Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/538030/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध पत्रिका अनेकान्त A वर्ष ३०: किरण १ जनवरी-माच १९७७ विषयानुक्रमणिका विषय परामर्श-मण्डल श्री यशपाल जैन डा०प्रेमसागर जैन १. अहिमा के आयाम २. मध्यप्रदेश में मध्ययुगीन जैन शिक्षण कला ---डा. शिव कुमार नामदेव ३. नारी-मक्ति के क्रातिकारी प्रवर्तक भगवान महावीर-डा० श्रीमती कुन्तल गोयल ४. ऋषम प्रतिमा का एक विशेष चिह्न : जटारूप केशराशि-श्री रतनलाल कटारिया सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए., एल.एल.बी., साहित्यरत्न ५. मात तत्त्व-श्री बाबलाल जैन ६. पुरातत्त्वीय स्रोत तथा भगवान महावीर - प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ७. पार्श्वनाथ के पंच महाव्रत ___ --श्री पद्म चन्द शास्त्री ८. जिन दर्शन-श्री बाबूलाल जैन ६. वातरशना मुनियों की परम्परा १. साहित्य-समीक्षा-श्री गोकुलप्रमाद जैन प्रावरण ३ ११. महौषधि दान भावरण ३ प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | स्थापित : १९२९ अनेकान्त में विज्ञापन देकर वीर सेवा मन्दिर विज्ञापन दरें __ २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ लाभ उठाइए! बीर सेवा मन्दिर उत्तर भारत का अग्रणी जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व एवं दर्शन शोष संस्थान है जो १९२६ से मनवरत अपने पुनीत उद्देश्यों को सम्पूर्ति में संलग्न रहा है । इसके पावन उद्देश्य इस प्रकार हैं : जैन-जनेतर पुरातत्व सामग्री का संग्रह, संकलन पूर्ण पृष्ठ (एक बार) भोर प्रकाशन । १००) रुपए प्राचीन जैन-जनेतर अन्थों का उद्धार । वर्ष में चार पृष्ठ ३००) रुपए 0 लोक हितार्थ नव साहित्य का सृजन, प्रकटीकरण मौर प्राधा पृष्ठ (एक बार) ६०) रुपए प्रचार। प्राधा पृष्ठ (वर्ष में चार) २००) रुपये O'भनेकान्त' पत्रादि द्वारा जनता के प्राचार-विचार एजेन्सी कमीशन १५ प्रतिशत को ऊंचा उठाने का प्रयत्न । निश्चित स्थान २०% अधिक जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान विषयक अनुसंधानादि कार्यों का प्रसाधन और उनके प्रोत्तेजनार्थ वृत्तियों का विधान तथा पुरस्कारादि का प्रायोजन । विविध उपयोगी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं अंग्रेजी प्रकाशनों; जैन साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान"अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण विषयक शोष-अनुसंधान ; सुविशाल एवं निरन्तर प्रवर्ध मान ग्रन्थगार; जैन संस्कृति, साहित्य, इतिहास एवं पुगप्रकाशन स्थान-वीरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली | तत्व के समर्थ अग्रदूत 'भनेकान्त' के निरन्तर प्रकाशन एवं मुद्रक-प्रकाशन-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त अन्य अनेकानेक विविध साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिप्रकाशन भवधि-त्रैमासिक श्री मोमप्रकाशन | विधियों द्वारा वीर सेवा मन्दिर गत ४६ वर्ष से निरन्तर राष्ट्रिकता-भारतीय पता-२३, दरियागंज, दिल्ली-२ | सेवारत रहा है एवं उत्तरोत्तर विकासमान है। सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन यह संस्था अपने विविध क्रिया-कलापों में हर प्रकार से राष्ट्रिकता-भारतीय पता-वीर सेवा मन्दिर २१, पापका महत्त्वपूर्ण सहयोग एवं पूर्ण प्रोत्साहन पाने की दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रधिकारिणी है । मतः पापसे सानुरोध निवेदन है कि: १. वीर सेवा मन्दिर के सदस्य बनकर धर्म प्रभावनात्मक स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ ___मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हूं कि कार्यक्रमों में सक्रिय योगदान करें। मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त २. वीर सेवा मन्दिर के प्रकाशनों को स्वयं अपने उपयोग विवरण सत्य है। -मोमप्रकाश जैन, प्रकाशक के लिए तथा बिविध मांगलिक अवसरों पर अपने प्रियजनों को भेंट में देने के लिए खरीदें। ३. त्रैमासिक शोव पत्रिका 'अनेकान्त' के ग्राहक बनकर जैन संस्कृति, साहित्य इतिहास एवं पुरातत्व के शोषाअनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक नुसन्धान में योग दें। मनल उत्तरदायी नहीं है। -सम्पादक ४. विविध धार्मिक, सांस्कृतिक पर्यो एवं दानादि के प्रव सरों पर महत उद्देश्यों की पूर्ति में वीर सेवा मन्दिर अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) पया की पार्षिक सहायता करें। एक किरण का मूल्य १ रुपया ५० पैसा - -गोकुल प्रसाद जन (सचिव) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् চাণকান परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ३० किरण १ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत २५०३, वि० म०२०३३ जनवरी-मार्च १९७७ । अहिसा के प्रायाम विचारेऽनेकान्तश्चरितपरिपाटीस्ववधिकः । परिग्राह-ग्राह्यान्मथनपरिमाऽऽचारसरणौ ॥ समर्थः स्याद्वादो वचसि तनु सापेक्षसजुषां । समीचीनः पन्था जयति जिनसर्वोदयकृताम् ॥ अर्थ - सर्वोदय धर्म के प्राविष्कर्ता तीर्थकर जिनेन्द्र ने विचारो मे अनेकान्त, आचार में अहिसा तथा परिग्रह-रूप ग्राह को उन्मथन करने वाले समाज की रचना करने में चतुर अपेक्षा-दृष्टि से वचन (वाणी) में स्याद्वाद ममीचीन रूप तीर्थ को रचना की है, उसकी जय हो। सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोत । मार्जारी हसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भजंगम । वैराण्याजन्नजातान्यपि गलितमा जन्ततोऽन्ये त्यजन्ति । श्रित्वा साम्य करूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।। अर्थ -साम्यभाव पर प्रारूढ़, निष्पाप और मोहरहित योगी के पवित्र सान्निध्य से प्राणियों में निवेर अहिसा का सचार होता है। उसके समीप हरिणी सिंहशिशु को और गौ व्याघ्र के बालक को पुत्र-भाव से स्पा करती है। बिल्ली हसशावक को और मयूरी सपं को प्रम करने लगती है। इतना ही नहीं, और-और जन्तु भी स्वाभाविक जन्मजात बैर भूल जाते हैं। य लोका असकृन्नमन्ति ददते यस्म विनम्रांजलिम् । मार्गस्तीर्थकृतांस विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यहिसाभिधः ।। नित्थं चामरधारिणाविवबुधाः यस्यैकपार्वे महान् । स्याद्वादः परतो बभूवतुरथाऽनेकान्त-कल्पद्रुमः ।। अर्थ-जिसे संसार निरन्तर नमस्कार करता है, जिसे अपनी विनम्र अजलि सर्मा त करता है, वह तीर्थकरों द्वारा निदिष्ट सम्पूर्ण ससार का मान्य धर्म 'अहिसा' है। उस अहिंसा धर्म के एक पाव में स्याद्वाद और दूसरे पार्श्व में अनेकान्तरूप कल्पद्रम स्थित है। मानो, किसी सम्राट के दोनों ओर दो चामरधारी स्थित हों। 000 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश में मध्ययुगीन जैन शिल्पकला 0 डा० शिवकुमार नामदेव, माडला भारत की प्राच्य संस्कृत के लिये जहा जैन साहि- मध्य प्रदेश के यशस्वी राजवश कलचुरियो के काल त्य का अध्ययन प्रावश्यक है वही जैन कला के अध्ययन का में उनकी धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप अन्य मतों के भी कुछ कम महत्व नहीं है। जैन कला अपनी कुछ विशिष्ट साथ-साथ जैन धर्म भी फला-फुला'। कलचरि-युगीन जैन विशेषतामों के कारण भारतीय कला मे एक अद्वितीय प्रतिमायें अड़भार, पारग, पेन्डा, मल्लार, रतनपुर, सिंहपुर स्थान रखती है। जैन धर्म की स्वणिम गौरव-गरिमा की एवं शहपुरा प्रादि स्थलों से प्राप्त हुई है । उपलब्ध प्रतिप्रतीक प्रतिमायें, पुरातन मंदिर, विशाल स्तभादि प्राचीन मानों में सर्वाधिक प्रतिमाये प्रथम तीर्थंकर प्रादिनाथ की भारतीय सभ्यता एवं संस्कृत के ज्वलंत उदाहरण है। है। कारीतलाई (जबलपुर) से तीर्थंकरों की द्विमूर्तिकायें प्रतीत उनमें अंतनिहित है। प्रत्येक जाति और समाज की भी प्राप्त हुई है। उन्नत दशा का वास्तविक परिचय इन्हीं खडित अवशेषों कलचुरिकानीन तीर्थकर प्रतिमायें प्रासन एवं स्थानक के गंभीर अध्ययन, मनन और अन्वेषण पर अवलंबित है। मुद्रा में प्राप्त हुई है। तीर्थंकरो की संयुक्त प्रतिमायें भी सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा एव अभिवद्धि में साहित्यकार इस कला में उपलब्ध हुई हैं । जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर जहां लेखनी के माध्यम से समाज में अपने भावो को व्यक्त ऋषभनाथ की सर्वाधिक मूर्तियां कारीतलाई से प्राप्त हुई करता है, वही कलाकार पार्थिव उपादानो के माध्यम द्वारा प्रतिमायें श्वेत बलूपा पाषाण से निर्मित की गई है। मात्मस्थ भावों को अपनी सधी हुई छेनी से व्यक्त करता है। उक्त स्थल से प्राप्त ४१' ऊँची ऋपभनाथ की प्रतिमा मध्यप्रदेश के अतीत की कहानी का विश्लेषण करना मे भगवान को उच्च चौकी पर पद्मासन मे ध्यानस्थ बैठे सुगम नहीं है। प्राच्य युग से ही यह प्रदेश भारत की गौरव हुए दिखाया गया है । उनकी दक्षिण भुजा एव वाम घुटना मयी संस्कृत के चहमखी विकास का क्षेत्र रहा है। खंडित है। हृदय पर श्रीवत्स एव मस्तक के पृष्ठभाग में विवेच्ययुगीन शिल्पकला इम विस्तृत प्रदेश के विभिन्न तेजोमण्डल है। तेजोमण्डल के ऊपर विछत्र सौन्दर्यपूर्ण भागों में बहुतायत से उपलब्ध हुई है। उपलव्य शिल्पकला ढंग से बना है, जिसके दोनों पार्श्व में एक-एक महावतइस बात की पोर इगित करती है कि मध्य युग में इस युक्त हाथी उत्कीर्ण है। छत्र के ऊपर दु दुभिक एव हाथियों विशाल प्रदेश में जैन धर्म का अच्छा वर्चस्व था। के नीचे युगल विद्याघर हैं जो नभमाग से पुष्प-वृष्टि कर मध्य प्रदेश के यशस्वी राजवश कलचुरियो, परमारों एव रहे है। विद्याधरो के नीचे दोनो पार्श्व पर भगवान के चंदेलों के काल में उनकी धार्मिक सहिष्णता के फलस्वरूप परिचारक सोधर्मेन्द्र एव ईशानेन्द्र अपने हाथो मे चवर अन्य धर्मों की भांति जैन धर्म भी पूष्पित एवं पल्लवित लिए हुए खड़े है। होता रहा। अखिल भारतीय परंपरानो के साथ-साथ प्रतिमा की चौकी पर अलकृत पड़ी झूल पर ऋषभमध्यप्रदेश की अपनी विशेषतामों को भी यहां की कला में नाथ का लाछन वृषभ अङ्कित है। वृषभ के नीचे चौकी उचित स्थान दिया गया । के ठीक मध्य मे धर्मचक्र अडित है, जिसके दोनों ओर १. कलचुरिकाल म जन धर्म-शिवकुमार नामदेव (अनेकान्त, अगस्त १९७२); कलचरिकाल में जैन धर्म की स्थिति शिवकुमार नामदेव (अनेकान्त, जुलाई-अगस्त १९७३) । २. वारीतलाई की अद्वितीय भगवान ऋपभनाथ की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव (अनेकान्त, अक्टूबर. दिसम्बर १९७३)। