सर्वासां विभक्तीना । पद्यशब्देनोक्तम् । अथवा एकार्थत्वे सम्भवत्येवैकपद्यं भवती- 70 मव्ययेभ्यः प्राप्तिः । नियमाभावे -- एकवाक्यतया – एकत्वात्यैकपद्यनिमित्तकत्वेनै कार्थ्यस्यै कपद्य शब्देन व्यवहारः । केचित् दावेकवचनादि विधीयत इति स्वीकारे का गतिरिति चेदाह - ! तु- ऐकार्थ्य मस्त्यत्रेति मत्वर्थेन ऐकार्थ्यमै कपद्यमुच्यते । 35 अथवा आचार्यप्रवृत्तिर्ज्ञापयति -- उत्पद्यन्तेऽव्ययेभ्यः स्वादय इति । यदयम् - - " अव्ययादाप्सुपः " इति लुकं शास्ति" इति । तथैव स्वमतेऽपि समाहितमेवेति सर्वं सुस्थम् || ३. २.७॥
"
i
एवं च यत्र पदानि परित्यक्तस्वार्थानि उपसर्जनीभूतस्वार्थानि वाऽर्थान्तरे सङ्क्रान्तानि भवन्ति तदैकार्थ्यं तच्चैकपद्यरूपमेव पर्यवस्यति
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र-८ ]
तन्नमित्तस्येति -- ऐकपद्यनिमित्तस्येत्यर्थः, यस्मिन् ! जिका वा क्रिया तदुभयं क्रियानिमित्तम्, तत्राद्यस्य चर्मणि सति यद् भवति तत् तस्य निमित्तमिति सामान्यव्याप्त्या | द्वीपिनं हन्तीत्यादिविषयः, द्वितीयस्य - अविद्यारजनीक्षये 40 यस्मिन् स्यादौ सति यत्र समुदाये ऐकपद्यमुत्पद्यते स स्यादिस्त | यदुदेति' इत्यादि । 'ऐका' इत्यत्र च सहकारित्वरूपं हेतुत्वं, न्निमित्तमिति, ऐकपद्यपूर्वकालविद्यमानस्य स्यादेर्लुबिति भावः । ततश्चैकार्थ्योत्पत्तिपूर्वकालस्थितस्यैव स्यादेरनेन लुप्, तदुत्तर
ऐकपद्यं च चतुर्षु भवति - समासे नामधातुषु कृदन्ते । कालोत्पन्नस्य च न तन्निमित्तत्वम् कार्यनियतपूर्ववृत्तेरेव तद्धितान्ते चेति क्रमशश्चतुर्विधमुदाहरति-चित्रा गावो यस्ये । कारणत्वात्, तदुत्तरकालोत्पन्नस्य तत्कार्यत्वमेव, ततश्च त्यादिना । एषु कस्यामवस्थायाम कपद्यमुत्पद्यते तत् क्रमशो | समासोत्तरकालमनेन स्यादेर्लुपि ततः समुदायादुत्पन्नः स्यादि- 45 दर्शयति-एष्विति,‘चित्र् जस्[ अस् ] गो जस्[अस]' इति स्तिष्ठत्येव न लुप्यते, क्वेत्यत्राह -- चित्रगुरिति । ऐकार्थ्य चित्रगुरित्यस्यालौकिकं प्रक्रियावाक्यं, तस्मिन्नेव समाससंज्ञयैक- इति किमिति -- विशिष्य ऐकपद्यनिमित्तस्यैव स्यादेर्लुप् 10 पद्यमुत्पद्यत इत्युभयपदे अस्स्यादिस्तन्निमित्तमिति तस्यानेन ! कुतो विधीयते, सामान्येन 'वृत्तौ' इति सूत्र्यतां, वृत्तिनिमित्तस्य लुब् भवति । एवं-‘राजन् ङस् [ अस् ] पुरुष सि [स्]' ' स्यादेर्लुव् विधीयतामित्याशयः, अथवा सूत्रमिदमारम्य तत्साइति राजपुरुष इत्यस्य प्रक्रियावाक्यम्, 'पुत्र अम् क्य [य]' मर्थ्यात् स्याद्यन्तानां समासं परिकल्प्य तस्य स्यादेरनेन लुब्बि- 50 इति पुत्रीयतीत्यस्य' पुत्र अम् काम्य' इति पुत्रकाम्यतीत्यस्य, धानापेक्षया सूत्रमिदं न क्रियताम्, नाम नाम्नैव समस्येत, 'कुम्भ अम् कारः,इति कुम्भकार इत्यस्य, 'उपगु ङस् [अस् ततश्च समासार्थप्रक्रियावाक्ये स्याद्यन्तानां प्रवेश एव नेति 15 अण् [ अ ]' इति औपगव इत्यस्य स्थितिः, एष्वेवालौकिक- तत्सम्बन्धिस्यादेर्लुब्विधानं व्यर्थमेवेति प्रश्नाशयः, नामधात्वाप्रक्रियावाक्येषु समासेन ‘चित्रगुः, राजपुरुषः' इत्यनयो:, धातु दिषु स्याद्यन्तानां प्रवेशेऽपि तदर्थं प्रत्यये इत्येव सूत्र्यताम् । संज्ञया 'पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति' इत्यनयोः उपपदसमासेन । तत्राह - चित्रा गात्रो यस्येत्यादिवाक्ये न भवतीति, अयमाशयः- 55 'कुम्भकार' इत्यत्र, स च "ङस्युक्तं कृता " [ ३. १. ४९. ] इति । समर्थः पदविधिरिति परिभाषणात् सर्वेषां पदविधीनां समर्थासूत्रेण विहितत्वात् कृन्निमित्तकोऽपि, अतश्च तत्र कृत्प्रत्यय- | श्रितत्वम्, समर्थश्च सामर्थ्यवान्, सामर्थ्यं च द्विविधम्--व्यपेक्षा 20 कृत एवैकार्थीभावः, तथापि कृद्योगा द्वितीयापि तन्निमित्तं । एकार्थीभावश्च तत्र व्यपेक्षा नाम पृथगर्थानां पदानामा काङक्षा
|
।
तस्यां सत्यामेव समासप्रवृत्तिः । ' उपगु अस् अ' इत्यत्र ! योग्यताऽऽसत्तितात्पर्यवशात् परस्परं विशेष्यविशेषणभावावच तद्धितप्रत्ययेनैकार्थ्यम् । समासविधायकेषु सूत्रेषु " नाम गाहिबोधजनकत्वम्, एकार्थीभावश्च तादृशानामेव पदानां 60 नाम्नैकार्थ्ये समासो बहुलम् [ ३. १. १८. ] इति सूत्रान्नाम | वृत्तिवशादेकोपस्थितिजनकत्वमित्युक्तमेव । एवं चोभयत्र विशेष्य नाम्नेति पदद्वयस्य सम्बन्धात्, नाम्नश्च विभक्तिरहितस्यैव विशेषणभावादिसम्बन्धमूलकमेव सामर्थ्यं संसृष्टार्थं समर्थ25 संभवात् समासरूपवृत्तौ न स्यादिप्रवेश आवश्यक इति समासरूपैकार्थ्ये न स्यादिनिमित्तम् नामधातुप्रत्ययस्य तद्धितप्रत्यययस्य च स्याद्यन्तादुत्पद्यमानत्वेऽपि तदर्थं प्रत्यये इत्येव कार्यम् तत्रैकार्थीभावस्य प्रत्ययनिमित्तत्वादिति शङ्कायामाह -अत एव च लुब्विधानादिति, अयमाशयः - - नाम नाम्नेति प्रकृत्य यद्यपि समासो विहितस्तथापि तत्रैकार्थ्यनिमित्तस्य स्यादेर्लुब्विधानात् स्याद्यन्तस्थैव सर्वत्र समास इति विज्ञायते, ततश्च तत्र स्थितस्य स्यादेर्लुब्विधानेनास्य सार्थक्यम् । सूत्रे निमित्त बोधकपदाभावान्निमित्तार्थलाभः कस्मात् किं च तदर्थविवक्षणेन फलमित्याह- ऐकार्थ्ये इति निमित्तसप्तमीविज्ञाना- | 35 दिति - निमित्ते सप्तमीविधायकं च सूत्रं "तद्युक्ते हेती" [ २.
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१०
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।
।
।
मिति भाष्यम्, तथा च अलौकिके एकार्थीभावनिमित्ते प्रक्रियावाक्येऽपि विशेष्यविशेषणभावावगतये स्याद्यन्तानामेव प्रवेशआवश्यकः, तत्र च यदि "नाम नाम्नैकार्थ्ये" इत्यादिसूत्रेण 65 नाममात्रस्य समासान्तः पातितया प्रवेशाभ्यनुज्ञा स्वीक्रियेत, तदा व्यपेक्षावाक्येऽपि नाम्नामेव प्रवेशः स्यादिति विभक्तिर्न श्रूयेत, तथा च चित्रा गावो यस्येति रूपं तस्य न स्यात्, अतश्चकार्थीभावे स्यादेर्लुक् भवति व्यपेक्षायां नेति भेदस्य सिद्धये सूत्रमिदमारब्धव्यमेवेति भावः । किञ्चाग्रिमसूत्रस्तत्र तत्र 70 समासादिषु स्यादेर्लुपो निषेधस्यापि सार्थक्याय " ऐकायें " इत्यनेन लुब्विधानमावश्यकमेव, अन्यथा 'प्राप्ती सत्यां निषेधः ' इति सार्वजनीनानुभवेन लुपः प्राप्त्यभावे तन्निषेधविधानमनुचितमेव स्यात्, निषेधसामर्थ्याच्च वृत्तौ स्यादेर्लुम् भवतीति सामान्यतया यदि कल्प्यते किमपि वाक्यं लुब्विधायकम् 75 तहि वृत्तिनिमित्तत्वं व्यपेक्षावाक्यस्यापि अक्षतमेव, व्यपेक्षा
२. १००.] इति, यथा -- चर्मणि द्वीपिनं हन्तीद्यादौ, निमित्तं च द्विविधम्--हेतुः [ कारणं ] फलं च, लोके द्वयोरपि प्रयोजनादिपदप्रयोगात् । तथा च यत्प्राप्तीच्छाप्रयोज्या यत्प्रयो
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पाद-२, सूत्र-८-९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः । वाक्यबोधितव विशेष्यविशेषणभावादिरूपा योग्यताऽलौ- | धिसाकाङक्षत्वात् यत्किञ्चिदपेक्षया पूर्वत्वमुत्तरत्वं च किके प्रक्रियावाक्ये कल्प्यते, अन्यथा तत्रापरिनिष्ठितानामेव
भवतीति पूर्वपदेनोत्तरपदमुत्तरपदेन पूर्वपदमाक्षिप्यते, प्रवेशात तादशानां चार्थबोधजननासामर्थ्यात तत्रार्थस्यैवा- | व्याप्यव्यापकभावसम्बन्धनानुमीयत इति यावत् । तस्यैव भावेन वैकार्थ्यं तिष्ठेत् । तथा च व्यपेक्षावाक्यस्यापि वृत्तिनि- । विशेषणत्वेन नाम्येकस्वरादिति पठचते, तत्र नामीति पदम-10 मित्तत्वं सिद्धमेवेति तत्रापि लब मा भदित्येतदर्थ विशिष्य- वणरोहतस्वरबोधकम्, तस्य चैकस्वरेति विशेषणं व्यर्थमेवेति कार्य लुम्विधानमावश्यकमित्यास्तां विस्तरेणेति ॥३.२.८.।। द्वयमप्याक्षिप्तस्य पूर्वपदस्यैव विशेषणम्, नामिपदं च तदन्त
बोधकं "विशेषणमन्तः” [ ७. ४. ११३.] इति परिभाषया; न नाम्यकस्वरात् खित्युत्तरपदेऽमः। ३. २.९॥ एकस्वरपदं बहुव्रीहिणा समुदायबोधकमिति न तत्र तदन्त
त०प्र०--समासारम्भकमन्त्यं पदमत्तरपदम, नाम्यन्ता- | विधिरसंभवात्, एवं च यः सूत्रार्थः सम्पन्नस्तमाह--नाम्य- A देकस्वरात पूर्वपदात परस्यामः खित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे परे लप न्ताकस्वरादित्यादिना । खितः प्रत्ययाः ख-खश-खिष्णुन भवति। स्त्री स्त्रियं वात्मानं मन्यते-स्त्रींमन्यः, स्त्रियं- खुकन्-प्रभृतयः "क्षमप्रिय०" [५. १. १०५.] इत्यादिना मन्यः; श्रियंमन्यः, भ्रवमन्यः, नरंमन्यः, रायंमन्यः, गांमन्यः, कृत्सु वक्ष्यन्ते, तदन्तं यदुत्तरपद तस्मिन् परतः, तत्र च कुम्भनावंमन्यः । अथ श्रियमात्मानं मन्यते-श्रियंमन्यं कुल
क कार इत्यादाविवोपपदसमासाद् "ऐकायें" [३. २. ८.7 मित्यत्र नपुंसकलक्षणोऽमो लोपः कस्मान भवति? उच्यते- इत्यमा द्वितायकवचनस्य लुप् प्राप्नोति, तस्य निषधोऽनेन 50
श्रीशब्दस्यात्मसमानाधिकरणस्य नपंसके पत्यभावादाविष्ट- । विधीयते, तथा च तच्छवणं तन्निमित्तककार्यान्तरप्रवत्तिश्च २ लिङ्गत्वाच्च न भवति; अन्ये त्वाहुः-यथा प्रष्ठादयः शब्दा
भवति । अत्र यद्यपि खितीत्युत्तरपदे इति सप्तम्यन्तस्य घवयोगात् स्त्रियां वर्तमानाः स्वलिङ्ग विहाय स्त्रीलिङ्गम
विशेषणमिति “सप्तम्या आदिः" [७. ४. ११४.इति परिभापाददते, तथा श्रीशब्दः कुले वर्तमानःस्वलिङ्गपरित्यागेन वर्तते,
षया तदादिग्रहणात् खिदादावुत्तरपदे इत्यर्थः प्राप्नोति, तथापि ततो नपुंसकलक्षणं हस्वत्वममो लप च भवति-श्रिमन्यं | खिदादेहत्तरपदस्यासभवेन न तदादिबोध इति बोध्यम्। 5 कुलमिति । न चायं नपुंसकलक्षणस्य लोपस्यापवादः, किंतु ____ अथ विगृह्योदाहरति-स्त्रीं स्त्रियं वात्मानं मन्यते इति ऐकार्यलक्षणस्योत्तरपदग्रहणात् । नामिग्रहणं किम् ? जमन्यः, विग्रहः, “वामशसि" [२. १. ५५.] इतीयादेशविकल्पेन रूपक्ष्ममन्यः, वाग्मन्यः । एकस्वरादिति किम् ? हरिणिमन्या, द्वयम्, अत एव समासेऽमो लुबभावेऽपि रूपद्वयं भवतीत्याह-- बुधमन्या । खितीति किम् ? स्त्रीमानी---"मन्याणिन्" | स्त्रींमन्यः, स्त्रियंमन्यः इति, अत्र "कर्तुः खश्" [५. १. ११७.] [५.१.११६. ॥९ ॥
इति खश्, “ङस्युक्तं ०" [३. १. ४९.] इति च समासः । श्रियं 60
भवं नरं रायं गां नावं वात्मानं मन्यत इति विग्रहे क्रमेण श्रियं25 श०म०न्यासानुसन्धानम-न नाम्येक०। उत्तरं च तत् ।
मन्य इत्यादिसमासाः, पूर्वपदभूताश्त्र श्री-भ्रू-न-रै-गो-नौशब्दा पदमुत्तरपदमिति व्युत्पत्त्या उत्तरपदशब्दोऽव्यावर्तकः स्यात्,
नाम्यन्ताः, एषु कृद्योगा षष्ठी न प्रवर्ततेऽमो लुनिषेधन सर्वस्यापि पदस्य यत्किञ्चित्पदापेक्षया कालिकोत्तरत्वसंभ
तस्यैव प्रकृते श्रवणस्येष्टताऽवधारणात् । इत्थं पुंसः कर्तत्वे वात् ; दैशिकं पूर्वोत्तरत्वं च न शब्देषु सम्भवति, शब्दानामा-! उदाहृत्य यत्र क्लोबस्य प्रत्ययार्थत्वं तत्र समुदायस्य तत्प्राधा- 65 काशाश्रितत्वात, आकाशे च तेषां व्याप्त्यैव स्थितिरिति दर्श- |
न्यात पूर्वपदस्याऽपि तल्लिङ्गतापत्त्या क्लीबनिमित्तककार्य 30 नात्,तत्र पूर्वापरीभावानवगमात् तस्य च प्रकृतशास्त्रानुपयोगा
स्यान्नवेति व्यवस्थापयितुं शङ्कते-अथ श्रियमात्मानं मन्यते च्चेति सर्व मनसि निधायाह-समासारम्भकमन्त्य पदमिति- इत्यादिना, अयमाशयः--*अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिसमास आरभ्यते यैस्तानि पदानि समासारम्भकाणि, तेषु
षेधो वा इति न्यायेन न “नाम्येकस्वरात"३.२.९.1 यच्चरमं पदं तदिह शास्त्रे उत्तरपदशब्देन व्यवह्रियत इत्यर्थः ।
इत्यमो लुपः प्रतिषेधोऽनन्तरस्य "एकार्थ्य" [ ३. २. ८.170 अत एवाहुरन्ये-उत्तरपद शब्दो हि समासचरमावयवपदे रूढ | इति सूत्रेण प्राप्तस्यैव स्यात्, न तु बहुव्यवहितस्य "अनतो
इति । असति पूर्वस्मिन, पदे तस्योत्तरपदत्वं न सम्भवतीत्यु- | लुप्" [१. ४. ५९. ] इति नपुंसकसम्बन्धिनोऽमो लुम्विधाय35 तरपदशब्देन पूर्वपदमाक्षिप्यते 'येन विना यदनुपपन्नं तेन । कस्य, एवं च श्रियमात्मानं मन्यते यत् कुलमित्यर्थे कुलपरत्वेन
तदाक्षिप्यते' इति न्यायात् । उत्तरपूर्वादिपदार्थानां नियताव- | श्रीशब्दस्य क्लीबत्वमिति तत्सम्बन्धिनोऽमो लप् स्यादेवेति ।
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र. ९-१०]
उत्तरयति--उच्यते इत्यादिना, श्रीशब्दस्यात्मसमानाधि- । ग्रहणाभावे त्वमो लुपःप्रतिषेधेन तद्व्यवधानात् खितीति ह्रस्वो करणस्येति, अयमर्थ:--श्रियमात्मानं मन्यते यत् कुलमित्यर्थे न स्यात, खिदन्तस्य विभक्त्या व्यवहितत्वात्, तथा च ज्ञामन्यः 40 श्रीशब्दस्य न कूलेन सह सामानाधिकरण्यमपि तु आत्मशब्देन : मांमन्य इति स्यात् ; वाग्मन्य इत्यत्र तु वाचम्मन्य इति स्यात्। सहेति तस्य च नपुंसकत्वाभावेन न नपुंसकनिमित्तस्य लुपः अस्तु तहि नाम्यन्तादित्येबैकस्वरादिति व्यर्थमिति पृच्छति-- प्राप्तिरिति ऐकार्थ्यनिमित्तत्वादेव प्राप्तिः, सा चानेन प्रति- एकस्वरादिति किमिति । हरिणिमन्येति-अत्रापि खितीति षिध्यत एव। ननु कथमिदमुच्यते, यावताऽत्रात्मशब्दः . ह्रस्वसमुच्चितो मागमः । वधुमन्येति-अत्रापि पूर्ववेव ह्रस्व- 45 कुलवाचकत्वेनवायात इति तस्य नित्यपुस्त्वात् क्लीबताभावे- समुच्चितोम् भवति, एकस्वरादिति कृतेऽतु न प्रकृतसूत्रप्राप्तिः! ऽपि तत्समानाधिकरणस्य श्रीशब्दस्य क्लोबत्वमवश्यं स्यादेवेति : खितीति किमिति-उत्तरपदमानं निमित्तकोटावस्त्विति भावः। चेत् ? अत्राह--आविष्टलिङ्गत्वाच्चते, अयमाशयः--
स्त्रीमानीत--स्त्रियमात्मानं मन्यत इत्यर्थेऽत्र "मन्याण्णिन्" 10 यथैवात्मशब्द आविष्टलिङ्ग:-नित्यपुंलिङ्गः,तथा श्रीशब्दोऽपि ।
[२.१.११६.] इति णिन् भवति, तत्रापि समासो भवत्येवेत्युनित्यस्त्रीलिङ्ग एवेति तस्य कुलसामानाधिकरण्यऽपि न क्ली- ' त्तरपदसत्त्वेऽपि खिदन्तत्वाभावान्न भवति ॥३. २. ९॥ बत्वमिति न तन्निमित्तोऽमो लुप् प्राप्तः ।
असत्त्वे डसेः । ३.२.१०॥ भाष्यकृन्मतमाह--अन्ये त्याहुरित्यादिना। प्रष्ठोऽग्रगामी, अग्रगमनस्य च स्वभावतः पुंधर्मत्वात् प्रष्ठशब्दो नित्य- त० प्र०---असत्त्वे विहितो यो इसिः तस्योत्तरपदे " 15 वंलिङ इति तस्यैव धवयोगनिमित्तक स्त्रीत्वमुत्पाद्य प्रष्ठीति, परेलपन भवति । स्तोकान्मक्तः, अल्पान्मुक्तः, कृच्छाम्भवतः,
रूपं भवति, तथा च सम्बन्धविशेषमहिम्ना लिङ्गपरिवत्तंन कतिपयान्मक्तः, अन्तिकादागतः, अभ्याशादागतः, सविधादाभवति, तथेहापि भविष्यतीति श्रीशब्द: कुले वर्तमानः स्वकीयं । गतः, दूरादागतः, विदूरादागतः, विप्रकृष्टादागतः, "क्तेना- 55
स्त्रीलिग विहाय क्लीबे वत्तिष्यत इति क्लीबनिमित्तोऽमो लुक् सत्त्वे" ३. १. ७४. 1 इति समासः । असत्त्वे इति किम? 10 स्यादेवेति नपुंसकत्वनिमित्तके ह्रस्वत्वेऽमो लुपि च कृते-- ! स्तोकभयम्, स्तोकापेतः । उत्तरपद इत्येव-निष्कान्तः
श्रिमन्यं कूलमित्येवं रूपं युक्तमिति । ननु प्रकृतसूत्रेण सामान्यत । स्तोकान्निःस्तोकः ॥१०॥ एवामो लुब् निषिध्यते, ततश्च ऐकार्थ्यनिमित्तस्य क्लीबत्वनिमित्तस्य वा सर्वस्यामो लुपोऽनेन निषेधः स्यादेवेति चेत् ? शमन्यासानुसन्धानम् असत्त्वे । असत्त्वे विहित अत्राह--न चायमिति-अयं-प्रकृतसूत्रप्रतिपाद्यः, लोप- इति-"स्तोकाल्पकृच्छकतिपयादसत्वे करणे" [२. सापवादो-निषेधः, नपंसकलक्षणस्य लुपो न भवति, किन्तु इति सूत्रेण,तथा "असत्त्वारादर्थात टासिड्चम"[२.२.१२०.7 ऐकार्थ्यनिमित्तस्यैव "ऐकायें" [३. २. ८. ] इति सूत्रप्राप्तस्य, इति सूत्रेण च विहित इति भाव; 'स्तोकान्मुक्तः' इत्यादाकत इत्याह--उत्तरपदग्रहणादिति-उत्तरपदंशब्दस्य समा- वाद्येन 'अन्तिकादागतः' इत्यादौ द्वितीयेन पञ्चमी, तदन्तस्य सारम्भकेऽन्त्ये पदे निरूढतया तादृशस्थले प्राप्तस्य॑वामी लुप् च क्तान्ते परे "क्तेनाऽसत्त्वे" [३. १. ७४.] इति समासः,
प्रतिषिध्यतेऽनेन, *अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा* : तत एकार्थ्यनिमित्तोलुप प्राप्तः सोऽनेन निषिध्यते। तदेवाह१० इति न्यायादित्युक्तं पूर्वम्, अत्र च उत्तरपदग्रहणमपि कारण- तस्योत्तरपदे लुब न भवतीति । यद्यपि सर्वत्र समासे वाक्य
त्वेन निर्दिश्यते, तथा च उत्सर्गसमानदेशा अपवादा:* मपि भवतीति समासाभावे स्तोकान्मुक्त इत्यादिरूपाणां सिद्धिः इति न्यायोऽपीह नियामक इति विशिष्यते; “ऐकायें" | स्यादेव, ततश्चैतादृशे स्थले समासाभाव एव कार्यः किं समासो
३.२.८.1 इति लुबपि समासादिस्थल एव प्रवर्तते, प्रकृत- । त्तरं प्राप्तस्य लुपोऽभावविधानेनेति स्थूलदशां शङ्का सम्भवति,
सूत्रमपि तादृशस्थल एवेति सिद्धमुभयोः समानदेशत्वम्। , तथापि समासे सत्यैकपद्यं भवति, तत्र विशेषणयोगाभावश्च 70 35 नामिग्रहणं किमिति-सामान्यत एकस्वरादित्यवोच्यतामिति भवति । किञ्च ततस्तद्धितादिप्रत्ययविधाने प्रथमस्वरस्य
तदाशयः, तथा च बहुव्रीहिणा एकस्वरवतः स्वरान्ताद् व्यञ्ज- वृद्धिर्भवति, तथा च "स्तोकान्मुक्तस्यापत्यं-स्तौकान्मुक्तिः, नान्ताद् वा प्रसक्तिरित्याह---झंमन्य इत्यादि, अत्र हि नामो स्तोकान्मुक्ताया अपत्यं-स्तीकान्मुक्तेयः' इत्यादिषु समुदायालुप् प्रतिषिध्यतेऽपि तु "खित्यनव्ययारुषो मोऽन्तो ह्रस्वश्च" : देव तद्धितोत्पत्तिः । न च समासनिमित्तैकार्थ्यनिमित्तस्य [ ३. २. १११. ] इति, ह्रस्वे कृते मोऽन्तो भवति, अत्र नामि- . स्यादेरिदमादिसूत्र ब् निषिध्यतां, तद्धितनिमित्तकायें जाते 75
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[पाद-२, सूत्र-११-१२]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोध्यायः ।
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च पुनः स लुप्यतामिति शङ्कयम्, पूर्वसूत्रप्राप्तस्यानेन निषेधः, मित्याख्यायते, मन्त्र-ब्राह्मणयोर्वेदनामधेयमिति प्रसिद्धः, तथा सच समासनिमित्तैकार्थ्यमाश्रित्य तद्धितनिमित्तैकार्थ्यमाश्रित्य | च ग्रन्थविशेषपरः एव ब्राह्मणशब्द इह गहीत इति भावः । वा भवतु, तत्र न पुनः शास्त्रव्यापारप्रयोजनमित्याश्रयणात् ।। ब्राह्मणं स्वरूपतो न शंसति किन्तु तस्माद् ग्रन्थात् कमपि विषय- 40 अथवाऽस्तु तद्धितनिमित्तमैकार्य किन्तु नैतदन्तर्गतो उसिस्त
मादाय शंसति योऽसौ ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विग्विशेषः, तस्य हि निमित्तमित्यकार्यनिमित्तत्वाभावेन पुनलप: प्राप्तिरेव नेति तादृशं व्रतं यज्ञकाले श्रुतमिति "व्रताभीक्ष्ण्ये" [५.१. १५७.] कुतः पुनः प्रतिषेधावश्यकता। किञ्चानेन केवल डसेरेव | इति णिन् । दीक्षितस्तु-ब्राह्मणे [ग्रन्थे विहितानि शस्त्राणि लपो निषेधे द्विवचनान्तेन विग्रहे स्यादेर्लप् स्यादेवेति स्तोक-उपचाराद ब्राह्मणानि, तानि शंसतीति ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विमुक्त इत्येव तत्र प्रयोग इति न भ्रमितव्यम्, इसिमात्रस्य विशेषः, द्वितीयार्थे पञ्चमी उपसंख्यानादेव [निपातनादेव] लपो निषेधेनाचार्यस्य द्विवचनान्तेन सह समासो न भवतीत्य
इत्याह। तत्र 'प्रगीतमन्त्रसाध्यगुणिनिष्ठगुणाभिधानं स्तोत्रम्, 10 त्रैव तात्पर्यावधारणात; तथा च स्तोकाभ्यां मुक्त इत्यादि
अप्रगीतमन्त्रसाध्यगुणिनिष्ठगुणाभिधानं शस्त्रम्' इति याज्ञिविगढे वाक्यमेव तिष्ठति न समासोभवति, स्पष्टं चेद काशिका- कानां सम्प्रदाये व्यवहारः। तथा च ब्राह्मणशब्द इह ब्राहाणदौ। असत्त्व इति किमिति--सीदतोऽस्मिल्लिङ्गसख्य इति ग्रन्थप्रतिपादितस्तोत्रविशेषपरः, तस्य च शंसनक्रियाकर्मत्व. सत्वं द्रव्यम, तथा च गुणोपसर्जनाः स्तोकादयः सत्त्ववचना । मिति द्वितीया विभक्तिरेवोचिता, तथापि प्रकृतनिपातनपर-50 भवन्ति, तेभ्यश्च नासत्त्वे इसिविधीयते, ततश्च स्तोकाद्
| सुत्र निर्देशादेव द्वितीयार्थे पञ्चमी भवति । स्वमते च आदाविषाद भयमित्यादितात्पर्येण विषादिपरात् स्तोकशब्दाद् भय
येति क्रियापदमध्याहृत्य तां क्रियामपेक्ष्यापादानत्वं साधयतिशब्दयोगे पञ्चमी भवति, तदन्तस्य च समासे सतिनानेन लपो
| उपात्तविषयमेवेति--उपात्ता समीपोच्चारिता क्रियेव विषयो निषेधः। एवं स्तोकापेतः इत्यत्रापि स्तोकशब्दः स्तोकत्व
यस्य तथाभूतम्, आदायेति क्रियानिरूपितमेवेत्यर्थः, आदानं हि गुणोपसर्जनद्रव्यवचन एवेति तत्रापादानपञ्चम्या समासे
नानेन लपो निषेध इति । उत्तरपदानवत्ति सार्थकयति-- यस्माद भवति तत् तस्यापादानं विश्लेषस्य सत्वात । एता20 उत्तरपद इत्येवेति। निर्गतः स्तोकादिति---अत्र हि स्तोक- दृशमपादानं क्व प्रसिद्धमिति शङ्कामुदाहरणेन हरतिभा
कुसूलात् पचतीति-कुसूलादुद्धृत्य तण्डुलं पचतीति विवक्षाशब्द एवोत्तरपदमिति तस्योत्तरपदपरत्वाभावान्न पञ्चम्या लुपः प्रतिषेधः, 'असत्त्वे' इत्यस्यानुक्तौ तु सर्वविधङसेलुंब-! यामुद्धरणक्रियाविषयमपादानं यथा भवति तथैवेति भावः ।
लबभाव एव विधेयो निपातनाश्रयणमनर्थमित्याशङ्कायामाहनेन प्रतिषिध्येतेत्युक्तप्रकारेषु सर्वत्र स्तोकाद्भयमित्याद्येव रूपं स्यात, नहि तदिष्टमित्यसत्त्वे इत्यावश्यकमिति ।।३. । निपातनस्यष्टविषयत्वादिति-निपातनेन हि तस्य लक्ष्यस्येष्ट ।
विषयत्वं विज्ञायते, तथा च ऋत्विग्विशेषपरत्वे एव ब्राह्मणा25 २. १०.
च्छंसिन-शब्द: प्रयोक्तव्योऽन्यत्र उसेलबेव भवति, यथा-- ब्राह्मणाच्छंसी ॥३॥२॥११॥ ब्राह्मणशंसिनी स्त्रीति, स्त्रिया ऋत्विक्कनिहत्वमिति
ताद विशेषाभावबोधनायैव स्त्रीलिङ्गप्रयोगः, पुंस्यपि तदत० प्र०-'ब्राह्मणाच्छंसोइत्यत्र डसेलबभावो निपात्यते । विषये लुब् भविष्यत्येवेति क्षेयम् ॥३. २. ११॥ 65 ब्राह्मणाद् ग्रन्थादादाय शंसति-प्राह्मणाच्छंसी, ब्राह्मणाच्छसिनौ , ब्राह्मणाच्छंसिनः, रूढिवशादृत्यिग्विशेष उच्यते।
ओजोऽञ्जःसहोम्भस्तमस्तपउपात्तविषयमेव तदपादानं, यथा--कुसूलात् पचति । निपातनस्येष्टविषयत्वात्विग्विशेषादन्यत्र लुप भवति--ब्राह्मणशंसिनी
सष्टः । ३. २. १२॥ स्त्री॥ ११ ॥
त०प्र० एभ्यः परस्य टस्तृतीयैकवचनस्योत्तरपदे परे लुबु श०म० न्यासानुसन्धानम् -ब्राह्मणा । एकलक्ष्यमात्र- । भवति । ओजताकृतम्, अञ्जसाकृतम्, सहसाकृतम, विषयत्वात् सूत्रस्य निपातनपरत्वमेवेति प्रतीतावपि प्रकरण- | अम्भसाकृतम्, तमसाकृतम्, तपसाकृतम्: तपसाप्राप्तम् । 70 35 परिशुद्धयर्थं विधेयांशमाह-उसे बभावः इति । प्रयोगार्थ- कथं "सततनशतमोवृतमन्यतः" इति [किराते] ? उत्तरपदस्य .
माह-ब्राह्मणाद् ग्रन्थादिति-वेदोक्तानां मन्त्राणां कर्मसु संबन्धिशब्दत्वाद् यत्र पूर्वपदीभूतस्तमःशब्दरतत्रायं निषेषः, विनियोगप्रतिपादकः कर्मस्वरूपबोधकश्च वेदभागो ब्राह्मण- ' यत्र तु पदान्तरेण समस्तस्तत्र न प्रतिषेधः । ट इति किम् ?
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र १२-१३
ओजसो भावः-ओजोभावः । तमसो नेच्छन्त्येके, तपसोऽ- च तमः-शब्द इहोत्तरपदमपि, न तु केवलं पूर्वपदमिति न्ये ॥१२॥
तत्सम्बन्धिनष्टो लप न भवति। अन्ये तू "वत इति धार्थ
कप्रत्ययान्तः, तद्योगे च षष्ठीति षष्ठयन्तस्य समासोऽयं न तु 40 शमन्यासानुसन्धानम्-ओजोन ओजः-आन्तर! ततीयासमासः” इत्याहः, तन्न रोचयामहे, तथा समासे बलम्, अञ्ज:--सौकर्यम्, सहः-सहनसामर्थ्य बलम्, अम्भस्
पर्वतविशेषणत्वानुपपत्तेः, कप्रत्ययस्य घार्थे विधानाद् भावतमस्-तपांसि प्रसिद्धानि, एषां कर्तृत्वविवक्षायां करणत्व- !
प्रत्ययान्तत्वेन वरणपरत्वम्, तथा च नै शतमसो वृतो वरणविवक्षायां वा तृतीया, कर्तरि षष्ठी तुन, "क्तयोरसदाधारे"
माच्छादनं यत्रेत्यर्थे विवक्षिते मत्वर्थीयेनापि भाव्यम्, अथवा (२. २.९१) इति निषेधात् । “कारकं कृता" (३. १. ६८) !
नैशतमः वृतं यत्र तं नैशतमोवृतमिति बहुव्रीहिविधेयः । यद्यपि 45 इति समासे सति ऐकार्थ्यनिमित्तस्य स्यादेर्लुप् प्राप्तः, तस्यानेन
स्वमतेऽपि समाधानान्तरमेव मग्यम, यतः पदकार्य प्रकृतिनिषेधः, एवं सर्वत्र । क्वचित् कविप्रयोगे लुब् दृश्यते, तत्संगतिः
कार्ये च तदन्तविधेरिष्टत्वात् तमःशब्दान्तस्य पूर्वपदस्य कथमिति शङ्कते--कथं "सततनशतमोत्तम्" इति । किराता
सम्बन्धिनष्टो लुप् भवतीत्यर्थे प्रकृते लुनिषेधो दुरि एव, न र्जुनीयकाव्ये इन्द्रकीलपर्वतवर्णनमिदम्
च तादृशतदन्तविधौ न मानमिति वाच्यम्, 'परमहल्लेखः' "तपनमण्डलदीपितमेकतः,
इत्यादौ “हृदयस्य हुल्लासलेखाण्ये” (३।२।९४) इति सूत्रेण 50 सततनै शतमोवृतमन्यतः।
हृदादेशविधानेन पूर्वपदे तदन्तविधेरावश्यकत्वात् । तथा च हसितभिन्नतमिस्रचयं पुरः
कदीनां निरंकुशत्वमेव शरणं समासान्तरं वा विधेयम् ।ट 15 शिवमिवानुगतं गजचर्मणा ।"
इति किमिति तथा चेद स्यादिलुबधिकार एव पठनीयं सूत्रम्, . (इति पूर्ण पद्यम्) तस्यैव च निषेधो विधेयः, ओजआदीनां च कर्तृत्व-करणत्वतदर्थश्च-कीदशं पर्वतमिति प्रसङ्गे---एकत: सूर्याभि- योरेव संभवात् तृतीयाया एव समासप्रवेशादिति प्रश्नाशयः। 60 मुखभिन्नभागे, सततनशतमोवतं-.-'सर्वदा रात्रिकालि- उत्तरयति-श्रोजसोभाव इति---न केवलं ततीयान्तामेवैषां कान्धकाराच्छादितम्, अन्यतः--सूर्याभिमुखभागे, तपन- | समासे प्रवेश ओजो-भावादिलक्ष्येषु षष्ठचन्तस्यापि प्रवेशात मण्डलदीपितं—सूर्यबिम्बकृतप्रकाशम् । अत्रोपमामाह--! तस्या अपि (षष्ठ्या अपि)लप प्रतिषिध्येतेति समाधानाशयः। पुरः अग्रे, हसितेन हासेन, भिन्नः तमिस्रचयः--अन्धकार- | तमसो नेच्छन्त्येके इति, तथा च तमसा वृतमित्यादि समूहो येन तादृशं, गजचर्मणा-पृष्ठभागस्थितगजासुरकृत्या, तेषां मते व्यस्तप्रयोग एव, न समस्तः । तपसोऽन्ये इति- 65 अनुगतं--सम्बद्धं शिवमिव, हासस्य स्वच्छतयाऽग्ने प्रकाशः, एतच्च पाणिनीयमतम् , तथाहि- तदीयं सूत्रम् "ओज:गजचर्मणः कृष्णतया पृष्ठभागेऽन्धकारो यथा शिवस्य भवति, सहोऽम्भस्तमसस्तृतीयायाः" (६।३१३) इति, अत्र तपोग्रहणं तथाऽयमपि पर्वतोऽत्युच्चतया एकस्मिन् प्रदेश एव सूर्यकिरण- म दृश्यते, तन्मते च तपसा कृतमित्यादिप्रयोगा व्यस्ता एव । योगीति तत्र प्रकाशवान्, अन्यप्रदेशे च सूर्यकिरणासम्बन्धाद् । किमत्र युक्तमिति लक्ष्यकचक्षुष्कैरेव निर्णयमिति ।।३.२.१२।। रात्रिकृतान्धकारवानिति । अत्र तमसा वृतमिति विग्रहे तमोवतमिति टो लुप् कथमिति शङ्का । समाधत्ते--उत्तरपद- पुं-जनुषोऽनुजाऽन्धे । ३. २. १३॥ 70 शब्दस्य सम्बन्धिशब्दत्वादिति उत्तरपदमवश्यं कस्माद
त० प्र०-पुम्सशब्दाज्जनःशब्दाच्च परस्य टावचनस्य 30 प्युत्तरं भवितुमर्हति, तच्चावधिभूतं पूर्वपदमेव, तथा च पूर्वपद- .
यथासंख्यमनुजशब्देऽन्धशब्दे चोत्तरपदे परे लुब् न भवति । भूतस्यैव तमः-शब्दस्य सम्बन्धी टो लुप् निषिध्यतेऽनेन, अत्र |
पुंसा करणेनानुजः-पुंसानुजः, जनुषा जन्मनाऽन्धः, जनुषान्धः, च सततं नैशेन तमसा वृतमिति विग्रहे, तमःपदं मध्यमपद
अविकृताक्षो जात्यन्ध उच्यते । अन्ये तु जतुःशब्दात्तकारश्रुतेमिति पूर्वपदत्वाभावेन तत्सम्बन्धिनष्टो लुप् भवत्येवेति भाव:
रिच्छन्ति । ट इत्येव-पुमांसमनुजाता पुमनुजा ॥१३॥: 75 तदाह--यत्र तु पदान्तरेण समस्तस्तत्र न प्रतिषेध इति, 35 अयमाशयः---अत्र हि समासत्रयम्, नथाहि-निशायां भवं |
| श०म०न्यासानुसन्धानम्-पुअतु। पूर्वोत्तरपदयोः
श० म०न्यासानसन्धान नैशम, नैशं च तत् तमो नैशतमः, सततं च नैशतमः-सतत- समसंख्याकतया संख्याक्रमेणव सम्बन्ध इत्याह---यथासंख्यनैशतमः, सततनैशतमसा वतं--सततनै शतमोवृतमिति, एवं | मनुजशब्देऽन्धशब्दे चेति--पुंशब्दात् पूर्वपदात् परस्य टा
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[ पाद-२, सूत्र-१३-१५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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वचनस्यान्धशब्दे उत्तरपदे लुप् नेति भावः । पुंसोऽनुजेन सह स्वीकारात् करोतिक्रियाध्याहारेण कारकविभक्तिरेवैषेति सम्बन्धे कथं तृतीयेति शङ्कामपाकुर्वन्नाह पंसा करणेनेति--- | पूर्वोक्तसमाधानमेव चारु । एषु सर्वत्र 'पूर्वादित्वात् समासः' अनुजत्वे पंसः करणत्वविवक्षया तृतीया भविष्यतीति भावः । इति वृत्त्युल्लेखादपि कारकविभक्तित्वमेव न्याय्यम, अभेदे योऽसौ पुमान् पूर्व जातस्तेनैवास्यानुजत्वं कृतमिति तात्पर्यात्। तृतीयापक्षे च बाहुलकात् समासः साधनीयः स्यादिति गौर- 40
प्रयुज्यते, तदजन्मानि” इति कोशाज्जन्मपर्यायत्व- | वम् । क्वचित पुरणप्रत्यया मित्याह-जनुषा जन्मनेति । अविकृताक्ष इति-यो जन्मना संगति शक्ङते--कथं "जनार्दनस्त्वात्मचतुर्थ एव" इति, दृकशक्तियुक्तः केनचिदक्षिविकारेणान्धतां याति, नासौ जन- अयमाशय:-पाञ्चरात्रमते चतु' हो विष्णुः, जनार्दनषान्धः कथ्यते तस्य विकृताक्षत्वात्, यश्च जन्मनैव दृक्शक्ति
संकर्षण-प्रद्युम्नाऽनिरुद्धात्मको विष्णः, तत्र संकर्षणादयस्त्रयहीनो भवति स एवमुच्यत इति भावः । अन्ये तुजतुशब्दादि.
स्तस्य व्यूहा जनार्दनस्तु स्वरूपमेवेति पौराणिकसम्प्रदाय- 45 10 ति लेखकप्रमादात् क्वापि जनुशब्दनकारस्तकारत्वेन श्रुत इति
प्रसिद्धिरिह वर्णिता, जनार्दनस्त्वात्मनैव चतुर्थ इत्यर्थात्, जतुनान्ध इति तन्मते रूपम्, किन्तु नकारे तकारभ्रमसत्त्वेऽपि
तत्रात्मना चतुर्थ इति विग्रहे लुप् न युक्तेति प्रश्नाशयः । जनुषइति षटितपाठेन तन्निवृत्तिसंभवान्न जतुशब्दात् परस्य
समाधत्ते श्रात्मा चतुर्थोऽस्येति बहुव्रीहिरिति, तथा च न टो लुपो निषेधसंभव इति ज्ञेयम् । ८ इत्येवेति---न तु स्यादि
तृतीयासमास इति न दोषः । यद्यपि बहुव्रीही वत्तिपदार्थमात्रस्येत्येवकारार्थः । व्यावर्त्यमाह--पुमांसमनुजातेति--
भिन्नेनान्यपदार्थन भाव्यमिह च य एवं वतिपदार्थो जनार्दनः 50 15 साप्यादपि--"[५. १. ९] इति कर्तरि क्ते कर्मणि
| तस्यैवात्मशब्दाभिधेयत्वात ] स एवान्यपदार्थोऽपि तस्यैव द्वितीयेति तदन्तस्य समासे स्यादेलेब भवत्येवेति ।। ३.२.१३.।।
समासप्रतिपाद्यत्वादिति न बहुव्रीहिसम्भव इत्याशङ्का
समुदेति, तथापि एकस्मिन्नप्यपाधिभेदेन परिकल्पितस्य आत्मनः पूरणे । ३.२.१४॥
भेदस्य शिलापुत्रकस्य शरीरमित्यादौ प्रसिद्धत्वात्, इहापि त०प्र०-आत्मनः परस्य टावचनस्य पूरणात्ययान्ते
चतुष्टयात्मकस्य तस्यान्यपदार्थत्वं जनार्दननाम्ना ख्यातस्थ 55 उत्तरपदे परे लप न भवति । आत्मनाद्वितीयः, आत्मना
व्यूहस्य च वत्तिर्पदार्थत्वमिति भेदकल्पनसंभवान्न
कापि शंकेति विज्ञेयम्, एवम्भूतस्थले सर्वैरपि तथैव समा20 तृतीयः, आत्मनाचतुर्थः, आत्मनापञ्चमः, आत्मनाषष्ठः, आत्मनकादशः, पूर्वादित्वात् समासः । कथं 'जनार्दनस्त्वात्म
धानादिति ॥ ३. २. १४. ॥ चतुर्थ एव' इति ? आत्मा चतुर्थोऽस्येति बहीहिः ॥१४॥ मनसश्चाऽऽज्ञायिनि । ३. २. १५ ॥
त०प्र० मनःशब्दादात्मशब्दाच्च परस्य टावचनस्या- 60 श०. म०. न्यासानुसन्धानम्-आत्मनः । पूरणशब्देन |
ऽऽज्ञायिन्युत्तरपदे परे लप् न भवति । मनसा ज्ञात पुरणार्थप्रत्यय उच्यते, केवलस्य पूरणार्थप्रत्ययस्य चोत्तर
शीलमस्य मनसाजायी, एवमात्मजाज्ञायी। आत्मनो नेच्छ• पदत्वासंभवेन पूरणप्रत्ययान्ते उत्तरपदे इत्यर्थी लभ्यते ।
अन्यथा "हृदयस्य हृल्लासलेखाग्ये"[ ३. २. ९४.] इति सूत्रे लेखग्रहणेन 'उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे न तदन्तग्रहणम्' श० म० न्यासानुसन्धानम्- मनस०आज्ञातुं इति ज्ञापनादिह पूरणार्थप्रत्ययान्त-इति नार्थो लम्बेत, तथा शीलमस्येत्यर्थे आङपूर्वकात् ज्ञाधातोः “अजातेः शीले" 65
च सूत्रवैयर्थ्यापत्त्यैव तन्न्यायबाध इति विज्ञेयम् । वस्तुतस्तु [५. १. १५४ ] इति णिनि आज्ञायीति, चकारेण पूर्वसूत्रोक्त 30 यत्र प्रत्ययस्य स्वरूपेण ग्रहणं तत्रैवोक्तन्यायप्रवृत्तिपिक- | आत्मशब्दोऽनुकृष्यते, ततश्च योऽर्थः सम्पन्नस्तमाह-मन:
साजात्यादिति नात्र तत्प्रवृत्तिरिति पूरणार्थप्रत्ययान्ते इत्यों शब्दादित्यादिना । अनेन लुपि निषिद्धेऽपि सकारस्याकारण निर्बाध एव । यात्मना द्वितीय इति--अत्र करोति- योगाद रूपे विशेषाभावाल्लुप् कुतो निषिध्यत इति न क्रियापेक्षमात्मनः करणत्वमिति करणे तृतीया, आत्मना कृतो शङ्कनीयम्, लुपि सति प्रत्ययलक्षणेन पूर्वस्य पदत्वात् 70
द्वितीय इत्यर्थावगमात्, अथवाऽत्राभेदे तृतीया, यथा-प्रकृत्या पदान्तस्य सस्य रुत्वे "रोर्यः" [१.३.२६.1 इति यत्वे 35 चारुरित्यादी, तथाहि सूत्रम्-"यद्भेदैस्तद्वदाख्या” [२.२.४६१ | यलोपे च मनआज्ञायीति रूपापत्तेः । उदाहरति-मनसाऽ
इति, गम्यमानापि क्रिया कारकविभक्तीनां प्रयोजिकेति ! ऽज्ञातुमिति----मनसैवाज्ञापयति न तु वचः प्रयुक्ते यः
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बृहद्वृत्ति बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र १५-१७
- सोऽनेन शब्देनाभिधीयते । एकं विग्रहं प्रदान्यत्र तमति- | तदभिप्रायः, इह च टावचनस्य लुबिष्ट एव, सति सामान्यदिशति--एवमात्मनाज्ञायीति । मतान्तरमाह-आत्मनो ; सूत्रे स न स्यादिति नाम्नीति विधेयमेव । न चेदं नामापितु नेच्छन्त्येके इति, पाणिनेमतमिदम् , तथाहि तदीयः सूत्र- ' यौगिक: शब्दो विशेषणार्थ प्रयुज्यत इति न निषेधो क्रमः--"मनसः संज्ञायाम्," [पा० सू०६.३.४.] "आज्ञा- भवतीति भावः ॥ ३. २. १६.॥
40 यिनि च" [पा० सू०६. ३.५.] मनस इत्येवेति व्याख्यातारः, ततः "आत्मनश्च" [पा० सू०६.३.६.] पूरण इति ! पराऽऽत्मभ्यां ङः। ३.२.१७॥ वक्तव्यमिति वात्तिकमिति, एवं च "आज्ञायिनि च" इति ।
___ त० प्र० परा-त्मशब्दाभ्यां परस्य उश्चतुर्येकवचनसूत्रे आत्मशब्दासम्बन्धः स्पष्टः । स्वमते तु आत्मशब्दस्यापि
स्योत्तरपदे परे नाम्नि विषये लुप् न भवति परस्मैपदम्, पूर्वसूत्रादनुकर्षणमिष्टमिति भावः । अत्र च तथा लक्ष्यदर्शन
परस्मभाषा; आत्मनेपदम्, आत्मनभाषा; "तादर्थ्य" मेव हेतुः, सति च तथा लक्ष्यदर्शने तत्रापि 'आत्मनश्च'
[ २. २. ५४. ] चतुर्थी, हितादित्वात् समासः । नाम्नीत्येव 45 [ पा. सू. ६. ३. ६.1 इति सूत्रे चकारेण 'आज्ञायिनि'
--'परहितम् आत्महितम् । कथं परहितो नाम कश्चित् ? इत्यस्यापि सम्बन्धः शक्यते कर्तुम्, किन्तु तयाख्यात
नेयमनादिसंज्ञा । १७ ॥ पतञ्जल्यादिभिस्तथा न व्याख्यातम् । आचार्यस्तथाल
क्ष्यदर्शनं कृतमिति स्पष्टमेव सूत्रं तद्वयाख्यानं च कृत15
श०म० न्यासानुसन्धानम् परा० । नाम्नीति पूर्वसूत्रे मिति ।। ३.२. १५.॥
आत्म शब्दसम्बन्धस्य विच्छिन्नत्वा दिह पुनरात्मशब्द उपात्तः। 50
| डेरिति षष्ठ्येकवचने रूपं, तच्च चतुर्थंकवचन-सप्तम्येकनाम्नि । ३. २.१६॥
वचनयो: साधारणमिति कस्येह प्रणमिति सन्देहमपाकुत० प्र० मनसः परस्य टावचनस्योत्तरपदे परे नाम्नि । न्नाह चतुर्थंकवचनस्येति, एतच्च क्रमन्यायतोऽपि लब्धम्, संज्ञायां विषये लपन भवति। मनसादेवी, मनसागुप्ता, . पूर्वत्र टस्तृतीयकवचनस्यालुब्विधानात् क्रमप्राप्तस्यैव चतुर्थ्य
मनसावत्ता, मनसासंगता, एवंनामा काचित् । नाम्नीति कवचनस्य ग्रहणमि भावः । परस्मैपदमिति परस्मै पद्यते नर 20 किम् ? मनोदत्ता कन्या ॥ १६ ॥
प्रयुज्यत इति परस्मैपदम्, उभयपदिनो धातोः कर्तृ गामिनि
क्रियाफले आत्मनेपदं विधीयते, परिशेषात् परगामिनि श०म०न्यासानुसन्धानम, नाम्नि। आज्ञायिनीति ! क्रियाफले परस्मैपदं भवति एवं विधिसूत्रानुरोधादेवतयोः न सम्बध्यते योगविभागसामर्थ्यात आत्मशब्दोऽपि न सम्ब- परस्मैपदात्मनेपदसंज्ञे अन्वर्थे भवतः । परस्मैपदस्यैव परस्मैध्यते *चान कृष्टं नोत्तरत्र * इति न्यायात । तथा चोत्तरपदे | भाषेति यौगिकी संज्ञा, आत्मनेपदस्य चात्मनेभाषेति । अत्र इत्येव निमित्तमिति नोत्तरपदविशेषप्रतिबन्ध इति प्रसि- | च चतुर्थीनिमित्ततया प्रसिद्धस्य सम्प्रदानत्वस्यादर्शनात् कथं द्धानि नामान्युदाहरति मनसादेवीत्यादिना, अयं च स्त्रियां । चतुर्थीति शक्कामपाकुर्वन्नाह "तादध्ये" चतुर्थी ति तादर्थ्य प्रयोगो न तु णिनन्तः, तथा च मनसा दीव्यादित्याशास्य- चेह तस्मै प्रयुज्यमानत्वमेव । हितादित्वात् समास इति मानेत्यर्थे "तिक्कृतौ नाम्नि" ( २५. १. ७१ ) इति सूत्रसह- ! "हितादिः" (३. १. ७१.) इति सूत्रेणेति शेषः । नाम्नीति कारेण लिहादित्वादचि देवशब्दे निष्पन्ने गौरादित्वान्डीः । पूर्वसूत्रसम्बन्ध स्यावश्यकत्वमित्याह नाम्नीत्येवेति तद्व था- 65 "कारकं कृता" (३१. ९.६८.) इति समासे स्यादेर्लुपि वर्त्यमाह-परहितमित्यादि,इदं च विशेषणत्वेन प्रयुज्यते तत्र प्राप्तेऽनेन निषेधः । मनसागुप्तत्यादौ च भूते क्तान्तेन सह । न चतुर्थ्य कवचनस्याल विष्ट इति भावः । क्वचिन्तामन्यपि, स एव समासः, शेषं पूर्ववत् । संज्ञात्वं स्पष्टयति एवनामा ! भवत्यलुप्, तत् कथमिति शङ्कते-कथं परहितो नाम कश्चि. काचिदिति-नाममात्र श्रूयते न तु संज्ञिनी विशिष्य परिचीयत: दिति अत्र नामत्वे सत्यपि कथं नालुबिति शङ्कार्थः । उत्तरइति भावः । नाम्नीति किमिति-"अन्यत्रापि" इति सामा- । यति-नेयमनादिसंज्ञेति-अनादिकालविज्ञातैव संज्ञेह संज्ञाशब्देन 70
न्येनैव विधीयता सूत्रमिति भावः, न तु सूत्रमेव किमर्थमिति, । गृह्यते, आधुनिकसङ्केतस्य च संज्ञात्वेन ग्रहणेऽनवस्था । 35
मनसादेवीत्यादीनामसिद्धयापत्तेः । मनोदतेति मनसैव कस्मै- स्यात, पुरुषे च्छाया अनियतत्वेन संज्ञानामानन्त्यापत्तेः। यद्यपि चन वराय दत्ता, न तु वाचा तहानं प्रकाशितमिति । परस्मैपदमित्याद्यपि नानादिसंज्ञा, तादशसंज्ञायाः तत्तत्क
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[ पाद-२, सूत्र- १७-१८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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त्कर्तृविशेष कृतत्वस्य प्रसिद्धत्वात् तथापि तत्तद्वयाकरणादिकर्तृभिनय संज्ञा स्वकल्पिता कृताऽपि तु अनादिपरम्परा प्राप्तव स्वीकृतेति न दोष:, दृश्यते हि पाणिन्यादितोऽपि पूर्वतरेऽग्निपुराणादौ तदुल्लेखः । अन्ये वैयाकरणास्तु श० म० न्यासानुसन्धानम् - श्रव्यञ्जनात् । 5 वैयाकरणास्यायामेव परात्मशब्दाभ्याम्परस्य चतुर्थ्येक- अच्च व्यञ्जनं चेत्यनयोः समाहारः, तस्मात् एतच्च 40 वचनस्यालुपमाहुः; तथाहि-पाणिनीये सूत्रे ' वैयाकरणाख्यायां । विशेषणपदम् सप्तमीसम्वन्धयोग्यं च नाम समाक्षिप्तं चतुर्थ्या:” (पा. सू. ६. ३. ७.) आत्मन् इत्येव "परस्य च विशेष्यम्, “विशेषणमन्तः” ( ७. ४. ११३ ) इति परिभाषया तदन्तविज्ञानादकारान्ताद् व्यञ्जनान्ताच्चेत्यर्थ( पा. सू. ६.३ . ८ . ) इति । अत्र यद्यपि परस्मैपदात्मने पदशब्दयोरेव वैयाकरण - ( व्याकरणे सूत्ररूपे भवा संज्ञा ) लाभ:, यद्यपि समाहारनिर्दिष्टस्य समुदितरूपेणैव विशेषण10 संज्ञात्वेन प्रसिद्धि:, तथा च 'परस्मैभाषा आत्मनेभाषा' इति त्वमुचितं तथापि एकस्य नाम्नोऽकारान्तत्वव्यञ्जनान्तत्व- 45 योरसंभवात् प्रत्येकस्य विशेषणत्वमवसीयते । क्रमश उदाहर्तुंमवतारयति श्रदन्तेति अत्र स्वरूपनिर्देशमात्रमुचितम्, अपदं न प्रयुञ्जीतेति निषेधस्तु क्रियाकारकादिसम्बन्ध प्रतिपिपादयिपया प्रयुज्यमानशब्दविषयः, दृश्यते च भाष्यकारादीनामपीदृशनिर्देशस्थले निविभक्तिक एवं प्रयोगः । श्ररण्येतिलकः 50 इति-विग्रहवाक्यमपीदृशमेव संज्ञात्वात् समासो नित्य इति स्वभ्यत्, "नाम्नि" ( ३. १. ९४.) इति समासः ; एवं समासे सप्तम्या अलुपि "मवियुधः स्थिरस्य” (२.३.२५) सर्वत्र । व्यञ्जनान्तमुदाहरति-- युधिष्ठिरः इति - पूर्ववत् इति षत्वम् । एषु नित्यमेवालुप् । बहुलवचनस्य प्रयोजनमाह-- बहुलवचनात् क्वचिद् विकल्प इति । "क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा ववचिदन्यदेव | "
शब्दयोर्न तादृशसंज्ञात्वमिति तत्र नालुप् प्राप्नोति, तथापि वैयाकरणानामाख्या वैयाकरणास्येति विग्रहेणान्यत्रापि वैयाकरणः संज्ञात्वेन व्यवहृतानां वैयाकरणाख्यात्वं भवति, दृश्यते च 'परस्मैभाषा, आत्मनेभाषा' इति पदयोरपि तत्र 15 तत्र घातुपाठादौ संज्ञात्वेन व्यवहारः । सर्वमिदं प्रकृतसूत्रयोः महाभाष्य-कैयटादिषु स्पष्टीकृतम्, तथा च तन्मते परहितो नाम कश्चिदित्यादौ न दोषाशङ्का । स्वमते तु नामत्वेनानादिनाम्न एव ग्रहणमिति व्याख्याने क्षत्यभावादेव परहिताद्याधुनिकनाम्नां व्यावृत्तिसिद्धी लाघवानुरोधेन वैयाकरणा20 ख्याया विशिष्य ग्रहणं न कृतम्, तत्रैव चेदृशानां शब्दानामनादिसंज्ञात्वेनातिप्रसङ्गाभावात् भवति हि तेषां विशिष्य तादृशसंज्ञाग्रहणे गौरवमिति । ३. २. १७. ।।
!
!
१७
अद्-व्यञ्जनात् सप्तम्या बहुलम् । ३.२.१८ ।
त० प्र० अकारान्ताद् व्यञ्जनान्ताच्च परस्याः सप्तम्या
|
25 बहुलं लुप् न भवति, नाम्नि विषये । अदन्त - अरण्येतिलकाः, अरण्यमाषकाः, वनेकशेरुकाः, वनेबल्वजाः, वनेकशुकाः बनेहरिद्रुकाः, कूपेपिशाचिकाः, पूर्वाह्लेस्फोटकाः, मध्याह्ने - स्फोटकाः; व्यञ्जन - युधिष्ठिरः । बहुलवचनात् क्वचिद् विकल्पः- त्यचिसारः, त्वक्सारः; क्वचिद् भवति - जलकुक्कुटः 30 ग्रामसूकरः । अव्यञ्जनादिति किम् ? भूमिपाशः, नदी कुक्कुटिका | नाम्नीत्येव - 'तीर्थकाकः, नगरवायसः, अक्षशtos: । कथं गविष्ठिर: ? विवादिपाठात्, गवि युधेः स्थिरस्य" । [२. ३.२५ ] इति निर्देशाद् भविष्यति । नन्वन्तरङ्गत्वादवादेशे कृते व्यञ्जनान्तत्वादेव
।
वा
अन्यथा नदी कुक्कुटिकादिष्वप्यन्तरङ्गत्वाद्यत्वे सत्यलुप् प्रसज्येतेति ॥ १८ ॥
55
।
इति बाहुलकफलस्याभियुक्तैरुक्तत्वादिति भावः । त्वचिसारः इति - - बहुव्रीहिरयं व्यधिकरणः उभयथापि 60 प्रयोगदर्शनाद् विकल्प इष्टः, अन्यथा नाम्नः स्वरूपभेदानीचित्यान्नित्यमेवालुप् स्यात् । क्वचिन्नाम्न्यपि सूत्राप्रवृत्ति बाहुलकलभ्यामाह – क्वचिद् भवतीति - लुबिति शेषः । क्वेत्याह-- जलकुक्कुट, ग्रामसूकरः इति जले कुक्कुटः, ग्रामे सूकर इति विग्रह्मभिप्रेत्येदम्, यदि च सम्बन्धसामान्य- 65 विवक्षायां षष्ठीमाश्रित्य समासो विधीयते तर्हि नायमेतत्सूत्रविषयः । न चैवम् ' अरण्येतिलका:' इत्यादावपि षष्ठीसमासे कृतेऽरण्यतिलका इत्यपि स्यादिति वाच्यम्, तत्र तेनैव रूपेण संज्ञात्वात् कामचाराभावात्, इह च संज्ञास्वरूपे विभक्तेरश्रूयमाणत्वेन प्रकृतसूत्रानुरोधेन षष्ठीसमा - 70 सेनापि समाधातु शक्यत्वादीदृशविचारोल्लेखः, किन्तु
35 सिद्धं, कि विदादिपाठाश्रयणेन ? नैवम् - *अन्तरङ्गानपि आचार्यवचनप्रामाण्यात् सप्तमीसमासस्यैव स्वीकर्तुमोहि विधीन् बहिरङ्गाऽपि लुप् बाधते * इत्युक्तम् । चित्यमित्यन्यत् । नाम्नीति सम्बन्धस्यावश्यकत्वमाह-
३
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बृहद्वृत्ति - बृहन्न्यास संवलिते
[ पाद-२, सूत्र १८ -१६ 3
नाम्नीत्येवेति । व्यावर्थमाह-- तीर्थकाकः इति — तीर्थे | वन्तरङ्गत्वाद् यादेशे व्यञ्जनान्तत्वनिमित्तो लुम्निषेधः काक इवेति विग्रह: । " काकाद्यैः क्षेपे" ( ३.१.९०. ) स्यादिति भावः । यद्यपि जलकुक्कुटादिवत् क्वचिदप्रवृत्त्या इति समासः, संज्ञात्वाभावात् प्रकृतसूत्राप्रवृत्त्या सप्तम्या | नदीकुक्कुटादीनां सिद्धिः सम्भवति, किञ्च 'नदी इ 40 लुप् नाम्नीत्यस्यासम्बन्धे तु सा न स्यात् । नगरवायसः कुक्कुट स्' इत्यवस्थायां समासानन्तरमेव लुपः प्राप्तिः, 5 इत्यत्रापि स एव समासः । अक्षशौण्डः इति - अक्षेषु यादेशस्तु आमि सति प्राप्त इति पूर्वोपस्थितनिमित्तत्वरूपशौण्ड, इति विग्रहः, "सप्तमी शौण्डाद्यैः " ( ३. १.८८ ) मन्तरङ्गत्वं लुप एवेतीह दोषाभाव:, तथापि नदीशब्दात् इति समासः, अत्रापि संज्ञात्वाभाव एवेति भवत्येव लुप् । ङेरुत्पत्ति वेलायामेवामादेशेऽन्तरङ्गत्वात् कृते पश्चात् समास सप्तम्या इति किमिति - - नाम्नि सप्तम्यन्तस्यैव विशिष्य इति यादेश-लुपोः समकालप्राप्तिकत्वमेव । बाहुलकाद- 45 संज्ञाविधानात् सप्तम्या इत्यस्याभावेऽपि न क्षतिरिति प्रवृत्तिकल्पनं त्वगतिकगतिरिति सत्यां गतावाश्रयितुमयुक्त - 10 शकाशयः, यद्यपि “नदीभिर्नाम्नि " (३.१.२७ ) इत्यने । मिति न्यायाश्रयणमेव युक्तमिति भावः ॥ ३. २. १८. ॥
|
नापि संज्ञायां समासो विधीयते, तथापि तत्र विभक्त्यन्तस्योत्तरपदत्वेनोत्तरपदपरत्वाभावान्न दोष इति तदभिप्रायः । प्रत्युदाहरति-- गौरखरः इति, अयमाशय: - नेह नाम्नि -विहितः समासो निमित्ततयाऽऽश्रीयतेऽपि तु समस्तस्य नामत्व15 माश्रितमिति लक्षणप्रतिपदोक्तन्यायावसराभावात् नाम्नि विहितसमासस्यैव ग्रहणमिति नियन्तुमशक्यत्वात् इह गौरः इत्यret विशेषणसमासेऽपि नामत्वस्य सत्वात् प्रथमायाः पूर्वपदस्थाया अलुप् स्यात्, तन्माभूदिति सप्तमी ग्रहणमावश्यकम् । अन्यत्रापि प्रवृत्ति शङ्कते -- कथं 20 गविष्ठिरः इति -- गोशब्दस्याकारान्तत्व-व्यञ्जनान्तत्वयोरभावेऽपि कथमत्र सप्तम्या अलुबिति शङकार्थः । द्विधा निपातनमाश्रित्योत्तरयति -- बिदादित्यादित्यादिना बिदादिगणे गविष्ठिरशब्दस्य पाठात् सप्तम्यलुप् निगत्यतेऽथ च "गविधेः स्थिरस्य" (२.१.२५.) इति सूत्रे गवोत्यतः परस्य स्थिरस्य षत्वविधानश्रुतेः सप्तम्या अलुबिति भावः । अन्यथापि प्रकृतप्रयोगसिद्धिं शकते -- नन्वन्तरङ्गत्वादिति । पदद्वयसम्बन्धनिमित्तकै कार्थ्याश्रिता विभक्तिलुप् बहिरङ्गा, एकपदनिष्ठ वर्णद्वया श्रितोऽवादेशोऽन्तरङ्ग इति असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे इति न्यायात् पूर्वमवादेशे न्यञ्जनान्तत्वसम्पत्या प्रकृतसूत्रप्रवृत्तौ बाधकाभावात् न्यायसिद्धेवालुबिति
25
30
१८
प्राक्कारस्य व्यञ्जने । ३. २.१६ ॥
त० प्र० राजलभ्यो रक्षानिवेशः कारः प्राचां देशे यः कारस्तस्य नाम्नि - 'संज्ञायां गम्यमानायामद् व्यञ्जनात् 50 परस्याः सप्तम्या व्यञ्जनादावुत्तरपदे परे लुप् न भवति । मुकुटे मुकुटे कार्षापणो दातव्यः - मुकुटेकार्षापणः, एवं - स्तूपे ज्ञाणः, हलेद्विपदिका; हलेत्रिपदिका । व्यञ्जन - दृषदिमाषकः, समिधिमाषकः, वृत्तौ वीप्साया दानस्य चान्तर्भावः । प्रा किम् ? यूथे यूथे देयः पशुः - यूथपशु, एवं- 'यूथवृषः, उदीचां 55 देशे कारोऽयम् न प्राचाम् । कार इति किम् ? अभ्यहितेयहिते देयः पशुः - अर्ध्याहतपशः प्राचां देशे कारादन्यस्य उरणो दातथ्य:-अविकटोरणः, अविकटोऽविसमूहः । अद्देवस्य नामैतत् । व्यञ्जन इति किम् ? अविकटेऽविकटे व्यञ्जनादित्येव-नध्यां नध्यां दोहो दातव्यः - नभीदोहः । 60 पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थोऽयं योगः, त्रिविधश्चात्र नियम:प्राचामेव, कारस्यैव नाम्नि व्यञ्जनादावेवेति तथा च प्रत्युदाहृतम् ॥ १९ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - प्राकारस्य० ॥ प्राचां कारः -- प्राक्कारः, तस्य प्राक्कारस्य, प्राचामिति देश- 65 स्वामिपरम्, कारशब्दोऽज्ञातार्थं इति तदर्थमाह- राजलभ्यो बिदादिपाठसामर्थ्याश्रयणमनावश्यकमिति शङ्काशयः । न्या- | रक्षानिर्वेशः इति- राजा राष्ट्रं रक्षति, राज्ञा रक्षिते च राष्ट्र यान्तरविरोधेनोत्तरयति--नैवमित्यादिना, तथा च लुपः | कृपिपाशुपात्यवाणिज्यादयः समुचितरूपेण सम्भवन्ति, राजा च न स्वशरीरमात्रेण सर्वं राष्ट्रं पालयितुं क्षम इति तत्पालनाय रक्षाधिकृतपुरुषा नियुज्यन्ते, ते च सवेतना 70 भवन्ति, तदुपकरणान्यपि च मूल्यलभ्यानीति तदर्थं राजा प्रजाभ्यस्तत्रतत्रायस्थानेषु नियतं षष्ठांशादिरूपं करं गृह्णाति स एव च करः स्वार्थिकाण्प्रत्ययसम्बन्धेन कारोऽभिधीयते,
प्राबल्येन पूर्वमेव प्रवृत्तिरिति तदवस्थायां व्यञ्जनान्तत्वाभावान्न प्रकृतसूत्रप्राप्तिरिति निपातनाश्रयणमावश्यकमिति भावः । लक्ष्यानुरोधात् प्रकृते अन्तरङ्गानपीति न्यायानाश्रयणमिति कथने दण्डमाह-- श्रन्यथा नदीकुक्कुट - इति । 'नदी - इ' इत्यवस्थायां ङेरामि कृते यादेश-लुपोः प्राप्ता
35
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[ पाद-२, सूत्र-१६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१९
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.....
स च राजलभ्योऽपि रक्षानिर्देश:-[ निष्क्रय ] रूपोपि । । यत्र यस्य वस्तुनो यथालाभप्रदत्वं तदनुसारमेव तस्य किचासो न सर्वदेशेष्वेकरूपः, क्वचित् कस्मिश्चिदायस्थाने कारनिर्धारणमिति प्राक्कारादन्यत्र तदप्रवृत्ययं प्राग्ग्रहण- 40 षष्ठभागरूप: क्वचिन्न्यूनः क्वचिदलः क्वचिच्चान्यप्रकार मावश्यकमिति प्रत्युदाहरणमुखेनोत्तरयति-~-यूथे यथे इति।
एवेत्यने करूयो भवति, तत्र प्राचां देशे यत् कारनाम तत्रेदं । व्यावृत्तिप्रकारं दर्शयति--उदीचां, देशे कारोऽयं न प्राचा5 सूत्र प्रवर्तते, तदाह-प्राचां देशे यः कारः इति । मकटे- | मिति--तथा चात्र भवत्येव सप्तम्या लप, प्रागित्यस्या
मुकुटे इति-प्रतिमुकुटमित्यर्थः, मुकुटनिर्माणे तस्य विक्रे. भावे तु न स्यादिति भावः । कार इति किमिति---तथा यतया निर्मात्रा विक्रेत्रा वा [ यथानियमम् ] कापिणो । च "प्राचां ध्यञ्जने” इत्येव सूत्रमस्तु, प्राचामिति च नाम्नी- 45 रूप्यकचतुर्थांशो राजलभ्यद्रव्यरूपेण देय इति भावः । एष । त्यनेन सम्बद्धम्, तथा च प्राचां देशे यन्नाम तत्रवालप
सर्वत्र "नाम्नि"। ३-१-९४० 7 इति समासः, नाम्नि च । स्यादिति स्वीक्रियतामित्याशयः। अभ्यहिंतपशुरिति, 10 समासः प्रायेण नित्यो भवति, तत्र विग्रहप्रदर्शनमर्थनिर्देश- कारत्वाभावेऽपि नामत्वं साधयति प्राचां देशे कारादन्य
मात्रम्, नित्यसमासस्याविग्रहत्वादस्वपदविग्रहत्वाद् वा।। स्येति । व्यञ्जनादाविति विशेषणमुत्तरपदस्य किमर्थमिति स्तूपेशाण; इति---"स्तूप आयतनविशेषः" इति पुल्लिङ्गा- | शङ्कते-व्यञ्जने इति किमिति, सामान्यत उत्तरपदेऽलुपो 50 नुशासनवृत्तावाचार्याः, "स्तूपः, स्तूपम्-मृदादिकूटः, बोधि- | विधाने स्वरादावपि स्यादित्याह-अविकटोरणः इति,
सत्त्वभवनम्, उपायतनं च कश्चित्" इति पुनपंसकलिङ्गा- | अविकट इत्यस्य विकटाभाव इत्यर्थो माज्ञायीति तदर्थमाह15 नुशासनवृत्तौ त एवाहः। स्तूपोराशिरिति लघुन्यास- अविकटोऽविसमूहः अवीनां संघात इत्यर्थे “अवेःसङघातकाराः। तत्रायतनविशेष एवेहार्थतया स्वीकार्य इति प्रती
विस्तार कटपटम्" (७.१.१३२.) इतिकटप्रत्ययः, उरणो यते, यत:--अनुपपदो राशिनं कारविषयः, आयतन विशेष- मेषः, अविस घातपालकेन प्रतिसवातमेक उरण: काररूपेण 55 स्त्वायस्थानत्वात् कारविषयो भवितुमर्हति । शाणो यद्यपि ।
देय इति तदर्थः, अत्र सप्तम्या अलुपं वारयितुं व्यञ्जनादामण्यादितेजनचक्रविशेष प्रसिद्धः, तथापीह तस्य कारत्वा
- विति सार्थकमिति भावः । अद्-व्यञ्जनादिति पूर्वसूत्रादनु20 सम्भवेन, कर्षचतुर्थभागरूपो मुद्राविशेषः सौवर्ण: शाण
वर्तनीयमेवेत्याह--अद-व्यञ्जनादित्यवति । व्यावर्त्यमाहशब्देन ग्राहयः । हलेद्विपदिकेति-प्रतिहलं द्वौ द्वौ पादौ : नयां नयामिति-नध्री धर्ममयी हलादियोजनरज्जुः, ददातीति समासार्थः, पादशब्दश्चाणकचतुर्थभागवाचक ! नह्यतेऽनयेति व्युत्पत्तः, तस्यां विक्रयार्थ प्रस्तुतायां, दोहः- 60 इहेति प्रतीयते:, 'पाई, पैसा' इति शब्दाम्यां तस्य यथादेश
एकपशदोहनलभ्यदुग्धं देयमित्यर्थः प्रतिभाति, स च न प्रसिद्धः। एवं-हलेत्रिपदिकेति विज्ञेयम् । व्यञ्जनान्त- ! बुद्धिपथमारोहति, सिद्धान्तकौमुद्यादौ च नदीदोह इति 25 मुदाहर्तुम् प्रतीकरूपमाह-व्यञ्जनेति दृषदि मापकः । प्रत्युदाहरणं दृश्यते, तच्चेत्थं व्याख्यायते-दुग्धदातृपशोर्नदी
इति–अत्र 'दृषद्'-शब्दो निष्पेषणशिलावाचकः, तन्निर्मात्रा | तारणे तच्छुल्करूपेण तदीय एको दोहः-एकसमयदोहनलभ्यं माषक:-माषपरिमितो मद्राविशेषः कारत्वेन देयः । एवं- दुग्धं देयमिति, बहूनामक्षराणां साम्यादर्थसामञ्जस्याच्चा- 65 समिधि मापकः इत्यत्र ज्वालनकाष्ठविक्रेत्रा माषको देय त्रापि तदेव प्रत्युदाहरणं भवेदित्यनुमीयते, अस्तु वाsइति बोध्यम् । समिध्' शब्दस्तदापणे लाक्षणिक: स्वीकार्य:,
विज्ञातार्थ मेवेदं प्राग्देशप्रसिद्धस्य कस्यापि कारस्य नाम, वीप्सया विग्रहः प्रदर्शितः, वीप्साबोधकप्रत्ययाद्यभावात | अद्-व्यञ्जनान्तत्वाभावश्च स्पष्ट एवोभयत्र, ततश्चात्र कथं तदवगतिरित्याशङ्कायामाह वृत्तौ-वीप्साया दानस्य । सप्तम्या लुबेव भवति, नानेन निषेधः, तदर्थमद्-व्यञ्जचेति-नाम्नि समासविधानात् तन्नामवाच्यः सकलोऽप्यर्थ- नादित्यस्यावश्यकत्वमिति भावः ।
70 स्तेन समासेन बोध्य इति समासरूपवृत्तावेव वीप्साया दान- श० म० सूत्रस्य त्रिधा नियामकत्वं व्याख्यातुमाहस्य च गतार्थत्वमेष्टव्यम्, यतो यत् प्रतीयते स तद्वाचक इति
द्धे इत, अयमाशय:--''अद्वयञ्जनात् सप्तम्या 35 सिद्धान्तात्, तथा च तद्बोधनाय न वृत्त्यन्तरस्यावश्यकतेति , बहलम्" ( ३. २. १८. ) इति सूत्रे बहुलग्रहणेनानिष्ट
भावः । कारस्य सर्वत्र नामक्यमेवेति विशिष्य प्राकपदसहि- स्थलव्यावत्तिसिद्धाविष्टस्थले च तेनवालप: सिद्धिरिति । तस्य निर्देशो व्यर्थ इति शङ्कते--प्रागिति किमिति । न सूत्रमिदं व्यर्थम्, तथा चास्य किमपि विशिष्टं फलमुचितमिति 76 सर्वत्र देशे कारनामक्यम, कारस्य लाभविशेषमूलकत्वेन तन्नियमरूपेण प्रतीयते, सिद्धे सत्यारभ्यमाणस्य विनिय
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बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास संवलिते
[ पाद-२, सूत्र - १६-२० ]
मार्थत्वस्यौचित्यात् । नियमस्वरूपं विवरीतुं पूर्वं तस्य कुरुचरः, एवं रात्रिचरः, नदीचरः । कथं 'परमे कारके, प्रकारमाह - त्रिविधश्चात्र नियमः इति- सूत्रस्थपदत्रयस्य ! उत्तमे कारके' इति विग्रहे परमकारके उत्तमकारके तिष्ठत्रिधा नियामकत्वान्नियमत्रैविध्यमिति भावः । स्वरूपमाह - | तीत्यत्र सप्तम्या लुब् भवति ? उच्यते - अन्तरङ्गत्वात् 40 प्राचामेवेत्यादिना तथा च तत्स्वरूपमित्थं विज्ञेयम् -- प्रथमान्तयोरेव परमोत्तमशब्दयोः कारकशब्देन समास इति 5 व्यञ्जनादावुत्तरपदे कारस्य नाम्नि सप्तम्या अलुप् चेत् । ताभ्यां सप्तम्येव नास्ति यद्वा कृतीति कृन्निमित्ताया एव प्राचामेव १, व्यञ्जनादावुत्तरपदे नाम्नि सप्तम्या अलुप् । सप्तम्या लुप्रतिषेधः, इह तु तिष्ठत्यादिक्रियापेक्षेति लुप् चेत् प्रावकारस्यैव २, प्राचां कारस्थ नाम्नि उत्तरपदे सप्तम्या ! भवत्येव ॥ २० ॥
-
"कारनाम्नि च हलादी प्राचाम्" ( पा० सू० ६. ३. १. 15 इति सूत्रे प्रदर्शितः - प्राचामेवेति व्यञ्जनादावेवेति च । तत्रोक्तं नागेशेन - - अभ्याहतपश्वादयो न नामानि तथा च नाममात्रेणैव तद्व्यावृत्तिरिति कारस्यैवेति न नियम्यम्, परन्तु तन्मतेऽस्याप्राप्तविभाषात्वस्वीकारः, इह च स्वमतेऽस्य नित्यविधित्वं प्राप्ते आरम्यमाणत्वं चेति समुचितमेव 20 नियमत्रैविध्यम्, प्रक्रियाभेदस्य सूत्रव्याख्याभेदेनैव निर्वाह्य ! समासस्तु 'स्तम्बे - रम' इति पदयोरेव उत्तरपदे च त्वात्, तत्रत्यप्रक्रियाया भेदेऽपि न फले भेदो व्यवस्थित- । विभक्त्युत्पत्तेः पूर्वमेव समासः, गति कारक - ङस्युक्तानां विभाषाश्रयणादिति प्रकृतेऽनावश्यकत्वात् तदुल्लेखो न कृतः । कृद्भिः स्वाद्युत्पत्तेः पूर्वमेव समासस्य न्यायसिद्धत्वात् । इह
अलुप् चेत् व्यञ्जनादावेवोत्तरपदे ३ इति । नियमव्यावकाङ्क्षायामाह - तथा च प्रत्युदाहृतमिति -- प्राचा मेवे - श० म० न्यासानुसन्धानाम् तत्पुरुषे० । तत्पु- 45 10 त्यनेन यूथपश्वादय उदवकाराः, कारस्यैवेत्यनेनाभ्यर्हित- । रुषे इति समुदायविशेषणम्, कृति इति चोत्तरपदमात्रस्य पश्वादयः कारादन्ये ज्ञेयाः, व्यञ्जनादावेवेत्यनेन च अवि- | व्याख्यानाल्लक्ष्यानुरोवाच्च । कृतीति च कृत्प्रत्ययपरमिति, कटोरणादयः स्वराद्युत्तरपदका व्यावर्याः पूर्वमेव प्रदर्शिता केवलस्य प्रत्ययस्योत्तरपदत्वायोगात् तदन्तपरमित्याह--- इति भावः । पातञ्जले महाभाष्ये च द्विविध एव नियमः । कृदन्ते उत्तरपदे इति । नाम्नीति निवृत्तमिति तत्पुरुष| ग्रहणात् पृथक्सूत्रारम्भाच्च, अयमाशयः -- नाम्नि प्राय- 50 स्तत्पुरुषसमास एवेति तत्पुरुषग्रहेण नाम्नीत्यस्यासम्बन्धः सूच्यते । किञ्च तत्सम्बन्धसत्त्वे "अद्वयञ्जनाद्" इति पूर्वसूत्रेणैव सिद्धिरिति पृथगस्य सूत्रस्यावश्यकत्वं न स्यादिति पृथक् सुत्रारम्भादपि नाम्नीत्यस्य निवृत्तिरनुमीयते । स्तम्बे रमते इति-- एतत् कृदन्तप्रत्ययोत्पस्यर्थ विग्रहवाक्यम्, 55
॥ ३.२. १९. ॥
तत्पुरुषे कृति । ३. २. २० ॥
त० प्र० अद्व्यञ्जनात् परस्याः सप्तम्याः कृदन्ते | उत्तरपदे परे तत्पुरुषे समासे लुब् न भवति, नाम्नोति निवृत्तम् । स्तम्बे रमते - स्तम्बेरमः एवं - कर्णेजपाः पात्रे समिताः प्रवाहमूत्रितम् उदकेविशीर्णम्, अवतप्तेनकुलस्थितम् ; व्यञ्जन - भस्मनिहुतम्, भस्मनिमीढम् । बहुला | 30 धिकारात् क्वचिदन्यतोऽपि - गोषुचरः, ववचिन्निषेधो न भवति-मद्रचरः, ग्रामकारकः; क्वचिद् विकल्पः - खेचरः । खचरः; वनेचरः, वनचरः; पङ्केरुहम्, पङ्करुहम्; सरसिरुहम् सरोरुहम् दिविषत्, द्युत्, वर्षाचिदन्यदेव-हृदयं स्पृशति - हृदिस्पक, द्वितीयार्थेऽत्र सप्तमी, एवं दिविस्पृक् ।
चयुक्तसमासोत्यमते, स्वमते च "शोकापनुदतुन्दपरिसृजस्तम्बे'रमकर्णेजप० ( ५० १. १४. ३ ) इति सूत्रे 60 निपातनादेव समासः । यद्यपि निपातनादेव तत्र सप्तम्या अलुबपि भविष्यत्येवेति नेदमस्य दृढतरमुदाहरणं तथापि यावानर्थो लक्षणैरप्राप्तस्तावानेव निपात्य इति सप्तम्यलुपोऽनेन प्राप्तत्वान्न निपातनस्य तत्रांशे व्यापार इति स्वीकर - णीयम्, पूर्वपदस्य च अस्युक्तत्वाभावेन समासो निपातनादेव 65 स्वीकरणीयः स्यात् स्तम्बो व्रीह्यादिदण्डभागः, तत्र रमते तदास्वादने सुखमनुभवति, तथाभूताश्चान्येऽपि पशवो यद्यपि भवन्ति, तथापि हस्त्यर्थे निपातनात् स एव बोध्यते, तद्बोधादेव तदर्थे निपातनमिति वा । एवं- कजपः सूचकः ( पिशुनः ) एव, नान्ये कर्णेमन्त्राद्युपदेष्टारो गुर्वादयः, 70 तवा ( सूचक एव ) स्य शब्दस्य रूढत्वात् । पात्रेसमितः । इत्यत्र " पात्रेसमितेत्यादयः " ( ३.१.३१ ) इति समासः, | तत्रापि यद्यपि निपातनादेव सप्तम्यलुप् सिद्धा, तथापि प्रकृतसूत्रोदाहरणत्वसम्भवे निपातनं नाश्रितम्, पात्रेसमितो
तत्पुरुष इति किम् ? धन्वनि कारका यस्य स धन्व कारकः. एवं - कल्याणाभिनिवेशः, धर्मरुचिः । कृतीति किम् rritor:, अक्षतिवः । अद्व्यञ्जनादित्येव - कुरुषु चरति
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[ पाद-२, सूत्र-२० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
यो भोजनसमये एव संगतो न तु कार्ये, स उच्यते, तथा च ' इति प्रथमान्तयोरेव स समासः, द्वन्द्वोऽपि तथैवेति परिशेषात् विशेषणभूतोऽयमिति नामत्वाभावः । प्रवाहेमूत्रितमित्या- तत्पुरुष एव भविष्यतीति तत्पुरुषग्रहणमव्यावर्तकमिति 40
यः क्षेपार्थाः कार्यस्य अस्थानकृतत्वसूचकाः, तथा च तत्र प्रष्टुराशयः। न केवलं तत्पुरुषे एव सप्तम्यन्तस्य पूर्वपद"क्तेन" (३. १. ९२) इति समासः । अकारान्तादुदाहृत्य । त्वेन प्रवेशोऽपि तु उष्ट्रमुखादिगणे कण्ठेकालादीनामपि व्यञ्जनान्तादुदाहतु प्रतीकमाह--व्यञ्जनेति । भस्मनिह- पाठाद्, सप्तम्यन्तस्य बहुवीही पूर्वप्रयोगनिषेधक-न तम् निरर्थकं कर्म, हवनस्याग्निमध्ये एव सार्थकत्वात् । सप्तमीन्द्वादिभ्यश्च" (३.१.११५) इत्यादिसत्ररूपज्ञापभस्मनि तत्करणस्य निष्फलत्वं स्पष्ट मेव, पर्ववत समासः । एवं ! काद वा बहुदीहावपि सप्तम्यन्तस्य प्रवेशेन तत्र लपो निषेधो । सूत्रोपात्तादकारान्ताद् ब्यञ्जनान्ताच्चोदाहृत्य, प्रयोगव्य- मा भूदित्येतदर्थं तत्पुरुषग्रहणमावश्यकमित्याह-धन्वनि
स्यान्येभ्योऽपि सप्तम्यलुप्सहितस्य दृष्टत्वात् तत्साधनामाह- कारका यस्येति--ज्ञापकादुष्ट्रमुखादित्वाद् वा समासः । 10 बहुलाधिकारादिति--"अद्-व्यञ्जनात् सप्तम्या बहुलम्" । अत्र पूर्वोक्तज्ञापकेन सप्तम्यन्तस्यापि बहुव्रीहिसमासे प्रवेश
इति सूत्रस्थस्य बहुलमित्यस्याधिकारादित्यर्थः । बहुल- । स्यानुमतत्वेन सप्तम्याः कृदन्ते उत्तरपदे सत्यपि लुप् भवति, शब्दार्थश्च "क्वचित प्रवत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद् । 'तत्पुरुष' इत्यस्याभावे न स्यात् । प्रत्युदाहरणान्तराण्यप्याह- 50 विकल्पः क्वचिदन्यदेव ।" इत्याद्युक्तप्रकारेण प्राचीन रुक्तः, कल्याणाभिनिवेशः इत्यादिना, कल्याणे शुभकर्मणि, अभि
तत्रान्त्यमेव प्रकारं पूर्वमुदाहत्तु माह-कचिदन्यतोऽपीति- | निवेश:-आग्रहो यस्येति विग्रहः । एवं-धर्मरुचिरित्यत्र 15 अद-व्यञ्जनाभ्यामन्यतोऽपि परस्याः सप्तम्याः क्वचिदनेन । धर्मे रुचिर्यस्येति विग्रहः, सर्वत्र सप्तम्या लप् प्रतिषिध्येता
सत्रेण लुप निषिध्यत इति भावः क्वेत्याह--गोषचरः सति तत्पुरुषग्रहणे । कृतीत्यस्य कृत्यमवतारयितं पच्छति-- इति-"चरेष्टः" ( ५. १. १३९.) इति टः, “स्युक्तं । कृतीति किमिति । अक्षशौण्डः इति—अक्षेषु शौण्ड इति 55 कृता" (३.१.५९.) इति समासः, अत्रौकारान्तादपि परस्या: । विग्रहः, शौण्डो व्यसनी दक्षश्च, "सप्तमी शौण्डाद्यैः”
सप्तम्या न लुप् । क्वचिदप्रवृत्तिमाह-कचिनिषेधो न । (३. १. ८८.) इति समासः, शुण्डायां-सुरायां चतुरकर्मणि 20 भवतीति । क्वेत्याह--मद्रचरः इत्यादि, एषु अकारान्ता- | वाऽभिरत:-शौण्ड इति व्युत्पत्त्या शौण्डशब्दस्तद्धितान्तो न
दपि सप्तम्याः कृति लुप् भवत्येव । कचिद् विकल्पः तु कृदन्त, इति तत्रोत्तरपदे लुप् न निषिध्यते । अद्वयञ्जनाइति, ततीयं प्रकारमदाहरति--खेचरः, खचरः इति- दित्यप्यावश्यकमेवेत्याह--अदु-व्यञ्जनादित्येवेति । तद्वया- 60 उभयथापि प्रयोगस्य साधुत्वमिति भावः । चतुर्थ बाहुलक- । वर्त्यमाह-कुरुषु चरतीति--"चरेष्ट:" (५. १. १३७)
प्रकारमुदाहरति-कचिदन्यदेवेति । क्वेत्याह-हृदिस्मृगिति।। इति टप्रत्ययः, अत्रोकारान्तात् परा सप्तमीति तस्या लब न 25 किमान्यदित्याह--द्वितीयार्थेऽत्र सप्तमीति--तथा च निषिध्यते। अन्यान्यपि व्यावान्याह-एवं-रात्रिचर:
सप्तम्या लुपो निषेधकेनानेनेह द्वितीयार्थे कर्मणि सप्तमी | इति--रात्रौ चरतीति विग्रहः, पूर्ववत् टः, "न वाऽखिविहिता, तस्याश्च लपो निषेधोऽपीति भावः । अन्यत्राऽ- । कृदन्ते रात्रः” (३. १. ११५.) इति विकल्पेन मोऽन्तादेशप्युक्तं प्रकारमतिदिशति-एवं-दिविस्पृगिति-दिवं स्पृश- | विधानात् तदभावः । नदीचर: इति-नद्यां चरतीति
तीति विग्रहः, अत्रापि पूर्ववत् कर्मणि सप्तमीति भावः । विग्रहः, एषु सर्वत्र ( कुरुचरादिषु ) "टस्युक्तं कृता" 30 पदकृत्यमाह-तत्पुरुष इति किमित्यादि-वाहुलकेनेष्टस्थले (३. १. ४१) इति समासः । क्वचित् सर्वोपाधिसत्त्वेऽपि
प्रवृत्तेरन्यत्र चाप्रवृत्तेः साध्यतया तत्पुरुषग्रहणाभावेऽपि लुप् न निषिध्यते, तत् कथमिति पृच्छति--कथं परमे तत्पुरुष एव स्यात्, कि तद्ग्रहणेनेति प्रष्टुराशयः, यदिह | कारके उत्तमे कारके इति विग्रहे इति-अत्र विशेषण- 70 सूत्राक्षररनुपात्तं लक्ष्यसंस्कारार्थ चावश्यकं तदेव बाहुलक- । समासः "सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्ट पूजायाम्” (३.१. १०७)
प्राप्यम्, यत्र चानुगमः कृतस्तत्र च तदनुकूलमेव व्यवस्थोचि-' इति, तत्र च (कर्मधारयसमासे) पक्षद्वयम्--प्रथमान्तेन 35 तेति तत्पुरुषे इत्यक्ततया न ततोऽन्यत्रास्य प्रवत्तिरिष्टेति ! परिनिष्ठित विभक्त्यन्तेन वा समास इति. प्रथमान्तेन समासे
बहुव्रोहयादिव्यावृत्तये तस्यावश्यकत्वम, अथवा सप्तम्यन्तस्य तु परमश्चासौ कारक इति परमकारकस्तस्मिन्निति तत्पुरुषसमास एवं पूर्वपदत्वेन प्रवेशः, यत:-अव्ययीभावे- | विग्रहः; परिनिष्ठितविभक्त्या समासपक्षे परमे कारके इति 75 ऽव्ययस्यैव पूर्वपदत्वम, बहवोही समानाधिकरणानामेव प्रवेश विग्रहः, तत्र सप्तम्याः कृत्युत्तरपदे लुप् कूतो न निषिध्यत
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२२
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र-२१-२२ ]
इति शङ्का। यद्यपि पूर्व 'मद्रचरः, ग्रामकारकः' इत्यादौ श० म० न्यासानुसन्धानम्- मध्या० । अद्वयञ्जबाहुलकादेव समाहितम् , तच्च समाधानमिहापि सुकरम्, नादित्यधिकृत्य सामान्यतोऽदन्तव्यञ्जनान्ताभ्यां सप्तम्या तथापि न्याससिद्धेऽर्थेऽगतिकतरू बाहुलकात् समाधान- । लुपं निषिध्य, विशिष्य तत्तच्छब्दात् परस्यास्तस्या लुपो 40
मनुचितमिति न्याय्यं समाधान प्रकटयितुं शङकावतारः । निषेधमाख्यातुं विशेषसूत्राण्यनुक्रमते । गुरावित्युक्तत्त्वात् 5 कृतः । तत्र प्रयमं पक्षमाश्रित्य समाधानमाह---अन्त- कृतीति न सम्बध्यते, पृथग्योगाच्च तत्पुरुषे' इत्यपि नेति
रङ्गत्वादिति-समानाधिकरणसमासोऽयम्, सामानाधि- | सामान्यत एवोत्तरे पदे निषेधोऽयम्, तेन बहुव्रीहावपि स्यादेव, करण्यं च समानविभक्तिकयोर्भवति, तत्र यद्यपि परिनिष्ठि- । तथा च मध्ये गुरुर्यस्येत्यपि विग्रहः शक्यते कर्तुम् । अत्र च तविभक्तावपि सामानाधिकरण्यं संभवति, तथापि प्रथमा सप्तम्या अलबिधानसामर्थ्यादेव सप्तमीतत्पुरुषः, विशिष्य 45
प्रथमोपस्थितत्वादन्तरङ्गेति प्रथमान्तेनैव विग्रहो न्याय्यः, ! समासविधायकसूत्राभावात् “सप्तमी शौण्डाद्यः" (३.१.८८.) 10 एवं च कारके उत्तरपदे सप्तम्यन्तस्याभावेन नात्र लुपः । इति सौ बहवचननिर्देशेन वा गुरुशब्दोऽपि तत्र द्रष्टव्यस्तेनैव
प्रतिषेधस्य प्राप्तिरिति भावः । पूर्व प्रथमान्तेन विगृह्य ततः समासः । अत्रापि बहलमित्यस्य सम्बन्धात् विकल्पेन निषेध सप्तम्यन्ततासम्पादने ज्ञानगौरवमिति परिनिष्ठितविभक्त्यैद । इति मतान्तरमाह- मध्यगुरुः, अन्तगुरुरित्यप्यन्ये
निविष्टानां मते समाधानान्तरमाह- इति-- लक्ष्यानसारित्वाल्लक्षणानां सति तादशप्रयोगे तदपि 50 यद्वा कृतीति कृन्निमित्ताया एवेति-कृति सप्तमी न साधतया स्वीकार्यमिति भावः । पाणिनीये च विकल्पो दृश्यते, 15 लुप्यते इति सूत्राक्षरस्वारस्येन कृतोत्यस्य यथा लुनिषेध- | तथा च तदतिरिक्ता एवं केचिदन्यपदेन ग्राह्या वैयाकरणा
निमित्तत्वं प्रतीयते तथा प्रत्यासत्या सप्तमीनिमित्तत्वमपि ! नामनेकत्वात् ।। ३. २.२१॥ प्रतीयत इति कृताच्य (कृदन्तप्रकृतिवाच्य) क्रियानिमित्ताया mar एव सप्तम्या लुमो निषेधः । इह तहि किन्निमित्ता सप्तमी- | अमध-मस्तकात स्वाङ्गादकाम । ३.२. २२।। स्याकाङक्षायामाह-इह विति-तिष्ठत्यादिक्रियाधारत्व
। त० प्र० मूर्ध-मस्तकशब्दवजितात् स्वाङ्गवाचिनोऽ- 55 20 मेव परमकारकशब्दस्येति तदाधारनिमित्तैव सप्तमीति तस्या लुमो न निषेध इति भावः। "तत्पुरुषे कृति बहुलम्" '
व्यञ्जनान्ताच्छब्दात् परस्याः सप्तम्याः कामशब्दादन्य(पा० सू० ६.३.१४) इति पाणिनीयसत्रे महाभाष्येत स्मिन्नुत्तरपदे परे लुब् न भवति । कण्ठे कालोऽस्य-कण्ठे'प्रकृते बाहुलकेनैव समाधानमक्तम, कैयटेन च विशेष कालः, उदरेमणिः, वहेगडुः, पुतेवलिः,. उरसिलोमा, शिर
उक्तः, तथाहि-"न्यायोऽप्यत्रास्ति, अन्तरका कृदन्त- सिशिखः । अमूर्धमस्तकादिति किम् ? -मूशिखः, मस्तक25 वाच्यक्रियानिमित्ता सप्तमो गह्यते, इह तु क्रियान्तर- शिखः। स्वाङ्गादिति किम् ?,-अक्षशौण्डः, मुखपुरुषा 60
निमित्तेति ।" प्रथमं समाधानम्-(अन्तरङ्गत्वात प्रथमा- शाला। अकाम इति किम् ? मुखकामः। अव्यञ्जनान्तेनैव विग्रह इति) तु नोक्तम्, परिनिष्ठितविभक्त्या दित्येव-अङ्गलिव्रणः, जबघावलिः । बहुलाधिकारात् 'कर. समासवादिना कृतस्य प्रश्नस्य तन्मतानुसारेणैव समाधान- कमलम, गलरोगः, गलवणः' इत्यादि सिद्धम् ॥ २२॥
स्यावश्यकत्वादिति द्वितीयं समाधानमेव तत्र दृढमित्याशयेन! | ...wwwwamin30 कृन्निमित्तायाः सप्तम्या ग्रहणे हेतुश्चान्तरङ्गत्वमुक्तम्, तस्या श०म० न्यासानुसन्धानम्- अमूर्ध । अमूम
अन्तर्भूतोत्तरपदप्रकृतिधातुवाच्यक्रियानिमित्तत्वात्, प्रत्यास- ! स्तकादिति पर्युदासेनाङ्गलाभेऽपि स्वाङ्गपदार्थस्य विशिष्य 65 त्तिन्यायोऽप्यत्रानुकूल इति त्वन्यत् । एवं चोभयोस्तन्त्रयोः | परिभाषितत्वेन तादृशार्थस्यैव लक्ष्यानुसाराद् विवक्षितत्वेन साम्यमेव समाधानांशे इति बोध्यम् ।। ३. २. २०॥ स्वाङ्गादित विशिष्योक्तम् अत्र मूर्धमस्तकशब्दयोः समाmmmmmmmmmm.rrammarrrrrrrrow. नार्थत्वेऽपि शब्दस्वरूपपरत्वेनाथभेदादेव नैकशेषः, अन्यथा
"समानानामर्थेनैकः शेषः” ( ३. १. ११८.) इत्येकशेषः मध्या-ऽन्ताद्गुरौ । ३. २. २१ ॥
स्यात् । पूर्वसूत्रेद्धयञ्जनान्तादित्यनुवृत्तमपि न विशेषणतया 70 35 त० प्र० मध्यान्तशब्दाभ्यां परस्याः सप्तम्या गुरुशब्दे , गहीतमव्यभिचारादसंभवाच्च, मध्यशब्दस्यादन्तत्वमव्य
उत्तरपदे परे लुप् न भवति । मध्येगुरुः, अन्तेगुरुः । मध्य- भिचरितं व्यञ्जनान्तत्वं चासंभावितमिति 'संभवव्यभिचागुरु, अन्तगुरुरित्यप्यन्ये ॥ २१॥
राभ्यां स्याद् विशेषणमर्थवत्' इति न्यायान्न तत् सुत्रार्थे
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[पाद-२, सूत्र-२२.२३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनेतीऽध्यायः।
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गृहीतम् । इह च स्वाङ्गवाचिनामदन्तव्यञ्जनान्तानां तदिन करे कमलमित्यादिरूपेण विग्रहस्तत्रापि प्रकृतरूपसिद्धयर्थ स्नानां च सत्त्वेन सम्भवव्यभिचारयोरुभयोः सम्भवाद वृत्तौ । बाहलकमेवाश्रयणीयमिति भावः ।। ३. २. २२ ।। तदुल्लिखति- अदचजनान्ताच्छब्दादिति मर्ध-मस्तक- I amrintenancianarmananumaan inayanent
शब्दवत् कामशब्दोऽपि स्वरूपपर एवोत्तरपदे इत्यनेन सामा- बन्धं घभि नवा । ३. २. २३ ॥ 40 5 नाधिकरण्यादिति स्फोरयति---- कामशब्दादन्यस्मिन्नुत्तर- त०प्र० बन्धशन्दे घान्ते उत्तरपदे परे अद्व्यञ्जना
पदे इति। कण्ठे कालोऽस्ये ते-- उष्ट्रमुखादित्वात् न्तात् परस्याः सप्तम्या वा लुब् न भवति, स्वाङ्गादसमासः । वहंगडुरित्यत्रापि स एव समासः, वहः स्कन्धः, ! स्वाङ्गाच्चायं विकल्पः । हस्ते बन्धो, हस्ते बन्धोऽस्येति गडच्छितमांसपिण्डम्, यद्यपि "गड्वादिभ्यः" ( ३. १. : वा-हस्तेबन्धः, हस्तबन्धः, चक्रेबन्धः, चक्रबन्धः । बन्ध इति १५६.) इति सूत्रण सप्तम्या: प्राक् प्रयोगो विकल्प्यते, किमया
किम् ? पुटपाकः, मनोरोगः। घनीति किम् ? अजन्ते मा 45
समोर 10 तथा च गड़वह इत्यपि प्रयोगो भवेत्, परमिह बाहुलकान्नि- ! भूत-बध्नातीति बन्धः, चक्रबन्धः, हस्तबन्धः, चारकबन्धः। त्यमेव सप्तम्यन्तस्य पूर्वप्रयोग इति वहेगी
अव्यञ्जनादित्यव-गुप्तिबन्धः, काराबन्धः ।। २३ ॥ पुतशब्दः सास्नावाचक इति तत्रापि वले: ( चर्मणि रेखाया ) । दर्शनात सर्वत्र स एव समासः । पदकृत्यप्रदर्शनायाह--- श० म० न्यासानुसन्धानम्-बन्धे० । अत्र अमर्धमस्तकादिति किमिति । ततः परस्याः सप्तम्या लुबंद | घनीति प्रत्ययबोधकं पदं, तस्य बन्धेन सह स्वरूपतः भवतीत्याह-- मूर्धशिखः इत्यादि । स्वाङ्गादिति किमि ते | सामानाधिकरण्यं न सम्भवतीति तत् तदन्तपरम्, प्रत्ययस्य 50 अमर्धमस्तकादिति पर्यदासादेवाङ्गवाचकात् परस्या एव । तदन्तपरत्वस्य न्यायसिद्धत्वादिति 'धजन्ते' इत्यर्थक तत, सप्तम्या लग्निषेध इति प्रष्टुराशयः । नाङ्गमात्रात् परस्याः | तथा च धजन्ते बन्धशब्दे उत्तरपदे इत्यर्थः सम्पद्यते, तदाहसप्तम्या लब निषेध इष्टोऽपि तु स्वाङ्गात् परस्याः, स्वाङ्गं! बन्धशब्दे घअन्ते इति--उभयथा हि बन्धशब्दो व्युत्पाहि परिभाषितमभियुक्तैः
द्यते-घजा अचा च, तत्र घअन्ते परे सप्तम्या लप निषिध्यते20 "अद्रवं मतिमत् स्वानं, प्राणिस्थमविकारजम् ।
ऽजन्ते च नेति प्रक्रिया, तथा चोदाहरिष्यते । स्वाङ्गाद-45 अतत्स्थं तत्र दृष्टं च तेन चेत् तत् तथायुतम् ॥” इति।
स्वाङ्गादिति-पूर्वसूत्रात् स्वाङ्गग्रहणानुवृत्तिस्वीकारे,
चक्रेबन्धः इत्यत्र न प्रवर्ततेति तदननुवृरया सर्वत्र प्रवृत्तिएवं च स्वाङ्गशब्देनाङ्गवाचकभिन्नानामङ्गवाचि- रस्येति विज्ञायते । अत्र च समासविशेषानुपादानादुभयत्र नामपि पूर्वलक्षणलक्षितभिन्नानां व्यावृत्तिरित्याह-अक्ष- तत्पुरुषे बहवीही चास्य प्रवृत्तिरिति द्विधाऽपि विग्रहमाह---
शौण्डः, मुखपुरुषा शालेति-- पूर्वत्राङ्गादपि परत्वं ! हस्ते बन्धो, हस्तेबन्धोऽस्येति । पातञ्जले महाभाष्ये तु 25 नास्ति, परत्र च प्राणिस्थत्वाभावादङ्गवाचकत्वेऽपि न स्वाङ्ग-| "तत्पुरुषे कृति बहुलम्" (पा सू० ६. ३. १४) इति प्राप्ते
वाचकत्वम् । कामपर्युदासव्यावत्यंमाह--मुखकामः इति-: विकल्पार्थमिदमित्येतत्सत्रस्थानीये "बन्धे च विभाषा" मुखे कामो यस्येति विग्रहः, अयं च क्लीबजीवभेदः, तस्य
विभवः, तस्य ! (पा० सू० ६.३.१३) इति सूत्रे कथितम्, तेनायमपि मुख एव कामजव्यवहारस्य कामशास्त्रे पठितत्वात्, विशेष- तत्पुरुषे एव प्रवर्तत इति केचिद् वृत्तिकृत आहुः, तन्नोचित
णतयाऽपोदं प्रयुज्यते, यः किल स्वकामं वक्त्येव, न तत्पूरणाय । मिति नागेशेन तत्रैवोद्योते निरूपितम्, तस्य भाष्यस्यान्य- 65 30 प्रयस्यति स एवं विशेष्यते । अव्यञ्जनादित्यस्याप्यावश्य- तात्पर्यकत्वमिति तदाशयः । तथा च तन्मतेऽप्युभयत्र
कत्वमित्याह--अद्वयञ्जनादित्येवेति । व्यावय॑माह-- तत्पुरुषे बहुव्रीही च प्रकृतसूत्रप्रवृत्तिरिति लभ्यते। सामान्यतो अङ्गलित्रयः, जङ्घावलिरिति-उभयत्रार्थानसारं घअन्ते एव विधीयतां बन्धग्रहणं व्यर्थमिति शङ्कतेतत्पुरुष-बहुव्रीह्योः संभवः । क्वचित् सर्वोपाधिसत्त्वेऽपि बन्धे इति किमिति । 'पुटपाकः, मनोरोगः' इत्युभयत्र
सूत्रप्रवृत्तिर्न दृश्यते तत्साधुत्वार्थमाह--बहुलाधिकारात् | पाकरोगशब्दयोर्घअन्तत्वेन तत्रापि वैकल्पिको लुपो निषेधः 70 35 करकमलमित्यादि, यद्यपोदशाः प्रयोगाः 'करस्थं कमलम, | स्यादिति तद्वारणाय बन्ध इति विशिष्य कथनमावश्यकमिति
गलस्थो रोगः, गलस्थो व्रणः' इत्यादिविग्रहेणापि शाक- भावः। बन्धशब्दस्य घनन्तस्यैव प्रसिद्धया घनीति व्यर्थपार्थिवादिवत् साधयितुं शक्यन्ते तथापि यत्र सप्तम्यन्तेन । मिति शकते--घनीति किमि.ते। न केवलं घअन्त एव
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बृहद्धति-बृहल्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-२३-२४ ]
बन्धशब्दोऽपि त्वजन्तोऽप्रीति तव्यावर्तनाय धत्रीत्यावश्यक- : न दृष्टमिति न्यायत एव पूर्वस्य कालशब्दस्यार्थपरत्वं विज्ञामिति प्रत्युदाहरणमुखेनोत्तरयति-अजन्ते मा भूदित्यादि ! : स्यत इति बुद्ध्या कलनामग्रहणं न कृतमिति वृत्तिकृत् अथ च चक्रबन्ध' इत्यत्र "तत्पुरुषे कृति" (३. २. २०) इति, । स्पष्टयति-कालवाचिनः इति । क्रमश उदाहर्तु प्रतीक
हस्तबन्ध इत्यत्र "अमूर्धमस्तकात् स्वाङगादकामे" (३. २. माह-तनेति । पूर्वाहणे भवः-पूर्वाहेतनः अह्नः पूर्वो 40 5 २२) इति च कुतो लुप् न निषिध्यत इति चेत् ? सत्यम्- भाग:-पूर्वाहणः, अहोऽपरो भागोऽपराहणः, सप्तम्यन्ताम्यां
प्रकतसत्रे घनात्यनेन बन्धे चेद् धजन्त एवेति नियमेनान्येषा- कालवाचिभ्यां पूर्वाहणाऽपराहणशब्दाम्यां भवार्थे "पूर्वाल्लामपि घान्तभिन्ने बन्धशब्दे परेऽप्रवृत्तेः, अन्यथा घनीत्यस्य
| ऽपराहणात् तनट" (६. ३.८७) इति तनट, सप्तम्या वैयर्थ्यमेव स्यात् । न च घअन्ते विकल्पोऽस्त्वन्यत्र पूर्वेण ऐकार्य निमित्तके लोपे प्राप्तेऽनेन निषेधो विकल्पेन ।
नित्यमिति घनीत्यस्य फलमिति वाच्यम्, तस्य बहुलग्रह- - पूर्वाहेतरामिति-द्वयोरतिशयेन पूर्वाहणे इति पूर्वाह्नेतराम, 45 10 णेनैव सिद्धेः । अयञ्जनादित्यस्य सम्बन्ध इहाप्यावश्यक
"द्वयोविभज्ये तर" (७. ३. ६) इति तर, ततश्च इत्याह-श्रद्वयञ्जनादित्यवति, तथा चाव्यञ्जनान्ताद
सप्तम्या अलुप्पक्षे सप्तम्यर्थस्योक्ततया समुदायात् प्रथमैव न्यतः परस्याः सप्तम्या घअन्तेऽपि बन्धशब्दे उत्तरपदे लुप् ! विभक्तिः, तत्र च “किंत्याद्यव्ययात" (६. ३.८) इत्याम् । न निषिध्यते, तदाह--गुप्तिबन्धः, काराबन्धः इति-गुप्तौ यत्र च सप्तमी लुप्यते तत्र सप्तम्यर्थस्य प्रतिपत्त्यर्थं समुदा
बन्धः, कारायां बन्ध इति विग्रहः, एषु सप्तमीति योग । यात सप्तमी प्रयज्यते तदाह--पूर्वाहतरे इति, एवमप15 विभागात् "नाम नाम्ना०" ( ३. १. १८ ) इति वा ।
'राहेतरामित्यादावप्यूह्यम्, यत्र च बहूनां मध्ये विभागो वा समास: ॥३,२.२३।।
प्रकर्षों वा वाच्यस्तत्र "प्रकृष्ट तमप" (७. ३.५) इति
तमा, शेषं पूर्ववत् । अथोभयोः बहूनां वा पूर्वाणानां मध्ये कालात तन-तर-तम-काले । ३. २. २४ ॥ । निर्धारणीये पूर्वाणे को विशेषो यः प्रत्ययेन प्रत्याय्यतेति अव्यञ्जनान्तात् कालवाचिनः शब्दात परस्याः सप्त
चेत् ? सत्यम्-पूर्वपूर्वसमयकृत एव प्रकर्षोऽवधार्यताम् । २० म्यास्तन-सर-तमप्रत्ययेषु कालशब्दे चोतरपदे परे वा लप ! अयमाशयः-सूर्योदयावधि मध्यदिनात् पूर्वी भागः पूर्वाहणः 20 न भवति । तन-पूर्वाह्नेतनः, पूर्वाह्नतनः; अपराह्नेतनः, |
। तत्रोतरोत्तरमुहूर्तापेक्षया पूर्वपूर्वतरमुहूर्तस्य प्रकृष्ट पूर्वाहणअपराह्मतनः; तर-पूर्वाल्लुतराम्, पूर्वाल्तरे, अपराहृतराम्, . इति-यद्यपि पूर्वाहणस्य कालत्वमव्यभिचरितमिति न तत्र
स्वमिति स एव प्रकर्षः प्रत्ययेन प्रत्याय्यते । ५ अपराहृतरे; तम-पूर्वाह्नेतमाम्, पूर्वाह्नतमे, अपराहृतमाम्, j
कालशब्दप्रयोगापेक्षा, तथापि सामान्यविशेषभावेन यज्यत 60 अपराल्लुतमे; काल-पूर्वाह्नकाले, पूर्वाह्लकाले; अपराह्नेकाले,
एवोभयोः प्रयोगः, यथा 'तक्षकस्य सर्पस्य, वेदज्ञस्य विदूषः' अपराह्नकाले । कालादिति किम् ? शुक्लतरे, शुक्लतमे।
इत्यादि तथा चात्र परिनिष्ठितविभक्त्या विशेषणसमासः । 25 अदव्यञ्जनादित्यव-रात्रितरायाम् निशातमायाम; रात्रि
तनस्य कालवाचकादेव विधानात् कालस्यापि कालवाचकाले। 'उतरपदाधिकारे प्रत्ययमात्रस्य ग्रहणं न तदन्तस्य'
केनैव सामानाधिकरण्यात् तन्मध्यपतितयोस्त्तरतमयोरपि "नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः" ( ३. २. ११७.) इत्यत्रान्त--
परत: कालवाचकादेव परस्या: सप्तम्या अलप भविष्यतीति 65 ग्रहणात्, तेनात्र तन-तर-तमप्रत्ययानां स्वरूपेणव ग्रहणं कालादिति व्यर्थमिति शङ्कते--कालादिति किमिति-- भवति ॥ २४॥
विशेषानुक्तौ यतः कुतश्चन परस्याः सप्तम्या अपि लुपो
निषेधे बाधकाभाव इति कालवाचकादन्यतोऽपि परस्याः 30 श.मन्यासानुसन्धानम्-कालात् । अत्र प्रथमः सप्तम्या लुबनिषिध्येतैवेति तद्वारणाय कालादित्यावश्यक- 70
कालशब्दोऽर्थप्रधानो द्वितीयः शब्दप्रधानः, तत्र चाचार्याणां मित्याह-शुक्लतरे शुक्लतमे इति--द्वयोर्बहूनां वा मध्ये व्याख्यानमेव मूलम् । पाणिनीये तु प्रकृतसूत्रस्थानीये | प्रकृष्टे शुक्ले इति विग्रहे प्रत्यय. पूर्ववत्, ऐकार्थ्यनिमित्ता च "घकालतनेषु कालनाम्नः" (पा० सू० ६. ३. १७) इति लप, अद्व्यञ्जनादित्यप्यावश्यकमिति स्मारयति-अद्व-च--
सूत्रे स्पष्टं कालनाम्न इत्येव पठ्यते। स्वमते चोत्तरपद- अनादित्येवेति । तद्व्यावर्त्यमाह--रात्रितरायामिति-- 35 समानाधिकरणानां तन-तर-तमानां साहचर्यात परस्य काल- द्वयोबहीना वा प्रकृष्टायां रात्री निशायामिति वा विग्रहः, 75
शब्दस्य स्वरूपपरत्वे निर्णीते, पूर्वोत्तरोभयपदत्वं कालशब्दस्य । अत्रापि निर्धार्यमाणरात्री स्वरूपकृतप्रकर्षाभावेऽपि रात्रिसह
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[ पाद-२, सूत्र-२४-२६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
S5
चार्यन्धकारादिगुणप्रकर्षबोधायैव तरतमौ प्रत्ययाविति तु नित्यं लुप् । अकालादिति किम् ? पूर्वाह्लशयः अपराबोध्यम् । रात्रिकाले इति-रात्रौ काले इति विग्रहः, पूर्ववत् । हृशयः। अव्यञ्जनादित्येव-भूमिशयः, गुहाशयः॥ २५॥ सामान्य विशेषभावकृतं सामानाविकरण्यं बोध्यम् । अत्र सूत्रे
' श०म० न्यासानुसन्धानम्--शय० । अकालादिति 40 तनतरतमाः प्रत्ययाः, यद्यपि तनोतेस्तरतेस्ताम्यतेश्चापि कृत । पर्यदासः कालवाचिभिन्नादित्यर्थकः, तत्र चानुवृत्तमद्व्य5 तनतरतमशब्दा अपि सिध्यन्ति, ततश्च तेषामपीह ग्रहण- , जनादिति विशेषणतया समन्वेति, तदाह--अकालवामित्याशङ्कोदेति तथापि प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव
चिनोऽव्यञ्जनादिति । 'शयादीनां' चोत्तरपदेन सह
साहिति । ग्रहणम इति न्यायसाहाय्येन प्रत्ययानामेव तेषां ग्रहणमिति सामानाधिकरप्यम, तच्च ( उत्तरपदे इति च ) एकवचनानिर्णीयते, ततश्च प्रत्ययग्रहणे तदन्तस्य ग्रहणम् इति न्तमपि शयादीनां बहत्वेन तदनरोधात बहुवचनान्ततयार
न्यायेन तनाद्यन्ते उत्तरपदे इत्येवार्थ उचितः, कथमिह तन- विपरिणमतीति सर्वत्रेदशस्थले बोध्यम । शेते इति शयः । 10 तरतमानां केवलानां ग्रहणमित्याशङ्कायामाह--उत्तरपदा- वसतीति तक्छीलो वासी, वसनं- वासः । बिलेशयः सर्पः,
धिकार प्रत्ययग्रहणं प्रत्ययमात्रस्य ग्रहणं न तदन्त-! यद्यपि मषकादिरपि तथाभूतस्तथापि सर्प एवास्य प्राचर्येण स्येति-"न नाम्येकस्वरात खित्युत्तरपदेऽमः” (३. २. ९) प्रयोगः। खे-आकाशे शेते-अनायासेन तिष्ठतीति-खेशयः इति सूत्रादारब्धे उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययस्य स्वरूपतो आकाशचारी। अन्तवासो-रूढ्या गुरुसमीपवासकर्ता
50 ग्रहणे केवलं तत्स्वरूपस्यैव ग्रहणम्, किन्तु प्रत्ययग्रहणन्याय- । शिष्यः । अस्य विकल्पविधित्वेऽपि कचिन्नित्यालपो दर्शनं 15 सहकारेण तत्प्रत्ययान्तस्य ग्रहणं न भवतीति भावः । नियमे कथमिति शङ्कायामाह--बहुलाधिकारादिति- बहुल
बोजमाह--"नवा खित्कृदन्ते' इत्यत्रान्तग्रहणादिति- मित्यस्य प्रकृतत्वाल्लक्ष्यानुसारात् तस्य व्यवस्थापकत्वमिति कृत्पदस्य कृदन्तार्थकत्वं स्वत एव भविष्यतीति अन्तग्रहणं क्वचिन्नित्यमपि लुपो निषेधो भवति, यथा--मनसिशय: व्यर्थमेव, व्यर्थीभूतेन प्रकृतनियमे ज्ञापिते तु तदन्तार्थत्वं न इति-- कामदेवस्य नामेदम् । कुशेशयमिति-- कुशे- जले
स्यादित्यन्तग्रहणस्य स्वांशे चारितार्थ्यम् । न चवं "न । शेते इति व्युत्पत्त्या कमलनामेदम्, अनयोः संज्ञाभङ्गभिया 20 नाम्येकस्वरात् खित्युतरपदेऽमः" (३. २. ९) इत्यत्र | नित्यमेव सप्तम्या अलप् । एवं- क्वचिल्लुबेव नित्यं, तदपि
"तत्पुरुषे कृति" (३ २. २०) इत्यादौ च तदन्तग्रहणाभावे । बहुलग्रहणानुवृत्तिसामर्थ्यादेव साध्यमित्याह-- 'हृच्छया, कयं तत्र तत्र तदन्तार्थलाभ इति वाच्यम्, एतादृशेषु खि- : चित्तशयः' इत्यत्र विति-- उभयमपि कामदेवनामैव न्मात्रस्य कृन्मात्रस्य वा उत्तरपदत्वाभावेन सूत्रवैयर्थ्य- 'हृदि शते, चित्ते शेते' इति व्युत्पत्त्या । अकालादित्यस्य
संभावनया तदन्तग्रहणस्यावश्यकत्वाल्लक्ष्यानुरोधात् प्रकृत- | व्यावर्त्य बोधयितुमाह-अकालादिति किमिति पूर्वाह्नशयः 25 नियमाप्रवृत्तेः, एवं च प्रकृतनियमे सति संभवे इति योज- इति-पूर्वाल्ले शेते अपराहे शेते इति व्युत्पत्तिः, पूर्वाह्ला
नीयमिति फलति । स्पष्टं चेदं "नवा खित्कृदन्ते" (३. २. ऽपराह्मशब्दयोः कालवाचकत्वात् ततः परस्याः सप्तम्या ११७) इति सूत्रस्थ बृहद्वत्ती, तथाहि-जत्रोक्तम-"न , नित्यमेव लुब् भवति, अकालादित्यस्याभावे विकल्पः नाम्यकस्वरात् खिति.” (३. २. ९) इत्यादौ त्वसम्भ- स्यात् । अयजनादित्यस्यापि सम्बन्ध आवश्यक एवेत्याह- 65 वात् तदन्तग्रहण मिति, तथा च यत फलितं तदाह-- अद्वयञ्जनादित्येवेति । तद्वथावय॑माह- भूमिशयः, तेनात्रेति । स्वरूपेणवेति--न तु तदन्तानामित्येवकार
गुहाशयः इति-विशेषणतया प्रयुक्ताविमौ शब्दौ, भूमिशयो
। भिक्षुः. "गुहाशयानां सिंहानां परिवृत्त्यावलोकितम्” इति लभ्योऽर्थः ।। ३. २. २४॥
रघुवंशे चतुर्थसर्गे कालिदासः, अन्यञ्जनादित्यस्याभावे
इहापि भूमौशय इत्यादिप्रयोगः स्यादिति तद्वारणायाद्वथञ्ज- 10 शय-वासि-वासेष्वकालात् । ३. २.२५॥ । नादित्यस्य सम्बन्ध आवश्यक इति ॥ ३-२-२५ ।।
त०७० अकालवाचिनोऽव्यञ्जनान्ताच्छन्दात् परस्याः ," सप्तम्याः शयादिषुत्तरपदेषु लुप् न भवति वा । बिलेशयः,
____ वर्ष-क्षर-वरा-ऽप्सरः-शरोरो-मनसो जे 35 बिलशयः; खेशयः, खशयः, वनेवासी, वनवासी; अन्तेवासी,
।३.२.२६॥ अन्तबासी; ग्रामेवासः, ग्रामवासः । बहुलाधिकारान्मनसिशयः त०प्र० 'वर्ष, क्षर, बर, अप, सरस्, शर, उरस; कुशेशयमिति नित्यं लबभावः। 'हृच्छयः चित्तशयः' इत्यत्र । मनस्' इत्येतेभ्यः परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे वा लप भवति। 75
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70
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र २६-२८]
50
वर्षेजः, वर्षजः; क्षरेजः, क्षरजः; वरेजः, वरजः; अप्सुजम्, | योनि-मति-चराः शब्दाः, तेषां च स्वरूपग्रहणमेव 'स्वं रूपम्' 35 अब्जम् ; सरसिजम्, सरोजम्; शरेजः, शरजः; उरसिजः, | इति न्यायात् । अपसव्यः इति--विशेषणतयैव प्रयुक्तोऽयं उरोजः; मनसिजः, मनोजः ॥२६॥
शब्द इति बोव्यम् । यप्रत्ययस्यापशब्दाद् विशिष्यानुपलब्धे.
राह--दिगादित्वादिति । अप्सुयोनिरिति-अप्सु योनिः श० म० न्यासानुसन्धानम्- वर्ष । वर्षक्षरादी
उत्पत्तिर्यस्येत्यर्थात् पूर्वप्रयोगसमानार्थक एवायं प्रयोगः, २ नां समाहारो लाघवानुरोधेन । वर्षादीन् स्त्रे सन्धिनिर्दिष्टान्
उष्ट्र मुखादित्वाज्ज्ञापकाद् वा समासः । अप्सुमतिरिति- 40 पृथक् पृथगाह स्पष्टार्थम्-- वर्षक्षरवरेत्यादिना, वर्षणं
अयमपि विशेषणभूत एव । वर्षः, क्षरतीति क्षरो मेधो जलं च, वियते इति वरः श्रेष्ठः,
| पाणिनीय च "अपो योनियन्मतष" पा० स० वात्ति अप्-शब्दो जलवाचितया प्रसिद्धः, सरो जलाशयविशेषः,
कम् ६-३-१८] इत्यत्र मतिशब्दस्थाने मतुः पठ्यते, तत्र च शुणाति हिनस्तीति शरो बाणस्तृणविशेषश्च, उरो वक्ष:
मतुप् प्रत्ययो गृह्यत इत्याशयेन "अप्सुमन्तावाज्यभागौ" स्थलम्, मनो मनन क्रियमन्तःकरणम् । एभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यः
इत्युदाहृतं दीक्षितेन, परं च सप्तम्यन्तान्मतुः क्वापि न , "सप्तम्याः " ( ५-१-१६८) इति भूतार्थे डः । इस्युक्तस
दृष्टः । किञ्च "अलुगुत्तरपदे” (पा० सू० ६-३-१) इति । मासे ऐकार्थ्यनिमित्तलपोऽनेन वैकल्पिक: प्रतिषेधः।।३-२-२६॥
सूत्रे महाभाष्ये “अपो योनि-यन्मतिष चोपसंख्यानम्" इत्येव धु-प्रावृड्-वर्षा-शरत्-कालात् । ३. २. २७ ॥
वात्तिकं दृश्यते, तत्र 'अप्सुमतिः' इत्युदाहरणं दत्तम् , तत्र
नागेशेनोक्तम्--"वृत्तिकारा हरदत्तादयस्तु वात्तिके मतुत० प्र० योगविभागाद् वेति निवृत्तम्, दिवप्रभृतिभ्यः |
ष्विति पठित्वा "अप्सुमन्तावाज्यभागो” इत्युदाहरन्ति, 15 परस्याः सप्तम्या जे उत्तरपदे परे लुप् न भवति । दिविजः ।
भाष्येऽप्येवमेव पाठः, दृश्यमानपाठस्तु लेखकप्रमादादिति तदप्रावृषिजः, वर्षासुजः, शरदिजः; कालेजः ॥ २७॥ नुयायिनः । "हलोऽनन्तराः" (पा० सू० १-१-७) इति सूत्रे
हरिग्रन्थे तु अप्सुमतिरित्येव पाठो दृश्यते, युक्तं चैतत , एकश०म० न्यासानुसन्धानम्--द्य०1 अत्रापि समा
वच्चेत्यस्यातिप्रसङ्गव्याजेनास्योपन्यासो भाष्ये "नाप्सूमन्ताहारद्वन्द्व एव । 'जे' इति च पूर्वस्त्रात् संबध्यते । नित्यश्चायं
वित्यत्रास्यातिप्रसङ्गोऽस्ति, 'अप्सु' इत्यनुकरणाद् ह्ययं मतुप, विधिरित्याह-योगविभागाद् वेति निवृत्तमिति-पूर्वसूत्राद् 20 विशेषस्य वक्तुमिष्टत्वादेव पृथक् सूत्रमिदमारब्धम्, सच
नहि तत्रापशब्दो बह्वर्यः शब्दपरत्वात् शब्दस्य चैकत्वात् ।
प्रकृतिवदित्यतिदेशोऽपि शास्त्रीयधर्मातिदेशको न स्वस्य लोविशेषोऽन्यः कः स्थाइते विकल्पासम्बन्धादिति विभक्तयोगेन विकल्पासम्बन्धोऽनुमीयत इति भाव: । द्यौरन्तरिक्षम्, प्रावड़
किकस्य । किञ्चास्यवामीयमित्यादाविव तत्र लुक: प्राप्तिवर्षतः, वर्षा अपि सैव, शरत् स्वनामख्यात ऋतुः, एभ्यः
रेव नेति" इति । अयमाशयः-लक्ष्य लक्षणं च साधुत्वविज्ञान सप्तम्यन्तेभ्यः “सप्तम्याः" (५-१-१६८) इति भूते डे ङस्यु- मूलम् , लक्ष्यैक चक्षुष्काणामाचार्याणां कृते लक्ष्यदर्शनमस्माकं 25 क्तसमासे सप्तमीलपो निषेधे दिविजादीनां सिद्धिः । 'सप्त- |
च कृते लक्षणदर्शनम् । तत्र लक्षणे सन्देहे सति लक्ष्यानसारेणैव भौति' सामान्यनोच्चारणाद् बहुवचनस्यापि लुपो निषेधाद्
तद्वयवस्था नेया भवति, तत्र लक्ष्यमुभयविध दृश्यते, 'अप्सुवर्षासुजः इति, वर्षाशब्दस्यत्वाचकस्य बहुवचनान्तत्वं | मन्तावाज्यभागो' इति याज्ञिकसम्प्रदायस्थम् , अप्सुम तिरिति
लौकिकव्यवहारस्थम् , तत्राप्सुमन्तावित्यस्य अप्सुशब्यवन्तालोकशास्त्रप्रसिद्धम् ॥ ३-२-२७ ।।
वित्येवाओं याज्ञिकसम्प्रदायप्रसिद्धः। तदर्थश्च--कारीरीअपो य-योनि-मति-चरे । ३. २. २८ ॥ यागे 'अप्स्वग्रे सधिष्ठव, अप्सुमे सोमो अब्रवीत' इत्यादी 3
त० प्र० अपशब्दात् परस्याः सप्तम्या यप्रत्यये योनि- | आज्यभागमन्त्री स्तः, अत एव तयोराज्यभागयोम-अप्सूमतिचरेषु चोत्तरपदेषु लब न भवति । अप्सु भवः-अप्सव्यः, मन्ताविति, ततश्च अप्सु इति शब्दोऽस्त्यनयोरिति, तत्राप्सुदिगादित्वाद् यः, अप्सुयोनिः,असुमतिः; अप्सुचरः॥२८॥
शब्दस्य शब्दपरत्वमेवास्थेयम् । एवं सति तस्य न बह्वर्थत्वं,
तस्य शब्दस्यकत्वात् । महाभाष्ये च "अलुगुत्तरपदे" (पा. श० म० न्यासानुसन्धानम्-अपो० । अत्र य इति | सू० ६-३-१) इति सूत्रे अलुग्विधिस्थले एकवद्भावो वक्तव्यः, 70 प्रत्ययः, पूर्वोक्तज्ञापकात् तदन्तविध्यभावे स्वरूपमात्रग्रहणम् । | द्विवचन बहुवचनान्ताभ्यामपि विग्रहे एकवचनस्यैव प्रयोगो
55
स्मार्क 60
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[पाद-२, सूत्र २८-२९]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
यथा स्यादित्येवमर्थम् , यथा स्तोकाभ्यां मुक्तः स्तोकेभ्यो । प्रत्ययः, सिद्ध-स्थौ च शब्दो, तत्र यद्यपि 'उत्तरपदाधिकारे मुक्तो वा स्तोकान्मुक्त इत्येव भवेत् । इत्याशङ्कायाम्-'एक- प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणून तु तदन्तस्य" इति ज्ञापधद्वचनमनर्थकम' (वा०) एकवदभावश्चानर्थकः । द्विब होर- कसिद्धं वमनं पूर्वमुक्तम , ततश्च तदन्तबोधो न स्यात. तथापि 4 लुक्कस्मान्न भवति ? “द्विबहुध्वसमासः" (वा.) द्विवच- केवलस्येन्प्रत्ययस्य सप्तम्यन्तेन सह सम्बन्धो न संभावित नबहवचनान्तानामसमासः । कि वक्तव्यमेतत् ? नहि । कथम- | इत्यसंभवादेवेहापि तदन्तग्रहणम् । तथाहि--इनप्रत्ययो नुच्यमानं गंस्यते ? "उक्तं वा' (वा.) किमुक्तम्-अनभि- द्विविध:-कृत तद्धितश्च, तत्र कृत्प्रत्ययो धातोविधीयत इति धानादिति। तच्चानभिधानमवश्यमाश्रयितव्यम्' इति प्रकृत्य, तस्य सप्तम्यन्तात परत्वासंभव: स्पष्ट एव । तद्धित इन् प्रत्ययो एकवद्वचने हि गोषुचरेऽतिप्रसङ्गः (वा.) 'एकवद्वचने हि मत्वर्थीयः, स च प्रथमान्तादेवास्यास्तीत्यर्थे विधीयत इति
सति गोषचरेशतिप्रसङ्गः स्यात् , गोषुचरः। 'वर्षाभ्यश्च ज' | तस्यापि सप्तम्यन्तात परत्वासंभव एव । अत आह-इन10 (वा.) वर्षाम्यश्च जेऽतिप्रसङ्गो भवति । वर्षासुजः, अपो
प्रत्ययान्त इति । भवत्येवेत्यर्थः इति-लुबिति शेषः, नद्धयोनियन्मतिषुचोपसंख्यानम् , अपोयोनियन्मतिषुचोपसंख्यानं यस्य प्रकृतार्थदाढर्यबोधकत्वसूचनायवकारोपन्यासः । 'बलुप कर्तव्यम् , 'जे चरे च (वा)'जे चरे चातिप्रसङ्गो भवति, | न भवति' इत्यस्य लुपोऽभावो न भवतीति प्रतिपादकत्वेअसुयोनिः, अप्सव्यम् , अप्सुमतिः, अप्सुजः, अप्सचरः" इति नावश्यं लुप् भवतीत्यत्रैव पर्यवसानात् । क्रमश उदाहर्तुमाह- 50
पाठो दृश्यते । तत्रालुपः स्थले एकवचनान्तस्यैव प्रयोगः | इनिति । स्थण्डिले वर्तते । इति-स्थण्डिलमेकहस्तविस्तृतो 15 स्यादिति वक्तव्यमिति पक्षे दोषप्रदर्शनार्यवाप्सुमतिरित्यप्यु- द्विहस्तायामको गर्तविशेषः, यत्र शयनं भिक्षकस्य विहितम,
दाहतमिति स्पष्ट प्रतीयते। न चाप्सुमन्तावित्यत्राप्सूशब्दो | अथ च चत्वरेऽपि स्थण्डिलशब्दः, यज्ञार्थं परिष्कृतस्थाने, बहत्वार्थ इति प्रतिपादितपूर्वम् । ततश्च मतुध्विति पाठो न होमार्थे कण्डप्रतिनिधित्वेन वालकादिभिः कर्तव्ये मण्डलभेदे भाष्यप्रकरणानसारीति मतिष्वित्येव पाठो युक्तिसङ्गत इति | च तथाहि...
55 निश्चीयते । किंच तस्य शब्दस्वरूपबोधकस्याप्सुशब्दस्य "नित्य नैमित्तिकं कम स्थाण्डिले वा समाचरेत । 20 सप्तम्यन्तत्वमपि नास्ति, किन्तु सप्तम्यन्तवाचकत्वम् , प्रकृ- हस्तमात्रं तु तत् कुर्याद् बालुकाभिः समाचितम् ।।"
तिवदनकरणमिति प्रकृतिवद्भावेन शास्त्रीयधर्मस्यैवातिदेशो | इति तन्त्रम। भविष्यति, न तु लौकिकस्य स्वरूपगतविशेषस्य सप्तम्यन्त
तत्र वर्तते (तच्छील:) स्थण्डिलवर्ती, एवं-स्थण्डिले त्वस्य । किञ्च सप्तम्यन्तत्वलाभेऽपि न ततो मतुर्भवितुमर्हति चत्त्वरे पूर्वोक्ते गर्तविशेषे वा शेते तच्छील:-स्थण्डिलशायी, ,
प्रथमान्तादेव तद्विधानात् । तथा च मतुप्रत्ययोत्पत्त्यर्थमपि | उभयत्र "अजातेः शीले" ( ५-१-१५४ ) इति णिन । 25 अप्समन्तावित्यस्य शब्दस्वरूपपरत्वमास्थेयमिति न तस्या- | सांकाश्ये सिद्धः, काम्पील्ये सिद्ध इत्यभयत्र कृदुत्तरपदः
लुप् प्रकरणोदाहरणत्वसम्भव इत्यलं प्रसङ्गागतविस्तरे- समास: । समे तिष्ठतीति-समस्थः, विषमे तिष्ठतीतिणेति ।। ३-२-२८ ॥
विषमस्थः, अत्रापि स एव समासः । सर्वत्र "तत्पुरुषे कृति" नेन-सिद्ध-स्थे । ३. २. २९॥
(३-२-२०) इति अलुप् प्राप्तः, सोऽनेन निषिध्यत इति लुबेव 65
भवति । "शय-वासि०" (३-२-२५) इत्यत आरभ्य प्रकृतत० प्र० इनप्रत्ययान्ते 'सिद्ध स्थ' इत्येतयोश्चोत्तरपदयोः
सूत्रपर्यन्तं पञ्च सूत्राणि कृदन्तेष्वेवोत्तरपदेषु प्रवर्त्तन्ते, 20 सप्तम्या अलप न भवति, भवत्येवेत्यर्थः। इन-स्थण्डिले
| ततश्च "तत्पुरुषे कृति" (३-२-२०) इति सूत्रेणैव सर्वेषां वर्तते-स्थण्डिलवर्ती, एवं-स्थण्डिलशायी; सांकाश्य सिद्धः, लक्ष्याणा सिद्धिः सम्भवति, यत्र विकल्पो यत्र वा नित्यं समस्थः, विषमस्थः। "शय-धासि०" ( ३. २. २५.) [ यत्र वा निषेध इष्टस्तत् सर्वं बाहुलकादेव सेत्स्यतीति सूत्रप- 70 इत्यादियोगद्वयविकल्पः "शु-नावृड्वर्षा०" ( ३. २. २७.) | ञ्चकं व्यर्थमेवेत्या इत्यादियोगद्वयविधिरनेन प्रतिषेधश्च "तत्पुरुषे कृति"
दियोगद्वयविकल्प इत्यादिना, अयमर्थः-शय वासि-वासे18 ( ३. २. २० ) इत्यस्यैव प्रपञ्चः, ते वै विधयः सुसंगृहीता | प्वकालात्" (३-२-२५) “वर्ष-क्षर-वर०" (३.२-२६) भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चश्चेति ॥२९॥
इति च सूत्राभ्यां विकल्पेनालुप् विधीयते, “द्युप्रावृटु" (३श० म० न्यासानुसन्धानम्-नेन् । अत्र इन्। २-२६) इति “अपो ययोनि०" (३-२-२८) इति च 75
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२८
बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पा-२, सूत्र २९-३१]
50
सूत्राभ्यां नित्यमेवालुप् विधीयते, प्रकृतसूत्रेण च निषिध्यते ; ! स्यादिति प्रत्युदाहरणमुखेनाह-ब्राह्मणकुलमिति-अत्रहि तत् सर्व "तत्पुरुषे कृति" (३-२-२०) इति सूत्रविधेयस्या- | कुले ब्राह्मणसम्बन्धान्न क्षेपः प्रतीयते, प्रत्युत प्रशंसैव प्रती. थस्यैव मन्दबुद्धिशिष्यबोधाय प्रपञ्चनं, विस्तरेणाख्यान मिति यत इतीह न भवति निषेधः, क्षेपग्रहणाभावेऽत्रापि स्यादेव। 40
यावत् । तमिममथं द्रढयति--ते वै विधयः सुसंगृहीता चौरकुलादयोऽपि प्रयोगा दृश्यन्ते ते कथमित्याशश्ते-- 5 भवन्ति येषां लक्षाप्रपञ्चश्चेति–वै शब्दो हेत्वर्थकः, | कथं चौरकुलमित्यादि । उत्तरयति-तत्त्वाख्यानमेत
यतः येषां विधीनां लक्षणं-संक्षिप्य कथनं, प्रपञ्चो-विस्तरे- | क्षेप इति-तत्त्वं यथार्थस्थितिः, तस्याख्यानं कथनमेतच्चौरणाख्यानं च क्रियते, ते विधयः सुसंगृहीताः-शोभनप्रकारेण कुलादि न तु क्षेपः, न निन्दायां तात्पर्यम् । अयमाशयः-- शिष्यता भवन्ति, केवलसंक्षेपाख्यानेन न सर्वेषां बोद्धणां यश्चौरत्वेन रूपात एव, तस्य कुलं ने तत्सम्बन्धान्निन्दितमपि 45 हृदयङ्गमो भवति विधिरिति प्रपञ्चरूपेणाख्यानमप्यावश्य
तु वस्तुस्थितिरेव तादशीति न क्षेपः, अनिन्दितस्य निन्दि
तत्वे क्षेप:। एवं दासस्य स्वीया भार्या न दाससम्बन्धान्नि10 कमिति भावः ।। ३-२-२९ ।।
न्दिताऽपि तु तस्या: स्वरूपमेव तत् । वृषल्या: स्वीय एव
पतिर्न तु तयासह तस्यानचितः सम्बन्ध इति न निन्दितत्वमिति षष्ठयाः क्षेपे । ३. २. ३० ॥
।। ३-२-३० ॥ त०प्र०क्षेपे गम्यमाने उत्तरपदे परे षष्ठया लप न
पुत्रे वा । ३. २. ३१ ।। भवति । चौरस्यकुलम्, दासस्यभार्या, वृषल्या पतिः । क्षेप
त० प्र० पुत्रशब्दे उत्तरपदे क्षपे गम्यमाने षष्ठचा लप इति किम् ? ब्राह्मणकुलम् । कथं चौरकुलं? दासभार्या ?
वा न भवति । दास्याः पुत्रः, दासीपुत्रः; वृषल्याःपुत्रः वषली15 वृषलीपतिः ? तत्त्वाख्यानमतन्न क्षेपः ॥ ३०॥
पुत्रः। क्षेपे इत्येव-ब्राह्मणपुत्रः । दासीपुत्र इति तु तत्त्वाश० म० न्यासानुसन्धानम्-पष्टघाः क्षिप्यते | स्याने । पूर्वेण नित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पः ॥ ३१॥ 55 प्रतिष्ठायाः प्रच्याव्यतेऽनेनेति क्षेपो निन्दा, निन्दया जनः
श० म० न्यासानुसन्धानम्-पुत्रे।' 'क्षेपे' इति क्षिप्यते-लोकप्रतिष्ठायाः प्रच्युतो भवति, अथवा क्षेपणं
पूर्वसूत्रादनुवर्तते । विकल्पविधानार्थो योगः, अन्यथा पूर्वेतत एव प्रच्यावनं क्षेपः, तस्मिन गम्यमाने सति उत्तरपदे परे
णव सिद्धेः । दास्याः पुत्रा इति-दासस्य नायं पुत्रोऽपि तु षष्ठी न लुप्यत इत्यर्थः, स च क्षेपः प्रत्यासत्या षष्ठीप्रकृति
दास्याः, तथा 'चानुचितस्वामिसम्बन्धजातत्वं तस्य प्रतीयत सम्बन्धप्रयुक्त एव ज्ञेयः । तथा च नृपस्य पिशुन इति विग्रहे
इति क्षेपः । एवं-वृषल्याः नृपपिशुन इत्यादौ न सूत्रं प्रवर्तते, षष्ठीप्रकृतिनपसम्बन्ध
पुत्रः इत्यत्रापि । क्षेप इत्येवेति- 60 प्रयक्तस्य निन्दितत्वस्याभावात् । किच क्षेपोऽत्र उत्तरपदार्थ
'क्षेपे' इत्यस्यानुवृत्तिरावश्यिकैवेत्यर्थः । तद्यावय॑माहस्यैव वाच्यः, तस्यैव प्राधान्यात, क्षेपस्य चानिन्दितस्य निन्दा- | ब्राह्मणपुत्रः इति-अत्र ब्राह्मणसम्बन्धात् पुत्रे न निन्दाऽपितु यामेव पर्यवसानम्, यश्च स्वयमेव निन्दितस्तस्य तु नासौ
प्रशंसैवाथवा तत्त्वकथनमेव । केवलं दासीपुत्र इति प्रयोगोऽपि क्षेपः, किन्तु यथार्थकथनमेवेति न भवति तत्र सूत्रप्रवृत्तिः ।
भवति, तत्र दासीसम्बन्धो नानचितः पुत्रेऽपि तु वास्तव एवेचौरस्यकुलमिति-चौरसम्बन्धात् कुले निन्दितत्वं प्रतीयते त्याहदासीपुत्र इति तत्त्वाख्याने इति । यद्यपि क्षेऽपि र दासस्यभायेति योऽयं दासस्तेन सह स्वामिन्याः [ स्वामि- निषेधस्य वैकल्पिकत्वेन पाक्षिको दासीपुत्र इति प्रयोगो भवपल्ल्याः ] भार्याया व्यवहारादेव तस्येयं भार्या, नतु वस्तुत- | त्येव, तथा च क्व निन्दा क्व तत्त्वाख्यानमिति कथमवगम्येत, स्तया सह पतिपत्नीभावः, भार्यात्वेनोक्ताया निन्दा
| तथा चोभयविधः प्रयोग: क्षेप एवेत्येके, वस्तुतो दासीसूतगम्यत एव ।वृषल्याः पतिरिति येयं वृचली सा न तस्य पत्नी, | स्याख्याने दासीसुतादय एव शब्दा: प्रयोक्तव्या इति तेषाकिन्तु तया सह तस्य पत्नीवद् ब्यवहार इति सोऽपि तस्याः | माशयः, तथापि क्षेपाऽक्षेपयोः प्रकरण गम्यत्वमपि सम्भवपतिरित्याख्यायते, तथा च नीच-परस्त्रीसंसर्गकृतं तस्य । तीति क्षेपाभावेऽपिदासीपुत्रप्रयोगो नानचित इति स्वमतम्। निन्दितत्वमवगम्यते । क्षेप किमिति--तथा च षष्ठया सूत्रप्रयोजनं स्पष्टयति-पूर्वण नित्यं निषेधे प्राप्ते इतिइत्येतावन्मानं सूत्रमस्तु, उत्तरपदे परे पष्ठया लुप नेत्येवा- पूर्वसूत्रस्य सामान्यतः क्षेपे प्रवृत्त्या पुत्रशब्दे परेऽपि तस्य र्थोऽस्तु इति प्रष्टुराशयः । एवं सति यत्र न निन्दाविवक्षा | प्राप्तिरस्त्येवेति तदपवादरूपोऽयं विकल्पविधिरिति भावः तत्रापि सर्वस्मिन् षष्ठीसमासे ] विभक्तिलपो निषेधः । ।। ३. २.३१॥
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[पाद-२, सूत्र-३२-३३]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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पश्यद्-वाग्-दिशो हर-युक्ति-दण्डे अदसोऽकञायनणोः । ३. २. ३३ ॥ । ३.२.३२॥
अदसः परस्याः षष्ठ्या अकजप्रत्ययविषये उत्तरपदे
आयनणप्रत्यये च परे लप न भवति । अमुष्य पुत्रस्य भावः- 40 त० प्र० पश्यद्-बाग-दिवशब्देभ्यः परस्याः षष्ठया
आमुष्यपुत्रिका, एवम्-आमुष्यकुलिका, चौरादित्वादकम् । यथासंख्यं हर-यक्ति-दण्डषत्तरपदेषु लब न भवति । पश्य
अमुष्यापत्यम्-आमुष्यायणः, नडादित्वादायनण् । अदसोऽ5 तोहरः, अनादरे षष्ठीयम्, जनं पश्यन्तमनावृत्य हर्तेत्यर्थः;
नन्तरमायनणो विधानान्न तत्रोत्तरपदसंभवः ॥ ३३ ॥ बाचोयक्तिः, दिशोदण्डः, संबन्धषष्ठ्यौ ॥ ३२ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम्-अदसो० । अकबू श० म० न्यासानुसन्धानम्-पश्यदु। उभयत्र | आयनण द्वौ प्रत्ययौ, प्रत्ययग्रहणे चोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययमासमाहारद्वन्दः स च पूर्वमेकसमहस्यापरसमहेन सहात्वयवि- | त्रस्यैव ग्रहणमिति प्रतिपादितं वत्ती, ततश्च यत्र संभवस्तत्र
वक्षारूपसहोक्तिमाश्रित्य विधीयते, पश्चाद् यथासंख्यन्याय- प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणम्, यत्र न संभवस्तत्र प्रत्ययान्तस्येति 10 बलात् पश्यतः परस्याः षष्ठया हरशब्दे उत्तरपदे, वाचः । व्यवस्था पूर्वमुक्ता अत्र चाकविषये यद्यध्यसम्भवोऽस्ति,
परस्याः षष्ठया युक्तिशब्दे उत्तरपदे, दिशः परस्याः षष्ठया नहि अदसः परस्याःषष्ठया अकपरत्वसंभवः, अदसोऽकोदण्ड शब्दे उत्तरपदे इत्येवरूपेण लक्ष्यसंस्कारको वाक्यार्थ- | विधानाभावात, चौरादित्वाद्धि अकज विधीयते, चौरादिगणे च बोधः, तदाह-यथासंख्यं हर-युक्ति-दण्डेष्विति-पूर्वमेव ! नादसः पाठोऽपित्वमुष्यपुत्रशब्दस्यैव, तथा चाकञ्प्रत्ययान्तम- 0 प्रत्येकमन्वयविवक्षायां तु न स्यात् समासः, सहोक्त्यभावात् ।। प्युत्तरपदं न संभवति, केवलपुत्रशब्दादकोऽविधानात् । एवं पश्यतोहरः इति-स्वर्णकार एतेन शब्देन ख्यातः, स हि
च प्रत्ययमात्रस्य प्रत्ययान्तस्य चेत्युभयोरसंभवाद् विषयपरपश्यत एव लोकस्याभूषणादिनिर्माणकर्मणि सुवर्णादिकं । तया सप्तमी व्याख्याति-अकप्रत्ययविषये उत्तरपदे इतिधाष्टयेन हरति, अल्पमूल्यं द्रव्यान्तरं तत्र क्षिप्त्वा बहुमूल्यं । यद्यप्युत्तरपदमात्रस्य नाकविषयत्वमपि तु समुदायस्यैव दूर सुवर्णादि चोरयतीति प्रसिद्धिः, अत्र बहुनामपि पश्यतां हरण | तथापि समदायद्वाराऽवयवेऽपितद्विषयताऽक्षतवेति मत्वा पश्यतो हर इत्येव प्रयोगोऽभिधानस्वाभाव्यात, यत्र च बहुत्वं 'अकप्रत्ययविषये उत्तरपदे' इति व्याख्यानमङ्गीकृतं वेदिविवक्षितं तत्र समास एव नेत्यपि शब्दशक्तिस्वभावमनुरुध्य | तव्यम् । आयनणस्तु केवलस्यापि षष्ठयन्ताददसः परत्वसकथयितुं शक्यत इति केचित् । बहुत्वविवक्षायामपि भवत्ये- म्भवात् तस्य स्वरूपस्यैव ग्रहणं कर्त्तव्यम्, तदन्तस्य चोत्तरवालुबिति परे। धाष्टय मेव द्योतयति-अनादरे षष्ठीयमिति, | पदस्यापि नास्ति सम्भवोऽदस एव तद्विधानादिति तद्विषये अयमाशयः-पश्यत इत्यत्र षष्ठी न स्वस्वामिभावसम्बन्धे, हरेण | स्वरूपमात्रस्य ग्रहण मित्याह-आयनरणप्रत्यये च परतः इतिसह तस्य तथाविधसम्बन्धाभावादसामर्थ्यात् समासो न स्यात्, | एतच्चाग्रेऽपि व्याख्यास्यति । अमुष्यपुत्रस्य भावः इति, तथा च पश्यन्तं लोकमनादत्य-नायं ज्ञातं प्रभवति, ज्ञात्वाऽपि न | अदमाशङ्कयते-चौरादिगणेऽमुख्यपुत्रशब्द-अमुष्यकुलशब्दयोः तत प्रमाणयितुं शक्नोतीत्यादि बुद्धया स हरतीति “षष्ठीवाऽना | पाठसामर्थ्यादेवात्र षष्ठया अलब भविष्यति, एवं च सूत्रेण दरे" [२-२-१०८] इति षष्ठी, तस्याः समास: । अत्रानादर- | तद्विधानमनर्थकम, यतो गणपाठस्याप्याचार्यपरम्पराप्राप्तत्वेन । क्रियाऽपि षष्ठयर्थ एवान्तर्भूतेति नासामर्थ्यम्, तदाह-जनं प्रामाणिकत्वं प्रयोगसाधुत्वनिर्णायकत्वं च सर्वरेव स्वीक्रियते
पश्यन्तमनाहत्येत्यर्थः इति, जनमिति कथनेन निर्मीयमाणा- | किञ्चामुष्यपुत्रादिशब्दस्य न केवलमकान्तस्य प्रयोगः स्यात, 30 भूषणस्वामिनमन्यं वोदासीनजनं पश्यन्तमप्यनादृत्येत्यर्थो | किन्तु प्रत्ययान्तरपरस्यापि, यथाऽमुष्यपुत्रस्यापत्यमामुष्य
ध्वनित:, अयं च शब्द: स्वर्णकारे प्रायः प्रयुज्यते; अन्ये पुत्रिः, अमुध्यकुलस्यापत्यममुष्यकुलीनः, ततोऽपि प्रत्ययान्तत्वतिचतुरचौरेऽप्ययं प्रयोग इत्याहुः । वाचोयुक्तिरित्यत्र च रम्, केवलममुष्यपुत्राऽमुष्यकुलशब्दो समस्तो व्यस्तौ च 70 विषयविषयिभावरूपे सम्बन्धे षष्ठी, वाग्विषय सयुक्तिप्रति- | प्रयोक्तव्यौ स्यातामिति चेत्?न-यतो गणे पाठस्य केवलम
पादनमिति तदर्थः, अथ च वाचा करणभूतया सयुक्ति- काविषय एव तस्य साधत्वमित्येतावन्मात्रार्थसाधकत्वमित्ये। प्रतिपादनं वाचः स्पष्टत्वमिति वाऽर्थः, दिशोदण्डः इति- | तेन सूत्रेण बोध्यते, तदर्थमेव च सूत्रेण पुनरलुगो विधान
अत्रापि तात्स्थ्यरूपसम्बन्धे षष्ठी, तदाह-सम्बन्धषष्ठीति । मिति न तद्वयर्थ्य नवा प्रत्ययान्तरविषयता केवलप्रयोग३-२-३२॥
| विषयता च तस्य भवतीति । तदर्थमेवान्यः प्रयोगस्वरूपमेव 71
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ३३-३५]
निपात्यते,तथाहि-“षष्ठया आक्रोशे"[ पा० सू०६-३-२९]इति | पादितम् । ब्रह्मज्ञानरहितत्वात् संसारिणो मूर्खाः, ते तु सूत्रे महाभाष्ये 'आमुष्यायणाऽमुष्ययुत्रिकाऽमुष्यकुलिकेत्युपसं- यागादिकर्माण्यनुतिष्ठन्तः पुरोडाशादिप्रदानद्वारा देवानामस्यानम्' इत्येव वात्तिकमारभ्यते । स्वमतेऽपि सूत्रेण गणपाठ- | त्यन्तं प्रीति जनयन्ति । ब्रह्मज्ञानिनस्तु न तथा, तेषां यागाद्यप्राप्तमन्यत्र प्रयोगमेव नियमयत्याचार्य इति स्वीकरणीयम् । नुष्ठानाभावात् । अतो यथा मनुष्यर्गवादयः स्वोपभोगसम्पा- 40 किञ्च सूत्रगणपाठयोरेकाचार्योपदिष्टत्वेन न तयोः परस्परं | दकाः पशवस्तणादिदानेन पाल्यन्ते तथा देवैरपि स्वपूजका प्रामाण्यापक्षेपकत्वमिति लक्षणेनाप्राप्त एवं विषयो गण-भोगप्रदानेन पाल्यन्त इति तेषां पशेतल्यास्ते, इदं च बृहदारपाठसामानिपातितत्वेन स्वीकर्तव्यः । यच्च कार्य सूत्रेणानु-स्यकोपनिषदि प्रतिपादितं, तभाष्यका शङ्कराचायण च शिष्यते तत्र गणपाठसामर्थ्यादन्यतेति न कल्पनीयम, सूत्रस्य तस्य विस्तरशो व्याख्यानं कृतमस्ति । देवप्रिय इत्यपि प्रयोगो
श्रुतिरूपत्वाद् गणपाठानुमितविधेश्च लिङ्गरूपत्वात् "श्रुति- दृश्यते, तत्र चान्येषां मतेन भर्खादतिरिक्तेऽर्थे तत्प्रयोगः, यतः 45 10 लिङ्गवाक्य-प्रकरण-स्थान-समाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यम- स्पष्टमेव ते "देवानां प्रिय इति च मर्खे' इति वचनमार
र्थविप्रकर्षात्" इति मीमांसकस्वीकृतन्यायात् । अयमाशयः- भन्ते । स्वमते चैकवचन द्विवचनाभ्यां विग्रहे वहुव्रीही वा निरपेक्षो रवः श्रुतिः, तरचेह सूत्ररूपम्, तस्य स्वविधेये विधी ।
तथा प्रयोग इति बोध्यम् ॥ ३-२-३४ ॥ वचनान्तरानपेक्षत्वात, गणपाठस्तु लिङ्गरूपः, गणे तथास्थितं
पाठं दृष्ट्वा तादृशविधेरनुमानात्, तथाच सूत्रापेक्षया तस्य शेप-पुच्छ-लाङगूलेषु नाम्नि शुनः 15 दौर्बल्यमिति सूत्रानुकल्येनैव तस्य नेयत्वं सिध्यतीति न कोऽ
50 पि संशयः । चौरादित्वादकमिति-"चौरादेः" [७-१-७३] इति सूत्रेण षष्ठयन्ताद् भावे अाजति भावः । अमुष्याप
त० प्र० श्वन्शब्दात् परस्याः षष्ठयाशेपाविषत्तरपदेष त्यमिति इहापि नडादिगणेऽमुष्यशब्दपाठेन यद्यपि षष्ठया । नाम्नि-संज्ञायां विषये लुप् न भवति । शुनः शेपमिव शेप
अलुप्-साधयितु शक्यते, तथापि तथापाठस्य अमुयोरपत्यम- | मस्य-शनःशेषः, एवं-शनःपच्छः: शनोलाडलः । शेषःशब्दः 20 मीषामपत्यमित्याद्यर्थे आनयणोऽभावार्थत्वस्य कल्पनान्न षष्ठय-| सकारान्तोऽप्यस्ति, इह त्वकारान्तस्य ग्रहणम् । नाम्नीति
लप-साधकत्वमित्यनेन सूत्रेणापि विज्ञायत इति न तेनैतत्सू- | किम् ? श्वशेपम्, श्यपुच्छम्, श्वलालङगलम् । अन्य तु 55 श्रानर्थक्यशङ्का कार्या । 'आयनणन्ते उत्तरपदे' इत्येवार्थः कुतो | 'सिंहस्यशेपं, सिंहस्यपुच्छं, सिंहस्यलाङ्गलम्' इत्यत्रापीच्छन्ति, न कृत इत्याशङ्कामपनुदति-अदसोऽनन्तरमायनोऽ- तन्मतसंग्रहार्थ बहवचनम्, अनाम्न्यपि विध्यर्थम् ॥ ३५।। विधानादिति-षष्ठयन्ताददस एवायनण् विधीयत इति न
श०म० न्यासानुसन्धानम्-शेप० । शेपादीनामितरेतदन्तस्य [आयनणन्तस्य] उत्तरपदस्य सम्भव इत्यायनणन्ते
तरयोगद्वन्द्वः, समाहारं विहायतरेतरयोगस्य ग्रहणे फलं वक्ष्यउत्तरपदे इति न व्याख्यातमिति भावः ॥ ३-२-३३ ।।
त्यग्रे । शेपशब्दो यद्यपि पुंस्येवानुशिष्टस्तथापीह तस्य नपु-60 देवानांप्रियः। ३. २. ३४॥
सकत्वेन विग्रहवाक्ये निर्देशान्नपुंसकत्वमपि विज्ञेयम्, अयं
च शब्दः पुंलिङ गस्य मेढस्य वाचकः, शुनः शेपादयस्त्रयोत०प्र० देवानांप्रिय इति षष्ठया लबभावो निपात्यते । ऽपि ऋषिविशेषाणां नामानि । शेपसशब्दःसकारान्तोऽदेवानांप्रियः ॥ ३४ ॥
पीति-तथा चामरकोषे पठ्यते-"गौलिङ्ग चिह्नशेपसोः"
इति क्वचित् तु गौलिङ्ग चिन्हशेफयोः' इति पठ्यते, तथा च 65 30 श० म० न्यासानुसन्धानम्-देवानां । इदमपि न तेनास्य सकारान्तत्वसिद्धिरिति मूलान्तरमन्वेष्यम्, स्वमते
निपातनरूपमेव । अयमजौ म वा दृश्यते, केचित् त्वेव- | च "शीडाः कश्च" [ उणा० ९८२ । इत्युणादिसूत्रेण शेपस्माहः-'निपातनेनार्थविशेष-विषयता लभ्यते, तथा च मूर्खऽयं । शब्दसिद्धिः, प्रकृते चाकारान्तस्यैव ग्रहणं तथैव सूत्रे पाठात्, शब्द: प्रयुज्यत इति, तथा च देवशब्दादुत्पन्नषष्ठीबहुबचनस्य तथा च सकारान्ते परे लुबेव भवति । प्रायो नाम्न्येव एषां
प्रियशब्दे उत्तरपदेऽलुप् निपात्यते । 'अज्ञातात्मस्वरूपेऽयं प्रयोगः प्रयोगानाम्नीति व्यर्थमिति शङ्कते-नाम्नीति किमिति । 70 25 श्रत्यादिषु प्रसिद्धः, कालवशान्मखें रूढः, मर्खा हि देवानां प्रीति | अन्यत्रापि समासोऽयं प्रयुज्यते, तत्र लपो निषेधाभावाय
जनयन्ति देवैः पशुरूपेणोपभोग्यत्वात् इति मनोरमायां प्रति-नाम्नीत्यावश्यकमित्याह-श्वशेपमिति अत्र षष्ठीतत्पुरु:।
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[पाद-२, सूत्र. ३५-३७ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
बहुवचननिर्देशस्यार्थान्तरसाधकत्वं दर्शयितु मतान्तरमवता- लुप् न भवति । होतुःपुत्रः, होतुरन्तेवासी; पितुःपुत्रः; रयति-अन्ये विति । सिंहस्य शेपमित्यादीनां व्यस्ता- पितुरन्तेवासी। ऋतामिति किम् ? आचार्यपुत्रः. मातनामपि प्रयोगे फले भेदाभावेन समस्ता एवैते शब्दा लान्तेवासी। बहुवचनं 'विद्यासंबन्धनिमित्ते योनिसंबन्ध
इत्यत्र विनिगमकाभावेन तेषामसंग्रहेऽपि दोषाभाव निमित्त' इति यथासंख्यप्रतिपत्तेव्यु दासार्थम् । ऋद्भ्य इति 5 इत्यरुचिसूचकस्तुशब्दः । स्वसम्मतं बहुवचनस्य फल- | निर्देशे प्राप्ते षष्ठीनिर्देश उत्तरार्थः । विद्या-योनिसंबन्ध इति 40 माह-अनाम्न्यपि विध्यर्थमिति, अयमाशयः-बहुवचनस्य | किम् ? भर्तृगृहम् । पूर्वपदविशेषणं किम् ? भर्तृ शिष्यः, भर्त. व्याप्त्यर्थत्वसम्भवेऽपि यत्र बहुवचनं तदंशे एवं व्याप्तिः | पुत्रः। उत्तरपदविशेषणं किम् ? होतृधनम्, पितृगृहम् ॥३७॥ स्यादिति शेपादिभ्योऽन्यत्राऽप्युत्तरपदे तत्प्रवृत्तिः स्यात्, न तु
i स्मात्
n
श० म० न्यासानुसन्धानम्-ऋतां0 1 अत्र विद्याशुनोऽन्यस्य पूर्वपदस्य ग्रहणं स्यात्, शेपादिऽभ्योऽन्यत्र चोत्तर-
योन्योर्द्वन्द्र योनिशब्दस्येदतन्तेन तस्यैव पूर्वनिपाते प्राप्ते वि10 पदे प्रवृत्तिरनिष्टेति बहुवचनसार्थक्यायान्यत्रापि-नामभिन्नेऽ
द्याकृतस्य सम्बन्धस्य योनि सम्बन्धापेक्षयाऽय॑त्वेन विद्याया 45 पि विषये सूत्रस्य प्रवृत्तिरित्येव कल्पनं वरमिति । अन्येच
एव पूर्वनिपातः । एवं च तदर्थ' निर्देशसामय-धर्मादित्वकवैयाकरणा नाम्नीति म पठन्ति, तन्मतसंग्रहोऽत्र पक्षे
ल्पनादिकं नावश्यकमिति प्रतीयते, दृश्यते हि योनिवंशाबोध्यः। एवं च सर्वमतसंग्रहार्थमेव बहुवचनं वेदितव्यमिति
| पेक्षया विद्यावंशस्य प्राबल्यं शास्त्रे बहधेति विद्याया अय॑त्वं ॥३-२-३५ ॥
निविवादम् । अत्र विद्यायोनिसम्बन्धे इति पदं द्विधा 15 वाचस्पति-वास्तोष्पति-दिवस्पति-दिवोदासम् | सम्बध्यते-'ऋताम्' इत्यनेन उत्तरपदे इत्यनेन च देहलीदीप- 50
न्यायादावृत्त्या वा । तथा च व्याख्याति-विद्याकृते योनिकृते । ३. २. ३६ ॥
च सम्बन्धे वर्तमानानामिति, विद्यायोनिसम्बन्धे एव त०प्र० बाचस्पत्यादयः शब्दाः षष्ठीलबभावे निपा- | निमित्ते सति वर्तमाने उत्तरपदे इति च । अयमाशयः-यत्र त्यन्ते, नाम्नि विषये । बाचस्पतिः, बास्तोष्पतिः, दिवस्पतिः । विद्यायोनिसम्बन्धिवाचकानामेव पूर्वोत्तरपदभावेन समा
दिवोदासः। नाम्नीत्येव-वाक्पतिः, वास्तुपतिः, पतिः, सस्तत्र ऋकारान्तात् पूर्वपदात् परस्या: षष्ठया: अलुप् भव- 55 20 उदासः ॥ ३६॥
तीति । 'होतुः पुत्रः' इत्यत्र योनिकृते सम्बन्धे उभयोः
पदयोवृत्तिः, 'होतुरन्तेवासी' इत्यत्र च विद्याकृते सम्बन्धे श०म० न्यासनुसन्धानम्-वाच०। पृथक् पूर्वोत्तर उभयोः पदयोवृत्तिः, 'पितुः पुत्रः इत्यत्र योनि सम्बन्धे पदयोनिर्देशन विधाने सूत्रभेदोपपत्तिरिति सहैव निपातनरूपेण- उभयोः पदयोवृत्तिः, पितुरन्तेवासी' इत्यत्र वाचस्पत्यादयः पठिताः, तथा चैते निपात्यन्ते इति लभ्यते, विद्यासम्बन्धे । यद्यपि होतुःपुत्रः, पितुरन्तेवासी' 60 किच निपातनेन सत्वमपि लभ्यते । एतानि च नामानीति | त्यत्र क्रमेण पूर्वपदस्य विद्यायोनिसम्बन्धवाचकत्वमेव विद्यते. 25 नाम्नीत्यस्यापि सम्बन्ध आवश्यक एवेति वक्ष्यति । वाच-1 होतत्वस्य विद्याधीनत्वात्, पितृत्वस्य च योनिसम्बन्धाधीन
स्पतिरिति-बहस्पतेनमिदम । वास्तोष्पतिरिति- इन्द्रस्य । त्वात. तथापि तत्पुरुषे उत्तरपदस्यैव प्राधा वास्तुभूमिसाक्षिणो देवस्य च नामेदम । दिवस्पतिरिन्द्रः। । सम्बन्धस्यैव प्राधान्यात् तेनैव व्यपदेशो युक्तः। तथा च दिवोदासः पुराणप्रसिद्धो राजा, स च चन्द्रवंशीयः काशि | होतुः पुत्र इत्यत्र पुत्रेण योनिसम्बन्ध एव निरूप्यते, पितुर-65
राजः । नाम्नीत्यस्य व्यावQमाख्यातु तत्सम्बन्धावश्यकतां तेवासीत्यत्रान्तेवासिना विद्यासम्बन्ध एव निरूप्यत इति 30 सूचयति-नाम्नीत्येवेति । तथा चान्यत्र नालुप, तदाह वाक्- | तस्यैव प्राधान्यम् । न चोभयसम्बन्धव्यपदेशः शक्यः कर्तुम्, पतिरित्यादि।। ३-२-३६ ॥
सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वेन ए केन तस्य निरूपणासम्भवात् ; अथवा
तादशसम्बन्धस्य प्रवृत्तिनिमित्तत्वमेव विवक्षितं परस्परसऋतां विद्यायोनिसंबन्धे । ३. २. ३७ ॥ तादर
म्बन्धे नाग्रहः, एवंच पित्रादिशब्दानां सर्वत्र योनिसम्बध- 70 त०प्र० ऋकारान्तानां शब्दानां विद्याकृते योनिकृते | निमित्तत्वमेव होत्रादिशब्दानां विद्यासम्बन्धनिमित्तमेवेति च संबन्धे निमित्ते सति प्रवर्तमानानां संबन्धिन्याः षष्ठया | बोध्यम् । ऋतामिति किमिति-तथा च सामान्येन विद्यायोनि3 विद्या-योनिसंबन्धे एव निमित्त सति प्रवर्तमाने उत्तरपदे । सम्बन्धे सति षष्ठया अलप इत्येवोच्यतामिति भावः । व्याव
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बृहबृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ३७-३८]
@माह-आचार्यपुत्रः, मातुलान्तेवासीति-आचार्यमातुल- , आदेशविधौ स्थानार्थिकायाः षष्ठया एवौचित्यात् , तथा चोभशब्दयोविद्यायोनिसम्बन्धनिमित्तकत्वेऽपि ऋदन्तत्वाभावान्न | यसूत्रसम्बन्धाहेण षष्ठयन्तेनैव निर्देश उचित इति। पूर्वोत्त- 40 भवति षष्ठया अलप, ऋतामित्यस्याभावेतु तत्रापि स्यादेव। रपदयोरुभयोः प्रत्येकस्य च विद्या-योनिसम्बन्धविशेषणमिह
ऋत इत्येकवचनेनैव जातिवादेन बहूनामृदन्तानां सङ्ग्रहे | किमर्थमिति क्रमशः पच्छति-विद्यायोनिसम्बन्ध इति 5 सम्भवति बहुवचनं व्यर्थमित्याशङ्कायामाह-बहुवचनं किमिति-इह चैतत्पदग्रहणमेव व्यर्थमित्याशङ्का । व्यावर्त्यविद्यासम्बन्धनिमित्ते योनिसम्बन्धनिमित्ते इति यथा- माह भर्तृगृहमिति-भर्तुगृहस्य च न विद्यया नवा योन्या संख्यप्रतिपत्तेढुंदासार्थमिति । अयमाशय:--'विद्यायोनि- | सम्बन्धी निमित्तम् , तथा चात्र षष्ठया लुबेव भवति, 'विद्या- 45 सम्बन्धे' इति पदं लक्ष्यार्थबोधकाले विभज्यवार्थबोधकं भवति, |
योनिसम्बन्धे' इत्यस्याभावे च ऋतः सम्बन्धिन्या: षष्ठया तथा च विद्यासम्बन्धनिमित्ते योनिसम्बन्धनिमित्ते च वर्त्त
लुपोऽत्रापि निषेधः स्यात् । पूर्वपदविशेषणं किमिति
'विद्यासम्बन्धनिमित्ते योनिसम्बन्धनिमित्ते चोत्तरपदें 10 मानानां तादशे निमित्त वर्तमाने उत्तरपदे परतः षष्ठया अलबिति शाब्दबोधो भवति, तत्र यदि यथासंख्यन्यायावतारो
| इत्येवोच्यताम् ऋतां तत्सम्बन्धनिमित्ते वर्तमानत्वं विशेषणं भवेत् तहि विद्यासम्बन्धनिमित्ते वर्तमानस्य सम्बन्धिन्याः
न देयमिति भावः । व्यावर्त्यमाह-भ शिष्यः इति-शिष्यस्य 50
विद्यासम्बन्धनिमित्त वर्तमानत्वेऽपि पूर्वपदस्य भर्तुर्ने विद्याषष्ठया विद्यासम्बन्धनिमित्ते एवोत्तरपदे अलए स्यात् , योनिसम्बन्धनिमित्त वर्तमानस्य सम्बन्धिन्याः षष्ठयाश्च योनिस
सम्बन्ध निमित्तत्वं नवा योनिसम्बन्धनिमित्त त्वमिति न
| भवत्यलप, तद्विशेषणाभावे तु तत्रापि स्यादेवालप । उत्तर 15 म्बन्धनिमित्ते एवालप स्यादिति 'होतुः पुत्रः, पितुरन्तेवासी'
पदविशेषणं किमिति--भर्तृ शिष्य इत्यादिव्यावृत्त्यर्थ इत्यादी न स्यात् , पूर्वोत्तरपदयोरेकसम्बन्धनिमित्ते वर्तमान- |
पूर्वपदमेव तेन तेन सम्बन्धेन विशेष्यतामुत्तरपदं न विशेष्यता- 55 स्वाभावात् । तथा च यथासंख्यशास्त्रबाधनार्थमेव बहुवचनं
मिति भावः । व्यावय॑माह--होतृधन, पितृगृहमितिकृतम् , बहुवचने च सति ऋतां बहुत्वादुभाभ्यां यथासंख्य न
होतुः पितुश्च क्रमशो विद्यायोनिसम्बन्धनिमित्तत्वेऽपि उत्तरसंदिह्यते । यद्यपि प्रातिस्विकरूपेण पृथक् पृथक् सम्बन्धनि
| पदयोर्धनगृहयोस्तत्सम्बन्धशून्यत्वान्न भवत्यत्र षष्ठया अलुप् 10 मित्तत्वेऽपि ऐकपद्ये सति एकविधसम्बन्धनिरूपकत्वमेवोभ--
तदभावे तु स्यादेवेति भावः ॥ ३-२-३७ ॥ योरित्यावेदितं पूर्वम् , तथापि प्रकियादशास्थितं प्रातिस्विक सम्बन्धमादायैव तन्निमित्तमिति तदाश्रित्यैव शङ्का समाधी
स्वस-पत्योर्वा । ३. २. ३८॥ 60 वेदितव्यो। किंचकवचने सत्यपि न यथासंख्यशङ्का, संख्याभेदस्य तत्रापि सत्त्वादिति नेदं बहवचनस्यासाधारण व्याव- त० प्र० विद्या-योनिसंवन्धे निमित्त सति प्रवर्तमानात्य॑म् , दृश्यते च व्याकरणान्तरे एकवचनेनापि निर्देश: "ऋतो नामकारान्तानां शब्दानां संबन्धिन्याः षष्ठयाः स्वस-पत्योविद्या-योगिसम्बन्धेभ्यः" [पा० सू०६-३-२३-] इति । यद्यपि रुत्तरपदयोोनिसंबन्धनिमित्तयोः पदयोल ब वा न भवति । तत्र विद्यायोनिसम्बन्धेभ्य इत्यत्रव बहुवचननिर्देशेन यथासं
होतुःस्वसा, होतस्वसा; पितुःष्वसा, पितुःस्वसा, पितृष्वसा; ख्यनिवृत्तिः कल्पयितुं शक्यते, तथापि संख्याभेदस्थैव तया- | मातुःस्वसा, मातुःष्वसा, मातृष्वसा; दुहितुःपतिः, दुहित- 65 वर्तकत्वे एकवचन-बहुवचनयोः साम्यमेवेति वक्तु शक्यते,
पतिः; स्वसुःपतिः, स्वसृपतिः; ननान्दुःपतिः, ननान्दृपतिः । एवञ्च स्थितस्य गतिरूपेणेदमुक्तमिति नात्र शङ्का कार्या।
विद्यायोनिसंबन्ध इति पूर्वपदविशेषणं किम् ? भर्तृस्वसा । परम्परया पञ्चम्यन्तेनैव निर्देश आयाति षष्ठयन्तनिर्देशे कि
उत्तरपदविशेषणं किम् ? होतृपतिः। पूर्वेण नित्यं प्रतिषेधे फलं मूल वेति शङ्कायामाह--ऋद्भय इति निर्देश प्राप्ते
प्राप्ते विकल्पोऽयम् ॥ ३८॥ षष्ठीनिर्देश उत्तरार्थः इति--उत्तरत्र "द्वन्द्वे" [३-२-३९] इति सूत्र ऋतामिति षष्ठयन्तस्यैव सम्बन्धस्य युक्तत्वात् षष्ठी. श०म० न्यासानुसन्धानम्-स्वस० । पूर्वसूत्रं सर्व- 70 निर्देश एव कृत इत्यर्थः । अयमाशयः-अत्र सूत्रे विभक्तेः | मनुवत्तंते, तत्र स्वसृपत्योरिति द्विवचनापेक्षयोत्तरपदे इत्येकप्रकृत्या सह सम्बन्धमात्रप्रतिपादनेनापि लक्ष्यसिद्धौ बाधका- | वचनान्तमपि द्विवचनान्ततया विपरिणमते, तत्र विद्यासम्बभावात षष्ठीनिर्देश एव कृतो लाघवानरोधाच्च, ऋदभ्य | धांशः स्वसपत्योर्न सम्बध्यतेऽसंभवात. तथा च योनिसम्बति कृते तु "आ द्वन्द्वे (३-२-३९) इत्यत्र तत्सम्बन्धासम्भवः, ] धांशमात्र तत्र संबध्यते । यद्यपि स्वसूर्योनिसंबन्धस्याव्य
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[पाद-२, सूत्र-३८-३९]
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनेतृतीयोऽध्यायः ।
३३
10
भिचारात् तत्र न तत्सम्बन्धो युक्तः, पत्या सहापि न तत्स- पूर्वपदस्य विद्यासम्बन्धनिमित्तकत्वे सत्यपि उत्तरपदस्य म्बन्धसंभवः, योनिसंबन्धे सति पतिपत्नीभावस्यैवासंभवात, योनिसम्बन्धनिमित्तत्वाभावात स्वस्वामिभावसम्बन्धनिमि- 40 योनिसंबन्धो हि जन्मना संबन्धः. जन्मना च संबन्धे सति . त्तत्वमेवेति न भवति लुपो निषेधः। अत्रापि सूत्रे यथाकथं
पतिपत्नीभावस्य गहितत्वमेवेति सर्वथा उत्तरपदांशेऽत्र विद्या- चिदुभयपदयोविद्या-योनिसम्बन्धनिमित्तकत्वमेव ग्राह्य 5 योनिसंबन्धे' इति पदस्यासंबन्ध एव युक्तः, तथापि उत्तरपदेन पूर्वपदस्य च ऋकारान्तत्वमेवेति पूर्वसूत्रेणैव गतार्थमिदं
सह तत्सम्बन्धस्य पूर्वसूत्रे स्वीकृतत्वेनात्रापि यावदंशे संभव- सूत्रमित्याशङ्ख्याह-पूर्वेण नित्यं प्राप्ते इति--तथा च स्तावदंश तत्संबन्धे कृते क्षत्यभाव इत्याशयेन वृत्तौ तत्सम्बन्धः विकल्पावधानमात्रमतत्सूत्रप्रयोजनमिति भावः ॥३-२-३८॥ 45 कृतः; पत्या सह पूर्व योनिसम्बन्धाभावेऽपि पुत्रादिद्वारा ...............................raneemun. तत्सम्बन्धस्य भावित्वादस्त्येव सम्भव इत्याशयेन वा तत्सम्बन्धः कृतो बोध्यः । अत्र स्वसपत्योरिति द्वन्द्वे यद्यपि पति
आ द्वन्द्वे । ३. २.३९ ।। शब्द इकारान्त इति तस्यैव पूर्वनिपातो युक्तः, तथापि : त० प्र०-विद्यायोनिसंबन्धे निमित्ते सति प्रवर्तमानाधर्मादित्वात् स्वसुरिह मातृपितृसम्बन्धविशिष्टाया बुद्धिवि- नामृतां यो द्वन्द्वस्तस्मिन्सत्युत्तरपदे परे पूर्वपदस्याकारोऽषयत्वात्, तस्याश्च लोकव्यवहारदृष्टया पत्युरपेक्षया अज़- न्तादेशो भवति । होता च पोता च-होतापोतारौ, नेष्टोद्गा
त्वाद् वा स्वसृशब्दस्यैव पूर्वनिपातः कृतः । तथा च सूत्रार्थ- . तारो, प्रशास्ताप्रतिहर्तारौ, मातादुहितरौ, ननान्दायातरौ। 50 15 माह-विद्या-योनिसम्बन्धे निमित्ते सतीत्यादि । होतु:- अथेह प्रथमयोः कस्मान भवति-होतृपोत्नेष्टोद्गातार
स्वसेति विद्यासम्बन्धनिमित्त प्रवर्तमानदन्तपूर्वपदोदाहर- . इति ? अन्त्यस्यैवोत्तरपदत्वात् । कथं तर्हि होतापोतानेष्टोणम्, अलुपोऽभावे लुपि होतृस्वसेति । पितुःस्वसेति योनि- ' द्गातार इति ? द्वयोर्द्वयोर्द्वन्द्वे भविष्यति । यदा च होता सम्बन्धनिमित्ते प्रवर्त्तमान ऋदन्तपूर्वपदोदाहरणम्, अत्र चाल-च पोता च नेष्टोद्गातारौ चेति विग्रहस्तदा होतपोतानेष्टो
पक्षे "अलुपि वा" २-३-१९] इति विकल्पेन पत्वमद्गातार इति । ऋतामित्येव-गुरुशिष्यो। ऋता द्वन्द्व इति 55 20 लुपि तु "मातृ-पितुः स्वसुः" | २-३-१८] इति नित्यं किम् ? पितृपितामही । विद्यायोनिसंबन्ध इत्येव-कर्तृकार
षत्वमिति बैरूप्यम् । एवं-मातुःस्वसेत्यत्रापि । अथ पति- यितारी । विद्यायोनिसंबन्धश्चेह प्रत्यासत्तः समस्यमाना. रूपे उत्तरपदे उदाहरति- तःपतिरिति-विद्यासंवन्धिनः नामृदन्तामामेव परस्परं द्रष्टव्यो न येन केनचित, तेनेह पतिशब्देन सह संबन्धासंभवाद' योनिसंबन्धिन एव पूर्वपद- न भवति-चैत्रस्य स्वसृदुहितरौ, नात्र स्वसृ-दुहित्रोः परस्परं
स्योदाहरणम् । पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च विशेषणवैयर्थं शते ' संबन्धः, न हि स्वसा चैत्रस्य स्वस्सा भवन्ती दुहितरमपेक्षते 60 25 विद्या-योनिसम्बन्ध इति पूर्वपदविशेषणं किमिति- दुहिता वा स्वसारमिति । यद्येवं कथं चैत्रस्य पितभ्रातरा
पूर्वपदस्य चोभयसंबन्धनिमित्तत्वसम्भवादुमयसम्बन्धेन सह विति, अस्ति पत्र परस्परसंबन्धः, उच्यते-यद्यपि चैत्रस्य विशेष्यविशेषणभावः कृतः, स न कर्तव्य उत्तरपदविशेषण- भ्राता भ्राता भवन् पितरमपेक्षते चैत्रपितजनितस्यैव चैत्रमात्रेण पूर्वपदस्यापि तथाविधसम्बन्धनिमित्तकस्यैव ग्रहीत. भ्रातृत्वात, तथापि पिता पिता भवन भ्रातरमपेक्षते। यद्येवं मौचित्यादिति शङ्कितुराशयः। भर्तृस्वसेति-अत्र हि :
कथं मातापितरौ ? होतापोतारौ ? न पत्र परस्परापेक्षस्तथा- 65 30 योऽस्या भर्ता तस्येयं स्वसेति प्रतीतेः स्वसुर्योनिसम्बन्धसत्त्वेऽपि .
भावोऽपि तु पुत्रयजमानापेक्षः, नैवम्-अत्रापि मात्रादीनां
"' परस्परसंबन्धात, ते हि स्वकर्मणि प्रजने यागे च सहिता एव भर्तृशब्दस्य भरणकर्तृत्व [ पालकत्व रूपार्थनिमित्तकस्य ,
- वर्तन्ते, तत्कर्मनिमित्तश्चायं तेषां व्यपदेश इत्यदोषः । विद्यायोनिसम्बन्ध निमित्तकत्वाभावान्न' भवत्यलुप् पूर्वपदस्य .
केचित् तु 'स्वसाहितरौं' इत्यत्रापीच्छन्ति ॥ ३९ ॥ सामान्यतो ग्रहणे हि स स्यादेव । अथास्तु पूर्वपदविशेषणतयैव
तस्य सम्बन्धः, उत्तरपदयोरपि स्वस्पत्योयोनिसम्बन्धनिमि-- १५, २..... .......... . .marrrrr. 25 तत्वविशेषणं यत् कृतं तद् व्यर्थमिति शंकते-उत्तरपद श० म० न्यासानुसन्धानम्-श्रा०1"ऋतां विद्या- 70
विशेषणं किमिति । होतृपतिरिति--तत्र स्वसृशब्दस्य योनिसम्बन्” इति सूत्रं सर्वमनुवर्तते, 'उत्तरपदे' इति च, योनिसम्बन्धनिमित्तत्वाव्यभिचारात तदंशे प्रत्युदाहरणासंभ- , तथा सति योऽर्थः सम्पन्नस्तमाह-विद्या-योनिसम्बन्धवात् पतिशब्दांशमात्र प्रत्युदाहरणमाह-होतृपतिरिति, अत्र निमित्ते सतीत्यादि । ऋतामिति चेह न पूर्वपदमात्रस्य
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ३९-]
विशेषणमपि तु द्वन्द्वस्येत्याह-ऋतां यो द्वन्द्व इति । | लेऽपि तथैव भवतु, यद्यसाधु तात्रापि न भवत्विति शकिउत्तरपदे परे इत्यर्थे सति सामादेव पूर्वपदस्येति लभ्यत तराशयः । उत्तरयति-दयोदयोन्द्र में
ईन्द्व भविष्यतीति, अय- 40 इति सिद्धवदाह--पूर्वपदस्येति, पूर्वपदं च नेह समासस्याद्या- | मर्थ:--पूर्व होता च पोता च-होतापोतारौ, नेष्टा चोद्गाता वयवभूतपदम्, अपि तूत्तरपदाव्यवहितपूर्वमात्रपरमित्यग्ने च-जेष्टोद्गाताराविति द्वयोद्धयोद्वन्द्वं विधाय ततो होता 5 स्पष्टीभविष्यति। आकारोऽन्तादेशः इति-“षष्ट्याऽ- | पोतारौ च नेष्टोदगातारौ चेति विगह्य द्वन्द्वे कृते मध्यन्त्यस्य” [ ७-४१०६ ] इति परिभाषयेति भावः । होता- ! मस्य पोतृशब्दस्याप्युत्तरपदभूतनेष्टोद्गातृशब्दाव्यवहितपर हवनकर्ता, पोता-पूनातीति पावनकर्मा ऋत्विग्विशेषः, । त्वमिति तस्याप्यात्वे त्रयाणामप्यात्वं सम्पद्यत इति । 45 उणादिषु निपातनादिडभावः, तयोर्द्वन्द्वे ऋता द्वन्द्वसत्त्वात् । अथ क्वचिन्मध्यमयोरेवात्त्वं दृश्यते न प्रथमस्य, तत्र का
पोतरूपे उत्तरपदे होतुरन्त्यस्य कारस्थाकारे कृते- | प्रक्रियेति शंकायामाह-यदाच होता च पोताच नेष्टो10 होतापोताराविति। नेष्टा-नायकः, सोऽपि ऋत्विग्विशेष | दगातारीचेति विग्रहः इति, अयमर्थः-अत्र विग्रहे हि
एव, उदगाता-उच्चैर्गानकर्ता यज्ञे सामवेदसम्बन्धिकर्मकर्ता पदत्रयस्यैकदा द्वन्द्व इति मध्यमपदभतस्य पोतशब्दस्यत्रोत्तरच, तयोर्द्वन्द्वे आकारान्तादेशे-नेष्टोद्गातारौ। प्रशा- | पदाव्यवहितपूर्वत्वमिति तस्यैवात्त्वं भवति न तु प्रथमस्य, 50 स्ताऽपि याज्ञिकविशेष एव, यस्याज्ञयाऽन्ये ऋत्विजः कर्म । मध्यमेन व्यवधानादिति होतृपोतानेष्टोद्गातारः इत्येव प्रयोगः। कुर्वन्ति, प्रतिहर्ताऽपि ऋत्विग्विशेष एव, तयोर्द्वन्द्वे पूर्वव- |
अथ पदकृत्यमाह-ऋतामित्येवे ते---अतिप्रसङ्गवारणाय 15 दाकार इति । विद्यासम्बन्धिनामृतां द्वन्द्वानुदाहृत्य योनि
ऋतामिति पदमिहापि सम्बन्धनीयमेवेति भावः । क्वातिप्रसङ्ग सम्बन्धिनामुदाहरणमाह-मातादुहितराविति-माता च दुहिता चेति विग्रहः, उभयोयोनिसम्बन्धः प्रसिद्ध एव ।
इत्याह-गुरुशिष्याविति—अत्र विद्यासम्बन्धनिमित्तकमातापितराविति--इहाप्युभयोः पुत्रद्वारा तत्सम्बन्धः।
त्वेऽप्युभयोः पदयो भवत्यात्त्वम् ऋदन्तत्वाभावात् । अस्तु ०
। तहि ऋतामिति पूर्वपदमात्रविशेषणम्, ऋदन्तस्य पूर्वपदस्थाननान्दा-पत्यः स्वसा, याता-पतिभ्रातपत्नी, अनयोश्च पति20 द्वारा योनिसम्बन्धनिमित्तकत्वम् । एवं पदद्वयद्वन्द्र
कारोऽन्तादेश इत्यर्थेऽपि गुरु-शिष्यावित्यादावतिप्रसङ्गाभासूत्रप्रवृत्तिमुदाहृत्य पदचतुष्टयद्वन्द्वे कीदशी व्यवस्थेति
MMS वादिति तस्त्र द्वन्द्वविशेषणत्व व्यर्थमिति शङ्कते. मृतां विवेचयितुं शकते-अथेह प्रथमयोः कस्मान्न भवति-होतृ
द्वन्द्व इति किमिति । उभयोः पदयोः सर्वेषां वा पदानामदपोतनेष्टोद्गातारः इति-इह हि होता च पोता च नेष्टा
न्तत्व एवात्त्वप्रवृत्तिरिष्टा, तद्वारणाय ऋतामित्यस्य द्वन्द्व- "
विशेषणत्वमावश्यकमिति । व्याव|प्रदर्शनमुखेनाह-पितृचोद्गाता चेति विग्रहे चतुर्णा समासः, तत्र तृतीयस्यैवात्वं !
पितामहाविति--अत्र पितुरल्पस्वरत्वेन पूर्वनिपातः, यद्यपि 25 दृश्यते, प्रथम द्वितीययोर्न दृश्यते, तत् कथं भवति तयोरपि । पूर्ववर्तित्वेन पूर्वपदत्वस्याक्षतेरिति शङ्कार्थः । उत्तरयति
पित्रपेक्षया पितामहस्याय॑त्वेन तस्यैव पूर्वनिपातो युक्तस्तअन्त्यस्यैवोत्तरपदत्वात् इति, अयमाशयः--उत्तरपदशब्दः
थापि अय॑त्वतारतम्ये प्रयोजकाभावात् तन्नाश्रितमिति 65
बोध्यम् । 'विद्यायोनिसम्बन्धे' इत्यस्य सम्बन्धोऽप्यावश्यक समासचरमावयवभूते पदे रूढः, उत्तरपदत्वस्य च पूर्वत्र सति यस्मात् परं नास्ति तत्त्वमेव प्रवृत्तिनिमित्तं, न तु :
इत्याह-विद्या-योनिसम्बन्ध इत्येवे त, क्व मा भूत् ? इत्यत 30 समासाद्यवयवभूतपदात् परत्वमिति बहुपदसमासे मध्यमपदात् |
आह--कर्तृ-कारयिताराविति-उभयो ऋदन्तत्वेऽपि तादृपरत्वेऽपि तस्य [ उत्तरपदस्य ] उत्तरपदत्वानपायान भवति शसम्बन्धप्रवृत्तिनिमित्त कत्वाभावान्न भवत्यात्वम् तदभावे
। स्यादेव । विद्यायोनिसम्बन्धे' इति पदं विद्यायोनिसम्बन्धे तेन समासाद्यवयवरूपपूर्वपदाक्षेप इति उत्तरपदाव्यवहित
निमित्त सति प्रवर्तमानानामित्यर्थपरतया पूर्व व्याख्यातं पूर्वस्यैव पदस्यात्वं भवति, न तु तदव्यवहितस्येति प्रथमयो
तेनेहापि विद्यासम्बन्धो योनिसम्बन्धो वा येषां प्रवत्तित्विं भवति. वृत्ती पूर्वपदस्येति कथनमपि उत्तरपदाव्यवहि- निमित्तं तादशानामदन्तानामित्याद्यर्थो व्याख्यातः, परमसी 35 तपूर्वपदपरं न तु समासाद्यवयवरूढ पूर्वपदपरमिति । क्वचित्र-विद्याकृतो योनिकृतो वा सम्बन्धः कस्यापेक्षयेति न
याणामपि पदानामात्त्वं दृश्यते तत् कथमिति शङ्कते-कथं स्पष्टीकृतम्, तेन यथाकथंचित् विद्यायोनिसम्बन्धप्रवृत्तितहि होतापोतानेष्टोद्गातारः इति-अत्र त्रयाणामपि निमित्तकाः शब्दा उदाहरणत्वेन पूर्व प्रतिपादिताः, इह च । पदानामात्त्वं साध्वसाधु वा, यदि साधु तहि पूर्वोदाहृतस्थ- सम्बन्धनिरूपकस्यापि निर्णयः कर्तव्योऽतिप्रसङ्गनिरासा
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[पाद-२, सूत्र-३९]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
३५
येत्याह--विद्यायोनिसम्बन्धश्चेहेति इहेति कथनादित: । नात्वमिति । उत्तरयति-उच्यते इति कथं नात्वमिति पूर्व "स्वस-पत्यो" [३०.२०. ३८] इत्येतत्पर्यन्तं नायं । कथ्यत इति भावः । तदेवाह-यद्यपीत्यादिना, चैत्रस्य 40 विवेक इति ध्वन्यते, तत एव ननान्दुः-पतिरित्यादयः । योऽत्र भ्राता स चैत्रनिरूपितभ्रातृत्वद्वारैव पितरं स्वजन
समदाहृताः, तत्र हि ननान्दुः पत्या सह नास्ति तादृशः सम्बन्ध कत्वेनापेक्षते; न तु स्वतः, केवलस्थ म्रातृत्वस्य पितनिरू5 इति प्राचामाशयः । वयं तु ब्रूमः--तत्रापि पुत्रादिद्वारा:- | प्यत्वाभावात्, तदेवाह-तथापि पिता पिता भवन्निति
स्त्येव योनिकृतः सम्बन्धः परस्परमपीति वक्ष्यमाण नियम- पिता पितृत्वेन न भ्रातरमपेक्षते, पितृत्वस्य पुत्रनिरूप्यताया व्यभिचारस्थलत्वेन पितुरन्तेवासी होतुः पुत्र इत्यादयः समुदा
एव सत्त्वात् तस्यायं पुत्र इति कथिते स्वत एव सोऽयं 45 हरणीयाः । विवेचितं चैतत् पूर्वमपि, प्रातिस्विकं तत्तत्सम्बन्ध- : पितेति भवतीति नास्ति पितृभ्रात्रो: निरूप्यनिरुप्यकभाव इति
प्रवृत्तिनिमित्तत्वं चाश्रित्य समाहितमपि, तथा च इह प्रकृत- : भावः । इत्थं प्रकृतसूत्रस्य समस्यमानानामृतां परस्परं विद्या10 सूत्रे विद्यायोनिसम्बन्धश्च समस्यमानानामृदन्तानाम्[समस्य
योनिसम्बन्धे सत्येव प्रवृत्तिरित्यर्थे निर्णीते व्यभिचारं शङ्कतेमानऋदन्तशब्दवाच्यानाम् एव परस्परं द्रष्टव्यः, कुत इत्याह । यद्येवं कथं मातापितरौ, होतापोताराविति । शङ्काबीप्रत्यासत्तेः इत्यन्वयः । अयमाशयः-विद्यया सम्बन्धो विद्या- | जमह-नह्मत्र परस्परापेक्षस्तथाभावोऽपि तु पुत्रयज- 50 सम्बन्धः, योन्या सम्बन्धो योनिसम्बन्धः, सम्बन्धश्च द्वयोर्भव
मानापेक्ष इति, अयमाशयः-मातापितरावित्यत्र मातृत्वं न त्येकत्र तदभावात, एवं च स सम्बन्धः कयोयोग्राह्य इत्यपे
पितृनिरूप्यं न वा पितृत्वं मातनिरूप्यम्, किन्तु उभयमपि 15 क्षायां समस्यमानपदयोरेव, प्रत्यासन्नत्वात तयोरेव तेषामेव | पुत्रनिरूप्यमेव, पुत्रस्यैव भाता. तस्यैव च पितेति मातापित्रोः
वा ग्राह्यः । पदयोः पदानां वा न स सम्बन्धः सम्भवति परस्परं सम्बन्धाभावे सत्यपि कथमात्त्वप्रवृत्तिः; एवं होताततश्च तदर्थानामिति बोध्यम,तथा च यत्र समस्यमानयोः सम- ऽपि यजमानस्यैव इति तेनैव तस्य विद्यया सम्बन्धः, पोताऽपि 55 स्यमानानां ऋतां परस्पर विद्यासम्बन्धो योन्या वा संबन्ध ! ऋग्विविशेषत्वाद् यजमानसम्बद्ध एवेति तयोः परस्परम
स्तत्रवानेनात्वमिति फलति । इत्थं व्याख्यानेन यद् व्यावत्यै सम्बन्धेऽपि कथमात्वम्, यदि चेहात्वं स्वीक्रियते तहि पूर्वोक्त20 तत् प्रदर्शयितुमाह-तेनेह न भवतीति, तेन पूर्वोक्तसम्बन्ध- : नियमे व्यभिचार इति । शङ्का प्रत्याचष्टे-नैवमिति, कुत
निरुपकनिरूपणेन, इह-वक्ष्यमाणलक्ष्ये, आत्वं न भवतीत्यर्थः- इत्याह-अत्रापि मात्रादीनां परस्परसम्बन्धादिति, क्वेत्याह-चत्रस्य स्वसहितराविति कुत इत्याह--नात्र तमेव सम्बन्धं स्पष्टयति--ते हि स्वकर्मणि प्रजने यागे 60 स्वमृदुहितोः परस्परं सम्बन्ध इति । तदेवोपपादयति- चेत्यादि, अयमर्थ:--मातापित्रोः पुत्रस्योत्पादनं तद्भरणादिकं नहि स्वसा चैत्रस्य स्वसा भवन्ती दहितरमपेक्षते दहिता | च स्वभावनियतं कर्म, तत्र तयोः सहभावेन प्रवर्तनादेककर्मचस्वसारमिति, अयमाशयः-इदं सूत्र द्वन्द्वे प्रवर्तते द्वन्द्वश्च | कारित्वरूपः सम्बन्धः परस्परमस्त्येव; एवं होतापोत्रोः सहोक्तिमापन्नानामेव, सहोक्तिश्च यथाकथंचित परस्परसम्बन्धे कर्म यागः, तत्र च तौ सहैव प्रवर्तते इति तयोरपि परस्परमेकसत्येव, स च सम्बन्धोऽन्यत्र यादृशस्तादृशोऽस्तु प्रकृते विद्या- | कर्मकारित्वरूपः सम्बन्धोऽस्त्येवेति न तत्र पूर्वप्रतिपादित- 65 कृतो योनिकृतो वा ग्राह्य इत्येव विवक्षितम, इह च स्वसदहित- | नियमव्यभिचारः, तेषां च ततच्छब्दप्रतिपाद्यत्वमपि तत्कर्मरावुभे अपि चैत्रमेवापेक्षेते तस्यैव स्वसा, तस्यैव च दुहिता, |
निमित्तमेवेति स्वप्रवृत्तिनिमित्तस्यैक्यरूपः सम्बन्धोऽपि तेषाम30 नहि दुहितुरियं स्वसा नवा स्वसुरियं दुहितेति तयोः पर- ! रत्येवेति न पूर्वोक्तदोषशङ्का ।
स्परमसम्बन्धात् प्रकृतसूबाप्राप्त्या नात्वमिति । अत्राह- . मतान्तरमाह-केचित् त्विति, अयं हि तेषामाशयःप्रकृते स्वसृदुहित्रोः परस्परमसम्बन्धेऽपि यत्र समस्यमान- । पूर्वत्र विद्यायोनिसंबंधे इति पदेन सामान्यत एव विद्याकृते 70 पदयोरस्तिपरस्परसम्बन्धसम्भावना तत्रापि न दृश्यते आत्वं योनिकृते च सम्बन्धे प्रवृत्तिनिमित्ते सति इत्यर्थबोधक
तत् कथमिति-यद्यवं कर्थ चत्रस्य पितृभ्रातराविति, कु । स्वीकृतं तदेव च पदमिहाप्यनुवृत्तम् तत्र तादृशः सम्ब35 तोऽत्र विशेषतः शङ्कचते, तदाह-अस्ति पत्र परस्पर- धोऽपि तथैव ग्रहीतव्यो यथा पूर्वत्र गृहीतः, पूर्वत्र च
सम्बन्धः इति, अयमाशय:-अत्र यद्यपि पिता भ्राता च ननान्दुःपतिरित्यायुदाहरणेन समस्यमानपदार्थानामेव परस्परं चैत्रमपेक्षेते तथापि पित-भ्रात्रोरप्यस्त्येव परस्परं जन्यजनक- तादृशः सम्बन्धो न गृहीत इति निश्चितम, इति प्रकृत-75 भावः स्वाभाविकः, ततश्च परस्परसम्बन्धे सत्यपि कथं । सूत्रेऽपि तथा न ग्रहीतव्यः, एकस्य शब्दस्य सूत्रभेदेनार्थ
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलते
[पाद-२, सूत्र.-३९-४१]
10
भेदस्यानौचित्यात । न च शब्दाधिकाराश्रयणे तथा भवि-संबन्ध निमित्ते सति प्रवर्तमानानामकारान्तानामाकारोऽन्तातुमर्हति, शब्दाधिकारे हि स शब्द एवाधिक्रियते न तु तदर्थः , देशो भवति । मातापुत्री, पितापुत्री, होतापुत्रौ ॥ ४० ॥ तदर्थश्च प्रकृतोपयोगितया भिन्नोऽपि क्रियते, यथा प्रकृत ramanar.......................... .....
एव ऋतामिति शब्दः संबंधसामान्यषष्ठया पूर्वाख्यातः, 5 प्रकृतसूत्रे च स्थानषष्ठया, तथैव विद्या-योनि सम्बन्धोऽपि श० म० न्यासानुसन्धानम्-पुत्रे। पूर्वसूत्रस्य 40 प्रकृतोपयोगितया व्याख्यास्यत इति वाच्यम्, यत ऋता
. ऋकारान्तानामेव द्वन्द्वे प्रवृत्त्या पितापुत्री इत्यादिषु तदप्रमित्यस्य पूर्वैःसामान्यसंबंधार्थकत्वं षष्ठ्यपेक्षया कृतम्, अन्यथा ।
वृत्तिरिति तादृशलक्ष्यसंस्कारायेदं सूत्रमारब्धम् । "ऋता तयोरन्वयासंभवादिह च संबन्धार्थकत्वे आकारादेशेन न विद्यायोनिसम्बन्धेः" "आद्वन्द्वे" इति सत्रद्वयं सम्बध्यत एव तथा
! च योऽर्थः सम्पन्नस्तमाह--पत्रशब्दे उत्तरपदे इत्यादिना तदन्वयसंभवः । स्वमते च तस्येहापि संबन्धसामान्यार्थकतयैव द्वन्द्वविशेषणत्वेन व्याख्यानम्, तथा च यत्रासंभवात्
इह च समस्यमानानां पदानां विद्या-योनिसम्बन्धः परस्पर- 45 पूर्वत्र गृहीतोऽर्थः प्रकृते न संभवति तत्र प्रामाणिकलक्ष्यानु- '
; मित्यर्थो न स्वीकृत इति प्रतिभाति, होतापुत्रौ इत्युदाहरणात्, रोधाग्छब्दाधिकारमाश्रित्यार्थान्तरकरणेऽपि प्रकृते तादृश-.
अत्र हि होतुः पुत्रस्य च न परस्परं विद्यासम्बन्धो न वा प्रामाणिकलक्ष्याभावेन तदाश्रयणे मानाभावात्, तथा च ।
। योनिसम्बन्ध इति पूर्वत्रापि तादृशोऽर्थों न युक्त इति प्रतिस्वसादुहितरावित्येव रूपं युक्तम् अस्ति चेहाप्येकसंबन्धिनि- भाति, परमत्राचार्यवचनमेव प्रमाणमिति लक्षणकचक्षकैरिदरूप्यत्वरूपः परस्परं तयोः संबन्धः चैत्रनिरूपितमेव हि
मनिर्णयमेव । यद्यपि पितापुत्रादीनामिव होतापुत्रावित्यस्य स्वसृत्वं दुहितृत्वं चेति, यथा पुत्रनिरूपितमातत्वपितत्वयोः । प्रयोगस्य लोकविश्रुतत्वं न प्रतीयते तथाप्याचार्योदाहरणेन परस्परं स संबंधः स्वीक्रियते तथा प्रकतेऽपि स्वीकारे बाधा- लक्षणानुसारेण च तस्य सत्त्वे विसंवादस्यानाश कनीयत्व. भावादिति । अत्र 'केचित् तु' इति तुनाऽरुचिः सूचिता, तद्धेतु
हर मेवेति ।। ३. २. ४०॥ तुश्चायम्-यथा तब मते किमपि प्रामाणिकं लक्ष्यं मदुक्तनियम- ....................................... प्रातिकूल्ये नास्ति, तथा ममापि मते पूर्वोक्तार्थस्य नेह ग्रहणम्, अपि तु परस्परसम्बन्धार्थकस्यैवेति स्वीकारे प्रामाणिकं लक्ष्य
: वेदसहश्रुतावायुदेवतानाम् । ३. २. ४१॥ माऽस्तु, तथापि यथा ऋतामिति पदं पूर्वपदमात्रविशेषणमपि । त० प्र०---वेदे सहश्रुतानां वायुजितदेवताना द्वन्द्वे पूर्व- 55 प्रकृते लक्ष्यानुरोधात द्वन्द्वविशेषणतया स्वीकतं तथा विद्या- पदस्योत्तरपदे परे आकारान्तादेशो भवति । इन्द्रासोमो. योनिसम्बन्धे इत्यपि पदं परस्परसम्बन्धपरतया स्वीकार्यम् । इन्द्रावरुणो, इन्द्रापूषणी, इन्द्राबहस्पती, शनासीरी, अग्ना. यदि पितृपितामहाविति लक्ष्यं तत्र गमकं तदा स्वसहितरा- मरुतो, अग्नेन्द्रौ, अग्नाविष्ण, सोमारुद्रौ सूर्याचन्द्रमसौ, वितीहापि, प्रामाणिकत्वमप्रामाणिकत्वं वोभयोरनिर्णीतमेव
मित्रावरुणौ वेदेति किम् ? शिववैश्रवणी, स्कन्दविशाखौ; एकसम्बन्धिनिरूप्यत्वरूपः परस्परसम्बन्धोऽपि न युक्तः, एक- ब्रह्मप्रजापती सहेति किम् ? विष्णुशको । श्रुतेति किम् ? 60 सम्बन्धिनिरूप्यत्वेऽपि सम्बन्धगतरूपस्य भेदात्, पूत्रेण हि चन्द्रसूर्यो, दिवाकरनिशाकरौ । वायुवर्जनं किम् ? मातापित्रोर्जनकत्वसम्बन्धस्यैकरूपस्यैव निरूपणमिह तु अग्निवायू, वाय्वग्नी देवतानामिति किम् ? यूपचषालौ,
विभिन्नरूपस्येति । पाणिनीये मते "आनङ् ऋतो द्वन्द्वे" (पा० उलूखलमुशले ॥४१॥ 30 " सू० ६. ३. २५.) इति सूत्रे महाभाष्ये पितृपितामहावित्यादावात्वाभावाय ऋत इत्यस्य द्वन्द्वविशेषणत्वं तु स्वीकृतम्, किन्तु स्वसदुहितरावित्यस्य चर्चा न कताऽस्ति, न वा परतः श०म० न्यासानुसन्धानम्-वेद । “आद्वन्द्वे" इति कयटादिभिरप्ययमर्थः स्पृष्ट इति तन्मते स्वसादुहितरावित्येव सूत्रम् उत्तरपदे इति चानुन
सूत्रम् उत्तरपदे इति चानुवर्तते, “ऋतां विद्यायोनिसम्बन्धे" 65 रूपं स्यादिति प्रतीयते ।। ३. २. ३६.॥
इति निवृत्तम् । इदं चैकपदं सूत्रम्, तत्र पूर्व वेद-सहश्रुतशब्दयोः सप्तमीतत्पुरुषः, वायुर्ना समस्यते बहुव्रीही, न ।
विद्यते वायुर्यासु ता अवायवः, अवायवश्च ता देवताःपुत्रे । ३. २. ४०॥
अवायुदेवताः, वेदसहश्रुता अवायुदेवताः-वेदसश्रुतावायुदेवताः, . त० प्र०-पुत्रशब्दे उत्तरपदे द्वन्द्व समासे विद्या-योनि- : तासामिति । तथा चार्थमाह-वेदे सहश्रुतानामित्यादि । 70
25
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पाद-२, सूत्र-४१-४२]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
उदाहरति इन्द्रासोमावित्यादिना इन्द्रश्च सोमश्चेति तकमिति प्रष्टुराकूतम् । न देवतानामेव सहश्रवणं, यज्ञाङ्गाविग्रहः ! एवम् इन्द्रावरुणावित्यादी। शुनासीराविति- नामन्येषामपि सहश्रवणात् यथा यूपचघालावित्यादि, यूपो 10 शुनश्च सीरश्चेति विग्रहः, शुनो वायुः, सीरः सूर्यः, हरदत्तस्तु- यागसमाप्ति-चिह्नभूतः स्तम्भविशेष: खदिरादिनिर्मितः,
"शुनासीरशब्द इन्द्रगुणविशेषवाची, तथा च मन्त्र: “इन्द्रं वयं ! चषालो वलयाकारो लौहमयः काष्ठमयो वा यूपमध्ये देयः 5 शनासीरमस्मिन यज्ञ हवामहें" इति" इति केचिन्मन्यन्त : पदार्थः, एतावपि वेदे सहश्रुतौ किन्तु देवतात्वान्नात्र भव
इत्याह, तत्रासी शनासीरशब्दोऽन्य एव इह च द्विवचना- त्यात्वप्रवृत्तिरिति देवतानामित्यावश्यकम् । एवम्-उलूखलन्तोऽन्य एवेति युक्तः पन्थाः प्रतीयते । वेदेति किमिति- ' मुशले अपि यज्ञाङ्गत्वेन वेदे सहश्रुते, परंतु देवतात्वाभावान 45 देवतानां प्रायो वेद एव श्रवणाद् वेदग्रहणमव्यावर्तकमिति : भवति तत्रात्वमिति, देवतानामित्यस्याभावे तु स्यादेवेति
प्रष्टराशयः । व्यावर्त्य माह-शिव-वैश्रवणाविति-शिवः प्रसिद्धः तद्वारणाय देवतानामित्यावश्यकमिति ॥३-२-४१॥ 10 स्वनाम्नैव, वैश्रवणः कुबेरः, उभयोरेकत्र कैलासे वासस्य
पुराणादी प्रसिद्धत्वात् तत्र तयोः सख्यस्य सहचरणस्य वणि- : तत्वात् सहश्रुतत्वसत्त्वेऽपि न भवत्यात्वं वेदे सहश्रुतत्वाभा.. ई: षोम-वरुणेऽग्नेः। ३. २.४२॥ वात् वेदे सह श्रवणं चकहविर्भागित्वेनान्यथा वा क्वचित् .
पर : त०प्र०—बेदसहश्रुतावायुदेवताना द्वन्द्वे षोम-बरुण
. प्रसिद्ध साहचर्य वैदिके कार्य, तथैतयोनेति भावः । स्कन्द- योरुत्तरपदयोरग्निशब्दस्य इकारोऽन्तादेशो भवति, योमेति 50 15 विशाखौ इति-स्कन्दः कात्तिकेयः, विशाखोऽपि तदीयमूर्ति
निर्देशादीकारसंनियोगे षत्वं च निपात्यते। अग्नीषोमो, भेद एव विशाखानक्षत्रे प्राकटयं गतः, एतयोश्च क्वापि सह-'
अग्नीवरणौ । षोमवरुणेति किम् ? अग्नेन्द्रौ। देवताद्वन्द्व - श्रवणायोग एव किं पुनर्वेदे । ब्रह्म प्रजापती ब्रह्मण एव ।
इत्येव-'अग्निसोमो माणवको, ईकारसंनियोगे विधानाविह मानसिकाः पुत्राः प्रजापतित्वेन प्रसिद्धाः, ब्रह्मापि प्रजापति- ।
षत्वमपि न भवति ॥ ४२ ॥ नाम्ना प्रसिद्धः "स्रष्टा प्रजापतिबंधा:" इत्याद्यमरकोशात्, अनयोरपि न वेदे सहश्रवणम् । अस्तु तर्हि वेदश्रुता इत्येव सहग्रहणं किमर्थमिति शङ्कते-सहेति किमिति । विष्णुशका- श०म० न्यासानुसन्धानम्-ई: पोम०। पूर्वसूत्रमनु-55 विति-एतौ वेदे पृथक पृथग्धविर्भागित्वेन श्रुतौ न तु सह. वर्तते, "आ द्वन्द्वे" इत्यतः केवलं 'द्वन्द्वे' इति पदम, 'आ' इति इविर्भागित्वेनेति न भवत्यात्वम्, सहग्रहणाभावे च स्यादेवेति : हि विधेयः, तत्स्थाने चेह 'ई': पठित एव । तथा च सूत्रार्थ
तद्वयावृत्त्यर्थ सहाहणमावश्यकम् । श्रुतेति किमिति, , माह-वेदसहतेत्यादिना । अत्र सोमशब्द एव कृतषत्वतया 25 अयमाशयः-वेदसहख्याताः' इत्यादिशब्देन कथनीयं, न तु निर्दिष्टोन पोमशब्दोऽन्यः कश्चिदित्याह पोमेति निर्देशादिति
श्रुतशब्देनैवेति । प्रत्युदाहरति-चन्द्र-सूर्याविति-एतौ वेदे विशिष्य घत्वविधाने वाक्यभेदापत्तेः, पृथक्सूत्रविधाने च 60 सहख्यातावपि नैवंरूपेण श्रुतावपि तु सूर्याचन्द्रमसावित्यादि- स्पष्टमेव गौरवमिति कृतषत्वनिर्देश एवाश्रितः, तच्चेदं षत्वरूपेणैवेति न भवत्यात्वम्, श्रुतग्रहणाभावे च स्यादेव । एवं- मीकारादेशसन्नियोगशिष्टं तत्सत्त्व एव भवति, तदभावे न
दिवाकर-निशाकरावपि सूर्याचन्द्रमसावेव, किन्तु नैवंरूपेण । भवति * सन्नियोगशिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सहवा निवत्तिः 30 श्रुताविति नात्वं भवति, तद्वारणाय श्रुतग्रह्णमावश्यकमिति इति न्यायात् । अग्निषोमाविति-अग्निश्च सोमश्चेति वि
भावः। वायुवर्जनेन किं व्यावर्त्यमिति पृच्छति-वायुवर्जन ग्रहे इतरेतरयोगद्वन्द्वेऽनेन ईत्वे षत्वे च रूपनिष्पत्तिः । एवम्- 65 किमिति-वायुवर्जनं च सामान्येन द्वन्द्वस्यैव विशेषणम्, वायु- अग्नीवरुणावित्यत्रापि षत्ववजंम्, एते द्वन्द्वे वेदे प्रसिद्धे। वजिततादृशदेवतानां द्वन्द्वे इत्युक्त्या वायो: पूर्वपदत्वे उत्तर- । घोमवरुणे इति किमिति--सामान्येनेवाग्नेरीत्वं विधीयतापदत्वे वोभयथापि नात्वप्रवृत्तिः, पूर्वपदभावनोत्तरपदभावेन । मित्याशयः । व्यावर्त्यमाह-अग्नेन्द्राविति-अत्र पूर्वसूत्रेणावा वायुरहितदेवताद्वन्द्धे एव प्रवृत्तः, तत्र वायोरुत्तरपदत्वे त्वमेव भवति ‘पोमवरुणे' इत्यस्याभावे च प्रकृतसूत्रेणत्वमेव अग्निवायू इति, पूर्वपदत्वे च वाय्वग्नी इति, उभयत्राप्या- स्यात् परत्वाद् विशेषविहितत्वाच्चेति तद्वारणाय 'षोमवरुणे' 10 त्वाभावाय वायुवर्जनमावश्यकमिति भावः । देवतानामिति । इत्यावश्यकमिति भावः । पूर्वसूत्रानुवृत्तिमपि द्रढयतिकिमिति-प्रायस्तासामेव वेदे सहश्रुतत्वेन देवतापदमव्याव- । देवताद्वन्द्व इत्येवेति, अत्र 'वेदसहश्रुतावायु' इत्यव्यावत्तं
35
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३८
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससवलिते
[पाद-२, सूत्र. ४२-४४
कमेव, अग्नीषोमयोरग्नीवरुणयोश्च वेदसहश्रुतत्वस्य वायु- | ऽऽकारयोः प्रवृत्तौ नास्त्यस्य सूत्रस्यावकाश इति शङ्कितुं 35 भिन्नत्वस्य चाव्यभिचरितत्वात्, केवलं संभवांशमादायव शक्यते तथापि* उपसंजनिष्यमाणनिमित्तोऽप्यपवाद उपसंजावृत्तौ तदुल्लेखः कृतः, तथा च देवतानां द्वन्द्वे' इत्येतावदेवाति- तनिमित्तमप्युत्सर्ग बाधते * इति न्यायन* परित्यज्यापवाद
प्रसङ्गवारणायादरणीयमिति तावन्मात्रस्यैव फलमिदं निर्दि- विषयमुत्सर्गोऽभिनिविशते * इति न्यायेन वा न पूर्वमीकाराऽ5 श्यते-अग्निसोमो माणवकाविति-एकोऽग्निनामापरश्च । कारयोः प्रवृत्तिरिति विज्ञेयम् । अग्नीवरुणो देवता अस्या
सोमनामा माणवकः, तयोरिह द्वन्द्वः, तथा च नायं देवता- | इति । अत्रेदं लौकिक वाक्यमात्रम्, किन्तु समास-तद्धितयोः 40 द्वन्द्वोऽपि तु मनुष्यद्वन्द्व इति न भवतीत्वम्, 'देवताद्वन्द्वे' । सहैव विग्रहो वास्तविकः तथा च अग्निश्च मरुच्च देवते इत्यस्याभावे च स्यादेवेति तद्वारणाय तदावश्यकमिति भावः। अस्या इति विग्रह एव समासानन्तरं वाक्यावयवविभक्तेलृप्य
षत्वस्य सन्नियोगशिष्टत्वं यदुक्तं तत्फलमाह-ईकारसन्नि- कपद्ये सति देवतार्थे तद्धितप्रत्यये उभयपदवृद्धी सत्यामनेना10 योगे विधानादिह षत्वमपि 'न' भवतीति-सन्नियोगशिष्ट-ग्निशब्देकारस्येकार इत्यव साध्वी प्रक्रिया, अन्यथा अग्नीवस्येत्वस्य निवृत्तौ षत्वमपि न प्रवर्तत इति भावः ।।३.२.४२.।। | रुणाविति कृते ईकारप्रवृत्ती जातायां कथं तदपवादत्वोक्तिः 45
संगच्छेत, एवमाग्निसौममाग्निमारुतमित्यादावपि विज्ञेयम् ।
| पदकृत्यमाह-वृद्धिमतीति किमित्यादिना तथा च 'इः अविष्णों इवद्धिमत्यविष्णौ। ३. २. ४३॥
इत्येवसूत्रं स्यादिति विष्णुभिन्ने उत्तरपदे देवताद्वन्द्वेऽग्नेरित० प्र०--विष्णुवर्जिते वृद्धिमत्युत्तरपदे परे देवताद्वन्द्वे
र्भवतीत्यर्थात् 'अग्नीवरुणौ इत्यादावपीदमेव सूत्र प्रतिष्यत नेरिकारोऽन्तादेशो भवति, ईकाराऽऽकारयोरपवादः । अग्नी |
| इत्याह-अग्नीवरुणाविति । अग्नामरुतावितिमरुच्छब्दे परे 50 15 वरुणो देवता अस्या-आग्निवारुणीमनड्वाहीमालभेत, अग्नी- | ईत्वस्याप्रवत्त्या 'वेदसहश्रतावायदेवतानाम्" [ ३.२.४०.1 पोमो देवताऽस्य-आग्निसोमं कर्म, एवम-अग्निमारुतं कर्म ।।
इत्यात्वमेव स्यात्, इत्थं च पूर्व अग्नीवरुणी इति प्रत्युदाहवृद्धिमतीति किम् ? अग्नीवरुणो, अग्नामरतो, आग्नेन्द्रं कर्म ! रणमीत्त्वविषये परत्वात् प्रवृत्त्यापत्तिप्रदर्शकमिति विज्ञेयम् । "आतो नेन्द्र वरुण" [७. ४. २९] इति वृद्धिनिषेधः । अवि
पूर्वपदवृद्धो सत्यामपि न प्रवर्तत इति प्रदर्शयति-आग्नेन्द्रइणाविति किम् ? अग्नाविष्णू देवतास्य-आग्नावष्णवं चरुं
कर्मेति-अग्नेन्द्रौ देवताऽस्येति विग्रहे समासतद्धितयोः कृतयो- 55 20 निर्यपेत् ।। ४३॥
रुभयपदवृद्धिः "देवतानामात्वादों" [७.४.२८.] इति सूत्रेण प्राप्ता "आतो नेन्द्रवरुणस्य" [७.४.२९7 इति निषिध्यते.
तथा च न वृद्धिमदुत्तरपदम्, वृद्धिमतीत्यस्याभावे च सर्वत्र श० म० न्यासानुसन्धानम्-इवद्धिः। इरिति ।
परत्वादिदं प्रवतिष्यते, तद्वारणाय वृद्धिमतीति वक्तव्यमेवेति विधेयनिर्देशः, वृद्धिमत्यविष्णावित्यत्तरपदविशेषणे, 'देवता
भावः । अविष्णाविति किमिति अग्निना सह विष्णोर्न सह मी द्वन्द्वेऽग्नेः' इति पूर्वतः समनुवर्तत एवेति योऽर्थः सम्पन्नस्तमाह
श्रवणमित्यभिमानेन प्रश्नः । प्रत्युदाहरति अग्नाविष्णू विष्णुवजिते इत्यादि । ननु अग्निशब्दे इकारः स्वत एवास्ति
। देवताऽस्येति- आग्नावैष्णवमिति- अत्र वृद्धिमत्युत्तरपदे 25 तस्य पुनरिकारविधानं किमर्थमित्याशङ्कायामाह-ईकाराss
| सत्यपि न भवत्यात्वमविष्णाविति पर्युदासात्, तदभावे च कारयोरिति 'आग्निवारुणम्' इत्यादावीकारस्य आग्निमारु
स्यादेव, “आग्नावैष्णवं चरुं निर्वपेत्” इति समुदितः पाठो तम् इत्यादावाकारस्य च यथायथं प्राप्तस्यापवादोऽयमिकारा-!