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश में मध्ययुगीन जैन शिल्पकला एक-एक सिंह है। सिंहासन के दाहिने पार्श्व पर भगवान पाव मे नारियों की खड़ी प्राकृतिया है। नारियों के अंगका शासन-देव गोमुख एव वाम पाश्र्व पर उनकी शासन प्रत्यग पर चित्रित प्राभूषणो की भरमार है। कला की देवी चक्रेश्वरी ललितासन मुद्रा मे बैठी हुई है। दृष्टि से यह प्रतिमा कलचुरि कला को प्राण है। इसी स्थल से प्राप्त एक अन्य प्रतिमा यद्यपि उपरि- बघेलखड से उपलब्ध एवं राजकीय संग्रहालयधुबेला वणित प्रतिमा की तरह है किन्तु इसका मस्तक खडित मे संरक्षित ऋषभनाथ की प्रतिमा के पादपीठ पर त्रिरत्न नहीं है। प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में है। केश घघराले है। का प्रतीक अंकित है जोशोश्पद से अपनाया गया बौद्ध प्रतीक अष्टप्रतिहार्य युक्त इस प्रतिमा मे शासन-देव गोमुख एवं है। रतनपुर (बिलासपुर) की प्रतिमा मे यक्षी चक्रेश्वरी शासन-देवी चक्रेश्वरी गरुड़ासीन है । को वाम पाश्व मे ललितासन मुद्रा मे दिखाया गया है। एक अन्य २'३" ऊँची प्रतिमा के दक्षिण एवं वाम कलचरि-कालीन द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ की पार्श्व मे अन्य तीर्थङ्करों की लघु प्रतिमायें कायोत्सर्ग अथवा रीवा क्षेत्र से उपलब्ध एव धुवेला सग्रहालय मे सरक्षित खड्गासन में है। प्रतिमा मे तीर्थङ्कर पासन मे ध्यानस्थ बठे है। मस्तक ___ कारीतलाई की एक अन्य प्रतिमा जो रायपुर सग्र- के पीछे प्रभामण्डल तथा तीन छत्र है एवं छत्रों के दोनों हालय की निधि है, ३' " ऊँची है । कलात्मक दृष्टि से पार्श्व मे पुष्पमालायें लिए विद्याधर है । प्रासन के पादकारीतलाई म उपलब्य जन प्रतिमानों में यह सर्वश्रेष्ठ है। पीठ पर तीर्थङ्कर का वाहन हस्ति अंकित है। यक्ष-यक्षी, इस प्रतिमा की विशेषता यह है कि इसके सिंहासन पर महावत एवं रोहिणी भी अकित है। अजितनाथ की सिंहों के जोड़ों के साथ हस्तियों का भी एक जोड़ा दिख- दूसरी प्रतिमा सिहपुर (शहडोल) से उपलब्ध हुई है जो लाया गया है। उपरिवणित प्रतिमा की तरह है। तेवर (जबलपुर) से उपलब्ध ७' ४' ऊंची एवं जैन धर्म के प्राठवे तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ एव सोलहवें सम्प्रति जबलपुर के हनुमानताल जैन मंदिर मे सुरक्षित तीर्थडर शातिनाथ एव बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ की ऋषभनाथ को प्रतिमा प्रति कलापूर्ण एव प्रभावोत्पादक प्रासनमद्रा में एक-एक प्रतिमा प्राप्त हुई है । रतनपुर से है। प्रतिमा के अग-प्रत्यग सुन्दर एव सुडौल है। मस्तक उपलब्ध चन्द्रप्रभ की प्रतिमा २' ५" ऊँची है। उनके केश पर चित्रित घु घराले केश आकर्षक है। उभय स्कध पर । घुघराले है। उनके दक्षिण पार्श्व मे सौधर्मेन्द्र एवं वाम केश-गुच्छ लटक रहे है। मे ईशानेन्द्र है। चौकी के कीर्तिमुखयुक्त झूल पर सपरिकर पद्मासनस्थ इस प्रतिमा के प्रभावली के उनका लाछन चद्रमा अकित है। चौकी के दोनो पाश्वं मध्य में छथ-दण्ड है जो ऊपर की ओर जाकर क्रमशः तीन पर यक्ष-यक्षी श्याम एवं ज्वालिनी बैठे है । भोर वर्तुलपन लिये हुए है। छत्रदण्ड के ऊपर विशाल जबलपुर संग्रहालय मे संरक्षित सोलहवें तीर्थकर छत्र लगभग २'८" के लगभग है । सब से ऊपर दो हस्ति ___ शातिनाथ' की प्रतिमा के पादपीठ पर दो सिंहो के मध्य शुण्ड से शुण्ड सटाये इस प्रकार से चित्रित कियेगये है मानो उनका लांछन हिरण उत्कीर्ण है । चौकी पर यक्ष, गरुड़ वे छत्र को थामे हए हो। हस्तियों के सूर्प कर्ण के उठे हुए राव यक्षी महामानसी भी उत्कीर्ण है। शातिनाथ की भाग उनके गाल की खिची रेखायें एव प्रांखो के ऊपर का स्थानक प्रतिमाएँ कारीतलाई एव बहुरीबद (जबलपुर) खिचाव कला की उच्चता का द्योतक है। परिकर पर से उपलब्ध हुई है। बहुरीबद की प्रतिमा १३' ऊंची एव हस्ति पद्म पर माधुत है। छत्र के नीचे दोनो पाव पर लेखयुक्त है। यक्ष एव चार अप्सरायें प्राकाश में उड़ती हुई चित्रित है। बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ की कलचुरि-युगीन एक गधर्व पुष्पमाल लिए हुए है। परिचारक के नीचे दोनो प्रतिमा धुवेला संग्राहालय मे है। तीर्थङ्कर ध्यानस्थ बैठे ३. कलचरि-कालीन भगवान शांतिनाथ की प्रतिमायें-शिवकूमार नामदेव, श्रमण, प्रगस्त १९७२ । ४. धुबेला मंग्रहालय की जन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, जून १६७४ । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, बर्ष ३०, कि.१ अनेकान्त हैं। उनके मस्तक के ऊपर एक छत्र तथा उसके दोनों मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमायें हैं। भगवान पार्श्वनाथ एवं पार्श्व में गज तथा उनके ऊपर तीर्थङ्करों की तीन प्रति- नेमिनाथ की एक द्विमूर्तिका फिलडेलफिया म्यूजियम माएँ हैं। तीर्थङ्करों की संख्या २२ है। इनमें संभवतः आफ मार्ट में संरक्षित है। दो, पाश्र्वनाथ एवं महावीर का अंकन नही है। पादपीठ कलचुरियुगीन तीर्थङ्करों के अतिरिक्त जैन शासनपर तीथंङ्कर का लांछन शंख है। देवियो' की मूर्तिया भी प्राप्त हुई है जो स्थानक एवं __ भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ सिंहपुर (शहडोल), प्रासन दोनो मुद्राओं में है। ये प्रतिमायें कारीतलाई, पेण्डा (बिलासपुर), कारीतलाई (जबलपुर), शहपुरा पनागर (जबलपुर), और सोहागपुर (शहडोल) से उप(मण्डना) मादि से उपलब्ध हुई है। उपलब्ध प्रतिमामों लब्ध हुई है। में सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रतिमा कारीतलाई की है जो नेमिनाथ की यक्षिणी अबिका की एक प्रतिमा कारी. रायपुर संग्रहालय में है। इस चतुविशति-पट्ट मे मूल- तलाई से प्राप्त हुई है। श्वेत छीटेदार रक्त बलुमा नायक प्रतिमा पार्श्वनाथ की है। तीर्थङ्कर के दायें-बायें प्रस्तर से निमित इस प्रतिमा में उन्हें ललितासन में सौधर्मेन्द्र एवं ईशानेन्द्र चॅवरी लिए खड़े है। पार्श्वनाथ सिंहारूढ़ दिखलाया गया है । द्विभुजी प्रतिमा के की तीन मोर की पट्रियों पर अन्य तीर्थडुरो की लघु दाहिने हाथ मे प्राम्रलु बि एव बायें मे पुत्र प्रियशंकर प्रतिमाएं है। दक्षिण पार्श्व की पट्टी पर ह एब वाम पर को लिए है। उनका ज्येष्ठ पुत्र शुभंकर दाहिने पर के को लिए है। उनका ज्यष्ठ पुत्र शुभकर दा ८ तथा शेष ६ प्रतिमाएँ ऊपर की गाड़ी पट्टी पर है। निकट बैठा है। अंबिका की एक अन्य प्रतिमा पनागर जैन धर्म के प्रतिम तीर्थकर भगवान महावीर की (जबलतुर) से उपलब्ध हुई है। सोहागपुर से उपलब्ध पासन प्रतिमानो में कारीतलाई से उपलब्ध प्रतिमा जैन शासन देवियो की मूर्तिया महत्वपूर्ण है, परन्तु लाछनों महत्वपूर्ण है। इस प्रतिमा में उन्हें उच्च सिंहासन पर के अभाव में उनका समीकरण कठिन है। उस्थित पद्मासन में ध्वानस्थ बैठे दिखाया गया है। मध्यप्रदेश का विश्व प्रसिद्ध कलातीर्थ खजुराहोतीर्थहर के परिचारक सौधर्मेन्द्र तथा अन्य तीर्थरो की पन्ना से २५ मील उत्तर एवं छतरपुर से २७ मील पूर्व प्रतिमाएँ दक्षिण पाश्र्व की पट्टी पर अकित है। उच्च तथा महोबा से २४ मील दक्षिण में स्थित है। १०वी चौकी पर मध्य मे उनका लाछन सिंह प्रकित है। महा- ११वी सदी के मध्य यशस्वी चदेल नरेशो के काल में वोर का यक्ष मातग अजलिबद्ध एवं यक्षी सिद्धायिका निर्मित यहा के देवालय नागर शैली के उज्ज्वल एवं चबरी लिए है। महावीर की एक अन्य प्रतिमा जो उत्कृष्ट उदाहरण है। वास्तु-वैशिष्ट्य एव मूर्ति-संपदा जबलपुर से उपलब्ध हुई थी, सम्प्रति फिलेडेलफिया के कारण ये देवालय अपूर्व गौरवशाली है। म्यूजियम माफ मार्ट में संग्रहीत है।। चदेल नरेश यद्यपि वैष्णव और शिव के उपासक थे ___ कलचुरिकालीन विवेच्य तीर्थङ्कर प्रतिमानो के प्रति. परन्तु उनको धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप हिन्दू धर्म रिक्त द्विमूर्तिकार्य भी प्राप्त हुई है। प्रत्येक मे दो-दो के साथ-साथ जैन धर्म के मन्दिरो का भी निर्माण हुमा । तीर्थङ्कर कायोत्सर्ग ध्यानमुद्रा में है। इन द्विमूर्तिका खजुराहो में निर्मित ये मन्दिर उनकी घामिक सहिष्णुता प्रतिमानों में तीर्थङ्कर के साथ प्रष्टप्रतिहार्यों के प्रति के जीवंत उदाहरण है। रिक्त तीर्थर का लांछन एवं उनके शासन देवताप्रो की खजुराहो के जैन देवालय पूर्वी समूह के प्रतर्गत रखे भी मूर्तियां है। इन द्विमूर्तिकानो मे ऋषभनाथ एवं जाते है । इनमे घटई, आदिनाथ एव पार्श्वनाथ के देवाअजितनाथ, अजितनाथ एवं सभवनाथ, पुष्पदंत एव लय मुख्य है। खजुराहो के जैन मन्दिरों मे जिन मूर्तियां शोतलनाथ, धर्मनाथ एव शातिनाथ, मल्लिनाथ एवं प्रतिष्ठित हैं। प्रवेश द्वार एवं रथिकानों मे विविध जैन ५. कारीतलाई की द्विमूर्तिका जन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, सितम्बर १९७५ । ६. कलपरि कला मे जन शासन-देवियो की मूर्तियां-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, प्रगस्त १९७४ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश में मध्ययुगीन जैन शिल्पकला देवियों को उत्कीर्ण किया गया है। देवालयों के ललाट. सुन्दरियों का अंकन है। बाहुवली स्वामी की भी एक बिंब में यक्षी चक्रेश्वरी प्रदर्शित है तथा द्वारशाखामों प्रतिमा यहा उत्कीर्ण है । देवालय के तोरण पर भगवान और रथिकानों मे अधिकाशतः जैन देवी-देवता, जैसे विद्या- चन्द्रप्रभु है, जिनके दोनो पाश्वों पर तीर्थङ्कर मूर्तियां हैं, पर शासन देव प्रादि । दिगबर परम्परा के अनुसार जिनमें से पांच पद्मासन एवं छ: कायोत्सर्गासन में हैं। वर्धमान की माने जो सोलह स्वप्न देखे थे वे सब जैन वेदिका पर दोनो पाश्वों मे पाश्वनाथ की प्रतिमायें हैं। देवालयों (पार्श्वनाथ को छोड़कर) के प्रवेश द्वार पर देवालय मे मूल-नायक के रूप में सोलहवें तीर्थकर मालि प्रदर्शित है। जैन मूर्तिया प्रायः तीर्थकरों की है, जिनमे नाथ की १२' ऊँची खड्गासन मुद्रा में प्रतिमा है । मन्दिर के वृषभ, अजित, सभव, अभिनंदन, पद्मप्रभु, शातिनाथ एव प्रागन मे वाम पार्श्व की ओर दीवाल पर तेईसवें तीर्थहर महावीर की मूर्तियां अधिक है। पार्श्वनाथ के यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र एवं पद्मावती है। शांतिखजराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर के भीतरी पोर तीन नाथ की मूर्ति के परिकर में पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अन्य प्रागार है। इस देवालय की बाह्य भित्ति पर चतुर्दिक तीर्थङ्करों की प्रतिमायें है। तीन पंक्तियो मे तीर्थकर प्रतिमाये, कुबेर, द्वारपाल, बुन्देलखण्ड का जैनतीर्थ प्रहार, टीकमगढ़ से १२ गजारूढ एवं अश्वारूढ़ जैन शासन-देव प्रादि अकित है। मील पूर्ण की पोर स्थित है। इस भूभाग पर तीन देवादेवालय के द्वार के उत्तरी तोरण पर द्वादशभुजी चक्रेश्वरी लय है जिनमें से प्राचीन देवालय में २२' फुट की एक एवं शासन-देविया तथा मुख्य तोरण पर युगादिदेव शिला है । इस शिला पर अठारह फुट की भगवान शांतिऋषभनाथ एव दो अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएं है। नाथ की एक कलापूर्ण मूर्ति सुशोभित है । इसे परमादि यहां के प्रादिनाथ देवालय की बाह्य भित्ति पर ऊर्ध्व- देव चंदेल (११६३-१२०२ ई.) के काल मे संवत भाग की लघ पंक्ति में गंधर्व, किन्नर एव विद्याधर तथा १२३७ वि० मे स्थापित किया गया। बायी पोर १२' शेष दो पक्तियो में शासनदेव, अप्सरायें प्रादि है । नेमि- की कुन्थनाथ की मूर्ति है। नाथ की यक्षी अबिका सिंहारूड़ पाम्रवृक्ष के नीचे खजुराहो से उपलब्ध १०वीं सदी की पार्शनाथ की माम्रमंजरी धारण किये शिशु को स्तनपान करा रही एक विलक्षण प्रतिमा 'प्रयागनगर सभा सग्रहालय मे है। है। यहा ग्रासीन पद्मावती की चतुर्भुजी प्रतिमा अभय, ३८x२१ इंच आकार की इस खगासनस्थ प्रतिमा के पाश, पद्मकलिका एव जलपात्र से युक्त है। मस्तक पर सप्तफण स्पष्ट है। उभय पोर पार्षद है। घटई मन्दिर के प्रवेश द्वार के ललाटबिंब पर गरुड़ा- लाछन के स्थान पर शख है। नागफण और शंख लांछन सीन अष्टभुजी जैन देवी की एक मूर्ति है और उत्तरग के ये दो विरोधी तत्त्व है, अतः समीकरण निश्चित रूप दोनो किनारों पर एक-एक जैन तीर्थकर प्रतिमा अकित से नही हो पाता। है। उत्तरग के वामा मे नवग्रहों और दक्षिणार्ध मे प्रतिहारो के पतन के पश्चात् मालवा मे परमारों का प्रष्टवसुमों के अकन है। उत्तरग के ऊपर की पट्टिका में राज्य स्थापित हमा। इस वश का सर्वाधिक प्रतापी उत्कीर्ण सोलह शुभ लक्षण तीर्थकरों की मातामो के १६ नरेश भोज था । परमारों के काल मे जैन धर्म मालवा में स्वप्नो के प्रतीक है। मधिक प्रचलित था। भोजपुर के महान शिव मन्दिर के ___शातिनाथ देवालय के प्रागन में धरणेन्द्र एव पना- पूर्व मे एक जैन मन्दिर है। भोजपुर से तीन मील की वती की एक सुन्दर युगल-प्रतिमा प्रतिष्ठित है। देवालय दूरी पर प्राशापुरी नामक गांव मे शांतिनाथ की एक की भित्ति पर देवी-देवतामो तथा अप्सरापो की प्राकृ- सुन्दर प्रतिमा है। ऋक्ष पर्वत श्रेणियो के सिरे के तियों के साथ शार्दूल भी है। प्रदक्षिणा-पथ की भित्ति निकट निमाड़ के मैदान मे ऊन नामक ग्राम है। यहां के पर भिन्न-भिन्न शासन-देवो, गधों, किन्नरों एवं सुर अवशेषों मे लगभग एक दर्जन मन्दिर परमार राजामों ७. खजुराहो की अद्वितीय जैन प्रतिमायें--शिवकुमार नामदेव, अनेकान्त, फरवरी १९७४ । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, वर्ष ३०, कि० १ अनेकान्त की स्थापत्य कला के उत्तम नमूने हैं। यहां के जैन कालाकोट नामक स्थल से जो भानपुरा से मन्दसौर मन्दिरों में सबसे प्रसिद्ध चौबार-डेरा नामक मन्दिर है, की अोर मार्ग मे स्थित है, पाश्वनाथ की पांच फुट निकट ही एक दूसरा जैन मन्दिर है। इन देवालयों में ऊँची एवं तीन फट चौड़ी स्लेटी रग की पद्मासन प्रतिमा जैन धर्म की अनेक सुन्दर मूर्तिया है। केन्द्रीय संग्रहालय, प्राप्त हुई है। प्रतिमा ले वयुक्त है। प्रतिमा पर अकित इन्दौर मे परमार-युगीन अनेक जैन प्रतिमायें सरक्षित है। लेख इस प्रकार है- सवत १३०२ वर्षे पो० १५ गम इनमें प्रादिनाथ, श्रेयांसनाथ, धर्मनाथ, शातिनाथ, नेमि. लाडवागडा पौरपटान्वये साहु शहन... सा..""" नाथ, नमिनाथ, पार्श्वनाथ एव महावीर की प्रतिमायें है। तेनेदं ... : प्रतिष्ठिता । प्रतिमा के लेख की लिपि में खड़ी उपरोक्त स्थलो के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के अनेक पाई मिलती है। स्थलों से जैन प्रतिमायें उपलब्ध हुई है। मुरेना जिले मे ग्वालियर के निकट मरार नामक स्थल मे श्री हरिस्थित सिहपानिया (सुहानिया) तथा पढ़ावली गुना जिले हरनाथ द्विवेदी के उद्यान में भगवान पानाथ की चतुर्मुखी के तिराही एवं इन्दार स्थलो से मध्ययुगीन प्रतिमायें प्राप्त खड़गासन पाषाण प्रतिमा बड़ी ही मनोज्ञ एवं कलापूर्ण है हई है । पन्ना जिले में स्थित टूंडा ग्राम से उपलब्ध बहु- इसकी कायोत्सर्ग-मद्रा एव नासाम-दृष्टि बड़ी ही कलासंख्यक प्रतिमायें इस बात की साक्षी है कि यह स्थल मध्य पूर्ण है। इसकी पादतीठिका पर कुछ उत्कीर्ण है जो काल में जैन मतावलम्बियो का केन्द्र रहा होगा । यहा से उपलब्ध प्रथम तीर्थङ्कर प्रादिनाथ की प्रतिमा पद्मासन मे विन्ध्य भूभाग प्राचीन काल से ही भारतीय शिल्पध्यानस्थ है । पादपीठ पर दक्षिण पार्श्व की ओर गोमुख ___स्थापत्य कला से सम्पन्न रहा है । विन्ध्य भूभाग के अनेक यक्ष तथा वाम मे यक्षी चक्रेश्वरी की लघु प्राकृतिया है। स्थलों से मध्ययुगीन जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई है। नागौद स्तभाकृतियों के मध्य शार्दूल एवं पादपीठ पर भक्ति एवं जसो में मुनि कातिसागर ने ऐमी प्रतिमायें देखी थी विभोर श्राविका है। यही से उपलब्ध तेईसवें तीर्थङ्कर जिनके परिकर उनके जीवन के विशिष्ट प्रसगों- ऋषभपार्श्वनाथ की २'४" ऊँची मूर्ति के दोनो पार्श्व मे विद्या देव के पुत्रों का राज्य विभाजन, दीक्षा प्रसंग, भरत बाहुघर प्रादि हैं। टूडा ग्राम के सन्यासियों के मठ के निकट वली युद्ध प्रादि से चित्रित थे । जसो से प्राप्त एक प्रतिमा एक वृश के नीचे अनेक प्रतिमायें रखी है। प्रादिनाथ की में एक नग्न स्त्री वृक्ष पर चढ़ने का प्रयास करती हुई एक प्रतिमा जो चार फुट ऊंचे, एक फुट छ: इच चौड़े तथा बनाई गई है। यह प्रविका देवी की प्रतिमा है। उच्चएक फुट मोटे शिलाफल पर उत्कीर्ण है, कायोत्सर्गासन मे कल्प (उचहरा) से प्राप्त एक शिला पर एक सघन फल है। पासन के शार्दूलों के पाश्व मे श्रावक-श्राविका के सहित आम्रवक्ष उत्कीर्ण है । देवी अविका को इसकी डाल ऊर्व भाग में एक-एक कायोत्सर्ग तीर्थङ्कर प्रतिमा तथा पर बैठा हुमा दिखाया गया है । सर्वोच्च भाग मे भगवान उनके ऊपर दोनों पार्श्व मे गजमुख, व्यालमुख का सुन्दर नेमिनाथ पदमासन मे है। दोनो ओर एक-एक खड्. प्रकन है । यही से भादिनाथ का एक भव्य प्रातमा भा गासन भी है। रीवा क्षेत्र जैन धर्म से सम्बंधित पुरातन उपलब्ध हुई है। प्रतिमानों का भडार है। यहां से उपलब्ध बहुसंख्यक महाकौशल में मध्ययुगीन जैन प्रतिमानों की बहुलता प्रतिमाये इस बात की द्योतक है कि यह भूभाग मध्यकाल मे है। सिवनी के जैन मदिर में धमौर से लायी १३वी सदी की जैन धर्म से प्रभावित था । आधुनिक तुलसी तीर्थ रामवन, सात मूर्तियां है। सिवनी जिले के छारा नामक स्थान के सतना से रीवा जाने वाले मार्ग पर अवस्थित है। यहाँ दिगंबर जैन मंदिर मे धमोर से लायी गयी ११वी सदी की पाश्वनाथ मल्लिनाथ एव ऋषमदेव की प्रतिमायें एक सुन्दर प्रतिमा है। तीन वर्ष पूर्व सिवनी जिले के सग्रहीत है। लखनादौन से कलचुरि-युगीन महावीर की एक प्रत्यत मनोज्ञ दक्षिण कौशल मे जैन धर्म के प्रभार के प्रमाण वहाँ एव प्रष्ट प्रतिहार्य युक्त प्रतिमा प्राप्त हुई थी। से उपलब्ध बहुसंख्यक प्रतिमाये है। रायपुर से २२ मील Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यप्रदेश में मध्ययुगीन अंन शिल्पकला बूर धारंग में एक जैन देवालय है, जिस पर चतुर्दिक देवदेवियां उत्कीर्ण हैं। विरपुर (शयर) एक प्राचीन नगर था। यहां से उपलब्ध ऋषभदेव की धातु प्रतिमा महत्वपूर्ण है। इसकी रचना शैली स्वतन्त्र, स्वच्छ एवं उत्कृष्ट कलाभिव्यक्ति की परिचायक है। मून प्रतिमा पद्मासन लगाये है। निम्नभाग में वृषम चिह्न स्पष्ट है। स्कध पर अतीव सुन्दर केशावलि है। दक्षिण पाश्वं मे देवी अधिका । के वाम चरण के निकट लघु बालक की प्राकृति हैं, जो हंसली पारण किए हुए है। दक्षिण चरण की पोर जो बालक की प्राकृति है उसके दाहिने हाथ मे संभवतः मोदक एवं वाम मे उत्थित सर्प है । ग्वालियर किले का जैन पुरातत्व जैन धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । किले के हाथी दरवाजे और सास-बहू मन्दिरों के मध्य एक जैन मन्दिर है, जिसे मुगलकाल मे मस्जिद के रूप मे परिवर्तित कर दिया गया था । उत्खनन के अवसर पर यहा नीचे एक कमरा मिला था जिसमे कई नग्न जैन मूर्तियां और ११०८ ई० का एक लेख मिला था। ये मूर्तिया कायोत्सर्ग तथा पद्मासन दोनों प्रकार की है। उत्तर की वेदी मे दो नग्न कायोत्सर्ग मूर्तिया है । किले के उर्वाही द्वार की मूर्तियो मे प्रादिनाथ की विशाल मूर्ति है उसके पैरों की लम्बाई ६' एव मूर्ति ५७' ऊंची है। ग्वालियर से ही उपलब्ध तीर्थकर नेमिनाथ की एक प्रतिमा उल्लेखनीय है। आसन के नीचे विश्व धारण करने वाला धर्म दो सिंहो के रूप में प्रदर्शित है प्रतिमा के दाहिने पोर वाले सिंह के कार धर्मचक कित है। मूर्ति पद्मासन में है। पार्श्व मे दो पार्श्वचर व पार्श्व देवता है । हृदय पर धर्मचक्र है । मस्तक के पीछे प्रभामण्डल एवं मस्तक पर त्रिछत्र है । इसी क्षेत्र से उपलब्ध चक्रेश्वरी एवं गोमुख यक्ष की प्रतिमा भी महत्व - पूर्ण है। गोमूचतुष्कोण पाद पीठ पर बैठा है। इसके दाहिने हाथ में त्रिशूल के स्थान मे तीन लपेटों की मूठ वाला दण्ड है । बाये हाथ की वस्तु अस्पष्ट है । चक्रेश्वरी के दाहिने हाथ में भी इसी तरह का कोई अस्त्र है । रायपुर जिले में स्थित राजिम छत्तीसगढ क्षेत्र का प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। राजिम से जैन धर्म से सम्बन्धित मात्र एक प्रतिमा का ही उदाहरण उपलब्ध हुआ है। वह स्थानीय सोमेश्वर देवालय के अहाते में संरक्षित है। पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा कुंडलित नाग पर पद्मासन मे यैठी हुई है। सिर पर सप्तफण वाले नाग की छत्र-रूप मे छाया है । अधोभाग पर मध्य में चक्र और इनके दोनों पार्श्वो में परस्पर एक दूसरे की ओर पीठ किए सिंह मूर्तियाँ है तीर्थंकर के दोनों पा मे एक-एक परिचारिका एव ऊपर गंधर्व प्रादि है । प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के क्षेत्र में मालव भूमि का विशिष्ट महत्व है। साची, घार, दशपुर, बदनावर, कानवन, बड़नगर, उज्जैन, मक्सी, नागदा, भौरासा, देवास, भ्रष्टा, कायथा, सीहोर, सोनकच्छ पंचायत, नेवरी, कन्नौद, जावरा, बड़वानी, श्रागर, महिदपुर प्रादि ऐसे कलाकेन्द्र है, जहा ब्राह्मण धर्म की प्रतिमाम्रो के साथ जैन धर्म की मूर्तियां मिलती है विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में निर्मित पुरातत्व संग्रहालय की तीर्थंकर दीर्घा मे विद्यमान तीर्थंकर प्रतिमायें महत्वपूर्ण है। इस संग्र हालय में उज्जयिनी से प्राप्त १७ तीर्थकर प्रतिमानों को कालक्रमानुसार रखा गया है। यहां की मूर्ति क्रमांक २०६ मे ग्रादिनाथ का अंकन है। इस सर्वतोभद्र प्रतिमा में जटायें तो कये तक है जिन्हे कर्म भी कहा जा सकता है। पद्मासन में ध्यानस्य इस प्रतिमा का आकार २६×२०×१० से० मी० है । संगममंर से निर्मित यह प्रतिमा १५वीं सदी की है, जो पारदर्शी भोने वस्त्र पहने है । पादस्थल पर पद्म व पुष्प भलंकरण है । क्रमांक २०७ में मुनिसुव्रत की प्रतिमा है। वाहन या पादस्थल पर कच्छर उत्कीर्ण है। पद्मासन व ध्यानमुद्रा में निर्मित इस प्रतिमा के प्रभामण्डल में चपक वृक्ष है तथा दोनों ओर वरुण यक्ष एवं नरदत्ता यक्षिणी है। प्रस्तर फलक का आकार २६२२ X १० से० मी० है । यह प्रतिमा कंठालवन से जिसे मेमका ने 'कान्तारवन' कहा है, उपलब्ध हुई थी। लेख के आधार पर इस प्रतिमा का काल १४१५ ई० के प्रासपास निश्चित किया जाता है। यहां संगृहीत तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की संगमर्मर निर्मित प्रतिमा विशेष कलात्मक है । २५X१० X ११ से० मी० आकार की इस प्रतिमा के नीचे चंद्रमा उत्कीर्ण है । ( शेष पृ० १६ पर ) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-मुक्ति के क्रांतिकारी प्रवर्तक भगवान महावीर 0 डा० श्रीमती कुन्तल गोयल, एम. ए; पी-एच. डी. भगवान महावीर जैन धर्म के चोबीसवें तीर्थकर होने की स्वीकृति न देते हए अपने शिष्य प्रानन्द से कहा थे। वे यथार्थतः महावीर थे; महावीर प्रथत् अपने कि इस कार्य से संघ की प्रायु प्राधी रह