वेदे सहश्रुतत्वख्यापनार्थः ॥३.२.४३.।। देश इति तयोनिवत्तिरेवैतद्विधानस्य फलमिति भावः। यद्यपि
65 प्रकृतसूत्रेणेकारो वृद्धिमत्युत्तरपदे विधीयते, वृद्धिमच्चोत्तरपदं 30 तद्धितोत्पत्तेः पश्चात्, तद्धितोत्पत्तिपूर्वमेव च अग्निश्च वरुगश्च मरुच्चेति विग्रहे एव समासेऽलौकिकप्रक्रियावाक्ये
दिवो द्यावा। ३. २.४४ ॥ . प्रत्ययोत्पत्तित: पूर्वमेव वा ईत्वमात्वं वा प्राप्नोति, प्रकृत- त० प्र०--देवताद्वन्द्व दिबशब्दस्योत्तरपदे परे 'धावा' सूत्रस्य च तद्धितप्रत्ययनिमित्तकवृद्धिनिमित्तकत्वेन बहिर्भूत- | इत्ययमादेशो भवति । योश्च भूमिश्च-ग्रावाभूमी, द्यावाल्म निमित्तकत्वाद् बहिरङ्गत्वमिति तदपेक्षयाऽन्तरङ्गयोरीकारा- द्यावानक्ते, नक्तशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्त्यनव्ययम् ॥ ४४
अधत
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[पाद-२, सूत्र-४४.४७-]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
३६
श०म०न्यासानुसन्धानन्-दिवो० । अन्तादेशप्रकरणं पाठः इत्याचक्षते । यद्यपि वृत्तिकाराः पदकाराश्च 'दिवः पृथि- 35 परिसमाप्य सर्वादेशप्रकरणमारभते । 'देवताद्वन्द्वे' 'उत्तरपदें' व्योः' इत्यादिविसर्गान्तपाठमपि पठन्ति, तथापि तत् 'छन्दसि इति च पूर्वतः समनवृत्तम्, तथा च निष्पन्नं सूत्रार्थमाह- दृष्टानविधिः' इति सिद्धान्तात समाधेयमित्याहुः। किञ्च
देवताद्वन्द्वे इत्यादिना । दिवो भूम्यादेश्च तत्तल्लोकवाचक- | छन्दसि द्यावाचिदस्मै पथिवी सन्तमेते' इति व्यस्तेऽपि प्रयोग 5 त्वेऽपि देवतात्वेन हविस्त्यागोद्देश्यत्वेन वेदे श्रवणान्न देवता-पथिवीशब्दे व्यवहिते द्यावाशब्दो दश्यते. सोऽपि तथैव साथ
द्वन्द्वत्वहानिः। द्यौरन्तरिक्षम, भमिः प्रसिद्वैव मत्यनिवास-नीयः एवं च पथक 'दिवः' इति विसर्गान्तपाठं ते नाद्रियन्ते। 40 भूता, तयोर्द्वन्द्वे दिवो द्यावादेशे- द्यावाभूमी इति । द्यावाश्मे | स्वमते च ज्ञानगौरवापेक्षया शब्दोच्चारणगौरवस्य लघीयइति क्षमापि पृथिवी, क्षमतेरकारस्य पृषोदरादित्वाल्लोपे | स्त्वमित्याशयेन 'दिवः' इति विसर्गान्त एवादेशः स्वीकृत इति
धमेति पदम् । क्वचिद् द्यावाक्षमे इति पाठो दृश्यते, तर बोध्यम् ॥ ३. २. ४५. ।। 10 क्षमापि पृथिव्येव द्यावानक्त इति-नक्तमिति मान्तमव्ययं
पठ्यते, ततः कथमत्र मकारलोप इत्याशङ्कायामाह-नक्तशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्त्यनव्ययमिति- नक्तनतम्, नक्त
उषासोषसः।३, २, ४६॥ चारी, इत्यादौ तस्य प्रयोगबाहुल्येन न तत्सत्वे विसंवादः त० प्र०-देवताद्वन्द्वे उत्तरपवे परे उषस्शन्दस्यउषासा' 45 ।। ३.२.४४,॥
इत्ययमादेशो भवति । उषश्च सूर्यश्च-उषासासूर्यम् , उषासानक्तम् , उषासानक्ते । केचित्तु सूर्यशब्दस्यापीच्छन्ति
सूर्यश्च सोमश्च-उषासासोमौ ॥ ४६ ॥ 15 दिवस् दिवः पृथिव्यां वा । ३, २, ४५॥
त० प्र०-दिवशब्दस्य पृथिव्यामुत्तरपदे परे देवताद्वन्द्वे दिवस्' इति दिव इत्येतावादेशी वा भवतः । दिवस्पृथिव्यो; । श०म० न्यासानुसन्धानम्-उषा० । 'उषस्' इति दिवःपथिव्या द्यावापथिव्यौ। दिव इति विसर्गान्तस्य निर्दे- | सान्तं क्लीबं प्रत्यूषवाचि, तदपि देवतात्वेन वेदे प्रसिद्धमिति 50 शात् ‘दिवस्' इति स्कारस्य रुत्वं न भवति ॥ ४५ ॥
न देवताद्वन्द्वहानिः । 'देवताद्वन्द्वे.''उत्तरपदे' इति च पदद्वयमनुवर्तत उषाश्च सूर्यश्चेति समाहारे उषासादेशे--- उपा
सासूर्यमिति, तत्त्वबोधिन्यां तु-उषाश्च सूर्यश्चेति कृत20 श०म० न्यासानुसन्धानम्-दिवस् । 'दिव' | दीर्घेणोषस्शब्देन विग्रहो दत्तः, स च स्त्रीलिङ्गपरो द्रष्टव्यः,
इत्यनुवर्तते, 'देवताद्वन्द्रे' 'उत्तरपदे' इति च तथा च निष्प- | | उपस्शब्दस्य सन्ध्यार्थस्य नपुंसकलिङ्गत्वेन लिङ्गानुशासने 55 नमर्थमाह-दिवशब्दस्येत्यादि । अत्र 'दिवस्' इत्येक एवा- पाठात् । उधासानक्तमिति समाहार; उपासानक्ते इतीतदेशो द्विधा-सकारातत्वेन विसर्गान्तत्वेन च पठ्यते, तरेतरयोग:. नक्तशब्दस्यानव्ययत्वप्रदर्शनार्थमप्य भयोरुदाहतत्फलं वक्ष्यति विकल्पविध नारच पक्षे द्यावादेशोऽपि | रणम् । मतान्तरमाह-केचित् तु सूर्यशब्दस्यापीच्छर पर्वसत्रेण, तथा च रूप्यम् तदाह-दिवस्पृथिव्यौ इत्यादिना | न्तीति । तन्मतानुसारिलक्ष्यमाह--उपासासोमाविति-- दिवस्-पृथिव्यावित्यत्र सकारस्य पदान्तस्य कथं न विसर्ग | सोमश्चन्द्रस्तेन सह सूर्यस्यैव प्रयोग उचितः, प्रसिद्धसाहच- 60 इति शङ्कायामाह-- दिव इति विसर्गान्तस्य निर्देशादित्या- | यादिति तदाशयः ॥ ३. २. ४६. ॥ दिना, अयमाशयः--यदीहापि विसर्गः स्यादेव तहि पृथक दिवः इति विसगन्ति आदेश: किमर्थ विहितः, तथा च विसर्गान्तादेश विधानसामथ्यति सकारस्य रुत्वं नेष्टमिति
मातरपित्तरं वा । ३, २, ४७ ॥ कल्पनीयमेव । परे च--'दिवस' इत्यकारान्तमादेशं विधाय त० प्र०--मातृपितृशब्दयोः पूर्वोत्तरपदयोर्द्वन्द्वे मातरअकारस्योच्चारणमात्रप्रयोजनत्वेनाप्रयोगित्वमास्थाय तस्ये- | पितरेति ऋकारस्य अर इति निपात्यते वा। माता च पिता त्संज्ञया लोपं विधाय च विसर्ग प्राप्तेऽकारलोपस्य स्थानिव-च मातरपितरौ, मातरपितराभ्याम् , मातरपितरयोः, पक्षे-65 भावेन तद्वारणं कुर्वन्ति । वेदे च सर्वत्र सकारसहित एव | मातापितरौ, मातापितृभ्याम् , मातापित्रोः, एकशेषे तु
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ४७-४८
पितरौ। शब्दरूपापेक्षो नपुंसककवचन निर्देश उत्तरपदस्य : विषये उत्तरपदे नायमादेश इति स्पष्टीकृतम् तथाहि-ननु अरभावाभिव्यक्त्यर्थः । उत्तरपदस्यारं नेरछन्त्यन्ये ॥४७॥ : भाष्ये पूर्वोत्तरपदयोरित्युक्त्या उभयोरप्पृकारस्यारारौ निपा
• त्यते इत्यर्थो भाति तेन भ्यामादावपि मातरपितराभ्यामित्ये
वेति चेत् ? न औरूपद्विवचन।विक्षणे मानाभावेनान्यत्र 40 श०म० न्यासानुसन्धानम्-मातर० । मातरपित निपातनाभावादिति । अस्यायमाशयः- "मातरपितराबुदीरमिति कृतपूर्वोत्तरपदाऽरादेशस्य मातृपितृशब्दख्य स्वरूप- चाम" [पा.सू. ६.३.३२.] इति हि सूत्रम्, तत्र प्रथमाद्वितीया 5 बोधकः वलीबनिर्देशः, तथा च निपातनपरमेवेदंसूत्रम्, । द्विवचनरूपौकारान्तनिर्देशः कृतः, तेन औकारविभक्तावेव
तथापि प्रक्रियापुरस्कारेण सूत्रार्थ व्याचष्ट-मातृपितृशब्द परत इदं निपातनं नान्यत्र, औकारविभवतो त् उत्तरपदांशे योरित्यादिना । विकल्पपक्षे च मातापितरौ, एकशेषपक्षे च । निपातनाभावेऽपि "अङौं च" १.४.४८.] इति सूत्रेणव 45 पितराविति त्रैरूप्यम् । मातरपितराभ्यामित्यादि विभिन्न-: अरादेशे रूपसिद्धिरस्त्येवेति तत्रारादेशनिपातने न किमपि
विभक्तिकरूपनिर्देशश्चा-ऽरादेशस्योभयपदविषयत्वप्रदर्शनार्थः । फलमिति । अनेच कैयटग्रन्थं व्याख्याय "अन्ये तु प्रयोगद्वये 10 केवलमौकारविभक्तौ च 'अझै च" [१.४.४९] इत्यरादशो । ऽपि पितरामातरा इति द्वितीयः प्रयोगः] पूर्वोत्तरपदयोनिपा
ऽपि सम्भाव्यत । अरादेशाभावपक्षे रूपाण्याह-पक्षे मातापि- ! तनम्, तेन मातरपितराभ्यामित्येव उत्तरत्रापि [पितरामातरा तरावित्यादिना अत्र मातरपितरमिति नपुंसकनिर्देशोऽयुक्तः, इत्यत्र ++ + + 'अरा' आदेशविधानमिति भाष्यार्थमाहुः। 50 इहेतरेतरयोगद्वन्द्वस्येष्टत्वात् तत्र च परपदवल्लिङ्गस्यैव ' स्यादयमों यदि तथा लक्ष्यं प्रमितमस्ति, इति बहुदशिनो
विधानात् पुल्लिङ्ग-निर्देश एव युक्त इति शङ्कां मनसि निधाय : निर्णयन्तु" इत्युक्तम् । तथा च भाष्यस्य के आशय इति 15. तत्समाधानायाह-शब्दरूपापेक्षो नपुंसकैकवचननिर्देश लक्ष्यानुसारमेव निर्णेयमिति तदाशयः । भाष्यकृता च मातर
उत्तरपदस्यारभावाभिव्यक्त्यर्थः इति-तथा चात्र न तच्छ ! पितरौ भोजयतः मातरपितरावानय इत्युदाहरणद्वयं प्रदर्शितब्दगतलिङ्गवचने विवक्षिते अपि तु शब्दस्वरूपमात्रविवक्षा, · मित्यौकारविभक्ती परत इदं निपातनमभिप्रेतं भाष्यकृतः, 55 शब्दस्वरूपविवक्षणे च सामान्ये नपुंसकमिति नियमान्नपंसकं तत्र चोत्तरपदे विनापि निपातनं रूपसिद्धिरिति कैयटोक्ति
प्रथमोपस्थितत्वाच्चैकवचनं युक्तमेव निर्देष्टुमिति नासौ बीजम् । अन्ये तु न चोदाहरणमादरणीयमिति भाष्यकृतव ' 20 'शङ्का युक्ता। नन सर्वत्र यथाप्रयुक्त एव शब्दो निदिश्यते । कथनात सति प्रमिते प्रयोगेऽन्यत्राप्यरादेशनिपातने न भाष्यं
ऽत्र किमिति शब्दस्वरूपपरो निर्देशः क्रियत इत्याशङ्काया- प्रतिकलमित्यभिप्रयन्ति । किमन्यमतविचारविस्तरेण. स्वमतं माह-उत्तरपदस्यारभावाभिव्यक्त्यथः इति, अयमाशय:- तू स्पष्टमेवेति ॥३.२.४७॥ "मातरपितरौ वा" इति स्वाभाविके निर्देशे सति किमिदम्
"अौं च" [ १.४.४१.] इत्यारादेशेन रूपमुत तदंशेऽपि 25 निपातनमेवेति निर्णयो न स्यात् तन्निर्णयाय अरादेशस्य वर्चस्कादिष्ववस्करादयः। ३, २, ४८॥
स्पष्टीकरणायेत्थं निर्देश इति । मतान्तरमाह-उत्तरपदस्यारं नेच्छन्त्यन्ये इति एतच्च कैयटादीनां मतम् तथाहि-"मातर त० प्र०--कुत्सितं वर्गों वर्चस्कम् तदादिष्वर्थेष्ववस्कपितरावुदीचाम्" [पा. सू. ६.३.२३.] "पितरामातरात्र ' रादयः शब्दाः कृतशषसाद्युत्तरपदाः साधवो भवन्ति । 'वर्च
छन्दसि"[६.३.३३.] इति सूत्रयोः सम्मिलिते महाभाष्ये- स्केवस्करम्' अवकीर्यतेऽवस्कर:-अन्नमलम, तत्संबन्धात्त30 "किं निपात्यते ? पूर्वपदोत्तरपदयोकारस्यारारौ. पूर्वोत्तर- देशोऽप्यवस्करः, अवकरोऽन्यः । 'अपस्करो रथा' अपक- 65
पदयोऋकारस्यारारौ निपात्यते” इत्युक्तम् । तत्र कैयद ' रोऽन्यः । कुत्सिता तुम्बुरु: 'कुस्तुम्बुरुरोषधिजातो' तत्फलाआह--पूर्वोत्तरपदयोरिति सप्तम्यन्तमेतत् तत्र मातरपितरा- 'न्यपि कुस्तुम्बुरूणि, अन्यत्र कुतुम्बुरुस्तिन्दुकवृक्षः । 'अवरवित्यत्र पूर्वपदस्याऽरशब्दोऽन्तादेशो निपात्यते, उत्तरपदस्य तु स्परा अपरस्परा वा क्रियासातत्ये' अवरस्पराः सार्या
ऋतो ङिसर्वनामस्थानयोः” पा.सु. ७.४.११०.] इति गुणो गच्छन्ति, सततं गच्छन्तीत्यर्थः, अन्यत्रावरपराः सार्था १९ रपरत्वं च इति । तथा चैतन्मतेन केवलं पूर्वपदस्यैवारशब्दोऽ गच्छन्ति, अवरे च परे च सकृदेव गच्छन्तीत्यर्थः । 70
न्तादेशतया निपात्यत इति लभ्यते। तत्र नागेशेन भ्यामादि-: आस्पदं प्रतिष्ठायान' प्रतिष्ठा स्थानमात्मयापनापदम् ,
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पाद-२, सूत्र-४८]
श्रीसिद्धहमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
अन्यत्र आ ईषत् पदम , आ पाद्वा -आपदम् ।' 'आ-, आलोचनप्रतिक्रमणादि. एवं प्रायश्चित्तिः. पक्षे विसर्जनीयश्चर्यमदभते' आश्चर्य नीला धौर, अन्यत्र आचर्यं कर्म । पूर्वः शकार इत्यन्ये, प्रायश्चित्तम, प्राय:श्चित्तिः, अन्ये तु शोभनम् । 'प्रतिष्कशः सहाय-पुरोयायिनि दूते वा, , प्रायणं प्रायः, तस्य चित्तं-प्रायश्चित्तं, प्रायश्चित्तिरित्यपि 40 'ग्राममध्ये प्रवेक्ष्यामि, भव में त्वं प्रतिष्कशः' । अन्यत्र मन्यन्ते 'शकुली कृतान्ने' शाकुलशब्दाद् गौरादित्वात् जी, २ कशां प्रतिगतः-प्रतिकशोऽश्वः । 'प्रस्कण्वहरिश्चन्द्रावषी- कृतान्नादन्यत्र शकुली मत्सीविशेषः, गोष्पदं गोसेविते प्रमाणे प्रगतं कण्वं पापमस्मादिति-प्रस्कण्वः, हरिश्चन्द्र इवाह्लादको
च' यत्र गावः पद्यन्ते स गोभिः सेवितो ग्रामसमीपादिर्देश यस्य-हरिश्चन्द्रः, ऋषेरन्यत्र प्रकण्वो देशः, हरिचन्द्रो माण- | उच्यते; प्रमाण गोष्पदपूर वृष्टो देवः, गोष्पदमात्रं क्षेत्रम. बकः । 'मस्करो वेणदण्डयोः'-मा क्रियते प्रतिषिद्धयतेऽनेनेति- अत्र गोः पदमन्यस्येयत्ता परिच्छत्तमवादीयमानं प्रमाणं 45
. भवति, अन्यत्र गोपदम् । 'अगोष्पदं सेवारहिते' न विद्यते मस्करः, मकरशब्दस्य वाऽव्युत्पन्नस्य मस्कर इति रूपम् , 10 अन्यत्र मकरो ग्राहः । मस्करी परिव्राजके' माकरणशीलो गीः पदं येषु तान्यगोष्पदान्धरण्यानि, "अगोष्पदेष्वरण्यष
विश्वासमपजग्मिवान" । ननु गोष्पदप्रतिषेधादगोष्पदमिति मस्करी, स ह्याह-मा कृषत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसीति, । मकरिनशब्दस्य वा मस्करोति रूपम , अन्यत्र मकरीति सिध्यति, सत्यम्-किं तु यत्र गवां प्रसङ्गो, न ताभिः सेवित
स्तव स्यात, यथा-पत्र शुक्लगुणप्रसङ्गः, स एवाशुक्ल 50 समुद्रः। 'कास्तीराजस्तुन्दे नगरें'-ईषत् तीरम् , अजस्येव
सुन्दमस्येति व्युत्पत्तिमात्रम् , कास्तीरमजस्तुन्दं च नगरम , ' इति भवति, नात्माऽऽकाशादिः, यत्र तु गवामत्यन्तासंभव15 अन्यत्र कातीरम् , अजतुन्दम् । 'कारस्करो वृक्ष'-कारं । स्तत्र
स्तत्र न स्यात्, तत्रापि यथा स्यादित्येवमयं निपातनम, न
विद्यते गोः पदं यति त्रिपदबहतीहिविवक्षायां रूपान्तर- . करोति किल कारस्करो वक्षः, कारकरोऽन्यः । 'वनी
निवृत्त्यर्थ च । बहुवचनमाकृतिगणार्थम, तेनाचोवच-परोवरापुष्पं विना फलवति वक्षे' सर्वो हरितकायो वनस्पतिरित्यन्ये.
55 वनपतिरन्यः । 'पारस्करो देशे-पारं करोति पारस्करो! दयोऽपि द्रष्टव्याः ॥४८॥
देशः, पारकरोऽन्यः । 'करस्करोगिरि-वृक्षयोः' करं करोतीति 20 करस्करो नाम गिरिः, करस्करो वृक्षः, करकरोऽन्यः ।
। श० म० न्यासानुसन्धानम्-वर्च० । अत्र प्रकरणे 'रथस्पा नद्याम्' रथं पाति पिबति वा रथस्पा नाम नदी,
नदी । बहुषु लक्ष्येषु निपातयितव्येषु लाघवानुरोधेनादिशब्देनार्थान् । रथपाया। 'किएकुरुः प्रहरणे-कस्य कुरु:-कष्कुरुः नाम लक्ष्याणि च संगहाति तत्र वर्चस्कशब्दार्थ ग्राहयति-- प्रहरणम ,किमो मकारस्य च षकारादेशः । किष्कः प्रमाणे'
कुत्सितं बचे इति-वर्चसशब्दात कुत्सार्थे संज्ञायां कप् विष्ठाकिमपीवत्परिमेया कुभ मिरस्य किटकु:-वितस्तिहस्तो बा, । यामयं रूढः । तदादिष्वर्थष्विति सोऽर्थ आदी प्रथमो 60 किं करोतीति वा-किष्कुः, करोते प्रत्ययः किमो मकारस्य
येपामर्थानां रयाणादीनां तेष्वर्थेष्वित्यर्थः 'तद्गणसंविज्ञानाद् च षकारः, कार्य करोतीति वा-किष्कुः, प्रत्ययः, कार्य
वर्चस्कार्थोऽपि गृह्यत एव । अवस्करादयः अवस्करा-पस्कर शब्दस्य च किभावः । 'किष्किन्ध इति गहा-पर्वतयोः' किम
प्रभतयो वक्ष्यमाणाः, कृतशषसाधुत्तरपदाः कृताः श-ष-सा प्यन्तर्दधाति किष्किन्धा नाम गुहा, किमो द्विवचन पूर्वस्य । आदौ येषां तानि कृतशपसादीनि तथाभूतान्युत्तरपदानि च मकारस्य षकारः, कि कि दधाति किष्किन्धः पर्वतः । ।
। येषु ते कृतषसाधुत्तरपदाः, एषु क्वचिदुत्तरपदस्यादौ शः, 65 30 आरकथं नगरे' आहृताः कथा अस्मिन्नित्यास्कथं नाम यथा प्रायश्चित्ते. क्वचित षः, यथा-किष्किन्धायाम, क्वचित् .
नगरम । 'तस्करश्चौरे-तत् करोति तस्करश्चौरः। 'बृह- सः, यथा- अवस्करे, निपात्यत इत्यर्थः, तथाभतानां च तेषां स्पतिर्देवतायाम्' बहतां पतिः, बृहन् पतिरीित वा- | साधत्वमनेन सत्रेणानशास्यते । क्रमशो गणसत्रनिर्देशपुर:सरबहस्पतिः, उभयत्र तकारस्य सकारः, अन्यत्र तत्करः । मदाहरति-वर्चस्केअवस्करम इति- अवपूर्वात करोतेरलि वहत्पतिः। 'प्रायश्चित्तप्रायश्चित्ती अतीचारशोधने' प्रक
गणेऽनेन सकार उत्तरपदस्यादौ विधीयते वर्चस्के वाच्ये 70 35णत्यागच्छत्यस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोकः, | इति गणसूत्रार्थः । व्युत्पत्तिमाह-अवकीर्यते दूरं विक्षिप्यते
चिन्त्यते--स्मर्यते इति चित्तम्, चित्तिश्च व्रतम्, प्रायश्चित्तं । इत्यवस्करः, स च क इत्याहृ-अन्नमलमिति-भुक्तस्याचिन्तितं किल्बिषविशुद्धये प्रायश्चित्तमतिचारशोधनम् । भस्य रसादिषु वह्निना शरीरसात्कृतेषु यद् बहिः क्षिप्यते
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४२
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-४८]
तदेवान्नमलम्, तत्र चार्थे मुख्यस्तस्य प्रयोगः, क्वचिद् गौणो- | मिलिता देशाद् देशान्तरं गच्छन्ति स्मेति प्रसिद्धिः, ऽपि तदाह-~-तत्सम्बन्धात् तद्देशोऽपीति--तस्यावस्क- । एकमेव च वणिज्ययाऽर्थोपार्जनं सर्वेषां प्रयोजनमासीदिति 40 रस्य सम्बन्धादाधारत्वात् तद्देशः-यत्र देशे तस्य सम्बन्धः । सार्थशब्दस्तत्समुदाये रूढ इव । प्रयोगार्थमाह--सततं
स देशोऽप्यवस्करशब्देनोच्यत इति भावः, तथा च तस्य तत्र । गच्छन्तीत्यथः इति, गमनक्रियायाः सातत्यं सकारदिशि८ लाक्षणिकः प्रयोगः, लक्षणा हि शक्यसम्बन्ध एव, 'लक्षणा | प्टेन प्रयोगेण प्रतीयते. तद्रहितेन च नेत्याह--अन्यत्राव
शक्यसम्बन्धस्तात्पर्यानुपपत्तितः” इति मम्मटोक्तलक्षणात् । पराः सार्था गच्छन्ति, एतत्प्रयोगार्थमप्याह--अवरे च किञ्च--
परे च सकृदेवेतिगमनक्रियायामविच्छेदो न गम्यते, 45 "तात्स्थ्यात तथैव ताद्धात् तत्सामीप्यात तथैव च।। केवलं गमनं प्रतीयते, तच्च स्वभावत एकवारमेवेति तत्साहचर्यात् तादर्थ्याज्ज्ञेया वै लक्षणा बुधः ॥" | स्वभावसिद्ध एवार्थः सकृदेवेत्यनेन कथ्यते, न त्वेवकारबोध्य
इति लक्षणाबीजेषु तत्सम्बन्धोऽपि कथितोऽभियुवतैः, | नियमस्य प्रकृते प्रतीतिः । 'आस्पदं प्रतिष्ठायाम्' इति गणतदित्यनेन शक्यार्थ एव गृहयते, एतद्दाहरणान्यन्यत्र विस्त- सूत्रम्, प्रतिष्ठायामास्पदमिति निपात्यत इत्यर्थः, तत्र प्रतिष्ठा तानीति प्रकृतानुपयोगादिह नोल्लिख्यन्ते । अवकरोऽन्यः | कः पदार्थ इत्याकाडक्षायामाह--प्रतिष्ठा- स्थानमात्मया- 50 इति-वर्चस्कादयोऽवकीर्यमाणो गृहानिःसारितोऽपद्रव्यस
! पनापदमिति--प्रतितिष्ठत्यस्यामिति व्युत्पत्त्या आत्मनः महोऽवकर इत्येवेत्यर्थः, तत्र नोत्तरपदे सकार इति भावः । | शरीरस्य [ व्यवहारे तस्याप्यात्मत्वेन प्रतीतेः ] यापनाया 'अपस्करो रथाङ्गे इति-रथोपकारिणि काष्ठे अपस्कर निर्वहणस्य पदमेव प्रतिष्ठेति कथ्यते, यदिह स्थानपदेनापि इति निपात्यत इत्यर्थः, रथाङ्गपदेनेह चऋभिन्न रथोपकारि
व्यवहियते 'लब्ध स्थानमेतेन' 'अत्र प्रतिष्ठितोऽयम' इत्यादि. द्रव्यं काष्ठं वा गृह्यत इति कोशटीकाकृतः, अपकीर्यते- | व्यवहारात्, तथा चात्मयापनस्य आत्मनिर्वाहेण सह काल- 55 स्वस्वस्थाने क्षिप्यत इप्यपस्करः, अपपूर्वात् करोते: पूर्ववत्
यापनस्य वा स्थाने आस्पदमिति निपात्यत इत्यर्थः पर्यवअलप्रत्ययादिः; अन्यो रथाङ्गादितरोऽपकर एवेत्याह
स्यति, आ--सर्वतोभावेन पद्यते-प्राप्यत इत्यास्थदम, अपकरोऽन्य इति । 'कुस्तुबुरुरौषधिजातौ इति गणसूत्रम्, | आङपूर्वात् पद्यतेरलि सकारादित्वमुत्तरपदस्य निपातितमनेन । 20
कुत्सिता तुम्बुरुरिति विग्रहप्रदर्शनम्, तत्र तुम्बुरुशब्दो | अन्यत्र प्रतिष्ठार्थादितरत्र, आ-ईषत् पदमिति--आङ धान्याक [ धनिया ] वाची पुंल्लिग एव, 'कुत्सिता' इति । ईषदर्थत्वं मर्यादार्थत्वं वा, न तु तत्र सागम इति भावः । । स्त्रीलिङ्गविशेषणात् तस्य स्त्रीत्व माम्नातम्, कुस्तुम्बुरुः । 'आश्चर्यमद्भुते' इति गणसूत्रम्, अद्भुते--विस्मयनीय विषये क्षुद्रधान्याकवृक्षे, तद्भवत्वात् तत्फलान्यपि कुस्तुम्बुरूणि; | आश्चर्यमिति निपात्यत इत्यर्थः, आङपूर्वाच्चरतेः कर्मणि अन्यत्र कुतुम्बुरुस्तिन्दुकवृक्षः इति--ओषधिजातेरन्यत्र यः कृत्यः, अनेन च शकारादित्वमुत्तरपदस्य क्रियते । आश्चर्य सकारागमाभावात् तत्र कुतुम्बुरुरित्येव रूपम्, तच्च तिन्दुक
नीला द्यौरिति--अनीलाया अपि दिवो नीलरूपवत्त्वं यत् वृक्षवाचीत्यर्थः, पाणिनीये चेह विग्रहो न प्रदर्शितः, तदाश- | प्रतीयते तदाश्चर्यमद्भुतमित्यर्थः । अन्यत्र आचर्य कर्म यश्चात्रावयवार्थाप्रतीतिरेवेति । 'अवरस्परा अपरस्परा शोभनमिति--शोभनं कर्म-आचरणीयं कर्तव्यमित्यर्थः वा क्रियासातत्ये' इति-क्रियाया : सातत्य-अविच्छेदे सति | "चरेराङस्त्वगुरौ" [५.१.३१.] इति य उभयत्र, अद्भुते
द्वावेतो निपात्यते इत्यर्थः, समन्तात् सम्यग् वा ततं व्याप्तं-शकारादित्वमुत्तरपदस्यात्र नेति विशेषः । 'प्रतिष्कशः 30 सततं सन्ततं वा, सन्ततमित्यत्र मकारस्य लोपो वैकल्पिकः, सहाये' इति गणसूत्रम्, सहायेऽर्थे प्रतिष्कश इति निपात्यत
समो वा हित तयोरिति स्मरणात्, सततस्य भावः-सातत्य- इत्यर्थः, सहायः क इति जिज्ञासायामाह---पुरोयायिनि 70 मविच्छेद इत्यर्थः, अवरे च परे चेति पूर्वत्र विग्रहः, अपरे च ति-पुरोयायी राजादीनामग्रतो गन्ता कश्चिदनचरो परे चेत्यपरत्र, अवरपरशब्दस्य अपरपरशब्दस्य वा सकार | भवति, तस्मिन् तेषामेव प्रेष्ये-दूते वेदं निपातनम्, कशउत्तरपदादौ विधीयते, सार्थाः-वणिकसमदायाः, अपरस्परा:-धातुर्गतिशासनयोः पठ्यते, तस्यैवाचप्रत्ययान्तस्य प्रतिपूर्व एक: सार्थोऽग्रे गच्छति, तदविच्छेदेनैवापरेऽपि गच्छन्ति, |स्य रूपमिदम्, अत्रोत्तरपदस्य षकारादित्वं निपात्यते, प्रामासमानोऽर्थः प्रयोजनं येषां ते सार्थाः, ते चेह वणिज एव, | णिकेन प्रयोगेण पुरोयायित्वं प्रवृत्तिनिमित्तमुदाहरति---15 तेष्वेव प्रसिद्धः, ते हि पूर्व वणिज्याप्रसङ्गेन बहवो | 'ग्राममध्ये प्रवेक्ष्यामि भव मे त्वं प्रतिष्कशः। इति--
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[ पाद-२, सूत्र ४८ ]
अहं ग्राममध्ये प्रवेक्ष्यामि-ग्रामं गमिष्यामि त्वं मे प्रतिष्कशोऽग्रयायी भवेति कश्चिन्नियुज्यते, अन्यत्र सहायादितरत्र प्रतिगतः कशामिति - कशा - अश्वताडनार्था रज्जुः तां प्रति - गतः प्राप्तः - प्रतिकशः, सचाश्वः, तस्यैव कशाप्राप्तिकर्तृ - 5 त्वात् तथा चात्र न षकारादित्वमुत्तरपदस्य । 'प्रस्कण्व हरिश्चन्द्रावृष' इति गणसूत्रम्, अत्र प्रत्येकमृषिशब्दस्य न सम्बन्धः, तथा सति ऋष्योरिति द्विवचनस्यैवौचित्यं स्यात्, किन्तु ऋषौ वाच्ये प्रस्कण्व - हरिश्चन्द्रशब्दौ कृतसकारशकारा | द्युत्तरपदी निपात्येते इति सूत्रार्थः । प्रस्कण्वशब्दं व्युत्पादयति10 प्रगतं करावं पावमस्मादिति - योगार्थस्यान्यत्र सत्त्वेऽपि रूढ्या ऋषिविशेष एवानेनाख्यायते । हरिश्चन्द्र इवेति - हरिर्विष्णुरिन्द्रो वा चन्द्र इव यस्येति विग्रहः, चन्द्रेण सहो पमया च चन्द्रगताह्लादकत्वं प्रत्याययितुमिष्टमित्याह-आह्लादको यस्येति - अयं च पौराणिको राजर्षिः यस्य 15 सत्यं परीक्षितुमिन्द्रेण बहुधा कष्टं दत्तम्, पश्चाच्च सर्वथा
श्रेयसीतीति--स परिव्राजकः, हि यतः, सर्वान् इत्थमुपदिशतियत् कर्माणि काम्यानि यागादीनि मा कुषत-न कुरुध्वम्, यतः शान्तिः अन्तरिन्द्रियनिग्रह एव, वो युष्माकं श्रेयसी सर्वकर्मभ्यः 40 प्रशस्यतरेति । मस्करशब्दादपि मस्करीति यद्यपि सिध्यति मत्वर्थीयेनेना, तथापि सर्वेषां परिव्राजकानां दण्डित्वाभावात् प्रकृतार्थबुबोधिषया वा पृथगेव निपातनमाश्रितम् । “मस्करमस्करिणी वेणुपरिव्राजयोः" [पा. सू. ६-१-१५४.] इति सूत्रे भाष्येऽपि मत्वर्थीयेनेना मस्करीति रूपसिद्धिमाशङ्खयेत्थ - 45 मेव समाहितम्, तथाहि तत्रत्यं भाष्यम् - "मस्करिग्रहणं शक्यमकर्तुम् । कथं मस्करी परिव्राजक इति ? इनैतन्मत्वर्थीयेन सिद्धम् मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी परिव्राजकः । किं तर्हि, मा कृत कर्माणि मा कृत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसीत्याहातो मस्करी परिव्राजक " इति । मा कृतेति प्रतीकमुपादाय कैयट : 50 "अयं मा कृत, अयं मा कृत इत्युपक्रम्य शान्तितः काम्यकर्मपरिहाणिर्युष्माकं श्रेयसीत्युपदेष्टा मस्करीत्युच्यत" इत्याह ।
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सत्ये स्थिरं ज्ञात्वा महता श्रेयसा आह्लादितोऽसाविति । अस्यायमाशयो नागेशेनोक्त:- "अयं त्यक्तवानयं त्यक्तवान् कर्माणीत्युपक्रम्य स्वयं कर्माणि परित्यज्य परान् प्रत्येवमुपदेष्टेत्यर्थः, कर्मशब्देन काम्यकर्माण्युच्यन्ते नित्यनैमित्ति 55 कानि तु मुमुक्षोरपि कर्तव्यान्येव, अत एव "काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः इति गीतायामुक्तम्" इति । एतेन सन्दर्भेण स्वयं मा कृत, अन्यानपि मा कृतेत्युपदेष्टा च मस्करीति लभ्यते । मस्करशब्दवदस्यापि साधनान्तरमाह - मकरिनशब्दस्य वेति, तथा च मत्वर्थीयेनेनैव रूपं साधनीयमिति लभ्यते । अन्यत्र-परिव्राजकादन्यस्मिन्नर्थे मकरीति
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श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
पौराणिकी प्रसिद्धिः । ऋषेरन्यत्र सकार-शकारादित्वमुत्तरपदस्य नेति प्रकण्वहरिचन्द्रावेव तत्र प्रथमः कश्चिद् देश - विशेषो द्वितीयश्च तन्नामा माणवकः कश्चिदित्याह ऋषेर 20 म्यत्र प्रकण्वो देश, हरिचन्द्रो माणवकः इति तथा
चार्थविशेष नियत एवायं विधिरिति । मस्करो वेणुदण्डयोः' इति गणसूत्रम्, वेणुदण्डयोरर्थयोर्मस्कर इति निपात्यत इति तदर्थः । मस्करशब्दं व्युत्पादयति-- मा क्रियते इत्यादि 'मा क्रियते' इत्यस्यैवार्थः - प्रतिषिध्यत इति, वेणुना दण्डेन
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25 वा कश्चित् किञ्चित् कुर्वन् प्रतिषिध्यत इत्यर्थः, माङप-रूपम्, तेन च समुद्रोऽभिधीयत इत्याह- अन्यत्र मकरीति
पदात् करोतेः "पुन्नाम्नि घः " ५-३-१३० ] इति घः, " नाम नाम्ना ०" [ ३०. १०. १८० ] इति समासे पृषोदरादित्वान्माङ हस्वेऽनेनोत्तरपदस्य सकारादित्वं निपात्यते । अन्यथापि मस्करशब्दस्य सिद्धिमाह - मकरशब्दस्य वाऽ30 व्युत्पन्नस्येति---यथा कथंचिद्रूपं साध्यमवयवार्थप्रतीत्यभावेन
समुद्रः । 'कास्तीराजस्तुन्दे नगरे' इति गणसूत्रम्, नगरे वाच्ये कास्ती रमजस्तुन्दमिति च निपात्यत इत्यर्थः । उभयोः स्वरूपप्रतिपत्त्यर्थं व्युत्पत्तिमाह ईषत् तीरम् अजस्येव 65 तुन्दमस्येति व्युत्पत्तिमात्रमिति -- कास्तीर शब्दस्य ईषत् तीरमस्येति व्युत्पत्तिः, अजस्तुन्दशब्दस्याजस्येव तुन्दमस्येति व्युत्पत्तावाग्रहः कार्यं इति भावः । अन्यत्र वेणुदण्डाभ्या- व्युत्पत्तिः, सा केवलं पूर्वपदोत्तरपदस्वरूपज्ञानार्था, न तु मितरस्मिन्नर्थे सागमाभावात् मकर इत्येव रूपं तच्च प्रयोगार्थ परिचायिका, 'अन्यद्धि शब्दानां प्रवृत्तिनिमित्तमग्राहे रूढमित्याह -- अन्यत्र मकरो ग्राह इति । न्यद्धि व्युत्पत्तिनिमित्तम्' इति प्रामाणिकोक्तेः । अयमाशय:- 70 'मस्करी परिव्राजके' इति गणसूत्रम्, परिव्राजके- नगरविशेषौ हि कास्तीराजस्तुन्दशब्दाभ्यामभिधेयो, न 35 संन्यासिन्यर्थे मस्करीति निपात्यत इत्यर्थः अस्यापि तावत् तयोः प्रथमस्येषत् तीरम्, तीरं हि नद्या भवति, न तु पूर्ववद् व्युत्पत्तिमाह-माकरणशीलो मस्करीति-माङ नगरस्य, न वा द्वितीयस्य छागस्येव तुन्दमुदरम्, नगरे तदभापूर्वकात् करोतेः शीले णिन् सागमश्चानेन । पूर्वमुक्तं माकर- । वादिति न तत्र यौगिकोऽर्थो घटते; अपि तु समुदायवेतौ नगरणशीलत्वं दर्शयति- सह्याह-मा कृषत कर्माणि, शान्तिर्वः | विशेषवाचकाविति स्वीकरणीयमिति । अत्र बहुबीहिसमासे 75
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बृहबृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र-४८]
अल्पार्थकस्य कुशब्दस्य "अल्पे" [ ३. २. १३६. ] इति इति गणसूत्रम्, प्रमीयतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या मानसाधने वाच्ये काऽऽदेश:, अनेन सागमः, अजस्तुन्दमित्यत्र उष्ट्रमुखादित्वात् किष्करिति निपात्यते.तच्च मानमायामविषयम,तथैव प्रसिद्धः। 40 समासः सागमश्च । नगरादन्यस्मिन्नर्थे कातीरमजतुन्दमित्येव, . पूर्वोत्तरपदपरिज्ञानाय व्यत्पत्तिमाह-किमपीपदिति-किशब्द
तत्र न सागम इत्याह-अन्यत्र कातीरमजतुन्दमिति । 'कार- इहेषदर्थ इति भावः, भमिपरिमाणतया कथनं केवलं व्यत्पा5 स्करो वृक्षे' इति गणसूत्रम्, वृक्षविशेषे कारस्कर इति निपा- ' दनमात्रम्, किष्कुशब्दवाच्यस्य वितस्तेर्हस्तस्य वा भूमिमात्रत्यते इत्यर्थः । तत्र व्युत्पत्तिमाह-कारं करोति किलेति, कार- परिच्छेदकत्वाभावात् । व्युत्पत्त्यन्तरमाह-किं करोतीति पूर्वकात् करोतेस्ताच्छील्ये टः, अच् वा कर्तृ सामान्ये, समासे- । वेति, सिद्धिप्रक्रियामाह-करोते४प्रत्ययः इति-डुप्रत्यये च 45 ऽनेन सागमे च कारस्करः किपाकवृक्षः, अन्यश्च कारकर । सति अन्त्यस्वरादेर्लोपे सति कूरिति, किमो मकारस्य च
इत्येव । 'वनस्पतिः पुष्पं विना फलवति वृक्षे इति गण- पकारः । तृतीयां व्यत्पत्तिमाह-कार्य करोतीति वेति । 10 सूत्रम्, यस्मिन् वृक्षे पुष्पोत्पत्ति विनैव केवलं फलमेव भवति, | उत्तरपदस्य पूर्ववत् सिद्धिः, पूर्वपदमात्रे भेद इत्याह-डुप्रत्ययः
तत्राभिधेये वनस्पतिरिति निपात्यत इत्यर्थः, वनस्य पतिरितिकार्यशब्दस्य किष्भावः इति एवं व्युत्पत्तित्रयप्रदर्शनेन विग्रहे समासे सागमः, अमरकोषेऽपि “वानस्पत्यः फलैः | व्युत्पत्तावनाश्वासो ध्वनितः । “किष्किन्धइति गुहा-पर्व- 50 पुष्पात् तैरपुष्पाद् वनस्पतिः।" इत्युक्तम्, विनैव पुष्पं फल- । तयोः" इति गणसूत्रम् गहायां पर्वते च वाच्ये किष्किन्ध इति वन्तश्च वृक्षा अश्वत्थोदुम्बरपनसादयः । मतान्तरमाह-सर्वो । निपात्यत इत्यर्थः, किष्किन्ध इत्यत्र पुंस्त्वमविवक्षितं गुहायां हरितकायो वनस्पतिरित्यन्ये इति-हरितकाय इत्यनेन : तदभावात् । व्युत्पत्तिमाह-किमप्यन्तर्दधातीति-अन्तरिति जन्मतो हरितवर्णपत्राद्यावेष्टितशरीरः, पश्चाद् वर्णभेदेऽपि स गहास्वभावाल्लभ्यं न तु शब्दप्रतिपाद्यम्, किमो दधातेः प्रत्ययएवायमिति प्रत्यभिज्ञायमानत्वाद्धरितकाय एवासौ, तथा च । स्य वा तादृशार्थे शक्यभावात्, अत्र किंपूर्वकाद् दधातेरप्र- 55 सर्वस्तृण-गुल्म-लता-वृक्षादिर्हरितकायपदेन ग्राह्यः । 'पार- त्ययः । प्रकृतसूत्रविधेयमाह-किमो द्विवचनमिति, तत्रोत्तरः स्करो देशो' इति गणसूत्रम्, देशविशेषे पारस्कर इति निपा- ! किंशब्दः स्वरूपेणैव तिष्ठति, पूर्वस्य मकारस्य षकारादेत्यत इत्यर्थः, अस्यापि व्युत्पत्तिं पूर्ववदेवाह-पारं करोतीति। शोऽपि निपात्यते । पर्वतेऽर्थेऽन्यां व्युत्पत्तिमाह-किं किं दधा'करस्करो गिरिवृक्षयोः इति गणसूत्रम्, गिरिविशेषे वृक्ष-तीति-कि किमित्यनेनाज्ञातानेकवस्तूनि बोध्यन्ते, एषु सर्वत्र .. विशेषे चाभिधेये करस्कर इति निपात्यते, पूर्ववद् व्युत्प- ' प्रकृतनिपात्यभिन्नरूपस्याप्रयुज्यमानत्वेन न प्रत्युदाहरणानि 60 त्यादिः । 'रथस्पा नद्याम् इति गणसूत्रम्, रथस्पाशब्दो दत्तानि ! 'प्रास्कथं नगरे इति गणमूत्रम, नगरविशेषेवाच्य निपात्यते नदीविशेपे वाच्ये, तद्वद्युत्पत्तिमाह-रथं पाति पिबति आस्कथमिति निपात्यते । ब्युत्पत्ति माह-पाहताः कथा वेति, यद्यपि पाती रक्षणार्थः पिबतिः पानार्थ इत्युभयोरेकत्र : यस्मिन्निति बहुव्रीहिसमासः, तथा चाहतकथमित्यत्र हृतश. प्रयोगे कथं सामञ्जस्यसम्भव इति शङ्कितुं शक्यते, तथापि ब्दस्य लोपः, उत्तरपदस्य सागमः, आहृतशब्दस्य आस् आएषु न योगार्थावगतिः, केवलं पूर्वोत्तरपदपरिज्ञानाय प्रक्रि- देशो वा। 'तस्करश्चौरे' इति गणसूत्रम् । चौरेऽभिधेये 65 यानिर्देश इति पूर्वमुक्ततया धात्वर्थभेदप्रयुक्तो न कश्चिद । तस्कर इति निपात्यते, तत करोतीति-तदिति पदेन प्रसिद्ध
भेद इति बोध्यम्, वस्तुतस्तु अखण्डा एवैतदादयः शब्दा। चोरकर्म चौर्यमुच्यते, तदो बुद्धिस्थप्रसिद्धाद्यर्थपरामर्शकत्वात, 12 अर्थविशेषनियताः साधुतयाऽनेन सूत्रेणानुशास्यन्ते । नद्या | तवपूकात् करोतेः शीले टः, तदो दस्य सादेशः, चौरादन्यत्र
इतरत्र नेदं निपातनमित्याह-रथपाऽन्या, अत्र रथं पाति । तत्कर इत्येवेति वक्ष्यति । 'बृहस्पतिर्देवतायाम्' इति गणरक्षतीति व्यत्पत्तौ रथरक्षिका काचित प्रतीयते, पानार्थस्य | सत्रम् देवताविशेषे वाच्ये बृहस्पतिरिति निपात्यते इति 70 पिबतेस्तु रथेन सह न सामर्थ्यम् । 'किकुरुः प्रहरणे' इति | तदर्थः । बृहतां बृहन् वेति-बृहता-वाचां [ यद्यपि बृहतीगणसूत्रम, प्रहरणं प्रहारसाधनम्, तस्मिन्नर्थे निपातन मिदम् । | शब्द: स्त्रीलिङ्ग एव वागर्थे दृश्यते. तथापि प्रकृतप्रयोगात स्वरूपपरिज्ञानाय व्युत्पत्तिमाह-कस्य कुरुरिति-कुरुशब्दो पुल्लिगताऽपि विज्ञेया, अथवा बृहतामिति महतामित्यर्थकम्, देशविशेषादी प्रसिद्ध इह चानर्थक एवाक्यवार्थाभावात', सन्दिग्धतयैव वा बृहन् पतिरिति व्युत्पत्त्यन्तरमुक्तम् ] यद्यपि षष्ठीसमासे उत्तरपदे किमो मस्य षः, अन्यस्यारत्यपदद्वय- | बृहतां पतिरित्यपि बहस्पत्त्यर्थबोधकतथा प्रसिद्धम, तथाहि-75 प्रतिपाद्यस्याभावात् प्रत्युदाहरणं न दत्तम् । किष्कुःप्रमाणे'....." "शिष्याय बृहतां पत्युः" इति शिशुपालवधे द्वितीये सर्गे
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[ पाद-२, सूत्र- ४८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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तदो दस्य तस्कर इत्यत्र, बृहतस्तस्य बृहस्पतिरित्यत्र लोपः क्रियते, सक। रश्चागमत्वेन विधीयते, पदच्छेदे विशेषः, रूपं तु 5 समानमेव । गुणसूत्रद्वयव्यावर्तमाह श्रन्यत्र तत्करो बृहत्पतिरिति । " प्रायश्चित्तप्रायश्चित्ती अतीचारशोधने" इति गणसूत्रम्, प्रायश्चित्तप्रायश्चित्तिशब्दी, अतीचारस्य - प्रति क्रम्य धर्मादिशासनमुल्लङघ्याचरणस्य, शोधने- प्रतिक्रिया रूपे कर्मणि निपात्येते इत्यर्थः । पदद्वयस्य पृथग्व्युत्पादन10 द्वारा समुदायं व्युत्पादयति-- प्रकर्षेणैतीत्यादि -- यस्मान्मुनिलोकादाचारधर्मः परम्परयाऽद्यपर्यन्तं प्रकर्षेण समादृतरूपेण एति -- आगच्छति स मुनिलोक: प्राय इति निगद्यते । प्र आङ्पूर्व का देतेरपादाने घञ् बाहुलकात् । चित्तमिति व्युत्पादयति-- चिन्त्यते स्मर्यते इति -- चिन्तेः क्तेनिपात15 नादिभावे --- चित्तमिति, क्तौ च चित्तिरिति ततस्तृतीया
!
माधकविः प्रायुक्त, तथापि तत्रापि वागर्थत्वे प्रमाणाभाव बहुशः सूचितत्वात् 'शष्कुली कृतान्ने' इति गणसूत्रम्, कृतं एव, अत्रापि षष्ठीसमासे सति तकारस्य सकारः । अन्यैस्तु ! प्रक्रियाविशेषेण सम्पादितमन्नं कृतान्नं, तस्मिन्नर्थे शष्कुली- 40 । शब्दो निपात्यत इत्यर्थः, तथा “कुमुल० " [ उणा० ४८७ ] । इति शष्कुलीशब्द उलप्रत्ययान्तो निपात्यते तत्राह -- शके: स्वरात् षोऽन्तश्च शष्कुली भक्षविशेष: कर्णावयवश्च कृताशादन्यत्र शके: "ऋषि०" [ उणा० ४८५० ] इत्युले गौरादित्वाद् इयां च शकुली मत्सीविशेषः, तदाह-- कृता- 45 न्नादन्यत्र शकुली मत्सीविशेषः इति 'गोष्पदं गोसेविते प्रमाणे च' इति गणसूत्रम्, गोभिः सेविते आहारविहाराद्यर्थमाश्रिते देशे, प्रमाणे- परिच्छेदे च गोष्पदमिति निपात्यत इति सूत्रार्थः । पूर्वोत्तरपदसामध्यं द्योतयितुं व्युत्पत्तिमाहयत्र गावः पद्यन्ते इत्यादिना यत्र गावो गच्छन्ति तन्मा- 50 त्रस्य न गोष्पदशब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वमपि तु ताभिराश्रितत्व'मपीत्याह-- स गोमिः सेवितो ग्रामसमीपादिदेश उच्यते इति बहिश्चरित्वा दिनावसाने गावो ग्रामसमीप आगत्योपविशन्ति, दिनं यावत् कृतस्याहारस्य पुनश्चर्वणरूपं रोमन्थं कुर्वन्तीति तासां जातिस्वभावः, सदेव स्थानं गोष्पदशब्देनो- 55 च्यत इति समुदितार्थः । सेवितोदाहरणं प्रदर्श्य प्रमाणार्थमुदाहरति-- 'गोष्पदपूरमिति -- गोष्पदं पूरयित्वा वृष्टो देव इत्यर्थे "वृष्टिमान ऊलुक् चास्य वा " [ ५.४.५७. ] इति णम् भवति, तत्र गोष्पदशब्दस्थ न गोसे वितरूपार्थपरत्वम्, अपितु प्रमाणार्थपरत्वमेव प्रमाणं च तत्राल्परूपम्, ताव- 60 दल्पं दृष्टो देवो यावत् गोष्पदम् - अल्पं गर्तस्थानं पूर्यते इति तात्पर्यात्, तथा च न गोसेवितार्थपरत्वमिह गोष्पदशब्दस्येति प्रमाणे पृथगेव निपातनमाश्रितम् । गोष्पदमात्रं क्षेत्रमितिगोष्पदं प्रमाणमस्येति विग्रहे " मात्रट्” [ ७. १. १४५. ] इति मात्र अत्रापि गोष्पदशब्दस्य न स्वार्थपरत्वमपि तु 65 क्षेत्रप्रमाणविशेषपरत्वमेव न केवलं गवां पदमात्रं क्षेत्रमपित्वत्परिमाणं क्षेत्रमिति प्रतीयते । तदेव स्पष्टयति--अत्रगोः पदमित्यादिना, अन्यस्य-पूर्वप्रयोगे वृष्टेः परत्र क्षेत्रस्य च, इयत्ता - परिच्छेद, परिच्छेत्तुं निर्णेतुम्, उपादीयमानंप्रयुज्यमानं सत् प्रमाणं भवति -प्रमाणतां प्रतिपद्यत 70 इत्यर्थः । अन्यत्र गोसेवितात् प्रमाणाच्चान्यस्मिन्नर्थे गोपदमित्येव गवां पदं स्थानमिति तदर्थः । ' अगोष्पदं सेवारहिते' इति गणसूत्रम् । गोसेवारहिते सर्वथा गोसेवायोग्यताशून्ये स्थाने अगोष्पदमिति निपा
तत्पुरुष इत्याह-- प्रायश्चित्तं चिन्तितमित्यादि, चिन्ताप्रयोजनमाह-- किल्बिषविशुद्धये इति - अतीचा प्रादुर्भूतपापापनुत्तये इत्यर्थः । अतिचारशोधनरूपं कर्मैव प्रायश्चित्तपदे - नाभिधीयते,तत् किमित्याह-- श्रलोचन प्रतिक्रमणादीति । 20 आदिपदेनागमबोधितानामन्येषां शोधनकर्मणां सङ्ग्रहः प्रायश्चित्तशब्दोऽपि समानार्थकः समानप्रक्रियश्चेत्यतिदि । शति --एवं- प्रायश्चित्तिरिति । मतान्तरमाह-- पक्षे विसर्जनीयपूर्वः शकार इत्यन्ये इति प्रायस् शब्दः सकारान्तोऽब्ययमेवेह, चित्तशब्दस्य च शकारागम इति तेषामा25 शयः, परमेतादृशप्रयोगो नोपलभ्यते । तदनुसारं रूपमाह -- प्रायःश्चित्तं प्रायः श्चित्तिरिति । स्वमतं प्रतिपाद्य मतान्तर माह - अन्ये तु प्रायणं प्राय इति - प्रकर्ष गतिमात्रं प्रायशब्दवाच्यम्, सा च प्रकृष्टा गतिरुभयविधापि तपोरूपा पापानुगामिनी च उभयथापि तस्य स्मृतिषु प्रकथनात् 30 तथाहि-- “ प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते ।" इत्येका स्मृतिः प्रायशब्दस्य तपोवाचकत्वख्यापिका, अपरा च "प्रायः पापं विजानीयाच्चित्तं तस्य विशोधनम् ।" इति एतया च प्रायशब्दस्य पापवाचकत्वमायाति तथा च प्रथमा स्मृतिः प्रायश्चित्तशब्दस्य अतीचारोन्मूलकतपोनिश्चयवाच35 कत्वे प्रमाण, द्वितीया- पापशोधन रूपकर्मवाचकत्वे प्रमागम्, चित्तिशब्दोऽपि चित्तशब्दसमानार्थक एवोभयमते, कापि व्युत्पत्तिरस्तु, अतीचारशोधनत्वं तु सर्वथा तदीयप्रवृत्ति - | त्यत इत्यर्थः, विग्रहमाह-न विद्यते गोः पदं येषु तानीति - 75 नमित्तमायात्येवेति न कापि क्षतिः व्युत्पत्तावनाग्रहस्य यत्र गवां पदचिह्नस्य स्थितेर्वा सम्भावनापि नास्ति तथा
:
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद २, सूत्र ४८-४९]
भूतानीत्यर्थः, तथा च पूर्वत्र तत्पुरुषसमास: इह बहुव्रीहिरिति गोः पदं यत्रेत्यर्थे बहुत्रीही सति अगोपदमित्यपि स्यादेवेति विशेषः सूचितः । प्रकृतप्रयोगे शिष्टप्रयुक्तत्वं प्रकटयति-- तन्निवृत्त्यर्थमपि प्रकृतगगसूत्रेणागोष्पदशब्दस्य निपातनमाव- 40 "अगोष्पदेष्वरण्येषु विश्वासमुपजग्मिवान् ।" इति- ! श्यकमेवेत्याह-न विद्यते गोः पदं यत्रेति त्रिपदबहुव्रीहि
अगोष्पदपदेनेह ग्रामादिसम्बन्धशून्यत्वं सूच्यते, तथा च विवक्षायामिति, रूपान्तरनिवृत्यर्थं चेति-रूपान्तरमगोष्प5 ग्रामादिसम्बन्धशून्येषु-सर्वथाजनसंचाररहितेषु व्याघ्रादिश्वा- : दादन्यद्रूपमगोपदमिति, तन्निवृत्त्यर्थ तथाविधबहुव्रीहि
पदसेवितेष्वरण्येष्वपि, विश्वास-निर्भयस्थितिमपजग्मिवान- समासनिष्पन्नरूपनिवृत्त्यर्थ, निपातनमिति पूर्वतः सम्बध्यते । प्राप्त इति कश्चिदत्यन्ताहिंसाप्रतिष्ठो मुनिर्वय॑ते, “अहिंसा. ननु प्रकृतसूत्रेऽर्थकोटौ निपात्यरूपकोटौ चाऽऽदिपदेनैव तद्गण-45 प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ सर्ववैरत्यागः" इति हि पातञ्जलं पठितानां सर्वेषां संग्रहे सिद्धे 'वर्चष्कादिष' 'अवस्कारादयः'
सूत्रम्, यः किल ध्यानधारणासमाधिभिरहिंसायां स्थिरो भवति । इत्येवमुभयत्र बहुवचनपरिग्रहो व्यर्थ इत्याशङ्कायामाह10 तत्सन्निधौ हिंसका अपि जीवा: परस्परं निवँरा निवसन्ति, ; बहुवचनमाकृतिगणार्थमिति--एवमाद्याकृतयोऽन्येऽप्यत्रैव
तस्यात्मव्यापत्तिविषये कुतः शङ्का स्यात, अत एव स तत्रापि- | गणे द्रष्टव्या इत्येवंरूपेणाकृत्यैव गणे पठितत्वपरिज्ञानार्थसततं हिंस्रजन्तुपूर्णेऽपि स्थाने समाश्वस्तस्तिष्ठति, न भीतो | मिति भावः । तत्फलमाह-तेनाचोवचपरोवरादयोऽपीति, 50 भवति । गोसेविते गोष्पदशब्दस्य पूर्वनिपातितत्वात् तेनैव ना! यद्यपि मुद्रितबृहद्वृत्तौ श्रावोवचेति पाठः प्रतीयते, तथापि समस्तेनागोष्पदशब्दस्यापि सिद्धौ सत्यामगोपदमित्यस्य | लघुन्यासधृतप्रतीकानुसारमाचोवचेति पाठः स्वीकृतः, आ
अञ्चतीत्याङ, अवाञ्चतीत्यवाड आऊचावाङचेति द्वन्द्वे पृथडनिपातनमनर्थकमिति शङ्कते-नन गोष्पदप्रतिषेधादि
"चवर्ग-द-ष-हः समाहारे" [ ६०. ३०, ९८०.] इत्यति त्यादि । गोष्पदस्य प्रतिषेधो नजा तदभावबोधनं तस्मादगोष्प- : आचवचमिति प्राप्ते अत्र निपातनादवाच आद्यकारस्योकारः, 55
: सिध्यतीति पृथक् तस्य निपातन व्यर्थ मिति एवं च परश्चावरश्चेति द्वन्द्वेऽवरस्यादेरकारस्योकारादेशः, शङ्कार्थः । स्वीकरोति-सत्यमिति-यथा शङ्कुसे तथा तस्य ।
परोवरशब्दः 'परोवरीणपरम्परीण-पुत्रपौत्रीणम्" [६. सिद्धिः सम्भावितैवेति तदाशयः । तथापि तदावश्यकतैवेति
१. ९९. 7 इति सूत्रे पठितः। आचोवचमित्यपठितोऽपि प्रतिपादयति-किन्त्विति, अयमाशय:-*नजिक्युक्तमन्यसदृ
आचार्यवचसा तत्प्रयोगोऽनुमेयः । पाणिनीये च आचोवचशाधिकरणे तथाहायंगतिः* इति न्यायेन नञ्युक्तं पदं मिति मयरव्यंस कादिषु पठ्यते, तत्रैव च तन्निपातनमभ्युपे- 60 तद्भिन्नं तत्सदृशं बोधयति, एवं च अगोष्पदशब्देन वस्तु ! यते. परोवरशब्दस्त सूत्रपाठादेव साधतथा स्वीक्रियते। गोष्पदभिन्नमपि गोष्पदसदृशं गोभिः सेवायोग्यं स्थानं बोधः स्वमते चानेन बहुवचनैवैतदादीनां सङग्रहो बोध्य इति यितं शक्यते, तद्योग्यतया च तत्प्रसक्तिः संभाव्यते, किञ्च ! तत्त्वम् ।। ३. २. ४८.॥ प्रसक्तस्यैव प्रतिषेधो भवतीति सर्वसिद्धान्तेन यत्र गवां प्रसङ्गः, यस्य स्थानस्य गोसेवितत्वसंभावना, तस्यैव तद्रहितत्वेऽगोष्पदशब्दप्रयोगः स्यादिति भावः, प्रसङ्गे सत्येव तद- परतः स्त्री पुंवत् स्त्र्येकार्थेऽनङ । ३. २.४६ ॥ भावो नना बोध्यत इतीममर्थ दृष्टान्तेन द्रढयति-यथा-यत्र
___त० प्र०-परतो-विशेष्यवशात् यः शब्दः स्त्रीलिङ्गः, स ° शुक्लगुणप्रसङ्गः इति, अयमाशय:-शुक्लो गुणो यत्र संभा
| स्त्रियां वर्तमाने एकार्थे-तुल्याधिकरणे उत्तरपदे परे पुंवद्. 30 व्यते तत्रैव तदभावः प्रतिपाद्यते, तत्सम्भावना च रूपवति ! द्रव्य एव, आत्माऽऽकाशो वा न रूपवद् द्रव्यमिति तत्र रूप
' भवति, अनूङ-न चेदूडन्तो भवति। दर्शनीया भार्या यस्य ससामान्याभावस्य सिद्धत्वेन रूपविशेषशुक्लाभावप्रतिपादनं न ।
. दर्शनीयभार्यः, एवं-पटुभार्यः, कल्याणभार्यः, शोभनभार्यः,
प्रसूतभार्यः, प्रजातभार्यः; एनी भार्या यस्य स-एतभार्यः, भवति । एतेन किमायातमित्याह-यत्र तु गवामत्यन्ता
एवं-श्यतभार्यः, युवतिर्जायाऽस्य-युवजानिः; कल्याणी संभवः इति, प्रयमाशयः-पूर्वोक्तयुत्क्या यत्र स्थाने गोष्पदत्व- चासौ पञ्चमी च-कल्याणपञ्चमी; पटवी च मृद्वी च35 संभावना तत्रवागोष्पदप्रयोगः स्यात्, तत्सम्भावनाशून्येष्वर- । पटवीमदचौ, ते भायें अस्य-'पटवीमदभार्यः, अत्र द्वन्द्वपदानां ण्येषु तस्य प्रयोगो न स्यात् एवं च तत्रापि अगोष्पदशब्दस्य
परस्परार्थसंक्रमात् द्वयर्थस्य मदशब्दस्य द्वयर्थेन भार्याशब्देन प्रयोगार्थमिदं गणसूत्रमावश्यकमिति भावः । किञ्चास्तु सामानाधिकरण्यमिति पुंवद्भावः, पूर्वस्य तु व्यवधानान्न 75 नाम गोष्पदप्रतिषेधेनाप्यगोष्पदपदसिद्धिः, किन्तु न विद्यते ' भवति ।
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[ पाद-२, सूत्र-४९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
परत इति किम् ? द्रुणीभार्यः वरटाभार्यः, वडवाभार्यः, प्रसूतभायः, प्रजातभार्यः इति--प्रसूता भार्या यस्य, अत्र पुंवद्भावे अर्थतः प्रत्यासन्नाः कर्म-हंसा-श्वशन्दाः ; प्रजाता भार्या यस्येति विग्रहः, अत्र प्रसूताप्रजाताशब्दौ प्राप्नुयः, द्रोणीभार्यः, कुटीभार्यः; फात्रीभार्यः, अत्र पंव- कर्तृक्तप्रत्ययान्तौ सति संभवे पुस्यपि प्रयुक्तौ स्यातामिति 40
दभावे शब्दतः प्रत्यासन्ना द्रोग-कुट-पात्रशब्दाः प्राप्नयः। संभावनया तयोरिह पंवदरूपमदाहृतम, अत्र प्रसूता-प्रजात 5 स्त्रीति किम ? ग्रामणि कुलं दृष्टिरस्य--'प्रामणिदृष्टिः, शब्दयोगर्भविमोचनं प्रवत्तिनिमित्तं, तच्च स्त्रीनियतमेव, न
खलपुष्टिः । स्त्र्ये कार्थे इति किम् ? कल्याण्या वस्त्रं-सि गर्भविमोचनसंभावनाऽस्ति, पुंसि कदाचित् प्रयुक्ताकल्याणीवस्त्रम् । स्त्रीग्रहणं किम् ? कल्याणी प्रधानमेषां-वपि गर्भाधानरूपमेव प्रवृत्तिनिमित्तमाश्रयत इति तत्र प्रवकल्याणीप्रधानाः, गृहिणीनेत्राः । एकार्थ इति किम् ? | निमित्तभेदकृतमेव स्त्रीत्वं न तु केवलं विशेष्यपारवश्यनिव- 45
कल्याण्या माता-कल्याणीमाता, दर्शनीयामाता । अनूडिति न्धनमेवेति कथमत्र स्त्रीलिङ्गयोः प्रसूत-प्रजात शब्दयोः पुंव10 किम् ? ब्रह्मबन्धभार्यः, करभोरूभार्यः । अनूद्धिति प्रसज्ज्य- . दूपमिति संदिहन्ति । "स्त्रियाः पुंवद्भाषित." [पा० सू०
प्रतिषेधात् इडविडोऽपत्यं स्त्री अञ्, तस्य लुप्, इडविङ् । ६. ३. ३४. ] इति सूत्रे भाष्येऽपि-"अस्तु तर्हि समासा चासौ भार्या च-ऐडविडभायंत्यादिषु उत्तरेण | नायामाकृतौ यदभाषितस्कमिति" स्वीकृत्य तिम्पुंवद्भावः । पर्युदासे हि ऊडसदृशप्रत्ययान्तस्य पुंवद्भावः । 'कथं गभिभार्यः प्रजातभार्यः प्रसूतभार्य इति ? तत्रोत्तर- 50 स्यादिति ॥ ४९॥
माह--"कर्तव्योऽत्र यत्नः" इति । सन्दिग्धमेव समाधान
मुक्तम् तत्र कैयट आह---गभिशब्दस्य गर्भसम्बन्धः प्रवृत्ति15 श०म० न्यासानुसन्धानम-परत
निमित्तं पुंसि स्त्रियां च समानम, अवान्तरभेदस्त्वविवक्षितः,
परतः इति । स्त्रिया विशेषणं तदाह--परतो विशेष्यवशादिति, अय
प्रसूल-प्रजातशब्दयोरपत्यापत्यवत्सम्बन्धः समानं प्रवृत्तिमाशयः--यो न स्वतः स्त्रीलिङ्गः शब्दः किन्तु विशेष्यपार
निमित्तमस्तीति दोषाभाव: इति, अयमाशयः---गर्भो द्विवि-55 वश्यादेव स्त्रीत्वमापन्नः सः 'उत्तरपदे' इत्यनवत्तं तस्यैद
धोऽवयवभूतोऽनवयवभूतश्च, तत्रावयवभूतो गर्भो ब्रीह्यादौ; विशेषणं-स्येकार्थे इति--स्त्रियामेकार्थ-समानार्थ स्त्री
तथा च गर्मी व्रीहिरिति प्रयोग:, अनवयवभूतो गर्भ: 20 लिङ्गे विद्यमानं समानाधिकरणं तस्मिन्नित्यर्थः, तदाह--
स्त्रियामेव, तथा प्रसूत-प्रजातशब्दयोस्तु न प्रवृत्तिनिमित्तदैतुल्याधिकरणे इति---शब्दस्याधिकरणमर्थः, अर्थे शब्दस्य
विध्य स्त्रियामेव तथाप्रयोगात, तथा चगर्भिणी-प्रसूताशब्दानां वृत्तेः, स तस्याधिकरणं, तदेव तुल्यं यस्य तत् तुल्याधिकरणं,
न विशेष्यपारतन्त्र्यनिबन्धनं स्त्रीत्वमिति तेषां पुवद्भावार्थ 60 तयाभूते उत्तरपदे परे पुंवद् भवति पुंसि यथा रूपं तादशेन
यत्नः कर्तव्य इति भाष्योक्तेरयमों यत्--गर्भिणीशब्दस्य रूपेण युक्तं भवति । किमविशेषेण सर्वः शब्दः प्रवद् भवति ।
गर्भसम्बन्धमात्र प्रवृत्तिनिमित्तं, प्रसूतप्रजातशब्दयोश्चापत्य25 नेत्याह--अनूडिति । तदेव पदं व्याचष्टे---नचेदङन्तो | सम्बन्धमा प्रवृत्तिनिमित्तं, तच्च पुंसि स्त्रियां च समानभवतीति--"उतोप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्य ऊ" [२. |
मिति विशेष्यपारवश्यादेव पुंस्त्वं स्त्रीत्वं वा प्रतीयत इति ४.७३.] इति प्रकरणे विहितमङन्तं वर्जयित्वेत्यर्थः । । स्वीकरणीयमित्येव' समाधानमायितव्यमिति । नागेशेन 65 उदाहरति--दर्शनीया भार्या यस्येति---अत्र दर्शनीय शब्दो चात्र विशेष उक्तः, तथाहि-एवं हि [ प्रसूतादिशब्दानां पुसि
विशेष्यनिध्नो नित्यस्त्रीलिङ्गभार्याशब्दरूपविशेष्यपारत- स्त्रियां च समानप्रवृत्तिनिमित्तत्वे ] ''योगादाख्यायाम्" 30 च्यादेव स्त्रीत्वमापन्न इति तस्य समानाधिकरणमुत्तरपदं [पा० सू० ४. १. ४८. ] इति सूत्रस्थभाष्यविरोधः,
भार्याशब्दस्तस्मिन परे पंवद्र पमभूत, समासश्च "एकार्थ । तत्रहि प्रसूतादेः पुमाख्यत्वं नेत्युक्तम, तस्माद गभिणो दारा चाने कं च" | ३. १.-२२.] इति सूत्रेणैव, “गोश्चान्ते." प्रसूता दाराः' इत्यादौ समानायामाकृतौ भाषितपुंस्कत्वमिति 70 [२. ४. ६.६. ] इति भार्याशब्दस्य ह्रस्वः । अन्यत्रापि ! वक्तु युक्तम्" इति, अयमाशय:-"पुंयोगादाख्यायाम्"
प्रकृतविग्रहादिकमतिदिशति--एवं पटुभार्यः इति-पवी [ पा० सू० ४. १. ४८. ] इति सूत्रस्थभाष्यरीत्या प्रसूता35 कल्याणी, शोभनेत्यादयः शब्दा विशेष्यवशादेव स्त्रीत्वमा- प्रजाताशब्दयोर्गर्भविमोचनवत्स्त्रीत्वं प्रवृत्तिनिमित्तं, तस्य
पन्ना न स्वतस्त्रिलिजगत्वाद विशेष्यनिघ्नत्वाद वा, तथा च पुसि स्त्रियां च तुल्यत्वं 'गभिणी दारा:, प्रसूता दारा:, चेदशाः शब्दा इहोदाहरणतामहन्त्येव ।
। प्रजाता दारा:' इत्यादी लिङ्गेनापि सामानाधिकरण्यदर्शना- 75
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
दुभयत्र प्रवृत्तिनिमित्तैक्यं प्रतिपादनीयमिति । एवं च "कर्त्तव्योse यत्नः" इति भाष्यस्य 'यथा समानायामाकृतौ [ प्रवृत्तिनिमित्तैक्य ] भाषितपुंस्कत्वं भवति तथा यत्नः कार्य इत्यर्थं इति । तदग्रे च परे तु -- शब्दार्थसम्बन्धस्य 5 नित्यताहात्या शब्दप्रवृत्तिनिमित्तं न यत्नसाध्यम्, गर्भिणीप्रसूतादी पूर्वपयुक्त प्रवृत्तिनिमित्तभेद एव युक्तः, तत्र
25
01
।
पुंस्त्वार्थं वचनमेव कार्यमिति भाष्यार्थः । एवं चानवयवभूत-शब्द इत्युक्तम् | अर्थग्रहणपक्षः [ स्त्र्यर्थः पुंवद् भवतीति 45 पक्षः ] तु न युक्तः, अर्थेन सहोत्तरपदस्य पूर्वापरीभावासंभवादिति । अस्य च विचारः "स्त्रियाः पुंवत्" [ पा० सू० ६. ३. ३४ ] इति सूत्रे भाप्य कैयटादौ बहुविस्तरेण कृत इतीह दिङ्मात्रं प्रदर्शितः । स्वमते तु सर्वमालोच्यैव शब्दग्रहणपक्ष एवाश्रितः, स एव च तत्रापि स्थिरीकृतः ।
50
गर्भसम्बन्धे गर्भिणीशब्दो नित्यस्त्रीलिङ्ग इति 'गर्भिण्यो दाराः इत्येव, प्रसतादिशब्दा अपि गर्भविमोचने प्रवृत्तिनिमित्ते 10 नित्यस्त्रीलिङ्गा एवेत्याहुः" इति रीत्या स्वमतं प्रतिपादितं तेनैव तथा च प्रसूतादिशब्दानामनेन पुंवद्भावो नोचित इत्यायाति, किन्तु भवतीह पुंवद्भाव इति तु सर्वसम्मतम्, भाष्य कृताऽपि पुंवद्भावस्य प्रयुक्तत्वात् एवं सति पुंवद्भाववि- युवजानिरिति युवतिया यस्येति विग्रहे बहुव्रीहिसधायकवचनान्तरकल्पनापेक्षया कैयटोक्तरीत्या प्रसूतादि- मासेऽनेन युवतिशब्दस्य पुंवद्भावे नलोपे कृते "जायाया 15 शब्दानां पुंस्त्रियोः समानमेव प्रवृत्तिनिमित्तमित्याश्रयणीयम् जानिः” [ ७-३-१६४ ] इति जाया शब्दस्य जान्यादेशे रूप"पुंयोगादाख्यायाम्" [ पा० सू० ४ १.४८. ] इति । सिद्धिः । कल्याणी चासौ पञ्चमी चेति-अत्र कर्मधारयसूत्रस्थं प्रसूतादेः पुमाख्यत्वप्रतिषेधपरं भाष्यं तु प्रवृत्ति- । समासः अत्र च यद्यपि "पुंवत् कर्मधारये " [ ३-२-५७ ] 55 निमित्तभेदपरमिति विज्ञेयम् । तथैव च स्वमतमपि । यथाइत्यनेनापि पुंवद्भावः सिद्धस्तथापि प्रकृतसूत्रस्यापि प्राप्तिकथंचिदिष्टप्रयोगसिद्धिरेव हि लक्षणकाराणां मुख्यं प्रयो- | सत्वादिहाप्युदाहृतम् " पुंवत् कर्मधारये " [ ३-२-५७ ] इति 20 जनम्, पक्षद्वये शास्त्रसम्मते एकेन पक्षेणेष्टप्रयोगनिव हि । सूत्रस्य प्रतिपिद्धपुंवद्भावविषयकत्वस्य वक्ष्यमाणत्वेनात्र सति द्वितीयेनानिष्टापादनस्य शास्त्रकारैरनादृतत्वादित्यलं प्रतिषेधविषयत्वाभावात् द्विपदसमासमुदाहृत्य त्रिपदसमासे प्रसङ्गागत विचारपल्लवनेनेति विरमामः । पुंवद्भावव्यवस्थां दर्शयितुं तदुदाहरणमवतारयति - पवी 60 च मृद्वी चेति पूर्वमेतयोर्द्वन्द्वे कृते सति पदवीमृद्वधौ, ते भार्ये यस्येत्यर्थे बहुव्रीहिः, तत्र मृद्वीशब्दस्यैवोत्तरपदाव्यव हितत्वात् पुंवद्भावः तथा च पट्वीमृदुभार्य इति । अत्र शङ्कयते समानाधिकरणे उत्तरपदे परे भावो विधी
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[ पाद-२, सूत्र- ४९ ]
योगशिष्टत्वादीकारनिवृत्तौ नकारोऽपि निवर्त्तेतेति वाच्यम् उत्तरपदे परे पुंवद्विधानेन तस्य परनिमित्तत्वसिद्धया तन्नि- 40 वृत्तेकारस्य स्थानिवद्भावेन नकारस्थित्थापत्तेः । अतश्च स्त्रीशब्दः स्त्रीवाचकशब्दपर इत्येव स्वीकार्यम्, तथा च स्त्रीवाचकशब्दस्य पुंवद् रूपं भवतीत्यर्थात् पुंसि नकारस्याभावादिहापि नकारो न तिष्ठति, अत एव वृत्तौ स्त्रीलिङ्गः
एनी भार्या यस्य स भार्यः इति - एतशब्दस्य स्त्रियामेनीति रूपं तस्य पुंवद्भावे कृते स्त्रीप्रत्ययेन सह तत्सन्नियोगशिष्टो नकारोऽपि निवर्त्तते, पुंवदित्यनेन पुंसि यादृशं रूपं तादृशमेव रूपमतिदिश्यत इति पुंसि नकारस्याश्रवणादिहापि नकारो न श्रूयते । अत्रेयं विचारणा-स्त्री | यमानस्तुल्यन्यायात् सामानाधिकरणस्यैव पूर्वपदस्य स्यात्, पुंवद् भवतीत्युच्यते, तत्र स्त्रीशब्देन कि स्त्रीप्रत्ययग्रहणम् । सामानाधिकरण्यं च पट्वी-मृद्धीति समुदायस्यैव भार्याशब्देन
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अथवा स्त्रीशब्दस्य उत स्त्रीरूपस्यार्थस्य ?, स्त्रीप्रत्ययग्रहणे 30 च स्त्रयधिकारविहितानामावादीनां ग्रहणं भवति यदा स्त्रयर्थवाची शब्दः स्त्रीशब्देनोच्यते तदा शब्दग्रहणं भवति, यदा स्त्रीत्वयुक्तं वस्तु स्त्रीशब्देनोच्यते तदाऽर्थग्रहणं भवति । अत्र प्रथमे पक्षे - स्त्रीप्रत्ययः पुंवदित्यर्थे यथा पुंसि स्त्रीप्रत्ययो न भवति तथा समानाधिकरणे उत्तरपदे परतोऽपि स्त्रीप्रत्ययो न भवतीत्यर्थः एवं सति एनी भार्या यस्ये त्यर्थे एतभार्य इति रूपं न स्यात्, किन्तु एनभार्य इत्येव रूपं स्यात्, स्त्रीप्रत्ययमात्रनिवृत्तिः पुंवदित्यनेन क्रियते, न तु स्त्र्यर्थस्य, तत्रकारमात्रनिवृत्तौ नकारः श्रूयेत । न च सन्नि
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द्विवचनान्तेन, न तु केवलं मृद्वीशब्दस्थेति कथं तस्य भाव इति, तत्राह - द्वन्द्वपदानां परस्परार्थसङ्क्रमादिति, अयमाशयः - द्वन्द्वे सहोक्तिसत्त्वे एव समासः, सहोवितश्च अनेकार्थस्य संभूयवचनम्, तत्रानेकानि पदानि परस्प- 70 रार्थसङक्रमात् प्रत्येकमनेकार्थाभिवायीनि भवन्तीति पूर्वमुप| पादितं "चार्थे द्वन्द्वः सहोक्ती" [ ३. १. ११७ ] इति सूत्रे । तथा च मद्रीशब्दोऽपि पट्वी मृद्वीति समुदायार्थबोधक इति तस्य द्विवचनान्तेन भार्याशब्देन सह सामानाधिकरण्यमक्षतमिति । नन्वेवं पट्वीशब्दोऽपि द्वयर्थाभिवायीति तस्यापि 75 भार्याशब्देन सह सामानाधिकरण्यमस्त्येवेति तस्य कुतो न
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[ पाद-२, सूत्र- ४९ ]
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पुंवद्भाव इति चेत् ? अत्राह - पूर्वस्य तु व्यवधानान्नभवतीति, अयमर्थः - अवश्यं पट्वीशब्दोऽपि भार्यया सह समानाधिकरणः, किन्तु “उत्तरपदे" इत्यत्र सप्तम्याऽव्यवहितपूर्वस्य कार्यं बोध्यते "सप्तम्या पूर्वस्व " [ ७.४.१०५ ] 5 इति परिभाषया, पट्वीशब्दश्च मृद्वोशब्देन व्यवहित इति तस्य न भवति पुंवद्भावः । अथ पदकृत्यं प्रदर्शयितुमारभते परत इति किमिति - केवल "स्त्री पुंवत् स्त्र्येकार्थेऽनूङ" इत्येवो च्यताम्, या स्वतः स्त्री तद्वाचकस्य शब्दस्य पुंसि रूपाभावादेव पुंवद्भावो न स्यादिति परत इति व्यर्थमिति । परत 10 इत्यस्यानुतौ स्त्री पुवदिति कथिते प्रकृतशब्दस्य पुंसि रूपा - भावेऽपि अन्यएव कश्चित् पु' लिङ्गः शब्दस्तत्र प्रयुज्येत तत्र “आसन्नः” [ ७. ४. १२० ] इति परिभाषया स्वरूपतः प्रत्यासनस्य शब्दस्यालाभेऽर्थतः प्रत्यासान्नास्तदर्थंका अन्ये शब्दा एव पुंलिङ्गास्तस्य स्थाने प्रयुज्येरन्, तथा च 'द्रुणीभार्यः, 15 वरटाभार्यः, वडवाभार्यः' इत्यादौ दुध्यादीनां पु'सि रूपाभा
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वात् तदर्थकाः कूर्म - हंसा - श्वशब्दाः प्रयुञ्जीरन् । अत्र के चिदेवमाहु:--'दुणीभार्यः' इत्यस्य स्थाने 'डुलीभायें' इति प्रत्युदाहरणमन्यतन्त्रे दृश्यते, तदेव चोचितमिति प्रतिभाति डुलीशब्दोऽपि कूर्मस्त्रीवाचकः, स च केवलं स्त्रियामेव प्रयु20 ज्यते, दुणशब्दस्तु पुंसि स्त्रियां चेति, तस्य प्रकृतोपयोगित्वा
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श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
भावात् । द्रुणशब्दस्य पु ंस्त्वं न वैयाकरणसम्मतमिति समाधानं तु न साधु, लिङ्गस्य लोकाधितत्वात् दृश्यते च लिङ्गविषये लोकव्यवहारस्यैवादरः शास्त्रकृद्भिः कृतः इति । तथाहि पातञ्जलं भाष्यम् - लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वारिंल 25 गस्येति । उक्तं चैतदाचार्येणापि -
C
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"नन्ता संख्या उतिर्युष्मदस्मच्च स्युरलिङ्गकाः । पदं वाक्यमव्ययं चेत्यसंख्यं च तद्बहुलम् ||" इति लिङ्गानुशासनीय कारिकान्तस्थबहुल शब्द व्याचक्षाणेन ॥
"द्रुणं चापे च खङ्गे च द्रुणो वृश्चिक-भृङ्गयोः । दुणी कच्छपिकायां च जलद्रोण्यामुदाहृता !!" इति लिङ्गानुशासनवृत्तिः । तथा च स्त्रीमात्रनियता भ्यां वरटा-बडवाशब्दाभ्यां साजात्येन डुलीशब्द एवेह पठितो लेखकप्रमादाद् द्रुणीति पाठः सभागत इति । अपरे त्वेवमाहु:
डुलीशब्दो नाचार्येण कोशादौ दर्शितः अभिधानचिन्तामणी 35 हि "कंच्छपी दुली" इति दुलीशब्दः कच्छपस्त्रीवाचको
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स्त्रीतोऽन्यत्र वर्तत एव न, तथा च द्रुणीभार्य इति पाठः साधुरेवार्थतः प्रत्यासत्तिप्रसङ्गादिति । न केवलमर्थतः प्रत्यासत्तिकृत एव दोषोऽपि तु शब्दतः प्रत्यासत्तिकृतोऽपीति 40 तदनुकूलं दृष्टान्तमाह-द्रोणीभार्यः, कुटीभार्यः, पात्रीभार्यः इति-- द्रोणीशब्द: कुल्यावाचको नित्यस्त्रीलिङ्गः, कुटीशब्दः क्षुद्रगृहवाचको नित्यस्त्रीलिङ्गः, पात्रीशब्दो भाजनविशेषार्थं नित्यस्त्रीलिङ्गः, यद्यप्येषां भार्याशब्देन पत्नीवाचकेन सह नैकार्थ्यं सम्भावना, तथापि तास्वौपचारिकं 45 भार्यात्वमारोप्य व्यवहारः समाधेयः, एषां न परतः स्त्रीत्वमपि तु स्वत एवेति परत इत्यस्याभावेऽत्रापि पुंवत्त्वप्रवृत्तौ सत्यां तत्तत्प्रवृत्तिनिमित्तकस्य शब्दस्य पुंस्त्वाभावेऽपि भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तकस्यापि समानाकृतेः शब्दस्य प्रयोगः स्यात् । तथा च द्रोणीभार्य इत्यत्र द्रोणीशब्दस्य स्थाने काकाढकचतुष्ट- 50 यादिवाची द्रोणशब्दः प्रयुज्येत, कुटीशब्दस्य स्थाने घटवृक्षादिवाची कुटशब्दः प्रयुज्येत, पात्रीशब्दस्य स्थाने पात्रसामान्यवाचकपात्रशब्दश्च प्रयुज्येत । यद्यपि पात्रसामान्यवाचकः पात्रशब्दो न पुल्लिङ्गो नपुंसक एव तस्य प्रयोगात्, तथापि अर्धर्चादिगणे तत्य पाठस्य दृष्टत्वात् पुंल्लिङ्गत्वमपि तस्यास्त्येवेति स्वीकार्यम् । एवं चषु " आसन्न::" [ ७ ४. १०५. ] इति परिभाषया शब्दस्वरूपतः प्रत्यासन्नानां शब्दानामपि प्रयोगो मा भूदित्येतदर्थमपि परत इति कथनीयमित्याह - अत्र पुंवद्भावे शब्दतः प्रत्यासन्ना इत्यादिना । स्त्रीति किमिटि - स्त्रियां वर्तमानेन सहैकार्थः स्त्रीवाचक 60 एव शब्दः स्यादिति स्त्रीवाचक शब्दोपस्थापकं स्त्रीतिपद| भव्यावर्तकमिति प्रष्टुराशयः । प्रत्युदाहरणेनोत्तरमाह--- ग्रामणि कुलं दृष्टिरस्येति - कुलमिति ग्रामणीशब्दस्य नपुं - सकत्वं द्योतयितुम् अत्र नपुंसकेन ग्रामणीशब्देन सह स्त्रीलिङ्गस्य दृष्टिशब्दस्य सामानाधिकरण्यं स्वष्टमेव, तथा चात्र 65 पुंवद्भावे सति क्लीत्वप्रयुक्तो हस्वो निवर्त्तेतेति ग्रामणीदृष्टिरिति स्यात् । एवं - खलपूशब्दोऽपि क्लीबे वर्तमानो दृष्ट्या सह समानाधिकरणो भवतीति तस्यापि पुंवद्भावे दीर्घान्तस्यैव खलपूशब्दस्य श्रवणं स्यात्, तद्वारणाय स्त्रीग्रहणमावश्यकमिति भावः । स्त्र्येकार्थे इति किमिति -- 70 स्त्रियां वर्त्तमानं सद् यत् स्त्रीवाचकपूर्वपदस्य समानाधिकरणमुत्तरपदं तस्मिन्नित्यर्थकं 'स्त्र्येकार्थे' इति पदं किमर्थम् ? सामान्येनोत्तरपदे एवं प्रवर्ततामिति प्रश्नाशयः । उत्तरयति कल्याण्या वस्त्रं - कल्याणीवस्त्रमिति अत्र षष्ठीतत्पुरुषेऽपि
स्यादिति तद्वारणाय 'स्त्र्येकार्थे इत्यावश्यकमिति 75
दर्शित: उणादौ च “दुलि: कच्छपः" इति पुंस्यपि दर्शितः स एव ङधा दुलीति भवति । किञ्च कच्छपार्थे द्रुणशब्दोपुवत्त्वं
७
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पा-२, सूत्र. ४९-५० ]
भावः । नन्वेतादृशातिव्याप्तिवारणाय 'एकार्थे' इत्येवोच्य- | किञ्चित्-प्रत्ययान्तः, प्रत्ययस्येह लुप्तत्वात्, एवं चेदृशताम्, स्त्रियां विद्यमानमित्यर्थबोधकं स्त्रीपदं तत्र कुतो | लक्ष्यसिद्धयर्थ प्रसज्यप्रतिषेधाश्रयणमावश्यकमिति समुदि- 40 निवेश्यते? कल्याणीवस्त्रमित्यत्र चैकार्थे इत्यनेनैव वारितं तार्थः ।। ३. २. ४९. ।।
स्यात्, षष्ठीतत्पुरुषे उत्तरपदेन सह सामानाधिकरण्याभावा5 दिति पृच्छति--स्त्रीग्रहणं किमिति । उत्तरयति
क्यङमानि पित्तद्धिते । ३. २. ५० ॥ कल्याणी प्रधानमेषां-कल्याणीप्रधाना इति–अत्र प्रधानशब्दः समानाधिकरणमुत्तरपदं, स च क्लीबलिङ्ग इति
त०प्र० क्याप्रित्यये मानिनि शब्दे चोत्तरपदे पिति तत्र पुवत्त्वं नेष्टम् ; स्त्रीग्रहणाभावे च तत्रापि तत्प्रवृत्त्या- |
! तद्धिते च प्रत्यये परे परतः स्त्रीलिङ्गशब्दोऽनू वद् भवति । पत्तिरिति तद्वारणाय स्त्रीग्रहणमावश्यकमित्यर्थः । अनूङिति
क्या-श्येनीवाचरति-श्यनायते; मानिन्-दर्शनीयां मन्यते 45 10 किमिति-ऊङन्तस्य पुवद्भावप्रतिषेधः किमर्थः ? इति !
दर्शनीयमानी अयमस्याः, दर्शनीयमानिनीयमस्याः, मानिनप्रश्नः । ब्रह्मबन्धूभार्यः इति- "उतोऽप्राणिनः०"
ग्रहणमस्त्युत्तरपदार्थम-समानाधिकरणार्थ च, दर्शनीया[ २. ४. ७३. ] इत्यूप्रत्ययान्तो ब्रह्मबन्धूशब्दः, तस्य ।
मात्मानं मन्यते-दर्शनीयमानिनीति तु सामानाधिकरण्य भार्यया सह बहुव्रीहिः, अत्र वत्त्वे 'ब्रह्मबन्धुभार्यः' इति ।
पूर्वेणैव भवति; पित्तद्धित-थ्यप, अजाय हितम्-अजयं स्यात्, एवं--'करभोरूभायः' इत्यत्रापि; अनूडित्युक्ते च 15 न भवति । अथ अनुङिति पर्युदास एवाश्रीयतां लाघवात्,
यूथम्, पित्तिथट-बहूनां पूरणी-बहुतियी, पचरट्-भूतपूर्वा 50
पट्वी-पटुचरी, पित्तस्-बह्वीभ्यो-बहुतः, त्रप-बह्वीषुप्रसज्यप्रतिषेधे हि वाक्यभेदो भवति, पर्युदासे हि-~-ऊङन्त
बहुत्र, शस्-बह्वीभ्यो देहि-बहुशो देहि, अल्पाभ्यो देहिभिन्नः परतः स्त्रीलिङ्गः शब्दः स्न्येकार्थे उत्तरपदे पुवदि
| अल्पशो देहि, पाशप-निन्द्या दर्शनीया-दर्शनीयपाशा, त्येकमेव वाक्यं भवतीति लाघवम, प्रसज्यप्रतिषेधे चाविशेषण
तमप-इय-मासामतिशयन पक्वा-एक्वतमा, तरप-इयवत्त्वं विधाय' पश्चादू डन्तस्य निषेधो विज्ञायत इति गौरव- मनयोरतिशयन पक्वा-पक्वतरा, रूपप-प्रशस्ता दर्शनीया- 55 मित्याशङ्कायामाह-अनूङिति प्रसज्यप्रतिषेधादिति,
दर्शनीयरूपा, कल्पप्-ईषदसमाप्ता दर्शनीया-दर्शनीयअयमाशय:-फलमुखगौरवस्याकिञ्चित्करत्वेन वक्ष्यमाण
कल्पा, देश्यप-एवं दर्शनीय-देश्या, कप-हस्वा दर्शनीयाफलसरवादिह प्रसज्यप्रतिषेधाश्रयणमावश्यकम् । तदेव
दर्शनीयका, कुत्सिता दरद्-दारदिका। कथं पद्विका ? फलमाह-इडविडोऽपत्यं स्त्रीति । अयमाशय:-प्रसज्यप्रति
मृद्विका ? "डयादीदूतः के" [२. ४.१०४] इत्यत्र कीग्रह षेधाभावे पर्युदासः स्यात्, तथा च ऊङन्तभिन्नस्य तत्स-:
प्रवद्भावबाधनार्थमित्युक्तम्, तेनात्र हस्त्रो भवति। 60 25 दशस्य स्त्रीप्रत्ययान्तस्यैव वद्भाव: स्यात्, एवं चेहापत्यार्थप्रत्ययस्य स्त्रियां लुपि सति प्रत्ययान्तभिन्न एवेड
__पिद्ग्रणं किम् ? गट्वीरूप्यम्, पट्वीमयम्, तन्वी तन्वीं
| खनति-तन्वीशः खनति,-"संख्यकार्थीद वीप्सायां शस्" विडशब्दः, तस्य पुंवद्भायो न स्यादित्यैडविडभार्या इति ।
[७. २. १५१] इति शस् । तद्धित इति किम् ? पट्वीषु, रूपं न स्यात्, किन्तु इडविड्भार्येति, अत्र हि "पुवत् |
बह्वीषु, कुमारीबाचरति क्विम्-कुमारयति, कुमारीयतेः कर्मधारये" [ ३. २. ५७ ] इति पुवद्भावो भवति, तत्रा:- | 30 प्यनूहित्यस्य सम्बन्धोऽस्त्येवेति यद्यत्र पर्युदासः स्यात् तहि |
| क्विप-कुमारी ब्राह्मणः। पञ्चभिगार्गीभिः गाायणीभिर्वा 65
"ह क्रीत:-पञ्चगर्गः, दशगर्गः, अत्रेकण: "अनाम्न्यद्विः प्लुप्" तत्रापि पर्युदास एव स्यात् । तदेव स्पष्टयति-पयुदासे
E६. ४. १४१ ] इति प्लुप्, पित्वात् पुंस्त्वम्, ततो “यत्रहि ऊङ्सदृशप्रत्ययान्तस्यैव हीति, अयमर्थः-नबिवयुक्तमन्यसदृशार्थे तथा ह्यर्थगतिः इति न्यायेन पर्युदासस्थले |
ओऽश्या०"[ ६.१. १२६ ] इत्यादिना यात्रोः लुप भवति,
गतगतत्यानापि प्लप चादावेकस्य स्यादेरित्यनुवर्तमाने पर्युदस्यमानभिन्नतत्सदृश एव गृह्यते, अब्राह्मणमानयेत्युक्ते ! "आवाधे" ७. ४. ८५ ] इति द्विवचने आदेः स्यादेलप: 70 35 ब्राह्मणभिन्नो मनुष्य एवानीयते न तु पश्वादिः काष्ठादिर्वा, | पिर
| पित्वात् पुंस्त्वम् ।। ५०॥ तथा च ऊभिन्न ऊसदृशो गृह्येत, सादृश्यं च स्त्रीप्रत्ययत्वेन सामान्यतः प्रत्ययत्वेन वा ग्राह्यम्, उभयथापि | श०मा० न्यासानुसन्धानम्-क्यड़ 'अत्र परतः प्रकृते दोष एव, इडविड्शब्दो न स्त्रीप्रत्ययान्तो नवा स्त्री अनूड, उत्तरपदें' इत्यनुवर्तते; 'स्थ्य कार्थे' इति च
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[ पाद-२, सूत्र-५० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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निवत्तम तत्रोत्तरपदे इत्यस्य यथासंभवं मानिनव सम्बन्धो दर्शनीयामात्मानं मन्यते-दर्शनीयमानिनी देवदत्तेति 1 "अत्र न त्वन्यैःअयोग्यत्वात् । तथा चार्थमाह-क्यङि प्रत्यये होकस्या एव कर्मत्वात् कौत्वाच्चास्ति सामानाधिकरण्यं" 40 इत्यादिना । क्रमश उदाहरति क्यडित्यवतरणेन- श्येनी- इति । तथा च पूर्वेण सिद्धत्वादित्येव तदीयमपि मतं न तु
वाचरतोति, प्रेतशब्दो वर्णवाची, तस्य च वर्णविशिष्टार्थ- पूर्वणव भवतीति । पित्तद्धितमदाहरति-.-थ्यप-अजाये न त्वमपीति स्त्रीलिङ्ग तस्य श्येनीति रूपं भवति, सा हितम-अजयं यथमिति--अजाशब्दात् हितार्थे "अव्य
इवाचरतीत्यर्थे "क्य" [ ३.४. २६. ] इति क्यङि अनेन । जात ध्यप्" [७. १. ३८.] इति थ्यम्, अनेन पुंवद्भावः ।
पुंवत्त्वे, दीर्घ च-श्येतायते इति । मानिनिति नाममात्र बहीनां पूरणी-बहुतितिथीति-अत्र “पित्तिथट् बहु-गण- 45 1. निर्दिष्टम्; नामग्रहणे च लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणं भव- पूग-सङ्घात्" [७. १. १६०.१ इति पित् तिथद, अनेन च
तीति पुसि स्त्रीलिङ्गे चोदाहरणमाह-दर्शनीयमानी ! पिति तद्धिते वद्भावः । भूतपूर्वा पट्वी-पटुचरीति10 अयमस्याः , दर्शनीयमानिनीयमस्याः इति-दर्शनीयामिति : अत्र “भूतपूर्व पचरट्" [७. २. ७२.] इति पचरट, .
कर्मणः परात् मन्धातो: 'मन्याणिन्' [५.१.११६ ] इति ! पट्वीशब्दस्य पुंवद्भावः । एवं-"बह्वीभ्यो- बहुतः" .. णिन्, उपान्त्यवृद्धी मानिन् शब्दः सम्पद्यते, तत्र इस्युक्त- इत्यादावपि पित्तद्धिते पबत्त्वं ज्ञेयम् । दर्शनीयकेति-अत्र 50 समासे सति प्रकृतसूत्रेण दर्शनीयायाः पुंवद्भावः, यत्र कश्चित् कपि पंवदभावः, तत्र यद्यपि “अस्यायत्ततक्षिपकादीनाम"
पुरुषः कांचित् स्त्रियं दर्शनीयां मन्यते तत्र दर्शनीयमानीति, | [ २. ४. १११. ] इतीत्वं विधेयम्, तथापि युवभा15 यत्र च काचित् स्येव कांचिद् दर्शनीयां मन्यते तत्र दर्श- वस्य रूपं स्पष्टयितुं तथा नोदाहृतम्, किन्तु प्रक्रिया- . नीयमानिनीति, अत्रोभयत्र न पूर्वेण सिद्धिः, स्न्येकार्थ
दशारूपमेव दत्तम, तथा च नेदं परिनिष्ठितं रूपम: कोत्तरपदाभावात, पूर्वत्र हि न स्त्रियां वर्तमानमुत्तरपदं | bवद्भावाभावेऽपि "स्वज्ञाऽज" [ २. ४. १०८. ] इति 55 नवा समानाधिकरणम, परत्र च स्त्रियां वर्तमानत्वेऽपि । विकल्पनेत्त्वमाय: स्थाने स्यादेवेति इत्वनिर्देशेन वदभाव
सामानाधिकरण्यं नास्ति, अन्या हि दर्शनीया तन्मानिनी ! कृतो विशेषो विज्ञातुं शक्यतेति नित्योपीत्वविधिरत्र न 20 चान्या इति मानिन्शब्दे परे विशिष्य पुंवद्भावविधानमाव- | दर्शितः शिष्यसन्देहनिरासार्थमिति विज्ञेयम् । कुत्सिता
श्यकम् । तदाह-मानिन्ग्रहणमस्न्युत्तरपदार्थमसमाना-दर-दारदिकति--दरदां राज्ञीत्यर्थे "पुरु-मगध०" [६.१. . धिकरणाथं चेति । अस्ति च पूर्वसूत्रस्यापि मानिन्शब्दे परे ! ११६.] इति दिरण, तस्य "नेरअणोऽप्राच्यभर्गादे:" 60 प्रवृत्तिविषयता, तां दर्शयति-दर्शनीयामात्मानं मन्यते । [६.१.१२३.] इति लुप्, तत: कुत्साथै कप्, तस्मिन् सत्य
इति, अयमाशयः-या दर्शनीया सैवेह मानिनीति स्त्रीत्वं नेन पुंवद्भावात् दारदेत्यकारान्तं रूपं भवति, ततः “अस्या25 सामानाधिकरण्यं चेत्युभयमिह भवतीति स्त्रीलिङ्गे एकार्थे । यत्तत" [२.४.१११, इतीत्वे-दारदिकेति रूपम्, दरदो.
उत्तरपदे सति पूर्वेण व पुंवत्त्वं तत्र भवति, वस्तुतस्तु-'दर्श- उपत्यं स्त्रीत्यर्थे तु गोत्रापत्यस्य "गोत्रं च चरणः सह" इति नीयमान्ययमस्पाः, दर्शनीयमानिनीयमस्या' इत्याद्यर्थ
परिभाषणात् जातित्वेन "स्वाङ्गान्डोर्जातिश्चामानिनि" कृतेऽस्मिन् सूत्रे, दर्शनीयामात्मानं मन्यते इति-दर्शनीयमा- ३.२.५६.] इति पंवद्भावप्रतिषेधः स्यात्, यदि च दरदो
निनीत्यत्रापि प्रकृतसूत्रस्यैव प्रवृत्तिरुचिता, परत्वात् प्रति- नन्तरापत्यं [यवापत्यं] विवक्ष्यते तदाऽपत्यार्थेऽपि न दोष 30 पदोक्तत्वाच्च, एवं च 'पूर्वेणव भवति' इत्यस्य स्थान इति विभावनीयन। केचित् तु-"पुरुमगध०" [६.१.११६] पूर्वेणापि भवतीति पाठो युक्तः, तथा च पूर्वेणेव भवतीति
इत्यादिभिः सूत्रैर्न केवलं राशि नवाउपत्ये प्रत्ययो भवति ग्रन्थ 'एतत्सूत्रे मानिन्ग्रहणाभावे' इति वाक्यशेषेण योज- |
किन्तु राजापत्येऽर्थे, तथा च तत्र गोत्रत्वाविवक्षणान्न जाति- 70 नीयः, तत्रैवाचार्याणां तात्पर्यात् । तथा च पूर्वेण सिद्धस्व
त्वमिति नास्ति दरदामपत्यं राज्ञीत्यर्थेऽपि निषेधाशङ्का मात्रे एव तात्पर्य न तु प्रकृत सूत्रे सत्यपि पूर्वेणवेह पुंवत्त्वं । पुवद्भावस्य"इति प्राहुः । यदि च 'राजापत्ये' इति समाहारा35 भवतीत्यत्र । 'क्यङमानिनोश्च" [पा.सू. ६. ३. ३६.] श्रयणेन निर्देश इति राशि अपत्यार्थे च पृथगेव प्रत्ययः, तथा इतिसूत्रे भाष्येऽपि मानिनग्रहणस्य सार्थक्य मेवमेवोपपादितम,
च यदा राजाथे प्रत्ययस्तदा गोत्रत्वविवक्षा मास्तु, अपत्यार्थे तद्धाष्यव्याख्यावसरे च कैयटेन स्पष्टमिदं प्रतिपादितम्- | प्रत्ययविधाने त तद्विवक्षाऽवश्यमाश्रयणीयेत्य स्त्रीलिङ्गे समानाधिकरणे उत्तरपदे पूर्वेण सिद्धत्वात्, यथा केवलं राज्ञीत्यर्थे एव प्रत्ययः । न च वाच्यं तत्र पुंलिङ्ग
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते [पाद-२, सूत्र. ५०-५१] निर्देशन स्त्रीत्वविशिष्ट राजनि वाच्येन स्यात प्रत्यय इति । तद्धितस्थानीयत्वेन तद्धित एव, अयं विवप कृत्प्रत्यय इति तत्र नाममात्रनिर्देशात्. नामग्रहणे च लिङ्गविशिष्टस्यापि
विशेषः । एवमसत्यपि परत्वे स्थानि स्थितं परत्वमादायामहणस्य न्यायसिद्धत्वात, उभयलिङ्गनिर्देशस्याशक्यत्वेन
प्रयोगिन्यपि पुवद्भावविधिमन्यत्राप्युदाहरति- गतगते. 40 गौरवपराहतत्वेन च नाममात्रनिर्देशादरस्य अवश्यस्वी- |
त्यत्रापीति-काचिद् गता तदीय गमनपीडितस्योक्ती गता
शब्दस्य सविभक्तिकस्य द्वित्वं भवति, पूर्वभागस्थायाः 5 करणीयत्वात् । कपि पुंवद्भावमुदाहृत्य क्वचित् कपि तद
स्यादिविभक्तेश्च पिल्लुप् विधीयते "आबाध" [७.४.८५] भावोऽपि दृश्यते स कथमिति शङकते-कथं पविका
| इति सूत्रेण, एवं चात्र प्लुपस्तद्धितस्थानीयत्वाभावेऽपि मृद्विकेति-अत्र कुत्साथै कपि "ड्यादीदूत: के" [२.४. |
पित्त्वसामादेव पंवत्त्वम, क्विपि पित्त्वं त्वन्यकार्याथं 45 १०३.] इति ह्रस्वो भवति, कपि परे पुंवद्भावेन भाव्यं |
चरितार्थम-कर्म करोतीति कर्मकृदित्यादिरूपसिद्धयर्थमिति तत् कथं नेति शङकार्थः । तत्रोत्तरमाह--"डन्थादीदूतः |
न तत्र पित्त्वस्य सामर्थ्यम्, एवं च पित्त्वात् पुंस्त्वमित्यस्य 10 के" [३०४.१०३] इत्यत्र डीग्रहणं पुंवद्भावबाधनार्थ- पित्त्वसामति पंवद्भाव इति भावः ।। ३.२.५० ।।
मित्युक्तं, तेनात्र हस्वो न भवतीति, अयमाशयः-- पदिकेत्यादावीदन्तत्वेनैव ह्रस्वे सिद्धेऽत्र सूत्रे ङोग्रहणं व्यर्थमित्याशङकायां तस्य पंवभावबाधनार्थत्वमित्यक्तमेव जातिश्च णि-तद्धितय-स्वरे ३. २. ५१॥
तत्सूश्रव्याख्यायाम् , तथा च पुंवद्भावं प्रबाध्य ह्रस्व एव 15 भवति, बाधितश्च पुंवद्भावः कथं प्रवर्ततां तत्प्रवृत्तौ ह्रस्व
त० प्र०-अन्या परतः स्त्री जातिश्च णिप्रत्यये यका- 50 प्रवृत्तेर्वेयर्थ्यात्, सकृद्गतिन्यायाच्च । पिद्ग्रहणं किमिति- | रादौ स्वरादौ च तद्धिते विषयभूते-उत्पत्स्यमाने तद्विवक्षा'' केवलं 'तद्धिते' इत्येवोच्यतामिति भावः । अविशेषात् सर्वत्र | यामेव पुंवद् भवति, अनूछ । णि-'पट्वीमाचष्ट'-पटयति, तद्धिते पुंवद्भावप्रवृत्ती दोषानाह--पट्वीरूप्यमित्यादि |
लघयति, एवम्-एतयति, श्येतयति । तद्धितय-एम्यां साध:तथा च 'पटुरूप्यम्, पटुमयम्' इत्यापत्तिरिति तद्वारणार्थ
'एत्यः, एवं-श्येत्यः, एन्या भाव:-एत्यम्, एवं-श्यत्यम्, 20 पिद्ग्रहणभावश्यकम् ; एवं-तन्वीशः खनतीत्यत्रापि ।
लोहित्यम् । तद्धितस्वर-भवत्या इदं-भावत्कम्, भवदीयम्, 55 द्रष्टव्यम् ! पितीत्येवोच्यतां तद्धित इति त्यज्यता, तावता
इयमासामतिशयन पट्वी- पटिष्ठा, पटीयसी । जाति
तद्धितय-दरदोऽपत्यं स्त्री अण् लप-दरत, तस्यां साध:...ऽपि पट्वीरूप्यं पट्वीमयमित्यादिसिद्धेरिति पृच्छति--तद्धित
दारद्यः, एवम्-औशिज्यः, पुंवद्भावादणो लुप् निवर्तते । इति किमिति । परीषु बहीष्विति--तद्धिते' इत्यस्या
तद्धितस्वरे-गाायण्याः कुत्सितमपत्यं-गार्गः, गार्गिकः, नुक्ती स्यादौ पित्यपि वभावः स्यादिति भावः । न केवलं
हस्तिनीनां समूहो-हास्तिकम् । जातिग्रहणं जातिलक्षण- 60 25 स्यादावेव पिति दोषोऽपि तु कृदन्तेऽपीत्याह-कुमारीवा
प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थम्, सति तस्मिन् चकारोऽन्यार्थ:-जातिः चरतीत्यादिना, तथा च कुमारी ब्राह्मण इत्यत्र कुमारी
परतः स्त्री, अन्या च परत: स्त्री पुंबद्भवतीत्यर्थः, अकृते शब्द: विषबन्त इति क्विप: स्थानिवद्भावेन पित्परत्वा
हि चकारे जातेरेव पुंवद्भावः स्यात् । दत्रापि पुंवत्त्वे कुमारो ब्राह्मण इति स्यादिति भावः । नन ।
। तद्धितेति किम् ? हस्तिनीमिच्छति-हस्तिनीयति, स्विोऽप्रयोगित्वेन तस्य परत्वरूपनिमित्तत्वं कथं स्यादिति
हस्तिन्यः; एनीयति, एन्यः । कथं यौवतम् ? भिक्षादौ यव- 65 30 चेदत्र दृष्टान्तद्वारा दादर्थ साधयति-पञ्चभिर्गार्गीभि
तीति स्त्रीलिङ्गपाठात्, कौण्डिन्य इति तु "कौण्डिन्यागरित्यादिना, तथा च क्रीतार्थप्रत्ययस्य विहितः प्लप् अपि
स्त्ययोः०" [६.१. १२७. ] इति निदशेन पुंवद्भावस्याअप्रयोग्येव, तथापि पित्त्वविधानसामर्थ्यादेव यथातं निमित्ती
नित्यत्वात्, अत एव मानाय्य इत्यत्रापि न भवति; सापत्न कृत्यं पञ्चगर्ग इत्यादौ पुंवद्भावो भवति, तस्मिश्च सत्येव | इत्यपि "पल्यादौ" [२. ४. ५०] इति सूत्रे सपत्नीति
"यानोश्या." [६.२.१२६7 इति सूत्रेणास्त्रियां विहितो । समदायनिपातनात, अत एव सपत्नीभार्य इत्यत्रापि न 10 36 लबपि भवति, अन्यथा न स्यादेव, एवं विवपोऽप्रयोगित्वेऽपि भवति; सपत्नस्यायं सापान इति वा भविष्यति। ... तस्मिन परे कुमारी ब्राह्मण इत्यत्रापि स्यादिति भावः।। तद्धितयस्वर इति विषय सप्तम्याश्रयणं किम ? पटल्या
"अनाम्न्यद्विः प्लुप्” [६.४.१४६] इति विहितः प्लुप् च | भाव-पाटवम्, अत्र प्रत्ययोत्पत्तेः पूर्वमेव पुंवद्भावे लघ्वादि
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[पाद-२, सूत्र-५१]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
श्वात् 'वृबर्णाल्लध्वादेः" [७. १. ६९ ] इत्यण् भवति, | जातिग्रहणसामर्थ्यान्न “स्वाङ्गात" [३. २. ५६] इति परसप्तमीसमाश्रयणे तु पटवीशब्दस्य लबादित्वाभावात् । निषेधः । स्यपत्ये वाच्ये च "द्रेरणः" ६.१.१२३.1 सतोऽण न स्यादिति । यस्वर इति किम् ? पटव्या आग- ! इति अणो लुप, तस्यां साधुरित्यर्थे ये विवक्षित एव पंवत्त्वे तम्-पट्वीरूप्यम्, पट्वीमयम् ॥ ५१ ॥
सति अणन्त एव दारदशब्द: समायाति, तस्यान्त्यस्या- 40 कारस्य लोपे-दारद्यः इति । औशिज्येऽपि राजापत्याण
एव स्त्रियां लकि- उशिगिति, ततः साध्वर्थे ये विवक्षिते श० म० न्यासानुसन्धानम्-जाति०। जातिश्चेति : पुंवत्त्वे यप्रत्यये च- औशिज्य इति रूपमित्याह- एवमचकारेण परतः स्त्रीति पदं द्विधा सम्बध्यते, तथा च औशिज्यः इति । दरद उशिशब्दयोः स्त्रीप्रत्ययस्यादर्शनात जातिव्यतिरिक्ता परतः स्त्री, जातिश्च परत: स्त्रीत्यर्थो | पुंवद्भावेन किमिह फलमिति शङ्कां निरस्यति-पुंवदा- 45 लभ्यते, तदाह-अन्या-परतः स्त्री जातिश्चेति, अग्रे ! वादणो लुप निवर्तते- इति- निवृत्तिश्चेह पूर्वमऽन्येत्यर्थलाभोपायं स्पष्टयिष्यति । णि-तद्धितय-स्वरे | प्रवृत्तिरेव जातस्य निवृत्त्ययोगात्, इदमपि विषयार्थसप्तइति सप्तमी विषयार्था, तथा च ण्यादीनां विवक्षायामेव म्याश्रयणस्य फलम् । तद्धितये उदाहृत्य तद्धिस्वरे उदापंवत्त्व-भवति, तत्फलं च वक्ष्यति, तदेवाह-वि हरति -गार्गायण्याः इति- कुत्सितापत्यार्थे वृद्धप्रत्यइति । अस्यैवार्थमाह-उत्पत्स्यमाने इति, तदेव स्पष्ट- | यान्ताद गाायणीशब्दाद "वृद्धस्त्रियाः क्षेपे णश्च" [६. 50 यति- तद्विवक्षायामेवेति- एवकारेण तत्परत्वस्य १.८७.] इति णे विवक्षिते वद्भावे गाय॑शब्दस्य यलोपे
व्यावृत्तिः । प्रथमोपस्थितत्वादन्यामेव स्त्रियं क्रमशो प्यादि- गार्गः इति, इकणि च-गार्गिकः इति, हस्तिनीनां समहः . 15
खूदाहरति-णि- पट्वीमाचष्टे इति, अत्राख्यानेऽर्थे णिचि इति-अत्रापि समूहार्थे "कवचिहस्त्यचित्ताच्चेकण' विवक्षित एव पुंवद्भावादुकारस्य "नामिनोऽकलिहले:" [६. २. १४] इतीकणि विवक्षिते पुंवत्त्वे इकणि सति [ ४. ३. ५१. ] इति वृद्धौ “अन्त्यस्वरादेः' [ ७. ४. “नोऽपदस्य तद्धिते" [७. ४. ६१.] इत्यन्त्यस्वरादिलोपः। १ ४३. ] इत्यन्त्यस्वरादिलोपे तस्य स्थानिवद्भावादुपान्त्य- । ननु परतः स्त्रीत्येतदनुवृत्त्येव सिद्धे जातिग्रहण व्यर्थमित्या
वृद्धयभावे धातुत्वादौ- पटयतीति रूपम्, अद्यतन्यामपो- | शङ्कायामाह-जातिग्रहणं जातिलक्षणप्रतिषेधनिवृत्त्य20 पटदिति बद्धः पूर्वमन्त्यस्वरादिलोपे च समानलोपित्वेनेत्त्वं । मिति, अयमाशयः- असति जातेरिह विशिष्योपादाने
न स्यात्, एवं-लघ्वीमाचष्टे-लघयतीत्यादावपि विज्ञेयम् ।' दारद्य इत्यादिप्रयोगाणामसिद्धिः स्यात्, तत्र हि "स्वाङ्गाएनीमाचष्टे-एतथति, श्येनीमाचष्टे-श्येतयतीत्याद्यपि | डोर्जातिश्चामानिनि" [३. २. ५६.] इति पुंवद्भावप्रति- 60 णी पुंवत्वस्योदाहरणमित्याह-- एवमेतयतीत्यादि। णावु- षेधापत्तेः कृते च जातिग्रहणे तस्यानवकाशत्वेनापवादत्वात्
दाहृत्य तद्धितयकारे पुंवत्त्वमन्यस्याः परत: स्त्रिया उदा- | प्रतिषेधो निवर्तते, तथा चानेन सूत्रेण जातिवाचकस्त्रिया 25 हरति- तद्धितय-- एन्यां साधुरिति-एनीशब्दात् साध्वर्थे । एव पंवद्भावः स्यान्नान्यस्त्रिया इति तस्या अपि संग्रहार्य
ये विवक्षिते पुंवद्भावादेतशब्दाद् ये-- एत्यः इति । एवं- | चकारोऽप्यावश्यक इत्याह-सति तस्मिन् चकारोऽन्यायः श्येयां साधु:-श्येत्यः इति । एन्या भाव' इत्यर्थे "वर्ण- ! इति--जातिग्रहणे सति जातिमात्रे प्रवत्तिर्मा भदित्येतदर्थदृढादिभ्यः" [७. १. ५९. ] इति टयणि विवक्षिते पुवत्त्वे . मन्यस्त्रीसंग्रहार्थश्चकार इति भावः । तथा च यादृशार्थततष्टयणि-ऐत्यमिति । एवं- श्येन्या भावः-श्यैत्यम्, लाभस्तमाह स्पष्टतार्थ-जातिः परतः स्त्री, अन्या च लोहिन्या भावो- लौहित्यम् । तद्धितस्वरे उदाहरति- परतः स्त्रीति, चकाराभावेऽस्यार्थस्य न प्राप्तिरिति शेषः, भावत्कमिति- इकणि विवक्षिते पुंवत्त्वे इकणि इकारलोपे । समानाधिकणे [ स्त्र्येकार्थे ] उत्तरपदे तु पूर्वेण सिद्धेऽपि आदिवृद्धौ- भावत्कमिति, ईये- भवदीयमिति । पटिष्ठा | णितद्धितयस्वरेऽपि पुंर्वद्भावार्थमत्र चकारकरणमिति समु- 70 पटीयसीत्यादाविष्ठेयसोरन्त्यस्वरादिलोपः। अन्यां परतः | दितार्थः। नामभ्यः स्याद्यन्तेभ्यो वा तद्धितप्रत्यय एव
स्त्रियमुदाहृत्य जाति परत: स्त्रियमुदाहरति; तत्र णौ | दृश्यत इत्यन्यस्या जाते; परतः स्त्रियोऽवश्यमेव तद्धित 35 पुंवद्भावकृतविशेषाभावात् तद्धितये उदाहरति-दरदो- एव य-स्वरादयः प्रत्ययाः परतो भविष्यन्तीति तद्धितग्रहण
ऽपत्यं स्त्रीति- अत्र गोत्रापत्येऽपि प्रत्यये जातित्वे सत्यपि मव्यावर्तकमिति शङ्कते-तद्धितेति किमिति--य-स्वरयो:
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५४ बृहवृत्ति-बृहन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र५१] प्रत्यययोविशेषणतया तद्धितग्रहणमनावश्यकमिति भावः । न स्त्री-मनायी “मनोरी च वा" [ २. ४. ६१. ] इति ज्याकेवलं तद्धितीया एव प्रत्यया नामतो भवन्ति, अपि तु । मकारादेशे आयि च-मनायीति रूपम, तस्या अपत्यमित्यर्थे ती नामधातुसम्बन्धीया अपि । किञ्च तद्धितग्रहणाभावे । गर्गादित्वाद् यअि-मानाय्य इति रूपं भवति, अत्र पुंवद्भावे केवलं प्रत्ययस्य यस्य स्वरस्य वा ग्रहणमिति स्यादावपि । सति तु 'मानव' इत्येव रूपं स्यात्, मनुशब्दस्य गर्गादौ स्वरादी पुंदभावः स्यादित्याह-हस्तिनीमिच्छतीत्यादि, । पाठाभावात, प्रत्यये च विवक्षित एव पुंवद्भावप्रवृत्तेः, तदुहस्तिनीशब्दादिच्छार्थे "अमाव्ययात् क्यन् च”[३. ४. २३.] ! त्तरमपि प्रवृत्ती पंवावे मानव्य इति रूपं स्यान्न तु मानाय्य इति क्यनि हस्तिनीयेत्यस्य धातुत्वादी-हस्तिनीयतीति । इति, इदं तु रूपं पंचद्भावस्यानित्यत्वे एव सिद्धयतीति 45 रूपं भवति, अत्र नामधातुसम्बन्धिन्यपि यकारे पुंवद्भावः । तत्फलमिदं साध्वेवेति । क्वचिदन्यत्रापि पंवदभावाप्रवत्ति
स्यात् । हस्तिन्यः इति हस्तिनीशब्दस्य प्रथमाबहुवचने दृश्यते साऽपि तस्यानित्यत्वेनेव साधनीयोतोपायान्तरेणेति *0 रूपम, अत्र स्वरादिः प्रत्ययोऽसिति तस्मिन् परतोऽपि पुंवत्त्वं विचारे. सति संभवे उपायान्तरमेवाश्रयणीयं न त्वनित्यत्वाश्र
स्यात्, एवम्- एनीयति, एन्यः इति रूपद्वयमपि प्रत्यु- यणमिति मनसिकृत्याह-सापन इत्यापि "सपल्यादौ" दाहार्यम्, तद्धितग्रहणे कृते च न दोषः । कथं यौवतमिति- २.४.५०.] इति सूत्रे सपत्नीति समुदायनिपातनादिति, 50 युवतिशब्दात् समूहार्थे [ युवतीनां समूह इत्यर्थ ] अणि । अयमाशय:-समानः पतिर्यस्या इत्यर्थे स्वामिपर्यायं पतिशब्द
रूपमिदम्, तत्र वद्भावे सति यौवनमिति रूपमुचितामात माश्रित्य यदि सपत्नीशब्दः साध्यते तहि तादृशसपत्नी शब्द15 प्रश्नाशयः । भिक्षादौ युवतीति स्त्रीलिङ्गपाठादिति, अय-स्य सपतिशब्दप्रभवत्वात सपतित्वस्य समानस्वामिकत्वस्य
माशय:- भिक्षादिषु युवनशब्दः पुंलिङ्ग एव पठितव्यः । पुरुषादिसाधारणत्वादयं शब्द: परत: स्त्रीलिङ्ग एवेति तस्यह स्यात, ततश्च *नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम
याप ग्रहणम् | स्वरादौतद्धिते [अपत्यार्थे "शिवादेरण" ६.१.६० इत्यणि] 55
: इति न्यायन यवतीशब्दादपि स्यादेव प्रत्यय इति स्त्रीत्व
१ परेऽनेन पुवद्भावेन सता सापत इत्येव रूपं स्यादिति सापत्न विशिष्टयवन-शब्दस्य पाठो व्यर्थः सन् अस्य प्रत्यय इति रूपं कथमिति शहाः तत्र "सपल्यादी"३. ४. ५०१ 20 परत एवमेव रूपमिति ज्ञापयति, तथा च पुंवद्भावो न । इति सत्रे सपत्नी शब्दस्य निपातनेन तस्य नित्यं स्त्रीत्वं
भवति. एवं च न तत्र सूत्राव्याप्तिर्दोष इति भावः । पाणिनीय सिध्यतीति न पंवदभाव इत्युत्तरम् । यद्यपि 'मानाय्य' इत्यतन्त्रे च यौवनं यौवतमिति रूपद्वयमपि साधुतया स्वीक्रियते, त्रापि मनायीशब्दो गर्गादिगणे पठित इति भिक्षादौ युवतिशब्द- 60 तत्र यौवनमिति युवनशब्दस्य तिप्रत्ययान्तस्य पुंवद्भावेन यत् “सपत्न्यादौ" इति सूत्रे च सपत्नीशब्दवद् वा निपातित रूपम्, यौवतमिति तु युधातोः शत्रन्तस्थ स्त्रियाँ युवतीति
एवेति न तत्रापि पुंवद्भावानित्यत्वस्य फलमिति नास्ति संसाध्य ततः समहार्थेऽणि कृतेऽपि पंवत्त्वे यौवतमित्येव
तज्ज्ञापने किमपि फलं, स्वसार्थक्यं विहायेति वक्तु शक्यत रूपमिति प्रक्रिया सिद्धान्तकौमुद्यां प्रदर्शिता दीक्षितेन । । एव तथापि मनायीशब्दस्य गर्गादिगणे पाठोऽणेकणो धनार्थ अयापरमव्याप्तिस्थलमाशङक्य समाधत्ते-कौण्डिन्य इति इति तत्र निवेदितत्वेन न तस्य पाठस्यार्थान्तरसायकत्वं सम्भ- 65 तु "कौण्डिन्यागस्त्ययोः०" [६. १. १२७.] इति । वतीति मानाय्य इत्यनित्यत्वोदाहरणमेव, "सपल्यादौ" इत्यत्र
निर्देशेन पुंवद्भावस्यानित्यत्वादिति, अयमाशयः-कुण्डि- च सपत्नीति नियातनस्य नान्यत् किमपि फलमृते तस्य नित्यं 30 नीशब्दादपत्येऽर्थं यषि तत्र पंबद्भावे सति "नोऽपदस्य." | तादशरूपवत्वविज्ञापनादितिस निर्देशः वदभावाभावसापको
[७.४.६१.] इत्यन्यस्वरादिलोपे कोण्डय इति रूपं भवितुमर्हत्येव । तत्फलान्तरमप्याह--अत एव सपत्नीभायें युक्तम, कथं 'कौण्डिन्य' इति । तत्रोत्तरमिदं-सूत्र 'कौण्डिन्य' इत्यत्रापि न भवतीति--सपत्नी भार्या यस्येत्यर्थे बहुव्रीहौ 70 इति निर्देशेन पुंवद्भावोऽनित्य इति विज्ञायते, तथा चात्रा- प्रकृतनिपातनादेव पवद्भावाभाव इति भावः । यद्यपि
प्रवृत्ती सत्यां रूपसिद्धौ बाधकाभाव इति नेदमपि प्रकृत- समानः पतिर्यस्याः सैव सपत्नी.सा च भार्यान्तरस्य कृते तेन 35 सूत्राव्याप्तिदोषस्थलम् । अनित्यत्वज्ञापनस्थ स्वाशे चारिता- शब्देन वाच्या, एकपतिकयोयोः परस्परं सपत्नीशन्दव्यव
र्थ्यमात्रमेव न प्रयोजनमपि तु फलान्तरमपि तत्रापेक्ष्यते, हार्यत्वात, न तु पत्युः कृते सा सपत्नी, तथा च सपत्नी भार्या स्वसार्थक्यमात्राय ज्ञापनस्यानौचित्यादिति ज्ञापनस्य फला- यस्येत्यर्थे कथं सामर्थ्य मिति शङ्कितु शक्यते, तथापि या 75 न्तरमप्याह--अत एव मानाय्य इत्यत्रापीति-मनोरपत्यं । काचित् कयाचित् सह समानपतिका सा सपत्नी शब्दवाच्येति
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[पाद-२, सूत्र-५१-५२]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
निष्प्रतियोगिकत्वं तस्याश्रित्यवं विग्रहः कृत इति तया, सत्यपि सापत्न इत्येव रूपमिति न तदर्थं पुवभावारीत्याऽत्र सामर्थ्यमवधारणीयम् । सापल इत्यस्य रूपस्य नित्यत्वाश्रयणमावश्यकमिति ।
40 सिद्धावुपायान्तरमप्याह--सपत्नस्यायं-सापत्न इति वा णि तद्धितयस्वरे' इति सप्तम्याः परसप्तमीत्वेन नेहा
भविष्यतीति, तथा च सपत्नशब्दादेवाणि रूपमिदं न तु श्रयणमपि त विषयसप्तमीत्वेनति ण्यादीनां प्रवत्ती विवक्षि 5 सपत्नीशब्दादिति ने पबद्भावप्रवृत्यवृत्तिशङ्कति भावः । तायामेव वदभावो भवतीति पूर्वमक्तं.तस्य फलमपदर्शयितुं
अत्रेदं विचार्यते-यद्यपि सपत्नशब्दात् सापत्न इति रूपं निर्बाध | पच्छति--विषयसनम्याश्रयणं किमिति--परत्वाथिका तथापि सपत्नीशब्दादणि कीदृशं रूपमिति तु न निर्णीतम्, | सप्तमी तु "सप्तम्या पूर्वस्य" [७. ४.१०५.] इति परिभा- 45 तादशसन्देहेनैव च प्रकृतविचारप्रारंभ इति स सन्देहो | षातो लभ्यते. इति विषयसप्तमीसमाश्रयणं किमपि विशिष्टं
नानेम समाधानेनापतीति प्रथमप्रोक्तं सपत्नीशब्दनिपातन- फलं चेन साधयति तहि कुतः समाश्रीयत इति भावः । 10 रूपमेव समाधानं वरम् । अथवा सपत्नस्यायं सापत्न इतीति | प्रत्युदाहरणेनोत्तरयति--पच्या भावः इति । अत्र कि फल
ग्रन्थस्य सपत्नशब्दस्य यत् स्त्रियां सपत्नीति रूपं ततोऽपत्या- मिति दर्शयति-अत्र प्रत्ययोत्पत्तः पूवमेवेति, अयथेऽणि अयं सापत्नशब्द इत्यर्थः, तथा च न सपत्नीशब्द- माशयः--पदव्या भाव इत्यर्थे पटवीशब्दस्य गुणाङ्ग 50 विषयः सन्देहोऽनिर्णीत इति विज्ञेयम् ।
| प्रवत्ति निमित्तत्वेन तत: “पतिराजान्तगणाङ्ग"[६.१.६०. अन्ये च वैयाकरणाः सपत्नीशब्द त्रिधा व्युत्पादयन्ति, | इति ट्यण, प्राप्तस्तस्मिन् विवक्षिते एव पुंवद्भावप्रवृत्त्या ____ 15 शत्रुपर्यायात् सपत्नशब्दात् तन्मते "शाङ्गरवादि" [पा० सू० | तस्योवर्णान्तत्वलघ्वादित्वयोः सम्पत्त्या परत्वादुर्णा
४.१-७३. ] इति डोनि [ स्वमते गौरादित्वकल्पनया | न्तत्वप्रयुक्तः "स्वर्णाल्लध्वादे: [७. १. ६९.] इति ह्या ] सपत्नीशब्द एकः, विवाहजन्यसंस्कारविशेषविशिष्टे | अण् भवतीति पाटवमिति सिद्धयति । ननु मास्तूवर्णा-55 रूढं पतिशब्दमाश्रित्य समानः पतिर्यस्या इति विग्रहे सप- न्तत्वप्रयुक्तप्रत्ययोत्पत्तिरिवर्णान्तत्वप्रयक्तवास्तु सेति चेद
नीशब्दो द्वितीयः, अयं च नित्यस्त्रीलिङ्गः, स्वामिपर्यायं त्राह-परसप्तम्याश्रयणे तु पवीशब्दस्य लघ्वादित्वा20 पतिशब्दमाश्रित्य स्त्रीनपुसकसाधारण: सपतिशब्दनिष्पन्नः भावादिति, अयमर्थः-परिनिष्ठितस्यैवान्यार्थसम्बन्धयोग्य
सपत्नीशब्दस्तृतीयः । तत्र आद्ययोः शिवादित्वादणि पूर्वस्य तया पूर्व पटुशब्दस्य स्त्रियां पट्वीति रूप साध्यं, ततश्च पदभावे सत्यपि सापत्न इत्येव रूपम् यतः प्रथमस्थ परतः । संयोग परे पूर्वस्य गुरुत्वात् पट्वीशब्दो न लध्वादिरिति 60 स्त्रीत्वेऽपि पुंवद्भावेन 'सपत्न' इत्येव रूपमतिदिश्यते, द्विती- ! ततोऽण् न स्यात्, सति चान्यस्मिन् प्रत्यये पुंवद्भावे सत्यपि
यस्य च स्वतः स्त्रीत्वात् पुंक्भावाभाव एव, तृतीयस्य च पुनरणोऽवसरभ्रष्टत्वान्न प्रवृत्तिः, परसप्तमीपक्षे प्रत्ययोत्पत्ते25 नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यैव ग्रहणम् * इति न्यायेन, यादौ | रावश्यकतया तदुत्पत्तेः पूर्व पुंबद्भावाप्राप्तेरिति । तद्धिते'
स्वरादौ वा प्रत्यये विवक्षित एव पुंवद्भावात् पत्युतरपदत्व- इत्येवोच्यता, 'यस्वरे' इति व्यर्थ मिति शङ्कते--यस्वरे इति माश्रित्य तनिबन्धनो ञ्य एव "अनिदम्यगपवादे च दित्य- | किमिति । तदभावेऽन्यत्रानिष्टस्थलेऽपि प्रवृत्तिः स्यादित्याह 65 दित्यादित्ययमपत्युत्तरपदाळ्यः " [ ६-१-१५ ] इति सूत्र- | पव्या आगतमिति-अत्र हेतुत्वेन विवक्षितात् पट्वी- .
णेति सापत्य इत्येव रूपं न तु शिवादित्वादणि सापत इति, | शब्दात् “नहेतुभ्यो रूप्यमयटी वा" [ ६. ३. १५६. ] इति 30 शिवादी रूढयोरेव ग्रहणस्पष्टत्वादिति । भाष्यकृता च रूप्य-मयटो: सतो रूपदयं भवति, उभयत्रापि प्रवत्त्वे पटरूप्यं
"स्त्रियाः पुंवद्" [पा० सू० ६-३-३५ ] इति सूत्रे पुंवद्भा- ! पटुमयमिति स्यात्, तच्च नेष्टमिति 'यस्वरे' इत्यावश्यकवातिप्रसक्तिस्थलवर्णनप्रसङ्गो "इह च प्राप्नोति + + + | मिति भावः ।। ३. २. ५१. ।।
70 सापत्न इति" इति शङ्कायाम् “सापत्नः प्रकृत्यन्तरत्वात्"
"सपत्नशब्द: प्रकृत्यन्तरमस्ति' इत्युत्तरितम् । तस्य चाशयः 35 कैयटादिभिरित्थमवधारितो यत्--सपत्नीशब्दोऽयं सपन
एयेऽग्नायी। ३. २. ५२॥ शब्दप्रकृतिकः, शिवादौ वा सपत्नशब्द एव पठ्यते,
नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् इति न्यायन च | त०प्र०-तद्धिते एयप्रत्यये परे अग्नाय्येव परतः स्त्री सपत्नीशब्दोऽपि तत्र गृह्यत इत्यण भवति, पुंबद्भावे च पुंवद् भवति । अनाय्या अपत्यम्-आग्नेयः, अग्नायी देवताऽ.
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बृहद्वृत्ति बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ५२-५३ ]
स्य-आग्नेयः स्थालीपाकः । पूर्वेण सिद्धे नियमाथं वचनम्, श्यनेय इत्यादौ न भवति । शेन्या अपत्यं--श्यनेयः, तेन-यनेयः, रोहिणेयः, अत्र पूर्वेणापि पुंवभावो न | रोहिण्या अपत्य---रौहिणेयः इति--- पूर्वत्र "द्विस्वरादनद्याः” भवति ॥५२॥
[ ६. २. ७. ] इत्येयण परत्र च "ड्याप्त्यूङः" [ ४. १. ७०.] इत्येयम्, अत्र हि पूर्वसूत्रेण पुंवत्त्वे 'श्यतेयः, 4
रोहितेयः' इति रूपे स्याताम्, तदाह-अत्र पूर्वेणापि पुंवश०म० न्यासानुसन्धानम्--राय० । अत्र पूर्वसूत्रात् । दावोन भवतीति । अदं विचार्यते एये एवाग्नायोशब्दः 5 'णितद्धितयस्वरे''जातिश्च' इति च नानुवत्ततेप्रयोजनत्वात्, पवदित्येव विपरीतनियम एवं कूतो नाश्रीयते, तथा सति केवलं परतः स्त्रीत्येवानवर्तते । यद्यपीह वृत्तौ तद्धिते एय |
मलिततया निधप्रकरण एवप्रत्यये' इत्युक्तम्, तथा च तद्धितांशमात्र पूर्वसूत्रादनुवृत्तमिति
अनेये" इति, अथवाऽत्रैव "आग्नेयः" इति निपात्यताम्, तच्च 48 प्रतीयते, तथापि तदव्यावर्तकत्वादनावश्यकमिति स्वभाव-निपातनं नियमार्थ भविष्यति, एये एवाग्नायीशब्दस्य पुवत्वं सिद्धत्वेनैव निर्दिष्टम्, एयप्रत्ययस्य तद्धितेष्वेव पाठात्, तत्र
नान्यत्रेति, तदुभयमकृत्वा "एयेऽग्नायी" इति करणेन विप10 तद्धिते' इति विशेषणस्याकिञ्चित्करत्वात् । अग्नाय्ये
रीतनियमाभावविज्ञानात्, तेन-अग्नाय्य हितमित्यर्थे ईये वेति--एवकारोऽन्यस्याः परतः स्त्रिया एये-पुंवत्त्वव्यावत
'जातिश्च०" [३. २. ५१.] इति पुंवद्भावे-अग्नीय इति नार्थः तल्लाभोपायश्चाने वक्ष्यते । अग्नेः स्त्रीत्यर्थे धवयोगे
रूपं भवति, अन्यथा ( विपरीतनियमाश्रयणे) अग्नायीय 50 "पूतऋतु-वृषाकप्यग्नि-कुसित-कुसीदाद च" [२० ४० ६०] |
| इति स्यात्, अत आचार्येण विपरीतनियमो न स्वीकृतः । इति डीः, अन्तस्यैः, आयादेशे चाम्नायीति रूपम, तस्या
।। ३.२.५२ ॥ 15 अपत्यमित्यर्थे "कल्यग्नेरेयण" [६.१.१७.7 इत्येयणि,
अनेन पुबद्भावे आदिवृद्धौ च--आग्नेयः इति रूपम् ।। एवं देवतार्थेऽपि स एव प्रत्यय इत्याह--अग्नायी देवताऽ- नाऽप्-प्रियादौ । ३. २. ५३ ॥ स्येति अस्य-स्थालीपाकस्य, गव्यदुग्धेनौदनं स्थाल्या पच्यते.
त०प्र०-पूरण्यपप्रत्ययान्ते स्येकार्थे उत्तरपदे प्रियादौ तद्विधानं गह्यसूत्रादौ विस्तरशः प्रतिपादितम्, सच स्थाल्या-च परे परतः स्त्री बन्न भवति । अप-कल्याणी पञ्चमी 55 20 पाको देवताविशेषमुद्दिश्याग्नौ हूयते, तत्र योऽग्नायीमु
नायामु । आस-कल्याणीपञ्चमा रात्रयः, एवं-कल्याणीदशमाः द्दिश्य दीयते [हूयते ] असौ--'आग्नेयः' इत्युच्यते ।
'पूरण्यबन्तस्य ग्रहणादिह' पुवद्भावो भवत्येव-बह्वय ऋचो यद्यपि आग्नेयीशब्दः स्वत एव स्त्रीलिङ्गो न तु विशेष्यव
यस्य स-बहचश्चरणः । प्रियादि-कल्याणी प्रिया अस्यशात, तथापि धवयोगनिमित्तत्वादस्य परतः स्त्रीत्वमक्षतमेव, ।
कल्याणीप्रियः, एवं-भव्याप्रियः भव्यामनोज्ञः, प्रियाकल्यापरत: स्त्रीत्यस्य विशेष्यवशादित्युपलक्षणमात्र नियतस्त्री
गोकः, प्रियासुभगः, कल्याणीदुर्भगः, कल्याणीस्वः, प्रिया- 60 कर लिङ्गशब्दव्यावर्तनाय, यद्यप्यग्नायीशब्दोऽपि नियतस्त्रीलिङ्ग क्षान्तः, दर्शनीयाकान्तः, प्रियावामनः वर्शनीयासमः, प्रियाएव, तस्य पुसि रूपाभावात्, तथापि तस्याग्निशब्दप्रकृतिक
सचिवः, प्रियाचपलः, प्रियाबालः, कल्याणीतनयः, कल्याणीत्वादस्त्येव पुस्यपि रूपमिति न परतः स्त्रीत्वहानिः, अग्नि
दुहितकः, कल्याणीभक्तिः, गिरितनया भक्तिरस्यशब्द एव हि धवयोगरूपनिमित्तवशात् स्त्रियां प्रयुज्यत गिरितनयाभक्तिः।
इत्यग्नित्वारोपेणैव तत्राग्निशब्दप्रयोग इति वैयाकरणानां कथं दृढभक्तिः स्थिरभक्तिः परिपूर्णभक्तिरित्यादि ? 65 को सिद्धान्तात, स्पष्टं चेदं "स्त्रियाः पवत्" [ ६. ३. ३५.] | वढं भक्तिरस्येत्येवमस्त्रीपूर्वपदस्य विवक्षितत्वात् । अप्रिया
इति सूत्रे उद्योते । अग्नाय्येवेति नियमो वृत्ती प्रदर्शितस्तस्य । दाविति किम् ? कल्याणी पञ्चमी अस्मिन्-कल्याणपञ्चकथं लाभ इत्याह-~-पूर्वेण सिद्धे नियमार्थं वचनमिति-- मोकः पक्षः, कल्याणी प्रमाणी येषां ते-कल्याणप्रमाणाः। अग्नायीशब्दस्य पूर्वोक्तदिशा परतः स्त्रीत्वे एयस्य स्वरा-१प्रिया २ मनोज्ञा ३ कल्याणी ४ सुभगा ५ दुर्भगा ६ स्वा
दितद्धितत्वेन "जातिश्च णितद्धितयस्वरे" [३, २. ५१.]। ७क्षान्ता ८ कान्ता ९ वामना १० समा ११ सचिवा 70 २इति सूत्रणव पुंवद्धावः सिद्ध एवेति सिद्धे सत्यारभ्यमाणो | १२ चपला १३ बाला १४ तनया १५ दुहित १६ भक्ति
विधिनियमार्थ:- इत्यानाय्येव एये पंवद भवति नान्य इति | इति प्रियादिः । वामेत्यप्यन्ये-प्रियावामः॥५३॥
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[पाद-२, सूत्र-५३]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
श० म० न्यासानुसन्धानम्-नाऽपि० । 'न निषेधे “गोश्चान्ते०" [ २. ४. ९६. ] इति ह्रस्वेअप्-प्रियादौ' इति च्छेदो व्याख्यानात्, 'अप्' इति प्रत्ययो - कल्याणीप्रियः इति । एवं-भव्याप्रियः इत्यादावपि । गृह्यते * प्रत्ययाऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैद हमाम् इति . बोध्यम् । अत्र गणे [ प्रियादौ ] क्षान्ताकान्ताशब्दावपि न्यायाद् व्याख्यानाच्च, अत्र अपूप्रत्ययो यद्यपि चतुरादि- पठयेते, तयोश्च द्विधा सिद्धि:-क्षाम्यतीति क्षान्ता. शब्दान्ताद् बहुव्री हेरपि भवति तथापीह स्त्रीवाचकसमाना- । कमते कामयते वेति कान्तेति कर्तरि क्तप्रत्यये, क्षान्तिधिकरण एवाप्प्रत्ययान्तो ग्रहीतव्यः, तस्मिन् परे एव रस्या अस्तीति शान्ता, कान्तिरस्या अस्तीति कान्तेति पुंवद्भावप्राप्तेरिति, तादृशश्चाप्प्रत्ययान्तः शब्दः पूरणप्रत्य- चाऽभ्रादित्वान्मत्वर्थीयेऽच् प्रत्यये, तत्र पूर्वत्र पक्षे बहुव्रीही 45 यान्त: स्त्रीलिङ्गशब्द एव, तस्मादेव "पूरणीभ्यस्तत्प्रा- । क्तान्तस्य "क्तः"[३. १. १५१ 1 इति नित्यं प्राक प्रयोगः
धान्येऽप्" ] ७. ३. १३०.] इत्यप्-विधानात्, अत आह-- ' स्यादिति परं पक्षमेवाद्रियन्ते । गिरितनया भक्तिरस्येति10 परण्यप्प्रत्ययान्ते इति-यद्यपि ऋक्शब्दोऽपि परत: । अत्र भवितरिति कर्मणि वितः, यद्यपि प्रायोभावे वितवि
स्त्रीसमानाधिकरणः सम्भवति तस्य स्त्रीलिङ्गत्वात् “नञ् | धीयते तथापि बाहुलकात् कर्मणि प्रवृत्तिः, अथवा "भावाऽबहोचो माणव-चरणे" [७. ३. १३५.] इत्यप्प्रत्य ! कत्रोंः” इत्यधिकारे तस्य सत्त्वेन कर्मण्यप्याञ्जस्येनैव 50 यान्तत्वाच्च, तस्यापि ग्रहणं सम्भवति, तथापि अपप्रकरण : प्रवत्तिः। बहष भक्तिशब्दे परेऽपि पवत्त्वमपलभ्यते । तत
प्रथमोपात्तत्वात् पूरण्यप्प्रत्ययान्त एव गृह्यते । लघुन्या- । कथमिति शङ्कते--कथं दृढभक्तिरित्यादि । समाधत्ते15 सकारश्च पूरण्यप्प्रत्ययान्तस्य ग्रहणे युक्तिद्वयमुक्तम्- दृढं भक्तिरस्येति, अयमाशयः-..नात्र दढशब्दो भक्तेवि
प्रियादिसाहचर्यात् स्वरान्तस्यैव अप्प्रत्ययान्तस्यग्रहणं शेषणमपि तु भजधात्वर्थक्रियाविशेषणम्, क्रियाविशेषणानां तादक पूरण्येव, यद्वा यत्रापशब्दतो निर्दिष्ट: स एवं गृह्यते, । च क्लीबत्वं सकलतान्त्रिकसम्प्रदायरवीकृतम्, एवं चेह दढा- 55 यत्र चाधिकारानुमितस्तस्य ने ग्रहणं* श्रुताऽनुमितयोः ! दिशब्दा अदाढर्यादिनिवृत्तिपरा न तु भक्तेविशेषणम्, यत्र
श्रुतस्यैव ग्रहणम् इति न्यायादिति । सर्वमेतन्मनसिकृत्य- हि उत्तरपदेन सह सामानाधिकरण्यं विवक्षितं तत्रैव समान20 वोक्तं- पूरण्यप्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे इति । क्रमश उदाहरति : लिङ्गत्वस्यावश्यकत्वात्, एवं चेह पूर्वपदे स्वाभाविकमेवास्त्रीत्वं
अप-कल्याणी पञ्चमी प्रासामिति-अत्र येव पञ्चमी न तु पुंवद्भावकृतमिति । पद कृत्यमाह-अपू-प्रियादाविति तज्जातीयाया एवं रावेरन्यपदार्थत्वात् प्राधान्यमिति : किमिति--पूरप्यपप्रत्ययान्ते प्रियादौ च वद्भावः कुतो 60 समासोत्तरं "पूरणीभ्यस्तत्प्राधान्येऽप्" [७. ३. १३०.] : निषिध्यत इति प्रश्नः, तथा च सूत्रमेवेदं न कार्यमुत्तरसूत्र एव
इत्यप्प्रत्यये अवर्णवर्णस्य" [ ७. ४. ६८.] इतीकारलुकि । नकारो निषेधार्थः पठनीय इत्यायाति । अप्प्रत्ययान्तभि25 स्त्रीत्वादापि-पञ्चमा इति, अत्र "परतः स्त्रीपुंवत्" नायां पूरण्यां प्रियादिभिन्ने च समानाधिकरणे पुंवत्वमिष्टं
[३. २. ४९.] इति पुंवद्भावः प्राप्तोऽनेन निषिध्यते । यथा कल्याणी पञ्चमी [रात्रिः ] अस्मिन् पक्षे इत्यर्थे प्रकृतं प्रकारमन्यत्रापि निर्दिशति-एवं-कल्याणीदशमाः समासे "ऋन्नित्यदितः" ७. ३.१७१.) इ इति- कल्याणी दशमी यासां रात्रीणां ता इत्यर्थः।।
कल्याणपञ्चमीकः इति, अत्र पूरण्याः प्राधान्याभावात् अबित्यस्य पूरप्यबन्तपरत्वेन व्याख्यानस्य फलमारूपाति- अप्प्रत्ययो न भवतीति पुंवद्भावो भवति ; एवं-- कल्याणी 30 पूरण्यबन्तस्य ग्रहणादिति-यतः पूरणीसम्बन्धोऽप्-मानिसमा प्रत्ययो विवक्षितस्तत इति भावः । बह्वचश्चरण: इति
इति डे ईकारलुकि---कल्याणीप्रमाणाः इति, इहापि चरणशब्दः शाखावाची, अत्र "नअ-बहोचो माणव- पूर्वस्त्रेण वद्भावो भवति; एवं कल्याणीपञ्चमा रात्रयः, 70 चरणे" [ ३. ३.१३५.] इत्यप्प्रत्ययः तथा च सत्यप्यप्- 'कल्याणीप्रियः' इत्यादावपि स्यादिति “अप्प्रियादी" इत्या
प्रत्ययान्ते उत्तरपदे नात्र प्रकृतस्त्रेण पंवद्भावनिषेध इति ! वश्यकमित्यव्याप्तिवारणार्थमेव सूत्रं न त्वतिव्याप्तिवारणा-: 35 "परत: स्त्री०" [ ३. २. ५१] इति पुंवद्भावो भवत्येव, ! र्थमिति प्रत्युदाहरणेन विपरीतलक्षणयोदाहरणासिद्धिरेवा
अपप्रत्ययान्तस्वप्रयुक्तो निषेधो न भवतीति भावः । अप- ! चायः कथयितुमिष्टेति प्रतीयते । अन्यथा "अप्रियादी प्रत्ययान्ते उदाहृत्य प्रियादौ निषेधमुदाहर्तुमाह-प्रियादि- स्याभावे केवलं नेत्येतावतः सूत्रस्यागमकत्वेन कथंचिद् गम- 75 कल्याणी प्रिया अस्येति-अत्र समासे पंवत्त्वे प्राप्तेऽनेन । कत्वेऽप्यग्रिमवद्भावनिषेधप्रकरणस्य च वैयर्सेन च शङ्का
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५८
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बृहद्वृत्ति बृहन्न्याससंवलिते
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समाधी निरालम्बनौ स्याताम् । प्रियादिगणं पठति प्रिया मनोज्ञेत्यादिना, तत्र वामाशब्दोऽपि कैश्चिदिष्यते, तदाहवामेत्यप्यन्ये इति, तथा च तेषां मते- प्रियावामः इत्येव रूपम् ॥ ३.२.५३ ॥
5 तद्धिताकोपान्त्यपूरण्याख्याः । ३. २. ५४ ॥
!
त० प्र०-तद्धितप्रत्ययस्याकप्रत्ययस्य च यः कः स उपा या तस्तद्धिताकोपान्त्याः, पूरणीप्रत्ययान्ताः आस्था: - संज्ञास्तद्रूपाश्च ; परत: स्त्रियः पुंवन्न भवन्ति । तद्धित-मद्रिकाभार्यः, वृजिकाभार्यः, लाक्षिकीभार्यः, लाक्षि10 कोबृहतिः, लाक्षिकीवेश्या, शैचनिकोचरी, मत्रिकायते, वृजिकामानिनी | अक- कारिकाभार्यः, हारिकाभार्यः, विलेपिकाया धर्म्यं - वैलेपिकम् आनुलेपिकम्, कारिकाकल्पा, पाचिकारूपा, कारिकायते, पाचिकामा निनी। पूरणी-द्वितीयाभार्यः, पञ्चमीभार्यः, द्वितीयाकल्पा, पञ्चमीदेश्या, पञ्च15 मोयते, षष्ठी मानिनी । आख्या -दत्ताभार्थः, गुप्ताभार्यः, दत्तारूपा, गुप्तापाशा, गुप्तामानिनी । कस्य तद्धिताकविशेवणं किम् ? पाकभार्यः, मूकभार्यः, जल्पाकभार्यः, कामुककल्पा, जागरूकरूपा, लुण्टा कायते, कुट्टाकायते, कुट्टा. कमानिनी ॥ ५४ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - तद्धिता । तद्धिताककोपान्त्यशब्दोऽनेकधा व्याख्यातुं शक्यत इति का व्याख्या स्वाभिमतेति प्रदर्शनाय तं पदशो व्याख्याति तद्वितप्रत्ययस्याकप्रत्ययस्य च यः कः इत्यादिना तथा चेहेदृशः समासोऽभिप्रेतः- तद्धितश्चाकश्च तद्धिता की, तयोः कः-25 तद्धिताः, स उपान्त्यो येषां ते-तद्धिताककोपान्त्याः
।
[ पाद-२, सूत्र- ५४ ]
।
+
। इति शैषिककप्रत्ययान्तः परतः स्त्रीलिङ्गः, सा भार्या यस्ये 35 त्यर्थे बहुव्रीहिः, "परतः स्त्र्येकार्थे० " [ ३.२.४९. ] इति पुंवत्वं प्राप्तमनेन प्रतिषिध्यते; एवं वृजिका शब्दोऽपि शैषिककप्रत्ययान्त एव, मद्र-वृजिशब्दयोर्देशवाचकत्वात् । लाक्षया रक्ता-लाक्षिकी, “लाक्षा- रोचनादिकण्” [ ६. २. २.] | इतीकणि सिद्ध्यति, लाक्षा पण्यमस्य इत्यर्थेऽपि लाक्षिकीति 40 रूपम्, लाक्षिकीभार्यः इत्यत्र पण्यार्था लाक्षिकीति, arratoतिः इत्यत्र रक्तार्थी सा, बृहतिका - प्रावर णम्, लाक्षिकी भार्या यस्थ, लाक्षिकी बृहतिका यस्येति विग्रहः । लाक्षिकीदेश्येत्यत्र ईषदसमाप्ता लाक्षिकीति विग्रहे "अतभबादेरषदसमाप्ते कल्प देशीय" [ ७. ३. ११.] इति 45 देश्यप् प्रत्ययः, तत्र परत: "क्यङ-मानि- पित्तद्धिते' [ ३.२. ५०] इति पुंवत्वं प्राप्तमनेन निषिध्यते, सामान्यतः सर्वस्यापि पूर्व प्राप्तपुंवद्भावस्य निषेधकत्वात् । मद्रिकायते पूर्वोक्तान्मद्रिकाशब्दादाचारार्थे क्यङ, अत्रापि "क्यड-मानि-पित्तद्धिते” [ ७. ३. ५०. ] इत्यस्यैव प्राप्तिः अत्र पुंवत्वे इकारो 50 न श्रूयत । वृजिकामानिनी, अत्र वृजिकामात्मानं मन्यते इति विग्रहे " परत: स्त्री" [ ७. ३. ४९. ] इति वृजिकामन्यां काञ्चिन्मन्यत इत्यर्थे च "क्यङमानि० " [ ७. ३.५०. ] इति च पुंवत्वं प्राप्तं प्रतिषिध्यते, अथवोभयत्रापि "क्यमानिo" इत्यनेनैव विशेषविहितत्वात् प्राप्तं पुंवत्वमनेन 55 प्रतिषिध्यते । एवं तद्धितकोपान्त्यमुदाहृत्याककोपान्त्यमुदाहर्तुमाह- क - इति । कारिकाभार्यः इति -- करोतीति कारिका, करोतेः कर्तरि अकः, स्त्रीत्वादाप, इत्त्वे-कारिकेति, सा भार्या यस्येति विग्रहः, अत्र ककारोऽकप्रत्ययावयव एव कारिकाशब्दस्योपान्त्यः परतः स्त्रीपुंवद्भावस्य प्राप्तिरनेन 60 ध् । विलेपिकानुलेपिकाशब्दावप्यकप्रत्ययान्तस्य स्त्रियां रूपे, तयोर्धर्म्यमित्यर्थे “ऋन्नरादेरण्" [६. १.५१.] इत्यण, आद्यस्वरवृद्धिः, "जातिश्च णितद्धितयस्वरे” [ ३. २.५१] इति पुंवद्भावः प्राप्तोऽनेन निषिध्यते, तत्फलं चेकारश्रवणम् । कारिकाकल्पेत्यत्र ईषदुना कारिके- 65 त्यर्थे "अतमबादे० " [७. ३. ११] इति कल्पप् “क्यङ्-मानिपित्तद्धिते [ ३. २. ५० ] इति पुंवद्भावः प्राप्तो निषिध्यते; एवं- पाचिकारूपेत्यत्रापि । कारिकायते इत्यत्र कारिवाचरतीत्यर्थे क्यङ, शेषं पूर्ववत् । पाचिकामानिनीत्यत्रोभयथा विग्रहः पाचिकामन्यां मन्यते इति, आत्मानं पाचिकां 70 मन्यते इति च । पूरणीमुदाहरति द्वितीयाभार्यः इत्यादिना, द्वयोः पूरणी - द्वितीया " द्वेस्तीयः " [ ७. १. १६५.] इति
|
।
तादृशाश्च पूरण्यरच आख्याश्च शब्दास्तद्धिताककोपान्त्य पूरण्याख्या इति; वृत्ती यासामिति प्रदर्शनं परतः स्त्रीणामपेक्षया, परं तु तथा सति सामानाधिकरण्याभावेनेह पुंवत्त्वं न स्यादिति “तद्धिताककोपान्त्या पुरण्याख्या:ः" इति सूत्रस्व30 रूपं स्यात्, तथा च किं सूत्रपाठ एव ह्रस्वपाठः, लेखकप्रमादकृतो वा, वृत्तिस्थं विग्रहवाक्यमार्थिकान्वयापेक्षया, न तु सूत्रस्थ पदसाधुत्वप्रयोजकविग्रहप्रदर्शनार्थमिति स्वीकरणीयम् । क्रमश उदाहरति-तद्वित इति । मद्रिका भार्यः इति -मद्रिकाशब्दः "वृजिमद्राद् देशात् क:" [ ६. ३. ३८.
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[ पाद-२, सूत्र- ५४०५५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
५९
।। ३.२.५४ ।।
तद्धितः स्वरवृद्धि हेतुर रक्त विकारे । ३.२.५५ ॥
।
।
तीयः, द्वितीया भार्या यस्यति बहुव्रीहिः परतः स्त्रीति । कोपान्त्य इति न भवति - प्रतिषेषः, तदर्थमुक्तविशेषणमा - पुंवद्भावप्राप्तिः अनेन पूरणीस्त्रीत्वनिमित्तको निषेधः । वश्यकम्, तत एषु ' पाकभार्यः, मूकभार्यः, जल्पाकभार्यः' 40 पञ्चमीभार्यः पञ्चानां पूरणी- पञ्चमी, सा भार्या यस्य इत्येतेषु परतः स्त्री” [३. २. ४९ ] इति, अन्येषु "क्यडपञ्चशब्दात् "नो मट्” [ ७. १. १५९ ] इति मद् मानि पित्तद्धिते [ ३. २. ५० ] इति पुंवत्त्वं भवत्येवेति 5 टित्त्वान्डी : - पञ्चमी, भार्यया सह बहुव्रीही पुंवद्भावः पूर्ववत् प्राप्तो निषिध्यते । द्वितीयाकल्पा पञ्चमीदेश्येत्यनयोरीषदसमाप्तौ कल्पप्देश्यपौ, पित्तद्धित निमित्ता प्राप्तिः पूरणीत्वेन प्रतिषेधः । पञ्चमीयते इत्यत्राचारे क्यङ्, तन्त्रिमित्ता पुंवद्भावप्राप्तिः । षष्ठी मानिनीति-षण्णां पूरणीत० प्र०- स्वरस्थानाया वृद्धेर्यो हेतुस्तद्धितो रक्ताद् 45 10 षष्ठी “पट्-कति कतिपयात् थट्” [ ७. १. १६१. ] इति विकाराच्चान्यत्रार्थे विहितस्तदन्तः परतः स्त्री लिङ्गः पुंवल थट्, टित्त्वान्ङीः, मानिनिमित्ता प्राप्तिः पूरणीत्वेन निषेधः भवति । माथुरीभार्यः, सौग्ध्नीभार्यः वैदिशीभार्यः, वैदर्भीभार्यः, आख्यामुदाहरति-दत्ताभार्यः, गुप्ताभार्यः इति - ददातीति सीतंगमीभार्यः. कार्तवीर्यभार्यः, मायुरीदेश्या, नादेयीचरी, दत्ता, गोपायतीति गुप्ता, कर्तरि क्तः, अथवा दीयते स्म - ! सीतंगमीयते, वदर्भीमानिनी, लौग्ध्नीमानिनी । तद्धित इति दत्ता, गोपायति स्म - गुप्तेति, अत्र यद्यप्येतौ स्त्रीविशेषरूढा । किम् ? कुम्भकारी भार्या अस्य स - कुम्भकारभार्यः, एवं - 50 15 विति स्वत एव स्त्रीलिङ्गो, न तु विशेष्यवशात् । तथापि काण्डलावभार्यः । वृद्धिहेतुरिति किम् ? अर्धप्रस्थे भवादानक्रियानिमित्त दत्तशब्दः, गोपायनक्रियानिमित्तो गुप्त- अर्धप्रस्था, अर्धप्रस्था भार्या यस्य सः --अर्धप्रस्थ भार्यः, शोभशब्दश्च न स्वतः स्त्रीलिङ्गोऽपि तु विशेष्यवशादेवेति तयोः नतरभार्यः, मध्यमभार्यः । स्वरेति किम् ? वैयाकरणपरतः स्त्रीत्वमक्षतमिति “परतः स्त्री० [ ३.२.५९ ] भार्यः । अन्ये तु वृद्धिमात्र हेतोणितस्तद्धितस्य पुंवत्प्रतिषेधइति पुंवत्त्वं प्राप्तमेवनेन निषिध्यते । दत्तारूपा गुप्तापाशे मिच्छन्ति, तन्मते - वैयाकरणीभार्यः । अरक्तविकारे इति 55 20 त्यनयोः पित्तद्धित निमित्ता प्राप्तिः, गुप्तामानिनीत्यत्र मा- किम् ? कषायेण रक्ता--काषायी, सा बृहतिकाऽस्य - काषायनिनिमित्ता, अत्र वयङि पुंवत्वे तदभावे च न रूपे विशेष इति बृहतिकः, एवं - माजिष्ठ बृहतिकः ; लोहस्य विकारो लौही, न तदुदाहृतम् । पदकृत्यमाह-कस्य तद्विताक विशेषणं सा ईषास्य-लौहेषः ; एवं खादिरेषः ॥ ५५ ॥ किमिति - तद्धित प्रत्ययस्याकप्रत्ययस्य चेति कस्य कुतो विशेषणमिति प्रश्नार्थः । अन्यविधकोपान्त्यस्य पुंवद्भावो 25 भवत्येव, स न स्यादित्याह - पाकभार्यः, मूकभार्यः इत्यादिना, पाकशब्दः प्रथमवयोवाची, तस्य चाजादिगणे पाठ- | वृद्धिहेतुरिति तद्वितविशेषणम्, "वृद्धिरादेदौत्” [३.३.१.] 60 सामर्थ्यादा इति कैयटः, मूकशब्दश्च वाग्विहीनवाची, इति सूत्रेणाददीतां वृद्धिसंज्ञा विधीयते, ते च प्राय: स्वरएतयोः को न तद्धितसम्बन्धी, किन्तु प्रथमे पच्धातोरेव चस्य कः, द्वितीये च बन्धार्थान्मूधातोः कक् औणादिक इति सोऽपि 30 न तद्धितसम्बन्धी न वा अकसम्बन्धीति नात्र निषेधो भवति । afare इति विशेषणाभावे च स्यादेवेति तद्ग्रहणमावश्यकमिति भाव:, एवं जल्पाकोदिशब्दाः कृदन्ताः, तत्र जल्पाकः"वृङ्-भिक्षि- लुण्टि-जल्पि- कुट्टाट्टाक:" [ ५.२.७०. इति सूत्रेण व्युत्पादितः, कामुकशव्दश्च "शकम् गम्०" [५. २. 35 ४०.] इति सूत्रेणोकण प्रत्ययान्तः, जागरूक शब्दश्च "जागुः " [ ५. २.४८ ] इति सूत्रेणोकप्रत्ययान्तः लुण्टाकः "वृङ् भिक्षि०" [ ५.२, ७०] इति टाकप्रत्ययान्तः, कुट्टाकोऽपि तादृश एवेति न कोऽपि द्धितीयकोपान्त्यो न वाकप्रत्ययीय
श० म० न्यासानुसन्धानम्- तद्धितः । स्वर
|
स्यंव स्थाने भवन्ति, क्वचिदनादेशरूपा अध्येत इति तेषां व्यावृत्त्यर्थं स्वरग्रहणम्, तत्र स्वरवृद्धिहेतुरिति पदं व्याचष्टेस्वरस्थानाया वृद्धेर्यो हेतुरिति स्वरस्थानाया इति कथनेन आदेशभित्राया एव व्यावृत्तिः, व्यञ्जनस्थानायास्तस्या 65 अभावात् । 'अरक्तविकारे' इत्यपि तद्धित इत्यस्यैव विशेषणम्, तदाह- रक्ताद् विकाराच्चान्यत्रार्थे इति-"रागाट्टो रखते” [ ६.२.१.] इत्यधिकृत्य रखतार्थे विहितस्तद्धितः "विकारे" [ ६. २.३० ] इत्यधिकृत्य च विकारार्थे विहितः सः, तदन्यार्थे विहित इत्यर्थः । तद्धि 70 तश्च प्रत्यय इति प्रत्ययग्रहणे तदन्तस्य ग्रहणादाहतदन्तः परतः स्त्रीलिङ्गः इति, शब्द इति विशेष्यमध्या
।
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते [पाद-२, सूत्र.-५५ हार्यम्, तेन "विशेषणमन्तः” [७. ४. ११३.] इति परि- पुंवद्भावो विधीयतामिति प्रश्नाशयः । यत्र वृद्धिर्न भवति भाषया वा तदन्तग्रहणम् - न पुंवदिति च प्रकरणलब्धमेव । तादृशतद्धितान्तस्यापि पुंवद्भावनिषेधः स्यात्, तदाह- 40 तथा च सुत्रार्थः सम्पन्नः। मथुरायां भवा-स्त्री, माथुरी, । अर्धप्रस्थे भवा-अर्थप्रस्थेति-अत्र भवाथेऽण, तस्मिन् परतो
सा भार्या यस्याऽसौ-माधुरीभार्यः भवार्थऽणि मथुरा-वृद्धिर्न भवति, "अर्थात् परिमाणस्यानतो वा त्वादेः" 5 शब्दस्यादेः स्वरस्य स्थाने वृद्धिर्भवतीति स्वरस्थानीयाया | [ ७. ४. २०. ] इत्यर्थात्परस्य परिमाणार्थस्य प्रस्थशब्दस्य
बर्तहेतुस्तद्धितप्रत्ययः, तदन्तः परत: स्त्रीलिङ्गः शब्दो' स्वरेष्वादेरतो बद्धेवर्जनात, आदेश्च विकल्पेन विधानादमाथुरीशब्दः, तस्य परतः स्त्री०" [ ३. २. ४९. ] इति | भावपक्षेऽस्य रूपस्य सत्त्वात्, अत्र च प्रकृतसूत्राप्रवृत्तेर्न 45 पुंवद्भावः प्राप्तोऽनेन निषिध्यते । विदिशा नाम नगरी, | पुंवद्भावनिषेधः, वृद्धिहेतुरित्यस्याभावे चेहापि स्यादेव
तस्यां भवा वैदिशी, सा भार्या यस्येति- वैदिशीमायः। निषेधः । न च मा भूदिह वृद्धिः, तथापि तद्धितस्य वृद्धि10 विदर्भो जनपदः, तत्र भवा वैदर्भी, विदर्भाणां राजाऽपि | हेतुत्वमस्त्येव पर्युदासाभावे, आदेश्च वृद्धिपक्षेत्रापि वृद्धेः
विदर्भः, तस्यापत्यं स्त्री वा वैदर्भी ! सुतङ्गमो नाम ऋषिः, | संभवादिति वाच्यम, यतो हेतृत्वं द्विधा-स्वरूपयोग्यत्वं तस्यापत्यं स्त्री-सौतङ्गमी, सा भार्या यस्याऽसौ-सौतङ्ग- | फलोपहितत्वं च, तह सत्रे फलोपहितहेतृत्वस्य ग्रहणादिह 5U मीभार्यः। कृतवीर्यस्यापर्त्य स्त्री-कार्तवीर्यो । प्रथमसूत्र- ' च वृद्धिरूपकलस्यासत्त्वात् । शोभनतरभायः इति-अत्र
प्राप्तबद्भावनिषेधमुदाहृत्य पुंव-भावमात्रस्य सर्वस्य । शोभनतरा भार्या यस्येति विग्रहः, तत्र शोभनतराशब्द15 पूर्वोक्तपुंवद्भावस्य ] अयं निषेध इति बोधयितुमुदा- स्तद्धितप्रत्ययान्तोऽस्ति, किन्त्वसौ तद्धितो न वृद्धि प्रति
हरणान्तराण्यप्याह- माथुरीदेश्य यादि, ईषदसमाप्ता : स्वरूपयोग्योऽपि हेतुः, किमुत फलोपहित इति न भवति माथुरीत्यर्थे देश्यप् । नादेयीचरीनि- नद्या भवा-नादेयो, ' पुंवद्भावनिषेधः, वृद्धिहेतुरित्यस्याभावे चेहापि स्यादेव 55 नादेयी भूतपूर्वा-नादेयीचरी, "नद्यादेरेयण्" [६. ३. २.] | निषेधः। वृद्धौ स्वरेति विशेषणेन च वैयाकरणमार्यः इत्यादी
इत्येयणि यां-नादेयीशब्दसिद्धिः, तस्माद् “भूतपूर्वे निषेधो न भवति, तत्र हि "वः पदान्तात् प्रागदौत" 20 पचरट" | ७. २.७८] इति चरट, टित्त्वान्डयां-नादेयी- [७. ४. ५1 इत्यत भवति, व्याकरणमधीते वेत्ति वा या
चरीति, अत्र पित्तद्धितनिमित्तावद्भावप्राप्तिरनेन निषि- स्त्री सा-वैयाकरणी "तद्वेत्त्यवीते" [६.२.११६.१ ध्यते । सौतङ्गमीयते अत्र सौतङ्गमीवाचरतीत्यर्थे क्यङ, | इत्यण, आदिस्वरस्य बृद्धि वाधित्वा ऐद् भवति, अत्र ऐद् 60 तन्निमित्तः पुंवद्भावः प्राप्तोऽनेन निषिध्यते । 'वैदर्भीमा- | यद्यपि वृद्धिस्तथापि न स्वरस्थानीया वृद्धिरिति तस्य तद्धिनिनी, सोध्नीमानिनी' इत्यनयोर्मानिनि परतः पुबद्भाव- | तस्य प्रकृतसूत्रे ग्रहणाभावात् पुवद्भावस्य प्रतिषेवाभावे प्राप्ति: । सर्वत्रैषु तद्धितः स्वरवद्धिहेतु रक्तविकरार्थश्च ।
सति तस्मिन् वैयाकरणभार्य इति रूपं स्वमते भवति, पदकृत्यमाह-तद्धित इति किमिति-स्वरवृद्धिहेतुत्वस्य स्वरेत्यस्याभावे च पुवद्भावनिषेधात्-वैयाकरणीभार्य तद्धितप्रत्ययेष्वेव प्रायो दर्दनात् तद्धित एव ग्रहीष्यत इत्य- | इति स्यात्, तच्चान्यमतसंमतमित्याह-अन्ये तु वृद्धि- 65 भिमानात् प्रश्नः । न केवलं तद्धित एव स्वरवृद्धिहेतु:
मात्रतोरिति, अयमाशय:-ये वृद्धो स्वरस्थानीयत्वं प्रत्ययोऽपि तु कृत्प्रत्ययोऽपि तादृश इति स्वरवृद्धिहेतुकृत्प्र- विशेषणं नाददते तेषां मते इहापि ऐदरूपवृद्धः सत्वेन त्ययान्तस्य वद्भावनिषेधो मा भूदिति तद्धितग्रहणमाव- निषेधः स्यादेव; यद्यपि पाणिनीयानां मतेऽपि प्रकृतसूत्रश्यकमित्याह- कुम्भकारी भार्या यस्येति- कुम्भं करोतीति स्थानीये “वृद्धिनिभित्तस्य च तद्धितस्यारक्तविकारे" विग्रहे "कर्मण:." [५.१.७२.] इत्यणन्तात् कुम्भकार. [६. ३. ३८. } इति सूत्रे वृद्धी स्वरस्थानीयत्वरूपं विशे- 70 शब्दात् स्त्रियां डीः, कुम्भकारीशब्दः स्वरवृद्धिहेतुरक्त-षणं न दीयते, तथापि वृद्धेस्तद्धितस्येत्युक्तावपि षष्ठया विकारार्थकभिन्नप्रत्ययान्त इति तस्य भार्याशब्देन बहुव्रीही निमित्तार्थत्वसंभवात् निमित्तपदेन वृद्धिशब्देन फलोपहितपुंवद्धाव: प्रतिषिध्यते । एवं-काण्डं लनातीति-काण्ड- निमित्तत्वं गृह्यत इति व्याख्यानादिह पुंवद्भावो न लावी, सा भार्या यस्येत्यर्थे काण्डलावभाय इत्यत्रापि निषिध्यते, तथा च अन्ये त्विति शब्देन तदन्य एव केचन पंवद्धावः प्रतिषिध्येत, तद्वारणाय तद्धितग्रहणमावश्यकमिति | वैयाकरणा ग्राह्याः । अरक्त-विकारे इति किमिति- 7 भावः । वृद्धिहेतुरिति किमिति-सामान्यनैव, तद्धितान्तस्य | रक्तार्थक-विकारार्थकतद्धितवर्जनं किमर्थमिति प्रश्नाशयः
35 पस
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[पाद-२, सूत्र-५५-५६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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कषायेण 'रक्ता-काषायीतिकषायशब्दात् “रागाट्टो "अविकारोऽद्रवं मूत, प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते । रक्ते" [ ६. २. १.] इत्यणि वृद्धी इयां च-काषायी, च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु ॥" इति 36 साहतिकाऽस्येति-काषायबृहतिकः इति-अत्र काषाय्या: कारिकया तत्रैव सत्र लक्षितमेव गृह्यते, लक्षणव्याख्या च
बृहतिकया समासे सति पुंवद्भावो भवत्येव, प्रकृतसूत्रे : तत्र सूत्रे कृतपूर्वा, तथा चोक्तलक्षणलक्षितात् स्वाङ्गवाच5 रक्तार्थपर्युदासाभावे च न स्यात्; एवं-मजिष्ठया । कात् सपूर्वपदाद् विहितो यो डीस्तदन्तः परतः स्त्रीवाचकः रक्ता बृहतिका-माजिष्ठी, सा यस्य स- माशिष्ठ- । शब्दः पवन भवति मानिनभिन्ने उत्तरपदे; जातिरपि ब्रहतिक इत्यत्रापि पुंवद्भावो भवत्येव । रक्तार्थ प्रत्युदा- । तथेति सूत्रार्थः । दीर्घकशीभार्य इति-दीर्घाः केशा यस्याः ।। हत्य विकारार्थ प्रत्युदाहरति-लोहस्य विकारो-लौहीति, | सा- दीर्घकेशी, सा भार्या यस्येति बहुवी हिंगो बहुव्रीहिः
अत्र "विकारे" [ ६. २. ३०.] इत्यण, ईषा-हलयुग- भार्यारूपे उत्तरपदे पंवत्त्वं प्राप्तमनेन निषिद्धम्, केशस्योक्त10 योर्मध्यस्थितो दण्डः, लौही ईषा यस्य स-लोहेषः, अत्र
लक्षणलक्षितस्वाङ्गत्वेन ततो विहितो कीरिहास्त्येव । पंवदभावो भवति, विकारार्थपर्यदासाभावे च न स्यात्, चन्दमखीमार्यः इति-चन्द्र इव मुखं यस्याः सा-चन्द्रतथा च 'लौहीषः' इति स्यात् । एवं-खदिरस्य विकारः- ! मखी. सा भार्येत्यादि पूर्ववत् । कलकण्ठीदेश्या कल:- 45 खादिरी, सा ईषाऽस्य-खादिरेषः इत्यत्रापि पुंवत्त्वं भव- कलान्वितोऽव्यक्तमधरो वा, कण्ठध्वनिर्यस्याः सा-कलत्येव, तदर्थमरक्तविकारे इत्यावश्यकम् ॥ ३. २. ५५॥ कण्ठी कोकिला, तत्र च जातित्वादेव डोरिति तदिह marrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr wr.! स्वाङ्गात् ङीप्रकरणे नोदाहार्यमिति कलकण्ठी पदमिह यौगि
कमेव स्वीकार्यम्, तथा च कण्ठशब्दस्य स्वाङ्गत्वेन स्वाङ्गा15 स्वाङ्गान्डीर्जातिश्चामानिनि । ३. २. ५६ ॥
" , डोप्रकरणे तदुदाहरणसङ्गतिः, ईषदूना कलकण्ठी कलकण्ठी- 50 त०प्र०-स्वाडाद योविहितोडीस्तदन्तो जातिवाची । देश्या, पित्त्वनिमित्तकः वद्भावः प्राप्तोऽनेन वार्यते । केचित च यः शब्दः परतः स्त्री स वन्न भवति, अमानिनि-मानिन- । त्वेवमाहुः- कलकण्ठीपदस्यह कोकिलापरत्व एव प्रयोगार्थशब्दश्चेत् परो न भवति । दीर्घकेशीभार्यः, चन्द्रमुखीभार्यः । सामञ्जस्यम्, काचिन्नारी कलकण्ठीसाम्येनेह बुबोधयिषि
कलकण्ठीदेश्या, सनगात्रीचरी, चन्द्रमुखीयते । जाति- : तेति प्रयोगस्वारस्यं प्रतीयते, न च कलकण्ठी काचिदन्या 20 कठीभार्यः, बह्ववीभार्यः, कठीदेश्या, बह्वचीचरी शूद्रा- नारी, तया साम्यमिह विवक्षयितुं युज्यत इति जाति- 55 भार्यः, क्षत्रियाभार्यः, शूद्रापाशा, क्षत्रिगादेश्या; प्रकरणे एवेदमुदाहार्य मिति । तनुगात्रीचरीति-तनु-कुशं
गात्रमस्याः सा- तनुगात्री, भूतपूर्वा सा-तनुगात्रीचरी, आकृतिग्रहणा जातिरत्रिलिङ्गा च याग्विता।
। या किल पूर्व कृशशरोराऽऽसीत् सम्प्रति समुपचितदेहा आजन्मनाशमर्थानां सामान्यमपरे विदुः ॥ १॥ जाता सैवमुच्यते, इहापि पिन्निमित्ता प्राप्तिः । चन्द्रमुखी
अत्र प्रथमजाति लक्षणानुसारेण-'कुमारीभार्यः, किशो- | यते चन्द्रमुखीवाचरतीत्यर्थे क्यङ, तन्निमित्तैव पुंवद्भाव- 60 रोभार्य इति भवति, द्वितीयजातिलक्षणानुसारेण-'कुमार- प्राप्तिरनेन प्रतिषिध्यते। जातिस्त्रियमुदाहरति-जातिभार्यः, किशोरभार्य इति भवति, नहि कुमारत्वादि उत्पत्तेः । इत्यादिना । कठीभार्यः कठेन प्रोक्तमधीते या सा प्रभृत्याविनाशमनुवर्तते । स्वाङ्गादिति किम् ? पटुभार्यः। कठो, अत्र प्रोक्तार्थप्रत्ययस्य "कठादिभ्यो वेदे लुप्" डोरिति किम् ? सकेशभार्यः। अमानिनीति किम् ? दीर्घ- ६. ३. १८३.] इति लुप. अध्ययनार्थप्रत्ययस्य च "प्रोक्तात्" केशमानिनी, कठमानिनी। 'असमासनिर्देशः सुखार्थः ॥५६॥ १६. २. १२९.1 इति लप, तथा च वेदशाखावाचित्वात 65
। “गोत्रं च चरणैः सह" इत्युक्तेर्जातित्वमिति “जातेर
यान्त." [२. ४. ५४.] इति डीः, सा भार्या यस्येत्यर्थे 30 श० म० न्यासानुसन्धानम्-स्वाङ्गा०। पुंवत् । बहुव्रीही प्राप्त पुंवत्त्वमनेन निषिध्यते । एवं-बचीभार्यः
नेति प्रकरणप्राप्तम्, तथा चार्थमाह-स्वाङ्गाद् यो विहित ! इत्यत्रापि। कठीदेश्येति-ईषदूना कठी, पित्त्वनिबन्धना इति- ''असह-नम्-विद्यमान." [ २. ४. ३८. ] इति सूत्रेण प्राप्तिः । शूद्राभायः इत्यादी शूद्रादिशब्दाना सकृदाख्यात- 70 विहित इत्यर्थः, तत्र हि न स्वमङ्गं स्वाङ्गमपि तु- निर्णाह्यत्वे सत्यसर्वलिङ्गत्वरूपं जातित्वं बोध्यम् । पूर्व
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बृहवृत्ति-वृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र-५६]
"जातेरयान्त." [ २. ४. ५४.] इति सूत्रबृहद्वृत्ती जाति- द्वितीयत्वं तस्य लक्षणस्य द्वितीयमतानुसारित्वात्। केचित् तु लक्षणवैविध्यमुक्तम्, तथाहि-"तत्र जातिः काचित् संस्थान- आकृतिग्रहणेत्यस्यैवात्रिलिङ्गेति विशेषणमाहुः, तत् तु न व्यङ्गया, यथा-गोत्वादिः । सकृदुपदेशव्यङ्गयत्वे सत्यत्रि- : युक्तम्, तटीत्यादेरजातित्वप्रसङ्गात् । सर्वथा-आकृतिग्रहणेति 40
लिङ्गाऽन्या, यथा-ब्राह्मणत्वादिः। ++++ गोत्रचरण : अत्रिलिङ्गेति च भिन्नमेव लक्षणद्वयम् । आजन्मनाशमर्थाना5 लक्षणा च तृतीया। यदाहुः
। मन्विता, आकृतिग्रहणा च जातिरित्थमपि केचित् सम्बन्धं । "आकृतिग्रहणा जातिलिङ्गानां च न सर्वभाक् । | कुर्वन्ति, तन्मतेऽपि कुमारत्वादेर्न जातित्वम्, कुत इत्याह
सकुदाख्यातनिर्माह्या गोत्रं च चरणैः सह ॥” इति। न हि कुमारत्वादीति, हि-यतः, कुमारत्वादि जातित्वेन सम्प्रति कठीभार्य इत्यादितृतीयजातिलक्षणानुसार- |
ग्रहीतुमिष्टं वस्तु उत्पत्तेः प्रभृति विनाशमभिव्याप्य नानुवर्तत 45 मुदाहृतम्, शूद्राभार्य इत्यादिद्वितीयजातिलक्षणानुसारम्,
इति सम्बन्धः । कुमारशब्दः प्रथमवयोवाची, प्रथमं च वयो
! यौवनात् पूर्वम्, तच्च न वार्धकेऽनवर्त्तते, तथा च न तत्र 10 आकृतिग्रहणाया:-अनुगतसंस्थानव्यङ्गाया जातेः 'तटी'
| पुंवद्भावनिषेध इति कुमारभार्य इत्याद्येव । इत्यादी प्रसिद्धाया उदाहरणमिह नोपन्यस्तम् ।
पदकृत्यमाह-स्वाङ्गादिति किमिति-कीर्जातिश्चामानिकेचिज्जातिलक्षणमपरमाहुः, तदपोह समुपन्यस्यति- !
नीत्येव सूत्रमस्त्विति भावः। उत्तरमाह-पटुभार्यः इति, 50 आकृतिग्रहणा जातिरित्यादिना, तत्र 'आकृतिग्रहणा' इत्यंशः
अयमाशयः- तथा सति सर्वा ङ्यन्ता स्त्री न पुंवत् स्यादिति पर्वत्रापि लक्षणे समान एवेति प्रथमं जातिलक्षणमुभयसंमतम्, ! पटवी भार्या यस्येत्यर्थे गगवचनस्यापि पट्वीशब्दस्य पुंव15 'अत्रिलिङ्गा च' इत्यारभ्य द्वितीयम् तस्य चायमर्थ:--या अत्रि
भावो न स्यादिति । ति किमिति-स्वाङ्गान्डीरेव .. लिङ्गा सती अर्थानां प्रादुर्भाव-विनाशावभिव्याप्य सम्बद्धा | विधीयत तिसीयर
विधीयत इति डीग्रहणमेच्यावतकमिति भावः । उत्तरयतिसा जातिः 'सामान्यमपरे' इति च तृतीयं लक्षणम् । एवं । सकेशभार्यः इति-"असह-न-विद्यमान." [२. ४. ३८.] 55 च “जातेरयान्त ०" इति [ २. ४. ५४. ] सूत्रोक्ते द्वितीय- इति सूत्रे सहपूर्वस्य पर्युदस्तत्वात् ततो डीन भवतीति सकेशा लक्षणे सकृदुपदेशव्ययत्वे सत्यसर्वलिङ्गत्वरूपेऽयं भेदः स च
भार्या यस्येति आबन्तेनैव विग्रहे पंवद्भावो भवत्येव, डीरि20 केवलं स्वरूपे, लक्ष्यं तूभयोरपि ब्राह्मणत्वाद्यव; 'सामान्यम- । त्यस्याभावे च न स्यादिति भावः। अमानिनीति किमिति--
परे विदुः" इति लक्षणेऽपि “आजन्मनाशमर्थानाम्" इति सम्ब- ! अविशेषेण सर्वस्मिन्नत्तरपदे निषेधो विधीयतामित्याशयः ।। ध्यते, तथा चार्थानामुत्पत्तेः प्रभृति विनाशपर्यन्तं सामान्यं । दीर्घकेशमानिनीति स्वभिन्नां कांचिद दीर्घ केशां मन्यत इति 60 जातिरिति, इदमेव च जातिलक्षणमने द्वितीयजातिलक्षणत्वे
विग्रहे “क्यङ-मानि-पित्तद्धिते" [ ३. २. ५० ] इति पुंवनोक्तमाचार्यः । इदं च लक्षणं “जातेरयान्त." इति सूत्रस्थ
द्भावो भवत्येव, मानिनीत्यस्याभावे न स्यादिति भावः । द्वितीय-तृतीयलक्षणयोः संग्राहकम्, तेन कठत्वादीनामपि
। नन्वत्र न मानिनशब्द उत्तरपदमपि तु मानिनीशब्द इति जातित्वं सिध्यति, तत्तच्छाखाध्येतृत्वस्याजन्मनाश सामान्य- 'अमानिनि' इत्यक्तेऽपि नात्र वद्भावो युक्तः प्रकृतनिषेधतयाऽन्वितत्वाभावेऽपि शाखाध्येतृत्वयोग्यताया वंशपरम्परा- प्रवत्तेरव्याहतत्वादिति चेत् ? न * नामग्रहणे लिङ्गविशिष्ट- 65 प्राप्ततया तथाभूतत्वमक्षतम् । तत्रत्यं ["जातेरयान्त०" इति ।
। स्यापि ग्रहणम् इति न्यायेन लिङ्गबोधकप्रत्ययविशिष्टसूत्रस्थं] प्रथम जातिलक्षणं चाप्यत्रत्येनान्तिमलक्षणेन
स्यापि मानिन्शब्दस्य मानिन्ग्रह्णन ग्रहीतुं शक्यत्वात् । 30 वस्तुतो सङगहीतमेव, अनुगतसंस्थानव्यङ्गचत्वमपि तटादिषु ! न चात्र न मानिनशब्दाल्लिङ्गबोधक: प्रत्ययोऽपि तु दीर्घके
आजन्मनाशं तिष्ठत्येव । तथा चानेन नवीनन लक्षणेन को | शमानिनशब्दादेव, यतः कर्मोपपदादेव मन्धातोणिन् प्रत्यय विशेष इति चेदत्राह-अत्र प्रथमजातिलक्षणानुसारमिति- इति समुदायस्यैव स्त्रीप्रत्ययप्रकृतित्वमिति वाच्यम्, यतो 70 आकृतिग्रहणत्वरूप जातित्वं कुमार्यादावप्यस्ति, कौमारस्य यो विहितस्तद्विशिष्टस्यैव तेन ग्रहणमित्येतादृशनियमानङ्गी.
कैशोरस्य वा देहिन आकृतिविशेषेणैव ग्राह्यत्वात्, इति तेन | कारात् । अस्तु वा समुदायादेव' डी:, तथा सति मानिन्शब्द. 35 लक्षणेन कुमार्यादीनामपि जातिस्त्रोत्वं भवतीति तत्रानेन . मात्रस्योत्तरपदत्वमव्याहतमेव, समासात् पूर्व स्त्रीप्रत्ययोत्प- सूत्रेण पुंवत्त्वं निषिध्यते । अपरेषां सम्मते द्वितीयलक्षणे च त्यभावात् । डी-जात्योः सहैव निषेधेन सहान्वयात् सहोवित
न तेषां जातित्वमित्याह-द्वितीयजातिलक्षणानुसारेणेति- । सत्त्वेन समासः कुतो न कृतः सूत्रे इत्याशङ्कायामाह-अस- 75
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[पाद-२, सूत्र-५६-५७]
श्रीसिद्धहमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
मासनिर्देशः सुखार्थः इति-सुखार्थ इत्यस्य सुखेनार्थबोधार्थ : द्भावस्योद्देश्यतया पूर्वत्र प्रतीता परतः स्येवेहाप्युद्देश्यमिति 35 इति भावः, स्वाङ्गङीजात्यमानिनीति कृते नार्थः सुखेन बोर्बु तदनुवृत्तिरपेक्षितैव, एवं निभित्ततयाऽनुवृत्तं 'स्थ्येकार्थे उत्तरव निर्देशः कृत इति यावत ।।३.२.५६.1 पदे इत्यपि सम्बध्यत एव, तदाह-परतः स्त्रीत्यादिना ।
। ननु “परतः स्त्री पुंवत् स्त्र्येकार्थेऽनङ” [३.२.४९.] इति
। सूत्रेणैव कर्मधारयेऽपि पुंवद्भावः सिद्ध एवेति विशिष्यानेन पुंवत् कर्मधारये । ३. २. ५७॥ सूत्रेण पुनः पुंवद्भावविधानमनावश्यकमित्याशङ्कायामाह- 40
प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थ आरम्भः इति-प्रतिषेधस्य "नाप्रियादो" 5 त०प्र०-परतः स्यनङ् कर्मधारय समासे स्श्यकाथ । [३. २. ५३. 1 इत्यादिसूत्रः कृतस्य पंवद्भावनिषेधस्य
उत्तरपदे परे पुंवद् भवति, प्रतिषधनिवृत्त्यर्थ आरम्भः। निवत्तिः-कर्मधारयेप्रवृत्तिरेव अर्थ:-प्रयोजनं यस्य तादृशोऽ"नाप्रियादी" [ ३. २. ५३.] इत्यक्तं तत्रापि भवति
यमारम्भः, एतत्सूत्रेण पुनः पुंवद्भावविधानमिति तदर्थः । कल्याणी चासौ प्रिया च-कल्याणप्रिया, एवं-कल्याण
अयमाशयः-''परतः स्त्री०" [ ३. २. ५९. ] इत्यादिसूत्रैः 45 मनोज्ञा; "तद्धिताककोपान्त्यपूरण्याख्याः" [ ३. २. ५४
प्राप्तः पवभावः "नाप्रियादौ” इत्यारभ्य "स्वाङ्गान्डी" 10 इत्यक्तं तत्रापि भवति-मद्रिका चासौ भार्या च-'मद्रिकभायों, इत्यन्तं चतभिः सत्रः प्रतिषिध्यत इति तत्तत्स्थले कर्मधारयेऽ
लाक्षिकवृहतिका, पाचकवृन्दारिका, कारकवृन्दारिका, : पि तैः प्रतिषेधः स्यात. स कर्मधारये मा भूदपि त्वनेन पूवपञ्चमवृन्दारिका, षष्ठवृन्दारिका, दत्तवृन्दारिका, गुरत- 'दभाव एव भूयादित्येतदर्थ प्रतिषेधनिवर्तकमिदं सूत्रमारभ्यत - वृन्दारिका; "तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुररक्तविकारे" [ ३. २. । इति । तथा च प्रतिषेधप्राप्तिस्थलान्येव प्रकृतसूत्रोदाहरणतया 50
५५.] इत्युक्तं तत्रापि भवति-माथुरी चासौ वृन्दारिका प्रदर्श्यन्ते-- नाप्रियादौ" इत्युक्तं तत्रापि भवतीत्या15 घ-माथुरवृन्दारिका, स्लोग्नवृन्दारिका; "स्वाङ्गाछीर्जाति- दिना, तत्र पूरण्यपप्रत्ययान्ते उत्तरपदे विहितो निषेधो
चामानिनि" [३. २.५६.] इत्युक्तं तत्रापि भवति- बहवीहावेव प्रवर्त्तते तत्रैवाप्प्रत्ययान्तोत्तरपदस्य संभवादिति चन्द्रमुखी चासौ वृन्दारिका च-चन्द्रमुखवृन्दारिका, दीर्घ | तदनदाहरणम् । प्रियादावुदाहरति-कल्याणी चासौ प्रिया । केशवृन्दारिका, कठवृन्दारिका, बह्वचवृन्दारिका; यतः । चेति-अत्र "विशेषणं विशेष्येणेकार्थं कर्मधारयश्च" [३.१. 55
स्थापत्यं-'वातण्ड्यः, स्त्री चेत् वतण्डी, सा चासो वृन्दारिका | ५६.] इति समासः, "परत: स्त्री०" [ ३. २. ४९. ] इति । 20 च,-वातण्डपवृन्दारिका; गर्गस्थापत्यं-गायः, स्त्री चेत
प्राप्तस्य पुवद्भावस्य "नाप्रियादौ" [३. २. ५३.] इति गार्यो, सा चासो वन्दारिकाच-गाग्यं वदारिका; कपोतपाक निषेधे प्राप्तेऽनेन विशिष्य पंवदभावो भवति. एवं कल्याणी एक-कापोतपाक्यः,स्त्री चेत् कपोतपाका, सा चासौ वृन्दारिका चासौ मनोज्ञा-कल्याण-मनोज्ञेत्यत्रापि बोध्यमित्याह-एवंच-कापोतपाक्ष्यवृन्दारिका; कुञ्जस्यापत्यं-कौजायग्यः, कल्याणमनोज्ञेति । एवं-"तद्धिताककोपान्त्यपूरण्याख्याः” 60
स्त्री चेत् कौजायनी, सा चासो वृन्दारिका च-कोजायन्य- ३. २. ५४.] इत्यनेन वद्भावः प्रतिषिध्यतेऽतोऽत्र तद्वि- वृन्दारिका; अङ्गस्यापत्यानि-अङ्गाः, स्त्रियश्चेदाङ्गथः,ताश्च
षयाण्यप्युदाहरणान्युपस्थापयितुमाह-"तद्धिताककोपान्त्यता वन्दारिकाश्च-अङ्गबन्दारिका एवं-गर्गवृन्दारिकाः।
पूरण्याख्या" इत्युक्तमिति, तत्र चतुरोऽपि तदुद्देश्यभूतान् 'इडविड्, पृथ्, दरद्, उशिज-एते जनपदशब्दाः क्षत्रियवा- '
प्रयोगान् क्रमश आह-मद्रिका चासौ भार्या चेति, इदं चिनः,एभ्योऽपत्यप्रत्ययस्य स्त्रियां लुपि-इडविट चासो वृन्दा
तद्धितप्रत्ययसम्बन्धिकोपान्त्यस्योदाहरणम्, पूर्ववत् कर्मधारय- 65 रिका चेत्यादिविग्रहे-ऐडविडवृन्दारिका, पार्थवृन्दारिका, :
समासः, वद्भाव-तत्प्रतिषेधयोः प्राप्तिरनेन पुंवद्भावश्च 30 दारदवृन्दारिका; औशिजवृन्दारिका इति भवति । परतः ।
बोध्यः । लाक्षिकबृहतिकेति-लाक्षया रक्ता-लाक्षिकी, सा स्त्रीत्यवं-खट्वावृन्दारिका। अनूङित्येव-ब्रह्मबन्धूवृन्दा
चासौ बहतिका चेति विग्रहः. इदमपि तद्धितसम्बन्धिकोपारिका ॥५७ ॥
न्त्यस्यैवोदाहरणम्, अत्र यद्यपि "तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुररक्त
विकारे" [ ३. २. ५५. ] इति सूत्रे 'अरक्तविकारे' इति 70 श०म० न्यासानुसन्धानम्---पुंवत् । पुंवद्भाव- पर्युदासेनापि पुंवद्भावप्रतिषेधः पर्युदस्त इति तेनापि प्रकृतप्रकरणस्य निषेधन व्यवहितत्वादिह पुनः पुंवद्ग्रहणम्, पुंव- प्रयोगसिद्धिः, तथापि * अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र. ५७-५८
वा * इति न्यायेनासौ पर्युदासः स्वरवृद्धिहेतुतद्धितनिमि- ' याम्” [ ७. १. ३१. ] इति स्वार्थे द्रियः, अस्त्रियामितस्य प्रतिषेधस्यैव निवर्तको न तु "तद्धिताककोपान्त्यस्य." । युक्तेः स्त्रियां कपोलपाकैव, कपोतपाका चासो बन्दारिकेति 40 [३. २. ५४.] इत्यनेन प्राप्तस्य प्रतिषेधस्य, तथा : विग्रहे समासेऽनेन पुवद्भावे त्र्यप्रत्ययश्रुती कापोतपाक्य
च तत्प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थमेतत्सूत्रोदाहरणत्वं तस्य युक्तमेव । - वृन्दारिकेति । कुञ्जस्यापत्यमिति विग्रहे "कुजादे यन्यः” 5 पाचकवृन्दारिका, कारकवृन्दारिकेत्येते अकसम्ब [६.१. ४७. ] इति आयन्यप्रत्यये आदिस्वरवृद्धौ---कौञ्जा
न्धिकोपान्त्यस्य प्रतिषेधनिवृत्तेरुदाहरणे, पाचिका चासो यन्यः इति, स्त्रियां तु--"स्त्रीबहुष्वायनम्" [ ६. १. ४८.] "वृन्दारिका कारिका चासो वृन्दारिकेति विग्रहो" ! इत्यायनि-कौञ्जायनीति, तस्याः वद्भाचे स्त्रीत्वनिमि- 45 पञ्चमवृन्दारिका, षष्ठवृन्दारिकेति पूरण्या उदाहरणे, तकस्यायनको निवृत्तो पुस्त्वनिमित्तस्य आयन्यस्य श्रवण
पञ्चमी चासौ वृन्दारिका, षष्ठी चासी वृन्दारिकेति विग्रहो। मिति-कौञ्जायन्यवृन्दारिकेति । अङ्गस्यापत्यानीति-- 10 दत्तवृन्दारिका, गुप्तवृन्दारिकेति आख्योदाहरणे, दत्ता : अङ्गशब्दादप्रत्याथें "पुरुमगधकलिङ्गसूरमसद्विस्वराद ___ चासी वृन्दारिका, गुप्ता चासो वृन्दारिकेति विग्रही, सर्वत्र [६. १. ११६. ] इत्यणि तस्य "बहुष्वस्त्रियाम्" समासादिः पूर्ववत्, वृन्दारकशब्दो, देववाची मुख्यवाची {६. १. १२४. इति बहुत्वे लुप्---अङ्गाः इति, अत्र चास्त्रि- 50 मनोहरवाची च, तत्र प्रकृतप्रयोग मुख्यार्थक एवं प्रतीयते, यामिति कथनात् स्त्रीबहुत्वे लुबभावे जातिवान्डयाम--
तस्य विशेषणत्वेऽपि प्रकृतप्रयोगेषु विशेष्यत्वमेव, मुख्य- : आगया, ताश्च ता वृन्द्रारिका इत्यथें समासेऽनेन पुवत्त्वेऽ 15 भूतायाः स्त्रिया एव पाचिकादिशब्देन विशेषणीयत्वात् ! स्त्रियामिति व्यावृत्तिनिवृत्तौ द्रेरणो लुपि सति-- अङ्गवृन्दा
आख्याभूतयोर्दत्ता-गुप्ताशब्दयोस्तु यद्यपि विशेष्यत्वमेव रिकाः इति । एवं--गर्गस्यापत्यानि--गर्गाः पुमांसः, स्त्रियुक्तम्, तथा च तयोः परनिपात एवोचितः, तथापि विवक्षा- यश्च गायः, ताश्च ता वृन्दारिका इति विग्रहे कर्मधारय- 55 वशात् प्रकृते विशेषणत्वं व्यवहतमिति ध्येयम् । प्रति धा- । समासेऽनेन पुवत्त्वे स्त्रीत्वनिवृत्तौ "यजनोऽश्चावर्णान्तगोपक
न्तरमवतारयति-तद्धित : स्वरवृद्धिहेतुरिति । तद्विषयेऽपि । नादेः” [ ६. १. १२६.] इति यत्रो लुपि-गर्गवृन्दारिका 20 प्रवृत्तिमदाहरति---माथुरी चासौ वृन्दारिकेति----मथुरायां । इति, तदाह-एवं-गर्गवृन्दारिकाः इति । इत्थं पुवद्भावे
भवा स्त्री-माथुरी, सध्नेभवा स्त्री----सोध्नी, ते च ते सति प्रत्ययलुपमुदाहृत्य क्वचित् तस्मिन् सति प्रत्ययलुवभाववृन्दारिके इति विग्रहो, अत्र भवार्थे विहितोऽण तद्धितः स्वर- मुदाहतु मवतारयति-इडविड़ पृथ इत्यादिना, एवं चैते. 60 वृद्धिहेतुः, तदन्तायाः स्त्रिया: पूवत्वप्रतिषेधः प्राप्तः कर्मधा
। भ्योऽपत्यार्थ "राष्ट्र-क्षत्रियात सरूपात राजापत्ये दिर" रयेऽनेन प्रतिषिध्यते । स्वाङ्गाङीरिति सूत्रविषयमुदाहरति-! -.,
[६.१. ११४, ] इत्यति तस्य स्त्रियां "देरजणोप्राच्यभ25 चन्द्रमुखी चासौ वृन्दारिकेति--चन्द्र इव मुखं यस्या : "
ईदेः" [ ६. १. १२३. ] इति लुपि-'इडविड्' इत्यादीन्येव इति विग्रहे चन्दमुखी शब्दः "असहनञ् ०" [ २. ४. ३८. ] ।
रूपाणि, तेषां वृन्दारिकादिशब्देन सह कर्मधारयेऽनेन पुवत्त्वे इति जयन्तः' तस्य युवद्भावः प्रतिषिद्धोऽनेन प्रतिप्रसूयते, : स्त्रीत्वनिमित्तकलुपो निवृत्तौ ऐडविडवृन्दारिकेत्यादीनि 65 एवं--दीर्घकेशवृन्दारिकेति । जातिमुदाहरति- कठ-: प्रत्ययान्तरूपघटितान्येव रूपाणीति समुदितार्थः । पदकृत्यवृन्दारिकेत्यादि, कठी चासौ वृन्दारिकेति विग्रहः, एवं---
माह--परतःस्त्रीत्येवेति--तदनुवृत्तिरपि सप्रयोजनेति 30 बड़चवृन्दारिकेति, कठी-बह्वचीशब्दौ शाखावाचित्याज्जाति ,
भावः। तद्व्याव|माह-खट्वावृन्दारिकेति-खट्वाशब्दः
स्वत एव स्त्रीलिङ्ग इति तस्य नेह पुवद्भाव इतिभावः । प्रवृत्तिनिमित्तौ । गोत्रप्रवृवृत्तिनिमित्तां जातिमुदाहरति--
| 'अनूङ' इत्यवश्यं सम्बन्धनीयमित्याह--अनूडित्येवेत, 70 वतण्डस्यापत्यमित्यादिना, “वतण्डात्" [ ६. १. ४५.] व्याव|माह-ब्रह्मबन्धूवृन्दारिकेति--अनूङित्यस्याननुवृत्ती इति यञ्, तस्य "स्त्रियां लुप्" [ ६. १. ४६ ] इति लुप्- 'वद्भावे ह्रस्वश्रवणापत्तिरिति भावः ।। ३. २. ५७ ॥ वतण्डी, तस्याः वद्भावेन लुपो निवृत्तौ--वातण्ड्यवृन्दारिकेति । गर्गस्यापत्यं स्त्री-गार्गी यअन्तात् स्त्रियां डोर्यलोपः, सा चासौ वृन्दारिकेति विग्रहे समासे पुवद्भा- । रिति ॥ ३. २. ५८ वान्डोनिवृत्तौ यकारश्रवणमिति--गाय॑वृन्दारिकति रूपम् ।। कपोतपाक एव-कापोतपाक्य-- इति-"नातादस्त्रि-! त० प्र०- स्त्र्यनूर रिति प्रत्यये जातीये देशीये च पुव
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[ पाद-२, सूत्र-५८-५६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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द्भवति । पटवी प्रकारोऽस्या:-पटुजातीया, ईषदपरिसमाप्ता; उत्तरपदे क्यङमानिपित्तद्धिते णितद्धितयस्वरे च प्राप्तिपट्वी-पटुदेशीया; मद्रकजातीया, मद्रकदेशीया; पाचक- ! रिति प्रतिषेधोऽपि तेष्वेव प्राप्त इत्यप्राप्त एव पुंवजातीया, पाचकदेशीया; पञ्चमजातीया, षष्ठदेशीया बत्त भावोऽनेन विधीयते, पूर्व पुंवद्भावप्रतिपेधप्राप्तिनिवारण
जातीया, गुप्तदेशीया, माथुरजातीया, स्त्रोग्टनदेशीया, दीर्घ- ' परत्वेन प्रकृतसूत्रसार्थक्योपपादनं तु रित्प्रत्ययस्य पित्करणश- 40 5 केशजातीया, चन्द्रमुखदेशीया, कठजातीया, बचदेशीया, : ड्कावारणप्रसङ्गेनेति न तदसङ्गतिः । प्रतिषेधप्राप्तिस्थल
बातण्डयजातीया, गायदेशीया, कापोतपाक्यजातीया. सजातीयस्थलोदाहरणं तु 'उत्तरपदे' इत्यस्यासम्बन्धबद्धया, कोजायन्यदेशीया, अङ्गाजातीया, गर्गदेशीया, ऐडविड- उत्तरपदसम्बन्धे हि न प्रतिषेधप्राप्तिरुत्तरपदशब्दस्य जातीया, पार्यदेशीया, दारदजातीया औशिजदेशीया। समासचरमावयवे रूढत्वात् । अत्रापि परतः स्त्रिया एव
परतः स्त्रीत्येव-कुटीजातीया, द्रणीदेशीया । अनहित्येव-; पुवत्वमित्याह-परतः स्त्रीत्येवेति । व्यावय॑माह-कुटी- 4 10 करभोरुजातीया, मद्रबाहूदेशीया ॥५८॥
जातीया, द्रुणीदेशीयेति-कुटीदुणीशब्दौ स्वत एव
स्त्रीलिङ्गाविति तयोः पुसि रूपमेव नास्तीति तयोः पुंव
- भावो न भवतीति भावः । एवमङित्यस्यापि सम्बन्ध श० म० न्यासानुसन्धानम्-रिति । र् इत् यस्मि
र आवश्यक एवेत्याह-अनूडित्येवेति ॥ ३. २. ५८. ।। स्तत्-रित्, तस्मिन् रिति, तादृशौ च प्रत्ययौ जातीय-देशी-~~~rrrrrrrrrrrrr................. यावेवेति 'रित' शब्दमर्थतो व्याख्याति--जातीये देश चेत । रिती प्रत्ययावपि यदि पितौ क्रियतां तर्हि "क्या -
त्व-ते गुणः ॥ ३. २. ५६ ॥ 50 15 मानिपित्तद्धिते" [ ३. २. ५०.] इत्यनेनैव पुंवद्भावः सिव्येत्, परं
त० प्र०-'परतः स्त्र्यनूङ गुणवचन शब्दः त्व-त इत्येतयोः "तद्धितः स्वरवृद्धिहेतुररक्तविकारे" [ ३. २. ५५. ] इति सूत्रेण स्वरवृद्धिहेतुतद्धितान्तस्त्रियाः
6. प्रत्यययोः परयोः पुमान् भवति । पव्याः भावः-पटुत्वम्,
पटता; एन्या भावः एतत्वम, एतता; श्यन्या भावः-श्वेतपुंवद्भावो निषिध्यमानः 'माथुरजातीया" इत्यादावपि
त्वम्, श्यतता। त्वत इति किम् ? पट्वीरूप्यम्, पट्वीस्यात्, इष्यते च तत्र पुंवद्भाव इति तदर्थ "रिति” पृथक 20 पुंवद्भावविधानमावश्यकम्, विहितश्चायं परत्वान्निषेधं ।
मयम् । गुण इति किम् ? कठोत्वम्, कठोता; दत्तात्वम्, 55 बाधते, ततश्च रित्करणमप्यावश्यकम् । किञ्च "क्यङमानि
! दत्ताता; कौरवम, कौता। केचित्त जातिसंज्ञाजितस्य
विशेषणमात्रस्य पुंवभावमिच्छन्ति-पाचिकायाः भावःपित्तद्धिते" [ ३-२-५० ] इत्यत्र रितोऽपि पाठेन नैवं प्रयो- ' जनसिद्धिः, ततः पराणां निषेधसूत्राणां रिति प्रवृत्तेर्दार
पाचकत्वं, पाचकता; मद्रिकायाः भाव:-मद्रकत्वम्, मद्रत्वादिति पृथगेव सर्वनिषेधबाधनार्थमिदं स्त्रं विशिष्य रिति
कता; आनुकूलिक्या:-आनुकूलिकत्वम्, आनुकूलिकता;
आक्षिक्या:-आक्षिकत्वम, आक्षिकता; द्वितीयाया:-द्विती- 60 25 पुंवद्भावं विधत्त इति स्वीकरणीयमेव, एतत्सूचनार्थमेवाने निषेध्यविषयाण्यप्युदाहरणानि दास्यन्ते- मद्रकजातीयेत्या
यत्वम्, द्वितीयता; पञ्चम्या:-पञ्चमत्वम्, पञ्चमता; दिना । उदाहरति-पदवी प्रकारोऽस्या: इति-प्रकारे
माथुर्या:-माथुरत्वम्, माथुरता; लोग्न्या :-स्रोग्घनत्वम्, जातीयर" [ ७.२.७५. ] इति जातीयरि अनेन पुवद्भावे
| सौग्नता; चन्द्रमुख्या:-चन्द्रमुखत्वम्, चन्द्रमुखता; पटुजातीयेति । ईषदसमाप्ता पट्वीत्यर्थे "प्रतमबादेरीषदस- 1
सुकेश्या:-सुकेशत्वं, सुकेशता । 30 माप्ते." [ ७. ३. ११.] 'इति देशीयरि पुवावे-! "संन्याः श्रियामनुपभोगनिरर्थकत्वपरदेशीयेति । प्रतिषेधनिवृत्त्युदाहरणान्याह--मद्रकजाती
मिथ्यापवादममृजन् वननिम्नगानाम् । येत्यादि, मद्रिका प्रकारोऽस्या इत्यादिरूपेण विग्रहः,
सस्नुः पय रनेनिजुरम्बराणि अत्र तद्धितकोपान्त्यनिमित्ता अद्भावप्रतिषेधप्राप्तिरनेन जाबिसं धृतविकाशिविसप्रसूनाः ॥ १॥"
वार्यते, एवं-पाचकजातीयेत्यादायकसम्बन्धिकोपान्त्य- शिशुपालवधेः ४ सर्गे] 35 त्वेन प्रतिषेधप्राप्तिरुदाहार्या । वस्तुतस्तु नात्र पुंवद्- | तदवितथमवादीयन्ममत्वं प्रियति ...
70 : भावः प्राप्तो नवा तन्निषेधः, पुवद्भावस्य एकार्थे । प्रियजनपरिभुक्तं यद् दुकूलं दधानः । .. ..
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बृहद्वृत्ति बृहन्म्यास संवलिते
तदधिवसतिभागाः कामिनां मण्डनश्री व्रजति हि सफलत्वं बल्लभालोकनेन ॥ २ ॥ [ माघे ] तथा - रसवत्या धूमवस्वम्, भुवस्तृणवश्वम्, शालाया efore मत्यादि ॥ ५९ ॥
[ पा-२, सूत्र. ५९
| बुद्धिवैशद्यायाह- केचित् तु जातिसंज्ञावर्जितस्येति, तथा च 'कठीत्वम्, दत्तात्वम्' इत्येते एवेह प्रत्युदाहरणे, न तु कर्त्रीत्वमिति, तत्र तैः पुंवद्भावस्येष्टत्वात् । तथा च तेषां 40 मते गुणवाचकपदेन विशेषणमात्रमुच्यते, भवति च कृत्तद्धितशब्दानां विशेषणत्वम्, केवलं जाति-संज्ञाशब्दयोरेव विशेषगत्वाभावात् तेषां मते प्रत्युदाहरणीया अपि प्रयोगा उदाहरणान्येव तदाह - पाचिकाया भावः पाचकत्वमिति - पाचकाशब्दः पचनक्रियानिमित्तंन स्त्रियां वर्तते स च विशेषण- 4: रूप एवेति भवति गुणवचनः ।
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'
श० म० न्यासानुसन्धानम्-त्व-ते० ॥ त्वश्च तश्चेति - स्वतं तस्मिन् त्व- ते इति समाहारद्वन्द्वात् सप्तम्येकवचने रूपम् । * प्रत्ययाऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव० इति न्यायेन त्वतौ प्रत्यय गृह्येते, तौ च "भावे त्वतल" [ ७. १५५.] इति सूत्रेण विहितो, गुणपदं स्ववाचकपरम्, तच्च गुणिनि वर्त - 10 मानं पदमुपस्थापयति, साक्षाद्गुणवाचकस्य स्त्रीत्वाभावात् "शुक्लादयो गुणाः पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्वति" इति स्मरआधेयश्चाक्रियाजश्व, सोऽसत्त्वप्रकृतिर्गुणः ॥” इति 5( णात्, तथा च गुणवचनशब्देन गुणवाचकत्वेन पूर्व दृष्टः सम्प्रति गुणोपसर्जनद्रव्यवाची शब्दो गृह्यते, अतएव तस्य गुणवचनलक्षणमुक्तं "वोतो गुणवचनात्" [ पा० सू० परतः स्त्रीत्वमप्युपपद्यते, तदाह- परतः ख्यनूङित्यादिना । ४.१.४४ ] इत्यादिसूत्रेषु । अस्यार्थः सत्वं द्रव्यं तत्रैव निविशते नान्यत्र तिष्ठति, एतेन सत्ताजातिव्यवत्त्यते, सा पट्ट्या भावः इति - पट्वीनिष्ठविशेष्यतानिरूपितप्रकारताश्रय इति भावः, प्रकृतिजन्यबोधे प्रकारीभूतस्यैव भावशब्द- हि न केवलं द्रव्ये निविशतेऽपि तु गुणकर्मणोरपि, एवमपि बाच्यत्वात्, अत्रार्थे “भावे त्वतल्” [ ७.१.५५ ] इति | द्रव्यत्वेऽतिव्याप्तिस्तस्यापि द्रव्ये एवं निवेशादत आह- 55 त्वतलोः कृतयोरनेन पुंवत्त्वम् । एततेति पुंवद्भावात् | अपैतीति सत्त्वादपगच्छत्यपीत्यर्थः, द्रव्यत्वं हि न स्त्रीप्रत्ययनिवृत्तौ तत्सन्नियोगशिष्टं नत्वमपि निवर्तते कदाचिद् द्रव्यादपगच्छति, गुणस्तु अपगच्छत्येव, 'यथा20 सन्नियोगशिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः इति । ऽऽम्रफलादौ पीततायां जातायां नीलताऽपैति । एवमपि न्यायात् एवम् श्येततेति एतश्येतशब्दौ गुणवचनावपि । गोत्वादिष्वतिव्याप्तिः, गोत्वादयो हि गवादिद्रव्ये गुणिपरावेव । पदकृत्यमाह-त्वते इति किमिति - सामान्येन निविशन्तेऽश्वादेश्च व्यावसन्त इति तद्वारणायाह-- 6( गुणवचनस्य सर्वत्र प्रत्यये परतः पुंवत्त्वमेष्टव्यमिति प्रश्ना- पृथग्जातिषु दृश्यते इति गोत्वं हि द्रव्यत्वावान्तरशयः, पट्वीरूप्यम्, पट्वीमयमिति - पट्ट्ट्या आगतम्, नानाजातिषु न दृश्यते गुणस्तु दृश्यते, यथा अभ्रे 25 पट्वीनां प्राचुर्यमित्यर्थयोः क्रमेण रूप्यमयटी, तत्र न पुरवत्त्व- नीलता तथैव तृणादिष्वपीति प्रतीतेः । इत्थं पूर्वार्धन परापरजातीनां व्यवच्छेदः, किन्तु कर्मण्यतिव्याप्तिस्तदवस्या, तद्धि द्रव्ये निविशतेऽपैति नानाजातिषु च G दृश्यत इति तद्वारणायाह — आधेयश्चाक्रियाजश्च, आधेय इत्यस्य उत्पाद्य इत्यर्थः, अक्रियाजश्चेत्यस्यानुत्पाद्य इत्यर्थः घटादौ पाकजरूपादेरुत्पाद्यत्वात्, आकाशादौ महत्त्वादेरनुत्पाद्यत्वात् कर्म [क्रिया ] तु सर्वत्रोत्पद्यत एव न क्वचिदप्यनुत्पाद्यम्, तथा च तस्य द्वैविध्याभावान्न तत्र 7 ( लक्षणातिव्याप्तिः । एवमपि द्रव्यस्य गुणत्वं प्राप्नोति, अवयदि द्रव्यं ह्यवयवद्रव्येषु निविशते, असमवायिकारणसंयोगनिवृत्ती विनाशात् ततोऽवैति भिन्नजातीयेषु च हस्तपादादिषु दृश्यते नित्याऽनित्य [ उत्पाद्याऽनुत्पाद्य ] भेदेन द्विविधं च भवति, निरवयवानामात्म-परमाण्वादीनां 75
|
मिष्टमिति तत्र पुंवत्त्ववारणाय 'स्वते' इति विशिष्य कथनीयमिति भावः । गुण इति किमिति परतः स्त्रीपरं शब्दमात्रं त्वतयोः पुंवद् भवत्वितिप्रश्नकर्तुं राकूतम् । जाति -संज्ञा क्रियाशब्दानामपि तथा सति पुंवद्भावः स्यादिति 30 प्रत्युदाहरणमुखेनाह-कठीत्वमित्यादि, अत्र कठीशब्दस्य जातिपरत्वेन “स्वाङ्गान्ङीर्जातिश्चामानिनि ' ' [ ३. २.५६ ] इत्येव पुंवद्भावप्रतिषेधो यद्यपि प्राप्तस्तथापि परत्वादस्य सर्वप्रतिषेधापवादत्वाशयेन प्रत्युदाहरणं बोध्यम् । दत्तात्वमिति संज्ञाशब्दस्य प्रत्युदाहरणम् । कर्त्रीत्वमिति क्रिया35 वाचकशब्दस्य ।
मतान्तरे क्रियाप्रवृत्तिनिमित्तस्य शब्दस्यापि गुणवचनत्वमिष्टमिति कर्त्रीत्वमित्यादौ पुंवद्भाव इष्ट एवेति शिष्य
पाणिनीये च नये संज्ञा कृदन्ततद्धितान्तसमस्तसर्वनामसंख्याशब्दातिरिक्तः शब्दो गुणवचनशब्देनोच्यते । भाष्ये च"सत्त्वे निविशतेऽति, पृथग्जातिषु दृश्यते ।
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[ पाद-२, सूत्र- ५९ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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नित्यत्वात्, सावयवानां चानित्यत्वादत आह---असत्त्व | अनुपभोगनिरर्थकत्व मिथ्यापवादम् असृजन, तमेव मिथ्याप्रकृतिरिति अद्रव्यस्वभाव इत्यर्थः । इति । एवं च जाति- पवादमार्जनप्रकारमाह— सस्नुः पयः पपुः, अम्बराणि 40 द्रव्य क्रियावचनातिरिवतः शब्दो गुणवचनः । इदमेव गुण ! अनेनिजुः धृतविकाशिबिराप्रसूनाः सन्तः बिसं जक्षुः" इत्यवचनलक्षणं स्वसम्मतमपीति "स्वरातो गुणादखरो " न्वयः । युधिष्ठिरकरिष्यमाणराजसूयज्ञे समुपस्थातु गच्छतः 5 [ २. ४. ३५. ] इति सूत्रे समुपन्यस्तमुक्तरीत्यैव व्याख्यातं श्रीकृष्णस्य सैन्याः वननिम्नगानां वननदीसम्बन्धिनीनां, चेति तत एवावलोकनीयम् । उक्तं जातिसंज्ञावजितस्य श्रियां निर्मलमबुरजलकमलादिसम्पदाम्, अनुपभोगेनगुणवचनत्वं तु प्राचीनतरमतेन, किन्तु तेषां मते "श्रेष्टं आस्वादविशेषाभिज्ञजनानुपयोगेन, यो निरर्थकत्वस्यपुरोद्वारवतीत्वमासीत्" इति माघप्रयोगे पुंवद्भावो दुर्वारनिष्प्रयोजनत्वस्य, मिथ्याभूतोऽपवादो- दुष्कीत्तिः, तम्, एव, अत्र द्वारवतीशब्दस्य तद्धितान्तत्वेन जातिसंज्ञाभिन्न- अमृजन् पर्यशोधयन् । कथमिति चेदाह - सरतुः 10 स्वात् प्रकृतसूत्रेण पुंवद्भावस्य दुर्वारत्वात् । यद्यपि पूर्वोक्त- ! स्नानमाचेरुः पयः पपुः जलमभ्यवजह अम्बराणि भाष्यानुसारिस्वमतेऽपि प्रकृते पुंवद्भावो दुर्वार एव, यतो वस्त्राणि, अनेनिजुः शुचीचक्रुः किञ्च धृतानि-जातिद्रव्य क्रियाशब्दातिरिक्तशब्दानां गुणवचनत्वस्यैव तेन कर्णाद्याभरणतां नीतानि, विकाशीनि--फुल्लानि, बिस- 50 लक्षणेन प्रतीतेरिति शङ्कितु ं शक्यते, तथापि तद्व्यावृत्यर्थं प्रसूनानि - - कमलानि येस्तादृशाः सन्तः, बिसं मृणालदण्ड, विशेषणदानेन तन्मात्र व्यावृत्तिर्नाभिप्रेताऽपि तु यत्र | जक्षुः चखदुः इत्थं च सर्वसम्पदः सर्वथोपभोगेन, 15 प्रकृतलक्षणं घटते तत्रैव गुणवचनत्वमिति पूर्वोक्तरीत्या | अनुपभोगनिरर्थकत्वमिथ्यापवादस्य शोधनं स्पष्टमेव । संज्ञा - कृदन्त तद्धितान्त-समास-संख्याशब्दातिरिक्तशब्दो गुण- अत्र श्रियां स्त्रीत्वेन निरथिकानां भावो निरधिकात्वमित्येव वचनत्वेन गृह्यत इत्यङ्गगीकारादिह दोषाभावः । न चैवं स्यात् समासस्य यन्मते गुणवचनत्वं नास्ति तन्मतानुसारम्, 55 'शरदः कृतार्थता' [ भारविः ] "सा मुमोच रतिदुःख- प्रकृत [ केचित्तु ] प्रदर्शित मतानुसारं च भवति गुणवचनशीलताम्” [ कालिदासः ] इत्यादिषु का गतिः, 'कृतार्था' त्वमिति पुंवत्त्वं सूपपादम् । स्वमते च "शरदः कृतार्थता " 20 'रतिदुःखशीला' इत्यादीनां समासत्वेन गुणवचत्वाभावात् । इति प्रयोगप्रसंगेन -- प्राक्प्रदर्शित 'सामान्ये नपुंसकम्' इति पुंवद्भावाप्रवृत्तौ दीर्घश्रवणापत्तेरिति वार्त्तिकोक्तरीत्या नपुंसक निर्देशेनैव निर्वाह इति ज्ञेयम् । वाच्यम्, तत्र सामान्यविवक्षया नपुंसकयोरेव कृतार्थ - रतिदुःखशील- । प्रकृतपद्ये च पुनरुक्तिदोष:, बिसशब्दस्य द्विधोपादानात्, 60 शब्दयोः प्रयोगस्वीकारे क्षत्यभावात् । अस्य सूत्रस्य च 'जक्षुबिसं घृतविकस्वरतत्प्रसूना:' इत्येवं सर्वनाम्ना तन्निर्देश तन्मते तद्धितान्तेष्वपि प्रवृत्तिस्तेषामपि जातिसंज्ञाव्यति उचित इति स्पष्टं काव्यप्रकाशादौ सप्तमोलासे । 25 रिक्तत्वात् तथा च तद्धितान्तविषयाण्युदाहरणान्याह -- मद्रिकाया भावः इत्यादिना मद्रकत्वमित्यारभ्य श्राक्षि कापर्यन्तं तद्धितकोपान्त्यत्वनिबन्धनस्य निषेधस्यापवादोदाहरणानि । द्वितीयत्वमित्यारभ्य पचमतापर्यन्तं पूरण्या
अत्र
पुनरपि माघकविपद्यमेवोदाहरति-- तदवितथमवादीरिति-- [ ११-३३. ] तदधिवसतिमित्यस्य स्थाने मदधिवसतिमिति पाठः समुचितः इदं हि खण्डिताया 65 नायिकाया नायकं प्रति वचनम् । कश्चिन्नायकः प्रतिदिनं तां प्रियाशब्देनाह्वयति, स चान्यकामिनीलम्पटोऽपि, कदाचित् परकामिनीसङ्गचिह्नितं वस्त्रं परिदधान एवालक्षितचिनो नायिकासकाशमायातः, तदा सा तं प्रमाणितपर
उदाहरणानि । माथुरत्वमित्यारभ्य सोध्नतापर्यन्तं स्वर30 वृद्धिहेतुतद्धितान्तोदाहरणानि । एवं समासोऽपि तन्मते गुणवचने एवेति तत्रापि पुंवत्वमित्याह - चन्द्रमुख्या
भावः इत्यादिना, एषु "स्वाङ्गान्डी० " इति निषेधस्याप | नायिकासंसर्ग विपरीतलक्षणया मिथ्यावादिनं प्रमाणयति, 70 वादः । अर्थतन्मतानुकूलं कविवचनमप्युदाहरति-- "सैन्याः | "त्वं मम प्रिया, इति यत् ( त्वम् ) अवादीः तत् अवितथम्, श्रियामनुपभोगेत्यादि, शिशुपालवधे चतुर्थ सर्गे २८ रंवत यत् ( यस्मात् ) प्रियजनपरिभुक्तं दुकूलं दधानः, मदधि35 कपर्वतोपरि श्रीकृष्णसंन्यस्य गिरिणदीविहारवर्णन मेतत् । वसतिम्, आगाः, हि वल्लभालोकनेन कामिनां मण्डनश्रीः अत्र पूर्वार्धपरार्ध व्यत्यास इवोपलक्ष्यते, सस्नुः पयः पपु- सफलत्वं व्रजति " इत्यन्वयः । त्वं मम प्रिया वल्लभा' इति रिति पूर्वार्धम्, संन्याः श्रियामित्याद्युत्तरार्धं च सम्प्रति यत् त्वं मत्सविधे श्रवादीः पूर्वं कतिधाऽचीकथः, तत् 75 मुद्रितपुस्तकेषु दृश्यते । “सैन्याः वननिम्नगानाम् श्रियाम् | अवितथं सत्यमित्यद्य विज्ञातम् ; यत् यस्मात् प्रियजन
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बृहद्वृत्तिवृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-५९-६१)
परिभुक्तं प्रियेण जनेन---मत्प्रतिनायिकया, परिभुक्तं-- गोमतीभूतेत्यादौ न स्यादेव ; पदवीभूता पटूभूता, मृद्वीकृता स्वदङ्गपरिभोगपरम्परया : उपयुक्तं---तदङ्गसगिसौर- मृदूकृतेत्यादी विकल्पः । महतीभूतेत्यपि केचित् ॥ ६० ॥ भादिविशिष्ट, दुकूलं दधान एव, मदधिवसति मन्निवास
गहम्, आगा: आगतवानसि; अयमेव तव तद्वचनसत्यता5 बीजम् । कथमिति चेदत्राहार्थान्तरन्यासेन-कामिनां-- ! श० म० न्यासानुसन्धानम्-च्वौ० । पुवदित्य
कामिनीजनमनोऽनुकूलचारिणां मण्डनश्रीः अलङ्करणशोभा, नुषज्यते । चिः प्रत्ययः 'कृस्वस्तिभ्यां कर्म कर्तृभ्यां प्रागवल्लभाया:-प्रियायाः, आलोकनेन--तत्कत कप्रत्या
की तत्तत्वे चिः” (७.२-१२६.) इति सूत्रेण विहितः, तस्मिन् 40
: परतः स्त्रिया: क्वचिदेव पंवत्वमिष्टम, तदिष्टस्थलनिर्णयश्च करणेन,सफलत्वं साफल्यं सार्थक्यं व्रजति गच्छति। स्वप्रिया
लक्ष्यदर्शनाधीन इत्याह-- लक्ष्यानुरोधेनेति, तथा च जनमनोविनोदार्थमेव कामिन आत्मानं मण्डयन्ति, तन्मण्डनं
। प्रामाणिकलक्ष्यमनुरुध्य क्वचित् पु वद्भावो नित्यं, क्वचिद् 10 यदि त्रियया न प्रत्यक्षीकृतं तर्हि तदीयनरर्थक्यमेव, प्रत्यक्षी
विकल्पेन, क्वचिन्नेति सूत्रतात्पर्यम् । तथा चोदाहरणेषु कृतं चेत् सार्थक्यम् । तथा च तदङ्गसङ्गिवाससा आत्मानं ।
। स्पष्टीकरोति-- महद्भता कन्येत्यादिना, अत्र स्वमते 45 मण्डितं मन्यमानस्त्वं तदर्शनाय तथैव मद्वसतिमायात इति
नित्यमेव पु वद्भावः, उक्तसूत्रणव च्चिस्तस्मिन् परे महतीमम प्रियात्वं त्वया साध प्रमाणितमिति शब्दार्थः । विपरीत
| शब्दस्य पुवद्भावान्महद्भूतेति । प्रकृतविग्रहादिकमतिलक्षणया च त्वं मम प्रियेति यत् त्वमवादीस्तत सर्व मिथ्यव,
" ! दिशति--एवं--बृहत्कृतेति--अवृहती बहती कृतेति 15 यदि तवाह प्रिया स्यां तहि मत्सपत्नीसङ्ग एव त्वया न : विग्रहः। एतादशप्रयोगाणां. वो च. इत्येतावतंव पूर्वकृतः स्यात्, कृतोऽपि चेन्मम मनः सन्तोषाय यथासाध्यं
। सो विग्रहणेन वा सिद्धिरिति क्वचिदित्यस्यानर्थक्य - 50 तद्गोपनमुचितम्, तदकृत्वा निशङ्कं तदङ्गसङ्गिवासः परि- :
मित्याशङ्कामपाकरोति- कचिद्ग्रहणादिति--अत्र गोमदधान एवं यत् त्वमत्रागतस्तेन त्वया मम द्वष्यात्वमेव
द्भुतेति न भवतीत्येव क्वचिद् ग्रहणस्य फलमिति भावः । प्रकटितमिति प्रथमोक्तं सर्व मिथ्यैवेति ध्वन्यते। अत्र- !
न केवल क्वचिदप्रवृत्तिरेव क्वचिद्ग्रहणस्य फलमपि तु 20 सफलत्वमिति सफलाया भाव इत्यर्थकम् , तत्र सफलाशब्दस्य
क्वचिद् विकल्पेन प्रवृत्तिरित्यपीत्याह--पटवीभूता गणवचनशब्दत्वे सत्येव पुवद्भावः सिध्यदिति जातिसंज्ञा
पटूभूता; मृद्वीकृता, मृदूकतेत्यादौ विकल्पः इति, एषु 55 व्यतिरिक्तस्य विशेषणमात्रस्य गणवचनत्वमिति मते एक
पुवापक्षे विनिमित्तको दार्थोऽपि । केचित् तु क्वचिदसंगच्छते । स्वमते च सामान्ये नपुसकमिति परिहारः
प्रवत्ति क्वचिद् विकल्प चेच्छन्ति, न तु क्वचिन्नित्यमिति स्मर्तव्यः । प्रयोगान्तराण्यपि तदनसारीणि दर्शयति-- |
तन्मतेनाह- महतीभूतेत्यपि केचित् पाणिनीये च नैता25 तथा रसवत्या धूमवत्त्वमित्यादि--रसवती-महानसम्, ।
सम् दृशं वचनमुपलभ्यते, तन्मते च्वौ कचिदपि पुंवत्त्वं न भवति तस्या धमक्त्व--धूमवत्या भावः, अत्र धूमवतीति तद्धि- ॥३-२-६०॥ तान्तस्य वद्भावः । एवं--भुवस्तुणवत्त्वमित्यत्र तृणवत्या भाव इत्यर्थात् तणवतोशब्दस्य तद्धितान्तस्य पुरः द्भावः । शालाया दण्डित्वमित्यत्र दण्डिनीशब्दस्य पुव
सर्वादयोऽस्यादौ । ३. २. ६१॥ 60 द्भाव इति सर्व तन्मतान कलमेव । स्वमते च पूर्वोक्तव व्यवस्था विज्ञेयेति ।। ३-२-५९ ।।
त० प्र०--'सर्वादिगणः परतः स्त्री पुंवत् भवति,
अस्यादौ-स्यादिश्चेत ततः परो न भवति । सर्वासा स्त्रियःwwwwwwwwwwwwwwwmorn.
। सर्वस्त्रियः, भवत्याः पुत्रः-भवत्पुत्रः, एकस्याः क्षीरम-एकच्वौ क्वचित् । ३. २. ६०॥ क्षीरम्, एकस्या आगतम्-एकरूप्यम्, एकमयम्, तया
प्रकृत्या-तथा, एवं-यथा; तस्यां वेलायां-तदा, एवं--यदा, 65 . त० प्र०--परतः स्त्री अनूफ च्वी पुंवद्भवति, कदा, सर्वदा, अन्यदा; तहि, यहि कहि; सर्वामिच्छति. क्वचित्-लक्ष्यानुरोधेन । अमहती महती भूता-महद्भता । 'सर्वकाम्यति, भवत्काम्यति', एककाम्यति । परत्वात् प्रति35 कन्या, सुर्व-बृहत्कृता; क्वचिद्ग्रहणादगोमती गोमतीभूता- | विषयेऽपि भवति-सर्वा प्रियाऽस्य--सर्वप्रियः, एवं-सर्व
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[ पाद-२, सूत्र-६१]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
मनोज्ञः, सर्विका भार्याऽस्य-सर्वकभार्यः, एवं-विश्वकभार्यः । ' भावः । एवं नामधातुस्थलेऽपि प्रवृत्तिमुदाहरति-सर्व- 40 सर्वादय इति किम् ? कन्यापुरम्, कुमारीनिवासः। अस्या- काम्यतीत्यादिना पूर्व यत्र पुंवद्भावः प्रतिषिद्धस्तत्राप्ययं दाविति किम् ? सर्वस्य, दक्षिणपूर्वस्यै, उत्तरपूर्वस्यै । बहु. प्रवर्तत इत्याह- परत्वात् प्रतिषेधविषयेऽपीति-'नाप्ति. वचनं व्याप्त्यर्थम्, तेन भूतपूर्वसर्वादेरपि भवति-दक्षिणोत्तर- यादौ" [ ३. २. ५३.] इत्यादयः पुंबद्भावप्रतिषेधास्तेषां 5 पूर्वाणाम् इत्यादि ॥ ६१ ॥
, विषयेऽपि परत्वादनेन पुंवद्भावो भवतीति भावः, प्रतिषेधाः सर्वाद्यतिरिवते कल्याणीप्रिय इत्यादी लब्धावकाशा:, प्रकृत- 45
सूत्रं च भवत्पुत्र इत्यादी, सर्वा प्रिया यस्य सा- सर्वप्रिय श०म० न्यासानुसन्धानम्-सर्वादयो। सर्वा
इत्यादौ चोभयोः प्राप्तिरिति "स्पर्धे" [७. ४. ११९.] दिर्गणः इति--सर्वादिगणे पठितः परतः स्त्रीशब्द इत्यर्थः। ।
इति परिभाषाबलात् परत्वात् तत्रायं वद्भावः प्रवर्तते । 10 गण इति कथनेन यादशानां गणे पाठस्तादशानामेव प्रधान. ।
किञ्चक अनन्त रस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वाक इति प्रसिद्धस्वीयसर्वार्थवाचिनामेव प्रकृतसूत्रेऽपि ग्रहण मिति !