जायेगी। किन्तु समस्त अवगुणों को, माया-मोह और प्रहं को जीतने वाले महावीर ने निःशंक होकर स्त्रियों को अपने संघ में महान वीर । उनके समय में उनके चलाये धर्म को सम्मिलित किया और साधुग्रो की भांति उनके लिये भी "निग्रंथ" कहा जाता था; "निग्रंथ" अर्थात् पूर्णरूप से प्रात्मोपलब्धि का पूर्ण सुअवसर दिया। उन्होने सधीय ग्रंथि-रहित, प्राग्रह-मासक्तियों एवं परिग्रहों से पृथक् एक मर्यादा को प्रखंड बनाये रखने के लिये बड़ी कुशलता से मानव धर्म। ऐसे सार्वजनीन धर्म की शरण में स्त्री-पुरुष, विधान तैयार किया, ताकि किसी भी तरह की अव्यवस्था गहस्थ-त्यागी, घनी-निर्धन, ऊच-नीच सभी पा सकते है तथा अनाचारिता को प्राश्रय न मिल सके। जहां समान रूपसे पुरुष का उद्धार हो सकता है और जैन धर्म मे ब्राह्मी, सुन्दरी, चंदना, मृगावती प्रादि स्त्रियों का भी। जो समभाव लिए हुये हो, वह अपना ही ऐसी कितनी ही नारियां हुई है जिन्होंने ससार का त्याग नही, समस्त विश्व का कल्याण कर सकता है। जो स्वय कर सिद्धि प्राप्त की तथा जन-कल्याण की दिशा में अपने को जीत सकता है, वही दूसरों को भी जीत सकता है। उन्नत विचारों का प्रचार किया। प्रार्या चदना बड़ी भगवान महावीर ऐसे ही महापुरुष थे जिन्होंने पुरुषों विदुषी महिला थी जिस पर भगवान महावीर की महती की तरह नारी समाज को संवारने और ऊंचा उठाने में कृपा थी। अनेक स्त्रियों ने उनसे दीक्षा लेकर निर्वाण पद स्तुत्य योगदान दिया और जिन्होने युग-युग की शोषित और की प्राप्ति की थी। यही भगवान महावीर की प्रथम शिष्या दलित नारी के भीतर प्रात्म-ज्योति प्रकाशित की। थी। श्रवणिकामों में उनका स्थान बहुत ऊचा था। इनके भगवान महावीर से पूर्व समाज में नारी की स्थिति नेतत्व में छत्तीस हजार भिक्षुणिया थीं। इसी तरह प्रत्यन्त दयनीय पी। वह उपेक्षित और नीच समझी सन्दरी तथा ब्राह्मी के नेतृत्व में तीन लाख, बुद्धमती जाती थी। उसकी तुलना कीतवास से की जाती थी। के नेतत्व मे पचपन हजार तथा यक्षिणी के नेतृत्व में वह पुरुषों की कामना सिद्धि तथा वासना तृप्ति का साधन चालीस हजार भिक्षणियां थी। जैन संघ मे स्त्रियों की थी। उसकी अपनी कोई कामना नहीं थी और न ही सरक्षा हेतु पूर्ण व्यबस्था थी। यदि कोई भिक्षुणी के उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व था। भगवान महावीर चारित्रिक पतन हेत् प्रयत्नशील होता तो उसका वध कर ने इस दारुण स्थिति से उसका उद्धार कर समाज मे उसे डालने तक का आदेश था। स्त्री तथा पुरुष मे कहीं भी सम्माननीय स्थान दिया। उनकी दृष्टि में जितने महत्त्व. भेदभाव नहीं रखा जाता था और न ही स्त्रियों की पूर्ण पुरुष थे, उतनी ही स्त्रियां भी । इसलिये उन्होंने अपना उपेक्षा की जाती थी। चतुर्विध मे प्रायिकामों एवं श्राविकाओं को सम्मिलित कर भगवान महावीर नारी के प्रति इतने उदार एवं समाज में स्त्रियों को पुरुषो के समकक्ष उच्च स्थान दिया स्नेहशील थे कि कभी उसे अपमानित होते नही देख सकते बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म में स्त्रियां निर्वाण-सिद्धि में थे। उनका कथन था यदि कि कोई स्त्री किसी कारण वश बाधक नही थी। बुद्ध ने अपने संघ मे स्त्रियों को प्रबजित अपनी चारित्रिक गरिमा से गिर जाती है तो उसके लिये Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-मुक्ति के क्रांतिकारी प्रवर्तक भगवान महावीर स्त्री को नही वरन उस पुरुष को दण्ड देना चाहिये जो गर्दन में लपेट दिया । श्रेष्टि की पत्नी यह देखकर क्रोधित नारी को कलंकित करने का मूल कारण है क्योंकि स्त्री हो उठी और उसने चंदना के हाथ पैरों में बेडी डलवाकर स्वभावत: सरल और निश्छल होती है और पुरुष ही उसे उसे एक कोठरी में बंद करवा दिया। भगवान महावीर ने बहकाता है। इस मवध में कहा जाता है, कि एक बार उसका उद्धार किया और उसे अपनी शिष्या बना लिया। एक गृहस्थ ने एक सुन्दर साध्वी को भिक्षाटन को जाते इस घटना से वे इतने दुखी हये कि परतंत्र शोषित नारी हुये देखा। उम पुरुष के साथ उसका मित्र भी था को पूर्ण स्वाधीन बनाने की दिशा मे कृतसंकल्प हो गये। जिसकी पत्नी का निधन हो चुका था। उस गृहस्थ ने उन्होने इसी चदना को लेकर नारी-मक्ति अभियान का अपने मित्र से कहा कि यह साध्वी तुम्हारी पत्नी बनने शुभारम्भ कर दिया। चदना नारी सघ की प्रथम संचालिका योग्य है । तुम इसे किसी तरह तैयार कर लो । मित्र के मन बनकर स्त्रियों को साध्वी बनाने की दिशा में अग्रसर हुई। में विकार पा गया। एक बार जब वह साध्वी भिक्षा हेतु उनका यह अभियान अत्यन्त सफल रहा। उसी मित्र के द्वार पर पहची तो उसने अपने पुत्रों से भगवान महावीर स्त्रियो को सदैब अादर की दृष्टि से साध्वी के चरण स्पर्श करने के लिये कहा और यथोचित देखते थे। "बृहत्कल्प भाष्य पीठिका" में यह उल्लेख भिक्षान्न देकर उसका सत्कार किया। इसी तरह वह । मिलता है कि एक बार राजा को अपनी रानी के चरित्र जब भी उस द्वार भिक्षा के लिये पहुचती, मित्र के पुत्र पर सन्देह हुमा और उसने प्रतिशोध लेने के लिये रानी के वैसा ही करते और मित्र साध्वी को प्रावश्यकता से अन्तःपुर में प्राग लगवा दी जिससे रानी उसमें जीवित अधिक वस्तुयें भिक्षा मे देकर उसका आदर-सत्कार कर ही जलकर मर गई। भगवान महावीर ने जब सुना तो अपने घर मे ही निवास करने का प्रलोभन देता। मधुर दुखित होकर उस राजा से कहा तुम भी उस अग्नि में व्यवहार पोर यथेष्ट आदर-सत्कार पाकर अत मे साध्वी क्यों नही जल कर मर गये ? तुम्हे धिक्कार है। जैन सूत्रों उसके प्रलोभन मे आ गयो । फलत वह गर्भवती हुई। में स्त्रियों को चक्रवर्ती के चौदह रत्नो में गिना है। इसका समाचार जब भगवान महावीर तक पहुचा तो उन्होंने कहा-इसमे उस साध्वी का क्या दोष? दड "बृहत्कल्प भाष्य" के अनुसार जल, अग्नि, चोर तथा उस पुरुष को ही मिलना चाहिए जिसने उसके सरल हृदय दुष्काल का संकट उपस्थित होने पर सर्वप्रथम स्त्रियों की को बहकाया है। रक्षा करनी चाहिये । इस तरह यह स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन में स्त्रियो को बहुत सम्माननीय स्थान प्राप्त भगवान महावीर का नारी जाति के प्रति करुण भाव का एक अन्य उदाहरण साध्वी चंदना के साथ मिलता है। था। कहा जाता है कि जब वह नन्हों बालिका ही थी तब डाक इस तरह नारी के प्रति भगवान महावीर की करुणा, उसक माता-पिता को मारकर उसे उठा ले गये थे और समता, स्नेह और उदारता इतनी कल्याणमयी सिद्ध हुई बाद में उसे एक श्रेष्ठि को बेच दिया था। श्रेष्ठि ने बडे स्नेह कि नारी ने पुरुषों के सभी क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त से उसे पाला । जब वह युवा हुई तो उसकी रूप-राशि को किय। वह पुरुष किये। वह पुरुष की सम्पत्ति की भी उत्तराधिकारिणी देखकर श्रेष्ठि की पत्नी के मन मे यह शंका उत्पन्न नई बनी। नारी जाति की यह एक ऐसी महान उपलब्धि थी कि कहीं श्रेष्ठि उसे अपनी पत्नी बनाने के लिये तो नही कि पारिबारिक एव सामा कि पारिबारिक एव सामाजिक धरातल पर उसने अपनी पाल रहे है ? सन्देह सर्प ने उसके विवेक को डस लिया स्वतंत्र प्रतिष्ठा स्थापित की। समस्त नारी जाति के पौर वह चंदना को घोर यातनायें देने लगी। एक बार लिये एक महान् उदारचेता उद्ध लिये एक महान उदारचेता उद्धारक के रूप में भगवान चंदना झुक कर गृह-कार्य कर रह थी जिससे उसकी केश महावीर युग-युग तक श्रद्धेय एवं वदनीय हैं। राशि बिखरकर घरती का स्पर्श करने लगी। श्रेष्ठि ने मनीषा भवन, चोपड़ा कालोनी, यह देखा तो स्नेह वश उसकी केशराशि को समेट कर अम्बिकापुर (सरगुजा) मध्यप्रदेश Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिषभ प्रतिमा का एक विशेष चिन्ह : जटारूप केशराशि D श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी (राजस्था ) निम्नाकित ग्रंथो मे इस प्रकार पाया जाता है : (१) जं ज उवणेइ जणो, त त नेच्छइ जिणो विगयमोहो । लबत जड़ा भागे, णरवइ भवण समणुपत्तो ||८|| - पउमचरिय ( विमलमूरिकृत ) प्र० ४. अर्थ - जो जो वस्तु मनुष्य लाते, वह वह मोहहीन भगवान् को अच्छी नही लगती । ऋषभदेव जिनकी लंबी जटाओ का भार था राजा श्रेयास के महल के पास हु ( २ ) पद्मचरित (रविषेणाचार्यकृत) क. स रेजे भगवान् दीघं जटाजाल हृताशुमान् ||५|| पवं ४ ख. वातोद्धता जटास्तस्य रेज़राकुलमूर्तयः ॥ २८८ ॥ पर्व ३ ग. प्रलबित महाबाहुः प्राप्तभूमि जटाचयः ॥ २८६ ॥ प. ११ तीर्थंकरो के दाहिने पैर मे जो विशेष चिन्ह होता है वही उनकी प्रतिमाओ मे संयवहार के लिए प्रसिद्ध किया गया है। चिह्नों का प्रयोग करीव ८वी शती मे प्रारम्भ हुआ है । दाहिने पैर मे होने से ये चिह्न प्रतिमानों के पाद पीठ (चरण-चौकी) पर अकित किये जाते है । शास्त्रों मे २४ तीर्थकरो के २४ भिन्न-भिन्न चिह्न बताये गये है । ये चिह्न ऐसे है जिन्हे देखकर अशिक्षित मी तीथंङ्कर प्रतिमा की पहचान कर सकता है। ये चिह्न तीर्थङ्करों के वाहनरूप या ध्वजारूप नही है किन्तु सिर्फ प्रतिमा की पहचान के लिए कायम किये गये है । तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रंथो में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभनाथ का ह्नि वृषभ ( बन्न ) बताया गया है। (१) नीर्थङ्कर जब माता के गर्भ मे आते है तो माता निद्रा मे अपने मुख के अन्दर प्रवेश करता हुआ हाथी देखती है । २३ तीर्थङ्करो के चरित्र में ऐसा ही बताया गया है किन्तु ऋषभदेव की माता मरुदेवी ने हाथी के बजाय मुह मे वृषभ प्रवेश करता हुआ देखा था । (२) युग के श्रादि मे ऋषभ ने वृषभ (बैल) से कृषि विद्या का उपदेश दिया था जिससे वे कुलकर कहलाये थे । (३) 'ऋषभ' और 'षृषभ' एकार्थवाची है । इनके नाम मे भी इनका चिह्न गभित है। इस प्रकार प्रथम ( प्रादि) तीर्थंकर का चिह्न वृषभ प्रसिद्ध है । अतः भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा लेते हो ६ माह की समाधि ले ली थी । समाधि पूरी होने पर जब वे माहार के लिए उतरे तो कही भी शास्त्रानुसार आहार का योग नही मिला। इससे उन्होने फिर ६ माह की और समाधि ग्रहण कर ली। इस तरह एक वर्ष तक समाधि में लीन रहने से उनके दीर्घ जटायें बढ गई। इसका उल्लेख अर्थ - भगवान् ऋषभदेव के दीर्घं तपस्या के कारण जटायें इतनी वह गई थी मानो वे भूमि को ही छूने लग गई थी । (३) हरिवशपुराण ( जिनसेनाचार्यकृत) - स प्रबल जटाभारभ्राजिष्णुजिष्णु गबभी || २०४ || सर्ग ६ (४) महापुराण ( जिनसेनाचार्य द्वितीय कृत ) पर्व १८ संस्कारविरहात्केशा जटीभूतास्तदा विभो ॥७५॥ मुनेर्मूनि जटा दूर प्रशस्त्र पवनोद्धताः ॥७६॥ चिर तपस्यतो यस्य जटा मूर्ध्नि वभुस्तरां ॥ ६ ॥ पर्व १ ( ५ ) पउमचरिउ ( स्वय भूकृत ) सधि २, कडवक ११ छद ६ : पवणद्भयउ जडाउ रिमह हो रेहति विसालउ || (६) दौलतराम जी कृत भजन देखो जी प्रादीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है । श्यामलि अलकावलि शिर सोहे, मानों धुम्रां उड़ाया है ॥ (७) श्रादितीर्थङ्कर ऋषभदेव (कामताप्रसाद जी कृत) पृ० १२७ : Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ प्रतिमा का एक विशेष चिह्न : जटारूप केशराशि इस केश-जटा के कारण ही भगवान् "केशी" नाम से वस्त्राभरण पहनाना, गले में फूल माला डालना, हाथों में प्रसिद्ध हुए। __ फूल चढाना, चन्दन-केसर लगाना-यह सब योगिमुद्रा (८) अर्हद्दासकृत-"पुरुदेव चम्पू" सर्ग ८, पृ. १५७ - की विडंबना है, वीतरागता का प्रवर्णवाद है। जटीभूतः केशाविभशिरसि संस्कारविरहा, जटाजूट वाली ऋषभ प्रतिमा का उल्लेख प्राचीन अदानी ध्यानाग्निप्रतपन विशद्धस्य बहधा ।।३। साहित्य मे भी काफी पाया जाता है। प्रमाण के लएि (६) वत्तीसुवरास मुणीसरह कुडिला उचियकेस ॥ देखिये : -महापुराण (पुष्पदतकृत) ३७, १७ १-पादिजिणप्पडिमानो तारो जडम उड सेहरिलपाम्रो। इसी भाव को प्राधार बनाकर प्राचीन मूर्तिकारों ने पडिमो परिम्मि गंगा अभिसित्तमणा व सा पडदि ॥२३० ऋषभ प्रतिमा के कंधों पर लबे लंबे केश प्रदर्शित किये पुफ्फिद पंकज पीडा कमलोदर सरिसवण्णवरदेहा। है । कुषाणकाल (२-३ शती) से लेकर आधुनिक युग तक पढम जिणप्पडिमायो भरति जे ताण देंति णिब्वाणं ।२३१ इसका प्रचलन रहा है। ऐसी हजारो प्राचीन प्रतिमाये -तिलोयपणत्ती (यतिवृषभाचार्यकृत) प्र. ४ पाई जाती है। बघेरा क्षेत्र पर भी ऐसी ८.१० प्रति- अर्थ- वे आदि जिनेन्द्र की प्रतिमायें जटामुकुटरूपी मायें है। शेखर से युक्त है। उन प्रतिमानो के ऊपर गंगा नदी ___इन सब में अनेक पर प्रशस्ति लेख भी पाये जाते है मानों अभिषेक करती हुई गिरती है। फूले हुए कमलों जिनमे ऋषभदेव का स्पष्ट नाम भी दिया हुआ है। का जिनके पासन-पादपीठ है, सुन्दर देह वर्ण से युक्त हैं, किसी पर वृषभ चिह्न भी है। किसी पर न नाम है, न ऐसी प्रथम जिनेन्द्र की प्रतिमाये है। जो इनको सेवा पूजा चिह्न है फिर भी कंधो पर की केशराशि से वे निश्चित करता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। ऋषभदेव की ही है। २-सिरिगिह सीसठियंबुजकण्णिय सिंहासणे जडामउलं । च उपण्ण-महापुरिस-चरिय (शीलाकाचार्यकृत), त्रि- जिणमभिसेत्तुमणा वा मोदीण्णा मत्थरा गगा ॥५६॥ शष्टिशलाका-पुरुष-चरित (हेमचन्द्राचार्यकृत) आदि --तिलोयसार (नेमिचन्द्राचार्य कृत) श्वेतांबर ग्रथों मे कही भी भगवान् की जटामों का वर्णन ३-पडमु जिणवरणाविव भावेण जड मउड विहसि ॥ नहीं है। इससे यह भी एक दि० श्वे० भेद रहा मालम -सुकुमालचरित (अपभ्रंश) देता है। प्रतः जिन प्रतिमानो के कयो पर केशराशि ४-विवेश चिन्तयन्नेव भवनं तन्मनोहरं । हो, वे निश्चित रूप से एकमात्र दिगबरी ऋषभ प्रतिमा सत्फुल्लवदनाभोजो ददर्श च जिनाधिपं ॥१४॥ ही मानी चानी चाहिए क्योंकि ऐसी श्वे० प्रतिमायें उप- हुताशनशिखागौर पूर्णचन्द्रनिभानन । लब्ध भी नही होती। पद्मासनस्थित तुगं जटामुकुटधारिणं ॥५॥ जिम तरह केशराशि से ऋषभ प्रतिमा पहचानी -पद्मचरित (रविषेणाचार्यकृत), पर्व २८ जाती है उसी तरह ३, ७, ११ फणावली से पार्श्व प्रतिमा ५-दीहजडाम उडायसाह (दीर्घजट। मुकुटकृतशोभं)॥३॥ और १, ५, ६ फणावली से सुपाव-प्रतिमा एवं पावों मे .-पउमचरिय (विमलसूरिकृत), पर्व २८ लिपटी बेल से बाहुबली-प्रतिमा की पहचान की जाती है। अर्थ --प्रसन्न वदन वाले राजा जनक ने सुन्दर जिनाये ही इनके विशेष चिह्न-स्वरूप है। लय में प्रवेश किया और वहा प्रग्निशिखा के समान पीतसभी जन प्रतिमायें ध्यानस्थ योगी-मुद्रा में होती है। वर्ण वाली, पूर्णचन्द्र के समान सुन्दर गोल मुख मण्डल चाहे वे पद्मामन हो या खड्गासन, सभी कायोत्सर्ग प्रवस्था वाली, जटा मुकुट से युक्त, विशाल मोर पद्मासन से स्थित मे ही होती है, जो वीतराग स्वरूप की द्योतक है। इन्हें प्रादि जिनेन्द्र की प्रतिमा के दर्शन किये। मुकुट पहिनाना, इनके पाखें लगाना, भंगियां रचना, इन प्रमाणो से भी सिद्ध है कि कंधो पर बिखरी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ३०, कि०१ प्रमेकान्त केशराशि वाली प्रतिमायें ऋषभदेव ही की होती है। फिर किये । जिससे मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि यह प्रतिमा भी, कुछ दूसरे कारणों से भूल-भ्राति का शिकार होकर ऋषभदेव ही की है, महावीर स्वामी की नही। साधारण लोंगों ने ही नही किन्तु पुरातत्त्वज्ञ-मूर्तिविज्ञान- सारी बातें मैने श्रीमान् पं० भंवरलाल जी पोल्याविशेषज्ञ विद्वानों तक ने ऐसी प्रतिमाओं को महावीर का, श्री पं० भवरलाल जी न्यायतीर्थ, श्री प० कस्तूर. मादि अन्य तीर्थङ्करों की मान ली है। इन गलतियो का चन्द जी कासलीवाल एवं श्री १० अनपचन्द जी न्यायजितनी जल्दी सशोधन हो उतना ही श्रेयस्कर है ताकि तीर्थ, जयपुर को बताई तो उन्होने भी मेरी बात को सही इतिहास अक्षुण्ण रह सके। इसी सद्देश्य से नीचे स्वीकार करते हुए इस पर एक लेख लिखने की प्रेरणा ऐसी प्रतिमामो का समीक्षात्मक परिचय प्रस्तुत किया की । तदनुसार यह निबंध प्रस्तुत किया गया है। जाता है : ऐसा मालूम होता है कि उक्त प्रतिमा के प्रशस्ति लेख में कहीं ऋषभनाथ का नाम था, जब कि लोगों ने १. जयपुर मे गोपालजी के रास्ते में काला डेहरा दो सिहमति से इस प्रतिमा को महावीर स्वामी की के महावीर जी का एक प्रसिद्ध मन्दिर है । उसमे भव्य कायम कर ली थी। ऐसी हालत मे यह नाम स्पष्ट बाधा प्राचीन कलापूर्ण एक खड्गासन, करीब ८ फूट ऊँची लाल डालता था। प्रत तत्काल सारी प्रशस्ति को ही घिस काले पाषाण की प्रतिमा है । उसके कंधों पर केशराशि दिया गया, सिर्फ "सं० ११४८" रहने दिया गया। विखरी हुई है, किन्तु नीचे चरण चौकी पर दो सिंह मूर्तियां इस प्रतिमा के आजू-बाजू मे, सामने और दोनो पाड़े उत्कीर्ण है। इससे लोगों ने उसे महावीर स्वामी की पार्श्वभागों में कुल मिलाकर ४ खड़गासन प्रतिमायें और प्रतिमा मानकर मन्दिर को महावीर स्वामी के नाम से विराजमान है जिनके भी पादपीठ पर २-२ सिंह मूर्तियां प्रसिद्ध कर रखा है । इस प्रतिमा पर स० ११४८ खुदा उत्कीर्ण है। किन्तु इनमे की ३ प्रतिमाओं के सिर पर है। आगे का सारा प्रशस्ति लेख घिसा हुमा है। फणावलियाँ भी है जिनसे वे स्पष्टतया पाश्र्व या सुपार्श्व की यह प्रतिमा वास्तव मे ऋषभदेव भगवान की है, प्रतिमाये है । अगर दो सिंह वाली मूर्ति के होने से किसी जैसा कि उसके कधो पर बिखरी केशराशि से प्रमाणित प्रतिमा को महावीर स्वामी की मानी जाए तो इन सब प्रतिहोता है। नीचे जो दो सिह मूर्तिया है वे महावीर स्वामी मानों को भी महावीर स्वामी की ही मानना होगा, जबकि के चिह्न रूप में नहीं है किन्तु सिंहासन नाम को सार्थक इनके शिर पर फणावली होने से ये निश्चित ही पार्वकरने की दृष्टि से मूर्तिकार ने उत्कीर्ण की है । अगर एक सुपार्श्व की प्रतिमाये प्रमाणित है। अत. यह सिद्ध होता है सपा मूर्ति होती तो 'सिंह चिह्न' रूप मे कदाचित् मानी जा कि दो सिंहमूर्तिया महावीर का चिह्न नही है किन्तु वे सकती थी। लोग भूल-भ्रान्ति मे नही पड़ें इसी से मूर्ति- सिंहासन की प्रतीक है। कार ने २ सिंहो को मोर वह भी मूर्ति-प्राकार रूप में कालाडेहरा मन्दिर, जयपूर की प्रबंधकारिणी कमेटी उत्कीर्ण किया है, न कि रेखामय चिह्न रूप ने (मूर्ति से सादर निवेदन है कि वह इस मसले पर शाति और उभरे प्राकार रूप में होती है और चिह्न सिर्फ रेखारूप गम्भीरता के साथ विचार करे और शीघ्र ही सशोधनात्मक में चित्रित होता है । यह मूर्ति पौर चिह्न में खास अन्तर समचित कदम उठायें ताकि सही इतिहास का लोप न हो है।) फिर भी लोग भूल-भ्राति मे पड़ ही गये । अब तक और वास्तविक तथ्य सामने आए। उस पोर किसी का लक्ष्य नही जा पाया है, यह और भी २. केकड़ी से १५ मील दूर सावर ग्राम में नेमि प्रभु खेद की बात है। का एक चैत्यालय है, जिसमे काले पाषाण की एक पना___इस प्रतिमा का फोटो प्रब की 'महावीर जयती स्मा- सन प्रतिमा है जिसके कधो पर केशराशि है जिससे कि वह रिका ७६' के शुरू मे छपा है। जब मेरी दृष्टि इस पोर निश्चित रूप से ऋषभदेव की है, किन्तु यहा के बन्धुपो ने गई तो मैं जयपुर गया और प्रतिमा के अच्छी तरह दर्शन उसे नेमिनाथ स्वामी की कायम कर रखी है और उन्हीं Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ प्रतिमा का एक विशेष चिह्न : जटारूप केशराशि के नाम पर मन्दिर भी नेमि चैत्यालय के नाम से प्रसिद्ध समुचित संशोधन करें। अगर मेरी बात उन्हे ठीक प्रतीत कर रखा है। हो तो वे प्रतिमा और मन्दिर को ऋषभदेव का प्रकट चम्पू क्लब, सावर द्वारा सन् १९७६ मे प्रकाशित 'श्री करें, जिससे सही इतिहास सामने प्राए । नेमि स्तवन' पुस्तिका मे लिखा है कि-"नींव से प्राप्त ३. वीर प्रेस, जयपुर मे इसी प्रसग पर मैं पं० भंवरहोने के कारण इस प्रतिमा का नामकरण श्री नेमिनाथ लाल जी न्यायतीर्थ से चर्चा कर रहा था तो उन्होंने किया गया तथा प्रतिमा की प्रशस्ति देखने से ज्ञात होता वहीं टगे कुंडलपुर (दमोह) के बड़े बाबा की प्रतिमा के है कि यह वीर निर्वाण संवत् २११ की प्रतिष्ठित है। चित्र की ओर मेरा ध्यान प्राकृष्ट किया। इस चित्र पर अतः यह २३०० वर्ष प्राचीन है।" महावीर स्वामी लिखा हुमा था। इसमे भी पादपीठ पर समीक्षा-नीव से प्राप्त होने के कारण प्रतिमा को दो सिंह मूर्तियाँ दी हुई है, इससे इसे लोगों ने महावीर नेमिनाथ की मानना बिल्कुल गलत है। नीव से तो स्वामी की प्रतिमा समझ लिया है । किन्तु इसमें कानों के हजारों-लाखो प्रतिमाये निकलती है। क्या वे सभी नेमि. नीचे लटकती केशराशि द्योतित की है, इससे यह स्पष्ट ही नाथ स्वामी की है ? अगर नहीं तो यह हेतु प्रकार्यकारी ऋषभदेव की प्रतिमा ज्ञात होती है। दो सिंह तो सिंहाऔर मिथ्या है । नेमि का अर्थ नीव भी नही होता और सन के प्रतीक है, चिह्न रूप नही। इसके सिवाय इस न इस प्रतिमा पर कही नेमि प्रभु का चिह्न शख दिया प्रतिमा के आजू-बाजू मे जो यक्ष-यक्षिणी है, बे प्राशाघरहुपा है । प्रशस्ति मे भी कही नेमिनाथ नाम नही लिखा प्रतिष्ठापाठ के अनुसार, ऋषभदेव, ही के हैं महावीर के हुमा है। तब बिना किसी प्राधार के इस प्रतिमा को नही । नेमिनाथ की मानना स्पष्टतया भूल भरा है। इस तरह कुण्डलपुर (दमोह) की यह प्रसिद्ध मनोज्ञ गत फाल्गुन मे इस मन्दिर का मेला था। तब मैं प्रतिमा भी महावीर स्वामी की नहीं है, ऋषभदेव (बड़े सावर गया था। मैने वहा इस प्रतिमा के अच्छी तरह बाबा) की ही है। आज तक लोग इसे बराबर महावीर दर्शन किये और प्रशस्ति लेख पढ़ा तो निम्नाकित तथ्य स्वामी को ही प्रतिमा प्रचारित करते पा रहे है। इस अवगत हुए --- मोर भी सशोधन के लिए शीघ्र ध्यान दिये जाने की (१) प्रतिमा के कधों पर केशराशि होने से यह जरूरत है। निश्चित रूप से ऋषभदेव प्रतिमा है । ४. प्रभी वीर निर्वाण रजत शती महोत्सव के प्रव. (२) प्रशस्ति लेख मे भी "ऋषभनाथ परमेष्ठिन" सर पर बीर-प्रचार को धुन मे अनेक प्राचीन मूर्तियो को, पढ़ने में प्राता है । इससे स्पष्ट है कि यह प्रतिमा ऋषभदेव जो ऋषभदेव की है, पाद-पीठ पर दो सिंह होने से की ही है। उन्हें महावीर स्वामी को द्योतित कर दिया है, जो स्पष्ट (३) प्रशस्ति लेख में 'स. ११२१' से स्पष्ट चार प्रक भूल है। उदाहरण के लिए देखिए इन्दौर से प्रकाशित दिये हुए है. फिर भी लोगो ने प्रतिमा को प्रति प्राचीन अप्रेल, ७६ के सन्मति-वाणी (मासिक पत्र) का मुख पृष्ठ । बताने के लिए तीन ही अक (२११) कायम कर रखे हैं। इस पर खजुराहो की एक प्राचीन मूर्ति का चित्र दिया इसके सिवाय प्राचीनता में और भी वद्धि करने के लिए है और उसे महावीर जिनमूर्ति लिखा है, जबकि यह संवत् को वीर निर्वाण संवत् बता दिया है। इससे पांच सौ मूर्ति भगवान ऋषभदेव की है, क्योकि इसके कंधों पर वर्ष और बढ़ा दिये है। इस तरह नौ सौ वर्ष प्राचीन केशराशि उत्कीर्ण है एवं कघों के ऊपर दोनों बाजू में प्रतिमा को २३ सौ वर्ष प्राचीन कर दी गई है। यह सब वृषभ भी अंकित है। इससे स्पष्टत: यह ऋषभ प्रतिमा भति मोह का परिणाम है। है । पाद-पीठ मे दो सिंहों के अंकन से भलभ्रांतिवश इसे सावर के बधुपो से नम्र निवेदन है कि वे इस पर महावीर मूर्ति लिख दिया गया है। पुनर्विचार करे और यथाशीघ्र विशेषज्ञों से परामर्श कर चांदखेडी, देवगढ़, गोलाकोट, चंदेरी प्रादि क्षेत्रों की Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ३०, कि०१ अनेकान्त कतिपय ऋषभ प्रतिमानों की भी ठीक यही हालत है। (१) कपदंवे वृषभो युक्त प्रासीद, उन्हें भी इसी प्रकार महावीर की मान लिया गया है। अवावचीत् सारथिरस्य के शी। ५. अनेकांत, वर्ष २४, किरण १ मे जबलपुर हनुमान दुधेर्युक्तस्य द्रवत सहानस, ताल के बड़े जैन मन्दिर की एक कलचुरि कालीन प्राचीन ऋच्छति मा निष्पदो मुद्गलानी ॥ प्रतिमा को, जो खिले कमल पर विराजमान है, लेखक ने (ऋग्वेद १०, १०२, ६) पदमप्रभु की बताई है, किन्तु वह भी ऋषभनाथ की ही (२) केश्यग्नि केशी विष, केशी विति रोदसी। है, क्योंकि उसके भी कधो पर केशराशि विकीर्ण है। यहां केशी विश्व स्वदशे, केशीद ज्योतिरुच्यते ॥ कमल प्रासन के रूप में दिया है चिह्न के रूप में नही । (ऋग्वेद १०,१३६, १) तिलोयपण्णत्ती'. प्र०४, गाथा २३१ (यह गाथा इसी (३) गगनपरिधानः प्रकीर्णकेशः परागवलम्बमान कटिलेख में पीछे उद्धृत है) में ऋषभ प्रतिमानो को 'पुफ्फिद- लजटिलकपिशवेशभूरिभारः ऋषभः । पंक-जपीढा" अर्थात् खिले हुए कमलो के पासन पर विराज (भागवतपुराण ५, ६, २८-३१) मान बताया है। तदनुसार ही जबलपुर की उक्त प्रतिमा प्रश्न जैन साधुग्रो के २८ मूल गुणों में केश लौंच निर्मित हुई है। भी १ मूल गुण है। २ मास का केश लोच उत्कृष्ट, ३ मास कारीतलाई से उपलब्ध ३॥ फुट ऊँची एक ऋषभ का मध्यम और ४ मास का जघन्य माना जाता है। प्रतिमा रायपर संग्रहालय में है। उसके पादपीठ पर सिह ज्यादा से ज्यादा ४ मास मे तो कंश लौच करना ही युग्म के साथ हस्तियुग्म भी उत्कीर्ण है। हस्ति के आधार पडता है। तब ऋषभदेव ने १ वर्ष तक केश लौच क्यो नहीं पर, उक्त ऋषभ प्रतिमा को अजितनाथ की नहीं माना किया जटा क्यो बढाई ? जा सकता। बहत-सी प्रतिमानों के प्रासन पर हिरण समाधान-तीर्थ'करों के लिए केशलौंच का कोई उत्कीर्ण है। हिरण के आधार पर उक्त प्रतिमाये शाति- नियम (समयावधि) नही है । दीक्षा लेते वक्त उन्हे केशनाथ की नही मानी जा सकती। लौच अवश्य करना होता है फिर वे इच्छानुसार जब चाहे यह सब सिंह, कमल, गज, मृगादि का अकन सिंहासन, तभी कर सकते है । उनके शरीर में बाहर निगोद जीव कमलासन, गजासन मृगासन के रूप मे है, तीर्थङ्करो के प्रतिष्ठित नही होते । उनके नीहार नहीं होने से उनके के चिह्न रूप में नही। शरीर में कभी पसीना आदि मल स्राव नहीं होता, जिससे . प्रासनो पर के अंकन के आधार पर प्रतिमा उनके केशों मे सम्मूर्छन जीवों की उत्पत्ति भी नही होती का निश्चय नही होना चाहिए। किन्तु उसके दूसरे एव उन में वीतगगता की उत्कटता होने से केशो में भंगार. साधारण या विशेष चिह्नों के आधार पर ही प्रतिमा । शोभा के भाव का भी प्रभाव होता है। अत: उनके जटाका निर्णय होना चाहिए, तभी वास्तविकता की उप- रूप केश किसी तरह दोषास्पद नहीं माने गये है। लब्धि हो सकेगी। प्रश्न--लबी जटाग्रो वाली ऋपभ प्रतिमायें अरिहताऋषभदेव केशरियानाथ के नाम से भी प्रसिद्ध है। वस्था की है या मुनि अवस्था की ? । अरिहतावस्था मे यह नाम इनके केशर चटाई जाने की अपेक्षा केसर-जटा- तो लबी जटाये नही होती, अतः ऐसी प्रतिमानो मे पूज्यता धारित्व प्रर्थ में ज्यादा सुसगत है। केश-केसर जटा की दृष्टि से क्या कोई कमी है ? एकार्थवाची है। केशो की विशेषता से ही सिंह केसरी समाधान ऋषभ-प्रतिमा की लबी जटायें उनकी कहलाता है। दीर्घकालीन तपस्या की सस्मारक है। जिस तरह बाहुबलीऋषभदेव के केशी और कपर्दी जटाजूट रूप (कपर्दो- प्रतिमा की परो में लिपटी बेले उनके एक वर्ष के दुर्धर तप ऽस्य जटाजट -- अमरकोष) का उल्लेख वदिक ग्रथो मे और निश्चल ध्यान की परिचायक है एव पार्श्व-प्रतिमा भी पाया जाता है देखिए : पर की फणाकृति उन पर हुए घोर उपसर्ग की परिसूचक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ प्रतिमा का एक विशेष चिह्न: जटारूप केशराशि है। इसी तरह मुपार्श्व-प्रतिमा की फणाकृति भी उनके प्रश्न - जटाकेश वाली ऋषभ प्रतिमा मोर फणाविशेष इतिहास की द्योतक है । मण्डप वाली पाश्व प्रतिमा का सही प्रासन क्या है ? जब इन सब बातों का उक्त प्रतिमानों मे अंकन उन ऋषमदेव ध्यान में बैठ और पाश्र्व प्रभु पर जब उपसर्ग मामलों के जीवन की विशिष्ट मागेको बताने में हुआ तब वे पद्मासन या खड्गासन जिस पासन में थे वही सही प्रासन उनकी ऐसी प्रतिमानो में होना चाहिए। लिए किया गया है। किन्तु उनकी ऐसी प्रतिमायें दोनो ही मासनों में पाई ____ इन कायोत्सर्ग अवस्था (ध्यान) में लीन प्रतिमानों जाती है। अतः दोनो ग्रासनो मे से कोई एक भासन को हम चाहे मुनि अवस्था की भी माने तो भी वे पंच वाली गलत है, अवास्तविक है।। परमेष्ठी मे गभित होने से परम पूज्य ही है। वैसे ये सब समाधान- (१) प्रतिमा सब अरिहंतो की है । इसी प्रतिमायें जो अरिहंत हुए है उन्ही की बनाई गई है। से दोनों प्रासनों में बनाई गई है। जटा भौर फणामंडप शास्त्रों में केवली के भेदों मे सोपसर्ग केवली भी। का अंकन भूतकालिक जीवन की विशिष्ट घटना के बताये गये है, जबकि केवली अवस्था मे उपसर्ग नही स्मारक रूप मे है। होता। उपसर्ग-युक्तो को केवली कहना जिस तरह (भूत या ना जिस तरह (भूत या (२) २४ तीर्थकरों के शरीर का जैसा प्राकार भावी) नैगमनय से निर्दोष है, उसी तरह इन प्रतिमानों को लंबाई-चौडाई) तथा रग था. वही जब प्रतिमाओं में भी अरिहत की कहने या मानने में कोई दोष नही है। नही है फिर भी वे उन्ही की वास्तविक मानी जाती है सभी जन प्रतिमायें कायोत्सर्ग अवस्था में लीन होती तो प्रासनो के अन्तर से प्रवास्तविकता नहीं हो सकता। है इनमे से अनेक प्रष्ट प्रातिहार्यादि से युक्त भी होती है। (३) अगर ये जटा और फणामडप किसी एक खास इसी कारण इन्हे समवशरण कालीन बताना सगत नहीं प्रामन मेश्री सम्बन्ध रखते. मरे ग्रासन से संभव नहीं है, क्योकि समवशरण मे के बली पद्मासन से ही विराज- होमकले होते. तब फिर भी अवास्तविकता की बात मान रहते है, जब कि अष्टप्रा तिहार्यादि से युक्त प्रतिमायें होती। किन्तु ऐसा है नही। इनके होने में कोई प्रासन खड्गासन मे भी पाई जाती है। अतः यह प्रष्ट प्रातिहा बाधक नही है; जैसे बाहबली स्वामी की प्रतिमा र्यादि भी तीर्थकरों के अतिशय को द्योतित करने की खड़गासन मे ही होती है। खड़गासन मे बेलों मादि का दृष्टि से ही अकित किये जाते है। अनेक प्रतिमाये अंकन ठीक हो जाता है, पद्मासन में नही। इसी से बाहसामान्य केवलियों की और सिद्धो की भी होती है। उनके बली प्रतिमा पद्मासन मे नही पाई जाती। बाहुबली कोई समवशरण और अष्टप्रातिहार्य होते ही नहीं है । तीर्थकर नही हुए है, अरिहत अवश्य हुए है, फिर भी स्वामी समन्तभद्राचार्य ने लिखा है : . इनके जीवन की दुर्धर तपस्या को प्रदर्शित करने की देवागमन भोयान चामरादि विभूतय । दृष्टि से ही इनकी प्रतिमायें बनाई जाती है। मायाविश्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ।। ये सब दिगम्बर कायोत्सर्गावस्था मे होती है। प्रतः अर्थात-देवताग्रो का पाना और चमर ढोरना, प्रापका परम पूज्य है। प्राकाश गमन मे प्रादि अतिशय तो मायावियों (चक्र. हम नित्य देव दर्शन करते है। हमारा मुख्य उद्दश्य वर्तियों) मे भी पाये जाते है, इसी से प्राप महान् नही है। वीतराग-स्वरूप दिगम्बर कायोत्सर्ग मुद्रा की मोर ही ___ बहुत सी तीर्थंकर-प्रतिम'यें भी प्रष्टप्रातिहार्यादि होना चाहिए, तभी दर्शन की सफलता है। प्रतिमा संगसे रहित पाई जाती है। (उनके तीर्थ करत्व की पहिचान मरमर की है या रत्नों की, पीतल की है या सोने की, उनके चिह्नो से होती है)। ग्राजकल की तो सभी प्रति- काली है या सफेद, खड्गामन है या पद्मासन, प्रष्टप्रातिमायें प्राय: प्रष्टप्रतिहार्यादि से रहित ही होती है। ये हार्य युक्त है या रहित, ऋषभनाथ की है या महावीर की, भी सब पूज्य है और अरिहत की ही है। छोटी है या बड़ी, सोने के छत्र-भामडलादियुक्त है या Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. वर्ष ३०, कि०१ अनेकान्त रहित, सुन्दर मुस्कराती है या सामान्य, प्राचीन है या जैन प्रतिमा में उत्कीर्ण नही होती, फिर भी ऊपर से उन्हें पर्वाचीन, मनोहर मन्दिर वेदी में है या अन्यत्र इत्यादि किसी भी तरह शृंगारित-भूषित करना दूषण है। मगर सब विकल्प गौण हैं। जैन प्रतिमा किसी सामान्य पुरुष रूप में बनाई जाती, तो वस्तुत: जैन-प्रतिमा-निर्माण का उद्देश्य दि० कायो- फिर भी ऊपर से उस पर इच्छानुसार शृंगारादि सम्भव त्सर्ग ध्यानमुद्रा को ही सिर्फ बताना रहा है। अतः वे हो सकता था, किन्तु वे तो बनाई ही निर्गन्थ ध्यान-मुद्रा समस्त सांसारिक विषयों से विमुख, रागद्वेषरहित, वीत. में जाती हैं। प्रत. ऊपर से उन्हें शृंगारित-सरागी करना राग-स्वरूप होती हैं । उनके शरीर पर शस्त्रास्त्र, वस्त्रा- उनकी विडंबना है। यह सब एक तरह की प्रसंगत विकृत भूषण, केश-सज्जा, फूल, शृंगार, मकूट, कुण्डल, वाद्यादि प्रक्रिया हैं। नहीं होते ; स्त्री, पुत्र, भाई, मादि, परिकर, अगरक्षा, वाहन मादि भी वे धारण किये हुए नहीं होती। ये सब चीजें केकड़ी (अजमेर) राजस्थान 000 (पृ. ७ का शेषांश) मूर्ति क्रमांक २०८ व २०६ में पार्श्वनाथ व ऋषभनाथ शहपुरा से प्राप्त ऋषभनाथ एवं पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं अंकित हैं। दोनो काले स्लेटी पाषाण से निर्मित है। ये सम्प्रति जिला संग्रहालय, मंडला में संरक्षित है। पाश्वनाथ दोनों प्रतिमायें उज्जैन से ही उपलब्ध हुई थी। यहां की प्रतिमा पदमासन में ध्यानमग्न है। ४८"X ३०" संगहीत १० प्रतिमायें सर्वतोभद्र महावीर की है, जिन आकार की इस प्रतिमा के पैर खंडित है । सिर पर सप्तपर पारदर्शी वस्त्र है। सभी में तीर्थकर पद्मासन मे फणों का वितान एवं त्रिछत्र है। पादपीठ के दोनों भरि ध्यानमग्न मुद्रा में है । ये भी उज्जैन से ही प्राप्त सबसे नीचे पूजक एवं विद्याधर अंकित है। हुई थीं। ____ मंडला जिले के शहपुरा, कुकरमिठ एवं बिझीली उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मध्यनामक स्थलों से भी जन प्रतिमायें प्राप्त नईम काल में मध्यप्रदेश के विस्तृत भूभाग मे अन्य धमों के निवास मार्ग पर, निवास तहसील से २ मील की दूरी पर साथ-साथ जैन धर्म का भी अच्छा प्रचार एवं प्रभाव था। एक वृक्ष के नीचे भगवान शांतिनाथ की एक कलात्मक एवं इन इन जैन प्रतिमानों की मध्यप्रदेश की संस्कृति को अभूतपूर्ण सुरक्षित प्रतिमा है। डिन्डोरी तहसील के निकट पूर्व दन है। कुकरमिठ नामक ग्राम के प्राचीन देवालय के सामने व्याख्याता, शासकीय महाविद्यालय, पार्श्वनाथ एवं ऋषभनाथ की प्रतिमायें रखी हुई हैं। डिन्डौरी (मण्डला), मध्यप्रदेश 000 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात तत्त्व 10 श्री बाबूलाल जैन, दिल्ली ससार मे हमें क्या-क्या जानना जरूरी है ? जमे मोक्ष-प्रात्मा का कर्मों मे छुट जाना-अनन्त सुख । बीमार प्रादमी को यह जानना जरूरी है कि मेरे रोग किम इनको भी दो प्रकार से ममझना है, एक द्रव्य रूप कारण से हुअा है, अब रोग मिटने का क्या उणय है और और दूसरा भाव रू.