! न्यायेनानन्तरस्य "परतः स्त्री पुंवत् स्येकायऽनङ" 50 सूचितम । अस्यादावित न पर्युदासः, किन्तु प्रसज्य- . [३.२. ४९.7 इत्यादिशास्त्रस्यैव स प्रतिषेधो न तु व्यवप्रतिषेध इत्याह स्यादिश्चेत् ततः परो न भवतीतिस्यादी पुंवत्त्वं न भवतीत्यर्थः, पर्यदासे स्वीकृते तु*।
हितस्यास्य सूत्रस्येत्येतद्विषये तत्प्रतिषेधाप्राप्तिरेवेत्यपि 15 पर्यंदासः सदग्ग्राही इति न्यायेन स्यादिभिन्ने स्यादिसदशे
! विज्ञेयम् ! मनोज्ञाशब्दोऽपि प्रियादिरेवेत्याह एवं-सर्वप्रत्यये परत एव पुंवत्त्वं स्यान्न तू उत्तरपदे परत इति
। मनोज्ञः इति । सर्विका भार्या यस्येत्यादौ तु तद्धिततद्वारणायव प्रसज्यप्रतिषेधपरतया व्याख्यानम्, एवं 'च
- कोपान्त्यत्वनिमित्त: प्रतिषेधः प्राप्तः सोऽप्यनेन परत्वादेव 55 प्रत्ययभिन्न उत्तरपदेऽपि परतः पवत्त्वं सिध्यति । तथा . बाध्यते । पदकृत्यमाह-सवोदय इति किमिति-अवि
चोदाहरति-सर्वासां स्त्रियः इति-एकार्थे इति नेह सम्ब- शेषेण सर्वेषामेव स्याद्यतिरिक्ते परत: पुंवदभावो विधेय 20 ध्यते लक्ष्यानुरोधादिति सूचयितुं सर्वासामिति षष्ठयन्तेन
इति प्रश्नाशयः । प्रत्युदाहरति कन्यापुरमिति, अत्र विग्रहप्रदर्शनम् । तथाच यथाकथंचित सर्वादिगणपठितः । पुंवभावो नष्टस्तद्वारणाय सर्वादेरित्यावश्यकमिति भावः । परतः स्त्रीवाचकः शब्दोऽनेन पवत क्रियते। अत एवान्ये यद्यपि कन्याशब्दः स्वत एव स्त्रीलिंगो नतू परतः क्वापि, 60 वयाकरणाः सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पंवदभाव इतीच्छन्ति। स्त्रिया अन्यत्र तादृशशब्दस्य प्रयोगाभावात तथाप्याबन्त
भवत्पत्रः इति-पंवदावे सति भवतः पुत्रो-भवत्पुत्रः, स्यास्य तदरिहतरूपमपि संभाव्यत इत्याशयेन प्रत्यदाहर25 भवत्या वा पूत्रो-भवत्पुत्र इति विशेषनिश्चयः प्रकरणा- ' णम् । यद्वाऽत एवारुचेः प्रत्युदाहरणान्तरमाह-कुमारी
धीन एव, एषा च रीतिः प्रायोऽसमानाधिकरणेन समासे , निवास: इति- कुमारशब्दोऽस्ति पुंलिङ्गेऽपि प्रसिद्ध इति सर्वत्रव ज्ञेया। एकक्षीरमित्यादौ तु अर्थवशादपि, नहि । भवति पुंवद्भावप्रसङ्गः, स माभूदित्येतदर्थ सदिय इत्या- 65 पंसः क्षीरेण तादशः सम्बन्धो यादशः स्त्रियाः । प्रत्ययेऽप्य- | वश्यकमितिभावः । अस्यादाविति किमिति-सर्वत्र सर्वा
दाहति- एकरूप्यमित्यादि । तया प्रकृत्या इति- ! दोनां वद्भावो विधीयतामिति प्रश्नाशयः । प्रत्युदाहरति?0 “प्रकारे था" [७. २. १०२.] इति था प्रत्ययः, तत्र प्रकार- सर्वस्यै, दक्षिणपूर्वस्य इत्यादि, अयमाशय:-अस्यादावि
शब्दः स्वार्थपरो न तु स्वस्वरूपपर इति यत्र प्रकारार्थः । त्यस्याभावे सर्वादीनां स्यादी स्त्रियां विहितं कार्यमेव स्त्रीत्वेन विवक्ष्यते तत्र तन्निरूपकः तत्समानाधिकरण: । व्यर्थ स्यात्, क्वापि स्त्रियां तेषामवर्तनादिति तत्सार्थ- 70 शब्दोऽपि स्त्रीलिंग एव स्यादिति तस्य प्रत्यये परतः पंव- क्यायास्यादाविति कर्त्तव्यमिति भावः, 'सर्वस्यै' इति सर्वा
द्भावात् तथेत्येव रूपं, न तु स्त्रीप्रत्ययविशिष्टम् । प्रकृत- । शब्दस्य चतुर्थ्य कवचने रूपम्, 'दक्षिणपूर्वस्य' इति दक्षिण35 विग्रहवाक्यमन्यत्राप्यतिदिशति-एवं-यथेति । तस्यां ! स्याः पूर्वस्याश्च दिशोऽन्तराल दिक्-दक्षिणपूर्वा, तस्यै
वेलायामि ते-समयार्थे [कालार्थे ] "किम्-यत्-तत्-सर्वेका- | इति विग्रहे साधु, अत्र दक्षिणाशब्दस्य पुंवद्भावस्तु भवत्येव, ऽन्यात् काले दा" [७. २. ९५.] इति दा विधीयते, ! तस्य स्याद्यव्यवहितपूर्वत्वाभावात, पूर्वशब्दस्यैव पुंवद्भा- 75 तदर्थस्य स्त्रीत्वेनोपस्थितौ स्त्रीवाचकेभ्य एवैतेभ्यो दा कोऽनेन 'अस्यादौं' इति कथनेन व्यावय॑ते । न चात्र प्रत्ययः स्यादिति पुंवद्भावे सत्येव तदेत्यादिरूपं भवतीति । स्याद्युत्पत्तितः पूर्वमेव पुंवद्भावः प्रवर्त्ततां तस्यामवस्थाया
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बृहद्वृत्ति- बृहन्न्यास संवलिते
[ पाद-२, सूत्र. ६१-६२ ]
मस्यादाविति निषेधाप्रवृत्तेरिति वाच्यम्, स्यादिपरत्वसंभावनायामपि निषेवप्रवृत्तेर्दुर्वारत्वात् । तथा च विषयसप्तम्यपीयमिति विज्ञातव्यम्, अन्यथाऽस्यादावित्यस्य वैयथ्यं स्थादेव, 'उत्तरपदे' इति यद्यपि प्रकृतं तथापि तदत्र 5 प्रकरणे न सम्बध्यत इति पूर्वमुक्तमेव तथा चोत्तरपदे | द्वन्द्वे तन्निषेधे प्रवर्त्तते पुंवद्भाव इति ॥। ३. २. ६१ ॥
स न स्यात्, यतः "न सर्वादिः " [१.४. १२. ] इति सूत्रेण द्वन्द्वे सर्वादित्वं निषिध्यते, व्याप्त्यर्थत्वस्याश्रयणे तु 40 साम्प्रतिकाभावे भूतपूर्वगतिः इति न्यायस्याश्रयणाद् द्वन्द्वप्रवृत्तेः पूर्वं तेषु सर्वादित्वसत्त्वात् तदादायैव सत्यपि
मृगक्षीरादिषु वा । ३. २. ६२ ॥
इत्यनुवर्त्तनादेव 'सर्वस्यै दक्षिणपूर्वस्यै' इत्यादी वारणमिति न वाच्यम्, “रिति" "त्व ते गुणः" "ब्बो क्वचित्" इति सूत्राणामत्र चास्यादाविति कथनस्य सार्थक्यायोत्तरपदासम्बन्धस्यावश्यमभ्युपेयत्वात्, अत एव च यथेत्याद्युदात० प्र० - मृगक्षीरादिसमासशब्देषु परतः स्त्रीलिङ्ग- 45 10 हरणसंगतिः । आक्रोशे गम्यमाने “षष्ठ्याः क्षेपे” [३.२.२६. मनेकार्थेऽस्थ्यर्थे चोत्तरपदे, पुंखद् वा भवति । मृग्याः क्षीरंइति ङसोऽपि 'अस्या:- पुत्रः' इत्यादौ पुंवद्भावार्थ- मृगक्षीरम्, मृगोक्षीरम्; एवं - मृगपदम्, मृगोपदम् भृगमस्यादावित्यावश्यकमिति न तत्सामर्थ्यादिहोत्तरपदे इत्यस्य शाय:, मृगीशाय: ; कुक्कुटाण्डम्, कुक्कुटघण्डम्; मयूरासम्बन्धाभावः प्रतिपादयितुं शक्यते तत्र विभक्त्या व्यवण्डम् मयूर्यण्डम् काकाण्डं काक्यण्डम्; काकशाव:, धानादुत्तरपदपरत्वाभावादेव पुंवद्भावाऽप्रवृत्त्या तदर्थम- ! काकीशावः । पुं-स्त्रीलिङ्गपूर्वपदभेदेन समासविवक्षायां 50 15 स्यादावित्यस्य प्रयोजनाभावात् । किञ्च नैकमुदाहरणं ! सूत्रानारम्भे मृगक्षीरादयो न सिध्यन्ति; मृगक्षीरादयः प्रयो
[सामान्यं] योगारम्भं प्रयोजयतीति वचनेन तावन्मात्रा- गतोऽनुसर्तव्याः ॥ ६२ ॥
र्थत्वे विशिष्य ङसीत्येव ब्रूयात् । न च सर्वादीनामान्तानां
७०
]
|
ङितां ये-यास्-यास्-यामां डस्पूर्वस्वविधानस्य "सर्वादेर्डस्पूर्वा:" [१.४. १८. ] इति सूत्रानुसारस्य वैयर्थ्येनैव 20 'सर्वस्यै, दक्षिणपूर्वस्यै' इत्यादौ पुंवद्भावाप्रवृत्तौ सिद्धायामस्यादाविति व्यर्थमेवेति वाच्यम्, तावता ङित्सु पुंवद्भा वप्रवृत्तेर्वारणेऽपि विभक्त्यन्तरे तत्प्रवृत्तेर्वारणे निमित्ताभावात् सर्वत्र पुंवदेव रूपं स्यादिति तद्वारणायास्यादेरित्यस्यावश्यकत्वात् । “सर्वादिरस्यादी” इत्येवमेकवचनान्त 25 पाठ एवोचितो बहुवचनेन निर्देशो व्यर्थ इति चेदत्राह
बहुवचनं व्याप्त्यर्थमिति व्याप्तिः सर्वत्र सर्वादिविषये प्रवृत्तिः, सैवार्थः प्रयोजनं यस्य तथाभूतमित्यर्थः । तत्फलमाह - तेन भूतपूर्व सर्वादेरपि भवतीति, अयमाशयः - सर्वा दिकार्यस्य विद्यमान सर्वादित्थवत्येव प्रवृत्तिर्भवति, अत 30 एवं संज्ञोपसर्जनीभूतानां न सर्वादित्वप्रयुक्तं कार्य तेषां सर्वत्र प्रयोक्तुमुचितत्वरूपसर्वादित्वस्याभावात् एवं यत्र सर्वादित्वं निषिध्यते, यथा--"न सर्वादि: " [ १.४ १२. ] इति सूत्रेण द्वन्द्व सर्वादित्वं निषिध्यते, तत्रापि सर्वादित्व प्रयुक्तं कार्यं न भवति, प्रकृतं सर्वादित्वप्रयुक्तकार्य 35 [ पुंवत्वं ] तु यथा विद्यमान सर्वादित्ववतो भवति तथा । त्यादि, सूत्राभावे पुंलिङ्गपूर्वपदेन मृगक्षीरमिति न सिध्यति भूतपूर्व सर्वादेरपि यथा स्यादित्येतदर्थमेव बहुवचनमिति । | पुंसः क्षीरेण सह जन्यजनकभावसम्बन्धाभावात् मृग्या: 70 तदेवाह-दक्षिणोत्तर पूर्वाणामिति - दक्षिणाचोत्तरा च पूर्वा | क्षीरमिति स्त्रीलिङ्गेन पूर्वपदेनापि मृगक्षीरमिति न सिध्यति चेति द्वन्द्वः, अत्र दक्षिणोत्तराशब्दयोस्तु पुंवद्भावो भवत्येव पुंवद्भावाप्राप्तेः समानाधिकरणे स्त्रीलिङ्ग उत्तरपदे एव
श० म० न्यासानुसन्धानम् - मृग० । उत्तरपदप्रत्ययादिनिमित्तौ पुंवद्भावभावाभावी प्रतिपाद्य प्रतिपदं 55 तद्भावाभावप्रतिपादकमिदं सूत्रम् । अत आह- मृगक्षीरादिसमासशब्देष्विति । एवमादयः समासा ये प्रयुक्तास्तेषूभयथा प्रयोगदर्शनात् पुंवद्भावो भवत्यपि न वा भवति, स्त्येकार्थे उत्तरपदे तु पुंवद्भावो नित्यमेव भवतीति तदतिरिक्त एवास्य सूत्रस्य विषय इत्याह- अनेकार्थेऽस्त्र्यर्थे चोत्तरपदे इति एष च पूर्वसूत्रानुरोवाल्लभ्यते, न तु 60 केनापि पदेनोपस्थाप्यत इति न शब्दार्थोऽपि त्वार्थिकोऽर्थः । मृग्याः क्षीरमिनि- मृगक्षीरमिति प्रयोगो दृश्यते, न च मृगस्थ क्षीरेण सह जन्यजनकभावः सम्बन्धोऽस्तीति मृग्या एवं क्षीरमिति पुंवद्भावं विना प्रकृतप्रयोग सिद्धिरेव । ननु मृगस्य क्षीरमिति पुंस्त्रीभेदरहितजातिमात्रविवक्षायां 65 मृगक्षीरशब्दस्य, मृग्याः क्षीरमिति स्त्रीत्वविशिष्टजातिविवक्षायां मृगीक्षीरमित्युभयोः शब्दयोः सिद्धिः स्यादेवेति सूत्रमिदमनर्थकमिति - पुंस्त्रीलिङ्गपूर्वपदभेदेने
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[ पाद-२, सूत्र ६२-६३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
पुंवद्भावविधानात् एवं च मृगोक्षीरमित्यादीनां सिद्धावपि । स्त्री सम्बन्धस्याविवक्षया मृगक्षीरादीनां सिद्धिः स्यादेवेति मृगक्षीरमित्यादीनां सिद्धयर्थं सूत्रमिदमावश्यकमिति । न तदर्थं वचनमारब्धव्यमिति । स्वमते तु विवक्षितेऽपि 40 समुदितार्थः । स्त्रीत्वे मृगक्षीरादीनां सिद्धये सूत्रमारब्धमिति पूर्व प्रतिपादितमेव । मृगक्षीरादयो न नामतो निर्दिष्टा इति केषामादिशब्देन संग्रह इति सन्देहे आह- मृगक्षीरादयः प्रयोगतोऽनुसर्त्तव्याः इति - शिष्टप्रयोगानुसारमेव मृगक्षीरादयो विज्ञेया इति भावः ।। ३-२-६२. ।।
पाणिनीये तन्त्रे तु भृगक्षीरादीनां सिद्धचर्थ “कुक्कुट्या | 5 दीनामण्डादिषु" इति वार्तिकमारभ्यते "पुंवत् कर्मधारय - जातीयदेशीयेषु" [पा. सू. ६. ३.४२. ] इति सूत्रे । तच्च भाष्यकृता प्रत्याख्यातम्, तथाहि तत्रत्यो ग्रन्थः - "न वास्त्री पूर्व पदविवक्षितत्वात्' [वा०], न वा वक्तव्यम्, कि कारणम् ? अस्त्री पूर्व पदविवक्षितत्वात् नाऽत्र स्त्रीपूर्वपदं 10 विवक्षितम् किं तर्हि ? अस्त्रीपूर्वपदं विवक्षितम् उभयोरभयोः पदमुभयो : शावः । यद्यपि तावदत्रं तच्छक्यते वक्तुम्, इह तु कथं मृग्याः क्षीरं मृगक्षीरमिति । अत्रापि ‘नवाऽस्त्रीपूर्वपदविवक्षितत्वात्' इत्येव । कथं पुनः सतो नामाऽविवक्षा स्यात् ? | सतोऽप्यविवक्षा भवति, तद्यथा15 अलोमिकैडका, अनुदरा कन्येति; असतश्च विवक्षा भवति, तद्यथा - समुद्रः कुण्डिका, विन्ध्यो वर्धितकमिति" इति ।
|
७१
ऋदुदित्-तर-तम-रूप-कल्प - ब्रुव-चेलट्-गोत्रमत हते वा ह्रस्वश्च । ३. २. ६३॥
45
त० प्र०- ऋविदुदिच्च परतः स्त्रीलिङ्गशब्दस्तरादिषु प्रत्ययेषु, ब्रुवाविषु च स्त्र्येकार्येषूत्तरपदेषु ह्रस्वाऽन्तः पुचच्च या भवति । तर- पचन्तितरा, पचत्तरा, पचन्तीतरा; श्रेयसितरा श्रेयस्तरा, श्रेयसीतरा; विदुषितरा, विद्वत्तश, विदुषीतरा; तम - पचन्तितमा, पचत्तमा, पचन्तीतमा; यतिमा, श्रेयस्तमा श्रेयसीतमा; विधुषितमा, विद्वत्तमा, विदुषीतमा रूप - पचन्तिरूपा, पचद्रूपा, पचन्तीरूपा; श्रेयसिरूपा, श्रेयोरूपा, श्रेयसीरूपा विदुषिरूपा, विद्वद्रूपा, 55
|
60
।
अयमाशयः - - ' कुक्कुटाण्डम्, मृगपदम्, काकशाद : ' इत्यादिषु पुमानेव वृत्तिवाक्य विषय:- - 'कुक्कुटस्य अण्डम्, मृगस्य पदम्, काकस्य शावः' इत्येव वाक्यम्, पुलिगेनैव 20 पूर्वपदेन समासः अण्डादिना उभयोर्जन्यजनकभावसम्बन्ध विदुषीरूपा; कल्प-पचन्तिकल्पा, पचत्कल्पा, पचन्तीकल्पा; स्य, स्वस्वामिभावसम्बन्धस्य वा सस्वात् । कुक्कुटचा अण्ड- विदुविकल्पा विद्वत्कल्पा, विदुषीकल्पा बुथ - पचन्ती मिति स्त्रीलिंगेन विग्रहे तु वाक्यमेव, कुक्कुट्यण्डमित्यादयो ! चासौ बुवा च पचन्ति ब्रुवा, पचबुवा, पचन्तीबुवा श्रेयसिब्रुवा, श्रेयोबुवा, श्रेयसीब्रुया; विदुधियुवा विद्वबुवा, विदुषीबुवा ; चेलट्-टिद्वचनं यर्थम् - पचन्ती चासो चेली च-पचन्ति चेली, पचच्चेली, पचन्ती चेली; श्रेयसिचेली, श्रेयःचेली, श्रेयसीचेली; विदुषिचेली, विद्वरुचेली, विदुषीचेली; गोत्र - पचन्ती चासौ गोत्रा च-पचन्तिगोत्रा, पचद्गोत्रा, पचन्तीगोत्रा; श्रेयसिगोत्रा, श्रयोगोत्रा, श्रेयसी. गोत्रा; विदुषिगोत्रा, विद्वद्गोत्रा, विदुषीगोत्रा; मत65 पचन्ती चासो मता च पचन्तिमता, पचन्मता, पचन्तीमता; श्रेयसिमता, श्रेयोमता, श्रयेसीमता; विदुषिमता, विद्वन्मता, विदुषीमता; हत- पचन्ती वासौ हता च-पचलिहता, पचद्धता, पचन्तीहता; श्रेयसिहता, श्रेयोहता, श्रेयसीहता; विदुषिहता, विद्वद्धता, विदुषीहता एवं सुद- 70 |तितरेत्यादि । ब्रुवादयः कुत्साशब्दाः "निन्द्यं कुत्सनं ० " [३.१.१००.] इति च समासः । ऋदिदिति किम् ? कुमारितर, किशोरितरा; किशोरितमा । एकार्थ इत्येव -
न भवन्ति समासा अनभिधानात् । अस्तु वाऽभिधानसत्ये कुक्कुट्यण्डमित्यादिसमासोऽपि । एवं कुवकुटाण्डमित्यादि25 पूर्वोक्तप्रयोगेषु निर्वाहसम्भवेऽपि मृग्याः क्षीरं मृगक्षीरमिति न सिद्ध्यति, मृगस्य [ पुंसः ] क्षीरेण सह तथाविधसम्बन्धासम्भवादित्यपि न वक्तव्यम्, अत्रापि स्त्रीत्वस्याविवक्षया जात्यन्तरसम्बन्धनिवृत्तिमात्रप्रयोजनाय मृगजातिसम्बन्धिक्षीरमिति सामान्यविवक्षायां मृगक्षीरादीनां सिद्धेः । 30 स्त्रीत्वविवक्षायां तु वाक्यमेव समासो वा सत्यभिधाने । यद्यपि जातिमात्रविवक्षायामपि स्त्रीत्वं सदेव, तथाऽप्यनुदरा कन्येत्यादिव्यवहारवत् सतोऽपि स्त्रीत्वस्याविवक्षा विज्ञेया । दृष्टा च ववचिदसतोऽपि विवक्षा, यथा असदेव कुण्डिकात्वं समुद्रे,असदेव समुद्रत्वं कुण्डिकायामारोप्य समुद्रः कुण्डिकेति | 35 प्रयोगः क्रियते । यथा वा असदेव विन्ध्य [ पर्वत ] त्वं afधत [हैयङ्गवीने] आरोप्य विन्ध्यो वर्धितकमिति प्रयोगः क्रियते । तथा च सत्वमसत्त्वं वा विवक्षाधीनं, न तु वस्तुस्थिति निधनम् । एवं च क्षीरेण सह सतोऽपि
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बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास संवलिते
[ पाद-२, सूत्र. ६३ ]
पचन्त्याहता-पचन्तीहता, विदुव्याहता - विदुषीहता 1 हस्वप्रवृत्तेरसंभवात् तदभावपक्षमेव पूर्व हस्वप्रवृत्तितरादिष्विति किम् ? पचत्याशा, विद्वद्वृन्दारिका ॥ ६३ ॥ निर्देशायोदाहरति, ह्रस्वाभावे पुंवत्वे- पचन्तरेति, उभयोरभावे - पचन्तीतरेति । श्रेयसितरेति इयमनयोरतिशयेन प्रशस्येति-- श्रेयसी, सैवेति स्वार्थेऽत्र तरः ''क्वचित् 41 स्वार्थे" [७. ३.७.] इत्यनुशासनात् इदमुन्दिन्तस्योदाहरणम्, इयसोरुदित्त्वात् । विदुषित रत्याद्यप्युदिदः तस्यैव, | विग्रहे "त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप्" [ ७. ३. १३. ] इति रूपप् क्वसोरुदित्त्वात् । पचन्तिरूपेति - प्रशस्ता पचन्तीति हस्वादि पूर्ववत् । पचन्तीकल्पा ईषदसमाप्ता पचन्तीति 4! विग्रहः "अतमबादेरीषदसमाप्ते कल्पप् देश्यप् देशीयर्” [ ७. ३. १३. ] इति कल्पप् । अथ वादिषूदाहरति- पचन्तिब्रुवा ब्रवीतीत्यर्थेऽचि प्रकृतसूत्रे निपातनाद् गुणाभावे उवादेश:, स्त्रियामाप् हस्वादि पूर्ववत् । चेलशब्दोऽपि लिहायजन्त एव, टिस्वं सूत्रे निपात्यते स्त्रियां ङयर्थं तदाह - 50 टिद्वचनं ङन्यर्थमिति--"अणञेये कण्- नव् स्नञ्-टिताम्” |[२.४.२० . ] इति सूत्रविहितङीप्रत्यय सिद्धयर्थमित्यर्थः । ब्रुवादयो निन्दावचना इति पूर्वमुक्तमेव । गवोपपदात् त्रायते : 'आतो डोऽह्वा वामः" [ ५.१.७६ ] इति डे मोत्रशब्दो व्युत्पाद्यते परमसावपि निन्दायामेव प्रयुज्यते मन्यतेः सत्यर्थे क्ते मतशब्दो व्युत्पाद्यते, सोऽपि निन्दावचन एवेह वृत्तिस्वाभाव्यात् । हतशब्दो हन्तेः वते सिद्धः, स च पापादिगणपठित इति तस्थ "निन्द्यं कुत्सनैरपापाद्यैः” [ ३.१.१०० ] इति सूत्रे पर्युदस्तत्वान्न तेन समासो भवति, ततश्च हतशब्दस्य विशेषणत्वेन विशेषणसमासे पूर्व - 6 ( निपातापत्तिः 'हतविधि:' इत्यादिवत्, किन्तु प्रकृतसूत्रेण हतशब्दे परे पुंवदादिविधानसामर्थ्यादेव नित्यसमासः, तथा च निन्द्यस्यैव पूर्वनिपातः । तद्धित कृत्प्रत्ययसम्बन्धि ऋदुदितमुदाहरणमुक्त्वा समासान्तप्रत्ययसम्बन्धि ऋदितोऽप्यु दाहरणं पूर्वोक्तप्रकारेण वेत्यतिदिशति एवं सुदतितरे- 65 त्यादीति - शोभना दन्ता यस्या असौ सुदती, इयमनयोरतिशयेन सुदतीत्यादिविग्रहः । ब्रुवादिविषये समासविधायकसूत्रं वक्तुं ब्रुवादीनां कुत्सावाचकत्वमाह-ब्रुवादयः कुत्साशब्दाः इति । ऋदुदिति किमिति सामान्येनैव
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श० म० न्यासानुसन्धानम्-ऋदुदित्० । ऋदु- | दिदिति प्रथमान्तं ' परतः स्त्री' इत्यस्य विशेषणम्, तदाह5 ऋदिदुदिव परतः स्त्रीलिङ्गशब्दः इति - यद्यपि पचन्तीत्यादीनां शब्दानां न ऋदित्त्वम्, यतोऽत्र प्रत्ययस्यैव तत्त्वम् शतृप्रत्यये एव ऋकार इद् भवति, तथापि 'ऋदित्' शब्दस्य विशेषणत्वेन "विशेषणमन्तः " [ ७-४-११३ ] इति परिभाया तदन्तग्रहणात् 'ऋदिदन्त उदिदन्तश्च परतः स्त्रीवाचकः 10 शब्द:' इत्यर्थाश्रयणे दोषाभावः भवति हि 'पचत्शब्दस्य ऋदिदन्तत्वम्, ऋदित् 'अत्' इति सोऽन्तेऽस्येति तत्त्वाक्षतेः । अत्र तरादयः प्रत्ययाः ब्रुवादीनि शब्दस्वरूपाणि प्रायो वृत्तिविषये निन्दापराण्येव । अत्र सूत्रे वा ग्रहणं पुंवदित्यनेनैव सम्बध्यते, न तु ह्रस्वेनापीति परेषां मतस्य निरा 15 करणाय वा शब्दमन्ते योजयति वृत्ती -- ह्रस्वान्तः पुंवञ्च भवतीति । क्रमश उदाहरति-- पचन्तित रेत्यादिना, 'पच्' धातोः पाकार्थस्य वर्त्तमानायां शतृप्रत्यये कृते पचदिति रूपं, ततः स्त्रियां पचन्तीति रूपमिति भवति तस्य ऋदि दन्त प्रकृतिकत्वात् तत्त्वम् । यद्यपि तरादिप्रत्यय विषयेऽपि 20 तदन्तविधिना 'तराद्यन्ते उत्तरपदे' इत्यर्थ आशङ्कितुं शक्यते,
भवति च तथा सति ब्रुवादिना सहैकरूपेणैवान्वयः, सम्प्रति हि प्रत्ययेषु परतः ब्रुवादिषु चोत्तरपदेध्विति विभज्य वाक्यं क्रियते, तरादिषु तदन्तविधौ सति च तराद्यन्ते बुवादौ चोत्तरपदे परत इत्येकदेवोत्तरपदस्य समाना 25 धिकरण्येनोभा म्यामन्वये लाघवम्; तथापि तथा न व्याख्यातम्, यतः * उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे न तदन्त ग्रहणम् * इति न्यायेन प्रकृते तदन्तविधिर्न शक्यते कर्तुम्, अत्र न्याये मानं च "हृदयस्य हृल्लासलेखाण्ये" [३-२-९४] इति सूत्रे लेख ग्रहणम्, तत्र हि लेखेत्यणन्तस्य ग्रहणमिति 30 व्याख्यातम्, अण्प्रत्ययोऽपि सूत्रे पठ्यते, ततश्च अणन्तत्वेनैव लेखस्य ग्रहणे सिद्धे पुनर्लेखग्रहणं व्यर्थीभूतमुक्त - न्यायज्ञामापकमिति न्यायार्थसिन्धी विस्तरशः प्रतिपादितम् । । सर्वेषां परत: स्त्रीलिङ्गशब्दानामनेन पुंवद्भावो ह्रस्वश्च 76 प्रकृतन्यायज्ञापने च तदीय [ लेखग्रहण ] सार्थक्यमिव प्रकृते - ! विधीयतामिति प्रश्नाशयः कुमारितरेति तथा सतीहापि ऽपि तदन्तविध्यभावान्न तराद्यन्ते उत्तरपदे सूत्रप्रवृत्तिरपि । विकल्पेन पुंवत्त्वं स्यादिष्यते तु नेति भाव: ह्रस्वस्तुत्तर 35 तु प्रत्ययमात्र इत्याशयेनाह - तर - पचन्तितरेति सूत्रेण नित्यमेव विधास्यते, तथा चैकमेव रूपम्, ऋदुदिदि
इयमनयोरतिशयेन पचन्तीति विग्रहः पुंवद्भावपक्षे च । त्यस्थाभावे तु रूपत्रयं स्यात् ।
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[ पाद-२, सूत्र - ६३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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भवति नान्यत्रेति भाव: 1 व्यावर्त्य माह-- पचन्त्या हते त्यादि - - इह हृतशब्दो न कुत्सावाची किन्तु भूतकालिकहिंसाकर्मीभूतार्थक एवं तरादिष्विति किमिति--प्रत्ययविशेषोपादानं किमर्थमिति प्रश्नः । पचत्पाशा अत्र निन्दायां
5
मेव पित्तद्वितनिमित्तकः पुंवद्भावो भवति “क्यङमानिपित्तद्धिते''--- [ ३. २. ५०. ] इति सूत्रेण । प्रत्यय प्रत्युदाहरणमुक्त्वोत्तरपदप्रत्युदाहरणमाह - विद्वद्वृन्दारिकेति -- वृन्दा10 रिकाशब्दः प्रशंसावचनः, विदुषी चासौ वृन्दारिकेति विग्रहः,
।
15
"वृन्दारक-नाग कुञ्जरै:" [ ३.१.१०८. ] इति समासः, “परतः स्त्र्यनूङ०” [ ३. २.४६ ] इति पुंवद्भावः, अत्रापि ह्रस्व-पुंवत्वयोविकल्पो नेष्टः, तद्वारणार्थं तरादिग्रहणमावश्यकमिति भावः । पाणिनीये तन्त्रे काशिकादिवृत्तिकारं रपि पुंवद्भावो ह्रस्वश्च विकल्पेन विधीयते, परं भाष्यादि प्रामाणिकग्रन्थकर्तारः पुंवद्भावमेव वैकल्पिकमिच्छन्ति ह्रस्वं नित्यमेव स्वीकुर्वते, तेषा मते पुंवद्भावाभावे ह्रस्वः प्रवर्तत इति विद्वत्तरा विदुषित रेत्याद्येव रूपं भवति । स्वमते च रूपत्रयमिति प्रकृतसूत्रविषये मदभेदो विज्ञेयः 20 ॥ ३.२.६३ ॥
।
एकार्थ इत्येवेति -- समानाधिकरणे उत्तरपदे एव | सूत्रेण ह्रस्व एव केवलं विधीयते, सोऽपि नित्यमेवैति लभ्यते । तथा च सूत्रार्थमाह-डयन्तस्येत्यादिना ङीः प्रत्ययस्ततस्तस्य तदन्तग्राहकत्वस्यौचित्यात् 'अत्यन्तः परतः स्त्रीलिङ्गशब्दः इत्यर्थलाभः । गौरितरेति- इयमनयो। रतिशयेन गौरी-गौरवर्णा इति विग्रहः । इयमासामतिशयेन पाशप् प्रत्ययः, निन्दिता पचन्तीति विग्रहः अत्र च नित्य | गौरीति गौरितमेत्यस्य विग्रहः । प्रशस्ता नर्तकी - नर्त्तकिरूपा । ईषदसमाप्ता कुमारी - कुमारिकल्पा । ब्राह्मणी चासौ गोत्रा - ब्राह्मणिगोत्रा । गार्गी वासौ मता- गागिमता | आत्मानं गार्गी मन्यते न तु तथा, निन्दितत्वादिति भावः, न त्वयं विग्रहः । गौरी वासी हता- गौरिहता । 45 प्रकृतसूत्रविषये पिदादिनिमित्तः पुंवद्भावः कर्मधारयनिमितरच प्राप्नोति स कथं न क्रियत इत्याशङ्कायामाह-परत्वाद् यथाप्राप्तं पुंवद्भावं बाधते इति, अयमाशय:दर्शनीयतरेत्याद्याबन्तेषु पुंवद्भावः पिन्निमित्तः सावकाशः, विद्वद्वृन्द्वारिकेत्यादिकर्मधारये च नर्त्तकिरूपेत्यादी कोपा- 50 न्त्यत्वनिमित्तकपुंवद्भावप्रतिषेधात् प्रकृतसूत्रं सावकाशम्, कुमारितरेत्यादौ तुभयो, प्राप्तिः, तत्र यदि पुंवद्भावः स्यात् तदास्य प्रवृत्तिप्रयोजनमेव नास्ति, अस्मिन् प्रवृत्तेऽपि यदि पुंवद्भावः स्यात् तदापि नैतत्प्रवृत्तिसार्थक्यं सति ह्रस्वेऽसति वा विशेषाभावादित्युभयोर्विरोधात् स्पर्धः, तत्र च "स्पर्धे" 55 [ ७.४.११९] इति परिभाषया परत्वादिदमेत्र प्रवर्तत इति ऋ सकृद्गती विप्रतिषेधे यद् बाधितं तद् बाधितमेव इति न्यायात् पुनः पुंवद्भावो न भवति । यथाप्राप्तमिति प्राप्तं प्राप्तिः, तदनतिक्रमेण - यथाप्राप्तमिति, यत्र न सूत्रेण प्राप्तं पुं वत्वं तत् सर्वमनेन बाध्यत इत्यर्थः । 60 गौरितरा गौरितमेत्यादौ पिन्निमित्ता, अन्यत्र कर्मधारयनिमित्ता प्राप्तिः, नर्त्तकी रूपेत्यादी कोपान्त्यत्वनिमित्तः प्रतिषेध एव प्राप्तः, ब्राह्मणिवेत्यादी "स्वाङ्गान्ङी०" ३.२.५६. ] इति प्रतिषधस्तु न शङ्कयः " पुरवत् कर्मधारये'' [३. २. ५७. ] इत्यस्य प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थत्वस्योक्त- 65 स्वात् । ङ्य इति किमिति - सामान्येनैव परत: स्त्रियास्तरादिषु ह्रस्वो विधेय इति प्रश्नार्थः । मद्रिकात रेतिअत्र पिनिमित्तः पुंवद्भावस्तद्धितकोपान्त्यनिमित्तेन प्रतिषेधेन वारित इति ह्रस्वः स्यात्, कारिकात मेध्यत्राकनिमित्तः प्रतिषेधः, दत्तारूपेत्यत्राख्यानिमित्तः सेनानी- 70 ग्रामणीशब्दयोस्तु पुंस्यपि यथास्थितमेव रूपमिति नात्र पुंवद्भावकृतो विशेषः, सेनादिनायकत्वस्य स्वभावतः पुंधर्मत्वेऽपि परतः स्त्रीत्वं सेनानी - ग्रामणी शब्दयोः संभवत्येवेति
ङयः । ३. २. ६४ ।
त० प्रा०--ङयन्तस्य परत: स्त्रीलिङ्गस्य तरादिषु ! प्रत्ययेषु खुवादिषु चोत्तरपदेषु एकार्थेषु ह्रस्वोऽन्ता देशो भवति । गौरितरा, गौरितमा, नर्तकिरूपा, कुमारिकल्पा, ब्राह्मणिब्रुवा, गागिचेली, ब्राह्मणिगोत्रा, गागिमताः, गौरिहता । परत्वाद्यथाप्राप्तं पुंवद्भावं बाधते । ङय इति किम् ? मद्रिकातरा, कारिकातमा, दत्तारूपा, सेनानीरूपा, प्रामणीकल्पा | परत: स्त्रिया इत्येव ' बदरीतरा, श्रामलकीतरा । एकार्थं इत्येव ब्राह्मणीहता । "नवेकस्वराणाम् " [ ३. २. ६६. ] इत्युत्तरत्र वचनादनेकस्वरस्यैवायं विधिः ॥ ६४ ॥
[
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30
श०म० न्यासानुसन्धानम्--ङ्कः । ऋदुद्विजं पूर्वसूत्रं विकल्परहितमनुवर्त्तते, पुंवदिति च निवृत्तं पूर्वसूत्रे ह्रस्वश्चेति चकारेणानुकृष्टस्य तस्योत्तरत्र प्रवृत्ते रतौचि 35 त्यात् चानुकृष्टं नोत्तरत्र इति न्यायात्, तथा च प्रकृत
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१०
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
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[ पाद-२, सूत्र. - ६५ ]
बत्तरा, भोगवतीतरा, एवं गौरिमतितरेत्यादि, उदित्त्वात्पूबैण रूपम् ॥ ६५ ॥
।
भवति स्वप्राप्तिः, ङय इति कथने तु पूर्वेषु प्राबन्तत्वेन, सेनातीत्यादी धातुरूपस्यैव तथात्वेन नात्र भवति ह्रस्वः । परतः स्त्रिया इत्येवेति परत: स्त्रिया एवानेन ह्रस्वो भवति, न तु स्वतः [ नित्यं ] स्त्रीलिङ्गस्येति भावः । 5 तत्फलमाह - बदरीत रेति - बदरी - वृक्षविशेषः, स नित्यं स्त्रीलिङ्ग एवेति तस्यापि हस्वत्वे बदरित रेति स्यात् । बदय: । स्त्रीत्वं तु स्त्रीलिङ्गाधिकारे "शिशपाद्या नदी -वीणाज्योत्स्ना - चीरी-तिथी-धियाम्" [लि० स्त्री० ३] इत्यादिवचनात् बदरीशब्दस्य शिशपादी पाठात् । आमलकी10 तरेति - आमलक शब्दो यद्यपि त्रिलिङ्गस्तथापि तस्य स्वत
श० म० न्यासानुसन्धानम् - भोगवद्० । ङय इति पूर्वतोऽनुवृत्तम्, भोगवद्- गौरिमतोरिति तस्यैव विशेषणम्, तथा च तत्सम्बन्धिङीप्रत्ययस्येत्यर्थो लभ्यते, 40 नाम्नीति च तयोरेव विशेषणं, न तु तत्सहितसमासस्य, तेन सह सूत्रस्थपदस्यास्य सम्बन्धासंभवात् । भोगाः सर्पफणाः सन्त्यस्याम्, सर्पशरीराण्यपि भोगशब्देनोच्यन्ते, लघुन्यासे - भोगाः सर्पकञ्चुकाः इत्युक्तम्, तत्र [ कञ्चुके] भोगशब्दस्य शक्तिरप्रसिद्धा-
स्त्रिलिङ्गेषु पाठः तथाहि-- " भल्लातक ग्रामलको हरीतकबिभीतकी” [लि० स्वतस्त्रिलिङ्ग - प्र. ३] इति वचनम् तथा च स्त्रियामपि स्वत एव प्रयोगो न तु विशेष्यपारवश्यात्, तथा चात्रापि न भवति ह्रस्वः, परत: स्त्रिया 15 ग्रहणाभावे तु स्यादेव । एकार्थे उत्तरपदे इत्यप्यवश्य मे वानुवर्त्तनीयमित्याह-- एकार्थ इत्येवेति -- यत्रोत्तरपदे परे ह्रस्वो विधेयस्तस्योत्तरपदस्य पूर्वपदेन सहैकार्थ्यमाव श्यकमिति भावः । तदभावे दोषमाह ब्राह्मण्या हता - ब्राह्मणीहतेति--अत्र ब्राह्मणीकर्तृ कहननकर्मीभूतेत्यर्थं इति 20 न पूर्वोत्तरपदयोः सामानाधिकरण्यमिति न भवति । प्रकृतसूत्रे ह्रस्वनिर्देशादेव भोगवतीति ह्रस्वमध्यः पाठः । ह्रस्वः, “एकार्थे' इत्यस्यासम्बन्धे च स्यादेव । अत्र | गौरीति प्रसिद्धमेव, गौरशब्दाद् गौरादित्वान्ङया सिद्धम्, 55 सर्वेषामने कस्वराणामेव परत. स्त्रीलिङ्गशब्दानामुदाहरणस्य । ततोऽपि मतो स्त्रियां गौरीमतीति प्राप्ते "ड्यापो बहुलं कारणं शिष्यबुद्धिवैशद्याय स्फोरयति-- नवैकस्वराणा । नाम्नि " [ ८. ४. C. ] इति ह्रस्वः, ताभ्यां तरपि प्रकृतमित्युत्तरत्रेति -- "नव कस्वराणाम् " [ ३.२.६६. ] इत्यु- । सूत्रेण ह्रस्वत्वे -- भोगवतितरा, गौरिमतितरेत्यादि । 25 तरसूत्रेणैकस्वराणां ङयन्तानां यथाकथंचित् स्त्रियां वर्त्त | नाम्नीति किमिति - भोगवती-गौरिमतीशब्दयोरु दिदन्तमानानां विकल्पेन ह्रस्वो विधीयते स वास्मात् पर इति । त्वेन पूर्वेणैव सिद्धिरिति नाम्नि विशिष्य ह्रस्वविधानार्थं 60 स्वविषये प्रकृतसूत्रं बाधिष्यत इति परिशेषादस्य सूत्र | प्रकृतसूत्रमेव किमर्थमिति प्रश्नाशयः । नाम्नोऽन्यत्र पूर्वेण स्थानेकस्वरेष्वेव प्रवृत्तिरिति भावः । ३. २. ६४. ।। त्रैरूप्यं भवति, प्रकृतसूत्रं च नाम्नि केवलं ह्रस्वमेव विदधत् पुंवत्त्वस्य ह्रस्ववैकल्पिकत्वस्य चाभावार्थमिति फलसत्त्वेन पृथक् सूत्रमिदमावश्यकमिति प्रत्युदाहरणमुखेनोत्तरयति -
भोगवद्गौरिमतोर्नाम्नि ॥ ३ ६ ६५ ॥ । भोगवतितरा, भोगवत्तरा, भोगवतीतरेति - - श्रत्र हि 65 भोगवच्छद्वो न नामापि तु भोगाः सुखादयः सन्त्यस्या इति विग्रहवशाद् विशेषणभूतः परतः स्त्रीलिङ्गः, पूर्वत्र तु नित्यस्त्रीलिङ्गो नदीविशेषस्य नामत्वात् तथा च नामभि उदिदन्तत्वनिमित्तकं त्रैरुप्यमेव पुंवद्भाव - ह्रस्वयोर्विकल्पात् तच्च नाम्नि नेष्टमिति 'नाम्नि' इति पदघटितमिदं सूत्रमावश्यकमिति भावः । एतदर्थकं सूत्रं पाणिनीये तन्त्रे नोपलभ्यते, प्राचां तन्त्रे तु श्रूयते । ३. २. ६५. ।।
70
।
त० प्र० - भोगवद्गौरिमतोर्नाम्नि संज्ञायां वर्तमान योर्डीप्रत्ययस्य तरादिषु प्रत्ययेषु बुवादिषु चोत्तरपदेष्वे कार्येषु ह्रस्वो भवति । भोगवतितरा, गौरिमतितरा, भोगवतितमा, गौरिमतितमा, भोगवतिरूपा, गौरिमतिकल्पा, भोगवति ब्रुवा, गौरिमतिचेली, भोगवतिगोत्रा, गौरिमतिमता 33 भोगवतिहता । नाम्नीति किम् ? भोगवतितरा, भोग
~~~
45
"पालनेऽभ्यवहारे च योषिदादिभृतावपि । भोगः सुखे धने चाहे: शरीर-फणयोरपि ।। " इति लिङ्गानुशासनधृतवचने तद्वाचित्वस्थाकथनात् । न च नदीविशेषे कुतः फणानां सत्ता, ते हि सर्पाणामेव शरीरे स्युरिति वाच्यम्, सर्पद्वारा नद्या अपि तद्वत्त्वे बाधकाभावात् अत्र भोगशब्दान्मतुः "अनजिरादिबहुस्वरशरादीनां मती" [३.२.७८ ] इति दीर्घे -- भोगावतीति भवति,
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[ पाद-६, सूत्र - ६६ ]
श्रसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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नवैकस्वराणाम् ॥ ३. २. ६६ ॥
त० प्र० --- अहुवचनात् परतः स्त्रीति निवृत्तम्, सामान्येन तु विधानम्; वेकार्थे इत्यनुवर्तते । एकस्वरस्य डघन्तस्य तरादिषु प्रत्ययेषु, ब्रुवादिषु चोत्तरपदेषु स्त्रका 5 र्थेषु ह्रस्वोऽन्तादेशो वा भवति । स्त्रितरा, स्त्रीतरा; ज्ञस्य भार्या ज्ञी, ज्ञितमा, शीतमा; श्रस्यापत्यं स्त्री-ई, इरूपा, Farr; कस्य भार्या -की, विकल्या, कीकल्पा; जिब्रुवा, atagar; इचेली; ईचेली किगोत्रा, कीगोत्रा; स्त्रिमता, स्त्री मता; स्त्रिता, स्त्रीहता । एकस्वराणामिति किम् ? कुटी10 तरा, दुणीतमा, श्रामलकीतरा, बदरीतमा; कुवलीरूपा । उध इत्येव श्रीतरा, होतमा, धीरूपा । एकार्थ इत्येव स्त्रिया हता स्त्रीहता | नित्यवितामनेकस्वराणामपीच्छन्त्येके तन्मते - श्रामलकितरा, बदरितमा, कुवलिरूपा, लक्ष्मिकल्पा तन्त्रितरेत्याद्यपि भवति ॥ ६६ ॥
'अकारो वासुदेवः स्यात् इत्येकाक्षर कोषानुसारम् 'अ' शब्दो विष्णुवाची, अन्यार्थोऽपि स इति श्रूयते, अकार: सर्वनामेति प्रसिद्धेः, ततोऽपत्यार्थे इञि अकारस्य लुपि इरिति, ततः प्रशस्ते रूपपि श्रपि-स्त्रियां ङी, ईति, ततः कस्य भार्येति को ब्रह्मा, 40 ईरूपेति, हस्वे- इरूपा । धवयोगे ङीः, तत ईषदसमाप्ते कल्पपू । एषु ह्रस्वविकपपक्षे पुंवत्वं पिनिमित्तं कर्मधारयनिमित्तं वा न भवति, एषां सर्वेषामाख्यारूपत्वात् तद्धिताक कोपान्त्य पूरण्याख्याः" [ ३.२.५५] इति निषेधात् । 'ईरूपा' इत्यादौ पुंवत्वे ह्रस्व पक्षे च रूपसाम्यमेवेति न पुंवद्भावप्रवृत्तिफलम् । एक- 45 स्वराणामिति किमिति शेषस्य नवा” इत्यादिरूपमेव
!
!
श० म० न्यासानुसन्धानम् नबै० । नर्वकस्वरस्थेति एकवचनप्रयोगेऽपि सूत्राणां स्वत एव व्यापकत्वेन सकलैकस्वरस्थले प्रवृत्तेरव्याहतत्त्वेन बहुवचनेन निदेशो व्यर्थ इति शङ्कायामाह - बहुवचनात् परतः स्त्रीति निवृत्तमिति - बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वं बहुशो व्याख्यातम्, तत्र 20 प्रकरणवशालब्धस्य परतः स्त्रीलिङ्ग शब्दस्यैव सूत्रविषयत्वे
प्राप्ते सकलैकस्वरपरतः स्त्रीलिङ्गशब्देष्वेव सूत्रस्य प्रवृत्तिः स्यान्न तु परतः स्त्रीलिङ्ग स्वतः स्त्रीलिङ्गादिसर्वविधैकस्वरविषये इति तादृशव्यापकविषयतालाभार्थ सूत्रे बहुवचनं निर्दिष्टमिति बोध्यमिति भावः । परतः स्त्रीत्यस्य निवृत्ती 25 केन रूपेणोद्देश्यतेति जिज्ञासायामाह - सामान्येन तु विधानमिति - सामान्यतो ङयन्तस्यैकस्वरस्यानेन ह्रस्वो विधीयत इति भावः । त्र्येकार्थे इत्यनुवर्त्तते इति-अतिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थं स्त्रीवाचिनि समानाधिकरणे उत्तरपदे इत्यस्य सम्बन्धस्त्वावश्यक इति भावः । तथा च निष्पन्नं । दितामनेकस्वराणामिति--नित्यं
30. सूत्रार्थमाह-एकस्वरस्य ङयन्तस्येत्यादिना । स्त्रितरा स्त्रीतरेति-स्त्यायतोऽस्यां शुक्रशोणिते इत्यर्थे स्त्यायतेरीणादिकेन प्रत्ययेन 'स्त्र' शब्दो निष्पद्यते, ततो ङयां- स्त्रीति एकस्वरो ङयन्तः, तस्य तरादिषु ब्रुवादिषु च वैकल्पिके हस्वत्वे - स्त्रित
रेत्यादि । ज्ञितमा जानातीति ज्ञः, तस्य भार्या इत्यथ धव35 योगे ङीः, ततस्तमनादौ ज्ञितमेत्यादि । अस्यापत्यं स्त्रीति -
७५
।
सूत्रं क्रियाताम् येन पूर्वसूत्राभ्यामवशिष्टस्य परतः स्त्रीरूपस्य वा सर्वस्य शब्दस्य तरादिषु ब्रुवादिषु च विकल्पेन ह्रस्वो भवेदिति प्रष्टुराशयः । कुटीत रेत्यादि, कुटी-दुणी-आमलकी - बदरी - कुवलीशब्दाः स्वतः स्त्रीलिङ्गा अनेकस्वरा:, तेषा- 50 मप्येवं सति विकल्पेन ह्रस्वः स्यात्, एकस्वराणामिति कथने तु एषामनेकस्वरत्वान्न भवति ह्रस्वः, पूर्वसूत्रे तु परतः स्त्री" इति भणनादेषु ह्रस्वो नैव भवति । ङय इत्येवेतिएकस्वराणामिति बहुवचनेन परतः स्त्रीत्यस्य निवृत्तावपि पूर्वसूत्रात् ङय इत्यवश्यं सम्बन्धनीयमिति भावः । तत्फल- 55 माह-- श्रीतरेत्यादि — श्री — ह्री- धी. शब्दा न इयन्ता अपि तु कृदन्ता एव श्रयतीति - श्रीः ह्रिणीते इति - ह्रोः ध्यायतीति धीरिति विग्रहे क्विबन्ता एते सिद्धयन्तीत्येतेषु धातुसम्बन्ध्ये वेकारो न तु ङीकृत इत्येषां केनापि सूत्रेण ह्रस्वो नेष्टः, ङय इत्यस्याभावे तु स दुर्वारः स्यादेकस्वरत्वेन 60 प्रकृतसूत्रप्रवृत्तेः, स्वतः स्त्रीलिङ्गेष्वपि प्रकृतसूत्रप्रवृत्तेः स्वीकृतत्वात् । ' एकार्थे उत्तरपदे' इत्यपि स्वीकरणीयमेवेत्याह- एकार्थ इत्येवेति । व्यावत्थमाह- स्त्रिया हता-स्त्रीहतेति- - अत्र स्त्रीशब्दों न हतशब्देनैकार्थः, स्त्री हननकर्त्री, तत्कर्मीभूता चान्या, ततोऽन्त्र ह्रस्वव्यावृत्त्यर्थम् 65 'एकार्थे' इत्यावश्यकमिति भावः । मतान्तरमाह - नित्यदितः -- दकारेत्संज्ञका
।
'दं दास् दास-दाम:' प्रदेशा येषां ते नित्यदितः - नित्य - स्त्रीलिङ्गा, "स्त्रीदूत:" [ १.४.२० ] इति सूत्रेण नित्यस्त्रीलिङ्गादोदन्तात् परेषां ङितां वचनानां पूर्वोक्तादेशानां 70 नित्यं विधानात् । तादृशानामनेकस्वराणामपि केचित् वैकल्पिकं ह्रस्वमिच्छन्ति तेषां मते च वृक्षेऽर्थे आमलकीशब्दोऽपि नित्यस्त्रीलिङ्ग इति तन्मतसाधारण्येनंवाह-
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बृहबृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-६६-६८]
तन्मते-आमलकितरेत्याद्यपीति-तन्मते पाक्षिको ह्रस्व एकार्थ इत्येवेति व्याख्यातपूर्वम् । भीर्वा का हता-- एषु भवत्येवेत्यर्थः । पाणिनीये मते च नैतद् दृश्यते, तन्मते । भीरूहतेति-अत्र ह्रस्ववारणार्थमेकार्थ इत्यस्यावश्यकत्वस्वमतवदेकस्वराणामेव स्त्रीलिङ्गानां डायन्तानां वैकल्पिक । मिति भावः ।। ३.२.६७.। हस्वविधानात् ।। ३.२.६६ ।।
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महतः कर-घास-विशिष्ट डाः ॥३. २.६८॥ ऊङः । ३. । २. ६७ ।।
त० प्र०-करादिषूत्तरपदेषु महतो डा इत्ययमन्ता- 40 त० प्र०-अडन्तस्य तरादिषु प्रत्ययेषु, अवादिषु चोत्त- | देशो या भवति । वैयधिकरण्ये इयं विभाषा, सामानाधिरपदेषु स्ख्यकार्थेषु वा ह्रस्वो भवति । ब्रह्मबन्धुतरा, । करण्ये तु परत्वादुत्तरेण नित्य एव विधिः । महतः कर:ब्रह्मबन्धूतरा, वामोरुतमा, वामोरूतमा; मद्रबाहूरूपा, ' महाकरः,महत्करः, कर एव कार इति-महाकारः, महत्कारः;
भद्रबाहूरूपा, कमण्डलुकल्या, कमण्डलूकल्पा, कबुवा, । महाघासः, महद्बासः, महाविशिष्ठः, महद्विशिष्टः । महत 10 कब्रुवा, पङ्ग चेली पङ्ग चेली श्वश्रुगोत्रा, श्वश्रूगोत्रा, । इति किम् ? राजकरः । करादिष्विति किम् ? महतः 45
कुरुमता, कुरूमता, भीरुहता, भोरुहता । एकार्थ इत्येव- पुत्रः-महत्पुत्रः । डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः, स च , भीर्वा हता-भोरुहता ॥ ६७॥
। उत्तरार्थः।। ६८॥
श० म० न्यासानुसन्धानम्-ऊङः। ऊडप्रत्ययः श० म० न्यासानुसन्धानम्-महतः। 'करघास15 स्त्रियाम् "उतोऽप्राणिनश्चायुरज्ज्वादिभ्य ऊद्ध" [ २. ४. | विशिष्टे' इति समाहारादेकत्वम्, 'उत्तरपदे' इति चानुव
६.३.1 इत्यादिसूत्रेण विहितः, सोऽपि न परत: स्त्रिया तत एव मण्डकालत्या, तच्च करादिभिः सामानाधिकरण्ये- 50 एवापि तु नित्यस्त्रिया अपि विधीयते । प्रत्ययत्वेन तस्य नान्वेति । तदाह-करादिषूत्तरपदेष्विति ! 'डा' इत्ययतदन्तग्राहकतेत्याह-उडन्तस्येत्यादि । ब्रह्मबंधुतरेति- मन्तादेशः इति-अन्त्यस्य तकारस्य स्थाने डा आदेशः,
ब्रह्मा-ब्राह्मणो बन्धुरस्येति व्युत्पत्त्या ब्रह्मबंधुशब्दो, डकार इत् । वाग्रहणानुवृत्तेश्च वैकल्पिकोऽयं विधिः । 20 विप्राचाररहिते निन्द्यकर्मकारिणि जात्या विप्रे प्रयुज्यते, : पाणिनीये च नित्य एव दृश्यते, सोऽपि भाष्यमते स्त्रीलिङ्ग
ततः स्त्रियाम् "उतोऽप्राणिनः०" [२.४. ६३.] इति । स्यैवेति स्फुटीकरिष्यतेऽग्निमसूत्रे । उत्तरत्र “जातीय- 55 अङि-ब्रह्मबन्धूः, अतिशयेन सा-ब्रह्मबन्धूतरा, अत्र वैक- कार्थेऽच्वे:” [ ३. २. ७०.] इति सूत्रेण सामान्यत एवोल्पिको ह्रस्वः । वामोरुतरा वामे-सुन्दरे ऊरू यस्याः सा त्तरपदे डाविधानादस्य वैयर्थ्यमा शङ्कयाह- वैयधिकरण्ये
वामोरू: 'उपमान-सहित-संहित-सह-शफ-वाम-लक्ष्मणा- यं विभाषेति-तत्र सने एकार्थे' इति भणनात समाना25 यूरो:" [२. ४.७५.] इति ऊङ, ततोऽतिशयार्थे तर, | धिकरण उत्तरपद एव तस्य प्रवृत्तिः, इदं सूत्रं च व्यधिकरणे
अनेन वैकल्पिको हस्वः । मद्रबाहुतरा-मद्रबाहुशब्दात् । उत्तरपदे विकस्पेन डाविधानार्थ क्रियत इति भावः । महतः 60 "बा हन्त-कद्रु-कमण्डलोम्नि " [२. ४.७४.] इत्यूद्ध, कर इति षष्ठीसमासः डाविधौ महाकरः इति, तदभावे
तस्तरप् । कमण्डलुकल्पा कमण्डलुशब्दात् प्राणिविशेष-महत्करः इति । कर एव कारः इति-स्वाथिकेऽणि कार
वाचकात स्त्रियां पूर्वोक्तसूत्रेणोड, तत ईषदसमाप्ते कल्प। शब्दोऽपि करशब्दवदिह सूत्रे ग्राह्य इति भावः, एकदेशवि30 कद्रूशब्दोऽपि तथैव सिध्यति, कद्रूशब्दश्च नागमातृवाची। कृतमनन्यवत् इति न्यायेन कारस्यापि ग्रहीतुमर्हत्वात् , 65
पणचेली पङ्गशब्दो "नारी सखी पङ्ग श्वभू"[२.४, ७६.1 करो-हस्तो राजग्राह्य द्रव्यं वा । घासो-बालतृणम् , महतां इति सूत्रेण निपातितः, तस्य चेलीशब्देन सह निन्द्यसमासः, घास इति विग्रहः । विशिष्ट:-पार्थक्येन गणनाहः, महतां श्वश्रूशब्दोऽपि तेनैव सूत्रेण श्वशुरस्य स्त्रियां निपातितः। मध्ये विशिष्ट इत्यर्थे-महाविशिष्टः इति । महत इति
कुरू: भीरूरिति च "उतोऽप्राणिनः०" [२. ४. ७३.] इति किमिति-सामान्यनषत्तरपदेषु पूर्वपदस्य डा विधीयतामिति 35 सूत्रेणोइन्ती, सर्वश्रेषु निन्यसमासो वैकल्पिको इस्वश्च । | प्रश्नाशयः । वस्तुतस्तु तथा सति पूर्वोक्तस्य ङ्य इत्यस्यै- 70
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पाद २, सूत्र - ६८-६९ ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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बानुवृत्त्या अत्यन्तस्यैव डाः स्यादिति समाधानं वाक्यम्, यक्षानुरूपो बलिरिति न्यायेनासमञ्जसस्य प्रश्नस्य यथाकथंचिदुत्तरं विधेयमित्याशयेनाह - राजकरः इति- करस्य राजेव सह स्वस्वामिभावसम्बन्धप्रसिद्धेर्वा प्रत्युदाहरणमि5 दम् अत्रापि डाविधाने राजाकर इति स्यादिति तद्वारणाय महत इत्यावश्यकमुत्तरत्रानुवृत्त्यर्थं चेति भावः । करादिष्विति किमिति - सामान्यत उत्तरपदे एव डा विधेय इति भाव:, तरादिनिवृत्तिस्तु * अपेक्षातोऽधिकारः * इति न्यायात् भविष्यतीत्याशयः । महतः पुत्रः इति - अत्र न भवत्यात्व 10 मिति तद्वारणाय करादिग्रहणमावश्यकमिति भावः । अन्त्यस्याकारादेशे समानदीर्घं च महाकर इत्यादिसिद्धौ डित्त्वविधानमा देशस्य व्यर्थमित्याशङ्कायामाह - डकारो ऽन्त्य - स्वरादिलोपार्थः इति डित्यन्त्यस्वरादेः " [२-१.११४.] इति सूत्रेणान्त्यस्वरादेः 'अत्' इत्यस्य लोपविधानार्थ डिव 15 सिंह कृतमिति भावः । तथापि प्रकृते तस्य वैयर्थ्यमेव ।
।
लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणं, न तु लाक्षणि 35 कस्य इति न्यायेन महच्छन्दमुच्चार्य विधीयमानः " सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टम् ०" ( ३. १. १२८ ) इति समासएव ग्रहीष्यते, यथा " प्रमाणीसंख्याढ्ड: " ( ७. ३. १२८. ) इति सूत्रे संख्याशब्दमुच्चार्य विशिष्य विहितः “सुज्वाऽर्थे संख्या ०" (३.१.१६ ) इति समास एव गृह्यते न तु " एकार्थं चानेकं 40 च ( ३. १. २२ ) इति सामान्यसूत्र विहितः, महच्छन्दमुच्चार्य विहितः समास एव ग्राह्य इतीदृशो नियमोऽग्रिमसूत्रेऽपि न स्वीक्रियत इति च प्रतिपादयिष्यते तत्रैव, तथा चषष्ठीसमासे व्यधिकरणे उत्तरपदेऽपि प्रकृतसूत्रप्रवृत्तिः । पूर्वसूत्रेणैव नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् * इति 45 न्यायसहकारेण स्त्रियामपि डासिद्धिरिति प्रकृतसूत्रस्य वैयर्थ्यमाशङ्कयाह - नित्यार्थमिदमिति, अयमाशयः --- सत्यमे - तत् यत् नामग्रहणं नामविशेषमुच्चार्य कार्यविधी लिङ्गविशिष्टस्य - लिङ्गबोधकप्रत्ययसहितस्यापि ग्रहणं भवतीत्यर्थविनाप्यन्त्यस्वरादिलोपेन समानदीर्घेण रूपसिद्धेश्वत्त्वादत । केन नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्य । पि ग्रहणम् इति न्यायेन 50 पूर्वसूत्रेणैव महत्याः कर इत्यादिविग्रहेऽपि डाः सिद्ध एवेति, परं तत् सूत्रं विकल्पेन डाविधानं करोति, प्रकृतसूत्रं च नित्यत्वेन डाविधानार्थ पृथगारब्धमिति ।
आह-सवोत्तरार्थः इति प्रकृते ऽन्त्यस्वरादिलोपस्यानावश्यकत्वेऽपि “स्त्रियाम्” इत्युत्तरसूत्रेण महतीशब्दान्तस्य 'आ' विधाने महदाकर इत्यादिरूपं स्यादिति तत्रान्त्यस्वरादिलो20 पेन महाकर इत्यादिरूपाणां सिद्ध्यर्थमादेशस्य डित्त्वमाव
55
।
श्यकमिति लाघवानुरोधेने हैव तादृशो निर्देशः कृत इति भावः, कृते च डित्त्वे प्रकृतेऽपि ययन्त्यस्वरादिलोपः क्रियते तहि सम नदीर्घ विधानं नावश्यकमिति प्रक्रियालाघवमपि विज्ञेयम् ।। ३. २. ६८ ॥
पाणिनीये च तन्त्रे "आत्महतः समानाधिकरण- जातीययोः " [ ६. ३. ४६ ] इति सूत्रे 'महदात्वे घास - कर विशिष्टेषूपसंख्यानं पुंवद्भावश्च' इति वार्त्तिकं पठ्यते, तेन महच्छन्दस्य घास कर विशिष्टेषु आत्वं पुंवद्भावश्च विधीयते, उदाहृतं च महत्या घासो महाघासः, महत्याः करो महाकर इति । एतेन तन्मते स्त्रियामेवात्वमेषूत्तरपदेषु विधीयते इति कैयटादयो मन्यन्ते यतः पुंवद्भावसन्नियोगशिष्टतया विधा- 60 नाद् यत्र पुंवद्भाव आवश्यकस्तत्रैवात्वमपि भवतीति प्रतीयते । तथा च स्त्रियामेवात्वं भवति, तत्र पुंवद्भावविधानस्यैतदेव फलं यत्-अन्त्यस्याकारादेशे सत्यपि महाघास इति रूपं न स्यात् पुंवद्भावे कृते च तकारस्याकारे भवति रूपसिद्धिरिति । केचित् तु वार्तिकस्थं चशब्दमन्वा - 65 चये मन्यमाना महतो घासो महाघास इत्यत्राप्यात्वं वर्णयन्ति, किन्तु वासिकोपात्तशब्दं विहाय लिंगविशिष्टपरिभाषागम्वोदाहरणदानेन पुंवद्भावसन्नियोगेन विधीयमानमात्वं पुंसि न भवतीत्येव कैयटादयो व्याख्युः । दीक्षितादिभिस्तु पुंस्यपि प्रवृत्तिरुक्ता, तत्रापि नित्यमेवात्त्वमुदा- 70 हृतमिति स्वमताद् विशेष: । सूत्रद्वयकरणे लिङ्गविशिष्टन्यायानाश्रयणमपि गुणः ।। ३. २. ६९ ॥
25
30
स्त्रियाम् । ३. २. ६६ ॥
त० प्र०—स्त्रियां वर्तमानस्य महतः कराविषूत्तरपदेषु नित्यं डा अन्तादेशो भवति । महत्याः करः - महाकरः, एवं महाधासः, महाविशिष्टः । नामग्रहणे लिङ्घविशिष्ट स्यापि ग्रहणम् इति पूर्वेणैव सिद्धे नित्यार्थमिदम् ॥६९॥
V
श० म० न्यासानुसन्धानम् - स्त्रियाम् । पूर्वसूत्रं सर्वमनुवर्त्तते तत्रत्यस्य महत इति पदस्य स्त्रियामिति विशेष णम्, तदाह-- स्त्रियां वर्त्तमानस्य महतः इति - स्त्रीप्रत्यय - विशिष्टस्य महच्छब्दस्येत्यर्थः । महत्याः करः इति इहापि पूर्वसूत्रोक्ता वैयधिकरण्येन समासे प्रवृत्ति रेष्टव्या, अन्यथा
७७
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७८ बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
पाद-२, सूत्र. ७० ] जातीयैकार्थेऽच्वेः । ३. २. ७० ॥
स्वात् । एवं महती चासो राजी-महाराज्ञीति, अत्र 35
समासान्तोऽट् तु न, तद्विधौ ''राजन्-सखः" [७. ३. १०६.] तप्र-महतोऽध्यन्तस्य जातीयप्रत्यये एकार्थे चोत्तरपदे | इत्यत्र राजनिति नकारान्तनिर्देशात, अत्र तु ड्यन्तो राजडान्तादेशो भवति । महान् प्रकारोऽस्यास्या वेति महाजा- शब्दो विग्रहवाक्ये, अलौकिके प्रक्रियावाक्य च प्रयुज्यत तीयः, महाजातीया। एकार्थे-महांश्चासौ वीरश्च- इति नान्तत्वाभावात् । बहवीहावपि स्त्रियां प्रवृत्तिमाह5 महावीरः, एवं-महामनिः, महान् भागोऽस्य-महाभागः, महती कीर्तिरस्य -महाकीतिः। महती स्तुतिरस्येति- 40
एवं-महायशाः, महती चासो देवी च-महादेवी, एवं-महा- महास्ततिः । करादिष्वपि समानाधिकरणे उत्तरपदे परराज्ञी; महती कीर्तिरस्य-महाकीर्तिः, महास्तुतिः, महात्वादिदमेव 'प्रवर्तत इति नित्यमेव डादेशो भवति, परिश्चासौ करश्च, महान् करोऽस्येतिवा-महाकरः, एवं- | शेषादेव पूर्वसूत्रस्य व्यधिकरणे उत्तरपदे प्रवृत्तिस्वीकारात्,
महाघासः, महाविशिष्टः, महान्तमात्मानं मन्यते-महा- तदाह-महाँश्चासौ करश्च, महान् करोऽस्य वेति-- 10 मानी; एवं-महंमन्यः, खशि डाहस्वत्वे मोऽन्तः । जातीय- महाकरः इति । एवं घासविशिष्टयापि विज्ञेयम् । महान्त- 45
कार्थ इति किम ? प्रकृष्टो महान-महत्तारः, महत्याः | मात्मानं मन्यते इति-"मन्याण्णिन्' (५. १. ११६.) पुत्रो महतीपुत्रः, महत्याः पतिः-महतीपतिः । अच्वेरिति | इति णिन्, उपान्त्यवृद्धिः, अनेन डादेश-महामानी। किम् ?,-अमहान महान संपन्नो महदभतश्चन्द्रमाः, अमहती | "कतु: खश्" [५. १. ११६. ] इति खशि तु डाह्रस्वे महती संपन्ना-महद्भता कन्या ॥७०॥
मोन्तादेशे च--महंमन्यः इति । एकार्थ इति किमितितथा सति पूर्वोक्तसूत्रद्वयाकरणमपि लाघवमिति प्रष्टु- 50
राशयः । एकार्थादुत्तरपदादन्यत्र डादेशो नेष्ट इति तत्र श० म०न्यासानुसन्धानम् जाती। महत इत्यनु- तदभावार्थमेकार्थ इत्यावश्यकमिति प्रत्युदाहरणमुखनाह-- 15 वर्तते, स्त्रियामिति च निवृत्तं योगविभागात, एकार्थे उत्तरपदे
प्रकृष्टो महान् --महत्तरः इति-अनैकार्थ इत्यस्याभावे इति तु सम्बध्यत एव, तदाह-महतोऽच्च्यन्तस्येति- न केवलं व्यधिकरणे उत्तरपद एवापि तु तरादिष्वपि विप्रत्ययान्तेऽपि महतो रूपं न विनश्यतीति तत्र प्राप्तिरस्ति | प्रकरणपठिष डादेशः स्यादिति भावः । व्यधिकरणे उत्तर- 15 तत्परिहारायाच्वेरित्युच्यते, अस्य फलमने प्रदर्शयिष्यत | पदे प्रत्यदाहरति-महत्या: पुत्रः इति-लिङ्गविशिष्ट. एव । उदाहरति-महान् प्रकारोऽस्येति--महच्छब्दात् ग्रहणन्यायेने हाप्यस्य प्रवृत्तिः स्यादिति भावः। एवं--- प्रकारार्थे जातीयर, तत्र चानेन डादेशात् महाजातीयः महतीपतिरित्यत्रापि विज्ञयम् । केचित् तु पूर्वपदे तदन्तइत्यस्य सिद्धिः। महान् प्रकारोऽस्या इति विग्रहे च- विधिमप्याहः ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधि:* इति महाजातीयेति । जातीयरि उदाहृत्यैकार्थे उत्तरपदे न्यायश्च प्रत्ययविधिविषय एवेति वर्णयन्ति । तथा च इत्यदाहरति-महाश्चासी वीरश्चेति-"सन्महत्परमोत्तमो
महच्छब्दान्तस्यापि पूर्वपदस्य डादेशो भवतीति 'सुमहास्कृष्टम्" [ ३. १. १०६.] इति समासः, अनेन डादेशः। जातीयः परममहाकरः' इत्यादिरूपाण्यपीष्टानीत्याहः । 25 महाश्चासौ मुनिः- महामुनिः । उत्तरपदस्य सामाना- अन्ये च 'एकार्थे' इत्यस्याभावेऽपि 'जातीये चाच्चेः"
धिकरग्यमात्रमपेक्ष्यते न तु प्रतिपदोक्तसमासग्रहणादर इति । इत्येतावता सूत्रेणाप्युत्तरपदाधिकारात् समासे समाक्षिप्ते धनयितुं बहुव्रीहिमुदाहरति-महान् भागोऽस्येति-- महावीर इत्यादीनां सिद्धिरस्त्येव, महत्तर इत्यत्र तु न 65 भागशब्दोऽनेकार्थ इह च भाग्यवाची। महायशाः इति- दोषः समासाभावात्, महतीपुत्र इत्यादावपि न दोषः
महद्यशो यस्य यशसो महत्त्वं च तत्कारण महत्वात् । न *लक्षण-प्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यव ग्रहणम् इति 30 केवलं पुस एव महच्छब्दस्यानेन डादेशोऽपि तु स्त्रीलिङ्ग- | न्यायेन प्रतिपदोक्तस्य “सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टम्०"
स्यापि नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् इति । [३.१.१०७.] इति समासस्व ग्रहणात्, इति स्वभावत 70 न्यायात्, तदाह-महती चासौ देवी चेति-अत्र च | एवंकार्थे एवोत्तरपदे भविष्यतीति नावश्यकमेकार्थ इति पूर्व पुवद्भावे सति डादेशः, परत्वाड्डादेश इति वा, । पदमित्याहुः; तन्न–तथा सति 'महाभागः, महाबाहुः, सति हि डादेशेऽन्त्यस्वरादिलोपे पुंबद्भावप्रवृत्तरनावश्यक- । महायशाः' इत्यादौ बहुव्रीहावपि प्रवृत्तिर्न स्यादिति लक्ष्या
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[पाद-२, सूत्र-७०]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
नुरोधादत्र लक्षणप्रतिपदोक्तन्यायानाश्रयणे सिद्धे षष्ठी- | 'सुवणं कुण्डले भवतः' इत्यादी विकृतेः कुण्डलयोः कर्तृत्वेऽपि तत्पुरुषे तद्वारणायकार्थे इत्यावश्यकमेवेति । भाष्ये तु | विविषये प्रकृते रेव-य एव किञ्चित् सम्पद्यते तस्यैव कर्तृत्व, प्रकृतन्यायाश्रयणेपीह बहुव्रीही प्रवृत्तिः साधिता। सच तथाहि 'सङ्घीभवन्ति ब्राह्मणा: पटीभवन्ति तन्तवः' इत्यादी ।
प्रकारस्तदीयप्रक्रियानुसारीति नेहोपयुज्यत इति नोरिल- | विकृतिगता संख्या समुदायाद्भवति । 'असंघो ब्राह्मणाः संघः 5 खितः । अच्वेरिति किमिति-व्यन्तस्थले महतो न | संपद्यते' इत्यर्थे सत्यपि समुदायात् संघीभवन्ति इत्यस्मात्
सामानाधिकरण्यमुत्तरपदेन, यतः-अमहान् महान् भूत | विकृतिगता-'ब्राह्मणनिष्ठा बहुत्वसंख्यैव दृश्यते । एवं पटीइत्यर्थे अमहत एव भूतेन सह कर्तृत्वरूपः सम्बन्धः साक्षा- भवन्ति तन्तव इत्यत्राप्यपटीभूतास्तन्तवः पट: सम्पद्यत दिति महता सह भूतशब्दस्य नास्ति सामानाधिकरण्यमिति | इत्यर्थे पटस्य विग्रहवाक्ये कर्तृत्वप्रतीतावपि च्च्यन्ते पटीभनावश्यकमच्वेरिपीति प्रष्ट्राशयः । अमहान महान् सम्पद्यत
वन्तीत्यत्र तन्तूनामेव कर्तृत्वं भवति, तदनुसारिण्येव संख्या 10 इत्यर्थे अमहति महच्छब्दो वर्तते, य एवामहान् स एव महा
क्रियायां भवति । एवम् अत्वं त्वं सम्पद्यते-स्वद्भवतीत्यादी निति महतोऽपि तत्र कतत्वमिति भतशब्देन सह सामानाधि- । प्रकृत्याश्रय एव प्रथमपुरुषा भवात, विकृत्याश्रयत्व तु करण्यमस्त्येवेति भवत्येव डादेशप्राप्तिरिति स्वाभिप्रायेण | युष्मदः सामानाधिकरण्ये मध्यमपुरुषः स्यात् , एवं च भूत प्रत्युदाहरति-अमहान महान भूतो महदभूतश्चन्द्रमा इति क्तप्रत्ययो भवनक्रियायाः कर्तर्यमहति विधीयते, न त
इति- तथा चात्र डादेशवारणायाच्वेरिति कथनीयमेवेति | विकारे महतीति महता सह सस्य सामानाधिकरप्यं नास्ति। २० 15 भावः । एवम् - अमहती महतीभूतेत्यत्रापि विज्ञेयम्, | अत्रेदं शङ्कयते-तहि अमहती महती संपन्ना-महद्भतेत्यत्र
अत्र पुवत्त्वं तु "स्वौ क्वचित्" [ ३. २. ६०.] इति | पुंवद्भावः कथं स्यात्, तत्रापि महतीशब्देन सह भूतेत्यस्य सूत्रेण विज्ञेयम् ।
सामानाधिकरण्याभावात् [ तन्मते समानाधिकरणे उत्तरपदे पाणिनीये च तन्त्रेऽन्वेरिति तदर्थक वा पदान्तरमेत
एव तत्र पुंवद्भावः, न तु च्वौ पूर्वद्वचनं पठ्यते ] अस्ति च द्विषय के सूत्रे "आन्महतः समानाधिकरणजातीययोः"
विकृते रपि कर्तृत्वदर्शनं, यथा-सुवर्णः खदिराङ्गारसदृशे
'कुण्डले भवतः' इति विकारसंख्यानिमित्तं द्विवचनं दृश्यते, 20 [ ६. ३. ४६. ] इत्यत्र नोपादौयते । महद्भूत इत्यत्रात्वं
तथा 'असञ्जयो ब्राह्मणाः सङ्घ : सम्पद्यते' इति पूर्वोक्तवाच गौणमुख्य न्यायेन वारितम् । तथा चात्र विषये भाष्यादौ
क्यऽपि विकृतेः सङ्घस्य कतृत्वं दृश्यते । एतन्मतमाश्रित्य बहुविचारितम्, तरच छात्रव्युत्पादकतयेहापि संक्षिप्य
यदि 'अमहती महती भूता-महद्भूता' इत्यत्र पु वद्भावः प्रदाते, तथाहि--"इह कस्मान्न भवति-अमहान्
साध्यते तदा आत्त्वमप्युभयत्र प्राप्नोति । तत्राह-अमहति 60 महान् सम्पन्नो महद्भुतश्चन्द्रमाः” इति सन्दिह्य "अन्य
महच्छब्दो वर्तते, 'तद्वाची च भतशन्दः, इति भवति मह25 प्रकृतिरमहान्भूतप्रकृतौ महान् महत्येव । तस्मादात्त्वं न
च्छब्देन सह सामानाधिकरण्यम् । स्थात् पुवत्तु कथं भवेत् तत्र [१] अहमति महान् हि वृत्तस्तद्वाची चात्र भूतशब्दोऽयम् । तस्मात् सिध्यति पुंवनिवर्त्य- अयंभाव:-रव्यन्तोऽत्र महच्छब्दः च्विः प्रत्ययश्च प्रकृतेमात्त्वं तु मन्यन्ते [२] यस्तु महतः प्रतिपदं समास उक्त- | विकारात्मकताऽऽपत्तिमाह, यदा चैकोऽर्थः प्रकृतिविकारभा
स्तदाश्रयं ह्यात्त्वम । कर्तव्यं मन्यते, न लक्षणेन, लक्षणोक्त- | वेन विवक्ष्यते तदा परिणामव्यवहारो भवति । यथा चोक्त- 65 30 श्चायम् । [३] शेषवचनात्तु योऽसौ प्रत्यारम्भात् कृतो बहु- मभियुक्तैः-- व्रीहिः । तस्मात् सिद्धथति,तस्मिन् प्रधानतो यतो वृत्तिः"[४]
"जहद्धर्मान्तरं पूर्वमुपादत्ते यदा परम् । इति समाधानमुक्तम् । 'अमहान् अन्यस्य महतः प्रकृतिः स
तत्त्वादप्रच्युतो धर्मी परिणामः स उच्यते ।।" एव भूतप्रकृतौ भूत शब्दार्थकर्तृत्वे वर्तते । तस्मादात्त्वं न
यथा दुग्धं स्वकीयं धर्म द्रवत्वादिकं जहत् परं दध्यवस्थास्यात्---अमहत एवं भूतेन सामानाधिकरण्यान्महतश्च यामवस्थितं धर्ममुपादत्ते, तत्त्वात् स्वभावाच्चाप्रत्च्युतमेव
70 35 समानाधिकरणे उत्तरपदेऽभावात् नात्रात्व [ डादेश ]
तिष्ठति, तदा परिणाम उच्यते इत्यर्थः । यदा तूत्तरावप्राप्तिरिति भावः ।
| स्था पूर्वावस्था वा नाश्रीयते तदा चिप्रत्ययो न भवति, यथा अयमभिप्राय:-विविषये प्रकृतिः की न विकृतिः । । तन्तवो भवन्ति, पटो भवति, उक्तं च हरिणापि
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बृहद्धृत्ति वृहन्न्याससंघलिते
[पाद-२, सूत्र-७०-७२
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"पूर्वावस्थामविजहत् संस्पृशद् धर्ममुत्तरम् ।। श० म० न्यासानुसन्धानम्-- न पुंव० । पूर्वसूत्रं
संमूच्छित इवार्थात्मा जायमानोऽभिधीयते ।।" निषेध्योपस्थापकतया 'महतः' इति पदेन सहानुवर्तते, तथा इति पूर्वा-कारणावस्थाम्, अविजहत्- अत्यजन्, उत्तरं- च योऽर्थः सम्पन्नस्तमाह--महतः पुंवन्निषेधविषये
धर्ममवस्थाविशेषरूपं, संस्पृशद-आसादयन्, संमूच्छित इवो- उत्तरपदे इत्यादि--पुवावस्य निषेधो यस्मिन् भवति 40 5 भयरूपतयाऽध्यवसीयमानो जायमानः-उत्पद्यमानोऽर्थात्मा-. . स पुवन्निषेधविषयः, तथाभूते उत्तरपदे परे इत्यर्थः ।
पदार्थः, विप्रत्ययान्तेनाभिधीयत इति तदर्थः । एवं चैक- नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहण म* इति न्यायन स्यैव वस्तुनः पूर्वोत्तरावस्थोपाधिव्यवच्छिन्नत्वात् प्रकृति- पूर्वसूत्रेण महतीशब्दस्यापि डादेशो भवति । यत्र च मुंवविकृत्योरुभयोरपि कर्तृत्वमुपपद्यते । उभयोः कर्तृत्वेऽपि , द्भावो न भवति तत्र च स नेष्टो लक्ष्यानुरोधादिति लक्ष्य
च्चिप्रत्ययस्थले वचनं प्रकृतिगतसंख्याश्रयं, पुरुषोऽपि कचक्षुष्केणाचार्येण तदर्थमिदं सूत्रमारभ्यते। महतीप्रियः 45 10 तदाश्रय एव भवति 'सङघीभवन्ति ब्राह्मणाः, पटी- इति-अत्र बहुव्रीहिसमासे ''परतः स्त्री पुंवत्" [३. २. ४९.
भवन्ति तन्तवः, अत्वं त्वं सम्पद्यते' इत्यादौ । तत्र इति वद्भावः प्राप्तः स 'नाप्नियादी" [ ३.२.५३. ] शब्दशक्तिस्वभाव एव बीज किमत्र शक्यसस्मदादिभिः । इति निषिध्यते, तथा च निषेधविषयतासत्त्वादन पूर्वसूत्रेण कर्तुम् । एवं तहिं महद्भूतेत्यत्र पुंवद्भावस्य सिद्धावपि प्राप्तस्य पुंवद्भावस्यानेन निषेधः । मनोज्ञाशब्दोऽपि प्रिया
'महद्भुतश्चन्द्रमाः' इत्यत्र, [ डाः ] आत्त्वं दुरिं। दिपठित इति तत्रापि निषेधविषयताऽस्त्येवेति तत्राप्ययं 50 15 स्यादिति चेत् ? अत्रोच्यते-डादेशविषये प्रतिपदोक्तः निषेधः प्रवर्तते, तदाह-महतौमनोज्ञः इति-महती मनोज्ञा
समासो गृह्यते लक्षणप्रतिपदोक्त्योः प्रतिपदोक्तस्यैव यस्येति विग्रहः । अन्ययाकरण: पुवभावविषय एव यत्र ग्रहणम् * इति न्यायात, महद्भुत इत्यादौ तु गतिसमास "महतः" सूत्रनिर्दिष्टं रूपं सम्भाव्यते तत्रैव आत्त्वस्य इति न दोष इति । एवं तहि 'महाबाहः महायशाः' इत्यादि-[ डादेशस्य ] प्रवृत्तिः, स्वीक्रियते, अत एव तत्र निषेधवचनं
लक्ष्यासिद्धिरिति चेत् ? अत्रोच्यते--*गौण-मुख्ययोर्मुल्ये न दृश्यते ॥ ३. २. ७१. ।। 20 कार्यसम्प्रत्ययः* इति न्यायेनेह समाधानम्, न लक्षणप्रतिपदोक्तन्यायेनेति महद्भूत इत्यादी गौणो महच्छब्द ।
इच्यस्वरे दीर्घ आच्च । ३. २. ७२॥ इत्यात्वं डादेशों] न भवति, महाबाहुरित्यादी तु स प्रधान । एवेति तत्रात्त्वं भवतीति । स्वमते च यथा महद्भूत इत्यत्र त०प्र०-इचप्रत्ययान्तेऽस्वरादावुत्तरपदे परे पूर्वपदस्य दीर्घ गौणत्वं तथा महाबाहुरित्यत्रापि, अन्यपदार्थ प्रत्युपसर्जन- प्राकारश्चान्तादेशो भवति । बाहय च बाहष च मिथो स्वाद गौणत्वमिति मत्वा तत्समाधानं नाश्रितम्, किन्तु गहीत्वा व्यासक्तं-बाहबाहवि व्यासजेताम्, बाहाबाहवि, लक्ष्यानुरोधाल्लक्षणप्रतिपदोक्तन्यायानाश्रयणमिति, महाबा• एवं केशाकेशि, मष्टिभिश्च मष्टिमिश्च मिथः प्रहत्य कृतं 60 हरित्यादाक्दोषः, महद्भुतश्चन्द्रमा इत्यादौ तु 'अच्वेः' इति यवं-मष्टीमष्टि, मष्टामष्टिः एवं-यष्टायष्टि, यष्टीयष्टि, वचनाददोषः, महद्भूता कन्येत्यत्र च "च्चोक्वचिद्" [३.२. दण्डादण्डि, दीर्घत्वाऽऽत्वयोरकारान्तादन्यत्र विशेषः ।
६०. इति पुवत्त्वमिति पृथगेव समाधान सर्वत्राश्रितमिति दीर्घसाहचर्यादात्वमपि स्वरान्तानामेव भवति, तेनेह न 30 विशेषः । अत्र कैयटादिग्रन्थो यद्यपि विस्तृतस्तथापि प्रकृ-: भवति-दोर्दोषि, धनुर्धनुषि । अस्वर इति किम् ? अस्यसि,
तोपयक्त एवांशस्तत: साररूपेण गृहीतः । स्वमते 'चंतावद्- इविवि ॥७२॥ व्याख्यानापेक्षया वचनकरण एवं लाघवमिति स्वीकृतं प्रतीयते ॥३.२-७०॥
श०म० न्यासानुसन्धानम्-इच्य० । इच प्रत्य
यान्ते इति इचः प्रत्ययत्वेन तदन्तग्राहकता प्रत्ययग्रहणन्यान पुवनिषेधे ॥ ३. २. ७१॥
यलब्धा, तदनुसारमेवेदम्, इच्प्रत्ययश्च "इज् युद्धे" [७.३. 35 त० प्र०-महतः पुबन्निषेषविषये उत्तरपदे डान भवति । : ७४.] इति सूत्रेण विधीयते, तदन्तस्योत्तरपदपरत्वं न सामा
महती प्रिया प्रस्थ महतीप्रियः, महतोमनोजः ॥ ७१॥ नाधिकरण्यविषये संभाव्यते, युद्धे विहितसमासस्य समाना 70
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[पाद-२, सूत्र-७२-७३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
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धिकरणविषयत्वाभावादित्येकार्थे इति नेह सम्बद्धम् ! दीर्घ- प्रकृतरूपसिद्धौ बाधकामावः, अत एव केवलदीर्घ
आकारश्चान्तादेशः इति-तथा च दीर्घाऽऽकारादेशयोः । विधायकतन्त्रे [ पाणिनीये ] 'अस्वरे' इति प्रकृतसूत्रे न 40 पाक्षिकत्व लभ्यते, सह विधाने चैकस्य विधानं व्यर्थमेव पठ्यते । स्वमते चाकरस्यापि विधानाद्रपे वलक्षण्यं स्पष्टस्यात । पाणिनीये चाकारविधानं न दृश्यते, केवलं दीर्घ-मेवेति 'अस्वरे इति कर्तव्यमेवेति ।। ३. २. ७२ ।। 5 मात्रम्, उक्तं च मनोरमाकारेण-स्वरादिभिन्ने उत्तरपदे ।
प्राचीनराकारादेशोऽपि विधीयते, परं तदपाणिनीयमिति।। बाहषु पाहषु च मिथो गृहीत्वेत्यादि "तत्रादाय मिथस्तेन . हविष्यष्टनः कपाले । ३. २. ७३ ॥ प्रहृत्येति सरूपेण युद्धेऽव्ययीभावः" [३.१.२६.] इति समास- त० प्र०---हविष्यभिधेयेऽष्टनशब्दस्य कपाले उत्तरपदे
सूत्रस्य प्रवृत्त्यनरूपं विग्रहवाक्यम्, तथा च तेनैव सूत्रेण समासः दो?ऽन्तादेशो भवति । अष्टसू कपालेष संस्कृतम-अष्टाकपालं 45 10 "इच् युद्धे" [७.३.३४] इतीच् प्रत्ययः, अनेन पूर्वपदस्यात्वे- हविः । हविषोति किम् ? अष्टानां कपालानां समाहारः
बाहाबाहवि, दीर्घ-बाहबाहवीति । प्रकृतं विग्रहादिक- . अष्टकपालम्, पात्रादित्वात् स्त्रीत्वाभावः । कपाल इति मन्यत्राप्यतिदिशति-एवं-केशाकेशीति-केशेषु केशेषु गृही- किम् ? अष्टपात्रं हविः ।। ७३ ॥ त्वा व्यासक्तमिति विग्रहः, व्यासक्तमिति च विग्रहवाक्ये
गहीत्वेति क्त्वाप्रत्ययार्थपूर्वकालिकत्वस्य लाभाय । तत्रादा- श०म० न्यासानुसन्धानम-हवि० । देवोद्देश्यन 15 येत्यंशस्योदाहरणमुक्त्वा तेन प्रहत्येत्यंशस्योदाहरणमाह- त्यज्यमानं द्रव्यं हविः । 'अपनः' इति अष्टसंख्यावाचि- 50 मुष्टिभिश्च मुष्टिभिश्चेति--समासादिकं पूर्ववत् यष्टिभि
टाभ- | शब्दस्यानुकरण मिति स्वार्थबहत्वसंख्याभिधायित्वाभावान्न यष्टिभिः प्रहृत्य-यष्टीयष्टि, दण्डैदण्डैः प्रहृत्य-दण्डादण्डि, | बहुवचनम्, स्वरूपभङ्गभिया चात्र "अनोऽस्य"[२.१.१०८] . अत्र च दीर्घ आकारान्तादेशे च विशेषस्यादर्शनादाह-- इत्यकारलोपो न । 'उत्तरपदे' इत्यनुवृत्तं, तद्विशेषणं-कपाले
इति, तथा च 'लद्रूपे उत्तरपः' इत्यर्थो भवति । अत्र दीर्घा20 अकारान्तस्य दीर्घ आकारान्तादेशे वा विशेषाभावेऽपि,
ऽऽत्त्वयो रूपे विशेषाभावात प्रथमोपस्थितदीर्घमात्रविधानेन 51 अन्यस्वरान्तेषु विशेषस्य सत्त्वात् तद्विधानमावश्यकमिति रूपसिद्धिसम्भावनायामात्त्वं नानवतितमित्याह-दीर्घोs. भावः । अतिप्रसङ्गवारणायाह--दीर्घसाहचर्यादिति-- 'तादेशो भवतीति । अष्टसु कपालेषु संस्कृतमितिदीर्घ आत्वं च सह विहितो, तथा च दीर्घः स्वरान्तेष्वेव अस्मिन् विग्रहे "दिगधिक संज्ञातद्धितोत्तरपदे" [३.१-६८.] विहित: *स्वरस्य ह्रस्व-दीर्घ-प्लुता: इति न्यायात, तेन | इत्यधिकारे 'संख्यासमाहारे च द्विगुश्चानाम्न्ययम्" हि न्यायेन ह्रस्व-दीर्घ-प्लुताः स्वरस्यैव भवन्तीति सूच्यते, ! (३-१-९९.] इति समासे द्विगुसंज्ञायां च "संस्कृते भक्ष्ये" 60 एवं च दीपों विधीयमानो यथा स्वरान्तेष्वेव प्रवर्तते तथा । [६-२-१४०] इत्यणि "द्विगोरनपत्ये यस्वरादेर्लुबद्विः" आत्वमपि तेष्वेव प्रवर्तेत तत्साहचर्यादिति व्यजनान्तानां । [६.१.२४.] इति लुपि 'अष्टन् कपाल' इति स्थिते नलोपे न दीर्घ इत्यात्त्वमपि न भवतीति भावः । तत्फलमाह- | सत्यनेनास्यस्य दीर्घः । यदि च नलोपस्य दीर्घरूपे परविधातेनेह न भवति---दोदोषि इत्यादि; दोष्णोर्दोष्णोर्गृहीत्वा | वसत्त्वान्नकारस्यैवान्त्यत्वमिति कथं दीर्घ इत्याशङ्कयते, व्यासक्तमिति विग्रहे समासः, इच् प्रत्ययश्च पूर्ववत्, व्यञ्ज- तदा * अन्त्यबाधेऽन्त्यसदेशस्य उपान्त्यस्य] * इति न्यामान्तत्वेन दीर्घाऽऽत्वयोरभावः । धनुषा धनुषा मिथः प्रहृत्य यादुपान्त्यस्याकारस्य दीर्धे नलोपे च रूपसिद्धिष्टव्या। व्यासक्तं युद्धं- इत्यत्रापि तथैव । अस्वर इति हविषीति किमिति-सामान्यतः कपालेऽष्टनो दीघों विधीकिमिति-स्वरादावुत्तरपदे प्रकृतदीर्धाऽऽत्वयोवर्जनं किमर्थ- यतामिति प्रश्नाशयः । उत्तरयति-अष्टानां कपालानां
मिति प्रश्नः । अस्यसि इति---असिनाऽसिना मिथः प्रहृत्य समाहारः इति-पूर्वोक्तसूत्रेण समासे रूपसिद्धिः । यद्यप्यका25 प्रवत्तं युद्धम् ; इविवि इषुणेषुणा प्रहृत्येति विग्रहः, रान्तोत्तरपदकद्विगुत्वेन लिङ्गानशासनबलादत्र स्त्रीत्वं प्राप्तं 70
पूर्वोत्तरपदयोः स्वरादित्वेन स्वरान्तत्वे सत्यपि स्वरादादु- तथापि पात्रादित्वात् तदभावो भवतीत्याह-पात्रादित्वात त्तरपदे दीर्घाऽऽत्वयोजनादिह न तयोः प्रवृत्तिरिष्टा, असति खीत्वाभावः इति. तथाहि-लिङ्गानुशासनीयं वचनम्-[स्त्रीचास्वरे इति पदे स्यादेवेति भाव.। यद्यपि दीर्घ प्रवृत्तेऽपि । लिङ्गाधिकारे]
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद २, सूत्र ७३-७४]
"पात्रादिजितादन्तोत्तरपदः समाहारे।।
विनापि तदर्थप्रतीति: प्रयोगस्वाभाब्यात । युक्तशब्दार्था- 35 द्विगुरन्नाबन्तान्तो वाऽन्यस्तु सो नपुंसकः ॥” इति [५] । भिधायकत्वं दीर्घस्य दुर्लभम्, किंच विग्रहवाक्थेऽन्यपदार्थ
पात्रादिगणजितमकारान्तमुत्तरपदं यस्य तथाभूतो ; पारतन्त्र्येण प्रयुक्तस्य युक्त शब्दस्य दीर्घसत्त्वे निवृत्तिरपि न द्विगुः समाहारे वर्तमानः स्त्रीलिङ्ग इति हि तदर्थः । पात्रा-: युज्यत इत्याशयवान पक्षान्तरमाह-अथवा समाहारद्विगु5 दीनां च शिष्टप्रयोगगम्यत्वमक्तमिति 'अष्टकपालम्' . रिति-अष्टौ गाव: समाहृताः, अष्टानां गवां समाहार इति
इत्यादिशिष्टप्रयोगदर्शनात् कपालशब्दोऽपि पात्रादिषु पठित | वार्थे द्विगुः, तेन चाष्टगवशब्देन सार्यात् सहचरितत्व- 40 इति विज्ञेयम् ! कपाले इति किमिति-हविषि वाच्येऽष्टन- : लक्षणसम्बन्धाद् हेतोरुपचाराल्लक्षणात आरोपाद् वा शकटआत्वं सर्वस्मिन्नत्तरपदे विधीयतामिति प्रश्नाशयः । प्रत्यु- मप्याष्टागवमच्यते, तत्र यत्र साहचर्य निमित्तक उपचारस्त
दाहरति-अष्टपात्रं हविरिति-अष्टसु पात्रेषु संस्कृतं हवि- व दीर्घस्तस्योपचारस्य द्योतकः, यत्र च नोपचारस्तत्र10 रिति विग्रहः, पूर्ववत् समास-प्रत्ययादिः, कपालरूपोत्तरपद : तदर्थाप्रतीते: प्रत्युदाहरणं बोध्यम् । अष्टौ गावो युक्ता
परत्वाभावाद् दीर्थो न भवति, 'कपाले' इत्यस्याभावे च । इति त्रिपदतत्पुरुषविग्रहे तु न तदर्थप्रतीतिः, अन्यपदार्था- 45 स्यादेवेति तद्वारणाय 'कपाले' इत्यावश्यकमिति भावः
भिधायकशक्त्यभावात्, अन्यपदार्थे समासे सति तदभिधायक॥३.२.७३॥
शक्तिसत्वेन भवत्यन्यपदार्थस्य रथस्य प्रतीतिः, सा च प्रतीतिर्दीर्घसहकारेणेव ! अष्टतुरगो रथ इत्यत्रापि प्रत्युदा
हरणेऽन्यपदार्थे समासादेव तदर्थप्रतीतिरिति प्रत्युदाहरणस्य गवि युक्ते । ३. २. ७४ ॥
यङ्गविकलत्वं नाशयम् 1 गवीति किमिति-यत्र क्वाप्यु-50 15 त० प्र०-अष्टन्शब्दस्य गव्युत्तरपदे युक्तेऽभिधेये त्तरपदे युक्तार्थे गम्यमाने दीर्घो विधीयतामिति प्रष्टुराशयः ।
दीर्घोऽन्तादेशो भवति । अष्टागवं शकटम, अष्टौ गावो प्रत्युवाहरति-अष्टतुरगो रथः इति-अष्टौ तुरगा यस्मिन् युक्ता अस्मिमिति त्रिपदे बहुबोही कृते उत्तरपदे परे | स:-अष्टतुरग इति, इह च बहुव्रीहिसामर्थ्याद यक्तार्थप्रत्यद्वयोर्द्विगु:, “गोस्तत्पुरुषात्” (७. ३. १०५.) इत्य
यपि गोरूपोत्तरपदत्वाभावान्न भवति दीर्घः, गवीत्यस्यासमासान्तः, तत्र दीर्घत्वेन युक्तार्थसंप्रत्ययान्गतार्थत्वावयु
भावे च स्पादेव । अत्र च केचित समाहारद्विगं कृत्वा ततो 55 20 क्तशब्दस्य निवत्तिः, अयवा-समाहारद्विगः,-तत्र साहच-! मत्वर्थीयमकारप्रत्ययं विदधति द्वयङ्गविकलताव्यावत्यर्थम, र्यादुपचारादष्टगवेन युक्तं शकटमष्टागवमुच्यते । गबोति
तन्न मन्यामहे-"न कर्मधारयान्मत्वर्थीयो बहुव्रीहिश्चेदर्थकिम् ? अष्टतुरगो रथः । युक्त इति किम् ? अष्टगवं प्रतिपत्तिकरः” इति व्युप्तत्त्या बहुव्रीहिसमासेन तदर्थप्रतीतो
सत्यां ततो मत्वर्थीयप्रत्ययविधानस्यायुक्तत्वात पूर्व च ब्राह्मणधनम्, अष्टगुश्चैत्रः ॥ ७४ ।।
स्वयमपि बहुव्रीहिणैव युक्तार्थप्रत्ययस्य कथनात् । अष्टा- 60
गवमित्यत्र समाहारविधानं तु समासान्तप्रत्ययार्थम तत्पुरुषा श० म० न्यासानुसन्धानम्-गवि० । अष्टन इत्य- देव तद्विधानात्, अन्यथा अष्टगुरिति स्यात् । किंच तत्र प्रद25 नुवृत्तम्, 'गवीत्युत्तरपदविशेषणम्, 'युक्ते' इति च प्रयोगो । शितवाक्ये बहुव्रीहौ युक्त शब्दस्य श्रवणं स्यात्, त्रिपदबहुवी
पाधिनाभिधेयकथनम्, तथाच सूत्रार्थमाह-अष्टनशब्दस्ये- ह्याश्रयणात्, इह च द्विपदबहुव्रीहावपि युक्तार्थप्रत्यये वाधकात्यादिना, युक्तेऽभिधेये इत्यस्य युक्तेऽर्थे गम्यमाने इत्यर्थः ।। भावेन समाहारात् मत्वर्थीयविधानं नावश्यकमिति विभाव- 65 अष्टागवंशकटमिति-अष्टाभिर्गोभिर्युक्तमित्यर्थः । समासो- नीयं विज्ञः । युक्त इति किमिति--गवि उत्तरपदेऽष्टनो दोधों
पयोगिविग्रहवाक्यमाह-अष्टौ गावो युक्ता अस्मिन्निति, । विधीयतां किमर्थविशेषाश्रयणेने ति प्रष्टुराशयः । प्रत्युदाहरति। तथा च युक्तशब्द एवोत्तरपदं तस्मिन् परे "संख्या समाहारे | अष्टगवं ब्राह्मणधनमिति-अष्टानां गवां समाहार इति च." [३.१.९९.] इति समासो द्विगुः, ततो "गोस्तत्पुरुषात्" : विग्रहे द्विगुतत्पुरुषः, “गोस्तत्पुरुषात्" [७.३.१०५.] इति
७.३.१०.] इति समासान्तोऽट्, अनेन पूर्वपदस्य दीर्घः । समासान्तोऽट, अष्टगवाभिन्न ब्राह्मणधनमिति प्रतीतिर्न 70 'अष्टागवयक्त' इत्यवस्थायां दीर्घेणव युक्तार्थसम्प्रत्ययाद् । युक्तार्थस्य प्रतीतिरिति न भवति दीर्घः, यक्त इत्यस्याभावे यक्तशब्दस्य निवत्ती सत्यां न तस्य प्रयोगोऽथ च तं । स्यादेव । न केवलं समाहारे एवापि तु बहवीहावपि दीर्घः
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[पाद-२, सूत्र-७४-७६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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स्यादित्याह-अष्टगुश्चत्रः इति-अष्टो गावो यस्येत्यर्थे | पित्रा चाष्टधा हूँ' इति तजितः शिशुरष्टस्ववयवेषु वक्रत्व- 35 बहुव्रीहिः "गोश्चान्ते."२.४.९६.] इति ह्रस्वः, अत्रापि ! मापन्न इति । न केवलं योगरूहावेव, रूढावपि भवतीत्याह, दीर्घवारणाय यक्त इति वक्तव्यम। यद्यपि बहवीहिणा | अष्टाविटपो नाम कश्चिदिति-अष्टौ विटपा अस्येति विग्रहः
अष्टतुरगो रथ इत्यत्र यथा यक्तार्थप्रतिपत्तिरस्ति तथात्रापि | तत्संख्याकविटपाभावेऽपि तस्य नाम तथाप्रसिद्धमिति कश्चि5 कुतो नेति शङ्कितं शक्यते, तथापि तत्र रथादिपदसान्नि-दित्युक्त्या विज्ञायते । पदकृत्यमाह-नाम्नीति किमिति--
यात् सोऽर्थो गम्यते ; इह च चैत्रपदसान्निध्यात् स्वस्वाभि- तया च अन्यत्रापीत्येव सूत्र्यतामिति तदाशयः, उत्तरपद- 40 भाव एव प्रतीयत इति लक्षण्यमवसेयम्, अन्यपदसन्निधे- विशेषानाश्रयणवदर्थविशेषोऽपि नाश्रीयतामिति भावः रपि शक्तिग्राहकत्वस्य सर्वसम्मतत्वात् ।।३.२.७४।। अन्यथा नाम्नीति सूत्रस्वरूपमेव, तदभावे चाष्टापदमित्या
दिप्रयोगाणामसिद्धिरेवेत्यव्याप्तिरेब दोषत्वेनोक्ता स्यान्ना
तिव्याप्तिः, अतिव्याप्त्यपेक्षयाऽव्याप्तेरधिकदोषावहत्त्वात, नाम्नि । ३. २. ७५ ॥
तथा च पूर्वोक्तादन्यत्रापि दीर्घ इत्यर्थकोऽन्यत्रापीत्यादि- 45 10 त० प्र०-अष्टनशब्दस्योत्तरपदे परे नाम्नि-संज्ञायां |
न्यास एवं कार्य इत्येवाशयः । न च तावता कि लाघवदीघोंऽन्तादेशो भवति । अष्टौ पदान्यत्र-अष्टापदः कैलाशः.
मिति शङ्कयम्, प्रष्टुर्गुणदोषदर्शनेऽनादरात् असूयामात्रस्य अष्टापदं-सुवर्णम, अष्टावको मनिः; अष्टाविटपो नाम कर्तव्यत्वात् । अष्टगुणमैश्वर्यमिति-अष्टौ गुणा अणिमाकश्चित् । नाम्नीति किम ? अष्टदण्डः, अष्टगुणम
| दयः सिद्धयो यत्र तादृशमैश्वर्यमित्यर्थः, अत्र चैश्वर्येऽष्टश्वर्यम् ॥ ७५ ॥
गणवत्त्वस्य सत्त्वेऽपि नैतन्नाम तस्येति न भवति दीर्घः, 50 नाम्नीत्यस्या भावे सामान्य सूत्रसत्त्वे च स्यादेवात्रापि दीर्घ
इति नाम्नोति वाच्यमेवेति ।। ३. २. ७५ ॥ श० म.न्यासानुसन्धानम--नाम्नि । अत्रार्थ एव निमित्ततयाऽश्रितो न तूत्तरपदविशेषः, तदाह-उत्तरपदे इति । नाम्नीत्यस्य विवरण-संज्ञायामिति-संज्ञापदेनात्र
कोटर-मिश्रक-सिध्रक-पुरग-सारिरूढिरेवाभिप्रेता योगरूढिर्वा, न केवल यौगिकी संज्ञा, अष्टौ
कस्य वणे ।३. २. ७६॥ पदानि--स्थानानि यत्र स:--अष्टापदः कैलासः इति--
त०प्र०-कोटरादीनां कृतणत्वे वनशब्दे उत्तरपदे दी?- 55 20 अत्राष्टन्शब्दस्य पदशब्देन सह बहुव्रीहिः । केचित् त्वेवमा
ऽन्तादेशो भवति, नाम्नि-संज्ञायां विषये । कोटरावणम, ह:--अष्टौ पदानि-प्रकृतिसष्टिकरतत्त्वात्मकानि स्थानानि
मिश्रकावणम्, सिध्रकावणम्, पुरगावणम्, सारिकावणम् । यत्रेति, अष्टौ पदानि च क्षितिजलाऽग्नि-वायु-आकाश-यज
"पूर्वपदस्थानाम्न्यगः" [ २. ३. ६४.] इति णत्वे सिद्धे, मान [ जीव ] सोम-सूर्यात्मकानि क्रमेण शर्व-भव-रुद्रोग्र
- कृतणत्वस्य वनशब्दस्य निर्देशोनियमार्थः तेन "पूर्वपदस्था" भीम-पशपत्ति-महादेव-ईशाननामभिः ख्यातानि, तानि च
इत्यादि सूत्रेण वनशब्दस्य णत्वमाकारसंनियोगे एव भवति; 60 25 शिवात्मकानीति शिवालये कैलासे तत्स्थितिः सिद्धेति योग
ततश्च 'कुबेरवनम्, शतधारवनम्' इत्यादी संज्ञायामपि रूढिरियं कैलासे। एवम्-अष्टापदं सुवर्णम् इति-अष्टसु |
णत्वं न भवति ॥ ७६ ॥ लोहधातुषु पदं मुख्यं स्थानमस्येति-अष्टापदं सुवर्णम्, अत्रापि समासादिः पूर्ववत्, एषोऽपि शब्दो योगरूढ एव, तदर्थाभावे
तदर्थसत्त्वेऽपि तद्वयक्तेरन्यत्र तच्छब्दप्रयोगाभावात् । श्रष्टा- श० म० न्यासानुसन्धानम्-कोटर० । दीर्घ इति 30 वक्रो मुनिरिति-अष्टसु स्थानेषु वक्र:-अष्टावक्रः, अष्टौ | वर्तते, 'उत्तरपदे' इति च प्रकृतम् 'उस रपदे' इत्यस्य 'वणे'
वक्राण्यस्येति वा विग्रहः, सोऽयं मुनिरेव तन्नाम्नाऽऽख्यायते, | इत्यनेन सामानाधिकरण्यम्, ‘वणे' इति च पदमनुकरणं 65 नान्यः; अस्य वाष्टधावक्रत्वमुक्तं पुराणादिषु, तद्यथा-- कृतणत्ववनशब्दस्य, तदाह-कोटरादीनामित्यादि । कोगर्भस्थे तस्मिन् तन्मातुः सन्निधावेव शिष्यानध्यापयतः | टरावणमिति-नामत्वादिह वाक्यं न प्रदर्शितम्, शास्त्र- . पितुरुपदेशाशद्धिं श्रुत्वाऽष्टधा मैवमिति शब्दं चकार, क्रुद्धेन | प्रक्रियानिर्वाहाय कोटर-आम-वन-सि' इत्यलोकिक वाक्य
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिसे
[पाद-२, सूत्र ७६-७७]
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मवधारणीयम्, षष्ठीसमासः, 'पूर्वपदस्थान्नाम्न्यगः" [२. श० म० न्यासानुसन्धानम्-अञ्जना० । उत्तर३.६४.] इति णत्वम्, एवं मिश्रकावणादीनां सिद्धिर्बोध्या, | पदे दीर्घ इति प्रकरणप्राप्तम्, तत्रोत्तरपदे इत्यनेन मिराएते सर्वे नरकविशेषाणां वाचकाः शब्दा इति प्राञ्चः । । वित्यस्य सामानाधिकरण्येनान्वयः, तदाह-गिरावुत्तरपदे
ननु 'वणे' इति णत्वनिर्देशस्य कोऽर्थः ? णत्वविधानमिति | इति । अजनागिरिरिति-अज्जनो वृक्षविशेषः, तस्य 40 5 चेत् ? नैतत्-तस्यान्यसूत्रेण स्वतः प्राप्तत्वादिति शङ्कामु- [प्रभवः ] गिरिः-अज्जनागिरिः, जन्यजनकभावसम्बन्ध स्थाप्य समाधातुमाह-"पूर्वपदस्थान्नामन्यगः ॥२.३.६४.1 षष्ठी, तदन्तेन गिरिशब्दस्य समासः । भाजनागिरिः इति णत्वे सिद्धे इत्यादि, न च न तेन सर्वत्र णत्वप्राप्तिः | भज्यन्ते शत्रवोऽनेनति भजनः, स एव भाजनो राज'अगः' इति पर्यंदासात्, गकारान्तात् परस्य पुरगावणमित्यत्र |
विशेषः, तस्य निवासो गिरि:-भाजनागिरिः। किंशुक: णत्वाप्राप्तेरिति वाच्यम्, तत्र 'अगः' इत्यनेन गकारण्यञ्ज- | पलाशवृक्षः, तस्य [ प्रभवो] गिरिः किंशुकागिरिः, 45 10
नान्तमात्रात् परत्वं पर्यंदस्यते, इह चाकारविशिष्टो गकारो किशुलकाऽपि स एव वृक्षः । सात्वो जनपदविशेष:, तद्राजा न तत्पर्यंदासविषय इत्यबोषात्, अत एव तत्र सूत्रे "पूर्व
च, तस्य गिरिः- साल्वागिरिः । लोहितानां मृगविशेषण पदास्थान्नाम्न्यगः" [२.३.६४.] इत्यत्र ] अग इत्यस्य व्या. |
[प्रभवो ] गिरिः-लोहितागिरिः। एवं-कुक्कुटागिरि.. वय॑म् ऋगयनमित्युक्तम्, तत्र गन्तमात्रात् परत्वमुरारपद
रपि विग्राहाः । खन्नागिरिरिति-खदूनशब्दोऽप्रसिद्धचरः, स्येति स्वरान्तात् परस्योत्तरपदस्य सम्बन्धिनो णत्वप्राप्त्यक्षते;
क्वचिच्च ‘खड्न' इति पाठोऽपीति सूत्रवृत्यन्त प्रदर्शित- 50 15 एवं च कृतणत्वनिर्देशो व्यर्थ एव, स च व्यर्थीभ्य ज्ञापयति
गणपाठेन,नुज्ञायते । पाणिनीय च तन्त्रे अजनादयः पूर्वपदस्थाग्निमित्तात् परस्य नकारस्य णत्वं चेत् कृतदीर्धात्
किंशुलक, दित्वेन [ पा० सू० ६-३-११७ ] पठिताः पूर्वपदात् परस्यैवेति, तथा चाकारसन्नियोगे एव भवतीत्य
तत्र ‘खवून' शब्द: 'खंड्न' शब्दो वा न पठ्यते, 'अन्योऽपि स्यायमेवार्थः, समं नियोगोविधानं सन्नियोगः, स च यद्यप्येक
गणपाठभेदस्तत्र दृश्यते, यथा भाजनशब्दस्य स्थाने
'भजन' शब्दस्य पाठः, किंशुकशब्दोन पठ्यते, सति च 55 सूत्रेण कस्मिल्लक्ष्ये विधाननेव तथापीह सन्नियोगशब्दः साह
तद्विषये प्रामाणिकप्रयोगे बहुवचनबललभ्याकृतिगणस्वेन चर्यपर इति बोध्यम्, दीपेण सह यत्र साहचर्य सम्भावित
निर्वाहः कार्यः, नलशब्दस्य स्थाने नडशब्दस्तत्र पठ्यते, तत्रैव णत्वमित्यर्थात्, अन्यथा दीपे सति णत्वं णत्वे सति
तच्च डलयोरभेदाद्गतार्थम् । नलानां तणविशेषाणां प्रभवो च दीर्घ इत्यन्योन्यमखप्रक्षित्वादेकमपि न प्रवर्तेत, तथा
गिरिः-नलगिरिः। पिङ्गं लातीति पिङ्गलो नागविशेषो चाग्रे दीर्घसंभावनायामेव णत्वं, कृते च णत्वे, कृतणत्ववन
रुद्रश्च, तस्य गिरि:-पिङ्गलागिरिः । सर्वत्र गिरावुत्तरपदे 60 शब्दपरत्व सिद्धौ दोघं इति प्रक्रिया विज्ञया । तत्फलमाह
पूर्वपदभूतानामञ्जनादीनां दोघः । अञ्जनादीनामिति ततश्च कुबेरवनमियादि । संज्ञायामपीत-णत्वनिमित्तस्य
किमिति-सामान्यन गिरावुत्तरपदे पूर्वपदस्य दोषों संज्ञारूपस्य सत्त्वेऽपि पूर्वपदस्थानिमित्तात् परस्य
विधीयतामिति प्रष्ट्राशयः । प्रत्युदाहरणेनोत्तरयतिवनशब्दसम्बन्धिनो नस्य णत्वं न भवतीत्यर्थः ॥३.२.७६।।
कृष्णगिरिरिति-कृष्णः कृष्णवर्णों गिरिरिति विशेषण
समासः, गिरावुत्तरपदे सत्यपि न दीघों भवति, पूर्वपद- 65 अञ्जनादीनां गिरौ।३.२.७७ ॥ विशेषग्रहणाभावे स्यादेवेति भावः एवं- श्वेतगिरिरित्यत्रापि
त० प्र०-अजनादीनां गिरावस्तरपदे दीर्घोऽन्तादेशो | बोध्यम् ! नान्नीत्येवेति-पर्वतविशेषस्य संज्ञायामेव 30 भवति, नाम्नि । अञ्जनागिरिः. भाजनागिरिः, किंशलका-दाघा में
दीर्थों भवति नान्यत्रेति भावः अवनगिरिरिति-अत्र गिरिः, साल्दागिरिः, लोहितागिरिः, कुक्कुटागिरिः,
अजनशब्द: कज्जलवाचकः, तद्वर्णोऽथवा तत्प्रभवो गिरिखदनागिरिः, नलागिरिः, पिडालागिरिः । अञ्जनादीनामिति । रञ्जन गिरिरित्यव विशिष्यते, न तु रूढयोच्यते, इति नास्य 70 किम् ? कृष्णगिरिः, श्वेतगिरिः । नाम्नीत्येव-'अञ्जनस्य | नामत्वम् । गणे पठितान् निर्दिशति-अञ्ज नेत्यादिना।
गिरिः-अजनगिरिः। अञ्जन, भाञ्जन, किंशुक, किंशुलक, | एकवचननिर्देशे लाधवमनादृत्य बहुवचननिर्देशस्य कि 35 साल्व, लोहित, कुक्कुट, खदून ( खड्न ), नल, पिङ्गल' | फलमित्याह-- बहुवचनमाकृतिगणार्थमिति–एवमाकृ
इत्यञ्जनादिः बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥ ७७॥ [तयोऽन्येऽपि गणे बोध्या इति ज्ञापनार्थमित्यर्थः।।३०२-७७॥
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[पद-२, सूत्र. ७८ ]
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श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
अनजिराविवहस्वर- शरादीनां मतौ । ३. २.७८ ॥
त० प्र०- अजिरादिवजितबहुस्वराणां शरादीनां च मतौ प्रत्यये दीर्घान्तादेशो भवति, नाम्नि । बहुस्वर - उदुम्बरावती मशकावती, वीरणावती, पुष्करावती, अमरावती; शरादिशरावती वंशावती, शुचीमती, कुशावती, धूमावती, अहवती, कवीवती, मुनीवती, मणीवती; वादवान् नाम गिरि:, बेटावान् नाम गिरिः । शर, वंश, शुचि, कुश, धूम, अहि, कपि, मुनि मणि वार्द वेट' इति शरादिः बहुवचन10 माकृतिगणार्थम्, तेन 'ऋषीवती, मृगावती, पद्मावती, बातावती, भोगावती' इत्यादि सिद्धम् । बहुस्वरशरादी नामिति किम् ? ब्रीहिमती, इक्षुमती, द्रुमती, मधुमती । बहुस्वरस्यानजिराविविशेषणं किम् ? अजिरवती, खदिरवती, खपुरवती, स्थविरवती, पुलिनवती, मलयवती, 15 हंसकारण्डववती चक्रवाकवती, श्रलंकारवती, शशाङ्कवती, हिरण्यवती अजिरादिराकृतिगणः । नाम्नीत्येव - वलयवती कन्या, शरवती तूणा ॥ ७८ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - अनजि० । अनजिरादिशब्दो बहुस्वरमात्र विशेषणं संभवात् न शरादीनाम20 सम्भवात्, तदाह- अजिरादिवर्जित बहुस्वराणामिति । अजिरादयो न पठयन्तेऽपि त्वाकृत्या गण्यन्ते तद् वक्ष्यति अजिरादिराकृतिगणः इति । शरः दयश्च गण्यते । तत्र क्रमप्राप्तत्वात् पूर्व बहुस्वरविषयाण्येवोदाहरणान्याह - बहुस्वरेति प्रकृत्य, उदुम्बरावतीति - उदुम्बरा वृक्षविशेषाः, 25 ते सन्त्यस्यामित्यर्थे " तदत्रास्ति" [ ६.२.७०] इति चतु
र्थ्यन्तर्गतार्थे "नद्यां मतुः " [ ६. २. ७२ ] इति मतुः "नाम्नि" [२. १. ९५] इति मस्य वः स्त्रियां ङीः अनेन दीर्घः । मशकावती मशकाः सन्त्यस्यामित्यादिरीत्या विग्रहादिः पूर्ववत् । वीरणावतीति वीरणास्तृणविशेषः, विग्र30 हादि: पूर्ववत् । पुष्करावतीति पुष्कराणि पद्मानि सन्त्य -
स्यामिति चतुरर्थ्या मतुः । अमरावतीत अमरा देवाः सन्त्यस्यामिति मत्वर्थे मतुः पुरीविशेषस्य नाम । उदुम्बरादयः सर्वे बहुस्वराः ।
अथ शरादीनुदाहरति- शरादीत प्रकृत्य, शरावतीति35 शरास्तृणजातयः, ते सन्त्यस्यामिति विग्रहः, नदीविशेषस्य
८५
40
नाम | वंशाः प्रसिद्धाः, ते सन्त्यस्यामिति - वंशावती । शुचीमतीति- शुचिरस्त्यस्यामिति विग्रहः, "नाम्नि " [२.१.९५] इति प्राप्तं वत्वं "नोम्र्म्यादिभ्यः " [२.१.९९] इति निषिध्यते । कुशावतीति कुशास्तृणविशेषाः सन्त्यस्यामिति विग्रहः, नगरीविशेषस्य नाम । धूमावती धूमः [ विशेषकः ] अस्त्यस्यामिति विग्रहः तान्त्रिकसम्प्रदाये दशसु महाविद्यासु प्रसिद्धका महाविद्या । अहीती अहयः सन्त्यस्यामिति विग्रहः, पुरीविशेषस्य नाम । कपीवती कपयः सन्त्यस्यामिति विग्रहः, गुहाविशेषस्य नाम मुनीवती मुनयः सन्त्यस्यामिति विग्रहः एवं मणीवतीत्यादयोऽपि विग्राह्यः । वार्दावान् नामगिरिरिति-वारि [ जलानि ] ददतीतिवार्दा मेघाः, ते सन्त्यस्मिन्निति वादवान् नाम पर्वतविशेषः । बेटावान् नाम गिरिः वेटन्ति इति वेटा:- वृक्षाः, "विट शब्दे" स्वादिः पक्षिद्वारा शब्दवत्वेन वृक्षाणां संज्ञेयमिति साम्प्रदायिकाः, ते सन्त्यस्मिन्निति वेटावान् ।
45
50
गणं निर्दिशति - शर वंशेत्यादिना । पाणिनीये तन्त्रे शरादिगणे [ पा० सू० ६.३.१२०. ] वार्द वेट - शब्दौ न पठयेते, सति प्रामाणिके प्रयोगे आकृतिगणत्वेन तयोः संग्रहः । स्वमतेऽपि शरादीनामा कृतिगणत्वमाह बहुवचनमाकृतिगणार्थमिति । शरदेरित्येकवचननिर्देशे करणीये 55 बहुवचननिर्देशस्य व्याप्त्यर्थत्वेनान्येषामपि संग्रह इति भावः । तेन संग्राह्यान् प्रसिद्धान् प्रयोगानाह ऋषीवतीत्यादिना, विग्रहादिः पूर्ववत् । बहुस्वरशरादीनामिति किमितिसामान्येनैव मतौ दीर्घो विधीयतामिति प्रष्टुराशयः । व्याव
माह-- त्रीहिमतीत्यादि । एषु सत्यपि मतौ न दीर्घो 60 भवति, विशिष्य विधानाभावे तत्रापि दीर्घः स्यादिति भावः । बहुस्वरस्यानजिरादिविशेषणं किमिति -- शरादिषु पठि तानामेव ग्रहणात् तत्र पर्युदासस्यानावश्यकत्वेन तेषु बहुस्वरशब्दपाठाभावेन च बहुस्वरविषय एवानजिरादिविशेषणं संभावितमिति तदपि न कार्यमिति प्रश्नाशयः । प्रत्यु- 65 दाहरति- अजिरवतीत्यादिना, अजिरमङ्गणं, तदस्त्यस्यामिति विग्रहः, खदिरो वृक्षविशेषः, खजुरोऽपि स एव, स्थविरो वृद्धः पुलिनं तटम् । मलयवतीति - मलयस्यादूरभवा नगरी, विद्याधरचक्रवर्तिनो जीमूतवाहनस्य पत्न्यपि मलयदतीति प्रसिद्धा, सापि मलयपर्वतसमीपस्थतपोवनप्रभवेति 70 हंसकारण्डववतीति- हंसकारण्डवौ पक्षिविशेषौ ताभ्यां युक्ता नदी प्रकृतशब्देनाख्यायते ; हंसकारण्डवतीत्यपि क्वचित् पठ्यते, तत्र कारण्डः कारण्डव एव :
तन्नाम्ना ख्याता |
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ७८-८१]
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ततः स्वाथिकः प्रज्ञाद्यण, करण्डो वंशनिर्मितपत्रिविशषः, स । सति उत्तरपदलिङ्गताया:प्राबल्याद विश्वामित्रमिति स्यात। 35 एव' कारण्डः, हंसस्य कारण्ड इति षष्ठीसमास इति केचित् ।। नाम्नीत्येवेति-रूया ऋषिविशेषे प्रतिपाद्य एवानेन दीपों चक्रवाकवतीति--चक्रनामा पक्षिविशेषः, स एव चक्रवाकः । न तु विशेषणविधयाऽपि तत्परत्वे, तथा सत्यतिप्रसङ्गात्, चकशब्देनोच्यमानत्वात्, सोऽस्त्यस्यामिति विग्रहः । अलङ्का- सदाह-विश्वं मित्रमस्येति-मुहि अहिंसायां प्रतिष्ठितस्य वतीति विशेषणशब्दोऽपि । शशावती रात्रिः, कथा | निरित्वाज्जगदेव तस्य मित्रमिति सर्वोऽपि मनिविश्वमित्र सरित्सागरे प्रसिद्धा नायिका वा । हिरण्यवतीत्यपिविशे• इति न तादृशेऽर्थे प्रतिपाद्येऽस्म सूत्रस्य प्रवृत्तिरिष्टेति भावः, 4 षणशब्दो नदीविशेषस्य नाम च । एषु बहुस्वराणां मतौ । तथा च नाम्नीत्यावश्यकमिति ॥ ३. २.७९॥ दो? नेष्ट: । अजिरादेरपठितत्वात् कथं परिचयस्तदाह--- अजिरादिराकृतिगणः इति--आकृत्यैव गण्यन्ते परिचीयन्त । इत्याकृतिगणा अजिरादय इति भावः। नाम्नीत्येवेति--
नरे। ३. २.८० ॥ "नाम्नि" [३. २. ७५] इति सूत्रं सर्वत्र सम्बध्यत एवेति
त०प्र०-विश्वशब्दस्य नरशन्दे उत्तरपदे, नाम्नि भावः । तद्वयावय॑माह-वलयवती कन्येति-वलयोऽस्त्यस्या | विषये दीर्घान्तादेशो भवति । विश्वे नरा अस्य-विश्वानरो इति विग्रहे विशेषणशब्द एवाय न तु नामति बहुस्वरस नाम कश्चित। नर इति किम? विश्वसेनः । नाम्नीत्यव- 45
त्वेऽपि न दीर्घ इति तद्वारणार्थ नाम्नीत्यावश्यकमिति भावः। विश्वनरो राजा ॥८॥ 15 एवं-शरवती तूणेत्यवापि द्रष्टव्यम्, तूणा शराधान
पात्रम् , तस्याः सदा शरवत्वात् तस्या विशेषणमिदं चतु नामाप्रसिद्धः ॥३.२.७८१
श० म० न्यासानुसन्धानम्-नरे। योगविभागसामर्थ्यादृषाविति न सम्बध्यते, किन्तु विश्वस्य नाम्नीत्येवे
त्याह-विश्वशब्दस्येत्यादिना, विश्वे नरा अस्येति-विश्वऋषौ विश्वस्य मित्रे ३. २. ७६ ॥
शब्दोऽत्र सर्वपर्यायः, सर्वार्थोऽप्यत्र बहुत्वमात्रपरो न त्ववच्छेत०प्र०-विश्वशब्दस्य मित्रे उत्तरपदे, ऋषावभिधेय, । दकावच्छेदपरः, अवक्छेदकावच्छेदेन नरत्वनिरूपितस्वामि20 नाम्नि विषये दीर्घोऽन्तादेशो भवति । विश्वामित्रो | त्वस्याप्रसिद्धः । नरे इति किमिति-विशिष्य नरशब्दे दीर्घ
नामर्षिः। ऋषाविति किम् ? विश्वमित्रो माणवकः ।। विधानं किमर्थम्, 'अन्यत्रापि' इति सामान्येनैव नाम्नि नाम्नीत्येव-विश्वं मित्रमस्य-विश्वमित्रो मुनिः ॥ ७९ ॥ | विश्वशब्दस्य दीर्घा विधीयतामिति तदाशयः । नरादन्यत्रो
तरपदे दीर्थों नेष्ट इत्याह-प्रत्युदाहरणमुखेन-विश्वसेनः 55
इति-विश्वा सेना यस्येत्यर्थे ऽत्र न भवति दीर्ध:। नाम्नीश०म० न्यासानुसन्धानम्-ऋषो० । ऋषाविति । त्यस्य सम्बन्धोऽप्यावश्यक इत्याह-नाम्नीत्येवेति। विश्वनरो विषयनिर्देशो न तु निमित्तसप्तम्यन्तम, निमित्तस्य षष्ठ्य- राजेति-भवति हि राज्ञो बहनरनिरूपितं स्वामित्वमिति 25 न्तात परतः श्रयमाणत्वात्, तदाह-विश्वशब्दस्य मित्रे । तस्यायं शब्दो विशेषणं न तु नाम, नाम्नीत्युक्तत्वादत्र न उत्तरपदे इति-मित्ररूपे उत्तरपदे इत्यर्थः। ऋषाविति । भवति दीवाना
भवति दीर्घोऽन्यथा स दुनिवार इति भावः ।। ३. २. ८० ।। 60 विशेषपरं न तु सामान्यपरं नहि ऋषिसामान्यस्य विश्वामित्रसंज्ञाऽपि तु तद्विशेषस्य, तथाह-विश्वामित्रो नामपिरिति ऋषाविति किमिति-अभिधानस्वाभाव्यादेव कृतदी? वि.
वसुराटोः । ३. २.१ ८१॥ श्वामित्रशब्द ऋषावेव प्रयोक्ष्यत इति ऋषाविति कथनमनावश्यकमिति प्रष्टुराशयः। न सर्वत्राभिधानस्वाभाव्येन निर्वाहः । त० प्र०-पृथग्योगानाम्नीति निवृत्तम्, विश्वशब्दस्य शास्त्रानर्थक्यप्रसङ्गादित्यतिव्याप्तिवारणार्थमवश्यमेव ऋषा-बसौ राटि चोत्तरपदे वीर्घोऽन्तादेशो भवति । विश्वं वस्वस्थविति कथनीयमित्याह-विश्वमित्रो माणवक इति-विश्वे | विश्वावसुः, विश्वस्मिन् राजते इति-विश्वाराट । राडिति मित्राणि यस्येति विग्रहः, पूर्वत्रापि स एवोचितः, तत्पुरुषे विकृतनिर्दशादिह न भवति-विश्वराजौ, विश्वराजः ॥८65
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पाव-२, सूत्र ८१-८३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
१० म० न्यासानुसन्धानम्-वसु० । विश्वस्येति / सूत्रे, किन्तु संज्ञायामिति प्रकरणे तत् सूत्रमुच्यत इति 35 प्रकृतं, नाम्नीत्यपि पूर्वतोऽनुसतं किन्तु तस्य नेह सम्बन्ध | सज्ञाताऽन्यत्र न भवात द
| संज्ञातोऽन्यत्र न भवति दीर्घ इत्यपित्रादेरित्यस्य व्यावानां इत्याह-पृथग्योगान्नाम्नीति निवृत्तमिति, अयमाशयः--
पितृवलादीनां तेनैव निवृत्तिर्भवति। उदाहरति-आसुतिः नाम्नीत्यस्य सम्बन्धे इष्यमाणे पूर्वव वसुराटोरपि पाठः
सुरेत्या देना । कृष्यादित्वाद् वलचि- आसुतीवल: 5 करणीयः स्यात् किमिति पृथक् सूत्रमाचरितमिति पृथक्सूत्र
शाण्डिकः । कृषिः कर्षगमस्य- कृषीवलः कर्षक:, दन्तौ यस्य करणसामर्थ्यात् ततः कश्चिदिह विशेषोऽभिमत इति प्रतीयते,
स-दन्तावलो हस्ती। उत्सङ्गोऽस्य- उत्सङ्गावलः। पुत्रो- 40 स च विशेषः कोऽन्यः स्यान्नाम्नीत्यस्यासम्बन्धात् । विश्वं
ऽस्येति-पुत्रावलः। पाणिनीयादावेतो. प्रयोगी नोपलभ्यते वस्वस्येति-विश्वशब्द इह सर्वविधार्थः, सर्वप्रकारं वसु
नामत्वेनाप्रसिद्धत्वात्, नाम्न्येव तत्र दीर्घविधानात् । पर्यु दासअस्येत्यर्थः, गावो भूमिहिरण्यमिति वसुनस्त्रयः प्रकाराः,
व्यावर्त्यमाख्यातुं पृच्छति अपित्रादेरिति किमिति। पितृवल 10 तत्र गोपदं सर्वविधपशुपरम्, हिरण्यपदं सर्व विधात्रुप्यधन
इत्यादि, सर्वत्र मत्वर्थीथो वलच । चकारः किमिति
*प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यव* इति न्यायेन प्रत्ययभते परम्, भूमिपदं च भूमि-तत्सम्भवसर्वविधान्नादिपरम्, तथा व यस्यतत्त्रितयान्तर्गतं सर्वप्रकारं वसु भवेत् स एव विश्वा
एव बलशब्दे परे भविष्यति, वलस्य प्रत्ययत्वख्यापनार्थ
श्चकारो व्यर्थ इति भावः । उत्तरयति-उत्तरपदे मा भूदिति, वसुः न तु सकलजगद्गतधनस्वामी, तादशस्य कस्यचनाभावात् । विश्वस्मिन् राजते इति सर्वत्र दीप्यत इत्यर्थः ।
अयमाशयः-पत्र प्रत्ययाऽप्रत्यययोरुभयोः सामान्येन ग्रहणं 15 राशब्दो हि राजशब्दप्रकृतिक इति प्रकृत्यैव "वसुराजोः" |
मराजो प्राप्तं तत्रैव तन्न्यायप्रवृत्तिः, इह व 'उत्तरपदे' इत्यनुवृत्तमित्युइति निर्देश उचित इति राडिति विकृतिनिर्देशो व्यर्थ इत्या
त्तरपदभूत एव वलशब्दे परे इत्यर्थों गम्येत, न न्यायापेक्षास्या- 50 शायामाह-राडितिविक्रतिनिर्देशादिति ---प्रकृतिनिर्देश ! दसन्दिग्धत्वादिति यत्रोत्तरपदभूतो वलशब्दस्तत्रैव स्यान्न त्वन्यविहाय विकृतिनिर्देशेन यत्र तादशो विकारः संभवति तत्रैव त्रेति 'आसुतीवलः' इत्यादी न स्यात्, कायवलमित्यादी च दीर्घ इति विज्ञायत इति यत्र न तत्सम्भावना तत्र न दीर्घ
स्यादित्यव्याप्त्यतिव्याप्तिरूपोभयदोषापत्तेः । तत्राव्याप्ति
दोषस्यातिव्याप्त्यपेक्षया बलवत्त्वेपि तस्य स्वयमूहनीयत्वाद20 इति भावः, तथाहि-पदान्तविषये एव दीपो भवति नान्यत्रेति फलति । तदाह तेनेह न भवति-विश्वराजौ, विश्वराजा
तिव्याप्तिदोष मेवाह- कायवलमित्यादिना, अत्र केचित्- 55
'कृषीवल:' इत्यादी वकारः [अन्तस्थान्तर्गत:], कायबलइति ।। ३. २. ८१ ।।
मित्यादी च बकार: पवर्गीयः] इति बलेऽपित्रादेरिति
न्यासेऽपि प्रकृते दोषाभाव एव । दृश्यते च पाणिनीय चकारवलच्यपित्रादेः । ३.१ २.८२॥
रहित एव सूत्रपाठे “वले" [पा. सू. ६. ३. ११८] इति
प्रत्ययभिन्नस्योत्तरपदभूतस्य 'क्ल' शब्दस्याप्रसिद्धिरेव । 60 त०प्र०-बलवप्रत्यये परे पित्रादिवर्जिताना स्वरान्तानां
यद्यपि वलधासोरचि बलते इति 'वल:' इति साधयितं 25 शब्दानां दीर्घोऽन्तादेशो भवति । आसुतिः सुरा, साऽस्या
शक्यते, संभवति च तस्य क्लीबताऽपि तथापि तादृशप्रयोगस्तीति आसुतीवलः, एवम् कृषीवल: दन्तावलः,उत्सङ्गावलः
स्याप्रसिद्धत्वेन न कायवलमित्यादौ तस्य संभव इति स्पश्टापत्रावलः । अपित्रादेरिति किम् ? पितृबल:, भ्रातृवलः,
र्थमेव चकारोपादानमित्याहुः, वस्तुतस्तु-अप्रत्ययान्तो वलमातवलः, उत्साहवलः। चकारः किम् ? उत्तरपदे मा
शब्दः धातूपारायणे स्वयमाचार्येण साधित इति तदप्रसिद्धिरिति 65 भृत्-कायवलम्, नागवलम् ॥ ८२॥
नोचिमिति चकारोपादानमावश्यकम् । किञ्चबवयोरक्य
मितिबलशब्दोऽपि वलशब्दो भवतीति ध्येयम् ॥३. २.८२॥ 30 श० म० न्यासानुसन्धानम्-वल० । अपित्रादे
चितेः कचि । ३.२ ८३ ॥ रित पदासः, स च सदृग्ग्राहीति यथाभूताः पित्रादयः स्वरान्तास्तथाविधानामेव दी? भवतीत्याह-पित्रादि- त०प्र०-चितिशब्दस्य कचि प्रत्यये परे दीर्घोऽन्तादेशो वर्जितानां स्वरान्तानामिति । पाणिनीये च नयेऽपि त्रादे- भवति। एका चितिरस्मिन् एकचितीकः, द्विचितीक; 70 रिति नोच्यते, एतद्विषय "वले" [पा. स. ६. ३. ११८] इति । त्रिचितीकः ॥ ८३॥
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बृहद्वृत्ति-वृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२ सूत्र ८३-८४ ]
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श० म० न्यासानुसन्धानम्-चितेः । चितिशब्दो- ! त्यपि तु तदाकारेण रोमदाहादिचिन्हमेव, तथा च न नहा- 35 ऽनेकार्थश्चिनोते: क्तिप्रत्यये सावुः, समूहे चितायां च वर्तते, | अमपि तु तदाकारत्वात् तत्सदृश मेव, तदेव सादृश्यनिवन्धन इष्टकादिसमूहविषये च निरूढलक्षणया, एका चितिर- तेन शब्देन व्यवह्रियते लक्षणया । दानमिव वा को स्मिन्नित्यादिविग्रहवाक्ये चितिशब्दस्त तत्समूहविशेषवाचक | यस्ये त-एतच्च विग्रहान्सरसम्भावनाप्रदर्शनमात्रं न तु 5 एव विज्ञायते, बहवीही कृते समासान्तः कच्, तस्मिन् परे । वस्तुतः स्वामिचिह्नत्वसाधकम, न प्राकृतिकेन दात्राधाकारण
पूर्वपदभतस्य चितिशब्दस्य दीर्घ--एकचितीका: द्विचितीक चिहन स्वामिविशेष: परिचीयते. ते त संकेते कश्चिदि- 40 इत्यादी द्वे चिती यस्येत्यादिक्रमेण विग्रहो बोध्यः ॥३.२.८३॥ त्थंभूतः पश: स्वामिविशेषसम्बन्धितया परिचीयेतापि पर न
तत्साधारण्येन चिह्नतया व्यवहर्तुं शक्यते । एवं- शक कूकर्णः
इति-यथा दानाकर्ण इत्यत्र विग्रहस्तथाऽस्यापोत्यर्थः ।। स्वामिचिह्नस्याऽविष्टाऽष्ट-पञ्च-भिन्न-च्छिन्न- द्विगणाकर्णः इति--द्विगुणं-चिह्व कर्णे यस्येत्यर्थः। द्वयङगु
च्छिद्र-स्रुव-स्वस्तिकस्य कर्णे । ३. २.८४॥ लाकर्णः इति-द्वे अङगुली मानमस्येत्यर्थे तद्धितार्थसमासे 45 10 त० प्र०-स्वामी चिह्नमते येन तत-स्वामिचिदम, | "संख्याव्ययादङ्गले": (७. ३. १२४) इति डे, मानार्थके
तद्वाचिनो विष्टादिवर्जितस्य कणशब्दे उतरपदे परे दोघोड. मात्रटि कृते-तस्य "द्विगो: संशये च" (७. १. १४४ ) न्तादेशो भवति । वात्रमिव दात्रभ. दात्र चिह्नं कर्णे यस्य स, इति लुपि द्वयङगुलमिति, द्वयङगलं कर्ण' यस्येति विग्रहे दात्रमिव वा करें यस्य स दानाकर्ण पशुः, एवं- | बहुव्रीहिसमासेऽनेन पूर्वपदस्य चिह्नवाचिनो दीर्घ-द्वयङगुशङ्ककर्णः, द्विगुणाकर्णः, द्वयङ्गलाकर्णः । स्वामिचिह्नस्येति | लाकर्ण इति । कर्णस्य द्वयङ्गुलत्वं न चिह्नविशेषतया व्यव- 50 किम् ? शोभनकर्णः । स्वामिग्रहणं किम् ? लम्वकर्णः. | हतुं शक्यत इति मते तु-द्वयोरङगुल्यो: समाहार इत्यर्थ अविद्धकर्णः शिशुः । चिह्नग्रहणं किम् ? वाहनस्य कर्ण:
यङ्गुलपदं संसाध्य द्वयङ्गलरूपं चिह्नं यस्य कर्ण इति वाहनकर्णः । विष्टादिवर्जनं किम् ? विष्टकर्णः, अष्टकर्णः,
विग्रहः कार्यः । स्वामिचिह्नस्येति किमिति सामान्यतो पञ्चकर्णः, भिन्नकर्णः, छिन्नकर्णः, छिद्रकर्णः, खुवकर्णः,
विष्टादिवजितस्य पूर्वपदस्य कर्णशब्दे उत्तरपदे दीर्घा विधीस्वस्तिककर्णः । कर्ण इति किम् ? चक्रसक्थः ॥ ८४॥
| यतामिति प्रष्टुराशयः । शोभनकर्णः इति कर्णस्य शोभ- 55 नत्वं न स्वामिविश्वपरिचायकमिति तस्य [शोभनशब्दस्या
दोों न भवति, स्वामिचिह्रस्येति पदस्याभावे च 20 श०म० न्यासानुन्धानम्-स्वामि०। स्वामि- स्यादेवेति तद्वारणाय तदावश्यकमिति भावः । नन्वेतद्वार
चिह्नस्येते शब्दः सन्दिग्धः, कि तत्पुरुषोऽथवा बहतीहिरि- | माय चिह्नस्येत्येव पर्याप्तमिति शङ्कते.- स्वामिग्रहणं त्यादिसन्देहे तं व्युत्पादयति-स्वामी चिह्नयते-येनेत्यादिना- | किमिते-यथाकथंचिच्चि भूतस्य पूर्वपदस्य विष्टादिजि- 60 चिह्वयते-परिचीयते येन तत् चिह्न लक्षणम्, स्वामिनश्चि- | तस्य कर्णे उत्तरपदे दीवों भवतीत्येवाश्रयणीयमिति भावः।
हमिति षष्ठीतत्पुरुष इति भावः, तथा च स्वामिपरिचाय- | तबाह--लम्बकर्णः इति-लम्बी को यस्य ति विग्रहः, 25 कस्य पूर्वपदस्येति पर्यवस्यति । "विश्वस्य मित्र" "चिते: | कर्णानां लम्बत्वं स्वामिनः परिचायक नास्ति चिह्न
कचि" इत्यादाविव "स्वामिचिह्न." इति सूत्रोपाल शब्द- रूपं त्वस्त्येव, साधारणकर्णापेक्षया तस्य व्यावर्तकत्वात्, स्यैव कर्णशब्दे परे दीर्घ इत्याशङ्कामपनेतुमाह-तद्वाचिनः तथा चात्र दोघं: स्यात्, इष्यते तु नेति तद्वारणाय स्वामि- 65 इति-स्वामिचिह्नभूतवस्तुबाचिनः पूर्वपदस्येति भावः, युक्तं ग्रहण कार्यमिति भावः । एवम्-अविद्धकर्णः शिशुः इत्य
चैतत, स्वामिचिह्नस्य स्वरूग्रहणे हि विष्टादीनां दीर्घस्पा- | त्रापि कर्णवेधस्य चिह्नविशेषरूपत्वे सत्यपि स्वामिविशेष. 30 प्रसक्तेस्तद्वर्जनस्य वैयर्थ्य स्थादेव, विटादयो हि स्वाभिपरि- परिचायकत्वं नास्तीति न भवति तत्र दीर्वः, स्वामिग्रहणा.
चायकचिह्नविशेषा एव, तत्पर्य दासात तत्सदशा अन्य चिह्न- भावे च स्यादेवेति तद्वारणाय स्वामिग्रहणमावश्यकम । वाचिन: शब्दा एक ग्राह्या इति भावः । दात्रमिव दात्र चिलग्रहणं किमिति- तथा च स्वामिवाचकस्य पूर्वपदस्य 70 मिते-दात्रं हि लौहादिनिमितं काष्ठादिद्विधाकरणसाधनम्, | दीर्घ इत्येवार्थः स्यात्, तथा च वाहनस्य कर्णो वाहनकर्ण तद्धिन पश्वादीनां कर्ण स्वामिविशेषपरिचायकत्वेन तिष्ठ- | इति विग्रहः कर्णनिरूपितं स्वामित्वं वाहनेऽस्तीति तस्य
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[पाद-२, सूत्र ८४-८५]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
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दीर्घः स्यात्, यद्यपि चिह्नग्रहणाभावे स्वामिन एव दीर्घ- विकल्पः सिद्धः, रुग्-निरुक, नीरुक रुच्-अतिरुक, अतीरुक् । विधाने विष्टादिपर्युदासोपि व्यर्थ: स्यात्, विष्टादिषु । क्याविति किम् ? उपनद्धम्, विततम्। इह क्विग्रहणाकेषांचित् स्वामित्वस्य क्वाप्यसंभवत्, तथापि प्रवाहगत्या- । दन्यत्र धातुग्रहणे तदादिविधिलभ्यते, तेन 'अयस्कृतम्,
ऽतिव्याप्तिरेव दोषत्वेन दत्तेति न किमपि परिहीणम । विष्टा- अयस्कारः इत्यादौ सकारः सिद्धो भवति, अन्यथा ह्यय5 दिवर्जनं किमिति-विष्टादिवर्जनेन किं फलमिति जिज्ञासा, । स्कृदित्यत्रैव स्यात् ।। ८५॥
40 विष्टं व्याप्तं [चिह्न] कर्णे यस्य सः विष्टकर्णः । विष्टशब्दो ! व्याप्त्यर्थकाद् विषेः, अष्टशब्दोऽपि व्याप्त्यर्थकादश्नोतेः क्ते । सिद्धः, अष्टशब्दः संख्यावाचकोऽपि पञ्चशब्दसाहचर्यात, श० म० न्यासानुसन्धानम्-गति०। 'नहि-वृतिसत्पक्षे च अष्टौ [चिह्नानि] कर्णे यस्य पञ्च [चिलानि] ।
। सनौ' 'कौ' इत्युभयं सप्तम्यन्तं विशेष्यविशेषणभावेन
सम्बध्यते, नादयो विशेष्याणि क्वाविति विशेषणम्, 10 कणे यस्येत्यादिरीत्या विग्रहः । भिदेरिछदेश्च क्ते-भिन्न
तेनोभयथापि तदन्तग्रहण सम्भवः, प्रत्ययग्रहणन्यायेन विशेषणं च्छिन्न शब्दो, तावपि स्वामिविशेषपरिचायकचिह्नवाधिनी,
तदन्तस्य ग्राहकमित्यर्यकेन "विशेषणमन्तः" [७.४.११३] 4 स्वामिविशेषपरिज्ञानाय भेद-च्छेदी विशेषरीत्या क्रियेते, भिन्न-[चिह्न] कर्णे यस्येति, भिन्नौ च्छिन्नौ वा कणों
इति परिभाषासूत्रेण च, तत्रोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे तद
स्तग्रहणं नेति पूर्व मुक्तत्वेन प्रत्ययग्रहणनिमित्तकतदन्तविधिन यस्येति वा विग्रहः । छिद्र [सुजिरं ] कर्ण यस्य सच्छिद्र
भवत्यपि तु विशेष,णनिमित्त एव, तथा चैकदैव तदन्तायोजन 15 कर्णः। खुव इव स्रवः [नुवाकारं चिह्न] कर्णे यस्य स-- सुवकर्णः । स्वस्तिकः-मङ्गलसूचकचिह्नवशेष एव, स कर्णे
न द्विः । तदाह नह्यादिषु विबन्तेष्विति ! नधातुविषाययस्य स- स्वस्तिककर्णः । एषु सर्वत्र दी? न स्यादि
| मुदाहरणमाह- उपनह्यतीति-कर्तरि विग्रहः, नहेर्दिवादि- 50
त्वात, उपनह्यते परिधीयते पादयोः बध्यते वा इति त्येव विष्टादिवर्जनप्रयोजनमिति भावः । कर्णः इति किम् ?
कर्मणि विग्रहः, उभयथापि वाच्यस्य पादत्राणस्य प्रतीतिस्वामिचिह्नस्य कर्ण एव प्रायो दर्शनादसत्यपि कर्णग्रहणे कर्णे।
भवति, नहेः क्विप्, गतिसंज्ञस्योपशब्दस्य दीर्घः । परिणत 20 परत एव भविष्यतीत्यभिमानेन प्रश्नः । न चिह्न कर्ण एक
इति परीणत । निवर्तते इति-नीवृत् । उपवर्तत इतिभवत्यन्यत्रापि तदर्शनादित्याह- चक्रसक्थः इति-चक्राकार
उपावृत। प्रवर्षतीति-प्रावृट् । परिवर्षतीति-परीवृट। 55 चिह्न सक्थनि यस्येति विग्रहः "सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे" [७.३.
श्वानं विध्यतीति-इवावित्, व्यः क्विपि "ज्या-व्ये-व्यधि." १२६] इति : समासान्तः, अत्र पूर्वपदस्य दीर्घवारणार्थ
[४. १. ७१] इति यस्य इकारकरूपस्य पूर्वपदस्थ दीर्घः। कणे इत्यावश्यकमिति भावः 11३, २. ८४।।
मर्म विध्यतीति-मर्मावित् । निरोचत इति-नीरुक ।
अतिरोचत इति- अतीरुक् । अभिरोचत इति--अभीरुक् । 25 गतिकारकस्य नहि-वृति-वृषि-व्यधि-रुचि- तुर वेग सहते इति-तुरासद् , तुरे: “नाभ्युपान्त्यः” [ ५. 60
१. ५४] इति के तुरशब्दो वेगवाची, तदुपपदात् सहेः क्विप्। सहि-तनौ क्वौ ३. २.८५॥
'तुरापाट्' इति प्रयोगोऽपि दृश्यते, स च छान्दसः, "छन्दसि त० प्र०-गतिसंज्ञकस्य कारकवाचिनश्च नह्यादिषु सहः" [ पा० सू० ३. २. ६३ ] इति सूत्रेण 'ण्वि' विधाने क्विबन्तेषत्तरपदेषु परेषु दीर्घोऽन्तादेशो भवति उपनाति । अन्येषामपि दृश्यते [पा० सू० ६. ३. १३७ ] इति पूर्व.
उपनह्यते वा-उपानत्, परीणत्; वृत्-नीवृत्, उपावृत्, पदस्य दीर्घ तत्सिद्धिः । लोकेऽपि तुरापाट् शब्दः प्रयुज्यते- 65 30 वृष्-प्रावृट, परीवृट, व्यध्-श्वादित, मर्मावित्; रुच्- | "तु राषाण्मेघवाहनः" इतीन्द्रनामसु पाठात् । “तुरासाह
नीरुक, अतीरक, अभीरुक; सह-तुरासट, ऋतीषट् पुरस्कृत्य धाम स्वायंभुवं ययुः" इति रघुबंशे कालिदास भोरुष्ठानादित्वात् षत्वम्। जलासट, तन्-परीतत् “गमा प्रयोगाञ्च । इत्थं च लेोके तत्सिद्धिः कथमित्याशङ्कायां क्वौ" ४. [२. ५८.] इति नलोपः । गतिकारकस्येति । दीक्षित आह-“लोके तु साहयतेः क्विबिति, दीर्घस्तु पूर्ववत् । किम् ? पटुरुक्, तिग्मरुक्, तीवरुक, श्वेतरक, कमलरुक् ऋतीषट् ति पीडा सहते इति विग्रहः, “भीरुष्ठानादयः" 70 35 केचिततु रुजविच्छन्ति न रुवी, तेन रुजरुच्योर्मतभेदेन । [२.३.३३] इति सूत्रे गणेऽस्याप्यन्तर्भावाश्रयणात् षत्वम्,
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ८५-८६]
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तदाह भीरुष्ठानादित्वात् षत्वमिति । जलासट जलं सहते मित्यादिषु नह्यादिरूपोत्तरपदपरत्वाभावादतिव्याप्तिविरहेण इति विग्रहः । परीवत् परितनोतीति विग्रहः, क्वौ सति । 'उपानत, परीतत' इत्यादी च तद्पोत्तरपदपरत्वसत्त्वादव्या. "गमा क्वो" [ ४. २. ५८ ] इति नलोपमाह गमां क्वा-प्तिविरहेण च विनापि क्वाविति पदं क्वापि दोषाभावात् व्यर्थ 40 विति-नलोपे सति "ह्रस्वस्य तः पित्कृति" [४. ४. ११३] | सत् क्वाविति पदमन्यत्र धातुग्रहणे तदादिग्रहणमिति सूचयति 5 इति तागमः । पदकृत्यमाह- गतिकारकस्येति किमिति- एवं च प्रकृतसूत्रेऽपि--इकारप्रत्ययेन सह धातुश्रवणाद् धातु
घातो: पूर्व प्रायो गति-कारकयोरेव प्रयोगादसत्यपि गति- ग्रहणसत्त्वात् पदादिग्रहणापत्तौ नहादिधात्वादावुत्तरपदे परे कारकस्यति कथने तयोरेव दीर्घः स्यादिति प्रष्टुराशयः । इत्यर्थसत्त्वे उपनद्धं विततमित्यादावपि दीर्घप्रवृत्तिः स्याप्रत्युदाहरणेनोत्तरयति-पटगित्यादिना, अयमाशय:- दिति तदारणाय क्वावितिपदस्थ स्वाशे सार्थक्यमिति । 45 अवश्यं गतिकारकयोरेव प्रायो धातुना योगः, किन्तु क्विबन्त- अन्यत्र फलं च दर्शयति तेन 'अयस्कृतम, अयस्कार' स्थले नैवं शक्यते वक्तुम्, क्रिबन्ते केवलधातोरप्युत्तरपदत्वसं- । इत्यादौ सकारः सिद्धो भवतीतिति, अयमाशयः- "अत: भावनायां तस्य विशेषणात परत्वमपि संभाव्यते, विशेषणं च | कृ-कमिकस." [२. ३. ५.] इति सूत्रे कृधातुनिदिष्टः, यद्यपि क्रियान्तर प्रतिकारक परम्परया उत्तरपदद्वारा अस्त्येव, ! तस्य स्वरूपमा त्रस्य ग्रहण च 'अयरकृत्' इत्यादावेव कथ
तथापीह प्रत्यासत्त्या रुच्यादिक्रियापेक्षं कारकत्वं ग्राह्यमिति । चित् सूत्र प्रवर्तत, न तु 'अयस्कृतम्, अयस्कारः, इत्यादि- 50 पर पट्वी रुक् यस्येति विग्रहे नास्ति पटवीशब्दस्य रुच धात्वर्थ | इता-ऽण्प्रत्ययान्ते करोती, प्रकृतज्ञापने तदादिविधिलाभे तु प्रति कारकत्वमपि तु विद्यमानार्थादिक्रियान्तरापेक्षयेति न ।
करीत्यादी शब्दे परे प्रवृत्त्या भवति 'अयस्कृतम्' इत्यादाभवति तस्य दीर्घः, गतिकारकस्येत्यस्याभावे त स्यादेवेति वाप सूत्रप्रवृत्तिः, ज्ञापनाभावे दोषमाह--अन्यथा ह्ययतद्वधावर्तनाय गतिकारकस्येति कथनमावश्यकमेव । एवं
" स्कृदित्यत्रैवेति-व्याख्यातपूर्वमेवंतदिति ॥ ३. २. ८५ ।। । तिम्मरुगिन्यादावपि विज्ञेयम् । मतान्तरमाह
रुजाविति-रुचिस्थाने रुजि सूत्रे पठन्तीति भावः, तथा च 20 तेषां मते रुजावेव क्विबन्ते दी? न तु रुचौ, स्वमते च ! घञ्युपसगस्य बहुलम् ॥ ३. २. ८६॥ 55
रुचावेव विबन्ते दी? न तु रुजाविति आचार्यद्वयमतभेदे-! त० प्र०-घान्ते उत्तरपदे परे उपसर्गस्य बहुलं दी?नोभयोरपि रुचिरुजोविषये दीर्घ-तदभावौ साधू इति विकल्पः | ऽन्तादेशो भवति। नोक्लेदः, नोमेदः, नीमार्गः, नीवारः, फलतीत्याह-तेन रुज-रुच्योर्मतभेदेनेति । तथैवोदाहरति- प्रावारः, नीशारः; क्वचिन्न भवति-निषादः, विषदनं
निरुक नीरुगित्यादिना, रुचि-रुज्यो रूपे विशेषः क्वचिदे- ! विषादः, प्रतपनं-प्रतापः, प्रभावः, प्रभारः, प्रहारः, क्वचिद् 25 वापदान्ते पदान्ते तु सारूप्यमेव, अर्थ एव भेदः । क्वौ विकल्पः-प्रतीवेशः, प्रतिवेशः; प्रतीपादः २, प्रतीबोधः २, 60
निमिति-धातो: केवलस्य प्रयोगाभावात , तन्मात्रस्य नोत्त- । परीणामः २, प्रतीहारः २, प्रतीकारः २, अतीसार:२.
पदवं. प्रत्ययान्तरपरस्य न तद्रूपतेति विनापि क्विग्रहणं वीसर्पः २ क्वचिद विषयभेदेन--प्रासादो गहम. विवबन्तेष्वेवतेष दीपों भविष्यतीति क्विग्रहणमनावश्यक- | प्रसादोऽन्यः प्राकारो वप्रः, प्रकारोऽन्यः; अपामार्ग
मिति प्रष्टराशयः। 'न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या नापि । ओषधिः, अपमार्गोऽन्यः; नोहारो हिमम, निहारोऽन्यः: 30 केवलप्रत्ययाः' इति सिद्धान्तेन केवलस्य धातोः प्रयोगाभावा- परीरोधो, मृगावरोधः परिरोधोऽन्यः; परीहारो देशानुग्रहः, 65
देव सूत्रसार्थक्याय क्विबन्तेष्विव प्रत्ययान्तरपरेष्वपि नहा- परिहारोऽन्यः; वीतंसः-पक्षिबन्धनम्, वितंसोऽन्यः । दिषु सूत्रप्रवृत्तिः स्यादिति प्रत्युदाहरणमुखेनाह- उपनद्धं, उपसर्गस्येति किम् ? चन्दनसारः, खदिरसारः, विततमिति-उपनद्यमित्यत्र क्तान्तोनह धातुः,विततमित्यत्र मार्गमतिकान्तः-अतिमार्गः । घनीति किम ? अवसायः.
क्तान्तस्तन्धातुः, अनयोर्गतिसंज्ञकस्य न दी|भवति । एवं च । अवहारः, णप्रत्ययोऽयम् । बहुलवचनादनुपसर्गस्यापि अघ35 विवग्रहणं स्वसार्थक्यद्वाराऽन्यत्र धातुग्रहणे तदादिविधि सूचय- यपि च भवति-दक्षिणापथः, उत्तरापथः । क्वचिद 70
तीत्याह-ह-क्विग्रहणादिति,अयमाशय:-प्रकृतसूत्रे उत्तरपदे । विकल्पः-अन्धतमः, अन्धातमः; अन्धतमसम, अन्धातमसमा इत्यधिकारान्नह्मादावुत्तरपदे परे इत्यर्थलाभादुपनद्धं वितत- | क्वचिद् विषयभेदेन-अधीदन्तः, अधीकर्णः अधीक
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[पाद-२, सूत्र-८६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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अधीपादः, एते आधिक्ये, अन्यत्र-अधिदन्त इत्यादि भवति ।। प्रतीकारः, अतिसरणम् अतीसारः, विसर्पणं. वीसपः सचिवनुत्तरपदेऽपि विकल्पः-पुरुषः, परुषः, नारकः, इति, एषभयथा प्रयोगदर्शनाद विकल्पेन दोर्षी भवतीति मरकः; सादनम्, सवनम्; अतिशायनम्, अतिशयनम् । प्रतीयते । क्वचिदन्यदेवेति बाहुलकमदाहर्तुमाह-क्वचिद् काशशब्दे च धान्ते विकल्पः:-नोकाशः, निकाशः; विषयभेदेनेति--विषयोऽर्थः, तभेदेन प्रवृत्त्यप्रवृत्ती भवत 40 5 प्रतीकाशः, प्रतिकाशः; अजन्ते तूतरो विधिः ।। ८६ ।। इत्यर्थः, अर्थविशेषे दीर्घः प्रयुज्यते तदन्यार्थे च न दीर्घ इति
भावः । प्रासादो गृहमिति-प्रसीदात्यस्मिन्निति विग्रहे
ऽधिकरणे धनि दीर्घः प्रसदनं प्रसत्तिति विग्रहे प्रसादोऽनश० म०न्यासानुसन्धानम-च-यु०। घनः प्रत्य
ग्रहः । प्राकारो वप्रः इति--प्रकीर्यते- परिविक्षिप्यत इति यत्वेन प्रत्ययग्रहणे यस्मात् स विहितस्तदादेस्तदन्तस्य ।
प्राकारो वा इष्टकादिरचितः प्राचीरः, प्रकारोऽन्यः प्रक- 45 ग्रहणम् इति न्यायन तदन्तार्थलाभादाह घमन्ते उत्तरपदे । रणमित्यर्थे पनि प्रकार शब्दो भेदवाची सादश्यवाची च
इति, यद्यपि उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहण न तदन्तग्रहणम्' । "प्रकारो भेद सादश्ये" इत्यक्तेः । अपामार्ग औषधि10 इति पूर्वमक्तत्वेनह तदन्तग्रहणमनुचित तथापि केवलेन आविशेषः इति अपमन्यते व्याध्यादिरनेनेति विग्रहे साधः,
सहोत्तरपदस्य सामानाधिकरण्यासम्भवात, उपसगस्य च अपमार्गोऽन्यः इति-अपमार्जनमिति विग्रहः । नीहारो घना सह साक्षात् पूर्वापरीभावासम्भवाच्च तदन्त विधेराव.
हिममिति-निह्रियते सूर्यकिरणादिनाऽपनीयत इति नीहार: 50 श्यकत्वमिति सूत्रसार्थक्यान्यथानुपपत्त्या पूर्वोक्ततदन्तग्रहणनि-कर्मणि पत्र, निहारोऽन्यः इति-निहरणमित्यर्थः । परी
षेधनियमस्येह न प्रवृत्तिरिति स्वीकार्यम् । नीक्लेदः इति-रोधोमगावरोधः इति-परितो रोधनं गतिनिवारणं परी15 क्लिद्यतेजि क्लेद इति, उपसर्गस्य निशब्दस्य दीर्घोऽन्ता- रोधः, मृगयुभिर्मुगमन्यं वा वन्यं पशु क्वचिद् वनमध्ये
देशः, एवं- नीमेदः इत्यत्रापि, निक्केदनं नीवकेदः, निभेदनं | स्थितमनमाय सर्वदिक्षु तन्निर्गम रोधन त्रियते तस्यैव संज्ञेयम्, नीमेद इत्येवं प्रकारेण विग्रहः । नीमार्गः इति-निमार्जन
परिरोधोऽन्यः इति-तभिन्नो जलादिनिर्गमरोधनादिः 55 मित्यर्थे निपूर्वकान्मृजेधञ् । नीवारः इति-निवरण मिति । परिरोध एवेत्यर्थः । परीहारो देशानुग्रहः इति-देशविग्रहे निपूर्वकाद् वृणोतेर्घञ् । प्रवरणं-प्रावारः, प्रवियते
। स्यानुकूलतया ग्रहणं परीहारः, अन्यः परिहरणादिरूपः 20ऽनेन वेति विग्रहः । नीशारः निशरणमिति विग्रहे शणाते
| परिहार एव । वीतंसः पक्षिबन्धनमिति-वितस्यतेऽनेनेति घंन । बहलग्रहणप्रयोजनवर्णनार्थ तरुलभ्यार्थोदाहरणमह-- | वीतंसः, अन्यत्र वितंसनमलंकरण-वितंसः इति । एवं चैतेष क्वचिन्नेत्यादिना, क्वचिदप्रवृत्तिरूपस्य बाहुलकस्योदाहरण- नियतार्थादन्यार्थविषये न दीर्घप्रवृत्तिः । उपसगस्येति 60 मयत इति भावः। निषाद: इति-निषीदति मनः पाप वाकिमिति-धजन्ते उत्तरपदे पूर्वपदमात्रस्य दीर्घविधानेऽपि यस्मिन्नित्यर्थेऽधिकरणे घञ्, पूर्वदिग्रहेण निषादनामा स्वरः, !
प्राय उपसर्गस्यैव घअन्तपूर्ववत्तितेति नातिप्रसक्तिरिति परेण च म्लेच्छजातिविशेष उच्च ते, अत्र घमन्ते उत्तरपदे
प्रष्टुराश्रयः । न केवलमुपसर्गस्यैव घनन्तपूर्ववत्तिताऽपि तु सत्यपि नोपसगस्य दीर्घः । विषदनं विषादः इति-विषीदति पदान्तरस्यापीत्यतिप्रसङ्गः स्यादित्याह-चन्दनसारः मनोऽस्मिन्निति वा विग्रहे विपूर्वकात् सीदतेर्घञ् भावेऽधि- खदिरसारः इति-सरणं सारः, चन्दनस्य सार इति विग्रहः, 65 करणे वाऽर्थे । प्रतपनं प्रतापः इति-अयमपि शब्दोऽधिकरण
खदिरस्य सार इति षष्ठीसमासे पूर्वपदस्य दीर्घः स्यादिति व्युत्पत्त्याऽपि साधनीयः सूर्यातिपादौ तदर्थस्यैव सङ्गतेः । तद्वारणायोपसर्गस्येति कथन मावश्यकमिति भावः । न केवलं एवं-प्रभवन- प्रभावः, प्रेमरणं प्रमारः, प्रहरण-प्रहारः ! पदान्त रव्यावृत्तिरेव प्रयोजनमपि तु धात्वन्तरोपसर्गस्य इति विग्रहः कार्यः । क्वचिद् विभाषेति बाहुलक समुदाह- ! धात्वन्तरसमभिव्याहारे गतिसंज्ञकमात्रस्य दीर्घवारणमपि रति-क्वचिद् विकल्पः इति । प्रतीवेशः इति-प्रतिवेशनं । तत्प्रयोजनमित्याह-मार्गमतिक्रान्तः इति-अत्र मार्गशब्दो 70 प्रतिविशन्त्यस्मिन् वेति-विग्रहः, गृहसमीपस्थगृहान्तरं प्रती- घअन्तोऽतिरुपसर्गोऽपि कान्तापेक्ष इति भार्गापेक्षया तस्यो
वेश-प्रतिवेशशब्दाभ्यामाख्यायते। एवं-प्रतिपदन-प्रतीपादः, पसर्गत्वाभावेन गतित्वमात्रमिति तस्य दीर्घा मा भदित्ये15 प्रतिबोधन-प्रतीबोधः, परिणमनं परीणामः, प्रतिहरणं- । तदपि तत्प्रयोजनमिति भावः । घनीति किमिति-कृती
प्रतीहारः, प्रतिहरत्यस्मिन्निति वा प्रतीहारः । प्रतिकरणं- । त्यादिरूपेण सामान्यत: कृदन्ते उत्तरपदे परे दीर्घा विधीयतां
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बृहद्वृत्ति- बृहन्न्यास संवलिते
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विशिष्य धनीति कथनं व्यर्थमिति प्रश्नाशयः । व्यावर्त्य माह- अवसायः, अवहारः इति, नन्वत्रापि अवपूर्वात् स्यतेर्घञेव, एवमवपूर्वाद्धरतेर्धमेवेति भाव्यमेव घनीति कथितेऽपि दीर्घेणेति चेदत्राहणप्रत्ययोऽयमिति नात्र 5 भावाद्यर्थको घञ्, अपि तु कर्त्रर्थकः " अहसासंस्रो: " [५. १६३ ] इति सूत्रविहितो णप्रत्यय इति घनीति कथनेन भवति दीर्घप्राप्तिस्तदभावे च स्यादेव दीर्घं इति तद्व्यावृत्त्यर्थं घञीति वाच्यमेवेति भावः ॥ बहुलग्रहणस्य सर्वोपाधिव्यभिचारार्थत्वमपी हेत्याह- बहुलवचनादनुपसर्ग | 10 स्यापि अयपीति - सूत्रोपात्तमुपाधिद्वयं घनीति उपसर्गस्येति च, बहुलवचनसामर्थ्याच्चोभयव्यभिचारोऽपि दृश्यते - क्वचिदनुपसर्गस्यापि पूर्वपदस्य दीर्घो भवति घञतोत्तर- । नेति भावः ॥ ३. २. ८६ ।। पदाभावेऽपि तथा च पूर्वपदमात्रस्योत्तरपदमात्रे दीर्घ इति वेत्याह- दक्षिणापथः, उत्तरापथः इति- दक्षिणः पन्थाः15 दक्षिणापथः, उत्तरः पन्थाः - उत्तरापथ इति विग्रहः, कर्म- । धारये सति " ऋग्-पू:-पथ्यवोत्" [ ७. ३. ७६ ] इत्यत्, पाणिनीयाश्च दक्षिणस्यां पन्थाः -- दक्षिणापथः, उत्तरस्यां पन्था:- उत्तरापथ इति विगृह्नन्तीति न पूर्वपदीर्घमाश्र यन्ते । न केवलमुपाधिद्वयव्यभिचार एव तत्र विकल्पोऽपि 20 बहुलवचनेन लभ्यत इत्याह- कचिद् विकल्पः इति - अनुप सर्गस्यापि अपि क्वचिद् विकल्पेन दीर्घौ भवतीत्यर्थः । क्वेत्याह- अन्धतमः अन्धातमः इत्यादि, अत्र रूपद्वयमिदं लेखकप्रमादायातमिति प्रतीयते यतः "समवान्धात् तमसः " [ ७. ३.८० ] इति विधीयमानः समासान्तो ऽत् नित्यमेव विधीयते, केवलं दीर्घविकल्प एवेति 'अन्धतमसम्, अन्धातमसम्' इत्येव रूपद्वयमुचितम्, यदि च समासान्तविधिरनित्यः * इति न्यायाश्रयणेनेदं समासान्तरहितं । णमिति "विशेषणमन्तः " [ ७. ४. ११३ ] इति परिभाषा - 60 रूपयमित्युच्यते, तर्हि सति तादृशशिष्टप्रयोगे वयमपि । सूत्रबलेन तदन्तार्थलाभादाह - नाम्यन्तस्योपसर्गस्येति
!
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श० म० न्यासानुसन्धानम् नामिनः । उपसर्गस्येति सम्बध्यते पूर्वसूत्रात्, तस्य च नामिनः इति विशेष
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30
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स्वीकुर्मः, न तु क्वापि दृश्यते तादृशः प्रयोगः, वाङमयस्यानन्तत्वात् कथमिदमुच्यत इति वेदस्तु । नैतावदेव अस्त्यन्यदपि प्रकृतबहुलवचनप्राप्तवैशिष्ट्यं तदाह कचिद् विषयभेदेनेति - अनुपसर्गस्याप्यघञ्यपि क्वचिद् विषयभेदेन दीर्घो भवति न वा भवतीत्यपि बहुलवचनादेव लभ्यत इति भावः । क्वेति चेदाह - अधीदन्तः इत्यादि - अत्रिको दत 35 इति विग्रहः, अर्धनिपातस्याधिकार्थत्वात् । एवम् - अधीकर्णः इत्यादावप्यधेनिपातस्याधिकार्थस्यैव दीर्घः । तदाहएते आधिक्ये इति एते प्रयोगा आधिक्यविषय एव कृतदीर्घा भवन्तीति तदर्थः । पूर्वमुक्तस्य क्वचिद् विकल्प
[ पाद-२, सूत्र. ८६-८७ ]
इति पक्षस्य शेषभूतमेवार्थं विषयभेदप्रसङ्गेन प्रत्ययभेदप्रसङ्गस्य स्मृतत्वात् प्रत्ययभेदेनापि क्वचिद् विकल्प इति 40 सूचयति-- काशशब्दे च घमन्ते विकल्पः इति - काशशब्दो द्विधा व्युत्पाद्यते घञाचा च तत्र चत्र-तेऽनेन सूत्रेण वैकल्पिको दीर्घो भवतीत्यपि बहुलवचनलभ्य एवार्थ इति भावः । क्वेत्याह- नीकाशः, निकाशः इति उभयथापि कविप्रयोगदर्शनादत्र वैकल्पिको दीर्घः । एवं--प्रतीकाशः 45 इत्यत्रापि, उभावपि शब्दी सादृश्ये प्रयुज्येते । घञ. ते विकल्प इत्युक्त्या सूचितोऽन्यत्र विशेषः क इत्याकाङक्षायामाह -- अजन्ते तूत्तरो विधिरिति उत्तरसूत्रण नाम्यन्तस्योपसर्गस्थाजन्ते काशशब्दे परे नित्यमेव दीघों भवति, तदन्यस्य
1
50
नामिनः काशे ॥ ३.२.८७ ॥
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त० प्र०-नाम्यन्तस्योपसर्गस्य "अच्” [५. १.४९] इत्यजन्ते काशशब्दे उत्तरपदे परे दीर्घाों ऽन्तादेशो भवति । निकाशते निकाश्यत इति वा-नीकाशः, विकाशते इति-वीकाशः, अनूकाशः; प्रतीकाशः । बहुलाधिकारान्निकाश 55 इत्यपि । नामिन इति किम् ? प्रकाशते इति
प्रकाशः ॥ ८७ ॥
"अनवर्णा नामी " [ १. १. ६ ] इति संज्ञासूत्रेण अवर्णवजनामोदन्तानां स्वराणां ना मिसंज्ञाविधानेऽपि 'ए ऐ ओ औ वर्णानां स्वत एव दीर्घत्वेन दीर्घविधानानर्थक्यात् लृकारान्तानामेवे होद्देश्यत्वं तत्रापि ऋकारान्त-लृकारा- 65 न्तस्योपसर्गस्याश्रुतत्वात् परिशेषादिकारोकारयोरेव ग्रहणमितीकारोकारान्तस्योपसर्गस्येति पर्यवस्यति सूत्रे 'काशे' इति सामान्यनिर्देशेऽपि लक्ष्यैकचक्षुष्केणाचार्येण लक्ष्यानु
सारमेव व्याख्यातव्यमिति विशिष्य काशशब्दं परिचाययति – “अच्” [ ५. १. ४६ ] इत्यजन्ते काश शब्दे 70 इति यद्यप्यजन्ते इत्येतावदुक्तावपि "अच्" [ ५. १४९]
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[ पाद-२, सूत्र-८७-८९ ]
सूत्रविहितान्त एवं ग्रहीष्यतेऽन्यस्याजातस्य काशशब्दस्याप्रसिद्धेः तथापि स्पष्टार्थं सूत्रोपादानमपि कृतमिति बोध्यम् । ‘अच्’ प्रत्यय॒स्य कर्तरि विहितत्वात् तदनुकूलमेव विग्रहमाह निकाशते इति-नीकाशः इति एवम्
च 'ति' इत्यस्य 'उत्तरपदे' इत्येतद्विशेषणत्वमेव स्यादिति 35 तकारादावुत्तरपदे इत्येवार्थः स्यादिति वितीर्णमित्यादौ तरतेः क्ते इरि दीर्घादौ सति तीर्णमिति भवति, तस्मिन् पश्तोऽप्युपसर्गस्य दीर्घः स्यादित्याह -- वितीर्णमिति प्रत्यु
धिकारादिति पूर्वसूत्रोक्त बहुलग्रहणस्य लक्ष्यानुरोधादिहापि सम्बन्धाश्रयणाक्ष्जन्तेऽपि काशशब्दे परे क्वचिद्विकल्पेन दीर्घो भवतीति भावः । समिन इति किमिति- अजन्ते काशशब्दे परे सामान्यत एवोपसर्गस्य दीर्घो विधीयतामिति 10 भावः । अवर्णान्तस्योपसर्गस्य दीर्घो नेष्ट इति तद्वद्यावृत्यर्थमावश्यकमेव नामिन इति पदमित्याह प्रत्युदाहरणमुखेन -- प्रकाशते इति - प्रकाशः इति अत्र दीघों न भवेदित्येव 'नामिनः' इत्यस्य फलमित्यर्थ: ।। ३ २.८७ ॥
5 अनुकाशते प्रतिकाशते इत्येवंरूपेण विग्रहः कार्यः । बहुला-दाहरणमुखेन । तीति किमिति - - " दः" इत्येतावन्मात्र सूत्रमस्तु, 'दा' इत्यस्य स्थाने यस्तदादावुत्तरपदे इत्यर्थ- 40 व्याख्यानात् नीत्तमित्यादावव्याप्तेः, वितीर्णमित्यादावतिव्याप्तेश्च वारणसम्भवात् 'ति' इति व्यर्थमिति प्रष्टुराश्रयः । यत्र 'दा' इत्यस्य "दत्” [ ४. ४. १० ] इति सूत्रेण ददादेशो भवति तत्रापि दीर्घः स्यादिष्यते तु नेत्याह प्रत्युदाहरणद्वारा सुदन्तमिति - पुपूर्वकाद् ददातेः सुदीयते स्म - 45 त्यर्थे वते "दत्" [ ४. ४. १० ] इति ददादेशे रूपसिद्धिः, अत्रोपसर्गस्य दीर्घवारणार्थमावश्यकं तीति । पूर्वसूत्रात् 'नामिनः' इत्यस्य सम्बन्धोऽप्यावश्यक एवेत्याह--नामिन इत्येवेत । तद्वयावर्त्त्यमाह--प्रत्तम्, अवन्त्तमिति-प्रदीयते स्म अवदीयते स्मेति विग्रहे प्रपूर्वकादवपूर्वकाच्च 50 ददातेः बते "स्वरादुपसर्गात्” [ ४. ४. ९. ] इति तादेशे रूपसिद्धिः, नामिन इत्युक्ततया न भवत्यवर्णान्तस्योपसर्गस्येह दीर्घ इति भावः ॥ ३. २. ८८ ॥
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
दस्ति । ३. २. ८८ ॥
15
० प्र०—'' इत्येतस्य यस्तकारादिरादेशस्तस्मिन् परे नाम्यन्तस्योपसर्गस्य दोघों ऽन्तादेशो भवति । नीत्तम्, वीतम्, परीत्तम्, परीत्तवान्, परीश्रमम् प्रणीत्रिमम् । द इति किम् ? वितीर्णम् । तीति किम् ? सुदत्तम् । नामिन इत्येव-प्रतम्, अवत्तम् ॥ ८८ ॥
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श० म० न्यासानुसन्धानम् - दस्ति । नामिन उपसर्गस्यति च पूर्वसूत्राभ्यां सम्बध्यते । तथा च योऽर्थः सम्प द्यते तमाह- दा इत्यस्येत्यादिना । नीत्तमिति निदीयते स्म, विदीयते स्म, परिदीयते स्मेत्येवं प्रकारेण विग्रहः । कपीयहम् एवंनामानि नगराि
नि-वि-परिपूर्वाद् दासंज्ञकात् क्तः "स्वरादुपसर्गात् दस्ति, ! ऋषीवहः, मुनीवहः, कपीवहः । अपोहवादेरिति किम् ?
25 कित्यध:' [ ४. ४. ९ ] इति सूत्रेण 'दा' इत्यस्य 'त' इत्या- | पीलुवहम्, वास्वहम् चावहम् । नामिन इत्येव - पिण्ड- 60
वहम्, काष्ठवहम् ॥ ८९ ॥
देशेऽनेनोपसर्गस्य दीर्घोऽन्तादेशः । परीत्तवान् परिददाति स्म, परिद्यति स्म वेति विग्रहे क्तवतुः, शेषं कार्ये पूर्ववत् 1 परीत्त्रिमं परिदानेन निर्वृत्तमिति विग्रहे "वितस्त्रिमक् तेन कृतम्” [५. ३. ८४] इति त्रिमक्, तादेशेऽनेन । दीर्घः । 30 प्रणीत्त्रिमं प्रणिदानेन निर्वृत्तमिति विग्रहे पूर्ववत् कार्यम् ।
अपीत्वादेहे ॥ ३.२. ८६ ॥
त० प्र० - पीत्वादिर्वाजतस्य नाम्यन्तस्य वहे उत्तरपदे 55 परे दीर्घौऽन्तादेशो भवति । वहतीति वहम् "अच्” [ ५. १. ४९ इत्यच् । ऋषीणां वहम् ऋषीवहम्, मुनीवहम् ;
।
श० म० न्यासानुसन्धानम् अपील्वा० । अपीस्वादेरिति पर्युदासादुपसर्गस्येति न सम्बध्यते, तत्सम्बन्धे हि पील्वादीनां प्राप्तिरेव नेति तत्पर्युदासो व्यर्थः स्यादिति, अपील्वादेरिति उत्तरपदेनाक्षिप्तस्य पूर्वपदस्य वि- 65 शेषणम्, नामिन इति च सम्बध्यत एवेति योऽर्थः सम्पद्यते तमाह- पील्वादिवर्जितस्य नाम्यन्तस्येति -- पूर्व
द इति किमिति -- तकारादावुत्तरपदे नाम्यन्तस्योपसर्गस्यदीर्घो विधीयतां, 'दा' इत्यस्य स्थाने यस्तकारादिरादेश इत्यर्थो माऽस्त्वति भावः । द इति स्थानपष्ठी सहकारेणैव
'ति' इत्यस्य तकारादी आदेशे इत्यर्थलाभो भवति, तदभावे । पदस्येति शेषः तद्धि 'उत्तरपदे' इत्यनेनाक्षिप्यते, उत्तरपद
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
पाद-२, सूत्र. ८९-९१ ]
. परत्वं हि पूर्वपदस्यैव सम्भवति। वहे इति चोत्तरपदे । स्वभावाद् भिन्नः । पाणिनीये तु--एतौ प्रयोगौ न दृश्येते, 35
इत्यस्य समानाधिकरणं विशेषणम्, तथा च वहशब्दरूपे तत्र दन्तदंष्ट्रा कर्ण-कुन्दवराह----पुच्छ-पदेष्वेव दीर्घो विधीयते । उत्तरपदे इत्यर्थः । वहशब्दो द्विधा सिध्यति--अच्प्रत्ययेन । नान्यत्र, प्रायः 'कुन्द' शब्दस्थान एव स्वप्रक्रियायां कर्द
घप्रत्ययेन च, अत्रोभयरूपस्य ग्रहणं विशेषानिर्देशात्, । शब्द: कर्दशब्दस्थान एव वा तत्र कुन्दशब्दः पठित इति 5 तत्र पूर्वमच्प्रत्ययान्तस्योदाहरणमाह-वहतीति वहमि- विभाव्यते । कुन्दशब्दस्तु कुं--पृथिवी द्यति खण्डयतीति
त्यादिना । तत्साधनमाह--." अच्" [५.१.४९.] ! व्युत्पत्त्या प्रकृतवात्तिके निपातनादेव विभक्त्यलुपा सिध्यति, 40 इत्यजिति। ऋषीणां वह मिति-ऋषीणां धारकमित्यर्थः, श्वा चासौ कुन्द इति विग्रहे कर्मधारयः, भवति हि एवं--भुनीनां वहं कपीनां वहमित्यादिरूपेण विग्रहो बोध्यः । पृथ्वीभेदनपूर्वकमुपवेशनं श्वजातिस्वभावः, सति प्रयोग
प्रयोगविषयमाह--एवंनामानि नगराणि इति । घान्ते तु : स्वमतेऽपि श्वाकुन्दपदं साधयितुं शक्यत एव विशिष्य 10 लिङ्गभेदाद्रूपे भेद इति तं पृथगुदाहर्तुमाह--धान्ते तु वह कथनाभावात्, तन्मते तु 'श्वाकर्दः, श्वाकूर्दो वा' न सा.
शब्दे इति--विग्रहादिः पूर्ववत् । वहेः करणे "पुनाम्नि घः" : धयितुं शक्यते दन्तादीनां परिगणनात्; किञ्च बाहुल- 45
५. ३. १३०. 1 इति घः, वहत्यनेन वहः---स्कन्धः, घा- काश्रयणादपि स्वमते सर्वाभीष्टलक्ष्यसिद्धिः, तन्मते च न्तत्वात् पुंस्त्वं “घ-घोइति लिङ्गानुशासनात् । पील्वा- तदाश्रणं न दृश्यते । बाहुलकलभ्यं विशेषमाह---बहुला
दिवर्जनफलं प्रकटयितुं पृच्छति अपील्वादेरिति किमिति, : धिकारात् क्वचिद् विकल्पः । क्वेत्याह-श्वापुच्छं, 15 फलमाह-पीलुवहमिति--पीलुर्वृक्षविशेषः, तस्य वहं-- इवपुच्छमिति --उभयथा प्रयोगदर्शनाद् विकल्प इष्ट पीलुवहं नाम वनम् अत्र दीर्घवारणार्थमेवापील्वादेरि-
इति भावः, शुनः पुच्छमिति विग्रहः । बाहलककार्यान्त- 50 त्युक्तमिति भावः । आदिपदप्रयोजनमाह- दारुवह, चारु- रमप्याह--क्वचिद विषयान्तरे इति--विषयविशेषवहमिति । नामिन इत्येतस्यापि सम्बन्ध आवश्यक इत्याह- अर्थविशेषे दीर्घो भवति, अन्यत्र नेति भावः । उदा
पिण्डवह काष्ठवहमिति--नाम्यन्तत्वाभावात् पूर्वपदस्य । हरति-- शुनः पदमिव पदमस्येति ---उष्ट्रमुखादित्वाद् 20 दीर्घो न भवति, नामिन इत्यस्यासम्बन्धं च स्यादेवीत । बहुव्रीहिः, नपंसकनिर्देशो बाहलकात, पंलिङ्गप्रयोगोऽपि भावः ।। ३. २. ८९ ।।
। दृश्यते, तत्र हिस्रजाती सामान्यत: प्रयोगे नपुंसक “सामान्ये 55
नपुंसकम्” इति सिद्धान्तात्, व्याघ्रवाचित्वेन प्रयोगे
:च पुंलिङ्ग इति विवेकः । अर्थविशेषविषय एव दीर्घोऽन्यत्र शुनः ॥ ३. २. ६० ॥
नेत्याह---शुनः पदं श्वपदमिति--पदं स्थानम्, अत्र त० प्र०-श्वन' इत्येतस्योत्तरपदे परे दीर्णोऽन्तादेशो | न भवति दीर्घः । क्वचित् सर्वथा दीर्घाभाव एवेत्याह~भवति । शुनो दन्तः-श्वादन्तः, एवं-श्वादंष्ट्रा, श्वाकर्णः, ! क्वचिन्न भवतीति, क्वेत्याह--श्वकल्पः श्वमुखः 60 25 श्वाकर्दः, श्वाकर्दः, श्वायराहम् । बहुलाधिकारात् क्वचिद । इति--ईपदूनः श्वा-श्वकल्पः, अथवा शुनः कल्प इत्येव
विकल्पः-श्वापुच्छम, श्वपुच्छम् । क्वचिद् विषयान्तरे-विग्रहः, उत्तरपदशब्दस्य समासचरमावयवे रूढत्वेन समास शुनः पदमिव पदमस्य-श्वापदं व्याघ्रादिः, शनः पदं- एव दीर्घप्रवृत्तिसंभावनायां दीर्धाभावस्योदाहर्त' यक्तत्वात । श्वपदम् । क्वचिन्न भवति-श्वकल्पः, श्वमुखः ॥९०॥ क्वचित् श्वफल्क इति पाठः । श्वमुखः इति--शुनो मुखमिव
खं यस्येति विग्रहः, बाहुलकादेवेदृशेषु न दीर्घप्रवृत्तिरिति 65 nannnnnnnnnnnnnnnnnirmirrownभावः ॥ ३.२.२०॥
श० म० न्यासानुसन्धानम्--शुनः । अत्र | 30 विशेषाश्रवणात् केवलमुत्तरपदमात्रं निमित्तमित्याह--'श्वन्' इत्येतस्योत्तरपदे परे इति । उदाहरति ---शुनो दन्तः
एकादश षोडश षोडन् षोढा इत्यादिना । श्वाकर्दः इति-कर्दनं कर्दः कुत्सितशब्दः कर्द
षड्ढा ॥३.२. ६१॥ मोऽपि कर्द इत्युच्यते, सोऽपि शुनः सम्बन्धी भवितुमर्हति । त० प्र०-एकादयः शब्दा दशादिषु उत्तरपदादिषु 70 श्वाकूर्द इति-कूर्दनं कूर्द उत्फाल:, भवति हि शुन उत्फाल: कृतदीर्घत्वादयो निपात्यन्ते। एकोत्तरा दश, एकं च दश
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[ पाद-२, सूत्र-९१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
च वा-एकादश, अकस्य दशशब्दे उत्तरपदे वीर्घः; षडुत्तरा | उत्तरपद-[दशशब्द-] दकारस्य च डकार इति । षोडन्दश, षट् च दश च वा-षोडश, अत्र षषोऽन्तस्योत्वम्, | शब्दं व्युत्पादयति--पड़ दन्ता अस्येति--बहुव्रीहिसमासे उत्तरपदवकारस्य च उकारः; षड् दन्ता अस्य-षोड न्, अत्र | “वयसि दन्तस्य दतः" ७. ३. १५१.] इति 'दतृ' आदेशे दन्तशब्दस्य दत्रादेशे कृते दस्य डत्वं षषोऽन्तस्योत्वं च, ! ऋकार इत्, दत्रादेशादेडंकारः; तदाह--अत्र दन्तशब्दएवं-बोडन्तौ, षोडन्तः, स्त्रियां तु षोडती; अन्य तु-। स्ये यादिना । नान्तत्वमपि निपात्यत इत्याशङ्कापनोदायाह- 40 दादेशे कृते 'षोडन्' इति शब्दान्तरं नकारान्तं राजन् षोडन्तौ, षोडन्त इति । ऋकारेत्त्वस्य फलमाह--स्त्रियां तु शब्दवन्निपातयन्ति, ततश्च षोडानमिच्छतीति क्यनि । षोडतीति--"अधातूदृदितः" [ २. ४. २. ] इति कीरिति नकारलोपे ईत्वे च-षोडीयतीति सिध्यतीति मन्यन्ते । भावः । नान्तनिपातनविषयं मतमाह--अन्ये तु दनादेशे षडभिः प्रकार:-बोढा, षड्ढा, अत्र धाप्रत्यये षषोऽन्तस्य , ते इति, तन्मते च षोडा, षोडानी, षोडानः' इत्यादिवोत्वं धकारस्य तु नित्यं ढत्वम् । यत्तु षड्यति रूपं न तत् क्रमेण रूपाणि; अन्यमपि तन्मतसिद्धं विशेषमाह--ततश्च 45 पाप्रत्यये, कि तु षड् दधाति घयति वेति "आतो डोऽह्वा षोडानमिच्छतीति क्यनीति-क्यनि सति "नं क्ये" वा-मः" ५. १. ७६] इति डे कृते स्त्रियामापि च भवति, , [ १.१. २२ ] इति पदत्वेन तदन्तनकारस्य लोपः, "क्यनि" निपातमस्य चष्टविषयत्वादत्रोत्वढत्वे न भवतः॥ ९१॥ ४. ३.११२] इतीत्वे-घोडीयतीति सिद्धिः, अत्र'मन्यन्ते'
इति कथनेन केवलं तेषामेवेदं मतं नास्माकमनुमतमिति सूचितम् । षोढाशब्दव्युत्पत्तिमाह-पड्भिः प्रकारैरिति-- 50
अन तृतीयान्तेन विग्रहो यथेष्टविभक्तिविग्रहस्योपलक्षणम, श० म० न्यासानुसन्धानम्-एका० । सूत्रस्य
'द्रव्यमेकं षड्धा कुरु' इत्यादी षट्प्रकारं कुवित्येव व्याख्ये15 निपातनरूपेण साधुत्वबोधकत्वेऽपि पूर्वोत्तरपदादिपरिज्ञानाय
यत्वात्, यत्र यादशी विभक्तिरुपयुज्यते तत्र तया विभप्रकृतसूत्रविधेयकार्यपरिज्ञानाय च पूर्वोत्तरपदादिविभागपूर्वकमर्थमाह--एकादयः शब्दाः इति-एकादशेत्यत्रैकशब्द: क्त्या विग्रह इत्यस्य न्याय्यत्वात्, “प्रकारे था" 5.२. षोडशेत्यादौ षट्शब्दश्चादिपदग्राह्यः । दश
पाति १०२. ] इति प्रकरणे “संख्याया धा" [ ७. २.१०४. ] 55 दशादिष्वित्यत्र 'दत्, धा' इत्येतावादिपदग्राह्यो, उत्तरपदा- ! शत धाप्रत्ययविधानात्, तत्र क्रियाविशेषणत्वे ततीयया 20 दिष्वित्यत्र धाप्रत्यय आदिपदग्राह्यः । क्रतदीर्घत्वादय । विग्रहाऽपि युज्यते--पोढा विभजतीत्यादौ, अत एव "प्रकारे
इत्यत्र दीर्घत्वमेकादशशब्दे, उत्वं षट्शब्दे आदिपदग्राह्यम् । । था" [ ७. २. १०२. ] इति सूत्रव्याख्यायां प्रकारार्थात एकोत्तरा दशेति--एकादशादौ द्विधा विग्रहस्य "चार्थे । सम्भवत्स्याद्यन्तादिति स्पष्टमुक्तमधिकं तु तत्रैव द्रष्टव्यम। द्वन्द्वः” [पा० सू० २. २. २९. ] इति सूत्रस्थभाष्यशैलीसिद्ध- ! एवं च षष्शब्दात् घाप्रत्यये सति षष उत्त्वे धकारस्य ढकारे 60
त्वादुभ्यथा विग्रहः साधीयानेव, तत्र हि एकादीनां दशा- च--षोढेति उत्वस्य वैकल्पिकत्वेन पक्षे--षड्ढेति रूपम । 25 दिभिर्द्वन्द्वे एकविंशत्यादौ वचनभेदस्य परिहाराय अधिक- अत्र केचिदुत्ववत् ढत्वमपि वैकल्पिकमिति मत्वा पक्षे षडटे
शब्देन सह विग्रहः प्रदर्शितः, प्रकृते उत्तरशब्दोऽप्यधिकार्थ । त्यस्य स्थाने षड्धेति रूपमाहुः तन्न युक्तमित्याह-यत एव । सूत्रशेषे च सर्वत्र द्वन्द्वे विभाषितैकत्वस्य लोकाश्रय- | तु षड्धेति रूपमिति । घाप्रत्यये यदि न तद्रूपं तहि कथं त्वेन प्रकृतलिङ्गस्य च सिद्धया द्वन्द्वसमासोऽपि समर्थित । तत्सिद्धिरिति चेदत्राह-किन्तु पड़ दधाति धयति वेति- 65
इति तदाशयेनाह--एकं च दश च वेति--अत्र पूर्वस्मिन् । उभयथा धातोराकारान्तत्वेन, "आतो डोऽहा-वा-मः" . 30 विग्रहे तत्पुरुषसमासः शाकपार्थिवादिवदुत्तरपदलोपश्च, परत्र [ ५. १. ७६. ] इत्यस्य प्राप्तिः । धातोराकारलोपे कथं
विग्रहे द्वन्द्वसमासः, पूर्वपदस्य दीर्घत्वम्, तदाह--अकस्य तच्छवणं तत्राह-खियामापि च भवति, तथा च षटकर्मकदशशब्दे उत्तरपदे इति । षोडशेत्यस्य विग्रहमाह-- | धारणकर्ची-पानकर्तीति वा षड्धापदस्यार्थो न तु घडुत्तरा दशेयादिना, अत्राप्युत्तरशब्दोऽधिकार्थ एव, पूर्ववत् | प्रकारार्थकोऽयं शब्द इति भावः । नन्वस्तु कथमपि सिद्धिः 70
समासे 'षष' 'दश' इत्यवस्थायां षषोऽन्तस्योत्वं दशशब्ददका- षषो धाशब्दे परे विधीयमानं प्रकृतसूत्रनिर्दिष्ट कार्य तत्र 35 रस्य डत्वं च निपातितं, तदाह--अत्र षषोऽन्तस्योत्वम् , | कुतो न भवतीति चेतत्राह-निपातनस्येष्टविषयत्वादिति
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बृहद्वृत्ति- बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र. ९१-९२]
निपातनं हीष्टप्रयोगस्य सिद्धये समाश्रीयते इष्टप्रयोगश्च । चेति वा द्वादश, एवं- द्वाविंशतिः, द्वात्रिंशत्; त्रयोदश
न स्वरूपत एवापि त्वर्थतोऽपि तथा च षट्प्रकारार्थे एव पोढा षड्ढेति निपातनमिष्टं न तु पूर्वोक्त-षट्कर्मकधारणकर्थे इति तत्र न भवति प्रकृतसूत्रप्रवृत्तिरिति भावः ।
|
त्रयोविंशतिः; त्रयस्त्रशत्; अष्टादश, अष्टाविंशतिः, अष्टात्रिशत् । द्वित्र्यष्टानामिति किम् ? पञ्चदश । प्राक्शताfafa किम् ? - द्विशतम्, त्रिशतम्, अष्टशतम्, त्रिसहस्रम् अष्टसहस्रम् | अनशीतिबहुव्रीहाविति किम् ? व्यशीतिः, 40 व्यशीतिः, द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः, त्रिचतुराः, अष्टनवाः, द्विदेश - द्विदशाः, एवं त्रिदशाः । प्राक् शतादित्यवधेः संख्यापरिग्रहादिह न भवति, ईमातुरः, मातुरः, अष्टमातुरः; द्विमुनि व्याकरणस्य, त्रिमुनि व्याकरणस्य ॥ ९२ ॥
।
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।
पाणिनीये तन्त्रे पृषोदरादिगणे “षष उत्वं दतू दशधासूत्तरपदादेः ष्टुत्वं च" इति गणसूत्र पठयते, तेन षोडषोडशेत्यनयोः सिद्धिः । ततः “धासु वा” इति पठयते, तदग्रे "उत्तरपदादेः ष्टुत्वं" इति । एतद्भाष्यव्याख्यायां कैयट आह-‘उत्वं विकल्प्यते, तेन ष्टुत्वं नित्यमेव 10 भवति' इति, तथा च षोढा षड्ढा इत्येव प्रयोगस्तन्मते । हरदत्तादयस्तु उत्वपक्षे एव ष्टुत्वं नित्यम्, उत्वाभावपक्षे च ष्टुत्वं न भवतीति व्याचरव्यु:, तन्मते षोढा षड्धेति रूपं ॥ सम्प्रति समुपलभ्यमानभाष्यपुस्तके च 'षोढा षड्ढा' इत्येव रूपद्वयं दृश्यते । सिद्धान्तकौमुद्यां दीक्षितेन च 15 पूर्वोक्तं गणसूत्रत्रयं सहैव पठ्यते, तत्पुरुषप्रकरणे षष उत्वं दतृदशघासु उत्तरपदादेः ष्टुत्वं च धासु वेति । एवं च षोढा षड्धेति रूपमुदाहृतम् । तच्च न भाष्यसम्मतमिति प्रतीयते, यतो भाष्ये धासु वेति पठित्वा, उत्तरपदादेः ष्टुत्वस्य विधानं पृथगेव कृतम्, तथा च तत्र विकल्प - 20 सम्बन्धो भाष्यकृतो नाभिप्रेत इति स्पष्टमेव प्रतीयते अन्यथा एकदैव सूत्रद्वयमपि सहैव पठितं स्यात् । तथा च दीक्षित ग्रन्थो हरदत्तत्र्याख्यानुकूल इति प्रतीयते, स्पष्टं चेदं नागेशेनो धोते कथितम्, तथाहि----अत एव भाष्ये ष्टुत्ववचनं वाशब्दाघटितं पृथगेवोक्तम्, एवं चोत्वाभावपक्षे 25 पड्ढेति ढकारविशिष्ट एव पाठो भाष्ये । यत् तु हरदत्ते - नोत्वपक्षे ष्टुत्वं नित्यमित्युक्तं --- तन्त्र- सन्नियोगशिष्टपरिभाषयैव सिद्धे पृथग्वचनवैयर्थ्यापतेरित्याहुरिति । तथा च यत् तु षड्धेति रूपमित्युक्त्याऽत्र वृत्तिकृता हरदत्तमतमेव खण्डितमिति प्रतीयते ॥। ३. २. ९१ ॥
ख्याति - 'द्वित्रि अष्टन' इत्येतेषामिति । यथासंख्यश० म० न्यासानुसन्धानम् - विभज्य सूत्रं व्यामिति--सम्यक् ख्यायते ऽनयेति-संख्या क्रमवैशिष्ट्येन ज्ञानम् तामनतिक्रम्य यथासंख्यम्, मिथः साकाङक्षाणां पदार्थानां येन क्रमेण ज्ञानं तेनैव क्रमेणान्वय इति तदर्थः । 'प्राक् शतात्' इति उत्तरपदभूतशब्दानामवधिदानादवध्यवधिमतोः साजात्यमिति नियमेनावधिमदुत्तरपदमपि संख्यारूपमेवेति लभ्यते, तदाह--संख्यायामुत्तरपदे इति, 'अनशीति' इति पर्यु - यामित्यस्य सूत्रेऽनुपादानेऽपि न क्षतिरिति ध्वनितम् । दासादपि सदृग्राहकादयमर्थो लब्धुं शक्यते, तथा च संख्याअनशीति बहुव्रीहाविति पदं व्याख्याति - अशीतिं 55 बहुव्रीहिसमासविषयं चेति--अशीतिरूपमुत्तरपदं बहुव्रीहिसमासविषयं चोत्तरपदं वर्जयित्वेत्यर्थः । उदाहरति-द्वाभ्यामधिका दश, द्वौ च दश चेति वा - - द्वादश, पूर्वस्मिन् विग्रहे तत्पुरुषः, परत्र द्वन्द्वः, द्विशब्दस्य 'द्वा' आदे
।
शः । प्रकृतं विग्रहमन्यत्राप्यतिदिशति - एवं द्वाविंशतिरिति - 60 द्वधिका विशतिः द्वौ च विंशतिश्चेति वा विग्रहः । एवंद्वयधिका त्रिशत्, द्वौ च त्रिशच्चेति वा द्वात्रिंशत् । योदशेति त्र त-त्रयश्च दश च त्र्यधिका दशेति वा विग्रहः, त्रिशब्दस्य त्रयस् आदेशः, एवं --- त्रयोविंशतिः, त्रयस्त्रिंशदिति । अष्टादशेति--अष्टाधिका दश, अष्टौ च दश चेति वा विग्रहः, 65 एवम् अष्टाविंशतिः अष्टात्रिंशदिति । द्वित्र्यष्ठानामिति किमिति-- आदेशैरनुरूपाः स्थानिनः स्वयमेव आक्षेप्स्यन्त इति द्वित्र्यष्टानामिति स्थानिनिर्देशो व्यर्थ इति प्रश्नाशयः द्वादिभिरादेशैरनुरूपस्थानिसमाक्षेपसंभवेऽप्याक्षिप्तस्य शाब्दबोधे भानाभावेन लक्ष्यसंस्कारानुकूलो बोधो न स्यादिति 70 सामान्यत एव संख्यावाचकस्य पूर्वपदस्य द्वादिरादेशः स्यादिति
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द्विष्टानां द्वा-त्रयो ऽष्टाः प्राक् शतादनशीति- बहुव्रीहौ ॥ ३.२.६२ ॥
त० प्र०- द्वित्रि अष्टन् इत्येतेषां यथासंख्यं 'द्वा यस् अष्टा' इत्येते आदेशाः प्राक् शतात् संख्यायामुत्तरपदे भवन्ति, अनशीति बहुव्रीहौ - अशीति बहुव्रीहिसमासविषयं द्वाभ्यामधिका दश द्वौ च दश
चोत्तरपदं वर्जयित्वा ।
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[ पाद-२, सूत्र-१२-९४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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दोषमाह--पन्चदशेति--पञ्चाधिका दश, पञ्च च दश चत्वारिंशदादौ वा।३. २. ६३॥ 40 चेति वा विग्रहः, अत्र पञ्चनशब्दस्यापि द्वादिरादेशः स्यादिति तद्वारणाय द्विश्यष्टानामित्यावश्यकमिति भावः । प्राक
त० प्र० द्वित्र्यष्टानां प्राक शताच्चत्वारिंशदादौ शतादिति किमिति---'संख्यावाचिन्युत्तरपदे' इति चार्थोऽशी- संख्यायामुत्तरपदे यथासंख्यं द्वा-श्रयस-अष्टा इत्येते आदेशा 5 तिपर्युदासादेव भविष्यतीत्यभिमानेन प्रश्नः। संख्यावाचिश-या भवन्ति, अनशीतिबहुव्रीहौ । द्वाभ्यामधिका, द्वौ च
ताद्युत्तरपदेषु मा भूदादेश इत्यर्थ तस्यावश्यकत्वमित्याह । चत्वारिंशच्चेति वा-वाचत्वारिंशत्, द्विचत्वारिंशत; प्रत्युदाहरणमुखेन---'द्विशतम्' इत्यादिना, द्वे शते-द्विशतम, ! त्रयश्चत्वारिंशत्, अष्टाचत्वारिंशत्, द्वापञ्चाशत्, द्विप- 45 द्वयधिक शत--द्विशतम्, द्वौ च शतं चेति वा द्विशतम्, । ञ्चाशत, त्रयःपञ्चाशत् , त्रिपञ्चाशत् ; अष्टापञ्चाशत् ,
एवं-त्रिशतमित्यादिषु विग्रहो बोध्यः । एषु द्वाद्यादेशवा- ! अष्टपञ्चाशत् ; द्वाषष्टिः, द्विषष्टिः; त्रयःषष्टिः, त्रिषष्टिः, 10 रणार्थं प्राक् शतादित्यावश्यकमिति भावः । अनशीति-! अष्टषष्टिः, अष्टषटिः, द्वासप्ततिः, द्विसप्ततिः; त्रयःसप्त
बहुब्रीहाविति किमि त--अशीती उत्तरपदे बहुवोहि- तिः, त्रिसप्ततिः, अष्टासप्ततिः, अष्टसप्ततिः दानवतिः; विषये च प्रकृतसूत्रप्रवृत्तिवर्जने किं फलमिति प्रश्नाशयः। द्विनवतिः, त्रयोनवतिः, त्रिनवतिः, अष्टानवतिः, अष्टन- 50 द्वयशीतिः, व्यशीतिरिति-वृधधिका अशीतिः, द्वौ च । वतिः । अनशीतिबहुव्रीहावित्येव-दशीतिः, त्र्यशीतिः, अशीतिश्चेति वा विग्रहः, एवं-त्र्यशीतिरित्यत्रापि, | अष्टाशीतिः, द्विश्चत्वारिंशत् , द्विचत्वारिंशाः, एवं-त्रिचअत्र द्वा-त्रयसोरभावायाशीतिवर्जनमावश्यकमिति भावः । त्वारिंशाः, अष्टो चत्वारिंशतोऽस्मिन-अष्टचत्वारिंशत । बहुव्रीहिपयुदासफलमाह--द्वौ वा त्रयो वा---द्वित्राः इति- पर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पार्थमिदम् ॥ ९३॥ "सुज्वाऽर्थे संख्या संख्येये संख्यया बहुव्रीहिः” [३. १. १९.]. इति सूत्रेण समासः “प्रमाणीसंख्याड्ड:" [३. ३. १२७.] |
इति डः। एवं--त्रिचतुराः इत्यादयः, त्रिचतुरा इत्यत्र : श० म० न्यासानुसन्धानम् चत्वा । पूर्वसूत्र- 55 20 डापवादोऽम् "नासु" [ ७. ३. १३१ ] इति सूत्रेण, | विधेया एव चत्वारिंशदादौ संख्यायां विकल्पेनानेन सूत्रेण
अत्र द्विश्यष्टानां न द्वादय आदेशाः, अतो बहबीहिवर्जनं विधीयन्ते, तथा च पूर्वसूत्रं सम्पूर्णमनुवर्तत एव, 'उत्तसार्थकम् । उत्तरपदस्य संख्यावाचकत्वं कथं लब्धं कि च ! रपदे' इत्यस्य च चत्वारिंशदादाविति विशेषणम्, तथा तदाश्रयणे फलमिति स्फोरयितुमाह--प्राक शतादित्य- च सूत्रार्थमाह-द्वित्र्यष्टानामित्यादिना द्वाचत्वारिशदादयः
वधेरिति--प्राक्शतादिति ह्यवधिः, स च न पूर्वपदविषयः, साध्याः, तेषां विग्रहवाक्यमाह---द्वाभ्यामधिका इत्यादिना। 60 5 तस्य स्पष्टमुपादानात्, तथा चोत्तरपदविषय एवेति निश्ची- | स्पष्टान्युदाहरणानि-.. 'अष्टनवतिरित्यन्तानि । पूर्वसूत्रयते, अवध्यवधिमतोश्च साजात्यं लोके दृष्टम्, एवं च | स्थपदानामत्राप्यावश्यकत्वं द्योतयितुं पदकृत्यमप्याह-- शतमवधि--संख्यावाचि, तदनुरूपत्वादवधिमत्यपि संख्यैव अनशीति-बहुत्रीहावित्येवेत्यादिना । द्वयशीतिरित्यादयोभवितुमर्हतीति संख्यावाचिन्युत्तरपदे इत्ययमर्थो लभ्यते, शीतिवर्जनप्रयोजनानि । द्विचत्वारिंशाः त्रिचत्वारिंशाः
तदनुपादाने च द्वैमातुरः इत्यादावपि द्वादेशापत्तिः, द्वयो- । इति बहुव्रीहिवर्जनप्रयोजनम् । सुज्-वार्थादन्यत्र बहुव्रीहावपि 65 30 मात्रोरपत्यं--द्वैमातुरः, तिसृणां मातृणामपत्यं-- त्रैमातुरः तद्वर्जनप्रयोजनमित्याह-अष्टौ चत्वारिंशतोऽस्मिन्निति
अष्टानां मातृणामपत्यम् --आष्टमातुरः इत्यादिविग्रहः, ! अत्र "प्रमाणी-संख्याड्डः" [ ७. ३. १२८. ] इति डस्तु न एषु तद्धितार्थ एव समासः, ततस्तद्धितप्रत्ययोत्पत्त्यैव भवति बहुव्रीहेः संख्यार्थत्वाभावात् संख्यार्थाबहुव्रीहेरेव परिनिष्ठितत्वं रूपस्येति समासावस्था नोदाहरणार्हा, एष : तेन डप्रत्ययविधानात्, इह हि अन्यपदार्थस्यैव प्राधान्यम् ।
द्वाद्यादेशानां वारणायोत्तरपदस्य संख्यावाचकत्वसमाश्रयण- पूर्वेण चत्वारिंशदादावपि द्वाद्यादेशे सिद्धे किमर्थमिदमित्या- 70 35 मावश्यकम् । समासेऽपि प्रत्युदाहरति-द्विमुनि व्याकर- : शङ्कायामाह--पूर्वेण नित्यं प्राप्ते इति ॥ ३. २. ९३ ॥
स्येतिद्वौ मुनी वंश्यो....द्विमुनि, त्रयो मुनयो वश्या:-mmmmarriormannrmmmmmmmmwww त्रिमुनि “वश्येन पूर्वार्धे" [ ३. १. २९ ] इति समासः, अत्रापि द्वाद्यादेशवारणाय संख्यावाचित्वमुत्तरपदस्यावश्यक
हृदयस्य हल्लास-लेखा-रण-ये ३. २. ६४॥ मिति भावः ।। ३. २.९२॥
... त० प्र० हृदयशस्वस्य लास-लेखयोहत्तरपदयोरणि ये
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंघलिते
[ पाद-२, सूत्र-९४]
च प्रत्यये परे 'हव' इत्ययमादेशो भवति । लास-हृदयस्य यस्त्वमुचितमिति परस्याण: सान्निध्यापेक्ष एव निर्णयो लासो-हल्लासः, लेख-हृदयं लिखतीति-हल्लेखः, अण्संनि- विधेय इत्यणन्तस्यैव लेखशब्दस्य ग्रहणमुचितमिति । घानाल्लेखशब्दोऽणन्तो गृह्यते, तेन-घमन्ते न भवति- एवमणन्तलेखशब्दग्रहणे स्थिरीकृते यत् फलितं तदाह--
हृदयस्य लेखः-हृदयलेखः, अण्-हृदस्यस्येदं-हार्दम्, तेन घमन्ते न भवतीति--घान्ते लेखशब्दे उत्तर- 40 5 सौहार्दम् , दौहर्दिम्; य-हृदयस्य प्रियः-हृद्यः, हृदयस्य पदे सति हृदादेशो न भवतीत्यर्थः । तथोदाहरति--
बन्धनो मन्त्रः-हृधः, हृदये भवं हृदयाय हितम्-हृद्यम् । हृदयस्य लेख:-हृदयलेखः' इति-~-अत्र न हृदय--- 'अण्' इत्येव सिद्ध लेखप्रहणं ज्ञापकम्-'उत्तरपदाधिकारे | शब्दस्य हृदादेश इति भावः । अणि हृदादेशमुदाहरति-- प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणं न भवति, "खित्यनध्ययाः" । हृदयस्येदं----हार्दमिति--- हृदयशब्दात् “तस्येदम्" [ ६. ३.
( ३. २. १११) इत्यादौ तु असंभवात् तदन्तग्रहणम् । | १४२ ] इत्यण, हृदादेशे सति आदिस्वरस्यवृद्धिः । 45 10 हृदयशब्दसमानार्थेन हृच्छब्वेनैव सिद्धे हृदादेशविधानं | सौहार्दमिति----सुष्ठु हृदयं यस्य तादृशो मित्रातिरिक्तः
लासादिषु हृदयशब्दप्रयोगनिवृत्त्यर्थम्, अन्यत्र तूभयं [तटस्थः] सुहृदयः, तस्येदमिति, तस्य भावो वा--सौहार्दम्, प्रयुज्यते-सौहार्यम् , सौहृदय्यम्; हृच्छोकः, हृदयशोकः, इदमर्थे पूर्वोक्त एवाण, भावार्थे च “युवादेरण्” [७. १. ६७.] हृद्रोगः, हृदयरोगः, हृच्छकुः, हृदयशंकुः, हृच्छूलम् ,
इत्यण, अनेन हृदादेशे उभयपदादिस्वरस्य वृद्धिः । हृदयशूलम् ; हृच्छल्यम् , हृदयशत्यम् हृद्दाहः, हृदयदाहः, | दौहार्दमिति--दुष्टं हृदयं यस्य स--दुहृदयः, तस्येदं, तस्य 50 15 हृदुःखम् , हृदयदुःखम्; हृत्कमलम् , हृदयकमलम् ;
| भावो वेत्यर्थेऽणि गतिसंज्ञकदुर्शब्दातिरिक्तस्य हृदयहृत्पुण्डरीकम् , हृदयपुण्डरीकम् इत्यादि ॥ ९४ ॥ शब्दमात्रस्य हृदादेशे उभयपदादिस्वरवृद्धौ---दोहर्दिमितिः ।
यप्रत्यये उदाहरति--हृदयस्य प्रियः इत्यादिना, तत्र
प्रियार्थे बन्धनमन्त्रार्थे च "हृद्य-पद्य-तुल्य-मूल्य." श. म. न्यासानुसन्धानम्-हृदयस्य० । [७. १. ११ ] इति यः भवार्थे “दिगादिदेहांशाधः” 55 समासाश्रयां पदैकदेशविकृतिमुदाहृत्य पदादेशप्रकरणमारभते. [६.३.१२४] इति यः, हितार्थे "प्राण्यङ्ग-रथ-खल-तिल."
तत्रोत्तरपदे इत्यनुवृत्तमपि यथासंभवमेव सम्बध्यते, तदाह [ ७. १. ३७ ] इति यः, अनेन हृदयस्य हृदादेशः । 20 लास-लेखयोरुत्तरपदयोरिति--तयोरेवोत्तरपदत्वेन यो- ! पूर्वमणन्तस्य लेखशब्दस्यह ग्रहणमिति निर्णीतम्, तत
गात् । अण्-ययोस्तु प्रत्ययत्वेन तत्त्वायोगादाह- श्चाणग्रहणेनैव * प्रत्ययग्रहणे तदन्तस्य ग्रहणम् * इति अणि ये च प्रत्यये परे इति । क्रमश उदाहरति---लास-- | न्यायेन अणन्ते उत्तरपदे परे हृदादेशसिद्धौ हल्लेख इति : इति-लासरूपे उत्तरपदे यथेति भावः, लसनं विलसनं... सिध्यत्येवेति तदर्थ लेखग्रहणं व्यर्थमित्याशङ्कथ तस्य
लासः, भावे घ, हर्षातिरेकः, हृदयस्य लास इति नियमार्थत्वं साधयति-- अणीत्येव सिद्धे लेखग्रहणं 6 षष्ठीतत्पुरुषे सति अनेन हृदादेशः । लेखरूपे उत्तरपदे ज्ञापकमिति--सिद्ध सत्यारभ्यमाणो विधिनियमार्थ इति
उदाहरति--हृदयं लिखतीति--हृदये कमपि भावमावि- | सिद्धान्तात् लेखग्रहणेन स्वसार्थक्यानुकूलं किमपि ज्ञाप्यम्, करोतीति भावः, “कर्मणोऽण्" [५. १. ७२.] इत्यण, गुणे ! तच्चेदम् ---'उतरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे तदन्त- 65 कृते लेखशब्दो निष्पद्यते, तेन सह हृदयशब्दस्योपपदसमासः, ग्रहणं न भवति इति, अस्तीहोत्तरपदाधिकारः,
अनेन हृदादेशः । लासशब्दो धनन्तस्तत्साहचर्याल्लेख- | अस्ति चाणप्रत्ययग्रहणं, तेन च तदन्तग्रहणाभावे सति 30 शब्दोऽपि घान्त एव ग्रहीतुमुचित इति किमर्थमणन्तलेख- लेखशब्दस्यह ग्रहणं न स्यादिति तदर्थं तस्येह सूत्रे ग्रहणं
शब्दे परे उदाहृतमित्याशङ्कायामाह--अणसन्निधाना- | सार्थकम् । फलं चान्येषामणन्तानां न ग्रहणं भवतीति ल्लेखशब्दोऽणन्तो गृह्यते इति, अयमाशयः--अवश्यं | हृदयं स्पृशतीति हृदयस्पर्श इत्यादौ न प्रकृतसूत्रप्रवृत्तिः । लासशब्दसन्निधानाल्लेखशब्दस्य घान्तस्य ग्रहणं चोद- नन्वेवं ज्ञापिते "खित्यनव्ययारुषो मोऽन्तो ह्रस्वश्च"
यितुं शक्यते, किन्तु अण्प्रत्ययस्यापि सन्निधानमस्त्येव, । [३. २. १११.] इत्यग्रिमसूत्रेऽप्युत्तरपदाधिकारसत्त्वात् 35 तेन चाणन्तस्यापि तस्य ग्रहणं प्राप्नोत्येव, अस्यामवस्थायां | तत्रापि खिदन्तग्रहणाभावे 'कालिमन्या' इत्यादी खशन्ते
कतरत् सान्निध्यं बलवदिति चिन्तायां पूर्वात् परबली- ! मन्यारूपे उत्तरपदे परे तस्य प्रवृत्तिनं स्यात् , तस्य खिद्रूपत्वा
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पाद २, सूत्र ९४-९५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
भावादिति चेदत्राह–“खित्यनव्यय ० " [ ३. २. १११ ] | पदः पादस्याऽऽज्याऽऽति- गोपहते । ३. २. ६५ ॥
इत्यादी तु असंभवात् तदन्तग्रहणमिति, अयमाशयः--- सर्वो हि नियमः शास्त्रप्रक्रियानिर्वाहायाश्रीयते, "खित्य[ ३.२. १११ ] इति शास्त्रेणाव्ययवजि
त० प्र० - पादशन्दस्याज्यादिषूत्तरपदेषु 'पद' इत्ययमादेशो भवति । पादाभ्यामजति अतति चेति औणादिके 40
नव्यय ०"
5 तस्य पूर्वपदस्य मान्तादेशो ह्रस्वश्च विधीयते, तादृशस्य | इणि-पदाजिः, पदातिः, अत एव निर्देशात् अजेवों न पूर्वपदस्य खित्परत्वसम्भावनैव नास्ति खित्प्रत्ययस्य । भवति । पादाभ्यां गच्छति-पदगः, "नाम्नो गमः खड्डी०" खशादेर्धातोविधीयमानत्वात्, अनव्यय इति पर्युदासेन हि । [ ५.१.१३१. ] इत्यादिना उः पादाभ्यामुपहतः--पदोअव्ययभिन्नं स्याद्यन्तमेव ग्राह्यम्, पर्युदासस्य सदृग्ग्राहि- पहतः । पादशब्द समानार्थः पदशब्दोऽस्ति, आज्यादिषु तु त्वात्, ततश्च पूर्वपदस्य खिदव्यवहितपूर्वत्वासम्भवादेव खिद- पादशब्दप्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् । कथं दिग्वश्चासौ 45 10 न्तग्रहणं तत्र शास्त्र सार्थक्यायावश्यकम् इह च अणव्यवपादश्च - दिग्धपादः, तेनोपहतः - दिग्धपादोपहतः ? उत्तरपदसंनिधापितेन पूर्वपदेन पादशब्दो विशेष्यते, न चात्र पादशब्दः हितपूर्वत्वं हृदयशब्दस्य संभवत्येव, अणः स्याद्यन्तादेव विधी - यमानत्वादित्यसंभवरूपहेतोरभावादुक्तनियमप्रवृत्तौ बाघकापूर्वपदमपि तु दिग्धपादः, तेनात्र न भवति ॥ ९५ ॥ भावः एवं च "धन्युपसर्गस्य बहुलम् " [ ३२.८६. ] इत्यादावप्युपसर्गस्य द्यञ्ञव्यवहितपरत्वसंभावनाभावादेव 15 तदन्तग्रहणमित्युक्तपूर्वम्, तथा चासंभवाद् हेतोरपि प्रकृतज्ञापितार्थस्य तत्र न प्रवृत्तिरिति । प्रकारान्तरेण सूत्रवैयर्थ्यमाशङकयोत्तरमभिदधाति -- हृदयशब्द समानार्थेत्यादिना-हृदयशब्देन समानोऽर्थो यस्य तादृशेन स्वाभाविकहृद् : शब्देनैव हृल्लासः, हल्लेखः, हार्द, हृद्यमित्यादि प्रयोगाणां सिद्धि20 रस्त्येवेति हृदयस्य हृदादेशविधानं व्यर्थं सत् तत् स्वसार्थक्याय लास-लेखा-ऽण्-ये हृच्छब्दस्यैव प्रयोगो न तु हृदयशब्दस्येति सूचयति, तत्फलमाह---अन्यत्र तूभयं प्रयुज्यते इति, अयमा- | शयः --- प्रकृतसूत्राभावे 'हृल्लासः, हृदयलासः, इति स्वाभा विकः प्रयोगः प्राप्नोति, सूत्रसत्वे च हृदयलास इति प्रयो25 गस्य निवृत्तिर्भवति, लास-लेखा - ऽण्-यातिरिक्ते च स्थले हृद्-हृदयशब्दयोरुभयोरपि पर्यायेण प्रयोगो भवति क्वेत्याह-- सौहार्यम्, सौहृदयमिति अत्र सुहृदो भाव इत्यर्थे “पतिराजान्त - गुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि च [ ७. १. ६० ] इति णि उभयपदादिस्वरवृद्धी - सौहार्थमिति, 30 सुहृदयस्य भाव इति विग्रहे च सुहृदयशब्दात् पूर्वोक्ते व्यणि
श० म० न्यासानुसन्धानम् -- पदः ० । आजि आति ग उपहत इत्येते उत्तरपदविशेषणानि एषूत्तरपदेषु सत्सु 50 पादस्य स्थाने पदः प्रयुज्यत इति सूत्रार्थमाह-- पादस्याताभ्यामोणादिके इणि प्रत्यये -- आजिरातिरिति पदे सिध्यतः, ज्यादिषूत्तरपदेष्वित्यादिना । अजिरतिश्च गमनार्थी धातू,
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तदाह-- पादाभ्यामज तीत्यादिना । तथा चात्राजेवों" देशोऽपि प्राप्नोति “अघञ्क्यबलच्यजेवी" - [ ४.४.३. ] 55 इति सूत्रेण स कथं नेत्याशङ्कापनोदायाह--अत एव निर्देशादिति, अयमाशयः - कानिचित् कार्याण्याचार्याः स्पष्टं विदधति कानिचिच्च स्वाचारेण शिक्षयन्ति तथाचाचार्येण आजिशउदव्यवहारादत्र तदभावोऽनुमीयत इति तथा चोभयत्र पदादेशे -- पदाजिः पदातिरिति शब्दौ निष्पन्नौ । गरूपे उत्त- 60 रपदे उदाहरति-- पादाभ्यां गच्छतिति पादशब्दे उपपदेगमेर्डः प्रत्ययोऽन्त्यस्वरादेर्डित्त्वसामर्थ्याल्लुक्, तदाह"नाम्तो गमः ०" [५. १. १३१.] इत्यादिना ड इति, अनेन पदादेशे - पद्गः । पादाभ्यामुपहतः इति, तथा च " कारकं कृता" ३. १. ६८ ] इति समासः, अनेन पदादेशे 65 पदोहतः इति । सूत्रस्य वैयर्थ्यमुद्भाव्य सार्थकत्वं द्रढयति-- पादशब्द समानार्थः इति - प्रकृतसूत्रे पादशब्द: शरीरावयवविशेषपरो न तु श्लोकादिचतुर्थांशपरः,
"हृद्-भग- सिन्धोः" [ ७. ४. २५ . ] इत्यस्य प्राप्त्यभावादादिस्वरवृद्धी - सौहृदय्यमिति रूपद्वयं भवति, यद्यपीहापि टयण यरूपत्वमेव प्रत्ययस्येति ये परे प्रवर्त्तमानोऽयं नियमो लगत्येव, तथापि निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य ग्रहणम् इति न्यायेन टयणो यस्येह न ग्रहणमिति बोध्यम् । एवं-- तथा च शरीरस्य यस्मिन्नवयवे पादशब्दः प्रयुज्यते तस्मि -
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35 हृच्छोको हृदयशोकः इत्यादावपि प्रकृतसूत्रविषयत्वाभावेनो- | नेव पदशब्दोऽपि प्रयुज्यत एव एवं चोभयोः समानार्थत्वेन 70
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भयथा प्रयोगः । तथा चैवं प्रयोगविशेषसूचनार्थमेवेदं पादाभ्याम जतीत्यादिविग्रहे पदाजिरित्यादिप्रकृतसूत्रलक्ष्याणां सूत्रमिति ॥। ३. २. ९४ ॥
| स्वभावत एव सिद्धिरिति तत्साधनार्थं प्रकृतसूत्रस्य न -
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हवृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-९५-९६ ]
प्रयोजनमिति शङ्का; यथा पदाजिरिति पदशब्देन सह । आज्यादिषु करणभावः प्राण्यङ्गस्यैवेति पूर्वत्र पादशब्दः वाक्ये सति भवति तथा पादशब्देन सह वाक्ये पादाजिरि- | प्राण्यङ्गवचनः, स एव चेहानुवर्तत इति परिमाणार्थस्य त्यादयोऽपि प्राप्नुवन्त्येवेति तादृशाः प्रयोगा मा भूवन्निति | न भवति । अन्ये तु गोपहतयोरपीच्छन्ति-पादाभ्यां गच्छ
प्रकृतसूत्रेण नियम्यते, तथा चाज्यातिगोपहतेषु परेषु सत्सु | तीति-पद्गः, पादाभ्यामुपहतः-पदुपहतः । कथं हस्तिपा5 पादशब्दप्रयोगनिवृत्त्यर्थमेव सूत्रमिति समाधानग्रन्थाशय: । दस्यापत्यं-हास्तिपद इत्यत्र अपत्याणि पद्भावः ? “को- 40
क्वचित प्रयोगे उपहतादिशब्दपरत्वे सत्यपि पादशब्दप्रयोगो | पिजल-हास्तिपदादण" (६. ३. १७१.) इति निर्देशाद दश्यते, प्रकृतसूत्रेण नियमे कृते च कथं तदुपपत्तिरिति शङ्ते- | भविष्यति । पादाभ्यां चरति-पदिक इति तु "पदिका" कथं दिग्धश्चासौ पादश्चेति---दिग्धः---तैलादिनोपलिप्तः ( ६. ४. १३ ) इति निपातनात् ॥ ९६ ॥
पादो दिग्धपादः, तेनोपहत इति विग्रहे "कारकं कृता" | 10 [३. १. ६८] इति समासः, अत्रोपहतशब्दे उत्तरपदे पादशब्दप्रयोगः कथमिति शङ्कार्थः । उत्तरयति---उत्तरपदस
श०म० न्यासानुसन्धानम्-हिम० । अत्रापि निमित्तनिधापितेनेत्यादि---इह पत्तरपदे इत्यधिकृतम्, उत्तरत्वं | कोटिद्विविध:--उत्तरपदरूपः प्रत्ययरूपश्च, तत्र पूर्व- 45 च पूर्वापेक्षयैव भवतीत्युत्तरपदब्देन पूर्वपदं सन्निधाप्यते----
मुत्तरपदकोटिमुपादायाह--हिमादिषूत्तरपदेष्विति--आदिआक्षिप्यते, तच्च पूर्वपदत्वं पर्याप्त्या गृध्यत इति यत्र
पदेन हतिकाषिशब्दौ ग्राह्यो । प्रत्ययकोटि सविशेष15 पादशब्दमात्रपर्याप्तं पूर्वपदत्वं तत्रैव पदादेशेन भाव्यमितीह
माह--पादसम्बन्धिनि ये चेति--इदं च लक्ष्यानुसारि पूर्वपदत्वस्य पादशब्दमात्रपर्याप्तत्वाभावान्न सूत्रप्रवृत्तिः, पूर्व
व्याख्यानं पादस्येति पदस्थावत्त्या प्रत्यासत्तिन्यायेन वा पदत्वं हि दिग्धपादेति समुदाये पर्याप्तं न तु पादशब्दमात्रे, |
समाश्रितम्, तथा हि--'पादस्य पदावेशः पादस्य ये, अथवा 50 तदाह--न चात्र पादशब्दः पूर्वपदमपि तु दिग्धपादः |
पादस्य पदादेशो ये' इत्येतावन्मात्रे कथितेऽपि पादशब्दइति । फलितमाह---तेनात्र न भवतीति--पदादेश इति |
सान्निध्यात् तत्सम्बन्धिन्येव ये इति लभ्यते, प्रत्ययेन हि 20 शेषः ।। ३. २. ९५ ।।
स्वप्रकृतिराक्षिप्यते, स च यथासम्भवं समभिव्याहृता---- समीपोच्चारितक ग्राह्यति नोक्तार्थ किमपि बाधकम् । उदाहरति---पादयोहिममिति षष्ठीसमासे सति पदादेशः। 55
पादाभ्यां हतिरिति--'हतिराघातः कारकं कृता" हिम-हति-काषि-ये पद् ॥ ३. २. ६६ ॥
[३. १. ६८.] इति समासः। काषिशब्दो णिन् प्रत्यत० प्र०--हिमादिषूत्तरपदेषु पादसंबन्धिनि ये च | यान्तः, स च "अजातेः शीले" [५. १. १५४. ] "साधौ" प्रत्यये पादशब्दस्य 'पद' इत्ययमादेशो भवति । पाद- ६५.१.१५५.] "व्रताभीक्ष्ण्ये" (५.१.१५७.7 इत्येतेष्व
योहिम-पद्धिमम्, पादाभ्यां हतिः-पद्धतिः; पादौ कष- | र्थेषु विधीयत इति सर्वेष्वर्थेषु यथोचितं विग्रहवाक्यमाह-- 60 25 तीत्येवंशीलः, पुनः पुनः पादौ कषतीति, पादाभ्यां साधु पादौ कषतीत्येवं शीला इत्यादिना, तत्र प्रथमः “अजाते:
कषतीति वा-पत्काषी, परमश्चासौ पत्काषी च-परम- शीले” [५. १. १५४. ] इति सूत्रानुसारी, द्वितीयः "व्रतापत्काषी । यदा च परमौ च तो पादौ च- परमपादौ,
भीक्ष्णे" [५. १. १५८. ] इति सूत्रानुसारी, तृतीयश्च-- तत्कषणशीलादिविवक्ष्यते तदा पादशब्दस्य पूर्वपदत्वा
"साधौ" [५. १. १५५.] इति सूत्रानुसारी, उपपदसमासेऽभावात् परमपादकाषीत्येव भवति; पादौ विध्यन्ति
नेन पदादेशः। पदादेशे कृते समासान्तरप्रवेशो नतु पदा- 65 30 पद्याः-शर्कराः, पादयोर्भवा:-'पद्याः पांसवः पादाभ्यां
देशात पूर्व पादस्य समासान्तरप्रवेशे पदादेश इति सूचयित । हितं पद्यं-घृतम् । कथं पादार्थमुदकं पाद्यम् ? “पाद्याओं" | तथोदाहरति-- परमश्चासौ पत्काषीति-"सन्महत्परमोत्त(७.१.२३.) इति निपातनात । पावशब्दसंबन्धिनि । मोत्कृष्टं पूजायाम्" [३. १. १०७. ] इति समासः । तथा य इति किम् ? द्विगुसमाससंबन्धिनि मा भत, द्वाभ्यां | च पत्काषिण एव समासान्तरे प्रवेशः, परमपादस्य काषिणा
पादाभ्यां क्रीतं-'द्विपाद्यम, एवं-त्रिपाद्यम, अध्यर्धपाद्यम्, | समासे च न पदादेशः, तदाह---यदाच । च तो 70 35."पणपादमाषाद्यः" (६. ४. १४८.) इति यः। यद्वा पादाविति । तत्र पदादेशाभावकारणमाह-पादशब्दस्य
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[ पाद-२, सूत्र-९६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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पर्वपदत्वाभावादिति, व्याख्याता चेयं युक्तिः पूर्वसूत्रे दिग्ध- चतुर्थांशरूपपरिमाणवाचक: पादशब्दः, तदर्थस्यैव क्रयणे पादोपहत इत्यत्र पदादेशाभावोपपादनवेलायामिति नेह : करणत्वसंभवादिति तस्य प्राण्यङ्गवाचित्वाभावान्न भवति 40 पुनर्व्याख्यायते । पादसम्बन्धिनि ये उदाहरति---प
पदादेश इत्यसत्यपि पादशब्दसम्बन्धित्वव्याख्याने न क्षति-' विध्यन्तीत्यादिना, तत्र पादौ विध्यन्तीत्यर्थे "विध्यत्यनन्येन" | रिति । मतान्तरे पूर्वसूत्रोक्तगोपहतशब्दयोः परतोऽपि 5 [७. १. ८. ] इत्यनेन स्वकरणकवेधविवक्षायां ये पदादेशः, | व्यञ्जनान्तः पदादेशः प्रयुज्यते, तदाह-अन्ये तु गोपहत
स्त्रीत्वादाप्---पद्याः शकरा मार्गकङ्कणानि, पादयोभवा | योरपीच्छन्तीति---यथा गोपहतयोः परतः 'पद' इत्यदन्ताइत्यर्थे "दिगादिदेहांशाद्यः" [६. ३. १२४.] इति यः, देशो विहितस्तथा 'पद्' इति व्यञ्जनान्तादेशमपीच्छन्तीति 45 पादाभ्यां हितमित्यर्थे च "प्राण्यङ्गरथखल० [७. १.३९.] | भावः । तदनुकुलमुदाहरति--पादाभ्यां गच्छत्तीति-पद्गः इति यः । क्वचित् पादसम्बन्धिनि ये सत्यपि पदादेशो
इति । प्रकृतसूत्रनिर्दिष्टनिमित्तादन्यत्रापि पदादेशो दृश्यते 10 न दृश्यते, तदुपपत्तिः कथमित्याशङ्कामाह--कथं पाद
कथमुपपद्यत इति जिज्ञासां सोपपत्तिकामाह----कथं मुदकं --पायमिति-पादशब्दात् तदर्थेऽर्थे यप्रत्यये सति । कथं न पदादेश इति शङ्कार्थः । उत्तरमाह-पाया" । हस्तिपादस्यापत्यमित्यादिना--हस्तिनः पादाविव पाटी
यस्येत्यर्थे बहुव्रीहिः, “पात् पादस्याहस्त्यादेः [७. ३. १४८.7 50 [७. १. २३. इति निपातनादिति, अयमाशयः--.."देव
इति सूत्रे हस्त्यादिवर्जनात् पाद् आदेशो न, तस्यापत्यमित्यर्थे तान्तात् तदर्थे" [७. १. २२.] इति प्रकरणे पादार्घाभ्या15 मित्यनुक्त्वा "पाद्यायें" इति यत् स्वरूपनिपातनं कृतं ।
"असोऽपत्ये" [ ६. १. २८.] इत्यण, आदिस्वरस्य वृद्धिः, तेन पदादेशाभावः, बाधकान्येव निपातनानीति न्यायात् ।
"अत इन" [ ६. १. ३१. ] इती तु न, अग्रे उदाह्निययप्रत्यये पादशब्दसम्बन्धित्वं कुतो व्याख्यायत इत्याशते
माणनिर्देशादेव, अत्र च पदादेशनिमित्ताभावेऽपि कथं पादशब्दसम्बन्धिनि य इति किमिति । उत्तरयति-द्विगु- पदादेश इति शङ्का । उत्तरमाह--"कौपिजलहास्ति-२०
समाससम्बन्धिनि मा भूदिति-यत्र न केवलं पादशब्दाद्यो पदादण"[ ६.३. १७०. ] इति निर्देशादिति, अयमाशयः-- 20 विधीयतेऽपि तु तदन्ताद् द्विगोस्तत्र पदादेशाभावार्थं पाद- आचार्याणामाचारादपि कश्चिदर्थोऽनुमीयतेऽनुक्तोऽपीति शब्दसम्बन्धित्वविशेषणं यप्रत्ययस्यावश्यकमिति भावः,
पूर्वत्रोक्तम्, तथा चाणि पदादेशोऽविहितोऽपि हास्तिपदशब्दे क्वेति चेदत्राह-द्वाभ्यां पादाभ्यां क्रीतमिति--अत्र तद्धि- | भवतीति “कौपिजलहास्तिपदादण' [ ६.३.७०.1 इति तार्थे द्विगः, पणपादमाषाद् यः" [ ६. ४. १४८. ] इति । सूत्रनिर्देशरूपाचार्याचारादनुभीयत इति । अस्त्विह निर्देशात् यः, स च पादान्तात् द्विगोविहितो न तु केवलपादशब्दा- । पदादेशानुमानम्, पादाभ्यां चरतीत्यर्थे पदिक इति प्रयोगे दिति तत्सम्बन्धी तन्मात्रप्रकृतिको ] न भवति, ततश्च
। कथमिकटि परतः पदादेश इति शङ्कते-कथं पादाभ्यां तत्र सति नानेन पदादेश इत्येव पादशब्दसम्बन्धित्वविवक्षा- चरति--पदिकः? इति, तत्र च साक्षान्निपातनसत्रमेवाफलम् । एवमर्थविवक्षायां गौरवमिति तदभावेऽपि प्रकृतो- ( चार्येण विहितमित्युत्तरं स्मारयति-"पदिक"६.४.१३.1 दाहरणे पदादेशाभावमुपपादयितुं पाणिनीयादिमतसंवादि- । इति निपातनादिति---"चरति” [ ६. ४. ११.] इत्यधि- 05.