प। ज्ञानावरणादि कर्मों का पाना द्रव्य रोग होने से मेरी क्या दशा हई है और निरोग होने पर प्राश्रव और प्रात्मा के व परिणाम जिनकी बजह से मैं कैसा हो जाऊँगा? इसी प्रकार, व्यक्ति को यह जानवरणादि कर्म पाते है, उन परिणामो को भाव प्राश्रय जानना जरूरी है कि मैं कौन हूँ, मेरी ऐसी दशा क्यों हुई कहते है। असल में जीव का पुरुषार्थ प्रत्यक्ष (डाइरेक्ट) है और यह दशा कैसे मिट सकती है, फिर मैं कैसा हो रूप में कर्मों के माथ नही है परन्तु हम तो अपने परि. जाऊंगा; अथवा यों कहना चाहिए दुःख का कारण पोर णामों में पुरुषार्थ करते है जिससे कर्म प्राने बन्द हो जाते सुख का कारण क्या है यह जानना जरूरी हैं । इस बात को है । इसलिये उन परिणामो की पहचान होना जरूरी है हम भिन्न रूप से भी रख सकते है। मैं कौन हूं--जीव हूं, जो कर्म के आने के कारण है और जिन परिणामो को मेरे साथ जिसका सम्बन्ध है, वह अजीव है--अजीव में भावाश्रव कहते है। यही बात अन्य के बारे में है। बन्ध जीवपने की मान्यता अथवा जीव में अजीवपने की मान्यता भी दो प्रकार का है-एक द्रव्य बन्ध और दूसरा भाव यह दुःख है-दुख का कारण प्राश्रव है और बन्ध है। बन्ध । द्रव्य बन्ध कर्मों का पाठ प्रकार का बन्ध है। भाव अजीव से भिन्न जीव का अपने रूप मे रहना मोक्ष है अथवा बन्ध प्रात्मा के वे परिणाम है जिनसे द्रव्य कर्म बन्ध को सुख है उस सुखका कारण संवर और निर्जरा है। तब यह प्राप्त हो जाते है । छोड़ना तो परिणामो को है इसलिए कि हमको (१) जीव, (२) अजीव, (३) प्राश्रव, (४) उन भावो को समझना जरूरी है जिनसे कर्म बन्धते है । बंध, (५) संवर, (६) निर्जरा और (७) मोक्ष इन सात । वे भाव कितने है ? यह बताया है कि (१) मिथ्यात्व तत्वो को जानना जरूरी है, क्योंकि जीव मैं हं, अजीव के रूप याने 'पर' में अपनापना मानना, अपने को 'पर' रूप साथ सम्बन्ध हो रहा है इसलिए जीव को जानना भी मानना अथवा अपने आप को नही पहचानना पथवा जैसी जरूरी है और अजीव को जानना भी जरूरी है। प्रात्मा वस्तु है उसको उम रूप न मानकर अन्यथा रूप मानना, से कर्मों का बन्ध हुमा है इसलिये दुःखी है। इसलिए यह एक मूल कारण है और इसका प्रभाव हुए बिना बाकी पाश्रव-बन्ध दुःख के कारण है। मोक्ष सुख रूप है के अन्य कारणों का प्रभाव नही हो सकता। अन्य कारण और संवर-निर्जरा सुख का कारण है । 'पर' मैं (२) अति, (३) कषाय और (४) योग है । इनमे प्रधान अपनापना मानना सो तो मोह और राग द्वेष का कारण मिथ्यात्व है। उसका प्रभाव होने पर बाकी के कारण जनक अर्थात् प्राश्रव-बन्ध है और ठोक इससे उल्टा याने जली जेवड़ी के माफिक रह जाते है। पहले इसी कारण निज में निजपना मानना यह प्रज्ञानता का अभाव है और के प्रभाव करने का वास्तविक पुरुषार्थ करना होता है । संबर और निर्जरा का कारण है। ऊपर-नीचे रक्खे हुए घडों में अगर पहले नम्बर का घड़ा पाश्रव-कर्म के आने का द्वार । सीधा हो जाता है तो बाकी तो अपने पाप सीधे हो जाते बन्ध-कर्म का मात्मा के साथ बन्ध जाना-दुख हैं। इसके बाद का कारण कषाय है । कषाय में प्रवत भी का कारण। पा जाता है और प्रमाद भी पा जाता है। मिथ्यात्व के संवर-कों को पाने से रोकने की डाट। गए बिना कषाय का प्रभाव नही हो सकता। निजरा-इकट्ठहुए कमा का नाश होना-सुख का यह समझना जरूरी है कि राग-द्वेष बंध के कारण कारण । हैं। जितने अंश में राग होगा उतने प्रश में बंध जरूर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ३०, कि. १ प्रनेकान्त होगा। राग से संवर और निर्जरा नही हो सकती । जो जो पुराना कर्म अस्तित्व में पड़ा है उसका स्थिति-अनुभाव कर्म पाने का कारण है वही कम रोकने का कारण नही कम हो जाता है। जितनी-जितनी निर्मलता बढ़ती है हो सकता, अन्यथा विपरीतता हो जाएगी। कही पर ऐसी पहले बधे हुए कर्म का स्थिति-अनुभाव कम होता जाता है, अवस्था भी होती है जहां मिश्रित भाव होता है और जब वह उदय में प्राता है उस समय जितने अनुवहां जितना निर्मलता का अश है वह सवर-निर्जरा का भाव को लेकर बधा था उतना अनुभाव उदय काल में कारण है, जो मलिनता का प्रश है वह नो बंध का नही रहता; जैसे, हो सकता है कि ६० प्रतिशत अनुभाव ही कारण है। जहां कही इस मिश्र अवस्था को मंवर का वाला कर्म जन उदय को प्राप्त हो तब ४० प्रतिशत अनुभाव कारण लिखा है, वहां ऐमा समझना चाहिए कि राग से को लेकर ग्रावे। इसलिए ऐसा तो नियम है कि उदय के संवर नहीं, राग से तो बंध ही है, परन्तु साथ रहने अनुमार परिणाम होंगे पोर परिणामों के अनुसार बंध वाली निर्मलता से संवर-निर्जरा है, इसलिए उपचार होगा, परन्तु बंध के अनुसार उदय होगा ऐसा से, राग घटने की मख्यता से, कथन किया गया है। दो नियम नही है । निज मे निजपना पाने के बाद जितना गलतिया जीव से होती हैं-पहली 'पर' में अपनापना और निज मे ठहरने का पुरुषार्थ करता है, वह व्यवहार है दूसरी अपने ठहरने में प्रात्मबल की कमी। पहली गलती और जितना निज मे ठहरता है वह परमार्थ है जिससे मिथ्यात्व कहलाती है और दूसरी गग-द्वेष । अपने मे कर्मों का प्रभाव होकर प्रात्मा शुद्ध हो जाती है। जब निज अपनापना प्रा गया, इसलिए मुल संसार का कारण तो ठहरने की चेष्टा करता है तो उतने मात्र से कम हलि होने छुट गया परन्तु अभी तक प्रात्मबल की कमी की वजह से लगते हैं। बाहर से देखने वाला कहता है कि इसने कर्म काटे 'स्व' में ठहर नही सकता, तब 'पर' में परणति होती है। है, शरीर मन-वचन-काय का निरोध किया है और राग-द्वेष प्रात्मबल की कमी से 'पर' का प्राश्रय लेना पड़ता है। को मिटाया है। अमल मे भीतर से देखें तो यह समझ में यह जो 'पर' का अवलम्बन है वही राग-द्वेष है । इन्ही को प्राता है कि हमने तो निज मे ठहरने का पुरुषार्थ किया शास्त्रीय भाषा में दर्शन मोह और चारित्र-मोह के नाम है. ोमा करने पर बाहर में राग-द्वेप भी मिटे है, योग का से कहा गया है। दर्शन-मोह याने दृष्टि का, समझ का, प्रभाव भी हना है, कर्म भी कटे है। इसलिए मूल ज्ञान का मोहित होना अथवा विपरीत होना और चारित्र बात मात तत्वों में यही रही कि जीव को जीव रूप समझे, मोह याने निज में ठहरने के पुरुषाधं का न होना । इसको अजीव को अजीव रूप मममें और फिर अजीव से हटकर इस प्रकार भी समझ सकते है। जब तक अपने में जीव मे ठहरने का पुरुषार्थ करे।। अपनापना नहीं पाता तब तक अपने में ठहरने का पुरु- इमको फिर इस प्रकार समझना है . पहले द्रव्य और षार्थ भी कैसे हो सकता है, और जब दोनो प्रकार का कार्य भाव रूप सात तत्वो को जानें। शास्त्र के माधार पर हो जाता है, याने निज में निजपना पा जाता है और फिर जान लेने से मात्र प्राश्रव-बध के बारे मे तो जानकारी निज में ठहर जाता है तो अन्तरमहूर्त काल में, अनन्तकाल होगी परन्तु अभी भी पाश्रव-बघ को जानना बाकी रह का पड़ा हुमा जो 'पर' में रमण करने का पुरुषार्थ है वह जाएगा। इनके बारे में जानना शास्त्र से होता है। परन्तु टूट जाता है । इसलिए पहले यह समझना जरूरी है कि इनको जानना अपने में पहचानने से होता है । इसलिए इन अन्तर में होने वाला 'पर' से एकपना और राग-द्वेष येही मातों का शास्त्र से जानना तो इनके बारे में जानना है बंध के कारण है। इसके विपरीत अपने में अपनापना सवर और इनको अपने मे जानना सो वास्तव मे इनको जानना का कारण है और क्योंकि राग-द्वेष बध का कारण था, है। इसलिए इनके बारे में जान लेने पर भी इनका जानना इसलिए उससे विपरीत वीतरागना निर्जरा का कारण है। बाकी रह जाता है और इनके जाने बिना सम्यकदर्शन मोक्ष मार्ग मे दो कार्य एक-साथ होते है-वर्तमान नही होता। इस प्रकार मुख्य तो इनको जानना है । यहा निर्मल परिणामों से नया कर्म नही पाता भोर दूसरा, पर भी दो दृष्टिया हैं-एक श्रव-बंध-सवर-निर्जरा को Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात तत्त्व जानना है और एक उसको जानना है जो प्राश्रव-वधसंवर. निर्जरा मोक्ष रूप परिणमत कर रहा है। परिणमन करने वाला वही है और परिणमत अलग अलग है; जैसे नाटक मे पार्ट करने वाला वही है परन्तु कई प्रकार के कर रहा है। पार्ट को जानना एक दृष्टि है । जहां ऐसा बनता है यह वह नहीं जो पहले था परन्तु पार्ट करने वाले पर दृष्टि जाती है तो यह बनता है कि यह वही है जो पहले यमन कर रहा था। इस प्रकार दो बाते है, एक यह निश्चय करना है कि वह जीव कहां मिलेगा - या तो आश्रवरूप, बधरूप अवस्था मे मिलेगा या संवर- निर्जरा रूप अवस्था मे मिलेगा, या संसार मे मिलेगा, या मोक्ष मे । दूसरी यह कि उन-उन स्थानों में स्वय जीव को खोजना है; जैसे किसी किसान को पकड़ने के लिए यह जानना जरूरी है कि वह कहांकहा मिलेगा और उस जगह का ज्ञान उसको खोजने के लिए जरूरी है । परन्तु उस जगह का ज्ञान उस किसान को पकड़ने के लिए है। उसको नहीं पकड़ना है, पकड़ना उस जगह रहने वाले किसान को है। इसलिए सात तत्त्वों का जानना भी जरूरी है। परन्तु उनमे भी पकड़ना उस जीव तत्त्व को है जो सान रूपों में जाते हुए भी अपने एकस्वपने को नहीं छोड़ता। नव तो सात तत्त्वों का ज्ञान सच्चा ज्ञान कहलावेगा, अन्यथा प्रगर जीवतत्त्व को नहीं पकड़ा तो सात तत्त्वों का ज्ञान भी बाहरी बाहरी रह जायेगा। इन सात तत्त्वों के जान मे देव शास्त्र गुरु का स्वरूप भी आ गया, क्योकि राग वध का कारण है, इसलिए हेय है। वीतरागता संनिग का कारण है इसलिए उपादेय है, अथवा राग दुख का कारण है, दुःख रूप है, वीतरागता सुख का कारण है, सुख रूप है। जिसने समस्त राग का नाश करके. पूर्ण वीतरागता को प्राप्त कर लिया वही हमारा ध्येय है, लक्ष्य है, परमात्मा है । ओ वीतरागता की साधना में लगा है वह साधु है और Satara की प्राप्ति के मार्ग को बतलाता है वह शास्त्र है। इसलिए जिसने यह जाना कि राग हेय है, उसके मे राग और रागी दोनो के प्रति उपादेयता, भक्ति नही हो सकती । यही कारण है कि उसके हृदय में १६ राग और रानी दोनों के प्रति उपादेयता भवित नहीं हो सकती। यही कारण है कि उसके हृदय मे रागी के प्रति अनुराग नही रहता। अगर रहता है तो समझना चाहिए कि अभी राग में उपादेयपना है और राग मे उपादेयपना है तो अभी तत्व को विपरीत मान रखा है। राग का छूटना देरी से हो सकता है, परन्तु राग में उपादेयपना नहीं रह सकता। अगर राग से सवर-निजंग मानता है तो राग में उपादेयता श्राने से तत्त्व विपरीत हो जाता है। मद राम की भूमिका