पक्षान्तरमाह--यद्वा आज्यादिषु करणभावः प्राण्यङ्ग- कारे हि पूर्वोक्तंसूत्रमुच्यते, तत्र “पादेरिकट" [ ६.४. 30 स्यवतीति अयमाशय:--"पदः पादस्याज्यातिगोपहते" | १२.] इति सूत्रे एव पर्यादिगणे पादशब्दपाठेन, "पादि
| ३. २. ९५. 1 इति पूर्वसूत्रोदेवेह पादस्येत्यनुवृत्तम्, तत्र | पादादिकट्” इति सूत्रकरणेन वा पादशब्दादपीकट् स्यादेवेति पादशब्दः प्राण्यङ्गवाच्येव ग्रारघ्यः, यत आज्यादिषु शब्देषु । पृथक् [ "पदिकः” इति ] सूत्रेण पदिक इत्यस्य साधुत्वनिक्रियाप्रधानेषु संभावितकरणभावस्यैव पादस्य ग्रहीतुमौ- पातनमप्राप्तकार्यविधानार्थमेव कृतमित्यप्राप्तोऽपि पदादेशचित्यम्, स च करणभावो न परिमाणविशेषवाचकस्य स्तत्र भवतीति भावः । ये च वैयाकरणा निपतानं नारभन्ते पादशब्दस्य संभवतीति तत्र प्राण्यङ्गवाचकस्यैव ग्रहणमिति । ते विदधत्येवेकेऽपि पदादेशं, यथा--"पद्यत्यतदर्थे" [१. निर्मीयते, ततश्च ततोऽनुवृत्तस्य पादस्येत्यस्य प्रकृतसूत्रेऽपि । पा० सू० ३.५३.] इति पाणिनीयसूत्रे भाष्ये-इके चरतावुपप्राण्यङ्गवाचकस्यैव ग्रहीतुमौचित्यम्, एकत्र गृहीतार्थस्य । संख्यानमित्युक्तमिति त्वन्यत् । स्वमते च निपातनादेव त्यागायोगात द्वाभ्यां पादाभ्यां क्रीतमित्यर्थे च रूप्यकादि- तत्सिद्धिराधयितव्येति ॥ ३.२.९६.॥
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[ पाद-२, सूत्र - ९७-९८
1
ऋचः श्शसि ॥ ३.२.६७ ॥
त० प्र०-- ऋचः संबन्धिनः पादस्य शकारादौ शस्प्रत्यये 'पद्' इत्ययमादेशो भवति । पादं पादं गायत्र्याः शंसति - पच्छो गायत्रीं शंसति, वाक्यगम्यस्य गायत्र्याः
भावान्न तस्याः षष्ठयन्तत्वम् । ऋच इति किमिति - 'श्शसि इति पृथक् सूत्रकरणादेव प्राण्यङ्गाद् भिन्नस्येह पादस्य ग्रहणमिति कल्पयिष्यत इति ऋचः पादस्यापि पदादेशो भविष्यत्येवेति ऋच इति पदमनर्थकमिति प्रष्टुराशयः ।
1
इति
पावसंबन्धस्य वृत्तौ निवृत्तत्वात् स्वाभाविकं शंसनक्रियापेक्षं | ऋग्विषयभिन्नस्य चतुर्थांशवाचकस्यापि पादशब्दस्य शसि 40 । प्रत्यये सत्यपि पदादेशो नाभिमत इति तद्वारणार्थम् 'ऋचः ' कथनमावश्यकमिति प्रत्युदाहरणेनाह-- पादं पाद कार्षापणस्य ददातीत्यादिना । प्रत्युदाहरणान्तरमप्याह--- एवं-- पादशः श्लोकं व्याचष्टे इति--पादं पादं श्लोकस्य व्याचष्ट इत्यर्थः, अत्रापि नियताक्षरसमुदायरूपश्लोकचतु- 45 शिवाचकस्य पादशब्दस्य न पदादेशः, तदर्थमपि 'ऋचः ' इति पदमावश्यकमिति भाव: 'इशसि' इति शकारद्वयविशिष्टः पाठ: किमर्थं इति शङ्कामपनुदति---शसो द्विशकार पाठादिति---विभक्तिशसि - द्वितीयाबहुवचने शसि न पदादेशो भवतीति शकारद्वयविशिष्टशस्पाठप्रयोजनम् ; द्विशकारपाठेन 50 हि विद्यमानशकारवत्त्वं प्रतीयते, रासः शकारश्च न विद्य मानोऽपि तु अप्रयोगितयेत्संज्ञक, इति तत्र न पदादेशः । क्वेत्याह-- ऋचः पादान् पश्येति । अत्र पादशब्दाद् द्वितीयाबहुवचने शसि पादानिति रूपं न तु 'पद:' इति
!
विः ।। ३. २. ९७ ॥
55
श० म० न्यासानुसन्धानम् - - ऋचः० । पूर्वत्र पादस्य प्राण्यङ्गार्थस्य ग्रहणमिति प्रतिपादितम्, ततश्चान्यार्थस्य विना प्रयत्नं ग्रहणं न स्यादिति 'ऋचः' इति पदमुपात्तम् । अर्थवान् नियताक्षरपादो वेदभागो ऋक्, तस्याश्च पादा नियताक्षरा भवन्ति, तथा च तादृगृचः पादवाचिनः पाद15 शब्दस्य शकारादी [ विद्यमानशकारे ] शस्प्रत्यये परतः पदादेशो भवति । पूर्वसूत्रगृहीतपादशब्दाद् भिन्नस्य पादशब्दस्य ग्रहणार्थमेव च पृथक् सूत्रमारब्धम् । उदाहरति-पाद पादं गायत्र्याः शंसति पच्छः शंसतीति संख्यैकार्थात् वीप्सायां शस्" [ ७.२ १५१ ] इति शस्, अनेन पादस्य 1) पदादेश: । द्विजातेरुपनयनप्रकरणे आचार्यो माणवककर्णे गायत्री शंसति, तत्र गायत्र्यास्त्रिपादात्मिकायाः पादाः क्रमशो माणवकायोपदिश्यन्ते प्रथमं प्रथमः पादस्ततः प्रथमद्वितीयौ, ततः प्रथमद्वितीयतृतीयाः, अथवा प्रथमं प्रथमः पादस्ततो द्वितीयस्ततस्तृतीयः पश्चात् संपूर्णा 1. गायत्रीति क्रमः तत्रत्यमेवेदमुदाहरणम्, तदाह--पच्छः शंसति गायत्रीम् इति । अत्र पूर्व गायत्र्याः' इति सम्बन्धित्वेन तदुपादानं, वृत्तौ सति कथं तस्याः कर्मत्वमित्याशङ्कापनोदायाह---'वाक्यगम्यस्य गायत्र्याः पादसम्बन्धस्ये त्यादि----‘पादं पादं गायत्र्याः शंसति" इति वाक्यम्, तत्र
शब्द-free- घोष मिश्रे वा ॥ ३.२.६८ ॥
20
त० प्र०-- शब्दादिषूत्तरपदेषु पादस्य 'पद्' इत्ययमादेशो वा भवति । पादयोः शब्दः - पच्छन्दः, पावशब्दः ; एवं - पनिor:, पादनिष्कः; पद्घोषः पादघोषः पादाभ्यां मिश्रः - पन्मिश्रः, पादमिश्रः ॥ ९८ ॥
|
श० म० न्यासानुसन्धानम् -- शब्द० । नित्यमादेशप्रकरणं परिसमाप्य विकल्पादेशमाहानेन सूत्रेण, तत्र शब्दादय उत्तरपदविशेषणानि, तदाह-- शब्दादिषूत्तरपदेषु
30
i
गायत्र्याः पादेन सह सम्बन्धो गम्यते स च वृत्तौ सत्यां । इति---निष्कघोषमिश्रा आदिपदग्राह्याः । पादयोः शब्दः वृत्तावन्तर्भूतः पादस्य पृथगनुपस्थिते: अन्वयितावच्छेदकं । इति -- पादयोः सञ्चालनपतनादिकृतः रूपं हि पृथगुपस्थितिमत्त्वम्, तच्च निवृत्तमिति सम्बन्धार्थो निवृत्तः सम्प्रति च शंसतीति क्रियायाः किमपि कर्मापे क्ष्यते तच्चोपस्थितत्वाद् गायत्र्येव भवति, तस्या एवावयव35 रूपेण शंसनादिति तस्यामेव कर्मत्वं प्रयुज्यत इति शेषत्वा -
।
शब्द इत्यर्थः, 65 षष्ठीसमासः, पदादेशश्चानेन । वेत्युक्ततया पादशब्दोऽपीत्याहपादशब्द इति । प्रकृतं विग्रहमतिदिशति --एवं-पनिष्कः, पादनिष्कः इति ---निष्कशब्दार्थोऽत्र भूषणविशेषः, निष्कशब्दस्य बहवोऽर्थाः -- दीनारम्, मानविशेष:, भूषणविशेषश्च,
10
१०२.
5
कर्मत्वं भवति । ऋच इति किम् ? पाद पादं कार्षापणस्य ददाति - पादश: कार्षापणं ददाति, एवं - पादशः श्लोकं व्याचष्टे । शसो द्विशकारपाठात् विभक्तिशसि न भवति-ऋचः पादान्
|
पश्य ।। ९७ ।।
1125
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
60
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[पाद-२, सूत्र-९८-१०१]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
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स च यद्यपि वक्षोभूषणे प्रयुक्तः, तथापीह पनिष्क इत्यादि ! त्यादिना । उदाहरति--नासिकायै हितमित्यादिना, तत्र प्रयोगश्रवणात् पादभूषणेऽपि प्रयुज्यत इति प्रतीयते । पद्धोष हितमित्यर्थे "प्राण्यङ्गरथखल" [७. १. ३७. ] इति इति-पादयो?ष इति विग्रहः, शब्द:-स्पष्टं परिचीयमानः, | यः, भवार्थं च "दिगादिदेहांशाद्यः" [ ६. ३. १२४.]
घोषश्चास्पष्ट इति शब्द-घोषयोर्भेदः । पादाभ्यां मिश्रः | इति यः , पूर्वत्र नस्यं नासिकाग्राह्यमौषधादिचूर्णम्' परत्र 40 5 पन्मिश्रः इति-~~-मिश्रशब्दः संयुक्तार्थः, पादाभ्यां संयुक्त | नस्यं--नासारज्वादि । ये इति किमिति--अवर्णे
इत्यर्थः, सहार्थे ततीया, यदि च मिश्रशब्दस्य मिश्रीकृतार्थपर- इत्येतावत्युक्तेऽपि वर्णादन्यस्मिन्नभिधेये नासिकाया नस् , त्वमाश्रीयते तदा करणे सा॥ ३.२. ९८।।
इत्यर्थे सति वर्णादन्यार्थाभिधानयोग्यप्रत्ययपरत्वलाभसंभावनायां तादृशप्रत्ययस्य च भवाद्यर्थस्य यस्यैव संभवेन
च नस्यमित्यादिलक्ष्यसिद्धौ यग्रहणं व्यर्थमिति प्रष्टुरा- 45 नस् नासिकायास्त:-क्षुद्रे ।। ३. २. ६६ ॥
शयः । न केवलं तादृशः प्रत्ययो य एव, किन्तु ज्योऽपि, त० प्र०-नासिकाशब्दस्य तस्प्रत्यये क्षुद्रशब्द
तत्र च नसादेशो नेष्टः, सामान्येन यप्रत्ययपरिग्रहे च तत्रापि 10 चोत्तरपदे परे 'नस्' इत्ययमादेशो भवति । नासिकाया नसादेशप्रवृत्तिर्दुरेिति तद्वारणाय य इत्यावश्यकमिति
नासिकायां वा-नस्तः, नासिकायां नासिकया वा क्षुद्रः- प्रत्युदाहरणेनाह-नासिक्यं नगरमिति, नासिकाया अदूरनःक्षुद्रः ॥ ९९ ॥
भवमित्यर्थे "सुपन्थ्यादेर्व्यः" [६. २. ८४.] इति व्यः । 50
नन्वत्रापि प्रत्ययस्य 'य'-रूपत्वमेवेति कृतेऽपि 'ये' इत्येतद्ग्रश० म० न्यासानुसन्धानम्--नस० । अत्र पूर्व हण कुता ने नसादेश इति चदत्राह--निरनुबन्धकमहणे प्रत्ययरूपं निमित्तं परत उत्तरपदरूपमिति तथव व्याख्याति-चन सानुबन्धकस्य ग्रहणं भवतीति-सूत्रेऽनुबन्धरहितो 15 तसप्रत्यये 'क्षुद्रशब्दे चोत्तरपदे इति । उदाहरति-नासि-यकारमात्रनिर्देशः, तथा च तादृशस्यैव यस्येह ग्रहणं भवतीति .. काया नासिकायां वेति-आद्यादीनामाकृतिगणत्वात् ।
शकारानुबन्धस्य ञ्यस्य ग्रहणं न भवति, 'ये' इति न 55
क्रियते चेत् तदा स्यादेवेति भावः । वर्णपर्युदासवैयर्थ्य सार्वविभक्तिकस्तसूः, तत्र नासिकाया इति पञ्चम्यन्तम,
शङ्कते---अवर्ण इति किमिति । उत्तरयति- नासिक्यों नासिकायामिति सप्तम्यन्तम, एवं-नासिकायां नासिकाया
वा 'क्षुद्रः' इत्यत्र पूर्व सप्तम्यन्तेन विग्रहे नासिकाविषयक-वर्ण: इति ---नासिकायां भवः, नासिकामभिहत्य वायनाभि20 क्षुद्रत्वविशिष्ट:, पञ्चम्यन्तेन विग्रहे च नासिकाहेतुक
व्यजितो वर्ण:- नासिक्यः, अत्रापि भवार्थे देहाशत्वाद क्षुद्रत्वविशिष्ट इत्यर्थः, उभयत्र नासिकाया नसादेशः
यः, अत्र नेष्यते नसादेशः, वर्णपर्युदासाभावे च स दुर्वार 60 ॥ ३. २. ९९] ॥
इति तद्वारणाय तत्सार्थक्यमिति भावः॥ ३.२.१००।
येवणे ॥ ३. २. १०० ॥
शिरसः शीर्षन् ॥ ३. २.१०१॥ त० प्र०--नासिकाशब्दस्य येप्रत्यये वर्णादन्य
___ त० प्र०--शिरस्शब्दस्य शीर्षन्' इत्ययमादेशो 25 स्मिन्नभिधेये 'नस' इत्ययमादेशो भवति । नासिकार्य
भवति ये प्रत्यये परे। शिरसि भवः-शीर्षण्यः स्वरः, एवंहितं तत्र भवं वा-नस्यम् । य इति किम् ? नासिक्यं
शीर्षण्यो व्रणः; शिरसे हितं-शोषण्यं तैलम् । य इत्येव- 65 नगरम्, चातुर्थिकोऽयं ज्यः, निरनुबन्धग्रहणे च न |
शिरस्तः, सशिरस्कः 'निरनुबन्धग्रहणे च न सानुबन्धकस्य ... सानुबन्धकस्य ग्रहणं भवति' । अवर्ण इति किम् ?
ग्रहणं' तेनेहापि न भवति-शिर इच्छति-शिरस्यति, तथा नासिक्यो वर्णः।। १०० ॥
हस्तिनः शिर इव शिरो यस्य-हस्तिशिराः, तस्यापत्यं
स्त्री बाह्वादित्वादिशि "शीर्षः स्वरे तद्धिते" (३. २. 30. श०म० न्यासानुसन्धानम्--ये । नस् नासिकाया | १०३. ) इति शिरसः शीर्षादेशे "अनार्षे वृद्धेऽणिवी०" 10
इत्यनुवर्तते, तथा च सम्पन्नं सूत्रार्थमाह--नासिकाशब्दस्ये. (२. ४. ७८. ) इत्यादिना चेनः ध्यादेशे-हास्सिशीर्ष्या,
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१०४
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१०१-१०२
एवं पैलुशीया; अत्र व्य-शीर्षादेशयोः स्थानिवद्भावात् [ व्याख्यायताम , "हास्तिशील" इत्यत्र च न शिरःसम्बन्धी शीर्षनादेशः स्यात् । शिरस इति चादेशेन संबध्यते न ! 'य'-कारोऽपि तु हस्तिशिरः सम्बन्धीति तथा व्याख्यानेप्रत्ययेन, तेन हास्तिशीषिरित्यादौ समाससंबन्धिन्यपि तद्धिते | नैवात्र वारणमिति न निरनबन्धग्रहणे सानुबन्धस्य न उत्तरसूत्रेण शीर्षादेशो भवति ॥ १०१॥
ग्रह्णमित्यस्येदमुदाहरणमिति चेदत्राह--शिरस इति चादेशेन सम्बध्यते, न प्रत्ययेनेति----तथा च प्रत्ययेन 40 सम्बन्धाभावान्न तथा व्याख्यानमिह सम्भाव्यते । प्रत्ययेन
सम्बन्धाभावे प्रमाणं च लक्ष्यानुसारिव्याख्यानमेव, तदेवाह-- 5 श० म० न्यासानुसन्धानम्-शिरस०। ये' इत्यनु
तेन हास्तिशापिरित्यादाविति, अयमाशयः--इदमेव 'शिरसः' वर्तते, तथा चार्थमाह--शिरस् शब्दस्ये यादिना । शीर्षण्यः ।
इति पदमने "शीर्षः स्वरे तद्धितस्य" इति सूत्रेऽप्यनुवर्तते, स्वर इति----देहांशत्वाद् यः, शीर्षन्नादेशे सति "नोऽपदस्य
तत्र यदि शिरः सम्बन्धिनि स्वरादौ तद्धिते परे इति 45 तद्धिते" [ ७.४. ६१. ] इत्यन्त्यस्वरादिलुकि प्राप्ते “अनो
व्याख्यास्यते तहि हास्तिशीषिरित्यादि तदीयमुख्योदाहरणाऽटये ये" [७. ४. ५१.] इति निषेधः । शीर्षण्यं तैलमित्यत्र
नामपि न सिद्धिः स्यात् इह प्रत्ययेन सम्बन्धः, तत्र चादेशनेति 10 प्राण्यङ्गत्वाद यः । 'ये' इत्यस्यानवत्तिरावश्यिकेत्याह---
वैषम्यस्य दुरुपपादत्वाच्च, तत्र च केवलस्य शिरशब्दस्य अ इत्येवेति । व्यावर्त्यमाह--शिरस्तः, सशिरस्कः, ।
+ स्वरादिप्रत्ययपरत्वसंभावनाभावादेव तथाऽ [आदेशेनात्वयो] इति-पूर्वत्र पञ्चम्यन्तात् पित् तस, परत्र शिरसा सह
| स्तु, प्रकृते प्रत्ययेनान्वये किं बाधकमिति चेत् ? न--ऐक- 50 वर्त्तते इति विग्रहे बहुव्रीहिः सहस्य सादेशः, "शेषाद् वा"
रूप्येण व्याख्यानेऽपि लक्ष्यसिद्धौ सत्यां वैषम्येण व्याख्याने [७.३.७५.1 इति कच्, 'ये' इत्युक्तत्वादेव तसि कचि बीजाभावात् ॥ ३.२.१०१. ॥ 15 च शिरसः शीर्षन्नादेशो न भवति । यरूपपर्यवसायिनि . सानुबन्धे यप्रत्ययेऽपि न भवतीत्याह---निरनुबन्धप्रणे
न सानुबन्धस्येत्यादिना, शिर इच्छति शिरस्यति शिरस् । शब्दादिच्छार्थे क्यन्, तदीयसकारस्य सानुबन्धत्वेनेह ग्रहणं
केशे वा ॥ ३. २. १०२॥ न भवतीति शीर्षन्नादेशो न भवति । सानबन्धग्रहणाभावस्य
त० प्र०--शिरसः केशविषये यप्रत्यये परे 'शीर्षन्' 51 20 फलान्तरमप्याह-तथा हस्तिनः शिर इव शिरो यस्येति- इत्यादेशो वा भवति । शिरसि भवाः-शीर्षण्याः केशाः
केवलस्य शिरसोऽपत्यार्थेन सम्बन्धासम्भवात् समासाश्रय- | शिरस्या:-केशाः। केचित्तु-"इल्वला मगशीर्षस्य शिरणम, तस्य हस्तिशिरसोऽपत्यं स्त्रीत्यर्थे "बाह्वादिभ्यो स्यास्तारकाः स्मृताः” इति प्रयोगदर्शनात् केशादन्यत्रापि गोत्रे" [ ६. १. ३२.] इती "शीर्षः स्वरे तद्धिते" | विकल्पमिच्छन्ति, शाखादियप्रत्यये च 'शीर्षन्' इति नेच्छ
[ ३. २. १०३. ] इत्यग्रिमसूत्रेण शीर्षादेशः, "अनार्षे | न्त्येव-शिरसस्तुल्यः शिरस्यः, शाखादित्वाद् यः ॥ १०२ ॥ 60 25 वृद्धेऽणिज्ञो." [२. ४. ७८. ] इति अ: ष्यादेशः, तत्र षकार इत्, शीर्षशब्दाकारस्य "अवर्णवर्णस्य” [ ७. ४. ६८. ]
rwwwwrrrrrrrrrrrrrrrrrrm इति लोपः, स्त्रीत्वादाप्----हास्तिशीयेति भवति, इह-। श०म०न्यासानुसन्धानम् --केशे० । 'शिरसः शीर्षन्'
ध्यादेशस्य स्थानिवद्भावेनेज निष्ठं प्रत्ययत्वमानीय | इत्यनुवर्तते । 'केशे' इति नोत्तरपदविशेषणमपि 'तु' यप्रत्यय... शीर्षादेशस्य स्थानिवत्त्वेन च शिरः शब्दत्वं गृहीत्वा यत्वस्य | स्यैव व्याख्यानात्, तदाह--- केशविषये यप्रत्यये परे इति । 10 स्वतः सिद्धत्वेनानेन शीर्षनादेशो न भवति, यतः ध्या- शिरसि भवाः इति--देहाशत्वाद् यः, विकल्पेनादेशः ।
देशोऽपि सानुबन्ध एवेति । ननु यथा “पदः पादस्या- मतान्तरसिद्ध विषयान्तरेऽपि विकल्पमाह--केचित् वित्या- 65 च्यातिमोपहते" [ ३. २. ९५. ] इति प्रकरणे पठिते | दिना । 'मृगशीर्षस्य शिरस्यास्तारकाः इल्वलाः स्मृताः' "हिम-हति-काषि-ये." [ ३. २. ९६. ] इति सूत्रे द्विपाद्यं ! इत्यन्वयः, तथा च तारकाविषयेऽयं प्रयोग इति केशविषय
त्रिपाद्यमित्यादी प्रवृत्त्यभावाय 'पादसम्बन्धिनि ये' इति त्वाभावः स्पष्ट एव, इत्थं च "शिरसः शीर्षन्" [३. २. . 35 व्याख्यानं कृतं तहापि शिरः सम्बन्धिनि 'ये' इत्येव । १०१.] इति पूर्वसूत्रेण नित्यमेव शीर्षन्नादेश उचितः,
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[पाद-२, सूत्र-१०२-१०३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१०५
दभावकरणाच्च केशादन्यत्रापि तद्वैकल्पिकत्वमिष्टमित्या- । “अवर्णवर्णस्य” [७. ४. ६८.] इत्यवर्णस्य लोप आदिरात्येव । क्वचिच्च सर्वथा शीर्षन्नादेशाभाव एव तेषां मते, । स्वरवृद्धिः । एवं-- स्थौलशीपिरिति ----स्थूलं शिरो यस्य .. इत्याह-शाखादियप्रत्यये इति । शाखादित्वनिबन्धनयप्रत्यये स-~-स्थूलशिराः, तस्यापत्यमित्यर्थः । पीलुर्वक्षः, तत्फलं व सर्वथा शीर्षन्नादेशाभावमेव ते इच्छन्ति, तन्मतसिद्धं प्रयो- | पीलु, तद्वत् शिरो यस्य स पीलुशिराः, तस्यापत्यं--- गमाह--शिरसस्तुल्यः --शिरस्यः इति, स्वमते चात्रापि । पैलुशीर्षिः। मृगशिरसा एतन्नाम्ना चन्द्रयुक्तेन चन्द्रस्थिशीर्षण्य इत्येव प्रयोग उचितः । प्रत्ययविधायक सूत्रमुद्दिशति- तिमता नक्षत्रेण, युक्ता पौर्णमासी---मार्गशीर्षी मृगशिरः शाखादित्वाद् यः इति---"शाखादेर्यः" [७. १. ११४.] ! शब्दात् “चन्द्रयुक्तात् ‘काले०" ([ ६. २. ६. ] इति अण् । इति तस्य तुल्य कः “संज्ञा-प्रतिकृत्योः” [ ७. १. १०८.] ' प्रत्ययः, शीर्षादेशः, आदिस्वरस्य वृद्धिः, स्त्रीत्वान्डीः ।
इति प्रकरणपठितेन सूत्रेण य: प्रत्यय इत्यर्थः । यद्यपि रस इदं-स्थौलशीर्षमिति--"तस्येदम्" [६. १. 0 "शिरस्यास्तारकाः' इतिवद् वैकल्पिकत्व-स्वीकारेऽपि पाक्षिकः | १६० ] . इति अण् । शिरसि कृतं-- शेषमिति---"तत्र शिरस्य इति प्रयोगः स्यादेव, तथापि तेषां मतेऽत्र सर्वथा ! कृत-लब्धक्रीत-सम्भूते" [ ६. ३. ९४. इत्यण् । शिरसा तदभाव एवेष्ट इति विशेष: ।। ३. २.१०२ ।।
तरति-शोर्षिकः इति---तरतीत्यर्थे "नौ-द्विस्वरादिकः” :45 [६.४.१०.] इति इकः, शीर्षादेशः। स्वर इति किमिति
सामान्येन तद्धिते परत एव विधीयताम्, ये च पूर्वेणापशीर्षः स्वरे तद्धिते ॥ ३.२. १०३ ॥ वादभूतेन बाधोऽन्यत्रानेन 'शीर्षादेशो भविष्यतीति स्वरे
त० प्र०-शिरसशब्दस्य स्वरादौ तद्धिते परे 'शीर्ष' इति व्यर्थमित्यर्थः । प्रत्युदाहरति--शिरस्कल्पः इति-ईषद15 इस्ययमादेशो भवति। हस्तिशिरसोऽपत्यं-हास्तिशीषिः, ! परिसमासं शिरः ----शिरस्कल्पः “अतमबादेरीषदपरिसमाप्ते ,
एवं-स्थोलशीषिः, पैलुशीषिः, मृगशिरसा चन्द्रयुक्तेन ! कल्पप्---देश्यप्---देशीयर" [ ७. ३. ११ ] इति कल्पप, युक्ता-मार्गशीर्षी पौर्णमासी, स्थलशिरस इदं-स्थौलशीर्षम, | स च व्यञ्जनादिरिति शीपादेशस्तत्र नेष्ट:, 'स्वरे' इत्यस्या. शिरसि कृतं-शैर्षम, शिरसा तरति-शोषिकः। स्वर इति भावे च स्यादेवेति तद्वारणाय 'स्वरे' इत्यावश्यकम । नन्वेवं किम् ? शिरस्कल्पः। तद्धित इति किम् ? शिरसा, शिरसे; ] 'स्वरे' इत्येवोच्यताम्, 'प्रत्यये' इति च विशेष्यमध्याहार्यम्, स्थूलशिरसमाचष्टे स्थलशिरयति । कथमिल्वला मगशीर्ष- । तथा च न शिरस्कल्प इत्यादावतिव्याप्तिः, नापि हास्ति
हास्ति- 55 स्येति ? शीर्षशब्दः प्रकृत्यन्तरमस्ति-शीर्षच्छेद्यं परिच्छि- शीषिरित्यादावव्याप्तिरिति 'तद्धिते' इति व्यर्थमित्याशते । ोति, अनेनैव च सिद्ध उक्तविषये शिरसः प्रयोगनिवत्त्यर्थं तद्धित इति किमिति। न केवलं तद्धितप्रत्यय एव स्ववचनम् ॥ १०३॥
रादिः, स्यादिविभक्तिष्वपि स्वरादयः प्रत्ययाः सन्ति, तत्रापि शीर्षादेशापत्तिः, न च तवेष्टः स इत्याह प्रत्य
दाहरणेन--शिरसेति--शिरस्शब्दस्य टायां रूपमिदम्, , श० म० न्यासानुसन्धानम् --शीर्षः । “सप्तम्या
अत्र शीर्षादेशनिवृत्त्यर्थमावश्यकं तद्धिते' इति, इति भावः। आदिः" [७.४.११४. ] इति परिभाषासूत्रानुसार-सप्तम्य
न केवलं स्यादिविभक्तय एव स्वरादयोऽतिप्रसक्तिन्तस्य विशेष्यस्य विशेषणं तदादिबोधकमिति परिभाष्यते.
विषया नामधातुप्रत्यया अपि नाम्नो विहिताः स्वरादयः, तथा च तद्धिते' इति सप्तम्यन्तं विशेष्यम्, तस्य विशेषण
सन्ति, तेऽपि भविष्यन्त्यतिप्रसङ्ग विषया इत्याह-स्थलभूतं 'स्वरे' इति पदं तदादिबोधकमिति स्वरादावित्यर्थक | शिरसमावष्टे' इति---"णिज् बहुलं नाम्नः कृगादिषु" 65
सम्पद्यते, तदाह--शिरसशब्दस्य स्वरादौ तद्धिते परे । [ ३. ४. ४२. ] इति णिचि "श्यन्त्यस्वरादेः" [ ७.४, ४३.] 30 इति । उदाहरति--हस्तिशिरसोऽपत्यमिति--हस्तिनः । इत्यन्त्यस्वरादेलुकि--स्थूलशिरयतीति---अत्रापि स्वरादि
शिर इव शिरो यस्य स हस्तिशिरा इत्युक्तं प्राक्, तस्या- प्रत्ययसत्त्वात् शीर्षादेशः स्यात्, तन्निवृत्तिरपि तद्धिते' पत्यमित्यर्थे "बाह्वादिभ्यो गोत्रे" [ ६.१.१२९.1 इति / इत्यस्य फलमिति भावः । विनापि स्वरादितद्धितप्रत्ययं इञि स्वरादितद्धितपरत्वसत्त्वात् प्रकृतसूत्रेण शीर्षादेशे शीर्षशब्दप्रयोगो दृश्यते स कथमुपपद्यत इति पृच्छति--कय- 70
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१०६
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१०३.१०५]
मिल्वला मृगशीर्षस्ये ते---"इल्वला मृगशीर्षस्य शिरस्या- [ मस्येति विग्रहः, बहुव्रीहिसमासे सति उदकस्योदादेशः। 35 स्तारकाः स्मृताः” इति पूर्वोदाहृतादरणीयवाक्ये मृगशीर्ष- एते प्रयोगाः सर्वे यौगिका एव, तदाह---अनामार्थ वचन
भक्तौ परतः कथं शीर्षादेश इत्यर्थः । उत्तर- | मिति----'नामभिन्नविषये प्रवृत्त्यर्थमिदं सूत्रमिति भावः । यति-शीर्षशब्दः प्रकृत्यन्तरमस्तीति---शिरः पर्यायः । उदधिरिति समुद्रनामस्वपि पठयते, तत्र कथमुदकस्योदादेश शीर्षशब्दोऽप्यस्ति, स एवात्र प्रयुक्तो न तु शिरः शब्द- | इत्यादिशङ्कायामाह--नाम्न्युत्तरेण सिद्धमिति-"नाम्न्युस्थानीय इति भावः। प्रकृतमथं पोषयितुं शीर्षशब्दप्रयोग | त्तरपदस्य च" इति वक्ष्यमाणेन सूत्रेणैव तत्र सिद्धिरिति 40 प्रमाणयति 'शीर्षच्छेयं परिच्छिद्य इति---शीर्षच्छेदमर्ह- | न तदर्थमेतत्सूत्रावश्यकतेति भावः ॥ ३. २. १०४. ।। तीत्यर्थे "शीर्षच्छेदाद् यो वा" [ ६.४. १८४. 1 इति यः,
तादशं जनं परिच्छिद्य--निश्चित्येति क्वाचित्क: प्रयोगः, 10 तत्र शीर्षच्छेदशब्दः शिरश्छदार्थकः शिरःपर्यायशीर्षशब्द
वैकव्यञ्जने पूर्ये ॥ ३. २. १०५॥ वशेनैव प्रयुक्त इत्यर्थः । इत्थं च प्रकृतसूत्रस्य त०प्र०---उदकशब्दस्य पूरयितव्यवाचिन्येकव्यञ्जन - वैयर्थ्यमायातम, विनापि प्रकृतसूत्रं स्वाभाविकेन शीर्ष- संयक्तव्यञ्जनादावत्तरपदे उदादेशो वा भवति। उदकुम्भः, शब्देनैव हास्तिशोषिरित्यादिसिद्धिरस्त्येवेति शङ्कामुत्थाप्य | उदककुम्भः; उदघटः, उदकपटः: उदपात्रम, उदकपात्रम। 45
समाधत्ते-'अनेनैव च सिद्धे उक्तविषये शिरसः प्रयोग- व्यञ्जन इति किम् ? उदकामत्रम् । एकेति किम् ? उदव15 निवृत्त्यर्थं वचनमिति--स्वरादौ तद्धिते शिरः शब्दस्थाने | स्थालम् । पूर्य इति किम् ? उदकपर्वतः, उदकदेशः ॥१०५॥
शीर्षशब्द एव प्रयोक्तव्यो न शिरः शब्द इति प्रयोगनियमार्थं प्रकृतसूत्रमिति भावः ।। ३. २. १०३ ।।
श० म० न्यासानुसन्धानम्---वैक० । वा एक
व्यञ्जने' इतिच्छेदः तत्र 'एकव्यञ्जने' इति 'उत्तरपदे' उदकस्योदः पेष-धि-वास-वाहने ॥३.२.१०४॥ इत्यस्य विशेषणम्, “सप्तम्या आदिः" [ ७. ४. ११४ ] 50 त०प्र०-उदकशब्दस्य पेषमादिषुत्तरपदेषु 'उन्'
इति परिभाषणात् तदादिबोधः, एकमसंयुक्तं व्यञ्जनमादी 20 इत्ययमादेशो भवति । उदकेन पिनष्टि-उदपेष पिनष्टि
| यस्य तादृशे उत्तरपदे इत्यर्थः, उत्तरपदय॑व च विशेषणं तगरम, उदकंघीयतेऽस्मिन्निति-उदधिः-घटः, उदकस्य वास:--
'पूर्ये' इति, तथा च यादृशोऽर्थः सम्पन्नस्तमाह वृत्तिकृत्उदवासः, एवम्-उदवाहनः । अनामार्थं वचनम्, नाम्न्यु
उदकशब्दस्य पूरयितव्यवाचिनि इत्यादि । एकव्यञ्जने' तरेणैव सिद्धम् ॥ १०४ ।।
इत्यस्यार्थमाह-असंयुक्तव्यकजनादाविति, पूर्ये उत्तरपदे 5 इति सामानाधिकरण्येनान्वयो न घटते, यतो नोत्तरपदं
पूरणीयमपितृत्तरपदार्थभूतो घटादिरेव, अत एव 'पूर्ये' श०म० न्यासानुसन्धानम्--उदक। पेषंधिवास- इत्यस्यार्थपरतां व्याचख्यौ--पूरयितव्यवाचिनीति, तथा 25 वाहनान्युत्तरपदस्य विशेषणानि, तथा च तद्रूपे उत्तरपदे | च पूर्ये यदुत्तरं पदं तस्मिन्निति रीत्या सम्बन्धो योज
उदकशब्दस्योदादेशः प्रकृतसूत्रविधेयः । उदाहरति--उदकेन | नीयः । उद्कुम्भः इति--उदकस्य कुम्भ इति सम्द- 60 पिनष्टीति--"स्वस्नेहनार्थात् पुष-पिषः" [ ५. ४. ६५.] न्धसामान्यषष्ठया, उदकेन पूरणीयः कुम्भ इति पूरणार्थं इति णम्, उपपदसमासः, पेषमिति णमन्ते उत्तरपदेऽनेनो- वृत्तावन्तर्भाव्य करणतृतीयान्तेन वा समासः, उदकशब्दस्य दकशब्दस्य उदादेशः । उदकं धीयतेऽस्मिन्निति दधातेरा- पाक्षिक उदादेशः, एवं सर्वत्र । पदकृत्यमाह--व्य
धारे ""व्याप्यादाधारे" [ ४. ३. ८८. इति किः, आतो | जन इति किमिति----यद्यपि व्यञ्जनरूपविशेष्याभावे 30 लोपे वि-शब्दो निष्पद्यते, उपपदसमासे सति अनेनोदक- | एकशब्दो विशेषणमपि व्यर्थ एव निविशेष्यस्य तस्या- 65 'स्योदादेशः । वासशब्दे उदाहरति---उदकस्य वासः इति----किञ्चित्करत्वात् तथा ऽप्यवयवद्वारा समुदाये प्रश्नः-- वसनं वासो भावे घन, उदकस्य वास इति षष्ठीसमासे | 'एकव्यञ्जने' इत्येव किमर्थमिति तत्र विशेषणांशफलस्य सति अनेनोदकस्योदादेशः । उदवाहनः इति । उदकं वाहन- पृथगेव वक्ष्यमाणतया विशेष्यांशमात्रफलं प्रथम प्रदर्शनीय
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[पाद-२, सूत्र-१०५-१०७]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
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मित्याशयेन ध्यंजने इति किमित्येतावदेव पृच्छति । उदकेनोपसिक्त ओदन इत्यर्थः, उपसेकक्रियायाश्च वृत्ता- २९ उदकामत्रमिति-अमनमपि पात्रमेव, तदपि पूरणीयमिति । वन्तर्भावात् तद्द्वारा उदकेन सहौदनस्य सामर्थ्यम्, मयूरपूर्ये उत्तरपदे सत्यपीह नेष्यते उदादेशः, व्यञ्जनग्रहणा- | व्यंसकादेराकृतिगणत्वात् समासः, उदादेशो - वैकल्पिकः,
भावे च स्यादेव। एकति किमिति----अस्तु व्यञ्जनादावुत्तर- एवम्--उदसक्तुरित्यत्रापि, उदकेनोपसिक्तः सक्तुरिति 5 पदे इत्येवार्थः, तावताऽप्यव्याप्त्यतिव्याप्तिपरिहारादिति । विग्रहे उपसेकक्रियाद्वारंवोदकेन सह सक्तोः सामर्थ्यम। 'एक' इति व्यञ्जनविशेषणं व्यर्थमित्याशयः । प्रत्युदाह- । उदविन्दरिति षष्ठीसमासः । उदकस्य वज्रः----उदवः 40 रति--उदकस्थालमिति --स्थालीशब्द एव पात्रवाची उदकसंभतो मण्यादिजातीयः पदार्थः वज्रत्वेन प्रसिद्धो वा श्रूयते स्म, प्रकृतप्रयोगाच्च तस्य नपुसकत्वमपीति प्रतीयते। मेघसम्भतोऽशनिः । उदभारः उदकस्य भारः । उदहारःउदक अन्नपात्रे नपुंसक प्रयज्यते लोकेऽपि, पाकपात्रे च स्त्री
हरतीति सः , “कर्मणोऽण्" [ ५.३.१४.] इत्यण, हारशब्दे 10 लिङ्गम्, तथोदकपात्रेऽपि क्वचिन्नपुंसकं प्रयुज्यत इत्यस्मात् । परे उदकस्योदादेशः । उदकवीवधः वीवधशब्दोऽव्युत्पुनः,
प्रयोगादवगम्यते, स्थालशब्दश्चानेकव्यञ्जनादिरिति तस्मि- । उभयतोबद्धसिक्ये स्कन्धबाझे काष्ठे----पथिपर्याहारे वर्तते 45 श्रुत्तरपदे उदकस्योदादेशो नेष्टः, तद्वारणायैकग्रहणमावश्य- उदकस्य वीवध: उदकाहरणार्थः पथिपर्याहार इति तदर्थः, कमिति भावः । पूर्य इति किमिति-उदकस्य प्रायः पूर्येणैव षष्ठीसमासः । उदगाहः इति---उदकस्य गाहो गाहनमुदक
सामर्थ्यमिति मत्वा प्रश्नः । उदकपर्वतः इति----उदकस्य ! गाहः। सर्वेषामुत्तरपदानामेकव्यञ्जनादित्वेन पूर्वेणैवोदादेश15 पर्वतः, उदकबहुल: पर्वत इत्यर्थः । एवम्-उदकदेशः सिद्धिरिति शङ्कायामाह- अपर्यार्थो यत्नःइति, अयमाशयः--
इत्यत्रापि स एवार्थः---उदकबहुलो देश इति, अत्र पर्वत- पूर्वसूत्रं पूर्य उत्तरपदे प्रवर्तते, मत्थादीनां च पूरयितव्य- 50 देशयोः पूरयितव्यवाचित्वाभावेन तयोः परत उदकशब्द-वाचित्वाभावः स्पष्ट एवेति तत्र पूर्वसूत्रेण न प्राप्तिरिति स्योदादेशो नेप्टः, तद्वारणायेह पूर्य इत्यावश्यकमिति । तदर्थमयं सत्रारम्भरूपो यत्नः कृत इति भावः ॥३.२.१०६.। भावः ॥ ३.२.१०५. 11
नाम्न्युत्तरपदस्य च ॥३.२.१०७॥ 20 मन्थौदन-सक्तु-बिन्दु-वज्र-भार-हार- त० प्र०-उदकशब्दस्य पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च नाम्नि
वीवध-गाहे वा ।। ३.२.१०६॥ । संज्ञायां विषये 'उद' इत्ययमादेशो भवति । उदमेघो 55 त० प्र०-मन्थादिष्तरपदेषदकशब्दस्योदादेशो वा नाम-यस्यौदमेधिः पुत्रः, उदवाहो नाम-पस्यौदवाहिः पुत्रः, भवति । उदमन्थः,उदकमन्थः; उदौदनः,उदकौदनः; उदसक्तुः,
उदपानं निपानम्, उदधिः समुद्रः । उत्तरपदस्थ-लवणोदः, उदकसक्तुः, उदबिन्दः, उदकबिन्दःउदवजः, उदकवजः कालीदः, क्षीरोद, एवंनामानः समद्राः; लोहितोदा. 25 उदभारः, उदकभारः; उदहारः, उदकहारः; उदवीवधः, क्षीरोदा नाम-नवी; अच्छोदम, सितोदम, अरुणोदम,
उदकवीवधः; उदगाहः; उदकगाहः, अपूर्यो यत्नः ॥१०६॥ लोहितोदम्, एवंनामानि सरांसि ।। १०७ ॥ 60
श० मन्यासानुसन्धानम्-मन्थी० । मन्थादय उत्तर- श० म० न्यासानुसन्मानम्-नाम्न्युः । पूर्वसूत्रः पदविशेषणानि, एषत्तरपदेष सत्सु उदकशब्दस्योदादेशो साधारण्येन पूर्वपदभूतस्योदकशब्दस्योदादेशो विहितः
विकल्पेन विधीयते प्रकृतसूत्रेण, तदाह--मन्थादिष्विति। अनेन च नाम्नि उत्तरपदभूतस्यापि चोदकशब्दस्योदादेशो 30 उदमन्थः इति--द्रवद्रव्यसंस्कृताः सक्तवो मन्थ इत्युच्यते, : विधीयते, तदाह---पूर्वपदस्योत्तरपदस्य चेति----तत्रोत्तर
उदकेन मन्थ इति विग्रह इति तत्त्ववोधिनीकृत् । उद- पदस्थस्यादेशस्थले उत्तरपदे इति न सम्बध्यते वयात्, 65 केन मथ्यते इति कर्मणि घभि "कारकं कृता" [ ३. १. । तथा च तत्रानैमित्तिक एवादेशः, तस्योत्तरपदस्थत्वमेव ' ६८. ] इति समास इति लघुन्यासकारः । वैकल्पिके । वा तत्र निमित्तम् । उदाहरति---उदमेको नाम यस्यौउदकस्योदादेशे--उदकमन्थोऽपि । उदौदनः इति--- ! दमेधिः पुत्र इति---उदकपूर्णो मेघ:-उदमेघः, तत्सादृश्यात्
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१०८
बृहद्वृत्ति-वृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१०७-१०९]
तादृशस्य कस्यचन पुरुषस्य संज्ञेयम्, तस्य संज्ञात्वमेव | नुवृत्तम्, तदाह--नामविषये ये पूर्वोत्तरपदे इति । लुक् 35 प्रमाणयति- यस्यौदमेधिः पुत्र इति, उदमेधः स्वयं प्रसिद्धि- | शब्दः कर्मणि क्विबन्तः, लुच्यत इति लुगिति व्युत्पत्तेः, मनाष्तोऽपि औदमेधेः प्रसिद्धथा तस्यापि तन्नाम्ना प्रसिद्धत्वं | तथा च ते लुच्येते-लुप्यते इति तदर्थः । देवदत्तः इति लुग
स्वीकार्यमेवेति भावः । एवमुदवाहशब्दस्यापि नामत्वमाह-- ! भावपक्षे समुदायोपस्थापक रूपम्, तत्रोत्तरपदभूतस्य दत्त5 उदवाहो नाम कश्चिद् यस्यौदवाहिः पुत्रः इति--उदकं शब्दस्य लोपे--देवः इति, पूर्वपदभूतस्य देवशब्दस्य लोपे
हतीत्युदवाहः “कर्मणोऽण्" [५.३.१४.] इत्यण, यौगिक- दत्तः इति रूपम् । एवं--सत्यभामेति समुदायोपस्थापकं 40 शब्दोऽप्ययं पुरुषविशेष रूढ इति तस्य नामत्वं तत्पूत्र-! वैकल्पिक रूपम, तत्रोत्तरपदस्य भामेत्यस्य लोपे स्त्रीत्वाप्रसिद्धया स्वीकार्यम् ! उदपानमिति उदकस्य पानमिति दापि--सत्येति, पूर्वपदस्य सत्येत्यस्य लोपे---भामेति ।
विग्रहः, पीयतेऽस्मिन्निति पानं जलपानस्थानम्, तदाह---- | अत्र स्वतन्त्रा अपि देव-दत्त-सत्य-भाम-शब्दा नामत्वेन प्रयु10 निपानमिति-कुपादिसमीपे पश्वादिजलपानार्थ स्थल- ज्यन्त एवार्थविशेषेषु, देवदत्तादिशब्दपूर्वोत्तरपदभूता अप्यनेन
विशेषो निर्मीयते, तदेव निपानमुदपानं बोच्यते । उदधि: सूत्रेण साध्यन्ते, एवं च किमर्थोऽयं शब्द इति कथं निश्चे- 45 समुद्रः इति--उदकं धीयतेऽस्मिन्नित्येव विग्रहः, समुद्रनाम
यमाकारसाम्यात् सन्देहस्य दुरत्वादित्यत आह शब्दसु प्रसिद्धो ऽयं शब्दः । पूर्वपदभूतस्योदक-शब्दस्य नाम्न्यु- साम्येऽपि प्रकरणादर्थविशेषनिर्णयः इति, अयमाशयः--
दादेशमुदाहृत्योत्तरपदभूतस्य तस्योदादेशोदाहरणमाह-- सत्यं देवदत्तादिबोधका देवादिशब्दास्त्रिदशादिबोधकाश्च 15 लवणोदः इत्यादिना; लवणं क्षारमुदकं यस्य स लवणोद | देवादि----शब्दास्तुल्यरूपा एव, किन्तु शब्दार्थसन्देहे सति
इति विग्रहे बहुव्रीहिसमासे उत्तरपदभूतस्योदकशब्दस्य | विशेषबोधकेषु----ताप्तयनिश्चायकेषु प्रकरणमपि पठ्यतेऽभि- 60 उदादेशः । कालोदः इति--कालं कृष्णवर्णमुदकं यस्येति यक्तः, तथाहि-- विग्रहः । क्षीरोदः इति--शीरमिवोदकं यस्येति विग्रहः ।
एषां शब्दाना नामत्वमाह....एवंनामान: समुद्राः इति । "संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता। 20 लोहितोदा इति लोहितं रक्तवर्णमुदकं यस्याः सेति विग्रहः । अर्थःप्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः ॥ १॥
क्षीरमिवोदकं यस्याः सा क्षीरोदा एते नदीनामनी इति सामर्थ्य मौचिती देशः कालो व्यक्ति: स्वरादयः । स्त्रीत्वादाप् । अच्छोदमिति--अच्छं निर्मलमुदकं यस्य शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥२॥” इति - 55 तत्; सितं शुक्लमुदकं यस्यं तत्-सितोदम्, अरुणभुदकं
इत्थं प्रकरणमपि' शब्दार्थसन्देहे निर्णायकमित्यवगमाद यस्य तत्-अरुणोदम्, लोहितमुदकं यस्य तत् लोहितोदम् ; एषामपि नामत्वमाह--एवं नामानि सरांसीति, अच्छोद
यत्र यादृशार्थस्य प्रकरणप्राप्तत्वं तत्र तादृशार्थस्यैव बोध सरसो वर्णनं कादम्बर्यां प्रसिद्धमेव, एवं सितोदादयोऽपि । शत
गो ! इति न शब्दार्थसन्देह इति ।। ३. २.१०८॥ क्वचिदाख्यानादौ प्रसिद्धाः शब्दाः सरोवाचकाः । एषु च। नित्यमेवोदकस्योदादेशः ॥ ३.२. १०७ ॥
30
व्यन्तरनवर्णोपसर्गादप ईप ॥३.२. १०६॥ ते लग्वा ॥३.२.१०८॥ __ त० प्र०--'द्वि-अन्तर्' 'इत्येताम्यामनवर्णान्तेभ्यश्चोप- 6 त०प्र०--नामविषये ये पूर्वोत्तरपदे ते लग वा भवतः।।
सर्पेभ्यः परस्य 'अप' इत्येतस्योत्तरपदस्य' 'ईप' 'इत्ययमादेशो देवदत्तः, देवः, दत्तः सत्यभामा, सत्या, भामा; शब्दसाम्येऽपि ।
-: भवति। द्विधा गता आपोऽस्मिन्निति-द्वीपम्, एवमन्तरीपम्, प्रकरणादेरर्थविशेषनिश्चयः॥ १०८ ॥
नीपम्, प्रतीपम्, समीपम्, अन्वीपम्, वोपम् । उपसर्गादिति । किम् ? शोभना आप:-स्वापः, पूजिता आपः-अत्यापः;
स्वती पूजायां नोपसगौं, अत एव समासान्तो न भवति। 65 -- श० म० भ्यासानुसन्धानम्-से। 'तत्' शब्दस्य ! अनवर्णेति किम् ? प्रापम्, परापम्, संश्लिष्टा आगता आपोप्रान्तोपस्थापकत्वेन प्रक्रान्ते पूर्वोत्तरपदे तदर्थः, नाम्नीत्य-। ऽस्मिन् समापो-देवयजनम् ॥ १०९॥
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[पाद-२, सूत्र-१०९-११० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१०६ ।
नं 45
श० म० न्यासानुसन्धानम्-द्वयन्तः । उत्तरपद- आपो यस्मिस्तत्---परापमित्यर्थः, समासादिः पूर्ववत् । स्येति सम्बध्यते। द्वि-अन्तरशब्दौ पूर्वपदभूतौ, अवर्णान्तभिन्ना अनवणेति पर्युदासेन अवर्णान्तभिन्नवदावर्णान्तभिन्नस्यापि उपसर्गाश्च, एतेभ्यः परस्याप्शब्दस्य 'ई' इत्यादेशोऽनेन | बोधादावर्णान्तोपसर्गात् परस्यापि अपो नादेश इति तदाह- 40 विधीयते, तदाह-द्वि अन्तर'इत्येताभ्यामित्यादि । विगृह- संश्लिष्टा आगता आपोऽस्मिन्निति-सम्-आ-पूर्वको5 णाति-द्विधा गता आपोऽस्मिन्निति । यस्यभूभागस्य द्वयोः
शब्द इत्यवर्णान्तभिन्नपूर्वको न भवतीति न भवती पार्श्वयोः समुद्रादिसम्बन्धित्य आपः सन्ति स [ भूभागः] ' आदेशः, अनवर्णेत्यस्याभावे च स्यादेवेति तद्वारणाय तदा'द्वीपम्' इति कथ्यते, नामत्वेन नित्यसमासत्वात् अस्वपद
वश्यकत्वमिति भावः । पाणिनीयास्तु--समा आपो यस्मिपि वपटे । दि अप 1 अपि विग्रहवाक्ये प्रयक्ते । निति विगह्रन्तीति, तन्मते नात्रोपसर्गपूर्वल एव तथापि पदान्तरस्यापि मध्ये प्रवेशादस्वपदविग्रहत्वं । देव-पूजास्थानम् ।। ३. २. १०९॥ 10 व्यवह्रियते। 'द्वि अप्' इत्यनयोर्बहुव्रीहिः ऋक्-पू:-पथ्यपोऽत्"
[७. ३. ७६. ] इत्यत् समासान्तः, 'अप्' इत्यस्यानेन 'ई' आदेशे-द्वीपमिति। प्रकृतं विग्रहमन्यत्राप्यतिदिशति---
अनोर्देश उप् ॥ ३. २. ११०॥ एवम्-अन्तरीपमित्यादिना, अन्तर्गता आपो यस्मिन् | त०प्र०-अनोः परस्यापो देशेऽभिधेये 'उप्' इत्ययमा
तत् अन्तरीपम्, निवृत्ता आपो यस्मिन्निति-नीपम्, प्रतिगता ! देशो भवति। अनुगता आपोऽस्मिन्-अनूपो देशः। देश इति 15 आपो यस्मिन्निति--प्रतीपम्, संगता आपो यस्मिन् तत्-- किम् ? अन्वीपं वनम् । कथं कूपः ?, सूपः ?, पृषोदरा- 50
समीपम्, अनुगता आपो यस्मिन् तत्----अन्वीपम्, विगता | दित्वात् ॥ ११०॥ आपो यस्मिन्निति वीपम्, सर्वत्र बहुव्रीहिसमासः, अत् समासान्तः पूर्ववत् । उपसर्गादिति किमित्ति-अन्तः शब्दसान्नि
ध्यादसत्त्ववचनस्याव्ययस्यैव पूर्वपदत्वेन ग्रहणमिति तथा- | श०म० न्यासानुसन्धानम्-अनो० । लक्ष्यक20 भूताश्च शब्दाः प्राय उपसर्गा एव सन्तीति 'उपसर्गाद्' चक्षुष्कतया आचार्याः प्रतिलक्ष्यमपि लक्षणं विदधति, तथा
इत्यस्याभावेऽपि नातिव्याप्तिरिति मत्वा प्रश्नः । उपसर्गा-च 'अनूप' शब्दसिद्धयर्थमिदं सूत्रम् । अप इत्यनुवर्तते, तथा दित्यस्याभावे च तद्विशषणीभूतस्यानवर्णपदस्यापि वैयर्थ्य- | च सूत्रार्थमाह---अनोः परस्यापो देशेऽभिधेये इति--- 55 मेवेति तदपि नास्त्येवेति विज्ञाय गतिपूर्वपदं समासं प्रत्युदा- अनुगता आपो यस्मिन्निति-पत्र देशे सर्वत्रापः सुलभाः
हरति-शोभना आप:-स्वापः इति अत्र विशेषणसमास:, ।। स देश इत्यर्थः, “जलप्रायमनपं स्यात्" इति कोशादपि 25 'सु' इत्यस्यापि क्वचिदुपसर्गत्वदर्शनात् कथमिदमुपसर्गा- ! तथा प्रतीतेः, यत्र वा देशे जलपूर्णदेश एवाधिकः शुष्क
दित्यस्य प्रत्युदाहरणमिति शङ्कायामाह---स्वती पूजायां ! स्थलमल्पं स देशः । देशादन्यत्र पूर्वसूत्रेण 'ई' एवेत्याह--- नोपसर्गाविति-"धातोः पूजार्थस्वति." [ ३. १. १.] देश इति किम् ? अन्वीपं वनम् इति---अनुगता आपो 60 इति सूत्रे पूजाथों स्वती पर्युदस्यते इति तयोर्नोपसर्गत्वमिति यस्मिन्नित्येव विग्रहः । अनुपूर्वादन्यत्रापि देशादन्यत्रापि च
प्रत्युदाहरणत्वं सम्भवतीति भावः । अनुपसर्गयोः पूजार्थयोः । दृश्यते क्वचिदुपादेशः स कथमुपपद्यत इत्याशङ्कते-~30 स्वत्योः सत्त्वादेवात्र समासान्तोऽत् न भवतीत्याह-- | कथं कूपः, सूपः, यूपः ? इति-----ईषत् आपो यत्र
अत एव समासान्तो न भवतीति---"पूजास्वतेः प्राक् टात्" स कूपः, सुपेया आपो यत्र स सुपः, योतीति युत, युत आपो [७. ३.७२.] इति सूत्रेण पूजार्थस्वतिभ्यां परादुत्तरपदात् यत्समीपे स यूप इत्यादिविग्रहे एषां सिद्धिरित्यभिमानेनात्र 65 समासान्तस्य निषेधादिह स न भवतीति भावः । अस्तु ! कथमुपादेश इति प्रश्नः । उत्तरयति-पृषोदरादित्वादिति
'उपसर्गाद्' इति, तस्य अनवर्णेति विशेषणं किमर्थमिति | नैते व्युत्पन्नाः शब्दा अपि तु पृषोदरादित्वाद् यथाश्रुता 35 पृच्छति---अनवणेति किमिति । तदभावेऽवर्णान्तादुपसर्गात् एव वर्णलोप-वर्णविकारादिना निपात्यन्त इति नैते प्रकृत
परस्यापि 'अप' शब्दस्य ईपादेशः स्यादित्याह---प्रापम्, । सूत्रव्यभिचारस्थलानि । यद्यपि समुपलभ्यमानपृषोदरादिपरापमिति-गता आपो यस्मिस्तत्--प्रापम्, परागता | गणे एषां पाठो नोपलभ्यते, तथापि "पृषोदरादयः" 70
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११०
अहवृत्ति-पृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र. ११०-१११]
[ ३. २. १५५.] इति सूत्रे वहुवचननिर्देशस्याकृतिगणार्थत्व-: शेषणं--खितीति, तत्र खितः प्रत्ययस्य साक्षादुत्तरपदत्वास्योक्तत्त्वादनुक्तानामपि संग्रहो बोध्य एव, तथा चापठि- संभवादाह--खित्प्रत्ययान्ते इति-यद्यपि 'उत्तरपदाधिकारे 35 तानामपि शब्दानां सिद्धिप्रकारः कथितः----
| प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणं न" इति ज्ञापितं प्राक, तथापीह "वर्णागमो वर्णविपर्यश्च, द्वौ चापरी वर्णविकारनाशौ। यथा तदन्तग्रहणं तथा वक्ष्यति स्वयमेवाने, पूर्वमपि धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं च सूचितं तत् । यथासंभवं हस्वश्चेति-पत्र ह्रस्व
भवनयोग्यताऽस्ति तत्रैव ह्रस्वो न तु सर्वत्रेत्यर्थः । यद्यपि निरुक्तम् ॥” इति ।
पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्त्या ह्रस्वस्यापि ह्रस्वविधाने बाध- 40 व्याख्यास्यते चेदं पद्यं तवैव, इवं च नात्रोपादेश इति ।
काभावस्तथापि नाथिका शास्त्रप्रवत्तिरस्त्वित्यभिप्रायेणन व्यभिचार इति ।। ३. २. ११०।।
। एवमुक्तम् । उदाहरति-ज्ञमात्मानमिति–जानातीति
rrrrrrrr-शः “नाम्युपान्त्य-प्री-क-ग-ज्ञः कः" [ ५. १. ५४.] इति कः, खित्यनव्यया-रुषो मोऽन्तो
। आलोपः, ज्ञमात्मानं मन्यत इत्यर्थे “कर्तुः खश्" [५.१.
११७. ] इति खश, दिवादित्वात श्यः, उपपदसमासे 'ज्ञमन्य' 45 10 ह्रस्वश्च ॥ ३. २. १११॥
इति स्थितावनेन मोन्तः, हस्वस्य स्वत एव विद्यमानत्वान्न त० प्र०--अनव्ययस्य-अर्थात् स्वरान्तस्यारुषश्च सः । एवं---पण्डितमात्मानं मन्यत इति पण्डितंमम्यः,सदखित्प्रत्ययान्ते उत्तरपदे मोऽन्तो भवति, यथासंभवं ह्रस्व- ! सद्विवेकशालिनी प्रज्ञा-पण्डा, सा संजाताऽस्यति पण्डितः इचान्तादेशो भवति । ज्ञमात्मानं मन्यते-जंमन्यः, पण्डित- "तदस्य सञ्जातं तारकादिभ्य इतः" [ ७.१. १३८. ] मन्यः, ममन्यः, खट्वंमन्या, महंमन्यः, रात्रिमन्यमहः, इतीतः, खशादिः पूर्ववत । धमन्यः इति---क्षमामात्मानं 50 बुणिमन्यः, ग्रामणिमन्यः, वघुमन्यः, खलपुंमन्यः; क्षेमकरः,
मन्यत इति विग्रहः, इह ह्रस्वोऽपि माशब्दस्य दीर्घान्तमेधंकरः, आढभविष्णुः, आढघंभावुकः, सुभगकरणम्, त्वात । खटवंमन्या खट्वामात्मानं मन्यते या सा, इहापि आशितंभवो वर्तते, मितंगमः, विहंगमः, पतङ्गः। परत्वात् । ह्रस्वः, स्त्रीत्वादाप् । एवं महंमन्यः इत्यपि, महान्तमात्मानं पंवभावो ह्रस्वत्वेन बाध्यते-कालिमन्या, हरिणिमन्या,
मन्यत इत्यर्थे डान्तस्य ह्रस्वः ।रात्रिमन्यमहः रात्रिमात्मानं अरुस-अरुंतुदः। खितीति किम् । पण्डितमानी, सुभग- मन्यते. रात्रिसदशान्धकारादिवदहमपीति मन्यत इति 55 20 मानी। अमव्ययेति किम् ? दोषामन्यमहः, दिवामन्या
L, भावः । द्रुणिमन्यः इति-द्रुणीमात्मानं मन्यत इति विग्रहः, रात्रिः । अव्ययप्रतिषेधात् खिति तदन्तग्रहणम्, न
द्रणी कच्छपी। ग्रामणिमन्यः ग्रामणीमात्मानं मन्यते, ग्राम शव्ययात् परः खित्संभवति । अरुःशब्दोपादानादनव्ययस्य !
नयतीति--ग्रामणीमिनायकः, अग्रामनायकोऽपि ग्रामव्यञ्जनान्तस्य मो न भवति-गीमन्यः। *स्वरस्य ह्रस्व
नायकमात्मानं मन्यत इत्यर्थः । वधुंमन्यः वधूमात्मानं दीर्घ-'लुताः;* इति ह्रस्वः स्वरस्यैव । कृदग्रहणे सति
मन्यते, तद्वत् पराधीनाचरण इति भावः । खलं--धान्यादि 60 25 (स) गतिकारकस्यापि ग्रहणात्-'कूलमुद्रुजः, कूलमुद्रहः',
निष्पावनस्थानं, पुनाति--कार्ययोग्यं करोतीति खलपूः, इत्यत्रापि भवति ॥१११॥
तमात्मानं मन्यत इति--खलपुंमन्यः । द्रुणिमन्यादारभ्यात्र mmmmmmmmmmmmm~~~~~~~~~~rmi पर्यन्तं सर्वत्र ह्रस्वोऽपि । क्षेमकरः क्षेमं करोतीति विग्रहे
श०म० न्यासानुसन्धानम्-खित्य० । आदेशप्रक- | "क्षेमप्रिय-मद्र-भद्रात् खा-ऽण्" [ ५. १. १०५. ] इति खः । रणं परिसमाप्यागमप्रकरणमारभतेऽनेन सूत्रेण । तत्रानव्ययेति आत्यंभविष्णुः अनाढय आढयो भवति तच्छील इति 65
पर्युदासोऽव्ययभिन्नस्य तत्सदृशस्य नाम्नः संग्राहकः, तथा : विग्रहे "नग्न-पलित-प्रिया-इन्ध." [ ५. १. १२७. ] इति 30 चारुषोऽप्यनव्ययत्वेनैव सिद्धिरिति तस्य पृथक्कथनेना- खिष्णुः, गुणावादेशयोरनेन मोन्तः, अत्रैव विग्रहे खुकत्रि
व्ययभिन्नस्य स्वरान्तस्य ग्रहणमित्याह--अनन्ययस्यार्थात् वृद्धावावादेशे-आढयंभावुकः इति । सुभगंकरणमितिस्वरान्तस्येति-अरुः शब्दस्य पृथक्कथनसामर्थ्यादेव स्वरान्त-! असुभगः सुभगः क्रियतेऽनेनेति विग्रहे "कृगः खनट् करणे" स्येत्यर्थस्य लाभ इति भावः । 'उत्तरपदे' इत्यनुवृत्तम्, तद्वि- । [५. १. १२९] इति खनट् । आशितंभवो वर्तते आशितस्य 70
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[ पाद-२, सूत्र- १११ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१११
भाव इत्यर्थे “भावे चाशितात् भुवः खः” [ ५.१.१३०. ] | वाच्यमेवेति भावः । पूर्वमुत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे न इति सूत्रेण भावे खः । मितं परिमितं गच्छतीति । तदन्तग्रहणमिति ज्ञापितत्वेनेह खितः प्रत्ययस्य ग्रहणे सति सः, मितोपपदाद् गमः "नाम्नो गमः खड् ड च विहायसस्तु तदन्तग्रहणमनुचितमिति कथमिह 'खिदन्ते उत्तरपदे' 40 विहः” [ ५. १. १३१. ] इति खः । विहंगमः विहायसा । इत्यर्थलाभ इत्याशङ्कायामाह---अव्ययप्रतिषेधात् ख्रिति 5 गच्छतीति सः, इह विहादेशोऽपि । पतङ्गःपतन् गच्छतीति तदन्तग्रहणमिति - अनव्ययस्येति कथनेनाव्ययस्य मोहन्तागमः प्रतिषिध्यते । यद्यपि नायं प्रसज्यप्रतिषेधार्थी नव् किन्तु पर्युदासार्थः, स चाव्ययप्रतिषेधो व्यर्थः यतोऽव्ययस्य ख्रित्परत्वयोग्यतैव नास्तीत्याह -- नरभ्यव्ययात् परः खित् 45 संभवीति - खितः प्रत्ययस्य धातोरेव विधानादव्ययस्य खित्परत्वयोग्यताया एवाभावात् तस्य
मान्तागमः प्राप्त
विग्रहः, पृषोदरादित्वात् तलोपः । क्वचित् पुंवद्भाव-हस्वत्वथोरुभयोः प्राप्तौ केन भाव्यमित्याशङ्कायामाह -- परत्वात् पुंवद्भावो ह्रस्वत्वेन बाध्यते इति, अयमाशयः -- उभयोः प्राप्तौ सत्यामनिर्णये प्राप्ते " स्पर्धे' [ ७.४.११९] 10 इति परिभाषासूत्र सहकारेण परस्यैव प्रवृत्तिर्भवतीति " परतः स्त्री पुंवत् स्त्र्येकाऽर्थेऽनूड" [ ३.१.४९. ] इति एवं नेति व्यर्थस्तस्य पर्युदाससूचितः प्रतिषेध इति व्यर्थी - सूत्रापेक्षया प्रकृतसूत्रस्यैव बलवत्त्वात् प्रवृत्तिर्भवतीति । । भूतः स तदन्तग्रहणमिह ज्ञापयति, एवं च खिदन्ताव्यवहितक्वेत्याह-- कालिमन्या, हरिणिमन्येति — काली मात्मानं | पूर्वत्वस्याव्ययेषु सम्भवाद् भवति तत्प्रतिषेधसार्थक्यम् 1 50 सन्यते, हरिणीमात्मानं मन्यत इति विग्रहः, कालीहरिणी - । अर्थात् स्वरान्तस्येति व्याख्यातं तन्मूलमुद्घाटयितुं तत्फल15 शब्दयोः पुंवद्भावे सति कालंमन्या हरितंमन्येति स्यात्, माह-- अरुः शब्दोपादानादनव्ययस्य व्यञ्जनान्तस्य किन्तु परत्वाद् ह्रस्वस्य प्रवृत्त्या 'सकृद्गती स्पर्द्धे यद् बाधितं । मो न भवतीति--अनव्ययस्येत्युक्त्याऽव्ययभिन्नस्य सर्वस्य तद् बाघितमेव' इति न्यायेन न पुनः प्रवृत्तिरिति न पश्चादपि । मागमे सिद्धे सति अरुषोऽपि स्यादेवेत्यरुषो ग्रहणेन पुंवद्भावः । अनव्ययांशमुदाहृत्यारुष उदाहरति-- अरुन्तुद । व्यञ्जनान्तस्य चेदरुष एवेति विज्ञापनादन्यस्य व्यञ्जनान्तस्य 55 इति---- अरुर्मर्मस्थानं तुदतीति विग्रहः “बहुविध्वरुस्तिलात् । न भवतीत्यर्थत एव स्वरान्तस्यैव मान्तागम इति पर्य20 तुदः " [ ५.१.१२४.] इति खश्, तुदादित्वात् शः अनेन वस्यतीति भावः, तत्फलमाह - गीर्मन्यः इति -- गिरमामोन्ते सति "संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्” [ २.१.८८. ] इति त्मानं मन्यत इति विग्रहः, अत्र यद्यपि मागमे सत्यपि सोपे सति रूपसिद्धिः । पदकृत्यमाह - खितीति किमितितस्य " पदस्य " [ २१.८९ ] इति संयोगान्तस्य मस्य खितीत्यस्य स्थाने कृतीत्याद्येव सामान्येन वाच्यमित्याशयः, लोपे प्रकृतरूपसिद्धी बाधकाभाव इति कथयितुं शक्यते, 60 तथापि "रात् सः” [ २.१.९०. ] इति नियमाद् रेफात् परस्य सकारभिन्नस्य मस्य लोपो न स्यादिति रूपासिद्धिबोध्या । ननु यत्र मान्तागम - ह्रस्वयोरुभयोर्विधानं तत्र क्रमेण पूर्वं मान्तागमे पश्चात् तस्यैव ह्रस्वो भवत्विति चेदनाह-- स्वरस्य ह्रस्वदीर्घप्लुता इति ह्रस्वः 65 स्वरस्यैवेति-- ह्रस्व-दीर्घ- प्लुता विधीयमानाः स्वरस्यैव
।
अन्यथा खितीत्यस्याभावे सामान्यत उत्तरपदेऽस्य प्रवृत्या 25 देवाश्रित इत्यादिसमासेऽपि प्रवृत्तिर्दुर्वारेति कृदन्तस्थलप्रत्युदाहरणानुधावनप्रयासो विफल एव स्यात् । पण्डित - मानी, सुभगमानीति - पण्डितं परं मन्यत इति विग्रहः, “मन्याण्णिन्” [ ५. १. ११७ ] इति णिन् अत्रापि मोन्तः स्यादिति खितीति वाच्यमेवेति भावः, एवं सुभगभानी
30 त्यपि । अनव्ययेति किमिति - अनव्ययपदमव्ययभिन्न | स्थाने भवन्तीति प्रकृतन्यायार्थः । तथा च न व्यञ्जनस्य पूर्वपदोपस्थापकं तदभावे च् 'उत्तरपदे' इत्यनुवृत्तिसामर्थ्या । ह्रस्वप्राप्तिरिति भागमे सत्यपि स्वरेष्वन्त्यस्य स्थाने एव देव पूर्वपदस्योपस्थितिः स्यादिति सामान्येन सर्वस्य पूर्व- ! ह्रस्वो भवति, न व्यञ्जनस्य मस्येति भावः । ननु 'अनपदस्य खिति मोन्तो विधीयतामित्याशयः । दोषामन्यमहः । व्ययारुषः" इति षष्ठीनिर्देशेन " षष्ठयाऽन्त्यस्य [ ७ ४. 70 इति---दोषा आत्मानं मन्यत इति विग्रहः, एवं - - दिवा - १०६. ] इति परिभाषयाऽन्त्यस्य ह्रस्वो विधेयः, अन्ते च 35 मन्या रात्रिरित्यत्रापि, अत्रानव्ययग्रहणाभावे प्रकृतप्रयोग- स्वराभावान्न भविष्यति ह्रस्व इति चेत् ? न सन्नियोगयोरव्यययोर्दोषादिवाशब्दयोर्हस्वे मान्तागमे च 'दोषं शिष्टत्वात्, सन्नियोगशिष्टो हि ह्रस्वो मागमेन सहैव मन्यम्' 'दिवंमन्या' इति स्यादिति तन्निवृत्तयेऽनव्ययस्येति । भविष्यति, स्वरस्य ह्रस्वस्तस्यैव मागमश्च । यद्यपि ह्रस्व
!
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११२
हवृत्ति बृहन्याससंवलिते
पाद-२, सूत्र १११-११३ ]
श्रुत्या 8 स्वरस्य ह्रस्वदीर्घप्लुताः के इति न्यायवशात् | पदत्वं विज्ञायते, सत्यादीनां पूर्वपदभूतानां कारशब्दे उत्तर- 35 स्वरस्येत्युपस्थितम्, तच्चानव्ययस्येत्यस्य विशेषणम्, विशेष- पदे मोऽन्तो भवतीति सूत्रार्थः । सत्यादिभ्यः इति पञ्चम्यणेन च तदन्तविधिर्भवति, एवं च स्वरान्तस्यानव्ययस्य | न्ततया व्याख्यानं तु वैचित्र्यार्थम् । सत्यं करोतीत्यादि--
पूर्वपदस्य ह्रस्वी भवतीत्यर्थः, न तु स्वरस्यति विशेष्यम्, 5 पूर्वपदस्येति च विशेषणम्, अनव्ययपूर्वपदसम्बन्धिनः | कृत्प्रत्ययोत्पत्त्यर्थ सत्यं करोतीत्येव विग्रहः, उत्पन्ने तु
स्वरस्य-ह्रस्वो भवतीति, तथा सति बाङ्मन्य इत्यादावपि तस्मिन तद्योगे षष्ठीविधानात षष्टयतेन सह समास इति ह्रस्वप्रवृत्यापत्तिः, एवं च पूर्व मागमप्रवृत्तौ स्वरान्तत्वा- वस्तुस्थितिप्रदर्शनार्थं सत्यस्य कारः इति विग्रहः । वस्तुभावादध्रस्वो न स्यादिति शङ्कयितुं शक्यते, तथापि * | तस्त द्योगे षष्ठीविधानेऽपि न तया षष्ठया लौकिक
सन्नियोगशिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्ति %विग्रहवाक्यमीदशस्थले प्रदर्श्यते, गतिकारकडास्यक्तानां 10 इति न्यायेन सहैवोभयमपि प्रवर्तत इति न स्वरान्तत्वहान्या | कृभिः सह स्याद्युत्पत्तेः पूर्वमेव समासस्य न्यायसिद्धत्वात् ।
हस्वाप्रवृत्तिप्रसङ्ग इति । न केवलं खिदन्तस्यैव ग्रहणमपि तु | विवेचितं चैतन्यायसिन्धौ विस्तरेणेति तत एवावधारणीयम्। 45 खिदन्तान्तस्यापि क्वचिद् ग्रहणं भवतीत्याह-कृदग्रणे | तथा च संभवप्रदर्शनमात्रं षष्ठयन्तेन सह विग्रहवाक्यं सति गति-कारकस्यापीति--"कृत् सगति-कारकस्यापि" न तु वस्तुस्थितिरीदशीति ध्येयम् । एवं च सत्यं करोतीति [७. ४. ११७. ] इति परिभाषया कृद्ग्रहणे केवलस्य गति-विग्रहे "कर्मणोऽण्" [ ५. १. ७२. ] इत्यण, कृद्योगे कर्मणि
स्यापि च ग्रहणाद् गतिकारकपूर्वस्यापि खिदन्त-षष्ठी, तदन्तस्य कारेति कृदन्तेन सह स्याद्युत्पत्तेः पूर्वमेव स्यह ग्रहणमिति भावः । तत्फलमाह--कूलमुद्रुजः, कूल- समासः, अनेन मोन्तो भवति । अगदं---नीरोगं करोतीति- 50 मुद्वह इत्यत्रापि भवतीति । कूलोपपदात् उद्पूर्वकात् रुजेर्व- अगदंकारो वैद्यः । अस्तु करोतीति- अस्तुंकारः, स्वीकार हेश्च "कूलादुदुजोद्वहः" [ ५. १. १२२. ] इति खश्, अत्र । इत्यर्थः । नन्वस्त्विति त्याद्यन्तं कथं नाम्ना कारशब्देन
उदिति' गतिसंज्ञम्, तत्पूर्वकस्यापि खिदन्तस्य 'उद्रुज, | समस्यते ? नाम नाम्नेति कथनात्, असति च समासे कथं 20 'उद्वह' इत्यस्येह खिदन्तत्वेन ग्रहणात् तस्मिन् परतः सति पूर्वोत्तरपदव्यवहारः, पूर्वोत्तरपदयोः समासपूर्वावयवचरमा
भवत्येवात्र मागम इति भावः । वृत्तौ कृद्ग्रहणे सति गति- वयवयो रूढत्वादिति चेदत्राह--- अरित्वति निपातः क्रिया- 55 कारकस्यापीति पाठो न समीचीनः, गतिकारकयोः स्वात- प्रतिरूपकोऽभ्युपगमे वर्त्तते इति--"विभक्तिथमन्ततसात्र्येण ग्रहणस्यानिष्टत्वात्, किन्तु सगतिकारकस्या- | द्याभाः" [ १. १. ३३. ] इति सूत्रेण विभक्त्यन्ताभानामव्य
पीत्येव पाठः समीचीनः । प्रकृतपाठस्यैव वा तत्रैव तात्पर्य-यसंज्ञाविधानादस्त्विति त्यादिविभक्त्यन्ताभमध्ययमभ्युपग25 मवधारणीयं, गतिकारके स्तोऽस्यति मत्वर्थीयेनाकारेण | मवाचि, तेन सहैव समास इति भावः ॥ ३.२.११२ ।।
तस्य तदर्थकत्वसम्भवात् ।। ३. २.१११.॥
लोकंपृण-मध्यंदिना-ऽनम्याश- 60 सत्या-ऽगदा-स्तोः कारे ॥ ३, २. ११२ ॥ मित्यम् ।। ३. २. ११३ ॥ त० प्र०--सत्यादिभ्यः कारशब्दे उत्तरपदे परे।
त०प्र०--एते शब्दाः कृतपूर्वपदमान्ता निपात्यन्ते। मोऽन्तो भवति । सत्यं करोति, सत्यस्य कार इति वा- लोकं पूणति, लोकस्य बा पणः-लोकंपणः; मध्यं दिनस्य, 30 सत्यकारः, एवम्-अगदंकारः, अस्तुंकारः, अस्त्विति निपातः मध्यं च तत् दिनं चेति वा-मध्यंदिनम् ; अश्नोतेशि-अभ्याश क्रियाप्रतिरूपकोऽभ्युपगमे वर्तते ॥११२॥
इति रूपम्, अनभ्याशं-दूरम, इत्यं-गन्तथ्यमस्य-अनभ्याश- 65 मित्यः, दूरतः परिहर्तव्यः; अनभ्याशेनेत्योऽनभ्याशमित्य
इति वा, दूरेण प्राप्यो न त्वन्तिकेनेत्यर्थः । अन्ये तु-प्रोणाश०म० न्यासानुसन्धानम्- सत्या० । 'सत्य- | तेणिगन्तस्याचि ह्रस्वत्वं निपात्य लोकप्रिणः, लोकस्य प्रोणक अगद-अस्तु'-शब्दानां समाहारः सौत्रत्वात् पुंस्त्वम् । कार | इत्यर्थ इत्युदाहरन्ति । कश्चित्त्वकृत ह्रस्वत्वमेव मन्यतेप्रत्युत्तरपदविशेषणम्, तत्समभिव्याहारात् सत्यादीनां पूर्व- । लोकंत्रीणः ॥ ११३ ॥
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[ पाद-२, सूत्र - ११४-११५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
श० म० न्यासानुसन्धानम्-- लोक० । निपातनपर मिदं सूत्रम् एतदेवाह -- एते शब्दाः कृतपूर्वपदमान्ता निपात्यन्ते इति । निपात्यमानानामपि प्रकृति-प्रत्ययादि - विभागकल्पना ज्यायसीति मत्वा तद्विभागज्ञापनाय विग्रह 5 वाक्यमाह -- लोकं पृणतीति एवं विग्रहवाक्ये "कर्मणोऽण्” [ ५. १७२. ] इत्यणोऽभावोऽपि निपातनादेव वाच्यः, 'मूलविभुजादिपाठकल्पना वा अत एव वारुचेविग्रहान्तर माह -- लोकस्य वा प्रण इति---पृणतीति पृण: "नाम्युपान्त्य०" [ ५. १. ५४ ] इति कः, तदन्तेन योगे षष्ठी, 10 निपातनसामर्थ्यादेव समासः, मान्तत्वं च पूर्वपदस्य । अनभ्यामित्यस्य साधनार्थं पूर्वमभ्याशशब्दं व्युत्पादयति-- अश्नोतेर्धनीति--अभिपूर्वकादिति शेषः, न अभ्याश इत्यनभ्याशः, दूरमित्यर्थः, एतुं योग्यमित्यं गन्तव्यमित्यर्थः, अनभ्याशं दूरमित्यं -- गन्तव्यं यस्येति बहुव्रीहिः, अत्रान- त० प्र०—- गिलान्तशब्दवजितात् पूर्वपदात् परे गिले 45 15 भ्याशमिति क्रियाविशेषणत्वेन द्वितीयैकवचनान्तं क्लीबम्, गिलगिले चोत्तरपदे परे मोऽन्तो भवति । तिमि गिलतीतिअन्यथा प्रथमैकवचनान्तस्यानभ्याशशब्दस्य घञन्तत्वेन तिमिङ्गिलः, एवं - मत्स्यंगिलः, बालंगिलो राक्षसः, अपत्यं - पुंस्त्वं स्यात् । आर्थिकार्थमाह-- दूरतः परिहर्त्तव्यः इति, गिला शिशुमारी । तिमीनां गिलगिल:- तिमिगिलगिलः; विग्रहवाक्ये प्रकारान्तरमाह--अनभ्याशेनेत्यः इति -- हेतु - गिलगिलशब्दे गिलशब्दो नोत्तरपदमिति गिलगिलोतृतीयान्तेन सह " तृतीया" इति योगविभागात् समासः । पादानम् । गिलशब्दस्य स्वरान्तस्य पर्युदासेन स्वरान्ताद् 50 20 मतान्तरमाह--अन्ये त्विति - प्रीणयतीति प्रीणः, लोकस्य विधिस्तेन व्यञ्जनान्तान्न भवति - चूर्गिलः । अगिला विति प्रीण इति विग्रहे षष्ठीसमासः प्रीणयतेरीकारस्य ह्रस्वोऽपि किम् ? तिमिंगिलं गिलति - तिमिगिलगिलः । गिलं गिलतिनिपात्यत इति तेषामाशयः । प्रयोगार्थमाह-- लोकप्रीणक गिलगिल इत्यत्र गिलगिलेति निर्देशादेव मोतो न संभवति, इति । मागममात्रं निपात्यं न तु ह्रस्वोऽपीति मतान्तरमाह-अगिलादिति तु निषेधो गिलान्तस्यापि निवृत्त्यर्थः ॥ ११५ ॥ कश्चित्त्वकृतह्रस्वत्वमेवेति । ३. २. ११३ ।।
अगिला गिल - गिलगिलयोः ॥ ३. २. ११५॥
25
भ्रष्ट्रानेरिन् । ३. २. ११४ ॥ त० प्र० -- भ्राष्ट्राग्निभ्यामिन्धशब्दे उत्तरपदे परे मोऽन्तो भवति । भ्राष्ट्रस्येन्धः - भ्राष्ट्रमिन्धः, एवम् - अग्निमिन्धः ।। ११४ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् भ्राष्ट्रा० । भ्राष्ट्राग्नेरिति 30 पञ्चम्यन्ततया व्याख्याति भ्राष्ट्राग्निभ्यामित्यादि, वस्तुतस्तु मागमस्य तदवयवतया विधानस्यौचित्येन षष्ठ्यन्ततथैव व्याख्यानमुचितमिति प्रतिभाति "खित्यनव्ययारुष ० " [ ३. १. १११. ] इति सूत्रे तथैव व्याख्यानस्य कृतत्वमपि, पश्चद् वा षष्ठ्यन्तता समाश्रयणीया । भ्राष्ट्रस्येन्धः इति
१५
११३
इन्धयतीतीन्ध इन्धयतेरलि रूपम्, तस्य षष्ठ्यन्तेन भ्राष्ट्र- 35 शब्देन समासः भ्राष्ट्रमिन्धे -- दीपयतीति वा विग्रहे "कर्मणोऽण्” ५. १. ७२. ] इत्यण, इन्धनमिन्ध इत्यर्थे "पुंनाम्नि घः " [ ५.३.१३०. ] इति घः भ्राष्ट्रस्य इन्ध इति विग्रहः, घनि सति तु "दशनाऽवोदेघौद्मप्रश्रथ - हिमश्रथम् ” [ ४.२.५४ ] इति निपातनात् नलुक् स्यात् । वस्तुतस्त्विह इन्धयतीतीन्ध इति कर्तृप्रत्ययान्तत्वमेवेन्धशब्दस्य 40 युक्तम्, अत्र प्रकरणे कर्तृप्रत्ययान्तानामेव विशेषतः प्रयोगदर्शनात् । अग्निमिन्धेऽपि प्रकृतं विग्रहादिकमतिदिशति -- एवम् अग्निमिन्ध: इति ॥ ३.२.११४ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम्-अगिला० । अगिला - 55 दिति पर्युदासवैयर्थ्यम्, गिलगिलेति सूत्रस्थनिपातनादेव तत्सिद्धेरिति सामर्थ्यादेव तदन्तस्य पर्युदास इत्याह- गिलान्तशब्दवर्जितादिति । तिमि गिलतीति - " बहुयोजन--- विस्तीर्णस्तिमिर्मत्स्य उदाहृतः” इति श्रुतत्वान्मत्स्यविशेषस्तिमिः, तं गिलतीति विग्रहे मूलविभुजादिपाठकल्पनया कः, “नाम्युपान्त्य०” [ ५. १. ५४.] इति कस्तु "कर्मणोऽण्” [ ५.१.७२. ] इत्यनेन वाध्यते, बाहुलकाद् वा तद्वाधाभावः कल्पनीयः । एवं मत्स्यंगिलादयोऽपि व्याख्येयाः । गिलगिले उदाहरति-- तिमीनां गिलगिलः इति --- गिलं गिलतीति गिलगिल:, तिमीनां गिलगिल इति विग्रहः । ननु तिमिंगिल - 65 गिल इत्यत्रापि उत्तरपदे गिलशब्दस्य सत्त्वेन गिले उत्तरपदे इत्यर्थेनैव मागमसिद्धी गिलगिलशब्दोपादानं सूत्रे व्यर्थमिति
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बृहद्वृत्ति-बृहन्याससंवलिते .
[पाद-२, सूत्र. ११५-११०]
चेदवाह--गिलगिलशन्दे गिलशब्दो नोत्तरपदमिति, तदन्तप्रतिषेधार्थमेव, केवलस्य व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तत्वोअयमाशयः----यत्र गिलशब्दमात्रे पर्याप्तमुत्तरपदत्वं भवेत् | पचाराद् भविष्यतीति गहाण । इत्थं चापिशब्दस्यावधारणार्थ- an तत्रैव गिले उत्तरपदे विधिः स्यात, 'तिमिगिलगिलः' इत्यत्र | त्वमिति न्यासग्रन्थो निर्देशसामर्थ्याश्रयणपक्षविषयको बोध्यः, तु न गिलशब्दमात्र पर्याप्तमुत्तरपदत्वमिति न तत्र विधिः | एदनाश्रयणे च समुच्चयार्थ एवेति तत्वम् ॥३. २. ११५ ।। स्थात, 'गिलगिल' इत्येतावतोऽखण्डस्योत्तरपदत्वादिति तत्र मागमविधानार्थमावश्यकं गिलगिल-शब्दोपादानमिति । इह प्रकरणे प्रायः स्वरान्तस्यैव मान्तागमो विधीयते, तदेव भद्रोष्णात् करणे ॥ ३. २. ११६ ॥ चेहापि सूत्रे समाश्रीयत इत्याह--गिलशब्दस्य स्वरान्तस्य
त० प्र०--भद्रशब्दादुष्णशब्दाच्च करणशब्द उत्तरपदे , अयमाशयः--'पर्युदासः सदृशग्ग्राही 'नजिव
मोऽन्तो . भवति । भद्रस्य करणं-भद्रकरणम्, एवमुष्णं- 45 10 युक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथाह्यर्थगतिः' इति न्यायात् । एवं |
करणम् ॥११६॥ गिलान्ता भिन्नस्य तत्सदशस्य च पूर्वपदस्य ग्रहणमिति सादृश्यस्य स्वरान्तत्वेन ग्रहणाद् व्यञ्जनान्तस्य पूर्वपदस्य मागमो न भवतीति । क्वेत्याह-धूगिलः इति धुरं गिलतीति विग्रहः, मागमे सति मकारस्य लोपेन रूपसिद्धिस्तु नाश
श० म० न्यासानुसन्धानम्-भद्रो० । अत्र स्पष्टं 15 ङ्कया। “रात् सः" [ २.१.९०.] इति नियमादित्युक्तं
पञ्चमीनिर्देशेन मागमोद्देश्यत्वं कस्यति यद्यपि न ज्ञायते प्रागपि । अगिलादिति किमिति-गिलगिलेति सूत्रे निपा- |
तथापि 'उत्तरपदे' इति सप्तम्यन्तानुवृत्तिलभ्यपदसामर्थ्यात्
"सप्तम्या पूर्वस्य" [७. ४. १०५] इति परिभाषाबलादुत्त- 50 तनादेव गिलशब्दस्य पूर्वपदस्य मागमो न भविष्यतीत्यगिलादिति व्यर्थमेवेति प्रष्ट्राशयः । अगिलादित्यस्य गिलान्तस्य ।
रपदात् पूर्वस्य भद्र शब्दस्योष्णशब्दस्य च तदुद्देश्यत्वं बोध्यम्, मागमनिवृत्त्यर्थत्वमिति स्वाशयं स्फोरयति--तिमिगिलं
एतत् पूर्वसूत्रेऽपि विज्ञेयम्, तत्रापि पञ्चमीनिर्देशस्य स्पष्टगिलतीति-'अत्र गिलान्तस्तिमिगिलशब्दः, तस्य मोऽन्तो न वापस
तोत्वात, यत्र च "सत्यागदास्तोः कारेः" [ ३. २. ११२. 1 भवति, अगिलादिति निषेधाभावे च स्यादेवेति भावः । ननु
"भ्राष्ट्राम्नेरिन्धे" [ ३.२. ११४ ] इत्यादी षष्ठयन्तत्वेन
व्याख्यानसम्भवेऽपि पञ्चम्यन्ततया व्याख्यातं तत्राप्येषा ही गिलं गिलतीति गिलगिल इति सूत्रोपात्त एव प्रयोगे मागमनिवृत्त्यर्थमगिलादित्यस्यावश्यकत्वेन किमिति गिलान्तानु
रीतिरवधारणीया। उदाहरति--भद्रस्य करणमिति-कृतिः धाक्नक्लेश इति चेदवाह--गिलं गिलति-गिलगिल | करण', भद्रस्य करणमिति विग्रहे "कृति" [३. १. ७७] इति
समासः । एवम्-उष्णंकरणमित्यत्रापि विज्ञेयम् ॥३.२.११६॥ इत्यत्र गिलगिलेति निर्देशादेव मोन्तोन सम्भवतीति, अयमाशयः-आचार्यप्रयोगस्यापि साधुत्वानुशासकत्वमिति सूत्रे गिलगिलेति निर्देशसामदेिव गिलस्य गिले परे मागमो न भविष्यत्येवेति तदर्थमगिलादिति पर्यदासस्य नावश्यकत्वमिति
। नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः॥३.२.११७॥ व्यर्थीभूतं तत् गिलान्तस्य पर्युदासं सूचयतीति, तदेवाह- त०प्र०-रात्रिशब्दस्य खिद्वजितकृदन्ते उत्तरपदे 60 10 अगिलादिति निषेधो गिलान्तस्यापि निवृत्त्यर्थे इति- | मोऽन्तो वा भवति । रात्रौ चरति-रात्रिचरः, रात्रिचरः;
गिलान्तस्यापीत्यत्रापिरवधारणार्थः, गिलान्तस्यैवेत्यर्थः, समुच्च- | रात्रिचरी, रात्रिचरी रात्रावट:-रात्रिमटः, राज्यटः, यार्थत्वं तु तस्य न युज्यते, तथा सति गिलस्यापि निषेधार्थत्वं रात्रिमटति-रात्रिमाटः, रात्र्याटः रात्रः करणम-रात्रिपर्यवस्थेत, तच्च न स्वसम्मतं निर्देशसामदेिव तद्वारणस्यो- करणम्, रात्रिकरणम्। खिदर्जनं किम् ? रात्रिमन्यमहः, क्तत्वात् यद्वा तस्य समुच्चयार्थत्वमेवास्तु, सति साक्षाद्वचनेन । "खित्यनव्यया०" (३. २. १११.) इत्यादिना नित्यमेव 65 प्रयोगसाधत्वे निर्देशसामर्थ्याश्रयणस्यानौचित्यात्, यत्र हि | भवति। कृदन्त इति किम् ? रात्रिसुखम् । अन्तग्रहणं नास्ति किमपि स्पष्टं गमकं तत्रैव निर्देशसामर्थ्याद्याश्रयणस्य किम् ? रात्रिरिवाचरति क्विप्, लुक, तच,-रात्रयिता। दर्शनात् । नन्वेकेनागिलादिति विशेषणेन कथमभयो: केवलस्य | इदमेवान्तग्रहणं जापकम्-'इहोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहण तदन्तस्य च निषेधः सम्भवतीति चेत् ? अगिलादिति विशेषणं । प्रत्ययस्यैव ग्रहणं, न तदन्तस्येति, तेन-“कालाततनतर
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[पाद-२, सूत्र-११७]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
तम०" ( ३. २. २४. ) इत्यादी प्रत्ययभात्रस्यैव ग्रहणं विनिगमकाभावात् नामत्वादिना सादृश्यग्रहणेऽन्यत्रापि सिद्धम्; "न नाम्येकस्वरात्०" ( ३. २. ९. ) इत्यादौ प्रसक्तिर्दुर्वारेत्याह प्रत्युदाहरणमुखेन--रात्रिसुखमिति । स्वसंभवातदन्तग्रहणम् । केचित् 'तीर्थकरः, तीर्थकरः'।
अन्तग्रहणं किमिति-कृतीत्येवोच्यतां रात्रिशब्दस्य नामत्वेन इत्यत्रापि विकल्पमिच्छन्ति, तदर्थं "नवाऽखित्कृदन्ते" इति, | तस्य स्वतः कृत्प्रत्ययपरत्वायोगादसंभवादेव कृदन्त इत्यर्थो 5 "रात्रः" इति च योगो विभजनीयः॥११७ ॥
भविष्यतीत्यन्तग्रहणं व्यर्थमेवेति प्रष्ट्रराशयः। रात्रिशब्दस्य 40 न केवलं नामत्वं किन्तु नामधातूप्रकरणोक्तप्रत्ययसंयोगेन
तस्य धातुत्वमपि सम्भाव्यते, ततश्च तस्यास्ति कृत्प्रत्ययश० म० न्यासानुसन्धानम्-नवा०। खिद्वर्जित
परत्वसंभावनेति तत्र मागमनिवृत्त्यर्थमन्तग्रहणमावश्यककृदन्ते इति---एतच्च परत्वात् खिद्विषयेऽप्यस्य प्रवृत्तिबाध
मित्याह--रात्रिरिवाचरति क्विबिति-"कर्तुः क्विप्" नार्थमेव, विवेचयिष्यते चैतदने । रात्रौ चरतीति-"चरेष्ट:"
[ ३. ४. २५. ] इति क्विपि तदन्तस्य धातुत्वे, ततः कर्तरि 45 [५. १. १३८. ] इत्याधारोपपदाच्चरेः ट: प्रत्ययोऽनेन
| तृचि सम्भवति कृत्प्रत्ययाव्यवहितपूर्वत्वं रात्रिशब्दस्य तत्र
मागमो मा भूदित्यन्तग्रहणमावश्यकम्', कृते चान्तग्रहणे तुच्10 मागमः, पक्षे--रात्रिचरः इति, टित्त्वात् स्त्रियां डी:-- रात्रिंचरी, रात्रिचरीति | रात्रावटः इति-अटतीति---अट
मात्रस्य कृदन्तत्वाभावात् न भवति । नन्वेवमप्यन्तग्रहणं इति लिहादित्वादच, रात्रावट इति सप्तमीसमासः, मागमे
व्यर्थमेव, कृतः प्रत्ययत्वेन प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणस्य न्याय
| सिद्धत्वेन कृदन्ते इत्यर्थः स्यादेवेति चेदत्राह-इदमेवान्त- 0 सति रात्रिमटः, तदभावे--राज्यटः इति । रात्रः कर्मत्व
प्रहणं ज्ञापकमित्यादि। * प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणम् . विवक्षायां रूपान्तरमाह--रात्रिमटतीति---अत्रार्थे 'कर्मणो
इति न्यायेन सिद्धेऽपि तदन्तग्रहणे क्रियमाणमिदमन्तग्रहणं 15 ऽण्” [ ४. १. ७२.] इत्यण, उपान्त्यवृद्धया आट इति, तेन
व्यर्थीभूय स्वसार्थक्यसाधकमनिममर्थ ज्ञापयतीति भावः । सह हस्युक्तसमासे----राचिमाट:राच्याटः इति करणशब्दस्याप्यखित्कृदन्तत्वाद्रात्रिशब्दस्य तस्मिन्नपि परे विकल्पेनैव
ज्ञाप्यार्थस्वरूपमाह--इहोत्तरपदाधिकारे इत्यादि--अस्तीमागम: परत्वादित्याह---रात्रिकरणं रात्रिकरणमिति ।।
होत्तरपदाधिकारः प्रत्ययग्रहणं च, तत्र प्रत्ययमात्रस्यैव कृत्प-55
देन ग्रहणे रात्रयितेत्यादौ दोषो दुर्वार इति भवत्यन्तग्रहणस्य खिद्वर्जनं किमिति--"नवा कृदन्ते रात्रैः" इत्येवोच्यतां,
स्वांशे चारितार्थ्यम् । अन्यत्र फलमप्यावश्यक स्वसार्थक्यमा20 खिति परे विशेषविहितत्वात् पूर्वसूत्रेण ["खित्यनव्यायारुषो |
त्रार्थ ज्ञापनानौचित्यात्, तदर्थज्ञापनापेक्षया तदकरण एव भोन्तो ह्रस्वश्च." [ ३. २. १११ ] इत्यनेन नित्यमेव
लाघवादित्याशयेन फलान्तरमप्याह-तेन"कालात्तर-तम भविष्यतीति मत्वा प्रश्नः । रात्रिमन्यमह: इति--साधि
[३.२. २४ ] इत्यादौ प्रत्ययमात्रस्यैवेत्यादि, उक्तं चैतत् 60 तमेतत् पूर्वसूत्रेणैव, अत्रापि परत्वादिदमेव प्रतिष्यत इति विकल्पापत्तिः, तद्वारणायाखितीत्यावश्यकमिति भावः ।
सूत्रव्याख्यायामेव उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव
ग्रहणं न तदन्तस्य “नवा खित्कृदन्ते" [३, २. ११७. ] 25 वस्तुस्थितिमाह--"खित्यनव्यया०" [ ३. २. १११] |
इत्यत्रान्तग्रहणात, तेनात्र तन-तर-तम-प्रत्ययानां स्वरूपेणव इत्यादिना नित्यमेव भवतीति न च विनापि खिद्वर्जनं |
ग्रहणं भवति, इति"। तेन 'परमे पूर्वाहणेतरे' इत्यादिस्थले सामान्यतः कृदन्तेऽस्य प्रवृत्तिः, खिति कृदन्ते च तस्येति |
परिनिष्ठितविभवत्यन्तेन विशेषणसमासे सप्तम्या अलुप् न विशेषविहितत्वात् “सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान्
भवति । नन्वेवं क्वापीहोत्तरपदाधिकारे तदन्तग्रहणेन न भवेत्" इति लौकिकन्यायेन पूर्वसूत्रमेव प्रतिष्यत इति 30 नास्ति दोष इति वाच्यम्, अनव्ययसामान्य पूर्वसूत्रस्य प्रवृत्तिः, भाव्यम्, दृश्यते च "न नाम्येकस्वरात् खिति०" [३.२.९.] रात्रिशब्दमात्रेऽस्येति रीत्या प्रकृतसूत्रस्यापि विशेषविहितत्व
"खित्यनव्ययारुषः" [ ३. २. १११. ] इत्यादौ तदन्तग्रहण
मिति चेदत्राह--"न नाम्यकस्वरात् खिति"[३२६] साम्यात्, परत्वरूपं बलमतिरिच्यतेऽस्येति अखितीत्यस्याभावे
इत्यादाविति--"न नाम्यकस्वरात् खिति०" इत्यादौ यत् तत्रापीदमेव प्रतिष्यत इत्याशयात् । कृदन्त इति किमिति इत्यादाावात
तदन्तग्रहणं दृश्यते तदसंभवात्, एकस्वरात् पूर्वपदभूताअखितीति पर्युदासेन सदृशग्रहणात् खिभिम्ने खित्सदृशे कृदन्ते
नाम्नः परस्य खितः प्रत्ययस्य नास्ति संभवः, तस्य धातो 35 एव प्रवृत्तिः स्यादिति कृदन्ते इत्यनावश्यकमिति प्रष्टुराशयः;
विधीयमानत्वादिति हेतोरेव तत्र तदन्तग्रहणं भवति, प्रकृते सदग्ग्राहित्वेऽपि केन रूपेण सादश्यं ग्राह्यमित्यत्र
70
पर्यदाय
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११६
बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास संवलिते
[ पाद-२, सूत्र - ११७-१९९ ]
च रात्रेः परस्य कृत्प्रत्ययसंभवस्य दर्शितत्वान्नास्त्यसंभवो मर्थ्यादेव पूर्वयोगस्य क्वाचित्कत्वज्ञापनाद् वा, किञ्च परमतसंग्रहोपायत्वेनास्य योगविभागस्य स्वीकरणानं तदाश्रय- 4 णेन दोषापादनमुचितमिति ॥ ३.२.११७ ॥
हेतुरिति विना यत्नं तदन्तग्रहणं न स्यादिति तदर्थमन्तग्रहणमावश्यकमिति समुदितार्थः । यद्यपि "हृदयस्य हुल्लासलेखाऽण्-ये" [ ३. २. ९४ ] इति सूत्रव्याख्यावसरे---- 5 लेखेत्यणन्तस्य ग्रहणमिति -- अण्ग्रहणेनैव तदन्तस्य तस्य ग्रहणे सिद्धे लेखग्रहणेन - इहोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न तु तदन्तस्येति ज्ञाप्यत इत्युक्तम्, इह चेदमेवान्तग्रहणं प्रकृतार्थे ज्ञापकमित्युच्यत इति परस्परविरुद्धमिव प्रतिभाति, तथापि "कालात् तन-तर-तम- काले" 10 [ ३.२.२४ ] इति सूत्रव्याख्यावसरेऽपि प्रकृतसूत्रस्थान्त ग्रहणस्यैवोत्तरपदाधिकारे तदन्तग्रहणाभावस्य ज्ञापकत्वोक्तेरनेन ज्ञापितस्यार्थस्यैव समर्थक लेखग्रहणं तत्रेति स्वीकर्त्तव्यम्, तत्र हि लेखेति घञ्ान्तस्य न ग्रहणमपि तु अणन्तस्यैबेति लक्ष्यानुसारिव्याख्यातृवचनमवलम्ब्यैव लेखशब्दस्य 15 ज्ञापकता संभवतीति प्रमाणान्तरसापेक्षं तस्य ज्ञापकत्वमत्रत्यान्तग्रहणस्य च निरपेक्षं ज्ञापकत्वमिति प्रकृतज्ञापकस्यैव | बलीयस्त्वम्, साक्षात् सूत्रस्थपदत्वात् । ज्ञापिते चास्मिन्नर्थे | लेखग्रहणस्यापि सार्थक्यमित्यन्यदेतत् । अन्यैश्च वैयाकरणैः [ पाणिन्यादिभिः ] प्रकृतसूत्रस्थानीये " रात्रेः कृति विभाषा" [पा० सू० ६. ३. ७२] इति सूत्रेऽन्तग्रहणं न क्रियते, किन्तु "हृदयस्य हल्लास-लेखाऽण्ये" [ ३. २. ९४] इति सूत्रस्थानीये “हृदयस्य हृल्लेखयदण्लासेषु" [ पा० सू० ६. ३. ५०] इति सूत्रे लेखग्रहणेनैवोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रह
श० म० न्यासानुसन्धानम्-धेनो० । नवप्रसूतिका गौधेनुः, तस्य शब्दस्य भव्याशब्दे उत्तरपदे मागमनेन विधीयते भव्याशब्दश्च " भव्य गेय - जन्य - रम्या ० " [ ५.१. ७ ] इति सूत्रेण कर्त्तरि निपातितः, तस्य धेनुशब्देन मयूरव्यंसकादित्वात् समासे विशेषणस्य भव्याशब्दस्य परप्रयोगः, 50 विशेषणसभासे च भव्याशब्दस्यैव पूर्वनिपातः स्यात् । तदाह-- धेनुश्चासौ भव्या चेति । मतान्तरमाह-- -- केचित् तु नित्यमिच्छन्तीति एतच्च पाणिनीयानामपि सम्मतम्, तैरपि तथैव विधानात् तथा च तन्मते - धेनुम्भव्येत्येवेति भव्याशब्दस्य पूर्वनिपातवारणार्थं घेनोरित्यस्य विशेषणत्व- 55, विवक्षा, भव्यायामिति निमित्तसप्तमीश्रुतिसामर्थ्याश्रयणं वा न कार्य द्रव्यवाचकक्रियावाचकयोः समवाये क्रियावाचकस्यैव
20
|
णाभावो विज्ञाप्यते, तत्संग्रहाय स्वमतेऽपि तस्य ज्ञापकत्व-विशेषणत्वौचित्यात्, निमित्तसप्तमीश्रुत्या पूर्वनिपातशास्त्रबाधानौचित्याच्च, किन्तु मयूरव्यंसकादित्वकल्पनैव ज्यायसीति ।। ३ २ ११८ ॥
25
30
मुक्तं, न तु तत्राचार्यस्य तात्पर्यमित्यवधेयम् । व्याकरकरणान्तरसम्मतलक्ष्यसंग्रहोपायं दिदर्शयिषुराह के चित् तीर्थंकरः, तीर्थकरः इति, स्वमतेऽत्र मागमस्य प्राप्त्यभाव एव, परमते च वैकल्पिको मागमो दृश्यते, सोऽपि साधयितुं शक्यत एवेति तदुपायमाह-- तदर्थं "नवाऽखित्कृ दन्ते" इतीति - - प्रकृतसूत्रस्यैव द्विधा विभागः कार्यः इति च परः, " नवाऽखित्कृदन्ते" इत्येको योगः "रात्रेः तथा च पूर्वयोगेन सामान्यत एव खिद्भिन्ने कृदन्ते मागमविधानेन तीर्थङ्करादावपि प्रवृत्तिः “रात्रेः" इत्यनेन च विशिष्य रात्रिशब्दस्यैव मान्तागमविधानम् । न चैवं कुम्भकार इत्यादावपि स्यान्मागमः निवारकाभावादिति वाच्यम्, योगविभागस्येप्टसिद्धयर्थत्वात्, अत एव च रात्रेरिति योगस्यापि सार्थक्यम्, अन्यथा रात्रिञ्चर इत्यादावपि पूर्वयोगेनैव सिद्धेरुत्तरयोगस्य वैयर्थ्यापातात्, उत्तरयोगारम्भसा -
35
71
धेनोर्भव्यायाम् ॥ ३.२.११८ ॥
त० प्र० -- धेनुशब्दाद्भव्याशब्दे उत्तरपदे मोहन्तो वा भवति । धेनुश्चासो भव्या च धेनुंभव्या, धेनुभन्या । केचित्तु नित्यमिच्छन्ति ॥ ११८ ॥
45
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अषष्ठीतृतीयादन्याद्दोऽर्थे ॥। ३. २. ११६ ॥
त० प्र०-- अषष्ठ्यन्तादतृतीयान्ताच्चान्यशब्दादर्थशब्द उत्तरपदे दोऽन्तो वा भवति । अन्यश्चासौ अर्थरच, अन्योऽयोऽस्येति वा अन्यदर्थः, अभ्यार्थः; अन्यस्मै इदम्-अन्यदर्थम्, अन्यार्थम् ; अन्यस्मिन्नर्थः - अन्यदर्थः, अन्यार्थः । 65 अषष्ठीतृतीयादिति किम् ? अन्यस्यार्थः-अन्यार्थः, अन्येनार्थः-
अन्यार्थः ॥ ११९ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - अषष्ठी० । 'अषष्ठी तृतीयात्' इति 'अन्यात्' इत्यस्य विशेषणम्, विशेषणेन व
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[पाद-२, सूत्र-११९-१२१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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तदन्तविधिरिति अषष्ठचन्तादतृतीयान्ताच्चेत्यर्थलाभः । दिति चानुवर्तत एव, अन्यादित्यस्य विशेषणतर्यकयोगनि- 35 उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे न तदन्तग्रहणमिति निषेधस्तु | दिष्टत्वेन सहैवानुवृत्ति-निवृत्त्योर्युक्तत्वात्, तदाह--अषष्ठी
प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणम् इति न्यायप्राप्तस्यैव तदन्त- तृतीया तादिति । यथायोगं प्रथमाद्यन्तत्वेन विग्रहवाक्यानि ग्रहणस्य, साजात्यात्, न तु विशेषणत्वप्रयुक्ततदन्तग्रहण- प्रदश्योदाहरति--अ-या आशीरिति । आस्थित-शब्दस्य स्येति विज्ञेयम् । दोऽन्तो भवतीति अर्थादन्यशब्दस्यैवान्तः, ! क्रियाशब्दत्वेन सम्भवति द्वितीयान्तेनापि विग्रहवावयमिति सप्तमीश्रुत्या “सप्तम्या पूर्वस्य” [ ७. ४. १०५ ] इति परि- तदाह--अन्यमास्थितः इति । स्पष्टान्यन्यान्युदाहरणानि 40 परिभाषासहकारात् । उदाहरति---अन्यश्चासावथेश्चेति-॥३. २. १२०॥ प्रथमान्तस्योदाहरणमिदम्, विशेषणसमासः, अनेन दागमः ।
द्वितीयान्तस्यार्थशब्देन सह विग्रहासम्भवः, तृतीयान्तस्य 10 पर्यदस्तत्वमेवेति चतुर्थ्यन्तेन विग्रहे उदाहरति----अन्यरमै. ईय-कारके ॥ ३. २.१२१॥
इदम इति नित्यसमासत्वादस्वपदविग्रहः । पञ्चम्यन्तेन सह त०प्र०-पथग्योगावषष्ठीततीयादिति निवृत्तम्, अन्यविग्रहासम्भवः, षष्ठ्यन्तस्य पर्युदस्तत्वमिति सप्तम्यन्तेन शब्दादीये प्रत्यये कारकशब्दे चोत्तरपदे दोऽन्तो भवति। विग्रहमाह----अन्यस्मिन्नर्थः इति । पदकृत्यमाह--अषष्ठी
अन्यस्यायम्-अन्यदीयः, गहावित्वादीयः; अन्यस्मै हितम्- 45 तृतीयादिति किमिति--तदन्तस्यापि विकल्पेन दागमो |
अन्यवीयम; अन्यस्यान्यन वा कारक:-अन्यत्कारकः, अन्यः विधीयतामिति भावः । षष्ठयन्ततृतीयान्तेन विग्रहे नेष्यते
कारक:-अन्यत्कारकः; अन्यत्कारिका ॥ १२१॥ दरगम इति तद्वारणाय तद्वर्जनमावश्यकमित्याह प्रत्युदाहरणमुखेन अन्यस्यार्थः, अन्येनार्थः इत्यादि । ३. २. ११९॥
श० म० न्यासानुसन्धानम्-ईय० । पूर्वतरं सूत्र
मनुवर्तते वाग्रहणरहितम्; तत्राषष्ठी-तृतीयादित्यस्याआशीराशास्थितास्थोत्सुकोति- प्यनुवृत्तिः संभाविता एकयोगनिर्दिष्टत्वादिति तदननुवृत्ति रागे ॥ ३. २. १२०॥ साधयति-पृथग्योगादषष्ठी-तृतीयादिति निवृत्तमिति
ईयस्य षष्ठय] विधानात कारकस्य तृतीयान्तेनापि विग्रहे. 20 त० प्र०-वेति निवृत्तम् पृथग्योगात् । अषष्ठी
ऽन्यस्य दागमदर्शनाल्लक्ष्यकचक्षुषा आचार्येण तदर्थमेव तृतीयान्तादन्यशब्दाद् आशिस् आशा आस्थित आस्था उत्सुक
पृथग्योगोऽयमारब्ध इति तत्सामर्थ्यादेकयोगनिर्दिष्टानाऊति राग, इत्येतेषत्तरपदेषु दोऽन्तो भवति । अन्या आशी:
मिति न्यायस्य बाधेन #चिदेकदेशोऽप्यनुवर्तते इति । अन्यदाशीः, अन्या आशा-अन्यदाशा, अन्यमास्थितः-अन्यदा
न्यायमाश्रित्य 'अन्याद् दो' इत्येतावन्मात्रमत्र सम्बध्यत स्थितः, अन्या आस्था-अन्यदास्था, अन्यस्मिन् उत्सुकः-अन्य
इति भावः । उदाहरति-अन्यस्यायमिति-षष्ठ्यर्थे शैषिक 25 दुत्सुकः, अन्या ऊतिः-अन्यदूतिः, अन्यत्र रागः-अन्यद्रागः।
ईयः, तत्र सूत्रं निर्दिशति--गहादित्वादिति-गहादिगणेऽन्यअषष्ठीततीयादित्येव-अन्यस्याशी:-अन्याशी:,अन्येनास्थितः
शब्दपाठस्य सन्दिग्धत्वेऽपि “गहादिभ्यः" [ ६. ३. ६३ ॥ अन्यास्थितः ॥ १२०॥
इति बहुवचननिर्देशस्याकृतिगणार्थत्वेन ईयो भवतीति भावः । rmanand
चतुर्थ्यन्तस्थलेऽप्युदाहरति-- अन्यस्मै हितमिति--"तस्मै श०म० न्यासानुसन्धानम्-आशी। इदमपि सूत्र-हिते" [७.१.३५ ] इत्यर्थनिर्देशकसूत्रे "ईयः" [ ७.१. मन्यशब्दस्य दागमविधायकमेव, ततश्च पूर्वत्रैव सूत्रे एषाम- २७ ] इत्यत 'ईय' इत्यस्याधिकारादीयः । कारके परेऽपि 30 प्युत्तरपदानां पाठो युक्त इति पृथक सूत्रमिदमनर्थकमित्या-षष्ठी-तृतीयान्ताभ्यां विग्रहं प्रदर्शयति---अन्यस्यान्येन
शङ्कायामाह--वेति निवृत्तं पृथग्योगादिति-पूर्वत्रसूत्रे वा कारकः इति-अन्यस्य कारक इत्यर्थे "कृति" [ ३. १. 65 "नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः३.२.११७ } इति सूत्राद् | ७७] इति समासः, अन्येन कारक इत्यर्थ: कारक वा ग्रहणस्यानुवृत्तिर्भवति, इह च तद् वाग्रहणं निवृत्तं कृता" [ ३. १. ६८] इति समास:, अन्यः कारकः स्यादित्यर्थमेव पृथकसूत्रकरणमिति भावः । अषष्ठीततीया- इत्यर्थे विशेषणसमासः । * नाम ग्रहणे लिङ्गविशिष्ट्रस्यापि
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.. बृहवृत्ति-वृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२ सूत्र. १२१-१२२ ]
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ग्रहणम् * इति न्यायमाश्रित्याह---अन्यत्कारिकेति--अन्या सर्वांदिविष्वग्देवानामेव । उदाहरति-सर्वमञ्चतीत्यादिना, अन्यस्यान्येन वा कारिकेति विग्रहे यथायोगं विशेषणसमासा- सर्वशब्दे उपपदे अञ्चतेः किव: नामत्वादि, 'सर्व अञ्च' इति 35 दावनेन सूत्रेण पूर्वोक्तन्यायसहकारेण कारिकाशब्दे परेऽपि ; स्थितावनेन डद्रिः, डित्त्वसामर्थ्यादन्त्यस्वरादिलोपः, 'सर्वद्रि दागमो भवतीति भावः ।। ३. २. १२१ ॥
| अञ्च' इति स्थिती स्यादिनिमित्तककार्येषु सत्सु-सर्वद्रय इति । सर्वद्रीचः इति--'सर्वद्रि 'अञ्च् अस् इति स्थिती
नलोपे, “अच्च् प्राग् दीर्घश्च" [ २. १. १०४ ] इति चादेशो 5 सर्वादि-विष्वग्देवाड्डद्रिः क्वयञ्ची दीर्घश्च। स्त्रियां ङयां नलोपादी--सर्वद्रीचीति । प्रकृतं 40 ॥३. २. १२२॥
विग्रहादिकमन्यत्राप्यतिदिशति--एवं-तद्रद्यङ, इति--तम
ञ्चतीति विग्रहे डद्यादिः पूर्ववत् । अदद्रयङ इति--- त०प्र०-सर्वादेविष्यग-देवशब्दाभ्यां च परः क्विवन्ते
अमुमञ्चतीति-विग्रहः, अत्र "वाऽद्रौ" [२. १. ४६ ] इति sञ्चतावुत्तरपदे परे डनिरन्तो भवति । सर्वमञ्चतिसर्वघड, सर्वञ्चौ , सर्वध्रुञ्चः, सर्वद्रीचः, सर्वद्रीचा, .
सूत्रेण द्वितीयदस्य मत्वे "मादुवर्णोऽनु" [२. १. ४७ ] इत्यु10 सर्वद्रीची; एवं-ताङ, ताङचौ, तञ्चः , तद्रीचः, तद्रीचा,
वर्णादेशे च--"अदमुयङ्' इति, प्रथमस्यैव मुत्वे-'अमुद्रयङ्' 45 तद्रीची; अदाङ, अदघूञ्चौ, अदद्यूञ्चः; अदद्रीचः,
। इति, उभयोमुत्वे-'अमुमुयङ' इति, विकल्पपक्षे सर्वथा मादेअदद्रीचा, अदद्रीची; कयुङ, कञ्चौ, कञ्चः, कद्रीचः,
| शाप्रवृत्तावृवर्णस्याऽप्यभावे-'अदयङ' इति रूपमिति स्यादिकद्रीचा; ब्याङ, म्द्याञ्चौ, व्याञ्चः। विषू अवतीति
प्रक्रिया बोध्या । यदुक्तम्--- विषः, विष्वमञ्चति-विष्वङ, विष्वञ्चमञ्चति, विष्व
"परतः केचिदिच्छन्ति, केचिदिच्छन्ति पूर्वतः । गित्यव्ययं वा विष्वगञ्चति-विष्वाङ, विष्वाञ्ची,
उभयोः केचिदिच्छन्ति केचिदिच्छन्ति नोभयोः ॥१॥"50 विष्वाञ्चः, विष्वद्रीचः, विष्वद्रीचा, विष्वद्रीची; देवानञ्च
तथा च स्वमते सर्वेषां संग्रहः । कद्रद्यङ इति-- तीति-देवाङ, देवाञ्चौ, देवञ्चः , देवदीचः, देवद्रीचा; । किमञ्चतीति विग्रहः । विषू अवतीति-विषुर्नाम मुहूर्त देवद्रोची। सर्वादि-विष्वग्-देवादिति किम् ? अश्व- । इत्यभिधानचिन्तामणिः, दिनरात्र्योः साम्यावस्थायामिति मञ्चति-अश्वाची, विष्वमञ्चति--विषुची । अञ्चाविति केचित्, विषूपपदादवतेः क्वौ स्वृति-अव ऊकारे सन्यौ च किम ? विश्वयुक्, विष्वग्युक्, देवयुक् । क्वीति किम् ? विषूरिति, विष्वमञ्चतीति विग्रहे विष्पपदादञ्चतेः क्वि:- 55 विष्वगञ्चनम् । धातुग्रहणे तदादेः समुदायस्य ग्रहणं प्राप्नो-| विष्वङिति, प्रकारान्तरेणाह--विष्वगित्यव्ययं वेति-- ताति क्वीत्युक्तम् । डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः॥ १२२॥ | तथा च तस्याव्युत्पन्नत्वस्वीकारेऽपि न क्षतिः; विष्वगन्च
तीत्यव्ययमाश्रित्य विग्रहः, पूर्वोक्तस्य तु विष्वमन्चतीति
। विग्रह एव युक्तः, अत्रापि डद्रौ सति विष्वद्रयडिति । श० म० न्यासानुसन्धानम्-सर्वादिः । सर्वादि- | देवशब्दविषयमुदाहरति--देवानश्वतीति विगृह्य, स्पष्टा- 60 र्गणः, विष्वग्-देवशब्दौ च समाहारेण निर्दिष्टौ, पञ्चमी- ! न्यन्यानि रूपाणि । पदकृत्यमाह-सर्वादिविष्वग्देवादिति
निर्देशाङ् डद्रेः परतो विधानमित्याश्रित्याह-परः इति, । किमिति--तथा च "डदिः क्वयाचौ' इत्येव सूत्रमस्तु, पूर्व25 परत्वे सति तस्य पूर्वोत्तरोभयपदानवयवत्वं स्यादिति शङ्का- |
पदसामान्यस्य क्विबन्तेऽश्चती परे डद्रिविधीयतामिति यामाह--डदिरन्तो भवतीति--अन्त्यावयवतया डदिरागमो प्रष्टुराशयः । एभ्योऽन्यस्य नेष्टो डदिरिति तद्वारणाय विशिभवतीति भावः; एवं च परत्वकथनमनर्थकमिति प्रतिभाति, ष्यैषां ग्रहणमावश्यकमिति प्रत्युदाहरति---अश्वाची पञ्चमी चोत्तरपदपरत्वसम्बन्धेऽपि संभवत्येव, तथा च ग्रन्थ- चीति-प्रसिद्धप्रयोगप्रत्युदाहरणार्थ स्त्रियामुदाहरणम्, अश्वा : कृतो वैचित्र्यमात्रमिदमिति मन्ये, पूर्वसूत्रेषु तथा व्याख्याना- चौशब्दस्य वैदिकप्रयोगे, विषूचीशब्दस्य च लौकिकप्रयोगेदर्शनात । क्विबन्तेऽञ्चताविति-सूत्रे 'क्वयञ्चों' इत्यत्र | ऽपि च प्रसिद्धः, अनयोर्डद्रयभावे स्त्रियां ङ्यां नलोपे "अच्च क्विपदं क्विबन्तपरमिति भावः, क्विबन्तश्चासावञ्चिः - प्राग् दीर्घश्च" [ २. १. १०४ ] इति चादेशो दीर्घश्च । क्वयञ्चिरिति विग्रहात् । डदिरन्तो भवतीति='अर्थात् ! अश्याविति किमिति-'क्वी' इत्येवोच्यता, प्रत्ययग्रहणे 70
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[पाद-२, सूत्र १२२-१२३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
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तदन्तग्रहणात् 'क्विबन्ते उत्तरपदे' इत्यर्थाश्रयणेऽपि 'सर्वद्रया | उत्तरपदे परे यथासंख्थ 'सध्रि''समि' इत्येतावावेशौ भवतः। इत्यादि सिद्धौ बाधकाभाव इति तदाशयः । यद्यपि * उत्त- सहाञ्चति-सध्रयङ, सध्रपञ्चौ सध्रयञ्चः, सध्रीचः, सरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे न तदन्तग्रहणम् इति न्यायः ध्रीचा, सध्रीची, सध्रीचीनः; समञ्चति-सम्य, सम्यञ्चौ, .
प्राप्नोतीति 'क्विबन्ते उत्तरपदे' इत्यर्थो दुर्लभस्तथापि सर्वा- सम्यञ्चः, समीचः, समीचा, समीची; समीचीनः। सह5 दिभ्यः क्विपोऽसंभवादेव तदन्तविधिसम्भव इति ध्येयम् । | सम इति किम् ? प्राङ्, प्राञ्चौ। अञ्चावित्येव-सहयुक्। 40
अव्याप्तिरूपदोषाभावेऽप्यतिव्याप्तिः स्यादित्याह-विश्वय संयुक । क्वीत्येव-सहाञ्चनम् समञ्चनम् ॥१२३ ॥ विष्वग्युक, देवयुगिति-विश्वेन युज्यत इति विश्वयुक्,
marwarmirmirmommummmmmmmmmmmarwareneurs विश्वशब्दः सर्वादिरिति तस्य विबन्ते युजौ परेऽपि इद्रिः
स्यात् ; एवं-विष्वग् युज्यत इति--विष्वग्युक् देवर्युज्यत श० म० न्यासानुसन्धानम्-सह० । सहेत्यव्ययं, 10 इति-देवयुक्। नन्वेतद्दोषपरिहाराय 'अञ्ची' इत्युच्यता, समित्युपसर्गः, अनयोरपि स्थाने आदेशविधानार्थमिदं सूत्रम्
तद्विशेषणं ववीति परित्यज्यतामित्याह--कीति किमिति-तत्रानयोः साक्षात् सम्पूर्णस्थानिताया इष्टत्वात् 'सहसमः विवबन्तस्थले धातुमात्रस्यैव प्रयोगात् धातुमात्रनिर्देशेऽपि | इति षष्ठयन्तमेवाश्रीयते, न तु पूर्वसूत्रादिवत् पञ्चम्यन्तम्, 45 स्यादेव पूर्वोक्तातिव्याप्तिवारणम्, अव्याप्तिश्च सुतरामेव । तदाह 'सह सम्' इत्येतयोः स्थाने इति । व्यञ्चावित्यनु
वारितेति व्यर्थमेव क्वाविति विशेषणमिति भावः । प्रत्युदा- वर्तत एवेत्याह-अञ्चतौ किनन्ते उत्तरपदे इति । 15 हरति--विष्वगश्चनम् इति-अत्रापि डदिः स्यादिति भावः । | स्थान्यादेशयोः समसंख्यत्वादाह-यथासंख्यमिति--प्रथमस्य
नन्वत्र नाञ्चतिमात्रपरत्वमपि लु अञ्चनमिति "अनट् " | स्थाने प्रममो द्वितीयस्य स्थाने द्वितीय आदेश इत्यर्थः । प्रत्ययान्ताञ्चतिपरत्वमिति कथं प्राप्तिरिति चेदनाह-सहाश्वतीति--सहेत्यस्य समकालमनगतभावेनेत्यर्थः तथा धातुग्रहणे तदादेः समुदायस्य ग्रहणं प्राप्नोतीति, | च क्रियाविशेषणत्वादस्यान्येन सम्बन्धाभावात् न तत
अयमाशय:----* धातग्रहणे तत्प्रत्यये कार्यविज्ञानम् * इति | स्ततीया, तथा च 'रामस्य सध्यक्ष लक्ष्मण' इत्यादय एव 20 न्यायेन यत्र यत्र धातुग्रहणं तत्र तत्र तस्मिन् प्रत्ययान्ते एव प्रयोगाः, न तु रामेण सध्या इत्यादयः, सहाञ्चतीति विग्रहे
कार्य भवति, अथवा प्रकृतमेव क्विग्रहणमन्यत्र धातुग्रहणे क्विपि सध्यादेशे नामसंज्ञादौ स्यादिकार्यम् । सधीचः तदादेः समुदायस्य ग्रहणमिति ज्ञापयति, यतः 'अञ्चौ' इत्यु- इत्यादौ चादेशो दीर्घश्च। समञ्चतीति-संगतं सम्यग् र यतेऽपि केवलस्याञ्चते: क्वावेव प्रयोगसत्वेन विवबन्ते एव वाऽञ्चतीति विग्रहार्थः। समीत्युपसर्गस्य सम्यादेशः, शेष
भविष्यतीति तस्य वैयर्थ्य स्यादेव, ततश्चाञ्ची क्वीति । पूर्ववत् । समीचीनः इतिसम्यगित्यर्थ एव "अदिस्त्रियां 25 विशेषयता आचार्येणायमर्थः सूच्यते, एवं च विष्वगञ्चन- वाञ्चः" [७. १. १०७.] इति सूत्रेण ईनः । सहसम इति
मित्यादी डदिनिवत्त्यर्थ स्वांशे चारितार्थ्यम। फलं चान्यत्र | किमिति----सामान्येन पूर्वपदमात्रस्य क्व्यञ्ची परतः अयस्कार इत्यादौ “अतः कृ-कमि-कंस०" [ २. ३. ५ ] इति | सध्रिसमी विधेयतामिति प्रष्ट्राशयः । प्राङिति-~~-प्रकृष्ट- 60 सत्व सिध्यतीति, अन्यथा अयस्कृदिति प्रयोगे कथंचित् सत्व- १ मञ्चतीति विग्रहे क्वौ क्विबन्ताञ्चतो परतः सत्यपि न
प्रवृत्तावप्ययस्कार इत्यादी न स्यात्, तत्र कृमात्रपरत्वाभावात् ।। भवत्यादेशः, 'सहसमः' इत्यस्याभावे तु स दुर्वार इति 30 नन्वत्र डकारस्य प्रयोगेऽश्रवणात किमर्थ विधेय समावेश इति तद्वारणाय तद्ग्रहणसार्थक्यम् व्यञ्चावित्यस्यापि सम्बन्ध
चेदत्राह-डकारोऽन्त्यस्वरादिनिवृत्त्यर्थः इति-"डि-त्य- आवश्यक इति खण्डशः कृत्यं दर्शयति---अञ्चावित्येवेति-- न्त्यस्वरादेः" । ८. १. ११४ । इति सूत्रेणान्त्यस्वरादिनि- क्विबन्तेऽन्यधातौ परत आदेशनिवृत्त्यर्थमञ्चावित्यस्य र वृत्तिसिद्धये तत्समावेशो विधेय इति भावः ॥३. २. १२२।। सम्बन्ध आवश्यक इति भावः। क्व मा भूदित्याह--
सयुक् संयुगिति । अञ्चावित्यस्य विशेषणभूतं क्वीत्य
प्यावश्यकमित्याह-कीत्येवेति-प्रत्ययान्तरान्ताञ्चौ परतः सह-समः सध्रि-साम।। ३. २. १२३ ॥ प्रवृत्तिवारणार्थ . क्वीत्यप्यञ्चतिविशेषणमावश्यकमेवेति 35 स०प्र०--सह सम् इत्येतयोः स्थानेऽञ्चती क्विबन्ते , भावः । प्रत्युदाहरणमाह--सहाञ्चनं, समश्चन मिति- 70
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बृहवृत्ति-बृहन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१२३-१२५]
यातुग्रहणे तदादेः समुदायस्य ग्रहणम् इति पूर्वोक्तनिय- नात् ॥३. २. १२५ ॥ मादिह प्राप्तिः, तद्वारणाय क्वीत्यप्यावश्यकम्, तस्मिन् ।
त०प्र०--ना शब्द उत्तरपदे परेऽकारो भवति । सति प्रत्ययान्तरान्तेऽञ्चतौ तु नभवति सूत्रप्रवृत्तिरिति
अचौर:-पन्थाः, अमक्षिको-देशः, अमशकं वर्तते, अमक्षिकं 35 ।। ३०२. १२३ ।।
वर्तते, अहिंसा, अस्तेयम् । कारः किम् ? पामनपुत्रः । उत्तरपद इत्येव-न भुडाक्ते ॥१२५ ॥
5 तिरसस्तियति ॥ ३. २. १२४ ॥
. श० म०न्यासानुसन्धानम्-नयत् । 'उत्तरपदें त० प्र०--तिरस्शब्दस्याति-अकारादावञ्चतो विव- इति सम्बध्यते ! नन इति प्रथमान्तमेव, तस्यैव अत् इति बन्ते उत्तरपवे परे 'तिरि' इत्ययमादेशो भवति । तिरस्ति- विधेयत्वविशिष्टं विशेषणमिति सामानाधिकरण्येन सूत्र 40 रको वा अञ्चति-तिर्यङ, तिर्यञ्चौ, तिर्यञ्चः, तिर्यग्भ्याम्, | व्याख्याति--नन् शब्द उत्तरपदे परेऽकारो भवतीति, तियंग्भिः, तिर्यग्भ्यः, तिर्यक्षु । अतीति किम् ? तिरश्चः, एतच्च लाधवानुरोधिसूत्रनिर्देशानुसारं व्याख्यानं, वस्तुतस्तु .
नशब्दस्य नकाराऽकाररूपस्य स्थाने अकारमात्रप्रयोगः 10 तिरश्चा, तिरश्ची, तिरश्चीनः ॥ १२४ ।।
कर्तव्य इत्येवानुशासनीयोऽर्थः । तथा च नः स्थानेऽकारो
भवेदित्यर्थः फलति, भवतीत्यादिपदानामनुवादकत्वं, भवतु 45 श० म०न्यासानुसन्धानम-तिरस०। व्यञ्चा- | भवेदित्यादि-पदानामनुशासकत्वमिति त्यादिप्रत्ययार्थनिर्देशकवित्यनुवृत्तम्, तस्यैव च अतीति विशेषणम्, 'तिरि' इत्य- | शास्त्रतः समुपलब्धेः। . विभक्तिको निर्देश: सौत्रत्वात, शब्दस्वरूपपरत्वेन क्लीबत्वं । अत्रेदं विचार्यते----'नन्' इति समय
वा, तदाह--तिरसशब्दस्याति इति । 'अति' इत्यत्रात्- नभित्यव्ययात् “अध्ययस्य." [ ७. ३. ३१] इति सूत्रेणाक 16 शब्दस्य वर्णबोधकत्वेन सप्तम्यन्तविशेषणत्वेन च "सप्तम्या भवति, स चान्त्यस्वरात् पूर्वमिति नक इति रूपम, तेन 50 ।
आदिः" [३.४.११४. ] इति परिभाषया तदादिबोधक- | नकशब्देन समासे नकचौर इत्यादी अकविशिष्टस्य नमः त्वमित्याह---अकारादाविति । 'तिरि'इत्ययमिति-- | स्थानेऽपि अकारादेशे--अचौर इति स्यात । अकोऽन्त्यआदेशस्वरूपभङ्गभिया असन्धिनिर्देश:। उदाहरति--तिर- स्वरात् पूर्व विधानेन तन्मध्यपतितत्वान्नग्रहणेनैव नकस्य
स्तिरको वेति--'तिरस्' इत्यव्ययेन तिरोधायकार्थेन तिर- | ग्रहणात्, यथा किम्शब्देऽपि ककिम्शब्दस्य स्थाने “किमः 20 कशब्देन वा विग्रहेऽस्वपदविग्रहान्नित्यसमास इति भावः, ! कस्तसादी च" [२. १. ४०] इति सूत्रेण कादेशो भवतीति 55
तिरकोऽञ्चतीति विग्रहे तिरस्शब्देन सहैव समासात् तिरस-तत्रापि क इत्येव रूपम्, एवमिहापि नकस्य स्थाने अकारास्तिरिः सिध्यति, स्यादिनिमित्तकार्यादिकं च स्वयमूहनीयम् । देशे ‘अचौर' इत्याद्येव रूपं स्यात्, इष्यते तु अकचौर पदकृत्यमाह-अतीति किमिति-अकारादावञ्चतावि., इत्यादि। तदर्थमेवान्यः पाणिन्यादिभियाकरण सो नकारत्यर्थः किमर्थमाश्रीयत इति भावः, यत्राकारादित्वं नास्ति ! स्यैव लोप आरभ्यते न त नजोकारादेश इति Fa 5 तत्र न भवति तिर्यादेशः, अतीत्यस्याभावे च तत्रापि स्यादि-। संगच्छत इति चेत् ? अत्राभिदध्महे-नशब्द: स्वसम्बन्धि- 60 त्याह प्रत्युदाहरणद्वारा---तिरश्चः इत्यादिना, अत्र "अच्च नकारे [नकाराकारसमुदाये] लाक्षणिक: तथा च नजप्राग दीर्घश्च" [२. १. १०४.] इति 'अच्' इत्यस्य स्थाने | शब्दसम्बन्धिनोर्नकारा-कारयोः स्थानेऽकारो भवतीति चादेशादकारादित्वाभावः, दीर्घश्च स्वराभावान प्रवर्तते। नाकविशिष्टस्य तस्याकारः।
तिरश्चीनः इत्यत्र तिर्यगेवेत्यर्थे स्वाधिक ईन:, सर्वत्र अथापरं विचार्यते---न मानव इति विग्रहः--वाक्ये. 20 स्वरादिप्रत्ययसत्त्वात् चादेश इति न तिर्यादेशः, तद्वारणाय | मानवभिन्न इत्यर्थ इति 'अमानव' इत्यत्रापि स एवार्थों 65
'अति' इति क्व्यञ्चावित्यस्य विशेषणमावश्यकमिति ग्राह्यः, वृत्तिविग्रहयोः समानार्थत्वनियमात । इत्थं च भावः ।। ३. २. १२४॥
तत्पुरुषसमासे उत्तरपदार्थप्राधान्यं सर्वतान्त्रिकसम्मतं विह
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पाद-२, सूत्र-५२५ }
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।।
न्यते, पूर्वपदार्थभूतस्य भेदस्यैव प्राधान्यप्रतीतेः । अत्रोक्तं । अमक्षिको देशः इत्यपि बहुव्रीह्यदाहरणमेव । अमशक भूषणे---"आरोपितत्यं नत्रद्योत्यं नद्यसोऽप्यतिसर्ववत" ! वर्तते इत्यव्ययीभावः, मशकानामभाव इति विग्रहे "विभ-35
। अस्यायमाशय:--'अतिसर्वाय' इत्यादौ अतिक्रान्तः । क्तिसमीप"|३.१.३९] इति समासः, अनेनाकारादेशः । सर्वमिति विग्रहे "अतिरतिक्रमे च" [३. १. ४६] इति ! एवम्--अमक्षिक वर्तते इत्यत्रापि । अहिंसेति तत्पुरुषसमासे सर्वार्थस्य गुणीभावात् सर्वाद्यर्थप्रधान कार्याणां 'स्मै' | समासः, एवम्---अस्तेयमित्यपि । अकारः किमिति-- इत्याद्यादेशानामभाववत् 'न स:---असः' इत्यादौ सर्वा- | "नात" इत्येव सूत्र्यतां प्रतिपदोक्तत्वान्निषेधार्थ एव नकारो द्यर्थप्रधानकार्याणामभावो न दश्यतेऽतो नअसमासे नबर्थो न ग्रहीष्यत इति अकारविशिष्ठपाठो व्यर्थ इति शङ्का । प्रत्य- 40 भेदोऽपि तु आरोपितत्वम्, तथा च आरोपितः सः-असः, ! दाहरणेनोत्तरयति--पामनपुत्रः इति--पामा अस्यास्तीआरोपितो मानवः--अमानव इत्यादिरूपेणैव तत्रार्थ:,
त्यर्थे "नोङ्गादेः'' [७. २. २९] इति ने-पामन इति, ___"तत्सादश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता।
पामनस्य पुत्र इति विग्रहे षष्ठीसमासः, अत्र सूत्रे अकाराअप्राशस्त्यं विरोधश्च नर्थाः षट प्रकीर्तिताः ॥" ! भावे कस्य नस्य ग्रहणमिति विनिगमकाभावात् प्रत्यय- इत्युक्तदिशोक्ता नबर्यास्तु पाष्णिकतया प्रतीयन्त नकारस्यापि ग्रहणापत्तावुत्तरपदपरत्वसत्त्वाच्चेहापि नकार-45 इति नोत्तरपदार्थप्राधान्यहानिरिति तत्र भवति सर्वादिनि- स्याकारः स्यादिति तनिवृत्तये अकारविशिष्टः पाठः कृतः, मित्तककार्यमिति । एतदर्थे ज्ञापक च "एतदश्च व्यञ्जने- ! कृते च तथापाठे अकारविशिष्टो नकारो निषेधार्थोऽव्ययऽनग्-नसमासे" [१. ३.४६] इति सूत्रेऽनवसमासग्रहणमेव, मेवेति तस्यैवाकारादेशी भवति, न प्रत्ययभूतस्य तस्येति तद्धि ‘अनेषो याति, इत्यादौ सेलुंगभावार्थ क्रियते, नसमासे । दोषाभावः । विग्रहवाक्यानुरोधेन नअर्थप्राधान्ये स्वीकृते च तत्र सर्वादेर
___अत्रत्वं केत्रित् प्रत्यवतिष्ठन्ते----चादिषु अकाररहित 50 प्राधान्येन “आवरः" [२.१.४१] इत्यस्याप्रवत्या व्यञ्ज- एवं नब् पठ्यता, तस्यैव चेह ग्रहणमास्थीयताम, प्रतिपदोबार
क्तत्वात् स एव ग्रहीप्यते, न तु लक्षणविहितः प्रत्ययनकार 20 तदर्थ तद्ग्रहणस्य [अनञ्-समासग्रहणस्य] वैयर्थ्यमेव स्थात्,
इति पामनपुत्र इत्यादौ दोषाभाव इति । अत्रेदमुच्यते--तथा व्यर्थीभतं च तन्नजसमासे उत्तरपदार्थप्राधान्यं ज्ञापयति । सति प्रत्ययाऽप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव इति न्यायेन प्रत्ययतच्चारोपितत्वार्थस्वीकार एव सम्भवति ।
भूतस्य नस्यैव ग्रहणं स्यान्न तु लक्षणप्रतिपदोक्तन्यायेन 55 परे तु पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभाव उत्तरपदार्थप्रधान- |
चादिपठितनस्य, तथा च 'अचौरः पन्थाः' इत्यादौ न स्यात, स्तत्पुरुष इत्यादिवादानां प्रायोवादत्वमाहः, उन्मत्तगङ्गमि- पामनपुत्र इत्यादौ च स्यादेत्वेयव्याप्त्यतिव्याप्त्यभयदोषा- .. त्याद्यव्ययीभावेऽन्यपदार्थप्राधान्यस्य, निष्कौशाम्बिरित्यादित- पत्तिः, प्रत्ययभूतनकारस्यापि लक्षणविहितत्वेऽपि लक्ष पुरुषे पूर्वपदार्थप्राधान्यस्य, द्वित्रा इत्यादिबहुव्रीहावुभयप
नत्वाभावात् । लक्षणनिष्पन्नत्वमप्रसिद्धलक्षणादिपरिज्ञाधार्यप्राधान्यस्य च दर्शनादुक्तनियमस्य व्यभिचरितत्त्व
तत्वं वा लाक्षणिकत्वं, न तु लक्षणविहितत्वम्, तच्छब्दा- 60 दर्शनात् । इत्थं च 'अमानव' इत्यादौ पूर्वपदार्थप्राधान्येऽपिन
नवादेन विहितत्वमिति प्रतिपदोक्तत्वमपि प्रत्ययनकारेऽस्त्येतत्पुरुषलक्षणासङ्गतिर्नवा तस्य सर्वादित्वहानिः, अन्यपदार्थ
वेति दोषापत्तेर्दुवारत्वात्, एवं च सानुबन्धपाठस्य व्यावत30 निरूपितोपसर्जनत्वसत्त्व एव सर्वादित्वहानिस्वीकारात, प्रकते। कस्यावश्यकत्वमस्त्येव । न च सानुबन्धपाठेऽपि "प्रागवत: चन नमर्थभेदं प्रति सर्वादीनामुपसर्जनत्वं वाक्यार्थबोधे
स्त्रीपुसात् नञ् स्न" [ ६. १. २५ ] इति विहितो नम् समुदायस्यैव प्राधान्य प्रतीतेरिति न किमपि दषणमिति ! कुतो नात्र ग्रहीष्यते, तथा च स्त्रैणपुत्र इत्यत्रापि नकारस्यापूर्वोक्तारोपितत्वादिकल्पनाऽनावश्यकीत्याहुः । [अत्रान्य
| कारादेशः स्यादेव, किञ्च तस्यैव स्यान्नतु चादिपठितस्य व्याख्यातभिर्नरर्थविचारो महताऽऽडम्बरेण कृतोऽस्माभिर
प्रत्ययाप्रत्यययोरिति न्यायादिति वाच्यम, आदिस्वरवद्धिरूप35 नुपयुक्तत्वादुपेक्षितः, सति तज्जिज्ञासोदयेऽन्यत्र दर्शित दिशा- कार्यकारित्वेन चरितार्थानुबन्धस्य नअप्रत्ययस्य सार्थक्येन ऽक्सेयमिति ]
! "नोङ्गादेः" [ ७. २. २९ ] इति सूत्रविहितनकारनिवृत्तिप्रकृतमनुसरामः-अचौरः पन्थाः इति न विद्यते । फलकस्य बकारस्य तदकारित्वेऽचारितार्येन च तस्यैव 70 चौरो यस्मिन् स इत्यर्थः, बहुव्रीहिसमासेऽनेनाकारादेशः । | ग्रहणस्यौचिदित्यादास्तां विस्तरः । . १६
25.
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१२२
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र १२६-१२७ ]
%3
उसरपद् इति किमिति-ननः प्रायः पदान्तरेण | शङ्कापूर्वकं तस्य सार्थक्यमुपपादयति- -अ-मानो नाप्रति 35 सम्बन्ध एव प्रयोगादुत्तरपदपरत्वे एव प्रतिष्यत इत्युत्तर- | षेधे इति--न निषेधार्थक: अकारोऽपि प्रकृतकोषबलात् तदपदे इत्यस्यानुवृत्तिरिहानथिकेति प्रष्टुराशयः । उत्तरपदश- र्थक इत्यवगम्यते, इत्थं च निषेधार्थनाकारेणापचसि त्वं जाल्मेब्दस्य समासचरमावयवे योगरूढत्वं नतूत्तरं च तत् पद- त्यादिप्रयोगाणां सिद्धिरस्त्येवेति सूत्रमिदमनर्थकमित्याशङ्का।। मिति व्युत्पत्तिलभ्ययौगिकार्थमानपरत्वम. तथा चोत्तरत्र भवति अपचसि' इति प्रयोगसिद्धिः, न पचसि' इति प्रयोत्याद्यन्तपदादिसत्त्वेऽपि समासाभावान्न भवति तत्राकारादेशः, | गनिवृत्तिस्तु सूत्रं विना न सम्भवतीति तन्निवृत्तयऽनुत्तरपदे 40 'उत्तरपदे' इत्यस्य सम्बन्धाभावे च स दुरि इत्याह प्रत्यु- ऽपि क्वचिन्ननः स्थानेऽकारस्यप्रयोगार्थ च सूत्रस्य सार्थदाहरणमुखेन-न भुङक्त इति-नाम नाभ्नेत्यक्तेस्त्याद्य- क्यमिति समाधानाशयः ।। ३. २. १२६ ।।
न्तेन सह समासाभावान्नास्तीह 'भुक्ते' इत्यस्योत्तरपदत्व- | 10 मिति न भवत्यकारः ॥ ३. २. १२५ ॥
नगोऽप्राणिनि वा ॥३.२. १२७॥
त०प्र०-अप्राणिन्यभिधेये 'नग' इति निपात्यते वा। त्यादौ क्षेपे ॥३. २. १२६॥
न गच्छतीति-नगः, पर्वतः, अगः-पर्वतः; नगा:-वृक्षाः , र त०प्र०-त्याद्यन्ते पदे परतः क्षेपे गम्यमाने ना |
अगा:-वृक्षाः। अप्राणिनीति किम् ? अगो वृषल: शीतेन । अकारो भवति । अपचसि त्वं जाल्म! अकरोषि त्वं | पूर्वण नित्यमादेश प्राप्ते बिकल्पोऽयम् ॥१२७॥
जाल्म! त्यादाविति किम् ? न पाचको जाल्मः । क्षेप 15 इति किम् ? न पचति चैत्रः। 'अ-मा-नो-नाः प्रतिषेध'
श० म० न्यासानुसन्धनम्-नगो।' 'नअत्" इति इत्यकारेण प्रतिषेधार्थीयनैव सिद्धौ क्षेपे मनःश्रवणनिवारणा
सामान्यसूपस्यापवादसूत्राण्यारभमाण इदमाह, 'नग' शब्दे र्थम्, अनुत्तरपदार्थं च वचनम् ॥१२६॥
नकारस्याकारो विकल्पेन विधीयते, यदि प्राणिविषयकः 50
प्रयोगो न भवेदिति सूत्रार्थः, तदाह--अप्राणिन्यभिधेये श० म०न्यासानुसन्धानम्--त्यादौ०। क्वचिद- | इति । न गच्छतीति--तपूर्वाद् गमे: "नाम्नो गमः नुत्तरपदेऽपि नमोकारादेशस्येष्टत्वेन तदनुशासनार्थ सूत्रमि- | खङ्-डी च." [५. १. १३१ ] इति डः, अन्त्यस्वरादि20 दम्, 'नत्रत्' इति च पूर्वतोऽनुवृत्तमेव तथा चार्थमाह-- लोपे झस्युक्तसमासे सति “नत्रत्" [ ३. २. १२५ ] इति
त्याधन्ते पदे परतः इति । अपचसि त्वं जाल्म? इति- नित्यं प्राप्तमकारादेशं परत्वात् विशेषविहितत्वाच्च प्रबाध्य 55 कुत्सितं पचसीत्यर्थः समासाभावेऽपि-प्रयोगस्वाभाव्यादस्या- | विकल्पैनाकारादेशे-- अगः इति, पक्षे-नगः इति, पर्वतो कारस्य क्रियातः पूर्वमेव प्रयोगः, अत एव त्यादिपरत्वं सिद्ध- वृक्षश्च प्रसिद्धप्राणिभिन्न-इत्यप्राणिविषयत्वमस्त्येव । अप्रा
यति 'पचसि न जाल्म?' इत्यादौ च न भवति, इत्यं च न णिनीति किमिति-प्रायोप्राणिन्य व गमनाभावप्रवृत्तिनिमि25 तत्र क्षेपार्थावगतिः । त्यादाविति किमिति---"क्षेपे" कस्यास्य शब्दस्य प्रयोग इत्यप्राणिनीत्यव्यावर्तकमिति मत्वा
इत्येवोच्यता, पृथग्योगसामर्थ्यादेवास्योत्तरपदातिरिक्तविषये | प्रश्नः । अगो वृषलः शीतेनेति, अयमाशयः---प्राणिनि 60 त्यादावेव प्रवृत्तिः स्यादित्याशयः प्रष्टुःन पाचको जाल्म: स्वाभाविकं गमनाभाववत्त्वं माऽस्तु, औपाधिकं तु सम्भाव्यत इति-बहुलाधिकारात् समासाभावेनोसरपदपरत्वाभावात एवेति शीतनिमित्तिकजाउयाविर्भावाद् वृषलस्य शीतत्राणोपा.
पूर्वेण नाकारादेशः इह त्यादावित्यभावे च स्यादेवेति | यरहितस्य गमनाभाववत्त्वं सूपपन्नमिति तद्विषये नित्यमेवा30 तद्वारणाय त्यादावित्यावश्यकमिति भावः । क्षेप इति | कारो यथा स्यान्न त्वनेन विकल्प इत्येतदर्थमप्राणिनीत्यावश्य
किमिति-सर्वत्र त्यादी विधीयतामकारादेश इति भावः । । कमिति भावः । सम्पूर्णसूत्रस्यैव वैयर्थ्यमाशङ्कय सार्थक्यमाह- 65 न पचति चैत्रः इति-प्रकृतेऽपि स्यात्, इष्यते तु नैवेति । पूर्वेण नित्यमादेशे प्राप्ते इति-"नअत्" [३. २. १२५] तद्वारणायावश्यकं 'क्षेपे' इति भावः । सूत्रं विनापि 'अप- | इति सामान्यसूत्रेण सर्वत्रैवोत्तरपदे ऽकारादेशे नित्यं प्राप्त चसि त्वं जाल्म?' इत्यादिप्रयोगसिद्धिरिति सुत्रस्य वैय..] इति प्रकृते विकल्पार्थ सूत्रमिदमिति भावः ।।३. २. १२७॥
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[ पाद-२, सूत्र-१२८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
१२३
नखादयः ॥ ३. २. १२८॥ | पातीति पात्, पातेः शतप्रत्ययः, स्यादिविभक्तौ धुटि "ऋदुत० प्र०-नखादयः शब्दा अकृताकाराधादेशा निपा- दित:" [१. ४. ७०] इति नाऽन्तादेशे प्राप्ते तदभावोऽपि त्यन्ते । नास्य खमस्तीति-नखः, न भ्राजते इति-नभ्राट, । निपातनादेवेत्याह---निपातनात् तु नाभावः इति । अस्य
क्विबन्तः; न पातीति-नपात्, शत्रन्तः, त्रिलिङ्गोऽयम, निपात- च लिङ्गत्रयेऽपि विशेषणतया प्रयुज्यमानत्वादाह--त्रिंलि- an 5 नात्तु नाभावः; न वेतीति-नवेदाः, औणादिकोऽस्; सत्सु । गोऽयमिति । न वेत्तीति-नवेदाः इति--विदेरोणादि
साषुः-सत्यः, साधौ यः, न सत्यः-असत्यः नासत्यः, नासत्यो, । केऽसि वेदसशब्दः सिध्यति, तस्य सि विभक्ती “अम्वादेरत्वसः नासत्याः, न मुञ्चतीति-नमुचिः, औणादिकः किः, नास्य सौ" [१. ४, ९०] इति दीर्घ-वेदा इति, न वेदा इति विग्रहे कुलमस्तीति-नकुलः । कथं न न भ्राजते किंतु भाजत एवेति- तत्पुरुषसमासेऽनेन ननोऽकारादेशाभावो निपात्यते । सत्सु
नभ्राट् ? पुषोदरादित्वादेकस्य ननो लोपे भविष्यति, साधुरिति--सच्छब्दात् साध्वर्थे यप्रत्ययः, न सत्य:10 एवं-न न पाति-नपात, न न वेत्ति-नवेदाः, न म मुञ्चति- असत्यः इति---अत्राकारादेशो भवत्येव, असत्यशब्दस्य
नमुचिः, न न कुलमस्त्यस्य-नकुलः, न न खमस्त्यस्य-नखः, | गणेऽपाठात्, नासत्यशब्दस्यैव हि गणे पाठो दृश्यते । न न पुमान् न स्त्रीति-नपुंसकम्, अत एव निपातनात् स्त्री- असत्यौ इति विग्रहे चानेनाकारदेशाभावो निपात्यते पुंसयोः पुंसकादेशः। नक्षीयते , न क्षरति वा-नक्षत्रम्, औणा- | "नासत्यावश्विनौ दसौ' इति कोषः नासत्याः देवाः ।
दिके अटि क्षभावे निपात्यते, न कामति, न क्रीणाति वा-नक्रः, न मुञ्चतीति-नमुचिः मुचेरीणादिकः किः, इहापि नअप- 10 15 उप्रत्ययो निपातनात् नास्मिन्नकं दुःखमस्ति-नाकः, न ।
पदादेव मुचे: कि: केवलात् प्रयोगादर्शनात् । नकुलशब्दविद्यन्ते ग्नाः-श्रियः छन्दांसि वास्य-नग्नः; न अगः-नागः, न विद्यते भागोऽस्य-नभागः; नारमञ्चति-नाराचः, न
व्युत्पादयति--नास्य कुलमस्तीति-व्युत्पत्तिमात्रमेतत्, नकुआप्यत इति-नापितः, न मीयतेऽसाविति-नमेकः, नाभि
| लस्य कुलसहितत्वदर्शनात् न तत्र तदर्थानुगतिः । एवमेकेन नन्दति वधूमिति-ननान्दा; नान्तरेण भवति-नान्तरीयकम् ।
नत्रा सह विग्रहे प्रकृतप्रयोगान् व्युत्पाद्य नद्धयसत्त्वेऽप्येवमेव 20 न न चिकेत्ति-माचिकेतः, अत एव निपातनात् कित् ज्ञानार्थो
रूपाणीति दर्शयितुं शङ्कते--कथं न न भाजते किन्तु 55 जुहोत्यादौ द्रष्टव्यः, अस्माच्च नञ द्वयोपपदानाम्नि शव्
भ्राजत एवेति-नभ्राडिति----नदयस्य प्रकृतार्थदाद्यप्रत्ययो भवति । बहुवचनमाकृतिगणार्थम, तेन-नास्तिकः,
बोधकत्वात् यत्रावश्यभ्राजनं प्रतीयते तादृशस्यलेऽपि नभ्रानभः, नारङ्गमित्यादयोऽपि द्रष्टव्याः ॥१२८॥
डिति प्रयोगो दृश्यते स कथमुपपद्यत इति शङ्काग्रन्थार्थः । तत्साधनोपायमाह--पृषोदरादित्वादिति, अयमाशयः---
तादृशाः प्रयोगा न केवलं प्रकृतसूत्रसाध्या अपि तु पृषो- 60 श० म० न्यासानुसन्धानम्-नखा०। प्रतिशब्द | दरादित्वं तेष परिकल्प्यकस्य नो लोपे कृते द्वितीयस्य 25 नादेशनिषेधे गौरवमभिसमीक्ष्य यत्र यत्राकारादेशो नेष्ट
नञोऽनेनाकारादेशाभावनिपातनमिति । प्रकृतां प्रक्रियामक्तेषु स्तादृशानां शब्दानामेकस्मिन् गणे सन्निवेशं परिकल्प्य
सर्वेष प्रयोगेषपपादयति-एवं-न न पाति-नपादिति । सूत्रमिदमारब्धवानाचार्यः, तथा च निपातनपरत्वमेव सूत्र- अथान्यान्युदाहरणान्याह--न पुनान् न स्त्रीति--अत्रकस्यस्येति फलतीत्याह-नखादयः शब्दाः इति । एवं च नञः पृषोदरादित्वाल्लोपे पुंस्त्रीति समुदायस्यानेन पुंसकादेश
निपातितानां रूढिशब्दानामेषां पूर्वोत्तरपदसमुदायार्थप्रदर्शक- इत्याह-- अत एव निपातनादिति--एतद्गणपाठसा30 विग्रहवाक्यादिप्रदर्शनमनावश्यकमपि कथंचिढ्यर्थस्य व्युत्प- | मादेव स्त्री-पुंसयोः पुंसकादेश इत्यर्थः, विग्रहवाक्ये त्याऽपि लाभसंभव इति प्रदर्शनाय तेषां यथाकथंचिद विग्र
स्त्रियाः पश्चात् पाठेऽपि स्त्रीपुंसयोरित्युक्तिस्तथापूर्वप्रयोगहादिकमाह-नास्य खमस्तीति--खन्यत इति खं.--- ! | नियमात्, "लध्वक्षराऽसखी." [३. १. १६०] इत्यनेनाल्प.... छिद्रम्, तदस्य नास्ति स नखः, बहुव्रीहिसमासे "नअत्" । स्वरस्य स्त्रीशब्दस्य पूर्वनिपातात्, न च पुंशब्दापेक्षया 70
३.२.१२५] इति प्राप्तोऽकारादेशो निपातनान्निवर्त्तत | स्त्रीशब्दस्य कथमल्पस्वरत्वमिति वाच्यम् समासान्ते कृते 35 इति तत्सिद्धिः । न भ्राजते इति विग्रहे भ्राजेः क्विप्, | पुंसेति समुदायस्य स्त्रीति समुदायापेक्षयाऽधिकस्वरवत्त्वात्,
उस्यक्तसमासेऽकारादेशो निपातनान्न भवति ।नपातीति--1 समासान्तप्रत्ययानामत्तरपदावयवत्वमित्यस्यापि सिद्धान्तस्य
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१२४
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससवलिते
[पाद-२, सूत्र-१२८-१२९ ]
भाप्याद्यारूढत्वात्, अथवा "स्त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च"]७.३.९६] | भवतीति लघुन्यासकृतः । वस्तुतस्तु अन्तरेणेति इति समासान्ताद्विवानेन स्त्रीवृत्तिमातृत्वमादाय तस्या । विभक्तिप्रतिरूपकमव्ययं विनेत्यर्थे वृत्तिदशायां तस्य 40 अVत्वमपीत्यर्च्यत्वादेव तस्याः पूर्वनिपात इत्यवधेयम् । । विभक्तिकृतो विशेषो न तिष्ठतीति न तस्य सप्तम्यन्तत्वनक्षत्रशब्दं व्युप्तादयति- न क्षीयते न क्षरति वेति-- सम्भवः । नाचिकेतः इति--एकस्य नोऽकारादेशो क्षीयतेः क्षरतेर्वा औणादिके वटि प्रकृतिभागस्य निपातनात् । द्वितीयस्यानेनाकारादेशनिषेधः । क्वचिच्चासन्तोऽयं शब्दो क्षादेशे समासे सति अनेन नजोकारादेशाभावो निपात्यत दश्यते, तत्र प्रथमैकवचने 'नाचिकेता:' इति स्यात्, नचिइति भावः, नक्षत्रं तारकासु रूढम् । न व्युत्पादयति-- : केतास्तु कठोपनिषदि प्रसिद्धोऽन्य एव । प्रकृतप्रयोगसिद्ध्यर्थं 45 नक्रामति न क्रीणातीति वेति- यद्यपि कामति क्रीणा- 'प्रकृतिभूतस्य धातोरपि निपातनज्ञाप्यत्वमेवेत्याह---अत
त्योरर्थे महान् भेद इति एकत्राथें तयो नुगतिस्तथापि एव निपातनात् कित् ज्ञानार्थो [धातुः जुहोत्यादौ 10 यथाकथंचिद्व्युत्पत्तिप्रदर्शनमेव रूढेषु कार्यम्, नार्थानुगतिर- द्रष्टव्यः इति, परे बैयाकरणास्तु धातुमिम जुहोत्यादौ पठन्ति ।
नुसन्धातव्येत्याशयेनैवमुवितः । कथं सिद्धिरित्याह-डप्रत्ययो रूपसिद्धिमाह--अस्माच्च नअद्वयोपपदादिति । नाम्नि निपातनादिति- लक्षणाप्राप्तस्य कार्यमात्रस्य लाभार्थमेव । शविते--निपातनादिति भावः, शवि कृते "हवः शिति" 50 हि निपातनमाश्रीयत इति डोऽपि शास्त्रान्तरेणाप्राप्तो निपा- [४.१.११.१ इति द्वित्वम, उपान्त्यगुणादिकार्य' च ।
तनलभ्य एवेति भावः। नाकशब्दं व्युप्पादयति- नास्मि- नखादिरित्येकवचनान्तनिर्देशस्यैवौचित्येन बहुवचनान्तनिर्दे15 नकं दुःखमस्तीति----कमिति शब्द उदकसुखयो रूढः, शस्य वैयर्यमाशङ्कयाह-बहुवचनमाकृतिगणार्थमिति ।
तद्विरोधित्वादकं दुःखमेव, तच्च नाके स्वर्गे नास्तीति तत्रा- | तत्कलमाह--तेन नास्तिकः इत्यादि-यद्यपि "नास्तिकार्थानुगतिरस्ति । नग्नशब्दं व्युत्पादयति-- न विद्यन्ते नाः स्तिकदैष्टिकम्" [६. ४. ६६.] इति सूत्रेणेव नास्तिकशब्दो 55 इत्यादिना, नग्नशब्दस्य मूर्खे दरिने च रूढत्वात् तत्रत-निपातित इति नास्ति ततद्गणान्तर्गतत्वावश्यकता, तथापि द्योगार्थानुगति रस्ति, बहुव्रीहिसमासे सति ननोऽकारादेशा
यदि न आस्तिक इति विगृह्य नास्तिकशब्दो व्युत्पाद्यते तदे20 भावो निपातनात् । नाराचं व्युत्पादयति-- नारमञ्चतीति--- |
दमुदाहरणं बोध्यम्, तत्र निपातितेन नास्तिकशब्देन नास्ति अरीणां समूहः-आरम् आरं न न-अञ्चतीत्यर्थानुगतं
परलोकादीति मतिर्यस्येति नास्तिक इति, अत्र निपातितेन च विग्रहवाक्यम एकस्य नमः पृषोदरादित्वाल्लोपे नारमञ्च
आस्तिकविपरीत इति बोधे विशेषः । नमः इति--- 60 तीति विग्रहः, बाणस्यारिसमहेऽवश्यगतिशीलत्वात् तथैव
बभस्तीत्यर्थ नअपपदात् भसः क्विर, नभातीति वाऽर्थे नत्रुपविग्रहीतुमौचित्यात् । अभिधानचिन्तामणिवृत्ती चाचार्या पदाद् भाते: "मिथिरञ्ज्युषि०" ९७१] इत्याधुणादि25 एवमाहुः-नरमञ्चति नराची, नराच्यास्तुल्यो नाराचः शर्क
सूत्रेण किदस् प्रत्ययः, आकारलोपः, अनेनोभयत्र नमोऽकारा. रादेरण. नराच्येव वा प्रज्ञादित्वात् स्वार्थऽण, नारं नरसमूह- देशाभावनिपातनम् । न रज्यत इत्यरङ्गम. न अरज... मञ्चतीति वा । न आप्यते इति "नराणां नापितो धूर्तः" नारङमिति, अत्र द्वितीयस्य नोऽकारादेशाभावो निपात्यते. 65 इति नीतिवाक्यानुसारं नापितस्य सर्वरप्राप्यत्यादेवं विग्र- रजेः कर्मणि घन अथवा रज्यतेऽस्मिन्निति रङ्गः, नास्ति
हार्थसंगतिः । न मीयतेऽसाविति--नमेरुवृक्षस्यातिपरिणा- रङ्गो यत्रेत्यरङ्गम्, इति यथाकञ्चिद् व्युत्पादनीयम्, 30 हित्वप्रसिद्धरेवमर्थानुगतिः। नाभिनन्दति वधूमिते-वधू- रूढिशब्देषु योगार्थानुगतिविचाराभावात् ।।३. २. १२८!
ननान्द्रोः परस्परमोाया लोकप्रसिद्धः, ननान्दुश्च स्वमातृसमीपे प्रौढ्या वक्तुं प्रभुत्वात् तस्या एव प्रकृतिः प्राधान्येनानेन पदेन प्रतिपाद्यते, सा हि सतीमपि भ्रातृजायां निन्द
अन् स्वरे ॥ ३. २. १२६ ॥ त्येव नाभिनन्दति, अन्यकुलप्रसूतेयमिहागत्याधिपत्यं करोति 35 अहमेतत्कुल पसुताऽपि नात्राधिकारवतीति मनोवृत्तिरेव तयोः । त०प्र०-नाः स्वरादावुत्तरपदे परे 'अन्' इत्ययमा- 70
परस्परं वैमनस्यकारणम, अत्राजन्तस्य नन्देरादिदीर्घत्वमपि । देशो भवति। न विद्यते अन्तोऽस्येति-अनन्तो जिनः, एवमनिपात्यते । नान्तरेण भवतीति--विग्रहवाक्यमिदं प्रयो-नादिः, अजानामभावोऽनजमः, न अश्वोऽनश्वः। अन इति गार्थप्रदर्शनमात्रम, सप्तम्यर्थविवक्षायामेर गहादित्वादीयो | स्वरूपनिर्देशात नलोपो द्वित्वं च न भवति ॥ १२९॥
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[ पाद-२, सूत्र- १२९ - १३१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१२५
।
श० म० न्यासानुसन्धानम् - अन्० । 'स्वरे' । इत्यनुवर्त्तते, 'नञ्' इति निवृत्तं स्थान्यन्तरनिर्देशात् । कुश- 35 इति सप्तम्यन्तम् ' उत्तरपदे' इत्यस्य विशेषणमिति "सप्तब्दश्चाव्ययमिह गृह्यते, तस्यैव विशिष्य [ प्रतिपदोक्तत्वेन ] म्या आदि:" [ ७. ४. ११४ ] इति परिभाषाबलात् तदा । "गति क्वन्यस्तत्पुरुषः " [ ३. १.४२ ] इति समासविधाद्यर्थकमित्याह-- स्वरादावुत्तरपदे इति । नञोऽकारादेशः । नात्, तथा च पृथ्वीवाचक्कुशब्दस्य नायमादेशः । एवं च 5 पूर्वसूत्रेण निपातनवलान्निषिद्ध इति निषेधप्रकरणाभावादा- | कुं- पृथ्वीमतीतः वक्तीत इत्यादी तत्पुरुषे कदादेशो न भवति, देशप्रकरणस्यैव प्रवर्तमानत्वमित्यनेन नञः स्थानेऽन् आदेशो तत्र हि द्वितीयान्तत्वेन कुशब्दोऽत्यो ग्राह्यइति द्वितीया- 40 विधीयत इति न प्रकरण विच्छदः । न विद्यतेऽन्तोऽस्येति- न्तत्वस्य सामान्यरूपेण लक्षणरूपत्वेन वा तत्समासस्य लाक्षअनन्तो जिनः इति न विद्यते ऽन्तो यस्येति बहुबीहिसमासे- णिकत्वात् । तथाचोदाहरति- कुत्सितोऽश्वः -कदश्वः इतिऽनादेशः, अन्तश्च परिच्छेदः; स च त्रिविधो देशिकः कालिकः “गति क्वन्यस्तत्पुरुषः [ ३.१.४२ ] इति समासः, कोः 10 प्रतियोगिकश्च दैशिकस्तावत् किञ्चिद्देशपरिच्छिन्नत्वम्, कदादेशश्चानेन । एवं कदुष्टः इत्यादावपि विज्ञेयम् । कालिकस्तावत् किञ्चित्कालपरिच्छिन्नत्वम्, प्रतियोगिक तत्पुरुष एव विशिष्य कुशब्दस्य समासविधानात् तत्पुरुषे 45 स्तावत् केनचित् प्रतियोगिना परिच्छेदः, जिनस्य च सर्वत्र एव भविष्यतीति प्रकृतसूत्रे 'तत्पुरुषे, इत्यव्यावर्त्तकमिति सर्वदा सर्वस्मिञ्जने व्याप्य स्थितत्वान्न केनापि परिच्छेद- शङ्कते - तत्पुरुष इति किमिति । "नवत्" [ ३. २. १२५] इत्यनन्तत्वं तस्य । एवम् - - अनादिरिति-न अस्त्यादिः इत्यादिपूर्व सूत्रैर्विहिता आदेशा यथा सर्वेषु समासेषु प्रवन् 15 पूर्वपरिच्छेदो यस्य सोऽनादि, अन्तशब्दस्यापरपरिच्छेदवा- तथाऽयमपि प्रवत्तिष्यते, कुशब्दमुचार्य विहितसमासस्यैवेह चित्ववदादिशब्दस्यापि पूर्वपरिच्छेदवाचकत्वमिति तथैव ग्रहणमित्यर्थनियामकाभावादिति बहुव्रीह्यादावपि प्रवृत्ति - 50 [ अनन्तशब्दवत् ] अनादिशब्दस्यापि सर्वथा पूर्वपरिच्छेद दुवारेति प्रत्युदाहरणमुखेनाह - कुत्सिता उष्ट्रा अस्मिन्निति, राहित्यमर्थः । अव्ययीभावमुदाहरति- अजानामभावी एवं च बहुव्रीही प्रवृत्तिवारणार्थ 'तत्पुरुष' इत्यावश्यकमिति Sनजमिति । तत्पुरुष उदाहरति-न अश्व इति - अश्वप्रति- भावः । स्वर इत्यस्य सम्बन्धोऽप्यावश्यक इत्याह-- खर 20 योगिक भेदवानित्यर्थः । नञः स्थानेऽनादेशे सति न लोपः इत्येवेति । व्यावर्त्त्यमाह - कुत्राह्मणः इति कुत्सितो ब्राह्मण इति विग्रहः तत्पुरुषसमासे सत्यपि स्वरादित्वा - 55 भावादुत्तरपदस्य तस्मिन् परे न भवति कदादेश इति भावः ॥ ३.२.१३० ।।
नकारस्य ह्रस्वात् परत्वेन स्वरे परे तस्य " ह्रस्वान्द्र-ण- तो द्वे" [ १.३.२७ ] इति द्वित्वं च प्राप्नोति, तत् कथं न भवतीत्याशङ्कायामाह -- 'अम्' इति स्वरूपनिर्देशादिति अयमाशयः नलोपे सति अकारस्यैव शिष्टत्वे तद्विधानवैय25 र्थ्यात् सर्वत्र स्वरादावुत्तरपदे एवानादेशविधानेन द्वित्वस्य नित्यप्राप्ततया द्विनकारनिर्देशस्यैव प्रक्रियालाघवार्थ विधेयत्वं स्यादित्येक नकारान्ता देशस्वरूप निर्देश सामर्थ्यादिह नकारस्य लोपो द्वित्वं च न भवतीति ॥ ३२. १२९ ॥
को: कत् तत्पुरुषे ॥ ३.२.१३० ॥
30
त० प्र० -- तत्पुरुष समासे स्वरादावुत्तरपदे कुशब्दस्य 'कत्' इत्ययमादेशो भवति । कुत्सितः अश्वः - कदश्वः, कदुष्ट्रः, कदन्नम्; कदशनम्। तत्पुरुष इति किम् ? कुत्सिता उष्ट्रा अस्मिन् - कूष्ट्रो देशः । स्वर इत्येव - कुब्राह्मणः ।। १३० ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - को:० ।
रथवदे ॥। ३. २. १३१ ॥
त० प्र०--रथ-वदयोरुत्तरपदयोः कुशब्दस्य कदादेशो भवति । कुत्सितो रथः - कद्रथः, कुत्सितो रथोऽस्य - कब्रथः ; 60 कुत्सितो वदः--कद्वदः, कुत्सितो वदोऽस्य - कद्रदः । तत्पुरुष एवेच्छन्त्येके, अन्यत्र कुरथो राजा, कुवदो मूर्खः ॥ १३१ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - रथ० । पूर्वत्र स्वरादावित्युक्तत्वात् रथवदशब्दयोः परतोऽप्राप्तिरिति तयोः परतो विशिष्य कदादेशमाहानेन सूत्रेण, अयमपि तत्पुरुषे एव प्रच - 65 संत इति वक्ष्यति मतान्तरपरत्वेन, तथा च स्वमतेऽस्यान्यसमासेऽपि प्रवृत्तिः, पृथक् सूत्रारम्भादिति तत्पुरुषबहुव्रीह्य"स्वरे” । भयसमासमुदाहरति-- कुत्सितो रथः कुत्सितो रथो -
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१२६
कत्त्रिः । ३. २. १३३ ॥
|
स्येति च विग्रहाभ्याम् । वदनं वदः पुंसि नाम्नि घः, । कुत्सिदो वदः- कद्वदः, बहुव्रीहावाह - कुत्सितो वदो ऽस्येति । स्वमतमुदाहृत्य परमतनुवदति - तत्पुरुष एवेच्छ त्येके इति पूर्वसूत्रात् तत्सम्बन्धस्य सत्त्वादिति तेषामा5 शयः । तथा च बहुव्रीहौ न कदादेश इति तथोदाहरति-अन्यत्र कुत्सितो राजेति-विग्रहादिः पूर्ववत् । पाणिनीयेऽपि 'तत्पुरुष' इत्यस्येह---न सम्बन्ध इति कद्वदो मूर्ख इत्यादिप्रयोगदर्शनात् प्रतीयते, तथा चान्यस्यैव कस्यचन वैयाकरणस्य मतमिदम् ॥। ३. २. १३१ ॥
कदादेशो निपात्यते । कुत्सितास्त्रयः, के वा त्रयः - कन्नयः, त० प्र०—- कुशब्दस्य किंशब्दस्य वा त्रिशब्दे उत्तरपदे कुत्सितास्त्रयोऽस्य, के या त्रयोऽस्य-कत्रिः । किमो नेच्छन्त्यन्येकिंत्रयः ॥ १३३ ॥
10
बृहद्वृत्ति- बृहन्न्यास संवलिते
15
तृणे जातौ ३.२. १३२ ॥
त० प्र०—- कुशब्दस्य तृणे उत्तरपदे जातावभिधेयायां कदादेशो भवति । कुत्सितं तृणमस्याः कत्तॄणा नाम रौहिवाल्या तृणजातिः । जाताविति किम् ? कुत्सितानि तृणानि - कुतृणानि ॥ १३२ ॥
|
- श० भ० न्यासानुसन्धानम् - तृणे० । 'तृणे' इत्युतरपदविशेषणम्, जातावित्यभिधेयनियन्त्रणम्, कोः कदिति पूर्वतोऽनुवृत्तमिति सूत्रार्थमाह--'कु' शब्दस्य सृणशब्दे उत्तरपदे इति--अभिधेयविशेषनियमार्थमेव पृथग् योगा रम्भः । जातौ रूढत्वेनावयवार्थप्रतीत्यभावेऽपि पूर्वोत्तरपदाव20 गतये विग्रहवाक्यमाह-- कुत्सितं तृणमस्या इति--तथा
च बहुव्रीहिसमासेऽनेन कदादेशः । अभिधेयस्फुटीकरणार्थमाह -- रौहिषाख्या सृणजातिरिति-- रौहिषमित्याख्या पर्यायशब्दो यस्याः सा तृणजातिरित्यर्थः तथा च वनौषधिवर्गेऽमरकोषे ‘कत्तृणमित्युपक्रम्य "पौर सौगन्धिक-ध्याम-देव25 जग्धक- रौहिषम्” इत्युक्तम् । तृणोत्तरपदककुशब्दान्वितसमा सस्य प्रायस्तज्जातिवाचिन्येव प्रयोगादसत्यपि जातावित्यस्मिन् पदेऽन्यत्र न भविष्यतीति मत्वा तद्वैयर्थ्यमाशङ्कते - जाताविति किमिति । न कुशब्दपूर्व पदकतृणशब्दोत्तरपदकः समासस्तृणजात्यभिधान एव प्रयुज्यते, तृणनिन्दायामपि तादृशशब्दस्य 30 प्रयोगसम्भवादिति तद्वयावृत्त्यर्थमावश्यकं जाताविति पदमित्याह-- कुत्सितानि तृणानीति, तथा च तत्र कुतृणानीत्येवास्त्वित्यर्थं जाताविति पदम् । किञ्च जातावित्यस्यानावश्यकत्वे पूर्वत्रैव तृणशब्दपाठः कृतः स्यादित्यतोऽपि तस्थावश्यकत्वं प्रतीयत एवेति । ३. २. १३२ ॥
[ पाद-२, सूत्र- १३१-१३४]
35
श० म० न्यासानुसन्धानम् - कत्त्रिः । त्री' 40 इत्यनुक्त्वा कत्त्रिरिति निपातनसामर्थ्यनेह स्थान्यन्तरस्यापि कदादेशोऽनुमीयते तदाश्रित्याह-- कुशब्दस्य किंशब्दस्य वेति--- किमोऽपि क्षेपार्थविषये प्रयोगदर्शनात् कुत्सावाचकत्वेन यत्किञ्चिच्छन्दसाम्याच्च तयोरिह स्थानिता व्याख्यातेति वा । तत्पुरुषे बहुव्रीहौ च सामान्यतो निपातनमित्यपि 45 द्योतयति उभयथाविग्रहप्रदर्शनेन । कुत्सितास्त्रयः इति कुशब्देन सह समासाय के वा त्रयः इति किंशब्देन सह समासाथ तत्पुरुषसमास विग्रहवाक्यम्, कुत्सितात्रयो ऽस्येत्यादि च बहुव्रीहिसमासविग्रहवाक्यम्, तत्र तत्पुरुष उत्तरपदार्थप्राधान्याद् बहुवचनम् बहुव्रीहौ चान्यपदार्थ प्राधान्यादे- 50 कवचनादिसर्ववचनानि । किमो नेच्छन्त्यन्ये इति-- कोः प्रकरणात् तन्मात्रस्यादेशाश्रयणे प्रयोगार्थाव्या घाताच्च किमोऽप्यादेशाश्रयणे मानाभाव इति तदाशयः । तन्मते किमो विग्रहवाक्यप्रवेशे यादृशं रूपं तदाह-- किन्त्रयः इति । पाणिनीयतन्त्रे भाष्यपर्यालोचनया तु किमोऽपि प्रकृतप्रयोगे 55 समानं रूपमिति प्रतीयते, तथाहि - "को: कत् तत्पुरुषेऽचि” [ पा० सू० ६. ३. १०१] इति सूत्रे "कद्भावे त्रावुपसंस्थानम्” कद्भावे श्रावुपसंख्यानं कर्तव्यम्, कत्त्रयः किमिदं कत्त्रय इति ? कुत्सितास्त्रयः - - कत्त्रयः, के वा त्रयो न बिभृयुः -- कत्त्रय इति" इत्युक्तम् के वा त्रय इति प्रती- 60 कमुपादाय कैयट आह- - किंशब्दस्य क्षेपार्थस्य कद्भाव इति । तथा च किमोऽप्यादेश इति तेन स्फुटीकृतम् । किंशब्दवाच्यः क्षेप एव 'न विभृयुः' इति वाक्यशेषेण प्रदर्शितो भाष्ये, भरणासामर्थ्याच्च क्षेप इति स्पष्टम् ॥३.२.१३३॥
का-क्ष-पथोः ॥ ३.२. १३४ ॥
कोः
त० प्र० - - ' अक्ष पथिन्' इत्येतयोरुत्तरपदयोः 'का' इत्ययमादेशो भवति, अक्षशब्दस्याकारान्तस्य समासान्तस्य चाविशेषेण ग्रहणम् । कुत्सितोऽक्षः - काक्षः
कृत
65
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पाद-२, सूत्र-१३४]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१२७
पाशकादिः, कृत्सितमक्षमिन्द्रियंकाक्षम, कृत्सितोऽक्षोऽस्य-मित्यवसेयम, तदनुसार कुत्सितोऽक्ष.-:स्थितश्चक्राकर्षक काक्षो रथः, कुत्सितमक्षि अक्षं वाऽस्य-काक्षः, कुत्सितः पन्थाः- काष्ठविशेषो यस्येत्येव प्रयोगार्थोऽवसेयः । एषु सर्वत्राक्षशब्दे कापथम्, कुत्सितः पन्था अस्मिन्-कापथो देशः, साकोऽपि | उत्तरपदे को: कादेशः । अकारान्ताक्षशब्दोत्तरपदकसमासाभवति-ककु-कुत्सितः अक्ष:-काक्षः, एवं-कापथः । पथि- । दाहृत्य कृतसमासान्तप्रत्ययकाक्षिशब्दप्रभवाक्षाशब्दोत्तर- 40 शब्दनिर्देशात् तत्पर्यायेऽन्युत्पन्ने पथशब्दे न भवति-कुत्सितः | पदकसमासमुदाहरति-कुत्सितमक्षि यस्येति- बहुव्रीहिपथः-कुपथः, कुपथं वनम् । अनीषदार्थ वचनम् ॥१३४॥ | समासे "सक्थ्यक्ष्णः स्वा" [७. ३.१२६.] इति ट:
समासान्तः ''अवर्णेवर्णस्य" [७. ४. ६८.] इतीवर्णस्य लोपे
ऽक्ष शब्दो निष्पद्यते, तस्मिन् परे कोः कादेशः । अक्षशब्दश० म० न्यासानुसन्धानम्-काक्ष०। अत्र 'कोः | विषये समदाहत्य पथिशब्दे परे उदाहरति--कुत्सितः 45 इत्येव सम्बध्यते, अक्षरान गुण्येन तदनुवृत्तरेव प्रक-पन्था:-कापथमिति----अस्य तत्पुरुषसमासत्वेनोत्तरपदरणप्राप्तत्वात, पूर्वसूत्रे किमोऽप्यादेशविधानं च निपातना- ! लिङ्गत्वस्यौचित्येऽपि लिङ्गानुशासने "पथः संख्याऽव्ययोश्रयणसामर्थ्यादाश्रितम तच्च नाक्षरानगणमितिस्वाभिप्राय । त्तर" इति पाठात् कापथमिति क्लीबत्वमुक्तम्। अमरवृत्त्या प्रकटयति--कोः 'का' इत्ययमादेशः इति । अक्ष- सिंहस्तु भूमिवर्गे "व्यध्वो दुरध्वो विपथः कदध्वा कापथः शब्द इह पठ्यते, स च द्विधा दृश्यते---अक्षिशब्दस्य कृत- | समाः" इत्यचिवान, पंस्त्वमस्याभिप्रेति गोडोऽपि 'व्यध्वो 50 समासान्तत्वेन, प्रतिपदोक्तरीत्या च इन्द्रियाद्यर्थकत्वेन, तयो
विपथ-कापथौ” इत्याह, तदनुसारमपि पुंस्त्वमेव पाणिनिमरुभयोरिह ग्रहणमित्याह--अक्षशब्दस्याकारान्तस्य कृत- तेऽपि "अपथं नपुंसकम्" [पा० सू० २.४. ३०] इति सूत्रे 15
समासान्तस्य चेति । ग्रहणे हेतुमाह--अविशेषेणेति--- "पथः संख्याव्ययादेः” इति भाष्यधृतवात्तिकेन कापथउत्तरपदत्वदशायामुभयोविशेषस्य कस्यचिदनुपलभ्यमानत्वेन | शब्दस्य नपुंसकत्वमेव, तथैव च सिद्धान्तकौमुद्यादौ समुद. कस्य ग्रहणं कस्य नेति विनिगमकस्यानुपलब्धेरिति भावः । | हृतम् । अत्र सिंह-गौडयोलिङ्गानुशासनं किंमूलमिति न 55 तत्र पूर्वमकारान्तमेवाक्षशब्दमाश्रित्य तदुदाहरणान्याह प्रति
ज्ञायते । मेदिनीकृत्त-कापथः कुत्सितपथे उशीरे क्लीबपदोक्तत्वेन तस्यैव प्राथम्येनोपादेयत्वात्---कुत्सितोऽक्षः | मिष्यते" इति वदन् प्रकृतेऽर्थे पुंस्त्वमेवानुमोदयति । तथा इति । अक्षशब्दस्यानेकार्थत्वेन सर्वार्थकस्याविशेषेण विग्रहे
| चोभयलिङ्गताऽस्य विज्ञातव्या, लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्य, कोश. ग्रहणमिति ध्वनय नाह--पाशकादिरिति---
कृतामपि लौकिकप्रयोगानुसारमेव लिङ्गव्यवस्थापकत्वात्, 'अक्षो ज्ञातार्यशकटव्यवहारेषु पाशके।
उक्तं च भाष्यकृताऽपि---लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वाल्लिङ्ग- 60 रुद्राक्षेन्द्राक्षयोः स बिभीतकतरावपि ।
स्येति । बहुव्रीहौ त्वन्यपदार्थप्राधान्यात् तदानुगुण्येन लिङ्गचके कर्षे पुमान् क्लीबं तुत्थे सौवर्चलेन्द्रिये ।।" व्यवस्थेति पुंल्लिङ्गताऽपि भवतीत्युदाहरति---कुत्सिता 25 इति मेदिनीकोषानुसारं पाशकादिरनेकोऽर्थोऽक्षशब्दस्य, | पन्था अस्मिन्-कापथो देशः इति---देशस्य पुंस्त्वात्
तेम्वन्यतमस्य बबोधिषया प्रयोगेऽयमादेशो भवतीति भावः । | कापथशब्दस्तपारवश्येन पंल्लिङ्गः । कोरिति समदायाश्रयपुंलिङ्गमुदाहृत्य क्लीबमुदाहरति--कुत्सितमक्षमिन्द्रिय- णात् तन्मध्यपतितस्याकोऽपि "अव्ययस्य कोऽद च" मिति- इन्द्रियेऽक्षशब्दस्य क्लीबत्वमुक्तकोशादिवलानिर्णीत- [७.३.३१] इति विहितस्य तन्मध्यपतितस्तदग्रहणेन
मिति क्लीबप्रयोगे तदर्थस्यावगतिः । चक्रकर्षार्थाक्षशब्द- | गृहयते इति न्यायाश्रयणाद् ग्रहणमित्याह-साकोऽपि 30 माश्रित्याह--कुत्सितोऽक्षो यस्य-काक्षो रथः इति- . भवतीति---अक्सहितस्यापि कोरयमादेशो भवतीत्यर्थः, तत्र
पूर्वोक्तमेदिनीकोषवावये 'चक्रे कर्षे पुमान्' इति पठ्यते, | मूलमुक्तमेव । उदाहरति--ककु-कुत्सित इति---'कु' इत्यतेन चक्रे कर्षे च पृथक् शक्तिरक्षशब्दस्यावगम्यते, किन्तु | स्यैव 'ककु' इति रूपम्, तदर्थ एव च कुत्सितशब्देनानूदित 70 'ना द्यूताङ्गे चऋकर्षे व्यवहारे कलिद्रुमः" इत्यमरकोषीय- | इति ककुशब्देन सह समासे तस्यापि कादेशो भवतीति तत्रापि
नानार्थवर्गघताक्षशब्दार्थोएपवाज्ये 'चक्रकर्षे'- इति सम- 'काक्षः' इत्येवरूपं. नत् ककाक्ष इति भावः। एवं पथिनश35 स्तप्रयोगदर्शनात्, लोकेऽपि चक्रस्थे तदाकर्ष के काष्ठविशेष | ब्देन सह साक: कोविग्रहवाक्ये प्रवेशेऽपि कादेशमदाहरति-.
एवाक्षशब्दस्य प्रयोगात 'चक्रकर्षे' इत्येकमेव पदमर्थबोधक-एवं-कापथः इति-अत्र पुंलिङ्गोदाहरणं, पूर्वोक्तकोशादि.
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१२८
बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंबलिते
[ पाद-२, सूत्र - १३४-१३५ ]
प्रदर्शितरीत्या पुंलिङ्गताया अपि प्रामाणिकत्वमिति ख्याप- यम् ईषदर्थे तु परत्वादुत्तरेण नित्यमेव; तत्रापि विकल्प यितुम्, लिङ्गानुशासनवृत्तावपि स्वकारिकानुसारं कापथ | एवेति कश्चित् - ईषत्पुरुषः - कापुरुषः, कुपुरुषः ॥ १३५ ॥ मित्युदाहृत्यामर - गौडमते उल्लिख्य कापथ इत्यपि भवतीति सूचितम् । "काऽक्षपथोः” इति सूत्राक्षरस्वारस्येन पथिन्शब्द- ! श० म० न्यासानुसन्धानम् - पुरुषे वा । कोरिति 5 स्यैवेहोत्तरपदत्वमाश्रितं न तु अक्षशब्दवदकारान्तपथशब्द- केति च सम्बध्यते, उत्तरपदे इति चानुवृत्तमेव तद्विशेषण- 40 कृतसमासान्तपथिशब्दयोरुभयोरपीति स्पष्टयति-पथिनिदेशात् तत्पर्यायेऽयुत्पन्ने पथशब्दे न भवतीति--अक्षशब्दस्योभयथारूपसाम्यंन, सूत्रे तथोच्चारणाद् भवत्युभयोग्रहणम्, अक्षपथोरिति निर्देशश्चाकारान्तपथ शब्दग्रहणे न 10 समर्थ इति न भवति तस्य ग्रहणमिति भावः । तथा च तेन सह विग्रहे रूपमाह- कुत्सितः पथः कुपथः इति यद्यपि "पथः संख्याऽव्ययोत्तरः" इति लिङ्गानुशासनीयवृत्तिग्रन्थे ---- “संख्यावाचिनोऽव्ययाच्चोत्तरः-- उत्तरपदभूतः, पथ इति पथिन्शब्दः “ऋक्पूः-पथ्यपोऽत्" [७. ३. ७६] इति कृत15 समासान्तः, पथशब्दो वा नपुंसकम् इति कथितम्, तदग्रेऽपि संख्याव्ययोत्तर इति किमिति रूपेण पदकृत्यप्रदर्शनावस रे-
‘पथः परमपथः, उच्चैः पथ, केवलोऽपि विना समासान्ते नौणादिकः पथशब्दोऽस्ति, "पथ गतौ” इत्यस्य वाचि रूपम्' इत्युक्तम् । तथा चोभयविधस्य पथशब्दस्य लिङ्गा20 नुशासनीयवाक्ये ग्रहणमिति, कुत्सितः पथ इति विग्रहेऽपि
कुपथमित्येव स्वमतानुसारमायाति तथा च 'कुपथ:' इति पुल्लिंगप्रयोगो लेखकप्रमादादित्यवसेयम्, लिङ्गस्य लोकाश्रयत्वमिति न तत्राग्रह इति प्रदर्शनाय वा तथोदाहरणममरसिंहा दिमतापेक्षयेत्यास्थेयम् । बहुव्रीहौ तु विशेष्याधीनं लिङ्गमिति 25 वनस्य विशेष्यत्वे नपुंसकत्वमित्याह-- कुपथं वनमिति--- एवं चेह न भवति कादेशः । "अल्पे" इत्यग्रिमसूत्रेणेषदर्थे सामान्यत एव कादेशविधानात् तेनैव सिद्धिरिति सूत्रमिद - मनर्थकमित्याशङ्कयाह--अनीषदर्थार्थ वचनम् इति भवेदीपदर्थे तेन सूत्रेण सिद्धिरक्षपथोरप्युत्तरपदयोः परतः 30 किन्तु यत्र नेपदर्थों विवक्षितोऽपि तु कुत्सा विवक्षिता तत्र तेन न सिद्धिरिति तदर्थं प्रकृतसूत्रस्यावश्यकत्वमिति भावः ॥ ३.२. १३४ ॥
।
मेव पुरुषे इति, तथा च सम्पन्नमर्थमाह- कुशब्दस्य पुरुषशब्दे उत्तरपदे इत्यादिना । विकल्पविधानार्थमेव पृथग् योगः । कुत्सितः पुरुषः कापुरुषः इति -- "गतिक्व -न्य ०" [ ३.२.२७ ] इति समासे कोः कादेशः, विकल्पपक्षे -- कुपुरुषः इति बहुव्रीहिमुदाहरति- कुत्सिताः 45 पुरुषा अस्मिन्निति - कुत्सितपुरुषमात्रनिवासभूतो ग्राम इति भाव:, यद्यपि कस्मिन्नपि ग्रामे कापुरुषमात्रनिवासो न संभाव्यते, कस्यचिदवश्यं सुपुरुषस्यापि तत्र संभवात् तथापि बाहुल्येन कापुरुषाणामेव सत्वेन मल्लग्रामादिवद् भूयसा व्यपदेशः, पक्षे कादेशाभावोऽपीति कुपुरुषः इति । अनी 50 षदर्थे विकल्पोऽयमिति - ईषदर्थे पूर्वेण सिद्धावपि अनीषदर्थे न केनापि प्राप्तिः, पूर्व सूत्रे पुरुषशब्दपाठे कृतेऽपि नित्यमेव स्यादिति फलतोऽनीषदर्थे विकल्पविधानार्थत्वमस्य सूत्रस्य पर्यवस्यति । ईषदर्थे हि का व्यवस्थेत्याह-- ईष दर्थे त्विति । नित्यविधः प्रवृत्ती हेतुमाह--परत्वादिति-- 55
।
।
अनीषदर्थे पुरुषशब्दे परेऽस्य चारिताध्यंम्, ईषदर्थे पुरुषशब्दादन्यत्र परस्य चारितार्थ्यामितीषदर्थे पुरुषशब्दे पर उभयोः प्राप्तौ सत्यां स्पर्धे जाते "स्पर्द्ध" [ ७. ४. ११९ ] इतिपरिभाषा सूत्र वलान्नित्यविधेः परस्यैव प्रवृत्तिरिति भावः । न व पुरुषशब्दमुच्चार्थं कादेशविधायकस्यास्य प्रतिपदोक्तत्वम्, 60 तस्य च [ ईषदर्थे नित्यविधेः ] सामान्यत ईषदर्थे विधायकत्वमिति परादपि प्रतिपदोक्तस्य [ विशेषविधेः ] बलगत्वमिति विकल्पेनैवेषदर्थेऽपि भवितव्यमिति वाच्यम्, शब्दविशेषेऽस्य विधायकत्वमर्थविशेषे च परस्येति विशेषविधिस्वस्योभयत्र साम्येन परत्वेनैव व्यवस्थाया युक्तत्वात्, 65 विशेषविधौ हि निरवकाशत्वमूलकमेव बलवत्त्वम् अस्ति होभयोः परस्परावकाशलाभ इति प्रदर्शिततया सामान्यविशेषभावमूलकबलाबलविनिश्चयस्य कर्तुमशक्यत्वात्, शब्दविशेषनिमित्तत्वादस्यार्थविशेषनिमित्तत्वाच्च परस्य विशेषविधित्वाम्यस्याप्युपपादितत्त्वात् । मसान्तरमाह तत्रापि 70 विकल्प एवेति कश्चित् पाणिनीये चेदर्थे विधायक शास्त्रं पूर्वम्, पुरुषे विकल्पेन विधायक शास्त्रं परं तथापि
पुरुषे वा ॥ ३.२.१३५॥
० प्र० -- कुशब्दस्य पुरुषशब्दे उत्तरपदे कादेशो भवति 35 वा । कुत्सितः पुरुषः -- कापुरुषः, कुपुरुष; कुत्सिताः पुरुषा
|
अस्मिन् कापुरुषो ग्रामः, कुपुरुषो ग्रामः । अनीषदर्थे विकल्पो | ईषदर्थे नित्यमेव विधानमिष्यते पूर्वविप्रतिषेधादिति प्रति
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[ पाद-२, सूत्र - १३६- १३८ ]
पादितं दीक्षितेन सिद्धान्तकौमद्यां समासाश्रयविधिप्रकरणे । अत्रापि मतान्तरमित्याह -- तत्रापि विकल्प इति कश्चि दिति - बाध्य सामान्यचिन्तापक्षाश्रयणेन पुरुषशब्दे परे को: स्थाने यद् यत् शास्त्रं प्राप्नोति तन्मया बाध्यमिति लाभा5 दस्यैव तत्रापि प्रवृत्तिरिति तेषामाशयः, किन्तु यथा पुरुषशब्दमाश्रित्यास्य तथा कल्पकत्वमेवमीषदर्थमाश्रित्य परस्यापि बाध्यसामान्यचिन्तकत्वे परत्वं विहायान्यद् व्यवस्थापकं मूलं दुर्लभमिति विचारणीयं तेनेति कश्चिदित्यवत्यारुचिः सूचिता । तन्मतमनुसृत्योदाहरति- कापुरुषः, कुपुरुषः इति ॥ ३.२. १३५ ।।
10
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१२६
काच्छमिति, अत्रापि कदादेशं परत्वात् प्रबाध्य कादेश एव भवति ॥ ३.२. १३६ ।।
35
ar-eat वोष्णे ॥ ३.२.१३७ ॥
त० प्र० -- कुशब्दस्योष्णशब्दे उत्तरपदे ' का कव' इत्येतावादेशौ वा भवतः । ईषत् कुत्सितं वा उष्णम्-कोष्णम्, कवोष्णम् ईषत् कुत्सितं वा उष्णमंत्र - कोष्णः कवोष्णो 40 देश: ; पक्षे - यथाप्राप्तमिति, तत्पुरुषे-कदुष्णम् । बहुव्रीहौ तु कदादेशो न भवति - कृष्णो देशः । अन्यस्त्वग्नावपीच्छति काग्निः, कवाग्निः, कदग्निः ॥ १३७ ॥
अल्पे. ।। ३२.१३६॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - का० । अत्रोष्ण इति
श० म० न्यासानुसन्धानम् - अल्पे | अल्पशब्दस्य न शब्दस्वरूप परत्वमपि त्वर्थपरत्वं व्याख्यानात् । यद्यपि
!
55
त० प्र०—- ईषदर्थे वर्तमानस्य कुशब्दस्योत्तरपदे परे | शब्दपरमेवोत्तरपदविशेषणम्, कोरिति च पूर्वानुसृतं तदाह-45 कादेशो भवति । ईषन्मधुरं - कामधुरं, कालवणम् । स्वरादा- कुशब्दस्योष्णशब्दे उत्तरपदे इति । का कवेत्युभयोर्विकयपि परत्वादीषदर्थे कादेश एव भवति - ईषदम्लम् - काम्लम्, ल्पेन विधाने पक्षे उभयोरभावे कदादेशोऽपि भविष्यतीति 15 एवं - काच्छम् ।। १३६ ॥ रुपत्रयमिहेति सिध्यति, तदग्रे वक्ष्यति । अस्य परत्वेन कुत्सितार्थे ईषदर्थे च प्रवृत्तिरिति सूचयितुमुभयथा विग्रहमाहईषत् कुत्सितं वा उष्णमिति । पक्षे यथाप्राप्तमिति -- 50 । उभयोरादेशयोरभावे तत्पुरुषे "को: कत् तत्पुरुषे” [ ३. २. १३० ] इत्यस्य प्रवृत्तिरिति भावः । बहुव्रीहौ तदप्रवृच्या कृष्णमित्येव प्राप्तमित्याह -- बहुत्रीहौ तु कदादेशो न भवतीति । अत्र सूत्रेऽग्निशब्दोऽपि व्याकरणान्तरे पठ्यत | इत्याह--अन्यस्त्वग्नावपीच्छतीति, पाणिनीये च न तथोपलभ्यते । तन्मतसिद्धानि रूपाण्याह-- काग्निः, कवाग्निरित्यादि । अमरकोषे दिग्वर्ग-काष्णं कवोष्णं मन्दोष्णं कदुष्णं त्रिषु तद्वति" इति प्रयोगदर्शनाद्बहुव्रीहावपि तत्प्रयोग (कदुष्ण शब्दप्रयोग ) इति केचिदाहुः, तत् तु न युक्तम्, कदादेशस्य तत्र प्राप्त्यभावात्, तद्वतीति तु न बहुव्रीहिलम्यान्य- 60 मस्य “पुरुषे वा" [ ३. २. १३५ ] इत्यनन्तरपूर्वविधेरेव पदार्थपरमपि तु मत्वर्थीयपरम्, तथा चोष्ण शब्दस्योष्णत्वबाधकत्वमपि तु दूरान्तरितपूर्वविधेरपीत्याह-- स्वरादाव गुणपरत्वेन मतोलुपा तस्य तद्वत्परत्वम् ईषदुष्णत्व विशिष्टं पीति --"कोः कत् तत्पुरुषे” [ ३ २ १३१ ] इति सूत्रेण वस्तु कदुष्णपदेनाभिधीयते, अग्निशब्दोत्तरपदकसमासे च स्वरादावुत्तरपदे विधीयमानः कदादेशोऽपि परत्वादनेन ! काय देशप्रयोगाः कोषादपि नैवोपलभ्यन्ते ।। ३. २. १३७ ॥ 30 बाध्यते इति भावः । तथा चेषदर्थे पूर्वेषां को: स्थाने आदेश ! विधायकानामयमपवाद इति तेपां सर्वेषां कुत्सितार्थ एव चारितार्थ्यम् । तथोदाहरति-- ईषदम्लमिति, अम्लशब्दः स्वरादिस्तत्रापि कादेश एव कृते- काम्लमिति । प्रकृतं विग्रहवाक्यमतिदिशति एवं काच्छमिति-- ईषदच्छं स्वच्छं ! लुक्
स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा * इति न्यायेन शब्दस्य स्वरूपमेव ग्राह्यं पूर्वोत्तरसूवादी तथैव दर्शनात् तथापि न्यायानामस्थि 20 रत्वेन शास्त्र कृद्वय | ख्यानस्य च तदपेक्षया बलवत्त्वधौव्यादल्पशब्दस्येहार्थपरत्वमिति व्याख्याति -- ईषदर्थे वर्त्तमानस्येति । ईषन्मधुरमिति - मधु माधुर्यमस्यास्तीति मधुरम् अल्पं मधुरमित्यर्थः । एवं लवणशब्देनापि लवणरसवत्त्वं बोध्यते, गुणवचनेभ्यो मतोर्लुपा गुणवचनानामेव गुणिपर25 स्वात् ईपल्लवणं [ कालवण ] मिति विग्रहः । न केवल
।
1
१७
कृत्येsarयमो लुक् ॥ ३.२.१३८ ॥
त० प्र०-- ' अवश्यम्' शब्दस्य कृत्यप्रत्ययान्ते उत्तरपदे अन्तादेशो भवति । अवश्यकार्यम्, अवश्यस्तुत्यम्,
65
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15
१३०
बृहबृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते पाद-२, सूत्र-१३८-१४० ] अवश्यदेयम्, अवश्यकर्तव्यम्, अवश्यकरणीयम् । कृत्य इति समस्तत-हिते वा ॥३. २. १३६॥ किम् ? अवश्यंलावकः॥१३८॥
त०प्र०-समशब्दस्य तते हिते चोत्तरपदे परे लुगन्तादेशो
वा भवति । सततम्, संततम्; सहितम्, संहितम् ॥ १३९ ॥ 40 श० म० न्यासानुसन्धानम्-कृत्ये । "ते कृत्या:" [५. १. ४७.] इति सूत्रेण ध्यगादयः प्रत्ययाः कृत्यसंज्ञत्वे5 नोक्ताः, तथा च कृत्यशब्दस्य प्रत्ययार्थत्वेन प्रत्ययग्रहणन्यायन
श० म० न्यासानुसन्धानम्-सम० । लुगित्यतदन्तपरत्वमिति कृत्यप्रत्ययान्तत्वमुत्तरपदविशेषणं लभ्यते,
| नुवर्तते, 'उत्तरपदे' इत्यस्य विशेषणं 'ततहिते' इति--तते तदाह--कृत्यप्रत्ययान्ते उत्तरपदे इति । 'अवश्यम'
| हिते चोत्तरपदे इति । उदाहरति--सततं, सन्ततमिति---- इति षष्ठीनिर्देशन “षष्ठ्याऽन्त्यस्य" [७. ४. १०६.] इति
तनोते: ते-ततमिति, सम्यक तत-सततम्, अत्र ततशब्दे परिभाषया लुक् अन्त्यस्यैव भवतीत्याशयेनाह-लुक् |
उत्तरपदे समो मस्य लोपः, पक्षे---सन्ततमिति, सहितं 45
संहितमिति--दधातेः क्त-हितमिति, सम्यग् हितमिति 10 अन्तादेशो भवतीति । अवश्यकार्यमिति--कर्तुं योग्यं | कार्यम्, करोतेः "वर्ण-व्यञ्जनाद् ध्यण्" [५. १. १७.] |
| विग्रहे समासेऽनेन यलोपः ।। ३. २. १३९ ॥ इति ध्यण, तदन्ते कार्यशब्दे 'अवश्यम्' इत्यस्यान्तलकि--- अवश्यकार्यमिति, अत्र चोत्तरपदवसिद्धये अवश्यं कार्यमिति
तुमश्च मनः-कामे ॥ ३.२.१४०॥ विग्रहे मयूरव्यंसकादित्वमाश्रित्य समासो विधेयः । अवश्य
त०प्र०--तुम्प्रत्ययान्तस्य समशब्दस्य च प्रत्येकं मनसि स्तुत्यमिति--स्तोतेः "वृग-स्तु:०" [ ५. १. ४०.] इति क्यप् स्तोतुं योग्यमित्यर्थे, "ह्रस्वस्य तः पित्कृति" [५. ४. |
| कामे चोत्तरपदे लुगन्तादेशो भवति । भोक्तु मनोऽस्य-50 ११३.] इति तागम-स्तुत्यमिति, अवश्यं स्तुत्यमित्यर्थे मयूर
भोक्तुमनाः, गन्तुं कामोऽस्य-गन्तुकाम;, सम्यग्मनोऽस्य
समनाः, एवं-सकामः। सहशब्देनापि सिद्धौ समः श्रुतिव्यंसकादित्वात् समासेऽनेनावश्यमो मलोपः । अवश्यदेय
निवृत्त्यर्थं वचनम् ॥ १४ ॥ मिति---दातुं योग्थं--देयमिति ददातेः “य एच्चान्तः" 20 [४. १. २८.] इति यः प्रत्ययः, आकारस्यकारादेशश्च
विधीयते, अवश्यं देयमिति वाक्ये कृते पूर्ववत् समासादिः । श० म० न्यासानुसन्धानम्-तुम० । तुमिति अवश्यकर्त्तव्यमिति---कर्तुं योग्यमित्यर्थे करोतेः 'तव्या- | प्रत्ययः, तद्ग्रहणे तदन्तस्य ग्रहणम् । सम: लुगिति च वर्तते, 55 ऽनीयौ" [५. १. २७.] इति तव्ये कर्तव्यमिति, अवश्यं | उत्तरपदे इति च, तस्यैव विशेषणं मनः कामे इति, अत्र
कर्त्तव्यम्-अवश्यकर्तव्यम् । एवम्--अवश्यकरणीयम्। च 'मनःकामे' इति समाहारः, तथा च मनसि कामे चोत्तरपदे 25 ध्यणादयः पञ्चापि कृत्यप्रत्यया उदाहृताः । कृत्य इति तुम्प्रत्ययान्तस्यान्तो लुप्यत इत्यर्थः पर्यवस्यतीत्याह--
किमिति--अवश्यमः क्रियाविशेषणत्वेन त्याद्यन्तायाश्च | तुम्प्रत्ययान्तस्येत्यादिना । मनःकाम इति समुदाय कार्य मा क्रियायाः समासानहत्वेन कृत्यप्रत्ययान्तेन स हैव तस्य समासो | ज्ञायीति स्पष्टार्थमाह-प्रत्येकमिति । उदाहरति--भोक्तुं 60 बाहुल्येन दृश्यत इति तत्रैव भविष्यतीति 'कृत्ये' इत्यन्या- | मनोऽस्येति-भुजेस्तुमि भोक्तुमिति, पश्चात् तस्य मनसा सह
वर्तकमिति प्रश्नाशयः। न केवलं कृत्ये एवावश्यमः समा- बहुव्रीहिः, अनेन मलोपः । कामे 'उदाहरति--गन्तुं कामो. 30 सोऽन्यत्रापि कृदन्ते परे तस्य समासः संभाव्यत इति तत्र |
ऽस्येति--गमेस्तुमि गन्तुमिति, तस्य कामशब्देन बहुव्रीहिः, सूत्रप्रवृत्तिर्मा भूदित्येतदर्थ ‘कृत्ये' इत्यावश्यकमित्याह प्रत्यु- । अनेन मलोपः। समो मस्य लोपमुदाहरति--सम्य दाहरणमुखेन--अवश्यंलावकः इति--लुनातीति लावकः, | मनोऽस्येति, समा सह मनसो बहुव्रीहिरनेन मलोपे कृते-- 65
लधातोः कर्तरि "णकतची" [५. १.४८/ इति णकः, वद्धा- | समनाः इति । एवं-सम्यक् कामोऽस्य-सकामः इति । 35 वावादेशे लावक इति अवश्य लावक इति समासे सत्यपि न मनसा सह-समनाः, कामेन सह सकाम इति विग्रहेऽपि
भवति मलोप: इति प्रकते मलोपवारणार्थमावश्यक कल्ये प्रकृतसूत्रसाध्यरूपयोः सिद्धौ समो मस्य मनसि कामे च लको इति पदमिति भावः ॥३. २. १३८.॥
विधानस्य वैयर्थ्यमाशङ्कय निराकरोति- सहशब्देनापि
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[पाद-२, सूत्र-१४०-१४२] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१३१ सिद्धाविति । समा श्रुतिनिवृत्त्यर्थमिति-मकारेण सहितः । तनिषेधात् । अकारस्य लुगभावे-मांसपचनमिति । स्त्रियां 35 सम्, तस्य 'समः' इत्येकः समः शब्दः, परश्च "सम्" इति : टित्त्वान्यां-पचनीति, तत्रापि अनडन्तपचेः सत्त्वेन लुक शब्दानुकरणस्य षष्ठ्यन्तं रूपम्, उभयोस्तन्त्रेण निर्देशः, तथा प्रवर्तत एवेति मांसस्य पचनीति विग्रहे-मांस्पचनीत्यपि
च मकारसहितस्य सम: श्रुतिर्माभूदित्येतदर्थमत्र समो लोपो भवति । मांस्पाका इति-पचेर्भावे पनि पाक इति, 5 विधीयत इति भावः। पाणिनीयश्च समो मकारस्य मनसि | मांसस्य पाक इति विग्रहः । अनघनीति किमिति-केवलेन कामे च लुङ् न विधीयते, तत्र हि मते--
पचधातुना सह समासो दुर्लभ इति तस्योत्तरपदत्वासंभवः 40 "लुम्पेदवश्यमः कृत्ये तुं काममनसौरपि ।
इति-कृदन्तेन सहव समासे लुक् प्रवर्तिष्यते, तत्र बाहुल्यसमो वा हिततयोमांसस्य पचि युडधनोः ॥"
नानघअन्तयोरेव प्रयोगात् तत्रैव भविष्यतीति मत्वा इति कारिका प्रकृतसूत्रचतुष्टयविषये पठ्यते,तत्र तुमा 'काम
प्रश्न: । वाहुल्येन तस्यैव प्रयोगोऽस्तु, कृत्प्रत्ययान्तरान्त10 मनसोः' इत्येव सम्बध्यते समः पश्चान्निरूपणात । तथा स्थापि प्रयोग: सम्भाव्यत एवेति 'तत्र प्रवत्ति वारणार्थमन
च तन्मते सम्यक्कामोऽस्यति विग्रहे संकाम इत्येव, तादश- घनीत्यावश्यकमिति प्रत्युदाहरणमुखेनाह-मांसपक्तिरिति-- 45 प्रयोगस्यानभिधाने तु समा सह तयोः समासोऽप्यनभिधा- पचेर्भाव स्त्रियां स्ति:-पक्तिरिति, मांसस्य पक्तिरिति नान्नेति तैराश्रयितव्यम्, 'समनाः, सकामः, इत्यादी च | विग्रह समासः, अत्र लुङ मा भूदिति तदावश्यकत्वमिति
सहार्थस्यैव प्रतीतिस्तरभ्यपेयत इति स्वमताद् भेदस्तत्र । भावः । पचाविति किमिति-सूत्रे यद्यपि पचीत्येवोक्तम्, तथा 15 ।। ३. २. १४० ॥
च पचीति किमित्येव प्रश्नो युज्यते, तथापि तदर्थस्य वृत्ती पचावित्येवं प्रदर्शित्वात् तमादायैव प्रश्नः, सूत्रे धातोरनु- 50
करणेन निर्देशः, वृत्तौ च "इ-कि-श्तिव स्वरूपाऽर्थे" मांसस्यानट-घजि पचि नवा ।। ३. २. १४१॥ [ ४. ३. १३८ ] इति इप्रत्ययान्तत्वेन निर्देश इति भेदः,
त०प्र०--मांसशब्दस्यानहन्ते धान्ते च पचावतरपदे पचेरेव विक्लित्यर्थस्यानघनन्तस्य मांसशब्देन सह सामलुगन्तादेशो वा भवति। मांसस्य पचनं-मांस्पचनम. ! त् िप्रयोग इति तत्रैव भविष्यतीति मत्वा प्रश्नः । न
मांसपञ्चनम्। मांस्पचनी, मांसपचनी; मांसस्य पाकः- ! पचेरेव तादृशस्य मांसेन तह सामर्थ्यमपि तु दहेरपि तथा 55 20 मांस्पाकः, मांसपाकः अनड्यनीति किम ? मांसपषितः। भूतस्य [ अनघअन्तस्य] तेन सह प्रयोगसंभवात तस्मिन पचाविति किम् ? मांसदाहः, मांसदहनी ।। १४१॥
परे मांसस्याका रस्य लोपो मा भूदित्येतदर्थ पचेर्ग्रहणमावश्यकमित्याह प्रत्युदाहरणद्वारा-मांस- दाहः, मांसदहनीति
दहेपनि दाहः, अनटि स्त्रियां दहनीति, मांसस्य दाहः मांसस्य श०म० न्यासानुसन्धानम्-मांस० । अनड्यो ! दहनीति विग्रहे षष्ठीसमासः, अत्रापि मांसशब्दाकारस्य 60 पचे विशेषणे, प्रत्ययत्वेन च ताभ्यां तदन्तस्य ग्रहणम् लोपो मा भदित्येतदर्थं पचीत्यावश्यकमिति भावः तथा-चानडन्ते घर्जते च पचि परत इत्यर्थ आयाति, ॥ ३. २. १४१॥ पचीति चोत्तरपदविशेषणमिति अनडन्ते घजन्ते च पचा वुत्तरपदे इत्यर्थः सम्पद्यते, तदाह-मांसशब्दस्यानडन्ते घमन्ते च पचावुत्तरपदे इत्यादिना । मांसस्येति षष्ठी- | निर्देशात् । “षष्ठयान्त्यस्य ] ७. ४. १०६ ] इति परि-| दिकशब्दा-त्तीरस्य तारः॥३.२.१४२॥
भाषया तदन्तस्याकारस्य लुक । मांस्पचनमित्ति-पचेर्भावे- त०प्र०--दिकशब्दात् परस्य तोरशब्दस्योत्तरपदस्य 30 नट-पचनमिति, मांसस्य पचनमिति षष्ठीसमासः, अनेना- । 'तार' इत्ययमादेशो वा भवति । दक्षिणस्या दिशः, दक्षिणस्य 65
कारलुक्, तस्य बहिरङ्ग तयाऽसिद्धत्वात्, सकारस्य रुत्वं ! वा देशस्य तोर-दक्षिगतारं, दक्षिणतीरम्; एवम्संयोगान्तलोपश्च न भवतः, "स्वरस्य परे प्राविधौ" : उत्तरतारम, उत्तरतीरम, पश्चिमतारं, पश्चिमतीरम; [७. ४, ११०] इति स्थानिवत्त्वेन तु न निर्वाहः "न | पूर्वतारं, पूर्वतीरम् । दिक्शब्दादिति किम् ? गमा सन्धिः " [७. ४. १११] इति परिभाषयाऽसद्विधौ | तीरम् ॥१४२॥ ।
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१३२
बृहद्वृत्ति-बृहल्याससंवलिते
पाद-२, सूत्र-१४२-१४३ ]
10
श०म० न्यासानुसन्धानम् - दिक० । नवेति सम्ब- इत्यर्थः। अन्यार्थ इति किम् ? सहयुध्वा, सहकृत्वा, सहकारी, ध्यते, 'उत्तरपदें' इति सप्तम्यन्त प्रकृतं दिकशब्दादिति | सहजः । कथं सहकृत्वा प्रियोऽस्य-सहकृत्वप्रियः?, प्रियः पञ्चमीवलेन षष्ठयाइतया विपरिणम्यते, तस्य च तीर- सहकृत्वाऽस्य-प्रियसहकृत्वेति? बहुव्रीहौ यदुत्तरपदं तस्मात्
स्येत्यनेन विशेष्यविशेषणभावः सम्बन्धः तथा च योऽर्थः । पूर्वः सहशब्दो न भवतीति सादेशो न भवति ॥ १४३॥ 5 सम्पन्नस्तमाह-दिकशब्दात् परस्येत्यादिना, दिशि दृष्ट: ।
शब्दो--दिकशब्दः, दिग्वाचकत्वेन प्रसिद्ध इति भावः । अत्र दिग्विशेषवाचका एव पूर्वादयः शब्दा दिक्शब्दत्वेन गृह्यन्ते,
श० म०न्यासानुसन्धानम्-सहस्य। 'अन्यार्थ' 40 दिक्सामान्यवाचका: 'दिक, आशा, ककुप्' इत्यादयः शब्दा:,
इति पदं समुदायविशेषणं न तुत्तरपदमात्रस्य, 'अन्यस्यार्थ ऐन्द्रघादयश्च यौगिकाः शब्दा न गृहयन्ते व्याख्यानात् ।
वाच्ये सति' इति तदर्थात , तथा चोत्तरपदे इत्यपि सम्ब'दिशः' इत्येतावताऽपि सिद्धेः शब्दग्रहणात् तस्य शब्दस्य
ध्यते, एवं चान्यार्थपदमन्यपदार्थप्रधानसमासपरमित्यायाति. दिशि दृष्टत्वमेवावश्यकं न तु संप्रति दिगर्थवृत्तित्वमपि,
तदेवाह-अन्यार्थे अन्यपदार्थे बहुत्रीही समासे इति-- तथा च दिग्वाचकस्य शब्दस्य सम्प्रतिदेशवाचकत्वेऽपि दिक
बहुव्रीहावेव समस्यमानपदातिरिक्तपदार्थस्य प्राधान्यं भव- 45 शब्दत्वेन ग्रहणं भवतीत्युदाहरणेष स्फटीभविष्यति । तथाहि-तीत्यन्यपदार्थशब्दस्तदुपस्थापक इति भावः । उदाहरति
दक्षिणस्या दिशः,दक्षिणस्य वा देशस्थति--षष्ठी समासे सह पुत्रेण सपुत्रः इति-सहशब्दयोगे "सहार्थे" [२.२.४५.] 15 सर्वादित्वेन दक्षिणाशब्दस्य “सर्वादयोऽस्यादौ" [३.२.६१]
इति तुल्ययोगेऽर्थे गम्यमाने तृतीया 'सहस्तेन" [३.१.२४.] इति पंवदभावे चानेन तीरशब्दस्य विकल्पेन तारादेशे-- इति सूत्रेण च समासो बहुव्रीहिः अनेन सहस्य सादेशो विदक्षिणतारमिति, पक्षे-दक्षिणतीरमिति । प्रकृतं विग्रह
कल्पेनति सपुत्र: सहपुत्रो देति रूपे, एष एवं विग्रहादि- 50 मन्यत्राप्यतिदिशति-एवम्-उत्तरतारमित्यादि । पश्चिम रन्यत्राप्यवं समासे इत्याह-एवं सशिष्यः, सहशिष्यो वेति। वारमित-पश्चिमाया दिशः पश्चिमस्य वा देशस्य तीर
कर तुल्ययोगार्थकस्य सहस्यादेशमुदाहृत्य विद्यमानार्थकस्यादेश2.) मितीहापि विग्रहः, तत्र दिशि पश्चिमाशब्दस्य स्त्रीत्वेन तस्य |
मुदाहरति--सह लोम्ना वर्तते इति, यद्यपीहापि तुल्यच सर्वादित्वाभावेन पुंवद्भावाभावे---पश्चिमातारमित्येव
योगार्थो व्याख्यातुं शक्यते, वृत्तावन्यपदार्थस्य लोम्ना सहैव
योगादिति न विद्यमानार्थत्वं पृथक् सहशब्दस्य स्वीकार्यम्, 55 रूपं विज्ञेयम् , पश्चिमतारमिति वृत्ती निर्दिष्टं च रूपं
तथापि सहपुत्र आगत इत्यादितः सलोमक इत्यादीनां विदेशवाचिन एव । दिकशब्दादिति किमिति--प्रायस्तीर
शेषस्य क्रियान्तराकाडक्षाभावरूपस्य दर्शनात् पृथगर्थत्वं शब्दस्य दिक्शब्देन स हैव समासो दृश्यत इत्याशयेन प्रश्नः ।
स्वीकार्यमिति पृथगुदाहरणमहतीत्याचार्याशयः, इहापि "स25 न केवलं तीरशब्दस्य दिशब्देनैव समासः, नद्यादिसम्बन्ध
हार्थे" [२. २. ४५.] इत्येव तृतीया, तदन्तस्य “सहस्तेन" विवक्षया तेनापि सह समासस्य दर्शनात् , तत्र तारादेशा- |
{३. १. २४.] इति समासेऽनेन सादेशः । प्रयोगार्थमाह- 60 भावार्थ दिकशब्दादिति कथनमावश्यकमिति प्रत्युदाहरति
विद्यमानलोमकः इति । अन्यार्थ इति किमिति-सहस्यागङ्गातीरमिते---गङ्गा स्वनाम्ना ख्याता नदी, तस्यास्तीर
न्यार्थे बहुधीहावेव विशिष्य समासस्य "सहस्तेन" [३.१.२४.] मिति विग्रहः, अत्र तारादेशाभादेनकमेव रूपं भवति, तथा
इति सूत्रेण विधानात् प्रतिपदोक्तत्वात्, स एव समासो 30 चात्र तारादेशाभावार्थ तदावश्यकत्वमिति ॥३.२.१४२.॥
ग्रहीष्यत इति व्यर्थमेवान्यार्थ इति पदमिति प्रष्टुराशयः । न केवलं सहशब्दस्य बहुव्रीहिसमास एव, उस्युक्तसमा- 5
सोऽपि दृश्यते, अत्र चान्यार्थे इत्यस्याभावे समासोपस्थापकसहस्य सोऽन्यार्थे ।। ३. २. १४३॥
पदाभावात् प्रतिपदोक्त एव समासो ग्राहय इति विनिगत०प्र०--अन्याथै अन्यपदार्थे बहुव्रीहौ समासे उत्तरपदे मकाभाव इति सामान्येनोत्तरपदे परतः सहस्य सादेशो परे सहशब्दस्य 'स' इत्ययमादेशो भवति वा । सह पुत्रेण-सपुत्र भविष्यतीति ङस्युक्तसमासेऽपि स दुर्वार इत्याह-सयुध्वा,
आगतः, सहपुत्र आगतः; एवं-सशिष्यः, सहशिष्य आगतः; | सहकृत्वा इत्यादि-~-सह युद्धवान्-सहयुध्वा, सहकृतवान्- 70 35 सह लोम्ना वर्तते-सलोमकः, सहलोमकः; विद्यमानलोमक सहकृत्वा, उभयत्र “सह-राजभ्यां कृग्-युधेः" [५.१.१६७]
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[पाद-२, सूत्र-१४३-१४५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
इति क्वनिप्, “त्युक्तं कृता" [ ३. १. ४९ ] इति समासः, । र्गतत्वेऽस्य सूत्रस्य वैयर्थ्यमेव स्यादिति सूत्रारम्भसामदिस्य अत्रोत्तरपदे सत्यपि न भवति सादेशः, अन्यार्थत्वाभावात्, । नित्यत्वमित्यायाति, तथा च पूर्वसूत्रादनुवर्तमानं नवेतीह 35 अन्यार्थे इति पदाभावे च स दुर्वारः । एवं-सह करोतीति- न सम्बध्यत इत्याह-योगारम्भाद् वेति निवृत्तमिति ।
सहकारी, अत्र "अजातेः शीले" [ ५. १. १५४ ] इति । अन्यार्थ इति च सम्बध्यत एव तदाह-- अन्यार्थे समासे 5 मिन, त्यक्तसमासः । एवं-सहजातः, सहजः, "क्वचित्' । उत्तरपदे इति । उदाहरति--सहाश्वत्थेन वर्तत इति--
[ ५. १. १७१ ] इति डः, अनयोरपि सादेशव्यावृत्त्यर्थ- विद्यमानार्थे सहयोगे तृतीया "सहस्तेन [ ३. १. २४ ] इति मन्यार्थे इत्यावश्यकमिति भावः । क्वचिदन्यार्थे सत्यपि समासेऽनेन सादेश: एवं--सपलाशमित्यादावपि विज्ञयम् । 40 सादेशो न दृश्यते स कथमुपद्यत इत्याशङ्कते----कथं सह- संज्ञात्वं परिचाययति---एवं नामानि वनानीति । अन्या
कृत्वा प्रियोऽस्येति--अत्र बहुव्रीहिसमासोऽस्ति, अस्ति मपि संशामुदाहरति--सह रसेने त---रसेन सह वर्तत 10 चोत्तरपदपरत्वमिति भवितव्यं सादेशेनेति तदभावः कथं , इत्यर्थः, पूर्ववत् समासादिः, दूर्वाया: संज्ञेयमिति बोधयितुं
दृश्यत इति जिज्ञासा "प्रियः [ ३. १. ९५७ ] इति सूत्रेण | दूर्वेति पदम् । अन्यार्थ इत्यस्य सम्बन्धस्यावश्यकतामाह--- प्रियशब्दस्य विकल्पेन पूर्वनिपात इति सहकृत्वप्रियः, अन्यार्थ इत्येवेति, ध्यावय॑माह-सहचरः इति---सह 45 प्रियसहकृत्वेत्युभयथा रूपं भवतीति, तथैव विग्रहद्वयं चरतीति विग्रहे अच्, संज्ञात्वं द्योतयितुमाह--कुरण्टफ:
प्रदर्शितवान्-सहकृत्वा प्रियोऽस्य, प्रियः सहकृत्वा स्य । इति । सहचरशब्दो नाम्नोऽन्यत्रापि प्रयुज्यते, तत्र च नाम15 चेति । उत्तरयति--बहनीही यदत्तरपदमिति, अयमा- त्वाभावाद् द्वयङ्गविकलता विज्ञया । "प्रेक्ष्य स्थिता सहशयः--अन्यपदार्थे उत्तरपदे इत्यनयोः प्रत्यासत्या अन्यपदार्थ
चरीम्" इत्यादी स्त्रियां ङीप्रत्ययस्तु लिहादिषु [ "लिहाप्रधानो यः [ बहुव्रीहिः ] समासस्तत्सम्बन्ध्युत्तरपदाव्यव- दिभ्यः ५. १. ५१. इति सूत्रस्थगणे ] 'चरट्' इति टिद्वि- 50 हितपूर्वस्य सहस्य सादेश इत्येव सूत्रार्थो लभ्यते, एवं च शिष्ट पाठादेव समाधयः, “चरेष्टः" [५. १. १३८ ] इति सहकृत्वप्रियः प्रियसहकृत्वेत्यु भयत्रापि, प्रियशब्दस्य बहवी- तु आधारोपपदादेव विधीयत इति प्रोक्तसमाधानाद् गत्यह्य तरपदत्वं पूर्वपदत्वं वेति कृत्वेत्यस्य बहुव्रीह्य त्तरपदत्वा । तर
न्तराभावात् । एवं सह दोव्यतीत्यर्थेऽपि दीव्यतेरच, अयं भावेन, सहेत्यस्य च बहुव्रीहिपूर्वपदत्वाभावेन न सादेशप्रा- |
च कुरुवंशे प्रसिद्धो युधिष्ठिरस्य वैमात्रेयः। स्त्रियामा-- प्तिरिति न सूत्राव्याप्तिरुद्भावयितुं शक्या, सूत्रार्थस्य प्रत्या
सहदेवा - ओषधिरिति, लिहादिगणे टिद्विशिष्ट पाठात् 55 सत्त्यैव निर्णयत्वात ।। ३. २. १४३ ॥
सहदेवोत्यपि ज्ञेयम्, श्रूयते च "सहदेवी शिखाबद्धा हन्ति चातुर्थिकं ज्वरम्” इति, स्वयमप्याचार्या लिङ्गानुशासनशेषे
20
60
"सहदेवा बलादण्डोत्पलाशाखिभेषजे। नाम्नि ॥ ३. २. १४४ ॥ ।
सहदेवी तु सश्यां सहदेवश्च पाण्डवे ।" 25 त० प्र०-योगारम्भाद् वेति निवृत्तम् । अन्याथें |
सह जायते इति-"भव्यगेय." [ ५, १.७ ] इति कर्तरि समासे उत्तरपदे परे सहशब्दस्य सादेशो भवति, नाम्नि--
जन्यशब्दो निपात्यते । सर्वत्रस्यक्तसमास इत्यन्यपदार्थसंज्ञायां विषये। सहाश्वत्थेन वर्तते-साश्वत्थम्, सपलाशम्, प्रधानसमासाभावान भवति सादेशः ।। ३. २. १४४ ।। सशिशपम् एवनामानि वनानि, सह रसेन-सरसा दूर्वा ।
अन्याय इत्येव-सह चरतीति-सहचरः कुरण्टकः, सह दीव्य30 तीति-सहदेवः कुरुः; सहदेवा-ओषधिः, सहजायते-सहजन्या | अदृश्या-ऽधिके ।। ३.२.१४५॥ अप्सराः॥ १४४ ॥
त० प्र०~-अदृश्य-परोक्षम्, अधिकमधिरूढम्, तद्वा. 65
चिनोरुत्तरपदयोरग्या समासे सहशम्दस्य सादेशो भवति । श० म० भ्यासानुसन्धानम् नाम्नि । नाम्नि एक- अदृश्य-साग्निः कपोतः, सपिशाचा वात्या, सराक्षसीका रूपताया आवश्यकत्वेन, सादेशाभावस्यापि नामस्वरूपान्त- विद्युत्, समुशलो व्रीहिकंसः; अधिके-सद्रोणा खारी, समाषः
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१३४
बृहद्वृत्ति- बृहन्न्यास संवलिते
[ पाद २, सूत्र - १४५ १४६ ]
arefore, arreणीको माषः । " सहस्य सोऽन्यार्थे” ( ३. । गोपनीय इति व्यवहारबलात्, तथा प्रयोगस्य संभवात् एवं
२. १४३ ) इत्यनेनैव सिद्धे नित्यार्थं वचनम् ॥ १४५ ॥
चादृश्यार्थपरत्वमुत्तरपदस्येति भवति सादेशः । अधिकार्थमुदाहर्तुमवतारयति -- अधिके इति । सद्रोणा खारी द्रोणेन - चतुराढकपरिच्छिन्नपरिमाणेन सहिता सद्रोणा, अत्र 40 खार्या द्रोणेन सह विद्यमानत्वस्यागम्यमानत्वात् खार्या द्रोणेनाधिकत्वं प्रतीयते, अधिकार्थपरश्च द्रोणशब्द इति तस्मि
श० म० न्यासानुसन्धानम् - अदृश्यां० । वाक्यार्थज्ञाने पदार्थज्ञानस्य हेतुत्वेन सूत्ररूपवाक्यार्थज्ञानाय तद्गत- । 5 पदयोरर्थं तावदाह- अदृश्यं परोक्षमित्यादिना दृशधातु- न्नुत्तरपदे सहस्य सादेशः, समासादिः पूर्ववदेव सर्वत्रानुस चाक्षुषज्ञानार्थः द्रष्टुमयोग्यमदृश्यम् - वाक्षुषज्ञानाविषय | धातव्यः । समाषः कार्षापणः माषेण सहित इत्यर्थः, मित्यर्थात् परोक्षत्वं पर्यवस्यति, अक्ष्णः परमक्षिविषयातीतं । माषेणाधिक इति प्रतीयते, माषोऽष्टरक्तिकापरिच्छिन्नः परि- 45 वस्तु परोक्षमिति कथ्यते, तथा चात्राक्षिपदमिन्द्रिय- । माणविशेषः, कार्शपणश्च भाषत्रयपरिमितः परिमाणविशेषः, सामान्यपरमिति इन्द्रियविषयातीत एव वस्तुनि परोक्षत्व- तथा च समाषः कार्षापण इत्यत्र माष एवाधिकार्थपर इति 10 व्यवहार इति शब्दादिविषयेषु श्रोत्रादीन्द्रियग्राह्येषु न परोतत्र परतः सहस्य सादेशः । एवं सकाकणीको माषः इति - काकणीह न वराटिका पराऽपि तु परिमाण विशेषपरैव, स च परिमाणो माषान्न्यून इति रक्तिकैव स्यात्, तथा 50 च काकण्यधिको माष इति प्रतीतिः, काकणीशब्दस्याधिकार्थपरत्वेन तत्र परतः सहस्य सादेशः । सूत्रवैयर्थ्यमाशङ्कय समा
त्वम् । एवं चेन्द्रियाविषयेऽनुमानादिगम्ये उत्तरपदार्थे | सतीति पर्यवसितोऽर्थः । अधिकशब्दार्थमाह- अधिरूढमिति अघिदशब्दात् कनि उत्तरपदलोपश्च निपातनात्, अधिरूढं श्चातिरिक्ततथा प्रतीयमानम् । तद्वाचिनोरुत्तरपदयोरिति 15 तदिति पदेनादृश्याऽधिकयोः स्वरूपतो न भानमपि तु तदर्थ | धातुमाह-- सहस्य सोऽन्यार्थे इत्यादि, अन्यार्थ एव प्रकृत
विशिष्टत्वेन, तथा चादृश्यत्वाधिकत्वविशिष्टार्थवृत्तिनोरुत्तर- । सूत्रस्यापि प्रवृत्तिरित्यदृश्यार्थपरेऽधिकार्थंपरेऽपि श्वोत्तरपदे पदयोः परत इति तदर्थः। अन्यार्थ इति च प्रकरणप्राप्तमिहापि | "सहस्य सोऽन्यार्थे" [ ३. २. १४३.] इति पूर्वसूत्रेणैव सादेशः 55 अपेक्ष्यत एवेत्याह--अन्यार्थे समासे इति । क्रमश उदा- । प्रकृतसूत्रविषयेऽपि सिद्ध एवेति पृथक् सूत्रारम्भो विफल इति हर्तुमवतारयति--अदृश्ये इति । साग्निः कपोतः इति - नाशङ्कनीयम्, तस्य विकल्पेन सादेशविधायकत्वादिह च नित्यं 20 अग्निना सह वर्त्तत इति विग्रहः अत्र कपोतेऽग्निरदृश्य एवा- | तदादेशस्येष्टत्वात् तदर्थं पृथक् सूत्रारम्भस्यावश्यकत्वात्,
गमेन प्रतीयमानत्वात्, तथा चोत्तरपदभूतस्याग्नेरदृश्यत्वेन तेन सादेशे च कदाचित् सहाग्निः कपोत इत्यादिप्रयोगाणातद्वाचित्वमुत्तरपदस्यास्तीति भवति सादेशः । सपिशाचामपि संभव इति तद्वयावृत्त्यर्थं वचनमिति भावः 60 वात्येति-- वातानां समूहो वात्या बहुदिग्वायुसंघातरूपा, सा ॥३.२.१४५ ।। च पिशाचेन सहिता वर्त्तत इति प्रसिद्धिरिति पिशाचोऽदृश्य
अकालेऽव्ययीभावे ॥ ३. २. १४६ ॥
30
25 मान एव विद्यमानत्वेन व्यपदिश्यते तत्र, एवं चादृश्यार्थपरत्वमुत्तरपदस्यास्तीति भवति सहस्य सादेशः । सराक्षसीका विद्युत् विद्युत् मेघप्रभवं ज्योतिः सा च कयाचन राक्षस्याधिष्ठितेति प्रसिद्धिरिति तद्बलादेव राक्षस्या सह वर्त्तमानत० प्र० - - सहशब्दस्याकालवाचिन्युत्तरपदेऽव्ययीभावत्वव्यवहारो न तु तस्या दृश्यत्वमित्यदृश्यार्थपरत्वमुत्तरपद- | समासे सादेशो भवति । ब्रह्मणः संपत्-सब्रह्म साधूनाम्, स्यास्तीति भवति सहस्य सादेशः । समुशल व्रीहिकंसः | एवं सवृत्तं सुविहितानाम्, सक्षत्रं यदूनाम्, संपत्तावव्ययो- 65 इति --- कंसो मानविशेष:, स चाढकपर्याय इति शब्दस्तोम- भाव:; युगपच्चक्रेण चक्राणि वा बेहि सचक्रं बेहि, एवंनिधिकृतः, अत्र चाढकादधिकस्य कस्यचन मानस्य नामेति । सघुरं प्राज, यौगपद्येऽव्ययीभावः; तृणैः सह सतृणमभ्यवहरति, सामर्थ्यादवगम्यते, यतो मुशलस्यादृश्यत्वेन स्थानयोग्यता एवं समूलघातं हन्ति, साकल्येऽव्ययीभावः; षड्जीवनिकातत्र संभाविता, नहि आढके मुशलादर्शनयोग्यताऽस्ति मुश- मन्तमवसानं कृत्वाषते - सजीवनिकमधीते श्रावकः, एवंलस्य दीर्घतया तस्य तावत्सु व्रीहिषु गुप्तत्वासम्भवात्, अत्र सलोक बिन्दुसारमधीते पूर्वषरः, अन्त इत्यव्ययीभावः । 70 काचिरलोकप्रसिद्धिर्मूलमिति प्रतीयते व्रीहिकंसे मशलो अकाल इति किम् ? सहपूर्वाह्णं शेते, सहापराहणं भुङक्ते,
|
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35
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[पाद-२, सूत्र-१४६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
१३५ अयमपि साकल्येऽव्ययीभावः। अव्ययीभाव इति किम् ? | त्यर्थे मूलशब्दस्य सहशब्देन साकल्येव्ययीभावः, पश्चात् सहयुध्वा ॥१४६॥
समूलं हननमित्यर्थे "हनश्च समूलात्" [५.४.६३] इति णम्, पुनश्च समूलेत्यस्य घातशब्देन सह तत्पुरुषः,
इत्यव्ययीभावपूर्वपदकः समासः । उभयत्र समासार्थमाह- 40 श० म० न्यासानुसन्धानम्-अकाले । “अका
साकल्येऽव्ययीभावः इति । अथान्तार्थेऽव्ययीभाव मुदाले" इत्युत्तरपदविशेषणम्, तत्र कालशब्दो न स्वरूपपरोऽपि
हरति-पडजीवनिकामन्तमवसानं कृत्वेति-जीव्यते5 त्वर्थपरो व्याख्यानात्, तथा च कालशब्दस्य कालवाव्यर्थः,
नया जीवनिका, करणानडन्तात स्वार्थ के जीवनिका. नना भेदः प्रत्याय्यत इति कालवाचिभिन्ने उत्तरपदे परे
सब्दः सम्पद्यते, षड़जीवनिकामन्तं कृत्वेत्यर्थे जीवनिकाऽव्ययीभावसमासे सहस्य सादेशोऽनेन विधीयते इत्यर्थः
टा-सहेत्यस्यान्तवचनेऽव्ययीभावसमासः, षड्जीवनिका 45 सूत्रस्येत्याह-सहशब्दस्याकालवाचिन्युत्तरपदे इति । उदा.
नाम दशवकालिकनामकग्रन्थस्य चतुर्थमध्ययनं तस्यान्तं हरति-ब्रह्मणः सम्पत्-सब्रह्मति-सम्पत्त्यर्थे द्योत्ये सहेत्य
यावदधीत इति समासार्थः, सषडजीवनिकमधीते इति 10 व्ययेन सह 'ब्रह्म टा' इत्यस्य विभक्ति-समीप० [३.१.३९] | प्रयोगसम्पत्तिः । प्रकृतं विग्रहवाक्यमन्यत्रापि निर्दिशति
इत्यव्ययीभावसमासः, अनेन सहस्य सादेश:, ब्रह्मपदेन निर- | एवं सलोकबिन्दुसारमिति-ग्रन्थविशेषात्मकानि चतुर्दशवच्छिन्नं चैतन्यमुच्यते, साधवो हि समाधिगततत्त्वसाक्षा
पूर्वाणि, तद्धारकः पूर्वधरः, स लोकबिन्दुसारं नाम चतुर्दशं 50 स्कारा ब्रह्म सम्पद्यन्त इति तेषां ब्रह्मणः सम्पत्तिः प्रसिध्यति । पूर्वाभिधं ग्रन्थमन्तं कृत्वाऽधीत इति समासाथप्रकृतं विग्रहमतिदिशति-एवं-सवृत्तं सुविहितानामिति--
विवक्षायामन्तवचनेऽव्ययीभाव समासः, अनेन सहस्य 15 वृत्तस्य-वर्तनस्य सम्पत्-सवृत्तम्, सुविहिताना-स्वनुष्ठि- सादेशः । एष सर्वत्र लौकिकविग्रहवाक्ये समासार्थप्रदर्श
तानां कार्याणाम्, सदनुष्ठायिनां वा वृत्तं सम्पद्यत एवेति नानुकूलं यथा तथा विभक्तिप्रवेशेऽपि अलौकिकविग्रहवाक्ये 'वृत्त टा' इत्यस्य सहशब्देन सहाव्ययीभावसमास: 'पूर्वोक्त- तृतीयान्तस्य प्रवेश इत्यवधेयम्, सहेत्ययेन योगे तृती. 55 सूत्रेण, अनेन सहस्य सादेशः। सक्षत्रं यदूनामिति–क्षत्रस्य- याया एवौचित्यात्, तदयोगे तु सामर्थ्याभावात् समासा
क्षत्रियोचितवृत्तस्य सम्पत्' इत्यर्थेऽव्ययीभावः, यदवो | भावस्यैव प्रसङ्गः। पदकृत्यमाह-अकाल इति किमिति20 यदुवंशीयाः क्षत्रियाः, तेषां स्वकर्मानुष्टायित्वात् क्षत्रस्य | कालवाचिन्युत्तरपदे सहस्य सादेशः किमर्थ' पर्युदस्यत
सम्पत्तिराख्यायते । एषु सर्वत्राव्ययीभावसमासार्थमाह- | इति प्रश्नार्थः। सहपूर्वाहं शेते सकलं पूर्वाहमभिसम्पत्तावव्ययीभावः इति । अथार्थान्तरे समुदाहरति- व्याप्य शेत इत्यर्थः, अत्र पूर्वाह्न-टा-सहेत्यस्य साकल्येs-60 युगपाकण चक्राणि वा होत-यगपरचत्रणंत्यर्थ योग-व्ययीभावसमायतेन
व्ययीभावसमासेऽनेन सहस्य सादेशो न भवति पूर्वाह
साठा भता पद्यस्य चक्रेण सहान्वयः, युगपच्चक्राणीत्यर्थे च तस्य | शब्दस्योत्तरपदस्य कालवाचित्वात्, 'अकाले' इत्यस्याभावे 25 क्रियया सहान्वय इति विवेकः, तत्र परस्मिन्नर्थे चक्रेण | च स दुर्वारः । सहापराहं भुङ्क्ते इति-सकलमपरा
सह सामर्थ्याभावेऽपि गमकत्वात् समास एष्टव्यः, योग- समभिव्याप्य भुङक्त इत्यर्थः, अत्रापि साकल्ये एवाव्ययीपद्याथे "विभक्तिसमीप०" [ ३. १. ३९ ] इति समासः, भावः, अभिध्याप्तिस्तु द्वितीयार्थः। अव्ययीभाव इदि- 65 सहस्य सादेशः प्रकृतसूत्रेण । सधुरं प्राजः इति-धुरा | किमिति-सहेत्यव्ययम्, तस्याव्ययीभावसमास-एव सम्भा
युगपत्-सधुरं, योगपद्येऽव्ययीभावः, "धुरोऽनक्षस्य" वितः “सहस्तेन" [ ३. २. २४.] इति विहितः समासो 30 [७. ३.७७ ] इति समासान्तोऽन, सहस्य सादेशोऽनेन बहुव्रीहिः, तत्र च पूर्वसूत्रः सहस्य सादेशो यथायोग विहितः
प्राज इति प्रपूर्वकस्याजेः पञ्चमीही रूपम् धूरत्र कार्यानभागः। एवेति परिशेषादव्ययीभाव एव भविष्यतीति 'अव्ययीभावे समासार्थमाह-योगपद्येऽव्ययीभावः इति । तृणैः सहेति- इत्यनावश्यकमिति प्रश्नाशयः । सहयुध्ववि-सह युद्धवा- 70 तणमध्यपरित्यज्य सकलमभ्यवहरति भक्षयति,यदग्रे परिवेषितं | नित्यर्थे क्वनिप इस्युक्तसमासः, इत्थं चाव्ययीभावादन्यत्र तत्र किमपि न परिशेषयतीत्यर्थः, न त्वत्र तृणभक्षणे तात्प- | तत्परुषेऽपि सहशब्दः समस्यत इति तस्य कालभिन्ने यध्वे. यंम, साकल्येऽव्ययीभावसमासे कृते सहस्य सादेश:1त्युत्तरपदे सादेशो मा भूदित्येतदर्थमव्ययीभाव इत्यावश्यकसमूलपातं हन्ति मूलेन सह हन्तीति विग्रहः, मूलेन सहे. मिति भावः ॥ ३. २. १४६ ॥
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र - १४०-१४८ ]
ग्रन्थान्ते ॥। ३. २. १४७ ॥
तन्न; तथा सति उत्तरपदस्य ग्रन्थान्तप्रतिपादकत्वं न स्यादिति ग्रन्थान्तवाचित्वमुत्तरपदस्येति वृत्तिग्रन्थो विरुध्येत । कलात० प्र०—– ग्रन्थस्यान्तो - प्रन्यान्तः, तद्वाचिन्युत्तरपदेऽ-दिशब्दानां ग्रन्यान्तवाचित्वेन कालवाचित्वाभावात्, 'अकाले' ऽव्ययीभावे समासे सहशब्दस्य सादेशो भवति । कलामन्तं । इति निषेधाज्सवत्या "अकालेऽव्ययीभावे" [३. २. १४६ ] कृत्वा सकलं ज्योतिषमधीते, एवं सकाष्ठम्, समुहूर्तम् । ; कलाविशब्दाः कालविशेषवाचिनोऽपि तत्सहचारिषु ग्रन्थेषु वर्तन्त इति प्रन्यान्तवाचित्वमुत्तरपदस्य, अन्त इत्यव्ययीभावः । कालार्थ आरम्भः ॥ १४७ ॥
।
इति पूर्वसूत्रेणैव सहस्य सादेश: सिद्ध एवेति व्यर्थमिदं सूत्र - 40 मित्याशङ्कायामाह -- कालार्थ आरम्भः इति, अयमाशयः“अकालेऽव्ययीभावे” [ ३. २. १४६ ] इत्यत्राकाले इत्यस्य कालनिरूपितवाचकताव्यावर्तककालत्वव्याप्यानुपूर्वीभिन्नानुपूर्वोमत्युत्तरपदे इत्यर्थः एवं चात्र कलादिशब्दानां ग्रन्थान्तपरत्वेऽपि तदानुपूर्व्याः [तद्धटितवर्णसन्निवेशक्रमस्य ] काल- 45 निरूपितवाचकता व्यावर्त्तककालत्वव्याप्यानुपूर्वीमत्त्वमेव, तादृशानुपूर्व्या एव कालवाचित्वस्यान्यत्र दृष्टत्वात्, इति तादृशानुपुर्वीभिन्नानुपूर्वीत्त्वविरहात् तत्सूत्रस्याप्रवृत्तावप्राप्तसादेशविधानार्थ प्रकृतसूत्रमारब्धमिति । यादृशवर्णसन्निवेशकमन्यत्र कालवाचित्वेन दृष्टस्तादृश एवेह लक्षणया ग्रन्था- 50 न्तवा वेन प्रयुक्त इति कालवाचिवर्णानुपूर्वीभिन्नानुपूर्वी पूर्वसूत्रापवृत्तौ प्राप्तायां सकलं ज्योतिषमधीते नियोगसिद्ध्यर्थं प्रकृतसूत्रमिति पर्यवसितोऽर्थः ॥
*२ १४७ ।। '
१३६
ग्रन्थ
श० म० न्यासानुसन्धानम् - ग्रन्थान्ते । 'उत्तरपदें' इत्यनुवृत्तम्, तद्विशेषणं प्रत्यान्तपदम् तच्चार्थपरं न तु शब्दपरमित्याह--प्रन्थस्यान्तो ग्रन्थान्तः इत्यादि शब्दश्चेहः प्रथ्यमानशास्त्रादिपरो न तु पुस्तकपरः, तद्वाचिनीति--चिपदमात्र तद्बोधकपरं न तु शक्त्या तदुपस्थापकपदमात्रपरम्, कलादिशदानां शक्त्या तदुपस्थापकत्वाभावात् । उदाहरति-- कलामन्तं कृत्वेति एतच्च लौकिक वाक्यम्, अलौकिकं [ शास्त्रीयं ] तु कलया सहेति वाक्यानुसारि ‘सह–कला-टा' इति, समासशास्त्रं स्वयमेवो"पदेक्ष्यति, समासे कृतेऽनेन सहस्थ सः, "गोश्चान्ते० ' [ २४.९६ ] इति कलाशब्दस्य हस्वेऽव्यीभावनिमित्तकायन्तिरेषु कृतेषु --सकलमिति । प्रकृतं विग्रहादिकमन्यत्राप्यतिदिशति---एवं- सकाष्ठमिति काष्ठामन्तं कृत्वेति " हि इति भावः, पूर्ववत् कार्यम् । एवं-समुहूर्त्तमितिमुहूर्तमन्तं कृत्वेति विग्रहः । कलाकाष्ठा मुहूर्तशब्दानां कालविशेषवाचिनां कथं ग्रन्थान्तवाचकत्वमित्याशयामाहकखादिशब्दाः कालविशेषवाचिनोऽपीति, अयमाशय:...कलादिशब्दा अवश्यं कालविशेषवाचिनः, किन्तु प्रकृते तत्का
सहचारिषु तत्कालवत्तिषु ग्रन्थेषु लक्षणया प्रयुज्यन्ते, retentives arयनकालान्तिमकलावर्तिग्रन्थेन सहित - नमीत इत्यर्थस्य विवक्षणात् । एवं च कलाशब्दस्य तद्ग्र
श० म० न्यासानुसन्धानम्- नाशिष्य० । सहस्य
भागपरस्वं सम्पद्यत इत्याह--- ग्रन्थान्तवाचित्वमुत्त- । सादेशः प्रकृतः, तस्यैवाननाशीविक्षायां निषेध आरभ्यते, वस्येति । समासविधायकशास्त्रमुपदिशति - अन्त इत्य- | सोऽपि न सर्वत्रापि तु कतिषु चिच्छन्देषु उत्तरपदभूतेषु विभावः । इति---" विभक्ति - सभोप०" [ ३. १.३९ ] सत्सु न प्रवर्तत इति तत्र भवत्येव सादेशः, तदाह--- 65 विशान्ता ऽव्ययीभावसमास इति भावः । केचित् शिषि गम्यमानायां गवादिवर्जिते उत्तरपदे इति, उदाकलादिप्रतिपादकग्रन्थपराः, ज्योतिःशा । हरति--स्वस्ति राज्ञे सहराष्ट्रायेति राष्ट्रेण सहिताय राज्ञे तिपादकत्वस्य प्रसिद्धत्वात् तथा च कलादि स्वस्तीति विवक्षिते राष्ट्र-टा-सहेत्यस्य समासः, "सहस्य समवधि कृत्वाऽधीते इति विवक्षितोऽथंइत्याहुः सोऽन्यार्थे” [ ३. २. १४३ ] इति सादेशे प्राप्तेऽनेन निषेधः,
नाशिष्यगो - वत्स-हले ।। २.२.१४८ ॥ त० प्र० - आशिषि गम्यमानायां गवादिवर्जित उत्तरपदे परे सहशब्दस्य सादेश न भवति । स्वस्ति राजे - सहराष्ट्राय स्वस्ति गुरवे - सहशिष्याय, भद्रं सहसंघायाचार्याय । आशिafa fha ? सपुत्रः सहपुत्र आगतः, अगो-वत्स - हल इति किम् ? स्वस्ति भवते सगवे, सहगवे; सवत्साय, सहवत्साय 60 सहलाय, सहहलाय ॥ १४८ ॥
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[ पाद-२, सूत्र-१४८-१४९ } श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनेतृतीयोऽध्यायः ।
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एवं-सहशिष्यायेत्यादावपि, स्वस्तिशब्दयोगे सहराष्ट्र-सह- अन्ये तु-धर्मादिषु वचनान्तेषु नवसु विकल्पमिच्छन्तिशिष्यादिशब्देभ्यश्चतुर्थी, एवं भद्रशब्दयोगे सहसंघशब्दादपि ! सधर्मा, समानधर्मा; सजातीयः, समानजातीयः, सनामा, वैकल्पिकी सा, पूर्वत्र "शक्तार्थ-बषड्-नम:-स्वस्ति०" [ २. समाननामा; सगोत्रः, समानगोत्रः; सरूपः, समानरूपः,
२. ६८ ] इति नित्यं चतुर्थी, परत्र च "तद्भद्राऽऽयुध्य०” सस्थानः, समानस्थानः, सवर्णः, समानवर्णः; सवयाः, 5 [२. २.६६ 1 इति वैकल्पिकी । पदकृत्यं प्रदर्शयितुं समानवयाः; सबचनः, समानवचनः। पच्छति--आशिषीति किमिति----तथा च गवादिजिते । अपरे -नामादिषु बन्धुपर्यन्तेषु द्वादशस्वेव समानस्य उत्तरपदे क्वापि न सादेश इत्यर्थोऽस्तु, यत्र च "नाम्नि" सभा नित्यमिच्छन्ति, अन्येषु तु मेच्छन्त्येव; सधर्मसप[३.२.४४ ] इत्यादिना विशिष्य सादेशो विधीयते तत्र । क्षादिशब्दांस्तु सहशब्देन समानपर्यायेण कृतसादेशेन साध
विधानसामर्थ्यानिषेधाप्रवृत्ती परिशेषादाशिष्येव निषेधः | यति, समानशब्दप्रयोगे तु-समानधर्मा, समानपक्ष:, 10 स्यादिति आशिषीति पदमव्यावर्तकमिति प्रष्टुराशयः । प्रत्यु- समानजातीय इत्यायेत्र भन्यन्ते। दाहरणद्वारोत्तरयति---सत्रः, सहपुत्र आगतः इति, अय
कथं समानोदरे जातः-सोदर्यः ? समाने तीर्थं माशयः-न केवलं "नाम्नि" [ ३. २. १४४ ] इत्यादिसूत्र
वसति-सतीर्थ्य इति ? “सोदर्य-समानोदयौं" (६. ३. विषयेभ्योऽतिरिक्त आशीरर्थ एव किन्तु तदतिरिक्तोऽपि
१११.) इति, "सतीर्थ्यः" (६. ४. ७८.) इति च निपातनाद्सादेशप्राप्तिविषय इति तत्रापि निषेधः स्यात्, यथा सपुत्रः ।
भविष्यतः॥ १४९॥ 15 सहपुत्रोवा आगत इत्यत्रगमनक्रियायां पुत्रसाहित्यविवक्षायां
"सहस्य सोन्यार्थे" [ ३. १. १४३ ] इति सूत्रवैयर्थ्य स्या- |-- दिति सत्रारम्भसामर्थ्यादेवात्र न निषेध इति वाच्यम्, ! श० म० न्यासानुसन्धानम्-समान०1 'स' इत्य- 50 सगले सवत्साय सहगवे सहवत्साय' इत्यादिप्रयोगेषु तत्सार्थ- नुवर्तते, धर्मादयश्चोत्तरपदविशेषणानि. तथा च योऽर्थः
क्यस्य जागरूकत्वात् । नन्वेवमाशिषीत्येतावदेवास्तु ''अगो- | सम्पन्नस्तमाह--समानशब्दस्येत्यादिना । समानो धर्मो20 वत्सहले' इति पर्यदासः परित्यज्यतामित्याह---अगोवत्स- ऽस्येति--बहुव्रीहिसमासे सति समानस्य सादेशः, "द्विपदाद्
हले इति किमिति--आशीरर्थे विवक्षितेऽपि एषूतरपदेषु | धर्मादन्" [७. ३. १४१.] इत्यन्-सधर्मेति । तत्पुरुषेऽपि निषेधो नेष्ट इति तद्वथावृत्यर्थमगोवत्सहले इत्यप्यावश्यक- ! भवतीत्याह-समानो वाधर्मः इति----"विशेषणं विशेष्येण ०" 55 मित्याह प्रत्यदाहरणेन--स्वस्ति भवते सगवे सहावे [३. १. ९६.] इति समासः, अनेन सहस्य सादेशः । समाना
इति । गवा सहितः सगौस्तस्म-सगये सहगवे इति, जातिरस्येति--इदं प्रयोगार्थपरिचायकं वाक्यमात्रम, व्युत्प25 अत्र निषेधस्य पर्युदस्तत्वेन भवत्येव पाक्षिक: सादेश तिस्तु समानशब्दाज्जातीयर् प्रत्ययः स्वार्थे, समानत्वं च
इति भावः, एवं--सहवत्सायेत्यादावपि व्यावृत्तिरूहनी- जात्यति समानजातिक इत्यर्थो भवति । अन्ये तु समानां येति ॥३.२.१४८॥
जातिमहतीत्यर्थे तद्धितार्थे समासे सति ईयप्रत्यये समानस्य 60 सादेशे सजातीयशब्दं व्युत्पादयन्ति । समानं नामास्येति
| बहुव्रीहिसमासः, अनेन सादेशः, तत्पुरुषेऽपि समानं नामेति समानस्य धर्मादिषु ॥ ३.२.१४६॥
विग्रहे विशेषणसमासे, समानस्य सादेशे सति सनाम इति
विग्रह विशेषणसमा १० प्र०--समानशब्दस्य धर्माविषूत्तरपदेषु सादेशो भवति । सर्वथा प्रयोगप्रदर्शनेन 'अन्यार्थेऽव्ययीभावे' इत्यन30 भवति । समानो धर्मोऽस्य-सषर्मा, समानो वा धर्म:- योरसंबंधः सूचितः । धर्मादीन् पठति--धर्म जातीय इत्या- 65
सधर्मः; समाना जातिरस्य-सजातीयः, समानं नामास्य- दिना । "धर्मादौ" इत्येकवचनेन निर्देशे कर्तव्यं धर्मादिध्वितिसनामा, समानं नाम-सनामः। 'धर्म, जातीय, नामन्, गोत्र, ! बहुवचनेन निर्देशो व्यर्थ इत्याशङ्कायामाह-बहुवचनरूप, स्थान, वर्ण, वयस्, वचन, ज्योतिष्, जनपद, रात्रि, नाभि, माकृतिगणार्थमिति---आकृत्या समान
बन्ध, पक्ष, गन्ध, पिण्ड, देश, कर, लोहित, कुक्षि, वेणि' इति । भूतस्वरूपेणव गग्यन्ते-परिचीयन्ते धर्मादय इति बोधनार्थ35 धर्मादयः, बढुवचनमाकृतिगणार्थिम् ।
मिति भावः ।
10
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बृहवृत्ति-वृहन्न्याससंवलिते [पाद-२, सूत्र १४९-१५० ] ___ एतत्सूत्रविषये मतभेदस्य दृष्टतया तं ताटस्थ्येन बोध- स्वपदविग्रहो बहुव्रीहिः, समानः पक्षोऽस्य” इत्यादिना, यति-अन्येत धर्मादिष वचनान्तचिति---व्याकरण- | अयमाशयः-सदश: सख्येति विगहा मम लक्षणप्रणेतणां लक्ष्यदर्शनपारवश्येन यैर्यथालक्ष्यदर्शनं कृतं समासः सर्वैरेव साधुत्वेन व्यवहृतः, तत्र च सहशब्दस्यैवा
तैस्तथासूत्राणि प्रणीतानि, तत्र स्वमते सर्वत्र नित्य एव | लौकिके विग्रहे प्रयोगस्तस्यैव सादेश: "अकालेऽव्ययीभावे" 5 सादेशो दृष्ट इति तथैव सुत्रितम्, यस्तु धर्मादिषु नवसु ! [ ३. २. १४६. ] इत्यनेन, सदृशसमानशब्दो च सर्व
विकल्पेन सादेश: प्रत्यक्षीकृतस्तैस्तथैव वचनमारब्धमिति सम्मतौ पर्यायशब्दी सहशब्दस्य सदशार्थत्वे च स्वीकृते भावः । तथा च तन्मतानुसारिप्रयोगानाह–सधर्मा | समानार्थत्वं स्वीकृतमेवेति समानः पक्षोऽस्येति समानशब्देन 45 समानधर्मा इत्यादिना । पाणिनीयमतमाह----अपरे तु | लौकिकविग्रहे कृतेऽपि सहशब्देन सहालौकिकविग्रहमाश्रित्य
नामादिषु बन्धुपर्यन्तेष्विति, तथाहि पाणिनीयं सूत्रम्-- | समासे तस्य "सहस्य सोऽन्यार्थे" [३. २. १४३.] इति 10 "ज्योतिर्जनपदरात्रिनाभिनामगोत्ररूपस्थानवर्णवयोवचनबन्धु ।
सादेशे सम्भवति प्रयोगसिद्धिरिति । आस्तां मतान्तरचर्चा, खु" [पा. सू. ६, ३. ८२.] इति, अत्र स्वगणपाठीयनामादयो
स्वमतेऽपि केचन प्रसिद्धाः शब्दाः कथं सेत्स्यन्ति, सोदर्यबन्धुपर्यन्ता एव शब्दाः सन्निविष्टाः, तेषु परतो नित्यमेव
सतीर्थ्यशब्दो च स्वमतेऽपि प्रसिद्धौ, अस्ति च तत्र समानसादेशो विधीयते, तदतिरिक्तेषु धर्मादिगणपठितशब्देषु समा- | शब्दस्य विग्रहवाक्ये प्रयोगः सर्वसम्मतः । न च तत्र प्रकृत
नस्य सभावं नेच्छन्ति। इत्थं च तेषां मते 'सधर्मा, सपक्षः, सूत्रेणान्येन वा सादेशस्य प्राप्तिरिति शते--कथं समा15 सजातीयः' इत्यादिप्रसिद्धप्रयोगाणामसिद्धौ सत्यां तदर्थ तैः | नोदरे जातः सोदयः, समाने तीथे वसति-सतीय:
प्रदर्श्यमानां युक्तिमाह--सहशब्देन समानपर्यायेण कृत- | इतीति । उत्तरयति----सोदर्यसमानोदर्याविति । अस्त्वसादेशेनेति, प्रयोगानुपूर्वी तदर्थश्च रक्षणीय इत्येतावन्मात्र- | न्येषां मतेऽत्र सादेशाप्राप्तिशङ्का, यैनिपातनं न स्वीक्रियते, 5 मावश्यकम्, तत्र समानसहशब्दयोरैकार्थ्य' प्रसिद्धम्, सहस्य नवा तादृशस्थले सादेशविधिरारभ्यते, स्वमते तु निपातना
च सादेशोऽन्यपदार्थे सामान्येनानुशिष्टः, तथा च 'सधर्मा' देव तत्र प्रथमे वैकल्पिको द्वितीये नित्यश्च सादेश: सिद्धः, 20 इत्यादिप्रयोगाणां सिद्धौ बाधकाभाव इति भावः । नन्वस्तु
तथाहि---समाने उदरे जात इत्यर्थे 'सोदर्यसमानोदयौं" सहशब्देन वाक्यरचनायां सधर्मेत्यादिप्रयोगसिद्धि: समान- [६. ३. १११.] इति सूत्रेण यप्रत्ययसन्नियोगेन समानस्य शब्देन वाक्यरचनायां च का गतिरिति चेदत्राह-समान- वैकल्पिकः सादेशो निपात्यते; समाने तीर्थे गुरौ वसतीत्यर्थे 60 शब्दप्रयोगे विति । यद्यपि वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यां
च "सतीर्थ्यः" [६.४. ७८.] इति सूत्रेण यप्रत्ययसन्नियोगेव दीक्षितेन समानशब्दप्रयोगेऽपि सादेशः साधितः, तथाहि
समानस्य सादेशो निपात्यते, एवं चाजसैव स्वमते तयोः समासाश्रयप्रकरणे तदीयो ग्रन्थः [ "समानस्यच्छन्दस्यमूर्धप्र- सिद्धिः । पाणिनीये तु "तीर्थे ये" [पा० सू० ६. ३. ८७] भृत्युदर्केषु" पा. सू. ६. ३. ४३. इति सूत्रव्याख्यायाम् ] "विभाषोदरे" [पा० सू० ६. ३. ८८.] इति सूत्राम्यामेव "समानस्य इति योगो विभज्यते, तेन सपक्षः, साधयं तयोः सिद्धिराश्रिता। एवमन्यैरपि तदर्थमुपायान्तराण्यासजातीयमित्यादि सिद्धयतीति काशिका" इति । अयमा- श्रितानीति नासिद्धिशङ्का तयोरिति ॥ ३.२.१४९ ।। शयः- यद्यपि पक्षधर्मजातीयेषु स्वमते समानस्य सभावो न विधीयते, तथापि प्रदर्शितसूत्रे "समानस्य” इति योगः पृथक् । क्रियते, सामान्येन समानस्य उत्तरपदे परे सादेशो विधीयते, सब्रह्मचारी ॥ ३. २. १५०॥ पश्चात् 'छन्दस्यमूर्धप्रभृत्युदर्केषु" इति सूत्रेण पूर्वयोगस्य
त०प्र०--सब्रह्मचारीति निपात्यते । समानी ब्रह्मचारी मवाचिकत्वं विज्ञाप्यते, इति नानिष्टस्थले प्रवृत्तिरिति समाने ब्रह्मण्याचमे गुरुकुले वा दतं चरतीति वा-सब्रह्मचारी, काशिकाकृतो मतमिति । काशिकेति कथनात् स्वमते तत्कृते
निपातनादेव व्रतशब्दस्यापि लोपः॥ १५०।। समाधानान्तरमेवोचितं, न तु योगविभागरूपं समाधानं, योगविभागस्य भाष्येऽदृष्टत्वादित्यरुचिः सूचिता । तथा च समाधानान्तरमुक्तं, तत्रैव तेन पक्षान्तरतया "अथवा सहशब्दः श० म० न्यासानुसन्धानम्-सब्रह्म। यद्यपि सदशवचनोऽप्यस्ति' सदृशः सख्या ससखीति यथा, तेनायम- समानस्य सादेशमात्रं प्रकृतप्रकरणविधेयं तथापि प्रकृतप्रयोगे
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[पाद-२, सूत्र-१५०-१५१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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कार्यान्तरस्यापि लक्षणान्तराप्राप्तस्य विधिरसेति निपातन- तेन समानत्वं तदध्येयग्रन्थतुतुल्याध्येयत्वेन, एवं च समाने सूत्रमिदमारभ्यते । तदाशयं स्वयमेवाग्रे स्फोरयिष्यतीति ! साधारणे ब्रह्मणि वेदे गुरौ वा यो व्रतं चरति स सब्रह्मचाविभज्यसूत्रार्थमनुक्त्वा निपातनपरत्वमेव सूत्रस्याह-सब्रह्म । रीत्यर्थो लभ्यते । एवं च 'ब्रह्म वेदस्तदध्ययनार्थ व्रतमपि 40
पारीति निपात्यते इति । प्रयोगं च द्विधा व्युत्पादगति- ब्रह्म, तच्च रतीति ब्रह्मचारीति दीक्षितादिव्याख्या यथाकथं5 समानो ब्रह्मचारीति--ब्रह्मचारिशब्दस्यान्यत्रापि साधनीय- चित् पदार्थप्रतिपादनरूपा, न तु वस्तुस्थितिरिति।।३.२.१५०॥
त्वेन प्रकृते सादेशमात्रस्य विधेयत्वमिति मतमाश्रित्येदम्, तथा च ब्रह्म आगमः. तदध्ययनार्थ व्रतमपि लक्षणया ब्रीव, तच्चरतीति विग्रहे "व्रताऽभीषणे" [५. १. १५५ ] इति । दृग-दश-दृक्षे ।। ३. २. १५१॥
णिन्-ब्रह्मचारीति, समानो ब्रह्मचारीति बिग्रहे विशेषणसमा- त०प्र०-'दश, दृश, वृक्ष' इत्येतेषूत्तरपदेषु समानस्य 10 सेऽनेन समानस्य सादेशः । सादेशमात्रस्य प्रकृते विधयत्वे | सादेशो भवति । समान इव दृश्यते--सदक, सदशः, सवृक्षः। 45
धर्मादिष्वेव ब्रह्मचारिशब्दे पठितेऽपि प्रकृतप्रयोगसिद्धिरिति दृश-वृक्षसाहचर्यात् टक्-सप्रत्ययसहचरितश्विवन्तस्यैव निपातनवैयर्थ्यमित्याशङ्कय विग्रहान्तरमप्याह--समाने ; दृशो ग्रहणादिह न भवति-समाना दृक्-समानवृक् ॥ १५१॥ ब्रह्मणि-आगमे गुरुकुले वा व्रतं चरतीति--ब्रह्मणीत्य
स्यार्थः-~~-'आगमे' इति 'गुरुकुले' इति च, तथा च समान15 ब्रह्म-व्रतेति शब्दद्वयात परवत्तिनश्चरतेणिनपि निपातनलभ्य
श० म० न्यासानुसन्धानम्-दृक० 'समानस्य एव । व्रतशब्दलोपश्च निपातनमात्रसाध्य इत्याह-निपात
नपात- सः' इति प्रकरणलभ्यम्, यद्यपि मध्ये निपातनपरसूत्रोपन्यासेन नादेव व्रतशब्दस्यापि लोपः इति । एवं च सादेशविधान- प्रकरणविच्छेदस्तथापि तत्रापिसादेशस्यैव प्राकरणिकत्वेन २० प्रसङ्गेन ब्रह्मचारिशब्दसिद्धिरपि प्रकृतसूत्रप्रयोजनम्, तदर्थ- | प्रकरणक्यमविच्छिन्नमेव ।
प्रकरणक्यमविच्छिन्नमेव। दक्दश-दक्षशब्दानां स्वातन्त्र्येण मेव च निपातनाश्रयणम्, पूर्वोक्तं ब्रह्मपदस्य आगमाध्य- | स्थिति स्ति, 'त्यदाद्यन्यसमानादुपमानात्"[५. १. १५२] 20 यनार्थव्रतपरत्वं तु जघन्यवृत्तिलभ्यमिति तत्र नास्था कर्त्तः । इति सूत्रेण त्यदाद्यादिषुपपदेषु सत्स्वेव क्विप्टक्सकानां . व्येति भावः।
विधानात्. तथापि प्रयोगस्थानामेवैतेषां शब्दानाभिदमनु
करणमिति विज्ञेयम् । एते चोत्तरपदविशेषणानि, तदाह--- 55 ___ एतच्च "चरणे ब्रह्मचारिणि" [पा० सू० ६.३.८६] | इत्येतेषत्तरपदेविति । समान इव दृश्यते इति-व्याप्ये । इति सूत्रस्थभाष्यकययटादिग्रन्थेभ्योऽप्यवगम्यते, तथाहि-- [कर्मणि प्रत्ययविधानात् कर्मणि विग्रहः, ये च कर्मणि तत्र सूत्रे भाष्यकृता--"अत्र किं निपात्यते ? ब्रह्मण्युपपदे । प्रत्ययं न विदधति ते 'तमिवेमं पश्यन्ति जनाः' इत्यर्थे स र समानपूर्वे व्रते कर्मणि चरेणिनिर्वतलोपश्च, ब्रह्मण्युपपदे । इवायं पश्यति ज्ञानविषयो भवतीति कर्मकर्तरि प्रत्ययमाहुः ।
समानपूर्वे कर्मणि चरेणिनिः प्रत्ययो व्रतलोपश्च निपा- स्वमते च सूत्र एव व्याप्ये इति कथनादजसैवार्थसंगतिरिति 60 त्यते-समाने ब्रह्मणि व्रतं चरतीति-सब्रह्मचारी" इत्युक्तम् । न क्लिष्टकल्पनाऽऽवश्यकता । 'समान इव 'दृश्यते' इति अत्र प्रकरणवशात् 'चरणे' [ शाखाध्यायिनि ] अभिधेये | कथनं च "त्यदाद्यन्यसमानदुपमानात्०" [५. १. १५८ ] इति
समानस्य 'सभावोऽनेन सूत्रेण विधेय इत्यायाति, तत्र निपा- | सूत्रस्थस्योपमानपदस्य सर्वत्रान्वयस्यौचित्यमनुरुध्य, अन्यथा 30 तनस्यावश्यकता नास्तीति "किं निपात्यते” इति भाष्यकृ- समानशब्दस्याप्युपमानवाचित्वेन पुनरुपमानवाचिन इव
प्रश्नेन-ब्रह्मणो [वेदस्य ग्रन्थरूपत्वेन चर्यमाणताया असं-- शब्दस्य प्रयोगोऽनावश्यक एव, सदृशशब्दस्य समानत्वेन 65 भवात् चरणकर्मत्वमनुचितमिति ब्रह्मचारिशब्दासिद्धिरिति दृष्टिविषयतैवाथों न तु समानत्वेनैव दृष्टिविषय इति । तथा मत्वा तदंशे निपातनस्यावश्यकत्वमिति सूचितम् । तत्र | च साम्यस्यापि तत्राभावो भासेत समान इव दृश्यते न तु
यद्यपि ब्रह्मचारीत्यवयवस्यैव निपात्यत्वमायाति तथापि अव- वस्तुतः समान इति प्रतिपत्तेः, तथा च समानो दृश्यते 36 यवद्वारा विशिष्टेऽर्थे समुदायस्यैव साधुत्वमन्वाख्येयमिति । इत्येव प्रयोगार्थः । अत्र विग्रहे क्विपि समानस्य सादेशे--
तस्यैव निपात्यत्वेनोपन्यासः । अत्र व्रतलोपश्चेत्यनेन वृत्त्यैव | सहक इति, टकि--सहश: इति, सकि---सदृक्ष इति ! 70 व्रतार्थस्योक्तत्वात् तस्याप्रयोग इत्याशयः, ब्रह्मचारिणश्च दकशब्दः कर्मणिक्विपा कर्तरि करणे क्विपा च सम्भवति
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बृहद्वृत्ति- बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र - १५२- १५३ ]
तत्र कर्तरि करणे वा क्विपि निष्पन्ने दृक्शब्दे समानस्य त्यादृक्षः इति - अत्रान्त्यस्य दस्याकारे समानदीर्घेण रूपसादेशी नेष्ट इति तदुपायमाह--दृश-दृक्षसाहचर्यादिति, सिद्धिः । एवं स इक दृश्यते - तादृक्-य इव दृश्यते - यादृक् । 35 अयमाशयः ~~~दृशदृक्षशब्दौ च कर्मणि प्रत्यये सत्येव सम्पद्येते । असाविव दृश्यते- अमूहगिति--अत्र चादसोऽन्त्यस्याकाशइति तत्सहचरितो दृक्शब्दोऽपि तत्सहचरित क्विप्प्रत्ययान्त । देशे समानदीर्घे सति "मोऽवर्णस्य" [ २.१.४५ ] इति - 5 एव ग्रहीतुमुचितः सहचरिताऽसहचारितयोः सहचरितस्यैव दकारस्य मादेशो "मादुवर्णोऽनु" [ २. १.४८ ] इति इति न्यायादिति कर्तृकरणप्रत्ययान्ते दृक्शब्दे परतः समा । उवर्गे अभूदृगिति । भवानिव दृश्यते--- भवादृक् । त्वमिव नस्य सादेशोऽनेन न भवतीति । क्वेत्याह--समाना हक । दृश्यते त्वादृक् । अहमिव दृश्यते - माह एक इव 40 समानष्टक् इति---- पश्यतीति दृक् ' इतीन्द्रियाणां कर्तुं देव- । दृश्यते-- एकादृक् । द्वाविव दृश्यते-- द्वा । युवामिव विवक्षायां, पश्यत्यनयेति- 'दृक्' इति तेषां करणत्वस्यैव । यूयमिव वा दृश्यते इति द्विवचन बहुवचनान्तेन विग्रहे तु 10 विवक्षायाम्, तत्र पूर्वस्मिन् विग्रहे बाहुलकात् कर्तरि क्विप् । "त्व-मौ प्रत्ययोत्तरपदे चैतस्मिन् ” [२.१.१५ ] इति त्वादेपरत्र च "क्रुत्-संपदादिभ्यः क्विप्" [५.३.११४.] इति शाभावात् -- युष्मारगिति एवमादामिव वयमिव वा दृश्यते करणे fray विशेषणसमासः अत्र न भवति समानस्य इति विग्रहे-- अस्मादृगिति । अन्यैवैयाकरणैर्वतावप्या 45 सादेशः, “पुंवत् कर्मधारये” [ ३.२.५७. ] इति पूर्वपदस्य कारादेशो विधीयत इति 'यावात्' इत्वादिप्रयोमसिद्धिस्तेषां पुंवद्भावे - समानदृगिति ॥३. २. १५१ ॥ भवति, स्वमते च तथाविधानाभावात् कथं तेषां सिद्धिरित्याशङ्कते - कथं यत् परिमाणस्य यावानित्यादि --अत्र
अन्यत्यदादेरा ॥। ३. २. १५२ ॥
त्वं कथं भवति तद्विधानाभावादिति प्रश्नाशयः । समाधत्ते " यत्तदेतदो डावादिः " [७ १. १४९ ] इति डावतौ 50 भविष्यतीति, अयमाशयः - नात्र त्यदादेशत्वमपि तु परित० प्र०--अन्यशब्दस्थ त्यदादेश्च दृक्-दृश-वृक्षेषूत्तर- | माणार्थे 'यद्-तद्-एतद्' शब्देभ्यो डावनुप्रत्ययः, तत्र डित्त्वपदेषु आकारान्तादेशो भवति । अन्य इव दृश्यते--अन्यादृक् । सामर्थ्यादन्त्यस्वरादिलो पे -- यावानित्यादिरूपसिद्धिर्भवतीति अन्यादृशः, अन्यादृक्षः; एवं-त्यावृक्, त्यावृशः, त्यादृक्षः; तादृक्, नायं प्रकृतसूत्रविषय इति । ३. २. १५२ ॥ तावृशः, तावृक्षः; यादृक्, यादृशः, यावृक्षः; अमूदृक्, अमूदृशः, 20 अमूवृक्षः भवावक, भवादृशः, भवावृक्षः; त्वादृक् त्वादृशः, त्यावृक्ष: मातृकु, मादृशः, मावृक्षः; एकादृक्, एकादृशः, एकावृक्ष: द्वाक, द्वावृशः, द्वावृक्षः युष्मावृ, युष्मावृशः, युष्मादृक्षः अस्मादक, अस्मादृशः अस्मादृक्षः । कथं यत्परिमाणमस्य - यावान् ? एवं तावान् ? एतावान् ? “यस 25 वेतदो डावादिः " (७. १. १४९.) । इति डावतौ भविष्यति ॥ १५२ ॥
15
१४०
श० म० न्यासानुसन्धानम् अन्य० । पूर्वसूत्रमनुवर्त्तते, समानस्य स इति निवृत्तं विधेयोद्देश्ययोः कण्ठतो
इदं किमी की । ३. २. १५३ ॥
त० प्र० - इदशब्दः किंशब्दश्च दृक्-दृश-वृक्षेषूत्तरपदेषु परेषु यथासंख्यमीकाररूपः कीकाररूपश्च भवति । अयमिव दृश्यते-- ईदृक्, ईदृशः, ईवृक्षः क इव दृश्यते - कोदृक् कीदृशः ; कीवृक्षः । कथं इदं कि या परिमाणमस्य - इयान् ? कियान् ? "इवं किमोरिय किय्०” (७. १. १४८.) इति भविष्यति 60
॥ १५३ ॥
55
निर्देशात् तथा च सूत्रं व्याख्याति -- अन्यशब्दस्य स्यदा- श० म० न्यासानुसन्धानम् - इदं० । स्थान्यादेशयोः 0 देश्चेत । आकारोऽत्रादेशः इति --"त्यदाद्यन्वसमाना- | सामानाधिकरण्येन निर्देशः सर्वादेिशत्वार्थ: तथा सति ईदा - दुपमानात्” [ ५. १. १५२ ] इति क्विप्-टक्-सकः सर्वत्र | देशोऽपि सर्वस्यैव सम्पूर्णस्येदम एव स्थाने भवति, अन्यथा अनेन चाकारान्तादेशः । प्रकृतं विग्रहं सर्वत्रातिदिशति - ! तस्यैकवर्णरूपत्वेन षष्ठीनिर्देशेऽन्त्यस्यैव विधिः स्यात्, 'की' एवं स्यात्यिादि । स्य इव दृश्यते--त्याह, त्यादृशः ! अदेशस्तुभयथा सर्वादेश एवानेकेवर्णत्वात् । तथा च सूत्रा
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[ पाद- २, सूत्र - १५३ - १५४ ]
श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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र्थमाह- इदं शब्दः किं शब्दश्चेति । अयमिव दृश्यत । तस्मात् परं क्त्वान्तमुत्तरपदं कृत्वेत्यादि तदवयवस्य क्त्व
इति----" त्यदाद्यन्य समानात् ०" [ ५.१.१५२ ] इति क्विबादयः । क्वचित् दृक् दृश- दृक्षेभ्योऽन्यत्रापि इदं - किमोरादेशौ दृश्येते तयोः कथं सिद्धिरित्याशङ्कायामाह -- कथमिदं 5 किं वा परिमाणमस्येति । उत्तरयति--" इदं किमो ऽतुरिय् किय्०" इति - नात्र ईत्-को आदेशावपि तु 'इय् किय्' देशाविति न प्रकृतसूत्रातिव्याप्तिरिति भावः ।।३.२.१५३ ।।
यबादेशः " ह्रस्वस्य तः पिकृति" [ ४. ४. ११३. ] इति 40 तागमः । उच्चैःकृत्येति -- "कृगोऽव्यये नानिष्टोक्ती क्त्वाणमो" [५. ४. ८४.] इति क्त्वा, इस्युक्तसमासः अनेन क्त्वो यप् । अनम् इति किमिति - "कृत्वो यप्" इत्येतावदेवोच्यताम्, पूर्वपदात् परस्य क्त्वान्तस्य यवादेशो विधीयताम् तावतैव प्रकृत्येत्यादीनां सिद्धिरिति भावः 1 45 अकृत्वेति--अत्र न कृत्वेति विग्रहे नञ्समासः अत्र पूर्वपदात् परत्वे सत्यपि न यबादेशो भवति, यदि 'अनन्' इति न कथयिष्यते तहींहापि स्यादेवेति तद्वारणाय 'अनशः ' इत्यावश्यकमिति भावः । किञ्च 'अनञः' इत्यस्याभावे पूर्वपदोपस्थापकाभावादसमासेऽपि स्यात् । यदि चोत्तरपदाधि - 50 कारात् पूर्वपदाक्षेप इत्युच्यते तदापि सर्वस्मात् पूर्वपदात् परस्य यबादेशः स्यादित्याह -- परमकृत्वेति-- परमं च तत् कृत्वेति विग्रहः, 'सन्महत्०" [३. १. १०७.] इति समासः । ननु च "कृत् सगतिकारकस्यापि [७ ४. ११७.] इति परिभाषया 'अनम:' इत्यस्थाभावेऽपि पूर्वपदाक्षेपाभावेऽपि च 55 प्रकृत्येत्यादौ कथंचित् स्यादपि परमकृत्वेत्यत्र कथं स्यात्, परमशब्दस्य गतित्वका रकत्वयोरभावादिति चेत् ? न 'अनम:' इति पर्युदासं कुर्वत आचार्यस्य "कृत् सगतिकारकस्यापि” [७. ४. ११७.] इति परिभाषा नेहोपतिष्ठते इत्याशयात् । ननु 'अनञः' इत्यस्य सत्त्वेऽपि परमकृत्वेत्यत्र 60 कथं न यथादेशः, यतो नात्र नञः परं क्त्वान्तम् अव्ययात् पूर्वपदादिति च वृत्तिवणितोऽर्थो न सूत्राक्षरलभ्य इति यबादेशोऽत्र दुर्वार इति चेदत्राह--अनन इति ननूसदृशमव्ययं गृह्यते इत्यादि, अयमाशयः -- * नजिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथाह्यर्थगतिः * इति न्यायेन नञ्युक्तस्य 65 पदस्य तदन्यतत्सदृशार्थवाचकत्वम्, न भिन्नं नसदृशं च पूर्वपदमव्ययमेवेति-अव्ययात् पूर्वपदात् परस्यैव क्त्वान्तस्य यवादेशो भविष्यति, परमकृत्वेत्यत्र परमपदं च नाव्ययमिति न भवति तत्र यबादेशः । तथा चाना इत्यस्य नञोऽनव्ययाच्च परस्य क्त्वान्तस्य यबादेशनिबेधकत्वं पर्यवस्पती - 70
अनत्रः क्त्वो यप् । ३. २. १५४ ॥ त० प्र०--नञ्ञ वर्जितादव्ययात् पूर्वपदाद् यत् परमुत्त10 रपदं तदवयवस्य क्त्वाप्रत्ययस्य यनादेशो भवति । प्रकृत्य,
प्रहृत्य, उच्चैः कृत्य, नानाकृत्य । अनञ इति किम् ? अकृत्वा, अह्रुत्वा, परमकृत्वा ; अना इति नन्रसवृशमव्ययं गृह्यत इति इह नञोऽनव्ययाच्च न भवति । उत्तरपदस्येत्येव - अलं कृत्वा, खलु कृत्वा ॥ १५४ ॥
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श० म० न्यासानुसन्धानम् - अननः० । 'उत्तरपदे' इत्यधिकृतं "न नाम्येकस्वरात् खित्युत्तरपदेऽमः-[ ३: २. ९. ] इत्यतः, तत्सामर्थ्यात् पूर्वपदस्येति लभ्यते, इह चोत्तरपदस्यैव क्त्वान्तस्य कार्यः, एतच्च क्त्व इति षष्ठी । निर्देशाल्लभ्यते, तत्सामर्थ्याच्च अनत्र इति पञ्चम्यन्तं दिग्यो20 गलक्षणपञ्चम्या, ततश्चोत्तरपदसामर्थ्य लब्धस्य पूर्वपदस्यापि पञ्चम्यन्तत्वमेव सामानाधिकरण्यानुरोधात् । ' क्त्वः' इति षष्ठीनिर्देश सामर्थ्याच्च 'उत्तरपदे' इति सप्तम्यन्तं षष्ठयन्ततया विपरिणमति, क्त्वेति प्रत्ययः, तद्ग्रहणे तदन्तस्य ग्रहणं भवतीति नभिन्नान्नसदृशात् [ अव्ययात् ] पूर्वपदात् 25 परस्य क्त्वान्तस्योत्तरपदस्य यप् भवति, स च निर्दिश्यमान
न्यायेन क्त्व एव स्थाने इति सूत्रार्थः सम्प्रद्यते । तदेतत् सर्व मनसिकृत्य सूत्रं व्याख्याति -- नन्वर्जिताद्व्ययात् पूर्वपदादित्यादिता । यत् परमुत्तरपदं तदवयवस्येति क्त्वान्तस्योत्तरपदस्येति न्यायलब्धेऽर्थे * निर्दिश्यमानस्यादेशात्याह--ननोऽनव्ययाच्च [ परस्य ] न भवतीति । ननु च 30 भवन्ति * इति न्यायेन निर्दिश्यमानस्य क्त्व एवादेशः, स चोत्तरपदावयवभूत एवेति फलितार्थकथनमिदम् । उदाहरति--प्रकृत्य, प्रहृत्येति-- कृत्वा हृत्वेति क्त्वान्तम्, तस्य प्रशब्देन सह गतिसमासः, प्रदान्दश्चाव्ययं पूर्वपदम्
नमोऽसत्त्वार्थकत्वेन तेन रूपेण सादृश्यग्रहणे धातुरेवासत्त्वार्थकः ततः परस्य क्त्वो यबादेशः स्यादिति कृत्वेत्यादावपि यबादेशापत्तिरिति चेन्न - क्त्व इति प्रत्ययोपस्थापकपदेनैव प्रत्ययग्रहणे यस्मात् स विहितस्तदादेस्तदन्तस्य ग्रहणात् धातो: 75
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१५४-१५५ ]
क्त्वान्त एवान्तर्भावात् तद्भिन्नमेव नसदर्श ग्राह्यमिति, पिशाचः, अत्र पिशितस्य पिशादेशः, अश्नातेः शस्य धादेशः, तच्चाव्ययमेवेत्यदोषात्, क्त्वाग्रहणेन हि धातुप्रत्ययसमुदायः । शवानां शयनं-श्मशानम्, पूर्वपदस्य श्मादेश उत्तरपवस्य च शापरिगृह्यत इति धातोः स्वावयवत्वेन स्वावयवेन च सह पौर्वा- ! नादेशः, अवन्तोऽस्यां सीदन्ति विषीदन्ति-वृसी अत्र उट् प्रत्ययः,
पर्यरूपसम्बन्धासंभवात् ततो भिन्नस्यैव नसदृशस्य ग्रही- । पूर्वपदस्य वृभावः; ऊवं खं बिलं वास्य-उखलम्, उलूखलं 5 तुमौचित्याच्च । अनोऽव्ययात् परस्य क्त्वान्तस्य यबित्यर्थे- वा, अत्र पूर्वपदस्योदूभाव उलूभावश्च, उत्तरपदस्य खला. 40
नव सकलेष्टसिद्धाविहोत्तरपदसम्बन्धोऽनावश्यक इति शङ्का ! देशः, दिवि धौवों क एषां-दिवौकसः, अत्राकारा मनसि निधायाह--उत्तरपदस्येत्येवेति, अनमोऽव्ययात् । अश्व इव तिष्ठति-अश्वत्थः; कपिरिव तिष्ठति कपयोऽस्मिपरस्योतरपदभूतस्यैव क्त्वान्तस्य [ क्त्वो ] यबित्यर्थला- ! स्तिष्ठन्ति इति वा-कपित्थः; दनि तिष्ठति-दधित्थः,
भार्थमुत्तरपदसम्बन्ध इहावश्यक एवेति भावः 1 मह्या तिष्ठति-महित्यः, एषु तिष्ठतेः सकारस्य तकारः; 10 कुत इति चेदत्राह--अलं कृत्वा, खलु कृत्वेति-- । मुहः स्वनं लाति मुहर्महुलंसतीति वा-मुसलम्, अत्र मुहुःशब्दस्य 45
"निषेधऽलंखल्वोः क्त्वा" [५. ४. ४४. ] इति स्वा. अत्र! मुभावः स्वनशब्दस्य सभावः, पक्षान्तरे-लसयोविपर्ययश्च; पत्वाविधायकसूत्रेऽलं-खल्वोः सप्तम्योक्तत्वेन ङस्थक्तत्वा- ऊध्वों कर्णावस्येति-उलूकः, अनोवंशब्दस्योलादेशः कर्णभावान्न ङस्यक्तसमास इति अलं-कत्वादयो । शब्दस्योकादेशश्च मेहनस्य खं-मेहनखं, तस्य माला
कृत्वाशब्दयोश्च पूर्वोत्तरपदत्वाभावः, नहि पर्वमवस्थितं । मेखला, अत्र 'मेहनखे' हनस्य, मालाशब्दे च माशब्नस्य लोपः, 15 पदं पूर्वपदमुत्तरमवस्थितं पदमुत्तरपदमिति यौगिकी शक्तिः / को जीयति-कुञ्जरः, अत्र कुशब्दस्य मोऽन्तः; आश्वस्य 50 पूर्वोत्तरपदयोयाकरणे समपयज्यतेऽपि न प | विषमस्ति-आशीविषः, अत्राशशब्दस्याशीभावः बलं वर्ष
सप्रथमावयवे रूढ उत्तरपदशब्दश्च समासचरमावयवे । यति-बलीवर्वः, अत्र बलस्यकारोऽन्तादेशो वर्षषकारस्य च रूद इति प्रकृते समासाभावात कृत्वेति क्स्वान्तस्य नोत्तर.! दकार, मनस ईष्टे-मनीषी, अत्र मनसोऽन्स्यस्वरादिलोपः, पदत्वमिति न भवति यबादेशः: उत्तरपदस्थत्यस्याभार ईशः शस्य च षः, बिलं दारयतीति-बिडालः, अत्र बिल
स्यादेवेति तद्वथावृत्त्यर्थ तदनुत्तिरवश्यं स्वीकार्येति । शब्दस्य ललोपः, उत्तरपदस्य च डालादेशः, मृदमालीयतेः 55 20 भावः ॥ ३. २. १५४॥
ड:-मणालः, अत्र मदो दकारस्य णकार, असगालीयते :सगालः, अत्रादेर्लोपः, असगिलति वा-सगालः, अत्रासग आद्यन्तलोपः, पुरो वाश्यते पुरोडाशः, अत्रोत्तरपदादेईत्वम्
अश्वस्याम्बा-बडवा, अत्राश्वस्याशो लोपः, इचान्तः, अम्बापृषोदरादयः। ३. २. १५५॥
शब्दे च मो लोपः; शकस्यान्धुः-शकन्धुः, अत्र पूर्वपदान्तस्यो- 60 त० प्र०-'पृषोदर' इत्येवंप्रकाराः शब्दा विहितलोपा- तरपदादेर्वा लोपः, एवं-कर्कन्धुः; अदप्तीत्यच्-अटा, कुलाअगम-वर्णविकाराः शिष्टः प्रयुज्यमानाः सापवो भवन्ति। नामटा-कुलटा; अव-अवाक् अटन्त्यस्मिन्निति बाहुलकात 25 पुषदुदरमुदरे वास्य-पृषोदरः, पृषत उदरं-पृषोदरम्, पृषत, "पुनाम्नि" (५. ३. १३०.) ६
! "पुनाम्नि" (५. ३. १३०.) इति घः, अवटः हिनस्तीतिउद्वानं-पृषोद्वानम्, एवं-पृषोद्धारम्, अत्र तकारलोपो निपा- सिंहः, अत्र सकार-हकारयोविपर्ययः; कृतकेन शलतित्यते । जीवनस्य-जलस्य मूतः-पुटबन्धः-जीमूतः, अत्र वनस्य ! हकलाशः, अत्र तकारस्य लोपः, शकारलकारयोस्तु विपर्ययः; 65 लोपः वारिणो वाहको-बलाहकः, अत्र
भ्रमन् रौति :-भ्रमरः, अत्र तलोपः; एवंप्रकाराः शिष्टः पदावेश्च ल आदेशः; आध्यायन्ति समिति-आढयः, अत्र | प्रयुक्ताः पृषोदरादयः। मयूर-महिषादीनामुणावौ व्युत्पादि३० ध्यस्य उपादेशः कृच्छण दास्यते नास्यते दभ्यते च खलि- तानामपोह व्युत्पादनमनेकषा शब्दव्युत्पत्तिज्ञापनार्थम् ।
सुष्टो दासो नासो दम्भ इति वा-दूडासः, दूणासः, उभः; । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन-मुहूर्तमारग्वधोऽश्वत्थामनिर्लय. दुष्टं ध्यायति-दूढयः, एषु पूर्वपदस्य दुसो दूभाव उत्तरपदा
नीत्यादयोऽपि द्रष्टव्याः। वेश्च उत्व-णत्व-शत्वानि दम्भेर्नलोपश्च; मह्या रौति-मयूरः, वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशी।
रौतेरच्यन्तलोपो महीशब्दस्य मयभावः मह्यां शेते-महिषः, । धातोस्तदर्थातिशयन योगस्तदुच्यते पञ्चविषं निह35:, अत्र पूर्वपवस्य ह्रस्वत्वं शस्य च षत्वम् ; पिशितमश्नाति- ! क्तम् ॥ १५५ ।।
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[ पाद-२, सूत्र-१५५]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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श०म० न्यासानुसन्धानम्-पृषो । अत्रादिशब्दो । वन्तो वैयाकरणा एवेह शिष्टपदेन विज्ञेयाः । यदि चात्र व्यवस्थावाची प्रकारवाची वेति संदेहमपाकर्तुमाह-पृषोदर शिष्टपदप्रवृत्ति निमित्तभूतशिष्टेः [शासनस्य] पृषोदरादिइत्येवं प्रकाराः इति-आदिशब्दस्य प्रकारवाचित्वे हि मणे शास्त्ररूपशासनमूलकत्वेऽन्योन्यान्याश्रय इति कथ्यते तर्हि 40 पठितेभ्योऽन्येऽप्येवंविधाः शिष्टप्रयुक्ता: शब्दाः पृषोदरादित्वेन निवासविशेषाचारविशेषमूलक शिष्टत्वं स्वीकार्यम्, तत्र 5 बोद्धं शक्याः, व्यवस्थाचित्वे च तन्न स्यात् पृषोदरशब्द
निवासविशेष आर्यावर्त एव, आर्यावर्तदेशश्च यद्यपि मनुना--- माद्यवयवत्वेन निर्दिश्य पठितसमुदायान्तर्गतस्यैव पृषोदरा- " आ समुद्राच्च वै पूर्वादा समुद्राच्च पश्चिमात् । दित्वेन ग्राह्यत्वापत्तेः । पृषोदरादय इत्यस्य बहुव्रीहित्वेना- तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त प्रचक्षते ॥" न्यपदार्थप्राधान्यादन्यपदार्थ इह क इत्याशङ्कापनोदायाह- इत्युक्त दिशा प्रतिपादितः, तथापि भाष्यकृताऽन्य एव 45 शब्दाः इति----व्याकरणशास्त्रस्य शब्दसाधुत्वमात्रार्थकरवेन तदवधिः प्रतिपादितः प्रागादर्शादित्यादिना, आदर्श:-- शब्दानामेय सर्वथाऽत्रान्वाख्येयत्व मिति त एवेहान्यपदार्थ
| कुरुक्षेत्रे पर्वतविशेषः, तस्मात् प्राक्-पूर्वा दिशमभिव्याप्य, तया ग्रहीतुमुचिता इति भावः । सूत्रस्य निपातनरूपत्वेन कालकवनं--राजगिरिप्रदेशवनं तस्मात् प्रत्यक्-पश्चिमां निपात्यविषयाणां च बहुत्वेन संक्षेपेण तेषां सङ्ग्रहमप्याह दिशमभिव्याप्य, हिमवन्तं दक्षिणेन हिमवतो दक्षिणदिशमभिवृत्तौ--विहितलोपा-ऽऽगम-वर्णविकाराः इति-विहिताः।
| व्याप्य, पारियानं दक्षिणे | हैदराबाद ] प्रदेशे स्थितात 50 कृताः, लोपश्चागमश्च वर्णविकारश्च---लोपागमवर्णविकारा | पर्वतविशेषादुत्तरां दिशमभिव्याप्य स्थितो देश आर्यावर्तः 15 येषु तथाभूताः एष हि क्वचिल्लोपः-श्रयमाणवर्णादर्शनम. कथ्यत इति भाष्याशयः । एवं च मनुना
क्वचिदागमः-अधूयमाणवर्णादिप्रयोगः, वर्ण बिकार:-- "हिमवद्विन्ध्ययोमध्ये यत् प्राग् विनशनादपि । श्रूयमाणवर्णस्यैवान्यथाभाव इत्येवमादयो विषयाः शास्त्रा- प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेश : प्रकीत्तितः ।। न्त रेणाविहिता अपि साधुत्वेनावाख्यायन्त इति भावः ।
इति रीत्या प्रदर्शितो मध्यदेश एवेहार्यावर्त्तत्वेन भाष्य- 55 अविहितत्वेऽपि साधुत्वेनान्वाख्येयत्वे हेतुमाह--शिष्टैः |
कृता प्रतिपादितः। अत्र प्रदेशे नियसन्तो धनसंग्रहहीना-, प्रयुज्यमानाः इति-दिव्येन चक्षुषा प्रत्यक्षीकृतशब्दमर्यादा: लाभप्रजादि दष्ट कारणं विनव सदाचारानुवतिनः, सदाचाराशिष्टास्तः प्रयुज्यमानाः स्वकीयतन्त्रेऽन्यतन्त्रे वाऽनन्वास्याता
नष्ठानजनितान्तःकरणशुद्धचाऽविद्यापगमाद् गुरूपदेशादिकं अपि साधुत्वेन विज्ञया इति भावः ।
विनैव तपोबलेन प्रत्यक्षीकृतशब्दमर्यादा ये सन्ति त एवं शिष्टपदार्थविचारो भाष्यकृता सम्यक् प्रपञ्चितो|
| शिष्टास्त एव हि शब्दसावुत्वपरिज्ञाने प्रमाणम् । तदुक्तं 66 व्याख्यातश्च कयट-नागेशादिभिः "पषोदरादीनि यथोप-वाक्य
वाक्यपदीये25 दिष्टम्" [पा० सू० ६. ३. १०९] इति सूत्रव्याख्यायाम् । "आविर्भूतप्रकाशानामनुपप्लुतचेतसाम् ।
तथाहि-के पूनः शिष्टाः? वैयाकरणाः । कुत एतत् ? अतीतानागतज्ञानं प्रत्यक्षान्न विशिष्यते ।। शास्त्रविका हि शिष्टिः, वैयाकरणाश्च शास्त्रज्ञाः । अतीन्द्रियानसंवेदधान् पश्यन्त्यारेण चक्षुषा । यदि तहि शास्त्रपूर्विका शिष्टिः शिष्टिपूर्वकं च शास्त्र, |
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ये भावान् वचनं तेषां नानुमानेन बाध्यते॥" तदितरेतराश्रयं भवति, इतरेतराश्रयाणि कार्याणि च
| इति, आविर्भूतप्रकाशानामिति---अविद्यापगमेन योगाम्या30 न प्रकल्पन्ते । एवं तर्हि निवासतश्चाचारतश्च । स
ससहकृतप्रत्यक्षेणाविर्भूतसर्वविषयज्ञानानामित्यर्थः। तत्र चाचार आर्यावर्त एव । कः पुन रायर्यावर्त्तः ? प्रागादर्शात्
कारणमाह-- अनुपप्लुत चेतसामिति-विहितकर्मानुष्ठानाप्रत्यक्कालकवनाद् दक्षिणेन हिमवन्तमुत्तरेण पारियात्रम् ।
च्छुद्धान्तःकरणानामित्यर्थः । अतीतानागतज्ञानं भूतभविष्यएतस्मिन्नार्यावत्त निवासे ये ब्राह्मणाः कुम्भीधान्या अलो
द्विषयकं विज्ञान, प्रत्यक्षात्---विद्यमानवस्तुविषयास्मदादिलपा अमृह्यमाणकारणा: किंचिदन्तरेण कस्याश्चिद्
प्रत्यक्षज्ञानात्, न विशिष्यते--नातिरिच्यते । अतीन्द्रियान्35 विद्यायाः पारंगतास्तत्रभवन्तः शिष्टाः" इति ।
बाह्येन्द्रियाग्राह्यान्-असंवेद्यान, अन्यमनसाऽप्यनुपलभ्यअस्यायमर्थ:-शिष्टशब्दः कृतशासनार्थकः, शासनं | मानान भावान, ये आर्षेण योगाभ्याससहकृतेन दिव्येन चेह प्रत्यासत्त्या व्याकरणशास्त्रमेवेति व्याकरणशास्त्रज्ञान- चक्षुषा पश्यन्ति-प्रत्यक्षीकुर्वन्ति तेषां वचनं, अनुमानेन
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मदादि. 70
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बृहवृत्ति-बृहन्न्याससंघलिते
[पाद-२, सूत्र-१५५]
युक्त्यादिसहकृतेन शास्त्रेण न बाध्यते, अपि तु तेषामेव । ति-उद्वानं-शोषणम्, षष्ठीसमासः, तकारकोपः । पृषोवचनं प्रमाणमिति भावः । अत्र पुनः शङ्कितं भाष्ये-'यदि द्वारमिति-अत्रापि पृषत उद्धारमिति विग्रहे उत्पूर्वकात् तर्हि शिष्टाः शब्देषु प्रमाणं किमष्टाध्याय्या. शिष्टाः शक्या धुगधातोणिगि अचि सामान्ये नपुंसकमिति क्लीबता, अथवा
विज्ञातुम् ? अष्टाध्यायीमधीयानोऽन्यं पश्यत्यनधीयानं येऽत्र वस्तुविशेषरूढान्येतानिपदानीति वाच्यार्थानुसारमेव लिङ्गम्। 40 5 विहिता: शब्दास्तान् प्रयुञ्जानम् । स पश्यति नूनमस्य : जीमतशब्दं ध्याचष्टे-जीवनस्य जलस्येति--जलनामसु
देवानुग्रहः स्वभावो वा-योऽयं न चाष्टाध्यायीमधीते, ये जीवनशब्दस्यापि पाठात, अपां प्राणधारणसाधनत्वाच्च चास्या विहिप्ताः. शब्दास्ताँश्च प्रयुडवते. ! नूनमयमन्यानपि जीवनशब्दस्य तत्र यौगिक्याः शक्तेरपि संभवात् मतः जानाति" इति । एवमेषा शिष्टज्ञानार्थाऽष्टाध्यायी" इति । पुटबन्धः इति--"मव बन्धने" इत्यस्य क्ते-मूत इति
अयमाशयः-- शिष्टानां शब्देषु प्रामाण्याङ्गीकारे । तस्यैवार्थः-पुटबन्ध इति, जीमूतशब्दवाच्यस्यः मेघस्य 45 10 शिष्टप्रयोगानुसारमेव साधत्वं विज्ञायतामष्टाध्यायीरूपं जलपुटबन्धरूपत्वाद् योगार्थसंगतिरूह्या । प्रकृतसूत्रनिपा
शब्दानुशासनमनावश्यकमिति न भ्रमितव्यम्; शिष्टप्रयुक्त- त्यार्थमाह- अत्र वनस्य लोपः इति-जीवनशब्दावयवस्य प्रयोगपरिज्ञानार्थमेवाष्टाध्याच्या आवश्यकत्वात, ये शब्दा: वनशब्दस्य मूतशब्दे , उत्तरपदे लोपोऽत्र विधीयत इति शिष्टः प्रयुक्तास्त एवेह संगृह्य प्रदर्शिताः । तत्र येऽवशि- भावः । बलाहकशब्दं व्युत्पादयति-वारिणो वाहक:---
ष्टास्ते च शिष्टप्रयोगानुसारं विज्ञेयाः । अनधीताष्टाध्यायि- इति-षष्ठीसमासः, प्रकृतगण विधेयमाह-अत्र पूर्वपदस्य 50 15 कान्-अष्टाध्यायीस्थप्रयोगानन्यानपि च निःशङ्कं प्रयुञ्जा- बः, उत्तरपदादेश्च लः इति---वारिशब्दस्थाने 'ब' शब्द .
नानवलोक्य प्रतिपत्ता विचारयति यदनधीताष्टाध्यायिका , आदिश्यते, वाहकशब्दादिभूतस्य वकारस्य लकार इति अप्यते यथाऽष्टाध्यायीस्थप्रयोगान् साधु प्रयुजते, तथाऽन्या- ! भावः । आढयशब्दं विगृह्णाति आध्यायन्ति तमिति-- नपि साधनेवामी प्रयुञ्जते तेऽपि संग्राह्या एवास्माभिरिति। | आढयो धनिकः, स च सर्वैः स्म्रियमाणत्वादाध्यानविषय
एवं चासंगहीतप्रयोगविषयेऽपि शिष्टप्रयोगविज्ञानार्थमष्टा- इति योगार्थावगतिस्तत्र। आइपूर्वका ध्यायते: "स्थादिभ्यः 55 20 ध्याय्या उपयोगः स्फुट:, अष्टाध्याय्यनध्ययनेऽपि तत्प्रयोग- ! कः" [ ५. ३. ८२. ] इति कः, आलोपः, अनेन धकारस्य
विज्ञानेन तेषां दैवानुग्रहं शिष्टत्वं च निर्णीय यानन्यानप्यते । ढकारः, एवं च ध्य इत्यस्य स्थाने व्यः प्रयुज्यते, तदाहप्रयुञ्जते तेऽप्येते तथैव साधुत्वेन ज्ञाता इति कल्पनायाः अत्र ध्यस्य ढ्यादेशः। कृच्छण दास्यते इत्यादि, दास्संभवादिति ।
| धातुर्दानार्थः, नास्थातुः शब्दार्थः, दम्भधातुश्छलार्थः, लोक
| वञ्चनार्थ कृतं कर्म दम्भ, एण्वर्थेषु दुरुपपदाद् दासेनासे- 60 एतदेव संक्षेपेणाह- शिष्टैः प्रयुज्यमानाः साधवो
म्भेश्च खलि-दुर्दासः दुर्नासः दुर्दम्भ इति, विग्रहान्तरमाह- . 25 भवन्तीति।
दुष्टो दास इत्यादिना, एवं--दुष्टं ध्यायति, दुःखेन वा अथ पृषोदरादीन क्रमशो यथासंभवं व्युत्पादयन्नाह- ध्यायतीति विग्रहे दुरुपपदाद् ध्यायते: “स्थादिभ्यः" पृषदुदरमुदरे वा यस्येति–'पृषत्' शब्दो बिन्दुवाची मृग- [ ५. ३. ८२. ] इति कः, आलोपे-दुर्घ्य इति च प्राप्तेऽनेन विशेषवाची च "पृषत् पृषतवन्मृगे । बिन्दौ" इत्यनेकार्थ- कुत्र किं विधीयते, तदाह--एषु पूर्वपदस्य दुस इत्यादिना, 70
संगहे, तत्र पूर्वमर्थमादायमे वाक्ये पृषदिवोदरमस्य, पृषत् । पूर्वपदस्य सर्वत्रकरूपत्वेन तस्यादेशेऽप्यकरूप्यम्, उत्तरपदस्य 30 उदरे यस्येत्यर्थके, उभयत्र बहुव्रीहिः, अनेन तकारलोपः। भिन्न भिन्नतया विधेयभेदानाह--- उत्तरपदादेच इत्वणत्व
पृषत उदरमिति षष्ठीसभासे पृषच्छब्दो मृगविशेषवाची। ढत्वानि दम्भेर्नलोपश्चेति--अत्र न यथासंख्यमपि तु यथोयदि च मृगविशेषवाची पृषत् शब्दो न किन्तु 'पृषत' इत्य- चितमेव कार्य विज्ञेयम्, तेन ‘दूडास' इत्यत्र डत्वम्, 'दूणास' कारान्तोऽभरकोशादिभिस्तथैवोपलब्धः, अभिधानचिन्तमणा- इत्यत्र गत्वं, 'दूडभ' इत्यत्र डत्वं दम्भेलोपश्च 'दूढय' इति 75
वपि मगविशेषे यथा पषतशब्दो दर्शितस्तथा न 'पषत' प्रयोगे च ढत्वमिति विवेकः । पाणिनीयतन्त्रे च दडाशः 35 इत्युच्यते तहि षष्ठीसमासेऽपि पृषच्छब्दो बिन्दुवाच्येवास्तु दूणाशः' इति शब्दौ तालम्योपान्त्यो पठिती, तथाहि-~--
तस्यापि मध्यभागस्य उदरसंज्ञासंभवात् । पृषत उद्वानमि- "पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् [ ६. ३. १० ] इति सूत्रे
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[पाद-२, सूत्र-१५५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुसाशने तृतीयोऽध्यायः ।
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PM
वात्तिकम् ----"दुरोदाश-नाशदभध्येषूत्वमुत्तरपदादेः षुत्वं च" ब्रयोः सषयोश्चैक्यमतमाश्रित्यत्रयमप्युपपद्यते । अत्र सदेइति । एवं च 'दूडाश' इत्यत्रवर्णभेदेऽपि नार्थभेदो दाश्- रधिकरणे डट्प्रत्ययः । प्रकृतगणविधेयमाह- पूर्वपदस्य 40 दासोरुभयोरपि दानार्थत्वाविशेषात्, 'दूणास' इत्यत्रैव भेदः, । वृभावः इति- --पूर्वपदं 'ब्रुक्त' शब्दस्तस्य स्थाने 'वृ' इत्या
नासतेः शब्दार्थत्वात, नश्यतेश्चादर्शनार्थत्वात । श.सयोर- देश:, स्त्रीत्वस्य लोकसिद्धत्वान्डीः। उदुखलशब्दं व्युत्या5 क्यमतेनोभयम युपपद्यते। मयूरशब्दं व्युत्पादयति--मयां | दयति---ऊवं खं बिलं यस्येति--बहुव्रीहिसमासः, अयं
रौतीति--पक्षित्वेऽपि तस्य बहशो महीस्थितस्यैव केका रूप- शब्दोऽन्यथापि पठचते, तदाह-- उलूखलं वेति--कोषेषूस्वरब्दकारित्वदर्शनाद् योगार्थसंगतिः, अत्र सप्तमीसमासः ।। भयथा पाठदर्शनात, तथाहि--अमरकोशे द्वितीयकाण्डे 45 प्रकृतगणविधेयकार्याण्याह-रौतेरच्यन्तलोपो महीशब्दस्य | वश्यवर्गे "अयोऽयं मुसलोऽस्त्री स्यादुदूखलमुलूखलम्" इति
मयभावः इति--रीतेरचि प्रत्यये सति उकारस्य लोपः, । पठितम् । निपातनीयार्थमाह-- अत्र पूर्वपदस्योदूभाव 10 महीशब्दस्य स्थाने मयूशब्दस्य प्रयोग इति भावः । महिष- उलूभावश्च, उत्तरपदस्य खलादेशः इति--यथादृष्टस्यै. शब्दं व्युत्पादयति--मह्यां शेते इति -यद्यपि पशूनां | वानुशासनीयत्वेन यथारूपं तथवादेशकल्पनेति एकत्रोर्वसर्वेषां महामेव शयनं दृश्यते, तथापि महिषष्य प्रायोऽयं
शब्दस्योदूभावः परत्रोलूभावश्च ; खलशब्दस्य चोभयत्र- 50 स्वभाव एव यत्--शीतलं भूमितलं दृष्ट्वा पड़े वा स! श्रवणादुत्तरपदादेशे भेदाभावः । दिवौकस्शब्दं साधयति---
लुठनि स्वपिति चेति योगार्थसंगतिः। निपात्यकार्याध्याह-- दिवि द्यौर्वेति, पूर्वस्मिन् विग्रहे व्यधिकरणपदबहुव्रीह्या15 अत्र पूर्वपदस्य हस्वत्वं शस्य च षत्वमिति--शेतेर्ड- श्रयणमिति लाघवात् सामाधिकरण्येनैव विग्रह उचित इत्याप्रत्यये ईकारलोपः, महीशब्देकारस्य ह्रस्वः, शस्य षत्वं
शयवानाह--धौर्वति। बहुव्रीहिसमासे 'दिव् ओकस्' इति चेतीह निपातन लभ्यमिति भावः । पिशाचशब्दं व्यत्पादयति- | स्थिती यद् विधयं तदाह--अत्राकारागमः इति-- 55 पिशितमश्नातीति---पिशितं-मांसमश्नाति--भवते, मां- पूर्वपदस्यति शेषः, पूर्वपदस्यान्तेऽकारागमे सति 'दिव-ओकस'
सभोजित्वस्य बहुष जीवेष दर्शनेऽपि प्रकृतशब्दो भूतयोनि- इस्यबस्थायां "ऐवौत् सन्ध्यक्षरैः" [ १. १. १२. ] इत्यौ20 विशेष रूढः, अश्नोतरण "कर्मणोऽण्" [५. १. ७२] इति त्वम्, प्रथमाबहुवचने रूपं---दिवौकसः इति । अश्वत्थ ..
सूत्रेण । गणपाठविधेयमाह- अत्र पिशितस्य पिशादे- | कपित्थ-दधित्थमहित्थशब्दान् सरूपानेकदैव व्याख्यातुं क्रमशो शोऽश्नातेः शस्य चादेशः इति पिशित शब्दावयवस्येत- | विग्रहवाक्यान्याह---अश्व इव तिष्टतीति--अश्वोपपदात् 60 शब्दस्य लोप एंव पिशितस्य स्थाने पिशादेशरूपः, शस्य च तिष्ठतेः कः, आकारलोपः तिष्ठते: सकारस्य तकारो निपा
चरूप अ.देशः । स्मशानशब्दं व्यत्पादयति-शवानां तनात; अन्ये तु-न श्वश्चिरं तिष्ठति शाल्मलिवृक्षादिव25 शयनमिति--शेतेऽस्मिन्निति शयनम्, शेतेरधिकरणेऽनट, दित्यश्वत्थ इति व्यत्तत्तिमाहः, तेषां मते श्वसः सकारस्य
स्मशानं हि शवानां शयनस्थानम्, शयनशब्देनेह स्थितिमात्रं तकारः। कपित्थशब्दविग्रहमाह-कपिरिव तिष्ठतीति-- लक्ष्यते, तव शवानां स्थितेः। शवशयनमित्यवस्थायां कप्युपपदात् तिष्ठतेः कः, सकारस्य तकारो निपातमात् । निपात्यमाह -पूर्वपदस्य श्मादेश उत्तरपदस्य च | वृक्षस्य कपिसदृशस्थित्यसंभवात् विग्रहान्तरमाह- - कपयो
शानादेशः इति-शवशब्दस्थाने श्मशब्दस्य प्रयोगः | ऽस्मिस्तिष्ठन्ति वेत--प्रत्ययादिः पूर्ववत् । दधिरथशब्दं 30 शयनशब्दस्थाने च शानशब्दस्य प्रयोग इति भावः । व्युत्पादयति दनि तिष्ठतीति-प्रत्ययादि: पूर्ववत् । दधित्थ
वृसीशब्दं व्युत्पादयति ब्रुवन्तोऽस्यां सीदन्तीति-- कपित्थौ पर्यायौ वृक्षविशेषवाचिनौ। महित्थशब्दं विगृह्णातिब्रुवन्तः शास्त्रपारायणपरायणास्तपस्विन ऋषयो वा, सीद-मह्यां तिष्ठतीति--प्रत्ययादिः पूर्ववत्, महित्थ शब्दोऽप्र- 70 न्तीत्यस्यार्थमाह--विषीदन्तीति, एतत्स्थाने 'निषीदन्ति' | सिद्धः। चतुर्वपि निपात्यमाह- एषु तिष्ठतेः सकारस्य
इति पाठः सम्यगाभाति, उपविशन्तीति च तदर्थः, "स्युरा- | तकारः इति, महित्थे पूर्वपदान्त्यस्य ह्रस्वोऽपि निपातना35 स्तेतूपविशति निषीदत्युपवेशने” इत्याख्यातचन्द्रिका, “वृषी- | देव । मुसलशब्दं द्विधा व्याख्याति--मुहुः स्वनं लाति,
तु ऋषिविष्टरे" इत्यनेकार्थसंग्रहः, एतदर्थेशब्दस्वरूपभेदो- | मुहर्मुहुर्लसतीति वा । उभयोरपि विग्रहयोः प्रकृतिभेदात् दृश्यते, प्रकृतवृत्तौ “वृसी" इति, अभिधानचिन्तामणिवृत्ती | क्रमशो निपात्यमाह--अत्र मुहुःशब्दस्येति. -मुहुर वने- 75 तु “वृषी वृसी" इति, पाणिनीयेऽत्रगणे 'बृसी' इति च, तत्र | त्युपपदात् लातेः कः, मुहुःशब्दस्थाने 'मु' आदेशः स्वनशब्द
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बृहबृत्ति-वृहन्यन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१५५]
स्थाने स आदेश इति भावः, मुसलचालनसमये मुखात् स्वन- स्थाने मूर्धन्यः ष आदेश इति भावः । अन्ये तु मनस ईषाविशेषस्यासकृन्निःसरणाद् योगार्थसंगतिः। द्वितीये विद्महे | अबाधिता गतिः-मनीषा बद्धिः. सास्त्यस्यति मनीषीति 4 मुहुरुपपदाल्लसतेरच, लसतेर्लसयोविपर्यास इत्याह-- व्युत्पत्तिमाहुः, तत्र ईषेति ईष्घातोभिदादित्वादङ् "फ्तेटो
पक्षान्तरे लसयोविपर्ययश्चेति-अन्यः पक्षः-पक्षान्तरम्, गुरोः" [५. ३. १०६. ] इति वा अः, पृषदरादित्वात् 5 मुहुः स्वनं लातीति विग्रहादन्यस्मिन् विग्रहे कृते इति भावः, [सन्मते शकन्ध्वादित्वात् । अस्भागस्य लोपः, मत्वर्थीय
स च विग्रहः महुलसतीतिरूपः । उलूकशब्दं ध्युत्पादयति-- इन, मनीषाशब्दः स्वमतेऽपि व्युत्पाद्य एवेति प्रकृ.तप्रकारेण ऊवौं कर्णौ यस्येति -ऊर्ध्वकर्णशब्दयोबहुव्रीहिः । निपा
| मनीषिशब्दसिद्धिः स्वमतेऽपि सम्भाव्यते यद्यपि तथापि 4: त्यमाह- अत्रोवंशब्दस्योलादेशः कर्णशब्दस्योकादेश- | व्युत्पत्तिसौकर्यमर्थानकल्यं चाश्रित्य मनस ईष्टे इति व्युत्प
श्चेति--ऊवंशब्दस्य स्थाने 'ऊल्'शब्दस्य प्रयोगः कर्ण-तिराश्रितेति विज्ञेयम् ! बिडालशब्दं व्युत्पादयति-बिलं 10 शब्दस्य स्थाने 'ऊक'शब्दस्य प्रयोग इत्युभयोर्मेलनेनोलूक- | दारयतीति--बिलमिति कर्मणः पराद् दारयतेरण् । गण
शब्दस्य सिद्धिः । मेहनस्य खमिति- मेहनं मेढ़, तत्सम्बन्धि | कार्यमाह--बिलशब्दस्य ललोपः, उत्तरपदस्य डालादेश: खमूर्ध्वप्रदेशः, खशब्दस्याकाशवाचकत्वेऽपि प्रकृते ऊवं ! इति- बिलशब्दावयवस्य 'ल' शब्दस्य लोपा दारत्युत्तरपदस्य 50 प्रदेशमात्रवाचकत्वम्, तत्र स्थिता माला मालाकारा रसना
स्थाने डालेति शब्दश्च इति भावः । मणालशब्दमाह मृदरज्जुर्मेखलेल्युच्यते। अत्र षष्ठीसमासद्वयम्, ततो गणकार्य
मालीयते इति---मृदमाश्लेषयतीत्यर्थः, मदुपपद,दापूर्वका. 15 यदिष्टं तदाह-अत्र मेहनखे हनस्य मालाशब्दे च
ल्लीयतेर्डः, अन्त्यस्वरादिलोपः । गण कार्यमाहः - अत्र मृदो माशब्दस्य लोपः इति --मेहनखस्य मालेति पश्चाद्भव
दकारस्य णकार: इति । अन्ये तु मण्धातोः कालनि सति वाक्ये मेहनखेति पूर्वपदं मालेत्युत्तरपदमिति तत्र पूर्वपदे ।
साधयन्ति । सुगालशब्दमाह- अमृगालीयते इति- असू- 55 हनस्योत्तरपदे माशब्दस्य च लोप इति भावः । कुजर- | गिति द्वितीयान्तम, असकशब्दः शोणितवाची; तदुपपदादाङ
शब्दस्य व्यत्पत्तिमाह-को जीयेतीति-.-को-पृथिव्यां पर्वकाल्लीयतेईः, आदेरकास्य लोपः, तदाह-अत्रादेर्लोपः 20 पतितं सत् जीर्यति जरां प्राप्नोति-म्रियते चेति भावः, इति–अन्यथापि सगालशब्दं व्युत्पादयति-अमृग गलति..
जीयंतेरच, सप्तमीसमासः, गणपाठात् कुशब्दस्यान्ते माग- वेति-"गल चर्व अदने" इति पाठाद गलधारुर्भक्षणाथोऽपि मश्चेत्याह- अत्र कुशब्दस्य मोऽन्तः इति । आशीविष शोणितं भक्षयतीत्यर्थः, तथा च असगपपदात गलेरणि 60 विगह्वाति--आश्वस्य विषमस्तीति---आशुविषशब्दयोर्बहु- 'असज् गाल' इति स्थितौ गणकार्यमाह--अत्रासृज
हसमासः । गणकायमाह-आशुशब्दस्याशामावा आद्यन्तलोप: इति-अकारस्य जकारस्य च लोप इति 25 इति--आशशब्दस्थाने आशीशब्द आदेश इति भावःभावः । शगाल इति तालल्यादिरपि श्रयते. तत्रापि व्यत्पत्ति
आशीविषशब्दमन्येऽन्यथापि व्युत्पादयन्ति-आश्यतीत्यचि रियमेव, गणपाठादेव दन्त्यस्य स्थाने तालव्यस्य प्रयोगः। गौरादित्वान्डयामाशीति दंष्ट्रानाम, आश्यां विषमस्येति | पुरोडाशशब्दं व्युत्पादयति--पुरो दाश्यते इति-पुरोऽग्रे 35 विग्रहे बहुव्रीहिः, अत्र चार्थे न निपातनमावश्यकमितिका
पूर्व वा दीयत इत्यर्थः, पुरउपपदाद् दाशते: कर्मण घञ् । विग्रहान्तरमप्याहः --आशिषि विषमस्येति, आशीरपि ।
यात, आशाराप | निपात्यं कार्यमाह-अत्रोत्तरपदादरिति-उत्तरपदं दाश इति
itnar 30 द्रष्ट्रव, अत्र निपातनाद्रेफस्य लोपः, अन्यथा 'आशीविषः'
तदादेर्दस्य स्थाने ड इति भावः । वडवाशब्दमाह--अश्वइति प्रयोगः स्यात् । बलीवर्दशब्दं साधयति--बलं वर्व
स्याम्बेति-षष्ठीसमासे सति अश्वाम्बाशब्दे पूर्वपदस्यायतीति-बलमिति कर्मण: पराद वर्धरण ! गणकार्यमाह---
श्वशब्दस्याशो लोपे बकारमात्रावशेषेऽन्त्यस्य डकार आगमः, 70 बलशब्दस्यकारोऽन्तादेशः इति---बलशब्दाकारस्य स्थाने | अम्बाशब्दे च मकारस्य लोपो बकारस्य वकारादे शश्च, ईकारः, वर्धशब्दीयधकारस्य दकारादेशे सति बलीवर्दशब्द- तदाह-अत्राश्वस्याशो लोपः इति-अत्र बकारस्य स्थाने निष्पत्तिरिति भावः। मनीषिशब्दं साधयति---मनस इष्टवकारादेशो नोल्लिखितस्तथापि स विज्ञेय एव, बड़वाशब्दइति---मनउपपदादीशेणिन् बाहुलकात्, गणकार्यमाह-- स्यान्तःस्थोपान्त्यत्वात्, अम्बाशब्दस्य च वर्गीयोपान्त्यत्वात् । अत्र मनसोऽन्त्यस्वरादिलोपः, ईशेः शस्य पः इति---
शस्य षः इति अन्ये च बलं वातीति विगृह्य बलोपपदाद् वातेर्डप्रत्यये 75 मनसशब्दीयस्य 'अस्' भागस्य लोपः, ईशधातोस्तालव्य शस्य ''बड़वा-शब्दमाहः। शकन्धुशब्दं साधयति--शकस्या
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[ पाद-२, सूत्र - १५५ ]
धुरिति--शकस्य राजविशेषस्यापत्यं शकः शकशब्दादपत्यार्थे विहितस्य द्विस्वरनिमित्तस्याणो द्रिसंज्ञकस्य “शकादिभ्यो ब्रेल” [ ६. १. १२० ] इति लुप् शक इति, तस्थान्धुः कूपः-शकन्धुः । अन्ये तु शकानां राजविशेषाणां 5 निवासो जनपद: -- शकाः तेषामन्धुरिति देशविशेषपरत्वेन शकशब्दस्यात्र स्थितिमाहुः । अत्र निपात्यमाह - पूर्वपदा तस्योत्तरपदादेर्वा लोपः इति - पूर्वपदं शक शब्दस्तस्यान्ते स्थितस्याकारस्य, अन्धुशब्द उत्तरपदं तदादी स्थितस्य वाSकारस्य लोप इत्यर्थः, उभयोरकारयोः सत्त्वे हि समानदीर्घः 10 स्यादित्येकस्य लोप आवश्यक इति विनिगमनाविरहादुभ
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुसाशने तृतीयोऽध्यायः ।
योरपि पाक्षिको लोपोऽवगन्तव्य इत्यर्थः । उक्तं कार्यमन्य
त्राप्यतिदिशति---एवं-कर्क-धुरिति यथा शकन्धुरित्यत्र विग्रहादिकमुक्तं तथा कर्कन्धुरित्यत्रापि विज्ञेयमित्यर्थः, तत्र कर्कशब्दो राजविशेषपर इति परे, स्वमते च किमपि विशिष्य is नोक्तमिति राजविशेषपरत्वेऽपि देशविशेषपरत्वेऽपि वा न क्षतिः, केवलं रूढया देशविशेषपरत्वे बहुवचनान्तत्वमेव युक्तं, कर्काणां राजविशेषाणां निवासो जनपद इति विग्रहे कर्का इत्यस्यैव युक्तत्वात् राजविशेषपरत्वे च कर्कस्यान्धुरित्येकवचनान्तेन कर्काणामन्धुरिति बहुवचनान्तेन च विग्रहे कामचारः । कुलटाशब्दं व्युत्पादयितुमाह--अटतीत्यच्अटा इति-अद्धातोर्गत्यर्थादचि कृते स्त्रियामटेति रूपम् । कुलानामटेति-- कर्मणि षष्ठी, बहुकुलकर्मकगमनशीलेति तदर्थः, अत्र षष्ठीसमासे पूर्वपदान्तस्य उत्तरपदादेर्वाऽकारस्य लोप:, अस्याश्च प्रक्रियायाः शकन्धुशब्देऽभिहितत्वान्न 25 पुनरुक्तिः, यदि च कुलान्यटतीति सहैव विग्रहः करिष्यते
तर्हि ‘कुलाटी' इति स्यात्, कर्मोपदत्त्वादणापत्तेः, अत एव अटेति पृथगेव संसाधितम् । अवटशब्दं साधयति--अवअवागत अत्र वृत्ती- 'अव्' इति व्यञ्जनान्तः पाठः समुपलब्धः, स च नोचितः, अवेति स्वरान्तस्यैवोपसर्गस्य धातुना 30 सम्प्रयोगात्, तदर्थस्यैवावाक्शब्देनोच्यमानत्वात् अवाक्श
ब्दस्यैव वा अवादेशो वृत्तौ तथा सति तस्य [ अवशब्दस्य ] विग्रहवाक्ये प्रयोगानौचित्यमेव । अदन्त्यस्मिन्निति बाहुलकादिति-अद्धातोः केवलस्य घान्तस्य पुंनाम्नि प्रयोगा• भावः, सोपपदाच्च' घप्रत्ययविधानाभाव इति बाहुलकाश्रयणे 35 नंव घप्रत्ययसंभव इति भाव:, अत्रावागित्यर्थे अव इति-प्रादिपठितस्य पूर्वपदस्य अन्ते योऽकारस्तस्य 'अट:' इत्य . स्यादिर्वा योऽकारस्तस्य वा लोपः । अवटो गर्तः । अभि
20
१४७
" दिव्यवि०
धानचिन्तामणिवृत्तौ तु ---अवत्यस्मादवटः, [ उपा० १४२ ] इत्यटः । न वटतीति वा अवाक् अटति अस्मिन् बाहुलकात् "पुंनाग्नि०" [ ५.३.१३० ] इति 40 घे पृषोदरादित्वात् साधुरिति । सिंहशब्द व्युत्पादयति-हिनस्तीति सिंह इति । हिस्धातोरचि सति गणकार्य माहअत्र हकारसकारयोर्विपर्ययः इति-- आदिभूतो हकारः सकारत्वेन विपरीतः, अन्त्यसकारश्च हकारत्वेनेति । अत्र यद्यपि उत्तरपदाधिकारस्थं सूत्रमिदमिति सम्भावितोत्तर- 45 पदके समासे एवास्य प्रवृत्तिरुचितेत्येकपदकमिदमुदाहरणं नोचितमिति प्रतिभाति, तथापि गणपाठसामर्थ्यात् क्वचिदसमासेऽपि प्रवृत्तिरिति स्वीकार्यमिति न दोषः । अथवोणातगणपाठेनापि सिद्धिः सम्भवतीति सम्भवप्रदर्शनार्थमेवेदम् । 50 दिवेन बाहुलकादपि सिंहादिशब्दानां सिद्धौ सत्यामपि प्रकृयद्यपि -
"भवेद् वर्णागमाद्धंसः सिंहो वर्णविपर्ययात् । गूढोत्मा वर्णविकृतेर्वनाशात् पृषोदरम् ॥
इति प्राचां कारिकारीत्या हंससिंहादिशब्दानामपि प्रकृतगणे पाठादेव सिद्धिरित्यायाति तथापि तत्र हंस-सिंह- 55 शब्दयोर्दृष्टान्तत्वेनैवोपन्यास इति तद्वयाख्यातार इति सिद्धान्तकौमुदीव्याख्यायां तत्त्वबोधिनीकृत्, तस्थायमाशय:प्रकृतसूत्रे गणे समासा एवं पाठ्या उत्तरपदाधिक। रस्थत्वेनोत्तरपदस्य समास एवोपलब्धेः । एवं च कारिकायां हंससिहशब्दयोर्दृष्टान्तत्वेनैवापन्यासो युक्तः । यथा वर्णागमात् -- 60 हस्धातोरचि मकाररूपवर्णस्यागमाद्धं सशब्दस्य सिद्धिः, यथा वा - हिस्धातोरचि वर्णविपर्ययेण सिद्धिः तथा गूढ आत्मा यस्येत्यर्थे आत्मशब्दाकारस्य स्थाने उकाररूपवर्णविकारात् गूढोत्माशब्दस्य, पृषत् - उदरमित्थवस्थायां तका
|
नाशात् पृषोदरशब्दस्य च सिद्धिरिति तदर्थात् । एवं च 65 समास एवं प्रकृतसूत्रं प्रवर्तत इति नियमे न कोऽपि दोष इति । कृकलासशब्दमाह - कृतकेन शलतीति - - कृतकशब्दस्य हेतुतृतीयान्तस्य उवलादित्वेन णान्तेन शालशब्देन सह समासः । गणकार्यमाह--अत्र तकारस्य लोपः इत्यादिना, कृतकशब्दमध्यस्थितस्य तकारस्य लोपः शकार-लकारयो- 70 विपर्यासो वैपरीत्येन स्थितिः । भ्रमरशब्दं साधयति-भ्रमन् रौतीति-भ्रमदुपपदात् रौतेर्बाहुलकादेव डः, डित्वादुकारलोपः । गणकार्यमाह अत्र तलोप इति-भ्रमत्' इति शतृप्रत्ययान्तस्यान्ते तकारस्य लोप इत्यर्थः । गणेपठितान् यथोचितं व्युत्पाद्योपसंहरति-- एवंप्रकाराः 75
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१४८
बृहद्वृत्ति-बृहन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१५५-१५६]
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क्ताः इति-- केवल पृषोदरादिगणे पठिता एव | पृषोदरमिति । न केवलं शब्दविषयककार्येणैव शब्दनिरुक्तिपृषोदरादयः, एवंभूता अन्येऽपि शिष्टप्रयोगविषयभूताः । रपि तु अर्थविषयकार्येणापि शब्दनिरुक्तिरित्याह-- धातो. 40 शब्दाः पृषोदरादयोऽवगन्तव्याइति भावः । मयूर-महिष- स्तदातिशयेन योग इति----तस्य-धातोरर्थस्तदर्थः, धातुसिंहादिशब्दा उणादिष्वपि व्यत्पादिता इतीहान्यथाव्यत्पादनं | पाठपठितो धातवाच्योऽर्थस्तस्यातिशयेन .. माधर्यादिरूपेण 5 किमर्थमित्याशङ्कायामाइ... म
हषादीनामिति, रूढानां योगः सम्बन्धः प्रकृते उपस्थितिस्तेनापि शब्दस्य निर्वचनं शब्दानां प्रकृति-प्रत्ययाद्यर्थप्रतीतौ तात्पर्याभावेन यथाकथं भवतीति चतुर्विधशाब्दिकपरिवर्सनेन स हैकविधार्थपरिवर्तनेन चिच्छास्त्रशिष्टत्वज्ञापनार्थमेव तदव्यत्पादनमिति तत्रेयमेव | निरुक्तस्य शब्दनिर्वचनस्य पञ्चविधत्वं सिद्धम् । तथा च 45 व्युत्पतिनिश्चितेति नाग्रह इति बोधनार्थमेवेह तेषां व्युत्पा- | शब्दानां नित्यत्वेऽपि तदर्थपरिज्ञानाय शाब्दिकैरेवंप्रकारा
दनमिति भावः । पृषोदरादिरित्येकवचनेन निर्देशे एव गण- उपाया आश्रीयन्त इति भावः ।। ३. २. १५५ ।। 10 निर्देशस्य लाभेन बहुवचनान्तपाठो व्यर्थइति चेदत्राह----
बहुवचनमाकृतिगणार्थमिति---एवं प्रकाराः पृषोदरादय आकृत्यैव गणनीया न तु तेषां पाठविशेषान्तर्गतत्वमेवेति नियम
वा-ऽवा-ऽप्योस्तनि-क्रीधाग-नहोर्वइति भावः । आकृतिगणत्वफलमाह- तेन मुहर्तमारग्वधोऽश्वत्थाम निर्लयनीत्यादयोऽपि द्रष्टव्या इति----
पी॥ ३. २. १५६ ॥ 15 आकृतिगणत्वेन मुहुर्तादिशब्दा गणे अपठिता अपि तदन्त-। त० प्र०--अवशब्दस्योपसर्गस्य तनि-क्रीणात्योः 50
गंतत्वेन विज्ञेया इत्यर्थः । तत्र 'महरियत्ति स्म' इत्यर्थे | परयोरपिशब्दस्य च धाग्नहोः परयोर्यथासंख्यं 'व पि' मुहुरूपपदादियत्त: “गत्यर्थाकर्मक" [५. १. ११.] इति । इत्येतावादेशौ वा भवतः । वतंसः, अवतंसः; वक्रयः, अवक्रयः; कर्तरि क्तः, धातोर्लोपः, मुहुरित्युपान्त्योकारस्य दी? गण- पिहितम्, अपिहितम्; पिधानम्, अपिधानम् ; पिदधाति,
पाठात् । अन्ये च ...."हुर्छधातोर्मुहूर्त साधयन्ति, कुटिल- । अपिद्धाति; पिनद्धम्, अपिनद्धम्। धातुनियम नेच्छन्त्येके । 20 गत्यर्थत्वेन कर्तरि क्तः, धातोरादौ 'मु' आगमः, छकारस्य | पृषोदरादिप्रपञ्च एषः, तेन-शिष्टप्रयोगोऽनुसरणीयः॥१५६॥ 55
तकारश्च निपातनात्" इत्याहुः । मुहूर्तशब्दश्च द्वादशक्षणमिते काले पञ्चदशधा विभक्तस्य दिनस्य पञ्चदशभागे, इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां श्रीसिद्धिहेमचन्द्राभिषानकिञ्चिन्न्यूनाधिकघटिकाद्वयमिते काले च रूढः । 'आराद् । स्वोपज्ञशब्दानुशासनतत्त्वप्रकाशिकावृत्तौ तृतीयस्या
बध्यते' इत्यर्थे कः, आरादित्यस्योपान्त्यह्रस्वः, तस्य च गः, ध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ॥ ३-२ ॥ 25 आरग्वधो वृक्षविशेषः । अन्ये च आङपूपूर्वकात् 'रग'
धातोः शङ्कार्थांत क्विप् आरग्--रोगशङ्का, 'आरगं हन्ति' इत्यर्थं अच्, हन्तेर्वधादेशे सति आरग्वघं साधयन्ति । अश्व श्रीमद्वल्लभराजस्य प्रतापः कोऽपि दुःसहः। इव तिष्ठतीत्यर्थे अश्वोपपदात् तिष्ठतेर्मन सकारस्य तकारो
न् सकारस्य तकारो प्रसरन् वैरिभूपेषु दीर्घनिद्रामकल्पयत् ॥ १०॥ 60 निपातनात्- अश्वत्थामेति द्रोणपुत्रस्य संज्ञा । निलीयतेऽ30 स्यामित्यर्थे नीत्युपपदाल्लीयतेरनट् निपातनाद्रागमः, निर्लय
नीति सर्पत्वचो नाम । एवमादयोऽपि पृषोदरादीनामाकृतिगणत्वादेव सिद्धा इति भाव: 1 व्याकरणेन शब्दनिर्वचनं श० म० न्यासानुसन्धानम्- वावाप्यो० । 'वा क्रियते, विशेषतश्च निपातनपरलक्षणैर्यथाकथंचिदस्य शब्दस्य अवाप्योः तनिक्री-घागनहो: वपी इति पदच्छेदः, तत्रावाप्योनिष्पत्ति: स्यात् तथा साधत्वमवधार्यमित्यनुशास्यते, तत्र | रिति द्वन्द्वनिर्दिष्टयोरव-अपीति प्राद्योः क्रमेण तनि-क्रीभ्यां शब्दनिर्वचनप्रसङ्गे कि कि विधेयं भवतीति प्राचामुक्त्या च सम्बन्धो व्याख्यानात् व-पीत्यादेशयोश्च यथासंख्यं ताभ्यां 65 प्रकाशयन् सूत्रव्याख्यामुपसंहरति-- वर्णागमो वर्णविपर्यश्वे. | सम्बन्धः, तथा च सूत्रार्थमाह--अवशब्दस्योपसर्गस्य
त्यादिना, वर्णागमस्योदाहरणम्----हंस इति, वर्णविपर्ययस्य- | तनिक्रीणात्योरिति-तथा चावस्य तनि-क्रीणात्योः परतो . सिंह इति, वर्णविकारस्य---- अश्वत्थ इति, वर्णनाशस्य- | व आदेशः, अपेः धाग्-नहोः परतः पि आदेश इति फलति ।
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[ पाद-२, सूत्र- १६५ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
तथा चोदाहरति--वर्तसः, अवतंसः इत्यादिना, अवपूर्व- प्योरुपसर्गयोरादिवर्णस्य नाशः क्रियते, स एव च वादेशत्वेन कात् तनोतेः सन् श्रणादिकः, अवस्य पाक्षिको वकारादेशः । प्यादेशत्वेन च कथ्यते इति पृषोदरादेराकृतिगणत्वेनैव तत्कावक्रयः, अवक्रयः क्रीणातेर्भावे अच्-क्रय इति, अवेत्युप | सिद्धिरिति सूत्रस्यास्य वैयर्थ्यमित्याशङ्कां हृदि निधायाहसर्गस्य वा वादेशः । पिहितम् अपिहितमिति-अपिपूर्वकाद् । पृषोदरादिप्रपञ्च एष इति--" पृषोदरादयः" इति पूर्वोक्त5 दधातेः क्ते धातोहि आदेशे हितमिति, पाक्षिकेऽपे: 'पि' ! सूत्रस्यैव विषयोऽनेन विस्तरेण प्रतिपादित इति तत्सूत्रप्रतिआदेशे रूपद्वयम् । पिधानम्, अपिधानमिति - दधातेरपि । पाद्यविषयस्यैव प्रपञ्चरूपत्वेनास्य नापूर्वविधायकत्वमपि तु 30 पूर्वकस्यानटि रूपम्, पिदधाति, अपिधातीति वत्तं मानायां । तत्पुरकत्वमेवेति भावः । किञ्च - धातुविशेषनियमस्यापि तवि रूपे । पिनद्धम् अपिनद्धमिति नाते रपिपूर्वकस्य सूत्रोक्तस्य तथा सति नादर इति येऽन्येऽपि शिष्टप्रयोगा ते रूपे । मतान्तरमाह---धातुनियमं नेच्छन्त्येके इति वगाहादयस्तेऽपि प्रकृतसूत्रेण साधनीया एवेति न परम10 तथाहि भागु-रिराचार्य आह-- " वष्टि भागुरिरल्लोपमवा- तेन सह भेदो नवा त्रुटिरिति 'एके' इत्यनेन प्रतिपादितस्य योरुपसर्गयोः ।” इति-तत्र हि तेन धातुविशेषपरत्वं नाश्रि - | मतस्यापि संग्रह इत्याशयवानाह-- तेन शिष्टप्रयोगोऽनुसतम्, तथाहि - 'वगाहः, अवगाह:' इत्याद्यपि तदुदाहरणत्वेन । रणीय इति - शिष्टानां प्रयोगा वगाहादयस्तेऽपि स्वमते दीक्षितेन वैयाकरणसिद्धान्तकौमुद्यामुक्तम्, अनेन सूत्रेणावा- | साधुत्वेन विज्ञेया इत्यर्थः ॥ ३. २. १५६. ।।
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इति कलिकालसर्वत्र - श्री हेमचन्द्रसूरिभगवद्विरचिते स्वोपज्ञतत्त्वप्रकाशिकाप्रकाशे शब्दमहार्णवन्यासे त्रुटिस्थले तपोगच्छाधिपति - सूरिसमाट् श्रीविजयने मिसूरीश्वर पट्टालङ्कार कविरत्न - शास्त्रविशारद - व्याकरणवाचस्पति-श्रीविजयलावण्वसूरिनिर्मितानुसन्धानेन पूर्णतां नीते तृतीयाध्यायस्य
द्वितीयः पादः समाप्तः ॥
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अनुसन्धानकारस्य - श्रीमद्वल्लभराजस्य श्रीमांश्चासौ वल्लभराजश्च श्रीमद्वल्लभराजस्तस्य, कोऽपि अवर्णनीयरूपः, दुःसहः अतितीव्रः, प्रतापः, तेजः, प्रसरन् सर्वतः सरीसृप्यमाणः, वैरिभूपेषु शत्रुषु राजसु, दीर्घनिद्रां चिरस्वापम् अकल्पयत् अकरोत् एतद्धि परमाश्चर्य यत् प्रतापस्य सूर्यादितापस्येव प्रसरणेऽतिदुःसहतया तत्र स्थातुमप्यशक्यतया निद्राला भोऽसम्भावितोऽपि कल्पित इति वस्तुतस्तु दीर्घनिद्राशब्दस्य मृत्युवाचकतया प्रतापप्रसरणे वैरिभूपा मृता इत्यस्यार्थस्य विवक्षितत्वेनौचित्यमेवेति न किमप्याश्चर्यम् ।
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। अहं । आशैशवशीलशालिने श्रीनेमीश्वराय नमो नमः ।
कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीतंश्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् । [ स्वोपज्ञतत्त्वप्रकाभिधबृहद्वृत्ति-तत्त्वप्रकाशिका
प्रकाशशब्दमहार्णवन्याससंवलितम् ] . तत्र
[ तृतीयाध्याये तृतीयपादः ] वृद्धिरारदौत् ॥३.३.१॥ | विताः ? इति चेच्छृणु-तेन वृद्धिशब्देन भाविताः-विहिताः
| तद्भाविताः, यथा---'आश्वलायन:, कार्तवीर्यः, एतिकायन:, 10 त० प्र०--आकार आर् ऐकार औकारश्च प्रत्येकं ।
औपगवः' इत्येतेषु 'आ-आर-ऐत्-औत्' तद्भाविता:, वृद्धिसंज्ञा भवन्ति । माष्टि, पाक्यम्, दाक्षिः; कारयति,
सर्वत्र "वृद्धिः स्वरेष्वादेणिति तद्धिते" [७. ४. १. ] इति 30 कार्यम्, आर्षम् ; नाययति, नायकः, ऐन्द्रम्; लावयति,
सूत्रेण क्रमश: 'आ-आर-ऐत्-औतः' वृद्धिशब्देन विधीयन्त लावकः, औपगवः । वृद्धिप्रदेशाः-"मृजोऽस्य वृद्धिः"
इति तद्भाविताः । अतद्भाविताश्च तद्भिन्ना:-वृद्धिशब्देन [ ४. ३. ४२ ] इत्येवमादयः॥१॥
विहितत्वाभाववन्तः स्वाभाविका वा, ते च यथा-'राजा, प्रार्छति, पात्रम्, नौघोषः' इत्यादौ, एषु सर्वत्र आ-आर्
ऐत्-औतो न वृद्धिशब्देन विहिताः, किन्तु राजन्शब्दे धातु- 35 15 श०म० न्यासानुसन्धानम्--वृद्धिः। संज्ञासूत्र
पाठीय एवाकारः, प्राईतीत्यत्र "ऋत्यारुपसर्गस्य" [ १. मिदम् । 'वृद्धिः, आ, आर्, ऐत्, औत्' इति पदच्छेदः, तत्र
२. ९.] इत्याशब्देन विहितो न तु वृद्धिशब्देन, रैपात्रवृद्धिः संज्ञा, आ इत्यादयः संज्ञिनः । यद्यपि यच्छब्दयोगः
मित्यत्र नामसम्बन्ध्येव ऐत्, नौघोष इत्यत्रापि तथाभूत एवप्राथम्यमित्याधुदेश्यलक्षणम्' इत्यभियुक्तोक्त्या उद्देश्यानाम्---
तत्र तद्भावितानां ग्रहणेऽन्योन्याश्रयो दोषः--यदि वृद्धि 'आ आर्' इत्यादीनां प्राथम्येनोच्चारणं युक्तम्, 'अनुवाद्य
शब्देन भावितास्तदा वृद्धिसंज्ञाः, यदा वृद्धिसंज्ञास्तदा वृद्धि- 10 20 मनक्तव न विधेयमुदीरयेत्' इत्यनुशासनाच्च, तथापि माङ्ग- शब्देन भाविताः स्युरिति । अथातद्भावितानां ग्रहणमिति । लिक आचार्योऽध्येत-प्रवक्तणामनुषङ्गतो मङ्गलार्थ वृद्धिशब्दं
चेत् ? तहि संज्ञावैयर्थ्यम्, विधिसूत्रोपकारार्थ हि संज्ञा पादस्यादौ प्रायुक्त, "मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गला
विधीयन्ते, यदि चाविहितानामेव संज्ञा स्यात् किंप्रयोजना तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते, वीरपुरुषकाणि भवन्त्यायुष्म- | तहीयं संज्ञा स्यात् । न च "वद्धिर्यस्य स्वरेष्वादि:६.१.८] त्पुरुषकाणि च" इति भाष्यायुक्तवृद्धव्यवहारवाक्यात् ।
इति सूत्रेण दुसंज्ञाविधानार्थमस्या वृद्धिसंज्ञाया उपयोग इति 45 25 अत्रेदं विचार्यते---सद्भावितानामारदौतां वृद्धिसंज्ञा, ! वाच्यम्, “ऐदोद् यस्य स्वरेष्वादिः" इति सूत्रयित्वा आ
उतातद्भावितानामिति । के तद्भाविता: ? के चातद्भा- | ऐद् औत् यस्य समुदायस्थ स्वराणामादिः स्वरः स दुसंज्ञ
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बृहद्वृत्ति बृहन्न्याससंवलिते
[ पाद- ३, सूत्र - १]
इत्यर्थवर्णनेनापि तत्संभवात् इत्युभयथापि दोषसत्त्वाद् | "वृद्धिः आरंदौत्” इति सामानाधिकरण्येनैकविभक्तिनिर्देशेव्यर्थमिदं संज्ञासूत्रभिति चेदत्रोच्यते--अस्तु तद्भावितानामेव नापि संज्ञा-संज्ञिनावेवैताविति निश्चयो भविष्यति, द्वयो ग्रहणम् । नन्वयोन्याश्रयो दोषः, भाविसंज्ञाश्रयणात्, अयसामानाधिकरण्यं दृश्यते--विशेषण- विशेष्ययोर्वा संज्ञा-संज्ञि 41 - विधिप्रदेशेषु यस्य येषां वा वृद्धिसंज्ञा भाविनी नोर्वा, तत्र विशेषणविशेष्यभावाभावस्तावत् सिद्ध एव 5 तद्विधानम् प्रकृतसूत्रे च वृद्धिशब्देन भाव्यमानानामेषां वृद्धि द्वयोहि प्रतीतपदार्थयोलोंके विशेषणविशेष्यभावो दृष्टः, यथा संज्ञेत्याश्रयणमिति । अयं चार्थः सूत्रशाटकन्यायेन तत्र तत्र नीलो घट इति, अत्र नीलोऽपि लोके प्रतीतः, घटोऽपि, इति भाष्ये साधितः, यथा - अस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति कथने । तो परस्परं विशेषणविशेष्यभावं प्रतिपद्येतेः, इह च वृद्धिशब्दो
माशय:--
।
यदि वातव्यो न शाटकः, अथ शाटको न वातव्य इति प्रकृत | attrarat प्रसक्ते इत्यमवधार्यते--मन्ये स वातव्यः यस्योतस्य शादकमित्येषा संज्ञा भाविनीति, तथा प्रकृतेऽपि भाविसंज्ञाश्रयणे दोषाभाव इति ।
लोके प्रतीतपदार्थकः सन्नपि शास्त्रे त्वप्रतीतपदार्थक एवं 45 आदीच्छदश्च सर्वथा लोकेऽप्रतीतपदार्थक एवेति संज्ञासंज्ञिना वेवैताविति निश्चयो भविष्यति । तदुक्तं हरिणापि वाक्यपदीये -
10
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अथेदं विचार्यते-- ' वृद्धिः संज्ञा, आरैदौतः संज्ञिनः' इति, कथमवधार्यते ? 'वृद्धिः संज्ञा, आदीतः संज्ञिनः' अथवा 'आरंदौतः संज्ञा, वृद्धिशब्दः संज्ञी' इति संदेहनिवर्त्तकाभावात् 15 निश्चयाभाव इति । तत्रेदं कर्त्तव्यम् - संज्ञाधिकारः कर्त्तव्यः
'अथ संज्ञा” इत्थेवं पठित्वा "वृद्धिरादौत्" इत्यादीनि । इति; स्वरूपमात्रबोधका वृद्ध्यादयः शब्दाः ‘आरँदौत्’ शब्देन प्रत्यायितैः 'आ-आर्-ऐत्-औत्' शब्दैः संज्ञिभिः सह सम्वन्धं प्राप्नुवन्तीति तदर्थः । किञ्च यत्र समानाक्षर - मुभयं भवति तत्र सन्देहः -- का संज्ञा कः संशीति, इह च वृद्धिशब्दो लध्वक्षरः, 'आरदोत्' शब्दश्च बह्वक्षरः, तत्र 55, यल्लघु सा संज्ञा यद् गुरु स संज्ञीति निश्चीयते, लघ्वर्थत्वात् संज्ञाकरणस्य, लाघवेन शास्त्रप्रवृत्ति सिद्धयर्थं हि संज्ञाः क्रियन्ते । किञ्च - आवर्तिन्यः संज्ञा भवन्ति, वृद्धिः शास्त्रेष्वसकृदावर्त्तते "मृजोऽस्य वृद्धिः " [ ४, ३.४२ ] "वृद्धि: स्वरेष्वादेः " [ ७. ४. १ ] इत्यादी, आदीच्छब्दश्च क्व - 60 चिदपि नावर्त्तते । लोकेऽपि देवदत्तशब्द आवर्त्तते, न मांसपिण्डः । किञ्च लोके अगोज्ञाय कश्चिद् गां कर्णे गृहीत्वा कथयति---अयं गौरिति एतेनैव तस्य ज्ञानं भवति यदस्थ मांसपिण्डस्येयं संज्ञेति, न वास्य गौरिति संज्ञेति कथ्यते, एवमिहापि संज्ञाधिकाराभावेऽपि संज्ञा-संज्ञिनोरसन्देहो भवि - ष्यतीति निरवद्यमिति ।
65
सूत्राणि पठितव्यानि इति चेत् ? तेन संज्ञासूत्राणीमानीति विज्ञातेऽपि का संज्ञा कः संज्ञीति संदेहस्य निवृत्तिर्न स्यात्, तदर्थमपि यस्नान्तरं करणीयमिति बहुगौरवमिति वेदत्रो20 च्यते--"आचार्याचारात् संज्ञासिद्धिर्भविष्यति, आचार्याणां व्यवहारादेव वृद्धिरिति संज्ञा आरैदीतः संज्ञिन इति ज्ञान भविष्यति, लोकेऽपि तावत् मातापितरी जातस्य पुत्रस्य गृहैकदेशे श्रोतृजनासन्निधाने नाम कुर्वते देवदत्तो यज्ञदत्त
इत्यादि, तयोर्व्यवहारादेवान्ये जानन्ति - इयमस्य संज्ञेति 25 न च ताभ्यां क्वचिदुच्यते - इयमस्य संज्ञेति । एवमिहापि
आचार्याणां व्याख्यानादिरूपव्यवहारादेवान्येऽपि ज्ञास्यन्ति-वृद्धिशब्दः संज्ञा, आदीत: संज्ञिन इति । आचार्या हि व्याचक्षते --- आरदौतो वृद्धिसंज्ञा भवन्तीति । अपरे च वृद्धिः स्वरेष्वादेरित्युक्त्वा 'आश्वलायनः कार्तवीर्यः, ऐतिकायनः, 30 औपगवः' इत्यादीन्युदाहरन्ति तेन मन्यामहे - यया प्रत्या
।
य्यन्ते सा संज्ञा, ये प्रतीयन्ते ते संज्ञिन इति एतेनैवाचार्य - व्यवहारेण संज्ञा-संज्ञिनोरसन्देहोऽपि भविष्यति । किंच वृद्धिशब्द एव स्थाने आवर्त्तते इत्येकः सः, आदीतस्तु बहव:, इति बहूनामेका संज्ञेति विज्ञायते, न चैकस्य वह्वयः 35 संज्ञाः शास्त्रे भवन्तीत्यतोऽपि संज्ञा-संज्ञिनोरसन्देहो भविष्यति । ननु व आचार्यव्यवहार एव सन्देहमाविष्कुर्वता भवता स एव प्रमाणत्वेनोपन्यस्यत इत्ययुक्तमिति चेदत्रोच्यते-
|
"वृद्ध्यादयो यथा शब्दाः स्वरूपोपनिबन्धनाः । आदैच् प्रत्यायितः शब्दः सम्बन्धं यान्ति संज्ञिभिः ॥"
50
अथापरं विचार्यते वृद्धिसंज्ञायां प्रत्येकमिति वक्तव्यम्आरदोतः प्रत्येकं वृद्धिसंज्ञा भवन्तीति, अन्यथा आरंदौदिति समुदाय एव वृद्धिसंज्ञा स्यादिति, नैतद्युक्तम्- प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तिदर्शनात् समुदायस्य संज्ञा न भवति, यथा-देवदत्त-यज्ञदत्त - विष्णुमित्रा भोज्यन्तामित्युक्ते प्रत्येकमिति कथनाभावेऽपि प्रत्येक भोज्यन्ते तथेहापि प्रत्येकमेव वृद्धिसंज्ञा भविष्यति न समुदायस्य । किञ्च समुदायस्य क्वचिल्लक्ष्ये
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[ पाद-३, सूत्र -१-२]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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प्रयोगाभावादपि प्रत्येकमेव संज्ञा स्यादिति प्रत्येकमिति कथ | " मृजोऽस्य वृद्धिः" [ ४. ३. ४२ ] इत्येवमादयः इति
नानर्थक्यमेव ।
वृद्धेः प्रदेशाः - वृद्धिविधिदेशा वृद्धिशब्दप्रयोगस्थानानि "मृजो- 40 sस्य वृद्धिः " [ ४ ३ ४२ ] इत्यादीनि सूत्राणीति भाव:, आदिशब्देन " वृद्धिः स्वरेष्वादेः" [ ७ ४ १.] इत्यादीनां संग्रहः ।। ३. ३. १ ।।
अर्थदौतोस्तपरकरणं किमर्थम् ? असन्देहार्थमिति चेत् ? न- * व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिर्नहि सन्देहादलक्षणम् * 5 इति न्यायेनाचार्याणां व्याख्यानादेव सन्देहनिवृत्तिः स्यादिति तस्यानर्थक्यमेवेति चेत् ? न त्रिमात्रचतुर्मात्राणां स्थानिनां त्रिमात्रचतुर्मात्री ऐदौती " आसन्नः" [ ७.४. १२० ] इति परिभाषासहकारात् प्रमाणकृतासत्तेर्मा भूतामित्येतदर्थ तपरकरणस्यावश्यकत्वात्, तपरकरणे सति हि तपरस्त10 त्कालस्य # इति न्यायेन उच्चारित कालविशिष्टस्य द्विमात्र स्यैव वृद्धिसंज्ञाविधानार्थं तपरकरणस्यावश्यकत्वात् । अथोदाहरति-माष्टि इत्यादिना मृजेर्वर्त्तमानायां तिविरूपम्, तत्र गुणे कृते 'मृजोऽस्य वृद्धिः " [४. ३. ४२ ] इत्यकारस्य वृद्धिराकारो भवति । पाक्यमिति--पचेः 15 " ॠवर्ण व्यञ्जनाद् ध्यण्" [५.१. १७ ] इति घ्यणि " णिति " [ ४. ३.५० ] इति धातोरुपान्त्यस्यातो वृद्धिराकारो भवति । दाक्षिरिति---' दक्षस्यापत्यं पुमान्' इत्यर्थे " अत इन् [ ६. १. ३१ ] इतीत्रि "वृद्धिः स्वरेष्वादेः " ७. ४. १ ] इति आदिस्वरस्याकारस्य वृद्धिराकारः । कारयतीति - 20 करोतेणिचि “नामिनोऽकलि-हले " [ ४. ३. ५१ ] इति वृद्धिरार् भवति । कार्यम् इति करोतेः "ॠवर्ण व्यञ्जनाद् |
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श० म० न्यासानुसन्धानम्- गुणो० । 'गुणः, अर् एत्, ओत्' इति च्छेदः । अत्रापि पूर्वसूत्रवत् विधेयभूतस्य 50 गुणशब्दस्य पूर्वप्रयोगो मङ्गलातिशयद्योतनार्थ एव, अथवा “अनुवाद्यमनुक्त्वैव न विधेयमुदीरयेत्” इति नियमस्य व्यभिचारद्योतनार्थमेवैवमाचार्येण प्रयोगः कृत इत्यवधार्यते, तथा च क्वचिच्छिष्टप्रयोगे विपरीतप्रयोगोऽपि साधुः तेन कविप्रयोगेषु वहुलमुद्देश्यविधेययोर्वैपरीत्यं संगच्छते । संज्ञा-संज्ञ्यसन्देहादि : 55
इति वृद्धिरार् भवति । आर्षमिति - ऋषेरिदमित्यर्थे "तस्येदम्” [ ६. ३. १६० ] इत्यणि " वृद्धिः स्वरेष्वादेः" [ ७. 25 ४. १. ] इति ऋकारस्यार् वृद्धिर्भवति । नाययति नयतेः प्रयोजकव्यापारविवक्षायां णिगि "नामिनः " [४. ३.५१] इति ईकारस्य वृद्धिरंत् भवति । नायकः इति - - नयते: "णक-तृचौ" [५. १. ४८] इति णके "नामिनः ० " ०" [ ४.३. ५१] इति वृद्धिरेत् भवति । ऐन्द्रमिति-- इन्द्रो देवता 30 ऽस्येत्यर्थे “देवता” [ ६. २. १०१ ] इत्यणि आदिस्वरस्येकारस्य वृद्धिरंकारः । लावयति इति - लुनातेः प्रयोजकव्यापारविवक्षायां णिगि "नामिन: ० " [ ४. ३.५१ ] इति ऊकारस्य वृद्धिशकारो भवति । लावकः इति -- लुनातीत्यर्थे नातेर्णकि ऊकारस्य वृद्धिरीकारः । औपगवः इति35 उपगोरपत्यमित्यर्थे “ सोऽपत्ये " [ ६.१.२८ ] इति
घ्यण्” [ ५. १. १७ ] इति ध्यणि “नामिनः ० [ ४.३.५१] | पूर्वसूत्रव्याख्यानुसारं ज्ञातव्यः । उदाहरति-करोतीति - अत्र कृगो वर्तमानायां तिवि उप्रत्यये "नामिनो गुणोऽङ्किति” [ ४ ३ १ ] इति गुणेऽरि करोतीति रूपम्; कर्त्तव्यमिति -- कृगस्तव्ये सति गुणे रूपम् । चेते ते - चिनोतेस्तृचि रूपम्, चेयमिति तस्मादेव ये, अनयोरेत् गुणः । स्वोतेति - 60 स्ततस्तृचि रूपम्, स्तोतव्यमिति तस्यैव तव्ये, अनयोरोत् गुणः । गुणसंज्ञायाः प्रयोजनप्रदर्शनायाह-- गुणप्रदेशाः इति - गुणसंज्ञाबोध्यविधायक सूत्राणीति भावः । "नामिनो गुणोऽङ्किति” [ ४. ३. १] इत्यादयः इति - आदिपदेन तदग्रिभसूत्राणि “उ-श्नो " [४.३.२] इत्यादीनि संग्राह्यानि 65
॥ ३.२.२ ॥
गुणोऽरेदोत् ॥ ३.३.२ ॥
त० प्र०-- 'अर् एत् ओत्' इत्येते प्रत्येकं गुणसंज्ञा 45 भवन्ति । करोति, कर्तव्यम्, चेता, चेयम्; स्तोता, स्तोतव्यम् । गुणप्रदेशाः-- "नामिनो गुणोऽषिङति" [४. ३. १.] इत्येवमादयः ॥ २ ॥
कियार्थी धातुः ॥ ३.३.३ ॥
त० प्र० - कृतिः क्रिया प्रवृत्तिर्व्यापार इति यावत्,
अणि "वृद्धिः स्वरेष्वादे: " [ ७. ४. १ ] इत्यादिस्वरस्यो
कारस्य वृद्धिरौकारः । संज्ञासूत्राणां विधिसूत्रोपकारकत्वेनास्य पूर्वापरीभूता साध्यमानरुपा साऽर्थोऽभिधेयं यस्य स शब्दो संज्ञासूत्रस्य कुत्रोपकार इत्याशङ्कायामाह -- वृद्धिप्रदेशाः । धातुसंज्ञो भवति । एषते, अत्ति, दीव्यति, सुनोति, तुदति, 70
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-३]
रुणद्धि, तनोति, क्रोणाति, सहति । आयादिप्रत्ययान्ताना- "कृदभिहितो भावो द्रव्यवत् प्रकाशते" इति; तुमादिभिस्तु मपि क्रियार्थत्वात धातृत्वम-गोपायति, कामयते, ऋतीयते, | सत्त्वभावमनापन्नेति विशेषः; साध्यमानावस्था पूर्वापरीजुगुप्सते, कण्डूयति, पापच्यते, चोरयति, कारयति, चिकी- भूतावयवा भूत-भविष्यद्-वर्तमान-सदसदाद्यनेकावयवरूपा- 35
पंति, पुत्रकाम्यति, पुत्रीयति, अश्वति, श्येनायते, हस्तयते, | sख्यातपदैरुच्यते, यदाह-"पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातेना८ मुण्डयति । एवं जु-स्तम्भचलुम्पादीनामपि-जवनः, स्तभ्नाति, | चष्टे" यथा च पचतीत्यत्र पूर्वापरीभावस्तद्वदेव 'जायते चुलुम्पांचकार, प्रेखोलयति ।
अस्ति बिपरिणमते वर्षते अपक्षीयते विनश्यति भवति श्वेतते शिष्टप्रयोगानुसारित्वादस्य लक्षणस्याणपयत्यादिनिवृत्तिः,
संयुज्यते समवैति' इत्यादावपि, साध्यत्वाभिधानेन क्रमरूपाशिष्टज्ञापनाय चेदं लक्षणम, एतदविसंवादेन च शिष्टा
श्रयणात् क्रियाव्यपदेशः सिद्धः, तदुक्तम्- 40 ज्ञायन्त इति ।
"यावत् सिद्धमसिद्धं वा साध्यत्वेनाभिधीयते । 10 अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां च धातोः क्रियार्थत्वावगमः,
आश्रितक्रमरूपत्वात् तत् क्रियेति प्रतीयते।" |॥३॥ तथाहि-पचतीत्यादौ धातु-प्रत्ययसमुदाय संसृष्टक्रियाकालकारकाधनेकार्थाभिधायिनि प्रयुज्यमाने धातोरेव क्रियार्थत्यमवगम्यतेऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यां नेतरेषाम् । पचतीति प्रयोगे
श० म० न्यासानुसन्धानम्-क्रिया० । क्रिया
अर्थोऽभिधयो यस्य इति विग्रहे क्रियापदार्थस्य ज्ञानं विना द्वयं श्रूयते-'पच्' इति प्रकृतिः, 'अतिः' इति च प्रत्ययः, 15 अर्थोऽपि कश्चिद् गम्यते-विक्लित्तिःकर्तृत्वमेकत्वम्। पठती
क्रियार्थपदार्थज्ञानासंभवात् क्रियापदार्थ तावदाह-कृतिः 45 त्युक्ते कश्चित् शब्दो हीयते कश्चिदुपजायते कश्चिदन्वयी,
क्रिया प्रवृत्तिापार इति यावदिति-कृगो भावे "स्त्रियां 'पच्' शब्दो हीयते 'पठ्' शब्द उपजायते 'अति' शब्दोऽन्वयी,
वितः" [ ५. ३. ९१ ] इति क्तिः-कृतिरिति, तत एवं अर्थोऽपि कश्चिद्धीयते कश्चिदुपजायते कश्चिदन्वयी, विक्लि
भाव एव "कृगः श च वा" [ ५. ३. १०० ] इति शे तिहीयते पठिरुपजायते कर्तवमेकत्वं चान्वयी; तेन
क्रियेति, द्वयोरेव शब्दयोरेकार्थत्वमेवेति न तावता क्रियाप. 20 मन्यामहे-यः शब्दो हीयते तस्यासायों योऽर्थों हीयते,
दार्थः परिचित इत्यपरितुष्यन्नाह-प्रवृत्तिरिति, प्रपूर्व- 50 । यश्च शब्दउपजायते तस्यासावयों योऽर्थ उपजायते, यश्च
कात्, वृतेः स्त्रियां क्ति:----प्रवत्तिरिति प्रक्रान्तां वृत्तिमाह शब्दोऽन्वयी तस्यासावर्थो योऽन्धयोति ।
प्रवृत्तिशब्दः; तथा चार्थोत्पत्त्यनुकलामात्मनश्चेष्टामाह--
प्रवत्तिशब्दः, तामेव चेष्टामन्येन शब्देन स्पष्टयति-व्यापार ननु च कृतिः करोत्यर्थः क्रिया, तत्र युक्तं पचादीनां कि
इति यावदिति, तथा च क्रिया व्यापार इति पर्यवस्यति, व्याकरोति ? पठतीति करोतीत्यर्थभितत्वात् क्रियात्वम्,
| पारश्च वि-आइपूर्वकात पणोतेघषि साधापति कार्यसंल- 55 अस्ति-विद्यते-भवतीनां तु न युक्तम, नहि भवति-किं करोति ?
ग्नतामाह । तमेव क्रियापदार्थ विशिनष्टि--पूर्वापरीभूता अस्ति भवति विद्यते चेति; तदयुक्तम्-न करोत्यर्थः क्रिया- साध्यमानरूपति-पूर्वावयवसंबद्धा पूर्वा, अपरावयवसम्बशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तम्, अपि तहि कारकव्यापारविशेषः,
धाऽपरा, पूर्वा चासावपरा च-पूर्वापरा, अपूर्वापरा पूर्वाव्यापारश्च व्यापारान्तराद् भियत इत्यस्त्याद्यर्थोऽपि क्रियंव, परा सापन्ना--पर्वापरीभता, अयमर्थ:--यद्यपि क्रिया करोत्यर्यस्तु क्रियाशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तमेव; एवं सति नामादितोतं यावदेकैव. तथापि तस्याः ऋमिकोत्पत्ति-60 क्रियासामान्यवचनाः कृण्वस्तयः क्रियाविशेषवचनास्तु पचा- दर्शनात क्रमविषयाणामवस्थाविशेषाणां तदङ्गत्वं परिकल्प्यते, दय इति सिद्धम् । तथा 'भावे घन' इत्युक्त्या 'कारः, | पधात्वर्थंभूता विक्लित्यनुकूला क्रिया हि अघिश्रयण-फूपाकः' इत्यादयोऽप्युदाह्रियन्ते । "क्रियोपपदाखातोस्तुम् कारा-ऽद्यधः सन्तापनादिकमारभ्यावश्रयणपर्यन्तमेकंव, तथापि इत्युक्त्या 'योद्धधनुर्भवति, द्रष्टुं चक्षुर्जातम्' इत्याद्यप्युदाहरणं अधिश्रयशादीनां तदवयवत्वं परिकल्प्यते, तर केचिदवयवाः युक्तम् । यदाहुः-“यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते तत्रास्ति- पूर्वमुत्पद्यन्ते केचित् पश्चादिति तेषां पूर्वत्वापरत्वहारो लोके 65 भवन्तीपरः प्रथमपुरुषे प्रयुज्यते" इति । क्रिया च द्वेषा | दृष्टः, तथा च वस्तुतोऽपूर्वापरा सत्यपि सा पूर्वापरा सम्पसिद्ध-साध्यत्वभेदात, तत्र सिद्धस्वभावोपसंहृतकमा परितः छत इति पूर्वापरीभूतात्वं तस्याः । अत्र पूर्वापराशब्दो द्वावपि परिच्छिन्ना सत्वभावमापन्ना घजादिभिरभिधीयते, यदाह- | "पूर्वापरप्रथमचरमजघन्य." [ ३. १. १०३ [ इति सूत्रो
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[पाद-३, सूत्र-३]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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क्ताविति प्रथमोक्तत्वं द्वयोरस्ति, तत्र कस्य पूर्वनिपात इत्या- [ ३. ४. ८२. ] इति श्नः, धातोर्न कारस्य च लुक् । शङ्कायां सुत्रपाठक्रममाश्रित्य शब्दपरविप्रतिषेधादपरशब्द- तनोतीति तनादिगणोदाहरणम्, तनादित्वात् “कृग-तनादेरुः 40 स्यैव पूर्व निपातप्राप्तावप्यर्थक्रमस्य स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थ तम- [३. ४. ५३.] इति ड: । क्रीणातीति-"ऋयादेः
नुरुध्य राजदन्तादिगणपठितत्वपरिकल्पनया पूर्वशब्दस्यैव [३. ४. ७८. 7 इति श्नाप्रत्ययः । सहतीति- -मर्षणार्थस्य 5 पूर्वनिपातः कृत इति न दोषः । तत्र पूर्वोऽवयवोऽधिश्रयणं- | सहधातोरात्मनेपदिनोऽपि क्वचित परस्मैपदित्वमिति सचनाय,
पाकपात्रस्य चुल्युपरिधारणम्, अपरोऽवयवोऽग्निसन्दीपनादिः, | भवति हि कविप्रयोगे क्वचित् परस्मैपदित्वेन प्रयोगः, यथापूर्वा च क्रियाऽवश्रयणान्ता-पाकपात्रस्य नीचैरानयनान्ता, "स एवायं नागः सहति कलभेभ्यः परिभवम्" इति, यद्वा 45 घटादि: सिद्धपदार्थोऽपि पूर्वापरीभूत इति तद्वयावृत्तय आह- सहयातोर्युजादित्वात् पाक्षिक णिचोऽभावेऽदो रूपम् । साध्यमानरूपति-साध्यमानं-साधनव्यापारपरतन्त्रं रूपं एवं शुद्धानां शब्दानां क्रियार्थत्वाद् धातुत्वमुदाहृत्य यस्याः सेत्यर्थः, पचतीत्युक्ते हि वर्तमाना विक्लित्तिसाधिनी प्रकृति-प्रत्ययसमुदायस्यापि क्वचिदेकक्रियार्थत्वाद् धातुत्वक्रिया कादिसाधनायत्ता, कः पचति, कं पचति, केन पचति, | मुदाहर्तुमाह- आयादिप्रत्ययान्तानामपि क्रियार्थत्वाद् क्व पचति, कुत आनीय पचति, कस्मै पचतीत्यादिसाधना- ! धातुत्वमिति-"गुपौधूप-विच्छि-पाणि-पनेरायः" [३. ४. १.] 50 काक्षायाम-चैत्र ओदनं काष्ठः कुसूलादानीय मैत्राय इति सत्रविहित आयप्रत्यय आदी येषां ते आयादयः, ते च ते पचतीति वाक्यप्रयोगे सति निराकाङक्षताप्रतीतिर्भवति, इति प्रत्यया अन्ते येषां ते--- आयादिप्रत्ययान्ता 'गोपाय' प्रभूततस्याः क्रियायाः साधनायत्तत्वं विज्ञायते । सेति-पूर्वापरी- यस्तेषामपि रसादिरूपक्रियावाचकत्वात क्रियार्थत्वमस्तीति भतेत्यादिना प्रतिपादितस्वरूपेत्यर्थः । अर्थोऽभिधेयः इति----
धातुत्वं भवतीत्यर्थ: । अयमाशयः--यदि हि पाठविशेषा. अभिधया शक्त्या प्रतिपाद्य इत्यर्थः, तथा च साध्यमानार्थ- न्तर्गतत्वमेव धातुत्वप्रयोजकं स्यात् तहि आयादिप्रत्ययान्तानां 55 प्रतिपादकः शब्दो धातुसंज्ञ इत्यर्थः पर्यवस्यति ! घटादि- धातुत्वं न स्यात्, तदर्थं च प्रत्ययविशेषविशिष्टानामपि
शब्दा हि सिद्धमर्थ प्रतिपादयन्ति, साधनव्यापारेण लब्ध- धातुसंज्ञाविधानाय सूत्रान्तरनिर्माण गौरवमिति क्रियावाचक20 स्वरूपं वस्तु घटादिशब्देनाभिधीयते, इति तादशार्थप्रतिपाद-स्वमेव तत्प्रयोजकमेष्टव्यम् । न च 'हिरुक, पृथग इत्याद्यव्यकानां नाम्नां धातुसंज्ञा न भवति ।
यानां क्रियाप्रधानत्वेन क्रियार्थत्वाद् धातुत्वं स्यादिति उदाहरति--एधते, अत्ति, दीव्यतीत्यादिना, 'एध्' | पाठविशेषान्तर्गतत्वे सति क्रियार्थत्वं धातुत्वप्रयोजकमेष्ट- 60 इति वृद्धधनुकूलक्रियाप्रतिपादकः शब्दः, तस्य धातुसंज्ञायां व्यमिति वाच्यम्, तेषां [हिरु गित्याद्यध्ययानां] क्रियान्तसत्यां ततो वर्तमानताविवक्षायां वर्तमानायाः प्रथमपूरुष- राकाङ्क्षोत्थापकतांदर्शनेन क्रियावाचित्वाभावात्, क्रियाकवचनं ते प्रत्ययः, मध्ये शव् विकरणः । भ्वादिगणपठित- । न्तराकाङक्षानुत्थापकतावच्छेदकधर्मवत्त्वरूपं साध्यत्वेन प्रतीमुदाहृत्यादादिगणपठितमाह---अत्तीति--'अद्' धातुभंक्ष- | यमानत्वमेव हि क्रियात्वमिति तेषामर्थस्य तादशत्वाभावेन णार्थः, गलविलाधः संयोगरूपक्रियाया वर्तमानताविवक्षायां क्रियात्वाभावात्, भवति हि हिरुगित्यादीनामस्त्यादिक्रिया- 65 प्रथमपुरुषकवचनं तिव, शवविधायके "कर्तयनदर्भयः शव" | काडाक्षा । ननु क्रियालक्षणं साध्यत्वेन प्रतीयमानत्वस्य निवेशे
[ ३. ४. ७१ ] इति सूत्रे 'अनद्भ्यः ' इत्यादिपर्यदासात | भूप्रभृतीनां सत्ताधर्थकानां क्रियार्थत्वं न स्यात, सत्ताया 30 शव न भवति । दीव्यतीति दिवायुदाहरणम्, 'दिव्' इति | नित्यत्वेन साध्यत्वेन प्रतीयमानत्वाभावादिति चेन्न---
क्रीडाजयेच्छादिक्रियाप्रतिपादकः शब्दः, तस्य धातुत्वे वर्त- आधेयभेदेन, आधेयगतावस्थाभेदेन च नित्याया अपि मानाप्रथमपुरुषकवचने तिवि दिवादित्वात् "दिवादेः श्यः" । सत्तायाः साध्यत्वेन प्रतीतिसंभवात् । देवदत्तो भवतीत्यादौ 70 [ ३. ४.७२7 इति श्ये उपान्त्यदीर्घ सति---दीव्यतीति | देवदत्तनिष्ठाधेयतानिरूपिताऽऽधारतावती सत्ता जायमानेव
रूपम् । सुनोतीति स्वादेरुदाहरणम्, सुधातुरभिषवार्थः, प्रतीयते, एवं 'देवदत्तो गच्छन्नस्ति देवदत्तो भुजानोऽस्ति स 35 अभिषवश्च क्लेदनं सन्धानाख्यं पीडन मन्थने वा, स्वादित्वात् एव पठन्नस्ति' इत्यादौ च गमनादिविशिष्टदेवदत्तविशिष्टा
"स्वादेः श्नुः" [ ३. ४. ७५ ] इति श्नुः । तुदतीति तुदा- सत्ता जायमानेव प्रतीयते । वस्तुतस्तु सत्तायाः पूर्वसिद्धदेख्दाहरणम्, "तुदादेः शः" । ३. ४.८१.] इति शः। त्वेऽपि नाधारत्वमपि त्वाधेयत्वमेव घटे घटत्वमिति प्रती-75 रुणद्धि इति रुथादेरुदाहरणम्, "रुधां स्वराच्-श्नो नलुक च" तिवत् घटे सत्ता, न तु सत्तायां घट इति प्रतीते, अत्रापि
ण्टा -
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-३]
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पक्षे सत्ताया विशेष्यभेदेन भिन्नत्वमिव जायमानत्वमपि | सामर्थ्यात तत्र प्रत्ययान्तस्य स्वाव्यतिरिक्तत्वं स्वीक्रियते प्रतीयत इति भवति साध्यमानत्वम् ।
इति न दोषः । अन्यैस्तु तथा स्वीकाराभावात् तदर्थमाया- 40 ननु क्रियार्थस्य धातुत्वे 'शिश्ये' इत्यादिभावास्याता- दिप्रत्ययान्तस्य धातुसंज्ञाविधानार्थ सूत्रमारभ्यत एव । न्तानामपि क्रियार्थत्वात् तेषां धातुत्वं स्यादिति “आत् | लघुन्यासकारस्तु गोपायतीत्यादौ धातुसंज्ञार्थ क्रियामेव 5 सन्ध्यक्षरस्य [४. २. १.7 इति तदीयसन्ध्यक्षरस्य एका
प्राधान्येन योऽभिधत्ते स क्रियाभिधायी, स च धातुसंज्ञ रस्य आत्वं स्थात्, तद्धि सन्ध्यक्षरान्तस्य धातोविहितमन ! इत्यर्थः स्वीक्रियते, "शिश्ये' इत्यादिभावाख्यातान्ते धातुमित्तिक च: एतहोषपरीहाराय क्रियाविशेषकत्वेन प्रथम- संज्ञानिवृत्तिरपि तथा सति सिद्धा भवति, यत आख्यातस्य 4 ग्रहणे कृते सति प्राथम्येन यः क्रियामाह स धातसंज्ञ इति न प्राधान्येन क्रियाभिधायित्वमपि तु काल-कारक-संख्याद्य
भवत्यर्थः, तत्र प्राथम्यं कि शब्दत आहोस्विदर्थतः, अयमर्थ:- भिधायकत्वमपि प्रत्ययस्य तेष्वयेष्वपि शक्तेः स्वीकारादिति, 10 प्रथमो यः क्रियार्थ इति कथिते प्रथममुच्चार्यमाणः सन् य । तथा च यस्य क्रियवाभिधेया स धातुरिति पर्यवस्यति । एवं
क्रियामाहेति गम्यते, तथा च शब्दतः प्राथम्यमायाति ।। च कृत्वा कर्तुमित्यादीनां कृदन्तानां क्रियाभिधायित्वेऽपि प्रथमा क्रियाऽर्थो यस्येति विग्रहे चार्थतः प्राथम्यं प्रतीयते, | क्रियामानाभिधायित्वाभावान्न भवति धातुसंज्ञा, तत्र हि पूर्वस्वयं प्रथमोप्रथमो वा प्रथमा क्रियामाहेति क्रियारूपेऽर्थे कालाद्यर्थस्यापि क्त्वादिभिरभिधानात् क्रियामात्राभिधायि
प्रायम्यादर्थतः प्राथम्यं स्पष्टम्, तत्र पूर्वस्मिन् पक्षे सन्नन्ता- स्वाभावात् । किंचात्राव्ययसंज्ञया धातुसंज्ञानिवृत्तिरित्यपि 15 दीनां धातुसंज्ञान प्राप्नोति, पठितुमिच्छति- पिपठिषतीति, समधातुं शक्यते । 'पचिः पतिः' इत्यादिषु "इ-कि-श्तिव
अत्र पठत्यर्थोऽपि सन्निविष्ट इति स पूर्वमेव पठतिनोक्त इति स्वरूपाऽर्थे" [५. ३. १३८.] इति सूत्रविहित 'इ-किश्तिव्' नास्ति सन्नन्तस्य तदभिधाने प्राथम्यम्, एवं-पुत्रमिच्छति- प्रत्ययान्तेषु क्रियाभिधायित्वेऽपि साध्यमानत्वाभावात् न न पत्रीयतीत्यत्रापि पुत्रकर्मकेच्छारूपा क्रिया क्यान्त आहेति क्रियात्वमिति न भवति तत्र धातुसंज्ञा। एवं 'कर्तव्य' 'भूयते' पत्रार्थस्य प्रथम पुत्रशब्देनोक्तत्वान्नास्ति प्राथम्यम्, क्यान्तस्य । इत्यादावपि, प्रथमे कर्माययस्याप्यभिधानात् द्वितीयेच वर्तप्रथममुच्चार्यमाणत्वाभावेन प्राथम्याभावात् । यद्यर्थतः प्राथम्य | मानत्वादेरप्यभिधानात क्रियामात्रवाचित्वं नास्तीति न दोषः । विवक्ष्यते तहि सनायन्तस्य धातृत्वसंभवेऽपि 'शिश्ये' इत्या
इत्थं चायादिप्रत्ययान्तानामपि क्रियार्थत्वात् धातुत्वदिभावास्यातान्ते दोषस्तदवस्थ एव, तवाख्यातार्थस्य | मिति सिद्धम् । तथा चोदाहरति--गोपायतीत्यादि, गुप्भावस्य तेनैव [ आख्यातेनैव ] प्रथममुक्तत्वात्, पूर्वस्मिन् | धातो: "गुपौ-चूप" [ ३. ४. १. ] इत्यायः, तदन्तस्य धातुपक्षे तु 'शी' इत्यनेनाभिहितां क्रियामेव आख्यात आहेति | त्वात् त्याद्युत्पत्तिः । कामयते इति--कमेरिच्छार्थात् नास्ति तस्य क्रियाभिधाने प्राथम्यम्, इत्युभयस्मिन् पक्षे दोष
“कमेणिङ" [ ३. ४. २.] इति णिक, तदन्तस्य कामीसद्भावात् किमत्र न्याय्यमिति चेत् ? अभिधानतः प्राथम्यं
त्यस्य धातुत्वात् त्याद्युत्पत्तिः। ऋतीयते इति--ऋतिः ग्राह्यमित्यदोषः, अयमाशयः-- अभिधानतः प्राथम्यविवक्षणे- | सौत्रो धातुः, तस्मात् "ऋतेर्डीयः" [ ३. ४. ३.] इति 65 न्यनानभिहितां क्रियां यः प्रथममाह स धातुरित्ययों भवति । डिति ईये तदन्तस्य-धातसंज्ञासत्त्वे त्यादिः। जगप्सते 'शिश्य' इत्यत्र तू प्रकृत्यभिहित भाव प्रत्यय आहेति न तत्र ! इति--पेर्ग विवक्षायां "गप-तिजो गर्हा-क्षान्तौ सन" ० धातुसंज्ञाप्रवृत्तिः,यथा--प्रथममयं राजानंप श्यतीत्यस्यायमों | [ ३. ४.५.7 इति सन, तदन्तस्य धातुत्वम् । कण्डू
यदन्येनादृष्टं पश्यतीति, तथेहापि प्राथम्यमभिधानक्रियापेक्ष- यतोति-कण्डधातोत्रिविध्वर्षणार्थकात् “धातोः कण्ड्वामाश्रीयते--अन्येभ्यः क्रियाभिधायिभ्यो यः प्रथमं क्रिया-टेक" | ३.४.1 दृति यक. तदन्तस्य धातृत्वम् । माहेति, पिपठिषतीत्यत्र पठत्यर्थोपसर्जनामिच्छामन्येनानभि
पापच्यते इति--पुन:पुनरतिशयेन वा पचतीत्यर्थे 'पच्'धातो हिता सन् प्रत्ययः प्रथममाहेति न भवति धातुत्वाभावदोषः ।
"व्यञ्जनादेरेकस्वरात् भुशाभीक्षणे यङ वा" [ ३. ४.९.] २. अत्र पक्ष 'शिश्ये' इत्यत्र दोषवारणमन्युक्तमेव, स्वार्थिक
इति यङ, तदन्तस्य द्वित्वादिकायें कृते सति धातुत्वात् प्रत्ययान्तानां 'गोपाय' 'कामि' इत्यादीनामपि धातुसंज्ञाऽत्र, त्यादिः। चौरयतीति-स्तेयार्थात 'चर' धातोः "चुरा• पक्षे न प्राप्नोति; यतो गुपिप्रभृतिभिरुक्तामेव क्रियां गोपाये- | दिभ्यो णिच्" [ ३. ४. १७ ] इति णिच, उपान्त्यगुणे 75 त्यादय आहरिति प्राथम्याभावस्तथापि स्वार्थे प्रत्ययविधान- चोरीत्यस्थ धातुत्वात् त्याद्युत्पत्तिः ।
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[ पाद-३, सूत्र-३]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
एवं स्वार्थिकप्रत्ययान्तानुदाहृत्यार्थविशेषविहितप्रत्ययश- णस्याणपयत्यादिनिवृत्तिरिति, शिष्टप्रयोगशब्दो द्विधा न्तानामपि क्रियावाचित्वाविशेषाद् धातुत्वमुदाहरति-- व्याख्यातुं शक्यते -शिष्टानां धातूनां प्रयोग:-शिष्टप्रयोग 40 कारयतीत्यादिना, करिचत् करोति तं प्रेरयतीत्यर्थे कुर्वन्तं इति, शिष्टानामापतपुरुषाणां प्रयोगः शिष्ट प्रयोग इति, पूर्वत्र प्रेरयतीत्यर्थे वा “प्रयोक्तृव्यापारे णिग्" [ ३. ४. १०.1 शिष्टशब्दो लक्षणसूत्रैः पृथशिष्टत्वप्रतिपादितत्वार्थकः, इति णिग, वृद्धावारि 'कारि' इति जाते धातुत्वम् । चिकी- | प्रयोगशब्दश्च पाठार्थकः, तथा चाचार्यलक्षणादिना पाठपतीति -कत मिच्छतीत्यर्थे "तुमहर्थािदिच्छा यां सन्नत- ! सन्निविष्टानामेव धातूनां धातुत्वस्थानुसरणशीलत्वादस्य सनः" [ ३. ४. २१. ] इति सन्, सन्नन्तत्वाद् द्विरवादौ | लक्षणस्य तद्भिन्नानामाणपयतीत्यादीनां न धातुत्वेन साधु- 45 चिकोर्षत्यस्य क्रियार्थत्वाद् धातुत्वम् । पुत्रकाम्यतीति- त्वमिति तदर्थः । नन्वेवं पाठ एव शिष्टानां धातूनां विधी
आत्मनः पुत्रमिच्छतीत्यर्थे पूत्रमिति द्वितीयान्तात "द्वितीयाया: यतां लक्षणस्यास्य न किमपि प्रयोजनमिति चेदत्राह--- 10 काम्यः" [ ३. ४. २२. ] इति काम्यप्रत्यये सति तदन्तस्य शिष्टज्ञानाय चेदं लक्षणमिति, अयमाशयः- -पाठपठिता
धातुत्वम्, तस्मिन्नेवार्थे तस्मादेव द्वितीयान्तात् “अमाव्यया । अपि क्रियार्था एव धातवो ज्ञेया इति परिज्ञानाय प्रकृतसूत्रक्यन् च । ३. ४. २३. ] इति क्यन्, “क्यनि" [ ४. ३. | स्थावश्यकत्वम, तेन च पठितसदशानामपि या-वाप्रभतीनां 50 ११२.] इति अवर्णस्यत्वे कृते पुत्रीयेत्यस्य धातुत्वम्।। सर्वाद्यव्ययादीनां न धातुत्वं क्रियार्थत्वाभावात्, आणपय
अश्वतीति--अश्व इवाचरतीत्यर्थे कर्तः विवप् गल्भ-क्लीब- ! त्यादीनां त क्रियार्थत्वेऽपि शि'टत्वाभावान्न धातुत्वमिति 15 होडात् तु डित्' [ ३. ४. २५. ] इति विवप्, तस्या- विवेकः । आणपयतीत्यस्य स्थाने भाष्य-कैयटादावाणवय
प्रयोगित्वेनेत्वे तदन्तस्यानेन धातुत्वात् त्याद्युत्पत्तिः। तीति प्रयोगो दश्यते, तथा चोभयमपि संभाव्यते लक्षणानश्येनायत इति श्येन इवाचरतीर्थे 'थयङ" | ३. ४. २६.1 । नुशिष्टेषु स्वरूपनिर्णयस्याभावात् । तथा च यद्यपि शिष्ट- 55 इति क्यङ, "दीदिच्च-यङ-यक-क्येष च" [ ४. ३. १०८.] प्रयक्तत्वज्ञानाय पाठस्य लक्षणस्योभयस्यावश्यकत्वमिति
इत्यकारस्य दीर्घ श्येनायेत्यस्य धातुत्वात् त्यादिः । । समायाति, तथापि लक्षणेन पाठोऽनुशिष्यत इति लक्षणस्यैव 20 हस्तयते इति--हस्तं निरस्यतीत्यर्थे “अङ्गानिरसने णिड" | प्राधान्यादावश्यकरवं, पाठे तु विपर्यासस्यापि दर्शनात् तस्य
[३. ४. ३८. ] इति णिङ, तदन्तस्यानेन धातुत्वम्। नात्यावश्यकत्वमिति विशकलितोऽर्थः । मुण्उयतीति... मण्डं करोतीत्यर्थे "णिज् बहुलं नाम्नः । इत्थं क्रियार्थस्य धातुत्वमुदाहृत्य धातोः क्रियार्थत्व- 60 कृगादिषु" [ ३. ४. ४२.] इति णिज्, तदन्तस्य धातुत्वम् ।। साधनायाह--अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां च धातोः क्रियाथे।
एवं नाम्नां धातुत्वमुदाहृत्य सौत्रादीनामपि केषांचित् | त्वावगमः इति, अयमाशयः---यस्मिन् शब्दे सति योऽर्थः 25 क्रियावाचित्वेन धातुत्व माह-एवं-जुस्तम्भु-चुलुम्पादी- प्रतीयते स तदर्थः, यस्मिन्नसति च योऽयों न प्रतीयते स
नामिति-'जु' इति संत्रो धातुबेंगार्थः, तस्य धातुत्वे सति तदर्थः, पूर्वः पक्षोऽन्वयानुसारी परः पक्षश्च व्यतिरेकानुसारी, तस्मात कृत्यने-जवनः इति । स्तभ्नातीति-स्तम्भधातुः तत्सत्वे तदितरयावत्कारणसत्त्वे च तत्सत्त्वमन्वयः, तदसत्त्वे 65 सौत्रः स्तम्भनार्थः, तस्य धातृत्वे त्यादिः । चुलुम्पांचकारेति- | | तदसत्त्वं व्यतिरेकः, ताभ्यां कारणता निश्चीयते, तथा च
चलम्प इति वाक्यकरणीयो धाविनाशार्थः, तस्य धातुत्वे यस्मिन शब्दे सति योऽर्थः प्रतीयते, असति च तस्मिन् न 30 परोक्षायाम् "धातोरनेकस्वरादाम् परोक्षायाः कृरबस्ति चानु प्रतीयते स तस्यैव शब्दस्यार्थ इति निश्चीयते । तावेवान्वय
तदन्तम् । ३.४. ४६ ] इति आमि परोक्षान्तस्य करोते- | व्यतिरेको प्रदर्शयति--तथाहीत्यादिना, तथाहीत्यस्य तदेव रनुप्रयोगे च चलम्पाञ्चकारेति । प्रेखोलयतीत्यपि वाक्य । प्रदर्यत इत्यर्थः । किमित्याह--पचतीत्यादाविति, अय- 70 करणीयधातोरेवोदाहरणम्, प्रेङ्खोलधातुर्णानुबन्ध आन्दोल- माशयः न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या नापि केवलप्रत्यय
नाओं वाक्यकरणीयश्चुरादिः, तस्मात् स्वार्थे णिचि तदन्तस्य | इति न्यायेन प्रत्ययसहितस्यैव पचादेलौकिके प्रयोगे प्रसिद्धिः। 35 धातुत्वे -प्रेडोलयतीति । अन्ये वैयाकरणाः प्राकृतादिधा- | एवं च पचतीत्याद्येव प्रयुज्यते, तत्रांशद्वयम्----'पच्' इति
तूनां पात्रविशेषप्रयोगविषय णां क्रियार्थत्वेऽपि धातुत्वनिवृत्त्यर्थ । प्रकृतिः, 'अति' इति प्रत्ययः, तेन च समुदायेन एककर्तृका पाठविशेषान्तर्गतत्वमपि धातुत्वप्रयोजकमाश्रयन्ते, तस्य स्व- वर्तमान कालिका विक्लित्यनकला क्रिया प्रतिपाद्यते, तत्र 75 मतेऽन्यथासिद्धिमाह---शिष्टप्रयोगानुसारित्वादस्य लक्ष- । यद्यपि वावयार्थबोधकालेऽखण्डमेव पदमखण्डस्यैवार्थस्य
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वृहबृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-३]
प्रतिपादकमिति, तथापि शास्त्रकृद्भिरन्वयव्यतिरे- चान्वयिनी इति वा निदिश्येत । निगमयति- तेन मन्यामहे काम्यां पदस्य सखण्डतां परिकल्प्य तदीयावान्तरखण्डा- 1 इत्यादिना, एतेनान्वयव्यतिरेकदर्शनेन, यः शब्दो हीयते नामर्थविशेषाः परिकल्प्यन्ते । तावन्वय-व्यतिरेको चेत्थं परि- तस्यासावर्थो योऽर्थो हीयते इति--पठतीत्यत्र यस्य 40 कल्पनीयावित्याह-पचतीति प्रयोगे द्वयं श्रूयते इत्यादिना, | शब्दस्य [ ‘पच्' इत्यस्य ] अभावे योऽर्थो [ विक्लित्तिः ] अयमाशयः---पचतीति प्रयोगः संसृष्टक्रियाकाल कारकाद्य-न प्रतीयते सोऽर्थस्तस्यैव [ अभावप्रतियोगिनः ] शब्दस्य, नेकार्थाभिधायी, क्रिया च कालश्च कारकं चेति क्रियाकाल- यश्च शब्द उपजायते तस्यासावर्थो योऽर्थ उपजायते कारकाणि तान्यादौ येषां ते च ते संसष्टाः क्रियाकालकार- इति--पशब्द उपजायत इति तस्यासौ पाठरूपोऽर्थः, यः कादयः----संसृष्टक्रियाकालकारकादयः, ते च ते ऽनेके | पाठरूपोऽर्थः पठतीत्यत्र प्रतीयत इत्यर्थः । यश्च शब्दोऽ- 45
अर्था:--संसृष्टक्रियाकालकारकाद्यनेकार्थाः, तानभिधत्त इति स्वयी तस्यासावर्थो योऽन्वयीति-यश्च अतिशब्दोऽन्वयी 10 संसष्टक्रियाकालकारकाद्यनेकार्थाभिधायी, तादशश्च पच- | पचतिपठत्योः साधारण्येन वर्तमानः [अतिशब्द:] तस्यासी
तीति प्रयोगः, तेन हि विक्लित्यनकला वर्तमान कालिका कर्त- कर्तृत्वकत्वरूपः ] अर्थः, यः कर्तृत्वैकत्वरूपः, अन्वयीकारकगता एककर्तृका क्रियाऽभिधीयते, आदिपदेन संख्यायाः
साधारण्येन संसृष्ट इत्यर्थः । किञ्च सामान्यविशेषभावेन परिग्रहात्, एते चार्थाः परस्परं संसष्टाः क्रियामेव विशि- प्रतीतेरपि पचादीनां क्रियार्थत्वमवगम्यते, यतः किं करोतीति 50
षन्ति । तत्रायं क्रम:-कालकारको क्रियाविशेषणं, संख्या च । प्रश्न पचतीत्युत्तरम्, किं करिष्यतीति प्रश्ने पक्ष्यतीत्युत्तरम, 15 कारकस्य [ कर्तुः ] विशेषणमिति । एवं चास्मिन् पचतीति
किमकार्षीदिति प्रश्ने च अपाक्षीदित्युत्तरं दृश्यते, तथा च प्रयोगे द्वावंशी-प्रकृतिः प्रत्ययश्च, 'पञ्' इति प्रकृतिः, तत
कृगा सामान्यक्रियावाचिना प्रश्ने सति पचादिभिः क्रियाविएव प्रत्ययस्य विधानात् प्रत्ययपूर्वस्यैव प्रकृतित्वात, तत्रो
शेषवाचिभिरेवोत्तरं संभाव्यत इति तेषां क्रियाविशेषवाचिभयोरंशयोरविपि प्रतीयते, प्रकृत्यं शस्य विक्लित्ति:---
त्वमवगम्यते, यदा तु किं करोतीति प्रश्ने, न करोत्यास्त एव 55 अवयवशथिल्यपूर्वक आदीर्भावः, प्रत्ययांशस्य कर्तत्वमेकत्व
केवलमित्युत्तरं तदा व्यापारसामान्यस्यावश्यंभावित्वाद 20 मिति. अत्र वर्तमानतेत्यपि शेषः । इत्थमन्वयं प्रदर्य व्यति
व्यापारविशेषविषयः प्रश्नः, प्रतिवचनं तु विशेषनिराकरणपररेकमार-परतीत्यक्ते कथित शब्दो हीयते इत्यादिना. मिति बोध्यम् । तथा च धातुलक्षणे क्रियालद्वघाप्यान्यतरहीयत इति कर्मकर्तरिप्रयोगः, प्रयोक्ता शब्दं न जहात्यपि
वाचित्वं विवक्षितमिति न दोषः । यद्यपि करोतिर्गन्धनावक्षेप
णादिष्वपि वर्तते, "गन्धनाऽवक्षेप-सेवा-साहस-प्रतियत्न- 60 तु शब्दः स्वयमेव हीयत इत्याशयात्, पूर्वप्रयोगस्थ इति
प्रकथनोपयोगे" [३.३.७६] इति सूत्रेणैतदर्थात् कृग आत्मशेषः । कश्चिदुपजायते हीनस्य शब्दस्य स्थान इति शेषः ।
नेपदविधानात्, तथापि सामान्यभूतः कारकव्यापार एव 25 कश्चिदन्वयीति----पूर्वोत्तरप्रयोगयोः साधारण्येन सम्बन्धीति
तदर्थः प्रसिद्धः । तत्र करोतियापार-सामान्यवाची, तद्विशेषभावः । उक्तार्थमेव स्पष्टयति 'प' शब्दो हीयते बाचिनः पचादयः, किं करोतीत्यस्य यत् करोति तत् किमिति इति-प्रकृत्यंशो व्यतिरिच्यत 'इति भावः । पशब्द' उपजायते
व्यापारविशेष-विषयप्रश्नोऽर्थः । एवं च यन्निष्ठतया प्रश्न- 65 इति--प्रकृत्यन्तरत्वेन श्रूयत इति भावः । अतिशब्दोऽ
विषयक्रियायाः करोतिशब्दवाच्यायाः प्रतीतिस्तन्निष्ठतयैवोयीति---प्रत्ययांश उभयसाधारण इति भावः । न केवलं
तरभूतपचतिशब्दवाच्यक्रियायाः प्रतीतिरिति तयोः साभा30 शब्दस्यैव हानोपजननान्वयाः, अपि तु अर्थस्थापि ते भवन्त्येव
नाधिकरण्यम्, तत्र क्रियाप्रश्नजनकजिज्ञासायास्तद्विषशब्दार्थयोरव्यतिरेकादित्याह-अर्थोऽपि कश्चिद्धीयते इत्या
योत्तरेणैव निरासादेषां क्रियावाचित्वमिति भावः। नन्वेवदिना, कश्चिदित्येतेनानिश्चितस्वरूपमर्थ निश्चिनोति--
मभयो: सामान्यविशेषरूपत्वे स्वीकृते पनसो वक्ष इति वत् 70 विक्लित्तिहीयते इत्यादिना--विक्लित्यर्थो न गम्यते इति पचति करोतीति सहप्रयोगापत्तिरिति चेन्न-केवलस्य धातोः
भावः । पठिरुपजायते इति-पाठार्थः प्रतीयत इति भावः । । प्रयोगाभावेन त्यादिप्रयोगे तदर्थपौनरुक्त्यभिया तथा प्रयोगा35 कर्तृत्वमेकत्वं चान्वयीति---पूर्वप्रयोगसाधारण्येनेहापि भावात् । यत्र तु नेदृशं बाधकं तत्र एधांचकार इत्यादिः
तत्प्रतीतिरिति भावः, अत्रान्वयीति पुंलिङ्गनिर्देशोऽर्थशब्दा- विशेषसामान्यवाचिनो: सह प्रयोगो भवत्येव। इत्थं करो. पेक्षया, अन्यथा कर्तृत्वमेकत्वञ्चान्वयि इति, कर्तृत्वमेकत्वं | तिसामानाधिकरण्येन पचादीनां. क्रियावाचकत्वसाधने 15
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पाद-३, सूत्र- ३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
- १५९
शङ्कते -- ननु च कृतिः करोत्यर्थः क्रिया, तत्र युक्तः । प्रतीतेः । ननु करोतिः सकर्मको भवतिस्त्वकर्मक इति कथमिह तुल्यतेति चेत् ? अत्राहु: - यदा हि करोतिरुत्पा- 40 दनार्थकः स्वातन्त्र्येण प्रयुज्यते-- 'घटं चक्रे, राज्यं चकार' इत्यादि, तदा नियमतः सकर्मकत्वम्, यदा तु क्रियान्तरसमानाधिकरणः करोतिः "प्रयुज्यते - जुहुवांचकारेत्यादी तदा यत्समानाधिकरणः " करोतिस्तस्य सकर्मकत्वाऽकर्मकत्वाभ्यां स्वयमपि तथाभावं भजते, एवं स्वस्त्योरप्याम् प्रकृति- 45 सामानाधिकरण्येन क्वचित् सकर्मकत्वं बोध्यम् । अत एवानुप्रयुज्यमानाद् भवतेः सकर्मकत्वात् कर्मणि परोक्षा, तथा
च भावः-
मित्यादिना, अयमाशयः-कृतिः क्रियेति समानार्थके पदे, । तत्र कृतिरित्यनेन कृधात्वर्थ: कथ्यते, तथाच करोत्यर्थ एक क्रिया । तत्र किं करोति ? 'पचति, पठति वा' इत्यादि 5 प्रश्नप्रतिवचनानुगुण्येन पचाद्यर्थस्य करोत्यर्थगभितत्वात् पचतीत्यस्य पार्क करोतीति विवरणात् पठतीत्यस्य पाठ करोतीति विवरणाच्च पचादीनां क्रियार्थत्वं युक्तम्, अस्तिविद्यते भवतीनां तु क्रियार्थत्वं न युक्तम्, किं करोतीति प्रश्ने 'अस्तीति, विद्यत इति भवतीति वा प्रतिवचनस्या 10 दर्शनात्, अस्तीत्यस्य सत्तां करोतीत्यादिविवरणादर्शनाच्चेति प्रश्नार्थः । उत्तरयति - तद्युक्तमिति इति यत् पृष्टं तन्न युक्तमिति भावः । अयुक्तत्वमेव प्रतिपादयति-न करोत्यर्थः क्रियाशब्दस्य प्रवृत्ति निमित्तमपि तहि - कारक व्यापारविशेषः इति, अयमाशय: - अन्यद्धि 15 शब्दानां व्युत्पत्तिनिमित्तमन्यद्धि प्रवृत्तिनिमित्तमिति रीत्या कृधातुनिष्पन्नोऽपि क्रियाशब्दो न करोत्यर्थमेवाहापि तु कारकव्यापार विशेषमेव, स च कारकव्यापारो नैकरूपोऽपि तु प्रतिप्रयोग भिन्नरूप एव तत्र क्वचित् करोत्यर्थं गर्भः क्वचिच्च तदतिरिक्त इत्यत्र स्वभाव एव शरणम्, तदाह-20 व्यापारश्च व्यापारान्तराद् भिद्यत इत्यस्त्याद्यर्थोऽपि .क्रियैवेति-अस्तीत्याद्यवतेऽपि आत्मधारणानुकूला क्रियैव प्रती • यत इति नास्तिभवति विद्यतीनां क्रियार्थत्वाभावः । नन्वेवं करणं क्रियेति विग्रहेण सह विरोध इति चेदाह - करोत्यर्थस्तु क्रियाशब्दस्य व्युत्पत्तिमात्रमिति - प्रवृत्तिनिमित्ताद् व्युत्प25 त्तिनिमित्तस्य भेदस्तु न स्वकल्पितोऽपि तु शास्त्रकृत्सम्मत
।
"तपपूर्त्तावपि भेदसांभरा विभावरीभिर्बिभरांबभूविरे । " इति प्रायुङ्क्त । कृभ्वोः सामान्यार्थत्वे प्रमाणान्तरमप्याह -- तथा 'भावे घन्' इत्युक्त्वा कारः पाक इत्यादयोऽप्युदाह्रियन्ते इति भावाऽकत्र." [ ५. ३. १८. ] इत्यादिभिः सूत्रभवि घञ् विधीयते, भावश्च भवनं भाव इति व्युत्पत्त्यनुसारं भवत्यर्थः, स च सामान्यरूपः करोत्यर्थेन 60 तुत्थश्च न चेत् तर्हि 'कारः पाकः' इति तदुदाहरणं कथं संगतं स्यात् । प्रमाणान्तरमप्याह--- 'क्रियोपपदाद्धातोस्तुम्' इत्युक्त्वा योद्धुं धनुर्भवतीयादि - - "क्रियायां क्रियार्थायां तुम्" [ ५. ३. १३. ] इत्यादिसूत्रेण क्रियार्थायां क्रियायामुपपदे तुम् विधीयते, योद्धुं धनुर्भवतीत्यादि चोदाहि- 65 यते, तथा च भवत्यर्थोऽपि क्रिया चेन्न स्यात् क्रियोपपदाद् विधीयमानस्तुम्प्रत्ययोऽत्र न स्यादित्युभयथा भावक्रियापदयोः समानार्थत्वमवगम्यत इति भवति कृभ्वसां क्रिया सामान्यार्थत्वम् । अभियुक्तोक्त्यापि स्वस्त्योः क्रियार्थत्वं साधयति -- यदाहुः – “यत्रान्यत् क्रियापदं न श्रूयते 70 तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषे प्रयुज्यते” इति --- यत्रवाक्यं, अन्यत् -- अस्त्यादिव्यतिरिक्तं पचतीत्यादि, क्रियापदं न श्रूयते न प्रयुज्यते, तत्रास्तिः-- सत्तार्थकं क्रियापदं भवन्ती
एवेति प्रतिपादितमधस्तात् तथा च क्रियाशब्दनिष्पत्ति प्रयोजनकमेव करोत्यर्थेन विग्रहप्रदर्शन, न तेन तन्मात्रार्थकत्वं क्रियाशब्दस्येति भावः । तथा च पर्यवसितमभिधत्ते-एवं सतिक्रिया सामान्यंवचनाः कृभ्वस्तयः क्रिया30 विशेषवचनास्तु पचादय इति सिद्धमिति, अयमाशयः-कृभ्वसामर्थाः प्रायः सर्वासु क्रियास्वनुस्यूता इति क्रियासामान्यार्थत्वं तेषाम्, अतएवे क्रियाविशेषवाचिना सह तस्य प्रयोगोऽपि भवति--' एधांचक्रे एधांबभूवे, एधामास इत्यादि । तत्रैवतिः क्रियाविशेषवृद्धयर्थकः करोत्यादयश्च सामान्यार्थ इति भवति तयोरेकत्र प्रयोगे समावेशः, एधांचक्रे इत्यादीनां चार्थे साम्यमपि कृभ्वसामर्थस्य सामान्य- | परः - - वर्तमानाप्रत्ययान्तः, प्रथमपुरुष -- युष्मदस्मदसामानारूपत्वं प्रमाणयति, 'एधांच, एधांबभूवे, एधामास' इत्यादी धिकरण्यनिमित्तके पुरुष, प्रयुज्यते-अध्याह्रियत इति तदर्थः, 75 सर्वत्र एककर्तृका भूतानद्यतनपरोक्षा वृद्धयभिन्ना क्रियेति । अयमाशयः -- प्रयोक्ता सौकर्याय त्वरया वा देवदत्तः पृष्ट:
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"जगत्पवित्रैरपि तन्न पादैः
स्प्रष्टुं जगत्पूज्यमयुज्यतार्कः । यतो बृहत्पार्वणचन्द्रचारु,
तस्यातपत्रं विभरांबभूवे" [शि. व. तृ. सर्गे ] । इति । श्रीहर्षोऽपि --
50
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-३]
-
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गादास
कोऽयमिति, तत्र किमपि क्रियापदं न श्रूयते, भवति च वक्तः | "कृदभिहितो भावो द्रव्यवत् प्रकाशते" इति-कृदभिकोऽयमस्तीति प्रतीतिः, सा च अस्तीति क्रियापदस्य स्वाभा- हितः--कृत्प्रत्ययबोध्यः, भाव:-क्रियापदार्थः, द्रव्यवत्विकोपस्थित्यवेति अस्ति-भवतिप्रभृतीनां सर्वक्रियासाधारण्य सत्त्वस्वभावापन्नः सन्, प्रकाशते-बोधविषयो भवतीत्यर्थः, 40 गमयतीति भवति तदर्थस्यापि क्रियात्वमिति तेषां धातुसंज्ञा अयमाशयः-आख्यातशब्दे प्रकृतिभागेनाभिधीयमाना क्रिया निर्बाधेति।
साध्यत्वेन प्रतिपाद्यत इति तस्यां कारक-संख्यादिसम्बन्धो अथ क्रियाया भेदं व्याचष्टे--क्रिया च द्वेधा-सिद्धः न भवति, 'पाकः' इत्यादौ च साध्यस्वभावाया एव क्रियायाः साध्यत्वमेदात इति--सिद्धं च साध्यं चेति सामान्यतो सिद्धरूपत्वमपि प्रतीयत इति तत्र कर्तत्वादिकारकस्य "पाको नपुंसकेन विगृह्य सिद्ध-साध्ये इति, तयोर्भाव:-सिद्धसा | भवति, पाकं पश्यति, पाकायौदनम" इत्यादिप्रयोगे द्वित्वादि- 45
ध्यत्वमिति, द्वन्द्वान्ते श्रयमाणतया भावार्थप्रत्ययस्य प्रत्येक संख्यायाश्च 'पाको भवन्ति:, पाका भवतः' इत्यादिरीत्या प्रती10 सम्बन्धात् सिद्धत्व-साध्यत्वभेदादित्यर्थः पर्यवस्य ति, तथा | तिर्भवति । आख्यातशब्दे च कारकत्वसंख्यादि न क्रियायां
च क्रिया द्विप्रकारा--सिद्धा साध्या चैत्यर्थः । तौ भदौ । प्रतीयतेऽपि तु कर्जदावेदेति, सिद्ध-साध्यक्रिययोभदः । 'कृद विशदयति--तत्र सिद्धस्वभावोपसंहृतकमा परितः भिहित' इत्युक्त्या सामान्यतः कृत्प्रत्ययोक्तभावार्थस्य सिद्ध. परिच्छिन्ना सत्त्वभावमापन्ना घनादिभिरभिधीयते | त्वप्रतिपादनात् तुमन्ते च सिद्धस्वभावानुपलम्भेनोक्तनियमे 50
इति-तत्र-तयोर्भेदयोमध्ये, सिद्धस्वभावा किया घादिभि- व्यभिचारमाशङ्कयाह-तुमादिमिस्तु सत्त्वस्वभावमना15 रभिधीयत इति सम्बन्धः, तस्याः स्वरूपमाह--उपसं-पन्नेति विशेषः इति-तुमादिभिरित्यत्र आदिपदेन क्त्वा
इतक्रमा-उपसंहतः-विभज्यागहीतः, म:-पूर्वापरीभावो | णम्प्रत्यययोः संग्रहः, तावपि प्राक्कालविशिष्टे धात्वर्थसयस्यास्तादृशी, अतएव परितः परिच्छिन्ना-सर्वतोभावेन | म्बन्ध विहिताविति क्रियावाचिनौ किन्रव व्ययत्वेन लिङ्गसड. सर्वात्मना परिनिष्ठितस्वरूपा, सत्त्वभावं-द्रव्यस्वभावं लिङ्ग- | ख्यानन्वयित्वान्न तदन्तानां सत्त्वरूपत्वमिति यद्यपि तत्र 55 संख्यान्वयित्वरूपम्, आपन्ना-प्राप्ता, सिद्धस्वभावा क्रिया "कृदभिहितो भावो द्रव्यवत प्रकाशते" इति नियमस्य व्यघनादिभिः-घन-अनट-वत्यादिप्रत्ययः, अभिधीयते--वृत्त्या | भिचारस्तथाप्यभिधानस्वाभाव्यमाश्रित्य तत्समाधातव्यमिति बोध्यत इत्यर्थः । तदुक्तं हरिणापि
भावः । सिद्धस्वरूपां क्रियामुक्त्वा साध्यस्वरूपान्तामाह-- "आख्यांतशब्दे भागाभ्यां साध्यसाधनवतिता। साध्यमानावस्था पूर्वापरीभूतावयवा भूत-भविष्यद्वर्तप्रकल्पिता यथा शास्त्रे स धादिष्वपि क्रमः॥ मान-सदसदाद्यनेकावयवरूपाऽऽख्यातपदेरुच्यते इति- 60 • साध्यत्वेन क्रिया तत्र धातुरूपनिबन्धना।
साध्यमानावस्था क्रिया आख्यातपदैरुच्यते इत्यन्वयः, साध25 सिद्धभावस्तु यस्तस्याः स घनादिनिबन्धनः।" इति। माना साधन-सम्बन्धमनुभवन्ती, अवस्था-स्वरूपं यस्याः सा
अयमर्थः-आख्यातशब्दे-पचतीत्यादौ, भागाभ्यां--- क्रिया, आख्यातपदैः-त्याद्यन्तः, उच्यते-प्रतिपाद्यत इत्यर्थः, प्रकृति-प्रत्ययाभ्यां, साध्यसाधनवत्तिता-साध्यरूपता साधन- | साध्यस्वरूपाया लक्षणमाह---पूर्वापरीभूतावयवेति-पूर्वापरीरूपता च, यथा शास्त्रे प्रकल्पिता-बालव्युत्पादनाय शास्त्र- भूता:--क्रमावस्थित :, अवयवा:-अवान्तरविशेषा यस्यास्त
कारैरारोपिता, स-साध्य-साधनरूपतासदृशप्रकृति-प्रत्ययार्थ- थाभूता, पूर्वापरीभावमेव विशदयति-भूत-भविष्यद्-वर्तमा- 65 30 विभागक्रमः, घादिष्वपि-धादिप्रत्ययान्तेषु 'पाक' इत्यादि- नेत्यादिना, भूतो भविष्यन् वर्तमानश्चेति--भूतभविष्यद्वर्त्त
स्थलेष्वपि, विद्यत इति शेषः । तत्र तस्य क्रमस्य सिद्धसाध्यत्त्व- | मानाः, ते च ते सदसन्त:, एवमादयोऽने केवयवा यस्या इति रूपत्वमित्याह--साध्यत्वेनेत्यादि, तत्र-घबादिस्थले, क्रिया द्वन्द्वपूर्वपदककर्मधारयपूर्वपदकबहुव्रीहिः । अयमर्थः-- साध्य. साध्यत्वेन धातुरूपनिबन्धना-धातना साध्यत्वेन क्रिया मानायाः क्रियाया अवयवानां पूर्वापरीभावे भूतत्वं भविष्यत्वं
प्रतीयते इति प्रकृतिभागस्य साध्यावस्थापन्न क्रियाबोधकत्व- | वर्तमानत्वं च मूलम्, पचतीत्यादिप्रयोगकालेऽपि पाकक्रियाया 70 35 मित्यर्थः, तस्या:--क्रियायाः, यस्तु सत्त्वभावः--सिद्धस्व- अधिश्रयणाद्यवश्रयणान्तायाः केचिदवयवाः सम्पन्ना इति ते
रूपद्रव्यस्वभावः, स घजादिनिबन्धनः-घनादिप्रत्ययप्रतिपाय | भतकालिकाः, केचिच्च सम्पत्स्यमाना इति भविष्यत्कालिकाः, इत्यर्थः । तमिममर्थमभियक्तोक्त्या प्रमाणयति-यदाह- केचिच्च विद्यमाना इति तमानकालिकाः, संपूर्णायाश्च
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पाद-३, सूत्र-३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशम्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
१६१
क्रियायाः प्रारब्धापरिसमाप्तत्वेन वर्तमानत्वमक्षतमेव, यत्र तत्राप्यवयवद्वारा कमः, निरवयवेषु [निस्येषु ] तथा च 'अपाक्षीत; पक्ष्यति' इत्यादिभूत-भविष्यतोः प्रयोगस्तत्रापि [ भवतीति ] व्यवहारस्यासत्वात् । 'श्वेतते' इति श्वेततत्तत्काल-वर्तमानं क्रममादायावयवानां भूत-भविष्यत्- गुणोत्पत्तिक्त्तमानाऽभिधीयते, साऽप्यवयविनि संभवति, न वर्तमानत्वमव्याहतमेव । भूत-भविष्यद्वर्तमानेत्यस्यैवोप- | निरवयवे, अवयविनश्चावयवक्रमेणव श्वेतगुणसम्बन्ध इति 5 व्याख्यान-सबसदादिति-भूत-भविष्यन्तावसन्ती, वर्तमानश्च भवति तत्रापि क्रमः। 'संयुज्यते' इति द्रव्यस्य द्रब्यान्तरेण 45
सन्, भूत-भविष्यदवयवानां वर्तमानकालेऽसद्पस्वस्य संयोगो वर्तमान उच्यते, सोऽपि चावयवानां परस्परं साधारण्यादसत्त्वेन-व्यवहारयोग्यता, आदिपदेन च प्रत्यक्ष- सम्बन्धमन्तरेण न सभवतीति तत्राप्यवयवद्वारा क्रमः । पगेक्षत्वयोः सग्रहः, भूत-भविष्यन्तः परोक्षाः, वर्तमानाश्च | 'समवैति' इत्यनेन अवयवाऽवयव विनोाति-व्यक्त्योदय
प्रत्यक्षाः, तथा च भूत-भविष्यद्-वर्तमानानां सदसता गुणयोर्वा सम्बन्धो जायमान उच्यते, इति तत्राप्यववि10 प्रत्यक्ष-परोक्षाणां वाऽवयवानां योगपद्येन स्थितिविरहात । व्यक्ति-द्रव्याणां सावयवानां क्रमेजवावयवादिसम्बन्धः 50
पूर्वापरीभूतावयवत्वं स्पष्टमिति पर्यवसितोऽर्थः । उक्तार्थे सम्भवति। यद्यपि जाति-व्यक्त्योः सम्बन्धो न क्रमिको प्राचीनोक्ति प्रमाणयति-यदाह-पूर्वापरीभूतं भावमाख्या- जातेनिरवयवायाः क्रमेण सम्बन्धासंभवात् तथापि व्यक्तः तमाच" इति-आख्यातं त्याद्यन्त पद, पूर्वापरीभूतं क्रमिकोत्पत्तिवशाजातेरपि क्रमिकः सम्बन्धोऽनुभूयत इवेति
क्रमापन्न, भावं-धात्वर्यम्, आचष्टे-प्रतिपादयतीति तदर्थः। तत्रापि क्रमो नः विसंवादीति सर्वत्र क्रमस्य सत्त्वात् 15 पाकादो क्रियावयवामा पूर्वापरीभावस्य स्पष्टमवगम्यमानत्वेन | पौर्वापर्यमक्षतमिति निष्कर्षः। क्रमस्वीकारे हेतुमाह- 55
तत्र तनिश्चयेऽप्यस्त्यादौ तदप्रतीत्या तत्र कथमुक्तरूपं | साध्यत्वाभिघानेनेति, तथा च 'यथा च पचतीत्यत्र' साध्यमानावस्थालक्षणं संगच्छत इत्याशङ्कायामाह-यथा च इत्यारम्य 'क्रियाव्यपदेश: सिद्धः' इत्यन्तमेकमेव वाक्यम, पचतीत्यत्र पूर्वापरीभावस्तद्वदेव 'जायते, अस्ति, जायते' इत्याद्युक्तप्रयोगेष्वपि साध्यत्वाभिधानेन-साध्य
वपरिणमते, वर्धते, अपक्षीयते, विनश्यति, भवति, मानावस्थाप्रतिपादनेन, क्रमरूपाश्रयणात्-पूर्वापरीभाब20 श्वेतते, संयुज्यते, समवैति' इत्यावावपीति-न केवल स्वीकारात, क्रियाव्यपदेश:-क्रियास्वव्यवहार: सिद्धलक्षणानु-60
पचतीत्यादिवशकलितानेकावयवकक्रियायामेव पूर्वापरीभा-गत इत्यर्थः । स्वोक्तार्थ हरिकारिकया प्रमाणयति-यावत वोऽपि तु जायत इत्यादिसमुग्धावयवकक्रियास्वपीति
सिद्धमसिद्ध वेति-सिद्ध-सत्तासमवायादि, असिद्ध-घट• समुदित'थः । तत्र 'जायते' इत्यनेन प्रादुर्भावस्य वर्तमान
पटादिः, यावत्-सर्व यदि साध्यत्वेन साधनसम्शयत्वेन, लमभिधीयते, प्रादुर्भावश्च क्रमिक एव, अवयविन एव । अभिधीयते-विवक्ष्यते, उच्यते वा तत् क्रिया' इति, प्रतीयते25 प्रादुर्भावसम्बन्धः, अवयवी च क्रमशोऽवयव प्रादुर्भावेणैव
ज्ञायत इत्यन्वयः। तत्र हेनुपाह-आश्रितक्रमरूपत्वादिति- 65 प्रादुर्भवतीति कमोऽवश्यम्भावीति तथाऽस्ति पोपियंम् ।
आश्रितं क्रमरूपं-पूर्वापरीभावो यया सा आश्रितक्रमरूपा, एवमस्तीत्यनेनावयविनो वर्तमानकालसम्बन्धिनी सत्ता
तस्या भाव:-आश्रितक्रमरूपत्व, तस्मात् साध्यत्वेन प्रतीयप्रतिपाद्यते, तत्राप्यवयवानां क्रमेण तत्सम्बन्धिन्याः सत्ताया
मानवस्तुनः कमरूपावश्यं भावादिति भावः। सर्वस्यापि अपि क्रमोऽवश्यंभावी, निरवयवस्यात्मादेरपि सत्ता सूक्ष्म
| साध्यत्वेभाभिधीयमानस्य क्रियास्वकथनेनास्त्याद्यर्थस्यापि 30 ततत्काल सम्बन्धात् क्रमिकरव न जहाति। 'विपरिणमते' क्रियाव सिमिति मलाशयासमाधानं पर्यवसितं 70
इति कस्यचन वस्तुनस्तास्विकोऽन्यथ भावः सम्पद्यमान | वेदितव्यम्। नन्वेतावता प्रबन्धेन अस्त्यर्थस्य सताया आख्यायते, अन्यथाभावश्चावयबिन एवेति तत्राप्यवयवानां अपि साध्यत्वेनाभिधानात क्रियास्वमिति प्रतिपादितं, तच्च क्रमेणवान्यथाभाव इति क्रमः सिद्धः । 'वर्धते' इति न यक्त. सत्ताया नित्यत्वेन साध्यमानताऽसम्भवादिति
पदेनावयवोपचय उच्यते, सोऽपि क्रमिक एव योगपद्येन चेदच्यते-उक्तहरिकारिकारीत्या वस्तुतोऽसाध्यस्यापि साम्य35 सर्वावयव वृद्धधसभवात् । 'अपक्षीयते' इत्यनेन चावयवा- स्वेन विवक्षितस्य साध्यमानत्वमित्यवगमात, किश्च कचिदेकत्र 75 पचय उच्यते, सोऽपि चावयवक्रमेणवेति क्रमिक एव ।।
पाषाणखण्ड-कस्तूरिकयोः समवस्थाने कस्तूरिकामाहाम्यात् 'विनश्यति' इत्यनेनापि सर्वावयवादर्शनमेव कथ्यते, तदपि
पाषाणखण्डमपि कस्तूरिकाऽऽमोदभाजनं भवति, तथैकत्र क्रमिकमेवेति सिद्धस्तत्रापि पूर्वापरीभावः । 'भवति' इत्यात्म- पिण्डे क्रियान्तरस्य साध्यमानाबस्थस्य पूर्वापरीभावापन्नस्य
धारणानुकूला क्रिया वर्तमानाऽभिधीयने, सा च क्रिया | सत्त्वे तत्साहचर्यात तस्सम्बद्धायाः सत्ताया अपि साध्य40 आत्मनः ( स्वरूपस्य ) अवयवस्वीकारात्मिकवेति भवति | मानत्वावगतेः।
80
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हवृत्ति बृहन्याससंवलिते
[ अध्याय-३
तथा च भाष्यकृताऽसत्यादीनां क्रियावाचकत्वे यास्क- क्रियानिवर्तकत्वात्, गत्यादिनिवर्तकशयनादिक्रियावत, वचनमिदमुपस्थापितम् ---"भूवादयो धातवः' [ १.३.१. ]] इत्यन्वयि उदाहरणम्, 'यन्नैवं तवं यथा द्रव्यम्' इतिइति सूत्रे-"पड़ भावविकारा इति स्माह दाायणिः- व्यतिरेक्युदादरणम् । एवं च स्थितेरपि पूर्वोक्तषट्प्रकारेष्व.
"जायतेऽस्ति विपरिणमते बधतेऽपक्षीयते विनश्यति" इति । | स्तितायामन्तर्भावाद् न परिगणनाव्याप्तिः, तदुक्तं निरुक्ते-- 5 एतच यास्कवचनं कंयटेन द्विधा व्याख्यातम्-"भावस्ए | 'अतोऽन्ये भावविकारा एतेषामेव विकारा भवन्ति' इति 45 क्रियायाः षट् प्रकारा इत्यर्थः, तेषु चास्तिः पठित इति "हस्माह" [१.३१] ते यथावचनमभ्यूहितव्याः [१.३२.] तस्यापि क्रियात्वमित्यर्थः । अथवा भावस्य. सत्ताया एते | इति । केचन 'षड् भावविकाराः' इति यास्कवचने भावस्यप्रकाराः सत्तवानेकक्रियात्मिका साधनसम्बन्धादवसीय- सिद्धपदार्थस्य षड् विकाराः' इति व्याचक्षते, इति द्रव्यस्यैवेमे मानसाध्यरूपा जन्मादिरूपतयाऽवभासत" इति, अयमाशयः- विकारा इति न तेन बचनेनास्त्यादीनां क्रियास्वसिद्धिरिति वस्तुतः सत्ताया नित्यत्वेकरूपत्वयोः सत्त्वेऽपि साधनसम्बन्ध- मन्वानं प्रति युक्त्यन्तरमाह भाष्यकृत् तत्रैव "अथवा 50 विवक्षया साध्यरूपतानिश्चयात् जन्मादिशब्दैव्यवहारः, | नान्तरेण क्रियां भूत-भविष्यद्-वर्तमाना: काला व्यज्यन्ते, उत्पत्ति-विनाशयोरपि सूक्ष्मरूपेण वस्तुनो भावात् तद अस्त्यादिभिरपि भूत-भविष्यद्-वर्तमानकाला व्यज्यन्ते" तिरिक्तेषु "अस्ति, विपरिणमते, वधते, अपक्षीयते इत्यादि- इति । अयमाशयः-'घटः' इत्युक्ते कालविशेषावगतिनास्ति,
शब्दप्रतिपाद्यावस्थाविशेषेषु च सत्ताया निर्विवादसिद्धः | क्रियापदप्रयोगे च तत्प्रतीतिर्भवति, तथा च क्रियेव काला15 सर्वत्र सत्तंबानेकक्रियात्मकत्वेन भासत इत्यवसीयते । भिव्यजिकेति सिद्धयन्ति, तदुक्तं हरिणापि-"क्रियाभेदाय 55
वेदान्तिना मते ब्रह्मसत्तैवानकघट-पटादिरूपाइतात्त्विकाऽन्यथा- कालस्तु संख्या सर्वस्य भेदिका" इति । एवं च 'अस्ति, भावेन तत्तद्रूपतया भासते, तथंकैद वस्तुसत्ताऽनकजन्मादि- अभूत, भविष्यति' इत्यादिप्रयोगेषु वर्तमानादिकालप्रतीतेक्रियारूपा तात्त्विकाऽन्यथाभावभाजन भवतीति परमार्थ:, रस्त्यर्थस्य कालाभिव्यञ्जकस्वरूप क्रियात्वं प्रतीयते, तथा
इदं च यास्कवचनं निरुक्त सम्यग् व्याख्यातमिति विशेष- चात्राप्यनुमानप्रयोग एष विवक्षित:-'अस्त्यादयः क्रिया 20 जिज्ञासुभिस्तत एवावगन्तव्यम् ।
भूतादिकालसम्बन्धित्वात् पाकादिवत्' इति । केचित 60 अत्रेद शङ्कयते-यदि क्रियायाः षडेव प्रकारा इति क्रियाओं धातरित्यस्य स्थाने "भावायों धातुः" इत्येव पठन्ति, पूर्वोक्तयास्कवचनेन साध्यते तदा स्थितः' इत्यादी जन्मादि- तत्र सपरिस्पन्दनसाधनसाध्यो धात्वर्थः क्रिया, अपरिस्पन्दनमध्ये कस्यापि प्रकारस्याऽप्रतीतेः क्रियावाचकत्वं न साधनसाध्यो धात्वों भाव इति क्रिया-भावयोर्भेदः,
स्यादिति तदभावे ततः क्तप्रत्ययादिनं स्यात्, इति परि- अस्तीत्यादिक्रियास्थले च अपरिस्पन्दनसाधनसाध्यत्वाद् 25 सख्यायामव्याप्तिदोषः, अव्याप्तिदूषणग्रस्त च परिगणनं | भावार्थावतिर्न तु क्रियात्वप्रतीतिरित्याहुः, तच्च किया- 65
कथमस्त्यशे क्रियावाचकत्वे प्रमाण स्यात्। अत्रोक्त भाष्ये भावयोः शास्त्रव्यवहारेणक्यस्य प्रतिपादनादेव निरस्त[१.३.१.] "एव हि क्रियायाः क्रिया निवत्तिका भवति मिति न तदर्थ भूयः प्रयत्यते । नागेशस्तु-क्रियाशब्दः सपरिद्रव्यं द्रव्यस्य निवत्तकम् । एव हि कश्चित् कश्चित् पृच्छति- स्पन्दसाधनसाध्येऽर्थे रूढः, भावशब्दश्च सपरिस्पन्दान्यतरकिमवस्थो देवदत्तस्य व्याधिरिति, स आह वधत इति, साधनसाध्ये इत्येवं क्रिया-भावयोविशेषमा । तथा च 30 अपर आह-'अपक्षीयते' इति, अपर आह-स्थित इति । पचादीनामस्त्यादीनां च क्रियार्थत्वं सिध्यति । भाष्यकृता 70 स्थित इत्युक्ते वर्धतेश्चापक्षीयतेश्च निवृत्तिभवति" इति, च भावपदार्थो बढ्या व्याख्यातः, तत्र भवतीति भाव इति अयमाशयः-जन्मादि क्रियावद् तनिवृत्तरपि क्रियात्वमनु- कर्तृ-साधनत्वमेव भावशब्दस्य साधितम्, तथा सति मानेन सिध्यति । एव च क्रियायाः क्रियान्तर निवत्तक नाम्नामपि धातुसज्ञा प्राप्नोति तदर्थस्याप्युत्पद्यमानत्वादिति
भवति, उत्तक्रियोत्पत्ती पूर्व क्रियायाः स्वतः एव निवृत्तः, तत्परिहाराय पाठनिर्देशः कृतः। "भूवादयो धातवः" 35 द्रव्यस्य यथा द्रव्यान्तरं निवर्तक भवति, यथा-'अयं घटः' । [पा.सू.१.३.१.] भुव वदन्तीति विग्रहो भूवादय इत्यस्य 75
इत्युक्त पटादीनां स्वत एव निवृत्तिर्भवति । इत्थं च | प्रदर्शितः, तत्र भवतीति भूः कर्तरि किप्भाव इत्यर्थः, त देवदत्तीयव्याधिविषये अवस्थाप्रश्ने यथा 'वर्द्धते, अपक्षीयते' | वदन्तीत्यौणादिक इन , जायमानमर्थ येऽभिदधति ते भूवादय इत्यनयोरवस्थाविशेषप्रतिपादकत्व तथा परत उक्तेन स्थितः' इत्यर्थः । एवं च भूवादिपदस्यावृत्त्या भाववाचिनो भूप्रभृतयो
इति पदेनापि वृद्धधपक्षययोनिवृत्तिरूपा व्याधिस्थितिः प्रतीयते, | वा सहशा धातसज्ञा भवन्तीति नाम्नां निवृत्तिरपि साधिता 40 सा च क्रियैव तत्रानुमानप्रकारश्न-स्थानं क्रिया वृद्धयादि-भवति । स्वमते च क्रियार्थस्य धातुत्वे नाम्नां क्रिया-80
: । एवं
अवन्तीति न
नाम्ना
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पाव-३, सूत्र.४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रवादानुशासने तृतीयोऽध्यायः
१६३
--
वाचकत्वाभावादेव न धातुत्वम्, अस्त्याद्यर्थस्यापि कि.पा- तन्मात्रस्यव धातुत्वप्राप्तरिति भावः। सूत्रस्थम् अप्रत्ययः स्वमुक्तयुक्त्या साधितमेव । पाठनिर्देशस्य फलान्तरमाण- | इति पर्यदासपरं पदं व्याख्याति-नचेत ततः परः प्रत्यको 40 पत्यादिनिवृत्तिश्च शिष्टप्रयोगपरिग्रहेणैव साधितेति । भवति चेत् ?-~-यदि, तत:-प्रादेः, पर:-अव्यवहितोत्तरः, सर्वमनवद्यम् ॥ ३. ३. ३. ।।
तत्प्रकृतिक इति यावत्, प्रत्ययो न भवति, तदा तस्य
धात्ववयवत्व निषिध्यते नान्यथेति भावः, इदं हि आथिन प्रादिरप्रत्ययः ॥३.३.४.॥
कार्यकथनम्, अक्षरानुगुण्येन तु प्रत्ययान्तभिन्नः प्रादिर्धात्वत०प्र०----'प्रादिश्चाधन्तर्गणः, स धातु:-धातोरवयवो | क्यवो न भवतीत्येवार्थ:। उदाहरति-अभ्यमनायतेति-अन- 45 न मवति-तं व्युदस्य ततः पर एव धातुसंज्ञो धेदितव्यः, भिमना अभिमना इयाचरत' इत्यर्थे 'चव्यर्थे भृशादेः स्तोः" अप्रत्ययः-न चेत् ततः परः प्रत्ययो भवति । अभ्यमनायत,
[३. ४. २७. 1 इति क्यङ्, सकारस्य लुक "दीर्घ शिवअभिमिमनायिवते. अभिमनाम्य गतः, प्रासादीयत्, प्रासि
यड़-या क्येषु च" [४. ३. १०८.] इति दीर्घ अभिमना10 सादीयिनि, प्रासादीय्य गतः । प्रादिरिति किम् ? अमहा
येति, तस्य समुदायस्य क्रियावाचकत्वेन पूर्वसूत्रेण धातुत्वे पुत्रीय। अप्रत्यय इति किम् ? 'औत्सुकायत, उत्सुसुका
प्राप्त प्रादिपठितस्य अभेरनेन सूत्रेण धात्ववयवत्वे प्रतिषिद्धे 50 विषते, उत्सुकायित्वा । 'अमिमनायादिः प्रत्ययान्तः
मनायेत्येतावन्मात्रस्य धातुत्वे ह्यस्तन्यां ते अभिशब्दं परिस प्रादिसमुदायः कियार्थ इति तस्मिन् धातुसंझे प्राप्ते
त्यज्य मनायेत्यतः पूर्व मवाटि-अभ्यमनायतेति । एवम्प्रादिस्ततः प्रतिषेधेन बहिलियते, ततश्च तत उत्तर एवं
'अनभिमना अभिमना इवाचरितुमिच्छति' इत्यर्थे क्य उन्तात् 15 धातुरिति तस्याट् द्विवंचनं च भवति, प्रादेशोत्तरेण समास
सति मनायेत्येतावन्मात्रस्य धातूत्वेन तदायकस्वरस्य इति तवाया यबादेशः । असंग्रामयत शूर इति नायं सम्
मशब्दस्यैव सन्नन्तत्वनिबन्धनं द्वित्वादि कार्यमिति-55 प्राविः, किन्तु धात्वनयवः, यथा-विच्छाद्यवयवो विः,
अभिभिमनायिषते इति रूपम्, एवं मनायेत्येतावन्मात्रस्यैव “संग्रामणि युद्ध" इत्यखण्डस्य पुरादौ पाठात् ।। ४॥
धातुत्वेन ततः क्त्वाप्रत्यये अभीत्यनेन सहसमासे "अनमः श०म० न्यासानुसन्धानम्-न प्रादि० धातुरित्यनु
क्त्वो यप्" [ ३. २. १५४. ] इति तवो यबादेशे-अभि20 वर्तते, तब धातुसहचरितस्य प्रादेः क्रियाविशेषकत्वदर्शनात
रिता दे किया विशेषdtiira | मनाय्य गतः इति । प्रासादीदिति-प्रासादे इवाचरत्' तत्समुदायस्यैव विशिष्टक्रियावानकलप्रतीतेरुपसर्गसहितस्यैव |
इत्यर्थे प्रासादशब्दाद आधाराचोपमानादाशचारे'[३.४.८४.] 60 धातुत्वसंभवात् तस्य चानिष्टत्वात् तन्निषेधार्थमिद सूत्रमिति | इति क्यन्, तदन्तस्य क्रियावाचकत्वेन धातुत्वे प्राप्ते 'प्रस्वयमेव वक्ष्यति वृत्तिकृत् । तत्र धातुसज्ञात: पूर्व भाविभाङ्' इति प्रादिसमुदायरूपस्य प्राशब्दस्यानेन धात्ववयवत्वे
घातुसंज्ञकशब्दसहकृतस्य प्रादेपसर्गसंज्ञेति प्रादिशब्देनैव निषिद्धे सदीयेत्येतावन्मात्रस्य धातुत्वात् ततः पूर्वमेवाट । 25 सूत्र व्यवहारः। प्रादिशब्दस्यार्थमाह-प्रादिश्चाद्यन्गंणः | प्रासिलादयिषतोति-'प्रासाद इवाचरितुमिच्छति' इत्यर्थ
इति-----चादयोऽव्ययेषु पठिता: “चादयोऽसत्त्वे" [१.१.३१.} | क्यन्नन्तात् सन्, 'सादीयस' इत्येतावन्मात्रस्य धातुत्वेन तस्यैव 65 इत्यव्ययसंज्ञासूत्रगृहीताः तदन्तर्गण एव प्रादिगण इत्यर्थः। सनन्तत्वप्रयुक्तद्वित्वादि कार्यमिति तदादेः साशब्दस्यैव नेति शब्देन नियेध्योऽनुवृत्तो धातुरिति, तस्य शब्दस्य पूर्व- | द्वित्वादिना प्रासिसादयिषतीति सिद्धम् । प्रासादीय्य गतः
सूत्रे विधेयसमर्पकतया प्राधान्येन तस्य वेह निषेध्यत्वेनो इति-प्रासादीयेति समुदायस्थसादीयेत्यस्यैव धातुत्वेन ततः 30 पस्थितेः । तत्र प्रादेर्धातुत्वस्य प्राप्तिरेव नास्ति तस्य क्तवाप्रत्यये प्राशब्देन सह गतिसमासे "अननः ततो यप्"
क्रियावाचकत्वाभावादिति तस्य स्वावयवपरत्वं व्याख्याना- [३. २. १५४. 1 इति यप् अन्यथा प्राशब्दस्यापि धात्व- 70 दाधीयते तदाह-धातुः-धातोरवयवः इति-प्रादिसहकृत- वयवत्वे समासाभावेन क्तवो यप् न स्यात् । पदकृत्यं समुदायस्यैव धातुसंज्ञाप्राप्तेस्तस्य [ प्रादेः ] धात्ववयवत्वं पृच्छति-प्राविरिति किमिति, अयमाशय:-प्रत्ययान्त
प्राप्तमिति तत् निषिध्यते, प्राप्तो सत्यां निरोधस्यौचित्यात् । भिन्नार्थ केन 'अप्रत्ययः' इति पर्यदासेन प्रत्ययान्ततायोग्यस्यैव 35 तस्य धात्ववयवत्वे प्रतिषिद्धे फलितमाह-तं व्युदस्य ततः | तद्भिन्नस्य धातुत्वं निषिध्येत, तथा सति च द्रव्यनाम्नः
पर एवं धातुसंज्ञो वेदितव्यः इति-तं-प्रादि व्युदस्य प्रत्ययान्तभिन्नस्य धातुत्वं निषिध्येतेति सर्वत्र द्रव्यनामसु 75 धातुकोटेबंहिष्कृत्य, ततः-प्रादेः, पर:-अव्यवहितोत्तरः, धातुत्वं न स्यादिति कथने निषेधययं यतो द्रव्यनाम्नः क्रियावाची शब्द एव धातुसंज्ञो वेदितव्यः, पूर्वसूत्रानुसारं | प्रत्ययान्तभिन्नस्य धातुत्वं प्राप्तमेव नहि क्रियावाचकरवाभावा
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बृहद्वृत्ति-बृहन्न्याससंवलिते
[ अध्याय-३
दिति निषेधसामर्थ्यादद्रव्यवाचकस्य प्रादेरेवाख्यातस्थले धातुरिति ततः पूर्वमेवाड भवति, तदीयकस्वरस्यैव द्विवचनं क्रियावाचकत्वदर्शनात् तत्रव धातुस्व-प्रसक्तनिषेधः स्यादिति । भवति, धातुबहिर्भूतस्य प्रादेश्चोत्तरेण क्तवाप्रत्ययान्तेन नाम्ना प्रादिरिति पदं व्यर्थमिति । प्रत्युदाहरति-अमहापुत्री- समास इति क्तवो यप् च भवतीति । क्वचित् प्रादेरपि यदिति-पत्र 'महांश्चासी पुत्रो महापुत्रस्तमैच्छत्' इत्यर्थ धात्ववयवत्वं दृश्यत इत्याशङ्कामपाकतुंमाह-असंग्रामयत 5 "अमाव्ययात् क्यम् च" [३.४.२४.] इति क्यनि शर इति नाय समिति—सामेति नाम्नो णिः, समिति च 45
प्रत्ययान्तभिन्नस्य सामानाधिकरण्ये द्रव्यवाचकस्य महा-प्रादिरिति 'ग्रामि' इत्यस्यैव धातुत्वमुचितमिति ततः प्रागेशब्दस्यापि धात्ववयवस्व निषिध्येतेति ततः पूर्वमडागमो न वाडागमेन भाव्यमितीह कथं समः प्रागडागम इत्याशङ्का. स्यात्, प्रादिरिति कथने तु महाशब्दस्य प्रादित्वाभावेन म मुरप्रेक्ष्य प्रत्युत्तरयति-नायं समिति, 'संग्रामि' धातो म
भवति निषेधः। अप्रत्यय इति किमिति केवल प्रादेः समिति प्रादिः किन्तु धात्ववयव एव प्रादिसदृशोऽयं समिति 10 प्रत्ययान्तत्वासंभव इत्यप्रत्यय इति पर्यदासो व्यर्थ इति | भागः । तत्र दृष्टान्तमाह-यथा-विच्छाद्यवयवो विरिति- 50
प्रष्टुराशयः । प्रत्युदाहरति-औत्सकायतेत्यादि-'उदु मु' विच्छधातुर्गत्यर्थः स्वमते तुदादी पठ्यते, तदवयवो विशब्दः इत्युभो प्रादी, ताभ्यां सह स्थिताभ्याम् "उदुत्सोरुन्मनसि" प्रादिवत् प्रतिभासमानोऽपि यथा न प्रादिस्तथा चुरादौ [७. १. १८२.] इति कः, उत्सुकशब्द उन्मनसि [उत्कण्ठिते 'संग्रामणि युद्ध" इति पठितस्य धातोरवयवोऽयं सम्, न त
रूढः, स इवाचरत् इत्ययें "क्य" ३. ४ २६.] इति प्रादिस्तत्र पठितस्य धातोरखण्डत्वात्, तथा च न सूत्राव्याप्ति15 क्यङ्, अत्र प्रादेर्धात्ववयवत्वनिषेधे 'काय'मात्रस्य धातुत्वे रिति । परेतु सूत्रमिदं न पठन्ति,ज्ञापकेनैव प्रकृतसूत्रसिद्धमयं 55
तत: प्रागडागमापत्तेः, तच्चानिष्टमिति 'अप्रत्ययः' इति । स्वीकुवंन्ति, तच्च ज्ञापक चुरादौ "संग्रामणि युद्धे" इति पाठे निषेध आवश्यकः, सति च, तस्मिन् प्रत्ययपरस्य प्रादेनिषे- समित्येतत्पूर्वस्य ग्रामशब्दस्य पाठ एव, अन्यथा "ग्राम युद्धे" घाभावे उत्सुकायेत्यस्य धातुत्वे ततः प्रागेवाडागम इति न । इत्युक्तेऽपि अभिधानस्वाभाव्यात् 'इंङ्क' इत्यस्याधिपूर्वस्येव
दोषः। उत्सुसुकायिषते इनि-उत्सुक इवाचरितुमिच्छ-! संग्रामशब्दस्यैव युद्धार्थकत्वेन तत एव णिः स्यादिति सम्20 तीत्यर्थे क्यडन्तस्य धातुस्वे ततः सन्, तदन्तस्य द्वित्वादि | पूर्वकः पाठो ज्ञापक:--"उपसर्गसमानाकारं पूर्वपदं धातु- 60
कार्य धातुस्त्वं च, तत्र द्वित्वप्रसङ्गे "नाम्नो द्वितीयाद् यथेष्टम्" संज्ञाप्रयोजके प्रत्यये चिकीर्षते पृथक्रियते" इति, तस्य च । [४.१.७.] इति द्वितीयकस्वरस्य 'सु' इत्यस्य द्वित्वम्, । पृथक्कारे तद्रहितस्यैव अभिमनायेत्यादी धातुसज्ञा सिध्यति, उदो दकारस्य च "न बदनं संयोगादिः [४. १. ५.] इति । उपसर्गसमानाकारमिति च उपसर्गसंज्ञाशून्यत्वे सति तदाकार
द्वित्वनिषेधः, "धुटस्तृतीयः" [२. १. ७६.] इति दकारस्य । मित्यर्थकम्, तस्य अभिमनायेत्यादिघटकस्य 'अभि' इत्यादे25 तकारस्तु द्वित्वदृष्टयाऽसन्निति दबुध्यव द्वित्वनिषेधः । । रुपसर्गत्वाभावेन उपसगः पृथक्रियत इति कथनासंगतेः, इद 65
उत्सकायित्वेति-अत्र च उत्सुकायेति समुदायस्य॑व धातुत्वात् । च वचन तत्रैव प्रवर्तते यत्रोपसर्गाकारस्य न सन्ध्यादिकृतो समासाभावेन न तवो यप; एवं चैतेषां सिद्धयर्थमप्रत्यय विकार अ
विकार:, अत एव 'आ ऊढा ओढा' स इवाचर्य इत्यर्थे भोढाइति पर्युदासस्यावश्यकत्वमिति भावः । सूत्रप्रयोजनं ।
यित्वेत्येव भवति, तत्र सन्धिनोपसर्गाकारस्य विकृतत्वात्, विशदयति-अभिमनायादिः प्रत्ययान्तः सप्राविसमुदाय:: औत्सकायतेत्यादौ तु नास्य नियमस्य प्रवृत्तिः, तत्र तन्मते 30 क्रियार्थः इत्यादिना, अयमाशयः-क्रियार्थस्य धातुसंज्ञा
उपसर्गाकारकपूर्वपदस्वाभावात्, तत्र हि उत्सुक इत्यखण्ड-70 पूर्वसूत्रेण विहिता किया च सप्रादिना प्रत्ययान्तेन समुदायेन ।
मेव नामेति पूर्वोत्तरपदत्वाभावः, प्रासादीयतेति तन्मते प्रतीयत इति तस्यैव धातुसंज्ञा स्यादिति ततः पूर्वमेवाडागमः
नास्ति किन्तु अप्रासादीयतेत्येव, तत्र 'प्र आ' इत्यनयोः स्थात्, द्वित्वं च तत्समुदायसम्बन्धिन आद्यस्वरस्यैव स्यादिति
सन्धिभवनेनोपसर्गाकारस्य विकृतत्वात् । तथा च स्वमतात् अभिमनायेत्यस्य स्वरादित्येन तस्य द्वितीय आद्यस्वरः |
कश्चित् फल भेदोऽपि । स्यादेतत्-अवधीरयतीत्यादी 'प्रव'-- 35 "स्वरादेद्वितीयः" । ४.१. ४. ] इति वचनाद द्विरुच्येतेति भिशब्दस्यैव द्वित्वं स्यादिति 'अभिमिमनायिषते' इत्यादि
शब्दस्व पृथक्करणमस्ति नवा, आधे बोपदेवेनावशब्दात 75 रूपं स्यात्, प्रादेः पृथगवस्थानाभावात् समासाभावे च
प्रागाडागम वशब्दद्वित्वं च कृत्वा चडि आववधीर इत्यु. 'अभिमनाय्य गतः' इत्यादौ तवो यप न स्यादिति पूर्वोक्ता- दाहृतं, तन्न संगच्छेत; द्वितीये तुनीरूपाणि न सिद्धेयुरिति प्रकृतसूत्रेण प्रादेर्धात्ववयवत्व. "द्विद्भिरेवास्य विलङ्घिता दिशो 40 प्रतिषेवेन धातुस्वरूपाद बहिष्कारे सति प्रादेः पर एव ! यशोभिरेवाब्धिरकारि गोष्पदम् ।
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[पा०३, सू०५}
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१६५
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इतीव धारामवधीयं मण्डली
कथं सङ्कत इति न शनीयम्, दास्वेन दारूपाणां चतुर्णा क्रियाश्रियाऽमण्डि तुरङ्गमः स्थली ।।"
धात्वेन धारूपयोयोरप्येकत्वेन सग्रहात् तयोरितरेतरयोग- 40 . [नषधे प्रथमसर्गे ] द्वन्द्वे द्विवचनवौचित्यात् । अवौ इत्यस्य अनुबन्ध 'ब'इति श्रीहर्षप्रयोगे 'अवधीय' इति पाठो न सगच्छेत, । रहितौ इत्यर्थः, दाधारूपे वकारस्यासंभवेन 'अवी' इत्यस्य 5 अवेत्यस्यापृथक्कारेण समासाभावात् क्तवो यवभावादिति वयात, अनुबन्धरय च संभवेन तदनुबन्धकनिरसाय
चेत् ? प्रत्राहुः-नायं धातुचुरादौ पठितः, अपि तु "बहुल-! 'अवो' इत्यस्य' सार्थक्याच्च । तथा च सूत्रार्थ माह- 'दा मेतन्निदर्शनम्" इति बाहुल कादम्यूहितः ऊहश्च धीरेत्यस्यापि धा' इत्येवंरूपी धातू इति-इत्येवरूपाविति रूपोपलक्षणेन 45 संभवति अवधीरेत्यस्यापि च, प्रयोगद्वयप्रामाण्यात् । यदा कचिदपि तयोस्तद्रूपत्वे संज्ञाप्रवृत्तिरिति सूच्यते, तत्फल
अवधीरेति विशिष्टस्यद चुरादित्वेनोहस्तदा 'अवावधीरत्' । वक्ष्यति स्यवमेव वृत्तिकृत् । रूपग्रहणेनान्येषामपि क्वचित् 10 इति बोपदेवप्रयोग: साधीयान्, यदा च धीरेत्यस्य तथा- तपाणां ग्रहगमित्र.नयत्यात् सूत्रस्य प्रवृत्तिस्थलमनियतं खेनोहस्तदा अवधीति श्रीहर्षप्रयोगः सारिति स्वी- स्यादिति तयोः संकलनामाह-दारूपाश्चत्वारः, धारूपो
दो पठित एवेति तत्रा- | द्वाविति, तथा च षण्णा मेतत्सूत्रप्रवृत्तिस्थलत्वमिति नियत 50 खण्डस्यैव धातुत्वमिति न तत्र समित्यस्य पृथक्करणमित्य | भवति । चतुरो दारूपान् स्वरूपत उदाहरति-बांम्
दोषः । स्वमते च ज्ञापकसिद्धस्यासावंत्रिकत्वसन्देहेन । प्राणिटातेत्यादिना, दांम् धातुर्दानार्थको स्वादिः, तस्यानु. 15 व्याख्यानाद् वर करणम् इतिन्याय नुसार च वचनमे वेद- | बन्धविनिर्गमे दारूपत्वमिति ततस्तृचि दातेत्यत्र दाशब्दस्य
मारब्धमिति युक्तम् । ननु परेषां मते ज्ञापकेनेशार्थस्वीकारे | दासंझाया सत्वां प्र-नि' इत्युपसर्गयोमध्ये नीत्युपसर्गनामधात्वादिषु निर्वाहसम्भवेऽपि, 'तिष्ठति प्रतियुते' इत्या- सम्बन्धिनो नस्य "नेईमा-दा पत-पद०" [२. ३. ७६.] इति 55 दावुपसर्गविशिष्टस्यैव विशिक्रिया बोधकत्वेन धातुत्वमुचित- णत्वे सति प्रणिदातेति रूप भवति। द्वितीयमाह-दङ
मिति प्रातिष्ठतेत्यस्य स्थाने अप्रातिष्ठतेति प्रयोगापत्तिरिति प्रणिदयते इति-दें इति पालनार्थो स्वादिः, तस्य वर्त20 चेत् ? सर्वत्र धातोरेव विशिष्टक्रियावाचकत्वमुपसर्गाणां तु मानायां दयते इति रूपम्, तस्य चाशिति प्रत्यये "आत् . तदर्थद्योतकत्वमिति स्वीकारात् ।। ३. ३ ४ ॥
सन्ध्यक्षरस्य" [ ४. २. १.] इति आत्त्वे दारूपत्व भवतीति ---
दासज्ञायां ने स्य णत्व भवति। तृतीयमाह-दांगक- 60 अवो दा-धौ दा ।। ३. ३. ५. || प्रणिददातोति-अयमपि धातुर्दानार्थको जुहोत्यादिपठितः, त० प्र०-'दा घा' इत्येवरूपो धातू अबानुबन्धी
तस्य वर्तमानायां ददातीति रूपम, अस्यापि घातो रूपत्वेन ... वासंतो भवतः । दारूपाश्चत्वारः, धारूपो द्वो। दांम्
दासंज्ञकत्वमिति तस्मिन् परतो ने कारस्य पूर्वोक्तमूत्रेण 25 प्रणिदाता, देङ्-प्रणिदयते, डुदांगक-प्रणिददाति, दोच
कार इति प्रणिददातीति रूपम् । चतुर्थमाह-दोंचप्रणियति धे-प्रणिधयति. दुधांगक-प्रणिदधाति । दा
प्रणिद्यतीति-दोच धातुश्छेदनार्थो दिवादिः, तस्यापि 65 धारूपोपलक्षितस्य दासंज्ञावचनात दो दें दो' इत्येतेषां ।
अशिति आस्वविधानाद् दारूपत्वमिति दासंज्ञायो नेस्य शिति दा-घारूपामावेऽपि वासंज्ञा सिद्धारदीडो डा णत्वम्, अस्थ दिवादित्वेन वर्तमानायां श्ये तिवि "ओत: . बहिरङ्गत्वान्न मवति, ततश्च 'उपादास्त' इत्यत्र "इश्च स्था
श्ये" [ ४. २. १०३.] इति ओकारस्य लुकि द्यतीति 30 " [४. ३. ४१] इतीत्वं न मबति । अवाविति किम् ? !
रूपम्, प्र-नी युपसर्गयोगे 'प्रणिति' इति । अथ धारूपो वांव-दात बहिः, देव-अवदातं मुखम् । अविति वकारोन
द्वाबुदाहरति-ध-प्रणिधयतीति-ट्धे धातुः पानार्थको 70 पकारः, दातियतिन वकारानुबन्धो, तेन प्रणिवापयति
भ्वादिः, अस्य वर्तमानायां धयतीति रूपम्, तस्य प्रतीत्युपप्रणिधापयतीत्यत्र वासंज्ञायां सत्यां नेर्णत्वं सिद्धम् । दा.
सगयोगे-प्रणिधयतीति रूप भवति, अस्यापि अशिति - प्रदेशा:-' हो द:" [४. १. ३१.] इत्यादयः ॥५॥
आत्त्वभवनाद् धारूपत्वमिति दासंज्ञाया सत्यां नेस्य
णत्वम् । द्वितीयमाह-धांगक-प्रणिधातीति-डुधांगक 35 श.म.न्यासानुसन्धानम्--अवौ । अत्र दारूपा- धातुर्धारणार्थकः तस्य वर्तमानायां जुहोत्यादित्वाद् दधातीति 75
श्चत्वारो घारूपी च द्वौ धातू इत्यग्ने वक्ष्यमाणत्वेन दाश्च धौ रूपम्, अस्य च स्वतो धारूपत्वेन दासंज्ञायां-प्रणिधातीत्यत्र चेति विग्रहे 'दाधाः' इति स्यात्; समाहारद्वन्द्वाश्रयणे च नेनस्य णत्वं भवति । 'दा धा' इत्येवरूपाविति व्याख्यानस्य क्लीवत्वमेकत्वं च स्यादिति दाधी' इति द्विवचनान्तनिर्देशः फलमाह- दा-धारूपोपलक्षितस्येति --उपलक्षणविधया
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[ प्रा० ३, सू० ५ ]
दारूपस्योपादानादित्यर्थः उपलक्षणं हि अविद्यमानत्वेऽपि दयतिशब्देनोच्यते, तौ च वानुबन्धो, न तु पानुबन्धी, तयोव्यावर्त्तकमुच्यते, तथा च क्वचिद् दा धारूपत्वे सति प्रकृतरेव च वर्जनमिष्टमिति वकारवर्जन मेवोचितम् । तस्य फलाप्रयोगे दाधारूपत्वाभावेऽपि तस्य दासंज्ञा भवतीति कथनात् । न्तरमप्याह- तेन प्रणिदापयति प्रणिधापयतीत्यत्र दा'दों दें वें' इत्येतेषां धातूनामोपदेशिकदारूपत्वाभावेऽप्य- सज्ञायामिति, अयमाशयः- अवावित्यस्य स्थाने अपाविति 5 शित्या विधानात् शिति दान्धारूपत्वाभावेऽपि दासंज्ञा : यदि स्यात् तर्हि पकाररहितयोगित्यर्थापत्तौ यत्र दासज्ञकयो- 45 ददाति दधात्योणिचि 'अत्ति-री ब्लो- ह्री०" | ४.२२१. | इति व्यागमस्तत्र प्रकारसहितत्वेऽपि निषेधप्रवृत्त्यभावाद दासंज्ञासत्त्वात् प्रणिदापयति प्रणिधापयतीति प्रयोगयोः "नेंमा दा० " [२.३.७६ ] इति नेर्नस्य गत्वं भवत्येवेति । दासंज्ञायाः क प्रयोजनमिति जिज्ञासायामाह - दाप्रदेशा: 50 "हौ दः" [ ४.१.३१ ] इत्यादयः इति- "हो द: " इत्यादि सूत्रेषु दाघारूपाणां धातूनां संक्षेपेण ग्रहणार्थं दा संज्ञाया उपयोग इति भावः ।
।
१६६
'कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
|
सिद्धा भवति, उपलक्षकस्य दान्धारूपत्वस्याशिति दृष्टत्वा दित्यर्थः । " दोङ्चु क्षये" इति धातुर्दिवादी पठ्यते तस्यापि "दीङः सनि वा" [ ४. २. ६. ] – “यत्रक्ङिति [ ४. २. ७. ] इति सूत्राभ्यामात्त्वविधानादारूपत्वमिति 10 तस्यापि दासंज्ञोचितेति चत्वारो दारूपा इति कथन न्यूनमिति शङ्कायामाह दोङो दारूपस्य बहिरङ्गत्वान्न भवति इति, अयमाशयः -- "आत् संध्यक्षरस्य" [ ४. २.१. इति सूत्रेण विधीयमानमात्त्वमनैमित्तिकमित्यन्तरङ्ग मिति । तदविहितत्त्वानां दाधारूपत्वेन ग्रहणे सत्यपि दोङ आव अत्रेदं विचार्यते- दाधारूपयोर्दासंज्ञाविधायकमिदं सूत्रम्. 15 सनि यपि अक्ङिति च प्रत्यये विश्तिमिति परनिमित्तकत्वेन | तत्र प्रतिपदोक्तयोरेव दाघोर्ग्रहण युक्तमिति यत्र "डुदांग् 55 बहिरङ्गमित्यन्तरङ्गायामपरनिमित्तायां दासंज्ञायां कर्तव्या यामसिद्धं भवतीति न तत्र दारूपत्वग्रह इति दासंज्ञाऽभाव इति । तत्फलमाह - ततश्च उपादास्त इत्यत्रेत्यादिततः- दासज्ञाभावात्, उपपूर्वकस्य दोङोऽद्यतन्यां ते सिचि च 20 "यब क्ङिति” [४.२८.] इत्यात्त्वेऽडागमे चोपादास्तेति रूपं भवति, तत्र “इव स्थाद:" [ ४.३४१.] इतीत्वं न भवति दासंज्ञाभावात्, अन्यथा 'उपादित' इति रूपं स्यात् । पदकृत्य पृच्छति - अवाविति किमिति- वानुवन्ध रहितयोर्दाधोः संज्ञाविधानं कस्मै प्रयोजनायेति तदर्थः, माधारण्येन सर्वेषां 25 दाधारूपाणां धातूनां दासज्ञा विधीयतामिति तदाशयः प्रत्युदाहरति- दांव - दातं बहिरिति दांव्क् धातुर्लवनार्थो दादिः, तस्य वकारानुबन्धत्वात् दासंज्ञाऽभावे ततः क्तं "दत्” [४.४.१०.] इति ददादेशो न भवति, अवावित्यस्याभावे चास्यापि दासंज्ञकत्वात् तदादेशापत्तेरिति दत्तं 30 बहिरिति रूपं स्यात् । प्रत्युदाहरणान्तरमाह- दैव्- अवदात सुखमिति - देव् धातुः शोधनार्थको वानुबन्धो भ्वादि:, तस्य वानुवन्त्वेन दासज्ञा न भवति, ततोsवपूर्वात् के "दुपसर्गाद्दस्ति कित्यधः" [ ४.४.६ . ] इति दासकस्य विधीयमानस्तादेशो न भवति, अवावित्यस्याभावे चा35 स्यापि दासंज्ञायां तादेशो दुर्वारः स्यादिति- अवत्त मुखमिति रूप स्यात् । 'अव' इत्यस्य स्थाने केचित् "अ" इत्याहुः तन्मतं निरस्यति - अविति वकारो न पकारः इति, तेन वकारसहितस्यैव निषेधो न पकारसहितस्य तत्स्थलमाहदातिर्दातिश्च वकारानुबन्धाविति "दांव्क् लवने" 40 इत्यदादिदतिरित्यनेन कथ्यते, "देव् शोधने” इति भ्वादि ।
दाने" "दुघांग्क् धारणे" इत्यनयोः प्रयोगस्तत्र दारूपस्य प्रतिपदोक्तत्वेन दासज्ञाऽस्तु, "दंङ् दोच् ट्धे" इत्येतेषां दाधारूपत्व तु आत्त्वसंविधानेनेति तत्र दारूपस्य लाक्षणिकत्वमिति लक्षण-प्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणं, न तु लाक्षणिकस्य इति न्यायेन लाक्षणिकयोर्दा धोरिह ग्रहणं 60 कथं व्याख्यातमिति चेत् ? अत्रोच्यते- गामा-दाग्रहणेव्वविशेषः * इति न्यायेन दाग्रहणे लाक्षणिकत्व प्रतिपदोक्तस्वरूपविशेषानाश्रयणात् । ननु सर्वेषां दारूपाणा धारूपाणां चदासंविधाने इह कथं न भवति - प्रनिदारयति प्रतिधारयतीति, अत्र दृधृभ्यां णिगि वृद्धावारि- दारयति धार- 65 यतीति रूपे, तयोः प्र-नीत्युपसगंयोगे दारूपसत्त्वाद् दासंज्ञायां ननंस्य णत्वं कुतो नेति चेन्न - अर्थवद्ग्रहणात् अर्थवेदग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणम् इति न्यायेनेह व तो द-घोग्रंहणमिति प्रनिदारयतीत्यादी दा-धोरर्थवत्त्वाभावेन तयोर्दासज्ञा न स्यादिति णत्वं न भवति, तत्र हि दार्धागेरेवार्थवत्त्वं 70 न तु दाधोः । न चैवं प्रणिदापयति प्रणिधापयतीत्यादावपि दासंज्ञा न स्यात् तत्रापि निगि प्वागमे तद्विशिष्टस्यैवार्थवत्वात् किञ्च यत्क्रियायुक्ताः प्रादयस्त प्रत्येवोपसर्गस्वमि त्यस्वार्थस्य “धातोः पूजार्थस्वति०" [३.१.१.] इति सूत्रसिद्धान्ततत्वेन यथा प्रनिदारयतीत्यादौ प्रनीत्यस्य न दा 15 संज्ञक 'दा- 'शब्द प्रत्युपसर्गत्वमपि तु दारिशब्द प्रतीति तथेहापि प्रनीत्यस्य न दाशब्द प्रत्युपसर्गत्वमपि तु दापिशब्द प्रतीति कथ णत्वमिति वाच्यम्, अयंवत आगमस्य तद्गुणीभूतत्वेन तद्ग्रहणेनैव ग्रहणात् यदागमास्तद्गुणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते इति न्यायात्, अयमाशय:- लब्धात्मकस्य 80
।
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[प०३, सू०६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशम्दानुशाप्तने तृतीयोऽध्यायः ।
१६७
भावस्य निमित्तवशापचयापचयो व्यपदेशहानि न कुरुतः, तक्ष सर्वत्र क्रियारूपमुपाधिमादायैव काले लक्षणीयम्, तथा. यथा देवदत्तस्याङ्गाधिक्याङ्गच्छेदी, इहाप्यन्तरङ्गत्वात् दा-हि- कालोऽखण्डपदार्थः, सूर्यपरिस्पन्दाद्यपाधिमाश्रित्य क्षण- 40 धोसंज्ञायां कृतायां पश्चादुत्पन्नः वागमो दाव्यय देशं न मुहूर्तादिव्यवहारो यथा तथा निरूपाधिकाखण्डकालस्य वर्तविहन्ति, नाप्यर्थवत्वमित्यदोषः । प्रनिदारयतीत्यादौ तु | मानत्व-भविष्यत्वादिना प्रत्येतुमशक्यत्वादुपाधिभूतफूत्कारा5 दाशब्दमुद्दिश्य रेफस्य न विहितत्वमपि तु ऋकारमुद्दिश्यारो | दिनानावयवकपाकक्रियागतवर्तमानत्वादिधर्माः काले उपधेये . विधानमिति नास्ति दाशब्दस्यार्थत्वमिति दासंज्ञा न भवति, उपचयन्ते, उपाधिधर्मा उपधेये भासन्ते इति प्रसिद्धयुक्तः, उपसर्गत्वमपि प्रणिदापयतीत्यादी दाशब्दं प्रति संभवति, | तथाहि- जलकम्पे प्रतिबिम्बोपहितसूर्यमण्डलकम्पनं भासते, 45 प्रनिदारयतीत्यादौ तु दाशब्द प्रति स भवति तस्यानर्थक स्वात, । इत्युपाधिधर्माणामुपधेये मान प्रत्यक्षसिद्धम् । प्रारब्धापरि
यदा तु प्रणिदापयतीत्यादावपि न दाशब्द प्रत्युपसर्गत्वमपि समाप्तत्वं च विनष्टावयवप्रागभावाप्रतियोगित्वसमानाधि10 तु दापीति ण्यन्तसमुदायं प्रति प्रनिदारयतीत्यादावपि दारीति करणध्वंसाप्रतियोग्यवयवकत्वे सति क्रियापदप्रयोगाधिकरण
ण्यन्तसमूदायं प्रतीत्युच्यते तदा प्रणिदापयतीत्यादावपि दासंज्ञा | त्वम्, तेन भाविभूतक्रिययोनं लक्षणातिव्याप्तिः, भाविक्रियानोचितेति प्रनिदापयतीत्येवरूपमुचितमिति कैयटाशयः ।, यां क्रियावयवप्रागभावप्रतियोगित्वाद, भूतक्रियायां च अव- 50 तथा च प्रणिददतं प्रणिदधतं वा प्रयोजयतीत्यर्थविवक्षायां । यवानां ध्वंसप्रतियोगित्वात्, वर्तमानक्रियायां च विनष्टाव
दासंज्ञा स्यात्, दददं दधतं वा प्रनिप्रयोजयतीत्यर्थविवक्षायां यवप्रागभावाप्रतियोगित्वसमानाधिकरणत्वमपि विद्यते ध्वं15 च न स्यादिति तत्त्वम् ।। ३.३.५. ।।
साप्रतियोग्यवयवकत्वमपि विद्यत एव, तदवयवानां फूत्का
रादीनामनुवर्तनादिति लक्षणसमन्वयः सिद्धः। न च सत्तावर्तमाना-तिक् तस अन्ति, सिव्, थस्, थ, मित्, | क्रियाया निरवयवकत्वाद् 'आत्माऽस्ति, पर्वताः सन्ति' 55
इत्यादी वर्तमानायाः प्रयोगो न स्यात्, अखण्डवर्तमानत्ववहे, महे ॥ ३. ३. ६. 1॥
विरहादिति वाच्यम्, तत्तत्कालिकराजादीनां क्रियायाः सात०प्र०-इमानि वचनानि वर्तमानासंझानि भवन्ति ।
वयवत्वेन प्रागभावप्रतियोगित्वसमानाधिकरणध्वस प्रतियोगि20 विकरणं "शिदयित्" [४.३.२०.] इत्यत्र विशेषणार्थम्, !
त्वेनानित्यत्वमिति सामानाधिकरण्येनोक्तराजादिक्रियाविएवमन्यत्रापि वित्करणस्य प्रयोजनं द्रष्टध्यम् । वर्तमाना
शिष्ठसत्तारूपेऽर्थे विशेषणीभूतानित्यराजादिक्रियानिहायुत्प- 60 प्रदेशा:-"स्मे च वर्तमाना" [५.२.१६.] इत्येवमादयः ॥६॥
तिबंसादारोप्य बर्तमानत्वादेरुपपादनीयत्वात् । तथा चाहु
----.. रभियुक्ताः- इह भूत-भविष्यद्-वर्तमानानां राज्ञां क्रियास्तिश० म० न्यासानुसन्धानम्-वर्तमाना०1 धातु- ठतेरधिकरणमिति । हरिरप्याहसंझामुक्त्वा धातोविधीयमानानां प्रत्ययानां संज्ञा वक्तव्या, : "परतो भिद्यते सर्वमात्मा तु न विकम्पते । 25 ते चाख्यात-कृभेदेन द्विधा, तत्र कृतां बहुत्वेनाग्रे वक्ष्यमाण-: पर्वतादिस्थितिस्तस्मान् पररूपेण भिद्यते ॥" 65
त्वात्, अल्पत्वेन क्रियान्वयिकालाद्यभिधायित्वेन चाभ्यहि- इति, तदर्थस्तु- सर्व- पच्यादिधात्वर्थसामान्यं, परत:तत्वात् पूर्वमारुयातप्रत्ययानां संज्ञा एवोच्यन्ते, तत्र तावदिह , स्वापेक्षयाऽन्येन वर्तमानत्वादिना, भिद्यते- व्यावत्यंते, प्रत्ययमात्रस्वरूपपरिचयायं तत्संज्ञाप्रतिपादनं, तद्विधान तु | आत्मा-- आत्मसत्ता तु, न विकम्पते-निरवयवत्वेन सना
पञ्चमाध्याये तत्तत्सूत्रः प्रतिपादयिष्यते । तत्र संज्ञिनां तिवा- | तनत्वादुक्तविशेषणसम्बन्धाभावेन भेदावगतिविषयो न भवती30 दीनां बहुत्वेऽपि संज्ञाया एकत्व तिवाद्यष्टादशगतं वर्तमाना- | त्यर्थः । आत्मास्तीति, पर्वताः सन्तीति च कथं प्रयोगस्तत्राह- 70
त्वमेकरूपमेवेति बोधनाय, वचनभेदेऽपि संज्ञा-संज्ञिनिर्देशः पर्वतादिस्थिति:- पर्वतात्मादिपदार्थस्थितिः, तस्मात्-नित्यशास्त्रकृतामभिमत एवं अनवर्णा: नामी" [१. १. ६.] परमाण्वादिसमवेतविशेषपदार्थातिरिक्तपदार्थस्य स्वतो व्या
इतिवत् । 'वर्तमाना' इति स्त्रीलिङ्गनिर्देशस्तु विभक्ति- वृत्तत्वाभावात्, पररूपेण- परस्य राजादिक्रियारूपार्थस्य, . शब्दापेक्षया, एते तिवादयो वर्तमाना विभक्तिरित्यर्थः, । रूपेण धर्मेण वर्तमानत्वादिना, भिद्यते-भेदप्रतीतिविषयो 35 वर्तमानेति चान्वर्था संज्ञा वर्तमानकालक्रियाबोधकत्वात्, | भवतीति । एवं 'नम आसीत्' 'तुच्छेनाभ्यपिहितं यदासीत् 75
वर्तमान: कालो बोध्योऽस्या इत्यर्थे मत्वर्थीयाचप्रत्ययेन वर्त- "अहमेक: प्रथममास' वामि च भविष्यामि च" इत्यादि. मानाशब्दस्य निष्पत्तेः। तत्र वर्तमानत्वं तावत् किमित्या-तयोऽध्यात्मनि तत्तत्कालसम्बन्धबोधिका उक्तरीत्यवोपकाक्षायामाहुः- प्रारब्धापरिसमाप्तत्वं वर्तमानत्वमिति, | पद्यन्ते ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा०३, सू०६ }
पातञ्जलभाष्येऽप्ययमों विशदय्य विचारितः, तथाहि- बत् 'स्थास्यन्ति पर्वताः, तस्युः पर्वता:' इत्यादिप्रयोगाणा[पा० सू० ३. २. १२३.] 'इहाधीमहे, इह वसामः, इह | मपि दर्शनात् कालविभागस्य प्रतीतिरस्त्येव, सा च न पुष्यमित्रं याजयामः' इत्यादिप्रयोगाः क्रियन्ते, अध्ययनं केवलं तादृशप्रयोगनिमित्तिका अपि तू भूत-भविष्यद-वर्तमा. बासो याजनं च प्रवृत्तमेव तिष्ठति तन्मध्ये च भोजनादि-मानां राज्ञां या: क्रियास्तास्तिष्ठतेरधिकरणमिति स्वीकाराव। 5 क्रियापि चलति, भोजनादिसमये चाध्ययादीनां वर्तमानत्वा- | इह तावत् तिष्ठन्ति पर्वता इति यदुच्यते तस्यायमाशय:- 45
भावादग्रे वर्तमानत्वमादाय तथाप्रयोगः क्रियते तन्न युक्तम्। संप्रति ये राजानः सन्ति तेषां याः क्रियास्ताम् वर्तमानास किञ्च तिष्ठन्ति पर्वताः, स्वन्ति नद्य.' इति वर्तमानाप्रयोगोन | तस्थितिवर्तमानेति, स्थास्यन्ति पर्वता इत्यस्यायमर्थ:-- इत युज्यते यतो नित्यप्रवृत्तेषु कालविभागो नास्ति, भूत-भविष्यत्- उत्तर ये राजानो भविष्यन्ति तेषां याः क्रियास्तासु भविष्य
प्रतिद्वन्द्वो वर्तमानः कालः न चात्र भूत-भविष्यन्तो काली तीषु पर्वतानां स्थितिर्भविष्यन्ती, तस्थुः पर्वता इति यदुच्यते 10 स्तः, नित्यप्रवृत्तस्य भूत-भविष्यत्वाभावात, तदभावे च वर्त- तस्यायमर्थः- इतः पूर्व ये राजानो बभूवुस्तेषां या: किया-50
मानत्वाभावोऽपि क्रियारूपत्वाभावश्चेत्याशङ्कयोक्तम्-"न्या- स्तास्वतिक्रान्तासु पर्वतादिस्थितिस्तत्कालीनेति । 'अपर य्या स्वारम्भानपवर्गात्" इति। न्याय्या त्वेषा वर्तमान-आहुः' इत्यादिना कालद्व यस्मैव मत्ता न वर्तमान: काल इति कालता । कुतः, आरम्भानपवर्गात् । आरम्भोऽत्रानपवृक्तः । मतान्तरं तत्र भाष्ये इत्थमुपस्थापितम्- नास्ति वर्तमान:
एष एव च नाम न्याय्यो वर्तमानकालो यत्रारम्भोऽनपवृक्तः" । काल: 1 अपि चात्र श्लोकानुदाहरन्ति15 इति ।
"न वर्तते चक्रमिषुन पात्यते,
55 अयमाशय:- अध्ययनादि यदा प्रवृत्तं न चोपरतं तदा
__ न स्यन्दन्ते सरितः सागराय । तस्य भोजनादिक्रिया नान्तरीयकत्वेन व्यवधायिका न भवती
कूटस्थोऽयं लोको न विचेष्टितास्ति, स्यारम्भस्यापरिसमाप्तत्वेन वर्तम नत्वं भवान् मन्यते, तत्रापि
यो ह्येवं पश्यति सोऽप्यनन्धः ॥१॥ मध्ये क्रियान्तरं भवति, भुजानो ह्यवश्यं मध्ये हसति वा
मीमांसको मन्यमानो युवा मेधाविसमतः । 20 जल्पति वा पानीयं वा पिबति, तथापि तत्र यदि वर्तमान
काक स्नेहानुपृच्छति कि ते पतितलक्षणम् ॥२॥ 60 कालता युक्तति मन्येत, तहि प्रकृतेऽपि सा तुल्या। तदुक्तं
अनागते न पतसि अतिक्रान्ते च काक ! । हरिणा
यदि सम्प्रति पतसि सर्वो लोक: पतत्ययम् ॥३॥ "ब्यवधानमियोपैति निवृत्त इव दृश्यते । क्रियासमूहो भुज्यादिरम्तरालप्रवृत्तिभिः ॥
हिमवानपि गच्छति । न च विच्छिन्न रूपोऽपि सोऽविरामान्निवर्तते ।
अनागतमतिकान्त वर्तमानमिति त्रयम् । सर्वेव हि कियाऽन्येन संकीर्णेवोपलक्ष्यते ॥
सर्वत्र च मतिर्नास्ति गच्छतीति किमुच्यते ॥४॥ 65 तदन्तरालहष्टा वा सर्वेोवयव किया।
क्रियाप्रवत्तौ यो हेतुस्तदथं यद् विचेष्टितम् । सादृश्यात सति भेदे तु तदङ्गत्वेन गृह्यते ॥” इति ।
तत् समीक्ष्य प्रयुञ्जोत गच्छतीत्यविचारयन् ॥५॥ इति । अयमाशयः- एकैका क्रियाऽवान्तरक्रियासमूहरूपा, यथैकैव अयमाशय:- निष्पन्नस्यार्थस्य भूतत्वादनिष्पन्नस्य च 30 पाककिया फूत्काराघःसन्तापनत्वादिभिरवान्तरवयवैर्युक्ता भविष्यत्वान्निष्पन्नानिष्पन्नव्यतिरेकेणान्यस्थाभावाद वर्तमान
भवति । तथा च भुज्यादिक्रियाऽपि क्रियासमूहरूपा, अन्तरा- कालाभावः, तत्र दृष्टान्तरूपेणाह-- न वर्तते चक्रमित्यादि । 70 लप्रवृत्तिभि:- हसितजल्पितपीतादिभिः. व्यवधानमुपेत इव-- 1 चक्र परिवर्तते इति श्योगो न युक्तः, परिवर्तनक्रियाया विच्छिन्न इव दृश्यमानोऽपि, अविरामात्, न निवर्तते, यतः । वर्तमानाया अभावात्, पूर्वमपि तस्य परिवृत्तत्वात, एवम्
सर्वेव क्रिया, अन्येन-क्रियान्तरेण, सकीर्णव- मिश्रितेवो- 'इषुः पात्यते, सरितः सागराय स्यन्दन्ते' इत्यादयोऽपि 35 पलक्ष्यते, अथवा प्रवर्तमानक्रियामध्यदृष्टा क्रिया सदृशा चेत प्रयोगा न युक्ताः, यत इषुपातस्य भूतत्व
तदवयवत्वेन गृह्यते, भिन्ना चेत् तदङ्गत्वेन गृह्यत इति, नदीनां स्यन्दनस्यापि पूर्वप्रवृत्तस्वात् । अय सर्वो लोक: कूटस्थ: 75 तथा चाध्ययनादिमध्यप्रवृत्ता भुज्यादिक्रिया तदङ्गमेवेति सिद्धस्वरूपो न विचेष्टितास्ति- वर्तमानत्वविशिष्टव्यापारस्वाङ्गमव्यवधायकमिति न्यायादेकक्रियात्वाव्याघात:, यदुक्तं- कर्ता नास्ति, एवं यो जानाति सोऽप्यनन्धो दिव्यदृष्टिः, कि
"तिष्ठन्ति पर्वताः' इत्यादौ कालाविभागाद वर्तमानता न | पुनर्यस्तदनुकूलमनुतिष्ठति स ह्यविकृतमात्मतत्त्व भावयन् 40 युकेति, तत्रापि कालविभागोऽस्त्येव, तिष्ठन्ति पर्वता:' इति- । प्रत्यक्षीकरोति । तथा चोक्तं गीतासु
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[पा० ३, सू०६ } ..श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
"ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। . अस्तीति तां वेदयन्ते विभाबा: । ... । - तेषामादित्यवज्ञान प्रकाशयति. तत् परम् ॥” इति । सूक्ष्मो हि भाकोऽनुमितेन गम्यः ॥६॥” इति । . . . '.
मीमांसक:- विचारकः, · मन्यमानः- पूर्वोक्त कूटस्थत्व ।। अयमाशय:- वर्तमानः कालोऽस्त्येव, किन्तु सूर्यो गच्छ. भावयन्, युवा-- प्रज्ञापटुः, मेधाबी चासो समतो लोकपूजितः, | बपि दर्शकरगतिमानेव दृश्यते, तद्गते रतिसूक्ष्मत्वाद् दुरात् ...। 5 का स्नेहानुपच्छति- स्नेहेनानुपृच्छत्तीत्यर्थः [आर्षप्रयोग:], प्रत्यक्षीकत मशक्यत्वात्, किन्तु छायादिपरिवर्तनदर्शनेन 45
ते पतितस्य पातस्य लक्षणं स्वरूप, किमिति, नास्त्येव पतन- सानुऽमीयत एव । एवं वर्तमानः क्षणोऽपि सूक्ष्मत्वान्न लक्ष्यते, क्रियेत्यर्थः, तदेव स्पषयति- अनागते पाते पतसीति न । किन्तु देशान्लरप्राप्त्यादिनाउनुमीयते इति । इममर्थ सदृष्टान्तकथयितुं शक्यते, तस्यानागतत्वेन भविष्यत्वात् । माह-बिसस्य वाला इध दह्यमामा इति । अयमर्थ:-बिसे
हे काक! अतिकान्ते पातेऽपि पतसीति. न प्रयोगस्तस्याति- दह्यमाने तदीयतन्तवोऽपि दह्यन्त एव. किन्तु सूक्ष्मत्वाद् .. ' 10 क्रान्तत्वेन भूतत्वात्, क्रियाया असत्त्वात् । तथापि यदि दह्यमानत्वेन नावलोक्यन्ते, किन्त्वनुमीयन्ते- बिसान्तर्गत्वाद् 50
सम्प्रति पतसीति कथ्यते, तदाऽयं सर्वो लोकः पतति, बिसदाहे तेऽपि दह्यन्त एवेति । एवं कारकसन्निपाते हिमवानपि गच्छति, यतः क्रियावर्तमानत्वाभावेऽपि यदि ! एकेकक्षणग्रहण क्रियालक्षणा विकृतिः प्रत्यक्षेण न त्वयि पतसीति व्यवहारस्तदा सर्वत्रासो व्यवहार: शक्यते । लक्ष्यते, किन्तु त्रिभावा:- त्रिषु कालेषु. भावो भावना
कर्तु क्रियाभावस्य तुल्यत्वात् । गच्छतीति प्रयोगाभावं। [प्रत्यक्षीकृतिः ] येषां ते योगिनः, तां- विकृतिमस्तीति15 पर्वतादिषु अन्येषु वा सोपपत्तिकमाह- अनागतमतिकारत- शब्देन वेदयन्तेऽन्यान् प्रतिबोधयन्ति, योगिनो हि शालोक्त-55
मित्यनेन, अनागतमिति भविष्यकालमाह- अतिक्रान्तमिति योगानुष्ठानपरिपूत बुद्धयो योगजप्रत्यक्षेण , श्रीनयि कालान् भूतं वर्तमानं च प्रसिद्धमेव । इति शब्दत्र यस्य काविशेषण- विदन्ति, त एव वर्तमानकालमस्तीति रूपेण व्यपदिशन्ति, तया प्रयोगो दृश्यते, किन्तु क्षण एक एवेति तत्रानागतादि-: अस्माभिस्तु सोऽनमेय एव सूक्ष्मत्वात्, अनेकक्षणसमूहात्मकस्य
व्यवहारो न संभवति, एकस्मिन क्षणे कथं गमनाधिकिया- | धातुवाध्यस्य क्रियारूपस्यार्थस्य युगपदसन्निधानात् सोऽनुमान20 सम्बन्धः संभवतीति क्षणभङ्गवादिमतेनेदम् । तत्परिहार- मात्रगम्य इत्यर्थः। अथ दण्ड-पल-मुहर्ताद्यात्मा, खण्डकाल एव 60
माह- क्रियाप्रवृत्ती यो हेतुरिति, क्रियाया प्रवृत्ती यो हेतु. । वर्तमानस्वादिना वाच्यः, तद्गतं वर्तमानत्व च तत्तच्छन्दयंत् प्रयोजन, यथा गमनक्रियाया देशान्तर प्राप्तिः, तदर्थ प्रयोगाधिकरणत्वमेव, तदादिशब्दशब्दशक्यतावच्छेदकत्वदेशान्तरप्राप्तिरूपफलार्थ मिति भावः, यद् विचेष्टित व्यापार- निर्णयरीत्या तत्तच्छब्दाधिकरणत्वादीनामनुगमाच न शक्त्या
विशेषः, त व्यापारविशेष समीक्ष्य-प्रत्यक्षणोपलभ्य, अविनन्त्यम् । यदि वा वर्तमानत्वेनैव वर्तमानकालबोधोऽनुभव. 25 चारयन्- निर्विकल्प्य यथा स्यात् तथा गच्छतीति वर्तमान- ! मिद्ध उपेयते, तदा तत्तच्छब्दाधिकरणकालवृत्तिकालत्वन्या- 65.
कालिकगमन बोधक पद प्रयुञ्जीतेत्यन्वयः । अयमाशय:- प्यधर्मत्वेनोपलक्षिततत्तत्कालत्वावच्छिन्ने एव तिवादीनां क्षणभङ्गवादिनकस्य क्षणस्य क्रिया सम्बन्धाभावाद् गच्छ- शक्तिः, क्रियारम्भात् प्राक्, क्रियासमाप्त्युत्तरं च 'अधीते, तीत्यादिप्रयोगानुपपत्तिरुक्ता, सान संघटते, 'सोऽयं घट:' । पचति' इत्यादिप्रयोगापत्तिस्तु स्ववृत्तिप्रागभावाप्रतियोगिक
इत्यादिप्रत्यभिज्ञानात् क्षणभङ्गवादे निरस्ते, देवदत्तस्य त्व-स्ववृत्तिध्वसाऽप्रतियोगिक्रियाऽनुयोगिक त्वविशिष्टाधेयता30 देशान्तरप्राप्ति निर्हेतुका न सम्भवतीति गमनक्रियव देशान्तर- | संसर्गेणान्वयनियमोपगमाद वारणीया। 'खण्डक्रिया धात्वर्थ: 70
प्राप्त निमित्तम् तदालम्बनश्च गच्छतीति प्रयोगो निर्बाध एव । इति पक्षे तु शुद्धाधेयतासंसर्गेणवान्वयेऽन्यात्मास्तीत्यादिषु न देवदत्तीयदेशान्तरप्राप्त्यं व क्रियायाः सत्त्वमप्यवगम्यते ।। दोषः, क्रियामात्रार्थस्य [सामान्यत: कालादिविशेषणरहित
वर्तमानत्वाभावे च भूत-भविष्यतोरप्यभावप्रसङ्गः, वर्तमान क्रियार्थस्येत्यर्थः] धातोर्वर्तमानत्वादिविशिष्टक्रियायां लक्षणां : एव भूतत्व भविष्यत्वं च अतिपद्यते, तत्रानेकक्षणसमूहात्मक ग्राहयन्ति तिवादय इत्येके, अन्वय-व्यतिरेकाम्यां च वर्त35 क्रियासातत्यं बुद्धया सङ्कुलप्य गच्छतीत्यादि प्रयुज्यत इति ।। मानत्वादिना कालस्तिवादिवाच्यः, सचान्वय-व्यतिरेकान- 75
मतान्तरेण वर्तमानकालस्य सत्तामाह- [ भाष्ये ] गम:- पचतीत्यादौ वर्तमानताप्रतीत्या पक्ष्यतीत्यादी अपर आह-- अस्ति वर्तमानः काल इति । आदित्यगति- | तदप्रतीत्या च सुगमः, अन्यथा प्रत्ययानां वाचकत्वविलोपबन्नोपलभ्यत इति । अपि चात्र श्लोकमुदाहरन्ति....." प्रसङ्ग इति परे । इतोऽधिकं कालविशेषवाच्यतादिविचारो"विसस्य बाला इव दह्यमाना
ऽन्यत्र प्रपश्चितो महावैयाकरणभूषणादाविति तत एवा40 नलक्ष्यते विकृतिः सन्निपाते।
नुरुन्धातव्यः ।
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कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
प्रकृतमनुसराम :- तिव्-सिव्- मिक्सु वकारस्य प्रयोगेऽप्रतीतेरप्रयोगिनश्चेत्वात् किमिह तदनुबन्धकरणफलमिति जिज्ञासायामाह - विल्करणं "शिदवित्" [४. ३. २००] इत्यत्र विशेषणार्थमिति अनेन हि सूत्रेण विजितस्य 5 धातोर्विधीयमानस्य प्रत्ययस्य द्विद्भावो विधीयते, विद्वर्जनं च 'विद्' ज्ञानं विनानुपपन्नम् विस्वं च वकारेत्संज्ञकत्वं, तच्च वित्करणं विनानुपपन्नमिति तिवादिप्रत्ययानां ङित्त्वा भावाय तत्र विश्वविशेषणमुपयुज्यते, तद्विशेषणार्थमेवेह तिवादीनां विकरणमित्यर्थः । न केवलमेतदेव वित्करण10 प्रयोजनमपि त्वन्यदपीत्याह- एवमन्यत्रापि वित्करणस्य प्रयोजनं द्रष्टव्यमिति एवं विशेषणत्वरूपं वित्करणस्य प्रयोजनं फलमन्यत्रापि "शिदवित्" ४ ३. २०.] इत्यतोऽन्यस्मिन्नपि सूत्रे द्रष्टव्यं - स्वयमूहनीयमित्यर्थः तथा च "उत औविति व्यञ्जनेऽ:" [४. ३. ५७ ] इत्यादावपि 15 वित्करणफलं बोध्यमिति भावः तेनापि हि अद्वयुतस्यो
दन्तस्य धातोर्व्यञ्जनादी वितिप्रत्यये औत्वं विधीयते तत्रापि वित्प्रत्ययज्ञानं वित्करणफलमिति यावत् । इदमपि संज्ञासूत्र, संज्ञासूत्राणां च विधिसूत्रोपकारकत्वमेव प्रयोजनमिति कास्योपयोग इत्याकाङ्क्षायामाह - वर्तमानाप्रदेशाः "हमे 20 च वर्तमाना" [५. २. १६. ] इत्येवमादयः इति- “स्मे
च वर्त्तमाना" [ ५. २. १६] "ननो पृष्टोक्ती सद्वत्" [ ५. २. १७. ] “न-न्वोर्वा” [ ५.२.१८ ] सति" | [५. २. १९ ] इति चतुःसूत्र्या वर्त्तमानायास्तत्तदर्थं तत्तच्छब्दयोगे च विधानं भवति, तत्रैव वर्त्तमानासंज्ञायाः 25 प्रकृतसूत्रविहिताया उपयोगः, अन्यथा तत्र तिवादीनामष्टादशानामपि ग्रहणमावश्यकं स्यात्, 'लध्वर्थं हि संज्ञाकरणम्' इत्यभियुक्तो केलंघुनोपायेन शब्दशास्त्रप्रक्रिया निर्वाहार्थमेव संज्ञाविधानस्य प्रतीतत्वात् ॥ ३.३ ६. ॥
35
सप्तमी - यात्, याताम्, युस्, यास्, यातम् यात, 30 याम्, याव यामः ईत, ईयाताम् ईरन् ईथास्. ईयाथाम् ईध्वम् ई, ईवहि, ईमहि ॥३.३.७ ॥ त० प्र०- इमानि वचनानि सप्तमीसंज्ञानि भवन्ति सप्तमीप्रदेशा:- "इच्छायें कर्मण: समी" [५. ४. ८६ इत्येवमादयः ||
|
।
]
[ पा० ३, सू० ७-८ ]
संज्ञामूलविषये विचार्यते- 'वर्त्तमाना, भविष्यन्ती, श्वस्तनी, 40 परोक्षा, आशी, ह्यस्तनी, अद्यतनी, क्रियातिपत्तिः' इति अष्टासु विभक्तिषु स्ववाच्यार्थमादाय नामकरणदर्शनात् इह च तदभावाद् भवति विचारणा- किम्मूलिकेयं संज्ञेति, तत्र वय तर्कयाम :-- पाणिनिप्रभृतिभिः पूर्वाचार्येवंतमानादिस्थाने 'लट्, लिट्, लुट्, लृट्, लोट्, लव् लिङ् [२], लुङ्, लङ्' 45 इत्येवं सानुबन्धाः लकारा; कल्पिताः, तत्र विध्याद्यर्थेषु लिङ विहितः, एवं च तस्या विभक्तरनेकार्थत्वेनार्थविशेषनिबन्धना संज्ञा विधातुमशवयेति पूर्वाचार्यक्रमेण तस्या विभकः सप्तमीत्वात् [ सप्तसंख्या पूरणत्वात्] स्वमते सप्तमीस्वेन तद्व्यवहारः कृत इति । 'यात्. याताम्, युस्' इत्येव- 50 मादयो विभक्तयः सप्तमीसंज्ञाः स्युरिति सूत्रार्थः । संज्ञाविधानस्य विध्यर्थत्वात् तदुपयोगविधिप्रदेश ग्राहयतिसप्तमीप्रदेशाः - "इच्छायें कर्मणः सप्तमी " [ ५.४८६. ] इत्येवमादयः इति आदिपदेन "सप्तमी चोर्ध्व मौहूतिके" [५. ३. १२.] "जातु यद् यदा यदी सप्तमी" [ ५.४. १७.] 55 "सप्तम्युताप्योर्वाढे" [ ५. ४. २१.] इच्छार्थ सप्तमी-पश्चम्यो" [५. ४. २७.] इत्येवमादीनि सूत्राणि संग्राह्याणि, तत्र भटिति स्मृत्यारूढत्वान् " इच्छार्थे कर्मणः सप्तमी" इत्यस्योल्लेखः क्रमाननुगुणो विहितो विज्ञेयः ॥३. ३. ७. पञ्चमी - तुव्, ताम्, अन्तु, हि, तम् त, निव, 60 आवव. आमव ताम्. आताम्, अन्ताम्, स्व. आथाम् ध्वम्, ऐव्, आवद् आम हैव् ॥। ३.३ ८. ।।
त० प्र०- इमानि वचनानि पश्वमीसंज्ञानि भवन्ति । पञ्चमप्रदेशा:- "स्मे पश्वमो" [५४३१.] इत्येव
मादयः ||५||
श० म० न्यास नुसन्धानम्- पञ्चमी । सर्वत्रात्र प्रकरण विधेधायाः संज्ञायाः पूर्वमेव निर्देशः स्वप्रतिपत्यर्थः, अन्यथा तिवादीननूद्य वत्तमानादिसंज्ञाविधानस्य कार्यत्वेन
पूर्व तिवादीनामुल्लेख एवोचितः स्यात् । अत्राप्यस्या विभक्तेः पश्चमी संज्ञा विधाने मूल मुग्यम् यद्यपि ऋषीणां स्वातन्त्र्यं 70 प्रसिद्धमिति तत्कृतौ न कश्वनानुयोगो विधेयस्तथाऽप्याचार्याणां यथासम्भवं कार्याणि समूलानि भवन्तीति तन्मूलान्वेषणा समायात्येव तत्र वयं पूर्वं सप्तमीमंज्ञासूत्रो कमेव मूलमिहापि समुपस्थापयामः, तत्र हि पूर्वाचार्याणां लडा
श० म० व्यासानुसन्धानम् - सप्तमी० 1 आख्यातविभक्तिसंज्ञाप्रकरणवशात् वर्तमानासंज्ञाविधानोत्तरं सप्तमी । दिक्रमेण सप्तमीस्थानाया लिभिः सप्तमोत्वं दृष्टमिति 75 संज्ञामाहानेन, अत्र च संज्ञाक्रमे न किञ्चिद् विनिगमकमपि प्रकृतेऽपि तन्मते पञ्चमीस्थानाया 'लोट्' विभक्तेः पञ्चमीत्त्र
तु ग्रन्थ तुरिच्छ्वेति प्रतीयते, सप्तमीमंज्ञा च कमर्थमाश्रित्य मेवास्याः पञ्चमीसज्ञायां मूलमिति प्रतीयते । अधिकं कृतेत्यपि निश्चयेन प्रतिपादयितुं न शक्यते किञ्चिदितत् । द्वयाकरणविशेषज्ञः प्रकाशनीयम् । संज्ञाविधानस्य विध्यर्थ
|
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[पा० ३, सू०६-११]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१७१
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त्वेन पञ्चमीविधिप्रदेश स्मारयति-पञ्चमीप्रदेशा:-"स्मे श० म० न्यासानुसन्धानम्- एताः० । 'एताः' पञ्चमी" [५. ४. ३१.] इत्येवमादयः इति, आदिना इत्यनेनानुपदोक्ताः स्त्रीत्वविशिष्ट संज्ञाबोध्या विभक्तयः परा• 40 "इच्छार्थे सप्तमी-पञ्चम्यो" [५. ४. २७. ] "प्रषाऽनुज्ञा- | मृश्यन्ते, तदादिशब्दानां बुद्धिस्थपरामर्षकत्वस्य प्रसिद्धत्वात्, ऽवसरे कृत्यपञ्चम्यो" [५. ४. २६.] “आशिस्याशी:-पञ्च- | तथा चाहुः पदवाक्यविचारपारावारपारीणा:- तदादिशब्दानां 6 म्यो" {५. ४. ३८.] इत्येवमादीनि सूत्राण्युदाहार्याणि । बुद्धिविशेषविषयतावच्छिन्ने शक्तिरि अत्रापि विधिप्रदेशोदाहरणे मूत्र क्रमो न विवक्षितः, यथा- प्रकृतसूत्रस्य फलति तमाह- एता:- वर्तमाना-सप्तमी. स्मृति तदुल्ले खः कृतः, केवलपश्चमी विधायक सूत्रं वा समु- पञ्चमी-हस्तन्यः इति । 'शितः' इत्यस्यार्थमाह-शानु- 45 ल्लिखितमिति बोध्यम् । अत्रापि तुवादी वित्करण शिद- बन्धाः इति- श् इत् यासां ता: शित इति बहुव्रीहिणा
वित्" [५. ३. २०.] इत्यादौ विशेषणार्थ मेवेति बोध्यम् । शित्'शब्दस्य शानुबन्धबोधकत्वात् । तत्र च सति वास्त10 ॥३. ३-८.॥
विके श नुबन्धत्वे शानुबन्धत्वविधान व्यर्थं स्यात्. * अप्राप्त
शास्त्रमर्थवाइति न्यायेनाप्राप्तविधान एव शारूस्य सार्थक्याशस्तनी- दिव , ताम्, अन्. सि , तम्, त,
दित्य विद्यमानं शकारानुबन्धकत्वमेतासु प्रकृतसूत्रेणारोप्यते। 50 अम्व, व, म; त, आताम्, अन्त, थास्, आथाम्,
अथवा वर्तमानादिसंज्ञाबोध्यानां तिवादीनां वर्तमानादिध्वम्, इ, वहि. महिं ॥३. २. ६.!|
संज्ञया सह शित्संज्ञा विधीयते प्रकृतसूत्रेण । सज्ञानां च त०प्र०-इमानि वचनानि शस्तनीसंज्ञानिवन्ति ।। स्वतो विरोधाभावेन विधिसत्रद्वार विरोध इति न वर्त्त15 हास्तनी प्रदेशा:- "अनद्यतने हस्तनी" [५.२. ७.} इत्ये- | मानादिसंज्ञाभिः सह शिरसज्ञाया बाध्यबाधक भावः । शिश्निवमादयः ।।
मित्तककार्यविधायकेषु च शित्संज्ञस्य वास्तविकस्य च शितो 55
। ग्रहणं * कृत्रिमा-कृत्रिमयोः कृत्रिमे कार्यसम्प्रत्ययः * इति श० म० न्यासानुसन्धानम्- हस्तनी० । दिवा
न्यायापवादस्य उभयगतिरिह भवति * इति न्यायस्य दीनामष्टादशानां विभक्तीनां 'हस्तनी संज्ञा विधीयतेऽनेन ।
| जागरूकत्वात्, अन्यथा एतास्वेव शिनिमित्त कार्य स्यान्न सूत्रेण, 'ह्यस्तनी' शब्दार्थश्च भूतानद्यतनः कालः, सित्य- ।
शवादिषु वास्तविकशित्सु। शित्संज्ञायाः शिद्भावस्य वा . 20 व्ययमतीतेऽव्यवहित पूर्वदिने रूढम्, ह्यो भवा स्तनी
फलह्माह- शित्त्वाच शित्कार्यमिति- शिद्वद्भावविधानाच्च 60 "सायं-चिर-प्राल्ले -प्रगेऽव्ययात्" [६. ३.८८.] इति तनट,
शिन्निमित्तक कार्य मेतासु विभक्तिः परतो भवतीत्यर्थः । टित्वात् स्त्रियां डी:, भूतानद्यतनीत्यर्थः । आन्याय्यादुत्था
तथा चोदाहरति- भवति, भवेत, भवतु, अभवत् इति, नात् आन्याय्याच सवेशात् [न्याय्यमुत्थानसमयमारभ्य न्या
भवतीति भूधातोर्वर्तमानायां प्रथमपुरुषेकवचने तिवि रूपम्, य्यसवेशनसमयमभिव्याप्य] य: काल: सोऽद्यतन इत्येके,
तत्र तिव: शित्वेन "कर्यिनद्भचः शव" [३ ४.७१.] इति 25 उभयत: साधरा वा [अतीताया रात्रेः पश्चार्द्धनागामिन्या:
शव भवति, तस्य [शवः] वित्त्वेन च "शिदवित्" [४. ३. 65 पूर्वार्द्धन च युक्त दिनमद्यतनमिति परे, तद्भिन्नो भूतः
२०.] इत्येतद्विषयत्वाभावादङित्त्वेन "नामिनो गुणोऽङ्किति" कालो ह्यस्तनः, तद्वोधिका विभक्तिस्तनी, स्तनशब्दस्य
[४. ३.१] इति गुणेऽवादेशे च- भवतीति सिध्यति । ताशकालवाचकार्थे प्रयोगात्, एवंभूतार्थे विधानादस्या
| भवेदिति भूधातो: सप्तम्याः प्रथमपुरुषकवचने तुवि रूपम्, विभक्तरिदं नामान्वर्थम् । एतत्संज्ञोपयोगिविधिप्रदेशमाह
शिसंज्ञादि पूर्ववत् । अभवदिति भवतेरेव ह्यस्तन्या: 30 शस्तनीप्रदेशा:- "अनयतने ह्यस्तनी" [५. २. ७.] |
प्रथमपुरुषकवचने दिविरूपं शित्वाच्छवि सिध्यति, एतच्च 70 इत्येवमादयः इति, आदिशब्देन "ह-शश्वद्-युगान्तः प्रच्छये
भ्वादेरुदाहरणम्, एवं-दिवाद्यादिषु शित्त्वात् श्यादिविधानह्यस्तनी वा" [५. २. १३.] इत्यादीनि सूत्राण्युदाहार्याणि,
मुदाहार्यम्. एतच्च कतरि, भाव-कर्मविहिते शिति च "क्यः अत्रापि दिवादीनां वित्करणफलं पूर्ववदनुसन्धातव्यम् |
शिति' [३. ४. ७०.] इत्यादि कार्यमप्युदाहतु शक्यते, ।। ३. ३. ६.॥
दिङमात्रदर्शनस्यैवोदाहरण प्रयोजनवादधिक नोक्तम् ।।३. 35 एताः शितः ।। ३. ३.१०. ।। ३. १०.।।
75 त० प्र०- एता वर्तमाना-सप्तमी-पश्चमी-शस्तन्यः अद्यतनी-दि, ताम्, अन्, सि, तम्, त, अम्, शित:- शानुबन्धा वेदितव्या: । शित्त्वाच शित्कार्यम्-! व, मः त. आताम्, अन्त, थास्, आथाम्, ध्वम्, भवति, भवेत् भवतु, अभवत् ॥१०॥
...... ___ इ, वहि, महि ।। ३. ३. ११.।।
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१७२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
_.....
. [पा० ३, सू० १२] .
त० प्र०- इमानि वचनान्यद्यतनीसंज्ञानि भवन्ति । क्षत्वं च साक्षात्करोमीत्येतादृशलौकिकव्यवहाराविषयत्वमेव, , अद्यतनीप्रवेशाः- 'अद्यतनी" [५. २.४.] इत्यादयः ॥११॥ वा परोक्षत्वमिति तु नोचितम्; पाचकः पपाचेत्युपनीतविधया 40
प्रत्यक्षान्यज्ञानविषयत्वं प्रत्यक्षाविषयत्वं ..भासमानक्रियायां श० म० न्यासानुसन्धानम्- अद्यतनो० । अस्मिन्न
तादृशपरोक्षत्वासंभवात्, उपनीतमानेन च साक्षात्करोमीहनीत्यर्थे 'अद्य'शब्द: "सद्योऽद्य-परेद्यव्याह्न" [७.२. ६७.]
त्याकारकप्रतीति - साक्षिकलोकिकव्यवहाराविषयत्वस्याक्षतेः, 5 इति सूत्रेण निपातितः। अद्य भवेत्यर्थे “साय-चिर-प्राहणे
पाचकः पपाचेत्यादीनां नानुपपत्तिः । ननु दशमस्त्वमसीत्या : प्रगेऽव्ययात्". [६..३. ८८.] इति तनट, टित्त्वात् स्त्रियां !
दिवाक्यादप्यपरोक्षज्ञानमुत्पद्यते, तत्र प्रत्यक्षत्वं सर्ववादि. 45 ङी:- अद्यतनीति सिध्यति । अद्यतनश्च कालो ह्यस्तनी
सम्मतम्, शब्दजन्यतादृशज्ञानगोचरेन्द्रियासम्बन्धक्रियाया संज्ञाविधायकसूत्रे व्याख्यातः, सोऽपि विविधः- भूतो भवि
परोक्षाप्रत्ययापत्तिरितिचेन्न-इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्यैव तादृश - ष्यत् वर्तमानश्च, तत्र भूतार्थे एवाद्यतन्या विधानादद्यतनोऽपि
लौकिकविषयतानियामकतेति,, दशमस्त्वमसीत्यादिस्थले भूत एवाद्यतन्या याच्यः, न केवलमद्यतनो भूतकाल एवाद्य
शाब्दधीसहकृतमनसैव दशमसाक्षात्करोन तु मनसेत्याशयात्।। तन्या वाच्योऽपि तु भूतसामान्यं तस्या वाच्यं, सामान्यभूत
अथास्य परोक्षत्वस्य क्वान्वय इति विचार्यते-तत्र कर्तरि 50 एव "अद्यतनी" [५. २.४.] इति सूत्रेण तस्या विधानात्,
नान्वयः सम्भवति, विद्यमाने प्रत्यक्षविषये कतरि' अयं अद्यतनीति नाम तु ह्ययस्तनीतुल्यकश्यत्वद्योतनार्थमेव, सा
पपाच' इति प्रयोगानुपपत्तिः, नापि क्रियायामन्वयसंभवः, हि अनद्यतने भूते यथा प्रयुज्यते तथेयमद्यतनेऽपि, न तु
| तस्या अतीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षविषयत्वयोग्यताभावेन तत्र परो15 तत्रैवेति तात्पर्यात, साऽपि हि न ह्यस्तन एव [अव्यवहित
क्षत्वस्यानिर्णयात् । एतच भाष्ये इत्थं विचारितम्- "परोक्षे पूर्वदिन एव], अपि तु तत: पूर्वस्मिन्नपि भूते काले न तु
लिट्" पा० सू० ३. २. १.१५.] इति सूत्रे, तथाहि- 55 परतो[ऽद्यतने भूते । तथा चाद्यतनीशब्दो नाद्यतनभूतमात्र
कस्मिन् पुनः परोक्ष लिट् [परीक्षा भवति ? काले । न वै बोधकत्वाभिप्रायेण 'दि ताम्' इत्यादौ संकेतितोऽपि तु
कालाधिकारोऽस्ति । एवं तहि धातोरिति वर्तते- धातो स्तनीप्रतिकूल्यबोधनाभिप्रायेणव । अद्यतनीसंजोपयोगि
परोक्षे। धातु शब्दः, न च शब्दस्य प्रत्यक्ष-परोक्षतायां 20 विधिसूत्रमाह-अद्यतनीप्रदेशा:-"अद्यतनी" [५.२.४.]
संभवोऽस्ति, शब्देऽसंभवादर्थे कार्य विज्ञास्यते- परोक्षे .. इत्यादयः इति, आदिना "वाऽद्य तनी पुरादो" [५. २.
धाती-परोक्ष धात्वर्थे इति । कः पुनर्धात्वर्थ: किया, किया- 60 १५.] “माहुयद्यतनी" [५. ४.. ३६.] इत्यादिसूत्राणां
यामपरोक्षायामिति । यचं ह्योऽपचदित्यत्र लिट् [परोक्षा संग्रहो बोध्यः ।। ३. ३. ११. ॥
प्राप्नोति । कि कारणम् ? किया नामेयमत्यन्तापरदृष्टाऽन. परोक्षा- णव. अतस. उस, थव. अथस. अ. मानगम्याऽशक्या पिण्डीभूता निदर्शयितुम्. यथा गर्भो निल25 णव, व, म; ए. आते, इरे, से, आथे, ध्वे, ए, वहे. | ठितः । एवं सहि साधनेषु परोक्षेषु । साधनेषु परोक्षेषु भवत: - महे ।। ३ ३. १२. ।।
कः सम्प्रत्ययः ? यदि तावद् गुणसमुदायः साधनम्, साधन- 65
मप्यनुमानगम्यम् । अथान्यद् गुणेभ्यः साधनं भवति, प्रत्यक्षत० प्र०- इमानि बचनानि परोक्षासंज्ञानि भवन्ति ।
परोक्षतायां संभवः । अथ यदानेन रथ्यायां तण्डुलोदकं दृष्टम्, परोक्षाप्रदेशा:- "श्रु-सद-वस्भ्यः परोक्षा वा" [५. २. १.] इत्येवमादयः ।।१२॥
कथं तत्र भवितव्यम् ? यदि तावत्साधनेषु परोक्षेषु पपाचेति
भवितव्यम्, भवन्ति हि तस्य साधनानि परोक्षाणि । अथ य ॐ श०म० न्यासानुसन्धानम्-परोक्षा० । 'णद् अतुम्' एते क्रियाकृता विशेषाश्चीत्काराः फूत्काराश्र, तेषु परोक्षेषु । 70
इत्यादीनाममादशवचनाना परीक्षासंज्ञाविधायकमिद सूत्रम् ! । एवमपि पपाति भवितव्यम्" इति । ,, ''परोक्षे" [५. २. १२.] इति सूत्रेण परोक्षेऽर्थे विधानादर्थः । अस्याय माशयः- कालेन सह परोक्षत्वस्यान्वयासम्भवः, निबन्धनेयं परोक्षा संज्ञा । तत्र परोक्ष यद्यपि भूतभविष्य- तदसम्बन्धात् । धातुनापि न तस्य सर्वदा परोक्षत्वाद् विशेषण
साधारण तथापि भविष्यतः परोक्षत्वमनिश्चितमिति भूत- | वैयर्थ्यात् । क्रियाया अपि नापरोक्षत्वसंभवः, तस्या अनु. 35 परोक्षस्यैवेह परोक्षत्वेन व्यवहारः, 'परोक्ष" [५. २. १२. मानगम्यत्वात् तत्रापि तद्विशेषणवयमेव । एवं च क्रिया- 75
इति सूत्रे 'भूतानद्यतने' इत्यस्य सम्बन्धाच भूतानधनपरो- साधनेषु परोक्षेषु परोक्षा भवतीति सिद्धान्तः । तत्र क्रियाक्षार्थ एव तस्या विधानात् परोक्षपदेन तादृशं परोक्षत्वमेवेह | माधनपदेन द्वयं. विवक्ष्यते- क्रियासिद्धिनिमित्तशक्तिमद्विवक्षित विधिसूत्रेण सहकवाक्यादिति बोध्यम् । तत्र परो- द्रव्याणि क्रियासाधिकाः शक्कयो वा, उभयथा परोक्षाप्रत्ययः
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[ पा० ३, पू० १३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
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-
समुचित एव । अर्थतद्विषयेऽन्यः क्रियाऽवान्तरविशेषाणां पारस्य पारोक्ष्यसंभवेऽपि बहतरमन:प्रणिधानसाध्यशास्त्रार्थफूत्कारादीनां प्रत्यक्षविषयतादर्शनात् क्रियायां परोक्षाया- निर्णयजनकशब्दरचनात्मके ग्रन्थेऽनद्यतनाऽतीतत्वयोविस्तारयामित्यपि पक्षः साधीयानेवेत्युक्तम् । अत एव पश्य मृगो क्रियायामसत्त्वेन च परोक्षोत्तमपुरुषप्रयोगासङ्गतेः । एवं च धावतीति प्रयोगे धात्वर्थव्यापार प्राधान्यवादिनां मते उत्कट- विवक्षावशादेवेदृशाः प्रयोगाः सङ्गमनीयाः। एषां प्रत्ययाना 5 धावनस्य इशिकर्मत्वमुपपद्यते, लौकिकप्रत्यक्षविषयताया एव । विवक्षाधीनत्वस्वीकारादेव ह्योऽपाक्षीदित्यत्र भूतत्वमात्र- 45 दृश्यर्थत्वात्, अन्यत्र दृशेनिसामान्यार्थत्वेऽपि प्रकृते चाक्षुष- विवक्षायामद्य तनीसंज्ञकः प्रत्ययः, अन्यथा ह्य:कालस्यानद्यप्रत्यक्षविषयतायामेव तत्प्रयोगात् । एतच्च हरिणापि प्रति- तनत्वेन ह्योऽपचदित्येव ग्यात्, पाके भूतत्वसामान्यविवक्षया पादितम्
अद्यतन्यां जातायां पश्चात् ह्य:पदार्थनान्वयेऽनद्यतनप्रतीता'कमात् सदसतामेषामात्मना न समूहिनः ।
वपि जातसंस्कारस्य निवर्तयितुमशक्यत्वेन ताशप्रयोग10 सद्वस्तु विषयन्ति सम्बन्धं चक्षुरादिभिः ॥" इति । । सङ्गतेः ।
50 अस्यायमाशय:- धात्वर्थव्यापारा: क्रमादुत्पद्यमाना- परोक्षासंज्ञामुक्तवा तदुपयोगिविधिसूत्राणि निदर्शयतिनाम्, अत एव सदसतां केचिदवान्तरव्यापारा: सन्त: वर्त- परोक्षाप्रदेशा:-"श्र-सद-बसभ्यः परोक्षावा" [५.२. मानाः, केचिदसन्तोऽतीताः, अत एव विद्यमानाविद्यमाना- १.] इत्येववादयः इति, अनेन सूत्रेण भूतार्थेभ्यः श्रु-सद्
नामात्मना स्वरूपेण ममूहिनः अवयवसम्पन्ना न सन्ति, वसुभ्यः परोक्षासज्ञका: प्रत्यया विधीयन्ते, आदिशब्देन 15 तथापि सद्वस्तूविषय:- विद्यमानपदार्थविषयश्चक्षुरादिभि- ! "कृतास्मरणाऽतिनिह्नवे परोक्षा।" [५. २.११] "परोक्षे" 55
रिन्द्रियैः सम्बन्धं यान्ति-गृह्यन्ते इति । एवं च प्रत्यक्षानह· : [५ २. १२ ] इत्यादयः सग्राह्याः ।। ३. ३. १२ ॥ त्वेऽपि स्वभावात् प्रत्यक्षविषयतेति भवति तेषां पारोक्ष्य-- सम्भवः, तेषां प्रत्यक्षपरोक्षविषयत्वस्वीकारादेव सदसदप-। आशी:-क्यातू, क्यास्ताम्. क्यासुस, क्यास,
तोपपत्तिः । न चैवमवयवद्वारा क्रियाया प्रत्यक्षत्वस्वीकारे | क्यास्तम्, क्यास्त, क्यासम्, क्यास्व, क्यास्म; 20 तस्या अतीन्द्रियत्वकथनपरभाष्यग्रन्थव्याकोपः शङ्कनीयः, सीष्ट, सीयास्ताम्, सोरन, सीष्ठास, सीयास्थाम, अवयवप्रत्यक्षत्वस्य समुदाये समारोप: कार्यसिद्धयर्थ, न तु
३.१३.|| 60 दोषापादनार्थमिति तदाशयात्, आरोपस्य कार्यसिद्धिमात्र
त० प्र०- इमानि वचनानि आशी.संज्ञानि भवन्ति । प्रयोजनकत्वस्याचार्यः स्वीकारात् । 'पश्य मृगो धावति' :
किकरणं "नामिनो गुणोऽपिङति" [४. ३. १.] इत्यादिषु इत्यादिप्रयोगानुसारं व्यापारस्य धावनक्रियायाः] लौकि
विशेषणार्थम् । आशी:प्रदेशा:- "आशिष्याशी:-पश्चम्यो" 25 कविषयताशालित्वस्य सकलतान्त्रिकसम्मतत्वेन तत्र विवादाभावः। यदि च धावनजन्य फलमेव तत्र इशिक ति स्त्री
! [५. ४. ३८.] इत्यादयः ॥१३॥ क्रियते तहि धातोापारमुख्यार्थत्वव्याघातः, 'प्रकृत: कट श० म० यासानुसन्धानप्त- आशी:०'क्यात्' 65 सः' इत्यपि आदिकर्मातीतत्वेन समुदायातीतत्वमनारोप्योप- इत्यादीनां प्रत्ययानामाशी:संज्ञा विधीयतेऽनेन सूत्रेण, "आ
पन्नम् । इत्थं च क्रियापारोक्ष्यमवयवद्वारकमेव सूत्रकार. शिष्याशी:-पञ्चम्यो" [५. ४. ३८.] इति सूत्रेणाशीरर्थे 30 तात्पर्य विषय इति सर्वमनवद्यम् । वयं तु ब्रम:--विवक्षाधीना विधानादेषामशी:संजकत्वम् । भविष्यदर्थाऽऽशसनमाशी:,
एव वर्तमानत्व-भूतत्व-मविष्यत्व-परोक्षत्वादिव्यवहारा:, एवं अन्ये तु शुभाशंसनमेवाशीरिति कथयन्ति, तन्न मृषीष्ट' च क्रियाया भूतानद्यतन-परोक्षस्वविवक्षायां 'ण अतुस् उस्' इत्यादावाशी:प्रयोगानापत्तेः । क्यादित्यादावनुबन्धस्या- 70 इत्यादयः प्रत्ययाः, इयांस्तु विशेष:- यत्र योऽश उपेक्ष्यते तत्र सञ्जनं किनिमितकार्यसिद्धयर्थमिति भूयादित्यादी गुणो न ।
तदतिरिक्तधर्मपुरस्कारेणवान्वयबोधः, अत एव "अध्यास्त | आशीविधिसूत्र प्रदर्शयति- आशी:प्रदेशा:- "आशिष्या35 सर्वतुं सुखामयोध्याम्" इत्यादिप्रयोगोपपत्तिः।
शो:-पञ्चम्यो" [५. ४.३८.] इत्यादयः इति, आदिअत्रेद विचार्यते- परोक्षाया उत्तमपुरुषे कथं प्रयोगः, शब्देन "आशिषि तु-ह्योस्तातङ्" [४. २. ११६.] "आ. स्वव्यापारस्य स्वं प्रति पारोक्षस्य कथमप्युपपादयितुपशक्य- शिषीणः" [४. ३. १०७.] इत्येवमादीनि आशी:संज्ञके 75 त्वेन च्यातेने किरणावलोमुदयनः" इत्यादिस्वकृतकिरणा- प्रत्यये कार्यविधायकानि सूत्राणि सम्राह्माणि, संज्ञाया न
धलीग्रन्थपुष्पिकायामुदयनाचार्यप्रयोगस्य कथं सङ्गतिः, । केवलं तत्संजया प्रत्ययविधानार्थत्वमेवाऽपि तु तत्संज्ञाकृत40 अन्यत्र विषयान्तरसञ्चारप्रभृतिचित्तव्यासङ्गादिना स्वव्या- | यावद्व्यवहारमात्रार्थत्वमिति स्वीकारात् ॥३.३.१३.।।
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१७४
25
कलिकाल सर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
श्वस्तनी - ता, तारौ, तारस्, तासि, तास्थस्, तास्थ, तास्मि, तास्वस्, तास्मस्, ता, तारौ, तारस्, तासे, तासाथे, ताध्वे, ताहै, तास्वहे, तास्महे
॥। ३. ३. १४. ॥
त० प्र०- इमानि वचनानि श्वस्तनो संज्ञानि भवन्ति । श्वस्तनीप्रवेशा:- ‘‘अनद्यतने श्वस्तनी" [५. ३. ५. ] इत्येव
|
मादयः ॥१४॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - श्वस्तनी० । 'ता तारी' इत्यादीनां प्रत्ययानां श्वस्तनीसंज्ञा विधीयतेऽनेन 10 सूत्रेण । तत्र श्वःशब्दोऽव्यवहितागामिदिनबोधकः, श्वो भवा इत्यर्थे श्वस्तनीशब्दः “सायं चिरं प्राह्णे प्रगेऽव्ययात्" [६. ३.८८ ] इति सूत्रेण तनटि सिध्यति । एवं च यद्यपि वो भाविन्यर्थे एवास्याः प्रयोगो लभ्यते, तथापि "अनद्य तने श्वस्तनी" [५. ३. ४.] इति सूत्रेण वर्त्यत्यनद्यतने 15 विधानाद् भविष्यदनद्यतनकाले एवास्याः प्रयोगः, तत्र श्व:शब्दस्य भविष्यदग्रिमदिनवाचकत्वस्य सिद्धत्वेनाग्रिमपदेब्यवहितत्वस्याविवक्षया स्वस्तनीशब्दोऽपि भविष्यदनद्यतनकालार्थत्वबोधक इति बोध्यम् । तथा च भविष्यदनद्यतनकालविवक्षायामेवास्याः प्रयोगो भविष्यत्वसामान्यविवक्षायां 20 भविष्यदद्यतनत्वविवक्षायां च भविष्यन्त्याः प्रयोग इति स्पष्टीकरिष्यतेऽग्रिमसूत्रव्याख्यायाम् । श्वस्तनीसंज्ञोपयोगि विधिसूत्रमाह- श्वस्तनी प्रदेशा:- "अनद्यतने श्वस्तनी" [५. ३. ५.] इत्येवमादयः इति, आदिपदेन "परिदेवने" [ ५. ३. ६. ] इति सूत्र संग्राह्यम् ॥ ३३. १४. ।।
भविष्यन्ती - स्यति, स्यतस्, स्यन्ति, स्यसि, स्यथस्, स्यथ, स्यामि स्यावस्, स्यामस्; स्यते, स्येते, स्यन्ते, स्यसे, स्येथे, स्यध्वे स्ये, स्यावहे, स्यामहे | ३. ३. १५.
[ पा० ३, सू० १४-१६ ]
भावस्तस्य प्रतियोगी यः समयः - आगामिकाल:, तस्मिन्नुत्पत्तिर्यस्य तादृशत्वमित्यर्थः । भविष्यत्वस्योत्पत्तिघटित
स्वादेव येषां मते नश्यत्यादिधातूनां नाशमात्रमर्थः, तेषां
विद्यमानप्रागभावप्रतियोगित्वं भविष्यत्वमित्येतावन्मात्रोक्तौ 40 वो भाविनाशके घटादी परश्वो मङ्क्ष्यतीति प्रयोगापतिः. वर्तमानप्रागभावप्रतियोगिनि घटनाशे परश्वः कालवृत्तित्वस्य सत्त्वात् । यदि च परश्वस्तन कालस्य विद्यमानप्रागभावे भाकाङ्क्षावैचित्र्यात् सर्वत्रान्वयोऽभ्युपगम्यते, प्रकृते च प्रागभावे तस्यावृत्तित्वान्नानुपपत्तिरित्युच्यते तदा श्वोभाविनाशकेऽपि 46 श्वो नङक्ष्यतीति न स्यात् तन्नाशप्रागभावे श्वस्तन कालसम्बन्धबाधात्, भविष्यत्वे उत्पत्तिघटिते स्वीकृते च सर्वत्राकाङ्क्षावशादन्वयाभ्युपगमे निरुक्तस्थले नाशोत्पत्तेः परश्वस्तनकाल सम्बन्धबाधात् न परवो नक्ष्यतीति प्रयोगापत्तिलेशोऽपि । यत्र चोत्पत्तिरेव धात्वर्थः, तत्रोत्पत्त्यघटितमेव 50 भविष्यत्वं निर्वतव्यम्, अन्यथा द्वेधोत्पत्तेर्भानप्रसङ्गः । इद ववधेयम् - इहाद्य घटो भविष्यतीत्यादी देशकालविशेषादेरधिकरणत्वेन धातुवाच्योत्पत्त्यर्थ एवान्वयोऽभ्युपेयः, न तु भविष्यत्वघटकप्रागभावे उत्पत्त्याश्रये वा, तथा सति कपालनाशजन्यघटनास्थले इह कपाले घटध्वंसो भविष्यतीति 55 प्रयोगापत्तेः, घटरूप प्रतियोग्यात्मकघटध्वसाभावस्य कपाले सत्वात् । एव श्वोभावन्यद्य भविष्यतीति प्रयोगः प्रसज्येत, अद्यतन कालवृत्तित्वस्य प्रागभावे सत्त्वात् । एवं भवने श्वः समुत्पद्य परश्वः प्राङ्गणे गमिष्यति यंत्रं प्राङ्गणे परश्वो भविष्यति चैत्र इत्यापद्येत, उत्पत्तिमतश्चैत्रस्य प्राङ्गणवृत्ति- 60 त्वात् परश्वस्तन कालवृत्तित्वाच्च । उत्पत्तिघटितभविष्यत्वस्वीकारे तु चैत्रस्य परश्वस्तन कालवृत्तित्वेऽप्युत्पत्तेस्तत्कालावृत्तित्वान्न काचिदनुपपत्तिः । श्वः शब्दाप्रयोगे भविष्यत्वसामान्यविवक्षायां भविष्यन्त्या एव प्रयोगो न श्वस्तन्याः
॥। ३. ३. १५. ।।
क्रियातिपत्तिः- स्यत् स्यतास्, स्यन्, स्यस्, स्यतम्, स्थत, स्यम्, स्याव स्यामः स्थत, स्येताम्, 3) भविष्यन्तीप्रवेशा:- "भविष्यन्ती” [ ५. ३.४.] इस्या स्यन्त, स्यथास, स्येथाम् स्यध्वम्, स्ये, स्यावहि,
त० प्र०-इमानि वचनानि भविष्यन्तीसंज्ञानि भवन्ति ।
वयः ।।१५।।
स्यामहि ॥ ३. ३. १६. ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम् - भविष्यन्ती० । 'स्थति स्यतः' इत्यादीनां भविष्यन्तीसंज्ञा विधीयते । "भविष्यन्ती" [५. ३ ४] इति सूत्रेण वर्त्स्यति काले विधानादेषां प्रत्य35 यानां भविष्यन्तीति यथार्थ नाम, भविष्यत्वं च विद्यमान
65
त० प्र०- इमानि वचनानि क्रियातिपत्तिसंज्ञानि 70 भवन्ति । क्रियातिपत्तिप्रदेशा:- "सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्त क्रियातिपत्तिः " [ ५. ४. 8.] इत्येवमादयः ।। १६ ।।
श० म० न्यासानुसन्धानम् - क्रियातिपत्तिः० । 'स्यत् प्रागभावप्रतियोगिसमयोत्पत्तिकत्वम्, विद्यमानो यः प्रागस्यताम्' इत्यादिप्रत्ययानां क्रियातिपत्तिसंज्ञा विधीयतेऽनेन
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[पा० ३, सू०१७]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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सूत्रेण; क्रियाया अतिपत्तिरनिष्पत्ति:-क्रियातिपत्ति:, भवि- एहि मन्ये- रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि, यातस्ते 40 ध्यदर्थाद् भूतार्थाच धातोः क्रियाया अनभिनिवृत्ती सत्पां पितेति प्रहासे ययाप्राप्तमेव प्रतिपत्तिात्र प्रसिद्धार्थ विपर्यासे क्रियातिपत्तिविधीयते "सप्तम्यर्थं क्रियातिपत्तौ क्रियाति- किश्चिनिबन्धनमस्ति, रथेन यास्यसीति भावगमनाभिधानात्
पत्तिः१५. ४. 8.1 इति सूत्रेण, तथा च क्रियातिपत्त्यर्थे | प्रहासो गम्यते, नहि यास्यसीति बहिर्गमन प्रतिषिध्यते, .5 विधानादेवाऽस्याः क्रियातिपत्तिसंज्ञा । यद्यपि एव स्वीकारे । अनेकस्मिन्नपि प्रहसितरिच प्रत्येकमेव परिहास इत्यभिधान
परस्पराश्रयत्वदोष: संभवति, क्रियातिपतिरूपेऽर्थे विधानात् यशात 'मन्ये' इत्येकवचनमेव, लौकिकन प्रयोगोऽनुसतव्य 45 क्रियातिपत्तिसंजा, कियातिपत्तिसज्ञकत्वाच क्रियातिपत्यर्थे । इति न प्रकारान्तरकल्पना न्याय्या ॥१७॥ विधानमितिरूपः, तथापि व्याकरणशास्त्रस्य न शब्दनिष्पा-
! २० म.न्यासानुसन्धानम्-श्रीणि "वर्तमाना
मान्या दकत्वमपि तु निष्पन्नानामेव शब्दानामर्थबोधाय प्रकृति- तिव तस, अन्ति," [३. ३.६.। इत्यादि सूत्ररणादशानां 10 प्रत्ययादिविभागकल्प्यकत्वमित्यस्यार्थस्य बहुशो व्याख्यात. , विभक्तीनां प्रत्येक वर्तमानादिसंज्ञा विधीयन्ते, तेषु नवाद्यानां :
त्वेन स्थितस्यैव क्रियातिपत्तिबोधकत्वम्य शास्त्रेणानुविधान- परस्मैपदसंज्ञा नवाऽऽद्यानि शतृक्कसू च परस्मैपदम्" [३. 50 मित्युत्पत्ती जप्तौ ना परस्पराश्रयत्वाभावेनादोषो बोध्या, ! ३.१६.] इति सूत्रेण विधास्यते परेषां नवानां चात्मनेपदएवं वर्तमानादौ सर्वत्र दोषोद्धारो विजेयः । सुवृष्टिश्वेद । संज्ञा पिराणि कानाऽऽनशी चात्मनेपदम्" [३. ३. १०.]
भविष्यत सभिक्षमभविष्यदित्यादिप्रयोगे सुवृष्टिकर्तृकभवन- . इति सत्रेण विधास्यते. इति प्रत्येक वर्तमानादीनां द्विधा 15 क्रियाया अनभिनिवृत्तिनिमित्तायाः सुभिक्ष कर्तृकाऽनभिवृत्ति- ! विभागोऽङ्गीकृतः, तत्र प्रत्येकस्मिन विभागे नव वधनानि,...
निवत्तेः स्पषं प्रतीयमानत्वेन क्रियातिपत्तिसंज्ञाया यथाथ- तेषामपि त्रिधा विभाग:प्रथम-मध्यमोत्तमभेदेनाभीष्टः, तस्यैव 55 त्वम्. संज्ञामुक्त्वा तदुपयोगिविधिप्रदेश निर्दिशति- क्रिया- विभागस्यार्थविशेषे प्रयोगार्थमिदं सूत्रम् । तत्र 'श्रीणि तिपत्तिप्रदेशा:- "सप्तम्यर्थ क्रियातिपत्तिः" [५. ४. : त्रीणि' इति न वीप्सार्थे द्विवेचनमपि तु एक त्रिपदं त्रित्वा
8. इत्येवमादयः इति, आदिपदेन "भूते" [५.४.१०.] | वच्छिन्नावयवकसमूदायपरमिति त्रीणि त्रिक 20 "वोतात् प्राक" [५. ४. ११.] इति सूत्र संग्राह्ये। इत्थं तदेव स्पष्टीकरिष्यते- श्रीणि श्रीणि वचनामीत्युक्त्या 1 - त्यादिविभक्तिसंज्ञाविधानं पूर्णम् ।। ३. ३. १६. ॥
तथास्य सूत्रस्य सन्निहितसूत्रोक्तप्रत्ययमावविषयत्वमिति 60
भ्रमस्य व्युदासायाह- सर्वासां विभक्तोनामिति । अन्यश्रीणि त्रीण्यन्ययुष्मदस्मदि ॥ ३. ३. १७. ॥ युष्मदस्मदि' इति पदमर्थपरमित्याह- अन्यस्मिन्नर्थे
त०प्र०- सर्वासां विभक्तीनां त्रीणि त्रीणि वचनानि इत्यादिना, तथा च न तच्छन्दप्रयोग एव तानि तानि वच• अन्यस्मिन्नर्थे युष्मदर्थे अस्मदर्थे चाभिधेये यथाक्रमं परि- नान्यपि तु तदर्थविवक्षामात्रे, तथा च किं पचसि ?' इत्यादी. 25 माध्यन्ते । अन्यत्वं युष्मदस्मदपेक्षं संनिधानात् । युष्मच्छ- स्वशब्दाप्रयोगेऽपि मध्यमपुरुषोपपत्तिः । यथाक्रममिति- 65
दोपसष्टार्थो युष्मदर्थः, तेन भवच्छब्देनरोच्यमानो न प्रथम त्रिकमन्यार्थे शब्दे प्रयुज्यमाने तदर्थे वा विवक्षिते युष्मदर्थः । स पचति, तो पचतः, ते पचन्ति, पति, पचतः, | परिभाष्यते, मध्यम त्रिक युष्मदर्थं प्रयुज्यमाने विवक्षिते बा
पचन्ति; स पचते, तौ पचेते, ते पचन्ते; पचते, पचेते, परिभाष्यते, उत्तम त्रिकमस्मदर्थे प्रयुज्यमाने विवक्षिते वा • पचन्ते, भवान् पचति, भवन्तौ पचतः, भवन्तः पचन्ति; परिभाष्यते इति भावः । 'परिभाष्यते' इत्युक्त्या चास्य .. 30 इत्यादि । युष्मदि- त्वं पचसि, युवां पचथः, यूयं पचथ; सूत्रस्य परिभाषासूत्रत्वं स्फोरितम्, तथा च वर्तमानादि. 30
पसि, पयर्थः, पचय; त्वं पचसे, युवा पचेथे, यूयं पचवे; | विधायकसूत्रसहकारकत्वमस्य फलति, एतरसूत्रसहकारेण पचसे पचेथे, पचध्वे । अस्मदि-अहं पचामि, आवां पचावः, | वर्तमानादिविधायकसूत्रः "सति" [५. २. १९.] इत्यादि
वयं पचामः; पचामि, पचावः, पचामः; अहं पचे, आवां | भिविद्यमानकियार्थाद् धातोरन्यार्थे वाच्ये वर्तमानाप्रथम. पचायहे, वयं पचामहेपचे, पचाबहे, पचामहे । एव सर्वासु। | पुरुषस्य विधानं भवति, परिभाषासूत्राणां विधिसूत्रैः सहक.. 35ययोगे प्रययोगे च शवपराधयमेव वचनमतिदिश्यते-स | वाक्यतास्वीकारात् । “अन्यस्मिन्नर्थ' इत्युक्तं तत्रान्यत्वं च 75
च त्वं च पचयः, स चाहं च पचाव: स च त्वं चाहं च केवलान्वयि, स्वेतरापेक्षया सर्वस्यान्यत्वादिति युष्मदस्मदर्थपचामः । कथमत्वं त्वं संपद्यते-अनहमहं संपद्यते-त्वद्भवति योरप्यन्यत्वं भवतीति कोऽर्थोऽत्रान्यार्थतयाऽभिमत इत्या. मद्भवति ? युष्मदस्मदोर्गोणरवात, स्वम देशो तु शम्बमात्रा- | शङ्कायामाह- अन्यत्वं युष्मदस्मदपेक्षमिति- अन्यत्वस्य - शयरवाद् भवत एव ।
नित्यसापेक्षत्वेनावश्यं प्रतियोगिन आकाङ्क्षोदेति, तत्र उप
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कलिकाल सर्वज्ञश्री हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
विनाऽपि युष्मदः प्रयोगं तदर्थ सामानाधिकरण्यविवक्षामात्रेणापि द्वितीयत्रिक मुदाहरति पचसीत्यादि । युष्मदर्थसामानाधिकरण्ये समुदाहरति- अहं पचामीत्यादिना एवं सर्वास्विति- वर्तमानामात्रोदाहरणेनान्यासु विभक्तिष्वपि प्रथमादित्रिकोदाहरणानि स्वयमूह्यानीति भावः । एवमेकं - 45 कमन्यार्यादियोगे व्यवस्था मुक्त्वा यत्रान्ययुष्मदस्मदर्थानां साङ्कर्यं तत्र का व्यवस्थेति जिज्ञासामपनयन्नाह - द्वययोगे त्रययोगे चेति यत्र च अन्यायं युष्मदर्थयोः, अन्यार्थस्मदर्ययोः, युष्मदस्मदर्थयोर्वा सहकस्यां क्रियायां योगः, यत्र वा समेषामेकत्र योगः, तत्र सूत्रोक्तरीत्या परशब्दनिमित्तकमेव 50 त्रिकं भवतीत्यर्थः । शब्दस्पर्धावित्यस्य सर्वादिपाठानुसारिशब्दपूर्वपरविप्रतिषेधात् प्रकृतसूत्रपाठानुसारिशब्दपूर्वपरविप्रतिषेधादिति वाऽर्थः उभयथाध्यवस्थायां भेदाभावात् । पराश्रयमेव वचनमिति परपठितशब्दार्थ सामानाधिकरण्यनिमित्तकमेव वचनं त्रिकम्, अतिदिश्यते अनेन 55 सूत्रेण परिभाष्यत इत्यर्थः । तथा चोदाहरति- स च स्थं च पचथः इति - अत्र पचिक्रियायां तदर्थं युष्मदर्थं योरुभयोः सह कर्तृत्वमिति युष्मदर्थसामानाधिकरण्यनिमित्तकं द्वितीय
स्थित परित्यज्यानुपस्थितकल्पने मानाभावः इति न्यायेनोपस्थिते युष्मदस्मदी एवं प्रतियोगिनी परिकल्पनीये इति युष्मदस्मदर्थापेक्षयैव तदन्यार्थी विवक्षित इति भाव:, तदाह- सन्निधानादिति- सन्निधानं च सामीप्यं समीपो5 पस्थानादित्यर्थः । नन्वेवमस्मदर्थातिरिक्ते सर्वत्र युष्मच्छन्दस्य प्रयोगात् सर्वस्य पदार्थस्य युष्मदर्थत्वमिति युष्मच्छन्दोऽप्यव्यावर्त्तक इति चेदाह - युष्मच्छन्दोपसृष्टार्थो युष्मदर्थः इति- युष्मच्छब्देनोपसृष्टो - विशेषितो योऽर्थः स युष्मच्छन्दार्थं इति भाव: । तथा च बुद्धिविषयत्वोपलक्षितसं बोध्यताव10 च्छेदकधर्मावच्छिने युष्मदः शक्त्यम्युपगमेऽपि यदि युष्मच्छब्देन तदर्थस्य प्रतिपिपादयिषा तदेव भवति मध्यमत्रिकं नान्यदेति फलति एवमर्थ विवक्षायाः फलमाह - तेन भवच्छदेनोच्यमानो न युष्मदर्थः इति भवच्छब्दस्यापि सम्बोध्यतावच्छेदकधर्मावच्छिन्ने शक्तिसत्त्वेऽपि न तदर्थस्य 15 युष्मच्छन्दोपसृष्टार्थत्वमिति न भवति भवदर्थे वाच्ये मध्यमपुरुषप्रयोग इति भावः भवच्छब्दश्चैवमन्यार्थ इति तद्योगे प्रथमत्रिकस्यैव प्रयोगः, तथा च भवान् पचतीत्येव प्रयोगो न तु भवान् पचसीति । अर्थग्रहणाच "किमसि विस्मरसि स्मरसायकान्" इत्यादिप्रयोगेऽसीति पदस्य युष्मदर्थप्रतिपात्रिकमेव भवति । स चाहं च पचावः इति- अत्र तदर्था20 दकत्वेन भवति द्वितीयत्रिकस्य प्रयोगोपपत्तिः एवं "नास्मिस्मदर्थेरुभयो: कर्तृत्वमिति परत्वादस्मदर्थं सामानाधिकर- 60 रमे ! किं प्रतारयस्येवम्" इत्यादावस्मीति पदस्यास्मदर्थ- व्याश्रयमेव तृतीय त्रिकं भवति, एवं 'त्व चाहं च पचाव: ' बोधकत्वेन तत्प्रयोगे उत्तमपुरुषप्रयोगोपपत्तिः । क्रमश · इत्यपीहोदाहार्यम्, तत्रापि द्वययोगस्य समत्वात् । यत्र त्रयउदाहरति- स पचतीत्यादिना तच्छन्दस्य बुद्धिस्थपरामर्ष- योगस्तत्राह स वत्व चाहं च पञ्चामः इति - अत्र त्रयाकत्वेन युष्मदस्मदर्थोपस्थापकत्वेऽपि प्रकृते युष्मदस्मच्छन्दोप- णामपि सत्त्वेऽस्मद एव परत्वात् तदाश्रय तृतीय त्रिकमेव 25 सृष्टार्थबोध भावेनान्यत्वमेवेति भवति प्रथमत्रिकस्यैव तद्योगे भवति एतच सहोती सत्यां ज्ञेयम्, यत्र सहोतिर्नास्ति 65 प्रयोग: । 'अन्यस्मिन्नर्थे' इत्यादिरूपेणार्थपरतया व्याख्यानस्य तत्रकशेषाभावात् प्रत्येक क्रिया भविष्यतीति स च त्वच प्रयोजनं स्कोरयति - पचति पञ्चतः, पचन्तीति तदादि पचति च पचसि चेति, एवं स चाह च पचति च पचामि शब्दाघटितप्रयोगेण । तस्यायमाशय:- विनापि तदादिपद च, त्वं चाह च पचसि च पचामि च स च त्वं चाह च तदर्थस्य वाच्यत्वेन विवक्षणादिह भवति प्रथमंत्रिकस्य प्रयोग पचति च पचसि च पचामि चेति एतच्चैकदेशिनो मतम् । 30 इति । परस्मैपदप्रथमंत्रिक मुदाहृत्यात्मनेपदप्रथम त्रिकमुदा सिद्धान्ती तु कर्त्राः सह विवक्षाभावादेकशेषाभावेऽपि क्रियाया 70 एकत्वेन तत्रैकशेषः स्वभावसिद्ध एवेति पुरुषव्यवस्था स्पर्धेनेव भविष्यतीति स च त्वं च पचथः' इत्याद्येव भविष्यति । स च त्वं वेत्यनयोरेकशेषाभावे युत्रामिति एकरूपाभावेऽपि कियाया एकत्वस्य स्वभावसिद्धतया एकैव क्रिया प्रयोक्ष्यते, तत्र च परत्वात् पुरुषव्यवस्था भविष्यति । परमत्वं पचसि, 76 परमाह पचामीत्यत्र च युष्मदस्मदर्थयोः प्राधान्यसत्त्वात् तन्निबन्धनैव पुरुषव्यवस्था | अतित्व पचति, अत्यहं पचतीत्यत्र च युष्मदस्मदोरन्यपदार्थं प्रत्युपसर्जनत्वादन्यपदार्थेनेव सामानाधिकरण्यमित्यन्यार्थ एव प्रधानमिति तदनुगामिन्येव पुरुषव्यवस्था । विप्रत्ययस्थले पुरुषव्यवस्थां दर्शयितुं 80
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१७६
[ पा० ३, सू० १७ ]
हरति- स पचते इत्यादिना । तच्छन्दार्थे समुदाहृत्य भवछब्देन योगे समुदाहरति तस्य युष्मच्छन्दार्थताभ्रमन्युदासार्थम् - भवान् पचतीत्यादि । इत्यादीति- 'भवान् पचते' इत्यादिकम्, देवदत्तः पचतीत्यादिकं वा प्रातिस्तिक35 मुदाहरणं स्वयमूह्यमिति भावः । एवं प्रथमंत्रिक मुदाहृत्य द्वितीयत्रिकमुदाहरति युष्मदीति प्रकृत्य- युष्मदर्थे वाच्ये यथेत्यर्थः । त्वं पचसीति पच्धातूत्तरेण सिप्रत्ययेन युष्मदर्थ एवोच्यते, अत एव स्वमित्यनेन सह तदर्थस्य कर्तुं रभेदः, त्वदभिन्नकको वर्तमानकालिकः पाक इत्यर्थात् 40 तथा च युष्मदर्थसामानाधिकरण्याद् भवति द्वितीयत्रिकम् ।
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[पा०३, सू०१७]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१७७
शङ्कते-कथमत्वं त्वं सम्पद्यते, अनहमह संपद्यते- विद्वायसे' इत्यादी युष्मदो धातुसामीप्येनोच्चारणादुपोञ्चा. त्वद्भवति, मद्धवतीति, अयमाशय:-- त्वद्भिन्नस्य वस्तुनः रितपदत्वमिति भवत्येव मध्यमवचनम्, 'स्वद्यते' इत्यादौ तु स्वत्सम्पत्तिरिहास्यायते, तत्र सम्पद्यते: कर्तृत्वं त्वच्छन्दे | धातुशरीरघटितत्वमेव युष्मच्छदस्य, न तु तत्राख्यातस्य प्रतीयते इति तदाश्रयेण द्वितीयत्रिकेण भवितव्यं, कथमत्र | युष्मदर्थसामानाधिकरण्यं नापि त्वद्य-मद्यधातोविहिताख्यात5 प्रथमत्रिक प्रयुज्यते इति, प्रकृति-विकृत्योरभेदविवक्षायां | प्रत्ययानां वाच्यत्वमर्थद्वारकं तत् तु त्वत्सदृशस्य चत्रादि-45 च्चिप्रत्ययो विधीयते, तत्र प्रकृत्याश्रयं प्रथमं त्रिक विकृत्या- रूपान्यस्यैवेति कोऽवकाशश्वोद्यस्य । अथ चिन्मध्यमोत्तमश्रय च मध्यमंत्रिक प्राप्नोति, किन्तु प्रकृतेरेव सम्पत्तो कर्तृ- पुरुषयोय॑त्यासो लौकिकप्रयोगे दृश्यते, तदुपपत्तिः कथमिति त्व विवक्षितमिति तदाश्रयेण प्रथमत्रिणव भाव्यम्, ननू- प्रदर्शयितुमाह-एहि, मन्ये रथेनेति- कश्चित् कश्चित् परि
भयोरभिन्नत्वेन विकारस्य त्वमित्यस्यापि तत्र कर्तृत्वमस्त्ये-हसन्नाह-रहि इहागच्छ, मन्ये त्वदाशय भावये; तमेवाशयं 10 वेति तदाश्रयेण मध्यमत्रिकेण कुतो न भूयत इति चेदवाह-- | स्वोक्त्याऽनुवदति- रथेन यास्यसि रथेन यास्यामीति 50
युष्मदस्मदोगणित्वादिति, अयप्राशय:- युष्मद्भिन्ने युष्म- भावयसीत्यर्थ:, किन्तु नहि यास्यसि, गमननिषेधे हेतुमाहदर्थ आरोप्यते, तथा च तदर्थो गोण इति - गोणमुख्घयो- यातस्ते पितेति-ते पितव रथेन यात इति रथाभावाद् मुंख्ये कार्यसम्प्रत्ययः * इति न्यायेन आरोपितयुष्मदर्थस्य । रथेन तव यानमसंभावितमित्यर्थः । अत्र परमतं खण्डयन्
गौणस्य नेह ग्रहणमित्यन्यार्थनिबन्धन प्रथमत्रिकमेव भवि- | स्वाशयमाह-इति प्रहासे यथाप्राप्तमेव प्रतिपत्तिात्र 15 प्यति । नन्वेव गौणयोर्यष्मदस्मदोस्त्वमादेशावपि म भवि- । प्रसिद्धार्थविपर्यास किचिनिबन्धनमस्तीति-- इति-65
प्यत इति चेदत्राह- स्वमादेशो हि शब्दमात्राश्रयत्वाद। पूर्वोक्तरूपे, प्रहासे- परिहासे, यथाप्राप्तमेव- स्वभावसिद्धभवतः इति- गौणमुख्यन्यायस्यार्थाश्रिते कार्ये प्रवृत्तिः, अर्थ मेव, यथा स्यात् तथा, प्रतिपत्ति:- प्रतिपिपादयिषितार्थएव हि गौणत्वं मुख्यत्वं च, त्व-मादेशौ तु शब्दयोभवतो न । प्रतीतिर्भवति, इति प्रसिद्धस्य- लोकप्रतीतस्यार्थस्य विपत्वर्थनिबन्धनाविति तत्र नास्ति गौणमुख्यन्यायप्रवृत्तिविषय-र्यासे-- वैपरीत्ये- युष्मदर्थतान्यार्थतयोविनिमये, किश्चित20 तेति भावः । ननु सादृश्यस्थले उपमानोपमेययोस्तादात्म्यात् । स्वभावादन्यद् निबन्धनं- कारणं नास्तीत्यन्वयः। ननु विना 60
त्वमिवाचरति अहमिवाचरतीत्यवाख्यातार्थवाचित्वं युष्मद- . विशेषवचनमत्र प्रहास इति कथमवगम्येत, तत्त्वकथनस्यापि स्मदोरपि, तेन त्वद्यसे मद्यसे इति भवितव्यम्, प्रयुज्यते च | संभवादिति चेदवाह-रथेन यास्यसोति भावगमनाभिधात्वद्यते मद्यते इति, यथा विद्वानिवाचरतीति विग्रहे क्यङ् नात् प्रहासो गम्यते इति-रथेन यास्यसीति शब्देन त्वदीयो
"सो वा लुक च" [३. ४. २७.] इति सलुकि- 'विद्वायते' भावो मयाऽबगत इति सूचनेन तवाभिप्रायावगत्या मयेदं कथ्यत 25 इति, एवमिहापि युष्मदस्मदोः कर्तृत्वात् तदाश्रयेण त्रिकेण | इति सूचना प्रहासो विज्ञायत इत्यर्थः. अत्र 'भाविगमनाभि- 65
भाव्यमिति चेन, भेदप्राधान्यात् । किमुच्यते भेदप्राधान्या- धानाद्' इत्यपि पाठ: सम्भाव्यते, नहि यास्यतीति बहिर्गमनं दिति ? तद्भिन्नत्वे सति तद्धर्मवत्वं हि तादात्म्यम्, तत्र तत् । प्रतिषिध्यते इति-गमनस्य संभावितत्वेऽपि बाह्यरूपेण गमनतदन्यतरच्छक्यं प्रधानयितुं भेदमभेदं वा, इह प्राधान्येन भेद | स्य प्रतिषेधो न तु वास्तविक इति हेतोरपि प्रहासो गम्यत इत्य
आधीयते, क्यङ्प्रत्यये चिकोषिते त्वभेद: । कथं पुन रेकस्मिन् | नुषतः । मन्यतेस्त्तमपुरुषेण सह तस्यैकत्वमपि परविधीयते, 30 प्रयोगे उभयमाश्रयितुं शक्यम् ? शक्यम्. यथा "पूजा- तबाह-अनेकस्मिन्नपि प्रहसितरीति-प्रहसितरि द्वित्वे बहु- 70
ऽऽचार्यक-भृत्युत्क्षेप-ज्ञान-विगणन-व्यये नियः" [३. ३. ३१.] त्वे च द्विवचन बहुवचनयोः प्राप्तिरिति तत्रैकत्वं परविधीयते, इति सूत्रे 'नियः' इति पदे भेदप्राधान्यात् धातुभिन्नत्वमा- | किन्तु अभिधानस्वभावात् प्रत्येकमेव परिहासकति तदनुदाय नामसंज्ञा, अभेदप्राधान्यात धातुसंज्ञया इय् आदेशः । । सारमेकवचनं न्यायप्राप्तमेवेति न तत्रैकत्वस्य विशिष्य वि. तदुक्तमभियुक्त:
धानमावश्यकम् । मनु यदि मिलितरीत्या द्विकर्तृको बहु35 शब्दानां ज्ञप्तिरुत्पत्तिः स्यातां स्याहाददर्शने । कत को वा परिहासो भवेत् तदा द्वित्व-बहुत्वयोरपि प्रयोग: 75
शब्दे चैकान्ततो नित्येऽनित्ये वा तवयं कुतः?॥" स्यादिति चेदत्राह- लौकिकश्व प्रयोगोऽनुसतव्य इति न इति, तथा चोभयमेव समाहत्तं शक्यते। किञ्च त्वमि- प्रकारान्तरकल्पना न्याय्येति- प्रयुक्तानामिदमन्वाख्यावाचरतीत्यादौ उपमेयभूताचारक्रियाक्षिप्साया उपमान- | मिति सिद्धान्तेन प्रयुक्ता एव शब्दा व्याकरणेनान्वास्यायन्त क्रियायाः कर्तृत्वं युष्मच्छब्दार्थस्य न पुनरुपमेयक्रियायाः इति यथाप्रयोगस्तथैव व्याकरणेनानविधेयमिति न विप40 कत्तु त्वमित्यपि वक्तुं शक्यम् । किञ्च 'त्वं त्वद्य से, त्वं रीतस्य द्वित्व-बहुत्वयोः प्रसङ्गस्य कल्पना न्याय्या न्याय- 80
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१७८
कलिकालसर्वजश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा०३, सू०१८]
प्राप्ता, तथा चकत्वस्यैव लोके प्रयोगात् स एव भविष्यति,
एक-द्वि-बहुषु ।। ३. ३. १८. ।। न द्वित्व-बहुत्वे भवत इत्यर्थः ।
त०प्र०- अन्याविषु यानि श्रीणि त्रीणि वचनामि अत्रायमभिसन्धिः- “प्रहासे च मन्योपपदे, मन्यतेरुत्तम | उक्तानि तानि एक-द्वि-बहावर्थेषु परिभाष्यन्ते- एकस्मिन्नर्थ एकवच" [पा० सू० १.४.१०६.] इति पाणिनीयसूत्रेण | एकवचनम् द्वयोरर्थयोद्विवचनम्, बहष्वर्थेषु बहुवचनम् । स .5 प्रहासे गम्यमाने मन्यधातुरुपपदं यस्य तस्माद् धातोर्मध्यमः। पति, तौ पचतः, ते पचन्ति इत्यादि । क्चनभेदान्नान्या. 45
पुरुषो भवति, मन्यतेश्चोत्तम: पुरुषो भवति, स चेकवद् | दिभिरेकादीनां यथासंख्यम् ॥१८॥ भवतीति विधीयते. 'एहि, मन्ये- ओदनं भोक्ष्यसे इति, भुक्तः सोऽतिथिभिः, एहि, मन्ये- रथेन यास्यसीति, यातस्ते | श० म० न्यासानुसन्धानम्- एक० । पूर्वसूत्रेण
पितेति चोदाहरणम् । अत्र 'एहि, मन्यसे- ओदनं भोक्ष्ये' प्रथमादित्रिकाणामन्याद्यर्थविशेष परिभाषशात् तत्र च 10 इति तत्त्वकथनावस्था, तत्र मन्यतिः परिहास्यमानकर्तक । प्रत्येकं त्रिके त्रयाणां वचनानां क्रमेणकत्वाद्यर्थेषु परिभाषणार्थ
इति परिहसित्रपेक्षया युष्मदा व्यवहार्य इति युष्मदर्थवाचक- सूत्रमिदमिति पूर्वसूत्र शेषतयेदं सूत्र व्याख्यायते- अन्यादिषु 50 तया तत्र मध्यमपुरुषः, 'ओदनं भोक्ष्ये' इति तदीयभावानु- यानि त्रीणि श्रीणि वचनान्यूक्तानीत्यादिना, तथा च वाद इति तस्य [परिहासस्य | स्वं प्रति अस्मदा व्यवहार्य- | पूर्वसूत्रमिहापि सम्पूर्ण सम्बध्यते, सूत्रे साकाङ्क्ष पदष्टमन्वयार्थ
त्वेन अस्मदर्थापेक्षया उत्तमपुरुषश्च न्यायप्राप्त इति तद्विपरीत- | च पदं * अपेक्षातोऽधिकार: * इति न्यायात् सूत्रान्तराद15 भावाय मन्योपपदाद भुजेमध्यमपुरुषविधानं, मन्यतेरुत्तम- नुवर्तनीयं सर्वत्रेति नियमात; एकश्च द्वौ च बह्व श्वेत्यर्थे
पुरुषविधानं च क्रियते । यत्र च द्वो मन्तारौ भोक्तारी वा | इतरेतरयोगद्वन्द्व त् सप्तमी। एकादिषु भावप्रधानो निर्देशः, 55 तावेव, यत्र वा यो मन्तारो भोक्तारी वा, तत्रोभयत्र | ननु विना यत्नं भावप्रधान निर्देशोऽयमिदं कथं विज्ञास्यते, द्विवचन बहुवचनयोः प्राप्तिरिति मन्यतेरुत्तमपुरुषस्यकवचन यत्नश्च तदुत्तरं स्वप्रत्ययविधानमेव स च द्वन्द्वान्तेपि विहितः
विधीयते भुज्यादेश्व यथाप्राप्तम् । तेन चाहमेव कल्पये- | प्रत्येक समन्स्यते. तथा च द्विबहुत्वेष्विति सूत्र विधेयमिति 20 यत् त्वं भोतुमिच्छसि, परं ते भोजन न भविष्यति, यतो- चेन्न- अन्तरेणापि यत्नं भावप्राधान्यस्य परिज्ञातुं शक्य
तिथिभिः पूर्वमेव स ओदनो भुक्त इति प्रहासः प्रतीयते. | त्वात् । कथमिति चेदित्थम्-इह कदाचिद् गुणो गुणिपरो 60 किन्तु तदीयभावाविष्करणमिदमिति न ज्ञायते, तज्ज्ञानं च भवति, यथा- पटः शुक्ल इति, अत्र च गुण-गुणिनोः सामाप्रकृतसूत्रार्थानुसधानजन्यमेव । अत्र हि न स्वमतमनद्यते नाधिकरण्य भवति, तत्र च विना भावप्रत्ययं भावप्राधान्यं
वक्त्रापि तु तदीयाभिप्रायानुवादः क्रियत इति तथा सति | न प्रतीयते । यदा तु गुणिना गुणो विशेष्यते- पटस्य शुक्ल25 मन्यतेमध्यमो 'भुजेरुत्तमः प्राप्त इति वैपरीत्य सूत्र विना न | स्वामति । एवामहा
त्वमिति । एवमिहापि 'अन्ययुष्मदस्मदि' इत्यनुवृत्तं षष्ठ्या संभवति । लौकिकप्रयोगानुसरणं च सूत्रकृता, न तु शिष्येण, | वि
| विपरिणमय्य अन्ययुष्मदस्मदर्थानामेकस्मिन् द्वयोर्बहुषु च 65 शिष्या हि लक्षणकचक्षुष्काः, लक्ष्यकचक्षुष्कः शास्त्रकत - | क्रम
क्रमेणेकवचनं द्विवचन बहुवचनमिति व्याख्यातुं शक्यत्वात् । भिरनुशास्या इति तदर्थमनुशासनस्यावश्यकत्वमिति पाणि- तथा चान्ययुष्मदस्मदर्थेषु विहितानि त्रीणि त्रीणि वचनानि नीयानां मतम् । स्वमते च स्वानुमानसूचनेनाऽपि परिहासो
तेषामेकत्व-द्वित्व-बहुत्वेषु क्रमश: परिभाष्यन्त इति सूत्रवा30 गम्यत इति न तदर्थ वचनावश्यकता। एकत्वं च परि- | क्यार्थधीः । वाक्यार्थकाले एकत्वादीनामेकवचनादीनां च
हासतुरेकत्वादेवात्र सिद्धम, यत्रापि बहवः परिहसितारस्त- | समुदितत्वेऽपि यथासख्यन्यायेन "शत्रु मित्रं विपत्ति च जय 70 त्रापि स्वभावात् प्रत्येक परिहसितृत्व विवक्ष्यत इति न | रञ्जय भञ्जय" इत्यादाविव क्रमेणैव पदार्थान्वयः, तथा • मन्यते द्वित्व-बहुत्वापत्तिरिति स्वीक्रियत इति न तदनुशासनं । चाह- एकस्मिन्नर्थे एकवचनमित्यादिना, 'एकस्मिन्नर्थे क्रियत इति विवेकः।
इत्यत्र अन्यादीनामिति सम्बध्यते आकाङ्क्षावशात्, तथा च 35 अत्र सूत्रे अन्ययुष्मदस्मदां त्यदादित्वेन समाहारकर- अन्यार्थे विहितानि यानि तिवादीनि च वचनानि तत्र
णात् सहोक्तिसत्त्वाच्च "त्यदादिः" [३.१.१२०.] इति | अन्यार्थस्यैकत्वे एकवचनम्, तस्यैव द्वित्वे द्विवचनम्, तस्यैव 75 सूत्रेणास्मद एव परत्वाच्छेष: स्यादिति न प्रकृतसूत्र निर्देशः | बहत्वे च बहवचनमित्यादिरीत्यैव लक्ष्यसंस्कारको वाक्यासंगत इति चेन्न- पूर्वं शब्दपरत्वविवक्षयाऽनुकरणरूपत्वे- बयार्थबोधो विज्ञेयः, एवं युष्मदस्मदोरपि विषये लक्ष्यसंस्का
नार्थवाचकत्वाभावादेक शेषाभावे सति पश्चादर्थपरत्वेन ब्या- रोपयोगि वाक्यं कल्पनीयम् । इह च द्विशब्दसाहचर्यात् सह-40 ख्यानेऽपि दोषाभावात् ॥ ३.३.१७॥
विवक्षितयोरेक-बहशब्दयोः संख्यार्थयोरेव ग्रहणं न त्वन्यार्थयो।
नाधिका यदा
अन्धयुष्मद
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[पा०३, सू०१६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१७६
"एकोऽन्यार्थे प्रधाने च प्रथमे केवले तथा ।
यथासंख्यं नेष्टमपितु अर्थसामार्थ्यलब्धेनैकवचनादिनैवेति साधारणे समानेऽल्पे संख्यायां च प्रयुज्यते ।।" सूचयतीति ।। ३. ३. १८.॥ इति रीत्यकशब्दस्यानेकार्थत्वम्, बहुशब्दस्य संघवपुल्याद्यर्थकत्वमिति प्रकृते संख्यार्थ कयोरेव तयोर्ग्रहणं द्विसाहचर्यात् ।। नवाद्यानि शतृ-कसू च परस्मैपदम् ॥३. ३. १६.।। 5 अत्र पाणिनीयाः- एतच्च सूत्र स्यादित्यादिप्रत्ययसाधारणम्, त०प्र०-- सर्वासां विभक्तीनामाद्यानि नब नव वच... स्यादिष्वप्येकत्वादावेकवचनादीनां विधानाद, यदि च तक- | नानि शतृ-कसू च प्रत्ययो परस्मैपदसंज्ञानि भवन्ति । तिव 45
बचनमित्यादिमहासंज्ञाबलेनैव विनापि सूत्रमेकत्वादावेक- । तस् अन्ति, सिव यस् य, मिव वस् मस एवं-सर्वासु । वचनादीनां विधानमिति स्वीश्यिते तहि प्रकृतेऽपि तथा | परस्मैपदसंज्ञाप्रवेशा:- "शेषात् परस्मै" इत्यादयः ॥१६॥
सम्भवत्येवेति व्यर्थ मेवेदं सूत्र स्यात् । किञ्च लोके बिना पि 10 शास्त्रमे करद.दावेकवचनस्य प्रयोगः प्रसिद्ध एवेत्यनारम्भणीय- श० म० न्यासानुसन्धानम्-नवाद्यानि० । वर्तमा
मेवेद सूत्रमिति चेदत्रोच्यये- यद्यपि शास्त्रेऽनुपात्तोऽप्यर्थः । नादिषु प्रत्येकमष्टादशवचनानि, तेषु विभागद्वयम्-तिवादिप्रयोगादेव व्यवस्थाप्यते, त्यादिविधायकवचने च संख्या- | मस्पर्यन्तमेको भाग आद्यः, ते आदि-महेपर्यन्त द्वितीयो भाग: 50 विशेषानिर्देशात् विशेषानुपादानेनं व तेषां विधानम्, कत. परः परिकल्पितः, तत्र भागद्वयस्य लाघवेन व्यवहारार्थ
कर्मणोविधीयमानास्त्यादयः संख्यायुक्त योरेव तयोः स्वस्तत्र | पृथक पृथक् संज्ञे विधीयेते, तत्र प्रथमोपस्थिततया पूर्वमाद्य15 संख्याया अवश्याभ्युरेयत्वात् तत्र कुत्र का संख्येति च भागस्प तत्सधर्मणोश्च शतृ-कस्वोरनेन परस्मैपदसंज्ञा विधी
लौकिकप्रयोगादेव सेत्स्यतीति नावश्यकत्वं सूत्रस्येति शङ्कितं यते, तदाह- सर्वासां विभक्तीनामित्यादिना, सर्वपदेन शक्यते, तथापि लोकिक प्रयोगे संख्याया विप्रयोगो- विरुद्धः । वर्तमानादयो दश विभक्तयः समुपस्थाप्यन्ते, यद्यपि 55 प्रयोगोऽपि दृश्यते, यथा- अक्षीणि मे दर्शनीयानि, पादा मे ! * अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो वा * इति न्याये
सुकुमारा इति, अत्र द्वित्व-युक्तयोरप्यक्षिपादयोबहुवचनं नानन्तरायाः क्रियातिपत्तेरेवाद्यानां नवानां परस्मैपदसंज्ञेति 20 प्रयुज्यने, तथा मा प्रयो नीत्यर्थं नियमार्थमिदं सूत्रमारब्ध- शङ्कितुं शक्यते, तथापि "लुदिद्-धुतादि."- [३ ४६४.]
व्यमेवेति । तत्र नियमो द्विधा संभवति- प्रत्ययनियमोऽर्थ- इत्यादिसूत्रेऽद्यतन्या विभक्तेः परस्मैपदेऽविधानादन्यविभत्तीनियमश्च, एकस्मिन्नेवैकवचनं द्वयोरेव द्विवचन बहष्वेव बहु- | नामप्येते मंझे इत्यवगम्यत इति नेहानन्तरस्य विधिति 60 वचन मिति प्रत्ययनियमः, एकस्मिन्नेवैकवचनमेव, द्वयोद्धि- न्यायः समाश्रीयत इत्यवगम्यते; अथवा सूत्रे सूत्र सम्बध्यते
वचनमेव, बहुषु बहुवचनमेवेत्यर्थनियमः, तत्रार्थः प्रकृतस्तम- प्रकरणे प्रकरणमिति शास्त्रकृत्परम्परया विभक्तिप्रकरणमेवा25 पेक्ष्यव नियमो युक्त इति प्रत्ययनियमपक्ष एवं भाष्यादि- | नेन संज्ञाप्रकरणसुत्रेण सह सम्बद्धमिति सर्वासां विभक्तीना
सम्मतः । एवं च अक्षीणि मे दर्शनीयानील्यादयः प्रयोगा| मिह सम्बन्धः * अपेक्षातोऽधिकार: * इतिन्यायादित्याअसाधव एव. अवयवगतं वा बहत्वमारोप्य तथाप्रयोग स्थेयम् । विभक्तयश्च स्वरूपत एव सम्बध्यन्ते न तु संज्ञया, 65 इनि समाधातव्यम् ।
| तत्र सर्वत्राष्टादश विभक्तयः पठिता इति तासू आद्यानां उदाहरति- स पचतीत्यादिना, स इत्यनेनैकत्वयुक्तः। नवानामनेन परस्मैपदसंज्ञा विधीयते. तदाह- आद्यानि नव 30 कर्ता प्रतीत इति त्यादिष्वेकवचनं तिवेव तत्र भवति, न ! नव वचनानि विभक्तीनां बहुत्वेन प्रत्येक नवसु संज्ञाप्रवृत्तये द्विवचन-बहुवचने, एव-तौ पचत: इत्यादावपि व्यास्येयम् । नव नवेति वीप्सया क्थनम् । शत-क्वसू चेति- "शत्रानशाइत्यादीति- एवं रीत्याऽन्ययोरपि त्रिकयोग्दाहार्यमिति | वेष्यति तु सस्यौ" [५. २. २०. ] इति सूत्रविहितः शतृ- 70 भावः । ननु अन्ययुष्मदस्मदां त्रित्वेन एकद्विबहुना त्रयाणां | प्रत्ययो वर्तम नाममानविषयो भविष्यन्तीविषयन, "तत्र
तत्र संख्या क्रमेणान्वये- अन्यार्थे त्रिके एकवचनं युष्मदर्थे | वसु-कानौ तद्वत्" [५. २. २.] इति सूत्रविहितः परोक्षा35 विके द्विवचनमस्मदर्थे त्रिके बहुवचनमिति रीत्यैव सूत्रार्थो | विषयः क्वसुश्च परस्मैपदसंज्ञः । परस्मैरदमित्यन्वर्थताप्रती
भविष्यति, न पूर्वप्रतिपादितरीत्येति चेदत्राह-वचनभेदा- | त्यर्थ महासंज्ञाकरणम् परस्मैस्वभिनाय पद्य ते प्रयुज्यत इति नान्यादिभिरेकादीनां यथासंख्यमिति अयमाशयः- ला- परस्मैपदमिति व्युत्पत्तेः, अत्र समासे सत्ति चतुा अलुप्, 75 घवानुरोधी सूत्र कृत् पूर्वसूत्रे समाहानिर्देशेनान्ययुष्मदस्मदीति । पूर्वाचार्य: सामान्यतः कर्तृगामिनि क्रियाफले आत्मनेपदं,
एकवचनेन व्यवहृतवान् प्रकृतसूत्रेऽपि तथैकवचनेनैव व्यव- | परगामिनि क्रियाफले परस्मैपदमित्युभयपदिधातुषु व्यवस्था40 हर्त्तव्ये बहुवचनेन संख्याभेदं प्रयोजयन्-इह पूर्वोपात्तेन सह | पनादेतयोः संज्ञयोरन्वर्थत्वं प्रतीयते, "ईगितः" [३ ३६५.]
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा० ३, सू०२०-२१ ]
इति सूत्रेण फलवति कर्तरि आत्मनेपदविधानात् कर्तृभिन्ने प्रयुज्यमानत्वं चोभयपदिधातुषु फलवकर्तरि प्रयुज्यमानत्वेन क्रियाफलवति ततः परस्मैपदमित्यर्थत एव लभ्यत इति | संगतमित्युक्तं पूर्वसूत्रव्याख्यायाम् । परस्मैपदाऽऽत्मनेपद- 40 स्वमतेऽपि सा व्यवस्था समाहतैवेति तां हृदि कृत्ववेद महा- | शब्दयोः समस्तत्वेऽपि "परा-ऽऽत्मभ्यां डे." [३. २. १७.]
संज्ञाकरणम्, अन्यथा संज्ञाया लाघवार्थत्वेन लघुनैव शब्देन | इति डेश्चतुर्थ्य कवचनस्यालुप । पराणि नव स्वरूपतो निदि5 व्यवहारः कृतः स्यात् । यद्यपि केवलपरस्मैपदिषु केवला- शति-ते आते इत्यादिना । अन्यास्वपि पराणां नवानामुत्मनेपदिषु च धातुषु नेहशमन्वर्थत्व सर्वथा संघटते, तथापि | दाहरणमतिदिशति- एवं- सर्वास्विति । आत्मनेपदसंज्ञोयत्रान्वर्थतासंभवस्तादृशोभयपदिधातुमादायापि प्रकृतमहा- | पयोगिविधिसूत्रमाह- आत्मनेपदप्रदेशा:-"सिजाशिषा- 45 संज्ञासार्थक्योपपादने क्षत्यभावः । संख्यया निर्दिष्टान्याद्यानिमात्मने" [४.३.३५. इत्यादयः इति, इतोऽग्रिमसूत्रा
वचनानि स्वरूपतो निर्दिशति- तिव तस अन्ति इत्या- देवात्मनेपदविधिप्रकरणस्य प्रारब्धत्वेऽपि तत्रात्मनेपदशब्दो10 दिना । वत्तमानाया नवाद्यानि वचनान्युदाहृत्य परासां | चारणाभावात् 'तत्'पदेनैवात्मनेपदोपस्थ नादात्मनेपदविधाविभक्तीनामप्युदाहरणमतिदिशति- एवं सर्वासू इति- | यकसूत्रमिह नोदाहतमपि तु आत्मनेपदविषये कार्यविधायक
कास्वन्यास्वपि विभक्तिषु नवाद्यानि प्रकृ-सूत्रमेव, तस्यापि आत्मनेपदसंज्ञामाश्रित्य कार्यविधायकत्वेन 50 तरीत्या परस्मैपदसंज्ञार्थमुदाहार्याणीति भावः। संज्ञाया | संज्ञाप्रदेशत्वेन व्यवहत्त शक्यत्वात्, आदिपदेन एतदग्रिम
विध्युपकारकत्वेन प्रकृतसंज्ञोपयोगिविधिसूत्रप्रदर्शनस्थापि सूत्राणि- "दुह-दिह-लिह-गुहो दन्त्यात्मने वा सकः" [४. ३. 15 कस्मै प्रयोजनाय प्रकृतसज्ञाविधानमिति शिष्यजिज्ञासाप- | ७४.] इत्यादीनि सूत्राणि चोदाहार्याणि ॥ ३.३.२०.॥
नोदायावश्यकत्वमित्यत आह- परस्मैपदसंज्ञाप्रदेशा:"शेषात् परस्म" [५.३.१००.] इत्येवमादयः इति,
तत् साप्या-ऽनाप्यात् कर्म-भावे कृत्य-क्त-खलाश्च प्रकृतसूत्राग्रिमसूत्राणि-परस्मैपदविषये कार्यविधायकसूत्राणि
॥ ३. ३. २१. ।।
55 चात्र त्यादिपदेन संग्राहयाणि ।। ३..३ १९. ।।
त०प्र०-तद्-आत्मनेपदं, कृत्य-क्त-स्खलाश्च प्रत्ययाः ..-- -- " --......
साप्यात्-सकर्मका धातोः कर्मणि, अनाप्यात् अकर्म20 पराणि काना-ऽनशौ चात्मनेपदम् ।।३. ३. २०. कादविवक्षितकर्मकास भावे भवन्ति । क्रियते कटश्चत्रेण, त० प्र०-सर्नासां विभक्तीना पराणि नव नव बच
क्रियमाणः, करिष्यमाणः, चक्राणः । भावे- भूयते भवता, नानि काना-ऽऽनशी च प्रत्ययावात्मनेपदसंज्ञानि भवन्ति । | भूयमानं भवता, सकर्मका अप्यविवक्षितकर्माण: ककनिष्ठ-60 ते आते अन्ते, से आथे ध्वे, ए वहे महे, एवं- सर्वासू । आ.
व्यापारा अकर्मका भवन्ति, तेषां भावेऽपि प्रयोग:-कियते स्मनेपदप्रदेशा:- "सिजाशिषावात्मने' [४. ३. ३५. ]
भवता, मृदु पच्यते भवता, पञ्च वारान् भुज्यते भवता । 25 इत्यादयः ॥२०॥
कृत्य-कार्य: कर्तव्यः करणीयो देयः कृत्यः कटो भवता,
भवतो शयितव्यम्. भवता शेयम्, भवता कार्यम, कर्तव्यम, श० म० न्यासानुसन्धानम्-पराणि । नवेति पदं | करणीयम्; देयं भवता, कृत्यं भवता। क्त- कृतः कटो 65 पूर्वसूत्रादनुवृत्तम्, इत्यादिविभक्तयश्च सर्वाः सम्बध्यन्त एव, | भवता, शयितं मयता, कृत भवता । सकर्मकावपि क्लीये एवं च परपदस्य नित्यसाकाङ्क्षत्वेन प्रतियोगिविधया नवा- | क्तमिच्छन्त्येके- ग्राम गत भवता, ओदनं भुक्तं भवता ।
द्यानि सम्बध्यन्ते: अनुयोगिविधया संज्ञितया च शेषाणि | बलर्थ- सुकरः करो अवता, सुशयं भवता, सुकरं भवता, 30 वचनानि सम्बध्यन्ते, तदाह-सर्वासां विभक्तोनां पराणि सुकटंकराणि वोरणानि, ईषदाढय भवं भवता, सुज्ञान तत्त्वं
नव नव वचनानोति, परपदेन त्यादिनवाद्य प्रत्ययातिरि- मुनिना, सुग्लानं कृपणेन । "काला-ध्व-भाव-देश वा." TO क्तानि नव वचनानि ग्राह्याणि, आद्यनववचनापेक्षस्य पर. [२.२ २३.1 इत्यादिना काला-ध्व-भाव-देशानां कर्मस्वस्य सांनिध्याद् ग्रहीतुमौचित्यात् । कानाऽऽनशो चेति- संज्ञाया अकर्मकत्वस्य च विधानात तखोगे कर्मणि भावे
"तत्र वसु कानौ च तद्वत्" [५. २.२] इति मूत्रविहितः | चात्मनेपदादीनि भवन्ति-मास आस्यते. कोशो गुडधाना35 परोक्षाविषय: कान: “शत्रान शो." [५. २. २०.] इति | भिभूयते, गोदोहः सुष्यते, नदी सुप्यते, मास आसितव्यः, विहित आनश् च आत्मनेपदसंज्ञो भवत इति योजना । | मास आसितः, मासो दुरासः; भावे- मासमास्यते, क्रोशआत्मनेपदमित्यपि महासंज्ञा, सा चाप्यन्वर्था, आत्मने- | मधीयते, ओदनपाकं स्थीयते, कुरुन् सुप्यते, मासमासित- 75 स्वस्मै-पद्यते-प्रयुज्यत इत्मात्मनेपदमिति व्युत्पत्तेः, आत्मने | व्यम्. मासमालित. मासं स्वासम् । भावे च युष्मस्मसंबन्ध
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[पा० ३, सू० २१]
।
निमित्तयोः कर्तृ - कर्मणोरभावात् प्रथममेव त्र्यं भवति, साध्यरूपत्वाच्च संख्या योगो नास्तीति औरसगिक मेकवचनमेव भवति । पाक: पाकt पाकाः, पाको वर्तते, पाकं करोती त्यादौ च नव्ययकृदभिहितो भावो द्रव्यवत् प्रकाशत इति 5 संख्यया लिङ्गेन कारकैश्च युज्यते, त्याविने वाव्ययेनाभिहितस्त्वसत्त्वरूपत्वान्न युज्यते 'उष्ट्रासिका आस्यन्ते, हतशायिकाः शय्यन्ते' इति तु बहुवचनं कृदभिहितेन भेदोपचारा भवतीति ||२१||
श० म० न्यासानुसन्धानम्- तत् साध्या० । त्यादि10 विभक्तीनां परस्मैपदात्मनेपदाभ्यां विभागं प्रदश्यं तयोः कस्य कुत्रार्थे, कुतः प्रकृतेर्वा विधानमित्यस्यार्थस्य प्रदर्श नार्थमिद प्रकरणमारभ्यते, तत्रात्मनेपदविषये बहुवक्तव्य तया पूर्वं तद्विधायक प्रकरणमेवारभते । ते आदीनामात्मनेपद संज्ञकाना क्तादीनां कृत्प्रत्ययार्थविशेषे शक्तिग्राहकमिदं 15 सूत्रम्, शक्तिश्व बोध्य-वोधक भावापरपर्यायाऽभिधा नाम पदार्थान्तरमिति वैयाकरणसमयः । तदिति पृथक् पदं सर्वनाम आत्मपदपरामर्शकम् सर्वनाम्नामुत्सर्गतः पूर्वप्रधानपरामधित्वात् । आप्यं - कर्मकारकम्, अतिविषयमाप्यम्, आप्तिः सम्बन्धः, स च कर्तृव्यापारद्वार कफलाश्रयत्वरूपः, आध्य20 शब्दस्य तादृशसम्बन्धाश्रये योगरूढिः, आप्येन सह वर्तते इति साप्यम्; बहुव्रीहिसमासे सहशब्दस्य सादेशः, साप्यः सकर्मकः न विद्यते विवक्ष्यते वा आप्यं यस्मिन् सोऽना प्योऽविद्यमानकर्मकोऽविवक्षितकर्मकच साध्यवानाप्यश्र्वानयोः समाहार द्वन्द्वे साप्यानाप्यं तस्मात्- साप्यानाप्यात् । कर्म च 25 भाव वेत्यनयोः समाहारः- कर्मभावं तस्मिन् - कर्मभावे ।
कृत्यश्च क्तश्च खलर्थश्वेत्येतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वे - कृत्यक्तखलर्थ:, 'कर्मभावे' इत्यनेन 'साप्यानाप्यात्' इति पदेन चोपस्थितयोरर्थयोर्ययासंख्येनान्वयः । तदाह- साप्यात्सकर्मकाद् धातोः कर्मणि, अनाप्याद अकर्मकादवि 30 वक्षितकर्मका [धातो: ] भावे भवन्ति इति । न च
सहोती -- सह विवक्षायां द्वन्द्वो विधीयते, सह विवक्षा च मिथोविशेष्य-विशेषणभावानापन्नयत्तन्निष्ठविषयतानिरू
पितविषयताश्रयानेकपदसमुदायस्यै धर्मावच्छिन्नेऽन्वयित्व रूपा, प्रकृते च साध्यस्य कर्मणान्वयोज्नाप्यस्य भाव इति स्पष्टं 35 सहोक्त्यभावात् कथं द्वन्द्वस्य साबुत्वम्, अत एव 'अजाविधनौ
देवदत्त - यज्ञदत्ती' इत्युक्तौ न ज्ञायते कस्याजा धनं कस्यावय इति सन्देहः प्रदर्शितः पतञ्जलिना, अजाविधनसमुदायस्य देवदत्त - यज्ञदत्तसमुदायेन सहान्वयात् इति वाच्यम्; व्यास्थानतो विशेषप्रतिपत्तिर्नहि सन्देहादलक्षणम् इति
१८१
न्यायेनाचार्य कृतव्याख्यानेन सन्देहस्यापाकरणीयत्वात् । अय- 40 माशय:- - पूर्व कर्म भावममुदायस्य साध्यानाप्यसमुदायेऽन्वयं परिकल्प्य द्वन्द्वसाधुत्वे सति पश्चाद् यथासंख्यन्यायेन सूत्रसार्थक्यार्थं लक्ष्यसंस्कारको वाक्यार्थबोध इति पूर्व साध्यानाप्यात् कर्म-भावे आत्मनेपदमित्येव समस्तवाक्यार्थ बोधः, पश्चादेकत्र कर्म - भावार्थयोः सहावस्थानासंभवाल्लक्ष्यसंस्कारा- 45 । संभावनायां जातायां यथासंख्येन वृत्त्युक्तो वक्यार्थबोध इत्याचार्यव्याख्यानगम्यमिति । सकर्मकत्वं च फलव्यधिकरणव्यापारवाचकत्वम्, फल व्यापारयोर्वेयधिकरण्यं तु फलाश्रयतानियामकसम्बन्धेन बोध्यम्. फलतावच्छेदक [फलाश्रयतानियामक ] सम्बन्धव अभिधानस्वभावाधीनः, अत एव 50 त्यजि- विभज्यो विभागानुकूलव्यापारवाचकत्वेन साम्येऽपि विभागावधिभूत वृक्षादिनिष्ठप्रतियोगित्वविशिष्टसमवायस्त्यज्धातो फलतावच्छेदकः सम्बन्धः कल्पनीयः, तेनैव सम्बन्धेन विभागस्य वृक्षवृत्तित्वात् तदनुकूलव्यापारस्य च पत्रनिष्ठत्वात् फलव्यापारयोर्वेयधिकरण्यमिति त्यज्धातोः सकर्मकत्वं वृक्षं 55 त्यजति पत्रमिति प्रयोगात् विभजतौ तु पत्रादिरूपकर्तृनिष्ठानुयोगित्वविशिष्टसमवायः फलाश्रयता नियामक:, तेन विभागरूपफल - व्यापारयोः कर्तरि सामानाधिकरण्यमिति विभजतेकर्मकत्वम्, फलसमानाधिकरणव्यापारवाचकत्वमकर्मकत्वमिति लक्षणात् । एकार्यकयोः [ समानार्थकयोः ] कथमेवं 60 भेद इति चेत् ? अनादिपरम्परागताभिधानस्वाभाव्यादेवेति ब्रूमः । तत्र पूर्व साप्यात् कर्मणि आत्मनेपद मुदाहरति-क्रियते कटक्षेत्रेणेति उत्पादना प्रकृते करोतेरर्थः, सा चोत्पत्त्यनुकूलव्यापार एव, उत्पत्तिश्च फलं कर्मस्थम्, तदनुकूलश्च व्यापारः कर्तृ स्थ इति फल व्यापारयोर्वेयधिकरण्याद् 65 भवति करोतेः सकर्मकत्वम्, इति ततः कर्मणि तेप्रत्ययस्य विधानात् कर्मणोऽभिहितत्वेन कटात् प्रथमा विभक्तिः, कर्तुरनभिहितत्वेन च चैत्रात् तृतीया विभक्ति:, इति क्रियते कटर्श्वत्रेणेति भवति । क्रियमाणः इति कर्मणि आनश् वर्त्तमानाविषयः, करिष्यमाणः इत्यत्र च कर्मणि स एव 70 भविष्यन्तीविषयत्वात् सस्यः । चक्राणः इत्यत्र कानः परोक्षाविषयः, परोक्षावद्भावाद् द्वित्वादि कार्यम्, सर्वत्र कटत्रेणेति कर्म-कर्तृबोधकपदे सम्बध्येते, विना ताभ्यां केवलस्यास्य पदस्य प्रयोगानर्हत्वात् कारकं विना क्रियानिष्पत्त्यभावाच्च । कर्मणि आत्मनेपदमुदाहृत्य भावे तदुदाहरति- 75 भावे- इति प्रकृत्य - भूयते भवता इति । अकर्मकाद् धातोर्भावे आत्मनेपदं भवतीत्युक्तम् अकर्मकत्वं च द्वेधा विभक्तं- कमत्यन्ताभाववत्त्वेन अविवक्षितकर्मत्वेन च तत्र कर्मात्यन्ताभाववन्तो भवत्यस्ति विद्यतिप्रभृतयः, एष्वनेकक्षण
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कलिकालसर्वजश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा० ३, सू० २१]
20 प्रति
मुहूर्त-दिन मास-वत्सरादिकालस्थायिनी कालगतपौर्वापर्य-णिकप्रयोगाः साधवो भवन्ति । यद्यपि तत्रापि क्रियायां न माश्रित्य क्रमवतीति क्रियारूपा सत्ता धात्वर्थः 'उत्पन्नस्य | द्वित्व-बहुत्वादिप्रतीतिरिति हतशयनसदृशं शयनम्, उष्ट्रोपसत्त्वस्य स्वरूपधारणरूपां सत्तामाचष्टेऽस्त्यादिः' इति निरु- वेशनसदृशमुपवेशन मित्याद्येव प्रतीयते, अत्र द्रव्यवद्भाव
तोक्तेः फलांशस्य कर्मरूपस्य सूक्ष्मतयाऽप्यप्रतीते: कर्मात्य- कृत्प्रत्ययार्थ उपमानम्, सामानाधिकरण्यादुपमेयभूतशयन5 ताभाववत्वेनाकर्मकत्वमेतेषाम्, अत एवैतेभ्य आख्यातेन | रूपसाध्यक्रियावचनाल, तथाभूतोपवेशनात्मकसाध्यक्रिया- 45 कतुं रविवक्षायां भावे प्रत्ययः, भावश्च धात्वर्थ एव "धात्वर्थ: वचनाच्च शेतेरास्तेश्च भावेऽपि बहवचनम्, उपमानोपमेययोः केवल: शुद्धो भाव इत्यभिधीयते ।" इत्यभियुक्तोक्तः, भाव- समानविभक्तिकत्वनियमातु । उपमानोपमेययोः समानवचनयतीति भाव इति व्युत्पत्त्या व्यापारस्य भावशब्दाभिधेयत्वेन त्वस्य समानलिङ्गत्वस्य चावश्यकत्वादेवसकलधातूनां च क्रियारूपव्यापारवाचकत्वेन यद्यपि भावार्थस्य
"हंसीव धवलश्चन्द्रः सरासीवाऽमलं नभः । 10 धातुन वाभिधानाद् • उक्तार्थानामप्रयोग: * इति न्यायेन । हरीतकी भुक्ष्व राजन् ! मातेव हितकारिणीम् ॥" 50
ततो भावे प्रत्ययो नोचितस्तथापि यत्र कर्मादिगतस्य व्या. | इत्यादिप्रयोगाणामनुचितत्वमाहुरालङ्कारिकाः। भावाख्यापारस्यैव प्राधान्येन विवक्षा तत्र धात्वर्यानुवादकस्यापि तोदाहरणमुक्त्वा कृद्भावप्रत्ययोदाहरणमाह-भूयमानं भवप्रत्ययस्यावश्यकत्वमेव, प्रत्ययं विना पदत्वाभावेनापदस्य तेति- अत्र वर्तमानाविषय आनश् "क्य: शिति" [३. ४.
प्रयोगानहत्वात् । तथा चात्र वर्तमानाविषये भावे विवक्षिते ७०.] इति क्यः, "अतो म आने" [४. ४. ११४ ] इति 15 'ते' इत्यात्मनेपदं भवति, अत्र च कर्तृरात्मनेपदेनानभिधा- मागमः। स्वाभाविकमकर्मकमुदाहृत्याविवक्षितकर्मत्वेनाकर्म-55
नाद् युष्मदादिना सामानाधिकरण्याभावान्न कस्यापि त्रिकस्य कमदाह माह- सकर्मका अपि अविवक्षितकर्माणः प्राप्तिरिति त्रीणि त्रीण्यन्ययुष्मदस्मदि" [३ ३.१७.] इति ककनिप्रव्यापारा अकमका भवन्ति इति । वस्तुतः सूत्रेऽन्यपदस्य युष्मदस्मद्भ्यां सामानाधिकरण्याभावे सति फलव्यधिकरणव्यापारा अपि धातवः विवक्षावशात् फलांप्रथमत्रिकविधानार्थत्वस्य स्वीकारात् भवति प्रथमत्रिक- | शस्याप्रतीयमानत्वेन तदीयव्यापारस्य केवल कर्तवाधिकरणप्राप्तिः, तत्र यद्यपि द्विवचन-बहुवचने अपि संभवतस्तथापि मिति तत्रव क्रियाजन्यफलमपि भवतीति फलसमानाधिकरण- 60 शुद्धधात्वर्थस्याख्यातप्रत्ययवाच्यस्यासत्त्वरूपत्वेन तत्र संख्या- . व्यापारवाचकत्वरूपमकर्मकत्व तेषां भवति । अन्ये चानेकन्वयासम्भवेन न द्विवचन-बहवचने, एकवचन च संख्यानपेक्ष- | विधामकर्मकक्रियामाहः, तथाहिमोत्सगिकमिति विनापि संख्या भवति, 'एकवचनमुत्सर्गतः "धातोरान्तरे वृत्तेर्धात्वर्थेनोपसंग्रहात् ।
करिष्यते' इति भाष्योक्तिः । एवं च त्वया मया भवता वा प्रसिद्धरविवक्षातः कर्मणोऽकमिका क्रिया।" 25 भूयते' इति यथा भवति तथा 'युवाभ्यामावाम्यामन्याभ्यां । इत्युक्तमभियुक्तः, धातोरर्थान्तरे वृत्तेरकमिका क्रिया, 65
वा भूयते, युष्माभिरस्माभिरन्यर्वा भूयते' इत्येव भवति, न धात्वर्थेन कर्मण उपसंग्रहादमिका क्रिया, कर्मणः प्रसिद्धेतु पुरुषवचनपरिवृत्तिः । एव च सर्वास्वपि विभक्तिग्वेकमेव रकमिका क्रिया, कमणोऽविवक्षातोऽकमिका क्रियाः, इति रूप भवतीति 'भूयते, बभूवे, भाविता, भाविष्यते' इत्यादीनि ! चतुविधामकर्मककियामाहुस्ते। तत्र धातोरर्थान्तरे वृत्तेरकर्म
रूपाणि बोध्यानि । आख्यातबोध्यक्रियाया असत्त्वरूपत्वमुक्तं ! कत्वं यथा-प्रापणार्थस्य 'वह' धातोः सकर्मकस्यापि स्यन्दने 30 हरिणा
वृत्ती नदी बहतीत्यादावकर्मकत्वम्, धात्वर्थेनोपसंग्रहादकर्म- 70 "असत्त्वरूपो भावश्च तिड्पदै प्रख्यात रभिधीयते।। कत्वं यथा-जीवति-नृत्यतिप्रभृतीनाम्, अत्र हि जीवधातोः
सत्त्वस्वभावमापन्ना व्यक्तिर्नामभिरुच्यते ।।" इति। प्राणकर्मक धारणमर्थ इति तत्रैव कर्मण उपसंग्रह इति नास्ति सत्त्वं च लिङ्गसख्यान्वयि द्रव्यम्, सत्त्वलक्षणमप्युक्तं तेनैव- । तस्य पृथक कर्मापेक्षा, कर्मणः प्रसिद्धरकर्मकत्व यथा मेघो "वस्तूपलक्षणं यत्र सर्वन म प्रयुज्यते।
| वर्षतीत्यादौ वर्षधातोः कर्मणो जलस्य प्रसिद्धत्वादप्रयोगेणा35 व्यमित्युच्यते सोऽथों भेद्यत्वेन विवक्षित:॥" इति। । कर्मकत्वम्, कर्मणोऽविवक्षयाऽकर्मकत्वं । हितान्न यः सशणते 75
तथा चाख्याताभिहितभावस्य सर्वनामपरामर्शायोग्यत्वे - स किंप्रभुः इति भाविप्रयोगः, अत्र शृणोतेः सकर्मकस्यापि नासत्त्वरूपत्वमसत्त्वरूपत्वाच्च संख्यान्वयायोग्यत्वमिति । कर्मणोऽविवक्षयाऽकर्मकत्वेनात्मनेपदम्, हितात्-हितोपदेष्टुः सिद्धम् । " कृदभिहितश्च भावो द्रव्यवत् प्रकाशते " | सकाशात्, यः, न संशृणुते- हितोपदेश न गृह्णाति, स कि
इत्युक्त्या कृद्धावप्रत्ययान्तानां संख्यान्वयित्वमपि, तथा च- प्रभुः?, कुत्सितः प्रभुरित्यर्थस्य विवक्षितत्वेऽपि हितोपदेश40 'हतशायिकाः शय्यन्ते, उष्ट्राशिका पास्यन्ते' इत्यादयः प्रामा- | रूपस्य कर्मणोऽत्र शब्दद्वारा विवक्षाऽभावेनाकर्मकत्वाक्षतिः। 80
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[पा० ३, सू० २१]
प्रोसिद्धहेमचन्द्रशम्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१८३
तत्र स्वभाविकाकर्मकाणामविवक्षितकर्मणां चेहाकर्मकपदेन । "वलीबे क्तः" [ ५.३.१२३. ] इति सत्रेण भावे विहितः ग्रहणम. स्वाभाविकाकर्म काश्च पूर्वोदाहृतकारिकायां क्तप्रत्ययोऽकर्मकादेव भवतीति कृतपूर्वीत्यादौ कर्म प्रयोगसमये धात्वर्थोपसंगृहीतकर्मका एब, तथाभूता एव भवत्यादयः, | तस्य प्राप्ति कथं स्यात् । परमते तु प्रकृतसूत्र ["क्लीबे क्तः" तेषामप्यात्मधारणरूपस्य फलस्याश्रय आत्मा कम धात्वर्थ ।। ५. ३. १२३. ] अकर्मकपदा संबधोऽग्रे वक्ष्यत इत्यन्य5 एवान्तभूत इति धात्वर्थेनोपसग्रहो भवति कर्मणः।। देतत् । भावे आत्मनेपदमुदाहृत्य कर्मणि कृत्य-त-बल- 45
अविवक्षितकर्मकधीतषु तु सर्वेऽपि सकर्मका अकर्मकत्वेनोदा- | नुदाहर्तु क्रमश पाह-कृत्येति प्रकृत्य कार्यः इत्यादी हत शवयन्त एवेत्याह-तेनेषां भावेऽपि प्रयोगः इति, कतू योग्य इत्यर्थ क्रमश: ‘ध्यण, तव्य, अनीय. य. तेन- अविवक्षितकर्मत्वादकर्मकत्वेन, एषां- सकर्मकाणां ] क्यप्" प्रत्यया ज्ञेयाः, कर्मणि विधिरिति बोधनाव कट:
भावेऽपि-भावप्रत्ययान्तदशायामपि. प्रयोगो भवतीति शेषः। इति कर्मोपस्थापकपदमुक्तम् । भावे-कृत्यमुदाहरति-भवता 10 तथा चोदाहरति - क्रियते भवता इति- कगेतेरुत्पा- शयनीयमित्यादि, शेते रकर्मकत्वाद् भावेऽनीयः, शयितव्य-50
दनार्थस्य सकर्मकत्व प्रसिद्धमपि प्रकृतेऽविवक्षितकर्मत्वेन | मित्यत्र तव्यः, शेयपित्यत्र यः। सकर्मकादप्यविवक्षितभावे प्रयोग उपपद्यत इति भावः । मृदु पच्यते इति-मृद्विति । कर्मणो भावे प्रत्यय इत्युक्तरोतिमनुसत्य सकर्मकेभ्योऽपि क्रियाविशेषणं, न तु विशेषणविद्यया पच्यमानद्रव्योपस्थाप- भावे प्रत्ययमुदाहरति-'भवता कार्यमित्यादिना ध्यणादीन
कम्, पचतिश्च विक्लित्यनुकूलव्यापारवाचकः, विक्लित्तिश्च क्यबन्तान् सर्वानेव प्रत्ययानविवक्षितकर्मभ्यो दर्शयति कृत्यं 15 कर्मस्थेति फलव्यधिकरणव्यापारवाचकत्वेन तस्य सकर्मक-भवतेत्यन्तेन ग्रन्थेन । क्तमुदाहरति कर्मणि- कृतः 65
त्वेऽप्यविवक्षितकर्मत्वेनाकर्मकत्वम, तेन च भावे प्रयोग | कटो भवतेति । स्वभाविकाकर्म का भावे तमदाहरतिउपपन्नः । पञ्चवारान भुज्यते भवतेति- वारशब्दस्य शयितं भवतेति, अविवक्षितकर्मकाद् भावे क्तमाह- कृतं कालबोधकतया प्रयुक्तत्वात् "कालाऽध्वनोाप्तो" [ ३. २. भवलेति भावे च लिङ्गसंख्याभावेऽपि सामान्य
४२.1 इति द्वितीया, जिश्च सकर्मकोऽपि प्रकृतेऽविवक्षित-नपुसकमिति सिद्धान्तादौत्सगिक क्वीबत्वमेकवचनं च, 20 कर्मकत्वादकर्मकः, तस्माद भावे वर्तमानाया आत्मनेपदम्। | तस्याऽस्यौत्सर्गिकत्वस्योक्तत्वात् । मतान्तरमाह-सकर्म-60
अत एव 'नेह पच्यते, नेह भुज्यते' इत्यादी भावे प्रयोग कादपि क्लीबे क्तमिच्छन्त्येके इति, अयमाशयस्तेषांइत्याह- "णेरणौ यत् कर्म स चेत् कर्तानाध्याने" [पा० सू० "क्त-क्तवतू" [५. १. १७४. ] इति सामान्यसूत्रण १. ३ ६७ ] इति पाणिनीयसूत्रव्याख्यायां हरदत्तः। विहित: क्त एवानेन सूत्रेण [तत्साप्यानाप्येति इति प्रकृतसूत्रण]
अत्यन्ताविद्यमान कर्मणामेवेहाकर्मकपदेन ग्रहणमित्यपि अकमकेभ्यो भावे एव स्यात्, भावे च क्लीबत्वं स्वाभाविकमिति 25 पक्षान्तरम्, 'नेह पच्यते, नेह भुज्यते' इत्यादयस्तु कर्मण्येव | "क्लीबे क्तः" [५. ३.१२३.] इति सूत्रेण तविधानं व्यर्थ सत्, 65
प्रयोगाः, कर्मणो गम्यमानत्वाच्च न तत्प्रयोगः, एतदपि तस्य क्तस्य ["क्त-क्तवतू" , इति सूत्रविहितस्य। तदीय ग्रन्थे । हरदत्तग्रन्थे । एव स्पष्टम् । पक्षद्वयमपीदं भूतार्थवृत्तेरेव धातोविधानदस्य कालसामान्यवृत्तेर्धातोविधानं प्रबलं क्षोदक्षम चेति पाणिनीये भाष्य-कैयटादिग्रन्थावलम्बन | सकर्मकेभ्यश्च विधानमिति विज्ञापयति, तथा चदोलितेन स्पष्टीकृतं शब्दकोस्तुभे। यत् त्वत्र भावे
“गतं तिरञ्चीनममूरुसारथः प्रसिद्धमूर्वज्वलनं हविर्भुजः।
70 30 प्रत्यय इति प्रसादकृद्ग्रन्थमुल्लिख्य भाष्यादिविरोधेन
पतत्यधोधाम विसारि सबंत: दूषयामासुस्तदुपेक्षणीयमेवोभयपक्षस्य भाष्याचारूढत्वात् ।
किमेतदित्याकुलमोक्षितं जनः ।।" तुम्प्रत्ययविधायकसूत्रे 'इच्छता क्रियते' इत्यत्र भावे प्रयोग
[शि. . स. १, श्लो. २१] इति स्वयमपि स्वीकृतत्वात् हरदत्तेन चानुमोदितत्वात् इति माघकवि प्रयोगे सकर्मकादपि गच्छतेर्भाव क्तप्रत्यय
एवं चाविवक्षितकर्मणामपि अकर्मकत्वेन ग्रहणमिति उदाहतः, " वा क्लीबे" [२.२. ६२.] इति सूत्रेण 75 35 पक्षस्यव प्राबल्यम्, कथमन्यथा, 'भुक्तपूर्वी तण्डुलम् | कर्तरि षष्ठीविधानात् अनूरुसारथेः' इति षष्ठ्यन्तम्,
कृतपूर्वी कटम्' इत्यादौ पूर्वमविवक्षितकर्मतयाऽकर्मकत्वेन एतस्माद विहितस्य [ सकर्मकधातुविहितस्य ] क्तस्य योगे भावे के पश्चात्, कर्मणा तण्डुलकटादिना योगेन प्रकृत
कर्मणि षष्ठ्य व युक्तेति ग्रामस्य गत भवता, ग्रामस्य गतं सकर्मकप्रयोगे "कतं-कर्मणोः कृति" [ पा० सू०२.३ ६५ }भवत इति वा प्रयोग इति तेषां मतम्; किन्तु- 'भ्रान्तं
इति सूत्र "कर्मणि कृतः" [२३ ८३ ] इति सूत्रस्थानीये देशमनेकदुर्गविषमम्" इत्यादिकविप्रयोगे देशमिति कर्मणि 80 40 कृतीत्यस्याभावे दोषोद्भावनं भाष्याद्याकरग्रन्थे कृतं संगच्छेत, । द्वितीयाया अपि दर्शनेन ग्रामं गतं भवतेत्यपि साध्वेव,
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१८४
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा०३, सू० २१ ]
कर्मणि षष्ठीप्रयोगस्थले च कर्मणः शेषत्वविवक्षा बोध्येति | च कालाऽध्व-भाव-देशानामित्यस्यैव कर्मसंज्ञाया अकर्मसर्वप्रयोगनिर्वाहः, कृद्योगलक्षणा षष्ठी तु "क्तयोरसदाधारे" | कत्वस्य चेत्यनेन सम्बन्धः प्रतीयते. स चानुचित इति, [२. २. ७६.] इति निषिद्धा, तथा च ग्रामं गतं भवतेति । अकर्मकाणां धातूनां योगे कालाध्वभावदेशं कर्माकर्म च
ओदनं भुक्तं भवतेति च प्रयोगौ साधू एव । स्वमते तु "गतं | स्यादिति सूत्रार्थ एवानुसन्धेयः प्रकृतोपयोगि कार्यमाह -- 5 तिरञ्चीनमनूरुसारथेः" इति माघप्रयोगेऽविवक्षितकम-तद्योगे कमरिण भावे चात्मेनसदादीनि भवन्तीति-45
त्वादेव भावे क्तः, भ्रान्तं देशमिति चासाधुरेवेति विज्ञा- तद्योग-कर्मसंज्ञकानां कालाव-भाव-देशानां योगे सम्बन्धे यते, यदि च तादृशप्रयोगसाधुत्वे आग्रहस्तहि स्वमतेऽपि ! सति कर्मण्यात्मनेपदादीनि भवन्ति, तस्याकर्मकस्वस्य योगे "क्लीबे क्तः" ५. ३.१२३.] इति सूत्रेण 'सकर्मकेभ्योऽपि स्थितौ सत्यामकर्मकत्वप्रयुक्तानि आत्मनेपदादीनि भावे
विधानमुक्तयुक्तरेव समांश्रयणीयमिति न कोऽपि दोषलेश इति भवन्तीति पृथक् पृथगेवान्वयो व्याख्येयः । प्रथमं कर्मणि 10 बोध्यम्। क्तमुदाहृत्य स्खलर्थमुदाह माह- खलथेति । प्रत्ययमुदाहरति--मास आस्यते इति--'आस' धातुरक. 50
यद्यपि खलप्रत्ययविधायके "दुःस्वीषतः कृच्छाकृच्छार्थात् मकः, तद्योगे कालवाचिनो मासशब्दस्य कर्मत्वेन धातोर्वर्तखल्" [ ५. ३. १३९. ] इति सूत्रे नार्थनिर्देशः, पूर्वत्र मानाया आत्मनेपदप्रथमपुरुषैकवचनम् । आत्मेनपदेन च च करणाधारयोः प्रकरणम्, "इ-कि-श्तिव स्वरूपाऽर्थे" कर्मणोऽभिहितत्वात् मासात् प्रथमा भवति, तत्रापि गौणा
[५. ३. १३८. ] इति च खल्विधायकसूत्राव्यवहितसूत्रम्,धिकारात् 'कालाध्वनो." [२. २. ४२. ] इत्यनेनापि 15 तनिर्दिष्टार्थश्च नात्र सबन्ध शक्यतेऽनन्वितत्वादनधिका- द्वितीया न भवति, एव सर्वत्र । कालं कर्मोदाहत्याध्वान को- 55
राच्च, ततश्च खलर्थः क इति जिज्ञासायां प्रकृतसूत्रेणैव । दाहरति-कोशो गुडधानाभिभूयते इति-देववदत्तो निर्णय इति परस्पराश्रयो दोष आपतति, तथापि खलपदे: गुडधानाभिः गुडमिथितधान्यलाज:, क्रोश भवति-क्रोशं तन्त्रण 'खल-खलर्थाः' इत्यर्थविवक्षया खलोऽर्थस्थानेन निर्णये यावत् आत्मधारणं करोति इति कर्तरि प्रत्यये सति बोधः,
सति परेषां खलथंत्वस्य निर्णयः कार्य इति दोषाभावः। तस्यैव वाच्यपरिवर्तने कृते कर्मणि वाच्येऽयं प्रयोगः । 20 तथा नाकमकेभ्यो विहितः खल भावे सकर्मकेभ्यो विहितश्च तथा च भवतेरकर्मकस्यानि सकर्मकत्वेन कर्मणि प्रत्यये सति 60
कर्मणीति परेषामनादीनामर्थ निर्णयोऽप्यनेनैव प्रकारेण कर्मणोऽध्वन: क्रोशस्य प्रथमान्तता भवति । गोदोहः सुप्यते विज्ञेयः। सकरः कटो भवतेति-कृगः सकर्मकत्वेन कर्मणि : इति भावरूपस्य कर्मण उदाहरणम्, 'स्व'धातुरकर्मकस्तखल् । सुशयं भवतेति-शेतेरकर्मकत्वेन भावे खल 1 द्योगे भाववाचिनो गोदोहशब्दस्य कर्मसंज्ञायां कृतयां सकर्म
सकर्मकस्याप्यविवक्षितकर्मतायामकर्मकत्वाद् भावे खलमुदा- ! कत्वे सति कर्मणि वाच्ये स्वपेरात्मनेपदम् । आत्मनेपदमुदा25 हरति- सुकरं भवतेति । सुकटंकराणि वीरणानि हृत्य कृत्य-क्त खलान् क्रमश उदाहरति- मास आसि-65
इति-कटभिन्नानि वीरणानि कटस्वरूपाणि सुखेन क्रियन्ते । तव्य इति -प्रासेर कर्मकस्य योगे कालस्य मासस्य कर्मइति प्रयोगार्थः, अकट:- वीरणानि कट: सुखेन क्रियन्ते इति : संज्ञा, तेन कर्मणि तव्यः, मास आसितः इत्यत्र कर्मणि विग्रहस्वरूपम्. कर्मणि खल्, ईषदाढय भवं भवतेति- क्तः । मासो दुरासः इति कर्मणि खल् । "कालाऽध्वभाव
अनादयन भवता सुखेनाम्यं न भूयते इतीषदाय भव । देशं वा०" [२. २. २३.] इत्यनेनाकर्मत्वविधानपक्ष भावे 30 भवतेति, उभयत्र "व्यर्थ कळप्याद् भूकृगः" [ ५. ३. प्रत्ययमुदाहर्तुमवतारयति-भावे इति ।
१४०.] इति खल् । सुज्ञानं तत्त्वं मुनिनेति-सूखेन ज्ञायत । इत्यर्थे "शासू-युधि०" ५. ३. १४१ ] इत्यनः कर्मणि ।। मासमास्यते इति- "कालाऽध्व-भावदेश वाडकर्म सुग्लानं कृपणेनेति-पूर्वोक्तसूत्रेण भावेऽनः । अथाकर्मका- चाकर्मणाम्" [२.२.२३ ] इति सूत्रणाकर्मकाणां धातुनां
णामपि क्वचिदनुशासनवशात् सकर्मकत्वमकर्मकत्वं च दृश्यते, । प्रयोगे कालादिराधारः कर्मसंज्ञो वा भवति, अकर्म च35 तेभ्यो भावे कर्मणि च प्रत्यया भवन्तीति प्रदर्शयति- यत्रापि पक्षे कर्मसंज्ञा तत्राकमसंज्ञापि वा भवतीत्यावेदितम् ।
"काला-ऽध्व-भाव-देशं वा० " [२२. २३.] उभयसंज्ञाविधानाच्च प्रकृतप्रयोगे- अकर्मकत्वमाश्रित्य 75 इस्यादिनेति, आदि पदेनानकस्य वाऽकर्मचाकर्मकाणाम् ' 'शास्यते' इति भावे आत्मनेपदम्, सकर्मकत्व चाश्रित्य इत्यंशस्य संग्रहः । कर्मसंज्ञाया अकर्मकत्वस्य चेति- । मासस्य कर्मत्वाद् आत्मनेपदेन तस्यानभिधानाद् 'मासम्'
कर्मसंज्ञा तावत् सूत्रोप तानां कालाध्वभावदेशानामकर्म- इति कर्मणि द्वितीया भवति । अकर्मसंज्ञा यदि न स्यात् 40 कत्वं च धातोरिति यथोचित मन्त्रयोऽभ्यूहनीयः, यथोक्तपाठे | तदा भावे आत्मनेपदं न स्यात् सकर्मकत्वात् कर्मण्यात्मने
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[पा०३, ०२१1
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने ततीयोऽध्यायः ।
१८५
पदे तु तेनैवाभिहितत्वात् कर्मणो द्वितीया न स्यात्, न चा- नास्तीत्यौत्सगिकमेकवचनमेव भवतीति, अयमाशय:भिहिते कर्मणि व्याप्तावपि द्वितीयेष्यते, एवमुत्तरत्रापि ज्ञेय- | वचनं संख्या, सा च सिद्धे वस्तुनि संभावति, आख्या. मिति । क्रोशमधीते इति-अधिपूर्वस्य "इंङक अध्ययने" | तार्थस्य भावस्यासिद्धस्य साध्यावस्थापन्नस्यैकत्वद्वित्वादिभिः
इत्यस्य वर्तमानाया आत्मनेपदप्रथमपुरुषकवचनम्, शेषं ! सम्बन्धस्यासंभवान्न तत्र संख्याप्रतीतिरिति न किमपि वचनं 45 5 प्राग्वत् । कुरून् सूप्यते इति- अत्राप्यकमकत्वमाश्रित्य तत्रान्वेति । एवं चानन्वितत्वात् कस्यापि
भावे आत्मनेपदं सकर्मकत्वमाश्रित्य च कर्मणि द्वितीया, । विधानाभावे प्राप्त परिशेषात् प्रत्ययाभाव एव प्रसक्तस्तदकुरूणां निवासो जनपदः कुरवः । आत्मनेपदमुदाहृत्य तव्यादी- पनोदायाह-- औत्सगिकमेकवचनमिति- एकवचनस्यनुदाहरति । भावे-मासमासितव्यमिति- अत्रापि कर्मणि| करवसंख्याया अभेदार्थत्वेन तस्य संख्यानपेक्षत्वेन सर्वत्र
द्वितीया। लधुन्यासकृताद्वितीयाप्रदान काले कर्मसंज्ञा षष्ठी- प्रयोक्तु शक्यत्वादौत्सगिकत्वमिति संख्यासम्बन्धाभावेऽपि 50 10 प्रदानकाले तु न, स्याद्वादादित्युक्तम्, तस्यायमाशय:- । तद् भवितुमर्हतीति प्रथमत्रिकस्यैकवचनमेव भावप्रत्ययस्थले
मासमासितव्यमित्यत्र कालवाचिनो मासशब्दस्य ! भवतीति । इत्थ सर्वेषां भावप्रत्ययानां साध्यावस्थापनार्थद्वितीयोत्पत्त्यर्थ कर्मसंज्ञा स्वीक्रियते, " कर्मणि कृत:" वाचकत्वेऽसिद्ध [ असत्त्वरूपत्वे संख्यायोगित्वाभावे च [२.२.८३.] इति कृदन्तस्य कर्मणि षष्ठ्य त्पत्त्यर्थं च प्रसक्ते घनादिकृदभिहितभावेऽपि द्वित्वादियोगो न स्यादिति
कर्मसंज्ञा न भवति स्याद्वादाश्रयणादिति, मासमासित- : पाको भवतः, पाका भवन्ति, इत्यादिप्रयोगो न स्यादित्या- 55 15 मिति- भावे क्तः। मासं स्वासमिति- भावे खल् । ; शङ्कायामाह-पाकः पाको पाकाः इत्यादि, वचनत्रय
अथ भावे प्रत्यये सति कर्मणि प्रत्ययाद् यो विशेषस्तमभि- । प्रदर्शनार्थ त्रयाणामुपन्यासः, कर्तृत्व प्रदर्शनार्थं च पाको धातु प्रक्रमते-- भावे च युष्मदस्मत्सम्बन्धनिमित्तयोः वर्तते इत्यस्योपन्यासः, कर्मसम्बन्धदर्शनार्थं च पाकं करोकतं-कर्मणोरभावादिति-युष्मदस्मद्भ्यां यः सम्बन्धोऽर्थात् तीत्यस्योक्तिः। न केवल कत-कर्मणोरेव कारकयोस्वत्र
समानाधिकरण्यरूपः, तस्य निमित्ते ये कर्त-कर्मणी तयोरभा- संभवोऽपि त्वन्येषामपि करण-सम्प्रदानादीनामित्यस्यार्थस्य 60 20 वादित्यर्थः । अकर्मकादेव घातो वे प्रत्यय इत्युक्तमेव, तथा प्रदर्शनार्थ मूक्तम्-इत्यादाविति । कृदभिहितस्य भावस्य
प कर्मणोऽभावादेव युष्मदस्मदी कर्मत्वेन न वाच्ये कर्तृत्वेन | संख्यादियोगे हेतुमाह- अनव्ययकृदभिहितो भावो द्रव्ययद्यपि सम्बन्धो युष्मदस्मद्भ्यां संभाव्यते 'स्वया भूयते' 'मया वत प्रकाशते इति- कृदभिहित:- कृत्प्रत्ययवाच्यो भावो, भूयते' इत्यादी, तथापि तत्र नाख्यातार्थस्य ताभ्यां सामानाधि- द्रव्यवत- लिङ्गसंख्याकारकयोगिधटपटादिद्रव्यवत्, प्रका
करण्यम्, सामानाधिकरण्यं ह्येकार्थवाचित्वरूपमेव, समाना- शते- प्रतीतिविषयो भवतीति 'कृदभिहितो भावो द्रव्यवत् 65 25 धिकरण ययोस्तो 'समानाधिकरणी, तयोर्भावः सामानाधिक- प्रकाशते, इति वाक्यार्थः । तत्र च क्त्वा-णम्-तुमन्तादिरव्यमिति व्युत्पत्त्या, शब्दस्यार्थविशेषे वर्तमानत्वादर्थोऽधि
कृदभिहितस्य भावस्य लिङ्गसंख्यादियोगादर्शनात् तद्व्यवच्छेकरणमिति सामानाधिकरण्यशब्दस्य समानार्थवाचित्वमर्थ- दाय अनव्ययेति विशेणमुक्तम् । तथा च क्तवा-णमादीनामस्तदेव चैकार्थ्यम् । यथा त्वमुच्यसे' इत्यत्र युष्मद: कर्म- व्ययत्वेन तदभिहितभावस्य न द्रव्यवत्प्रतीतिरिति न तत्र
स्वेनात्मनेपदेनापि कमवाभिधीयत इत्युभयो: सामानाधि- लिङ्गादियोगः। द्रव्यबत् प्रकाशनात् यल्लब्धं तदाह-संख्यया 70 30 करण्यं भवतीति युष्मदा सामानाधिकरण्यनिमित्तो मध्यम-लिन कारकैश्च युज्यते इति- पाक इत्यादी भावे पुरुषः प्रयुज्यते, त्व पठसीत्यत्र च युष्मदः कर्तृत्वेन पठसीति
घ, तदन्तस्य चाव्ययत्वं न भवतीत्यनव्ययकृयाभिहितो कत प्रत्ययेनापि स एवाभिधीयत इति कर्तृरूपेण युष्मदा भावो द्रव्यवत् प्रकाशत इति एकत्वादिसंख्यया सामानाधिकरण्यमस्तीति मध्यमपुरुष: प्रयुज्यते । एवम- । लिङ्गन कर्तृत्वादिकारकत्वेन च युज्यत इति समुदितार्थः !
स्मदापि सामानाधिकरण्य कर्मत्वेन कर्तृत्वेन चोदाहतु अनव्यय इति कृद्विशेषणमुक्तं तदाशयं विवृणोति-त्यादिने- 75 35 शक्यते 'अहमुच्ये' 'अहं वच्मि' इत्यादी तथा च भाव- वाव्ययेनाभिहितस्त्वसत्त्वरूपत्वान्न युज्यते इति- अत्र प्रत्ययस्थले कर्तृ त्वेन सम्बन्ध सत्यपि सामानाधिकरण्य
संख्यादिभिरिति शेषः, अयमर्थ:- यथा त्यादिनाऽभिहितो सम्बन्धाभावान्नास्ति युष्मत्सामानाधिकरण्यनिमित्तस्य मध्यपुरुषस्यास्यास्मत्सामानाधिकरण्यनिमित्तस्योत्तमपुरुषस्य
भावार्थोऽसत्त्वरूपस्वात् संख्या-लिङ्ग-कारकादिभिनन्वेिति च प्रातिरिति प्रथमपुरुषः प्रथम त्रिकमेव भवति । इत्थ ।
तथा अव्ययेन कृता क्तवादिनाऽभिहितोऽपि भावार्थोऽसत्त्वरूप 40 प्रथमत्रिके व्यवस्थापिते वचनत्रयस्यापि तत्र प्रयोग इति । एवेति सोऽपि संख्यादिभिर्न युज्यते । घजादिनाऽभिहितो-80
शिष्यबुद्धिनिवारणार्थमाह- साध्यरूपत्वाच्च संख्यायोगे । भावार्थः सत्त्व द्रव्य रूपः क्तवादिनाऽभिहितश्चा
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१८६
कलिकालसर्वश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा०३, सू०२१-२२ ]
सत्त्वरूप इत्यत्र विनिगमकस्तु स्वभाव एव, एकमेव वस्तुसिका आस्यन्त इति कर्मणि लकारमिच्छन्ति, उष्ट्रासिकाशब्दान्तरेणाभिधीयमान भिन्नस्वभावं भवतीति दारादिशब्दै- | लक्षणस्य भावस्य कमत्वात्, यथा 'गोदोहः सुप्यते' इति । रभिधीयमानो भार्यार्थः पुंस्त्वयोगीव स्वभावमात्रमेव विनि-एवं तु विवक्षान्तरे भवत्येवेति भाष्यकारेण भावेऽपि लविधाने गमत्वेनाश्रयतीति सर्वेरकामरपि स्वीकरणीयमेव । किञ्च त्यादिविधाने ] बहुवचनमुपपादितम् इति । 5 क्रियान्तराकाङ्क्षोत्थापकतावच्छेदकत्वं सत्त्वरूपत्वम्, तदनु- | अयमाशय:-कर्मादिषु कर्मत्वाश्रयभ्यक्तिभेदाद् द्वित्व.45 त्यापकतावच्छेदकत्वं चासत्त्वरूपत्वम्, इति सत्त्वाऽसत्त्व- | बहुत्वादोनां संभवः, कर्मणि त्यादिप्रत्ययेऽपि स भेदोऽन्वेतीति रूपत्वयोः परिष्कारेणानुगमं कुर्वन्ति साम्प्रदायिकाः। तथा । तत्र द्वित्वादि भवति, भावस्य चैकत्वात् तदाश्रयाणां भेदेऽपि च पाकादिघनन्तस्थले नियमेन स्ववाच्यक्रियाभिन्नक्रियाया | भावेन [आख्यातार्थेन ] सहाश्रयाणामभेदाभावात् स [आ.
आकाङ्क्षादर्शनात् तदाकाङ्क्षोत्थापकता तत्र वर्तत इति | ख्यातार्थो भावः] आश्रयगतं भेदं मोपादत्त इति न तत्र 10 सत्वरूपत्वं तद्वाच्यक्रियायाः, क्तवा-णमन्तस्थले च 'भुक्त्वा | द्वित्वादिप्रतीतिः, यथा ताम्रः पलाशेषु बभूव रागः' इत्यत्र 50
व्रजति, भोज भोज व्रजति' इत्यादौ पूर्वकालविषयिण्या ताम्रत्वाश्रयाणां पलाशानां भेदेऽपि तदाश्रितो रागस्तदीयअन्यस्याः क्रियाया आकाङ्क्षा नास्तीति तत्र क्रियाया असत्त्व- भेद नोपादत्तेऽपि तु स्वगतमैक्यमेव व्यञ्जयति तथेहापि रूपत्वम्, व्रजतीत्यादिक्रिया चोत्तरकालिकोति न तामपेक्षते | संभवात् । यदि च 'उष्ट्रासिका आस्यन्ते' इत्यत्र कर्मणि
क्वान्तवाच्या किया, उभयोः काल भेदात् । क्वचिद् भावे प्रत्यय: स्वीक्रियते, भवति हि अकर्मकाणां धातूनां योगे 15 त्यादिविधानेऽपि बहवचनं दृश्यते तत् कथमुपपद्यत इति | भाववाचकस्य कर्मसंज्ञा "कालाध्वभावदेश वा." [२. २. 55
चेत् ? अवाह- 'उष्ट्राक्षिका आस्यन्ते, हतशायिकाः | २३ ] इत्यादिवचनेन, यथा गोदोहः सुप्यते' इत्यत्र तदा शयन्ते' इति तु बहवचनं कृदभिहितेनाभेदोपचारा- तु कमगत बहुत्वमुपादाय युक्तमेव बहुवचनमिति न काचिदिति- आसनमासिका, शयनं शायिका "भावे" [५.३. दनुपपत्तिः, भावेऽपि त्यादिविधाने बहवचनोपपादनार्थमेव
१२२. ] इति णकः, उष्ट्राणाभिवासिका- उष्ट्रासिका, | प्रकृतग्रन्थप्रवृत्तः, विवक्षाभेदेन सर्वस भवात् । 20 हतानामिव शायिका हतशायिका, उष्ट्राणां यादृशान्या- | मनोरमाकारस्तु 'उष्ट्राशिका आस्यन्ते' इत्यादौ 60
सनानि हतानां यादृशानि शयनानि तादृशानि देवदत्तादि-क्रिय विशेषणत्वाद् द्वितीयामाह। न च तथा सति क्लीद्धकर्तृकान्यासनशयनानीत्यर्थः, अत्र कृदभिहितभावेन लिङ्ग- त्वमेकत्वं च स्यात्. क्रियाविशेषणानां तथात्वस्य प्रसिद्धयोगवता सह त्याभिहितभावस्याभेदोपचारादभेदे चासति स्वादिति वाच्यम् "स्त्रियां क्तिः" [५. ३. ६१.] इत्य
बाधके समानवचनत्वस्य युक्तत्वाद् भावत्याद्यन्तेऽपि बह- | धिकारोक्ततया " भावे" [५. ३. १२२. ] इति सूत्रेण 25 वचनान्ततोपपद्यत इति भावः । भाष्येऽपि “सार्वधातुके स्त्रियामेव णकविधानात्, तस्य सामान्ये नपुंसकत्वस्य बा- 65
यक्" [ पा० सू० ३. १. ६७. ] इति सूत्रे भावप्रत्यय- धकत्वात् क्लीबत्वाभावादृष्ट्रगतबहुत्वस्य तदासनगतप्रकारस्थले एकवचनमेव भवतीति प्रतिपाद्य कृदभिहितभावे, | बहुत्वस्य च विवक्षितत्वादेकवचनाभावाच्च । इत्यं च प्रकारद्विवचन-बहुवचने अपि भवत इति प्रतिपादितम् । तत्र त्रयेणापि प्रकृतप्रयोगोपपत्तिरिति विज्ञेयम् ।। ३ ३.२१. । पुनरुक्तम्-- • तिङभिहिते [ त्याद्य भिहिते ] चापि तथा
इडितः कर्तरि ।। ३. ३. २२ ॥ 30 भावे बहुवचनं श्रूयते, तद्यथा- उष्ट्रासिका आस्यन्ते,
त०प्र० - इकारतो डकारेतश्च धातोः कर्तर्या- 70 हतशायिकाः शयन्ते" इति । अत्र कयटेनेत्थमूक्तम्
त्मनेपदं भवति । इदित- एपि-एधते, स्पषि-स्पर्धते, एष. ''अत्राश्रयाणामुष्ट्राणां भेदादनेकप्रकारयुक्तान्यासनानि भिन्नानि
मानः, स्पर्धमानः। डिव-शिङ्-शेते, शयन:, हनुङ-ह नुनुते, तत्सामानाधिकरण्याच्चाख्यातभावभेदादास्यन्त इति बह
ह नुवानः; महीङ्-महीयते, महीयमानः कामयते, कामवचनमित्यर्थः । इवशब्दप्रयोगमन्तरेणापि चेवायंगतिर्भवति ।
यमानः; श्येनायते, श्येन.यमानः; पापच्यते, पापच्यमानः 35 तदयमर्थः-यादशान्युष्ट्राणामनेकप्रकाराण्यासनानि तादृशानि
उत्युच्छयते, उत्पुछपमानः। एभ्य एव कर्तरीति नियमार्थ 75 देवदतादिभिः क्रियन्त इति, "भवद्धिरास्यते' इत्यत्र चाश्रय
वचनम् ॥ २२ ॥ भेदादाश्रितभेदस्य प्रतिपन्नत्वात् प्रयोजनाभावाद् भावो
श० म० न्यासानुसन्धानम्-इडितः० । इश्च डु भेद नोपादत्त इत्येकवचनमेव भवति, यथा 'ताम्रः पलाशेषु चेत्यानयो: समाहार:-इङ, इड् इत् यस्येत्यर्थ बहुव्रीहिः,
बभूव रागः' इति, न च सर्वत्राश्रयभेदादाधितभेदस्य प्रतीति:, । ततः पञ्चमी इडितः इति - अत्र यस्येति बहुव्रीह्यर्थ40 घटान् पचतीत्यादौ पाकस्याभिन्नस्यैवावगमात् । केचिदुष्ट्रा- घटिका षष्ठी अवयवायविभावसम्बन्वे, सा च न घटते, 80
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[पा०३, सू० २२]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१८७
इङोरनुबन्धयोर्धात्वनवयवत्वात्, यो हि यदवयव: स कदाचित् । गिकत्वेन आद्योच्चारणदशायामभावेन डिस्वाभावात् प्रकृततत्रोपलभ्यत एव, अयं च न तथा लक्ष्ये वाप्यदर्शनाद सूत्राप्रवृत्तेः । कर्तर्यात्मनेपदमिति-यद्यपि सूत्रे कर्तरीअन एव चाहुरभियुका: * अनेकान्ता अनुबन्धा: * इति, । त्यस्याभावेऽपि तत् साप्यानाप्यात्०" [३.३.२१. ] इति अनेकान्ता इत्यस्यानवयवा इत्यर्थः तथा च यस्येति षष्ठी पूर्वसूत्रेण भावकर्मणोरात्मनेपदविधानात् परिशेषादनेन 5 कस्मिन् सम्बन्ध इति चेत् ? न,-अत्र पक्षे [ अनुबन्धाना- | कर्तर्यवात्मनेपद स्यादिति न कर्तरीत्यावश्यक तथाप्यग्रिम-45
मनेकान्तत्वपक्षे टित, इदित्' इत्यादिषु यत्र तत्रोपात्त- सूत्रषु तस्यावश्यकत्वेन स्पष्टप्रतिपत्तये इहैव कृतमिति पदेषु सामथ्यात्, धातुप्रत्ययादिनिरूपितसामीप्यवति | बोध्यम् । संहितापाठे च तत्रैव [उत्तरसूत्रे एव] स्थितमिह स्वघटितपदघट के स्वाघटितपदाघटिते अनुबन्धे स्वनिरूपिता- विभज्य पाठे भ्रमादा यातमितिवा कल्पनीयम्।
वयवत्वनारोप्यत इति स्वीकारात्, अत्र चानुबन्धे 'स्वा- क्रमश उदाहरति-इदित्-इति प्रकृत्य- एधीति 10 घटितपदाघटके' इति विशेषणं " वा युष्मदस्मदो ओनौ" | धातु यर्थ इकारेत् स्वादिः. तस्मात् कर्तर्यात्मनेपदे विहिते 50
[६. ३. ६६. ] इति सूत्रे जोनमोकारोच्चारणसार्थ- सति एधते इति रूपम् । स्पर्धांति धातुरपीकारेत् संघर्षार्थो क्याय "बोवं दध्नट् द्वयसट" [ ७.१. १४२. ] इति । भ्वादिः, तस्मात् कर्तर्यात्मनेपदविधाने- स्पर्धते इति सूत्र द्वसटः टकारोच्चारणसार्थक्याय च बोध्यम् । वस्तु- रूपम् । “पराणि कानाऽऽनशो चात्मनेपदम्"[३.३.२०.)
तस्तु अनुबन्धानामेकान्तत्व अवयवत्व पक्ष एव सिद्धा- इति सूत्रेण 'ते' आदीनामिव कानाऽऽनशोरप्यात्मनेपदसंज्ञा15 तितोऽभियुक्तरपीति न काऽपि शङ्का । पक्षद्वयस्यापि शास्त्रे | विधानादानशमपीदितो धातोरुदाहरति-एधमानः, स्पर्ध-55
समर्थनस्योपलब्धत्वेऽपि पूर्वपक्षे ज्ञापकानुसरणक्लेशस्या- मानः इति-उभाभ्यां वर्तमानाविषये, "शत्रानशावेष्यति धिक्यात् । प्रकृत मनुसराम:- इडितः इति द्वन्द्वगर्भो तु सस्यो" [५. २. २०.] इति आनश, मागमादीबहुव्रीहि , द्वन्द्वान्ते च धूयमाणमित्पदमुभाभ्यामिकार-डका- एधमान: स्पर्धमान इति। इदित उदाहृत्य डित उदाहरति
राभ्यां सम्बध्यते * द्वन्द्वादी द्वन्द्वान्ते वा श्रूयमाणं पदं डि-त्-शीड़ इत्यादिना । शी धातुरादादिक: स्वप्नार्थको20 प्रत्येकमभिसम्बध्यते * इति न्यायात्. तदाह- इकारेतो। डकारेन, ततः कर्तरि आत्मनेपदे-शेते इत्यादि वर्तमाना- 60
ङकारेतश्चेति-" क्रियार्थो०" [ ३. ३. ३. ] इत्यतो | दिषु रूपम् । हनं धातुरपनयनाथं आदादिकोङकारेत्, धातुरिति प्रकृतम्, तच्च मण्डूकप्लुत्याऽनुवर्तमानं प्रकृत- | ततः कर्तरि वर्तमानायां ह नुते' इत्यादिरूपाणि, आनशिसूत्रेऽपि सम्बध्यते, इङित इति पञ्चम्यन्तेनान्वयानुरोधाच्च । शयान ह नुवानः इति । महीङ् धातुः पूजार्थः कण्ड्वादिः,
पञ्चम्यन्ततया विपरिणमते, ईदृशस्थले यद्यपि सग्राहक- ततः कर्तरि वर्तमानाया आत्मनेपदे-महीयते इति रूपम्, 25 वाक्ये द्वन्दसाहित्यापन्नस्य 'इङ्' इत्यादि समुदायस्यैव । कण्ड्वादित्याच्छिति यक; आनशि- महीयमानः इति 1 65
साकाङ्क्षनेत्पदार्थेनान्वयो युक्त इतीत्संज्ञकयोरि-डोरवयविनो/ इहानुवर्तमान पञ्चम्यन्ततया परिणत धातोरिति विशेष्यधातोरित्यादिरूपेणवान्वयबोधो लम्यते, तथापि 'इङ्' मिङित इति च विशेषणम्, “ विशेषणमन्तः" [ ७. ४. इति समुदायावयवी धातुरेव दुर्लभ इति सूत्रवैयर्यप्रसक्तया ११३.] इति परिभाषया तदन्तबोधकमितीदन्तत्वाद्
सूत्रारम्भसामात तल्लक्ष्यसंस्कारकं वाक्यान्तरं परिकल्प्यते- | डिदन्ताच्च घातोः कर्तर्यात्मनेपदमित्यर्थलाभः समुदाये एव 30 इकारेतो हुकारेतो धातोरिति, तथैव शास्त्रकाराणां ब्या- तदन्तविधेयुक्तत्वात्, तत्र इदिदशे तदन्तत्वस्यासंभवाद् 70
ख्यानात् समयाच्च । इत्संज्ञकङकारो धातोरवयव औष- | विशेषणवैयापत्तो केवलं डिदंशे एव तदन्तविधिः स्वीदेशिको ग्रहीतव्यः * औपदेशिक-प्रायोगिकयोरोपदेशिकस्यैव क्रियते, एवं च इदितो डिदन्ताच्च धातोः कर्तर्यात्मनेपदं ग्रहणम् * इति परिभाषणाद, कुतश्चित् सूत्रादुपदेशपदं | स्यादिति सूत्रार्थः सम्पद्यते । यश्च धातुर्न दिन्तोऽपि तु
वाऽनुवर्तनीयं मण्ड कप्लुत्या। अत एव कुकुटिषतीत्यत्र | स्वयमेव डित् तत्र व्यपदेशिवद्भावे न ङिदन्तत्वमाश्रित्या35 नात्मनेपदम्।
त्मनेपदं विधेयं, यथा-'शीङ्ह मुंड इत्यादी। तदन्तविधि- 75 " धातुसूत्र-गणोणादि-वाक्य-लिङ्गानुशासनम् ।। फलं तु यङन्तादिष्विति केचित्, तन्न-तत्र यडादौ सति
आगम-प्रत्ययाऽऽदेशा उपदेशाः प्रकीत्तिताः॥" घातुसंज्ञया धातोरेव ङित्त्वात् । न च तत्र ङित्त्वस्य फलान्तर. इति परिगणय्य एषामाद्योच्चारणमुपदेश इति स्वीकारात्। | सत्त्वान्नात्मनेपदं स्यादिति वाच्यम्, तदन्तविधी सत्यपि
कुटधातोः सनि कृते तस्य " कुटादेङिद्वदणित्" [ ४.३ तद्दोषतादवस्थ्यात् । कामयते इत्यादि, अत्र “कमेणि" 40१७. 1 इति ङित्त्वेऽतिदिष्टेऽपि तस्य [डित्वस्य | प्रायो- ३. ४. २.1 इति सूत्रेण कमेणिङ, ततो धातुसंज्ञाया- 80
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कलिकाल सर्वज्ञश्री हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[ पा० ३, सू० २२-२३ ]
क्रियाव्यतिहारेऽगति - हिंसा - शब्दार्थ- हसो हृ-वहश्चानन्योऽन्यार्थे ॥ ३. ३.२३. ॥ त० प्र०— इतरेण चिकीषितायां क्रियायामितरेण हरणं करणं क्रियाव्यतिहार:, तस्मिन् अर्थे वर्त्तमानात् गद्गति- 45 हिंसाशब्दार्थ - हसर्वाजिता घातो - वहिभ्यां च कर्तर्यात्मनेपद भवति, न चेदन्योऽन्यार्थाः - अन्योऽन्येतरेतरपरस्परशब्दाः प्रयुज्यन्ते । व्यतिलुनते, व्यतिपुनते, व्यतिहरन्ते भारम्, संप्रहरन्ते राजानः, संविवहन्ते वर्गः । हृ-वहोगंतिहिंसार्थत्वात् प्रतिषेधे प्राप्त प्रतिप्रसवार्थमुपादानम् । व्यति- 50 द्रव्यव्यतिहारे मा भूत् चैत्रस्यान्यं व्यतिलुनन्ति हार इति किम् ? लुनन्ति पुनन्ति क्रियेति किम् ? अत्र लुनातिरुपसंग्रहात्मके लवने वर्तते । चैत्रेण यत् गृहीतं धान्यं पुरस्तालवनेनोपसंगृह्णन्तीत्यर्थः । अगति- हिंसाशब्दार्थ- हॅस इति किम् ? । व्यतिगच्छन्ति, व्यतिसन्ति, व्यतिहिंसन्ति व्यतिघ्नन्ति, व्यतिजल्पन्ति, व्यतिपठन्ति 55 व्यतिसन्ति । अनन्योऽन्यार्थे इति किम् ? अन्योऽन्यस्य व्यतिलुनन्ति इतरेतरस्य व्यतिलुनन्ति परस्परस्य व्यतिलुनन्ति । क्रियाव्यतिहारो व्यतिनंव द्योतित इत्यन्योऽम्यादिभिस्तत्कर्माभिसंबध्यते अन्योऽन्यस्य केदारमिति । कर्तरीत्येव ? तेन भाव-कर्मणोः पूर्वेणेव स्यादनेन मा भूत्, यदि ह्यनेन स्यात् 60 तदा व्यतिगम्यन्ते ग्रामाः, व्यतिहन्यन्ते वस्यवः इत्यत्रा गतिहिंसाशब्दार्थहस इति प्रतिषेधः स्यादिति ॥ २३ ॥
"1
मयमपि ङिदेव । श्येनायते इति- श्येन इवाचारतीत्यर्थे " क्यङ् " [ ३.४.२७ ] इति क्यङ्, तदन्तस्य धातुसंज्ञाऽनेन तत आत्मनेपद ङित्त्वात् आनशि- श्येनायमानः इति । पापच्यते इति पुनः पुनरतिशयेन वा पचतीत्यर्थे 5 पचेः " व्यञ्जना देरेकस्वराद् भृशाभीक्ष्ण्ये यङ् वा [ ३. ४. ६. ] इति यङ् यङन्तत्वाद् द्विरवादी धातुसंज्ञायां ततोऽनेन ङित्वादात्मनेपदम् आनशि- पापच्यमानः इति । उत्पुच्छयते इति - पुच्छमुरस्यतीत्यर्थे "पुच्छादुत्परिव्यसने" [ ३.४ ३९. ] इति णिङ्, तदन्तस्य धातुत्वे ततोऽनेन 10 कर्त्तर्यात्मनेपदम् आनशि- उत्पुच्छ्यमानः इति- "सति"
[ ५. २. १६. ] इत्यादिसूत्रैः परस्मैपदात्मनेपदयोरविशेषेण विधानादिङितः परस्मैपदात्मनेपदयोरुभयोः प्राप्तावात्मनेपदविधान सिद्धमेवेति प्रकृतसूत्रं किमर्थमित्याशङ्कायामाह - एम्य एव कर्त्तरीति नियमार्थं वचनमिति,
15 अयमाशयः
"विधिरत्यन्तमप्राप्तो नियमः पाक्षिके सति ।
17
|
44
श० म० न्यासानुसन्धानम् - क्रियाव्य० । क्रियाव्यतिहारपदं व्याचष्टे- इतरेण चिकीषितायां क्रियायामित्यादिना या क्रिया स्वभिन्नेन [ प्रकृतकर्तृ भिन्नेन ] 65
तत्र चारयत्र च प्राप्तौ परिसंख्येति गीयते ॥ इति मीमांसासरण्या प्रकृते आत्मनेपदस्य इङितः कर्तरि पाक्षिकप्राप्तस्य नियमार्थमिदं सूत्रम्, एभ्य एव कर्त्तर्यात्मने 20 पदं नान्येभ्य इति एभ्यः कर्त्तर्येवात्मनेपदमिति नियमस्तु न कर्तुं शक्यते " तत् साध्यानाप्यात्०" [ ३. ३. २१. इति सूत्रेण भावकर्मणोरेभ्य आत्मनेपदस्येष्टत्वात् तद्वाधापत्तेः, एभ्यः कर्त्तर्यात्मनेपदमेवेत्यपि न नियन्तुं शक्यते 'इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात् " [ ५.२.४४ ] इत्यनेन 25 कर्तर्यनस्य विहितस्य बाधापत्तेः । नियमेनानिष्टानां प्रकृतीनां नियम्य सामान्यशास्त्रविहितप्रत्ययसहितानां निवृत्तिः क्रियत । इति गौरव, यतो नियमस्थले स्वार्थहानिः प्राप्तबाधः परार्थ- | कर्तुं मभिलाषिता तस्याः प्रकृतकत्र करणं प्रकृतकर्त्रा चिकिकल्पना च भवतीति दोषत्रयम्, ततश्च नियम्य विधानं | पिताया: क्रियायाश्च तदन्येन करणं क्रियाव्यतिहार इत्यर्थः । लाघवादाद्रियते, तथा च स्वार्थहानिपरार्थकल्पने न भवतः, व्यतिहारो विनिमयः, तथा च क्रियाविनिमये द्योत्ये, गतिश्च 30 केवलं प्राप्तबाध एव, स च स्वमार्थक्यायावश्यक इति फल- हिंसा च शब्दश्चार्थो येषां ते गतिहिंसाशब्दार्थाः ते च हस् मुखत्वात् स्वीक्रियते । अत्र हि पक्षे सर्वाण्येव शास्त्राण्य- चेत्येतेषां समाहारो गतिहिसाशब्दार्थहस् न तत्-अगति 70 वाधितार्थानि परस्परमङ्गाङ्गिभावेन यथाकाक्षं सङ्गत्य हिंसाशब्दार्थहस, तस्मात्- अगतिहिंसाशब्दार्थहसः वर्त्तमानासम्बन्ध्यात्मनेपदान्यपुरुषं वचन मन्यस्मिन्नेकत्व- गत्यर्थादिभ्योऽन्यस्माद् धातो है- वहिभ्यां च [ हिंसागत्यर्थाविशिष्टे कर्त्तर्यर्थे इङितो धातोः स्यादित्यादिक्रमेणार्थबोध भ्यां ] कर्तर्यात्मनेपदं भवति किं सर्वत्र ? नेत्याह- न चे35 जनयन्ति, अत्र पक्षे वाक्यैकवाक्यतया खले कपोतन्यायेन दित्यादिना, अन्योऽन्यार्थः शब्दाश्चेन्न प्रयुज्यन्ते, के तेऽन्योलक्ष्यसंस्कारकमहावाक्यार्थबोचे वृत्तं क्रियासमभिहारेण न्यार्थस्तदाह- अन्योऽन्येतरपरस्परशब्दाः इति । उदा- 75 विधिनिवृत्तिश्च न कर्त्तव्ये स्यातामिति लाघवम् । अन्ये हरति व्यतिलुनते इत्यादिना, अन्यस्य योग्यं लवनंतु वैयाकरणा एकवाक्यतया विधाने भावि संज्ञाश्रयणादिगौरवमाहुरिति विहितानां नियमेन निवृत्तिरेवेति मन्यन्ते, सस्यादिच्छेदनमन्ये कुर्वन्तीत्यर्थः 'वि अति' इत्युपसर्गद्वयेन 40 सा च रीतिः प्रक्रियाभेदमाश्रयत इति नेहोपन्यस्यते ॥ व्यतिहारो गम्यते, नोच्यत इति नोक्तार्थन्यायविषयः तत्रानेनात्मनेपदं प्रथमपुरुषबहुवचन वर्तमानाया 'अन्ते' इति
|
।
३. ३. २२. ।।
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[पा० ३, सू० २३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
१८६
विहितं, लुनातेः कादित्वात् श्नाः, ततः परस्य 'अन्त' | नेन योत्स्यमानावित्यर्थो विवक्षित इति तत्तात्पर्यम् । अग्रे च इत्यस्य "अनन्तोऽन्तोदात्मने" ४.२.११४.] इत्यत्। | भाष्यकृता वहेर्ग्रहणं प्रत्याख्यातम्, तथाहि " न बहिर्गस्यर्थः, व्यतिपूनते इति पुनातेः, अन्यस्य योग्यं पवनमन्ये कुर्वन्ती- देशान्तरप्रापणक्रियोऽत्र वहिः” इति । अत्र कयट आह भार त्यर्थः । व्यतिहरन्ते भारम् इति-अन्ययोग्य भारकर्मक | वहतीत्यादी देशान्तरप्राप्त्युपसर्जन प्रापणमस्य वाच्यम्, तत्र हरणमन्ये कुर्वन्तीत्यर्थः, व्यतिपूर्वकस्य हरतेभीवादिकस्य तु गतिन्तिगयकत्वात् प्रतीयते न त्वसो धात्वर्थः, अस्यैव वर्तमानाबहुवचने रूपम् । परस्परकरणस्यापि क्रियाव्यति- न्यायसिद्धार्थस्यानुवादकमर्थग्रहणम् । गर्गाणां तु प्रापण 45 हारत्वमुक्तरीत्या सिद्धमिति तदुदाहरणमाह-सम्प्रहरन्ते । कन्याद्वारकमिति बहेर्गत्यर्थत्वाभाव इति । अयमाशयः-ग्राम राजानः इति- अन्येन चिकीषितायाः प्रहार कियाया | प्राप्त इत्यादी वेशान्तरप्राप्त गति विनानुपपत्तेः प्रापणे गति
अन्येन करणमित्यर्थस्य परस्परकरणेऽपि सङ्गतरुचितमेवेद- नतिरीयिका, प्राप्तिस्तु सम्बन्धसामान्यं न देशान्तरसंयोग 10 मुदाहरणम्, संप्रपूर्वकाद् हरतेवर्तमानाबहुवचने रूपमिदम् । एव अमतिस्थलेऽपि "भूरनेन प्राप्ता" इति व्यवहारात् ।
अत्र हिसार्थत्वं हरतेर्धातूनामनेकार्थत्वान, अगतिहिंसेति नान्तरीयकत्वेन लब्धस्य चार्थस्य न शब्दार्थत्वमित्यस्यैव 60 पर्युदासादपाः पृथग्रहणमिति वक्ष्यति स्वयमेव | ध्वननाय सूत्रेऽर्थग्रहणमुपात्तम्, अन्यथा “अगतिहिंसाशब्दवृत्तिकृत् । संविवहन्ते वगैः वर्ग: सह परस्परं विवहनं | हसः" इत्येव ब्रूयात्. गर्गाणां परस्पर प्राप्तिश्च कन्या
परिणय कुर्वन्ति, वर्गस्था जना अन्योऽन्य विवाहं कुर्वन्ती- द्वारिका, विवाहस्य हि कन्याप्राप्ति फलकपाणिग्रहणद्वारक15 स्यर्थः, वहेः संविपूर्वका वर्तमानायां आत्मनेपदबहुवचनम् । सम्बन्धोऽर्थ इति न प्रकृते वहेर्गत्यर्थत्वमिति । स्वमते च
हृधातोहरणार्थत्व, वह धातोः प्रापणार्थत्वमिति गतिहिंसा- सूत्रेऽर्थग्रहणं स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थमेव, नान्तरीयकतया प्रतीयमान-55 शब्दार्थत्वाभावादनयोः पर्यु दासो न प्राप्त इति पृथगनयो- स्याप्यर्थस्य यतः प्रतीतिस्तद्वाच्यत्वमेवेति स्वीकृत्य वहेरपि ग्रहणमनावश्यकमित्याशङ्कायामाह -- हवहोर्गति-हिंसा- गत्यर्थत्व सूपपादम् । हरतेहिसार्थत्वं तु परैरपि स्वीकृतमेवेति
र्थत्वात प्रतिषेधे प्राप्ते प्रतिप्रसवार्थमुपादानमिति, | प्रतिषेधे प्राप्त प्रतिप्रसवार्थमुभयोरुपादानमिति सम्यगे20 अयमाशयः- हरणस्य सामान्यतो हिंसाभिन्नत्वेऽप्युपसर्ग- | वोक्तम् ।
दशात् प्राणहरणानुकूल व्यापारे वृत्तौ हिसार्थत्वमस्त्येव, "दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् । प्रापणमपि स्थानान्तरस्थितस्य स्थानान्तरस्थापनमित्युत्तर- | सम्यग्विनिभयेनोभो दधतुर्भुवनत्रयम् ॥" देशसयोगानुकूलव्यापारं विना तदस भवः, उत्तरदेशसंयोगा- इति रघुशप्रथमसर्ग कालिदासप्रयोगस्तु करणविनिमये एव,
नुकूलव्यापार एव च गतिरिति भवत्युभयोः क्रमशों हिसार्थ-न क्रियाविनिमये इति नात्मनेपदम् । अयमाशयः-प्रकृतपद्यं 25 त्वं गत्यर्थत्वं चेति निषेधस्य प्राप्ति रस्तीति तस्य प्रतिप्रस- राज्ञो दिलीपस्य वर्णनप्रसङ्गेनागतम्, स-दिलीपः, यज्ञाय-यज्ञं
वार्थ [ निषिद्धस्य कार्यस्य पुनः प्राप्त्यर्थं ] पृथगुपादानमा- | कतु, गां-पृथ्वीं, दुदोह-हृतधनामकरोत; मघवा-इन्द्रः, 65 वश्यकमेवेति । केचित् तु सूत्रेऽर्थग्रहणात् शब्दान्तरनिरपेक्षा | सस्याय पृथिव्यां सस्यविवृद्धधर्थ, दिव--स्वर्गमाकाशं वा, एव ये गत्याद्यर्थबोधकास्ते एव तदर्थत्वेन गृह्यन्ते, हरतेरुप- दुदोह-वृष्टिरूपेण स्वधनेन पृथिवीं पूरितवानित्यर्थः; ततश्च
सगंवशेन हिसार्थत्वमिति न शब्दान्तरतिरपेक्षं हिसार्थस्वम्, | दिलीपो यज्ञेन मघवानं सन्तोष्य स्वर्गलोकं दधार, मघवा च 30 प्रापणमपि न साक्षाद्गतिरपि त्वार्थिकार्थरूपा गतिरिति वृष्टिदानेन सस्योत्पत्तिद्वारा भूलोकं दधारेति प्रतीयते । अत्र
तयोर्हवहोः प्रतिषेधस्य न प्राप्तिरिति व्यर्थमेव तयोः पृथ- | च परस्परधारणकरणस्य यज्ञस्य सस्यस्य च विनिमय इति 70 गुपादानमित्याहुः पाणिनीये तन्त्रे, भाष्ये तु "न गति-न क्रियाविनिमय इति नात्मनेपदमिति। व्यतिहार इति हिसार्थेभ्यः" [पा० सू० १. ३. १५] इति सूत्रे-- | किमिति--अवयवद्वारा समुदाये प्रश्नः, क्रियाव्यतिहारे इति
'हृवह्योरप्रतिषेधः' इति वात्तिककारेणाक्षितम्, तदर्थश्च | किमर्थमिति भाव:, केवलस्य क्रियेति पदस्य स्थिती न कश्चि35 भाष्यकृतेत्थं कृतः- "हृयद्योरप्रतिषेधो भवतीति वक्तव्यम् । । दर्थ: प्रतीयेतेति पूर्णस्यैव क्रियाव्यतिहारपदस्य शङ्काविषयत्वं सम्प्रहरन्ते राजान: संविवहन्ते गर्गः" इति । तथा च
स्वीकरणीयम्। प्रत्युदाहरति-लुनन्ति पुनन्तीति,अयमाशय:-75 हरते हिसार्थत्वाद् वहतेर्गत्यर्थत्वात् प्रतिषेधप्राप्तिमाशङ्कथं -
क्रियाव्यतिहार इत्यास्याभाबे गत्यर्थादिवजितेम्यो धातुभ्यः
कर्तर्यात्मनेपदमेव स्यादित्येवंरूपो नियमः प्रतीयेत, तथा वेत्थमुक्तम् । "तत: सम्प्रहरिष्यन्तौ दृष्ट्वा कर्ण-धनञ्जयौ।"
सत्युभयपदिभ्यः केवलपरस्मैपदिभ्यो वा गत्यर्थादिभिन्नेम्यो इति महाभारतप्रयोगे आत्मनेपदाभावश्च, कयटेन धातुभ्य आत्मनेपदमेव स्यादिति लुनन्तीत्यादिप्रयोगा 40 व्यतिहाराविवक्षया सथितः, अत्र हि सम्प्रहरिष्यन्तावित्य- | न स्युरिति क्रियाव्यतिहारे' इत्यावश्यकम् । अथास्तु 80
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१९०
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा०३, सू०२३]
व्यतिहार इति पदं, क्रियेति तत्र विशेषणरूपेण यदुक्तं | व्यर्थ इति शङ्कते--अगति-हिंसा-शब्दार्थ-हस इति किमिति । तन्मास्त्विति शङ्कते-क्रियेति किमिति, अयमर्थ:- उत्तरयति प्रत्युदाहरणेन-व्यतिगच्छन्तीत्यादिना । अर्थव्यतिहार इत्येतावन्मात्र कथितेऽपि 'व्यतिलुनीते' इत्यादि- | ग्रहणप्रयोजनप्रदर्शनाय तत्तदर्थकप्रत्युदाहरणद्वयं यथा लक्ष्यसिद्धिः, लुनन्तीत्याद्यलक्ष्यव्यावृत्तिश्च स्यातामेवेति | गत्यर्थस्य-- व्यतिगच्छन्ति, व्यतिसर्पन्तीति, हिंसार्थस्य 5 क्रियापदं तत्राधिकमिति । उत्तरयति-द्रव्यव्यतिहारे 1 व्यतिहिसन्ति, व्यतिघ्नन्तीति, शब्दार्थस्य व्यतिजल्पन्ति, 45 'मा' भूदिति- अन्यदीयद्रव्यस्थ हरणे आत्मनेपदं मा व्यतिपठन्तीति, हसः- व्यतिहसन्तीति, अत्र सर्वत्र भूदित्येतदर्थमिह क्रियाकरणमावश्यकमिति । क तदित्याह- सर्वेष्वेकस्या एव क्रियायाः सत्वात् क्रियाव्यतिहार-क्रियाचैत्रस्य धान्यं व्यतिलुनन्तीति--अत्र कर्मणो धान्यस्य | विनिमयसत्वेऽपि न भवत्यात्मनेपद, गत्याद्यर्थकधातुहसो
द्रव्यस्य विनिमय इत्यात्मनेपदं नेष्टम् असति क्रियाग्रहणे । वर्जनाभावे च स्यादेवेति तद्वारणायावश्यकमगतीत्यादीति 10 इहापि तद् दूरिमिति भावः । ननु चैत्रस्वामिकधनस्य | भावः । अनन्योऽन्यार्थे किमिति, परस्परकरणस्यापि व्यति- 50
[ धान्यस्य ] लवनेऽपि लवनकर्तु: स्वत्वानुत्पत्तेरिह कथं हारत्वमिष्टम्, अत एव च 'सम्प्रहरन्ते राजानः' इत्युदाद्रव्यस्यापि विनिमय इति विनिमयाव्यतिहारा भावादे- हृतम्, तथा च परस्परार्थ पोष्टमिमिति तदर्थकशब्दप्रयोवात्मनेपदाप्राप्तिरिति चेदत्राह-अत्र लुनातिरुपसंग्रहा- गेऽपि भवितव्यमेवात्मनेपदेनेत्यन्योऽत्यार्थशब्दवर्जनमनुचित
त्मके लवने वर्तते इति-प्रकृतप्रयोगे लुनातिनं केवले | मिति प्रश्नकत्तुं राशयः । प्रत्युदाहरति-अन्योऽन्यस्य व्यति15 छेदने वत्ततेऽपि तु उपसंग्रहात्मके स्वीकारस्वभावे लवने लुनन्तीत्यादि, अयमाशय:- परस्परकरणार्थे सूत्रस्य 55
च्छेदने वर्तते, तदेव स्पष्टयति--चत्रेण यद गहीतमिति- प्रवृत्तेरिष्टत्वेऽपि परस्परार्थे शब्दे समीपोच्चारिते सति नाचैत्रेण यत् स्वायत्तीकृतं तदेव धान्यं छेदनेनोपसंगृह्णन्तीत्यर्थ त्मनेपदमिष्टमिति प्रकृते तद्वारणाय 'अनन्योऽन्यार्थे' इत्या. इति । चैत्रस्वामिक धान्यं लवनेनोपसंगृ णन्ति-स्वीकुर्वन्ती- वश्यकम् । नन्वन्योऽन्यार्थकशब्देनैव क्रियाव्यतिहारस्य बोधित्यर्थात् तत्र द्रव्यस्य विनिमयो गम्यत एवेति भवति तत्र | तत्वात् पुनस्तदथें आत्मनेपदं न स्यादेव * उक्तार्थानाम20 व्यतीहारो द्रव्यस्य, क्रियाव्यतिहारग्रहणे तु [क्रियाग्रहणे | प्रयोग: * इति न्यायादिति प्रकृतप्रयोगेष्वात्मनेपदवारणाय 60 . तु ] प्रकृते चत्रेण कस्याश्चिदपि क्रियायाः स्वीकाराभावान्न | 'अनन्योऽन्यार्थ' इति नावश्यकमिति चेत् ? न-लौकिके शब्द.
भवति क्रियाव्यतीहारः । ननु स्थिरेषु द्रव्येष्वन्यसम्बन्धिनो | व्यवहारे लाघवानादरादन्योऽन्यादिशब्दा: क्रियाव्यतिहारद्रव्यस्यान्यसम्बन्धरूपव्यतिहारसंभवेऽपि क्षणस्थायिक्रियासु द्योतनाय प्रयुज्यन्ते व्यत्ययादिरूपोपसर्मा इव, तथा च लौकिक
तदसंभव इति कियाव्यतिहारः कुत्रापि न मंभाव्यत इति | प्रयोगस्य तथैवानुसतव्यत्वात् परस्परादिशब्दप्रयोगेऽप्या25 चेन्न--योग्यतावशादस्येय क्रिया साध्या, अस्या इदं साधन- स्मनेपद स्यादेवेति तद्वारणायावश्यक मेवान्योऽन्यादिशब्दवर्जन-65
मिति निश्चिते साध्यसाधनभावे यो व्यत्यास: स एव क्रिया- मिति बोध्यम् । ननु प्रकृतेऽन्योऽन्यादिशब्दा व्यती उपसर्गों व्यतिहार इति स्वीकारात्, अयमाशय:-तान्यसम्बन्धिनोऽन्य- च प्रयुकाविति कथं व्यतिहारद्य कोतोभयशब्दप्रयोग इति चेदसम्बन्धित्वं क्रियाव्यतिहारः, किन्त्वन्यदीयत्वेन प्रसक्त- | त्राह---क्रियाव्यतिहारो यतिनैव धोतित इतन्योऽ.
स्यान्यसम्बन्ध एव सः, एवं च साधनव्यत्यास एव क्रिया- । न्यादिभिस्तत्कर्माभिसम्बध्यते इति, अयमाशयः-प्रकृते 30 व्यत्यास इति पर्यवसितम्, स च सर्वत्र संभाव्यत एव, अन्य व्यतिहारद्वयं-क्रियाव्य तिहार: कर्मव्यतिहारश्च, तत्रक्रिया- 70'
कर्तृकक्रियायाः तत्सदृशक्रियायाः] अन्येनाक्रियमाणत्वात् । व्यतिहारो व्यतिना द्योतितोऽपि कर्मव्यतिहारद्योतनायान्योsयद्यपि साधनभेदात् क्रियाया भेद इति नान्यकत कक्रियाया ! न्यादिशब्दप्रयोग इष्ट एवेति। कर्मसम्बन्धमवगमयति .. अन्येन करण सम्भाव्यते, तथापीदृशस्थले एकव क्रिया कर्तृ द्वय- अन्योऽन्यस्य केदारमिति-अन्योऽन्यस्य केदारं क्रियाव्यति
सञ्चारिणी लक्ष्यत इति जातिकृतमेवैक्यामाश्रयणीयम् । प्रायेण हारेण लवित्वोपसंगृह णन्तीत्यर्थ इति भावः । पूर्वसूत्रे कत्तरी35 व्यती उपसर्गावस्य[क्रियाव्यतिहारस्य द्योतको, क्वचित् समपि, | स्युक्तं, तत्रानावश्यकमपि प्रकृतसूत्रेऽवश्यसम्बन्धनीयमित्याह-75
संप्रहरन्ते राजान इति. क्वचित् तु प्रकरणादिकमपि व्यतिहार- कर्तरीत्येवेति । तत्कलमाह-तेन भाव-कर्मणोः पूर्वेणैव द्योतकम्, तयापि वाचकपदाभावाद तत्प्रतिपन्तिरात्मनेपदेन | स्यादनेन मा भूदिति---यत्र सकर्मकेभ्यः कर्मणि प्रत्ययो भवतीति तदर्थे स विधीयत इति नोक्तार्थानामप्रयोग इति । यत्र वाऽकर्मकेभ्यो भावे प्रत्ययस्तन प्रकृतसूत्राप्रवृत्त्यर्थ कर्त
न्यायविषय इत्युक्तपूर्वम् । अस्तु तावदविशेषेण सर्वेभ्य एव | रीत्यवश्यं कर्तव्यमित्यर्थः । ननु आत्मनेपदं विधेयं तदरेनःस्तु 40 धातुभ्यः क्रियाव्यतिहारे आत्मनेपदं, गत्यर्थादिपर्यु दासो | पूर्वसूत्रेण वा तत्र को विशेष इति चेदवाह-यदि ह्यनेन 80
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श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
कम्
इति न्यायात् । ननु 'विश' इति विकरणविशिष्ट- 40 स्याङ्गमट न तु केवलस्य धातोरिति धात्वङ्गत्वाभावात् तस्य व्यवधायकत्वं स्यादेवेति चेन्न - "अड् धातोरादिह्यंस्तन्यां चामाङ्गा" [ ४.४ २६ ] इति सूत्रस्य विषयसप्तम्या व्याख्यानात् ह्यस्तन्यादिविषये विकरणात् पूर्वमेवागमे तस्य धातुमात्रावयवत्वाक्षतेः । एवं चैतदर्थं केचिद् वैयाकरणाः 45 'उपसर्गनियमे अव्यवधाने उपसंख्यानम्' इति वातिकं स्वीकुर्वन्ति, तदपि प्रत्युक्तम्, अत एव भाष्यकृदादिभिस्तादृशवात्तिकस्य चर्चाऽपि न कृता, न चैवमस्यादित्यत्र "उद: स्थास्तम्भ: सः” [ १. ३. ४४. ] इति सस्य लुक् स्यात्, अटोऽव्यवधायकत्वेन उदोऽव्यवहितस्य 'स्था' इत्यस्य सस्य 50 लोपस्य दुर्वारत्वादिति वाच्यम्, तत्रोदः परत्वं सकारस्येष्टं न तु स्थाधातोः, उद: परस्य स्थास्तम्भावयवस्य सस्य लुगिति सूत्रार्थस्वीकारात् सकारस्याटा व्यवधाने प्राप्त्यभावात्, अट् हि धातोरवयवो न तु सकारस्येति स्थाधातुं प्रति तस्याव्यवधायकत्वेऽपि सकारं प्रति व्यवधायकत्वा- 55 नपायात् । अन्ये तु निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति इति न्यायेनात्र सलुकं वारयन्ति तेषामियं प्रक्रिया- "उद:. स्था-स्तम्भ: स:" [ १. ३.४४ ] इति सूत्रे 'उद:' इत्येषा पञ्चमी' स्थास्तम्भ:' इति च षष्ठी, षष्ठीनिर्देशेन यदुच्यते तत् कार्य निर्दिश्यमानस्य भवति निर्दिश्यमानस्यादेशा 60 भवन्ति इति न्यायस्य तत्रोपस्थिते:, यत्र चायं न्याय उपतिष्ठते तत्र सप्तम्यन्त- पञ्चम्यन्तयोः षष्ठयन्तस्य च व्युत्पत्तिवैचित्र्येणाकाङ्क्षितोपतिष्ठमान निर्दिश्यमानपदार्थेन तस्य चादेशपदार्थेन साक्षादन्वयो भवति, तथा चोद: परस्य स्था-स्तम्भावयवस्य लुगिति सूत्रार्थः सम्पद्यते, निर्दिश्यमा- 65 नत्वं हि षष्ठीप्रकृति शवयत्वम्, 'यदागमा: ०' इति न्यायगृहीतोऽथंश्च न शक्योऽपि तु लाक्षणिक एवेति उदः परत्व स्थाशब्दस्यापीह न संभवति, किमुत सकारस्येति प्रकृते 'उदस्थात्' इत्यत्रादसहितस्य स्थाशब्देनाग्रहणेन दोषोद्भावनं सर्वथाऽयुक्तमेवेति संक्षेपः । "निविशः" इति सूत्रस्य यथा - 70 कथंचिन्तिशब्दात् पराद् विश आत्मनेपदमित्यर्थं वर्णयित्वा 'मधुनि विशन्ति भ्रमरा:' इत्यादावात्मनेपदं कुतो नेत्याशङ्कन्ते, तदा शङ्काया अतितुच्छत्वेऽपि 'तुष्यतु दुर्जन:' इति न्यायेनोत्तरमाह- मधुनि विशन्ति भ्रमरा इत्यादि तु निविशोरसम्बन्धादनर्थकत्वाच्च न भवतीति- अत्र 75 ' इत्यादि तु' इत्येतत्स्थाने ' इत्यादिषु' इति ' इत्यत्र तु' इति वा पाठ उचित, प्रकृतपाठे च ईदृशः प्रयोग एव न भवतीत्यर्थः प्रतीयते स चानुचित एव, तादृशप्रयोगस्यैवेष्टत्वाद् ऽन्यस्य मध्ये सत्त्वान्न व्यवधायकत्वम् * स्वाङ्गमव्यवधाय- | विपरीत [ आत्मनेपदविशिष्ट ] प्रयोगस्यैव वारणीयत्वात् ।
[पा० ३, सू० २३-२४ ]
स्यात् तदा व्यतिगम्यन्ते ग्रामाः, व्यतिहस्यन्ते दस्यवः इत्यत्रागतिहिंसाशब्दार्थहस इति प्रतिषेधः स्यादिति, अयमाशयः - प्रकृतसूत्रं कर्तरीत्यस्याभावे सामान्येन प्रवृत्ती भावकर्मणोरपि परत्वात् क्रियाव्यतिहारे विशिष्य विहित 5 वाचस्यैव सूत्रस्य प्रवृत्तिः स्यात् तत्र च प्रकृतसूत्रीय प्रतिषेधोऽपि प्रसज्येतैवेति व्यतिगम्यन्ते ग्रामाः' इत्यत्र गत्यर्थस्वप्रयुक्तो 'व्यतिहस्यन्ते दस्यवः' इत्यत्र हस्धातुविषयश्च निषेधः स्य दिति न स्यादात्मनेपदमिति तत्राप्यात्मने पदप्रवृत्तये प्रकृतसूत्रे कर्तरीत्यायवश्यकम् कृते च कर्त्तरीति 10 पदे भावकर्मणोः प्रकृतसूत्राऽप्रवृत्ती "तत् साप्यानाप्यात्० [ ३. ३. २१. ] इति पूर्वसूत्रेण निर्बाधमात्मनेपदं भवतीति सर्वसामञ्जस्यम् ।। ३. ३. २३. ॥
"
निविशः ।। ३ ३ २४ ॥
त० प्र०- निपूर्वाद् विश: कर्तत्मनेपदं भवति । 15 निविशते । न्यविशतेत्यदो धात्ववयवत्वान्न व्यवधायकत्वम् । मधुनि विशन्ति भ्रमरा इत्यादि [ इत्यादौ ] तु निविशोरसम्बन्धादनर्थकत्वाश्च न भवति ।। २४
श० म० न्यासानुसन्धानम् - निविशः । नेविशुनिनिशु, तस्मात् इति समस्तं पदम् नीत्यविभक्तिकं षष्ठ्यन्त 20 पदम्, निसम्बन्धिनो 'विश्' धातोरिति तदर्थ, सम्बन्धश्च स्वद्योत्यायं वाचित्वम् समस्तत्वेऽपि तत्सम्बन्धस्वरूपान्तर्भाव एव तथा च तुल्यवित्तिवेद्यतया धातुवाच्यक्रिया विशेषार्थ द्योतकत्वं निपदे लभ्यते, तथाविधरचोपसर्ग एव निरिति न्युपसृष्टविश्धातोः कर्तर्यात्मनेपदमिति फलितोऽर्थ:, तत्फलं 23 चाग्रे वक्ष्यति – मधुनि विशन्ति भ्रमरा इत्यादिना । उदाहरति--- निविशते इति -- निपूर्वाद् विशेर्वत्तमानाप्रथमपुरुषैकवचने रूपम्, तथा च श्रीहर्षेण प्रयुक्तं
"निविशते यदि शूकशिखापदे, सृजति सा कियतीमित्र न व्यथाम् ।" इति, अत्र केचित् 'निविश:' इति पद लुप्तपचम्या 30 निर्दिष्टं वम्यन्तेन समस्तं वेति मत्वा निशब्दादव्यवहित
परादेव विश आत्मनेपदमिति न्यवशितेत्यत्र पूर्व घातुः साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेणेति मते, त्याद्युत्पत्तिविषयतायामेवाडागम इति सिद्धान्ते च पूर्वमडागमे पश्चात् त्याद्युत्पत्तिकालेऽटा व्यवधानान्निशब्दादव्यवहितपरत्वाभावादात्मने 35 पदं न स्यादिति शङ्कन्ते; तन्मतखण्डनायाह - न्यविशतेत्यटो धात्ववयवत्वास व्यवधायकत्वमिति - * यदागमास्तणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते इति न्यायेन धातोरागमोडट् धात्वङ्गीभूत इति विशुग्रहणेनैव तस्यापि ग्रहणमिति विशो
|
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
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तथा चात्र निविशोः परस्परं सम्बन्धाभावो निशब्दस्यानर्थ- | वाचिभ्यामस्यत्यूहिम्यामित्यर्थों भवतीति व्याचक्षते, तत्फलं 40 कत्वं च हेतुद्वयमात्मनेपदाप्रवृत्ती कथितम्, नि-विशोः | चाडादिव्यवधानेऽपि सूत्रप्रवृत्तिरिति कथयन्ति, पर तु सम्बन्धश्न स्वद्योत्यार्थवाचित्वमेवेत्युक्तं पूर्वमिति प्रकृते । अटोऽव्यवधायकत्वयुक्तः पूर्वसूत्रव्याख्यायामुक्तत्वेन तदर्थमधुनीति पदावयवस्य निशब्दस्य न विशधात्वर्थद्योतकत्व- मोदृशक्लिष्टकल्पनाया अनावश्यकत्वमिति साधारणरीत्यंव 5 मिति न तद्योत्यार्थवाचित्वं विश इति न तयोः परस्पर |
| सूत्र व्याचष्टे- उपसर्गात पराभ्यामस्थत्यहिभ्यामिति । सम्बन्धः, किश्च नीति विशिष्टरुपस्योपादानम्, विशिष्टरूपो- | उदाहरति--विपर्यस्यति, विपर्यस्यते इत्यादिना, 'विपरि' 45 पादानविषये च * अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणम् - इति । इत्युपसर्गद्वयात् परत्वसत्त्वेन परस्मैपदिनोऽस्यतेर्वर्तमानाया न्यायः प्रवर्तत इति प्रकृते मधुनीति पदावयवस्य निशब्द- आत्मनेपदप्रथमपुरुषकवचनम्, अस्यतेदेवादिकत्वेन श्यः ।
स्यानर्थकत्वेन तस्य प्रकृतसूत्रेऽग्रहणादपि नात्मनेपदप्राप्तिः, समूहति, समूहते इति- ऊह धातोनित्यमात्मनेपदिनोऽनेन 10 मधुनीति समुदायस्यैवार्थवत्त्वं न तु तदवयवस्य निशब्दस्य विकल्पेनात्मनेपदम् । उपसगंयोगे परस्मैपदिनोऽस्मादात्मने
समुदायो हर्थवान् तस्यैकदेशोऽनर्थकः इति न्यायात् । पदस्य प्रयोग माघकविप्रयोगेणानुमोदयति- "सन्ततं 50 " इत्युक्त्वा मैथिली भर्तरई निविशती भयात् ।" तिमिरमिन्दुरुदासे” इति, इत्थं च पूर्ण पद्यम्इति वाल्मीकिप्रयोगे तु 'अङ्गानि विशती भयात्' इत्येव " लेखया विमलविद्रुमभासा
पाठः कल्पनीयो लेखकप्रमादात् भ्रष्ट इत्यास्थयम् । केचित् सन्तत तिमिरमिन्दुरुदासे । 15 तु पदसंस्कारपक्षे- अङ्क विशतीमिति पृथक् पृथक् संसाध्य दंष्ट्रया कनकभङ्गपिशङ्गया।
पश्चादुपसर्गणान्वये जात: संस्कारो न निवर्नते * इति मण्डलं भुव इवादिवराहः ।।" इति । .55 न्यायेन दोषाभाव इति समादधते, तन्न यूक्तम्-- एवं सति | चन्द्रोदयवर्णनमिदम्, "इन्दुः विमलविद्मभासा लेखया सन्ततं त्वं करोति, भवान् करोषीत्वादेरपि साधुत्वप्रसङ्गात् । तिमिरभुदासे, कः केन किमिवेत्याह- आदिवराहः कनक
तस्मादीदृशस्थले वाक्यसंस्कारपक्ष एव स्वीकरणीयो न त भङ्गपिशङ्गघा दष्ट्रया भुवो मण्डलमिव" इत्यन्वयः। चन्द्रो 20 पदसंस्कारपक्षः । किञ्च पदस्य पदान्तरसम्बन्धे तत्पक्षस्य विमलस्य निर्मलस्य, विद्रुमस्य- लतामणेरिव, भा:-कान्ति
रक्षकत्वेऽपि धातूपसर्गयोः सम्बन्धस्य चैकपदविषयत्वेन तत्र | यस्यास्तादृश्या, लेखया-- स्वकलया, सन्ततं सर्वतो व्याप्त, 60 तत्पक्षण निर्वाहासम्भवात् । संस्कृत्य संस्कृत्य पदान्युत्सज्यन्ते- | तिमिरम्- अन्धकारम्, उदासे- उच्चिक्षेप । अत्रोपमागर्भ तेषां यथेष्टमभिसम्बन्धो भवतीति न्यायो हि नानिष्टप्रयो- दृष्टान्तमाह- आदिवराहः सलिलमग्नायाः पृथिव्या उद्घा
गापादनाय, तन्निर्वाहाय वा स्वीकृतोऽपि त्विष्टस्थले राय घृतवराहशरीरो विष्णुः, कनकभङ्गपिशङ्गचा- सुवर्ण25 क्वचित् सन्ध्यादिरूपसंस्काराभावस्य निर्वाहायवेति न तेने शकलरक्तपीतया, दंष्ट्रया, भुवः- पृथिव्या मण्डलमिवेति
दृशप्रयोगसाधुत्वमास्थेयम् । ईदृशप्रयोगस्य प्रामाणिकत्वे च | तदर्थः। अत्र 'उदासे' इति अस्यतेरुत्पूर्वस्य परोक्षायाः 65 आषत्वादेव समाधानस्यौचित्यादिति ध्येयम् ॥ ३. ३.२४. ॥ प्रथमपुरुषकवचने आत्मनेपदे रूपम् । एतेन च सकर्मकादपि
भवत्यात्मनेपदमिति स्वमतमपि प्रमाणितं प्रकृते सकर्मकत्वस्य उपसदस्योहो वा ॥ ३. ३. २५. ।।
स्पष्टत्वात् । अस्यतिविषयं कविप्रयोगमुदाहृत्योहिविषयं त०प्र०- 'उपसर्गात् पराभ्यामस्यत्यूहिभ्यां कर्तर्यात्मने
तमुदाहरति- यशःसमूहन्निव दिग्विकीरणमिति, भार30 पदं या भवति । विपर्यस्यति, विपर्यस्यते; समूहति, समूहते, विकवेः किरातार्जुनीयमहाकाव्ये तृतीयसर्गे द्रौपदीवचन- 70
"संततं तिमरमिन्दुरुदासे" [म.घे] । "यशः समूहन्निव मिदम । शत्रविजयार्थ वेदव्यासदर्शितपथा तपश्चर्याय इन्द्रदिग्विकीर्णम्"। किराते। अस्येति श्यनिर्देशोऽस्त्यसति-नीलपर्वत प्रति प्रतिष्ठमानमर्जुनमाहनिवृत्त्यर्थः । उपसर्गादिति किम् ? अस्पति, ऊहते । अस्य- "ब्रीडानतराप्तजनोपनीतः,
तेरप्राप्त कहतेश्च नित्यं प्राप्त उभयत्र विभाषेयम् । अन्ये संशय्य कृच्छ्ण नृपः प्रपन्नः । 35 स्वकर्मकाभ्यामेवेच्छन्ति, प्रत्युदाहरन्ति च-रिस्थति शत्रन,
वितानभूत वितत पृथिव्यां,
75 समूहते पदार्यान् ॥ २५ ॥
यश:समुहन्निव दिग्विकीर्णम् ।।" इति । श०म०न्यासानुसन्धानम्-उपसर्गा० उपसर्गादि- | अग्रे वक्ष्यमाणेनति पञ्चमी 'अस्योहः' इत्यस्य विशेषणभूतपरशब्दयोगे। " नवीकरिष्यत्युपशुष्य दाः केचित् तपसर्गादिति पञ्चमी षष्ठघर्थ, तेनोपसर्गद्योत्या
सत्त्वाद् विना मे हृदयं निकारः।"
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[पा० ३, सू० २५-२६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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इति पद्यांशेन सम्बद्धमिदं पद्यम् । अस्य पद्यांशस्यायमर्थ:- तदर्थमिह श्यनिर्देश: ; कृत इति भावः । प्रकृतसूत्रस्योभयत्र स निकारः, त्वद् विना, आर्द्रः सन्. उपशुण्यत् मे हृदयं | विभाषात्वाप्रकटयति-अस्यतेरप्राप्तेरिति-अस्यतेः परस्मैनवीकरिष्यतीति, अयमाशय:- शत्रभिरस्मासु यो निकारो- पदित्वेन तत आत्मनेपदमप्राप्तमेवेति तदंशे पूर्व विधिरेव,
ऽपमान नकव्यवहारः कृतः स सम्प्रति तव वियोगे सति पश्चात् विहितस्य पाक्षिकोऽभावोऽशिष्यते, ऊहेश्चात्मने5 पुनराईतां नूतनतां प्राप्तः सन्; उपशुष्यत्- दुःखेन पूर्व- पदित्वेन तस्मान्नित्यं प्राप्त च पाक्षिकोऽभावो विधीयत मार्दीभूतमपि कालव्यवधानात् तव सहवासाच्च शुष्क- इत्यस्यतिविषयेऽप्राप्त विभाषा, ऊहिविषये च प्राप्तविभाषेत्यु- 45 तामुपगत मे हृदयं नवीकरिष्यति, पुनरार्द्रतां नेष्यति । | भयत्र विभाषात्वमस्य । मतान्तरमाह-अन्ये विति-केचिद् किमर्थमयं तव विरह इति विचारे समायाते शत्रुभिरा- | वैयाकरणा: प्रकृतसूत्रेऽकर्मकादिति पद सम्बध्नन्ति। पाणिनीये
चरितस्यापकारस्योद्धारायैव त्वं गतोऽसीति बुद्धवा ते ते भाष्ये चाकर्मकादित्यस्य निवृत्तिरुक्ता पूर्वप्रदशितकवि10 सर्वेऽपकाराः स्मतिपथमागत्य मां पीडयिष्यन्तीति भावः। | प्रयोगाभ्यामपि सकर्मकादात्मनेपदं प्रमाणितमिति, नैतन्मतं . .
अत्र पद्यांशे निकार इति पदोपस्थापितस्यार्थस्य प्रकार- विशेषतः ममादरमहति, तथापि तत्स्वरूपप्रदर्शनमात्रायेह 50 वर्णनमेव प्रकृतपद्येन क्रियते-कीदृशो निकारस्त त्राह-'आप्त- तन्मतमुपन्यस्तम् । तेषां मते प्रत्युदाहरणस्वरूपमस्याहजनोनीतः, व्रीडानतर्नः संशय्य कृच्छण प्रपन्नः, पृथिव्या | निरस्यति शत्रमिति-अत्र परस्मैपदमेव भवति नात्मने
वितानभूतं विततं दिग्विकीणं [भवतां ] यशःसमूहन्निव " | पदमिति तेषामाशयः। आत्मनेपदस्य वैकल्पिकत्वेन प्रकृत15 इत्यन्वयः । आप्तेन- यथावत्रा, जनेनोपनीत:- उपस्था- प्रयोगोपपत्तौ पूर्वोक्तकविप्रयोगादिसमन्वयायाकर्मकग्रहणमिह
पितः कथित इति यावत्, व्रीडया- ईदृशानां पाण्डवानामी- न कृतमिति स्वाशयः । समूहते पदार्थानिति च नित्यमे-55 दृशमशोभनं वृत्तं स्त्रीवस्त्रहरणारिकमभूदिति लज्जया, वात्मनेपदमिति। अतिप्रम नस्त्वनभिधानाभयमते वारणीय आनतै:- नम्रीकृतमुखै:, नृपः- समानराजभिः, सशय्य- इत्यलम् ।। ३. ३. २५. ॥ पूर्वमोह शमसंभाव्यमिति संदिह्य, पश्चात् सर्वथा प्रमाणीकृते सति कृच्छण-कष्टेन, न त्वञ्जस्ये नः प्रपन्न:- तथात्वेन
उत्-स्वराद् युजेरयज्ञ-तत्पात्रो ।। ३. २. २६ ॥ स्वीकृतः पृथिव्यां-भूवि, वितानभुतम्-उल्लोचायितम्-अत एव
त० प्र०- उदः स्वरान्ताञ्चोपसर्गात् पराव युनक्तेः वितत-सर्वनो विस्तृत, दिदिकीर्ण, दिक्षु व्याप्त, भवतां,
कर्तर्यात्मनेपदं भवति, अयज्ञतत्पात्रे-न चेत् यजे यत तत्पात्रे 60 यश:- पराक्रमशालिस्वादिजनितकीर्ति, समूहन्निव प्रतिसंह
तद्विषयो युज्यों भवति । उद्युक्ते, उपयुङ्क्ते, नियुङ्क्ते । रन्निव, असौ निकारः, मे हृदय पुनर्नवीकरिष्यतीति
| उत-स्वरादिति किम् ? संयुनक्ति नियुक्ति । अयज-तस्पात्र 25 सम्बन्धः । अत्र लघुन्या से प्रदर्शितपाठे राजजनोपनीत इति । इति किम् ? द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति । यत्र तु यज्ञ
पठ्यते राज नोपनीत' इत्यस्य स्थाने, परं साम्प्रतमपलभ्य- | एव न तु तत्पात्रम्, तत्पात्रमेव वा न यज्ञस्तत्र मवस्येव म.नेषु मुद्रणेषु 'आप्तजनोपगीत' इत्येष एव पाठः समुप
यज्ञे मन्त्रं रन्धनपात्राणि वा प्रयुङ्क्ते, यज्ञपात्राणि रन्धने 65 लम्यते, अर्थदृष्टया चाय मेव पाठः समुचित इति विचार्य प्रयुङ्क्ते । "युजिच् समायो" इत्यस्येदित्वादात्मनेपदस्थापितः, राजपुरुपोपनीत वृत्तापेक्षयाऽऽप्तपुरुषोपनीतवृत्त
विधानमनर्थकम् ॥ २६ ॥ 30 स्याधि प्रामाणिकत्वप्रतीते:. ताहशवप्रतीतिश्च प्रकृते श०म० न्यासानुसन्धानम्-उत्स्वरा० । उदिति
आश्चर्यपरिपोषिका विशेषेणेति विज्ञेयम् । अत्र च समि- पृथगुपसर्गस्वरूपम्, स्वरादिति च तदन्तविधिना स्व. त्युपसर्गपूर्वकाहेरात्मनेपदिनो विकल्पेन तद्विधानात् परस्मै- रान्तपरम्, तदन्तविधिश्च "विशेषणमन्तः" [७.४.११३.] 70 पदे शतरि सति समूहन्निति रूपसिद्धिः ।
इति परिभाषणात्, विशेष्यं च पूर्वसूत्रादनुवृत्तमुपसर्गादिति ननु लाघवाद् 'असोहो' इत्येव पठनीयं, विकरण- पदम्, तथा च योऽर्थः सम्पन्नस्तमाह- उदः स्वरान्ताच्चो35 विशिष्टपाठः किमर्थ इति चेदवाह-अस्येति श्यनिर्देशोऽ- | पसर्गादिति । सूत्रे युजेरिति युज्यतेः युनक्तेश्च [युजिच
स्त्यसति निवृत्त्यर्थः इति, अयमाशय:- असिति सामान्य- | समाधौ" दिवादिः, "युजपी योगे" रुधादिः, इत्यनयोः] निर्देशे असरूपाणां त्रयाणामपि ग्रहणं स्यात्, तत्रैकोऽस- | सामान्यनिर्देशे सत्यपि युज्यतेनित्यात्मनेपदित्वेन ततस्त- 75 " असक भुवि" इति पठितोऽदादी, परश्च अस-मतिदीप्त्या- द्विधानस्यानर्थक्यमिति युनक्तरेवायं विधिरित्याशयवानाह
दानेषु म्वादिपठितः, तृतीयश्च क्षेपणार्थो दिवादिपठितः, युनक्तरिति, तस्यापीदित्त्वेन यद्यपि फलवत्कर्तरि 40 तत्र दिवादेरेव ग्रहणं स्यात्, न तु भ्वाद्यदादिपठितयोरित्ये- "ईगितः" [३. ३. ६५.] इत्यात्मनेपदं सिद्धमेवेत्य
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१६४
कलिकालसर्वज्ञबोहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा०३, सू०२६-२७]
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20
फलवत्यपि कर्तरि तद्विधानार्थ सूत्रम् । अयज्ञतत्पात्रे इति पदम् । युजेरिति सामान्यनिर्देशे युज्यतेरपीह ग्रहणमुचितपदं व्याचष्टे- न चेद् यज्ञेयत तत्पात्रमिति, एतेन यज्ञ- मित्याशङ्कापनोदायाह- "यूजिच समाधो" इत्स्येभिन्ने कार्ये यज्ञीयपात्रप्रयोगे, यज्ञे वाऽयज्ञीयपात्रप्रयोगे निषे- | दिवादात्मनेपदविधानमनर्थकमिति, अयमाशय :
धाप्रवृत्तिरिति सूचितं, तत् स्पष्टयिष्यति प्रत्युदाहरणेन ! तस्येदित्त्वेन " इङित: कतरि" ३. ३. २१. ] इति 5 उदाहरति-उाङक्ते, उपयुक्ते, नियुक्ते, इति- सूत्रेणात्मनेपदमेव भवतीति प्राप्' विधानस्यानर्थक्येन नेह 45
उदिति च स्वरान्तभिन्नमिति तदर्थ पृथगेव तदुपादानमिति | तद्ग्रहणमिष्टमिति । न च प्राप्त विधिनियमार्थ इति तत्पूर्वकाद् युनक्तरात्मनेपदमेव भवति फलवत्यफलवति च | वाच्यम्, पाक्षिकप्राप्तावेव नियमार्थत्वस्य संमते: अप्राप्त हि कर्तरि, उपयुङ्क्ते, नियुङके इति च स्वरान्तोपसर्गात् । शास्त्रकारशंल्या प्राप्त विधानस्य नर्थकत्वमेव । एवं चायज्ञ
परत्वेनात्मनेपदम् । उत-स्वरादिति किमिति, अयमाशय - | तत्पात्रविषय एवास्यात्मनेपदमिति नियमार्थमेव युज्यतेरपीह 10 एवं कृते प्रायो बहन मुपसर्गाणां संग्रहो जात एवेति व्यर्थः | ग्रहणमित्यपि परास्तम्, यज्ञपात्रविषयेऽस्य प्रयोगाभावात्, 50
मेवैतदुपादानं व्यावाभावादिति । बहनां स्वरान्तत्वेऽपि | कथचित्प्रयोगोपपादनेऽपि विधि-नियमयोविधिरेव ज्यायासमो निरो दुरो निसो दूसरचोपसर्गाणां व्यावर्तनाय | निति भाष्यकारादिसम्मतसिद्धान्तेनास्य 'सूत्रस्य विधित्वउत्स्वरादित्यावश्यकमित्याह प्रत्युदाहरणेन- संयुनक्ति, मेवोचितम् । किञ्चास्य युज्यतेनित्यमात्मनेपदित्वेन
नियुनक्तोति--निरिति निर्-निसो: सामान्येन प्रयोगः, दुर्युन- | यज्ञतत्प.त्रविषयेऽप्यात्मनेपदप्रयोगस्य दुरित्वमेवेति 15 क्तीत्यपि प्रत्युदाहरणं संभाव्यते । इह फलवत्यपि कर्तरि | ॥ ३. ३. २६ ॥
55 नात्मनेपदम्, प्रकृतसूत्रस्य नियामकत्वात्, नियमाकारश्च
परिव्यवात् क्रियः ॥ ३. ३. २७ ॥ उत्स्वरादेवोपसर्गाद् युजेरात्मनेपदं नान्यति प्रत्यूदाहर्तमाह-अयज्ञ-तत्पात्र इति किमिति- अविशेषेण सर्वत्र
त० प्र०- 'परि वि अव' इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्यः उत्स्वरादुपसर्गादात्मनेपद विधीयतामिति शङ्कितुराशयः ।
पराक्रोणातेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पराकीणोते, विकीयज्ञे तत्पात्रप्रयोगे न विधानमिष्यत इति तद्वारणाय तदा
णोते, अवक्रीणीते सर्वत्र गितः फलवतोऽन्यत्र विधिः। उपसर्गावश्यकमिति प्रत्युदाहरणमुखेनाह- द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि
विस्येव-उपरिकोणाति, मवि कोणाति, वनं बहविक्रीणाति, 60 प्रयुनक्ति द्वन्द्वमित्यस्य द्विश:, इत्यर्थः यज्ञे पात्राणां द्विशः ।
अपचावः, क्रीणीयः। 'की' इत्यनुकरणमनुकार्येनार्थेनार्थवप्रयोग: क्रियत इति प्रसिद्धर्यज्ञ एवायं यज्ञपात्रप्रयोग इति
विति नामत्वे सति ततः स्यादयः, प्रकृतिववनुकरणम् इति नात्रात्मनेपदं भवति फलवत्यपि कर्तरि, 'अयज्ञ-तत्पात्रे'
न्यायाच धातुकार्य मियादेशः । अत एव च ज्ञापकात्25 इत्यस्याभावे चात्रापि स्यादिति तद्वारणाय तदावश्यक-ति
प्रकृतिवदनुकरणे कायं भवति, तेन 'मुनी इत्याह' द्विष्पच. भाव: । न चेद् यज्ञे यत् तत्पात्र तद्विषयो यूज्यर्थं भवतीति | तीत्याह इत्यादी प्रकृतिभाव-षत्वविकल्पादि सिद्धं भवति 65 यद् व्याख्यातं तस्याशयमिह स्फोरयति- यत्र तु यज्ञ
| ॥२७॥ एव न तु तत्पात्र, यत्र तत्पात्रमेव वा न यज्ञस्तत्र
श०म० न्यासानुसन्धानम्-परिव्य० । परिव्यभवत्येवेति, अयमाशयः- एकसत्त्वे द्वय नास्तीति ताकिक- वादिति पूर्वसूत्रादनुवृत्तेनोपसर्गादित्यनेन सम्बध्यते, एष च 30 सरणेर्यज्ञसत्त्वेऽपि यज्ञीयपात्राभावे न यज्ञ-तत्पात्रप्रयोगः, | समाहारनिर्देश इति विभज्याख्यान बहुत्वमायातीत्याह
यत्र वा तत्पात्रमेव न यज्ञस्त त्राऽपि न यज्ञतत्पात्र प्रयोग इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्यः इति । क्रोणातेरिति- "डक्रींगश 70 इत्येकसत्त्वेऽप्यूभयाभावात् प्रकृतनिषेधो न प्रवर्तते । तथा | द्रव्यविनिमये" इत्येवं पठिताद् धातोरित्यर्थः । परिक्रीणीते प्रयोगस्थल दर्शयति- यज्ञे मन्त्रं रन्धनपात्राणि वा इलि-परिपूर्वकात् क्रोणारात्मनेपदम्, परिक्रयण च नियत
प्रयुङ्क्ते इति- अत्र यज्ञीयविषयताया सत्यामपि यज्ञीय. | काल भृत्या स्त्रीकरण, तत् कुरुत इत्यर्थः विक्रीणोते 35 पात्रप्रयोगो नास्त्यपि तु मन्त्रप्रयोगो रन्धनपात्रप्रयोगो । इति- नियतमूल्येन स्वकीय द्रव्यमन्यस्मै प्रयच्छतीत्यर्थः ।
देति न भवति निषेध इति भवत्येवात्मनेपदम् । | अवक्रीणीते इति- समुचितमूल्यादल्पमूल्येन द्रव्यविनिमयं 75 इत्थं यज्ञसत्त्वे यज्ञीयपात्राभावप्रयुक्तनिषेधाप्रवृत्तिमुदाहृत्य करोतीत्यर्थः। ननु कोणातेगित्त्वेन "ईगितः" [३३.६५.] यज्ञपात्रसत्त्वेऽपि यज्ञविषयत्वाभावप्रयुका निषेधाप्रवृत्तिमुदा- इत्यात्मनेपदं सिद्धमेवेति किमर्थं तत इदमात्मनेपदं पुन
हरति-यज्ञपात्राणि रन्धने प्रयुक्त इति-तथा चात्रा- | विधीयत इत्याशङ्कायामाह- सर्वश्रेगितः फलवतोऽन्यत्र40 प्युभयाभाव इति न भवति निषेधप्रवृत्तिरिति भवत्येवात्मने- | विधिरिति- यत्र यत्रतत्प्रकरणे ईगित प्रात्मनेपदं वि धीयते
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[पा० ३, सू०२७-२८]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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तत्र सर्वत्र फलवतः कर्तुरन्यत्राफलबत्यपि कर्तर्यात्मनेपद-भवति, ततश्च प्रकृतेरनुकार्यस्य धातुत्वं तत्र सुलभमिति विधानमिति विज्ञेयमिति भावः । अप्राप्त एव शास्त्रस्याथं वत्वेन धातुकार्य तत्र सलभमितीयादेशो भवति, प्रकृते फलवति तेनैव प्राप्त: परिशेषादफलवत्यपि कर्तर्यात्मनेपदं यथा | दस्यातिदेशत्वम्, अतिदेशश्चेष्टसिद्धयर्थ एव भवति, ना
स्थादित्येतदर्थत्वमेव सूत्रस्यायातीति तत्त्वम् । उपसर्गादिति निष्टापादनार्थ इति तस्य धातुत्वप्रयुक्तं त्याद्युत्पत्तिकार्य, 5 पदस्य सम्बन्ध आवश्यक एवेत्याह- उपसर्गादित्येवेति, | नामसंज्ञायां पर्युदासश्च न भवति । ननु प्रकृतिवदनुकरणमिति 45 तत्फलमाह- उपरि कीरणातीत्यत्र परिशब्दात, परत्वे, न्यायोऽयं वाचनिकार्थो वेति निर्णयाभावे कथं प्रामाण्यमहतीति गवि क्रोणाति, बहविक्रीणाति इत्यनयोविशब्दात परत्वे, | चेदत्राह- अत एव च ज्ञापकात प्रकृतिवदनुकरणे अपचायः क्रीणीवः इत्यत्रावशब्दात् परत्वेऽपि च न कार्य भवतीति, अयमाशय:- किञ्चित् कार्य शास्त्रकारः
भवत्यात्मनेपःम्; उपरि क्रीणातीत्यत्र हि 'उपरि' इत्य- कण्ठतोऽनुक्तमपि तदीयाचारेण विज्ञेयं भवति, तथा च 10 व्ययावयवः परिः, गवि कोणातीत्यत्र च सप्तम्यन्तगोशब्दा- | प्रकृतसूत्रे क्रिय इति निर्देशो दृश्यते, तत्र च नामत्वेन 50
वयवो विः, 'बहुवि' इत्यत्र च वनविशेषणीभूतबहुपक्षि- | धातुत्वाभावोऽपि विज्ञायते, अथ च तत्र धातुत्वप्रयुक्त कार्यवाचकबहुविशब्दावयवो वि:, अपचाव इत्यत्र च ह्यस्तन्या | मियादेशोऽपि दृश्यत इति विना: तस्य प्रकृतिवद्भावेनानुउत्तमपुरुषद्विवचनान्तक्रियाऽवयवोऽव इति क्वाप्युपसर्गत्वं । पपद्यमानं सत् येन विना यदनुपपन्न तेन तदाक्षिप्यते' इति
नास्तीति न भवत्यात्मनेपदम् । यद्यप्येषु ५ अर्थवद्ग्रहणे । न्यायेन प्रकृतिवदनुकरण कार्य भवतीति वचनमाक्षिपत्मेवेति 15 नानर्थकस्य ग्रहणम् इति परिभाषया [ न्यायेन वा ]ऽपि | | प्रकृतनिर्देश एव तज्झापक इति स्वीकरणीयम् । मनु न. 55
इष्टसिद्धिरस्ति, तथापि उपसर्गादित्यस्य सम्बन्धो न्यायप्राप्त केवल स्वोपपत्तये एव ज्ञापनमूचितं. ज्ञापितस्यार्थस्यान्यत्र एव तेनैवेष्टसिद्धी न्यायालम्बनस्वावश्यकत्व नेति बोधयित- | फलाभावे ज्ञापनानौचित्यादिति चेत् ? बहुशो लौकिकप्रयोगमित्थमुक्तम् । किञ्च बहुवि क्रीणातीत्यत्र विशब्दस्यार्थ- | सिद्धिरेव तत्फलमित्याह-तेन-मुनी इत्याह, द्विष्पचती
वत्त्वमप्यस्त्येवेति न तेन न्यायेन वारणं संभाव्यत इत्यपि | त्याहेत्यादौ प्रकृतिभाव-पत्वविकल्पादि सिद्ध भवती. 20 विज्ञेयम् । न च तत्रापि बहुव्रीह्यन्तर्गतस्य विशब्दस्यानर्थ-ति, अयमाशयः- मुनी' इति मुनिशब्दस्य प्रथम-द्वितीया- 60
कत्वमेव " समासे खलु भिन्नैव शक्तिः पङ्कजशब्दवत्" विभक्त्योद्विवचने रूपमिति तस्य "ईदूदेद् द्विवचनम् " इत्येकार्थीभाववादिमते तदेकदेशस्य विशब्दस्य पृथगर्थत्वा-[ १. २. ३४. ] इति सूत्रेण स्वरे परेऽसन्धिर्भवति, प्रकृते भावादिति वाच्यम्, जहत्स्वार्थावृत्तिपक्षे प्रकृतसमुदायमात्र- च न तद मुनी' इति पदमपि तु तदनुकरणमिति तस्य
शतः स्वीकारेऽप्यजहत्स्वार्थावृत्तिपक्षे प्रत्येकपदस्याप्यर्थ- वस्तुतो द्विवचनान्तत्वाभावेऽपि द्विवचनान्तानुकरणत्वेन तस्य 25 वत्त्वानपायात् । क्रियः इति स्याद्यन्तनिर्देशः, स्यादि-च प्रकृतन्यायेन प्रकृतिवद्धावे सति प्रकृतिकार्यमसन्धिर्भवति । 65
प्रत्ययश्च नाम्नो विधीयते, की ' इति च धातुः, धातोनाम | एवं द्विष्पचतीत्यत्र द्विरिति सुजन्तम्, तस्य पचतीति पदादिसंज्ञा च " अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम" [१.१.२७.] | पकारे परे “सुचो वा" [२. ३.१०.] इति षत्व वा इति सूत्रे पर्युदस्तेति कथमयं निर्देशः सङ्गच्छत इति चेदवाह- | भवति, प्रकृते च न तत् सुजन्त द्विरिति पदमपि तु केन.
'की' इत्यनुकरणमनुकार्येणार्थनार्थवदिति नामत्वे | चिदु कस्य तस्यानुकरणम्, तस्य च स्वतस्तत्त्वाभावेऽपि 30 ततः स्यादयः इति, अयमाशय: - नात्र की' इति धातु- | प्रकृतन्यायेन प्रकृतिकार्यातिदेशे वैकल्पिक षत्वं भवति । एवं च 70
स्तदर्थबोधनाया प्रयोगात्, किन्तु तस्य घातोः स्वरूपानुकरण- | सफलमिद ज्ञापन मिति प्रकृतन्यायेन प्रकृतनिर्देशः सिद्ध इति मिदम्, अनुकरण चानुकार्यस्वरूपबोधकमिति तेन [अन- | । ३.३.२७. ।। कार्यस्वरूपबोधकत्वेन ] तस्यार्थवत्वमस्तीति धातुभिन्नस्यार्थवतोऽस्य नामसंज्ञा सिद्धौ ततः स्यादिविभक्तिः सुलभेति ।
परा-वेर्जे । ३. ३. २८ ॥ 35 ननु यदि नाय धातुः किन्तु तस्यानुकरणभूतोऽन्य एक शब्द.
त० प्र०- परावि' इत्येताम्यामुपसर्गाभ्यां स्तहि क्रिय इत्यत्र “धातोरिवर्गोवर्णस्येयुत स्वरे प्रत्यये" | पराज्जवतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पराज्यते, विजयते । 75 [२. १. ५०. ] इतीयादेशः कथ तत्र हि घातोरिवर्ण- उपसर्गादित्येव- सेना पराजयति, बहु विजयति बनम् स्येति स्पष्टमुकृत्वादिति चेदवाह- प्रकृतिवदनकरण- | ॥२६॥
मिति न्यायाच धातुकार्यमियादेशः इति-अयमाशयः- | श० म० न्यासानुसन्धानम्-परा०। बत्र यद्यपि 40 अनुकरणं न सर्वथाप्रकृतिभिन्नमेव, कचित् कार्य प्रकृतिवदपि । पूर्वसूत्रोक्तरीत्या 'जियः' इति निर्देशो युक्तः, प्रकृतिवदनु..
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा० ३, सू० २६-३०]
करणमित्यतिदेशात् तस्य धातुकार्ये प्राप्ते इयादेशस्यो | परशब्दस्य स्त्रीलिने रूपमिदमिति न भवत्यात्मनेपदम् । चित्यात्, तथाप्यातिदेशस्येष्टसिद्धयर्थत्वादिह तदप्रवृत्तिरिति । एवं- बहुवि जयति वनमित्यत्र बहवो वयः -- पक्षिणो बोध्यम् । 'परा वि' इत्यनयोर्यदि समाहारद्वन्द्वस्तहि तस्य | यस्मिंस्तादृशं वनं जयतीत्यर्थे 'बहुवि' इति समुदायावयवो
नपुंसकत्वेन 'परा-विन.' इत्युचितम्, अथ चेत रेतरयोग- विनोपसर्ग इति । तस्मात् परत्वे जयरात्मनेपदमित्युप5 द्वन्द्वस्तहि परा-विभ्यामित्युचितमिति परावेः' इति निर्देशः | सर्गादित्यस्य सम्बन्धे फलम्, तदसम्बन्धे चात्मनेपद प्रवृत्ति-45 कथमुपपद्यत इति चेत् ? सूत्राणां छन्दोबद्भवास्य सर्वसम्मतत्वेन | रनिष्टा स्यादिति ॥ ३. ३ २८.।। छन्दसि दृष्टानुविधानात् सौत्रनिर्देशोऽयमिति सन्तोष्टव्यम् ।
समः क्ष्णोः ।। ३. ३. २६. ।। उदाहरति- पराजयते, विजयते इति- 'परा' इत्युपसर्ग
त०प्र०- समः परात् क्ष्णौतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पूर्षात् जयतेरात्मनेपदे वर्तमानाप्रथमपुरुषेकवचने रूपं - 'परा
संक्ष्णुते शस्त्रम् । सम इति किम? क्ष्णोति। उपसर्गावित्येव10 जयते, अमिभूतो भवतीति प्रयोगार्थ :, विजयते' इत्यत्र
आयस क्ष्णौति ॥ २६ ॥ विपूर्वकाज्जयतेरात्मनेपदम्, अभिभवं करोतीत्यर्थः, उपसर्गमहिम्ना धातोरर्थे भेदः । उपसर्गादित्येवेति- पूर्वसूत्रे |
श० म० न्यासानुसन्धानम् - सम०। अत्रापि
| क्षणोरिति निर्देश: *प्रकृतिवदनुकरणम् इति न्यायस्याउपसर्गादिति पदमुच्चारितमिहापि सम्बन्धनीयमेवेति भावः ।।
नित्यतापक्षे एव, अन्यथा धातुत्वादुवादेशे - 'क्ष्णुवः' इति अन्ये चात्र प्रकरणे उपसर्गादिति पदं न पठन्ति,
प्रयोगः स्यात् । नन्वग्रे पठ्यमाने "समो गमच्छि - प्रच्छि - 15 अर्थवद्ग्रहणपरिभाषया कचित्, कचिच्च साहचर्यन्यायेनसहचरिताऽसहचरितयोः सहचरितस्यैव ग्रहणम् ** इति
श्रु-वित्-स्वरयत्ति दृशः" [ ३. ३. ८४. ] इति सूत्र एव 55 न्यायेनार्थ साधयन्ति । तत्रार्थवद्ग्रहणन्यायेनेह न निर्वाहः
क्ष्णु वोऽपि पाठः क्रियतां किमनेन पृथक् सूत्रेणेति चेन्न - तत्र
सूत्रे "अनो:" कर्मण्यसति ३ ३.५०] इति सूत्रात् 'सेना परा जयति' इत्यत्र पराशब्दस्याप्यर्थवत्त्वानपायात्,
फर्मण्यसतीति पदमनुवर्तत इति कर्माप्रयोग एव सम्'वनं बहुवि जयति' इत्यत्र च जहत्स्वार्थावृत्तिरिति पक्षेऽर्थ20 वत्त्वाभावेन तेन न्यायेन सिद्धावप्य जहत्स्वार्थावृत्तिरिति पक्षे
पूर्वकात् क्षणोतेरप्यात्मनेपदं स्यादिष्यते तु सकर्मकादपीति सहचरितन्यायेनव निर्वाहः, स्वातन्त्र्येग विशब्दस्य जयत्य
पृथक त्रारम्भस्यावश्यकत्वात् समः इति पञ्चम्यन्तमुपसर्गा-60 व्यवहितपूर्ववृत्तित्वासंभवेनोपसर्गस्यैव तत्पूर्ववृत्तित्वमित्युप
दित्यनुवृत्तस्य विशेषणम्, क्ष्णोरित्यपि पञ्चम्यन्तमेव, तथा सर्ग एव विरिह ग्रहीष्यते, तत्साहचर्याच्च पराशब्दोऽप्युपसर्ग
च सूर्थि माह - समः परादिति । संक्ष्णुते शखम् इतिएव ग्रहीष्यते । न च विशब्दस्य सम्बोधने 'वे' जयसि'
संपूर्वकात् "णुक तेजने" इत्यादादिकादात्मनेपदम्, शस्त्रं 25 इति प्रयोगे * एकदेश विकृतमनन्यवत् ॐ इति न्यायेन तस्य
तेजयति शितीकरोतीत्यर्थः, सकर्मकाद भवतीति प्रतिपाद
नार्थमेव कर्म प्रयोगः । सम इति किमिति - सामान्यत 65 विशब्दत्वाद् भवति जयति- पूर्ववृत्तित्वमिति न विशब्दोऽपि दृष्टापचाराभाव इति तत्साहचर्येण पराशब्दस्योरसर्गस्यैव
एव क्षणोतेगत्मनेपदं विधीयतामिति शङ्कार्थः। तथा सति ग्रहणमित्येषोऽथों लभ्यत इति कथं तेषामुपसर्थलाभ इति
परस्मैपदिनोऽस्य सर्वश्रात्मनेपदमेव स्यात्, तनानिमित्याहवाच्यम्, 'वे' इति रूपं हि न विशब्दस्य विकारोऽपि तु
क्ष्णौतीति प्रत्युदाहरणेन, तथा चावात्मनेपदवारणाय 30 'वि+सि' इति सम्बोधनविभक्त्यन्तस्येति तत्रैकदेश विकृत.
समित्यावश्यकमिति भावः । उपसर्गादित्यस्य सम्बन्ध न्यायेन न विशब्दत्वमपि तु "विशब्दत्वमेव, तत्र विभक्तया
आवश्यक इत्याह - उपसर्गादित्यवेति । व्याव|माह - 70 व्यवधानेन तस्य जयत्यव्यवहितपूर्ववृत्तित्वाभावात् तथा च
आयसंक्षणौतीति - अयसा निर्मितमस्त्रमायसं तत् क्ष्णोतिविशब्दोऽदृष्टापचार एवोपसर्गत्वे इति तत्साचर्येणोपसर्ग
तेजयतीत्यर्थः, अत्र आयसमिति स्याद्यन्तावयवं सं' एव पराशब्दोऽत्र ग्रहीष्यत इति निर्णीत "वि-पराभ्यां जे:" |
शब्दमादाय ततः परत्वे सति मा भूदात्मनेपदमित्येवोपसर्गा
दित्यस्य व्यावत्यमित्यर्थः । परेऽत्रार्थवद्ग्रहणपरिभाषया 35 [पा. सू. १. ३. १७.] इति सूत्रे भाष्ये । स्वमते चोपसर्गादित्यस्य सम्बन्धः सुकर एवेति नेश
दोष वारयन्ति, स्वमते च सूत्रस्थपदेनैव तद्वारणसंभवे 75 न्यायाश्रयणावश्यकतेति व्याख्यानाद् बरं करणमिति रीत्यो
न्यायाश्रयणमनावश्यकमिति ध्वनितम् ।। ३. ३. २६. ।। पसर्गादित्यस्य सार्थक्यम् । तथा च तत्फलमाह- सेना
अपस्किरः ॥ ३. ३. ३०. ॥ पराजयतीति- परा- अन्या उत्कृष्टा वा, सेना, जयति - त०प्र०- अपपूर्वात् किरते: सरसट्कात् कर्त. 40 परपक्षमभिभवतीत्यर्थः, अत्र च पराशब्दो नोपसगोंऽपि तु यस्मिनेपदं भवति । अपस्किरते वृषमो हृष्टः, अपस्किरते
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[पा०३, सू० ३०-३१]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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कुक्कुटो भक्ष्यार्थी, अपस्किरते श्वा आषयार्थी " अपाच- | कर्तरि सति स्सद भवतीति निमित्तकोटी निक्षिप्ता:, तुष्पात-पक्षि-शुनि हृष्टान्नाऽऽअयार्थ" [४. ४. ९६ ] / तत्र धात्वर्थस्य विक्षेपस्य च कार्यकारणभावसम्बन्धेनान्वयः, इति स्सट । सस्सटकनिर्देशादिह न भवति- अपकिरति हर्षो हि विक्षेपस्य कारणम, अन्नमाश्रयश्च विक्षेपस्य कार्ये वृषमः। अपेति किम् ? उपस्किरति ॥ ३०॥ [ फले ] इति भवति विक्षेपेण सह सर्वेषां कार्यकारणभाव
श०म० च्यासानुसन्धानम- अप० । अप इति । सम्बन्धः। सस्सटकनिर्देशो ध्यर्थः, विनापि तन्निर्देशं पञ्चमीकं, पञ्चम्यन्तेन समासो वा, न च समासे सति तस्य | प्रकृतप्रयोगेष्वात्मनेपदप्रवृत्ती बाधकाभाव इत्याशङ्कां 45 [ समस्तस्यापशब्दस्य ] उपसर्गादित्यनेन सम्बन्धो न स्यात. प्रत्युदाहरणेनापाकर्तुमाह- सस्सटकनिर्देशाविह न तेनाकाक्षितस्यास्यासमर्थत्वात्, साकाङ्क्षमसमर्थवदिति / भवतीति । क्वेत्याह- अपकिरति वृषभः इति -
सिद्धान्तादिति चेन्न- तत्सम्बन्धाभावेऽपि धातूसमभि- अनभिमतं भक्ष्यवस्तु यतस्तत विक्षिपतीत्यर्थः, अत्र हि 10 व्याहारादेवोपसर्गस्वविज्ञानात् । स्किर इति ससटक- ! हर्षांद्यभावान्न स्सट्, तदभावाचात्मनेपदमपि न भवति,
निर्देशः, तत्कलमग्रे वक्ष्यत्येव। “कृत विशेपे" इति | असति स्ससहित निर्देशे प्रकृतेप्यपात परत्वसत्त्वेन स्या- 50 तुदादिपठितस्य "अपाचतुष्पात् पक्षिनि हाऽन्नाध्याथें" । देवात्मनेपदमिति तद्वारणायेदृशनिर्देशस्यावश्यकत्वमिति [ ४. ४. ६५. ] इति सूत्रेण विहितस्सडागमसहितस्य स्किर | भाव: । अपेति किमिति, अयमाशयः - अपात् परत्वे
इति निर्देशः; तदाह- अपपूर्वात किरतेः सस्सटकात : सत्येव स्सट विधीयत इति सस्सटकनिर्देशेनवापात् परत्वे 15 कत्तयोत्मनेपदमिति । अपस्किरते वृषभो हष्टः इति- | सत्यवारमनपद स्यादात अपात सूत्र न का
सत्येवात्मनेपदं स्यादिति अपेति सूत्रे न कार्यमिति । न अपपूर्वकस्य किरते: पूर्वम् “अपाच्चतुष्पात्" [४. ४. ६५.1 : केवलमपात् परस्येव किरते: स्सट्, किन्तु उपात् प्रतेश्च 55 इति स्सटि कृते सत्यनेनात्मनेपदम्, हृष्टः भोजनादिसुहितो | परस्यापि, ततश्च तत्पूर्वकादपि किरतेरात्मनेपदं स्यात् तन्मा वृषभः, अपास्किरते- उत्खातकेलि करोतीत्यर्थः, वृषभस्याय: भूदित्येतदर्थमपेत्यावश्यकमित्याह- उपस्किरतीति प्रत्यु
स्वभावो यत् यदाऽसौ भोजनादिना तृप्तो विचरति तदा दाहरणेन, "किरो लवने" [ ४. ४. १३.1 "प्रतेश्च वो" 20 तटादिभूमि प्राप्य शृङ्गाभ्यां तामूत्खनति, तलि चोपरि । [४. ४. ६४. ] इति सूत्राभ्यामुपपूर्वकस्य प्रति पूर्वस्य च .
विकिरिति, तेन च तदीयहर्षोऽवगम्यते, सच हर्षी विस्मय- | किरते: स्सट् विधीयत इति केवलसस्सटकनिर्देशेनेहात्मने- 60 मूलक इति "हलेः केश-लोम-विस्मय-प्रतिघाते" [४.४.७६.] ! पदवारणं न संभवतीत्यपेत्यावश्यकम्, प्रकृतप्रयोगे च यदि इति क्तयोरिविकल्पेन हष्ट इति रूपम् । केचित् त्वेनं लवनार्थे प्रयोगस्तहि पूर्वेण: यदि वधाथें प्रयोगस्तहि परेणोक्त
हृष्टधातुमूदित मन्यन्ते, तन्मते च तस्य 'ऊदितो वा" | सूत्रेण स्सट्, तत्र परस्मैपदमेव भवति ।। ३. ३. ३०.।। 25 [४. ४. ४२. } इति देवेन क्तयोः " वेटोऽपतः" [ ४. ४. ६२ ] इति इनिषेधेऽपीद रूपं साध्वेत्र । केचिच्च
उदश्वरः साप्यात् ॥ ३.३.३१.।।. हृष्टिरस्यास्तीत्यर्थे हृष्टिशब्दात् मत्त्वर्थीयमम्नादिनिबन्धमच
त० प्र०- उत्पूर्वाधारतेः साप्यात - सकर्मकात् 65 प्रत्ययं विधाय रूपमिद साधयन्ति । अपस्किरते कक्कटो कर्तर्यात्मनेपदं भवति । गुरुवचनमुबरते, मार्गमुधरते, भक्ष्यार्थी अपपूर्वकस्य किरतेरन्नार्थे पूर्वोक्तसूत्रेण स्सडागमः,
व्युत्क्रम्य गच्छतीत्यर्थः, ग्रासमुखरते, सक्तूनुबरते, भक्षय30 कृतस्सडागमाच्चानेनात्मनेपदम्, स्वकीयं भक्ष्यमन्विष्यन्
तीत्यर्थः। उद इति किम् ? चारं चरति । साप्यादिति कुक्कुटस्तृणादिकं पादेनोरिक्षपति परितो वा विकिरिति । किम् ? धूम उच्चरति, शरद उपरति, ऊर्ध्व गच्छतीत्यर्थः । तत्रेदमुदाहरणम् । अपस्किरते श्वा आश्रयार्थोति-अपि पूर्ववदेवापात् परस्य करते राश्रयार्थे स्सट् ततोऽनेनात्मने
श०म०भ्यासानुसन्धानम्-उद०। आप्य कम, पदम्, शयनोपवेशनस्थान निमिमाण: श्वा भूमि पद्भयां तेन सह वर्तत इति साप्यः, तस्मात् साप्यादिति पदार्थमाह35 खनति, ग्वनश्च मृतिकादिकं परितो विकिरतीति तत्स्वभाव- | सकर्मकादिति- एकस्यैव धातोरर्थवशेनाकर्मकत्वं सकर्मक- . स्तद्विषयमेवेदमुदाहरणम् । स्सट्सहित निर्देशस्य फलमाख्या- त्वं च संभाव्यत इति सकर्मकमात्रपरिग्रहार्थ साप्यादिति
किसूत्रमाह-- अपाजतष्पादिति । ननु । पदम् । कर्तरीति पदं पूर्वतोऽनुवृत्तमेव स्पष्टप्रतिपत्तये सम्बध्यते, 75 किरतिविक्षेपवचनस्पोत्रादिकः, तत्प्रयोगे हर्षादिप्रतीतिः अन्यथा भावकर्मणोरात्मनेपदस्य पूर्वेणैव विहितस्वात परि
कथमिति चेदित्थम्-- हर्षादयो नेह धातुवाच्यत्वेन निर्दिष्टा शेषादेव कर्तरि विधानस्य प्राप्तेरनर्थकम् तद, उदाहरति - 40 अपि तु तादृशे कर्तरि- दृष्टे अन्नार्थिनि आश्रयार्थिनि च | गुरुवचनमुच्चरते इति-गुरुवचनकर्मकमुल्लङ्घनं करोतीत्यर्थः,
70
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कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिभवप्रणीते
[पा० ३, सू० ३२ ]
उत्पूर्वकारते वर्तमानायाः प्रथमपुरुषैकवचने रूपम् । एवंमार्गमुच्चरते इत्यत्रापि प्रयोगार्थमाह- व्युत्क्रम्य गच्छ तोत्यर्थः, व्युत्क्रमणं च विपरोताचरणमुल्लङ्घनं वा । नन्वत्र गुरुवचनमार्गयोर्व्युत्क्रमणक्रियानिरूपितं कर्मस्वं सा च 5 क्रिया धारवन्तरप्रतिपाद्या न तु वर्धातुप्रतिपाद्येति तेन कर्मणा चरेः सकर्मकत्वं कथं स्यादिति सकर्मकत्वाभावात् तद् आत्मनेपदं कथं भवतीति चेत् ? नन्वरिरेव प्रकृते व्युत्क्रमणविशिष्टायां गतौ वर्तते, अभिधानस्वाभाव्यादिति व्युत्क्रमणं न धारवन्तरार्थोऽपि तु चरेरेवार्थ इति गुरु10 वचनादीनां चरिनिरूपितमेव कर्मत्वमिति न सकर्मकत्वहानि:, यथा जीवतेः प्राणधारणार्थकस्य प्राणाः कर्मभूता धात्वर्थ एवान्तर्भूता इति तस्याकर्मकत्वं तथा प्रकृते व्युत्क्रमणमपि चरिवाच्यान्तर्गतमेवेति न तस्य पृथगर्थता । कितादृश स्यार्थस्य न चरित्राच्यत्वमपि तु प्रकृतप्रयोगोपाधिकत्वमेव 1.5 ग्रासमुञ्चरते ' इत्यादी तदप्रतीतेः, यदि चरिवाच्यता स्यात् सा सर्वत्र प्रतीयेत, तथा च यत्र प्रयोगे योऽर्थः प्रतीयते स तत्रत्यशब्दवाच्य एवं शब्दानुपस्थितस्यार्थस्य शाब्दबोधे मानानभ्युपगमादिति कृत्वा परिवाच्यत्वं व्युत्क्रमण | तदिति तद्वारणाय साप्यादित्यस्यावश्यकत्वम् एतदेव विशिष्टाया गतेरित्यन्यदेतत् । न व्युत्क्रमणपूर्विकायां प्रयोगार्थकथनेन सूचयति ऊर्ध्व गच्छतीत्यर्थः इति 20 गतावेव चरेः सकर्मकत्वमपि तु भक्षणार्थेऽपीत्याह- ग्रास- ।। ३ ३.३१. ॥ मुचरते, सक्तनुचरते इति । प्रकृतप्रयोगार्थमाह- भक्षयतीत्यर्थः इति चर्धातोर्गतिभक्षणे अर्थी तत्रोत्पूर्वकस्य गतिविषयप्रयोगे उल्लङ्घयगमनप्रत्यायकत्व यथा तथाभक्षणार्थेऽपि उपसगंकृतः कचिद् विशेषः प्रतीयत एव 25 किन्तु स प्रकृते न विवक्षितोऽपि तु धात्वर्थमात्र विवक्षित
तस्य मुखादसाध्वेव वा पदमिदं निःसृतमिति निर्धारणीयम्, | इत् प्राप्तेऽन्ये समादधति- साध्यत्वविशिष्टक्रियाया एव प्राधान्यात् सूत्रे साप्यग्रहणात् * प्रधानेन व्यपदेशा भवन्ति * इति न्यायेन साध्यक्रियाबोधकस्यैव सकर्मकस्य चरेग्रहणमिति, प्रकृते च कृदन्ते सत्वस्वभावक्रियाया गुणीभावेन 45 प्राधान्यविरहान्नात्मनेपदमिति । साप्यादिति किमितिगतिभक्षणार्थस्य चरेग्यंवशादेव सकर्मकत्व निश्चित नहि गतिः कर्महीना सम्भवति उत्तरदेशसयोगानुकूलव्यापारो हि गतिः, सा चावश्य कर्मवती, एवं भक्षणमपि कर्मरहित न संभवतीति निश्चिते सकर्मकार्थकं साप्यादिति विशेषण- 50 मव्यावर्त्तकमिति प्रष्टुराशयः । प्रत्युदाहरणेनोत्तरयति घूम उच्चरति, शब्द उच्चरतीति अयमाशय:- चरतेरर्थवशात् सकर्मकत्वमिति यदुक्तं तत्र यतः सकर्मकपदस्य नार्थवश लब्धकर्मसहितत्वमर्थोऽपि तु प्रयुज्यमानकर्मसहितस्वम्, तथा च प्रकृते कर्मण ऊध्वं प्रदेशस्योपसर्गवशाद् धात्वर्थे 55 नैवोपसंग्रहात् कर्मणः प्रयुज्यमानत्वाभावान्न सकर्मकत्वमिति न भवत्यात्मनेपदम् असति साप्यादिति पदे च स्यादेव
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मिति भावः । उद इति किमिति सामान्यतः साप्याच्चरे: कर्तर्यात्मनेपद विधीयतामिति भावः । चार चरतीति - चर्यते - भक्ष्यत इति चारो बाहुलकात् कर्मणि धन्. पशुभक्ष्यघासादिक चारशब्देनोच्यते तं चरति भक्षयतीत्यर्थः, 30 प्रकृते चरेः सकर्मकत्वेऽपि उत्पूर्वकत्वाभावादात्मनेपद न भवति, उद इत्यस्याभावे च स्यादेवेति तद्वारणायोद इत्यावश्यकमिति भावः । ननु रावणकृतशिवताण्डवस्तोत्रे-" शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् " इति प्रयोगे उत्पूर्वकाञ्चरेः सकर्मकादपि कथं परस्मैपदस्य शतुः प्रयोग 35 इति वेदत्र केचित् तस्या [रावणस्या]नेकव्याकरण. भिज्ञ
श०म० व्यासानुसन्धानम् - सम० । तृतीययेति पदं प्रत्ययबोधक, प्रत्ययग्रहणे च तदन्तग्रहणं न्यायसिद्धम्, तथा च तृतीयापद तृतीयान्तपरं तस्य च तृतीयाविभक्तियोगेन तृतीयान्तेनेत्यर्थः । अन्ये व्याचक्षते- धातोस्तृतीयया 70 योगाभावादाह- तृतीयान्तेन योगे इति तृतीया स्यादिविभक्तिस्तया योगः पूर्वापरीभावरूपः प्रकृतिप्रत्ययभावरूपो या धातोनं संभवति, यतो नाम्न एव स्यादिप्रत्ययविधिः, धातोश्व नामसंज्ञा पर्युदस्ता, तस्मात् तृतीयान्तेन नाम्ना योगे सम्बन्धे सतीत्यर्थ उक्त इति तदाशयः । वस्तुतस्तु 75 तृतीयापदं प्रत्ययबोधकत्वेन तदन्तपरमिति स्वभावत एव तृतीयान्तेनेत्यर्थकं तच्च धातुविशेषणं न साक्षात् सम्भवति,
तथा व्याकरणान्तरानुसार्यय प्रयोगो नास्मद्वयाकरणानुकूल इति, तत् तुच्छम् साधुप्रयोगस्य सकलव्याकरणसाधारण्यात्, प्रयुक्तानामेव सर्ववैयाकरणैरन्वाख्यानात् प्रतिव्याकरण प्रयोगभेदे च शब्दप्रयोगे कोलाहलप्रसङ्गात् तस्मादु
40 पायान्तरमन्वेषणीयमस्य साधुत्वार्थ, भक्तिप्रवाहपतितस्य । नहि क्रियाकरणभावादिस्तृतीयान्तेन सह सम्बन्धो धातोः
०
१६८
-
समस्तृतीयया ।। ३३. ३२. ।।
त० प्र०- समः पराञ्चरतस्तृतीयान्तेन योगे सति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अश्वेन संचरते, रथेन संचरते | तृतीययेति किम् ? " उभो लोको संचरसि, इमं च मुंच देवल!" किं त्वं करिष्यति रथ्यया, संचरति चैत्रोऽरण्ये' 65 इत्यत्र तु तृतीयान्तेन योगाभावान्न भवति ॥ ३२ ॥
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[पा०३, सू०३२-३३]]
धीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
शब्दरूपत्वेन तेन सह तादशसम्बन्धासंभवादित्यर्थद्वारक
क्रीडोऽकूजने ।। ३. ३. ३३. ।। एव सम्बन्धः, तथा च तृतीयान्तेन तृतीयान्तार्थेन युक्तार्थ
त० प्र०- कूजनमव्यक्तः शब्दः ततोऽज्यस्मिन्नर्थ वाचकाचरतेः सम्पूर्वकादात्मनेपदमिति सूत्रार्थ: पर्यवस्यति । ।,
वर्तमानात संपूर्वात कोडे कर्तर्यात्मनेपद भवति। संक्रीडते, उदाहरति- अश्वेत संचरते, रथेन संचरते इति- अत्र
सकोडमाणः, रमते इत्यर्थ: 1 सम इत्येव क्रीडति । 5 तृतीयान्तमश्वेनेति पदं रथेवेति पद च, तदर्थेन सह चरते
अकूजन इति किम् ? संक्रोडन्ति शकदानि, अव्यक्त शब्दं 45 रर्थस्य क्रियाकरणभावसम्बन्धसत्त्वेन भवत्यात्मनेपदम् ।
कुर्वन्तीत्यर्थः ।। ३३॥ तृतीययेति किमिति, अयमाशय:-धातोस्तृतीयान्तेन योगो न संभवतीत्यर्थयोर्योग इह विवक्षित इत्युकम्, अर्थयोश्च श०म० न्यासानुसन्धानम्-क्रीडो० । 'अकूजने'
योगः सर्वत्र विधित एव. क्रियायाः करण विनानूपपद्य- | इति पदं व्याचष्टे- कूजनमव्यक्तः शब्दः इति- अव्यक्त10 मानत्वेन करणेन सह सम्बन्धस्य सर्वत्र सत्त्वादिति तृतीय- | शब्दार्थः कूधातुवादी पठितस्ततो भावेऽने कूजनशब्दो
येति पदमव्यातकमेवेति । प्रत्युदाहरणेनोत्तरयति- "उभौ | व्युत्पन्नोऽव्यक्तशब्दार्थ एव भवति । न कूजनमकूजनमिति 50 लोको संचरसि हम चामंचदेवल!" इति- अत्र नसमासेनाव्य शब्दभिन्नेऽर्थे वर्तमानात क्रीडतेविहारार्थतृतीयान्तपदाभावान्न तृतीयान्तेन योग इति न भवत्यात्मने- | कात् सम्पूर्वकात् कर्तर्यात्मनेपदं भवतीति सूत्रार्थः सम्पद्यते। पद, तृतीययेत्यस्याभावे च स्यादेवेति तद्वारणाय तृतीय
उदाहरति- सक्रीडते, संक्रीडमानः इति- सम्पूर्वाद 15 येत्यावश्यकम् । अयमाशय:- तृतीयान्तेन योगे मतीत्युच्यते,
क्रीडतेवर्तमानाप्रथमपुरुषकवचने आनशि च रूपद्वयम् । सर्वत्र च तृतीयान्तेन योगः सम्भाव्यते, न केवलं चरते: कूजनभिन्नार्थत्वविज्ञानार्थ प्रयोमार्थमाह- रमतं इत्यर्थः 65 सर्वधातूनामर्थस्य तृतीयान्तार्थेन योगोऽवश्यंभावी, करणं
इति-विहारार्थस्य तस्यायमर्थः स्वाभाविक एब, उपसर्गश्च विना क्रियाया अनुत्पत्तेः, "असिना छिनत्ति, असिस्तक्ष्ण्येन | तदर्थस्यैव सभ्य बद्योतनार्थः। सम इत्यस्य पूर्वसूत्रात
च्छिनत्ति, तक्ष्ण्यमात्मना छिनत्ति' इत्यादिरूपेण सर्वत्र सम्बन्ध आवश्यक एवेत्याह- सम इत्येवेति । ब्यावय॑माह20 तत्सम्बन्धात् । यत्रापि करणाभिधायि पदं न श्रयते तत्रापि | क्रीडतीति- समुपसृष्टत्वाभावे परस्मैपदिनोऽस्मात् परस्मै
केनचित करणेन भाव्यम्. अन्तत एकस्यत्र पदार्थस्य भेद- पदमेव यथा स्यादित्येतदर्थ सम इत्यस्य.वश्यकस्वमिति 60 विवक्षायामात्म। करणम्, प्रकृतेऽपि उभो लोको संचरती- भावः। कोडतेविहागर्थकस्याव्यक्तशब्दार्थत्वं न संभाव्यत त्यत्रापि ] विद्यया तपसा वेत्यादितृतीयान्तेन सम्बन्धः । इत्यव्यक्तशब्दार्थनिषेधो व्यर्थ एवेत्याशयवाद पृच्छति
संभाव्यत एवेति तृतीययेति पदं यद्यप्यव्यावर्तकं तथापि | अकजन इति किमिति। धातुनामनेकार्थत्वेन प्रसिद्धार्थ25 तृतीययेति सहाथ तृतीयान्तपदसामर्थ्याद् यत्र तृतीयान्तेन | मात्रनिर्देशोध तुपाठे क्रियते, अथपरिच्छेदश्च प्रयोगाधीनः,
साक्षादुचरितेन योगस्तत्रैव भविष्यति, यत्र चार्थवशाद | तथापि उपसर्गवशेन कारकविशेषसन्निधानेन च भिन्न 65 गम्यमानेन तृतीयान्तेन योगस्तत्र न भविष्यतीत्येतदर्थमेव भिन्नोऽर्थः प्रतीयत इति कूजनार्थप्रतीतिरपि क्रीडधातोभंवतृतीययेति पदमिति भावः। यत्र च सत्यपि तृतीयान्ते । तीति तत्र आत्मनेपदविधिर्मा भूदित्येतदर्थमकूजने इत्या
पदे तेन सह चरतेनं सम्बन्धस्तत्रापि न भवतीत्याह--कि वश्यकमित्याह प्रत्युदाहरणमुखेन-संक्रोडन्ति शकटानीति। 30 त्वं करिष्यसि रथ्यया, संचरति चैत्रोऽरण्ये इति- अत्र शकटेष्वचेतनेषु विहाररूपस्य क्रीडनस्यासंभवात् । क्रोडा
रथ्ययेति तृतीयान्तं पदं न संचरतिक्रियया सम्बद्धमपि तु | समये प्रायो मनुजानामपि परस्परमव्य कशब्दप्रयोगाच्छकटेषु 70 . करिष्यतीति क्रियया, तथा च संचरतेस्तेन सह सम्बन्धा- तावन्मात्रेण क्रीडतेः प्रयोग इति कूजनादिस्मानात्मनेपदं
भावादेव नात्मनेपदमित्याह-ततीयान्तेन योगाभावान | भवति, 'अकूजने' इत्यस्याभावे च तदुरिमिति तदावश्यक
भवतीति, एवं- सह धनेन देवदत्तः संचरतीत्यत्रापि न मिति भावः, तदाह-अव्यक्तं शब्दं कर्वन्तीत्यर्थः इति35 भवत्यात्मनेपदं, धनेनेति तृतीयान्तस्य देवदत्तन सम्बन्धो यद्यप्युपादानगोचरापरोक्षज्ञानचिकीर्षाकृतिमत्वरूपस्य कारक
न तु क्रियया विद्यमानधनो देवदत्तः संचरतीत्यर्थावगतेः । । चक्रप्रयोकत्वरूपस्य केवल कृतिमत्त्वरूपस्य वा कर्तृत्वस्या- 75 एवं च सत्यपि तृतीयान्तपदप्रयोगे तेन तदर्थेन | सह संचरतेः चेतनेषु शकटेष्वसंभवस्तथापि तत्र तादृशं कर्तृत्वमारोप्यवं सम्बन्धाभावे, असति वा तत्प्रयोगे तदर्थस्य गम्यमानत्वे प्रयोगा भवन्त्ये वेत्यदोषः । केचित् तु कूजनमव्यक्तशब्दः,
सत्यप्यात्मनेपदव्यावृत्त्यर्थं तृतीययेत्यावश्यकमिति समुदि- तद्भिनमकूजनं व्यक्त शब्द एव नत्रिव युक्तमन्यसदृशाधि40 तार्थ: ।। ३. ३. ३२. ।।
करणे तथा ह्यर्थगतिः * इति न्यायेन व्यक्तशब्दभिन्ने
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा०३, सू०३३-३५]
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तत्सदृशे चार्थेऽकूजनशब्दस्य वृत्ती सादृश्यस्य च शब्दत्वेन | | वारणं संभवतीत्याह-धातुना अनोरसम्बन्धाद वा न 40 अहणे, व्यक्तशब्दार्थस्यैव लाभादिति रमणार्थप्रयोगे | भवतीति। 'संक्रीडते, संकीडमानः' इत्यादी कथमात्मनेपदमित्याशङ्कथ अयमाशयः- 'अन्वाइपरेः' इति पदमावतं ते एक तन्यायानित्यतया समादधति, अथवा वाक्यभेदेन सूत्रार्थ | षष्ठ्यन्तमपरं पञ्चम्यन्तम्, तथा च एतेषां सम्बन्धिन एम्यः वर्णयन्ति, तथा च क्रीडः" इत्येकं वाक्यं संपूर्वकात् पराच्च धातोरात्मनेपदं विधीयते, सम्बन्धश्च स्वद्योत्यार्थक्रीडतेरात्मनेपदमित्यर्थकम्, "अकूजने" इति च पृथग् वाचकत्वरूप एवेति प्रकृतेऽनोर्धातुना सह तादृशसम्बन्धा- 45 वाक्यम्, तत्राकारो निषेधार्थः, अनन्तरपूर्ववाक्येन यदात्मने-भावादप्यात्मनेपदम् वारयितुं शक्यत इत्युपसर्गादित्यस्यापदं विहितं तत् कूजनेऽव्यक्तशब्दे वर्तमानात् क्रीडतेनं | सम्बन्धेऽपि न दोषः । इत्थं व्याख्यानमभिप्रेत्यवान्यवैयाकरणैः
भवतीति तदर्थ इति। वयं तु कूजनमित्यस्याव्यक्तशब्दोच्चारण- प्रकृतप्रकरणे उपमर्गादिति न पठ्यते, स्वमते च स्पष्टार्थमेव 10 मित्यर्थः, तत्र हि नसमासेन तद्भिन्नतत्सदृशयोः प्रतीतावपि तत् पठ्यत इति प्रकृतवृत्तिग्रन्थेन सूचितं भवति
सादृश्यस्य शब्दत्वेन ग्रहणे मानाभाय:, नव्यक्तशब्दोच्चा-॥ ३. ३. ३४. ।।। रणक्रियायां शब्दत्वधर्मो येन सादृश्यं गृह्यतेति क्रियात्वेनैव
शप् उपलम्भने । ३. ३. ३५. ।। साहश्यं ग्राह्यमिति रमणमपि क्रियव, सा चाव्यक्त. शब्दोच्चारणभिनवेति तदर्थ आत्मनेपदप्रवृत्तौ न किमपि
त० प्र०-उपलम्भनेऽर्थे वर्तमानाच्छपतेः कर्ता15 बाधकमित्येतदर्थ न्यायानित्यत्वस्य वाक्यभेदस्य वा कल्पने
त्मनेपदं भवति । उपलम्मन-प्रकाशनं ज्ञापनम् । मैत्राय न किमपि बीजमिति विभावयामः,"कूज अव्यक्ते शब्दे"
शपते, मंत्र कश्चिदर्थ बोधयतीत्यर्थः, मैत्रमेवं मृतोऽसाइत्याद्यर्थनिर्देशस्तू शब्दशब्दस्य शब्दनक्रियापरत्वेनेति
वित्यन्यस्मै प्रकाशयतीत्येके । अयवा स्वाभिप्रायस्य परमा- 55 बोध्यम् ।। ३. ३. ३३. ॥
विष्करणमुपलम्भनं शपथ इति यावत्। मैत्राय शपते इति;
बाचा मात्रादिशरीरस्पर्शनेन मंत्र स्वाभिप्रायं बोषअन्वाङ्परेः ।। ३. ३. ३४. ॥
यतीत्यर्थ: । प्रोषितस्य भावाऽभावोपलब्धौ कस्यचिदर्थस्या20 त०१०- ' अनु आज परि' इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्य: | सेवन चोपलम्भनम्-मैत्राय शपते इति, प्रोषिते मंत्र तस्य
परात् कोडतेः कतर्यात्मनेपदं भवति। अनुक्रीडते, अनु-मावेऽमावे चोपलम्धे सति तदनुरूपं किश्चिदनुतिष्ठतीत्यर्थः। 60 क्रीडमाणः । आकोडते, आक्रीडमाणः। परिक्रीडते, परि. उपलम्भन इति किम् ? मैत्रं शपति, आकोशतीत्यर्थः॥३॥ क्रोडमाणः । उपसर्गादित्येव- माणवकमनु कोरति, माणवकेन सह क्रीडतीत्यर्थः, धातुना अनोरसम्बन्धाद वा न
श०म० न्यासानुसन्धानम्-शप० । उपलम्भनं -
या 25 भवति । एवम् उपरि कोडति ॥ ३४॥
शब्दार्थमाह- उपलम्भनं प्रकाशनं ज्ञापनमिति- उप
पूर्वकाल्लभतेय॑न्ताद् भावेनटि-उपलम्भनशब्दसिद्धिः, तथा ___ श० म० न्यासानुसन्धानम्-अन्वा०। क्रीड इत्यन- | च कस्चित् प्रति कस्यचिदर्थस्य प्रापण भूपलम्भनशब्दार्थो 65 वत्तते, अकूजन इति च निवृत्त पृथक् सूत्रारम्भसामर्थ्यात, भवति, परन्तु प्रयोगस्वाभाव्यादिह तस्य प्रकाशनमर्थः, तथा च सूत्रार्थमाह-इत्येतेभ्य उपसर्गभ्यः परादिति- | प्रकाशनमपि बहुविधं भवति पिहितस्यास्य वस्तुनो दृष्टि
उपसर्गादिति पदमनुवृत्तं, तद् यथायोग्य वचनविपरिणामेन विषयीकरणमज्ञातस्य वस्तुनो ज्ञापनं चैवमादि, तत्र प्रकृते 30 सम्बध्यत इति प्रकृते उपसर्गाणां बहुत्वेन बहुवचनान्ततया | ज्ञापनरूपमेव प्रकाशनं ग्राह्यम्, तदपि आक्रोशार्थकशप
विपरिणामः । उदाहरति-अनुक्रीडते, अनुक्रीडम नः, | धातुमहिम्ना कस्यचिजनस्य दोषाणामन्यं प्रति कथनमेव 10 इत्यादिना, त्यादिषु वर्तमानायाः प्रथमपुरुषकवचने प्रयोगः | प्रकृते ग्राह्यम् । तथैवोदाहरति- मंत्राय शपत इति- मन कृत्सु आनशि च प्रयोगस्तस्याप्यात्मनेपदसंज्ञकत्वात्। उप- प्रति तदीयदोषगुणान् सशपथं प्रकाशयतीत्यर्थः, अत्र शप
सर्गादि यस्य सम्बन्धः प्रकरणप्राप्त इहाप्यावश्यक एवेत्याह-धातुरन्तर्भूतण्यर्थः तथा च प्रयोज्ये ज्ञाप्ये मैत्र "श्लाघह्न.. 35 उपसर्गादित्येवेति। व्यावत्यमाह- माणवकमन क्रीड- स्था-शपा प्रयोज्ये" [ २.२ ६..] इति सूत्रण चतुर्थी
तीति- अत्र " हेतुसहार्थेऽनुना" [२. २.३८.1 इति भवति, अत्र चोपलम्भनार्थसत्त्वादनेनाकर्तृगेऽपि फले 75 सूत्रेणानुना युक्तान्माणवकाद् द्वितीया भवतीत्यनोर्धातूना | भवत्यात्मनेपदम्, शपधातोरुभयपदित्वेऽपि कतगामिनि योगाभावादुपसर्गत्वं नास्तीति तस्मात् परात् क्रीडते त्मने-क्रियाफले एवं प्राप्तस्यात्मनेपदस्यान्यत्रापि विधानार्थ पदम् । उपसर्गादित्यस्य सम्बन्धाभावेऽपि प्रकृते प्रात्मनेपद- सूत्रमिदम् । मतान्तरेण प्रकृतप्रयोगार्थमाह-- मंत्रमेववं.
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[पा०३, सू०३५]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशमानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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भूतोऽसावित्यस्मै प्रकाशयतीत्येके इति- 'मैत्रमेवान्यस्मं शंसनाय कस्यचिदर्थस्य कुशलप्रेषणस्वेष्टदेवतोपासनादेः, प्रकाशयति इति प्रयोगार्थः, तत्र मैत्रकर्मकं प्रकाशनमन्यं । आसेवनमाचरणम्पलम्भनमिति तदर्थः, एक चोपलम्भनप्रति किं तस्य स्वरूपतः प्रकाशनमुत रूपान्तरेणत्याह-एवं- शब्दस्यानुष्ठानद्वाराभीष्टप्राप्तिसमुद्योगे योगरूढिः । अनन्तरोभूतोऽसाविति, यथाऽसौ भवता विज्ञायते, नासो वस्तुत.क्तोपलम्भनस्य प्रयोगे सङ्गमनाय पुत: प्रयोगमाह- मंत्राय स्तथाऽपि तु तस्यैवस्वरूपगुणदोषादीति प्रकाशनाभिप्रायः, | शयते इति । अर्थमाह-प्रोषिते मैत्रे इत्यादिना, मैत्रे 45 इत्थं चात्र मैत्रस्य प्रयोज्यत्वं नास्ति यस्म प्रकाशयति स देशान्तर गते सति तस्य मंत्रस्य भावे- स्थानविशेषस्थितो, एव प्रयोज्य इति मंत्रात् पूर्वोक्तसूत्रेण चतुर्थी न प्राप्तेति । अभावे-यत्र गतस्तत्र तस्यानुपस्थिती, चोपलब्धे-विज्ञातायां, तादादी चतुर्थी विज्ञेया। स्वसम्मतमेव पक्षान्तरमाह- तदनुरूप तद्भावाभावानुसार, किञ्चिद्भावे तदर्थ संवाद
अथवा स्वाभिप्रायस्य परत्राविष्करणमुपलम्भनं प्रेषणादिकमभावे तदीयकुशलयूक्तस्थित्यर्थ देवताराधनादिकं 10 शपथ इति यावदिति- स्वाभिप्रायस्य-स्वोक्तार्थस्य परत्र- चानुतिष्ठतीति प्रयोगार्थः, अत्र च यद्यपि शपधात्वर्थ आक्रोशो 50
अन्यस्मिन् जने, आविष्करण-याथायेन बोधनमेवोप- न गम्यते, तथापि धातूनामनेकार्थत्वेन प्रकृतोक्तार्थप्रतीतिः लम्भनशब्देन बोध्यते, तदेव हि लोके शपथशब्देनोच्यते, स्वीक्रियते । केवलशपथे तु न भवत्यामनेपदं, तथाहि-बहुशः शपथेन हि स्वोक्तार्थ एवं प्रामाणिकत्वेन परत्राविष्क्रियत | कविप्रयोगाः शपथे परस्मैपदस्य दृश्यन्ते, यथा
इति तदेवोपलम्भनमिति तदर्थः । अयमर्थश्च पूर्वमुक्तात् "धन्यासि या कथयसि प्रियसङ्गमेऽपि, 15 प्रकाशनरूपादनन्य एव तस्यैव प्रकारान्तरेण व्याख्यानरूपः, विसब्धचाटुकशतानि रतांन्तरेषु ।
तत्र हि सामान्येन कस्यचिदर्थस्य ज्ञापनमुक्तम्, अत्र च नीवी प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण, स्वाभिप्रायस्यैव प्रत्यायनरूपमा विष्करण प्रकाशनमुक्तमि- सख्यः शपामि यदि किञ्चिदपि स्मरामि ॥" इति । यानेव विशेषः। प्रकृतार्थानुरूपेण प्रयोगार्थ प्रकटयितं पुनः | किञ्च-'आचम्य चाम्बु तृषितः करकोशपेयं,
प्रयोगमाह-मैत्राय शपते इति। वाचेत्यादि प्रयोगार्थः, भावानुरक्तललनासुरतः शपेयम् । 20 बाचा मात्र दिशरीरस्पर्शनेनेति--स्पर्शनं यद्यपि हस्तादि- जीयेय येन कविना यमकैः परेण
द्वारा स्वकसम्बन्ध एव, तथापि मात्रादे: सर्वाविद्यमानत्वेन तस्मै वहेयमुदक घटकरेण ।।" वाचंव तदीयचरणादिस्पर्शनमभिनीय मंत्राय स्वाभिप्राय | इति घटकपरकविश्लोके च शपधार्थे सत्यपि परस्मैपदमेव बोधयति- प्रत्याययतीत्यर्थः। उक्तं च काशिकाकृताऽप्युप- | प्रयुक्तं दृश्यत इति न केवल शपथरूपेऽर्थे प्रकृतसूत्रप्रवृत्तिरिति ।
लम्भनं शपथ इति । नागेशभट्रस्तु- उपलम्भनशब्दस्य न | यद्यपि घटकपरश्लोके स्वाभिप्रायस्याविष्करणमपि दृश्यते, 25 शपथे रूढिर्न वा योगश तथा तादृशार्थलाभ इति काशिकामतं । पूर्ववापि सखी प्रति नायिकावाश्ये स्वाभिप्रायप्रकाशनमस्ति, 65
खण्डयन्ति 'कोडोऽनुसंपरिभ्यश्च" [ पा०सू० १. ३. २१. 1| तथापि तत्र शपथमात्रस्य विवक्षितत्वेन नात्मनेपदमिति इति सूत्रव्याख्यानशेषे उद्द्योतग्रन्थे. शब्देन्दुशेखरे चात्मनेपद- सन्तोव्यम् । यद्यप्युक्तरीत्योपलम्भनदार्थस्य न परिच्छेद: प्रक्रियायामयमर्थो दीक्षितग्रन्थखण्डनत्वेनोपन्यस्तः । दीक्षिते- | प्रकारान्तरेषु कस्यात्र ग्रहणमित्यनिश्चयात, तथा चान्यतम
नापि आक्रोशार्थात् शपतेः कर्तृगेऽपि फले शपथरूपेऽर्थे | स्यैव कस्यचिदर्थस्य प्रकृते निर्गतव्यत्वात् सन्देहस्योपस्थिती 30 वर्तमानादित्यादिरूपेण 'शप उपालम्भे उपलम्भने' इति । शास्त्रस्यानिर्णायकता स्यादिति शक्यते वक्तुं, तथापि 70
वातिक व्याख्यातम्, तथा च सोऽपि प्रकृते काशिका कृदनु- प्रकाशनरूपस्य ज्ञापनस्य सर्वत्रार्थ यथाकथंचिदनुस्यूतत्वेन सावे, परं तु प्रकृतबहद्वत्तिर्वाण तदिशा शपथेन ज्ञापन- 'अन्यायो ह्यनेकशब्दार्थत्वम्' इति न्यायस्यानवसरान दोष मुपलम्भनमिति प्रतीयते, न केवलं शपथः, अथवा पूज्य- इति बोध्यम् । उपलम्भन इति किमिति- सर्वत्र शप
जनाश्रादेहस्तादिना माक्षाद वाचा वा मानसस्पख्यिान-धातुप्रयोगे झापनार्थस्य यथाकथंचित् प्रतीतिरस्स्येवेति 35 रूपक्रियाद्वारा स्वाभिप्रायप्रत्यायने शपथशब्दस्यानादिताप्त- ज्ञापनार्थ एव भविष्यतीत्युपलम्भनपदस्यावर्तकत्वेनानुपादे75
यवती लक्षणेति स्वमतं बोध्यमिति न नागेशखण्डनस्येह | यत्वमिति शङ्कार्थः । व्यावृत्तिस्थलं प्रदर्शयति-मंत्र शपति संभवः । प्रकारान्त रेणोपलम्भनशब्दार्थ व्याचष्टे-प्रोषितस्य | इति- अत्र केवलं निन्दाकरणमेवार्थो न तु कश्चित् प्रति भावाभावोपलब्धो कस्यचिदर्थस्यासेवनं चोपलम्भ- | कस्यचिदर्थस्य ज्ञापनमिति न भवत्यात्मनेपदम्, असति
नमिति-प्रोषितस्य-- स्थानान्तरं गतस्य, भावेऽभावे चोप- | चोपलम्भनपदे स्यादेवेति तद्वारणाय तदावश्यकमिति भावः। 40 लब्धे केनचित् कथिते स्वप्नादिना वा विज्ञाते, तदीयशुभा- | तदाह-आक्रोशतीत्यर्थः इति ॥ ३. ३. ३५. ।।
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कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
आशिषि नाथः ॥ ३.३.३६. ।।
त० प्र०—आशिष्येवार्थे वर्तमानानायतेः कर्तर्यात्मने पदं संवति । after red, ayat नाथते, सपि भूयान्मधु मे सूयादित्याशास्ते इत्यर्थः । अाशिष्येवेति नियमः 5 किम् ? याच्यां मा मूत मधु नायति । fsrस्करणं स्वस्थानप्रत्ययार्थम् ॥३६॥
I
[पा०३, सू० ३६-३७ ]
कविकृतो किरातार्जुनीये महाकाव्ये मायाशुकरारीरघाति- 40 । बाणमुद्दिश्य कपटकिरातशिवदूतस्यार्जुनं प्रति- "नाथसे किमु पति न भूभृताम्" इति वाक्ये कथमात्मनेपदप्रयोग इति चेदत्र प्रामाणिका: "नाथसे" इत्येव पारस्तत्रोचित इति, तथा च "नाचूङ्' धातुरपित्याचार्थे पठितस्तस्यैवायं प्रयोगो न तु नाथते:, नाथतेरेव प्रयोग इत्याग्रहे तु 45 'निरङ्कुशाः कवयः ' इति, "छन्दोवत् कवयः कुर्वन्ति इति वा शरणम् ११ ३. ३. ३६ ।।
"
श० म० न्यासानुसन्धानम्- आशिषि० । "नाशृङ् उपतापश्वर्याशीःषु च " इति भ्वादौ पठ्यते, तत्र चकारेण याचनार्थसङ्ग्रहः, तस्मादात्मनेपदस्य ङित्वप्रयुक्तस्य सर्वत्रार्थे 10 स्वतः सिद्धेरिदं सूत्रं व्यर्थं सन्नियमार्थत्वेन पर्यवस्यति, तदाह- आशिष्येवार्थं वर्तमानादिति । नियमपदार्थश्व | सङ्कोचः, स च व्यर्थताप्रयोजक- 'इङितः” [ ३. ३. २२. ] इतिशास्त्रीयो द्देश्यविशेषणविशिष्टे ङकारेत्संज्ञकधातौ नाथभिन्नत्वेन सङ्कोचः, व्यर्थशास्त्रोद्देश्यविशेषणयावद्ध मंव्यापकः, 15 व्यर्थंताप्रयोजकशास्त्रीयोद्देश्ययावद्धव्याप्यो यावान् धर्मः तदितरत्वेन सर्वत्र व्यर्थताप्रयोजकशास्त्रोद्देश्यस कलविशेषण विशिष्टे सङ्कोच इति सिद्धान्तात्, व्यर्थशास्त्रं तु स्वीयोद्देश्यसकलविशेषविशिष्टस्य विधिमुखेन प्रवृत्तिमद् भवतीति लाघवम् निषेधमुखेन प्रवृत्तौ हि स्वार्थहानि: प्राप्तबाधः 20 परार्थकल्पना च भवतीति गौरवं लक्षणारूपजघन्यवृत्त्याश्रयणं च भवतीत्युपपादितमन्यत्र । एवं च प्रकृतनियमेन " इङितः कर्त्तरि " [ ३ ३. २२. ] इति सामान्यसूत्रे स्वयव्यर्थताप्रयोजके नायधातुभिन्नङित्वेन सङ्कोचे तस्य सूत्रस्य नाथधातावप्रवृत्तिः, तथा च सर्पिषो नाथते, मधुनो 25 नाथते इत्यनयोरनेनात्मनेपदम्, "नाथः " [ २.२.१० ] इति सूत्रेण व्याप्यस्य कर्मसंज्ञाविकल्पे सम्बन्धसामान्ये षष्ठी, सर्पिषो नाथत इति, एवं मधुनो नाथत इत्यपि । प्रयोगार्थमाह- सपिमें भूयादित्यादिना तथा च स्वस्वामिकसपिरादेराशा वाच्येति भावः । आशिष्येवेति 30 नियमः किमिति विधिरेव स्वीक्रियतां नियमाश्रयणे कि फलमिति प्रष्टुराशयः । उत्तरयति - याच्ञायां मा मूदिति आशीरर्थातिरिक्तं याचनार्थ एव विशेषत: प्रयोगादुक्तं याचायां मा भूदिति, अन्यथोपतापैश्वर्ययोरपि व्यावृत्तिरुक्ता स्यात् । नन्वेवमा शिष्यनेनात्मनेपदविधानेऽन्य 35 त्रार्थे च नियमसामर्थ्यात्मनेपदाप्रवृत्तौ ' नाशृङ्' इति
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saशिष्टः पाठो व्यर्थः ङित्वफलस्यात्मनेपदस्य निवृत्तत्वा दिति चेदाह - ङित्करणं त्वस्यानप्रत्ययार्थमिति "इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात्" [ ५. २.४४ ] इति सूत्रेणानप्रत्यय- |
भुनजीऽत्राणे ।। ३ ३ ३७. ।।
त० प्र० - त्राणात् - पालनादन्यत्रार्थे वर्तमानाद भुनक्तः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । ओदनं भुङ्क्त, परि- 50 भुङ्क्त े । अत्राण इति किम् ? महीं भुनक्ति पालयतीत्यर्थः ; "अम्बरीषश्च नाभागो बुभुजाते चिरं महोम्" इत्यत्र तु न पालनं भुजेरर्थः, किन्तु पासननिमित्तक उपकारः, धातूनामनेकार्थत्वात् पालनेन महोमुपकृतवन्तौ मह्याश्रयं फलं स्वीकृतवन्ताविति वेत्यर्थः । उभयपदिनमेनमध्ये मन्यन्ते । 55 भुनजिति इननिर्देश "भुजोंत् कौटिल्ये' इत्यस्य निवृत्त्यर्थःओष्ठौ निर्भुजति, कुटिलयतीत्यर्थः ॥३७॥
श०म० न्यासानुसन्धानम् — भुनजो० । 'भुनज्' इति "भुजप्" पालनाभ्यवहारयोः" इति पठितस्य रोधादिकस्य ग्रहणं श्नेन निर्देशात्, तत्फलं वक्ष्यति । त्राणं पालनं, 60 तद्भिन्नमत्राणं, भक्षणमभ्यवहारः तस्मिन्नर्थे वर्त्तमानात् । यद्यपि श्राणादन्यत्रार्थे इत्येव लभ्यते, संयोगवद् विप्रयोगस्यापि विशेषावगतिहेतुत्वमिति सिद्धान्तात् त्राणादन्यस्य त्राणविपरीतस्य भक्षणस्यैव ग्रहणं, प्रकृतधातोरर्थद्वय एव पाठात् । एवं च कौटिल्यार्थस्य भुजतेर्ग्रहणं वारितं स्यादिति 65 star निर्देशनावश्यक इति प्रतिभाति, तथापि उपकारोपभोगप्रभृत्यर्थेऽपि आत्मनेपदस्येत्वेन त्राणादन्यस्य भक्षणमात्रस्य ग्रहणमित्यङ्गीकारे च तदप्राप्त्या न तादृशार्थसङ्कोच इष्ट इति सूचयितुमेव श्नेन निर्देश इति बोध्यम् । उदाहरति ओदनं भुङ्क्ते इति- अत्र त्राणादन्यस्मिन्नभ्य- 70 वहारार्थे धातोर्वर्तमानत्वेन तत आत्मनेपदे- भुङ्क्ते इति रूपम् । अत्रोपसर्गपूर्वकस्य तद्रहितस्य च सामान्येन ग्रहणं विशेषानुपादानादिति सूचयितुमुपसर्गपूर्वकमप्युदाहरति परिभुङ्क्ते इति । भुनजेः प्राय आत्मनेपद एवं प्रयोगदर्शनात् सामान्येन विधीयतामपालने इति प्रतिषेधो व्यर्थ इत्याशय 75 वान् पृच्छति- अत्राण इति किमिति न केवलमस्य आत्मनेपद एव प्रयोगः परस्मैपदेऽपि पालनार्थं प्रयोगस्य
विधानार्थं ङित्वं चरितार्थमिति भावः । नन्वेवं भारवि दर्शनात्, अन्यथा परस्मैपदिषु पाठस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गादिति
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[पा० ३, सू० ३७-३८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
पालनादन्यत्रैवात्मनेपदं स्यान्न तु पालन इति तदर्थं । इति च प्रयोगः पालनेऽपि कर्तृगामिक्रियाफलविवक्षायां सूत्राण इत्यावश्यकमिति व्यावत्यमाह- महीं भुनक्ति साध्वेव यत्र च क्रियाफलं परगामि तत्र केवलमपालनार्थ इति । अत्र योऽर्थस्तमाह- पालयतीत्यर्थः इति, तथा एवात्मनेपदप्रयोग इति । परं तु स्वमतेऽस्य केवलपर स्मैपदि
3. 30. 11
60
च नात्रात्मनेपदमिष्टमिति भावः । ननु क्वचित् पालनार्थेऽपि स्वेनोक्तरूपेणोपकारोपभोगाद्यार्थपरत्वेन व्याख्यानमेव श्रेय 5 प्रयोगे आत्मनेपदं दृश्यते तत कथममुपपद्यत इति शङ्कां । इति बोध्यम् । ननु "भुजोऽत्राणे" इत्येव सूत्रमस्तु संभव - 45 मनसि निधाय तत्समाधानमाह- “अम्बरीषश्च नाभागो त्राणार्थस्य रोधादिकस्यैव ग्रहणं स्यात् संयोगविप्रयोगबुभुजाते चिरं महीम्" इत्यत्र त्विति, अत्र "अरिष योविशेषावगति हेतुत्त्रस्य स्वीकृतत्वादिति चेदाह - भुनजिति वर्गमुत्सृज्य जामदग्न्यो जितेन्द्रियः" इति पूर्वार्धमपि श्येननिर्देशो "भुजत् कौटिल्ये " इत्यस्य निवृत्त्यर्थः योज्यमन्यथा बुभुजाते इति द्विवचनोपपत्तिनं स्यात्, इति- सत्युपायान्तरे न्यायाश्रयणस्यानौचित्येन तथा [ श्येन] 10 अम्बरीष नाभागयोरैकाधिकरण्यादेकव्यक्तिवाचकत्वात् तत्र निर्देश एव तद्वारणार्थं मुचित इति भावः । केचित् तु 50 हि अम्बरीष इति राजनाम, नाभाग इति वंशकीर्त्तनं * निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य ग्रहणम् इति न्यायेविशेषणार्थ मन्यस्य प्यम्बरीषनाम्नो राज्ञः संभवात्, अत्र च नौकारानुबन्धस्य "भुजोंद कौटिल्ये" इत्यस्य ग्रहणं वारयन्ति, कर्मणो मह्या भक्षणाद्यसंभवाद्रक्षणमेवार्थं इति कथ तन्न युक्तम् भुजिति सामान्यनिर्देशो न निरनुबन्धत्वसूचकोमंत्रात्मनेपदमिति शङ्कायाम् अत्र तु न पालनं भुजेरर्थः ऽनुबन्धेन धातुनिर्देशस्य क्वाचित्कत्वात्; यथाकथञ्चिद्रौघादिक15 इत्याद्युत्तरम् प्रकृतप्रयोगे भुजेनं पालनार्थत्वम्, किन्तु स्यापि सानुबन्धत्वाच्च । कौटिल्यर्थकस्योदाहरणमाह- 55 पालननिमित्त उपकार इति तत्र उपकारमात्रे धातोर्वृत्तिः, ओष्ठौ निर्भुजतीति- अत्र हि परस्मैपदमेव भवति नात्मनेपालनं त्वर्थत उपलभ्यते, पालनादन्यस्योपकारस्यासभवा- पदमिति तद्वद्यावृत्तये उपायान्तराश्रयणात् श्नेन निर्देश एव दिति न धातोः पालनायें वृत्तिः तथा च कथं प्रकृतार्थं लाघवमिति भावः । प्रयोगार्थमाह- कुटिलयतीत्यर्थः इतिइति चेत् ? तदाह- धातूनामनेकार्थत्वादिति- अनेकार्था । भावविशेषसूचनार्थमोठयोः कुटिलीकरणस्य दर्शनादिति ॥ ३. 20 हि धातवो भवन्तीति पालनाभ्यवहारादन्यस्मिन्नर्थेऽस्य वृत्तौ क्षत्यभावात् । एव पालननिमित्तके उपकारार्थे स्थिरीकृते प्रकृतप्रयोगार्थमाह- पालनेन महीमुपकृतवन्ताविति । बहूनां मत इहोपभोगो भुजेरर्थो न तुपकारइति तन्मत साधारण्येनार्थमाह- मह्याश्रयं फलं स्वीकृत 25 वन्ताविति वेति- अत्र हि अरिषड्वर्गत्यागस्य फलरूपतयामोऽर्थोऽभिधेयः अरिषड्वर्गस्य -- काम-क्रोध-लोभमोहमद मात्सर्याणां त्यागेन जितेन्द्रियतया व जामदग्न्याSEE बहुकालपर्यन्तं मह्याश्रयं फलमुपभुक्तवन्ताविति हि विवक्षितोऽर्थः केवलं महीपालस्य पुरुषार्थतया मही30 पालन लभ्य तदाश्रित फलोपभोगस्यैव तत्फलत्वेन - अरिषड्वर्गत्यागफलत्वेन कथनस्य युक्तत्वात् । एवं बुभुजे पृथिवीपालः पृथिवीमेव केवलाम्" इत्यत्राप्युपभोग एव भुजेश्र्थो न पालनमित्युकं दीक्षितेन सिद्धान्तकौमुद्यामात्मनेपदप्रक्रियामतान्तरेण प्रकृतप्रयोगसमाधानम ह उभययाम् ॐ पदिनमेनमन्ये मन्यन्ते इति अस्यायमाशय:- केषांचित् [ पाणिनीयव्यतिरिक्त नां ] वैयाकरणानां मते भुनजिरुभयपदी, तस्मात् कर्तृगामिनि क्रियाफले तु पालनेऽपालने च सर्वात्मनेपदं भवत्येव, अपालने अकर्तृ गेऽपि क्रियाफले श्रात्मनेपदार्थ प्रकृतसूत्रमिति "श्रम्बरीषश्च नाभागो बुभुजाते 40 महीं चिरम्" इति "बुभुजे पृथिवीपालः पृथिवीमेव केवलाम्"
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हृगी गतताच्छील्ये ॥ ३. ३. ३८. ॥
त० प्र० -- गतं प्रकार : साहत्यमनुकरणमित्येकोऽर्थः तच्छीलमस्य तच्छीलस्तस्य भावस्ताच्छील्यम्, उत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशात् तत्स्वभावता । हरतेः प्रकारताच्छील्येऽर्थे वर्तमानात् कर्तयत्मनेपदं भवति । शब्दशक्तिस्वाभाव्या- 65 चानुपूर्व एव हरतिर्गतताच्छील्ये वर्तते। पैतृकमश्वा अनुहरते, मातृकं गावोऽनुहरन्ते पितुरागतं मातुरागतं गुणविषयं क्रियाविषयं वा सादृश्यमविकलं शीलवन्तीत्यर्थः । एवंपितुरनुहरते, पितरमनुहरते; मातुरनुहरते, मातरमनुहरते । गतग्रहणं किम् ? पितुर्हरति, मातुर्हरति । ताच्छील्य इति 70 किम् ? नही राममनुहरति, नटो हि कश्विदेव कालं राममनुकरोतीत्यसातत्ये न भवति । यद्वा गमनं गतं, तस्य पित्रादेः शीलमस्य तच्छीलस्तस्य भावस्ताच्छील्यम्, गतेनगमनेन ताच्छील्यं तस्मिन्नर्थे वर्तमानाद्धरतेः कर्तर्यात्मनेपदं 75 भवति । पंतृकमश्वा अनुहरन्ते पितुरागतं गमनमविच्छेदेन शीलयन्तीत्यर्थः । एवं पितुरनुहरते, पितरमनुहरते गतताच्छील्य इति किम् ? धर्मान्तरेण पितरमनुहरन्ति । अथवा गते - गमने ताच्छील्ये च वर्तमानाद्धरतेरात्मनेपदं भवति-पैतृकमश्वा अनुहरन्ते तद्वद् गच्छन्ति तद्वच्छोलन्ति 80 वेत्यर्थः ॥ ३७ ॥
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा० ३, सू० ३८]
श०म० न्यासानुसन्धानमू-हगो० । 'हगः' इति ! सुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो लुक्" [७. ४. ७१ ] इतीतो "हंग् हरणे" इति भ्वादिषु पठितस्य निर्देशः। गत- | लुकि आदिस्वरवृद्धौ- पैतृकमिति, एवं- मातृकमिति, ताच्छील्यशब्दमनेकधा व्याख्याति-गतं प्रकार इत्यादिना, अश्वा जन्मसम्बन्धेन पितुरागतं गुणविषयं सात्त्विकत्वादि गम्यते सादृश्येन ज्ञायते इति गतं, तच्च धर्मिगतोऽन्यप्रति-- क्रियाविषयं वाकपाणिपादसंचालनादिविशेष सादृश्यमविकलं योगिकसादृश्यवान् धर्म एव, स एव च मिणि प्रकारीभूय साकल्येन शीलयन्ति- प्राकलयन्तीत्यर्थः, एवं मावोऽपि 45 भासते, अत एव प्रकारशब्दं सादृश्येन प्रतिशब्दयति । | मातुरागतं गुणादिसादृश्यं जन्मत प्रारभ्याविनाशं धारयन्तीउभयोरपि सत्त्वरूपत्वादसत्त्वार्थकधातुवाच्यताऽसम्भिविनीति , त्यर्थः, प्रकारसादृश्याऽनुकरणानां वस्तुत ऐक्येऽपि शब्दसंदिहान आह- अनुकरणमिति, तथा च क्रियारूपता- ! शक्तिस्वाभाव्यादेव शाब्दिकप्रतीतो भेदः, तथा च
सिद्धिः। ताच्छील्यशब्द व्याचष्टे- तच्छीलस्येत्यादिना, | प्रकारत्वेन गतस्य विवक्षायामिदमुदाहरणम् । सादृश्येन 10 तदिति पदेन गतशब्दोपस्थापितोऽर्थों गृह्यते, तद्गतं, । विवक्षायामाह- पितुरनुहरते इति, अनुकरणत्वेन विवक्षा- 50
शीलं- स्वभावो यस्य स तच्छीलस्तस्य भाव इत्यर्थ "पति- यामाह-पितरमनहरते इति, सादृश्यानुशीलन विवक्षायां राजान्तगुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि" [७.१.६०.] इति पितु: कर्मत्व नास्तीति सम्बन्धसामान्ये षष्ठी, अनुकरणानुव्यणि- ताच्छील्यमिति, ताच्छील्यशब्दं व्युत्पाद्यार्थमाह- | शीलनविवक्षायां च तस्य कर्मत्वमिति द्वितीया। एवं
उत्पत्तेः प्रभूत्याविनाशात तत्स्वभावतेति- जन्मप्रभृति ! मातुरनुहरते इत्यादावपि बोध्यम् । गतग्रहण किमिति15 मृत्युपर्यन्तं यः प्रकारो यत्र वर्तते स एव शीलशब्देन | ताच्छील्येनैव तद्गतगुणादिपरिशीलनस्य प्रतीतो प्रकारादि-55
स्वभावशब्देन वा व्यवलियत इति तद्भाव एव ताच्छील्य-बोधकगतशब्दोपादानं व्यर्थमिति प्रष्ट्रराशय: । व्यावर्यमिति भावः । तथा च सूत्रार्थमाह- हरतेः प्रकारता-माह- पितुर्हरति, मातुहरतीति- पत्र पैतृकस्य धनाच्छील्येऽर्थे वर्तमानादिति। ननु हरतेस्तादृशेऽर्थे प्रयोगो देहरणं शीलयतीत्यर्थप्रतीतावपि गतानुशीलनं न प्रतीयत
न दृष्ट इति कथं तस्य तादृशेऽर्थे वर्तमानता संभाव्यत । इनि न भवत्यात्मनेपदम्, गतग्रहणाभावे तु तत्रापि स्यादेव 20 इति चेदत्राह- शब्दशक्तिस्वाभाव्यासानुपूर्व एव तत्, नन्वस्तु प्रकृते आत्मनेपदवारणार्थ गतग्रहणं, ताच्छील्य- 60
हरतिर्गतताच्छोल्ये वर्तते, अयमाशयः - केवलम्य हरते. ग्रहणमेव त्यजतामिति शङ्कते- ताच्छोल्य इति किमिति । गंतताच्छील्ये प्रयोगाभावेऽपि अनुपूर्वी हरतिस्तादृशेऽर्थे प्रत्युदाहरति- नटो राममनुहरतीति, अत्र गतानुकरणवर्तते, हरतेहरणार्थस्य पश्चाद्भावद्योतकेनानुना योगे कथं सत्त्वेऽपि ताच्छोल्यं नास्तीति प्रतिपादयति- नटो हि ताशार्थप्रतिपादकतेति चेदत्राह - शब्दशक्तिस्वाभा-कश्चिदेव कालं राममनुकरोतीत्यसातत्ये न भवति 25 व्यादिति । अयमाशय:- "अनित्याः शब्दशक्तयः' इत्यभि- इति, अयमाशय:- नटो नाट्यावसर एव रामभूमिका प्राप्य 65
युक्तोक्तदिशा हरते रनोश्च प्रातिरस्विकरूपेण तादृशार्था- तदीय प्रकारभनुकरोति, अन्यदा तु स स्वभाव एव तिष्ठतीति बोधकत्वेऽप्युभयोः सह प्रयोगे भवति गतताच्छील्यार्थाप्रतीति- | न उत्पत्तिप्रभृत्याविनाशात तत्स्वभावता तस्येति ताच्छील्यारिति स्वभावः, स्वभावश्च न पर्यनुयोगमर्हति, अन्यथा कथं | भावादिह न भवत्यात्मनेपदम्, ताच्छील्यग्रहणाभावे च
वह दहकता कथमपां शीततेत्यपि पर्यनयोगः स्यात् । गतानुकरणसत्त्वात् तदुर्वारं स्यादिति तद्वारणाय ताच्छील्य 30 अन्ये तु - केवलोऽपि हरतिस्ताच्छील्ये वर्तते, यथा - | इत्यावश्यकमिति ।
70 पितुहरतीति, परं गतताच्छील्येऽनुपूर्व एव गतताच्छील्य गतताच्छील्यशब्दं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे-यद्वेति, एवानुपूर्वो हरतिरिति वंपरीत्य तु न स्वीकार्य नटो राम- गमनं गतमिति- गमे वे क्लीबे क्तः। तदिति पदेन मनुहरतीत्यादी गतताच्छील्य विनापि सादृश्यानुकरणेऽनु- प्रकृत गत ने ग्राह्यमपि तु बुद्धिस्थोऽनन्तरमुच्चारितश्च
हरतिप्रयोगदर्शनादित्याहुः, तथा च हरतेस्ताच्छील्ये शक्तिः पित्रादिरित्याह-तस्य पित्रादेः शीलमस्येति- पित्रादे: 35 प्रसिद्धव, अनुना गतताच्छोल्यं द्योत्यत इति लभ्यते । । शीलस्य पित्रादावेव वर्तमानत्वेन पुत्रादौ तदभावात् 75
उदाहरति--पैतृकमश्वा अनुहरन्ते, मातकं गावो- तत्सद्दश शीलमित्यर्थो विवक्षितः, तथा च पित्रादिसदृशं उनहरन्ते इति- अत्र गतताच्छील्यस्य विवक्षितत्वादात्मने- | शीलमस्येति तच्छीलः, तस्य भावस्ताच्छील्यम् । गतशब्देन पद भवति । प्रयोगार्थ ग्राहयति
| सह तृतीयासमास इत्याह-गतेन गमनेन ताच्छील्यमितिआगतमित्यर्थे योनिसम्बन्धवाचिन: पितृशब्दात् “ ऋत गमनहेतुकं तत्सादृश्यानुशीलनमिति भावः । तथा च 40 इकण" [ ६. ३. १५२ ] इतीकण " ऋवर्णोवर्णदोसि-! सूत्रार्थमाह- तस्मिन्नर्थे वर्तमानादिति । प्रकृतव्याख्या- 80
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[पा० ३, सू०३८-३६]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
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नुसार प्रयोगार्थं प्रदर्शयितुं प्रयोगस्वरूपं पुनराह-पैतकम- | व्याख्यानद्वयं ग्रन्थप्रपञ्चार्थ मेवेत्यवधेयम् ॥ ३. ३. ३८.॥ श्वा अनुहरन्ते इति । प्रयोगार्थमाह- पितुरागतं गमन
पूजा-ऽऽचार्यक-मृत्युत्क्षेप-ज्ञान-विगणन-व्यये मविच्छेदेन शीलयन्तीत्यर्थः इति - यादृशं गमनं पितर्यासीत् तादृशमेव जन्मसम्बन्धात् तैलब्ध, तदेव
नियः ॥ ३. ३. ३६. ॥ धारयन्त्याविनाश मिति भावः । उदाहरणान्तरमपि पूर्वव.
त०प्र० - पूजाऽऽचार्यक-भृतिषु यथासंख्यं कर्मदेवाह- पितुरनुहरते, पितरमनुहरते इति 1 गतता-! क
, man. कर्तृ-धात्वर्थविशेषणेषु गम्यमानेषु, उत्क्षेपादिषु च धात्वर्थेषु 45 च्छील्य इति किमिति- पूर्वोक्तप्रकारेण व्याख्यातस्य :
। वर्तमानानयते: कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पूजा-सन्मान:गतताच्छील्यस्य ग्रहणं किमर्थमिति प्रश्नः । गतमात्रण
नयते विद्वान् स्याद्वादे, प्रमाणन्यापारवित् स्याद्वारे ताच्छोल्ये स्यादन्यधर्मेण ताच्छील्ये मा भूदित्येतदर्थ
जीवादीन पदार्यान् युक्तिभिः स्थिरीकृत्य शिष्यबुद्धि प्राप10 तद्ग्रहणमित्याह - धर्मान्तरेण पितरमनुहरन्तीति
यतीत्यर्थः ते युक्तिभिः स्थिरीकृताः पूजिता भवन्ति । धर्मान्तरं गतादन्यो धर्मों वागक्षिव्यापारादिस्तेन पितर
आचार्यस्य मायः कर्म वा-चार्यकम्, माणवकमुपनयते, 50 मनुकरोतीत्यर्थः, अत्रात्मनेपदं नेष्ट, गतेन ताच्छील्यमित्य
स्वयमाचायों भवन् माणवकमध्ययनाया-ऽऽत्मसमीपं प्रापयथंकगतताच्छील्यग्रहणाभावे च स्यादेवेति तद्ग्रहण
तीत्यर्थः। भृति:- वेतनम्, कर्मकरानुपनयते, वेतनेनात्ममावश्यकम् ।
समीपं प्रापयतीत्यर्थः। उत्क्षेपः-ऊवं नयनम्, शिशुमुदा15
नयते, उरिक्षपतीत्यर्थः। ज्ञान-प्रमेयनिश्चयः, नयते तत्त्वार्थे, पुनरपि प्रकारान्तरेण गतताच्छील्यशब्दं व्याचष्टेअथवा गते-गमने ताच्छील्ये चेति, तथा च गतशब्दस्य
तत्र प्रमेयं निश्चिनोतीत्यर्थः । विगणनम्-ऋणादेः शोधनम्, 55 ताच्छील्यशब्दस्य चानन्तरपूर्वप्रकारवणित एवार्थः केवल
मद्राः कारं विनयन्ते, राजग्राह्यं मागं दानेन शोधयन्तीमुभयोः पार्थक्येनाथं बोधकत्वम्, तथा चार्थद्वये आत्मनेपद
त्यर्थः । ध्ययो धर्मादिषु विनियोगः, शतं विनयते सहस्रं विधानं फलति, तथा चोत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशात् तत्स्व- |
विनयते, धर्माद्ययं तीर्थादिषु विनियुक्त इत्यर्थः । एतेष्विति 20 भावता न ताच्छील्यमपि तु तत्साहश्यमात्रम्। गतार्थेऽपि
किम् ? अजां नयति प्रामम् । गित्वादफलवदर्थ सादृश्यद्योतको वतियोजनीयः, परार्थे प्रयुज्यमान: शब्दो
आरम्मः ॥३६॥
60 वति विनापि वत्यर्थ गमयति- यथाऽपण्डिते पण्डितोऽयमिति
श०म० न्यासानुसन्धानम-पूजा । अत्रोत्क्षेपप्रयोगे पण्डितवदयमिति प्रतीतिर्भवति । तथा चोदाहरति-! ज्ञान-विगणन-व्यया नयतेच्या : इतरे प्रयोगोपाधयः, तत्र
पैतकमवा अन हरन्ते इति । प्रयोगार्थमाह - तद् कोऽर्थः कुत्रान्वेतीति जिज्ञासायामाह- प्रमाऽऽचार्यक25 गच्छन्ति, तद्वच्छीलन्ति वेत्यर्थः इति- पितुरागतं । भृतिषु यथासंख्यं कर्म-कत धात्वविशेषणेविति
गमनं यथा स्यात् तथा गच्छन्ति, पितुरागतं यथा स्यात् प्रत्र पूजा कर्मविशेषणीभूय नयत्यर्थविशेषणीभवति. सर्वेषां 65 तथा शीलन्तीति तदर्थः। एवं च पैतृकशब्दस्य क्रिया- | कारकाणां क्रियाविशेषणत्वेन तद्विशेषणानामपि परम्पराविशेषणत्वमिति व्याख्यातारः । परं त्वेव सति पितुरनु- क्रियाविशेषणत्वात्, आचार्यकम्- आचार्यस्य कर्म, तच्च
हरन्ति पितरमनुहरन्तीत्यादि प्रयोगा न स्युः, तत्र । काचार्यस्य विशेषणीभवद् धात्वर्थेऽन्वेति, एवं-भूतिः 30 पित्रादीनां क्रियाविशेषणत्वासम्भवात् । तथा च पैतृकमवा ! साक्षादेव धात्वर्थविशेषणम् । इतरे च धातुवाच्या एवेत्याह
अनुहरन्ते इत्यत्रापि पितुरागत गमनं कुर्वन्ति, यथा उत्क्षेपादिषु धात्वर्थ विति। पूजाशब्दस्य देवाद्यद्देश्यक-70 पितुर्गमनं तथा गच्छन्तीत्यर्थः, तथा च तद्वत् गच्छन्ती- ! भक्तिविहितन्त्रक्चन्दनादिसमर्पणकर्मण्येव रूढत्वादिह तस्य त्याथिकोऽर्थः । एवं- पितुरागतं शीलं धारयन्तीति । कोऽर्थ इति जिज्ञासायामाह-पूजा-सन्मानः इति सन्मान
ताच्छील्येऽर्थः, तद्वचछी लन्तीत्याथिकोऽर्थः, इति वयम् । ! शब्दापेक्षयात्र संमानशब्द एवोपयुक्तः, सम्यङ्माननं हि 35 इत्थं च प्रकारत्रयेण गतताच्छील्यशब्दव्याख्यानमुक्तम्, | संमान:, संश्चासौ मानः सन्मान इति संमान- सन्मानयो)देन
एतच्च संभवप्रदर्शनमात्रम्, वस्तुततस्तु गतताच्छील्यस्य | प्रकृते एकशब्देनैव पूजार्थस्य वक्तव्यतया संमानशब्दस्यैवी-75 प्रकारानुशीलनमेवार्थः, तेन च स्वेषामर्थानां सङ्ग्रहोऽपि चित्याद् व्याकरणान्तरसंवादाच्च । नयते विद्वान स्याद्वादे सुकरः, गतेन ताच्छील्यमपि प्रकारानुशीलनस्यैव विशेषः, | इति-शिष्यमिति कर्मानुक्तम्, नयतेतिकर्मकत्वेनैकस्य कर्मण:
गतसादृश्यं शीलसादृश्यं चा[तृतीयव्याख्यालभ्यम् ]पि स्याद्वादपदार्थस्थाधिकरणत्वविवक्षया सप्तमी । प्रयोगार्थ 40 प्रकारानुशीलनानान्यदिति तदेव व्याख्यानं मुख्यमन्यद् | विशदय्य ग्राहयति-प्रमाणव्यापारविदित्यादिना, विद्वान्
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[ पा० ३, सू० ३६]
इत्यस्यार्थ:- प्रमाणव्यापारविदिति, प्रमाणानां प्रमिति- रूपेण दीयमानं द्रव्यं, तदेव वेतनशब्देनाभिधीयते । कर्मकरणानामागमादीनां व्यापारमर्थग्राहकताक्ति यो वेत्ति स | करानुपनयते इति- अत्र भृतिर्न कर्मभूतानां कर्मकराणां एव विद्वान् । 'स्याद्वादे इत्यस्य स्याद्वादस्थितपदार्थपरत्व- नवा भर्तुविशेषणमपि तु धात्वर्थविशेषणमेव, भृतिदानपूर्वक मित्याह- जीवादोन पदार्थानिति- प्रादिपदेन अजीवा- | यथा स्यात् तथोपनयत इत्यथाद, तथा च धात्वर्थ विशेषणीऽऽत्रव-संवर-निर्जर-बन्ध-मोक्षा विज्ञेयाः, एषामेव सप्तपदर्थानां भूतायां भृती विवक्षितायामात्मनेपदमनेन विधीयते । तथा च 45 विज्ञानं स्याद्वादप्रतिपाद्यम; संक्षेपतस्तु द्वौ पदार्थों जीवो- | प्रयोगार्थमाह- वेतनेनात्मसमीपं प्रापयतीत्यर्थः इतिऽजीवश्व, प्रास्रवादीनामजीव एवान्तर्भावात, जीवाऽजीवी | वेतनपदं वेतनदानोपलक्षक, वेतनदानेनात्मसमीपं प्रापयति. भोक्त-भोग्यो, विषयाभिमुख्येनेन्द्रियाणां प्रवृत्तिरास्रवः; तां आत्मनः कर्मणि नियुके इत्यर्थः। उत्क्षेपणार्थ उदाहर्त
प्रवृत्ति संवृणोतीति संवरो यम-नियमादिः, निज़रयति । मुत्क्षेपपदार्थमाह- उत्क्षेप:-ऊध्वं नयनमिति- उदित्य10 नाशयति कल्ममिति निर्जरस्तप्तशिलारोहणादिः, बन्धोऽष्ट- | स्योर्वार्थत्वात् क्षिपेः प्रेरणार्थत्वात् भावधजन्तस्य ऊर्ध्व- 50
विध कर्म, तत्र घातिकर्मचतुर्विधम्, तद्यथा- ज्ञानावरणीयं | नयनार्थत्वं सम्पद्यते । उदाहरति-शिशमूवानयते इतिदर्शनावरणीयं मोहनीयमन्तरायमिति, तथा चत्वार्यघातिक- | उत्-आपूर्वकान्नयतेरात्मनेपदम्, यद्यपि केवल मुत्पूर्व
मर्माणि, वेदनीयं नामिक गोत्रिकमायुष्कं चेति, तदेतत् | कस्याप्यूवनयनमर्थः संभवति तथापि नीचःस्थस्योर्ध्वप्रदेश15 कर्माष्टकं पुरुष बध्नातीति बन्धः, विगलितसमस्तक्लेश-स्थापनार्थप्रतीतये आङोऽपि प्रयोगः । प्रयोगार्थमाह -
तद्वासनस्यानावरणज्ञानस्य सुखैकतानस्यात्मन उपरि देशाव- उरिक्षपतीत्यर्थः इति- उत्क्षेपपूर्वकं स्थापयतीत्यथः । 55 स्थानं मोक्ष इत्येके, अन्ये तुध्वंगमनशीलो हि जीवो ज्ञानशब्दस्यार्थप्रतिपत्तिरूपेऽर्थे प्रसिद्धत्वेऽपि प्रकृते विशिष्टाथंधर्मास्तिकायेन बद्धस्तद्विमोक्षाद यदुवं गच्छत्येव स मोक्ष | विवक्षया तदर्थमाह- ज्ञान-प्रमेयनिश्चयः इति- ज्ञानस्य इत्याहुः। एतान् सप्त पदार्थान् युक्तिभिः सप्तभङ्गीनया-| यथार्थाऽयथार्थ भेदेन विध्यात् प्रकृते यथार्थज्ञानस्य निश्चय
दिभिः, स्थिरीकृत्य संशयारिरादित्येन व्यवस्थाप्य, शिष्य- | रूपस्यैव ग्रहणमिति प्रमेयस्य-प्रमाविषयीकर्तुमभिलषितस्य 20 बुद्धि प्रापयति शिष्यं बोधयतीत्यर्थः । अत्र कर्मण: | वस्तुनो निश्चयः- सन्देहगहित्येनाधिगतिनिशब्देन गृह्यत 60
पूजामाह-ते युक्तिभिः स्थिरीकुताः पूजिता भवन्तीति-| इति भावः। उदाहरति-नयते तत्त्वार्थ इति- तत्त्वार्थे ते शिष्याः पदार्थाश्च, उभयोरपि कर्मत्वेन तत्पदग्राह्यत्वात् | इति सप्तमी विषयतायां, तथा च प्रयोगार्थमाह-- यत्र प्रमेयं पूजाविषयत्वाच, पदार्था अपि स्थिरतां प्राप्यव संमान | निश्चिनोतीत्यर्थः इति- तत्त्वार्थविषयं जिज्ञासित वस्तु
लभन्ते, शिष्या अपि स्थिरीकृतपदार्था एव लोके संमान- प्रमाणेन यथार्थतया प्रतिपद्यत इत्यर्थः । बिगणनार्थे 25 पात्रतां यान्ति । इत्थं पूजाविषयमुदाहरणं व्याख्यायाचार्यक- उदाहरणात् पूर्व विगणनशब्दार्थमाह-विगणनम्-ऋणादेः 65
विषयमुदाहरण वक्तुमाचार्यकपदं व्याचष्टे-आचार्यस्य भावः शोधनमिति- ऋणम् उत्तमायावश्यं प्रत्यर्पणीय द्रव्यम्, कर्म वेति- आचार्यशब्दाद् भावे कर्मणि पार्थे : योपान्त्याद् | आदिपदेन तादृशमेवावश्यदेयं वस्तु गृह्यते, तस्य शोधनमगुरुपोत्तमादसुप्रख्यादक" [७. १ ७२.] इत्यक, पाकरणं प्रत्यर्पण दानेन स्वाच्छन्दयप्रातिर्वा । उदाहरति
अत्र चाचार्यस्य कर्मण्येवाचार्य कशब्दप्रयोगस्तरयंवार्थस्य मद्रा. कारं विनयन्ते इति- मद्रा:- मद्रदेशोद्भवा जनाः, 30 प्रकृतोपयोगित्वादित्यन्यत्। सूत्र च केवलस्य नियो ग्रहण कार- राज्ञे देयं द्रव्य, तत्तद्वस्तुषु प्रतिनियत राज्ञा ग्राह्य 70
साधारण्येनोपसृष्टानुपसृष्टोभयपरिग्रहार्थमित्याचार्यके केवल- षष्ठांशादिकं दानेन शोधयन्तीत्यर्थमाह- राजग्राह्यमिस्य नियोऽप्रयोगादपोपसृष्टस्योदाहरणमाह- माणवकमुप. त्यादिना । व्ययशब्दार्थमाह-ध्ययो धम नयते इति- उपपूर्वान्नयतेराचार्यकर्मवत् कर्तृयोगादात्मने- इति-धर्मः शुभजनकमदृष्टं तदुत्पादकं कर्म वा, आदिपदे
पदम् । प्रयोगार्थमाह - स्वयमाचायों भवन्निति - नार्थोपार्जनादि गृह्यते, तदर्थ द्रव्यस्य समर्पणं व्ययशब्देनो35 स्वस्मिन्नाचार्यत्वं भावयन् माणवक बटुं शिष्यमात्मसमीप च्यत इत्यर्थः । उदाहरति-शतं विनयते, सहस्रं विनयते, 75
नयतीति प्रयोगार्थः । केवलमात्मसमीपे नयने- इत्यादि । प्रयोगार्थमाह-धर्माधर्म तीर्थादिषु नियुक्त नाचार्यकं न प्रादुर्भवत्यपितु प्राचारादिशिक्षणेनेत्याह- इत्यर्थः इति- शतेन सहस्रेण वा परिच्छिन्न द्रव्य धर्मोंअध्ययनायेति-शिष्योऽधीते, तमात्मसमीप नीत्वाऽध्यापनेन | पत्त्यर्थमादिपदेन ख्यातियशोलाभार्थ वा तीर्थे आदिपद
स्वस्मिन्नाचार्यकमुत्पादयतीत्यर्थः । भृतिशब्दार्थमाह-भूतिः- ग्राह्येषु पूज्यजनसेवा-दीनजन-मरणादिषु च ददातीत्यर्थः । 40 वेतनमिति- भ्रियन्तेऽनया कर्मकरा इति भूति: पारिश्रमिक-एविधति किमिति -- अर्थविशेषपरिग्रहेणात्मनेपदविधानं 80
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[पा० ३, सू० ३६-४०]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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किमर्थ मिति प्रभः। अन्यत्राकर्तृगे क्रियाफले परस्मैपदमेव | स्वान्मूर्तत्वमेव; आप्यते-क्रियया प्राप्यते इत्याप्यं कर्म, 40 भवति, तत्रात्मनेपदाप्रवृत्यर्थमर्थविशेषपरिग्रह आवश्यक इति ! कत वृत्ति शरीर-शरीरावयवभिन्न कर्म यस्य तादृशानयते: प्रत्युदाहरणेनाह- अजां नयति ग्राममिति-- नयतेद्विकर्म- | कर्तरि प्राप्तमप्यात्मनेपद पुनविधीयते, तेन चास्य नियमार्थ
कत्वेनाजाया ग्रामस्य च कर्मसंज्ञा, तत्राजा मुख्य कर्म ग्रामो त्वमित्यग्रे वक्ष्यति। उदाहरति- श्रम विनयते, क्रोधं 5 गौणः, अत्रात्मनेपदवारणायतेषां प्रहमावश्यकमिति भावः। विनयते इति- श्रम-क्रोधयोः कर्तृस्थत्वमशरीररूपत्वं
ननु नयतेगित्वेनोभयपदित्वादात्मनेपदपरस्मैपदयोरुभयोरञ्ज- [अमूत्तत्व ) चास्तीति तादृशे कर्मणि सति भवत्यात्मनेपदम् । 45 सब प्रयोग इति न तदर्थ सुत्रस्यावश्यकत्वमिति चेदत्राह- शरीरार्थकमूर्ततादात्म्यापन्नस्यैव कर्तृत्वादभेदे चाधाराराधेगित्त्वादफलवदर्थ आरम्भः इति- मित्त्वात् फलवकर्तरि | यभावस्यासंभवात् तादात्म्यसम्बन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वाच्च
आत्मनेपदं प्राप्तमध्यफलवकर्तयपि तद् यथा स्यादित्ये- मूर्तपदस्य स्वावयपरत्वमिति पूर्व मुक्तम्, एवं सति मुर्ता10 तदर्थमेव सूत्रमिदमारब्धम्, तथा चैष्वध्वफलवत्यपि वयवानां समवायेन सम्बन्धेनाधाराधेयभावः संभवति तथा च
कर्तर्यात्मनेपदमेव भवति न परस्मैपदमिति भावः ॥ ३. | श्रमादीनामिव गड़वादेरपि कर्तृस्थत्वसम्पत्तिपूर्वक मूर्तत्वं 50 ३. ३६. ॥
सिद्धयतीति भवत्यग्रे व्यावृत्तिसंगतिः, एतदेव गमयितुं
शरीरपदमपहाय मूर्तपदं गृहीत सूत्रे गड्वादीनां स्वतोऽपि I ।। ३. ३. ४० ।।
मूर्तत्वात् । कत स्थेति किमिति- कर्मणि कर्तृस्थत्वं त० प्र०-कर्तृ स्यममूर्तमायं-कर्म यस्य तस्मान्नयतेः | विशेषण किमर्थमिति प्रश्नः। व्यावत्यंमाह-चैत्रो मंत्रस्य 15 कतयात्मनेपदं भवति । श्रम विनयते, क्रोध विनयत, मन्यं विनयतीति- अत्र नयतेः कर्ता चैत्रः, कर्म च मन्यु- 55
शमयतीत्यर्थः । फस्थेति किम् ? चत्रो मेवस्य मन्युं | मैत्रस्थमिति कतं स्थं कर्म नास्तीति न भवत्यात्मनेपदम् । विनयति । अमूर्ते ति किम् ? गडं विनयति, घट्ट विनयति ।
यदि च कर्तृ स्थेति विशेषणं नोपादीयते तहि अमूर्त कर्माबाप्येति किम् ? बुद्धचा विनयति । 'धर्म विनयते' इत्यादी | स्तीति भवतिप्राप्ति: तद्वारणाय कतंस्थेति । विशेषण
धमापगमादेः फलस्य कतृ समवायित्वात् सिद्ध आत्मनेपदे | मावश्यकमिति भावः । अमर्त्तति किमिति- कतं स्थकर्मण 20 नियमाथं वचनम्, व्यवेच्छेद्य च प्रत्युदाहरणम् । शमयति
इत्येवोच्यतां तावतापि 'चत्रो मंत्रस्य मन्युं विनयति' इत्यत्रा- 60 क्रियावचनादेव च नयतेरात्मनेपदं दृश्यते न प्रापणार्यात् | तिव्याप्तिः श्रिमं विनयते' इत्यादावव्याप्तिश्च परिहते यथा
स्यातामित्याशयः। गडं विनयति, घ, विनयति इति"शिवमोपयिकं गरीयसी
गडुः कचित् शरीरकदेशे मांसग्रन्थ्यादिः, घट्टः मंघर्षणजन्यः फलनिष्पत्तिमदूषितायतिम् ।
किणादिः, उभयोरपि मूतत्वमिति तत्र न भवत्यात्मनेपदम्, विगणय्य नयन्ति पौरुषं,
अमूर्तेति विशेषणाभावे च स्यादेव, तद्वारणाय तदावश्य- 65 . बिहितकोघरया जिगोषवः ॥१॥"[किराते]
कत्वमिति । आप्यमिति किमिति- तथा सति "कर्तृ. यथा च कोपं शाम नयति, मन्यु नाशं नयति, प्रज्ञा | स्थामूर्तात्" इत्येव सूत्र स्यात्, तदर्थश्च कर्तृवृत्तिमूर्तभिन्नात् प्रवृद्धि नयति, बुद्धि क्षयं नयति ॥ ४०॥
परान्नियः कर्तर्यात्मनेपदमित्यर्थः स्यात्, नीधातुः क्रियाश० म० न्यासानुसन्धानमू-कतं.- “नियः' इति | वाची, क्रिया च कारकं विनाऽनुपपन्नेति कर्तस्थामूतं किमपि 30 पूर्वसूत्रादनुवृत्तं, तस्यैव विशेषण रूपमेकपदं सूत्रम् । निय: | कारकमेव ग्रहीप्यत इति कर्तृस्थामूर्तकर्मणोऽपि परत्वे 70
कर्तर्यात्मनेपदमिति हि प्रकरणलब्धं, तत्र कीदृशानिय | "श्रम-विनयते' इत्यादी निराबाधा प्रवृत्तिः, चैत्रो मैत्रस्य इत्याकाङ्क्षायामिदं सूत्र विशेषणत्वेन सम्बध्यते। कर्तृ- मन्यु विनयतीति, गहुं विनयतीति च व्यावृत्तं स्यादेवेत्याप्यस्थामूर्तात् पदस्यायं व्याचष्टे-कत मममाप्यं यस्ये पदं वृथै वत्यर्थः। प्रत्युदाहरति- ब्रद्धचा विनयतीति
त्यादि- कर्तरि तिष्ठतीति कर्तृस्थम्. कर्तृ पूर्वका स्थः | बुद्धिहेतुक विनयं प्राप्नोतीति तदर्थः । तथा चाविवक्षित35 "स्था-पा-स्ना-अः कः" [ ५.१. १४२. ] इति कप्रत्यये | कर्मत्वेन धात्वर्थोपसंगृहीतकर्मत्वेन बाऽकर्मकत्वमिति न 75
कर्तृस्थपदं निष्पद्यते, तस्य कर्तृवृत्तीत्यर्थः, मूच्छते- कर्मणः प्रयोगस्यावश्यकत्वमिति कर्तस्थामूर्तकर्मकस्वाभापरिच्छिद्यते करचरणादिभिः शरीरारम्भकैस्तत्त्वर्वेति मूर्त वादत्र न भवत्यात्मनेपदम् तदभावे च बुद्धया कर्तृस्थत्वम. शरीरं, तद्भिन्नममूर्तशरीरं मूत्तंपदं चावयवादिपरिच्छिद्य- मूर्तत्वं चास्त्येवेति तस्मात् परत्वसत्त्वादात्मनेपदस्य दुरित्वं मानपरमिति शरीरावयवानामपि स्वारभ्यकावयवसमवेत- स्यात्; आप्यग्रहणे कृते तु प्रकृते आप्याभावात् न भवति ।
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा० ३, सू०४०]
अथ सूत्रस्य वैयोपपादनपुरःस्सरं नियमार्थत्वं प्रतिवाद- यावत्, तथा अदुषिताति-निरवद्योत्तरकालाम्, फल- 40 यति-- 'श्रम विनयते' इत्यादौ श्रमापगमादेः फलस्य | निष्पत्ति- कृतोपायजन्यफलसिद्धि, विगणय्य-निश्चित्य, 'कसमवायित्वादिति, अयमाशय :- कर्तृस्थेऽमूर्त
पौरुषं- स्वकीय पुरुषार्थ सामर्थ्य शिव- कल्याणयुक्तम्, कर्मणि सत्येवात्मनेपदं विधीयते नयतेः, नयतिश्चोभयपदी । औपयिकम् - उपाय, प्रापयन्ति-- कल्याणकरेणोपायेन सह 6 गित्वात्, ततश्च तस्मात् कर्तृसमवायिनि क्रियाफले सति | पौरुष योजयन्तीत्यर्थः। केवलं क्रोधेन सहसा शत्रोरुपरि
" ईगित:"[ ३.३.७५. 1 इत्यात्मनेपद स्यादेव तादृशस्य | यथाकथंचिदाक्रमणेन न कार्यसिद्धिः, अपि तु पूर्व मनेनोद्यो-45 कर्मणोऽवश्यं कर्तृ'समवायित्वात् तद्विषयक्रियाजन्यफलस्यापि गेन यावान् श्रमो व्यग्रो हानिर्वा सम्भाव्यते तदपेक्षयोद्योगकर्तृ समवायित्वध्रौव्यात् । एवं च सिद्ध सत्यारभ्यमाणोऽय | साफल्ये सति जायभानसिद्धिर्यदि गरीयसी उत्तरकाले दोष
योगो नियमार्थ एव, नियमाकारश्न-नियश्चेदात्मनेपदं स्यात् । रहिता च निश्चीयेत, तदा कल्याणवतोपायेन सह पौरुष10 तर्हि कर्तृस्थामूर्ताप्यादेव नान्यस्मात्. तेनान्यत्र कर्तृ माचरणीयमिति भावः । अत्र च पौरुष कर्म प्रधानन्,
गामिन्यपि क्रियाफले न भवत्यात्मनेपदं, यथा- चैत्रो मैत्रस्य | औपयिक चाप्रधान पौरुष्यस्योपयिक प्रति प्रापण मेवात्र 50 मन्यु विनयतीत्यादौ, अत्र हि यदि मंत्रश्चैत्रोपरि कुपितः. विवक्षितमिति शमयत्यर्थत्वाभावानात्रात्मनेपद भवति । चैत्रश्च प्रणिपातादिना तदीय मन्य शमयति, तहि तत्फलं | अस्ति च धातूनामनेकार्थत्वमिति प्रापणार्थस्यापि नयते:
कर्तरि चैत्रेऽपि प्राप्तमेव, मंत्रमन्वय्वपगमाभावे तेन संभा- क्वचित् शमयत्यर्थत्व नासंभवि 'श्रमं बिनयते' इत्यादी 15 वितस्य भर्त्सन-ताडनादेवरिणादिति सत्यपि कसमवायिनि | तादृशार्थस्य प्रतीयमानत्वात् । अन्ये तु प्रकृते उपायेन
क्रियाफले न भवत्यात्मनेपदम्, तदाह-- व्यवच्छेद्यं च | पौरुषप्रयोगजन्य फलस्य शत्रुपराज यादेनं कर्तृगामित्वं विव- 55 प्रत्युदाहरणमिति । अथ क्वचित् क्वचित् प्रयोगे कर्तृ- | भितमिति नात्मनेपदमिति समादधते। संभवत्ययमप्युपायः स्थामूर्तकर्मणि सत्यप्यात्मनेपदं न दृश्यते, तदुपपत्त्यर्थमन्ये | परमुक्तरूपेणार्थ भेदपरत्वेन समाधाने संभवति विवक्षाश्रयण
प्रकारान्तरेण चेष्टन्ते, स्वमते चामक तत्समाधानमाह- स्यानावश्यकत्वमिति स्वमतम् । यद्यप्यत्रापि मतेऽयमर्थभेदः 20 शमयति क्रियावचनादेवच नयतेरात्मनेपदं दृश्यते न | प्रयोगमहिम्नव व्यवस्थाप्य इति न किमपि वचनं तत्र मूलं,
प्रापणार्थादिति, अयमाशयः-न व्याकरणेन किमपि नवीनं | तथापि प्रयोगमहिम्नः सर्वैरादर्तव्यत्वादियं व्यवस्था न 60 शब्देषूत्पाद्यतेऽपि तु यथास्थितः प्रयोग एवं साधुत्वा दिना | नवीने ति सन्तोष्टव्यम् । प्रकृतार्थेऽन्यान्यपि लौकिकोदाहर. व्युत्पाद्यते शिष्यावबोधार्थम्, तथा च यथा प्रयोग: शिष्टैः । णानि दर्शयति- यथा च कोपं शम नयति, मन्यु नाशं
कृतस्तमेवानुसरत्यनुशासनम्, शिष्टश्च शमयत्यर्थकादेव नयति, प्रज्ञा प्रवृद्धि नयति, बुद्धि क्षयं नयति इति25 नयतेरात्मनेपदं प्रयुज्यते इति तादृशार्थत्वे सत्येवामूतंकर्मणो । एषु नयते: प्रापणार्थत्वमेवेति कोप-मन्यु -प्रज्ञा-बुद्धीनां कर्मणां
नयतेरात्मनेपदं स्यान्न तु प्रापणार्थात्, सत्यपि तथ भूते कर्तृ स्थामुर्तत्वे सत्यपि न भवत्यात्मनेपदप्रयोगः, पूर्वोकार्थ-65 कर्मणीति क्वचित् कविप्रयोगे यद्यात्मनेपद न दृश्यते, तहि भेदमूलकव्यवस्थाऽस्वीकारे तु प्रकृतप्रयोगेष्वपि कर्तृगामततस्य प्रापणार्थत्वं विवक्षितमिति समाधेयमिति भावः । क्रियाफलत्वाविवक्षा समाश्रयणीया स्यादिति गौरवम् ।
एतच्च भारविषयोगेण समर्थयति- यथा- शिवमोप- | केचित स्वकर्तृगेऽपि क्रियाफले कर्तृस्थामूप्यिानिय 30 यिमिति, इदं पद्य किरातार्जुनीयकाव्ये तृतीयसर्गे शत्रन् । आत्मनेपदविधानार्थ सूत्र, संभवति हि 'क्रोध विनयते'
प्रतिद्धं यूद्धेनैव दुर्योधनादयः साधनीया नान्यथेति बह- इत्यादौ कोधापगमादेः फलमन्यस्मिन्नपि, यदुपरिक्रोधस्तद- 70 संरम्भेणोक्तबन्तं भीमसेनं प्रति यूधिष्ठिरस्य वचनम् । निटानाचरणादेः फलस्य परस्मिन् समवेतत्वविवक्षाऽपि तत्र
चात्मनेपदमप्राप्तमित्यप्राप्तप्राप्तिफलक त्वेन विधित्वमेवास्य "विजितक्रोधरयाः जिगीषवः,
सुत्रस्योचितमित्याहुः, तत्र ब्रूम:- साक्षात्क्रियाजन्यफलस्य गरीयसीम् अदूषितायतिम् ।
क्रोधापगमस्य तज्जन्यस्य वा चित्तप्रसादस्य कत्तयैव सत्त्वेन फलनिष्पत्ति विगणय्य पौरुष
तेन हेतुना प्राप्तमात्मनेपदमपहाय परम्परया विवक्षितस्य 75 शिवमोपयिक नयन्ति ॥"
परगामिक्रियाफलत्वस्याश्रयणेन परस्मैपदप्राप्तिकल्पने मानाइत्यन्वयः। विजित: क्रोधस्य रयो वेगो यस्तादृशाः, भावः । तथा च यत्रदशं कर्म तत्र फलस्य कर्तृसमवायित्वं जिगीषवः- स्वशनभिभवितुमिच्छवो जनाः गरीयसीं- ध्रवमिति प्राप्तस्यैवात्मनेपदस्य विधायकत्वेन नियमार्थमेवेदं क्रियमाणोपायजन्यहान्यपेक्षयातिशयगुर्वी बहुश्रेष्ठामिति | सूत्रमिति वृत्त्युक्तं युक्तमेवेति ।। ३. २. ४०.॥
35
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[पा० ३, सू० ६०-७०
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशाप्सने तृतीयोऽध्यायः।
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उपेनोपसर्गेण अभिव्यज्यते- द्योत्यत इत्यर्थः तथा चापं विना | कर्मण्यसतीति कथनेन सर्वथा कर्माभाववत एवात्मनेपद- 40 तदर्थाभिव्यक्तयभावेन तदुपसृष्टस्यैवोदाहरणं युक्तमिति | विधानादस्य च पाक्षिककर्मण: सत्त्वात् कर्मात्यन्ताभावत्वं भावः । निहव इति किमिति- श इत्येव सूत्रमस्तु | नास्तीत्यदोषात् । केचित् स्वेतदर्थमत्र सूत्रे अस्मृताविति तावताऽपि शतमपजानीते इत्येतत्सिद्धी बाधकाभाव इत्यभि- | योगविभागं परिकल्प्य योगविभागसामर्थ्याच्च तत्र सम्प्रतेप्रायः प्रष्टुः । प्रत्युदाहरति-तत्त्वं जानातीति, अयमाशय:- रित्यस्यासम्बन्धेन, अस्मृतावित्यत्र अकारस्य निषेधार्थत्वेन च । निलवादन्यत्र परस्मैपदमेव प्रयुज्यते, अत्र निह्नवे इत्यस्या- स्मृतौ नेत्यर्थलाभात् केनापि सूत्रेण प्राप्तस्यात्मनेपदस्यानेन 45 भावे च फलवत्यफलवति च कर्तरि सर्ववात्मनेपदमेव निषेधः । यद्यपि अनन्तरस्य विधिर्वा भवति प्रतिषेधो स्यान्न कापि परस्मैपदमिति तदर्थं निह्नवे इत्युपादेयमे- वा * इति न्यायेनानन्तरसूत्रेण “सम्प्रतेः" इत्यनेन प्राप्तस्यैदेति ।। ३. ३. ६६.॥
वात्मनेपदस्यानेन निषेधो भविष्यति, "न तु व्यवहितेन ज्ञः"
[३.३.८२.] इति सूत्रेण प्राप्तस्येति शङ्कितुं शक्यते, तथापि संप्रतेरस्मृतौ ॥ ३. ३.६९. ।।
योगविभागसामर्थ्यादेव तन्न्यायस्येहाप्रवृत्तिरिति कल्पनेना- 50 त०प्र०- सं-प्रतिभ्यां पराजानातेरस्मृती वर्तमानात
दोषात् । स्मृत्यर्थविवक्षायां मातुर्मातरं वा जानातीत्यत्र कर्तर्यात्मनेपदं भवति । शतं संजानीते, अवेक्षते इत्यर्थः ।
"ज्ञोऽनुपसर्गात्" [ ३.३.६६.] इति प्राप्तस्यात्मनेपदस्थाप्यशतं प्रतिजानीते. शतेन संजानीते, अभ्युपगच्छतीत्यर्थः।
नेन योगेन बाध इति कर्तव्य एव योगविभाग इति तेषां अस्मृताविति किम् ? मातुः संजानाति, मातरं संजानाति,
मतम् । एतच्च स्वमतेऽपि स्वीकर्तुं शक्यते विरोधाभावात्। 15 स्मरतीत्यर्थः ॥ ६६॥
योगविभागाभावेऽपि यथाऽत्रात्मनेपदवारणं संभाव्यते तथो- 55 श०म० न्यासानुसन्धानम्- सं-प्रते०। ज्ञ इति- क्तमेव प्राक् ।। ३. ३. ६७. ।। सम्बध्यते । सम्प्रतेरिति समाहारनिर्देशे पुंस्त्वं सौत्रम् ।
अननोः सनः ।। ३. ३. ७०. ॥ अस्मृतावित्यत्र नपर्युदासार्थः समस्यमानस्य नत्रस्तदर्थ
त० प्र०-सन्नताजानाते: कर्तस्मिनेपदं भवति, कत्वनिर्णयात् । तथा च स्मृतिभिन्नेऽर्थे वर्तमानात् सम्प्रति
स चेदनोरुपसर्गात् परो न भवति । धर्म जिज्ञासते । अननो20 पूर्वकाज्ज्ञः कर्तर्यात्मनेपदं विधीयते । जानाते: संपूर्वकस्य
रिति किम् ? धर्ममनुजिज्ञासति । कयमोषधस्यानुजिज्ञासते ? 60 स्मरणेऽपि प्रयोगात् तत्राप्रवृत्त्यर्थमस्मृताविति पर्युदासः,
| अकर्मकात् "प्राग्वत्" [३. ३ ७४ ] तेन च सामान्येन स्मृत्यर्थे निषेधः, सा स्मृतिरुत्कण्ठापूर्विका |
इत्यनेन
भविष्यति ॥७॥ भवतु, सामान्येन वेत्यत्र नाग्रहः । अन्ये च उत्कण्ठापूर्वकस्मृतावेव निपेधमारभन्ते तन्न स्वसंमतम् । उदाहरति
श० म० न्यासानुसन्धानम्- अननो:० । ज्ञ 25 शतं संजानीते इति, प्रयोगार्थमाह- अवेक्षते इत्यर्थः । इत्यनुवर्तते, अननोरिति पर्युदासे अनुभिन्नादुपसर्गाद परत्वे ... इति-सम्यकप्रकारेण ज्ञानमेवावेक्षापदार्थः शतं प्रतिजानीते सत्येवात्मनेपदं स्यात, तथा च 'धर्म जिज्ञासते' इत्यत्र न 65
इति- शतमहं दास्यामीति स्वीकारोतीत्यर्थः । शतेन | स्यादिति प्रसज्यप्रतिषेधरीत्या पर्यंदासं वाक्यभेदेन संजानीते इति- "समो ज्ञोऽस्मृती वा" [२.२.५१. ] व्याख्याति- स चेदनोरुपसर्गात परो न भवतीति ।
इति स्मृत्यर्थादन्यत्र विकल्पेन तृतीयाविधानात् शतेनेति, उदाहरति-धर्म जिज्ञासते इति- सकर्मकत्वेन "ज्ञः" 30 तदभावे च शतं संजानीते इति द्वितीयान्तं कर्मोदाहृतमेव ।। [३.३.८२ ] इत्यनेनात्मनेपदाप्राप्तेः "प्राग्वत्" [३.
उभयत्र प्रतिज्ञार्थमेवाह- अभ्युपगच्छनीत्यर्थ इति ।। ३. ७४. ] इत्यनेनात्र न सिद्धिरिति सूत्रारम्भः । किञ्च 70 इत्यं संपूर्वकस्यावेक्षाभ्युपगमार्थे प्रयोग दृष्ट्वा स्मृत्यर्था- फलवति कर्तरि "ज्ञोऽनुपसर्गात् [३. ३.९६.] इत्यनेन संभावनया पृच्छति- अस्मृताविति किमिति । स्मृताबपि केवलादात्मनेपदस्य विहितत्वेन सन्नन्तात् "प्राग्वत्"
संपूर्वकस्य प्रयोगो दृश्यते तत्र मा भूदित्याह- मातुः [३.३ १६.1 इत्यनेनैव सिद्धिरिति 'धर्म जिज्ञासते' 35 संजानाति, मातरं संजानातीति- “स्मृत्यर्थदयेशः" | इत्यादिप्रयोगसिद्धौ इदं सूत्रमफलवदर्थम् । अननोरिति
[२.२.११.] इति विकल्पेन कर्मत्वे कर्मत्वाभावपक्षे | किमिति- सामान्येनैव सन्नन्ताज्ज्ञ आत्मनेपदं विधीयता- 75 "शेषे" [३.२.८१.] इति षष्ठी, सति कर्मत्वे द्वितीया । | मिति भावः । धर्ममनुजिज्ञासतीति- इह फलवत्यपि ननु कर्मत्वाभावपक्षे "ज्ञः" [३. ३. ८१.] इत्यात्मनेपदेन | कर्त्तयात्मनेपदं न भवति, सोपसर्गत्वेन "अनुपसर्गाज्ज्ञः" भाव्यमिति 'मातुः संजानीते' इति स्यादिति चेन्न- तत्र ३. ३.६६.] इत्यस्याप्राप्तः, प्रकृतसूत्रेऽनोनिषेधाभावे
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त्राप्यात्मनेपदं दृश्यते तत् कथं संगच्छत इत्याशङ्कते - कथमषस्यानुजिज्ञासते इति । उत्तरयति- अकर्मकात् "प्राग्वत्" इत्यनेन भविष्यतीति, अयमर्थ:- इह ज्ञाधातुरकर्मकः, तस्मात् केवलात् [सनूरहितात् ] "ज्ञः " [३३. 6 ६२. ] इत्यनेनात्मनेपदं विधीयत इति सन्नन्तावस्थायां " प्राग्वद" [ ३३.७४ ] इत्यनेनात्मनेपदं भवति, नानेन सूत्रेण, अनेन तु सकर्मकादेवात्मनेपदं विधीयते इत्यकर्म कात् प्राप्त्यभावेन तदंशे प्रतिषेधास्याप्यप्रवृत्तिः । ननु कथमिदं निश्चीयते यदनेन सूत्रेण सकर्मकादात्मनेपदं 10 विधीयत इति चेच्छ्रणु- अकर्मकात् सनः पूर्वं "ज्ञ." [ ३.३.
८२ ] इत्यनेनात्मनेपदविधानात् ततः "प्राग्वत्" [ ३.३७४.] इत्यनेन सन्नन्तावस्थायामात्मनेपदं सिद्धमेवेति परिशेषात् कर्मकादेवानेनात्मनेपदं विधीयत इति व्यवस्थितेः । यद्यपि " प्राग्वत्" इत्यनेनानेन चात्मनेपदविधाने विशेषाभाव15 स्तथापि "धर्ममनुजिज्ञासते" इत्यादावात्मनेपदाप्रवृत्यर्थमननोरित्यस्यावश्यकत्वेन 'औषधस्यानुजिज्ञासे' इत्यादावस्यप्रवृत्त्यभावात् तेनैवात्मनेपदं भवितुमर्हतीति विज्ञेयम् । एवमेव सर्पिषोऽनुजिज्ञासते' इत्यादावपि बोध्यम्
॥। ३.३७० ॥
footoसर्वज्ञश्री हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
"
श्रवोऽनाङ् - प्रतेः ॥ ३. ३. ७१. ।।
त० प्र०- सन्नन्ताच्छ्रणोतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, स -प्रतिभ्यामुपसर्गाम्यां परो न भवति । शुश्रूषते गुरून्, संशुश्रूष शब्दान् । अनाङ- प्रतेरिति किम् ? आशुश्रूषति, प्रतिशुश्रूषति । 'चंत्रं प्रति शुश्रूषते' इति प्रतिना सम्बन्धा62 भावात् प्रतिषेधो न भवति ॥ ७१ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम्- ध्रुवो० । अनाङप्ररितीह समस्यमानस्यापि नवो न पर्युदासार्थकत्वमपि तु प्रतिषेधार्थकत्वमेव लक्ष्यानुरोधात् पर्युदासाश्रयणं हि पर्युदासरय सहम्ग्राहितया प्रतिभिन्नात् परत्व एव 30 स्यान्न त्वनुपसर्गात् । तथा च निषेधपरत्वेनैव व्याख्याति -
स चेाङ प्रतिभ्यामुपसर्गाभ्यां परो न भवतीति । शुश्रूषते गुरून् इति- निरुपसर्गाच्छ्रणोतेः सन्नन्तादात्मने ।
[पा० ३, सू० ७०-७३]
अत्रानाप्रतेरिति निषिध्यमानोऽपि प्रतिना सम्बन्धः, 40 श्रुधातुसम्बन्धिना प्रतिना योगे एव प्रवर्तते निषेध इत्यव - गमयति, सत्येव सम्बन्धे तस्य श्रुधात्वर्थव्यञ्जकत्वात् तेन सह सामर्थ्यात् । तत्फलमाह- चैत्र प्रतिशुश्रूषते इति प्रतिना सम्बन्धाभावात् प्रतिषेधो न भवतीति, जयमाशय: - इहाङा साहचर्यादुपसर्ग एवं प्रतिगृह्यते 45 उपसर्गत्वं च यत्क्रियायुक्तः प्रतिस्त प्रत्येव इह च प्रतेन क्रियया योगोऽपि तु चैत्रेणेति क्रियायोगाभावादुपसगंत्वाभावे निषेधोऽपि तत्र न प्रवर्तत इति भवत्येवात्मनेपदमिति
॥। ३. ३.७१. ॥
स्मृ-दृशः ॥ ३.३. ७२. ॥
त०प्र०- स्मृ-हरिभ्यां सन्नन्ताभ्यां कर्तयत्मनेपदं भवति । सुरुमूर्षते पूर्ववृत्तम् विक्षते देवम् ॥७२॥
श०म० व्यासानुसन्धानम् - स्मृ० । स्पष्टम् ॥ ३०.
३ ७२. ॥
50
शको जिज्ञासायाम् ॥ ३.३.७३. ॥ त० प्र०- शकि: स्वप्रावादन्यधात्वर्थानुसंहितः प्रवर्तते - शक्नोति भोक्तुमन्यद् वेति ततो ज्ञानानुसंहितार्थात् समन्तात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । विद्याः शिक्षते, ज्ञातुं शक्नुयामितीच्छतीत्यर्थः । जिज्ञासायामिति किम् ? शक्तुमिच्छति- शिक्षति | "शिक्षि विद्योपादाने" इत्यनेनैव सिद्धे 60 आमनुप्रयोगार्थं वचनम्, तेन 'शिक्षांचक्रे ' इति भवति, न तु शिक्षांचकारेति । केचित् तु शके: सन्तस्यात्मनेपदमनिच्छन्तः शिक्षतेरेव जिज्ञासायामात्मनेपदमन्यत्र च परस्मपदमिच्छन्ति ।।७३||
55
श० म० न्यासानुसन्धानम् - शको० । सन 65 इत्यनुवर्त्तते, सन्नन्ते चेच्छार्थस्य प्राधान्यमिति प्रकृते शके: सन्नन्तस्य शक्तीच्छार्थ इति कथं जिज्ञासार्थवाचकत्वमिति वेदवाह - शक्तिः स्वभावादन्यधात्वर्थानुसंहितः प्रवर्ततेशक्नोति भोक्तुमन्यवद् वेति- शकधातुः शब्दशक्तिस्वभावाद् धात्वन्तरार्थसम्बद्ध एव स्वार्थ माह, यथा शक्नोति 70 भोक्तुमित्यत्र भुज्यर्थसम्बद्धमेव स्वार्थं कथयति, एवं शयितुं
पदम्, यथा निरुपसर्गाद् भवति तथा सोपसर्गादपि । शक्नोतीत्यादौ शयनार्थसम्बद्धम् । प्रकृते च जिज्ञासाविषयः
सामान्येन विधानात्, तदोदाहरति संशुश्रूषते शब्दान् शकिर्गृह्यते, ततश्व ज्ञानविशिष्टा ज्ञानविषयिणी शक्तिरिच्छा35 इति - शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् पूर्वत्र सेवितुमिच्छति, परत्र विषय इति परम्परया ज्ञानमपीच्छाविषयो भवतीति सम्यक् श्रोतुमिच्छतीत्यर्थः । पदकृत्यं पृच्छति- अनाङ- जिज्ञासा प्रतीयते, तत्र इच्छा सन्प्रत्ययार्थः, शक्ति: 75 प्रतेरिति किमिति- अविशेषेण सर्वत्रात्मनेपदमस्त्विति शक्यर्थः, तस्य ज्ञानविषयत्वमात्मनेपदद्योत्यम् । तदाहभाव: । आशुश्रूषति, प्रतिशुश्रूषतीति- ईदृशस्थले ज्ञानानुसंहितार्थात् सन्नन्तादिति - ज्ञानानुसंहितार्थाज्ज्ञानआत्मनेपदं नेष्टं तद्वारणायानाङ्क्तेरित्यावश्यकमिति भावः । | सम्बद्धार्थादित्यर्थः, एतच्च शकेविशेषणं न सनन्तस्य तस्यापि
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[पा० ३, सू०७३-७४]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
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शक्तिविशेषणत्वेन विशेषणसम्बन्धानहत्वात्। तथा च प्यात्मनेपदं "प्राग्वत्" [ ३. ३. ७४. ] इति सिद्ध मेवेति सन्नन्तस्य तद्विषयेच्छार्थत्वं सिद्धयति । उदाहरति- 'शिक्षते, शिक्षाञ्चक्रे' इत्यादीनां विनापि सूत्र सिद्धिरस्त्येव, विद्याः शिक्षते इति, विद्याविषयकज्ञानफलकशक्ति । तथापि जिज्ञासायामफलवत्यपि कर्तर्यात्मनेपदं यथा स्या
स्यादितीच्छतीति कारकप्रकृतिप्रत्ययसमुदायार्थ इत्याह- दित्येवमर्थ सूत्रस्यास्यावश्यकत्वमस्त्येव, अत एवारुचिसूचक5 ज्ञातं शक्नुयामितीच्छतीत्यर्थः इति- विद्या इति शेषः । स्तु शब्दः केचित् स्विति ॥ ३.३. ७३. ॥ जिज्ञासायामिति किमिति- शकेनियमतो धात्वन्तरार्थोपसंहितत्वेन ज्ञानार्थोपसंहितादपि स्यादेवेति जिज्ञासाया
प्राग्वत् ।। ३. ३. ७४.॥ मित्यनावश्यकमिति शङ्कार्थः । शक्तमिच्छति शिक्षतीति
त० प्र०- सनः प्राक पूर्वो यो धातुस्तस्मादिव अत्रापि पठितुमित्यादिपदाध्याहारः, तथा च क्रियान्तर- |
समन्तात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति, यत पूर्वस्य धातोरनुबन्धेनो10 विषयत्वेऽपि शक्तीच्छाया न जिज्ञासाविषयत्वमिति न
पपवेनार्थविशेषेण वात्मनेपदं दृष्टं तत् सन्नन्तावतिविश्यते। भवत्यात्मनेपदम्, जिज्ञासायामित्यस्याभावे च स्यादेव
अनुबन्धेन-शोह शेते, शियिषते; एधि- एधते, एविधिषते; 60 'शिक्षते' इत्यादिप्रयोगान्यथासिद्धिप्रदर्शनपूर्वकमस्य सूत्रस्य
लोलूयते, लोलूयिषते; श्येनायते, शिश्येनायिषते । उपपवेनसार्थक्यमाह- "शिक्षि विद्योपादाने" इत्येनेनैव सिढे नितिशते, नियिविक्षते; अश्वेन सचरते अश्वेन ससिचआमनुप्रयोगार्थ वचनमिति- "शिक्षि विद्योपादाने"
रिषते । अर्थविशेषेण-शानेऽस्य क्रमते बुद्धिः, चिकंसते। 15 इति धातुरिदित्त्वादात्मनेपदी, तस्मात् सर्वत्रात्मनेपदमेव |
सर्वग्रामसमेत उभयेन- आक्रमते चन्द्रः, आचिक्रसते। यत् पुनः सप्रत्ययभवति, सभाव्यते च तत्रापि जिज्ञासार्थप्रतीतिः जिज्ञासा
धातुनिमित्त तन्नातिविश्यते शिशित्सति, मुमूर्षति. अत्र हि 65 विना विद्योपादानासंभवात्, इति तमादायैव विद्या: शिक्षते'
न शदि-म्रियती एव निमित्ते, कि हि ? शिवाशोरद्यतन्योइत्यादिप्रयोगा यद्यपि सिध्यन्त्येव तथापि यत्र ततः सन्नन्तात्
ऽपि । अनुबन्धादिनिमित्तमपि यत् विशेषविधानव धया परोक्षायाम् आम् प्रयुज्यते तत्र कृगादिस्तत्पश्चादनुप्रयुज्यते,
प्रागन दृष्टं तन्नातिदिश्यते, यपा-अनुकरोति, अनुखिकोर्षति; 20 तत्रामोऽनुप्रयुज्यमानात् कृगोऽप्यात्मनेपदमेव यथा स्यान्न तु
पराकरोति, पराचिकर्षति । तिजादीनां स्वर्थविशेषेषु परस्मैपदमित्यर्थ वचनम्, यद्यैतन्न स्यात् तहि सन्नन्तादामि
केवलानामप्रयोगात् सन्नन्तसमुदायार्थमेव अनुबन्धविधानम्, 60 शिक्षांचकारेत्येव स्यात् “आमः कृगः” [ ३. ३. ७५. ]
तेन 'तितिक्षते, जुगुप्सते, मीमांसते' इत्यादौ प्रागदृष्टमइत्यत्र प्राग्वदित्यनुवृत्तेः केवलात् सन्नन्तात् परस्मैपदस्यैव
प्यात्मनेपदमनुबन्धसामर्थ्यात् भवति, यथा कुस्मि-चित्रकप्रयोगेणामनुप्रयुज्यमानात् कृगोऽपि तस्यैवौचित्यात् । तदाह
मही-हणीडामनुबन्धो णिच - क्यन्-यगन्तसमुदायार्थ:25 तेन 'शिक्षांचक्र' इति भवति, न तु शिक्षा चकरेति,
विकुस्मयते, चित्रीयते, महीयते, हणीयते । अवयवे वा कृतं तथा च शके: सन्नन्तस्य परोक्षायां 'शिक्षांचक्रे' इत्यादि
लिङ्ग समुदायस्य विशेषकं भवति यं समुदायं सोऽवयवो न 65 रूपसिद्धिः फलम्, “शिक्षि विद्योपादाने" इत्यस्य तु न
व्यभिचरति, यथा- गोः सक्थनि कर्णे वा कृत लिङ्ग-चिह्न तादृशं रूपं, ततः परोक्षायामामोऽभावात् अत्रैव मतान्तर
गोरेव विशेषकं भवति न गोमण्डलस्य, सन्नन्तं च समुदाय माह- केचित् तु शके: सन्नन्तस्यात्मनेपदमनिच्छन्त: तिजादयोऽर्थविशेषेषु म व्यभिचरन्ति जिगन्तं पुनर्व्यमि- . 30 इति-- "क्रीडोऽनुसपरिभ्यश्च" [ पासू० १.३.२१. ] इति
चरन्ति । ननु सन्नन्तमपि व्यभिचरन्ति-जयति, गोपायति. सूत्रे भाष्ये "शिक्षेजिज्ञासायाम्" इति वात्तिक दृश्यते,
मानयतीति; नवम्- अर्थविशेषेषु न व्यभिचार इत्युक्तत्वात् । 70 तव्याख्याने वृत्तिकृदादयः-- शिक्षि विद्योपादान इत्यस्यैव
वतिकटाय. शिक्षि विशोपाटात त्या “गप-तिजो गाँ-क्षान्तों" [३. ४. ६.] "शान-दान-मान्ग्रहणं न तु शके: सन्नन्तस्येत्याहुः, ततश्च आत्मनेपदस्य |
बघानिशानाऽर्जव-विचार-वरूप्ये" [ ३. ४. ६.] इति हि स्वत: सिद्धत्वेन विधानवंयर्यमिति नियमार्थत्वं वर्णयन्ति--
| वक्ष्यत इति ॥ ७४ ॥ 35 शिक्षतेजिज्ञासायामेवात्मनेपदमन्यत्र न परस्मैपदमिति । | श०म० न्यासानुसन्धानम्-प्राग्वत् । प्राचस्तुल्यं
कंपटादिभिस्तु शके: सन्नन्तस्यवेह ग्रहणं निर्णीतम्, तद्ग्रहणे | प्राग्वत् । 'सनः' इत्यनुवर्तते, तच्च तन्त्रेणोभयथा 75 *सूत्रस्य विध्यर्थत्वात् विधि-नियमसम्भवे विधिरेव ज्यायान् | सम्बध्यते- प्राशब्देनात्मनेपदेन च, तत्र प्राक्शब्देन इति यायात, स्वमतेऽपि तदेव विचार्य शके: सन्नन्ताद् | सम्बन्धकाले सन इति पञ्चमी प्राकशब्दयोगे, आत्मनेपदेन
विधानमेव कृत, तदीयफलान्तरं च पूर्वमुक्तमेव । यद्यपि सम्बन्धे च परशब्दयोगे प्रत्ययरूपस्यात्मनेपदस्य परत्वेन 40 फलवत्कर्तरि शकेरप्यात्मनेपदं भवतीति तस्मात् सन्नन्ताद- | विधानात्, तथा च सूत्रं व्याख्याति- सनः प्राक् पूर्वो यो
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा०३, सू०७४ ]
धातुस्तस्मादिवेति, यद्यपि पञ्चम्यन्तादेव वतिप्रत्यय इति ! निविविक्षते इति-"निविशः" [३.३.२४.] इति न्यूपसर्गाद न नियम: "स्यादिरिवे" [७. १. ५२. ] इति सूत्रेण विशः कर्तर्यात्मनेपदं विधीयत इति सम्मन्तादपि तद् भवति । स्यादिसामान्यान्ताद् विधानात् तथापि निविशेषं न अश्वन सचरते, अश्वेन संचिचरिषते इति- "सम
सामान्यमिति युक्त्या सामान्यस्य विशेष एव पर्यवसानात् । स्तृतीयया" [ ३.३.३२. ] इति तृतीयान्तेन युक्तात् सम्5 मत्र प्रत्ययविधौ धातोः पञ्चम्यन्ततैवेति तादृशार्थमनुरुध्य पूर्वाञ्चरतेरात्मनेपदं कर्तरि विधीयत इति तथाभूतात् 45 तस्मादिवेति पञ्चम्यन्ततयोपमानस्य ग्रहणम् । ननु एकमेव | सन्नन्तादपि भवत्यात्मनेपदम् । तृतीयमात्मनेपदनिमित्तमुदा'सनः' इति पद द्विधा सम्बध्यतां किमर्थमावृत्ति: स्वीक्रियत | हरति । अर्थविशेषेणेति प्रकृत्य अर्थविशेष निमित्तीकृत्य . इति चेन्न? शब्द-बुद्धि-कर्मणां विरम्य व्यापाराभाव इति | यस्माद् धातोरात्मनेपदं विधीयते तस्मात् सन्नन्तादप्यने
न्यायेन प्राकशब्दसम्बन्धे सति पूनस्तस्यात्मनेपदेन सम्बन्धा- नात्मनेपदं भवति, यथा-शाखेऽस्य क्रमते बुद्धिः,चिकंसते 10 भावात्, आवृत्तौ स्वीकृतायां तु भवति तथा सम्बन्ध इति- "वृत्ति-सर्ग-तायने [३.३.४८.] इति सूत्रेण वृत्त्या-50
इत्याशयात् । सन्प्रकृतिभूता धातवो बहुविधा:- केचनानु- द्यर्थनिमित्तमात्मनेपदं क्रमे विधीयत इति शास्त्रेऽस्य क्रमते बन्धनिमित्तात्मनपदिन:, केचनोपपदनिमित्तात्मनेपदिन:, बुद्धिरित्यत्र वृत्त्यर्थे आत्मनेपदम्, ततः सन्नन्तादपि तद् केचन व प्रत्ययविशेषनिमित्तात्मनेपदिन:, तेषु सर्वेषामिह भवति- चिक्रसते इति, अत्राऽपि शास्त्रेऽस्य बृद्धिरिति
ग्रहणमुत नेत्याशङ्कायां स्पष्टयति- यत तोरनु- सम्बध्यत एव तथैव सति वृत्त्यर्थप्रतीते: । उभयेनेति-- 15 बन्धेनोपपदेनार्थविशेषेण वाऽऽत्मनेपदं दृष्टं तत् | उपपदेन, अर्थविशेषेण चेति द्वयेन निमितेन यस्मादात्मनेपदं 55
सन्नन्तादतिदिश्यते इति, अयमाशयः- पूर्वत्र चत्वारो | विधीयते तस्मात् सन्नन्तादप्यात्मनेपदं भवति, तदुदाह्रियत हेतव आत्मनेपदस्योक्ताः, अनुबन्ध उपपदमर्थ विशेषः | इति भावः । आक्रमते चन्द्रः, आचिक्रसते इति- "आङो प्रत्यय विशेषश्च, तत्र त्रयाणामाद्यानो सन्प्रकृतिभूतधातु- ज्योतिरुद्गमे" [३.३.५२.] इति सूत्रेणापर्वात् क्रमेश्चन्द्रादि
गतत्वमेवेति तन्निमित्तकात्मनेपदिन एव सन्नन्तादात्मनेपद- | ज्योतिरुद्रमार्थादात्मनेपदं विधीयत इति तादृशात् सन्नन्ता20 मिहातिदिश्यते, न तु प्रत्ययविशेषनिमित्तात्मनेपदिनः | दपि भवत्यनेनात्मनेपदम्. इह चाङ् उपसर्ग उपपदं, ज्योति- 60
प्रत्ययस्य बहिर्भूतत्वेन सन्प्रकृतिगतत्वाभावात्, एतच्चाग्रे | रुद्रमोऽर्थश्चात्मनेपदनिमित्तमित्युभयनिमित्तकोदाहरणमिदम् । ... विशदयिष्यते । तत्र क्रमश उदाहर्तुमवतारयति- अनु- अथ चतुर्थमात्मनेपदनिमित्तमुपादाय यस्मादात्मनेपदं भवति बन्धेनेति- अनुबन्धनिमित्तात्मनेपदिनः सन्नन्तादात्मनेपद- तस्मात् सन्नन्तानानेनात्मनेपदं विधीयत इत्याह- यत् पुनः
मुदाहियत इत्यर्थः। शोर-शेते, शिशयिषते इति- | सप्रत्ययधातूनिमित्तं तन्नातिदिश्यते इति- यदात्मनेपदं 25 शीडो हित्त्वेन “इङित: कर्तरि" [३.३.२२.] इत्यात्मने दे प्रत्ययविशेषप्रकृतिभूतधातुनिमित्तक भवति, तदात्मनेपदमनेन 65
'शेते' इति रूपं भवतीति तस्मात् सन्नन्तादप्यात्मनेपदे | सूत्रेण नातिदिश्यत इत्यर्थः । अयमत्र निष्कर्षः-- यत्र सप्रत्ययो सति 'शिशयिषते' इति रूपमिति भावः । एधि- एधते, धातुनिमित्तत्वेनाश्रीयते तत्र सन्नन्तस्थले तथाविधधातोएदिधिषते इति- एधधातुरिदिद, तस्मात् कर्तरि | रभावेन नास्ति तत आत्मनेपदप्राप्तिरिति । "पूर्ववत् सनः"
पूर्वसूत्रेणात्मनेपदं विधीयत इति तस्मात् सन्नन्तादप्यात्मनेपदे [पा० सू० १.३.६२. ] इति सूत्रे भाष्ये शदिम्रियतिभ्यां 30 'एदिधिषते' इति रूपम् । लोलुयते, लोलयिषते इति- | सन्नन्ताभ्यामात्मनेपदवारणार्थ बहुधोपाय प्रदर्य, सर्वत्र च 70
'लोलूयते' यङन्तम्, यो ङित्त्वेन तदन्तस्य ङित्वनि बन्धन- ! कनिदोषमुद्धाव्यान्ते, सिद्धान्तितं यन्- सामरयाः कारणत्वं मेवात्मनेपदित्वमिति यङन्तात् सनि सति तदन्तादप्यने- म केवलस्य शदेम्रियतेर्वा, सा च सामग्री सन्नन्तस्थले नास्ति, नात्मनेपदम् । श्येनायते, शिश्येनायिषते इति- श्येन शित्परस्य शदेरद्यतन्याशीः शित्परस्य म्रियतेर्वा सना
इवाचरतीत्यर्थे "क्यङ" | ३. ४. २६.1 इति क्यङ, | व्यवधानात् । यद्यपि "शदे: शिति" ३. ३. ४१. ] 35 तस्यापि ङित्त्वेन तदन्तात् कर्तर्यात्मनेपदम्, ततः सनि "म्रियतेरद्यतन्याशिषि" ३ ३.४२.1 इति सूत्रयो: सप्तमी- 75
तदन्तादनेनात्मनेपदम् । इत्थमनुबन्धनिमित्तात्मनेपदिन | विषयत्वार्थतया व्याख्याता-शिद्विषयात् शदेः, अद्यतन्याशी: उदाहृत्योपपदनिमित्तात्मनेपदिन उदाहर्तुमवतारयति- उप-शिद्विषयाच म्रियतेरित्येवरूपेणेति शितः, अद्यतन्याशिषोश्च पदेनेति- उपपदनिमित्तात्मनेपदिनः समन्तादात्मनेपदमुदा- न परत्वेन निमित्तताऽऽश्रितेति मध्ये सना व्यवधानेऽपि
हियत इत्यर्थः, उप समीपे उच्चारितं पदमुपपदम् तच्चोप-शिद्विषयताऽद्यतन्याशीविषयता चाऽस्त्येवेति सामग्रीसद्भाव 40 सगरूप तृतीयान्तादि पदं च । क्रमेणोदाहरति-- निविशते । एव, न तु तद्वंकल्यमित्याङ्कितुं शक्यते, तथापि सन्नन्त-80
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[पा०३, ०७४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
२२६
स्थले न सनः पूर्वस्य धातोः शिद्विषयताऽद्य तन्याशीविषयता केवलेषु तेषु न चारितार्थ्य मिति सन्नन्तेभ्योऽपि तेभ्य बाऽस्तीति सामग्रीवैकल्यमेवेति मात्मनेपदस्य प्राप्तिरिति आत्मनेपदं यथा स्यादित्येषमर्थमेवानुबन्धकरणमिति विज्ञेयबोध्यम् । किञ्च विषयत्ववर्णनेऽपि शिदद्यन्याशिषां निमित्त-मित्यर्थः । तत्फलं दर्शयति-तेन "तितक्षते, जुगुप्सते,
त्वं न व्याहन्यते इति न केवलं सनः प्राग्विद्यमानस्य | मोमांसते' इत्यावौ प्राममपि आत्मनेपदमनुबन्ध- .. 6 धातोस्तद्रतस्यार्थस्य वाऽऽत्मनेपदनिमित्तत्वमिति नास्ति सन्न- सामाद भवतीति, अयमाशयः- 'तिजि क्षमा-निशानयोः” 45 न्तादात्मनेपदप्राप्तिरितिपरस्मैपदमेवोदाहरति-शिशत्सति, गपि कोपन-कूत्सनयोः" “मानि पूजायाम्" इत्येवंरूपेणेममर्षति इति, अत्र यथा नात्मनेपदप्राप्तिस्तथोपदिशति-दितो धातवः पठिता तेभ्यश्च "गुप-तिजो गह-क्षान्तो" अत्र हि न शदि-म्रियती एव निमित्ते, किं तर्हि | [ ३.४.६. ] "शान-दान-मान्" [ ३.४.७. ] इति सूत्रा
शिवाशीरद्यतन्योऽपीति-हि- यतोऽत्र केवलं शदि भ्रियती भ्यामर्थविशेषेषु- गह:-क्षान्ति-विचारादिषु स्वार्थे सन् नित्यं 10 सनः प्राग्विद्यमानौ धातू एव आत्मनेपदस्य न निमित्तं, | विधीयत इति तेषां केवलानामुक्तेष्वर्थेषु प्रयोगो न भवतीति 50
कि तहि तस्य निमित्तमिति चेच्छणु-- शिदाशीरद्यतन्योऽपि | तेषु कृतोऽनुबन्धो व्यर्थः स्यादित्यनुबन्धकरणसामर्थ्यात् सन: यथायोग निमित्तानि, शदेरात्मनेपदविधाने केवलं शिन्नि- | प्रागभूतेभ्यस्तेभ्य आत्मनेपदाभावेऽपि सचन्तादप्यात्मनेपदमित्त, म्रियतेश्चात्मनेपदविधाने शिदाशीरद्यतन्य इति मनुबन्धनिमित्तकमेव भवति, न तु तत्र प्रकृतसूत्रस्य विषयः,
तदर्थः। पूर्वोक्तेऽनुबन्धनिमित्तकात्मनेपदेऽपि विशेष वक्ति- ] तथा च 'तिजे स्तितिक्षते, गुपेणुगुप्सते, मानेर्मीमांसते' इत्येवं15 अनुबन्धादिनिमित्तमपि यद् विशेषविधानाधया रूपाणि भवन्तीति । अमुमयं दृष्टान्तेन साधयति- यथा- 65
प्राग् न दृष्ट तन्नातिदिश्यते इति- अनुबन्धः, आदिपदेन कुस्मि-चित्रक-महीङ-हणीङामनुबन्धो णिच-क्यङ्गन्धनाद्यर्थविशेषः, तन्निमित्तमपि यदात्मनेपद विशेषविधानेन | यगन्तसमुदायार्थः इति अयमर्थ:-- यथा कुस्मिाराद "परानोः कृगः" [३.३.१०१.] इत्यादिपरस्मैपदविधायक. | चुरादिषु पठ्यते, तत: स्वार्थे णिज भवतीति केवलस
सत्रेण परत्वाद् बाधया, प्राक-सनः पूर्वं न दृष्टं, तत् प्रयोग इति तदीयानुबन्धो णिजन्तादात्मनेपदविधानार्थः, 20 सन्नन्ते नातिदिश्यत इत्यर्थः । तथाहि- कृगधातुमित्, ततः | चित्र धातु: सौत्र: "नमो-वरिवचित्रकोऽर्धा-सेबा-55श्चर्ये" 60
ईगित:" [ ३.३.७५. ] इति फलवत्कर्तरि यदात्मनेपदं | [ ३.४.३७. ] इति सूत्रे क्यन् प्रत्ययविधानार्थ पठ्यत इति विधीयते तत् अनुबन्धनिमित्तम्, यञ्च तत एव [ कृग एव]| केवलस्य तस्याप्रयोग इति क्यनन्तादेव तस्मादात्मनेपदगन्धनाद्यर्थेषु "गन्धनावक्षेपसेवा." [ ३. ३. ७६.1 इति | विधानार्थ डिस्वमिति फलतीति क्यनन्तादात्मनेपदं भवति,
सत्रेण गन्धनाद्यर्थविशेषनिमित्तमात्मनेपदं विधीयते तदुभयः | एवं मही-हृीडो कण्ड्वादिषु पठ्य ते, कण्ड्वादयश्च "धातो: 25 मपि तस्य “परानोः कृगः" [३. ३. १०१.] इति सूत्रेण | कण्डवार्यक" [ ३.४.६. ] इति सूत्रेण स्वार्थे यगन्ता एव 65
परत्वाद् बाध्यत इत्यनुपरापूर्वकात् कृगः सन्नन्तादपि न | साधुत्वेनान्वाख्यायन्त इति तेषां केवलानामप्रयोग इति भवति, तादृशसन्नन्तप्रकृतिभूतधातोस्तस्या[आत्मनेपदस्या-], यगन्तेभ्य एव तेभ्य आत्मनेपदविधानार्थमनुबन्धकरणमिति दर्शनात, इति तत्र परस्मैपदमेव भवतीत्याह- यथा- सर्वे: स्वीक्रियते; तथा तिजादीनामप्यनबन्धकरणमर्थ विशेष
अनुकरोति, अनुचिकीर्षति; पराकरोति, पराचिकी- तेषां नित्यसन्नन्ततया केवलेऽचरितार्थमिति सन्नन्तादात्मने30 घंति इति ।
पदविधानार्थ भविष्यति । कुस्म्यादीनामनुबन्धकरणसामर्थ्या- 70 है अथेत्थमाशङ्कयते- यदि सनः प्राग्विद्यमानाद् धातो-णिगाद्यन्ते आत्मनेपदमुदाहरति-विस्मयते, चित्रीयते,
रात्मनेपदं दृष्टं तहि सन्नन्तादप्यात्मनेपदं भवति, ततश्चेन्न | महीयते, हणीयते इति- एषु प्रथमें णिगन्ताद् द्वितीये दृष्ट तत् तहि सन्नन्तादपि न भवतीत्येव, प्रकृतसूत्रविषयश्चेत्? | क्यन्नन्तात् तृतीय चतुर्थयोश्च यगन्तात् समुदायादनुबन्धकरण
गुप्-तिज्-शान-दान्-मान्-बधातुभ्य: सन्नन्तेभ्य आत्मनेपदं | सामदेिवात्मनेपदं प्रयुज्यत इति भावः । अवार्थे समा- . 35 न स्यात् सनः प्राग विद्यमानेभ्य एभ्यो धातुरूपेभ्य आत्मने- धानान्तरमाह- अवयवे वा कृतं लिड समदायस्य 75
पदादर्शनादिति, अत्राह- तिजादीनां त्वविशेषेष विशेषकं भवतीत्यादि- अवयवे-णिजन्त-कुस्म्यादि-सन्नन्तकेवलानामप्रयोगात् सन्नन्तसमुदायार्थमेवानुबन्ध-तिजादिसमुदायावयवभूते कुस्मितिज्यादौ कृतमारब्धं लिङ्गविधानमित्यादि, तिजादय:-तिज-गुप्-शान्-दान-मान्-बधः, मनुबन्धादि समुदायस्य णिगन्त-सन्नन्तादेविशेषकं मत्तत्कार्यो
एषामर्थविशेषेषु-क्षान्ति-गर्दा-निशान-ऽऽजंक-विचार-वैरूप्येषु पयोगि व्यावत्र्तकं भवति, इति तस्य समुदायस्य तन्निमित्तक 40 नित्यसन्नन्ततया केवलानां प्रयोगाभाव इति अनुबन्धानां | कार्य भवति, किमविशेषेण ? सर्वत्र तल्लिङ्गं समुदायस्य 80
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२३०
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा० ३, सू०७५ ]
क्ष
विशेषकं भवतीत्याशङ्कायां संकोचमाह
यते इति- यत एवमर्थविशेषे तेषां सन्नत्तता सोऽवयवो न व्यभिचरतीति- येन समुदायेन सहानू- वक्ष्यतेऽतस्तत्र तत्रव व्यभिचाराभावोऽस्मदभिप्रेत इति
बन्धविशिष्टस्यावयवस्य न कदापि व्यभिचारस्तस्यैव समू- भावः।। ३.३.७४.॥ 5 दायस्य सोऽवयवो भवतीति तस्य लिलमपि तादृशसमुदायस्यैव विशेषकं भवति, न व्यभिचरितस्य समुदायस्य ।
आमः कृतः ।।१.6.७५. ॥ उक्तमर्थ दृष्टान्तेन दृढयति-यथा मोः सकथनि कर्णे वा त०प्र०-- आमः परादनुप्रयुज्यमानात् करोतेराम 45 कृतं चिह्न गोरेव विशेषकं भवति, न गोमण्डलस्येति- | एव प्राप् यो धातुस्तस्मादिव कर्तर्यात्मनेपदं भवति । भवति कस्यापि अवयवसमूहरूपस्य गोशरीरस्यावयवभूते सक्थनि
न भवति बेतिविधि-प्रतिषेधावतिदिश्येते, यथा-उशीग्बन्मद्वेषु 10 कर्णे वा विहितं स्वाम्यादिविशेषपरिचायकं स्वस्तिकादि
यवाः, सन्ति न सन्तीति । 'ईहांचके, ईक्षांचक्रे' इत्यफलचिह्न तस्यैव गोविशेषकं यदीयाव्यभिचरितेऽवयवे कृतं, न
वत्यपि भवति, विभयांचकार, जागरांचकार' इति फलवत्यपि तु गोसमूहस्य तत्रत्यगवान्तरे तदवयवव्यभिचारात् । प्रकृते
न भवति । यत्र तु पूर्वस्मादुमयं तत्र फलवत्यफलवति 50 निगमयति- सन्नन्तं च समवायं तिजादयोऽर्थविशेषेष
चोभयं मवति- विभरचक्रे. विमरांचकार; पाचयांचक्रे, न व्यभिचरन्ति, जिगन्तं पूनयभिचरन्तोति,
पाचयांचकार । कृग इति किम् ? करोतेरेव यया स्याविह 15 अयमाशय:- अनुबन्धरूपलिङ्गवन्तस्तिजादयः क्षान्त्याद्यर्थ- | मा मूत्-ईक्षामास, ईक्षाबमूव ।। ७५ ॥ विशेषेषु तितिक्षेत्यादिसन्नन्तरूपसमुदायं न व्यभिचरन्ति
श०म० न्यासानुसन्धानम्- आमः। आमः तेष्यर्थेषु तेषां सन्प्रत्ययं विना प्रयुज्यमानत्वाभावात्, इति | इति परोक्षाया विधीयमानः प्रत्ययो गृह्यते कृग: साग्नि-55 तद्विशेषकस्तदीयोऽनुबन्ध इति युक्तं, णिगन्तं समुदायं तु
ध्यात, नहि स्यादिप्रत्ययान्तर्गतस्याम: कृगः सान्निध्यमस्ति । व्यभिचरन्त्येव णिगं विनापि तेषां प्रयुज्यमानत्वादिप्ति प्राग्वदिति च सम्बध्यते, प्राक्त्वं चामोऽपेक्षया, कृपा 20 तदीयोऽनुबन्धो णिगन्तस्य विशेषको न भवतीति ततो न सहाम्प्रकृतीनां पूर्वापरीभावायोगात्, आमा व्यवधानादि
तदनुबन्धनिमित्तकमात्मनेपदं भवति । सन्नन्तसमुदायव्यभि- त्येतत् सर्वमभिप्रेत्याह- आमः परावनुप्रयुज्यमानात् । चारोऽपि तिजादीनां दृष्ट इति शङ्कासमुत्थापनेन पूर्वग्रन्थे
हात शङ्कासमुत्थापनन पूर्वग्रन्थ करोतेराम एव प्रारा योधातस्तस्मादिव कर्तर्यात्मनेपदं 60 समुपात्तस्यार्थविशेषेष्विति पदस्य सार्थक्यमाह-ननु सन्न-भवतीति । अतिदेशस्थले क्वचिद् भावाऽभावयोरुभयोरति
न्तमपि व्यभिचरन्तीत्यादिना, अयमाशय:- यत् त्वया देशो भवति साहशस्य वैधर्म्य-साधर्योभयमूलकत्वात्, 25 सनन्तसमुदायाव्यभिचारस्तिजादीनामुक्तः स त्वदुक्त्यैव
तदाह- भवति न भवति चेति विधि-प्रतिवेवावतिव्याहतो यतस्त्वमेवोक्तवानसि-णिगन्तं पुनर्व्यभिचरन्तीति, वियते इति-यदि आमप्रकृतिभूताद् धातोरात्मनेपदं भवति अनेन हि कथनेन तेषां णिगन्तता स्वीकृतेति णिगन्तावस्थायां तदा ततोऽनप्रयुज्यमानात् करोतेरप्यात्मनेपदं भवति, यदि 65 सन्नन्तव्यभिचारः स्पष्टमेव स्वीकृत इति कथमुच्यते-चामप्रकृतेरात्मनेपदं न भवति तदाऽनुप्रयुज्यमानात् कृगोऽपि
सन्नन्तं च समुदाय न व्यभिचरन्तीति । मदीयवाक्यार्थः ! तन्न भवतीति फलितोऽर्थः । अतिदेशस्थले भावाभावयो. 30 सर्वाशन त्वया नावधारित इति मनसिकृत्याह-नैमिति
रूभयोः प्रतीतो दृष्टान्तमाह- यथा- उशीरवन्मद्वेष '. त्वयोक्तं सन्नन्तमपि व्यभिचरति णिगन्तावस्थायां तेजयती
यवाः, सन्ति न सन्तीति, अयमर्थः- उशीरवन्मनेषु यवा त्यादौ तन्नास्माकं प्रतिकूल्येन सन्नन्तव्यभिचारसाधकं कुत
इतिकथिते यदि उशीरदेशे यवाः सन्तीति प्रसिद्धिर्भवति तहि 70 इति चेदवाह-अर्थविशेषेषुन व्यभिचार इत्युक्तस्वादिति,
मद्रेष्वपि तदीयसत्ता प्रतीयते, याशीरेषु यवा न सन्तीति अयमाशयः- क्षान्त्यादावर्थे तिजादयः सन्नन्ततां न व्यभि35 चरन्तीति मयोक्तम्, तेजयतीत्यादयो णिगन्ता: प्रयोगास्तु
प्रसिद्धिस्तदा मद्रेष्वपि ते न सन्तीत्येव प्रतीयते। उक्तं च "पूर्ववत् निशानकोपनादावर्थे भवन्तीति तत्र सन्नन्तताया व्यभिचारे
सनः" पासू० १.३. ६२.] इति सूत्रे भाष्येऽपि "धतिऽप्यस्मदुक्तो व्याघाताभावः, तथा च तदर्थेऽनुबन्धः सन्नन्त
निर्देशोऽयं, कामचारश्च वतिनिर्देशे बाक्यशेष समर्थयितुम् । समुदायविशेषकः स्यादेवेति 1 कुत्रार्थे न व्यभिचार इति । तद्यथा- उशीरवन्मद्रेषु यवाः सन्ति न सन्तीति, मातृवदस्याः 75 वक्ष्यमाणसूत्रोपन्यासपुरःसरं प्रकृतविचार समापयति- कलाः सन्ति न सन्तीति। एवमिहापिपूर्ववद् भवति न भवतीति"
"गुप-तिजो गह:-क्षान्ती" [३.४.६.] "शान-दान- इति । इत्येवमतिदेशस्थले भावाऽभावयोरुभयोरतिदेशं 40 मान-बधानिशानाऽर्जव-विचार-वरूप्ये" [३.४.७. ] | समर्थ्य तथोदाहरति- ईहांचके, ईक्षांचके इत्यफलवत्यपि
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[ पा० ३, सू० ७६ ]
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भवतीति, अयमाशय:- कृग्धातुत्,ि तस्मात् फलवत्कर्त्तरि ईगल [ ३. ३. ५. ] इत्यात्मनेपदम्, अफलवति च " शेषात् परस्मै " [ ३.३.१०० ] इति परस्मैपदं सिद्धमेव, तत्रानेनात्मनेपदप्रकृतिकामः परात् कृग आमने5 पदस्य विशिष्य विधानेन फलवत्यपि कर्त्तरि तदेव भवति न परस्मैपदम् । इत्थं च ईह - ईक्षधातू इदित्त्वादात्मनेपदिनौ, ततः परादामः परात् कृगोऽपि भवत्यात्यनेपदम्, उपमानभूताभ्यामीहीक्षिभ्यां तद्दर्शनात् । बिभयांचकार, जागरां चकार' इति फलवत्यपि न भवतीति, अयमाशय:10 बिभेतिर्जागर्तिश्च परस्मैपदिनों, ततश्वात्मनेपदं न दृष्टमिति तत्प्रकृतिकामः परात् कृगोऽपि न भवत्यात्मनेपदं यदि फलवानपि कर्ता भवति । इत्थं च क्रमशो भावाभावावतिदेशस्वभावलब्धौ पार्थक्येन दर्शयित्वा चिचोभयपदिनः परादामः परात् कृगोऽप्युभयपदं भवतीत्याह यत्र तु 15 पूर्वस्मादुभयं तत्र फलवत्यफलदति चोभयं भवति, अयमर्थः - इदं सूत्रं सामान्येनाम् प्रकृतिभूताद् यद् यथा दृष्टं तत् तथैव विधत्त इति नास्ति नियमः, यत उभयपदिनो धातोः फलवति कर्त्तर्यात्मनेपदस्याफलवति परस्मैपदस्य स्वतः सिद्धत्वेनोभयपदि-आम्प्रकृतिवत् ततः परस्य कृगोऽप्यु20 भयपदित्वात् तेन रूपेण [ फलवदफलवत्कर्तृनिमित्तेन ] उभयपदसिद्धेः स्वाभाविकत्वात्, किन्तु फलवानफलवान् वा कर्त्ता भवतु किन्त्वा प्रकृतिभूतधातुवत् आत्मनेपदं फलवत्त्वादिनिरपेक्षं भवतीति विधते परिशेषात् परस्मैपदमपि चेदाम्प्रकृतेर्दृष्टं तर्हि तदव्य फलवत्कर्तृ निरपेक्षं प्रवर्तत 25 इत्युभयमुभयथा भवतीति । क्वेत्याह- बिभरांचक्रे, बिभरां
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चकार; पाचयांचक्रे, पाचयांचकारेति इह विभर्तेः पचतेश्र्चोभयपदित्वेन तत्प्रकृतिकामः परात् कृगोऽप्युभय भवति फलवदफलवत्कर्तृ निरपेक्षमिति भावः । कृग इति किमितिमामः इत्येतावदेव सूत्रमस्तु तावताप्यामः परात् कृगः 30 प्राग्वदात्मनेपदं सेत्स्यत्येवेति प्रश्नाशयः । तावता सूत्रेणा व्याप्तिर्मा भूदतिव्याप्तिस्तु स्यादित्याह - ईहामास, ईक्षांबभूवेति । अयमाशय: - आम: परोऽनुप्रयुज्यमानः कृगेव यदि स्यात् तदा नासीत् कृगो, ग्रहणस्य प्रयोजनं, किन्तु वातो रनेकस्वरादाम् परोक्षायाः कृभ्वस्ति चानु तदन्तम् 35 [ ३. ४. ४६. ] इत्यादिसूत्रः कृग्वत् स्वस्ती अध्यनुप्रयुज्येते इति तावप्यामः पराविति ताभ्यामप्यात्मनेपदमेव स्यादिष्यते तु परस्मैपदमेवेति ईहामास, ईक्षांबभूवेत्याद्यात्मनेपदिधातुप्रकृतिकामः पराभ्यां स्वस्तिभ्यामात्मनेपदवारणार्थ कृगो ग्रहणमावश्यकमिति ॥। ३. ३. ७५ ॥
श०म० न्यासानुसन्धानम्- गन्धना० । कृग इत्यनुवर्त्तते । गन्धनादयोऽर्थाः क्वचित् साक्षात् कृगो वाच्याः afree प्रयोगोपाधयः एतच्च तत्र तत्रार्थविशेषव्याख्यान काले स्फुटी भविष्यति । सामान्येन सूत्रार्थमाह- गन्धनादिष्वर्थेषु 60 वर्तमानादिति । प्रत्येकमर्थान् व्याख्याति- गन्धनं द्रोहाभिप्रायेण परदोषोद्घाटनमिति - परदोषोद्घाटनं द्विधा संभाव्यते - परस्य सन्मार्गोपदेशाय तदीयदोषानुद्घाट्य तत्परिहारप्रदर्शनाय, तदीयापकाराय च, तह द्वितीयाकोटिग्रहीतुमभिलषितेत्याह- द्रोहाभिप्रायेणेति, परम्य - शत्रोरुदासी - 65 नस्य वा कस्यचिद् द्रोहं कर्तुं दोषाणामुद्घाटनमाविष्करणमित्यर्थः मतान्तरमाह प्रोत्साहनादिकमन्ये इति अत्रापि द्रोहाभिप्रायेणेति योजनीयमेव, अभ्यथाऽत्यन्तभेदापत्तेः । भट्टोजिदीक्षितेन च गन्धनं हिंसेत्युक्तम्, परद्रोहेण हि तदीयदोषसूचने तदीयहसैव फलतीति नाधिको भेदः । तत्र 70 परदोषोद्घाटनं स्वतोऽत्र घात्वर्थः, हिंसा तु विषयविधयेति भेद: । उदाहरति- उत्कुरुते, उदाकुरुते, अध्याकुरुते इति- 'उत्, उत् आङ् अधि आङ् इत्येवमेकोपसर्गाद् द्वय पसर्गाद् वा कृग आत्मनेपदम्, सर्वत्र मामिति कर्म कथयतीत्यर्थः, मां जिघांसुमापकर्त्रे मदीयदोषान् प्रकटयोज्यमेव । प्रयोगत्रयसामान्यमर्थमाह- जिघांसुरपकर्त्रे 75 यतीत्यर्थं इति भावः । द्वितीयमर्थं व्याख्याति - अवक्षेपणम्अवक्षेपः इति- अवपूर्वात् क्षिपेर्भावे घञ् । अर्थमाह
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृत्तीयोऽध्यायः ।
46
२३१
गन्धनाऽवक्षेप सेवा-साहस प्रतियत्र प्रकथनोपयोगे 40
॥ ३ ३ ७६ ॥
त० प्र०- गन्धनादिष्वर्थेषु वर्तमानात् करोदेः कर्तात्मनेपद भवति । गन्धनं द्रोहाभिप्रायेण परदोषोद्घानम्, प्रोत्साहनादिकमन्ये । उत्कुरुते, उदाकुरुते माम्, अव्याकुरुते जिघांसुः, अपकर्त्रे कथयतीत्यर्थः । अवक्षेपणम् - 45 अवक्षेप: कुत्सनं मर्त्सनं वा दुर्वृ सानवकुरुते, कुत्सयतीत्यर्थः; इयेनो वर्तिकामपकुरुते भरसंयतीत्यर्थः । सेवा - अनुवृत्तिः, साहसम् - अविमृश्य महामात्रानुपकुरुते, सेवते इत्यर्थः । प्रवृत्तिः, परदारान् प्रकुरुते विनिपालमविभाव्य तान afoneछतीत्यर्थः । प्रतियत्नः सतो गुणान्तराधानम्, 50 एभोदकस्योपस्कुरुते तत्र गुणान्तरमादधातीत्यर्थः । प्रकथनं - कथनप्रारम्भ: प्रकर्षेण कथनं वा, जनवादान् प्रकुरुते कथयतुमारभते, प्रकर्षेण कथयति वेत्यर्थः । उपयोगो धर्मादी विनियोगः, शतं प्रकुरुते धर्मादौ विनियुङ्क्त इत्यर्थः । एध्विति किम् ? कटं करोति । अफलवत्कर्थ आरम्भ 55
॥ ७६ ॥
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२३२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा०३, २०७६ ]
कुत्सनं भत्सनम् कुत्सनं निन्दा, भर्त्सनं च निन्दया सह. | कस्य, उपस्कुरुते, अथवा एसिति सकारान्तः शब्दः काष्ठकेवलं सा तर्जनम् । तत्र क्रमश उदाहरति- कुत्सने- वाच्येव, दकमित्युदकनाम, तदुक्तं हलायुधेन- “प्रोक्तं दुर्वृत्तानवकुरुते इति- दुर्वृत्ता दुश्चरित्रा जनाः, तान् | प्राज्ञैर्भुवनविदितं जीवनीयं दकं च " इति, एधश्च दकं
अवकुरुते- कुत्सयतीत्यर्थः, अवपूर्वात् करोतेरात्मनेपदम् । | चंधोदकं तस्येति वा विग्रहः । एतच्च वाक्य बहिर्भूतकर्तक 5 द्वितीयमवक्षेपमुदाहरति- श्येनो वत्तिकामपकुरुते इति- क्रियापदमिति मत्वा व्याख्यानं, यदि चंध इति कर्तृपदं 45
श्येनः क्षुद्रपक्षिहिंसकः पक्षिविशेषः, वत्तिका क्षुद्रपक्षिविशेष- | स्वीक्रियते दकस्येति- उदकस्येत्यर्थकं तदा न समासावश्यक. जातिस्त्रियमपकुरुते इति- अपपूर्वात् करोतेरवक्षेपे वत- तेति । उपपूर्वात करोतेरात्मनेपदम् "अपात् भूषा-समवायमानादात्मनेपदम् । भसंयतीत्यर्थः इति- अवक्षिपती- प्रतियत्न." [ ४.४.६२. 1 इति स्सडागम: प्रयोगार्थमाह
त्यर्थपर्यवसानम्, भर्सयतेरिदित्त्वेन नित्यणिजन्तत्वेन तत्र गुणान्तरमादधातीत्यर्थः इति- एधसि गुणोऽनुष्ण10 चानुबन्धस्य केवलेऽचारितार्याण्णिजन्तादात्मनेपदं प्रयोक्तु- शीतस्पर्शादिः, दके च शीतस्पर्शादिः, तदपेक्षयाऽग्निसंयोगा- 50
मुचितं, तथापि * आत्मनेपदमनित्यम् * इति न्यायमा- | दिना उष्णस्पर्शादिरूपं गुणान्तरं तत्रोत्पादयतीत्यर्थ: । षष्ठश्रित्य परस्मैपदं प्रयुक्तम्, अस्य न्यायस्य ज्ञापकश्च भ्राजे- मर्थ प्रकथनाख्यमाख्याति-प्रकथनं कथनप्रारम्भः इतिरात्मनेपदिषु द्विधा पाठ इत्युपपादितमस्माभिर्यायसमुच्चये।
प्रशब्द आद्यर्थः, कथनस्यादिः प्रकथन कथनप्रारम्भ इति तृतीयार्थ सेवारूपं व्याख्याति- सेवा-- अनुवृत्तिरिति--
यावत् । तस्यैवान्यथा व्याख्यानमाह-प्रकर्षेण कथनं वेति15 अनुवर्तन मनुवृत्तिः, आनुकूल्येनाचरणं प्रीत्यनुकूलव्यापार
कस्यचिद् वस्तुनः सम्यक्तया प्रतिपादनमिति यावत् 1 55 इति यावत् । महामात्रानुपकुरुते इति महामात्राः
जनवादान् प्रकूरते इति- जनवादा:- प्रातिस्विकरूपेण प्रधानामात्या:, तदुक्तम्---
जनोक्तयः, प्रपूर्वकात् करोतेरात्मनेपदम् । प्रयोगार्थमाह"मन्त्रे कर्मणि भूषायां वित्त माने परिच्छदे।
कथयितमारभते, प्रकर्षेण कथयति वेत्यर्थः यथाविवक्ष . मात्रा तु महती येषां महामात्रास्तु ते स्मृताः ॥” इति, यथाप्रकरणं वा विविच्यार्थद्वयप्रतीतिर्न तु द्वयोरर्थयोरक्येन20 तानुपकुरुते इत्युपपूर्वकात् करोतेरात्मनेपदम् । प्रयोगार्थमाह- कत्र वा प्रतीतिरिति बोध्यम्, अर्थयोर्भेदस्य जागरूकत्वात् । 60
सेवते इत्यर्थः इति- ताननुकूलयितुं तत्प्रीत्यनुकूलाचार सप्तममुपयोगार्थ व्याख्याति-उपयोगोधर्मादौ विनियोगः करोतीत्यर्थः, चतुर्थमर्थ साहसं व्याख्याति- साहसम्- | इति-उपयोजनमपयोगः, तथा च कस्मिश्चित् कृत्ये कस्यअविमृश्य प्रवृत्तिरिति- सहसा-- अविचारेण कृतं साहत- | चिद् वस्तुनो विनियोगः, स इह प्रयोगस्वाभाव्याद् धर्मादि
मिति व्युत्पत्तेरविमृश्याचरणमेव साहसम्, एतच्च विषयतया | कृत्ये विनियोग एव उपयोगशब्देन प्रसिद्धः । उदाहरति25 धातुवाच्यम्, न तु धात्वर्थः धातोस्तावन्मात्रार्थत्वे परदारा- शतं प्रकुरुते इति- प्रपूर्वकात् करोतेरात्मनेपदम्, अब 65
निति द्वितीयानुपपत्तेः, अत: साहसप्रवृत्तिविषयीकरणपर्यन्तं | प्रशब्दमहिम्नात्मनेपदेन च धर्मकृत्ये व्ययतीति भावः । धातुवाच्यम् । उदाहरति- परदारान् प्रकुरुते इति- एब्धिति किमिति-- अर्थविशेषपरिग्रहमनादृत्य सामान्येन प्रपूर्वकात् करोतेरात्मनेपदम् । प्रयोगार्थमाह-विनिपातम- करोतेरफलवत्यपि कर्तर्यात्मनेपदं विधीयतामिति प्रष्ट्र
विभाव्यतानभिगच्छतीत्यर्थः। विनिपात:-ऐहिकं दुर्यशः राशयः । गन्धनाद्यर्थादन्यत्राफलवत्कर्तर्यात्मनेपदं नेटमित्यु80 आमुष्मिक नरकप्राप्त्यादिः, तमविभाव्य- अनेन कर्मणा मे | तरयति- कटं करोतीति- सामान्येन विधाने करोते: 70
विनिपातो भविष्यतीत्यविमश्य, तान्- परदारान् अभि- | फलवत्यफलवति च कर्तर्यात्मनेपदमेव प्रयोक्ष्यत इति गच्छति-स्ववशे करोतीत्यर्थः । पञ्चममर्थं प्रति यत्नाख्यं परस्मैपदस्य प्रयोगो न स्यादिति भावः । ननु करोतेगित्त्वेन व्याख्याति'- प्रतियत्न:- सत्तो गुणान्तरावानमिति- तत" ईगितः"[३.३ ६५. ] इति सूत्रेण सामान्यत एव
सत - स्वेन रूपेण वर्तमानस्य वस्तुनो, गुणान्तरस्य- पूर्व- | फलवकर्तर्यात्मनेपदमन्यत्र "शेषात् परस्मै" [३.३.१००.] 35 गुणापेक्षाऽन्यगुणस्य, आधानम्- उत्पादन प्रतियन इत्यर्थः, | इति परस्मैपदमित्युभयपदस्य सिद्धेरनेनार्थविशेषे आत्मने-75
असत:- स्वरूपप्रच्युतस्य दुग्धादेर्दध्यादिरूपेण परिणमनं न | पदविधानमनर्थकमप्राप्ते हि शास्त्रमर्थवदिति न्यायादिति प्रतियत्न इति बोधयितुं सत इत्युक्तम् । उदाहरति- | चेदत्राह- अकलवत्कत्रंथ आरम्भः इति- अफलवान् एधोदकस्योपस्कुरुते इति- एध इत्यकारान्तः शब्दः | कर्ता यस्य तादृशः कृग- अफलवकर्ता, तस्मादात्मनेपद
काष्ठवाची "काष्ठं दाविन्धनं स्वेध इध्ममेधः समित् | विधानमर्थ:- प्रयोजनं यस्य तादृशोऽयमारम्भ:- सूत्रस्या40 स्त्रियाम् ' इति कोशात, एधश्चोदक चंधोदक तस्य- एधोद | नष्ठानमिति तदर्थः, अयमाशयः- सामान्येन सर्वत्रार्थे 80
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[पा० ३, सू० ५४-५५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
अधेः प्रसहने ॥ ३३७७. ॥
.
त० प्र०-- अधेः परात् करोतेः प्रसहने वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । प्रसहनं पराभिभवः परेणापराजयों वा तं प्रसेहे तमभिभूतवान् तेन वा न पराजित इत्यर्थः । अथवा सहनं - क्षमा तितिक्षोपेक्षेति यावत् प्रकर्षेण सहनं-प्रसहनम् तच द्विधा - शक्तस्याशक्तस्य च “भवादृशाइचे 10 दधिकुर्वते परान् समर्था अपि यशुपेक्षन्ते तदा निराश्रया हन्त ! हता मनस्थिता" [किराते], 'अधिचक्रेन यं हरिः' सोढुमशक्तः सन् तेन न्यक्रियते । प्रसहन इति किम् ? तमधिकरोति । अधेरिति किम् ? शत्रून् प्रकरोति ।। ७७ ।।
|
फलवत्कर्तर्यात्मनेपदम फलवत्कर्त्तार च परस्मैपदमिति प्राप्ते |दृशाश्चेदधिकुर्वते रतिम्' इति पाठो लभ्यते, तथा सति व 40 ऽपि गन्धनाद्यर्थेष्वफल वत्यपि कर्तर्यात्मनेपदविधानार्थमिदं नात्रोदाहर्तुं योग्यमिद वाक्यमिति प्रकृतोदाहरणानुकूलमयसूत्रमिति ॥ ३ ३ ७६. ।। मेव पाठ: समीचीनः । प्रयोगार्थमुक्त्वा वाक्यं पूरयतिसमर्था अपि शत्रून् यद्युपेक्षन्ते तदा निराश्रया हन्त ! हता मनस्थिति - शत्रुभिः सर्वथाऽपकृता अपि तदभिभवे समर्थां अपि भवादशा महापुरुषाः परान् यद्युपेक्षन्ते तदा 45 मनस्विता, निराश्रया- निराधारा सती, हता- नष्टा, इति प्रतीयते, ये किल सर्वथा आत्मसंमानरक्षणे समर्थास्त एव मनस्विताया आश्रया इति तानवलम्ब्यैव सा जीवति, ते च भवादृशा एव भवन्ति । तेऽपि वेत् परकृतमपमानमुपेक्ष्य तत्प्रतीकारं न कुर्वन्ति, तहि मनस्विता व तिष्ठत्विति नश्ये- 50 देवेति भावः । अत्र शक्तस्य क्षमा प्रतीयत एव । अशक्तस्य क्षमां- प्रसहनमुदाहरति- "अधिचक्र े न यं हरिः" इति - हरिरिन्द्रो य दैत्यं न अधिचक्रे इत्यन्वयः । प्रयोगार्थमाहसोढुमशक्तः सन् तेन न्यत्क्रियत इति अत्राधिचक्रे इति क्रियाया: प्रसहनमेवार्थ:, स च नत्रा निषिध्यत इति 55 प्रसहनाभावो विज्ञायते, तदुक्तं- सोढुमशक्तः सन् इति, तेनपूर्वोपक्रान्तेन दैत्यविशेषेण न्यक्रियते- अभिभूयत इत्यर्थः । अधेः प्रयोगे प्रसनार्थस्यैव प्रतीतिरिति प्रागुदाहृतोदाहरणैनिश्चित्य विनाऽपि 'प्रसहने' इति पदं प्रसह एव भविष्यतीत्यभिमानेन पृच्छति प्रसहन इति किमिति । 60 आत्मनेपदमहिम्नैव प्रसहनार्थप्रतीतिनं तु सर्वत्राऽस्य तदर्थ - त्वमिति तदर्थाविवक्षायां मा भूदात्मनेपदमित्यर्थं प्रसन इत्यावश्यकमिति प्रत्युदाहरणेनाह- तमधिकरोतीतिप्रक्रान्तं कचित् कश्चिदधिकारे नियोजयतीत्यर्थप्रतीत्या प्रसहनार्थाभावेन नात्रात्मनेपदम् प्रसहन इति पदाभावे च 65 स्यादेवेत्याशयः । अधेरिति किमिति- अधिरूपोपसर्गसत्त्व एव प्रदार्थ प्रतीतिरिति विनाऽपि तद्ग्रहणं तत्पूर्व कादेव भविष्यत्यात्मनेपदमिति मत्वा प्रश्नः । शत्रून् प्रकरोतीतिअत्राधिशब्दाभावेऽपि शत्रूनभिभवतीत्ययं प्रतीतेः प्रसहनसत्त्वेऽप्यधिशब्दाभावान्न भवत्यात्मनेपदं सूत्रे तदुपादानाभावे 70 च स्यादेवेति तदुपादानमावश्यकमित्याशयः ॥। ३.३.७७. ।। दीप्ति - ज्ञान-यत्न - विमत्युपसंभाषोपमन्त्रणे वदः ॥ ३.३.७८॥
5
श० म० न्यासानुसन्धानम् - अधेः । कुरा इति 15 प्रकृतम्, तदाह- अधेः परात् करोतेरिति । " षहि
मर्षणे " इत्यस्मात् प्रपूर्वात् भावेऽनटि प्रसहनशब्दसिद्धिः तदर्थस्य सामान्यतो ज्ञानेऽपि प्रकृते विशेषार्थत्वेनेष्टत्वात् तदर्थमाह- प्रसहनं- पराभिभवः परेणापराजयो वेतिपरस्य - शत्रोः, अभिभवः तिरस्कारो विजयो वा, परेणा20 पराजयश्च परेण स्वकीयाभिभवाभाव एव, पूर्वत्र परस्मादुष्कृष्टत्वं परत्र तस्मादनपकृष्टत्वं प्रतीयत इत्येव विशेषः, तं हाधिचक्र इति- तमिति प्रक्रान्तं परमुपस्थापयति, ह इत्यव्ययं प्रसिद्धार्थकम् अधिपूर्वात् करोतेः परोक्षाया आत्मनेपर्दैकवचनस्य विधानम् । प्रयोगार्थमाह संक्षिप्य - 25 तं प्रसेहे इति । इममर्थमेव प्रसहनशब्दोक्तार्थानुकूलं विवृणोति तमभिभूतवान् तेन वा न पराजित इत्यर्थः । प्रसहनशब्दस्य विशेषार्थाविवक्षायां सोपसर्गसप्रत्ययधातुवाच्यप्रसिद्धार्थपरिग्रहेण तदर्थमाह- अथवा सहनं क्षमा तितिक्षापेक्षेति यावत् इति । मर्षणार्थत्वाद् धातोरूप30 सर्गेण च तदर्थस्यैव प्रकर्षबोधनात् प्रसनशब्दस्य भावार्थकानप्रत्ययान्तस्य क्षमैवार्थः, सा च द्विविधा तदपकारतितिक्षारूपा, तदीयोपेक्षारूपा वेत्युभयं गृहीतम् । तस्य द्वैविध्यमाह तच्च द्विधा शक्तस्याशक्तस्य चेति- शक्तस्य क्षमा तदुपरि दयया किमत्र क्षुद्रे वस्तुन्यहं पराक्रममाचरा35 मीति बुद्धचा वा; अशक्तस्य मयाऽस्य प्रतीकारे न शक्ष्यते इति बुद्धवा वरं तत्सहनमेवेति निश्चयेन । तत्र प्रथमप्रकारमुदाहरति- भवादृशाश्चेदधिकुर्वते परानिति युधिष्ठिरं प्रति द्रौपद्या वाक्यमिदं भारविकविविरचिते किरातार्जुनीये महाकाव्ये प्रथमसर्गे तत्र च सम्प्रति मुद्रिते पुस्तके
• भवा
२३३
त०प्र० - दीप्यादिष्वर्येषु गम्यमानेषु वदतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । दीतिर्भासनम्, सा च कर्तृ विशेषणं वा, 75 वदनक्रिया सहचारिणो घात्वयो वा, केवलैव वा धात्वर्थः । वदते विद्वान् स्याद्वादे सम्यग्ज्ञानादनाकुलकथनाच विकसितमुखत्वाद् दीप्यमानो वदतीति वा वदन् वीप्यते- इति वा, दीप्यत एव वेत्यर्थः । ज्ञानमवबोधः तच वदिक्रियाया
।
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कलिकालसर्वजश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा० ३, सू० ७८ ]
-
हेतुर्वा, विषयि वा, फलं वा, केवलमेव था धात्वर्थः, ववते शङ्कमानो विवर्णमुखो भवत्येवेति मुखविकासाय सम्यग्ज्ञानधोमांस्तत्त्वार्थे, ज्ञात्वा वदतीति वा; जानाति वदितुमिति | मावश्यकम्, सम्यग्जानानोऽपि सम्यक् प्रतिपादयितुमशक्तो वा, बदन जानातोति वा, जानात्येव वेश्यर्थः । यत्न उत्साहा, विवर्णमुखो भवतीत्यत आह- अनाकुलकथनाच्छ, अनाकुलम
स च धात्वर्थस्य विषयो, धात्वर्थ एव वा श्रुते वदते, | मंकीर्ण यथा स्यात् तथा कथनात्- प्रतिपादनात् च विक5 तपसि बदते, तद्विषयमूत्साहं वाचाविष्करोति, तत्रोत्सहते | सितमुखत्वम् । अथवा सम्यग्ज्ञानादेवानाकुलकथन मिति पक्षे 45 इति वेत्यर्थः । नानामतिविमतिः, सा च धात्वर्थस्य हेतः, च हेतौ न तु हेतुसमुच्चये, यतः सम्यग्ज्ञानमत एवानाकुलधात्वर्थ एव वा धर्मे विवदन्ते, विमतिपूर्वकं विचित्रं | कथनम्, असम्यग्जानानो हि परस्परसङ्कीर्णमस्पष्ट वदति, भाषन्त इति वा, विविध मन्यन्त इति वेत्यर्थः । उपसंभाषो- | अथवा आकुलीभूय वदति, सम्यग्ज्ञानवांश्च सङ्कीर्ण स्पष्टं
पसान्त्वनमुपालम्भो वा धात्वर्थ एवायमः कर्मकरानुपवदते, | वदति अव्याकुलो वा वदति, सम्यग्ज्ञानवान् स्पष्टमव्याकुलं 10 उपसान्त्वयति, उपलभते वेत्यर्थः । उपमन्त्रणं रहसि वा यथा स्यात् तथा प्रतिपादयन् विकसितमुखो दीप्यमानो 50
उपच्छन्वनम्, तदपि धात्वर्थ एय; कुलमार्यामुपवदते, वदतीति समुदितार्थः । मुद्रितवृहद्वृत्तिपुस्तके पूर्ववाक्यपरदारानुपवक्ते, रहस्युपलोमयतीत्यर्थः। दोप्यादिष्विति | निविष्टो वाशब्दो विरामचिगात् परं मध्यमवाक्ये संनिकिम् ? यत्किश्चिद् वदति ॥ ७ ॥
विष्टो 'वावदन् दीप्यत इति वा' इति, तन्न युक्तम्- 'वदन् श०म० न्यासानुसन्धानम्-दीप्ति० । दीप्त्यादीनां
दीप्यत इति वा' इत्येव मध्यमपक्षार्थस्वरूपस्यौचित्यात् । 15 समाहारद्वन्द्वः, दीप्तिश्च ज्ञानं च यत्नश्च विमतिश्चोपसंभाषा
पुन: पुनरतिशयेन वा बदनं वाक्दनमित्यर्थस्तु न विवक्षित 55 चोपमन्त्रणं चेति विग्रहः । एष केचनंव धात्वर्था अन्ये
इति यङ्लुबन्ताश्रयणेन तत्समाधानमशोभनम् । वदनक्रियाप्रयोगोपाधय इति साधारण्येनाह-- दीप्त्यादिष्वर्थेष सहचारिणी धात्वर्थो वा दीप्ति:] इति मध्यमपक्षेऽर्थकथनगम्यमानेष्विति-अत्रोपसंभाषोपमन्त्रणे साक्षाद् धातोर्वाच्ये
मिदं प्रतिवाक्यं च पक्षान्तरद्योतकवाशब्दप्रयोग इति पूर्व. इतरे प्रयोगोपाधयः, सर्वे धात्वर्था एव वेति पक्षान्तरमपि,
वाक्ये वाशब्दाभावो मध्यमवाक्ये च वाशब्दद्वयमिति 20 तत् तदर्थव्याख्यानावसरे स्फटीभविष्यति । क्रमशोऽर्थान्
नोचितमिति पूर्ववाक्यस्थमेव तत्, अस्तु, 'वदन् दीप्यते' 60 व्याख्यास्यन् प्रथमं दीप्त्यर्थमाह- दीतिर्भासनम् इति
इति कथने वदनस्य दीप्तश्चैककालयोगेन सहचरितत्व मुखविकासादिना शोभमानत्वमिति भावः । अस्याः प्रकृते
प्रतीयते । तृतीये केवलव वा धात्वर्थ इति पक्षे प्रयोगार्थकथं प्रतीतिरिति विवृणोति-सा च कर्तविशेषणं वावदन- माह-दीप्यत एवेत्यर्थः इति-अत्र 'दीप्यत एव वेत्यर्थः'
क्रियासहचारिणो धात्वर्थो वा, केवलैव वा धात्वर्थः । इति पाठ उचितः, वैकल्पिकपक्षेषु सर्वत्र वाशब्दप्रयोगौ25 इति- वदनकाले दीप्यमानः कलैवेति कर्तगतत्वेन तस्याः / चित्यात् ।
65 कर्तृविशेषणत्वम्, वदनेन सहैव सा प्रतीतिविषयो भवतीति द्वितीयमर्थ व्याख्याति- ज्ञानमवबोधः इतिवदनक्रियासहचरितत्वेनैकपदप्रतिपाद्यतया धात्वर्थतामेव | विषयस्य यथार्थाधिगतिरवबोधः, अवापि चत्वारः पक्षास्ताभजत इति वा, बदनमिह न विवक्षितमपि तु दीप्ति रेवेति नाह- तज्ञ वदिक्रियाया हेतर्या विषयि वा, फलंबा,
धातुना तन्मात्रप्रतीते: सा केवलमेव स्वातन्त्र्येणैव धात्वर्थ केवलमेव वा धात्वर्थः इति- तदित्यनेन ज्ञानमुपस्थाप्यते, 30 इति वा, इत्थं चात्र पक्षत्रयम् । उदाहरति- वदते विद्वान ज्ञानं च वदिक्रियायाः प्रकृतधात्वर्थतया प्रसिद्धाया हेतु-70
स्याद्वादे स्याद्वादः पूर्व लक्षितोऽनेकान्तवादः, सप्तमी विषय- रित्येकः पक्षः, यो हि विषयं जानाति स एव वदितुं शक्नोस्वार्थे, विद्वान् स्याद्वादविषये वदते इत्यन्वयः । प्रयोगार्थ तीति ज्ञानं वदनस्य कारणमिति युक्तिरत्र पक्षे । विषय वर्णितरीत्या त्रिधा प्रतिपादयति, तत्र सा कर्तुविशेषणमिति वेति- अत्रापि बदिक्रियाया इति सम्बध्यते, तथा च वदनं
प्रथमे पक्षे आह-सम्यग्ज्ञानावनाकुलकथनाच विकसित- विषयो ज्ञानं विषयि इति वदनस्य ज्ञानमिति फलति ! 35 मुखत्वाद् दीप्यमानो वदतीति वेति- दीप्यमानत्वे हेतुः-- फलं वेति-वदनक्रियाया इति शेषः, तथा प्रथमपक्ष-75
विकसितमुखत्वादिति, विकसितमुखो हि शोभते इति प्रत्यक्ष- | वपरीत्येन बदन मेव ज्ञानस्य हेतुरीत्यायात्यत्र पक्षे, यतो विज्ञेयम्, विकसितमुखत्वे च हेतृद्वय मुपात्त- सम्यग्ज्ञानादना- वदत्यतो जानातीति प्रतीतेः । चतुर्थ पक्षमाह- केवलमेव कुलकथनाच्च, विषयमसम्यग्जानानो हि सन्दिग्धमना: | वा धात्वर्थः इति- ज्ञानमेव प्रकृते धात्वर्थो न तु स्पष्ट
संकुचितमुखो भवति, परप्रतारणार्थं यथाकथंचित् स्वमत- शब्दोच्चारणव्यापाररूप वदनमिति भावः । उदाहरति-वदते 40 प्रतिपादनार्थ वा बदन्नपि विषयसम्यग्ज्ञानाभावात्, स्वनिग्रह | धीमस्तित्त्वार्थे, 'तत्वार्थे ' इत्यत्र विषयसप्तमी, तत्त्वार्थ-80
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[पा०३, सू०७८]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
विषये बदत इत्यर्थः, तत्त्वार्थविषये वदनकर्तृत्वं न यस्य |मिति भावः । उत्साहः स्वयमेव धात्वर्थ इति पक्षे च, कस्यचित् सम्भाव्यतेऽपि तु बुद्धिमत एवेत्याह-धीमानिति, | तत्रोत्सहते वेत्यर्थः, अत्र 'उत्सहते वेत्यर्थः' इत्येव क्रमातथा च यथाकथंचिज्ज्ञानस्येह विवक्षितत्वाद् भवत्यात्मने- | गतरीत्या कथनीयम्, 'वदते' इत्येतावमात्रार्थस्य सर्वत्र
पदम् । पूर्वोक्तप्रकारचतुष्टयानुसारं प्रयोगार्थमाह-ज्ञात्वा वर्णितत्वात्, तत्रेति पदेन चाकामेनापि श्रुत-तपसी एव ग्राह्ये 5 वदतीत्यादिना, तत्र 'ज्ञात्वा वदति' इति ज्ञानं वदिक्रियाया स्याताम्, तथा सति च तद्विषयम्' इति पदेनापि पूर्वत्रार्थे 45 हेतुरिति पक्षे कृत्वाप्रत्ययेन ज्ञानस्य पूर्ववृत्तित्वप्रतिपादनात् | दत्तेन श्रुततपोविषयम्' इत्येवार्थों ग्राह्यः स्यात्, स च नेष्टः, कार्यनियतपूर्ववृत्तेश्च कारणस्वाज्ज्ञानं वदने हेतुरिति स्पष्टम् । | धात्वर्थविषयस्यैवोत्साहस्य पूर्व कथनात्, तथा च तत्रेति 'ज्ञानं वदिक्रियाया विषयि' इति पक्षमाश्रित्यार्थमाह- | पदमधिकमेव, वाक्यार्थवर्णनभावनया या प्रयुक्तमिति
जानाति वदितुमिति, अत्र वदिक्रियाज्ञानस्य विषय इति | स्वीकार्यमिति प्रेतीमः। 10 विषयि ज्ञानमिति भवति । 'ज्ञानं वदिक्रियायाः फलम् इति चतुर्थं विमतिपदार्थमाह-- नानामतिविमतिरिति- 50
पक्षमाश्रित्याह-बदन जानातीति- बदिक्रियया ज्ञानस्या- | एकत्र धर्मिणि विभिन्नप्रकारा प्रतिपत्तिरिति तदर्थः । तत्रापि नुमेयत्वेन फलत्वम्, अथवा वारं वारं कस्यापि विषयस्य | पक्षद्वयमाह-साच धात्वर्थस्य हेतः, धात्वर्थ एव वेतिस्पष्टतया पूर्वमज्ञातस्यापि ज्ञानं भवतीति वदिक्रियायाः यत्र विप्रतिपत्तिनिमित्तं वदनं तत्र वदनक्रियारूपस्य धात्वर्थ
ज्ञानमिति रीत्या फलम् । 'ज्ञानं केवलमेव धात्वर्थः' इति | स्य विमतिहेतुः, यत्र च धातुना विमतेरेव विवक्षा तत्र सा 15 पक्षे आह-जानात्येवेति- जानातीत्येवार्थ इत्येवमेवकारो | धात्वर्थ इति विवेकः । उदाहरति-धर्मे विवदन्ते इति- 55
योजनीयः, अयोगव्यवच्छेदार्थस्यैवकारस्य ‘वदते' इति | धर्मविषये यत्र विभिन्न मत वादिना, तत्कारणादेव च सर्वेषां पदस्यार्थेऽन्तर्भावाभावात्, 'जानाति' इत्येव केवलमर्थ इति | परस्परं विवादस्तत्र प्रथमः पक्ष इत्याह-विमतिपूर्वकं विवक्षितमिति भावः, इत्थं च ज्ञानस्य स्वातन्त्र्येणैव | विचित्र भाषन्ते इति वेति, विमतिपूर्वकमिति विमतेः पात्वर्थत्वं फलति ।
पूर्ववृत्तित्वकथनेन कारणत्वं प्रकाशितम. विचित्रमिति 20 तृतीयं यत्नाथं व्याख्याति- यत्न उत्साहः इति- कथनेन विमते: स्वरूपमुद्घाटितम् । धात्वर्थ एवेति मते 60
यतिः प्रयत्नार्थकः, तस्माद् भावे प्रत्ययेन यनशब्दः | आह- विविधं मन्यन्त इति वेति- विविधमित्यस्य सिध्यति, तस्येहोत्साहार्थत्वम्, उत्साहश्च स्थेयान् संरम्भः, प्रकारमित्यादि शेषः, धर्मविषये विभिन्न प्रकारं मन्यन्ते इति कस्यापि कार्यस्य कृते स्थिरतमं प्रावण्यमिति यावत् । तदर्थः, तथा च विमतिरेव धातुवाच्येति धात्वर्थत्वं तस्याः।
तत्रापि पक्षद्वयमाह-सच धात्वर्थस्य विषयो धात्वर्थ एवं चतुर्णा परम्परया साक्षाद् बा धातुप्रतिपाद्याना25 एव वेति-धात्वथोऽत्र व्यक्तं शब्दोच्चारणमेव, तद्विषयत्व- मुदाहरणमुक्त्वा साक्षादेव घातुप्रतिपाद्ययोर्द्वयोरर्थयोाख्या 65
मुत्साहस्य तेनैव प्रत्येतव्यम्, यो यथा यद्विषये वदति तस्य | क्रमश आह- उपसंभाषोपसान्त्वनमपालम्भो वेतितद्विषय इव तद्वदनविषयेऽप्युत्साहः प्रतीयत एव । पक्षान्तर- | केनापि कारणेन पीडितमनसः सन्तोषाय वाक्प्रयोग उपमाह- धात्वर्थ एव वेति- उत्साह एवात्र स्वातन्त्र्येण सान्त्वनम्, उपालम्भो वेति-निन्दापूर्वकं कवचनम्, तेन
धातुवाच्य इत्यर्थः । उदाहरति-श्रले वदते, तपसि वदते तदीयाप्तजनेन वा कृतस्यापराधस्य तत्समीपे प्रकाशनं वा 30 इति- उत्साहे गम्ये भवत्यात्मनेपदम् । प्रकारद्वयानुकूल्येन | उपालम्भः, अस्य साक्षाद् धातुवाच्यत्वमाह- धात्वर्थ 70
प्रयोगार्थद्वयमाह- तद्विषयमत्साहं वाचाविष्करोति, एवामिति- उपसर्गयोगादीहशभाषणस्य धातु व प्रतितत्रोत्सहत इति वाऽर्थः इति- अत्र तत्पदेन यद्यपि श्रुत- पाद्यत्वात् धात्वर्थत्वम् । उदाहरति- कर्मकरानुपवदते तपसी ग्राह्य इति प्रतिभाति तयोरेव सप्तम्या निर्दियतया इति-पूर्व स्वेनैव भत्सितान् तान् उपसान्त्वयति, साम्ना
विषयत्वार्थे वर्तमानत्वात्, तथापि केवलं 'वदते' इति । प्रकृतिस्थान् करोतीत्यर्थः । पक्षान्तरे प्रयोगार्थमाह35 प्रयोगार्थस्यैव वक्तव्यतया, तथैव पूर्वत्र सर्वत्रोक्ततया च | उपलभते वेति- तदीयदोषान् तत्समीप एव 75
तत्पदेन व्यक्तोञ्चारणरूपो धात्वर्थ एव ग्राह्यः, श्रुततपसी च प्रकाशयतीत्यर्थः। स्वातव्येणोत्साहाविष्करणस्य विषयौ, तथा च श्रुतविषये | षष्ठमर्थ व्याख्याति- उपमन्त्रणं रहसि उपवदने स्वकीय मूत्साहं वाचाविष्करोति, तपोविषये ददने छन्दनमिति-छन्दसा-आनुकूल्येन उपचरणमुपच्छन्दनम् ।
स्वकीयमुत्साहं वाचाविष्करोतीति वाक्यार्थः, अत्र च 'वदने' । अस्यापि उपसर्गमहिम्ना धातुवाच्यत्वमेवेवि कथयति-तदपि 40 इति या सप्तनी प्रयुका तदर्थमेव विषयत्व तद्विषयपदेनोत. धात्वर्थ एव । अयमाशय:- यद्यपि उपसंभाषणमुपमन्त्रणं 80
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२३६
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
३, सू०७६ ]
वा न केवलेन वदिना प्रतीयते अपि तुपसर्गसहितेन व, तथा- | स्वस्य निविवादत्वात् । अयं च विशेषार्थो व्यक्तवाचामिति 40 प्युपसर्गाणां द्योतकत्वस्यैव विशेषसम्मतत्वेन तदर्थत्वं धातो- पदस्य ग्रहणादेव परिज्ञायते, यतो वदधातुः स्वयमेव रेव, उपसर्गः केवलमभिव्यञ्जक इति तयोर्धात्वर्थत्वानपायः। | व्यक्तवागर्थः, तेनैव व्यक्तवापस्यार्थस्य लाभ इति तद्वययन
उदाहरति- परदारानुपवदते इति- परदारान् रहसि [ व्यक्तवाचामित्यस्य वययन ] तद्ग्रहणसामर्थ्यादा व्यक्त.5 छन्दसोपचरतीत्यर्थमेव शब्दान्तरेणाह- रहस्युपलोमय-| वापदस्थ रूढार्थपरत्वमिति विज्ञायते । अवश्यं पशुपक्षिणा- .
तीत्यर्थः। दीप्त्यादिष्विति किमिति- अर्थविशेषाश्रयणं । मपि वान व्यक्ता अत एव च कुक्कूटेनोक्त जना जानन्ति-45 व्यर्थं सामान्येनैवात्मनेपदं विधीयतामिति भावः । प्रत्युदा- | इयं कुक्कुटस्य वागिति, अन्येषामपि वाचं व्यक्तत्वादेव परिहरति- यकिश्चिद बदतीति, अयमाशयः- अर्थविशेष- चिन्वन्ति । किञ्च, अकारादयो वर्णा अपि तेषां वाचि व्यक्ता
परिग्रहाभावे सर्वत्र वदेरात्मनेपदमेव स्थादिति परस्मैपदं । भवन्ति, अत एव 'कुक्कूटेनोक्ते कूकूडिति वदति, कोकिले10 कापि न प्रयुज्येत, न च तदिष्टमः परस्मैपदिषु तत्पाठस्य नोक्त कुहुरिति वदति' इत्येवं जनाः कथयन्ति, यदि कादि
वैयपित्तरित्येष्वेवात्मनेपदमस्त नान्यत्रेत्यर्थमर्थ विशेषपरि- | वर्णव्यक्तिस्तत्र न स्यात् तहिं कथमेवमुक्ति: संगच्छेतेति 50 ग्रह आवश्यक एवेति ।। ३. ३. ७८. ।।
व्यक्ताक्षरा बाग येषामिति कथनेऽपि न निस्तार इति
मनुष्यादिषु रूढिराश्रिता । भाष्ये [पासू० १. ३. २८. ] व्यक्तवाचां सहोक्तौ ॥ ३. ३. ७९. ॥
व्यक्ताक्षरा वाग येषामिति बहुव्रीहिणैव मनुष्यादयो गृह्यन्ते, त०प्र०-व्यक्ताम्यक्ताक्षस वाग येषां ते व्यक्तवाच:,
पक्ष्यादिवाचि अक्षराणां प्रतीयमानत्वेऽपि न व्यक्तत्वं,.. 15 रूल्या मनुष्यावय एवोच्यन्ते; तेषां सहोक्तौ- संभूयोचारणे
तत्तत्स्थानप्रयत्नाद्य प्रतीतेः, कुकूडित्यादिकथनं चानुकरणमात्रं 55 वर्तमानाद्यवे: कर्तर्यात्मनेपद भवति । संप्रवदन्ते ग्राम्या:,
न तु वस्तुगत्या तत्स्वरूपोपस्थापकम् । शुकसारिकादिवाचि संप्रवदन्ते पिशाचा:, संभूय भाषन्त इत्यर्थः। व्यक्तवाचा
| कतिपयवर्णव्यक्तःप्रतीयमानत्वेऽपि तस्य मनुष्ययत्नसाध्यत्वेन मिति किम् ? संप्रवदन्ति कुक्कुटाः, संप्रवदन्ति शुकाः ।
न तेषां व्यक्तबाकत्वमिति रूढ्याश्रयणमनावश्यकमिति : शुकसारिकादीनामपि व्यक्तवाकत्वात् सहोक्ताबिच्छन्त्यन्ये
तद्रीत्या प्रतिभाति । यथाकथचिन्मनुष्यादय एव ग्राह्या इति 20 संप्रवदन्ते शुकाः, संप्रवदन्ते सारिका: । सहोक्ताविति किम् ! नियतविषयत्वेन पदस्य रूढत्वमेव पर्यवस्यतीति मत्वा स्वमते 60 चंत्रेणोक्त मंत्रो वदति ॥ ७९ ।।
रूढिराश्रिता । सहोक्तेः । चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तो" [३.१. श० म. न्यासानुसन्धानम्- व्यक्त० । वद ११७. ] इति सूत्रे सहविवक्षारूपेण वणितत्वादिहापि सोऽर्थइंतिप्रकृतम्, ',' वाक 'पदेन वैखरोनाद एव लोके एव स्यादिति शापाकरणाय सहोक्तिपदं व्याख्याति
ज्ञायते, तथा च सर्व एव व्यक्तवाच: "वखर्या हि | संभयोचारणे इति- संभूय बहििमलत्विा शब्दोच्चारणे 25 कृती नादः परश्रवणगोचरः” इति वाक्यपदीयोक्तेः, | इत्यर्थः । उदाहरति-सप्रवदन्त ग्राम्या:
इत्यर्थः । उदाहरति-संप्रवदन्ते ग्राम्याः इति- शब्दो- 65 वैखरीनादस्य व्यक्ततासत्त्वादेव 'परश्रवणगोचरस्वमिति सर्वे च्चारणं सर्वः पृथगेव कार्य तत्प्रयोजनस्यार्थावबोधस्य तथैव वाक्शक्तियुक्ता जीवा व्यक्तवाच एवेति व्यक्तवाचामिति | सत्त्वात्. संभूयोच्चारणे च कः कस्य शृणुयात्, तदभावे च पदमव्यावर्त्तकमिति शङ्कामपाकुर्वन्नाह-व्यक्ताव्यक्ताक्षरा कथमर्थाधिगतिः, एवमुच्चारणं न परीक्षकजनव्यवहारोऽपि
वाग येषां ते व्यक्तवाचः इति न ध्वनिमात्रस्य व्यक्तत्वेन तु पामरव्यवहार एवेत्यतो ग्राम्या एवेह कर्तृत्वेनोपात्ताः । 30 व्यक्तवाकत्व स्वीक्रियते किन्तु येषां वाचि कादिवर्णाः स्फूट सम्प्रवदन्ते पिशाचाः इति-पिशाचानां देवयोनित्वेऽपि 70
प्रतीयन्ते त एव व्यक्तवाच इति कथ्यन्त इति भावः। | तम:प्राधान्यात् तेषामपि तथोच्चारणस्य सम्भव इति त एवमपि सर्वेषामेव जीवानां बहूनां ता व्यक्त वाकत्वं स्यात्, एवादिपदग्राह्येषूक्ताः, तथा च सहोक्तिसत्त्वाद् भवत्यात्मनेपक्ष्यादिशब्देष्वपि लोकैस्तत्तदक्षरव्यक्तिभावस्यानुमीयमान- | पदम् । व्यक्तवाचामात का
| पदम् । व्यक्तवाचामिति किमिति-"वद व्यक्तायां वाचि" · त्वात्, शुकादीनां वाचि च स्फुटतरवर्णोपलेब्वेरिति चेदत्राह- | इति धातुपाठे तदर्थकथनादेव व्यक्तवाचा मेव कर्तृत्वमिह ... 35 रूड्या मनुष्यादय एवोच्यन्ते इति, अयं भाव:-नायं शब्द- भविष्यतीति व्यक्तवाचामिति पदं व्यथमिति प्रष्टुराशयः 1 75
योगिक एव येन यस्य कस्यचित् स्पष्ट वर्णवाचो जीवस्यानेन | अत एवेह व्यकवाचामिति पदस्य रूढत्वमाश्रितमिति परिग्रहः स्थात्, किन्तु योगरूढिरियम्, अथवा केवलं रूढि- मनुष्यादिभिन्नकर्तृकोचारणे मा भूदित्यर्थत्वं तस्येत्याह प्रत्यु
रेव । तथा च मनुष्यादिष्वेवैतच्छब्दप्रयोगः, मनुष्यादय दाहरणद्वारा- संप्रवदन्ति कुक्कुटाः इति- अयं च ...' इत्यत्रादिपदेन देवासुरादयो गृह्यन्ते तेषामपि व्यक्तवाक- प्रयोगो भाष्येऽप्युक्त:- "वरतनु ! संप्रवदन्ति कुक्कुटाः"
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[पा० ३, सू०८०]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
२३७
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इत्येवंरूपेण, तथा च प्रतीयते यत्-- कुपितकामिनीप्रसादन- | विषये परस्परविरुद्धा अर्था अभिधेया यत्र स विरुद्धार्थः, 40 परस्य वाक्यस्य पद्यस्य शेषांशोऽयमिति, कुक्कुटानां संभूय | वादो- वाक्प्रयोगो- विवाद इत्यर्थः । 'विवादे' इति च वदनेन रात्रिशेषोऽवगम्यत इति नातः परं मानधारणस्य | पूर्वसूत्रानुसृतेन सहीताविति पदेन विशेषणविधया सम्बध्यते, समय इति वक्तस्तात्पर्यम्, अत्र व्यक्तवाक्कतत्वाभावादेव । तथा च योऽर्थः सूत्रस्य तमाह- व्यक्तवाचां सहोतो 5 नात्मनेपदं प्रयुक्तम्. व्यक्तवाचामिति पदाभावे चात्मनेपदमत्र | विवादरूपायामिति 1 विप्रवदन्ते विप्रवदन्ति वा दुरि स्यात् । सम्प्रवदन्ति शुकाः इति- शुकादिपक्षिणा- मौहूर्ताः इति- मुहूर्त कार्यविशेषोचितकाल जानन्तीति 45 मपि संभूय शब्दकरणं स्वभाव इति व्यक्तवाक्वाभावादेव मोहर्ता देवज्ञा:, कञ्चिद् विषयमवलम्ब्य परस्परविरुद्धार्थक तत्कर्तृ केऽत्र नात्मनेपदमिति रूल्याश्रयणप्रमाणभूत व्यक्त- | वाकप्रयोगं संभूय कुर्वन्तीत्यर्थविवक्षायां पूर्वेण नित्यमात्मने ।
वाचामिति पदमिहोपादेयमेवेति भावः । मतान्तरमाह- पदे प्राप्तऽनेन विकल्पेन तद्विधानम् । प्रयोगार्थमाह1.0 शुकसारिकादीनामपि व्यक्तवाकत्वात सहोक्ताविच्छ- परस्परप्रतिषेधेन युगपद विरुद्ध वदन्तीत्यर्थः इति
न्त्यन्ये इति- मनुष्योचारितादनु तेषामपि तादृशोच्चारण- विरुद्धं युगपद् वदन्तीत्येतावानेव प्रयोगार्थः, विरुद्धमित्यनेन 50 दर्शनात् व्यक्ताक्षरत्वमिति व्यताक्षरा वाग येषामिति विवादार्थगतविरोध:, 'युगपद' इत्यनेन सहोक्तिश्चाख्यायते, विग्रहरीत्या तेऽपि ग्राह्या एवेति तेषामपि संभूयोच्चारणे । तत्र विरुद्धमित्यस्य निमित्तं परस्परप्रतिषेधेनेति पदेन कथ्यते,
भवितव्यमेवात्मनेपदेनेति तेषामाशयः । तन्मतेनोदाहरण- एकोऽपरस्य मतं प्रतिषेधयन् वदतीति विरुद्धत्वं वादस्येति 15 मेवेदं न प्रत्युदाहरणमिति आत्मनेपदं दर्शयति- संप्रवदन्ते भावः । विवाद इति किमिति- तथा च केवलस्य 'वा'
शुकाः,संप्रवदन्ते सारिकाः इति, स्वमतं तु मनुष्यादी रूढ्या- इत्यस्य पृथक सूत्रत्वायोगात् पूर्वसूत्रेणैव सर्वत्र सहोक्ता- 55 श्रयणेनैव व्यवस्थापितमिति तद्रीत्याऽत्र परस्मैपदमेव युक्त- वात्मनेपदं विकल्पेन विधीयतामिति प्रष्ट्रराशयः प्रतिभाति, मिति बोध्यम् । सहोक्ताविति किमिति-व्यक्तवाचामिति तथा च विरुद्धार्थकथनाभावेऽपि स्याद् विकल्पेनात्मनेपद
बहुवचनेनैव बहुकर्तृकवदने एव विधिः स्यादिति संभूयो- मित्याह प्रत्युदाहरणेन- संप्रवदन्ते वैयाकरणाः इति20 चारणार्थकसहोक्तिपदस्यानावश्यक मिति प्रष्टुराशयः । यत्र न परस्परविरुद्धार्थकथनं केवलमह कथयाम्यह कथया
व्यक्तवाचामिति बहुवचनस्यानेकव्यक्तवाकृजातिपरिग्रहार्थ- मोति स्वगुणप्रकाशनेच्छया बववो वैयाकरणा: सभूय वदन्ति 60 त्वेन न तस्य बहुक कवदने तात्पर्यग्राहकत्वमेव्यमिति | तत्र पूर्वसूत्रेण नित्यमेवात्मनेपदमिष्ट तन्न सिध्येदिति भावः। सहोक्तयभावे व्यक्तवाचां क्रमोक्तावप्यात्मनेपदं स्यादित्याह- | तथा च प्रयोगार्थमाह- सह वदन्तीत्यर्थः इति । अत्रापि
चैत्रेणोक्त मंत्रो वदनीति, तथा च क्रमिकवदनमेवात्र | [अर्थनिर्देशपरप्रकृतवाक्येऽपि ] सहोक्तः सत्त्वात् सह वदन्ते 25 विवक्षितमिति न भवत्यात्मनेपदं, सहोक्तावित्यस्याभावे च | इति प्रयोग उचित इति चेन्न- सहोक्तः सहशब्देनोक्तत्वास्यादेवेति तद्वारणाय तदावश्यकत्वमिति भावः ॥३.३.७६.1 दुक्तार्थत्वात् सहोक्तिद्योतकस्यात्मनेपदस्याप्रवृत्तः। व्यक्त- 65
बाचामित्यस्य सम्बन्धोऽप्यावश्यक इत्याह- व्यक्तवाचा. . विवादे वा ।। ३. ३. ८०. ॥
मित्येवेति । व्यावर्त्यमाह- संप्रवदन्ति शकुनयः इति । त० प्र०--विरुद्धार्यों वादो- विवादः, व्यक्तवाचां
नन्विह द्वयङ्गवैकल्यं, यतोऽत्र शकुनीनां न केवलं व्यक. . सहोक्तौ विवादरूपायां वर्तमानाद यदेः कर्तर्यात्मनेपदं वा
वाक्तवाभाव एवापि तु विवादाभावोऽपि तेषां वादे बिरुद्धा30 भवति । विप्रवदन्ते विप्रवदन्ति वा मौहाः , परस्परप्रति
र्थत्वाभावादिति चेन्न- स्वरभेदादिना तेषामपि विरुद्धार्थ-70 बेधेन युगपद् विरुद्धं वदन्तीत्यर्थः । विवाद इति किम् ?
त्वस्य प्रतीत्या विवादसंभवात् । व्यक्तवाक्त्वे सति विवादसम्प्रवदन्ते वैयाकरणाः, सह वदन्तीत्यर्थः 1 व्यक्तवाचा
विवक्षा नास्त्यति रीत्येह द्वयङ्गवैकल्यं न समाधेयम्, . मित्येव-- सम्प्रवदन्ती शकुनयः, नानारुतं कुर्वन्ति जाति
ताशार्थ विवक्षायां गमकाभावात्, फलतश्च विवादाभावोऽपि शक्तिभेदात् । सहोक्तावित्येव- मोहूतों मोहूर्तेन सह क्रमेण
तत्र सिध्यत्येवेति दयङ्गवकल्यस्य तावताऽपि परिहारा35 विप्रवदति, विरुद्धाभिधानमात्रमिह विवक्षितं न त विमति
भावाच्च। कोऽत्र प्रयोगार्थ इत्याह- नानारुतं कुर्वन्ति 75 पूर्वकम् तेन विमतिलक्षणमप्यात्मनेपदं न भवति ॥८॥
जाति-शक्तिभेदादिति- जातिभेदात् शक्तिभेदाच, यद्वा श० म० न्यासानुसन्धानम्- विवादे० । बदः | जातिशक्ति तिस्वभावः, तस्य भेदात् परस्परवलक्षण्यात व्यक्तवाचां सहो काविति च सम्बध्यते । विवादपदार्थमाह- परस्परविरुद्धमिव प्रतीयमानमनेकप्रकारं शब्दं कुर्वन्तीत्यर्थः, विरुद्धार्थो वादो- विवादः इति- तत्त्वनिणयार्यकत्र | अत्र शकुनीनां पूवोक्तरूपेण [पूर्वसूत्रव्याख्याप्रतिपादितरीत्या
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२३८
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
व्यक्तवाक्त्वाभावेन न भवत्यनेन विकल्पेन पूर्वसूत्रेण नित्यं वा आत्मनेपदम्, व्यक्तवाचामिति पदस्य सम्बन्धाभावे चहानेन सूत्रेणात्मनेपदं दुर्वारम् । सहोक्ताविति पदस्यापि प्रकृतसूत्रेऽनुवृत्तिरावश्यकेत्याह- सहोक्तावित्येवेति । 5 व्यावर्त्य माह- मौहूर्तो मौहूर्त्तेन सह क्रमेण विप्रवदतीति- अत्र व्यक्तवाचां विवादस्य सत्त्वेऽपि क्रमेण कथने संभूय कथनरूपस होत्यभावान्न भवत्यात्मनेपदम्, तत्पदानुवृत्त्यभावे च दुर्वारमेवेति भावः । ननु मा भूदनेन सूत्रेण पूर्वेण वाऽऽत्मनेपदम् " दीप्ति-ज्ञान०" [ ३. ३. ७८ ] इति 10 पूर्वतरेण सूत्रेणात्मनेपदं कुतो न भवति विरुद्धार्थत्वेन नानामतिरूपविमतेः सत्त्वादिति चेदाह - विरुद्धाभिधानमात्र मिह विवक्षितं न तु विमतिपूर्वकमिति मौहूर्तयोः कथनमर्थतः परस्परविरुद्धमस्तु न तु तयोः परस्परविरुद्धार्थ प्रतिपादनेच्छारूपा विमतिः पूर्वमस्ति, पूर्व विमतेरभावाच्च 15 तस्या धात्वर्थहेतुतयाऽवस्थानमिति न भवति तत्सूत्रप्रवृत्तिः । तदाह- तेन विमतिलक्षणमप्यात्मनेपद न भवतीति किश्व प्रतिपादनरीतेः परस्परविरुद्धत्वे तयोर्मतेर्भेदाभावेन नानामतिरूपाया विमतेरिह साक्षादपि धात्वर्थत्वं नास्तीत्यदोष इत्यवधेयम् । ३. ६.८०. ॥
20
अनोः कर्मण्यसति ॥ ३.३.८१. ।। त० प्र० - व्यक्तवाचामित्येवाऽनुवर्तते । व्यक्तवाचां सम्बन्धिन्यर्थे वर्तमानादनुपूर्वाद् वदेः कर्मण्यसति कर्तयात्मने - पदं भवति । अनुः सादृश्ये पश्चादर्थे वा । अनुवदते चंत्रो मंत्रस्य यथा मंत्रो वदति तथा चत्रो वदतोत्यर्थः अनुवदते 25 आचार्यस्य शिष्यः, आचर्येण पूर्वमुक्ते पश्चाद्वयतीत्यर्थः । कर्मण्यतीति किम् ? उक्तमनुवदति । व्यक्तवाचामित्येवअनुवदति दोणा । कथं 'वाधिक पडिको न सबवेते' इति, मियो विरुध्येते इत्यर्थ; विमतिविवक्षायां भविष्यति । अकर्मकादित्यनुक्त्वा 'कर्मण्यसतीति' इति निर्देश उत्तरत्र 30 शब्दे स्वेऽङ्गे च कर्मणीति लाघवेन प्रतिपत्त्यर्थः ॥८१॥
[ पा० ३, सू० ६१]
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षष्ठी विधेया । तथा च सूत्रार्थमाह- व्यक्तवाचां 40 सम्बन्धिन्यर्थे वर्तमानादिति वदेति घातुस्वरूपेण व्यक्तवाचां सम्बन्धाभावेऽपि तदर्थेन सह क्रियाकर्तृभावः सम्बन्धोऽस्तीति तत्सम्बन्धिन्यर्थे वदेवंत्तमानत्वं सुघटम् । अनोरुपसर्गस्यानेकार्थतया प्रकृते ग्राह्यावर्षावाह- अनुः सादृश्ये पश्चादर्थे वेति- सादृश्यं च वदन [ वदिक्रिया ]- 45 निरूपितं न तु मंत्रादिनिरूपितम् एवं पश्चादर्थोऽपि वदिक्रियासम्बद्ध एवेति मंत्रादिना सम्बन्धाभावान्नाव्ययीभावसमासप्रसङ्गः । अनुवदते चैत्रो मंत्रस्येति- अत्र सकर्मकस्यापि वदेः कर्मणः प्रयोगाभावादविवक्षितक मंतयाऽकर्मकत्वेन वाऽनेनात्मनेपदम् । प्रयोगार्थमाह- यथा मंत्रो वदति तथा 50 चत्रो वदतीत्यर्थः इति - चैत्र-मैत्रयोरुभयोर्व्यक्त वाक्त्वमिति भवति लक्षणसङ्गतिः । सादृश्यार्थे उदाहृत्य पश्चादर्थे उदाहरणमाह- अनुवदते आचार्यस्य शिष्यः इति पश्चा| दर्थत्वं विवृणोति-आचार्येण पूर्वमुक्ते पश्चाद् वदतीत्यर्थः । पठितार्थावगतिः शिष्यास्याभून्नवेति परिज्ञानाय आचार्यो- 55 क्तानुवादः शिष्येण कार्य इति प्राचीनपरम्परा, सेह प्रयोगेण गम्यते, पश्चादर्थेऽनोः सत्त्वात् तत्पूर्वकाद् व्यक्तवाक्शिष्यसम्बन्धिन्यर्थे वर्त्तमानाद् वदेरात्मनेपदमभूत् । कर्मण्यसतीति किमिति यत्र सादृश्ये पश्चादर्थे वाऽनोः प्रयोगस्तत्र वदेः प्रायोऽकर्मकत्वमेवेत्यभिमानेन प्रश्नः । नायं नियमो 60 यत् सर्वत्र सादृश्यार्थकान् पञ्चादर्थकाद् वानोः परस्थ वदेर कर्मत्वमेवेति उक्तमनुवदतीत्यादौ तददर्शनादिति तत्रात्मनेपदं मा भूदित्येतदर्थ कर्मण्यसतीत्यावश्यकमिति भाव: । व्यक्तवाचामित्येवेति पूर्वतः सहोत्तावित्यस्यासम्बन्धेऽपि लक्ष्यानुरोधाद् व्यक्तवाचामित्यस्य सम्बन्ध 65 आवश्यक इति भावः । तद्वयावर्त्य माह- अनुवदति वोणेति मृदङ्गस्येति अन्यद् वा सम्बन्धिपदमध्याहार्यम्, यथा मृदङ्गः स्वरविशेषमाश्रित्य वदति तथा वीणाऽपीति प्रयोगार्थः, तत्र व्यक्तवाक्सम्बन्धिन्यर्थे वदेर्वत्र्तमानत्वाभावान्न भवत्यात्मनेपदम्, व्यक्तवाचामित्यस्य सम्बन्धाभावे च स्या- 70 देवेति तत्सम्बन्ध आवश्यक: ।
श० म० व्यासानुसन्धानम्- अनो० । वदः इति सम्बध्यते व्यक्तवाचामिति च तत्रैकयोगनिर्दिष्टन्यायेन सहोतावित्यपि प्रकृतेऽनुवर्त्तेतैवेति शङ्काऽपाकरणायाहव्यक्तवाचामित्येवानुवर्तते इति - अत्र च मूल व्याख्यान35 मेव, अथवा 'व्यक्तवाक्सहोतो' इति समासेन निर्देशलाघवात् । कर्तव्ये व्यासेन निर्देश एवं तावन्मात्रस्यापि क्वचित् सम्बन्ध | सूचयति । यद्यपि षष्ठ्यन्तस्य वदिना सम्बन्धो न घटते तथापि धात्वर्थद्वारकक्रियाकर्तृभावरूपविषयसम्बन्धे "शेवे" [ २३.८. ] इति व्यक्तवाचां वदेरिति सम्बन्त्रमाश्रित्य
वदेरात्मनेपदविधानप्रकरणस्य परिसमाप्ततया, तद्विषयं भाष्यप्रयोगमसङ्गच्छमानं शङ्कते - कथं वाचिकषडिकौन संवेदेते इति- "न पदान्तद्विर्वचनवरे यत्रोपस्वरसवर्णानुस्वार दीर्घजवविधिषु" [ पा०सू० १.१.५८ ] इति 75 सूत्रे भाष्ये विधिशब्दो भावसाधनः कर्मसाधनो वा [ विधानं विधिरित्यर्थः, विधीयते यः स विधिरित्यर्थो वा ] इति पक्षद्वयगुणदोषविचारप्रसङ्गं भावसाधनपक्षे षडिक इत्यस्य सिद्धो वाचिक इत्यस्यासिद्धिः कर्मसाधनपक्षे वाचिक इत्यस्य
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[पा०३, सू०१]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
२३६
सिद्धौ सत्यामपि षडिक इत्यस्यासिद्धिरिति प्रदर्शिते, कत्व-गत्वेन भवतः। अत्रत्यलघुन्यासग्रन्थस्तु न संघटते,. तटस्थेनोच्यते- 'वाचिक पडिको न सवदेते' इति, 'म | तथाहि- तत्र वाचिक-वडिकावुक्तरीत्या प्रसाध्य " बनु
सवदेते' इत्यस्यार्थ केयट आह- नेकपक्षेण सिध्यत इति । | षडिक इत्यत्र पदसंज्ञायाः सित्येवेति नियमेन नित्तितत्वात् __ अत्र कथमात्मनेपदं पूर्वोक्तसूत्राणामविषयत्वादिति प्रकृत-! पदान्तत्वाभावाडुत्वं न प्राप्नोति 1 न च वाच्यं "स्वरस्य." 5 शङ्कार्थः। शङ्काया:स्थिरीकरणाय स्वानुकूलं प्रयोगार्थमाह- [७ ४. ११०.] इति परिभाषया स्थानिनाकारेणासित्- 45 मिथो विरुध्येते इत्यर्थः इति, तथा चात्र विवादे सत्यपि प्रत्ययस्य व्यवधानं, "न सन्धि०" [७.४.१११ ] इत्यस्यावव्यक्तवार्तकत्वस्य सहोक्तेश्चाभावान्न “विवादे वा" स्थानात्, सत्यम्- "षड्वर्ज." इत्यत्र षडवर्जनं ज्ञापयति[ ३. ३.८०.] इत्यस्य नवा "व्यक्तवाचा सहोतो" नात्र स्थानित्वप्रतिपत्तिः" इति । अत्रेद विचारणीयं
[ ३. ३. ७४. ] इत्यस्य प्राप्तिः, दीप्त्याद्यर्थाभावाच | षडिक इत्यत्र 'षष्' इत्यस्य पदत्वार्थमसित्प्रत्ययस्यास्या10 "दीप्ति ज्ञान." [ ३. ३.८७.] इत्यस्य अनुपूर्वकत्वाभावाद् | कारेण व्यवधानमेष्टव्यम्, अन्यथाऽसित्प्रत्ययपरत्वसत्त्वेन 50
व्यक्तवाक्सम्बन्ध्यर्थे वर्तमानस्वाभावाच्च प्रकृतसूत्रस्यापि न । पदत्वं न स्यात् सित्येवेति नियमात् । तथा च षड्वर्जनेन प्रवृत्तिरिति कथमात्मनेपदं प्रयुज्यत इति भावः । उत्तर- स्थानित्वनिषेधस्य कथमिष्टत्वं स्यात् । किञ्च, स्थानित्वनिषेधः यति-विमतिविवक्षायां भविष्यतीति-वाचिक-षडिकयोः "न सन्धि०" इत्यनेनैव पूर्वमुक्तः, तथा च षड्वर्जनेन
कर्तृत्वार्थं तयोः शब्दत्वेऽपि उपादानगोचरापरोक्षज्ञान- | तत्साधनेन कि विशिष्ट प्रयोजन सिध्यति । तथा चात्र न 15 चिकीर्षाकृतिमत्त्वरूपस्य कर्तत्वस्य स्वीकरणीयत्वेन नाना- | सन्धीति निषेधस्यवाप्रवृत्तिः साधनी येति युक्तं, न तु तेन 55
कर्मसाधनविषया भावसाधनविषयाच मस्तित्र स्वीकर्तव्येति | स्थानिवत्वनिवत्तिः साधनीयेति प्रतिभाति । ननु "प्रत्यय: विमतिरूपार्थसत्त्वात् "दीप्तिज्ञानयत्नविमति०" [३.३.७८ ] | प्रकृत्यादेः" ७.४.११५. इति नियमेन यस्य प्रत्ययस्य इति सूत्रेणात्मनेपदमिति भावः । वाचिक-पडिकयोः सिद्धिस्तु | या प्रकृतिः स एव तदन्तत्वेन गृह्यत इति तन्निमित्तकं
स्वमते इत्थम् - वागाशीर्दत्त इति प्रकृतेरनुकम्पार्थे "अजा- [प्रत्ययनिमित्तं ] कार्यमपि प्रकृतेरेव स्यादित्यसित्प्रत्यय20 तेनाम्नो बहस्वरादियेकेलं वा" [७. ३. ३५ ] इतीके | निमित्तकपदत्वाभावः षडङगुलिदत्त इति समुदायस्यैव स्यान्न 60
षड्वर्जेकस्वर पूर्वपदस्य स्वरे" ७.३ ४० ] इति उत्तरपदस्य | तु षषिति तदवयवस्येत्यसित्प्रत्ययमपरत्वाभावात् स्वभावत आशीर्दत्त इत्यस्य लुक सिति यवर्जव्यञ्जनादौ च नाम्नः एवात्र पदत्वं सिद्धमिति षड्वर्जनसामर्थ्येन स्थानिवद्भावपदत्वविधानात् पदत्वाभावात् "चज: कगम्" [२.१.८६.]. माश्रित्याकारव्यवधानेन नियमाप्रवृत्ती अन्तर्वत्तिविभक्तचा
इति कत्वं "धुटस्तृतीयः" [३.१.७६.] इति गत्वं च न | पदत्वाश्रयणेन हस्वविधानमिति क्लिष्टकल्पनाया अनावश्य25 भवतीति वाचिक इति सिध्यति, षईगुलिदत्त इति | कत्वमिति वाच्यम तथा सति षड़वर्जनस्यापि वैयरित्ति- 66
प्रकृतेश्चानुकम्पार्थे पूर्ववदिके "षड्वजैकस्वर०" [७ ३.४०.] | रिति तत्सामर्थ्यादेवावयवस्यापि प्रत्ययनिमित्तं कायं भवति, इत्यत्र षड्वर्जनात् तस्याप्रातो " द्वितीयात् स्वरादूर्वम्" | सोऽपि प्रत्ययान्ततया स्वीक्रियत इति ज्ञापनात् । अयमाशय:[७ ३.४१ ] इति षडङ्गुलिदत्तस्य लुकि "लुगस्यादेत्यपदे" | एकस्वरादूर्ध्वस्य अङ्गुलिदत्त इत्यस्य लोपेऽसित्प्रत्ययपरत्वेन
[२.१.११३.] इत्यकारस्य लुकि षडिक इति सिद्धयति । पदत्वस्याभावात् डकारो न श्रूयेतेति तद्वारणाय [ एकस्व30 अत्र च असित्प्रत्ययपरत्वस्य । अकारस्य स्थानिवद्भाबेन रादयस्थ लोपवारणाया षड़वर्जन क्रियते, यदि च "प्रत्ययः 70
व्यवधानात् पदत्वमस्त्येवेति षस्य डत्वं सिध्यति "न सन्धि०" | प्रकृत्यादेः" [ ७. ४. ११५. ] इति नियमोऽत्र प्रवर्तेत तर्हि [७४१११.] इति निषेधस्तु न "षड्वर्ज." [७.३.४०. इके परतः षषित्यस्य पदत्वनिषेधाभावादेव डत्वसिद्धिरिति इति सूत्रे षड्वर्जनसामर्थ्यात्, षडिक इत्यत्र डकाररक्षार्थमेव | षडवर्जन व्यर्थ मेव स्यादिति तत्सामदिवयवस्यापि नियमो
हि तत्र षड्वर्जनं क्रियते, अन्यथाऽनेनैव एकस्वरादूर्ध्वस्य | भवति- अवयवोऽपि प्रत्ययान्तत्वनिमित्तकायं लभत इति 35 लुकि षषिक इत्यस्य सिद्धौ षड़वर्जनवैययं स्यात् । तथा च विज्ञायते । इत्थं च वाचिक इत्यस्यापि सिद्धिर्भवति, 75
षड्वर्जनसामर्थ्यादत्र स्थानित्वं भवत्येव, स्थानित्वे च सति- | अन्यथा तत्र आशीर्दत्त इत्यस्य लोपे तस्य स्वरमात्रादेशत्वाअकारेणासितप्रत्ययव्यवधानात् षकारान्तस्यान्तर्वति- | भावेन स्थानित्वाप्रवृत्तावपि वामित्येतन्मात्रे सित्प्रत्ययान्तविभक्तघा पदत्वेन इत्वस्य सिद्धिः । वाचिक इत्यत्र तु | स्वाभावात् तस्य पदत्वनिषेधाभावेन पदान्तस्वात् "चजः
आशीर्दत्तेति समुदायस्य लोप इति स्वरमात्र स्थानिकविधित्वा- कगम्" [२.१.८६.] इति कत्वम् "घुटस्तृतीयः"[२.१.७६.] 40 भावेन न स्थानित्वप्राप्तिरित्यसित्प्रत्यये परतः पदत्वाभावेन इति गत्वं च दुर्वारं स्यात् । भाग्यस्थप्रकृतग्रन्थस्तु पाणिनीय- 80
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२४०
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा० ३, सू०८२]
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EXEEEEEER
प्रक्रियाऽनुसारीति तद्वयाख्यानमिहानपेक्षितमिति न प्रदशि- वर्तते । उदाहरति-सपिषो जानीते इत्यादि, अत्र कर्मणो• 40 तम् । ननु लाघवानुरोधेन "अनोरकर्मकात्" इत्येव ऽभावेनाकर्मकरवाज्जानातरात्मनेपदं प्रयुज्यते, अन्यथा तस्य सूश्यताम्, तथा सति वद इत्यनेन सामानाधिकरण्येनान्व- परस्मैपदित्वेन परस्मैपदमेव स्यात् । ज्ञानस्य निविषयत्वा
योऽपि सम्पत्स्यत इति कर्मण्यसतीति वैयधिकरण्येन निर्देशो | संभवाज्ज्ञानार्थस्य जानाते: कथमकर्मकत्वमिति शङ्का6 व्यर्थ इत्याशङ्कायामाह- अकर्मकादित्यनुक्तवेत्यादि, मुत्थाप्य समाधातुमाह- कथमत्र जानातिरकर्मकः इति, अयमाशय:- कर्मण्यसतीति परत्रानुवर्तते, तत्र क्वचित् अयमाशय:
45 केवलं 'कर्मणि' इत्यस्य 'असति' इत्यनेनैव सम्बन्धः, कचिच्च "घातोरर्थान्तरे वृत्तेस्वर्थेनोपसंग्रहात् । तस्यावृत्त्याइत्येनापि सम्बन्धः शक्यते कर्तुम्, यथा "वेः कृगः प्रसिद्धरविवक्षातः कर्मणोऽकमिका क्रिया ॥"
शब्दे चानाशे" [ ३.३.८५.] "आडो यमहनः स्वेऽने च" | इत्यकर्मधातुसंग्राहकवाक्यानुसारमस्याकर्मकता न संभाव्यते 10 ३.३.८६.] इत्यनयोः सूत्रयोरनुवृत्तं कर्मण्यसतीति पदद्वयं | कर्मभूतस्य सपिषोऽत्र स्पष्ट मुक्तत्वेन
सम्बध्यते, अथ च तत्रत्य 'कर्मणि' इत्यावृत्तं सत् 'शब्दे' चाकर्मत्वसंपादकानां निमित्तानामदर्शनादित्यकर्मकत्वाभावेन 50 इत्यनेन स्वेङ्गे' इत्यनेन च सम्बध्यत इति कर्मण्यसति | कथमात्मनेपदमिति । उत्तरयति- उच्यते। इत्युल्लिख्य नात्र शब्दरूपे कर्मणि च सति; कर्मण्यसति स्वाङ्गरूपे कर्मणि च पिरादि ज्ञेयत्वेन विवक्षितमिति- सपिर्मधुनोरत्रोल्लेखन
सति' इत्येवमों लभ्यते, अत्राकर्मकादित्युक्तो च तत्रापि तयोर्ज्ञानकर्मतयाऽकर्मकत्वं कथमिति यच्छङ्कसे तन्न यत16 शब्दकर्मकात्, स्वाङ्गकर्मकादिति च यथायोगं निर्देशः स्तयोरत्र कर्मत्वेन विवक्षाया अभावः, नो चेत् कर्म तहि
कर्तव्यः स्यादिति दोषः प्रसज्येतेति प्रकृतनिर्देश एव लाघव- कथं तयोः क्रियायां सम्बन्ध इत्याशङ्कयोत्तरयति-- कि 55 मिति, तथा च कर्मण्यसतीति व्यधिकरणमेव विशेषणं हि ? प्रवृत्तौ करणत्वेनेति, अयमाशयो- नात्र ज्ञानार्थो धातूनामिहाश्रितम् ।। ३.३.८१.॥
जानातिरपि तु प्रवृत्त्यर्थः, तथा च धातोरन्तरे वर्तमान
स्वादकर्मकत्वं, सपिरादि तु तदर्थतया प्रकृते विवक्षितायां ज्ञः ॥ ३.३.१२. ॥ .
प्रवृत्ती करणत्वेन विवक्षितमिति । तथा च वाक्यार्थमाह20 त.प्र.-जानातेः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं भवति ।
| सपिषा मधुना वा करणेन भोक्तं प्रवर्तत इत्यर्थः 60 सपिषो जानीते, मधुनो जानीते । कथमत्र जानातिरकर्मकः?
| इति- भोजनं प्रवृत्तेविषयः, सपिरादि च करणम् । ननु उच्यते नात्र सपिरादि ज्ञेयत्वेन विवक्षितम् कि तहि ? |
सहि करणे तृतीवया भवितव्यं -- सचिषा जानातीति, प्रवृत्ती करणत्वेन- सपिषा मधुना वा करणेन भोक्तुं |
| कथमत्र षष्ठीत्याह- "अज्ञा ने ज्ञः षष्ठी" [२.२.८०.] प्रवर्तत इत्यर्थः, अत एव "अज्ञाने ज्ञः षष्ठी" [२.२८०.] |
इति षष्ठीति- अनेन हि अज्ञानार्यस्य जानातेः करणे 25 इति षष्ठी; मिथ्याज्ञानार्थो वा जानाति:- सपिषि रक्त:
षष्ठी विधीयत इति तृतीया न भवतीति भावः। प्रकारान्त- 65 प्रतिहतो वोदकादिषु सपिष्टया ज्ञानवान् भवतीत्यर्थः,
रेणाज्ञानार्थत्वं जानातेराह- मिथ्या ज्ञानार्थो वा जानामिध्याज्ञानं चाज्ञानमित्यज्ञानार्यस्वे पूर्ववदेव षष्ठी; अथवा
तिरिति । प्रकृतपक्षे प्रयोगार्थमाह- सविषि रक्तः सपिः संबन्धि ज्ञानं करोतीति विवक्षायां ज्ञानार्थोऽपि
प्रतिहतो वोदकादिषु सपिष्टया ज्ञानवान् भवतीत्यर्थः जानातिरकर्मकः, तदा तु सम्बन्धे षष्ठी। कर्मण्यसतीत्येव
इति- रागोऽत्यासक्तिः, प्रतिधातो द्वेषः, अत्यासक्तिविषये 30 तैलं सपिषो जानाति, तैलं सपिष्टया जानातीत्यर्थः; स्वरेण
द्वेषविषये च वस्तुनि रागाद् द्वेषाद् वा तत्त्वज्ञानस्य 70 पुत्रं जानाति । केचित तु- ज्ञानोपसर्जनायां प्रवृत्तावेवा
[ यथार्थज्ञानस्य ] प्रतिबद्धत्वेन मिथ्याज्ञानं जायते, अतकर्मकाज्जानातेरात्मनेपदमाहः, अत एव ते- 'संभविष्याव
स्मिस्तबुद्धिहि मिथ्याज्ञानम्, उदकादौ सपिष्टवरहिते एकस्यामभिजानासि मातरि" 'अभिजानासि मंत्र ! कश्मी
सपिष्ट्वेन ज्ञानं मिथ्याज्ञानमेव, रागो द्वेषो वा स्वविषयमेव रेषु वत्स्यामः' इत्यादी प्रवृत्यर्थामावादात्मनेपवाभावं
सर्वत्र दर्शयति, स्त्रीरक्तस्य हि सर्व जगत् तन्मयमेव 35 मन्यन्ते; "ज्ञास्ये रात्राविति प्राशः" इत्यत्रापि ज्ञात्वा
प्रतिभाति, "कृष्णद्वेषी कंस सर्वत्र कृष्णमेवापश्यत्" इति 75 प्रतिष्य इति व्याचक्षते; "जाने कोपपराहमुखी" [ अमरु
भागवतप्रसिद्धिः । तथा सपिषि रागवान् तत्र द्वेषवान् वा शतके ] इत्यत्र तु 'ज्ञोऽमुपसर्गात" [ ३ ३.६६. ] इत्य
जलाद्यपि सर्वथा सपिष्टया जानातीति युक्तं वचः। षष्ठीनेनात्मनेपदमिच्छन्तीति ॥२॥
मुपपादयति- मिथ्याज्ञानं चाज्ञानमेवेति- अशानमित्यत्र श० म. न्यासानुसन्धानमू-ज्ञः। कर्मण्यसतीत्यन-हि नमो न भेदार्थत्वं, तथा सति मिथ्याभूतस्य ज्ञानस्य
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[पा० ३, सू०८२]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशम्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
२४१
ज्ञानभिन्नत्वरूपाज्ञानत्वासंभवात्, किन्तु विरोध्यर्थत्वं, ज्ञान- कत्वेऽपीति तेषामभिप्रायः । इत्थं व्याख्यानस्य तत्सम्मतं विरोधि यत् तदज्ञानमिति, तथाहि नर्थभेदप्रकरणेऽभि- | फलमाह- अत एव ते "संभविष्याव एकस्यामभिजायुक्तोक्ति:
| नासि मातरि" "अभिजानासि मैत्र! कश्मीरेषु "तदन्यत्वं तदल्पता। वत्स्यामः" इत्यादी प्रवृत्त्यर्थाभावादात्मनेपदाभा 5 अप्राशस्त्यं विरोधश्च नमः षट् प्रकीर्तिताः।।" इति। मन्यन्ते इति,अत्र यद्यपि स्वमते 'एकस्यां मातरि संभविष्याय:45
असुरशब्दे यथा नत्रो विरोध्यर्थत्वं तथेहापीति न मिथ्या- 'कश्मीरेषु वत्स्यामः' इति वाक्यार्थयोरेव कर्मत्वं पश्य मृगो ज्ञानस्याज्ञानत्वहानिः। एतेन मिथ्याज्ञानस्यायथार्थज्ञानान्त- धावतीत्यादाविवेति सकर्मकत्वादेव नात्मनेपदं तथापि त इह र्गततया ज्ञानरूपत्वमेवेति प्रकृते जानातेरज्ञानार्थत्वाभावा- वाक्यार्थस्य कर्मत्वं न मन्यन्तेऽपि तु 'एकस्यां मातरि
दिह षष्ठी नोचितेति केषांचिन्मतं प्रत्युक्तं वेदितव्यम् । संभविष्याव:' इत्युल्लेखेनाभिजानासीति रीत्याऽर्थबोधं मन्यन्ते 10 नंयायिकवासनया तथोक्तिसंभवेऽपि भावरूपाज्ञानस्वीकर्तृ. इत्यकर्मकत्वे सत्यपि प्रवृत्त्यर्थाभावादेवात्मनेपदाभावः । इत्थं 60
वेदान्तसिद्धान्तेन मिथ्याज्ञानस्याज्ञानरूपत्वसिद्धेः, प्रायो च तन्मते न द्वयङ्गवैकल्यम्, अन्यथा सकर्मकत्वादात्मनेपदावैयाकरणानां शब्दब्रह्मवादिनां वेदान्तदर्शनेन सह मतैक्यस्य भावः प्रवृत्त्यर्थाभावाद् वेति विनिगमकाभावेन प्रवृत्त्यर्थाप्रसिद्धः । नैयायिकानुयायिनोऽपि परितोषाय प्रकृतप्रयोग- भावोदाहरणत्वमस्य न सङ्गच्छेत, अत्र च "अयदि स्मृत्यर्थे
मन्यथा व्याचष्टे-अथवा सपिःसम्बन्धि ज्ञानं करोतीति भविष्यन्ती" [ ५.२.६.1 इत्युभयत्र भविष्यन्ती । तन्मता15 विवक्षायां ज्ञानार्थोऽपि जानातिरकर्मकः इति, अय- | नुसार पूर्वमतिव्याप्तिवारणमुक्तवाऽव्याप्तिवारणस्थलमाह-55
माशय:- कारकाणां विवक्षाधीनत्वस्य सः स्वीकृतत्वेन | "ज्ञास्ये रात्राविति प्राज्ञः" इत्यत्रापि ज्ञात्वा प्रतिष्ये कर्मणः शेषत्वविवक्षया ज्ञानार्थस्यापि जानातेरविद्यमान- इति ध्याचक्षते इति, तथा च तत्रापि प्रवृत्त्यर्थसत्त्वादात्मनेकर्मत्वरूपमकर्मकत्वं संभाव्यत एवेति तथैव प्रकृते विज्ञेयम् । पदमनेनैव सूत्रेण भवतीति तेषामाशयः। स्वमते च प्रवृत्त्य
तथा च माषाणामश्नीयादित्यादि प्राचीनप्रयोगवदिहावि र्थतया व्याख्यानाभावेऽप्यकर्मकत्वादेवात्मनेपदमिति बोध्यम् । 20 सम्बन्धसामान्ये षष्ठी बोध्येत्याह- तदा त सम्बन्धे | अकर्मकत्वं चाविवक्षित कर्मकत्वेनैव न तु धातोरर्थान्तर- 60
षष्ठीति-अज्ञानार्थत्वाभावेन करणत्वाभावेन च "अज्ञाने ज्ञः | वत्तित्वेन, यत्र च कथमपि प्रवृत्त्यर्थतया व्याख्यानासंभवस्तषष्ठी"[२.२.२०.] इत्यस्य प्राप्तिविरहात् । कर्मण्यसतीत्यस्य | त्राप्यात्मनेपदप्रयोगश्चेद् दृश्यते, तहि तत्रोपायमाह- "जाने सम्बन्ध आवश्यक इत्याह-कर्मण्यसतीत्येवेति, व्यावय॑माह- कोपपराङमुखी' इत्यत्र तु "ज्ञोऽनुपसर्गात" [३.३.
तैलंपिषोजानातीति-अत्रापि जानातेानार्थत्यमेवेति शेष ... 1 इत्यनेनात्मनेपदमिच्छन्तीति- अत्र ज्ञानार्थस्या25 एव षष्ठी। श्योगार्थमाह-तैलंसपिया जानातीत्यर्थः इति। वर्जनीयत्वेन प्रवृत्यर्थतया व्याख्यानासंभवादस्य सूत्रस्य 65
यद्यप्येवमर्थविवक्षायां तैल-सपिषोरुभयोरुद्देश्यविधेयभावेन | प्रवर्तयितुमशक्यतया परेणैवात्मनेपदम् । एवं च 'सपिषो स्थिते: समानविभक्तित्वमेव न्याय्यमिति तैलं सपिंजर्जाना- | जानीते' इत्यादावपि यद्यपि तेनैवात्मनेपदं सिध्यतीति तीत्येव प्रयोग उचितः, सम्बन्धसामान्यविवक्षा चेभयत्र प्रकृतसूत्रप्रयोजनाभाव इति प्रतिपत्तुं शक्यते, तथापि यत्र
सोचितेति सपिष इति षष्ठी दुरुपपादेति प्रतिभाति, तथा- सोपसर्गस्याकर्मकत्वं प्रवृत्त्यर्थत्वं वा तत्र तेनात्मनेपदाप्राप्त. 30 प्याचार्यप्रयोगप्रामाण्येन मा स्वीकार्येति बोध्यम् । अथवा रस्य सूत्रस्य सार्थक्यात् । स्वमते च प्रकृते ["जाने कोप- 70
प्रकृतप्रयोगेऽरुवेरेव प्रत्युदाहरणान्तरमाह- स्वरेण पत्रं पराङ्मुखी' इत्यत्र | वाक्यार्थस्य कर्मत्वे "ज्ञोऽनुपसर्गात्" जानातीति, साक्षात् पुत्रमपश्यन् तदीयस्वरपरिचयेन त । इत्यनेनात्मनेपदम्, 'इत्युल्लेखेन' इति रीत्या व्याख्याने परिचिनोतीत्यर्थः, तथा चोभयत्र जानाते: सकर्मकतया- चाकर्मकत्वादनेनं वाऽऽरमनेपदमिति विवेको बोध्यः। प्रकृत
ऽकर्मकत्वाभावेन न भवत्यात्मनेपदम्, कर्मण्यसतीत्यस्य | पद्म चामरुशतकस्य, तथाहि- पूर्ण पद्यमिदम्35 सम्बन्धाभावे च स्यादेवेति तदीयसम्बन्धस्यावश्यकत्वम् । "जाने कोपपराङ्मुखी प्रियतमा स्वप्नेऽद्य दृष्टा मया 75
वैयाकरणान्तरमतमाह- केचित् तु ज्ञानोपसर्जनायां मा मां संस्पृश पाणिनेति रुदती गन्तु प्रवृत्ता पुरः । प्रवृत्तावेवाकर्मकाज्जानातेरात्मनेपदमाहरिति- ज्ञान- नो यावत् परिरभ्य चाटुशतकैराश्वासयामि प्रियां मुपसर्जनमुपकारकतयाऽप्रधानं यन्न तादृश्यां प्रवृत्ती कम- भ्रातस्तावदहं शठेन विधिना निद्रादरिद्रीकृतः ॥१॥इति ।
णोऽविवक्षादिना च जानातेरकर्मकत्वं यद्यपि भवति तथापि इत्थं चात्र 'जाने' इत्यस्य स्मरामीत्यर्थत्वात् प्रवृत्त्यर्थत्वाभावः 40 पूर्ववैवाकर्मकत्वे सत्यात्मनेपदं न त्वविवक्षितकर्मत्वेनाकर्म- सूतराम्, अत्र च वाक्यार्थस्यैव कर्मत्वं स्पष्टं प्रतीयत इत्यु- 80
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२४२
कलिकालसर्वजश्रोहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा०३, सू०८३-१४]
भयमते तेनैव सूत्रेणात्मनेपदमुचितं न स्वनेनेति प्रतीयते, श०म० यासानुसन्धानम-समो०1 कर्मण्यसतीति केवलं केचिदिति प्रकृत्योल्लिखिते मते प्रवृत्त्यर्थत्वाभावादपि | सम्बध्यत एव । संगच्छते इति- सामञ्जस्यं प्राप्नोतीत्यर्थः। न प्रकृतसूत्रप्राप्तिः, स्वमते च केवलमकर्मकत्वादेवेति
समृच्छते इति-- ऋच्छधातुस्तौदादिक: "ऋच्छत् इन्द्रियविवेकः॥ ३. ३. ८२.॥
प्रलयमूर्तिभावयोः" इति तुदादिषु पाठात् । अर्तेरपि शिति उपात् स्थः ॥ ३.३.८३. 11
"श्रौति-कृवु-धिवु." [ ४.२.१०८.] इत्यनेन ऋच्छादेश- 45 त० प्र०--उपपूर्वात तिष्ठतेः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मने
विधानाद्रूपसाम्यमिति ऋच्छेः स्पष्टीकरणाय शित्युदाहरतिपर्व भवति । भोजनकाल उपतिष्ठते, योगे योग उपतिष्ठते,
ऋच्छिष्यते इति । पृच्छते: संपृच्छते इति । शृणोते: ज्ञानमस्य येवूपतिष्ठते, संनिधीयत इत्यर्थः । कर्मण्य
संशृणले इति । विद्धातुरनेकत्रानेकार्थपठितः, तत्रैकस्येह सतीत्येव- राजानमुपतिष्ठति ।। ८३॥
ग्रहणं सर्वेषां वेति संशये आह-- नित्यपरस्मैपदिभिः 10 श०म० न्यासानुसन्धानम्- उपात् । कर्मण्यसतीति साहचर्यात् जानार्थस्यैव विदेग्रहणमिति-गम्यादयो दृश्- 60
संबध्यत एव । तथा च सूत्रार्थमाह- उपात तिष्ठतेः- पर्यन्ताः सर्व एव नित्यपरस्मैपदिनः, तन्मध्ये विद्धातुः कर्मण्यसतीति । उदाहरति- भोजनकाल उपतिष्ठते पठ्यते, अयं च ज्ञानार्थ एव नित्यपरस्मैपदी, सत्तायां तद्देशवृत्तिसंयोगानुकूलो व्यापार उपतिष्ठतेरर्थः, फलाश्रयस्य | विचारणे चात्मनेपदी, प्राप्तावुभयपदीति, केवलं ज्ञानार्थ
देशस्येहाविवक्षितस्वेनाकर्मकत्वम्, अथवा भोजनकाल इति | स्यैव ग्रहणमिति । संवित्ते इति-- ज्ञानार्थस्यैव रूपमन्यस्य 15 प्रथमान्तं कर्तृवाचकं पदम्, स सन्निहितो भवतीति वक्तु- तु यथायथं संपूर्वस्यापि नित्यं पाक्षिकं वात्मनेपदम् । सं- 55
स्तात्पर्यम् । योगे योग उपतिष्ठते इति- इहापि उभयं | स्वरते इति- स्वरते: शब्दोपतापार्थस्य । अतिरपि म्वासप्तम्यन्तं, किश्चित् पदं प्रतियोगमपस्थितं भवतीति तदर्थः, ! दावदादौ च पठ्यते, तकस्य द्वयोर्वा ग्रहणमित्याशङ्काया. एक सप्तम्यन्तमपरं प्रथमान्तमिति वा, एकस्मिन् योगेऽपरो । माह-अर्तीति सामान्यनिर्देशाद स्वादिरदादिश्च गृह्यते
योग उपतिष्ठत इति तदर्थः, उभयत्राकर्मकत्वं स्पष्ट मेव । | इति. उभयोरेव परस्मैपदित्वेन परस्मैपदिसाहचयस्य 20 ज्ञानमत्य ज्ञेयेषपतिष्ठते इति-ज्ञेयविषयं ज्ञानमस्य सर्वदा नियामकत्वाप्राप्त विशेषाद्भयोर्ग्रहणमिति भावः । "श् 60
वर्त्तत इत्यर्थः, सर्वत्रोपस्थितेः कर्मरहितत्वमेव । सर्वप्रयोग- | गतो" इति क्यादिस्तु न गृह्यते, ह्रस्वत्वेन सामान्याभावात् । साधारण्येनार्थमाह-- संनिधीयत इत्यर्थः इति- यथायोग तत्र म्वादे: शिति ऋच्छादेशः, अदादेश्च द्वित्वादिना रूप कर्मादीनामपि कर्तृत्वविवक्षाया दृष्टत्वात् कर्मणः कर्तृत्व. भेदात तत्र न भवति ऋच्छादेश इति रूपान्तरमाह
विवक्षायां संनिपूर्वस्य दधातेः प्रयोगः, कारकान्तराणां | समियते इति , अद्यतन्या म्वादे: 'मा समृत, मा समृषाताम्, 25 कर्तृत्वविवक्षायां तु नेदृशः प्रयोगः संभाव्यते, "धीच् ! मा समृषत' इत्यादि । इयर्तेस्तु 'मा समरत, मा समरेताम्, 60
अनादरे" इत्यस्य वा प्रयोगः धातुनामनेकार्थत्वेन च ! सा समरन्तेति । माडोऽभावे च म्वादेः समात, समार्षाताम्, विवक्षितार्थलाभः। कर्मण्यसतीत्यस्याप्यावश्यकत्वमित्याह- समातेति । अदादेन समारत, समारेता, समारन्तेत्यादिकर्मण्यसतीत्येवेति । व्यावर्त्य माह- राजानमुपतिष्ठ- रूपाणि । अत्र सूत्रेण कस्यचित् स्वरूपेण कस्यचिदिक्
तीति- राजसमीपं गच्छतीत्यर्थविवक्षायां राज: कर्मत्वेना- | प्रत्ययान्तत्वेन निर्देशो दृश्यते, तत्र पूर्वयोलाघवेन तथैव 30 कर्मकरवाभावान्न भवत्यात्मनेपदम, कर्मण्यसतीत्यस्याभावे स्वरस्योरपि निर्देशस्यौचित्ये शितवा निर्देश: किमर्थ 70 च स्यादेवेति तत्सम्बन्ध आवश्यक: ।। ३.३.८३. ।। इत्याशङ्कायामाह-- स्वरत्ययोः स्तिवनिर्देशो पडलुप्समो गमृच्छि-प्रच्छि-श्र-वित्-स्वरत्यति-दृशः निवृत्त्यर्थः इति- यङ्लुबन्तस्य तस्येह ग्रहणं न स्यादित्यर्थ ॥ ३.३.८४॥
इति भावः, अन्यथा प्रकृतिग्रहणे यइलबन्तस्यापि ग्रहणम् त०प्र०-समः परेम्योगमादिभ्यः कर्मण्यसति कर्तर्यात्म- | इति न्यायेन तत्रापि [यड्लुबन्तेऽपि ] आत्मनेपदप्रवृत्तिः 35 नेपदं भवति । संवच्छते, संमृच्छते, समच्छिष्यते, संपृच्छते, स्यात, श्तिवनिर्देशे सति च
75 संशृणते, नित्यपरस्मैपदिभिः साहचर्यात ज्ञानार्थस्यैव
स्तिवा शवाऽनुबन्धेन निर्दिष्टं यद् गणेन च । विदेग्रहणम् - संवित्त, संस्वरते, अर्तीति सामान्यनिर्देशात् । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चतानि न यङ्लुपि ।।" भ्वादिरदाविश्च गृह्यते- समृच्छते, समियते. संपश्यते,
समृच्छत, सामयत. सपश्यत, | इति न्यायेन तत्र न भवत्यात्मनेपदम्, तथा च तत्र स्वरते: स्वरत्ययोंस्तिवनिर्देशो यमुपनिवृत्यर्थः। कर्मण्यसतीत्येव- ! संमरिस्वति.संसरीस्वति, संसस्वर्तीति, अतस्तु- समरियात, 40 संगच्छति सुहृदम् । ८४ ॥
समरियरीति, समरतीति च । अन्येभ्यस्तु- यङ्लुबन्तेभ्यो- 80
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[पा० ३, सू० ८५]
ऽप्यात्मनेपदं भवत्येवेति गम्यादीनां क्रमश:- 'संजङ्गते, संपरीपृष्टे, संशोश्रुते, संवेवित्त, संदरीदृष्टे' इत्यादिरूपाणि । ऋच्छेस्तु यदेव न भवति व्यञ्जनादित्वाभावात् कुतो यङ्लुप् इति तदुदाहरणं नास्ति । कर्मण्य सतीत्यस्य सम्बन्धं दृढयति5 कर्मण्यतीत्येवेति । व्यावस्थंमाह- संगच्छति सुहृदमिति - अत्र सुहृदः कर्मणः सत्त्वेनाकर्मकत्वाभावादात्मनेपदनिवृत्त्यर्थं तदावश्यकमिति भावः || ३ ३ ८४.
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
२४३
प्रवृत्तेरिति प्रकृते 'विकुर्वते' इत्यस्य तदनुकूलमेवार्थमाह- 40 निष्फलं चेष्टन्ते इत्यर्थः इति । अत्र केचित् "विकारहेती सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः" इति पये 'विक्रियन्ते' इति कर्मकर्तरि प्रयोगमाश्रित्य तत्र "भूषर्थ - सन्- किरादिभ्यश्च त्रिक्यौं” [ ३. ४. ९३. इति सूत्रे चकारेण “णि स्नुध्यात्मनेपदाकर्मकात्" [ ३. ४. १२. ] 45 इति सूत्रस्थानुकर्षणादात्मनेपदविधावकर्मकात् विपूर्वकात् करोतेः कथं क्य इत्याशङ्कन्ते परं तत्र युक्तम्, यतोऽत्र न कर्मकर्तरि प्रयोगोऽपि तु शुद्धे कर्मण्येव, विकारहेती सति तेन विकारकेण कर्त्रा येषां चेतांसि न विक्रियन्ते विकृतानि न विधीयन्ते त एव धीरा इत्यर्थस्य विवक्षितत्वात् । इत्थम- 50 कर्मकादुदाहृत्य शब्दकर्मका दुदाहर्त्तृमवतारयति - शब्दे कर्मणीति क्रोष्टा विकुरुते स्वरानिति- क्रोष्टा शृगालः, स हि प्रकृत्या नानाविधान् स्वरान् करोति, तथा चार्थमाह
वेः कृराः शब्दे चानारी ॥। ३३.८५. ॥ त०प्र० -- विपूर्वात् करोतेरनाशेऽर्थे वर्तमानात् कर्मण्य 10 सति शब्दे च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं भवति । कर्मभ्यसतिविकुर्वते सैन्धवाः, साधु वान्ताः शोभनं वल्गन्तीत्यर्थः ओदनस्य पूर्ण छात्रा विकुर्वते निष्फलं चेष्टन्त इत्यर्थः । शब्दे कर्मणि- क्रोष्टा विकुरुते स्वरान् नानोत्पादयतीत्यर्थं । शब्दे चेति किम् ? विकरोति मृदुम् । श्रनाश इति किम् ? | नानोत्पादयतीत्यर्थः इति । शब्दे चेति किमिति - वे: 15 विकरोत्यध्यायं विकरोति शब्द विनाशयतीत्यर्थः ॥ ८५ ॥
'कृगोऽनाशे' इत्येव सूत्रमस्तु, 'अनाशे' इत्येतत्सामर्थ्यादेव 56 सकर्मकादपि विधि: स्यादेव, नहि नाशार्थस्य कृगोऽकर्मकत्वं सम्भवति तथा च कर्मण्यसतीत्यनुवृत्तमपि प्रकृते पाक्षिकत या संभन्त्स्यते, तथा च कर्मण्यसति नाशाभिन्ने चार्थे सत्यपि कर्मणि सूत्रप्रवृत्तिः स्यादिति क्रोष्टा विकुरुते स्वरानित्यादौ
श० म० न्यासानुसन्धानम् - वे:० । कर्मण्यसतीति सम्बध्यते, तत्र कर्मणीति पदमावर्तते, तथा च तस्य 'शब्दे' इत्यनेनापि सम्बन्धः । 'अनाशे' इति च धात्वर्थपर्युदासः । स च यद्यपि सामर्थ्यात् शब्दे च कर्मणीत्यंशेनैव सम्बध्यते । 20 अकर्मकादशायां नाशार्थत्वस्यासंभवात् नाशो हि सकर्मकः । स्यादेवात्मनेपदमसत्यपि शब्दे चेत्यस्याभावे, इत्यनर्थकं शब्दे 60 कर्मरहितस्य तस्यासंभवात् । यद्यपि कर्तुरपि नश्यमानत्वं । चेत्यस्योपादानमिति प्रष्टुराशयः प्रतिभाति, तमाशयं परिसम्भवति घटो नश्यतीत्यादिदर्शनात् तथापि करोत्यर्थनाशस्य | लक्ष्यैवाव्यातिदोषमप्रदर्थ्यातिव्याप्तिदोषमेवाह - विकरोति कर्मण्येव सम्भव इति शब्दकर्मकत्वे सत्येवासी पर्युदासः मृदुमिति, अन्यथा कर्मण्य सतीत्यस्य सम्बन्धे शब्दे चेत्यस्यासमन्वेतीति स्वीकार्यम्, तथैव चोदाहरणदानात् । तथापि । भावे क्रोष्टा विकुरुते स्वरानिति लभ्येऽव्याप्तिरेव दोष इत्य25 सामान्येन करोतेरर्थव्यावर्त्तकतयैव वाक्यार्थे प्रवेश इत्या तिव्याप्तिप्रदर्शनस्यायुक्तत्व स्यात्, अतिव्याप्स्यपेक्षयाऽव्याप्ति- 65 शयेनाह - विपूर्वकात् करोतेरनाशेऽर्थे वर्त्तमानादित्यादि । दोषस्य बलीयस्त्वाच्च । एवं च 'अनाशे' इत्येतत्पदसामर्थ्याद् तथा च सूत्रस्य द्विविधो विषय:- अकर्मकः शब्दकर्मकश्च यथाकथंचिदकर्मकात् सकर्मकाच वेः परात् कृग आत्मनेपदतत्राकर्मक मुदाहर्तुमवतारयति कर्मण्यसतीति । विकुर्वते विधानस्य "तुष्यतु दुर्जनः" इति न्यायेन स्वीकरणेऽव्याप्तिसैन्धवाः इति - सैन्धवा:- सिन्धुदेशोद्भवा अश्वविशेषाः, निस्तारेऽपि नास्त्यतिव्याप्तिनिस्तार इति विकरोति मृदु30 विकुर्वते विविधमाचरन्ति । तमेवार्थं प्रकृतोपयोगितयाह- मित्यादिशब्दभिकर्मकस्थले आत्मनेपदवारणाय शब्दे चेत्य- 70 साधु दान्ताः शोभनं वल्गन्तीत्यर्थः इति दान्ताः- स्यावश्यकत्वमिति प्रत्युदाहरणाशयः । अनाश इति गतिविशेषेषु शिक्षिता:, अत एव शिक्षानुकूलां गति दर्शयन्ति । किमिति शब्दकर्मकादेव सकर्मकात् स्यादन्यस्मादकर्मकाअन्यथाऽपि प्रयोगोऽयं व्याख्यातुं शक्यः, यत्रादान्ता एवाश्वा | देव स्यादिति शब्दस्य च विनाशार्थं ककरोतिना सह सामर्थ्यगतिकाले न सम्यगाचेष्टन्ते तत्रापि प्रकृतप्रयोगस्य संभवात् । मेव नास्ति तस्य नित्यत्वादिति तदन्यत्र प्रवृत्तेः स्वत एवा35 अदान्ता अश्वाः प्रतिकूलं वल्गन्तीति तत्रार्थप्रतीतेः, विपूर्व । निष्टतया नाशायकात् करोतेः प्राप्तिरेव नास्तीति वृथाऽनाशे 75 कस्य करोतेरनिष्टोत्पत्तिविषय एव बाहुल्येन प्रयोगात् । इति पदमिति प्रष्टुराशयः । शब्दस्य स्फोटरूपस्य नित्यत्वेऽपि उदाहरणान्तरमाह ओवनस्य पूर्णाश्छात्रा विकुर्वते | व्यावहारिकस्य तस्योत्पाद- विनाशयोराविर्भाव तिरोभावइति - छात्राणा मल्प भोजित्वमेवाध्ययने समुपकारकम् कृत | रूपयोर्वैयाकरणं रपि स्वीकृतत्वेन नैयायिकादिभिश्च तस्यापूर्णभोजनानां तेषामध्ययनातिरिक्तक्रियास्वेव बाहुल्येन | नित्यत्वस्यापि साधितत्वेन तत्र सम्भवति नाशार्थकस्य कृगः
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२४४
कलिकालसववज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा० ३, सू० ८६]
प्रयोग इति तत्रात्मनेपदवारणार्थमावश्यकम् 'अनाशे' इति । ग्रहः, यथा च पितरि वत्तितव्यम्, मातरि शुश्रूषितव्यम्' 40 पदमित्याह- विकरोत्यध्याय, विकरोति शब्दमिति- इत्यादिवाक्येषु स्वशब्दाभावेऽपि ज्ञायत एव स्वस्मिन् पितरि अध्यायस्य वाक्यसमूहविशेषरूपस्योत्पाद-विनाशशालित्वस्य | स्वस्यां मातरीति, तथेहापि स्वशब्दानुपादानेऽप्यन्तरङ्गत्वाद सर्वसम्मतत्वेन तानाशार्थकस्य करोते: प्रयोगे, सामान्यतः कर्तुरेवाङ्गस्य प्रतीतिरिति । स्वेऽङ्ग चेति किमिति5 शब्दमात्रस्यानित्यतावादिनां च मते शब्दविषयेऽपि तादृशा- 'सति च' इत्येतदेव तत्स्थाने पाम्धमिति भावः । तथा सति
थंकस्य करोते: प्रयोगे चात्मनेपदवारणार्थमावश्यकम् | कर्मण्यसति सति चाङः पराभ्यां यमि-हनिम्यामात्मनेपदं 45 'अनाशे' इति पदमिति भावः । अन्ये वैयाकरणाश्वेतत्सूत्र- | स्यादित्यर्थः स्यात्, एवं चाकर्मकार सकर्मकाच्च सर्वस्माद् समानविषयके सूत्रेनाशे इति नोपाददत एव, तन्मते च | भविष्यति । नन्वेवं कर्मण्यसतीति निवर्त्य सामान्यत एवं
शब्दस्य कर्मत्वे नाशेऽनाशे वा सर्वत्रात्मनेपदमेव स्यादिति | आङो यम-हन आत्मनेपदं विधीयतां, सति चेत्यपि नाव10 विकुरुते दाब्दमित्येव प्रयोगस्तेषामिष्ट इति प्रतिभाति । श्यकम्, कर्मण्यसतीत्यस्य सम्बन्धे सत्येव 'आयच्छते पादम्,
किमत्र तत्त्वमिति लक्ष्यकचक्षुष्का एव निणेतुमलमिति ।। ३. | आहते शिरः' इत्यादेः सिद्ध्यर्थ सति चेत्यस्य प्रस्तावादिति 50 ३.८५ ॥
चेन्न-- उत्तरत्रानुवृत्त्यर्थं तत्सम्बन्धस्यावश्यकत्वाद, सति च
तत्सम्बन्धे 'आयच्छते पादम्' इत्याद्यर्थ सति चेत्यस्याप्याआङो यम-हनः स्वेऽङ्ग च ।। ३.३.८६ ।।
वश्यकत्वमेव, अन्यथा 'आयच्छति रज्जुम्' इति प्रत्युदाह्रित०प्र०- आङ: पराभ्यां यमि-हमियां कर्मण्यसति
यमाणेऽपि द्वघडवैकल्य स्थादिति प्रत्यूदाहरणासंगतिरपि 15 कर्तुः स्वेऽङ्गेच कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं भवति । आयच्छते,
स्यात्, सति चेत्यस्याभावे ह्यकर्मकादेव विधिः स्यादिति 55 आहते । स्वेऽङ्गे आमच्छते पादम्, आहते शिरः । स्वेऽङ्गे
'आयच्छति रज्जुम्' इत्यत्र प्राप्तिरेव नेति कथं प्रत्युदाहरणचेति किम् ? आयच्छति रज्जुम्, आहन्ति वषलम् । स्थ इति
संगतिः । एवं च सति चेति स्वेऽङ्ग चेत्यस्य स्थाने पाव्यकिम् ? आयच्छति पादौ चैत्रस्य, आहन्ति शिरो मैत्रस्य ।।
मित्येव प्रष्टुराकुतमिति स्वीकार्यम् । तथा चाकर्मकात् अङ्ग इति किम् ? स्वामायच्छति रज्जुम, स्वं पुत्रमाहन्ति ।
सकर्मकाच विधिः स्यादिति 'आयच्छते पादम्' इत्यादाव20 स्वाङ्ग इति समस्तनिर्देशे पारिभाषिकस्याप्रतिपत्तिः
व्याप्त्यभावादतिव्याप्तिमाह- आयच्छति रज्जुमिति, 60 स्थादित्यसमस्ताभिधानम् ।। ८६ ॥
आहन्ति वृषलमिति च, 'स्वेऽङ्ग' इत्यस्याभावे सति चेति श०म० न्यासानुसन्धानम्-आडो०। कर्मण्यसतीति पाठे चात्राप्यात्मनेपदं स्यात्, तत्सत्त्वे च कर्तुः स्वानस्थ सम्बध्यते, तत्र च कर्मणीति पदमावृत्तं सत् 'स्वेऽङ्ग' इत्य- कर्मत्वाभावेन न भवति । नन्वस्य दोषस्य अङ्गे चेत्येताव
नेनापि सम्बध्यते, स्वत्वं च कर्तुरपेक्षयव, अन्यथा सर्व | तापि परिहारसंभवात् 'स्वे' इति व्यर्थमेवेति शङ्कते- स्वे 25 स्याङ्गस्य यकिश्चिदपेक्षया स्वत्वेन स्वपदमव्यातकं स्यात् ।। इति किमिति- तदभावे रज्जु-वृषलयोरङ्गत्वाभावेन तत्र 65
कर्तुरेव कारकचक्रप्रयोक्तत्वेन प्राधान्यात सर्वादेश्वोत्सर्गतः | दोषाभावेऽपि यत्र पराङ्गस्य कर्मत्व तत्रात्मनेपद दुरि प्रधानपरामशिस्वेन कर्तुरपेक्षयद स्वत्वस्य ग्रहीतुमौचित्यं स्यादित्याह-आयच्छति पादौ चंत्रस्य, आहन्ति शिर चेत्येतत् सर्वमभिप्रेत्य सूत्र व्याचष्टे-आङः पराभ्यां यमि. मैत्रस्येति- अत्र पाद-शिरसो चैत्र-मैत्रयोरङ्गत्वेऽपि कर्तु
हनिभ्यां कर्मण्यसति कर्तः स्वेऽङ्कच कमणीत्यादि, रङ्गत्वाभावेन न भवत्यात्मनेपदम्, 'स्वे' इत्यस्याभावे च 30 यमि-हन्योः स्वभावतः सकर्मकत्वेऽप्यन्तिरवृत्तितादशायां तद् दुर्वारमिति तदावश्यकत्वम् । अत्रेद शङ्कयते- यदि 70
कर्मणोऽविवक्षया वा कर्माभाव: सम्भवति, तथा च पूर्वम- पराङ्गकर्मकादात्मनेपदं न भवति तहि "आजध्ने विषमकर्मकमेवोदाहरात- आयच्छते, आहते इति- स्वयमेव | विलोचनस्य वक्षः" इति किरातार्जुनीयमहाकाव्यधृतदीर्घाभवति, यत्किञ्चिदाहन्तुं प्रवर्तते इति चार्थः 1 अकर्मकत्वे । भारविप्रयोगस्य, " आहध्व मा रघूत्तमम्" इति भट्टि
उदाहृत्य स्वेऽङ्गे कर्म ग्युदाहरति-स्वेऽङ्ग इति प्रकृत्य- प्रयोगस्य च कथं साङ्गत्यम्, पूर्वत्र "गाण्डीवी कनकशिला35 आयच्छते पादमिति- दीर्धीकरोतीत्यर्थ: । आहते शिरः निभं भजाम्याम्" इति पूर्वचरणेन सम्बन्धात- " अर्जनः 75
इति- ताडयतीत्यर्थः, अनयोः स्वपाद स्वशिर इति स्वशब्द- कर्ता विषमविलोचनस्य- शिवस्य वक्षो भुजाभ्यामाजघ्ने घटितपाठाभावेऽपि स्वभावतः स्वीयस्यैव पादस्य शिरसो, इत्यन्वयेन, पत्रापि दशरथवाक्ये प्रजानां कर्तृत्वेन परस्यावा प्रतीति: अङ्गानामङ्गिसम्बन्धस्य स्वभावसिद्धत्वेनाङ्गिनो ! स्मच्छब्दबोध्यस्य 'दशरथस्य कर्मत्वेन च स्वाङ्गकर्मस्वाभावः ऽनुपादाने यकिञ्चिदङ्ग यपेक्षया कर्तुरेवोपस्थितत्वात् परि- स्पष्ट एवेति न भवितव्यमात्मनेपदेनेति चेदत्राहुः- प्रमाद
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[ पा० ३, सू०८७]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
२४५
एवायमिति भागविश्यादय आचार्याः। अन्ये तु प्राप्येश्य
व्युदस्तपः ॥ ३. ३. ८७. ॥ म्याहृत्य- 'विषमविलोचनस्य वक्षः प्राप्य आजम्ने' 'रघूत्तम
त०प्र०-व्युभ्यां परात सपेः कर्मण्यसति, स्वेऽङ्ग। मां प्राप्य आहध्वम्' इत्येवमन्वयं स्वीकृत्य हन्तेरकर्मकता
कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं भवति । वितपते उत्तपते रविः, माहुः, तथा चाकर्मकत्वादेवात्मनेपदम् । न चैवं यबन्तस्या
दीप्यत इत्यर्थः । स्वेऽङ्गे-वितपते उत्तपते पाणिम्, साप6 प्रयुज्यमानत्वेन गम्ययपः कर्मधारे" [२.२ ७४. ] इति
२. २ ७९. ] हात यतीत्यर्थः । व्युव इति किम् ? निष्टपति स्वेऽङ्ग चेत्येव
। कर्मणि पञ्चमी स्यादिति शकुनीयम्, यत्र यबन्तं विनैव
वितपति पृथिवीं सविता, संतापयतीत्यर्थः; उत्तपति सुवर्ण 45 यबन्तार्थावगतियथा 'प्रासादादासनाद् वा प्रेक्षते' इत्यादा सवर्णकार:. द्रवीकरोतीत्यर्थः । स्व इत्येव- उत्तपति पृष्ठ तत्रैव तत्प्रवृत्तेरिष्टत्वात्, इह च प्राप्येति पदाध्याहारं
| चैत्रस्य । अङ्ग इत्येव- स्वं सुवर्णमुत्तपति । इह 'दीप्यते विना तदर्थावगत्यभावात् । अथवोक्तेषु स्थलेषु भेत्तुमित्य- | अति
| ज्वलति मासते रोचते' इत्येष्वर्थेषु तपिमकर्मकं स्मरन्ति, 10 स्याध्याहारः कार्यः-विषमविलोचनस्य वक्षो भेत्तुमाजघ्ने,
यथा- वहति भारमिति प्रापणे वहि सकर्मक, स्यन्दने स्वरघूत्तमं मां भेत्तुमाहध्वमित्यर्थात्, एवमपि भिदि प्रत्येव
कर्मकम् - वहति नदी, स्पन्दत इत्यर्थः ॥७॥ 50 वक्षो-रघूत्तमयोः कर्मत्वं न तु हन्ति प्रतीत्यकर्मकत्वादात्मनेपदमिति न दोषः । अथ 'स्वे' इत्येतावदेवास्तु, स्वकीये
श०म० न्यासानुसन्धानम्- युद० । कर्मण्यसति कस्मिविद् वस्तुनि कर्मणि सत्यात्मनेपदं भवतीत्यर्थेन । स्वेऽङ्ग चेति पूर्वसूत्राभ्यां सम्बध्यते । तथा च सूत्रार्थमाह16 'प्रायच्छति पादौ चैत्रस्य' इत्यादौ दोषाभावाद 'अड़े कर्मण्यसति स्वेऽङ्ग च कर्मणीति- सकर्मकस्यापि तपते
इत्यस्य वैयध्यमिति पृच्छति- अडः इति किमिति, ! यथा कर्मणोऽभावस्तथाने स्वयमेव प्रतिपादयिष्यति । व्यवः स्वकीयाङ्गभिन्ने कर्मण्यात्मनेपदमनिमिति तद्वारणायाने
इति समस्तनिर्देशेऽपि व्यस्ताभ्यामेव परात् तपतेरात्मनेपदं 55 इत्यप्यावश्यकमेवेत्या प्रत्यूदाहरणेन- स्वामायच्छति भवति न समस्ताभ्यां परात्, तथाप्रयोगानुपलब्धेः। उदा
रज्जं, स्वं पूत्रमाहन्तीति- अत्र रज्जू-पूत्रयोः स्वीयत्वेऽपि | हति- उत्तपते वितपते रविरिति-कर्मण्यसतीत्यस्यो20 स्वीयाङ्गत्वाभावान्न भवत्यात्मनेपदम् । अथ समस्तपाठ-दाहरणमिदम् । उभयत्रोपसर्गभेदेऽपि ना भेद इति साधा
मनाहत्य व्यस्तपाठादरे कि प्रयोजनमिति जिज्ञासायामाह- रण्येनोभयोरर्थमाह- दीप्यते इत्यर्थः इति- संतापनार्थस्वाङ्ग इति समस्तनिदेशे पारिभाषिकस्वाड-प्रति- स्यापि तपतेरिह दीप्त्यर्थे वर्तमानत्वेनाग्तिरवृत्तित्वाद. 60 पत्तिः स्यादित्यसमस्ताभिधानमिति, अयमाशय:- : कर्मकत्वम् । स्वेऽङ्ग कर्मण्युदाहरति- वितपते उत्तपते
स्वाङः द्विवेह ख्यातम्- यौगिक पारिभाषिक च, तत्र . पाणिमिति- स्वाङ्गभूतपाणिकर्मक तापनमिह विवक्षित25 यौगिकं तावत् स्वमङ्गं स्वाङ्गमिति, पारिभाषिक च
मिति भवति स्वाङ्गकर्मकत्वेनात्मनेपदम् । तथा चार्थमाह "अविकारोऽद्रव मूर्त प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते ।
साधारण्येन- तापयतीत्यर्थः इति- अग्न्यादिसम्पर्केणापच्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु ।।"
गतशत्यं करोतीत्यर्थः । उपसर्गकृतस्यार्थविशेषस्याप्रतीय- 66 इति, "असह-नन-विद्यमानपूर्वपदात स्वाडादकोडादिभ्यः" । मानस्वेनोपसर्गविशेषयोरुपादानमनर्थक सामान्येनैव तप [२.२.३८.] इति सूत्र बृहद्वृत्त्युक्तम् । अस्यार्थ:- विकारो ..
आत्मनेपदं विधीयतामिति शङ्कते- व्युव इति किमिति30 वातादिक्षोभजन्मा शोकादिः, तद्भिश्नमद्रवं मूत्तिमत् स्वाङ्ग
उपसर्गान्तरपरात् तपतेरात्मनेपदमनिष्टमिति तद्वारणायामित्येकम्, तत्- अविकारादिलक्षणयुक्तं प्राणिस्थत्वाभावेऽपि ।
वश्यक उपसर्गविशेषपरिग्रह इत्याह प्रत्युदाहरणद्वारा-निष्टप्राणिनश्च्युतं चेत् तदपि स्वाङ्गमिति द्वितीयम्; प्रतिमादिषु
पत ति- अत्राकर्मकत्वे स्वाङ्गकर्मत्वेऽपि वा न भवत्यात्म- 70 स्थितं प्रथमलक्षणलक्षितस्वाङ्गसदृशमपि स्वामिति नेषद व्युदोऽन्यस्माद् परत्वात् । कर्मण्यसति स्वेऽने च
तृतीयमिति कारत्रयविशिष्टं स्वाङ्गं व्याकरणशास्त्र उच्यते | कर्मणीत्युभयमपि सम्बन्धनीयमेवेत्याह-स्वेऽङ्ग चेत्येवेति35 इति । एवं च स्वाङ्गशब्देनोभयोरर्थयोरुपस्थिती कृत्रिमा- ! इह चकारेणव कर्मण्यसति चेत्यस्यापि संग्रह इत्युभयोः फलऽकृत्रिमयोः कृत्रिमे कार्यसंप्रत्ययः इति न्यायेन * रूढि- प्रदर्शनायोग्युक्तमेव । प्रत्युदाहरणमाह-वितपति पृथिवीं र्योगाद् बलीयसी - इति न्यायेन वा स्वाङ्गपदेन पारि. सवितेति- अत्र पृथिव्याः कर्मत्वेन कर्मण्यसतीत्यस्य प्रत्यु- 76 भाषिकस्वाङ्गस्यैव ग्रहणं स्यात्, तन्मा भूदित्यसमस्तरूपेण
दारणत्वं, तस्याश्चाङ्गत्वाभावे 'अनङ्गं' इत्यस्यापि प्रत्यु'स्वेऽने' इत्यभिहितमिति ।। ३. ३.८६ ।।
दाहरणत्वम् । प्रयोगार्थमाह- सन्तापयतीत्यर्थः इतिस्वकीयेनातपेन तस्या जलं सशोष्योष्णीकरोतीत्यर्थः। म
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कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते
[पा०३, सू०८७.८५]
केवलं ताप एवार्थेऽस्य सकर्मकत्वमपि त्वन्यत्रापीति प्रदर्श-प्रापणे वहि सकर्मक स्पन्दने त्वकर्मफमिति- यथा यितुं प्रत्युदाहरणान्तरमाह- उत्तपति
र: वहति भारमिति प्रयोगे वहिंसकर्मक स्मरन्ति, स्पन्दनेऽर्थे पि सकर्मकत्वादकर्मकत्वनिबन्धनस्वाङ्गकर्म- | तू तमेवाकर्मक स्मरन्ति, तथा संतापे 'तपति प्रथिवीं सविता' कत्वाच स्वाङ्गकर्मकत्वनिबन्धनं वाऽऽत्मनेपदं न भवति । इत्यादौ सकर्मकस्यापि तपेः 'तपति सूर्यः' इत्यादिवाक्ये 5 प्रयोगार्थमाह- द्रवीकरोतीत्यर्थः इति- अग्निसंयोमेन | दीप्यत इत्यर्थेऽकर्मकत्वमित्यर्थः । स्पन्दने वहेः प्रयोगमुदा- 45
धनत्वनाशाद् द्रवत्वमुत्पादयतीत्यर्थः, तथा चवमादिष्वात्म- | हरति- नदी बहतीति- अत्र वहेर्न कर्मापेक्षेत्यकर्मकत्वम् । नेपदं वारयितुं स्वेऽङ्गे चेत्यावश्यक मिति भावः। नन्वत्राति- अर्थमाह-- स्पन्दते इति- प्रस्रवतीत्यर्थः, अत्रार्थ कर्मापेक्षाव्याप्तिवारणार्थमने चेत्येतावदेवास्तु प्रथिवी-सूवर्णयोर ड्र- भाव एवेति यथा, तथा दीप्त्यादिष्वर्थेषु तपेरपीति ।। ३.
स्वाभावादेव न स्यादात्मनेपदमिति 'स्वे' इत्यनावश्यकमिति । ३.६ 10 वेदत्राह- 'स्वे' इत्येवेति- स्वस्मिन्नङ्गे एव कर्मणि सति अणिकर्मणिक्कर्तृकाणिगोऽस्मृतौ 50 भवति, न तु परकीयाङ्गस्य कर्मत्वे इत्यपि वाच्यमेवेत्यर्थः ।
|| ३.३.८८.1 व्यावर्त्यमाह-उत्तपति पृष्ठं चैत्रस्येति- अङ्गस्य पृष्ठस्य त० प्र०-- "प्रयोक्तृव्यापारे णिग्" [ ३. ४. कर्मत्वे सत्यपि तत्र कतु: स्वत्वाभावान भवत्यात्मनेपदम् । । २०.1 इति वक्ष्यते, अणिगवस्थायां यत् कर्म तदेव
'स्वे' इत्येवास्तु, स्वकीये वस्तुनि कर्मणि सति भवतीत्यर्थे- णियवस्थायां कर्ता यस्य सोऽणिकूर्मणिकर्तकः, सस्मात्, 15 ऽपि प्रदर्शितप्रत्युदाहरणेषु व्यावृत्तिः, उक्तोदाहरणेषु चणिगन्ताद घातोरस्मती वर्तमानात कर्तर्यात्मनेपदं भवति । 55
प्रवृत्तिः स्यादेवेति 'अङ्गे' इत्येव त्यज्यतामिति चेदत्राह- | आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपका आरोहयते हस्ती अङ्ग इत्येवेति- न स्वस्मिन् यस्मिन् कस्मिविद् वस्तुनि हस्तिपकान, आस्कन्वयत इत्यर्थः, पश्यन्ति राजानं भृत्याः, कर्मणि सति भवत्यपि तु 'अने' एव स्वीये कर्मणि सतीत्यपि | दर्शयते राजा मृत्यान मृत्यैरिति वा; पिबन्ति मधु पायकाः,
स्वीकार्य मेवेत्यर्थः । व्यावय॑माह- स्वं सुवर्णमुत्तपतीति- पाययते मधु पायकान् । अणिगिति किम् ? आरोहन्ति 20 अत्र स्वीये सुवर्णे कर्मणि सत्यपि न भवत्यात्मनेपदम्, 'अने' । हस्तिनं इस्तिपकाः, आरोहयति हस्तिपकान महामात्रः, 60
इत्यस्याभावे च तद् दुर्वारमेवेति भावः । तपेः संतापार्थकस्य । आरोहयन्ति महामात्रेण हस्तिषकाः; प्रथमणिगन्तकमणि फल-व्यापारयोव्यंधिकरणत्वेन कथमकर्मकत्वम् सकर्मकाs- द्वितीयणिगन्तकर्तयपि मा भूत् । गित्करणं किम् ? गणयति कर्मलक्षणं सामान्यत:--
गणे गोपालकः, गणयते गणो गोपालकम्, इति णिजन्त"फलव्यापारयोरेकनिष्ठतायामकर्मकः ।
कर्मणिकर्तृकादपि णिगन्तात् प्रतिषेधो मा मूत् । कर्मेति 25 धातुस्तयोर्धमिभेदे सकर्मक उदाहृतः॥"
किम् ? करणादेः कत्वे मा मूत-पश्यन्ति भृत्याः प्रदीपेन, 65 इत्येवं रीत्योक्तमभियुक्तः। सथा च फलसमानाधिकरण-दर्शयति प्रदीपो भत्यान् । णिगिति किम् ? यस्याणिगन्तस्थव व्यापारवाचकत्वमकर्मकत्वम्, फलव्यधिकरणब्यापारवाचकत्वं कर्म कर्ता भवति ततो णिगन्तान्मा भूत-लुनाति केदार सकर्मकत्वमिति लक्षणं फलति, तप्यर्थः संतापश्च न कर्तरि | चैत्रः, सूयते केदारः स्वयमेव, तं प्रयुङ्क्ते- लावयति केवारं
किन्तु तदतिरिक्त एवेति फलव्यधिकरणव्यापारवाचकत्व | चैत्रः । करी प्रहणं किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः, 30 तपेः स्पथमेवेति नायमकर्मक इति चेदत्राह- इह 'दीप्यते | तानेनमारोहयति महामात्रः। णिम इति किम् ? आरोहन्ति 70
ज्वलति भासते रोचते' इत्येष्वर्थेषु तपिमकर्मकं | हस्तिनं हस्तिकाः, तानारोहयते हस्तीत्यणिगवस्थायां मा स्मरन्ति इति, अयमाशय:- सन्तापार्थे वर्तमानस्तपि -
भूत् । प्रत्यासत्तेश्च यस्येव धातोरणियवस्था तस्यैव धातोकर्मक इति सत्यम्- किन्तु तस्य दीप्ताद्यर्थान्तरवृत्तिदशाया-णिगवस्था गृह्यते न धारयन्तरस्य, तेनेह न भवति- आरुह्य
मकर्मकत्वं पूर्वाचार्यसम्मतम्, धातूनामर्थस्यानिपतत्वाच्च | माणो हस्ती चेतयति पृष्ठं मूत्रेण । 'हस्तिपकरारुह्यमाणो 35 तस्य दीप्त्यादिष्वर्थेषु वर्तमानत्वं न निर्मूलम्, धातोरर्थान्तर- हस्ती स्थलमारोहयति मनुष्यान' इत्यत्र तु स दृशधातुप्रयो- 75 वृत्तित्वे अकर्मकता च
गेऽपि पूर्वो हस्तिपककर्तृ को रुहिः परश्न मनुष्यकलंक इति "धातोरन्तरे उत्तेर्धात्वर्थेनोपसङ्ग्रहात् ।
साधनभेदात् क्रियाभेदे धातुभेवः । अस्मृताविति किम् ? .. प्रसिद्ध रविवक्षातः कर्मणोऽकमिका क्रिया ।।"
स्मरति वनगुल्म कोकिल:, स्मरयत्येनं वनगुल्मः। इति कारिकया स्वीकृताऽभियुक्तः। अर्थान्तरवृत्तित्वे घातो- कथं हन्त्यात्मानं, घातयत्यात्मेति, अत्र ह्यात्मनोऽणि40 रकमकतामुदाहरणेन प्रमाणयति- यथा-वहति भारमिति | कर्म गो णिकर्तृत्वमस्तीति नैवम् - द्वादात्मानो-शरीरात्मा- 80
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[पा०३, सू०८८]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
२४७
ऽन्तरात्मा च, तत्र मेवेनैव लोके नित्यमयं प्रयोगः, हत्या-णिकृतकः इति- प्रयोजकव्यापारविवक्षातः पूर्व यद् वाक्यं त्मानमिति शरीरात्मनोऽन्तरात्मनो वा कर्मत्वम्. धातयत्या- प्रयुज्यते तदबस्थायां तस्य क्रियापदस्य यत् कर्मत्वेनोपात्तं स्मानमित्यपि तस्यैव कर्मत्वं न कर्तृत्वमिति । ननु यदि तदेव प्रयोजकव्यापारविवक्षया णिगन्तावस्थापन्नस्य किया
अणिकर्मणो णिकर्तृतायां णियन्तावात्मतेपदमिष्यते तहि पदस्य यदि कर्तृत्वेन विवक्षितं स्यात् तहि प्रकृतसूत्रप्रवृत्ति5 'शुष्यन्यातपे बोहयः, शोषयते बीहोनातपः' इत्यादावधि-विषयतेति तात्पर्यम् । अणिकर्मणिक्कत कादिति च णिगः करणावे: कर्तृतायामात्मनेपदं न प्राप्नोति,न-फलवकतृ'रि इत्यस्य विशेषणम्, णिक च प्रत्यय इति तद्ग्रहणे तदन्तस्य भविष्यति । यद्येवमारोहयते हस्ती हस्तिपकानित्यावावपि । ग्रहणं भवतीति पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टाण्णगन्तात् प्रकृतः तथैवास्तु, सत्यम् - किन्तु फलवतः कर्मस्थक्रियाचाम्यत्रायं स्मृतिभिन्नेऽर्थे वर्तमानादात्मनेपदं भवतीति सूत्रार्थ: पर्य
विधिः, तयाहि- 'लावयते. केदारः, मूषयते कन्या, कारयते वसितः, तमाह- तस्मात् णिगन्ताद धातोरित्यादिना, 10 कटः गणयते गणः, आरोहयते हस्ती स्वयमेव' इत्यादी सर्वत्राणिकर्मणिक्कत कतां द्योतयितुमणिगवस्थानिर्देश उदा- 60
कर्मस्थकियत्वात् 'एकघाती कर्मकिययकाकर्मक्रिये"[३. हरणेषु क्रियते-आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः इति४. ४६ । इत्यनेनैवात्मनेपदं भवति ।
अत्र रुहेर्ग जोपरिप्राप्त्यनुकूलन्यम्भावनादि रथः, हस्तिपका गजनन्वारोहयते हस्ती स्वयमेवेत्यम्य 'आस्कन्दयते' इति | मारोद तं न्यम्भावयन्तीत्यर्थः, न्यम्भावन च तस्य गजस्य] किलार्थः, तत् कथं कर्मस्थक्रियता रहे:, उच्यते-- यदा नीचैरुपवेशपूर्वकारोहणानुकूलतदीयपादार्पणशिरोऽधूनानादि - 15 न्यग्मावन र्थोऽयं तथा कर्मस्थक्रियत्वम् तथाहि- 'आरोहन्ति | कृते तत्प्रेरणम्, इयं च प्रेरणा रुहेरन्तर्भाविता । यदा च 65
हस्तिनं हस्तिपकाः' इति न्यग्मवनोपसर्जने न्यग्भावने | गजस्य शिक्षितत्वविवक्षार्थ हस्तिपकव्यापारो न विवक्ष्यते. रहिवंतते, सद्वितीयस्यामवस्थायाम् आरुहाते हस्ती स्वय- ऽपि तु गजस्यैव तदनुकूलाचरणं विवक्ष्यते तदा गजस्य मेव' इत्यस्यां कर्मकर्तृ विषयो व्यग्भवनमात्रवृत्तिर्भवति, | प्रयोजकतया तयापारवाचको णिग् भवतीत्ययं स्वयमेव
अय चतुथ्योमन्त ततृतीयायाम् 'आरुह्यमाणं प्रयुञ्जते' इति । तानारोहयते इति प्रयोग: पर्यवस्यति, तमाह- आरोहयते 20 हस्तिपकव्यापारप्रधानायां भिगन्तः सन् 'आरोहयन्ति हस्तिनं । हस्ती हस्तिपकानिति- अत्राणिगवस्थाकर्मण एवं कर्तृत्व- 60
हस्तिपकाः' इत्यस्यां शुद्धारोहतिवश्यरभवनोपसर्जने | मिति भवति सूत्रप्रवृत्तिः । प्रयोगार्थमाह- आस्कन्दयते - न्यामावने वर्तते, पुनयंदा अस्यैव प्रयोजकव्यापाराविवक्षा इत्यर्थः इति- हस्तिपका हस्तिन उपर्यागच्छन्ति तास्तद
तवा 'आरोहपते हस्ती स्वयमेव' इत्यस्यां पञ्चम्यामवस्थायाम नुकूलाचरणेनागमयतीत्यर्थः, आस्कन्दयते इत्यत्राप्यने
'आवह्यते हस्ती स्वयमेव' इतिवयम्भवनलमणस्य विशेषस्य नैवात्मनेपदम्, हस्तिएका हस्तिनमास्कन्दन्तीति प्रथमकक्ष्या25 हस्तिसमवेतत्वेनोपलम्मात् 'लावयते केदारः' इत्यादाविव | यामणिगवस्थायां कर्मणो हस्तिन एवात्रापि कर्तृत्वात् । 65 कर्मस्थक्रियत्वमस्त्येवेति न किश्चिदमुपपन्नम् । तदुक्तम्- उदाहरणान्तरमवतारयति- पश्यन्ति राजानं भत्याः "भ्यम्भावना न्यग्भवन, कहो शुद्ध प्रतीयते ।
इत्या दिना, इयमणिगवस्था कर्मणः प्रदर्शनार्थम् । प्रकृतन्यग्भावना न्यग्मवनं, क्यन्तेऽपि प्रतिपद्यते ॥ सूत्रोदाहरणं तु वर्शयते राजा भृत्यान् इति- राजा स्वयअवस्था पञ्चमीमाहुण्यन्ते तां कर्मकर्तरि ।
मेव भृत्यानां चाक्षुषज्ञानविषयो भवतीति पश्यतो भृत्यान 30 निवृत्त प्रेरणा धातोःप्राकृतेऽर्थे णिगुच्यते ।।"इति स्वदर्शनाय प्रेरयतीति वार्थः, अत्राणिगवस्थाकर्मणो राज्ञो 70 ___ ॥ ५॥
भिगवस्थायां कर्तृत्वसत्त्वाद् भवत्यनेनात्मनेपदम्, "दृश्यश० म० न्यासानुसन्धानम्- अणि । वाक्यार्थं भिवदोरात्मने"[२.२.६.] इत्यात्मनेपदविषयतायामणिकर्तणां बोधयितु पदार्थ व्याख्याति-प्रयोक्तव्यापारे णिमित्यादिना, भृत्यानां विकल्पेन कर्मवे सति द्वितीया, तदभावे चाणिग.
णिमिह विरुपात्तः सूत्र, तत्र णीत्येव निर्देशे लाघवं स्यादिति | वस्थाकर्तृत्वमूलिका तृतीया; तदाह- मृत्यरिति । पुनरुदा35 शिष्यशङ्कानिरासाय णिगनिर्देशे विशेषस्य विवक्षितस्य हरति- पिबन्ति मधू पायकाः इत्यादिना, पिबन्तीति 75
भूमिकारूपेण वायं णिग: परिचयो दीयते, प्रयोक्त:- कर्मणि | पायकाः, पिबतेर्णकि "आत ऐः कृऔ" [ ४. ३. ५३.? प्रवृत्तस्य प्रेरयितव्यापारे वाच्ये यो णिगूक्तसूत्रेण विधास्यते आकारस्यैकारे आयादेशे च-पायका इति, इयं चाणिगतस्यैत्र परिग्रहार्थमयं निर्देश इति भावः । अणिकर्म- वस्था, कर्मणो मधुन एवामोदादिना पायकप्रेरकत्वे णिगि
णि कादिति पदं विगृह्य व्याख्याति- अणिगवस्थायां पाययते मधू पायकानिति-- अत्र यद्यपि "चल्याहारा " 40 यत् कर्म तदेव णिगवस्थायां कर्ता यस्य सोऽणिकर्मः । (३.३.१०८.] इति सूत्रेण परस्मैपदं प्राप्त विशेषविहिततया 80
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२४८
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[ पा० ३, सू० ८८ ]
गोपालकम् इति गणयन्त गोपालकं गणः प्रेरयतीति विवक्षायां णिगि सति अणिकर्मणो गणस्य णिगवस्थायां कर्तृत्वसत्त्वाद् भवत्येवात्मनेपदम्, गिरकरणाभावे च गणयति
।
प्रबाध्य "परिमुहायमायस०" [३. ३. ९४. ] इत्यात्मनेपदं प्राप्तमेव तथापि तेन फलवति कर्तरि भवत्यात्मनेपदमनेन चाफल वत्यपि कर्त्तरीत्यफलवत्कर्तृ त्वे इदमुदाहरणम् । चितवत्कर्तृत्वेऽचित्तवत्कर्तृ कत्वे चोदाहृत्य सम्प्रति पदकृत्य- | गणं गोपालक इत्यस्याण्यन्तत्वाभावेन तत्र कर्मणो गणस्य 5 माह- अणिगिति किमिति, तथा च कर्मकर्तृ काणिगोपिगन्तावस्थायां कर्तृत्वसत्त्वेऽपि न स्यादात्मनेपदमित्याह - 45 स्मृताविति सूत्राकारोऽस्तु क्वचिदवस्थायां कर्मणो यत्र | णिजन्तकर्मणिक्कर्तृकावपि णिगन्तात् प्रतिषेधो मा कर्तृत्वं तस्माण्णिगन्तादित्यर्थेऽर्थादेवाणिगि कर्मणो णिगि भूदिति णिजन्तावस्था गणयति गणं गोपालक इति, तत्र कर्तृत्वमिति लभ्येत, अन्यथा णिगि कर्मणो णिगि कर्तृत्वं कर्मणो गणस्य णिगि कर्तृत्वं यत्र तादृशाण्णिगन्ताद् गणयते स्वसिद्धमेवेति तत्कथनस्य वयथ्यंमेवेति 'अणिग्' इत्यस्या- गणो गोपालकमिति प्रयोगस्थिताद् गणयतेः प्रतिषेधः10 भावेऽपि प्रकृतार्थलाभः स्यादेवेति प्रष्टुराशयः । समाने आत्मनेपदाप्रवृत्तिर्मा भूदित्यर्थः । पुनः शङ्कते - कर्मेति 50 [ एकस्मिन् ] निगि कस्यचित् कर्मस्वकर्तृत्वयोर्यौगपद्येना- किमिति-अणिकर्मेति अणिगवस्थायां कर्मण एव निगवस्थायां सिद्धत्वेऽपि द्वियस्थले निमन्तकर्मण एवापरणिगन्तकर्तृत्वं कर्तृत्वं यत्रेति विशिष्य कारक विशेषनिर्देशो न कार्यः, किन्तु संभाव्यत एवेति तत्र सूत्रप्रवृत्तिरनिष्टा स्यादित्याह क्रम- सामान्येन अणिक्कारकणिक्कर्तृकादिति वक्तव्यमिति प्रष्टुप्रदर्शनपूर्वकम् - आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः इत्या- राशय: तथा सति लाघवाभावेऽपि सूत्रस्य व्यापकत्वं 15 दिना, अत्राणिगवस्था प्रदर्शनं णिग्द्वयोत्पत्तिक्रम प्रदर्शनमात्रार्थं स्यादिति "असति बाधके प्रमाणानां सामान्ये पक्षपातः " 55 न तु पूर्वोदाहृतस्थल वदणिगि कर्मणो णिगि कर्तृत्वप्रति इति न्यायानुकूल्यमपि स्यादिति तन्मूलम् । केवलमणिग पादनार्थं तस्येहानावश्यकत्वात् । अत्रैव प्रयोजकव्यापार-वस्थाकर्मण एव णिगवस्थाकर्तृत्वे सूत्र प्रवृत्तिरिष्टा, न तु विवक्षायां गिन्तप्रयोगं प्रदर्शयति- आरोहयति हस्ति कारकान्तरस्य तत्कर्तृत्वे इति स्वाशयं प्रकटयति- करणादेः कर्तृत्वे मा भूदिति यत्र कर्मभिन्नस्य अणिगवस्थाकारकस्य करणादेणिगवस्थायां कर्तृत्वविवक्षा तत्र सूत्रप्रवृत्तिर्मा 60 भूदित्येतदर्थं कर्मग्रहणं कार्यमिति भावः । तादृशस्थलं दर्शयति- पश्यन्ति भृत्याः प्रदीपेनेति-- अत्राणिगवस्थायां प्रदीपस्य करणत्वं तस्यैव यदि प्रयोजकत्वं विवक्षितं तदा दर्शयति प्रदीपो भृत्यानिति प्रयोगः, एतदेव च प्रकृते प्रत्युदाहरणम्, तथा चात्राणिगवस्थाकरणस्य प्रदीपस्य णिग- 65 वस्थायां कर्तृत्वमस्तीति प्रकृतसूत्रप्रवृत्तिः स्यात् कर्मग्रहणे कृते तु न भवति प्रदीपस्य कर्मत्वाभावात् । द्वितीयस्य णिग्रहणस्य फलं पृच्छति णिगिति किमिति, तथा च "अणिक्कर्मकर्तृ काणिगोऽस्मृती" इति सूत्रमस्तु निगन्तादेवात्मनेपदस्य विधीयमानत्वेन तं प्रत्येवाणिकर्मणः कर्तृ त्वं 70 विज्ञास्यते प्रत्यासत्येति प्रष्टुराशयः । प्रत्युदाहरणस्थल प्रदर्शयति- यस्याणि गन्तस्यैव कर्म कर्ता भवति ततो णिगन्तात्मा भूदिति- अणिमवस्थायामेव यत्र कर्मणः कर्तृत्वं विवक्षितं तत्राणिकर्म कर्तृत्वमस्ति तादृशकतृकाद धातोः प्रयोजकव्यापारविवक्षायां गिगि कृते प्रकृतसूत्रप्रवृतिर्मा 75 भूदित्यर्थः । क्वेत्याह- लुनाति केदारं चैत्रः इति कर्तृ
पत्रान् महामात्र: इति - महामात्र: प्रधान हस्तिपक:, 20 आरोहतो हस्तिपकान् स प्रेरयतीति विवक्षायां पिग्, अत्र नास्ति पूर्वावस्थायां कर्मणः प्रकृतावस्थायां कर्तृत्वमिति नास्ति प्रकृतसूत्रप्राप्तिः । अत्रापि प्रेरणार्थविवक्षायां णिगि प्रत्युदाहरणत्वमित्याह- आरोहयन्ति महामात्रेण हस्तिपका: इति - आत्मन आरोहयन्तं महामात्रं हस्तिपकाः 25 प्रेरयन्तीत्यर्थः । अत्र प्रथमणिगवस्थायां कर्मणां हस्तिपकानां
।
।
कर्तृत्वमिति कर्मण: कर्तृत्वमस्तीति आत्मनेपदं स्यात् तन्मा भूदित्याह - प्रथमणिगन्तकर्मणि द्वितीयणिगन्तकर्तर्यपि मा भूत् इति, अयमाशय:- अणिगित्यस्याभावे - अणि गवस्थाकर्मणो णिगवस्थाकर्तृ काण्णिगन्ताद् यथाऽऽत्मनेपदं 30 भवति तथा frगवस्था कर्मणोऽपराणिगवस्थाकतृ तादशायां मा भूदित्येतदर्थमणिगित्यस्यावश्यकत्वमिति । पुनः पृच्छति - frत्करणं किमिति सामान्येन णिनिर्देश एवं कार्यो न तु गित्वविशिष्टणिनिर्देश इति प्रष्टुराशयः यद्यपि णिमिह सूत्रे त्रिनिदस्तथापि प्रथमोपस्थितत्वात् पूर्वं तत्फलकथन 35 स्यैव प्रस्तुतत्वाच्च तदीयगित्वविषयक एवायं प्रश्नः । प्रत्युदाहरणेनोत्तरयति-- गणपति गणे गोपालकः इति - | चौरादिकस्य गणयतेः स्वार्थण्यन्तस्य प्रयोगोऽणिगवस्था ! व्यापारविवक्षावस्थेयम्, यदा च कर्मण एव कर्तृत्वं विवक्ष्यते सूनार्थः, सा ह्यवस्था सिद्धान्ते प्रकृतसूत्रप्रवृत्यनुकूलैव, सौकर्यातिशयद्योतनार्थं तदा- लूयते केदारः स्वयमेवेतिगिरकरणाभावे च तस्याः प्रातिकूल्यं वक्ष्यति । ततः प्रयो- “एकधातौ कर्मक्रिययैकाऽकर्मक्रिये" [ ३.४.८६. ] इत्या40 जकव्यापारविवक्षायां णिगन्त प्रयोगमाह- गणयते गणो | त्मनेपदं क्या भवति । अत्रैव प्रयोजकव्यापारविवक्षायां- 80
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[ पा० ३, सू० ८८ J
।
लावयति केदारं चैत्रः इति - अत्राणिगवस्थाकर्मकर्तृकाल्लुनातेणिगन्तादात्मनेपदं स्यात्, णिगित्युक्तौ च केदारस्य functaraiणोऽत्र कर्तृत्वाभावान्न भवतीति 'लावयति' इति परस्मैपदमेव भवत्यफलवत्कर्त्तरि णिगित्यस्याभावे च 5 फलवत्यफलवति च सर्वत्रात्मनेपदमेव स्यात् । ननु यथा लूयते केदारः स्वयमेवेत्यत्र “एकघातौ०" [ ३. ४. ८६. ] इत्यात्मनेपदं भवति तथा आरोहस्ते हस्ती हस्तिपकान्" इत्यत्रापि तेनैवात्मनेपद सिद्धं, या हि पूर्व 'आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपका:' इत्यवस्थायां कर्मणि क्रिया दृष्टा संवेह 'आरो10 हयते हस्ती हस्तिपकान्' इत्यत्र कर्तरि दृश्यते इति लूयते केदारः स्वयमेवेत्यनेन साम्यादिति चेन- अकर्मक क्रियत्वा भावात्, लूयते केदारः स्वयमेवेत्यत्र हि कर्मण: कर्तृत्वविवक्षायां क्रियाsafर्मका भवति, आरोहयते हस्ती हस्ति पकानित्यत्र च क्रिया सकमिकेति भेदात् । अत एव हि 15 तत्र सूत्रे 'अकर्मक्रिये' इत्युच्यते, ताहशी च क्रिया यत्र सौकर्यातिशयद्योतनार्थं कर्मणोऽविवक्षा तत्रैव न तु प्रकृते इति तेन सूत्रेण प्रकृते आत्मनेपदप्राप्त्यभावात् प्रकृतसूत्रावश्यकताऽस्त्येवेति । णिग इति किमिति- द्वितीयणिग्ग्रह - णादेव णिगन्तादात्मनेपदमनेन विधीयत इति प्रतीतेः पुनणंग 20 इति व्यर्थम् अणिगि कर्म गिगि कर्ता यस्येत्युक्तो णिगन्त
प्रेरयतीत्यर्थंविवक्षायां न रुहेणिगवस्थया सम्बन्धो नवा सिञ्च तेरणिगवस्थयेति यस्यैव धातोरणिगवस्था तस्यैव णिगवस्था नास्ति, प्रकृतन्याय [ प्रत्यासत्तिन्याय ] समाश्रयणाभावे च तद् दुर्वारम् । किञ्चकस्यापि धातोः कारकभेदाद् भिन्नत्वमिति भिन्नकारकस्थले न तस्येकत्वमिति तत्रापि न भवत्या 45 स्मनेपदमित्याह- हस्तिपकेरारुह्यमाणो हस्ती स्थलमारोहयति मनुष्यान् इत्यादिना, हस्तिपका हस्तिनमारोहन्ति तैराह्यमाणो हस्ती मनुष्यान् स्थलमारोदयतीत्यण्यन्तावस्थाकर्मणो हस्तिनो ण्यन्तावस्थायां कर्तृत्वे सत्यपि प्रकृतेः रुहेः कर्तृकर्मादिभेदेन भिन्नत्वानेकत्वम् । स्वलमिति 50 च गजपृष्ठस्थितं काष्टादिनिर्मितमुपवेशनस्थानमुच्यते, तथा च हस्ती स्थलं न्यग्भावयन् मनुष्यानारोहयतीति स्थलस्यापि कर्मतयाऽत्र द्विकर्मकत्वं रुहेः पूर्वत्र चैककर्मकत्वमेवेति साधनभेदेन साध्यायाः क्रियाया भिन्नत्वात् तद्वाचकस्य धातोरपि भेदः स्पष्ट एव । तदाह- सदृशधातुप्रयोगेऽपि 55 पूर्वो हस्तिपककर्तृको रुहिः परश्च मनुष्यकंक इति साधनभेदात् क्रियाभेदे धातुभेदः इति, अयमाशयःपूर्वत्र रुहेः कर्त्ता हस्तिपकः परत्र चाण्यन्तावस्थायामेव मनुष्याणां कर्तृस्वम्, मनुष्याः स्थलं हस्तिन चारोहन्ति, तान् हस्तिपकैरारुह्यमाणो हस्ती प्रेरयतीति विवक्षायां 60 साधनभेदस्य स्वष्टत्वमिति तत्प्रयुक्तः परम्परया धातुभेदोऽपि । धातोः सादृश्य च समानानुपूर्वीकत्वमात्रेण न तु साध्यसाधनादिसर्वाशेनेति भेदो भवत्येव । पदकृत्यं पृच्छति - अस्मृताविति किमिति- अस्मृतावित्यनेन किं व्यावर्यमिति पृच्छा । व्यावर्त्य माह-स्मरति वनगुल्ममित्यादिना, 65 तथा च प्रकृते आत्मनेपदाप्रवृत्तयेऽस्मृतावित्यावश्यकमिति
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भावः ।
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
स्यैव तादृशस्य संभव इत्यभिसन्धिः । तत्र प्रत्युदाहरणेनोतरमाह - आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः इत्यादिना, अयमाशय:- णिग इत्यनुक्तो अणिकर्मणिक्कतृ कपदेन मूलभूतो धातुरेव ग्रहीष्यतेऽन्यस्यानुपस्थितेरिति यस्य धातोरणिग25 वस्थाकर्म णिगवस्यायां कर्ता स्यात् तस्मादणिगन्ताणिगन्ताद् वा आत्मनेपदं भवतीति सूत्रार्थे सति यथा णिगन्तादात्मनेपदं भवति तथाऽणिगन्तादपि प्रथमावस्थायामेवात्मनेपदं स्यादिति, तदेवाह - अणिगवस्थायां मा भूदितिप्रकृते एकधातोरित्यनुक्तावपि प्रत्यासत्तिन्यायादेकघातो30 रेवाणिगवस्था णिगवस्थे गृह्येते इत्याह- प्रत्यासत्तेश्च यस्यैव धातोरणिगवस्था तस्यैव धातोणिगवस्था गृह्यते, न धात्वन्तरस्येति - प्रत्यासत्तिः सामीप्यम्, तच्चोपस्थित परित्यजानुपस्थितकल्पने मानाभावमूलकं समी 'पस्थसम्बन्ध्युपस्थापकम्, अणिगवस्थया सम्बन्धो यस्य गृही 35 तस्तस्यैव णिगवस्थासम्बन्धोऽपि ग्राह्य इति भावः । तत्फलमाह-- तेनेह न भवति- आरुह्यमाणो हस्ती सेचयति पृष्ठ सूत्रेणति - मत्रारुह्यमाणो हस्तीत्यणिगवस्था, तत्र कर्मणो हस्तिन एवं सेचने प्रयोजक कर्तृत्वमित्यणिगि कर्मणो fufy कर्तृत्वमस्ति किन्तु भिन्नधातुसम्बन्धीति न भवत्या 40 त्मनेपदम्, मूत्रं पृष्ठं सिश्वति, तमारुह्यमाणो हस्ती
२४६
क्वचित् सर्वोपाधिसत्त्वेऽप्यात्मनेपदं न दृश्यते तत् कथमित्याशङ्कते - कथं हन्त्यात्मानं, घातयत्यात्मेतिअत्राणिगवस्थायां कर्मण आत्मनो णिगवस्थायां कर्तृत्वमिति 70 भवति प्रकृतसूत्रप्राप्तिरिति शङ्कयितुरभिप्रायः । तमेव प्रकटयति- अत्र ह्यात्मनोऽणिकर्मणो णिक्कत्तू त्वमिति । प्रतिवक्ति- नैवमिति यथा त्वमिमं प्रयोगं प्रत्युदाहरसि तथा नायमिति भावः । वास्तविक प्रयोगस्वरूपं प्रकटयति- द्वावात्मानौ शरीरात्माऽन्तरात्मा 75 चेति शरीरेऽपि 'अहं स्थूलोऽहं कृश:' इत्यस्माच्छब्दप्रयोगाल्लोकिकदृष्ट्या शरीरस्याप्यात्मत्वम्; अन्तरात्मा च शरीरप्रेरकश्चैतन्यविशेषः, स च न हननकर्मतामर्हति निरवयवत्वानित्यत्वाद्धन्तुरभावाच्च; किन्तु शरीरात्मैव कर्म, अन्तरात्मा चकर्तेति हन्त्यात्मानमात्मेति पूर्णः प्रयोगः घातयत्यारमे- 80
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२५०
कलिकाल सर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
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त्यात्मानमिति कर्म संबध्यत एव तथा च य एवात्मा sforneस्थायां कर्म स एव णिगवस्थायामपीत्यणिक्कर्मणो for कर्तृत्वं नास्तीति न भवति प्रकृतसूत्रप्राप्तिविषयता । तदेव स्पयति तत्र भेदेनैव लोके नित्यमयं प्रयोगः 5 इति - शरीरात्माऽन्तरात्मनोर्भेदमास्थायैव हन्त्यात्मानमात्मा, घातयत्यात्मानमात्मेति प्रयोग इति भावः । तथा च फलितमाह - हन्त्यात्मानमिति शरीरात्मनोऽन्तरात्मनो वा कर्मत्वम् घातयत्यात्मानमिति तस्यैव कर्मत्वं न कर्तुत्वमिति - इति । यद्यपि हन्त्यात्मानमात्मेति वाक्ये 10 शरीरात्मन एवं कर्मत्वमुचितं तस्यैव हन्त्यर्थकर्मत्वसम्भवादिति 'अन्तरात्मनो वा कर्मत्वम्' इति पक्षान्तरोपन्यासो न युक्तस्तथापि विवक्षावशात् कस्यचिन्मते शरीरात्मन एव स्वातन्त्र्यमिति संभवत्पक्षमादायानास्थया पक्षान्तरोपन्यास इति ध्येयम् । धातयत्यात्मानमित्युक्तया च प्रत्युदाहरणत्वेन 15 प्रदर्शिते 'घातयत्यात्मा' इति वाक्ये स्वया कर्मोपन्यासो न कृतः किन्तु तत्र तदुपन्यास आवश्यक इति सूचयति, अन्यथा कर्मान्तरसम्बन्धे आत्मनः कर्मत्वं न स्यात्, आत्मशब्देन स्वस्यैव कर्मत्वं बलादाक्षिप्यते परं प्रति आत्मशब्दोपन्यासा
[ पा० ३, सू० ८ ]
दाहरणेऽप्यात्मनेपदस्य सिद्धत्वेन प्रकृतसूत्रवैयर्थ्यं शङ्कते - यद्येवमित्यादिना एवं फलवत्कर्त्तरि आत्मनेपदस्यान्यथा सिद्धत्वे सतोह 'आरोहयते हस्ती इत्यादावपि तथैवास्तु किमनेनेति तदर्थः । आक्षेपं स्वीकुर्वन् समादधाति - सत्यम्किन्तु फलवतः कर्मस्थक्रियाज्ञान्यत्रायं विधिरिति 45 अयमाशय:- अप्राप्तं हि शास्त्रमर्थवद् भवतीति यत्रान्येन सूत्रेणात्मनेपदं प्राप्तमेव [ सिद्धमेव ] तत्र नास्य विधेरावश्यकतेति सत्यम्, किन्तु यत्र न प्राप्तमात्मनेपदं तदर्थत्वमस्य स्वीक्रियताम्, फलवति कर्तरि "ईगित:" [ ३.३.६५. ] इत्यनेन कर्मस्थक्रिये च "एकधाती कर्मक्रिययंका कर्मक्रिये" 50 [ ३. ४. ४६ ] इत्यनेन चात्मनेपदं सिद्धमिति तद्विषयादन्यत्र प्रकृतसूत्रेणात्मनेपदं विधेयमित्यफलवत्कर्तरि कर्तृस्थ क्रिये च प्रकृतसूत्र प्रवृत्तिरिति । कर्मस्थक्रियेषु तहि केनात्मनेपदमिति चेत् ? तदेवोपपादयति तथाहीत्यादिना, लावयते केदारः स्वयमेवेति- लुनाति केदारं चत्र इति 55 प्रथमावस्था, तत्र चैत्रस्य कर्तृत्वेऽविवक्षिते सौकर्यातिशये द्योत्ये केदारस्यैव कर्तृत्वे- लूयते केदारः स्वयमेवेति द्वितीयावस्था, पुनश्च प्रेरणाविवक्षायां स्वतो लूयमानं केदार चंत्र: प्रेरयतीत्यर्थे लावयति केदार यंत्र इति तृतीयावस्था, तस्या च प्रथमावस्थया सहार्थे साम्यम्, ततश्रुत्रस्य प्रयोज - 60 कत्वाविवक्षायां केदारस्यैव प्रयोजकत्वे लावयते केदार:
स्वयमेवेति चतुथ्यंवस्था, अस्याश्च द्वितीयावस्थया सहायें साम्यम्, अत्र च लवनक्रियायाः कर्मस्थत्वेन कर्मस्थक्रियत्वात् | "एकधातो.” [ ३४.४६. ] इत्यनेनैवात्मनेपदम् अस्य
संभवात् । अस्यां च स्थितौ य एवात्मा पूर्ववाक्ये - [हन्त्या 20 त्मानमिति वाक्ये ] -कमंतयोपात्तः स एव परत्रापि [ घातयत्यात्मानमात्मेति वाक्येऽपि ] कर्मेति तस्य कर्तृत्वं नास्तीति नैतत्सूत्र प्रवृत्तिरिति पर्यवासितोऽर्थः । कचिदणिगि कर्म भिकारकस्यापि णिगि कर्तृत्वे आत्मनेपदं दृश्यते तत्र कथमस्य सूत्रस्य प्रवृत्तिरणिगि कर्मण एव कर्तृतायां सूत्र 25 प्रवृत्तत्वादिति शङ्कते ननु यदि अणिकर्मणो ! सूत्रस्य तु प्राप्तिरेव नास्ति, अणिक्कर्मणः कर्तृस्वाभावात् 65 कि तायामात्मनेपदमिष्यते तहि- 'शुष्यन्त्यातपे | अणिगवस्था द्वितीयावस्था लूयते केदारः स्वयमेवेति तत्र व्रीहयः, शोषयते व्रीहीनातपः' इत्यादावधिकरणादेः कर्मणोऽभावात् । एवं भूषयते कन्या इत्यत्रापि अवस्थाकर्तृ तायामात्मनेपदं न प्राप्नोतीति- अणिगि कर्मण चतुष्टय योजनीयम् - भूषयति कन्यां चैत्र, भूषयते कन्या एवं णिगि कर्तृ तायामात्मनेपदमिष्टमित्यस्यार्थस्य पूर्व स्वयमेवेति द्वयमणिगवस्थायां स्वार्थिकणिचि ततः प्रेरणायां 30 निर्णीतत्वेऽपि यदीयुक्तिः शङ्कितुः सिद्धान्तिनमहमनया णिगि- भूषयति कन्यां चैत्र इति, पुन: चैत्रस्य प्रयोजकत्वं 70 कन्यायामारोप्य भूषयते कन्या स्वयमेवेति, अत्रापि कर्मस्थक्रियत्वेन कर्मण: कर्तृत्वविवक्षयाऽणिकर्मण: कर्तृत्वं च नास्त्येवेति न प्रकृतसूत्रप्राप्तिः । एव- कारयते कट इत्यादावपि योजनीयम् । यदि स्ववस्थात्रयमेव अध्यारोपितप्रेक्षणपक्षमाश्रित्य व्याख्यायते तदाऽणिक्कर्मणो णिगि कर्तृत्व- 75 मस्तीति प्रकृतसूत्रस्य प्राप्तिरस्ति परं कर्मस्थ क्रियत्वेन परत्वात् "एकधातो." ३. ४. ४६. ] इत्येव प्रवर्त्तते, तथाहि - लुनाति केदारं चैत्र इति प्रथमावस्था, लावयति केदारं चैत्रेण मंत्र इति द्वितीयावस्था, ततः कर्मण एव प्रयोजककर्तृ स्वविवक्षायां लावयते केदारः स्वयमेवेत्यणिक्कर्मणः 80
शङ्कया स्वसिद्धान्तात् प्रच्यावयिष्यामीत्यभिमानेन अधिकरणादेरित्यादिपदं प्रकृते आतपस्य करणत्वविवक्षाया अपि संभवेन तत्संग्रहाय प्रयोगान्तरे करणादेरपि कर्तृत्वविवक्षायाः संग्रहाय वा । उत्तरयति - फलवत्कर्तरि 35 भविष्यतीति णिगो गिरवेन तदन्तात् "ईगित:" [ ३.
३. ५] इत्यनेनेहात्मनेपदं न तु प्रकृतसूत्रेणेति भावः । नन्वातपस्य कर्तुरचेतनस्य केन फलेन सम्बन्ध: सम्भवतीति चेत्- कृषीवलादिकृतं शोषणसामर्थ्याधिक्यादिमूलकं प्रशंसा - दिकमेव तस्य फलमित्यवेहि । उक्तयुक्तया [ कर्तुः फलवस्व40 विवक्षया ] आरोहयते हस्ती हस्तिपकानित्यादिप्रकृतसूत्रो
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[ पा०३, सू० ८८]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
२५१
केदारस्य कर्तृत्वमस्तीति प्रकृतसूत्रप्राप्तावपि कर्मस्थक्रियत्वेन | कथं कर्मस्थक्रियता रहेरिति- 'आस्कन्दयते' इत्यस्य स्वयं [ कर्मणः केदारस्य लवनसम्बन्धात् ] "एकधातो" [ ३. तानुपर्यागमयतीत्यर्थः, तथा च रुहेर्गत्यर्थकता प्रतीयते, ४. ४६. ] इत्यस्यापि प्राप्ती स्पर्धसद्भावात् परत्वात् | गत्यर्थानां च प्राप्यकर्मकत्वमिति तत्र कर्मणि क्रियाकृततेनैवात्मनेपदमिति । कक्षात्रयपक्षे च अणिगवस्थायामपि | विशेषादर्शनात् कथं कर्मस्थक्रियत्वमुच्यते । किञ्च, कर्मस्थ5 कर्मणः क्रियाजन्यफलाश्रयतासिद्धयर्थ ककृता प्रेरणा ! क्रियत्वे कथं द्वितीयकक्षायाम्- आरोहयते हस्ती हस्तपका- 45
धात्वर्थान्तर्भूता, ततः प्रयोजकव्यापारविवक्षायां भूयोऽपि | | निति पूर्वमुदाहृतमिति कर्मस्थक्रियत्वे तदसंगतिः कर्त स्थ. निवर्तना [निवृत्तिकृते प्रेरणा ] तत उभयोरपि प्रेरयो- | क्रियत्वे चानुपदोक्त ग्रन्थासङ्गतिश्चेत्युभयत: पाशा-रज्जुरिति योस्त्यागे केवलं निर्वतन [ क्रियासम्पत्तिः ] प्रतीयते, | शङ्कार्थः । शङ्कामङ्गीकृत्येव पूपिरग्रन्थसाङ्गत्यप्रकटना
एतच्चाने स्फुटीकरिष्यते । नन्वारोहयते हस्ती स्वयमेवेत्य- | याह- उच्यते- यदा न्यग्भावनार्थोऽर्थो यं तदा कर्मस्थ10 स्यामवस्थायां [ या च शाब्दिकी चतुर्थ्यवस्था प्रायोगिकी | क्रियत्वमिति, अयमाशय:- धातुनामनेकेऽर्थाः, तत्र रुहेर्गत्य-50
च पञ्चमावस्था भवति, एतदप्यने स्फुटीभविष्यति] हस्तिनः | तामाश्रित्य पूर्व द्वितीयकक्षायामारोहयते हस्ती हस्तिकतुरेव न्यग्भवनं प्रतीयत इति कथमत्र रहे: प्रयोजक- | पकानित्युदाहृतम्, यदा तु तस्य [रहेः] अर्थान्तरे न्यग्भाव्यापारार्यकस्य णिगः प्रवृत्तिः प्रयोजकत्वस्य निमित्तस्य | वने वृत्तिस्तदान्यग्भवन-न्यम्भावनयोर्गात्रसंकोचादिरूपत्वेन
निवृत्तत्वात् निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः * इति कर्मणि क्रियाकृतविशेषस्य दर्शनात् कर्मस्थक्रियत्वमेव 16 न्यायादिति चेन्न- प्रयोजकत्वस्य वस्तुतोऽनिवृत्तः, सौकर्या- तस्येति ।
55 तिशयद्योतनार्थमेव हि प्रयोजकान्तरव्यापारो न विवक्ष्यते, प्रकृतमथं वक्ष्यमाण हरिकारिकारीत्या साधयितुं
प्रयोजकत्वारोपः क्रियते, तावता वस्तुसतः | तामेवकारिक व्याख्यास्यन्नाह-तथाहि-आरोहन्ति प्रयोजकत्वस्य निवृत्त्ययोगात् । अत्र च "णि-स्नु-ग्यात्मने- | हस्तिपका इति न्यग्भवनोपसर्जने न्यग्भावने रुहिर्वर्तते
पदाकर्मकात्" { ३. ४. १२.] इति सूत्रेण ण्यन्तेभ्यः कर्मः | इति- न्यग्भवनं-नीचेरात्मगात्रसंकोचनं, सदुपसर्जनम्-. 20 कर्तरि निच: "भूषार्थ." [ ३. ४. ६३.] इत्यादिना च | अक्षतया भासमानं यत्र तादृशे न्यग्भावने रुहिरिहास्तीति 60
तेभ्य एव तत्रैव सिक्ययोश्च निषेधविधानमपि प्रमाणम्, भावः । सर्वत्र सकर्मकक्रियाया द्विष्ठत्वं-कतं स्थत्वं कर्मस्थत्वं अन्यथा कर्मकर्तरि प्रयोजकत्व निवृत्ती णिगोऽपि निवृत्तिः च, फलांशस्याश्रयः कर्म, व्यापारांशस्याश्रयः कर्ता, तत्र स्यादिति कर्मकर्तरि णिगन्तानिक्ययोः प्राप्ति रेव नास्तीति न्यग्भवनरूपं फलं न्यग्भावना च व्यापारः, न्यग्भवनं च
तनिषेधविधानमनर्थकमेव स्यात् । कयटेन तु सर्वत्र । कर्मसमवेतमिति कर्मस्थकियत्वमिति क्वचिन्याभवनमात्र25 निमित्तापाये नैमित्तिकस्थापाय इति नियमो नास्तीत्येव- वृत्तित्वमित्याह- स द्वितीयस्यामवस्थायाम्- आरुह्यते 65
रीत्या णिगोऽनिवृत्तिः साधिता, तथाहि तद्ग्रन्थः- न च | हस्ती स्वयमेव इत्यस्यां कर्मक विषयो न्यग्भवनप्रयोज्यप्रयोजकभावनिवृत्ती णिनो [स्वमते गिगो] निवृत्तिः, | मात्रवृत्तिर्भवतीति । इत्थं शुद्धस्य रुहेरर्थद्वयपरत्वं व्याख्याय उपायनिवृत्तावप्युपेयानिवर्तनात् ! सिद्धशब्दव्युत्पादनाय हि | ण्यन्तस्थलेऽपि तथाप्रतीतिमाह- अथ चतुामिति
प्रकृतिप्रत्ययविभागकल्पना आनीयते, अर्थस्योपादानं त्यागश्च | प्रायोगिकी चतुर्थ्यवस्था तृतीयायास्तत्रैवान्तर्भूतत्वस्वीकारात्, 30 क्रियते, लोकिके तु व्यवहारे सौकर्यमात्रविवक्षाया लावयते | शाब्दिकी तु तृतीयवेयमवस्था, अत एवाह- अन्तर्भूत- 70
केदार इति प्रयुज्यते इति" । अनेन उपानिवृत्तावुपेय- ततीयायामिति-- ण्यन्तेऽपि न्यम्भावनान्यग्भवनयोः प्रतीते: निवृत्तिरिति स्वीकृत्यापि उपायस्य प्रयोजकत्वस्येह वस्तूतो शब्दशक्तिस्वभावसिद्धत्वेन यदा न्यग्भवन मन्तर्भाव्य (उपन निवृत्तिरपि तु सिद्धशब्दव्युत्पादनाय निवृत्त्यारोपमात्रमिति | सर्जनीकृत्य ] न्यम्भावनं विवक्ष्यते तदासौ चतुर्थ्यवस्था ।
न तेन णिगो निवृत्तिः शङ्कनीयेति प्रतिपादितं भवति । तत्रत्य विग्रहवाक्यमाह- आरुह्यमाणं प्रयुञ्जते इति-- 35 पूर्वमारोहयते हस्ती हस्तिषकानिति प्रकृतसूत्रोदाहरण| हस्तिपका इति शेषः, अत्र चावस्थायां हस्तिपकव्यापारस्य 75
स्वेनोपन्यस्तम्. साम्प्रतं च रुहेः कर्मस्थक्रियः लुनात्यादिभिः प्राधान्य विवक्षितमिति 'आगेहन्ति हस्तिनं हस्तिपका:' समम्- आरोहयते हस्ती स्वयमेवेत्यत्र " एकधातो." इत्यत्र योऽर्थः स एवेहापि । यद्यपि 'आरोहन्ति हस्तिनं [ ३.४. ४६. ] इति सूत्रेणैवात्मनेपदमित्यु कम्, तत्र पूर्वा-1 हस्तिपकाः' इत्यवस्थायामपि त्यग्भवनोपसर्जनं न्यग्भावनं
परविरोध इव प्रतिभातीति मत्वा पृच्छति- नन्वारोहयते प्रतीयते, इह च प्रयोजक,व्यापारवाचिणिकसन्नियोगेनापरापि 40 हस्ती स्वयमेवेत्यस्यास्कन्दयते इति किलार्थः, तत प्रेरणा प्रतीयेतेति प्रथमयाऽवस्थया सहास्याभेद इति शङ्कितुं 80
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२५२
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा०३, सू०८८]
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शक्यते, तथापि शुद्धस्य कर्मकर्तृस्थले धात्वर्थान्तर्भूत-! त्यागे च केवलन्यग्भवनप्रतीतिरिति कर्मकर्तरि अवस्थाद्वयप्रेरणायास्त्याग इति त्यक्तप्रेरणांशादेव शुद्धाणिगिति । मिति । तदेवाह- "निवृत्तप्रेरणाद धातोः प्राकृतेऽर्थे नार्थाधिक्यं शुद्धधातोः प्रथमावस्थात इति हृदयम् । तदे-णिगुच्यते" इति-निवृत्तप्रेरणात्-प्रेरणाद्वय [धात्वर्थप्रेरणा
तन्मनसिकृत्याह- शुद्धारोहतिवन्यग्भवनोपसर्जने न्य-ण्यर्थप्रेरणा च ] रहिताद धातोः, प्राकृते- न्यग्भवनरूपेऽर्थे 5 ग्भावने वर्तते इति । अथ शाब्दिकी चतुर्थी प्रायोगिकी गिगुच्यते इत्यर्थः, अत्र णिजुच्यते इत्येव वाक्यपदीय पाठः, 45
च पञ्चमीमवस्थामाह-पुनयंदा अस्यैव प्रयोजकव्यापारा- स्वमतसाधकत्वेनोपन्यासात् 'णिगुच्यते' इति पाठकल्पनम्, विवक्षा तदा 'आरोहयते हस्ती स्वयमेव इत्यस्या वाक्यपदीयपाठस्य तादृशत्वे च प्रकृतस्थलीयलघुन्यासग्रन्थोऽपि पञ्चम्यामवस्थायाम् 'आरुह्यते हस्ती स्वयमेव इति- प्रमाणम्, किश्च तद्रीत्या बृहद्वृत्तावपि 'णिजुच्यते' इत्येव
वन्यगभवनलक्षणस्य विशेषस्य हस्तिसमवेतत्वेनोप- पाठ आसीदिति प्रतिभाति । तथाहि-तत्र 'णि जुच्यते' इति 10 लम्भात 'लावयते केदारः' [स्वयमेवेति] इत्यादाविय | प्रतीकमुपादायणिजिति मतान्तरेण स्वमते तु णिगेव 50
कर्मस्थक्रियत्वमस्त्येवेति न किञ्चिदनुपपन्नमिति । इत्युक्तम् । । अयमर्थः- धात्वर्थान्तर्भूनप्रेरणांशरहितरुहेर्ण्यन्तस्य न्यग्भावना |
1 अन्ये तु रुहि कर्तृ स्थक्रियं मन्यन्ते, तथाहि- रुहिन्यग्भवनोपसर्जना प्रतिपाद्या, तस्यैव यदि णिगर्थप्रयोजक- | गत्यर्थः, उपसर्गवशादेव तस्यात्रोपरिगमनरूपमारोहणं प्रती
व्यापारो न विवक्षितस्तदा शुद्धरोहतेनिवृत्तप्रेरणस्य योऽर्थः | यते, तथा च यथा गच्छति ग्रामः स्वयमेवेति नहि गतागत15 'आरुह्यते हस्ती स्वयमेव' इत्यत्र प्रतीयते स एव प्रतीयेत, ग्रामे आरूढानारूढे वा हस्तिनि क्रियाकृतविशेषो दृश्यते, 55
विशेषभूतस्य प्रत्ययार्थस्याविवक्षया द्वितीयावस्थाऽर्थमात्रे | यत्र कर्मणि क्रियाकृतविशेषादर्शनं तत्र क्रियायाः कतरथस्वविश्रामात् । तथा च यथा द्वितीयस्यामवस्थायां केवलं | मेव न कर्मस्थत्वमित्येव प्राचीनानां सिद्धान्तः, तथापि न्यग्भवनं प्रतीयते तथाऽस्यामपि चतुथ्यो शाब्दिक्यो पञ्चम्या | 'न्यग्भावना न्यग्भवनं कहो शुद्धे प्रतीयते' इत्यादिपूर्वप्रद
च प्रायोगिक्यामवस्थायां प्रतीयत इति तत्रापि न्याभवन- | शितहरिकारिकारीत्या प्रकृते रुहेस्तदर्थत्वमेव न गत्यर्थत्वं 20 मात्रमर्थः । न्यग्भवनरूपश्च विशेषो हस्तिनि समवेतः, सधातूनामनेकार्थत्वादिति मत्वाऽस्य कर्मस्थक्रियता व्याख्याता 60
च यद्यपि प्रकृते कर्ता न तु कर्म तथाऽपि तत्र कर्तृत्वमारो-| प्राचीनास्तु न्यभाबना-न्यम्भवनयोरत्र प्रतीतावपि तदर्थस्य पितमात्रं न तु वास्तविक, वास्तविक तु तत्र कर्मत्वमेवेति | प्रयोगौपाधिकत्वमेव, न तु धात्वर्थत्वमिति न तदर्थमादाय रुहे: भवति तस्य [ रुहेः कर्मस्थक्रियत्वमिति मया यत् प्राग कर्मस्थक्रियता युक्तति मन्यन्ते । तन्नास्माकमभिमतम्
'लावयते केदारः स्वयमेव' इतिवत् 'आरोहयते हस्ती स्वय. शब्दात् प्रतीयमानस्यवार्थस्य तदर्थत्वस्यौचित्यादिति कर्मस्थ25 मेव' इत्युक्तं तन्नायु, किन्तु प्रकृतप्रदर्शितरीत्या सूपपन्न- क्रियत्वमस्य साधूपपन्नम् ।
65 मेवेति । उक्तमयं हरिकारिकया समर्थयति- तदुक्तं
अत्रायं विवेक:- 'आरोहयते हस्ती' 'दर्शयते राजा' "न्यग्भावना न्यग्भवनं रुहो शुद्ध प्रतीयते” इत्या दिना, इत्यादि कर्मपदरहितमेवोदाहरणम्, 'स्मरयति वनगुल्मः' शुद्धे रुही- 'आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः' इत्यत्र न्यग्भा- इति कर्मपदरहितमेव प्रत्युदाहरणं, प्रकृतसूत्रसमानविषये
बना, "आरुह्यते हस्ती स्वयमेव' इत्यत्र न्यग्भवन प्रतीयते, | "णेरणौ यत् कर्म स चेत् कर्ताऽनाध्याने' [पा० सू० १. ३. 30 तस्यैव [निवृत्तप्रेरणस्य ] ण्यन्ते कृतेऽपि 'आरोहयन्ति ७. ] इति सूत्र भाष्ये दृश्यते, तदुपपत्तये उदाहरण- 70
हस्तिनम्' इत्यत्र न्यग्भावना, आरोहयते हस्ती स्वयमेव' प्रत्युदाहरणयोः कक्षात्रयं कक्षाचतुष्टयं च- अध्यारोपितइत्यत्र न्यग्भवनं प्रतीयते । कर्मकर्तरि तां निवृत्तप्रयोजक- प्रेषणपक्षे अविवक्षितप्रेषणपक्षे च क्रमश: प्रदर्शितं दीक्षिव्यापारामवस्थां पञ्चमी प्रयोगावस्था [ न तु शाब्दिकी, तादिभिः । स्वमते चोदाहरण-प्रत्युदाहरणयोः कक्षाद्वयमेव,
शब्दप्रक्रियया तस्याश्चतुर्थीत्वस्यैव सत्त्वात् ] प्राहुः । अयं आरोहन्ति हस्तिनं हास्तपका:, आरायत हस्ता हास्तपका 35 हि प्रयोगक्रमः शूद्धे पूर्व न्यग्भवनोपसर्जना न्यग्भावना, ततः । निति रीस्योदाहरणे; 'स्मरति वनगुल्म कोकिल:, स्मरयेत्येनं 75
के बलं न्यग्भवनम्, ण्यन्तेऽत्र न्यग्भवनोपसर्जन न्यग्भावन-1 वनमुल्म इति- प्रत्युहरणे च तथैवदर्शनात् । कक्षात्रयकक्षाप्रेरणम् न्यग्भवनप्रेरणं, केवलं न्यग्भवनमिति, पञ्चावस्थाः । चतुष्टयप्रदर्शनमूलं च तेषां प्रकृतसूत्रे अणौ यत् कर्मेति तत्र शुद्धयोः स्पष्टत्वमेव, ण्यन्तानां च धात्वर्थस्य न्याभवनो. | पदस्थावृत्या कर्मपदस्य क्रियापरत्वेन, अणी-अण्यन्तावस्थायां
पसर्जनन्यग्भावनस्य स्वाभाविकी प्रतीतिः, ततो धात्वर्थ- यत् कर्म, या किया सैव चेण्यन्ते नोच्यतेत्यर्थकरणम्, 40 प्रेरुणांशस्य त्यागे न्यग्भवनप्रेरणप्रतीतिः, णिगर्थप्रेरणांशस्य तादृशार्थकरणावश्यकत' हस्तिपकैरारुह्यमाणो हस्ती स्थल- 80
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[पा० ३, सू० ८६-६०]
मारोहति मनुष्यानित्यादावतिव्याप्तिवारणार्थमेव स्वीकृता । स्वमते च तत्र क्रियाभेदे धातुभेदमास्थाय यस्यैव धातोरित्या दिग्रन्थेन प्रदर्शित रीत्याऽतिव्याप्ति वारितेति न तादृशव्याख्यानावश्यकतेति कक्षाद्वयेनैव निर्वाह इत्यलमन्य5 प्रक्रियागवेषणेनेति संक्षेपः ॥ ३ ८८. 11
प्रलम्भे गृधि- वञ्चः ॥ ३.३. ८९ ।। त० प्र०- गृषि वश्विभ्यां णिगन्ताभ्यां प्रलम्भे- वश्वने वर्तमानाभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं भवति । बटुं गर्धयते, बटुं वश्वयते, विप्रतारयतीत्यर्थः । प्रलम्स इति किम् ? श्वानं गर्धयति, 10 प्रलोभयतीत्यर्थः, अहं वश्वयति, गमयतीत्यर्थः । णिग आत्मनेपदविधानं सर्व श्राफलवदर्थम् ॥ ८६ ॥
श० म० व्यासानुसन्धानम्- प्रलम्भे० प्रलम्भनं प्रलम्भोऽतथात्वेन किश्चिदुपन्यस्य प्रलोभनं प्रतारणं वा । णिग इति प्रकृतम्, तच्चोभयोविशेषणमिति तदन्तविधिना 15 प्रत्ययग्रहणमुलकेन वा तेन निगन्ताभ्यामाभ्यां कर्त्तर्यात्मनेपदमित्यर्थः सम्बद्यते, तदाह- गृधि वञ्चिभ्यामित्यादिना, गृधिरभिकाङ्क्षार्थी दिवादिपठितः, वश्विः प्रलम्भनार्थश्रृशदिपठितः तस्मात् णिजन्तात् फलवति कर्त्तरि सिद्धप्यात्मनेपदे णिगन्तादफलवत्यपि कर्तरि तद्विधानार्थं वचनम्, 20 णिगन्तादेव प्रतारणार्थं प्रतीतेश्च । उदाहरति- बटुं गर्धयते इत्यादिना, बटुर्गृध्यति, चैत्रो बटुं वचयति, गृध्यन्त वञ्चयन्तं च प्रयुङ्क्ते इत्यर्थे णिगि अफलवत्यपि कर्तर्यनेनात्मनेपद भवति । प्रयोगार्थमाह- विप्रतारयतीत्यर्थः विप्रतारण हि किञ्चिद् वस्तु दीयमानत्वेन प्रदर्श्याप्रदानम्, अन्यथा25 भूतस्य वस्तुनो वा प्रकारान्तरेण प्रतिपादनम् । अनयो: शब्दशक्तिस्वभावादेव वचने [ प्रतारणे ] एव प्रयोग इति विनापि, प्रलम्भे' इति पदं तदर्थ एवं भविष्यत्यात्मनेपदमिति 'प्रलम्भे' इत्यनावश्यकमित्याह- प्रलम्भ इति किमिति, प्रत्युदाहरति- श्वानं गर्धयतीति- किमपि 30 भोज्यं वस्तु प्रदर्श्याभिकाङ्क्षामस्योत्पादयतीत्यर्थः अत्र
।
२५३
[
भवत्यात्मनेपदम् अस्य च सकर्मकत्वात् "मणिगि प्राणि० " 40 [ ३. ३. १०७. ] इत्यस्याप्राप्तौ फलवति कर्त्तरि भवत्येवात्मनेपदम् । प्रलम्भार्थाभावप्रदर्शनायोभयत्र प्रयोगार्थमाहप्रलोभयति गमयतीति पूर्वत्र गृधेरभिकाङ्क्षार्थस्य प्रलोभनार्थत्वेन सन्देहः, परं च प्रलम्भार्थस्य वश्चेर्गमनार्थत्वं तु प्रयोगस्वाभाव्यात् । णिगन्तात् फलवति कर्त्तरि "ईगित " 45 [ ३. ३. ९५. ] इत्यात्मनेपदस्य सिद्धया प्रकृत प्रकरणस्याफलवदर्थमिति- निगो गित्वेन तदन्तात् फलवति कर्तरि नावश्यकत्वमाशङ्कयाह- णिग आत्मनेपदविधानं सर्वत्रा“ईगित:" [ ३. ३. ९५. ] इत्यनेन सिद्धत्वेऽपि फलवति तदसिद्ध्याऽनेनोभयत्रात्मनेपदं विधीयत इति भावः, नेदं 50 प्रकृतसूत्रमात्रस्य फल प्रदर्शनमपि तु णिगन्तादात्मनेपदविधायकस्यास्य प्रकरणस्यैवेति बोधयितुं सर्वत्रेत्युक्ति, frat यत्र यत्रात्मनेपदं विधीयते तत्र सर्वत्रेत्यमेव ज्ञेयमिति भावः ।। ३ ३ ८६ ॥
लिङ्- लितोऽभिभवे चार्चाकर्तर्यपि
55
॥ ३.३.९० ॥
त० प्र०- लीयति लिनातिभ्यां णिगन्ताभ्यामर्चाsaraar: प्रलम्भे चार्थे वर्तमानाकर्तर्यात्मनेपदं भवति, भवति । जटाभिरालाअनवोश्वान्तस्या कर्तर्यस्याकारो पयते, परंशत्मानं पूजयतीत्यर्थः श्येनो वर्तिकामपलापयते, 60 अभिभवतीत्यर्थः कस्त्यामुल्लापयते, वश्वयते इत्यर्थः । एष्विति किम् ? बालकमुखापयति, उत्क्षिपतीत्यर्थः । कथं तर्ह्यत्रास्त्वम् ? "लीड्-लिनोर्वा" [ ४.२ ६. ] इति भविष्यति । अकर्तर्यपीति किम् ? जटाभिरालाप्यते जटिलेन । ङिच्छनानिर्देशो यौजादिकनिवृत्त्यर्थः ॥ १० ॥
65
श० म० न्यासानुसन्धानम् - लीङ् । णिग इति प्रकृतम्, चकारः प्रलम्भार्थस्यात्मनेपदस्य च समुचयार्थः, प्रलम्भार्थस्य पूजाभिभवाम्यामर्थाभ्यामात्मनेपदस्य च विषेयेनाकारेण सह समुच्चयः । तथा च सूत्रं व्याख्याति
|
प्रदर्श्यमानेन वस्तुना न तस्य प्रतारणमपि तु तद्ग्रहणार्थमेव । लीयति लिनातिभ्यामित्यादि- लीयति: "लीच् श्लेषणे" 70 रुच्युत्पादनमिति प्रतारणाभावान्न भवत्यात्मनेपदं फलवत्यपि इति दिवादिपठितः, 'लींश् श्लेषणे" इति क्रयादिपठितश्च कर्तरि । यद्यपि फलवति कर्तरि ईगित:" [३. ३.९२. ] लिनातिः, अत्राचर्थो धातुवाच्य एव अभिभवप्रलम्भौ इति प्राप्तमात्मनेपद तथापि त प्रबाध्य "अणिगि प्राणि तु णिगन्त एव प्रतीयेते इति प्रयोगोपाधी, तदिदं स्पष्ट35 कर्तृ कानाप्याणिगः " ३. ३. १०७. इति परस्मैपदमेव विष्यति प्रयोगार्थकथनावसरे, आत्मनेपदस्य कर्तर्येव विधाभवति, 'प्रलम्भे' इत्यस्याभावे च विशेषविहितत्वात् नात् तत्सन्नियोगशिष्टमात्वमपि कर्तरि प्रत्यये सत्येव स्यात्, 75 "सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ।" इति न्याय- दृश्यते तु कर्मणि प्रत्ययेऽपीति तत्सिद्धये- अकर्त्तर्यपीति माश्रित्यानेन फलवत्यफलवति च कर्त्तयत्मनेपदमेव स्यात् । आस्वविशेषणमुक्तम् । उदाहरति- जटाभिरालापयते श्रहं वञ्चयतीति- अत्र णिगन्तत्वेऽपि अफलवति कर्तरि न इति परे आलीयन्ते पूज्यत्वबुद्धया जटिति श्लिष्यन्ते तान्
|
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कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा० ३, सू० ६०-६१ ]
तत्र
जटाभिरालापयति भिक्षुरिति वाक्यप्रक्रिया, पूजार्थस्य सत्त्वाद् भक्त्यनेनात्मनेपदम् । प्रयोगार्थमाहपरैरात्मानं पूजयतीत्यर्थः इति - अत्र पूजयतेरपि णिगन्तस्यैव प्रयोग:, अत एव पूजार्थस्य णिगन्त प्रकृति 5 वाच्यता प्रतीयते, अन्यथा परेभ्यः पूजामधिगच्छतीत्यर्थं इति व्याख्यायेत । यद्यप्यन्ये वैयाकरणास्तथैव व्याचक्षते, तेषां च मते नास्य धातोः पूजार्थत्वं तथापि श्लेषस्य स्वस्मिन् पूज्यत्वबुद्धघा सम्बन्धस्य धातुवाच्यत्वसंभवात् प्रयोगोपाधित्वस्वीकारो वृथैवेति स्वमते पूजाया धातुवाच्य10 त्वेनैव स्वीकार: । पूजार्थे उदाहृत्याभिभवार्थे उदाहरति श्येनो वतिकामप्रलापयते इति - श्येनः क्षुद्रपक्षिहिंसकः पक्षिविशेष: वर्तिका च क्षुद्रशकुनिविशेषः, वत्तिका भयादयति, स्नेहद्रवेऽभिधेये विलीनयतीत्येव रूपं न तु 'विलापयते' इति अन्ये तु आत्मनेपदविधायके आत्वविधायके च ङिच्छनानिर्देशं न कुर्वन्ति तेषामयमाशय:- निगन्तादात्मनेपदं विधीयत इति णिगव्यवहितपूर्वस्यैवात्त्वमपि भवति, चौरा- 65 |दिकस्तु स्वार्थणि जन्तस्तस्मादेव प्रयोजकव्यापारे णिग् भवति, न तु केवलादिति तत्र णिगि णिचो लोपेऽपि स्थानिवद्भावेन तद्वयवधानाल्लियो णिगन्तत्वं णिगव्यवहितपूर्वत्वं च नास्तीति न भवत्यात्मनेपदं नवा परमेतादृशव्याख्यानापेक्षयाऽनुबन्ध विकरणाभ्यां निर्देश एवं 60 लाघवमिति विचार्य स्वमते तथा निर्देशः कृत इति ॥ ३. ३. ६०. ॥
तद्विहितात्मनेपदाभावे कर्मनिमित्तके आत्मनेपदेऽपि प्रवृत्तिरिष्टेश्याह- जटाभिरालाप्यते जटिलेन कर्मण्यारमनेपदेनेनात्वं भवति, तदर्थ मकर्तर्य पीत्यावश्यकमिति भावः । उभयोर्धात्वंशस्यैकरूप्यात् सहैव 'लिय:' इत्येवंरूपेण निर्देशे लाघवमनादृत्य किमिति गौरवग्रस्तोऽनुबन्धे विकरणेन च 45 सह निर्देश इत्याशङ्कायामाह - ङिच्छनानिर्देशो यौजादिकनिवृत्त्यर्थः इति पूर्वस्य ङित्वेन परस्य च इनारूपविकरणेन निर्देशो यः कृतः स चुराद्यन्तर्गणयुजादिपठितस्य "लोण द्रवीकरणे" इत्यस्येह ग्रहणं मा भूदित्यर्थमिति भावः, तस्य चात्त्वमपि नेष्टमात्वविघायकेऽपि "लीड्-लिनोः ०" 60 [ ४ २. ६ . ] इति ङिच्छ्नानिर्देशात्, तथा च तस्य विलाय
।
पलीयते तां श्येनोऽपलापयते इति वाक्यप्रक्रिया, अत्राभिभवस्य आक्रमणस्य तिरस्कारस्य वा सत्त्वाद्भवत्यात्मने 15 पदम् । प्रयोगार्थं माह- अभिभवतीत्यर्थः इति - अभिभवं तदीयं पराभवं तिरस्कारं वा करोतीत्यर्थः । प्रलम्भार्थे आह- कस्त्वामुल्लापयते इति कश्चित् परेणोपन्यस्तं स्वप्रवर्तक कञ्चन विषयं कस्मैचित् कथयति तदवगत्यासी तमाह- कस्त्वामुल्लापयते इति यदिदं त्वयोक्तं तेन विज्ञायते - 20 कोऽपि त्वां वञ्चयति कोऽसाविति कथय । अत्र त्वमुल्लीयसे,
।
२५४
तं कश्चित् प्रेरयतीत्यर्थविवक्षा, अत्र प्रकृतेर्नासावर्थः किन्तु fuगन्त एवासौ [ प्रलम्भार्थ : ] प्रतीयत इति स्वार्थणिजन्तेन विना प्रयोगार्थमाह-- वञ्चयतीत्यर्थः, तस्य वचना स्वार्थमिति फलवत्त्वं बोधयितुमात्मनेपदप्रयोगो न तु 25 णिगन्तस्य पूर्वसूत्रेणात्मनेपदं विधाय प्रयोगः । अन्ये तु वयतीत्यर्थ इत्येव व्याचक्षते; तत्र च वचनायाः प्रयोजनं तदर्थमन्यार्थं वेति न निश्चितमिति तेषामाशयः प्रतिभाति ।
स्मिङः प्रयोक्तुः स्वार्थे ॥ ३. ३. ९१ ॥ ब्र० प्र०- प्रयोक्तुः सकाशात् यः स्वार्थ: स्मयस्तत्र वर्तमानाणिगन्तात् स्मयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, अस्य 65 चान्तस्याकारोऽकर्तर्यपि भवति । जटिलो विस्मापयते ।
प्रायो णिगन्तयोरेतयोरेष्वेवार्थेषु प्रयोग इत्यर्थविशेषोपादानं । प्रयोक्तुः स्वार्थे इति किम् ? करणात् स्वार्थे मा भूत-रूपेण विस्माययति । अकर्तर्य पीत्येव - विस्मापनम् । ङिनिर्देशाद् यपि न भवति सेष्माययति ॥ ६१ ॥
व्यर्थमिति शङ्कते - एष्विति किमिति, प्रत्युदाहरति30 बालकमुल्लापयति अत्रेभ्योऽथन्तिरस्य fadedrara भवत्यात्मनेपदम् । प्रयोगार्थमाह- उत्क्षिपतीत्यर्थः इतिश० म० न्यासानुसन्धानम् - स्मिङ्ः । णिग 70 तथा चार्थान्तरेऽपि णिगन्तयोरनयोः प्रयोग इति प्रकृता- | इति प्रकृतम् । स्वार्थ इत्यत्र स्वपदमुपस्थितं धातुमेव परार्थेभ्योऽन्यत्रात्मनेपदवारणार्थमर्थविशेषोपादानमावश्यकमिति । मृशति तथा च प्रयोक्तुः- प्रयोजकात् कर्तुर्हेतुभूताद् यदि भावः । ननु यदि आत्मनेपदमर्थविशेषनिबन्धनं तह्यत्वमपि । धात्वर्थस्य स्मयस्योत्पत्तिः स्यात् तदैवतेनात्मनेपदमात्वं च 35 तथैवेति तदर्थाभावात् कथमात्त्वं विहितमिति शङ्कते - | भवति । 'आश्वाकर्त्तर्यपि ' इति पूर्वसूत्रातु सम्बध्यत एवेत्याहकथं तर्ह्यत्रात्त्वमिति । उत्तरयति - "लीड़-लिनोर्वा" अस्य चान्तस्याकारोऽकर्त्तर्यपीति । उदाहरति- जटिलो 75 [ ४. २. ६. ] इति भविष्यतीति तथा च पक्षे उल्ला विस्मापयते इति - बालो विस्मयते तं जटिल प्रेरयत्नीति पयतीत्यपि प्रयोगः । अकर्तर्यपीति किमिति आत्मने विग्रहवाक्यम् अत्र जटिलः प्रयोक्ता, तत एव स्मयो न तु पदसन्नियोगशिष्टस्य तस्य तेन सहैव प्रवृत्तिरुवितेति प्रश्ना- कारणान्तरादिति भवत्यात्त्वमात्मनेपदं च । शङ्कते - प्रयोक्तुः 40 शयः । नात्र तन्न्यायस्य प्रवृत्तिरपि तु वचनानुरोधेनास्यै- स्वार्थे इति किमिति य एव स्मयप्रयोजकस्तत एव स्मयो
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श्रीसिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
15
२५५
[पा० ३, सू० ६१-६२]
इत्यव्यवच्छेदकमिति
फलस्य परगामित्व विवक्षया परस्मैपदमिति शत्रन्तप्रयोगोप
भविष्यत्येवेति 'प्रयोक्तुः स्वार्थे' न पठनीयमिति प्रश्नाशयः । प्रत्युदाहरणपर्यालोचनेनैतत् पत्तिरिति । अकर्त्तर्यपीत्यस्यात्त्व सम्बन्ध आवश्यक इत्याहप्रतीयते यत्न केवलं प्रयोजकसकाशादेव स्मयो । अकतंयपीत्येवेति । तत्फलमाह - विस्मापनमिति - इह भवति नहि प्रयोजक एव स्मयोत्पत्तिमूलमपि तु भावेऽनटि विधेयेऽपि भवत्यात्त्वमिति भाव: । ङिन्निर्देशस्य 5 कारकान्तरमपीति यत्र कारणादेव स्मयोत्पत्तिस्तत्रे- फलान्तरमप्याह- ङिनिर्देशाद् यङ्लुपि न भवतीति- 45 तत्प्रवृत्तिर्मा भूदित्येतदर्थं प्रयोक्तुरित्यावश्यकमिति प्राहइहैकस्य लीयतेङित्वेन निर्देशादनुबन्धनिर्दिष्टत्वेन प्रकृतसूत्रकरणात् स्वार्थे मा भूदिति करणाद यत्र स्वार्थस्य विधेयस्यास्वस्यात्मनेपदस्य च लुपि न प्रवृत्ति:--- स्मयस्योपत्तिस्तत्र मा भूदित्यर्थः । कुत्रेत्याह - रूपेण विस्मापयतीति- विस्मयमानं कश्चित् स्वकीयरूपेण करणेन 10 विस्मितं करोतीत्यर्थे रूपस्यैव विस्मयजनकत्वमिति न भवति तत्रास्य सूत्रस्य प्रवृत्तिरिति तत्र प्रवृत्त्यभावार्थ मस्मिन् सूत्रे 'प्रयोक्तुः स्वार्थे' इत्यावश्यकमिति भाव: :
तिवा शवाऽनुबन्धेत निर्दिष्टं यद् गणेन च । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चतानि न यड्लुपि ॥" इति न्यायादिति भावः । क्वेत्याह- सेष्मायतीति- 50 स्मायीति णिगन्तस्य यङि यङ्लुपि च द्वित्वादिकार्ये कृते प्रकृतरूपसिद्धि ॥। ३. ३. ६१. ॥
|
नन्वेवं "विस्मापयन् विस्मितमात्मवृत्ती" इति कालिदासप्रयोगे कथमात्त्वम् ? इत्थं हि तदीयं पूर्ण पद्यम्-तमार्य गृह्यं निगृहीतधेनुमनुष्यवाचा मनुवंशकेतुम् । विस्मापयन् विस्मितमात्मवृत्ती सिहोरुसत्त्वं निजगाद सिंहः ॥"
इति [ रघु. २५ सर्गे ] पुत्रप्राप्त्यर्थं वसिष्ठनिदेशेन नन्दिनीं 20 वने चारयतो दिलीपस्य क्षणमात्रं दृश्यान्तरे लग्नचक्षुषः परीक्षणार्थं नन्दीन्येव स्वमायया स्वोपरि सिहाक्रमणं प्रदशितवती, तां च तदाक्रान्तां विलोक्य तन्मारणोद्योगे नष्टचेष्टं दिलीप प्रति सिंहवचनारम्भवर्णनमिदं कवेः । "निगृहीतधेनुः सिंहः आर्यगृह्यं मनुवंशकेतुम् आत्मवृत्ती विस्मितं 25 सिहोरुसत्वम् तं [ दिलीप ] मनुष्यवाचा विस्मापयन् निजगाद" इत्यन्वयः अत्र मनुष्यवाचेति कथनात् करणादेव स्मय इति प्रयोक्तुः सकाशान्न तदुत्पत्तिरिति न भाव्यमात्मने पदेन, किश्वात्त्वे कृते तत् सन्नियोगशिष्टेनात्मनेपदेनापि भवितव्यमिति विस्मापयमान इति प्रयोक्तमुचितमिति 30 प्रामुक्तशङ्काशयः । अत्राहुः साम्प्रदायिका:- विस्माययन्त्रि
स्येव पाठो न तु विस्मापयन्निति, पकारयकारयोः स्वरूपे Sल्पभेदाल्लेखक प्रमाद एवायमिति तेषामाशयः । यथाकथं चित् प्रकृतपाठसमाधानरसिका - चेत्थं व्याचक्षते दीक्षितादय:- मनुष्यवाक् प्रयोज्यकर्त्री विस्मापयते तया सिंहो 35 विस्मापयन्निति णिगन्ताणिगि शतृप्रत्यये सति रूपमिद
मिति, जयमाशय:- राजा विस्मयते तं मनुष्यवाक् विस्मापयते, विस्मापयमानां मनुष्यवाचं सिंहः प्रयुङ्क्ते इति मनुष्यवाचा सिंहो विस्मापयन्निति प्रयोगोपपत्तिरिति । तत्र प्रथमणिगि प्रयोक्तुरेव स्मय इति तत्रात्मनेपदा-ssत्त्वयोः 40 प्रवृत्तिः, परतश्च सिंहस्य प्रयोजकत्वविवक्षायां णिगि क्रिया
बिमेतेषु च ॥। ३. ३. ९२ ॥
त० प्र०- प्रयोक्तुः सकाशात् स्वार्थे वर्तमानाण्ण्यन्तात् बिभेतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, अस्य च भीषादेशः, 55 पक्षेऽन्तस्याकारश्वाकर्तर्यपि भवति । मुण्डो भोषयते मुण्डो भापयते । प्रयोक्तुः स्वार्थे इत्येव कुविकया भावयति । अकर्तर्य पीतयेय- भीषा, भावनम् । तिनिर्देशाद् पङ्लुपि म भवति मुण्डो बेभाययति ॥ १२ ॥
श० म० न्यासानुसन्धानम्- बिमेते० । जिग 60 प्रयोक्तुः स्वार्थे ञ्चाकर्तर्यपीति च सम्बध्यते, तथा च सूत्रार्थमाह- प्रयोक्तुः सकाशात् स्वार्थे इत्यादिना । भीषादेशपक्षे चात्वस्य न प्रवृत्तिरवकाशाभावादिति आदेशद्वयविधानाय विभेतेरित्यावर्तनीयम् एकत्र स्थानषष्ठी परत्र चावयवषष्ठीति बिभेतेः स्थाने भीष्, बिभेतेरन्तस्य चात्त्व- 65 मित्यर्थाश्रयणात् विनापि विकल्पवचनं विधेयद्वयावकाशाय भीषादेशस्य पाक्षिकत्व पर्यवस्यतीत्याह- पक्षेऽन्तस्याकारश्वात्तर्यपि भवतीति कर्तर्यपीत्यस्य च भोषादेशेनापि सम्बन्ध: स्वीकार्य एव तुल्ययोगक्षेमत्वात् तथा चोदाहरणे स्पष्टीकरिष्यति । मुण्डो भीषयते इति- बालो विभेति 70 बिभ्यतं तं मुण्डो भीषयते इति वाक्यक्रम:, बिभेतेः प्रयोजकव्यापारविवक्षायां जिग्, प्रयोजकादेव च धात्वर्थस्य भयस्थोत्यत्तिरिति आत्मनेपद भीषादेशो भवतः । पक्षे आत्त्वानुकूलं रूपमाह- मुण्डो भापयते इति । 'प्रयोक्तुः स्वार्थे' इत्यस्य सम्बन्ध आवश्यक इत्याह- प्रयोक्तः स्वार्थे इत्येवेति । 75 व्यावमाह- कुविकया भापयतीति- अत्र कुञ्चिका भयस्य करणं न तु प्रयोक्त्रीति ततो धात्वर्थस्य भयस्योत्पत्तिविवक्षायां न भवत्यात्मनेपदं नवा भोषादेशात्वे भवत इति भावः । अकर्तयंपीत्यस्याप्यावश्यकत्वमित्याह- अकर्त्तर्य
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२५६
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[पा०३, सू०६२-६३ ]
पोत्येवेति, तत्फलमाह- भीषा, भापनमिति, विभेतेणि- | प्रयुक्त इति णिग्, अयं च प्रयोगोऽभ्यासस्थल एव क्रियत 40 गन्ताद् भावे "भीषि-भूषि०" [ ५. ३. १०९. ] इत्याडि इत्यभ्यासार्थे वर्तमानत्वाद् भवत्यात्मनेपदम् । प्रयोगार्थविवक्षितेऽपि भवति भीषादेश इति भावः, भावप्रत्ययेऽनटि माह- स्वरादि जमसकृदुच्चारयति-पाठयतीत्यर्थः विवक्षितेऽपि च भवत्यात्त्वमिति भापनमित्यस्य सिद्धिरिति | इति-स्वर:- उदात्तादिः, तद्विषयको यो दोष उदात्तस्थाने5 भावः। "भियो भीष च" इत्येव निर्देशे लाघवाद विधेये बिभेते- ऽनुदात्तस्य स्वरितस्य वा प्रयोगः, स्वरितादिस्थानेऽनुदात्तादे: रिति तिवनिर्देशगौरवं किमर्थमाश्रितमित्याशङ्कायामाह- | प्रयोगो वा स्वरदोषः, स्वमते उदात्तादीनामपरिभाषणातू 45 तिवनिर्देशाद यङ्लुपि न भवतीति- श्तिवा शवेत्यादि- | तेषां वेदमात्रविषयतायाश्च "तुल्यस्थानास्यप्रयत्नः स्वः" पूर्वप्रदर्शितन्यायसाचिव्येन तिवनिर्देशमवलम्ब्य विहितकार्य- [१. १. १७. ] इति सूत्रे महान्यासे कथितत्वात् स्वरादि
स्यात्मनेपदस्य भीषादेशात्त्वयोश्च यङ्लुपि न प्रवृत्तिर्भवति | दोषपदेन ह्रस्वत्व-दीर्घत्वादिगुणपरिवृत्तिरेव दोषत्वेन ग्रहीत 10 सत्यपि प्रयोजकाद् भये। क्वेत्याह-मुण्डो बेभाययतीति- | शक्यते, एवमादिपदग्राह्ये व्यञ्जनदोषेऽपि स्थानप्रयत्न
भायोति णिगन्ताद् यङ्लुपि रूपमिदम्, अत्रापि मुण्ड एव | परिवृत्तिकृत एव दोषो ग्राह्यः, असकृदिति अभ्यासार्थस्फो- 50 प्रयोजको भयोत्पादकश्चेति तिवनिर्देशाभावे सूत्रप्रवृत्ति- | रणाय । अत्र पौन:पुन्यस्य प्रतीतो "भृशाभीक्षण्याविच्छेद" दुरिति भावः ।। ३. ३, ९२. ।।
[ ७. ४. ७३.] इति द्वित्वं कुतो न भवतीत्याशङ्कायां
परकृतं समाधानमाह-आत्मनेपदेनवेत्यादिना, अभ्यासार्थे मिय्याकृगोऽभ्यासे ।। ३.३.६३॥
आत्मनेपदं विधीयत इति यदर्थे यस्य विधिस्तेन सोऽर्थ 15 त० प्र०- मिथ्याशग्दयुक्तो यः कृग् तस्माण्णिगन्ता
उच्यत इति उक्तार्थानामप्रयोग: इति न्यायमाश्रित्य न 55 दम्यासेऽथें वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अभ्यासः :
तदर्थद्योतनाय द्विःप्रयोगरूपं द्विर्वचनं विधीयत इति भावः । पुनः पुनः क्रियाभ्यावृत्तिः। पदं मिथ्याकारयते, स्वरादि
केचिदित्यनेनान्योक्तमपि समाधानमिदमविरुद्धत्वादस्माभिदोषदुष्टमसकृदुचारयति- पाठयतीत्यर्थः । आत्मनेपदेनंव.
रपि स्वीकृतमिति द्विवचनं न कृतमिति वृत्त्याशयःप्रतिभाति । क्रियाम्यावृत्त!तितत्वात् आभीक्ष्ण्ये द्विवचनं न भवतीति !
लघुन्यासकृतस्तु- "केचिदिति प्रतीकमुपादाय स्वमते 20 केचित। मिभ्येति किम् ? पदं साधु कारयति । कृग इति
तु द्विवचनं भवत्येव शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् । केवलेनात्मने- 60 किम् ? पदं मिथ्या वाचयति । अभ्यास इति किम् ? सकृत
पदेनाम्यासो वक्तुं न शक्यते, यथा भोज भोजं व्रजतीत्यापदं मिथ्या कारयति ॥ ३॥
| दावाभीक्ष्ण्ये आगतोऽपि णम् द्विवचनमाकाक्षतीति" श०म० न्यासानुसन्धानम्-मिश्या०1 णिग इत्ये- | इत्याहुः । किन्तु यदि स्वमतमेतत् स्यात् तहि द्वित्वं कृत्वैतावन्मात्र पूर्वतोऽनुवर्तनीयं नान्यत् किंचित् तावतेव वाक्यं | वोदाहृतं स्यान्न च तथोदाहृतं वृत्ती। लघुन्यासकृतापि 25 पूर्णमिति पदान्तराकाङ्क्षाऽभाव: । मिथ्याकृग इति समु- | "द्विवचनमाकाक्षतीत्युक्तवापि 'पदं मिथ्या कारयते इति 65 दायस्य प्रकृतित्वं न दृष्टमिति तदन्यथा व्याचष्टे-मिथ्या- | प्रयोगो ज्ञेयः" इति प्रतिपादयता द्विर्वचनं न प्रयूक्तम्, शब्दयुक्तो यः कृगिति, तथा च मिथ्यायुक्तः कृगिति विग्रह | संभवति तत्र लेखकप्रमादोऽपि, किन्तु रूणमो दृष्टान्तेन न मयूरव्यंसकादित्वपरिकल्पनात् मध्यमपदलोपी समासः । ! सर्वत्र पौनःपुन्ये द्वित्वावश्यकता प्रतिपादयितुं शक्या, रूणमः
अन्ये तु मिथ्याशब्द: सहार्थे तृतीयान्त इति व्याचक्षते, ! पौनःपुन्यादन्यत्रापि विधानान्न नियमेन तस्य तदर्थवाचक30 परं विना सहार्थशब्दयोगे तादृशतृतीयाया अदर्शनातू, त्वमिति द्वित्वं विना तदर्थस्य साधुप्रतीतिर्न स्यादिति तत्र 70
तदर्थकशब्दाध्याहारे च गौरवाद् वृत्त्युक्तमेव साध्विति ! द्विवचन विधीयते, प्रकृतात्मनेपदस्य च तव विधानाद प्रतीयते । अभ्यासेऽर्थ वर्तमानादिति- णिगन्तकृयो । विनापि द्विवचनमभ्यावृत्तिप्रतिपादकत्वाचन द्वित्व विधानमिथ्योपपदस्य तादृशेऽर्थे वृत्तिोतकविघया न तु वाचक- मिति युज्यते । रणविषये च द्वित्वं विनाऽऽभीक्ष्ण्यप्रता
स्वेन, तादृशवाचकतया प्रामाणिकर नुक्तः । अभ्यासशब्दार्थ- तिर्नास्तीति तत्र द्वित्वविधानमावश्यकम् । तथा च "रूणम् 35 माह- अभ्यासः पुनः पुनः क्रियाभ्यावृत्तिरिति- अस- | चाभीक्ष्ण्ये" [ ५. ४. ४८. ] इति सूत्रबृहद्वृत्ती स्पष्टमेवो- 75
कृदावृत्तिरम्यावृत्ति: पौन:पुन्यम् । पदं मिथ्या कारयते | क्तम्- “अत्र तवा-रुणमो हि स्वादिवत् प्रकृत्यर्थोपाधिद्योतने इति-मिथ्येति पदविशेषणं, तस्य चाव्ययत्वेन तत उत्प- सामर्थ्य नास्तीति आभीक्ष्ण्याभिव्यक्तये द्विचनं भवति" नाया अविभक्त: "अव्ययस्य" [ ३. २. ७. 1 इति लुप, इति । प्रकृतात्मनेपदस्य च तदद्योत्तने सामर्थ्यमस्तीति अयं मिथ्याभूतं पदं कश्चित् करोति- उच्चरति, तमन्यः | द्वित्वाकरणादेव विज्ञायत इति न द्वित्वं कृतमिति ग्रन्थकृतो
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[पा० ३, सू०६३-६४]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशम्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
२५७
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हृदयम् । केचिदित्यनेन न्यासकृदादीनां ग्रहणमित्यपि लघु- तदर्थविवक्षा तत्र सकृच्छब्दप्रयोग आवश्यक इति तथा न्यासकृतः । पाणिनीयानामप्यत्र विषये एतदेव मतमिति | प्रयुक्ते। यच्च तैः स्वमतसामञ्जस्यार्थकदेशेनोदाहरणं सर्वस्पष्टीकृतं तत्वबोधिन्यादौ । वस्तुतस्तु कियाभ्यावृत्तिणि- व स्थले समाधीयते तच्च शास्त्रकृच्छलीबहिर्भूतमित्युक्तमेव
यतो वत्ती- अभ्यासार्थ वर्तमानादिति णिग- | पूर्वमित्यलं पल्लवितेन । पदकृत्यमाह-मिथ्येति किमिति5 तस्यैव विशेषणमुक्तम्, तथा च आत्मनेपदेनैव द्योतितत्वा- | मिथ्यायुक्तात् कृगो णिगन्ताद् यदात्मनेपदं विधीयते तत्र 45 दिति अवधारणयुक्त तेषां मतं न स्वाभिमत मित्यत एव । मिथ्यायुक्तत्वं विशेषणं नोपादेयं, केवलादेवाभ्यासार्थे वर्तकेचिदित्युक्तम् । एतावताऽत्र द्वित्वं स्वाभिमतम्, 'पदं मिथ्या माण्णिगन्तात् कृगो विधीयतामात्मनेपदमिति प्रभाशयः । कारयते' इति सकृत् ‘कारयते' इत्यस्य लेखनं तु एकदेशे- प्रत्युदाहरति- पदं साधु कारयतीति- अत्र नात्मनेपदं
नोदाहरणरूपमित्यपि वक्तुं न शक्यते, अन्यत्र द्विर्वचनस्थले भवति सत्यप्यभ्यासार्थे। कृग इति किमिति- मिथ्योप10 तथोदाहरणस्य ग्रन्थकृतशैलीबहिर्भूतत्वात् । अत एव प्रत्यु- पदात् [ मिथ्यायुक्तात्- इति वा ] अभ्यासे इत्येव सूत्रमस्तु, 60
दाहरणे पदं साधु कारयतीत्यादावपि न द्वित्वं प्रयुक्तम्, यद्यपि तादृशसूत्रकरणे लाघवाभावस्तथापि सूत्रस्य बहुयदि हि आत्मनेपदमेवाभ्यासार्थद्योतकं स्यात् तहि तदभावे विषयता सिध्यतीत्येव फलमिति प्रष्टुराशयः । कृगोऽन्यतदर्थद्योतनायात्र द्वित्वं कृतं स्यात्, न च तत्र नास्त्येवा- प्रकृतेमिथ्यायुक्तादात्मनेपदं नेष्टं तद्वारणायावश्यकं कृग
भ्यासार्थ इति वाच्यम, तथा सति प्रत्युदाहरणे द्वयन- इति कथनमित्याह प्रत्युदाहरणद्वारा- पदं मिथ्या वाच15 वैकल्यं स्यादिति मिथ्याग्रहणप्रयोजनप्रदर्शनाय तन्न समर्थ : यतीति- वचेणिगन्तादेवमर्थे अभ्यासार्थ ] वर्तमाना- 55
स्यात् किमिथ्यापदाभावप्रयुक्त आत्मनेपदाभाव उता- | दपि न भवत्यात्मनेपदमिति भावः । अभ्यास इति किमिभ्यासार्थाभावप्रयुक्त इति निर्णयाभावे प्रत्युदाहरणासंगते: ! ति- अभ्यासार्थे विधानाभावात् प्रकृतिविशेषणत्वेनाभ्यासे स्पष्टत्वात् । एतेन लघुत्यासद्भिः 'पदं मिथ्या कारयते' इति न कार्य सामान्येनाभ्यासेऽनभ्यासे वा वर्तमानाद्
इत्यत्र द्वित्वावश्यकतासमर्थनाय केचिदितिरीत्या प्रदर्शित- । विधेमात्मनेपदमिति प्रश्नाशयः । प्रत्युदाहरति-सकृत पदं 2) मतस्य खण्डनाय यदुक्तम्- "तदपरे न मृष्यति, यत एव- मिथ्या कारयति इति- अत्र सकृत्पदसानिध्यादभ्यासार्था- 60
मभ्युपगम्यमानेऽभ्यासे द्योतकस्यात्मनेपदस्याभावे पदं साधु भाव: स्पष्ट इति तत्रात्मनेपदं न भवति, सूत्रे तदभावे च कारयतीत्यादिप्रत्युदाहरणेषु कस्मान्न भवति, न चाभ्यासो ! स्यादेवेति तद्वारणायावश्यकमभ्यासे इति इति भावः नास्तीति वाच्यं, द्वयङ्गवैकल्यप्रसङ्गात्, तस्माद्यदेकदेशेने- | 1 ३. ३. ९३. । त्यूक्तं स एव पक्षोन्याय्यः" इति तदपि प्रत्युक्तं भवति, यतो
(-ऽयमा-ऽऽयस-पा-धे-बद-यस-दमा-द-रुच25 नात्मनेपदस्याभ्यासार्थे विधानमिति स्वमतमपि तु परम
नृतः फलवति ।। ३. ३. १४॥
66 तत्वेन तदुक्तम्, स्वमते तु प्रकृतेरेव तादृशेऽर्थे [अभ्यासार्थ ] । त० प्र०- फलवतीति भूम्न्यतिशायने वा मतुः, तेन वृत्तिः, यत्किञ्चित्प्रत्ययसमभिव्याहारेण च तत्प्रतीतिः । यत्रत कियायाः प्रधानं फलमोदनादि यदर्थमियमारभ्यते चन तत्प्रतीतिरिष्टा तत्र सकृत् पदं प्रयुज्यते, यथा- | तदति कर्तरि विवक्षिते परिपूर्वान्महेराइपूर्वाभ्यां पमि
अभ्यास इति किम् ? सकृत पदं मिथ्या कारयतीति प्रत्यु- यसिभ्यां- पिबति-धे-यव-वसति-दमा-श्व-रुच-नृतिभ्यश्न 30 दाहरणे । यश्चात्मनेपदस्यैव द्योतकत्व स्वीक्रियते तैरपि । णिगन्तेभ्यः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । परिमोहयते चैत्रम्, '70
तादृशेऽर्थे तस्य विधानं न स्वीक्रियत इति प्रकृतेरेद तदर्थे। आयामयते सर्पम्, आयासयते मैत्रम्। पाययते बटुम, वृत्तिः सर्वसम्मता। ततश्च तदर्थवृत्तेः प्रकृतेर्यः कश्चित् | धापयते शिशुम्, वादयते शिशुम, वासयते पान्थम्, दमयतेप्रत्ययः, आत्मनेपदं वा परस्मैपदं वाऽऽगच्छेत् तस्य सर्वस्य | चम्, आदयते चत्रेण, अदेनेच्छन्त्यन्ये- आवयति चत्रेण,
तदर्थद्योतकता स्वीकार्या' स्यात्, इत्यात्मनेपदाभावेऽपि रोचयते मंत्रम, नर्तयते नटम् । पिबत्यत्तिधातूनामाहा35 तदर्थप्रतीतिः पदं साधु कारयतीत्यादौ भवति, यत्र च न | रार्थत्वादौदासीन्यनिवृत्त्यर्थतायामकर्मकत्वाश नृतेश्चलनार्थ-75
तत्प्रतीतिरिष्टा तत्र सकृत् पदं प्रयुज्यते, अन्यथा तत्प्रयोगो- | स्वाच शेषाणां स्वरूपतो विवक्षातो वाऽकर्मकत्वादुत्तराभ्यां ऽपि व्यर्थ एव स्यात्, सकृदुच्चारितः शब्दः सकृदेवार्थं गम-परस्मैपदे प्राप्ते वचनम् । 'पा'इति 'ट्धे'साहचर्यात् पिबतेयतीति सिद्धान्तात् तत्प्रयोगाभावेऽगि सकृदेव क्रिया प्रती-ग्रहणम्, न पाते, वदसाहचर्याच 'वस' इति वसतेन वस्ते
येत किमर्थ सकृच्छब्दः प्रयुज्येत। पश्यति त्वाचार्यों यन- रिति-पाति चत्रो नोदास्ते, पालयति चैत्रम्, यस्ते मैत्री 40 प्रकृतेरेवाभ्यासार्थेऽत्र वृत्तिः शब्दशक्तिस्वाभाव्यादिति यत्र न
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[ पा० ३, स० ६४ ]
as for इत्यपि प्रकृतमेवेति णिगन्तेभ्य एव परिमुहादिभ्य आत्मनेपदमनेन विधीयते, तदेतदाह- परिपूर्वा न्मु हेरित्यादिना । सूत्रे 'पा' इत्युक्तत्वेन पिवतिः पातिर्वा ग्राह्य इति संशये आह- पिवतीति तद्ग्रहणे प्रमाणं दर्शयिष्यत्यग्रे । फल-परिमोहयते चेत्रमिति - अत्र परिमोहनस्य प्रधानं फल 45 चित्तविक्षेप:, तेन च परिमोग्धा चैत्रः सम्बन्ध्यत एवेत्यस्ति फलवस्वं कत्तुं स्तथैव विवक्षित्वात् । आयामयते सर्पमितिआङ्पूर्वाद् यमेणिगि रूपम्, सर्प आयच्छति दीर्घो भवति, तं प्रेरयतीत्यर्थः, अत्रापि दीर्घीभवनस्य क्रियाफलस्य सर्पेण सम्बन्ध इति भवत्यात्मनेपदम् । यद्यपि चत्रसर्पादयः सम्प्रति 50 कर्मतां गतास्तथापि वस्तुतस्तेषां धात्वर्थं प्रति कर्तृत्वमेवेति मूलधातोरेव कर्तुः फलवत्वं विवक्षितं न तु णिगन्तस्य, णिगन्तकत्तु : प्रयोजकत्वेन तस्य धात्वर्थ कर्तुं स्वाभावात्, यद्यपि स्वमते "मोऽपरिवेषणे णिचि च" [ ३.२.२६ ] इति सूत्रे 'अपरिवेषणे' इत्युक्ततयाऽत्र परिवेषण एवं हस्वविधा- 55 नादन्यत्र दीर्घस्यैव प्रयोगात् तदनुसारेणैवात्र 'आयामयते' इति दीर्घनिर्देशो लेखकप्रमादाद् वा । श्रायासयते मंत्रमिति- मैत्र आयस्यति तं चैत्रः प्रेरयते इत्यर्थः । "यसूच् प्रयत्ने" इति दिवादिपठितो यसुधातुः, प्रयत्नस्य कर्तृगामिस्वमेव प्राधान्येनेति फलवत्कर्तृ त्वमस्याप्यस्त्येव । पाययते 60 बदुमिति- बटुः पिबति तं प्रेरयतीत्यर्थः, पानक्रियायाः । फलं द्रवद्रव्यस्य गलबिलाषः संयोगः तेन च फलेन कर्तुः सम्बन्धः स्पष्ट एव । धापयते शिशुमिति शिशुर्धयति, "यस्यार्थस्य प्रसिद्धयर्थं मारभ्यन्ते पचादयः । तं धात्री प्रेरयतीति विवक्षा, ट्वें धातुरपि पानार्थः । वादतत् प्रधानं फलं तेषां न लाभादि प्रयोजनम् ।।" इति । यते शिशुमिति- शिशुर्वेदति- 'अम्ब !' इत्यादिशब्दमुच्चा- 65 अत्र पचादय इत्युत्तरमेवकार अध्याहार्थः यस्यार्थस्य प्रसि । रथति, तं स्वजन: प्रेरयति - अन्यशब्दोच्चारणे प्रवर्त्तयतीदर्थं पचाक्ष्य एवारम्यन्ते न क्रियान्तराणि तत् तेषां त्यर्थः । वासयते पान्थम् पान्थो दिनान्ते कस्यचिद् गृहे प्रधानं फलम्, लाभादि प्रयोजनं तु प्रधानं फलं न तस्य वसति तं गृहपतिर्वास्यति, निवासार्थी वसतिरपि फलवकियान्तरेणापि संभवादित्यन्वयः । अयमर्थः- यां क्रियां कर्तृकः । दमयतेऽश्वमिति- अश्वो दाम्यति तं सादी 30 विना योऽर्थो न सिद्धयेत् स एव तस्था: क्रियायाः प्रधानं प्रेरयतीति विग्रहः । आदयते चैत्रेण अत्ति चैत्रः, तं मैत्रः 70 फलम्, पचिक्रियां विनोदनस्य सिद्धिर्न दृष्टेत्योदनमेव प्रेरयति, अत्राणिगवस्थाकतु क्षेत्रस्य णिगवस्थायां प्राप्तमपि पचिक्रियाया मुख्यं फलम्, पक्कुर्लाभादि च क्रियान्तरेणापि | कर्मत्वं "गति-बोध० " [ २.२.५. ] इति सूत्रे 'अनीरवासभवति, पाचकेन यावद् वेतन पचिक्रियार्थं लभ्यते ताव- । द्यदि०' इत्यादिपर्यु दासान्न भवतीति कर्त्तरि तृतीयैव भवति । दन्यकार्यकरणऽपि लब्धुं शक्यत एवेति लाभो न पचिक्रियायाः | मतान्तरमाह- अदेनेंच्छन्त्यन्ये इति, पाणिनीयेष्वेतद्विषये 35 प्रधानं फलं भवितुमर्हति । तादृशफलवत्त्वं च विवक्षा | सूत्रेऽदेर्ग्रहणं न दृश्यते, आदयतीत्येव च सर्वत्र प्रयोगो 75 दृश्यते । रोचयते मैत्रमिति- मंत्रो रोचते, तन्मन्य: प्रेरयति । नर्त्तयते नटम् नदी नृत्यति तन्मभ्यः प्रवर्त्तयति । | सर्वत्रोदाहरणेषु धात्वर्थ प्रधानफलस्य कर्ता सम्बन्धस्य विवक्षितत्वेन गिन्तावस्थायां भवत्यात्मनेपदम् ।
श० म० न्यासानुसन्धानम् - परि० । अत्र फलवतीति कर्तृविशेषणं, तञ्च व्यर्थं सर्वत्र हि कर्ता क्रियाफलमु द्दिश्यैव क्रियायां प्रवर्तते तथा च रूढिः- “ प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते" इति, सत्यां च क्रियायां तत्फल5 स्यावश्यं कर्ता सम्बन्धः अन्येन कृतायाः क्रियायाः स्यान्यस्मिन्नसंभवादिति विनापि फलवतीति कथने फलवत्येव कर्तरि स्यादिति तद्ग्रहणस्य वैयर्थ्यमाशङ्कयाह- फलव तीति भूम्नि अतिशायने वा मतुः, अयमाशयः- न सम्बन्धमात्रे इह मतुविहितोऽपि तु भूयसि सम्बन्धेऽतिशयिते 10 वा सम्बन्धे, तथा च क्रियायाः फलेन भूयसाऽन्यापेक्षया अधिनयेनातिशयेन कारकान्तरापेक्षयाऽतिरिच्यमानत्वेन । वा सम्बन्धे सत्येव फलवत्वमभिप्रेतम् । अथवा भूम्ना प्रभूतेन, अतिशयितेन सर्वापेक्षया प्रधानेन क्रियान्तरासाध्येन वा फलेन यत्र कर्तुः सम्बन्धस्तादृशस्य कर्तुः परिग्रहार्थं फल15 वतीत्युच्यत इति बोधयितुं - भूम्न्यतिशायने वेत्युक्तम् ।। क्रियायाः फलं द्विविधम्- प्रधानमप्रधानं च यथा पचतीत्यादी प्रवान फलमोदन सम्पत्तिः, तस्याः क्रियान्तरेणासाध्यत्वात् अप्रधानं फलं भोकुर्भोजनसम्पत्तिः, पक्तुः स्वामिप्रीतिभूति लभो वा तत्र यत्र पक्ताप्रधानेन फलेनौदनेन सम्बध्यते 20 तत्रैव पचते इति प्रयोगो भवति, न तु यत्रान्यार्थ पार्क करोति तत्र तत्र च पचतीत्येव प्रयोगः । तदाह- तेन यत् क्रियायाः प्रधानं फलमोदनादि, यदर्थमियमारभ्यते तद्वति कर्तरीति । उक्तं च हरिणापि -
25
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धीनं यत्र कतु रोदनेन फलेन सम्बन्धो विवक्षितस्तत्रैव तस्य फलवत्वमिति तत्रैव ईदित्त्वप्रयुक्तमात्मनेपदं ततः स्यात्पचते इति । यत्र च पाचकानां लाभादि प्रयोजनं विवक्षित तत्र पचन्ति पाचका इत्याद्येवेति स्पष्टीभविष्यत्यग्रिमसूत्र40 व्याख्यायाम् । तदाह तद्वति कर्त्तरि विवक्षिते इति ।
णिगो गिरवेन "ईगित:" [ ३. ३. ९५ ] इत्यग्रिम- 80
२५८
।
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[पा० है, सू० ६४-६५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
सुत्रेणैव फलवत्कर्तृ तायां संभवत्येवात्मनेपदमिति प्रकृतसूत्रस्य नानेन विशेषविहितमात्मनेपदमिति भावः । एवं वस्ते मंत्री माशाह - पिबत्यत्ति धेधातूनाहारार्थत्वादौ न लग्नः इत्यत्र न नग्न इति कथनेन धातोर्नग्नतानिवृत्तिदासीन्यनिवृत्त्यर्थतायामकर्मकत्वाच्च नृतेश्चलनार्थत्वाच । मात्रपरत्वेनाकर्मकतां स्फुटीकृत्य णिगन्ते प्रोक्तसूत्रेण परस्मैशेषाणां स्वरूपतो विवक्षातो वाऽकर्मकत्वादुत्तराभ्यां पदमुदाहरति- वासयति मंत्रमित्येव भवतीति- अनिय 5 परस्मैपदे प्राप्ते वचनमिति, अयमाशय:- "ईगितः " च परत्वादस्य प्रवृत्तावुभयत्रात्मनेपदं दुर्वारमिति भावः 45 इत्यनेन सामान्यतो विधीयमानमात्मनेपदं प्रकृतधातूनां ॥ ३.३ १४. ।। यथायथमाहारार्थत्व-चलनार्थत्वा ऽकर्मकत्वैरुत्तरसूत्राभ्याम्
ईगितः ॥ ३. ३. ६५ ॥
त० प्र०- ईकारतो गकारतश्च धातोः फलवति कर्तयत्मिनेपदं भवति । यजों- यजते डुपचष- पचते । लक्षयते; डुलग-- कुरुते, टुडुभृगुक्- बिसृते, 50 गच्छति, चोरयति । फलवतीत्येव- यजन्ति याजकाः, कण्डूग्- कण्डूयते णिगन्त- गमयते । ईगित इति किम् ?
1
।
"अणि प्राणिक का० [ ३. ३. १०७. ] "चल्याहारार्थ ०" [ ३. ३. १०८ ] इत्येताभ्यां प्रासेन परस्मैपदेन 1) परत्वादु बाधितं स्यादिति बाधकबाधनार्थमेवानेन विशि व्यात्मनेपदविधानम् । तत्र प्रत्येक धातूनां परस्मैपदप्राप्ति-लक्षीणनिमित्तं स्पष्टयितुमाह- ‘पिबत्यत्ति द्वेधातूनामाहारार्थ त्वादिति पिवतिः पानार्थकः, अत्तिर्भक्षणार्थः, वे धातुरवि पानार्थ एव एषां च वस्तुत आहारार्थत्वेनैव पर्य15 वसानमिति "चल्याहारार्थ०" [ ३. ३. १०८. ] इत्यनेन प्राप्तिः । नृतेर्गात्रिविक्षेपार्थस्य चलनार्थत्वमिति तस्याप्युक्तसूत्रेणैव परस्मैपदप्राप्तिः, अन्येषां वस्-यम्-यस्- द्रम्-रुच्-नमेव, धातूनां स्वभावादेवाकर्मकत्वं वदेश्व विवक्षातोऽकर्मकत्वमिति, अथवा सर्वेषामेव कर्मकत्वं यतः पिबत्यादीनामपि स्वार्थपरि20 त्यागेनोदासीन्य निवृत्तिपरत्वेऽकर्मकत्वमेव, मुह-यम्-यस्-वस्दम्-रुच्-नृतां स्वभावत एवाकर्मकत्वं वदेश्व विवक्षावादिति सर्वेभ्य एतेभ्यः " अणिगि प्राणि०" [ ३. ३. १०७. ] इति सूत्रेण परस्मैपदं प्राप्तमिति तत्प्राबधतायानेन विशिष्यात्मनेपदविधानमावश्यकम् । विशिष्य विधाने हि निरवकाशत्वेना25 पवादकत्वात् परत्वमूलकप्राप्ते र्बाधिकत्वसंभवात् अपवादस्य सर्वापेक्षया बलवत्त्वस्य सर्वसम्मतत्वात् ।
पचन्ति पाचकाः कुर्वन्ति कर्मकराः, गमयत्यश्वं चमकः, नात्र स्वर्गीदनादि प्रधानं फलं कर्त्रा संबध्यते यच दक्षिणावेतनादि संबध्यते, न तत् क्रियायाः फलं प्रधानमिति । ग्राह्य तथैव लोके व्यवहारात् । तथाहि - क्वचिदतचैतत् स्वार्थलक्षणं फलं सदसद् वा विवक्षानिबन्धसदपि सविवक्ष्यते, यथा- शोषयते व्रीहीनातपः शब्दः प्राक् स्वार्थमभिधत्ते ततो द्रव्यम्, परकर्मण्यपि प्रवृत्ताः कदाचिदाहुः- यजामहे, इमे पचामहे यत्नादस्मदीयमेवैत- 60 दिति । कचित् सदप्यसद् विवक्ष्यते, यथा- इमे ब्रूमः, अवचनप्रतिषेधपरत्वेन प्रवृत्तविवक्षितत्वात् एवम्- अगमकरवादिति ब्रूमो न ब्रू मोऽपशब्दः स्यादिति । तदाहु:
65
“क्रियाप्रवृत्तावाख्याता, कैश्वित् स्वार्थपरार्थता । असतो वा सती वापि विवक्षितनिबन्धना ॥" इति । केचित्तु frrafonादोगितो धातोर्णिगर्थे एवं प्रेरणाध्येषणविशेषे प्रतिविधाननाम्नि वर्तमानादात्मनेपदमिच्छन्ति- पचते, पाचयतीत्यर्थः; केशमभु वपते, बापयतीत्यर्थः वेदो वैधम्यं विधत्ते, विधापयतीत्यर्थः इत्यादि यदाहु:
|
अत्र सूत्रे पठिताः केचन धातवो द्विधा धातुपाठे समुपलभ्यन्ते तत्रोभयोर्ग्रहणमन्यतरस्य वा अन्यतरस्य चेत् ? तत्र किं मूलमिति शङ्कायामाह - 'पा' इति ट्वे-साहचर्या 30 दिति- 'ट्वें' धातुरपि पानार्थकः शब्दिकरणश्चेति तत्माहचर्यात् तथा भूतस्य पिबतेरेव ग्रहणं न तु पाते रक्षार्थकस्य । एवं 'वस्' धातुरपि निवासार्थंको स्वादिः, आच्छादनार्थकोदादिः, अत्र कस्य ग्रहणमित्यत्राह - वदसाहचर्याच्च बस इति वसते वस्तेरिति वदधातुर्वादिरिति तत्साहचर्यात् 35 तत्सदृशस्य वसते निवासार्थकस्यैव ग्रहणं न वस्तेराच्छादनाथंस्यादादेः । तत्फलमाह- पाति चैत्रो नोदास्ते, पालयति चैत्रमिति- 'नोदास्ते' इति कथनेनौदासिन्यनिवृत्तिपर त्वमात्रदशायामस्याकर्मकत्वमिति "अणिगि प्राणि०" [ ३. ३. १०७. ] इत्यस्याग्रे परस्मैपदविधायकता स्फोरिता, तथा 40 च ततः [ पाते: ] णिगि पालयतीति परस्मैपदमेव भवति,
२५६
I
"क्रीणीष्व वपते धते, मिनुते चिनुतेऽपि च । आप्तप्रयोगा दृश्यन्ते येषु ण्यर्थोऽभिधीयते ॥” इति । एतच्च श्रोत्रियमतमित्युपेक्ष्यते ॥ ६५ ॥
55
70
श म० व्यासानुसन्धानम् - ईगितः । णिग इति निवृत्तमनाकाङ्क्षितत्वात् फलवतीति चानुवर्तत एव । ईश्व 75 ग् च ईगौ, तावितौ यस्य तस्मादिति विग्रहे यद्यपि एकस्यैव धातोरीगित्वं प्रतिभाति तथापि तथाभूतस्य धातोरनुपलम्भाल्लक्ष्यसंस्कारानुरोधेन प्राप्तिस्विकरूपेण ईकारेस्वं, गित्वं च विवक्षितमित्याह - ईकारेतो गकारेतश्चेति ।
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-२६०
कलिकाल सर्वज्ञत्री हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीते
[ पा० ३, सू० ६५ ]
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उदाहरति- यजों- यजते इति- यज्धातुरीकारेत् देव- पूजाद्यर्थः, देवपूजादेः फलं हि देवपरितोषः स्वर्गादिलाभश्व - प्रधानम्, अप्रधानं च याजकानां दक्षिणादिलाभ:, तत्र यजमानस्य स्वर्गादिफलभाक्तूवे विवक्षितेऽनेनात्मनेपदं भवति । 5 डुपचष् - पचते इति- अत्र 'हु-ई-प्' एते त्रयोऽप्यनुबन्धा भिन्नभिन्न प्रयोजनाः, तत्रेकारेत्त्वेनात्मनेपदमात्रमत्रोदाहार्यम्, पचधात्वर्थफलमोदनादिसम्पत्ति:, तेन फलेन यत्र पक्ता सम्बद्धस्तत्रानेनात्मनेपदं भवति । लक्षीण्- लक्षयते इति - "लक्षीण् दर्शनाऽङ्कनयोः" इति चुरादी पठ्यते तत्र यत्र 10 दर्शनमङ्कनं स्वार्थमाचर्यते तत्र दर्शनफलस्य ज्ञानस्य, अङ्कनफलस्य परिचयस्य कर्त्रा सम्बन्धस्तत्रात्मनेपदं भवति । ईकारेत उदाहृत्य गकारेत उदाहर्तुमाह- डुकृग्- कुरुते इति- उत्पादनार्थः कृग् गकारेत्, तत्र क्रियाफल कार्योत्पत्ति यदि कर्तृ सम्बद्धा तदाऽऽत्मनेपदमनेन भवति । दुडुभ्रंग्क्15 बिभृते इति - अत्र चत्वारोऽनुबन्धाः प्राप्तिस्विक प्रयोजनाः, प्रकृते गिवनिबन्धनमात्मनेपदमात्र मुदाहार्यम्, बिर्भात धरणार्थ: पोषणार्थश्व जुहोत्यादिः, वारणपोषणफलं यदा कर्त्रा सम्बद्धं तदाऽऽत्मनेपदमन्यथा परस्मैपदम् । कण्डूग्- कण्डूयते इति- यत्रात्मनो गात्रविघर्षणम्, आत्मार्थं वा गवादेर्गात्र20 विघर्षणं तत्रात्मनेपदं भवति । णिग्प्रत्ययेऽपि गकार इत्, fuगन्तस्यापि च धातुत्वं क्रियावाचकत्वनिबन्धनम्, ततश्च पातोगित्वं भवतीति यत्र प्रेरणाविषयीभूतगमधात्वर्थ स्थानान्तरप्रासिरूपफलेन कर्तुः सम्बन्धस्तत्रात्मनेपदम्, गतिश्चलनाद्भित्रेति न "चल्याहार०" [ ३.३. १०८ ] इति 25 परस्मैपदम् । पदकृत्यमाह - ईगित इति किमिति - पूर्वसूत्रे
व्यावर्त्यमाह - यजन्ति याजकाः इत्यादिना, याजका दक्षिणादिप्राप्तिफलेन यज्ञे प्रवर्त्तमाना यजन्ति- यज्ञं कुवन्तीति तदर्थः, अत्र यज्ञस्य प्रधानं फलं स्वर्गस्तेन च न याजकानां सम्बन्ध इति प्रधानफलवत्कर्तुं रभावादिह परस्मैपदमेव भवति नात्मनेपदमिति, फलवतीत्यस्य सम्बन्धाभावे तद्दु- 45 वारम् । एवं पचन्ति पाचकाः इति- पाचका:- भृति। प्रातिकामनया पाके नियुक्ता न तत्फलेनौदनेन सम्बद्धत्वेन विवक्षिता इति फलवत्कर्तु रभावादिहापि परस्मैपदमेव भवति सत्यपीदित्त्वे । गितं प्रत्युदाहरति- कुर्वन्ति कर्मकराः कर्मकरा भृतिदानेन कर्मणि नियुक्ताः कुर्वन्ति, यत्र कार्ये नियु- 50 क्तास्तत् सम्पादयन्तीति प्रयोगार्थः, अत्र धात्वर्थ प्रधानफलेन कार्येण न तेषां सम्बन्धोऽपि तु भृतिमात्रेणेति न भवत्यात्मनेपदम् । केवलान् धातून् प्रत्युदाहृत्य प्रत्ययान्त गितं धातुं प्रत्युदाहरति- गमयत्यश्वं दमकः इति - दमकोऽशिक्षितस्याश्वस्य दयिता- दमनपूर्वक तत्तद्वतिविशेषशिक्षकः, अश्वं 55 समयति- गत्यर्थं प्रेरयतीति प्रयोगार्थ:, अत्र दमकोऽपि अश्वस्वामिस्त्रीकृतस्य पारिश्रमिकरूपफलस्यैव स्वामी न तु तस्याश्वगत्या किमपि स्थानान्तरप्राप्त्यादिफलमीशितव्यमिति न भवति तस्य फलवत्त्वमिति तत्कर्तृकाद् गमयतेर्नात्मनेपदम् । प्रत्युदाहरणेषु कर्तुः फलवत्त्वाभावं संगमयति- 60 नात्र स्वर्गीदनादि प्रधानं फलमिति यजन्ति याजका इत्यत्र स्वर्गः प्रधानं फलम्, पचन्ति पाचका इत्यत्रोदनं प्रधानं फलम् कुर्वन्ति कर्मकरा इत्यादी कृष्यादिकार्य प्रधानं फलमादिपदग्राह्यम् तच्च कर्त्रा याजकादिना न सम्ब ध्यते - स्वत्वेन नान्वेति । ननु दक्षिणा वेतनादिप्राप्तिरूपं 65 फलं तु तत्रापि याजकादिरूपे कर्तरि सम्बध्यत एवेत्यस्त्येव फलवत्कर्तृत्वं तत्रापीति चेदाह - यच दक्षिणा वेतनादि सम्बध्यते न तत् क्रियायाः प्रधानं फलमिति - यजन्ति याजका इत्यत्र दक्षिणा, पचन्ति पाचका इत्यत्र वेतनम्, कुर्वन्ति कर्मकरा इत्यत्र भृतिरित्यादिपदग्राह्यं यथायोगं फलं 70 यत् तेषु स्थलेषु कर्तृ सम्बद्धमस्ति तत्र प्रधानं फलमपि गौणमिति भूम्नि अनिशायने वा मत्वन्तेन फलवच्छब्देन तेषां न ग्रहणम्, प्रधानं फलं चेतरक्रियासाध्यत्वे सति तत्क्रियामात्रसाध्यम्, तथाभूत च दक्षिणादि नास्ति कार्यान्तरेणापि तल्लाभस्य संभवात् । इदं च फलं न वस्तुत एव 75 कर्तरि विद्यमानमेव आत्मनेपदोपयोगि, अपि तु वस्तुतोऽविद्यमानमपि कर्तृ सम्बद्धत्वेन विवक्षितं चेत् तदा भवितव्यमात्मनेपदेनेत्याह- तच्चेतत् स्वार्थलक्षणं फलं सदसद् ar विवक्षानिबन्धनमेव ग्राह्यमिति- अत्र स्वपदेन क्रियावाचकस्य आत्मनेपदप्रकृतिभूतस्य धातोर्ग्रहणम् उत कर्तुं रिति 80
यत् फलवतीत्युक्तम्, तस्य पृथगेव योगः कर्तव्यः पूर्वसूत्रे च तत् णिगतैस्तैः सह सम्बद्धम्, योगविभागसामर्थ्याच्च पृथगारब्धे फलवतीति योगे गिग इत्यस्यासंबन्धात् सामान्यत एव सर्वस्माद् धातोः फलवति कर्तरि विवक्षिते आत्मनेपदं 30 विधीयताम्, "ईगितः" इति विशिष्य ईकारेतो गितश्व फलवति कर्तर्यात्मनेपदविधानमनर्थकमिति प्रष्टुराशयः । सामा न्येन फलवति कर्त्तरि आत्मनेपदविधानेऽव्याप्तिदोषाभावेऽयतिव्याप्तिः स्यादित्याह- गच्छति, चोरयतीति गच्छते रपि क्रियाफलस्योत्तरदेशसंयोगस्य कर्तृगामित्वेन विवक्षणे 35 आत्मनेपदं स्यादिष्यते तु नैव, एवं स्वार्थ णिजन्ताच्चुरेरपि
फलवति कर्तरि विवक्षिते तत् स्यात् ईंगित इति कथने तु न भवति । यद्यपि अन्यः स्वार्थणिजन्तान्चुरादेरपि कर्तृगामिनि क्रियाफले [ फलवति कर्त्तरि ] आत्मनेपदमिष्यत एव परं स्वमते नेष्यत इति प्रत्युदाहरणसंभवोऽस्त्येव । 40 फलवतीत्यस्य सम्बन्ध आवश्यक इत्याह- फलवतीत्येवेति ।
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[पा० ३, सू०६५]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशम्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
चेदुच्यते- कतरेव ग्रहणस्यौचित्यम्, यतः स्वपदेन धातो. परस्परं विसंबादः, तस्य चेहाप्राकरणिकत्वेन नास्त्यूपन्याग्रहणे न तदर्थत्व स्वर्गादेः सम्भवति, कतु ग्रहणे च तेनार्थ- सावश्यकता, केवलमत्रात्मनेपदं शब्दे कर्तरि असदपि फलनीयत्वं स्वर्गादेरुपपद्यते, एवं च स्वस्य- कर्तु:, अर्थः-- वत्त्वं विवक्षावशात् रादिव मत्त्वा प्रयुक्तमित्येतावदर्थमस्य
अर्थनीयः, तदेव लक्षणं-स्वरूपं यस्य तादृशं फल-स्वर्गादि, | वाक्यस्योपन्यासः। व्यवहारान्तरमपि विवक्षाधीनमुदाहरति5 सत्- स्वार्थनीयत्वेन विद्यमानं, वस्तुत: स्वेतार्थ्यमानम्, | परकर्मण्यपि प्रवृत्ताः कदाचिदाहुः- यजामहे इमे 45
असत्- ताहशत्वेनाविद्यमानं वा, विवक्षानिबन्धनं-विवक्षा- पचामहे इति- परार्थमपि यागं पाकं वा कुर्वन्त एवं व्यवमात्रमेव निबन्धनं- निमित्तं यत्र तादृशमेव ग्राह्यम्, यत्रार्थ- हरन्ति आत्मनेपदप्रयोगामिति, तच्च स्वस्मिन् फलवत्वमानीयत्वेनासदपि सत्त्वेन विवक्ष्यते तत्र कर्तुः फलवत्त्वं व्यव- रोप्येव । न चास्ति तेषां प्रधानेन फलेन स्वर्गादनादिना
हियते, यत्र च सदपि अर्थनीयत्वेन न विवक्ष्यते तत्र कर्तु: सम्बन्धो वास्तविक इति विवक्षानिबन्धन एव स स्वीकार्यः। 10 फलवत्त्वं न व्यवलियत इति भावः । अत्र मूलमाह- तथैव तथा व्यवहारे तेषां मनसि स्थितं हेतुमाह- यत्नादस्म-50
लोके व्यवहारादिति-- लोके सतोऽप्यविवक्षावशादसत्त्वम- | दीयमेवैतदिति- यतो वयं स्वर्गादिसिद्धयर्थं यस्नं कुर्मस्तसतोऽपि विवक्षावशात् सत्त्वं व्यवह्रियते, शास्त्रमपि लोक-तोऽस्मदीयमेव स्वर्गादि फलमिति तदाशयः । इत्थं वचिदप्रसिद्धशिष्टव्यवहारमेवानुविधत्ते न किंचिन्नुतनं शास्ति, सतोऽपि सद्विवक्षा प्रामाणिकवाक्य-लौकिकव्यवहारादिना
तथा चोक्तार्थे तादृशो लोकव्यवहार एव मूलमिति भावः । प्रमाणयित्वा क्वचित् सतोप्यसद्विवक्षामुदाहर्तुमाह- क्वचित 15 तमेव व्यवहार प्रदर्शयति-तथाहीत्यादिना, चिदसदपि सदप्यसद विवक्ष्यते इति- क्वचित् स्थले कर्तरि सदपि 66
सद विवक्ष्यते अविद्यमानमपि कर्तरि फलवस्वं विद्यमान- फलवत्त्वमसद्रूपेण वक्तुमिष्यते । के त्याह- यथा-इमे ब्रमः तया विवक्ष्यते इति तदर्थः, कोत्याह- यथा शोषयते इति- अत्र वचनफलस्य स्वाशयप्रकाशनस्य स्वेन सम्बन्धे श्रीहीनातपः इति- अत्र शोषणकर्ता आतपः, स यद्यपि | सत्यपि परस्मैपदमेव प्रयुज्यते, न फलवकर्तृत्वनिबन्धनमा
अचेतनत्वेन क्रियाफलभाग न भवितुं युक्तस्तथापि तक्रिया- त्मनेपदम् । एतदुपपादनाय कारणमाह- अवचनप्रतिषेध20 यामात्मनेपदं प्रयुज्यत इति तत्कतंरि असदपि फलवत्त्वं | परत्वेन प्रवृत्तेर्वक्ष्यमाणत्वादिति- नात्र वक्तुः स्वाशय- 60
सदिव विवक्ष्यत इत्यायाति । तथा च आतपे व्रीहिशोषण- | प्रकाशनार्थ प्रवृत्तिरपि तु अहं किचिन्न वच्मीति न विज्ञेयजन्यं किं फलं भवितुमहंतीति चेत् पृच्छय त, तहि तदीय- | मित्येतावन्मात्रबोधनाय प्रवृत्तिरिति तादृशेन फलेन नात्मनः तीव्रतरत्वादिरूपा प्रशंसव, सा च यद्यपि न शोषयतेः | सम्बन्ध इति नात्मनेपदमिति भावः । अत्र भाष्यकृतो वाक्य
प्रधानं फलं तथापि तदिह प्रधानत्वेन विवक्षितमित्यवधात- | मपि समर्थकत्वेनोपन्यस्यति- एवम्- 'अगमकत्वादिति 25 व्यम् । उदाहरणान्तरमाह- शब्दः प्राक् स्वार्थमभिधत्ते बमो, न बमोऽपशब्दः स्यादिति' इति- "समर्थः पद- 65
ततो व्यमिति इदं शब्दार्थनिर्णयपरग्रन्थस्थं क्वचित्कं | विधिः" [पा० सू० २.१.१. ] इति सूत्रे 'सविशेषाणां वृत्तिर्न वाक्यम् पञ्चकं नामार्थः स्वार्थ-द्रव्य-लिङ्ग-संख्या-कारकाणि, वृत्तस्य च विशेषणयोगोन' इत्येतस्यार्थस्य देवदत्तस्य गुरुतत्र नाम्ना कोऽर्थः पूर्वं कश्च पश्चादभिधीयत इति विचार- | कुलमित्यादिस्थले व्यभिचारे शङ्किते एतादृशस्थले गमक
प्रस्तावे आह- शब्दः प्राक् स्वार्थमित्यादि, स्वार्थ:- प्रवृत्ति-त्वात्- समासेन विवक्षितार्थस्य बोधनात् वृत्तिर्भवति, 30 निमित्तं गोत्वादि जातिरूपम्, गवादयो हि शब्दाः प्रथम | ऋद्धस्य राज्ञः पुरुष इत्यादी च वृत्तिनं भवतीति सिद्धा- 70
गोत्वमुपस्थापयन्ति पश्चात् तद्विशिष्टं द्रव्यं सास्नादिमत्पिण्ड- तिना कथिते तत्र हेतुकथनावसरे एतदुक्तंभाष्यकृता- अगमरूपां प्रातिस्विकगवादिव्यक्तिम्, गोत्वावच्छिन्ने हि गवादीनां | कत्वादिति बमोन ब्रमोऽपशब्द: स्यादिति । ऋद्धस्य राजशक्तिः, तत्र व्यक्तीनामानन्त्यादेकस्यां व्यक्ती शक्तिग्रहेऽन्य- | पूरुष इत्यादिस्थले समासेन वाक्यार्थानभिधानादेव समासो
स्यां शक्तिग्रहाभावात् तद्वयक्तिबोधो न स्याद, सकलव्यक्तिषु न भवति किन्तु समासे सति अपशब्दः स्यादिति हेतोः 35 च शक्तिम हस्यासंभव:, एकत्रकदा सकलव्यक्तीनामनन्तदेश- समासो न भवतीति नास्माकं कथनमिति तदाशयः । अत्र 75
कालव्यवहितानामुपस्थत्यसम्भवाद, तथा च केवलं जातादेव | 'ड्रमो' 'न ब्रमः' इति परस्मैपदं यत् प्रयुक्तं तदपि सतः शक्तिव्यक्तिबोधस्तु अविनाभावमूलया लक्षणयेति मीमां- फलवस्वस्याविवक्षयवेति भावः । तत्र साम्प्रदायिकवचनं सकाः । जाति-व्यक्त्योरुभयोरेव शक्तिव्यक्तीनामानन्त्येऽपि प्रमाणयति
जात्या सामान्यप्रत्यासत्त्या सकलगोषु शक्तिग्रहसम्भवान क्रियाप्रवृत्तावाख्याता कश्चित् स्वार्थपरार्थता । 40 व्यभिचारादिदोष इत्यन्ये। अस्ति चात्र बहतरतान्त्रिकाणां असती वा सती बापि विवक्षितनिबन्धना ।।" इति । 80
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२६२
कलिकालसर्वज्ञधीहेमचन्द्रसुरिभगवत्प्रणीते
[पा०३, सू० ९५-९६ ]
"कश्चित् क्रियाप्रवृत्ती विवक्षितनिबन्धना सती वा असती | वेदविषेयत्वाभावात् प्रयोजकस्वे एव तात्पर्य मिति तथार्थमाहवापि स्वार्थपरार्थता आख्याता" इत्यन्वयः। कैनिदाचार्य: विधापयतीत्यर्थः इति, सर्वत्र चात्मनेपदेनैवेशार्थप्रतीतिः। क्रियाप्रवृत्ती क्रियावाचकस्य पदस्यार्थप्रतिपादकतायां विव- स्वोक्तार्थे पूर्वाचार्यसम्मतिमाह- कोणीष्व वपते धत्ते क्षितेति भावप्रधानो निर्देशः, विवक्षितत्वं निबन्धन हेतु- इत्यादिना, क्रीणीष्वेस्यस्य कापयतेत्यर्थः, 'वपते, धत्ते' इत्य5 यस्यां तादृशी, सती- सत्वेन विवक्षिता, असती- असत्त्वेन | नयोर्यर्थता व्याख्यातपूर्वा, 'मिनुते' इत्यस्य माययति- 45 विवक्षिता वा, स्वार्थपरार्थता- स्वाथं च परार्थं च स्वार्थ- प्रक्षेपयतीत्यर्थः, "चिनुते' इत्यस्य चोययतीत्यर्थः, एते ण्यापरार्थे तयोर्भावः स्वार्थपरार्थता, द्वन्द्वान्ते श्रयमाणतया भिधायका आप्तप्रयोगा दृश्यन्ते इति कारिकार्थः। स्वमते भावप्रत्ययस्योभयत्रान्वयः, स्वार्थता परार्थता च स्वस्मै इद / तदनुकूलं वचनं कुनो न विहितमिति न्यूनताशकां परि
फलं स्वार्थ, परस्मै इदं फलं परार्थ, तत्ता, आख्याता- हरति- एतज्ज्ञ श्रोत्रियमतमित्युपेक्ष्यते इति- इदं नास्माकं 10 कथिता । विवक्षानिबन्धनमेव स्वस्य कर्तः फलवत्त्वम्, लोकभाषाव्याकतणां मतमपि तु श्रोत्रियाणां- छन्दोऽध्ये-50
परस्य कर्तृभित्रस्य वा फलवत्वं भवतीति तेषां कथनस्याशय | तणां तदध्यापकानां वा मतमिति स्वप्रयोजनोपयोगित्वाभाइति भावः । प्रसङ्गादणिमन्तेऽपि कचित् णिगर्थप्रतीति | वादपेक्ष्यते, न तदनुविधानार्थ यत्नः क्रियते इत्यर्थः ।। ३. पूर्वाचार्यसंमतां शिष्यबुद्धिवेशद्यार्थमाह- केचित स्वित्या- | ३ ९५. ।।
दिना, "णिजिताद- अणिगन्तादेव, ईगितो धातोः णिगर्थे 15 एव वर्तमानात्- अणिगन्तत्वेऽपि णिगर्थमभिदधाननात्,
ज्ञोऽनुपसर्गात् ॥ ३. ३.६६ ॥ आत्मनेपदमिच्छन्ति" इत्यन्वयः। तत्र णिगर्थमेव शब्दानरः
त० प्र०- अविद्यमानोपसर्गाजानातेः फलवति कर्त- 55 परिचाययति-प्रेरणाऽध्येषणविशेषे प्रतिविधाननाम्नी.
। यत्मिनेपदं भवति । गां जानीते, मनं जानीते । अनुपति- प्रेरणविशेषे अध्येषणविशेषे चा, शुद्धधात्वर्थान्तर्भूताया
सर्गादिति किम् ? स्वर्ग प्रजानाति । फलवतीत्येव- परस्य भवितुर्भवनानुकूलाया भावनायाः शुद्धप्रेरणरूपत्वमध्येषण
|गां जानाति । अकर्मकात् पूर्वेण सिद्धे सकर्मकाथं वचनम् 20 रूपत्वं नास्ति किन्तु तत्समकक्षत्वमेवेति तां प्रतिविधान
मित्याचक्षते,अत एव प्रेरणविशेषेऽध्येषणविशेषे इति प्रोक्तम्, श. म. न्यासानुसन्धानम्- ज्ञो०। अनुपसर्गा-60 तथा णिगभावेऽपि आत्मनेपदेनैव तत्र प्रतिविधाननामा दिति-ननःप्रसज्यप्रतिषेधपरत्वमेव स्वीकार्य, पर्युदासपरत्व णिगर्थः प्रतीयते, न तावत् प्रतिविधानमिति प्रयोजक- हि उपसर्गभिन्नात् कस्माच्चिदपि परत्वे सत्येव स्यादात्मनेपदं,
व्यापारसामान्यस्य नाम किन्तु धात्वर्थविध्यनुकूलस्य कत. | तच्च नेष्ट केवलादेव विधानस्येष्ठत्वात् । तथा चान्यपूर्वकात् 25 गतव्यापारस्य विघानं- धात्वर्थोत्पत्ति प्रति गतमाभिमुख्येन प्राप्तिरेव नास्ति, तेन सह घातोः सामर्थ्याभावात्, उपसर्ग
प्रवृत प्रतिविधानम् । यद्यपि वास्तविकः प्रयोजकव्यापारो- पूर्वकादस्ति प्राप्तिसंभवस्तस्यानेन निषेधः क्रियत इत्यायाति। 65 ऽपि धात्वर्थोत्पत्ति प्रतिगच्छति- आभिमुख्येन आनुकूल्येन उदाहरति-गां जानीते इति-अकर्मकात् पूर्व "ज्ञः" [ ३. वर्तते तथापि तस्य कर्तृ प्रवत्तंनाद्वारा धात्वर्थोत्पत्त्यानुकूल्यम्, | ३.८१. ] इत्यनेनात्मनेपदस्य विहितत्वात् सकर्मकादेवानेन
अत्र तु कर्तुः स्वयमेव धात्वर्थोत्पत्त्यानुकूल्यमिति प्रेरण- विधानमिति सूचयितुं गामिति कर्मोपन्यस्तम्, उपसर्गपूर्वक80 प्रतिविधानयोविशेषः । लदाहरति- पचते इति- अत्र पच- । त्वाभावाद् भवत्यनेमात्मनेपदम् । एवम्- अश्व जानीते
धात्वर्थो विक्लित्तिः, तदनुकूला विक्ल दनाऽपि कतृ व्यापार इत्यत्रापि बोध्यम् । अनुपसर्गादिति किमिति- सामान्येनैव 70 रूपंव शुद्धधात्वर्थ एवान्तर्भूता, विक्लिद्यत एव विक्लित्यु- फलवति कर्तरि सकर्मकादपि ज्ञ आत्मनेपदं विधीयतामिति त्पत्तिसंभवात्, तादृशी भावना यदाऽऽवि तत्वेन विवक्षिता प्रभः। स्वर्ग प्रजानातीति- सकर्मकस्योपसगंपूर्वकस्येह
तदाऽऽत्मनेपदं विधीयते । तथा च 'पचते' इत्यस्यैव प्रेरणार्थ- ग्रहणं वारयितुमावश्यकमनुपसर्गादिति भावः। नन्वेवम्-- 36 तायां प्रतिविधाने वृत्तिः, तथा चार्थमाह-पाचयतीत्यर्थः । 'क्रुध्यन् कुलं धक्ष्यति विप्रवह्निइति । अन्यदुदाहरणमाह- केशश्मश्रु वपते इति- यदि र्यास्यन् सुतस्तप्स्यति मां समन्युम् ।
76 कतुरेव केशस्य श्मश्रणश्च वपन विवक्षितं तदाऽऽत्मनेपद. इत्थं नृपः पूर्वमवालुलोचे मिदं भवति, ततश्च वापनमेव ततः प्रतीयते, स्वतो वपन- । ततोऽनुजज्ञे गमनं सुतस्य ।।"
स्यानुचितत्वाददर्शनाच । तथा चार्थमाह- वापयतीत्यर्थः । इति भट्टिकाव्ये प्रथमसर्गे सकर्मकस्यानुपूर्वकस्य 'अनुजज्ञे' 40 इति । वेदो वैधम्यं विधत्ते इति- वैधय॑स्य साक्षाद् इत्यात्मनेपदे रूपं कथमुक्तमिति चेदुच्यते- 'नृप इत्थमवालु
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[पा०३, सू० ९६-९८]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
२६३
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लोचे' इत्येकं वाक्यं पश्चात् नृपेणेति तृतीयान्तत्वेन विपरि- इष्यते तु परस्मैपदमेवेति प्रत्युदाहरणेनाह- वदतीति । 40 णमय्य कर्मणि प्रयोयेणास्य आत्मनेपदस्य संगतेः। इदं च फलवतीत्यस्यापि सम्बन्ध आवश्यक इत्याह- फलवतीत्येपचं विश्वामित्रेण यज्ञरक्षा रामलक्ष्मणो वनाय नेतुं याचि- वेति । व्यावर्त्यमाह- अपवदति परं स्वभावतः इति
तस्य दशरथस्य विचारवर्णनपरम् । अस्यार्थ:- यदि रामस्य कस्यचिदेवं स्वभाव एव यदन्यं जनभपवदति- निन्दतीति, 6 बनगमनं मया न स्वीक्रियते, तहि अध्यन् विप्रवह्निः- अत्र परापवादेन परस्यैव सम्बन्ध इति न भवति आत्मने. विश्वामित्ररूपोऽग्निः, [ शापेन ] कुलं- समस्तमेव परिवार | पदम्, फलवतीत्यस्याभावे च तद दूर्वारमिति ||३.३.९७॥ 45 धक्ष्यति, मया तद्गमनेऽनुमते सति, यास्यन्- वनं गमिष्यन,
समुदाडो यमेरग्रन्थे ॥ ३. ३.६८ ॥ सुत:- रामः, समन्यु-सशोक, मा-केवल मामेब, तप्स्यतिसंतापयिष्यति, नृपः- दशरथः, पूर्वम्, इत्यम्, अवालुलोचे
त० प्र०- समुदाइभ्यः पराद यमेरग्रन्थविषये प्रयोगे 10 आलोचितवान्, ततः सुतस्य वनगमनम्, अनुजज्ञे- अनुज्ञा
फलवति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संयच्छते बीहीन, उद्यच्छते तम् । अत्र यदि 'अनुजज्ञे' इत्यत्र कर्तरि परोक्षा स्वीक्रियते भारम्, आयच्छते वचम् । समुदाऊ इति किम् ? नियच्छति तहि प्रकृतसूत्रव्याकोप इति प्रष्टुराशयः, नेयं कर्तरि परो- वाचम् । अप्रन्थ इति किम् ? वैद्यश्चिकित्सामुद्यच्छति, 50 क्षाऽपि तु कर्मणीति तदनुरोधेन कर्तरि ततीया नपेणति । चिकित्सापन्थे उद्यम करोतीत्यर्थः। फलवतीत्येव-संयच्छति कल्पनीयेति समाधातुराशयः । फलवतीत्यस्यापि सम्बन्ध
| उद्यच्छति, आयच्छति परस्य वसम् । आइपूर्वादकर्मकात् 15 आवश्यक इत्याह-फलवतीत्येवेति । व्यावय॑माह-परस्य स्वाङ्गकमकाथ "आहो यम-हनः०" [.३. ३. ८६. ] इति गां जानातीति- अत्र परकीयगव्या अवेक्षणं प्रतीयते,
सिद्धेऽन्यकर्मकायं वचनम् ॥६॥ तत्फल च न जानाति कर्तुरपि तु परस्यैवेति अनुपसर्गपूर्वक- | श० म० न्यासानुसन्धानम्- समु० । सूत्रे समाहार- 55 त्वेऽपि न भवत्यात्मनेपदम् । "ज्ञः" [ ३. ३. ६२.] इत्य-निर्देशेऽपि समाहारस्य समूहरूपत्वेन उक्तसर्वोपसर्गसमूहपूर्व
नेन सामान्यत एव [ सोपसर्गादनुपसर्गाच्च ] जानातरात्मने- कादेवानेनात्मनेपदविधानमिति भ्रमव्युवासाय वृत्तौ इतरे20 पदविधानात् तेनैव सिद्धे सूत्रमिदं व्यर्थमित्याशङ्कायामाह- तरयोगनिर्देशपूर्वकमाह- समुदाइभ्यः पराविति । ग्रन्थे
अकर्मकात् पूर्वेण सिद्धे सकर्मकाथं वचनमिति- तत्र | यमेः प्रयोगाभावेन यमेस्तदर्थत्वाभावेन 'अग्रन्थे' इति पर्युसूत्रे "अनोः कर्मण्यसति" [ ३. ३.८१.] इत्यतः कर्मण्य- दासस्य वैयर्थं स्यादिति विषयसप्तम्या व्याख्याति- अग्रन्थ-60 सतीत्यस्य सम्बन्धादकर्मकादेव तेनात्मनेपदविधानमिति विषये प्रयोगे इति, तथा च यमेयः कश्चिदर्थोऽस्तु संपूर्ण
सकर्मकादात्मनेपदविधानार्थमिदं सूत्रमावश्यकमिति भावः, । वाक्यस्य ग्रन्थविषये प्रयोगाभाव एव तात्पर्यमित्यायाति । 25 अकर्मकत्वे तु अफलवत्यपि कर्तरि तेनात्मनेपदमिति तत्सू-| उदाहरति-संयच्छते वीहीनिति- राशीभूतान् करोती
अस्य विशेष इति परस्परं द्वे अपीमे सूत्रे चरितार्थे इति त्यर्थः, सकर्मकत्वेनोदाहरणमाडोऽप्यप्राप्तविषयत्वख्यापनार्थम्, ' भावः ।। ३. ३.६६.।।
अग्रे तत् स्फुटीभविष्यति । उद्यच्छते भारमिति- उत्थाप- 65
यतीत्यर्थः । आयच्छते वखमिति- आयतं करोतीत्यर्थः, वदोऽपात् । ३.३.१७॥ त०प्र०- अपपूर्वाद बदतेः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं
ययायथमुपसर्गत्रयपूर्वकत्वादात्मनेपदम् । समुदाङ इति 30 मवति । एकान्तमपवदते । अपादिति किम् ? बदति । फल
किमिति- 'यमेरग्रन्थे' इत्येतावदेवास्तु तावतापि उदाहृतेषु बतीत्येक-अपवति परं स्वभावतः ॥१७॥
प्रवृत्ती बाधाभावादुपसर्गविशेषपरिग्रहो व्यर्थ इति भावः ।
नियच्छति वाचमिति- मौनमाश्रयतीति तदर्थः, अत्रोप- 70 श० म० न्यासानुसन्धानम्- वदो०। फलवतीति । सर्गान्तर[नि पूर्वकान्न भवत्यात्मनेपदम्, उपसर्गविशेषासम्बध्यते, तथा च सूत्रार्थभाह- अपाद वदतेरिति । परिग्रहे च तद् दुर्वारम् । अग्रन्थ इति किमिति । ग्रन्थ
एकान्तमपवदते इति- एकान्तः- एकान्तत्वादः, सर्वस्य | षिये प्रयोगस्यानुपलब्धेरेव ने प्रवृत्ति: स्यादिति तत्पयु35 पदार्थस्यैकस्वभावत्ववादः, तमपवदते- वाचा प्रतिवेधती. दासो व्यर्थ इति भावः । प्रत्युदाहरति-वैद्यचिकित्सामुद्य
त्यर्थः, अत्रापात् परत्वेन बदेरात्मनेपदं भवति । अपादिति । च्छतीति- चिकित्साया: क्रियारूपत्वेन ग्रन्थविषयत्वाभाव 75 किमिति- सामान्ये व वद आत्मनेपदं विधीयतां, तथा । एवेहेति नेदं प्रत्युदाहरणं भवितुमर्हतीति शङ्कायां प्रयोगार्थचापपूर्वादपि भविष्यत्येवेति नाव्याप्तिरिति प्रष्टुराशयः। | वर्णनेन तत्समाधानमाह-चिकित्साग्रन्थे उद्यमं करोती. अपपूर्वादिव केवलादपि फलवति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । त्यर्थः इति- चिकित्साशब्दस्य चिकित्साप्रतिपादके ग्रन्थे
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________________ 264 कलिकालसवज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणोते [पा०३, सू०१८-१००] 45 निरूढा लक्षणेति भावः, अथवा चिकित्स्यते अनयेत्यर्थे सर्वसूत्रोदाहरणेषु पाक्षिक परस्मैपदमुदाहरति- स्वं शत्रु 40 चिकित्सेति सन्नन्तात् "शंसि-प्रत्ययात्" [ 5. 3. 105 ] | परिमोहयते परिमोहयति वा इत्यादिना / यद्यपि प्राप्तइत्यकारप्रत्ययः, ग्रन्थस्य पुंलिङ्गत्वेऽपि प्रत्ययस्य स्यधि- | विभाषास्थले निषेध एव शास्त्रविधेयतात्वेन पूर्व परस्मैपदकारे विधानात् स्त्रीत्वम्, इत्थं च चिकित्सामन्थ इति कर्म- स्यवोदाहरणं न्याय्यं, तथापि आत्मनेपदस्य पूर्वमुपस्थितत्वेन 5 धारयसमासः। फलवतीत्यस्य सम्बन्धोऽपि विद्यत एवेत्याह- तस्यैव पूर्वमुदाहरणं, परस्मैपदस्याने विधीयमानत्वेन पश्चादुफलवतीत्येवेति- व्याव|माह- संयच्छति उद्यच्छति | दाहरणमिति बोध्यम् / / 3. 3. 99. / / आयच्छति परस्य वखमिति-परकीयवस्त्रविषये संयमादेः परेणव सम्बन्धो न तु कति न भवत्यात्मनेपदम् / आङ् शेषात् परस्मै // 3. 3. 100 / / पूर्वका पूर्वमात्मनेपदस्य विहितत्वेन पौनरुक्त्यमाशङ्कमान त० प्र०-पूर्वप्रकरणेनात्मनेपनियमः कृतः, परस्मैपदं तु अनियतमिति नियमार्थमिदम्, उपयुक्तादन्यः शेषः। मेम्यो 10 पाह-प्रापूर्वकादकर्मकात् स्वाङ्गकर्मकाच्च "पाङो धातुभ्यो येन विशेषणात्मनेपदमुक्तं ततोऽन्यस्मादेव धातोः यम-हन." इति सिद्धेऽन्यकर्मकार्थ वचनमिति- "आङो कर्तरि परस्मैपदं भवति / अनुबन्धोपसर्थोपपदप्रत्ययभेदा-50 यम-हनः स्वेऽङ्गे च" [ 3. 3.86.] इति सूत्रेणापूर्व चानेकधा शेषः / अनुबन्धशेषात- मवति, अत्ति, बोभवीति, कादककात स्वाङ्गकर्मकाञ्चात्मनेपदं विधीयते, तद्भिन्नोऽस्य विषय इति स्वाङ्गभिन्नकर्मकार्थत्वमेवापूर्वकाद् विधानस्य दीव्यति, गोपायति, पण.यति, पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति, 15 फलति / समुत्पूर्वकात् तु कुतोऽपि न प्राप्तमिति सर्वथैवा अश्वति, मन्तूयति / उपसर्गशेषात- प्रविशति, अधितिष्ठति, आगच्छति, विपश्यति / अर्थशेषात्-करोति, नयति, बदति। पूर्वविधित्वमेव तद्विषये, तथा च नांशेनापि पौनरुक्त्यमिति उपपदशेषात्- गृहे संचरति, साधुभ्यः संप्रयच्छति, साधु65 भाव: / / 3. 3. 98. / / | पर्व कारयति / प्रत्ययशेषात्-शत्स्यति, मुमूर्षति // 10 // पदान्तरगम्ये वा // 3.3.66 // श० म० न्यासानुसन्धानम्- शेषात / आत्मनेपदत०प्र०- अनन्तरसूत्रपञ्चकेन यदात्मनेपदमुक्त तत् | विधिप्रकरणं परिसमाप्य परस्मैपदविधिप्रकरणं व्याख्यास्यन् 20 पवान्तराद् गम्ये फलवति कर्तरि वा भवति / स्वं शत्र। प्रकरणपरिशुद्धिमाह-पूर्वप्रकरणेनात्मनेपदनियमः कृतः परिमोहयते परिमोहयति वा, स्वं- यज्ञं यजते यजति वा, इति, अयमाशय:-आत्मनेपद-परस्मैपदयोरुभयोरपि धातुभ्यः 60 स्वं कट कुरुते करोति बा, स्वमवं गमयते गमयति वा, स्वं सामान्येन प्राप्ततया तद्विघाने पूर्ववाभावेन तद्विधायकशास्त्रं शिरः कण्डूयते कण्डूयति वा, स्वां गां जानीते जानाति नियमार्थमेव भवति, उभयोरेकदा विधानास भवेन कदावा, स्वं शत्रुमपवदते अपवदति वा, स्वान् पीहीन संयच्छते चिदुक्तभ्यो धातुभ्यो यथोक्तविशेषणविशिष्टेभ्यः परस्मैपद 25 संयच्छति वा ten कदाचिच्चात्मनेपदं स्यादित्यात्मनेपदस्य पाक्षिकप्राप्तो तद्विश०म० न्यासानुसन्धानम्-पदान्तर० / 'पवान्तर शिष्यविधानस्य नियमत्वे पयंवमानात् “नियम: पाक्षिके 65 गम्ये' इति सप्तम्यन्तं पदं ससम्यन्तेन पूर्वतोऽनुवृत्तेन फलवती- सति" इति मीमांसकादिसम्मतसिद्धानात् / तथा चेतः त्यनेन सम्बध्यते, आकाङ्क्षावशाच फलवतीति पदं भाव. पूर्वम् "इडित: कर्त्तरि" [ 3. 3. 22. ] इत्येतदारभ्योतेन प्रधाननिर्देशपरम्, तथा च कर्तुः फलवत्त्वे पदान्तरगम्ये वि. प्रकरणेनात्मनेपदस्य नियम: कृत:- एवंभूते म्यो धातुभ्य एव 30 कल्पेन आत्मनेपदमनेन भवतीति फलति / तथा च येन येन | कर्तर्यात्मनेपदं नान्येभ्य इति, न तु तेन प्रकरणेन धातुनियमः सूत्रेण फलवत्यात्मनेपदं विहितं तस्य तस्य सूत्रस्य शेषभूत- कृतः- एम्यो धातुभ्य आत्मनेपदमेव न परस्मैपदमिति / 70 मिदं सत्रमिति पर्यवस्यति / तदाह- अनन्तरसत्रपञ्चकेने- इत्थं च परस्मैपदस्यानियतत्वेन सर्वेभ्य एव धातुभ्यस्तत्प्राप्तिस्यादि, पूर्वप्रक्रान्ततत्सूत्राव्यवहितसूत्रपञ्चकेनेति भावः, तच ! रिति तदीयोऽपि नियमः कर्तव्य इति तदर्थमित: परं सूत्रपञ्चकम् “परिमुहायस." [ 3. 3. 94.1 इत्यारम्य- | प्रकरणमित्याह-परस्मैपदंतु अनियतमिति नियमार्थमिद35 तदव्यवहितपूर्वपठित "समुदाङ्गो यमेरग्रन्थे" [3. 3. 98.] | मिति, तथा चानेन प्रकरणेनापि 'एभ्य एव धातुभ्यः परस्म इतिपर्यन्तम् / पञ्चानामप्यमीषां फलवति कर्तर्यात्मनेपद | पदं नान्येभ्यः' इति नियमः कर्तव्य इति भावः / नियमस्थले 75 विधाकत्वेन यत्र पदान्तरेण- तत्तत्सविहितात्मनेपदभिन्न-च पक्षद्वयम् - विहितानां नियम इत्येकः, नियम्य विधानपदेन, 'स्वम् आत्मीयं निजम्' इत्यादिपदेन, गम्ये-प्रतीय- | मिति च पर: पक्षः, तत्र प्रथमे पक्षे यद्यपि सर्वस्माद् धातो: माने फलवति कर्तरि कर्तः फलवत्त्वे वा भवति। तथा च / सामान्यसूत्रः वर्तमानादिसर्वप्रत्ययानुत्पाद्य विशेषसूत्राणा