में वीतरागता का पुरुषार्थ किया जा सकता है परन्तु इससे स्वयं राग उपादेय नहीं हो जाता । यह बात तो ठीक है कि जीव का मात्र एक ही पुरुषार्थ है; वह यही है कि सर्व प्रकार से चेष्टा करके, निजाम स्वरूप का निर्णय करे और फिर उसी मे रमण कर जाए और ऐसा रमण कर जाए कि बाहर पाने की कोई जरूरत ही नही रहे और परीषह, उपसर्ग भ्राने पर भी उससे विच लिन न हो, तो ग्रन्तर मुहूर्त काल मे परमात्म पद को प्राप्त कर ले | बस इतना ही पुरुषार्थ है और इतना ही करने योग्य कार्य है, इसके अलावा जो कुछ है वह तो कर्म का कार्य है; उसमे हमारा पुरुषार्थ चल ही नहीं सकता । लोग मानते है कि हमारा पुरुषार्थ उसमें है परन्तु यह मात्र भ्रान्ति है जिनको निज पुरवा की पर नहीं है वे ही ऐसा मानते है परन्तु सवाल यह पैदा होता है कि जब तक निज स्वरूप की प्राप्ति न हो मके तब तक हमारी स्थिति क्या होनी चाहिए ? उसका यह उत्तर है कि अगर वाकई में हमे निज स्वरूप की रुचि हुई है, हम निज स्वरूप को प्राप्त करना चाहते हैं, तो यह निश्चित है कि हम ऐसा ही आय करेंगे कि जो निज स्वरूप के जानने वाले है, उनके निकटवर्ती हो, निज स्वरूप को जिन्होने प्राप्त किया, उनके प्रति विनय को प्राप्त हो; निज स्वरूप के कथन करने वाले शास्त्रों का अध्ययन करे और जहा पर निज स्वरूप का निषेव हाता हो वहां से बचें, हटे । यदि कोई व्यक्ति धन को प्राप्त करना चाहता है तो वह यह जानने की चेष्टा करेगा कि.. पहले किस-किस ने धन को प्राप्त किया है। उसके जीवन को जानना चाहेगा, उन्होंने कैसे प्राप्त किया यह गा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, बर्ष ३०, कि०१ अनेकान्त उनके निकटवर्ती होने की चेष्टा करेगा और उनके प्रति है, इसमे निज स्वभाव का तिरस्कार है। अगर हम एक विनय को प्राप्त होगा। अगर ऐसा नही होता तो सम. बड़े प्रादमी के खड़े रहते एक मामूली प्रादमी का प्रादर झना चाहिए कि अभी उसके निज तत्त्व को पभिरुचि भी करते है तो उस बडे प्रादमी का तिरस्कार हो जाता है, मही हुई है, वास्तविकता नही पाई है। सच्ची रुचि होने अगर भगवान चैतन्य स्वभाव के रहते 'पर' का, धन का, पर जब तक निजतत्व को प्राप्त न कर ले तब तक जिन वैभव का, शरीर का, कर्म का, पुण्य का, मादर मा रहा उपायों से निज तत्त्व की पुष्टि होती है उन सभी के प्रति है, उसकी महिमा पा रही है तो समझना चाहिए कि तूने उसका सदभाव रहेगा । जैसे अपने पुत्र से दूर रहने वाली भगवान चैतन्य का अपमान किया है, और 'पर' मे रस स्त्री अपने पुत्र की फोटो के प्रति भी पुत्रवत् प्रेम का पा रहा है तो समझना चाहिए भगवान चैतन्य का रस व्यवहार करती है। उसी प्रकार निज तत्त्व की खोज तेरा विरस हो गया है। अगर तेरी चेतना बाहर बह करने वाला, जिन लोगों ने निज तत्त्व को प्राप्त किया रही है तो भीतर मे तू खाली है, दरिद्री है। जो भीतर उनकी स्थापना के प्रति भी विनय को प्राप्त होगा। यदि का दरिद्री होता है, खाली होता है, वही उस खालीपन उसको निज तत्त्व के प्रति वाकई मे रुचि हुई है तो यह को बाहर से, 'पर' से, भरने की चेष्टा करता है। 'पर' उसकी पहचान है। धन की रुचि वाला घनिक के नज- से वास्तव मे भरा नही जा सकता परन्तु अपने को भ्रम दोकवर्ती होगा, गरीब के नही। वैसे ही निज स्वरूप को मे डाल लेता है। अगर दृष्टि बाहर 'पर' पर जा रही है, प्राप्त करने वालों के ही वह नजदीकवर्ती होगा, जो निज तो तेरी दृष्टि व्यभिचारिणी है, पर-पुरुष पर दृष्टि रखने स्वरूप से बाधक है उनके नही। निज स्वरूप की प्राप्ति वाली स्त्री की तरह, परधन पर दृष्टि रखने वाले में जो रुकावट होगे उनसे परहेज करेगा, यह स्वाभाविक चोर की तरह । तेरी दृष्टि अगर बाहर मे है तो भीतर है, और ऐसे निज स्वरूप की रुचि का होना ही वास्त- से तू अन्धा है। तो भाई अगर अन्तर दृष्टि की प्यास विक शुभ भाव है। लगी तो तू कहां जा सकता है ? अगर बाहर गया भी तो ___ इसी प्रकार, जब वह निज स्वरूप मे नही ठहर सकेगा वही तक जाएगा जहां से निज वस्तु मे फिर पुरुषार्थ तो बाहर पायेगा। तब 'पर' मे तो पाया परन्तु वहा जागृत हो सके । 'पर-पर' में भेद करेगा । एक 'पर' वह है जहाँ से आगे इसलिए अगर भीतर से बाहर आया है तब भी, और छलाग निज स्वरूप में लगाई जा सकती है, जैसा ऊपर बाहर से भीतर जाना है तब भी, तेरा ठहराव प्रगर बता चुके है, निज स्वरूप को प्राप्त करने वालों के वास्तविक निज स्वरूप मे है तो निज स्वरूप को साक्षात निकटवर्ती होकर । एक जगह वह है जहा निज स्वरूप का प्राप्त करने वाला भगवान सर्वज्ञ, निज स्वरूप का कथन निवेष वतंता है, जहा से निज स्वरूप में छलाग नही करने वाला उनको वाणी, पोर निज स्वरूप को साधना सगाई जा सकती। वहा स्थिरता न करके इस पहले वाली में लगे साधु को छोड़कर कहा जाएगा? उनको ही भूमि पर हो ठहरना है। परन्तु इसको भी निज धर तो महिमा पाएगी, उनके प्रति ही विनय को प्राप्त होगा। महो मानना है। इसी को शुभ भाव कहते है, यही वास्तविक पुण्य है, हमारे जीवन परिवर्तन में पहला सवाल है कि चतना क्योकि योगसार मे लिखा है कि जो प्रात्मा को स्वाधीन बाहर की तरफ बह रही है कि अन्तर की तरफ, दष्टि बनावे उसे पुण्य कहते है और प्रात्मा को पराधीन बनाय बाहर 'पर' के ऊपर है कि अन्तर में 'स्व' के ऊपर- उसे पाप कहते है। उपयुक्त स्थिति हो प्रात्मा की स्वा. महिमा 'पर' को पा रही है कि 'स्व' की-रस 'पर' में प्रा धीन बनाने वाली है। जो धन, वैभव, भोग-सामग्री कर्म रहा है कि 'स्व' मे---सभी बातों का एक ही उत्तर है और से मिलती है वह तो प्रात्मा के लिए पराधीनता का सभी एक ही गवाल है। अगर धन की, शरीर की, महिमा कारण है, वह प्रात्मा के लिए हितकारी कैसे हो सकती है। प्रा रही है ता इम 'पर' की महिमा में 'स्व' का तिरस्कार Ova Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातत्वीय स्रोत तथा भगवान महावीर 0 प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, सागर भगवान महावीर के जीवन-काल में उनकी चन्दन मथुरा से कंकाली टीला से तथा कौशाम्बी प्रादि अन्य की प्रतिमा निर्मित होने के उल्लेख कतिपय जैन ग्रन्थों मे स्थानों से गुप्तकाल के पहले की तीर्थकर-मूर्तियां प्राप्त मिलते है। अनुश्रुति के अनुसार, भगवान महावीर की हुई है। भगवान् महावीर के अतिरिक्त प्रादिनाथ, चन्दन की प्रतिमा सिघसौवीर के शासक उद्दायण पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ, नेमिनाथ तथा मनिसुव्रत की (रुद्रायण) के अधिकार मे गई। बाद में उनसे उसे मूर्तिया विशेष उल्लेखनीय है । इनका पता कतिपय विशिष्ट शासक प्रदयोत ने ले लिया और मूर्ति को चिन्हों तथा उन पर अकित लेखों से चलता है। अनेक विदिशा नगरी में रखा। उसकी एक प्रतिकृति बनवाकर प्रारंभिक मूर्तियों पर लांछनो का प्रभाव है। लाछनों का बीत भयपट्टन नामक नगर में रखी गई। देवयोग से प्रयोग गुप्तकाल के बाद व्यापक रूप से मिलने लगता है। भारी तूफान आने के कारण यह प्रतिकृति नीचे दब गई। उसके दबने से सारा नगर नष्ट हो गया। श्री हेमचन्द्रा मथुरा तथा कौशाम्बी में पत्थर के बने हुए वर्गाकार चार्य के अनुसार, गुजरात के प्रसिद्ध शासक कुमारपाल ने या पायाताकार 'प्रायाग-पट्ट' मिले है। पूजा के लिये इस प्रतिकृति को निकलवाकर उसे अणहिलपाटन नगर मे इनका प्रयोग होने के कारण इन्हें 'पायागपट्ट' कहा प्रतिष्ठापति कराया। जाता था। अनेक पट्टो पर बीच में ध्यानमुद्रा में पदमाभगवान महावीर की इस चन्दन प्रतिमा के आधार सन पर अवस्थित तीर्थंकर मूर्ति है। उसके चारों और अनेक सुन्दर प्रलकरण तथा प्रशस्ति चित्र बने है। पर कालान्तर में अन्य मूर्तियो का निर्माण हुआ होगा। प्रायागपट्रो का निर्माण ईसवी पूर्व प्रथम शती से प्रारम्भ कन्निग के प्रसिद्ध शासक खारवेल का एक अभिलेख हुमा । उन पर उत्कीर्ण लेखो से ज्ञात होता है कि उनमें भुवनेश्वर के समीप हाथीगुफा में मिला है। इस लेख मे से अधिकाश का निर्माण महिलामो की दानशीलता के लिखा है कि कलिंग मे तीर्थकर की एक प्राचीन मूर्ति थी जिसे मगध के शामक नंद अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले कारण हया । मन्दिरों, विहारों तथा मूर्तियों के निर्माण गये । लेख मे आगे लिखा है कि खारवेल ने पुनः इस मे पुरुषों की अपेक्षा स्त्रिया अधिक रुचि लेती थीं। प्राचीन शिलालेखो से इस बात की पुष्टि होती है। प्रतिमा को मगध से कलिंग मे लाकर उसकी प्रतिष्ठापना की। इस उल्लेख से ईसवी पूर्व चौथी शती मे तीर्थकर कुषाण-काल (ई० प्रथम-द्वितीय शती) से जैन 'सर्वतोभद्रिका' प्रतिमानों का निर्माण प्रारम्भ हमा। इन प्रतिमा के निर्माण का पता चलता है। पर चारो दिशामो मे प्रत्येक प्रार एक-एक जिन-मूर्ति यहां जीवन्तस्वामी-प्रतिमा का परिचय दे देना पदमासन पर बैठी हुई या खड्गासन मे खड़ी हुई मिलती प्रावश्यक है। तपस्या करत हुये महावीर स्वामी की एक है। ये तीर्थकर प्राय. प्रादिनाथ (ऋषभनाथ), पारनाथ, संज्ञा 'जीवन्तस्वामी' हुई। कुछ ग्रन्थो के अनुसार, यह संज्ञा नेमिनाथ तथा महावीर है। उनकी प्रारम्भिक अवस्या को द्योतक है, जब वे मुकुट मध्यप्रदेश के धुवेला-सग्रहालय में एक अत्यन्त सुबर तथा अन्य विविध प्राभूषण धारण किये हुये थे । अकोला सर्वतोभद्र-मूति है, जो पूर्व मध्य काल की है। उस पर से इस स्वरूप में भगवान की एक अत्यन्त कलापूर्ण प्रतिमा उक्त चारों तीर्थकरी के चिह्न भी अकित है, जिससे उनके मिली थी। यह मूति कासे की है और प्रब बड़ौदा के संग्रहा- रचानने में कोई मटेड लय में प्रदर्शित है । भगवान् ऊचा मुकुट तथा अन्य अनेक सर्वतोभद्रिका-प्रतिमा की परम्परा मध्य काल के पल माभषण पहने है। उनके मुख का शांत, प्रसन्न भाव तक जारी रही। मथरा से प्राप्त अनेक सर्वतोभद्रिका दर्शनीय है। मृति पर ईसवी छठी शती का ब्राह्मी लेख मतिया अभिलिखित है और मृति-विज्ञान को दष्टि से लवा. जिसके अनुसार यह जीवतस्वामी की प्रतिमा है। बड़े महत्व की है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त गुप्त युग तथा पथकान से निर्मित भगवान महावीर शाल, माम्र प्रादि महत्वपूर्ण वृक्ष माने जाने लगे और की प्रतियां बड़ी सभा में न हुई है। कुछ ऐसे शिला- इनका प्रदशन तीर्थङ्कर प्रतिमामों तथा उनके शासनगप्तकाल से उपलब्न होने लगते है, जिन पर चौबीमों देवताओं के साथ किया जाने लगा । चैत्य वृक्ष ही मदिरों रों का एक साथ प्रकन मिलता है। गुन युग तथा के प्रारंभिक रूप मान्य हुए। यद्यपि माधुनिक अर्थ में विशेष कर मध्यकाल मे तीर्थकर प्रतिमा के अगल-बगल प्राचीनतम जिन-मदिरो के स्वरूप का स्पष्ट पता हमे नही पर-नीचे अनेक देवी-देवताग्रो एवं यक्ष, सुपर्ण, है, पर इतना कहा जा सकता है कि अनेक मंदिर ईसा से विद्याधर प्रादि के चित्रण भी मिलते है । ये भगवान के प्रति कई सौ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आ चुके थे। सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए प्रकित मिलते है। वैशाली के ज्ञातृ कुल मे वैशाली नगरी के समीप कर महावीर की गुप्तकालीन कतिपय मूर्तिया भारतीय ग्राम मे (माघनिक 'वासुकुड') मे ई. पूर्व ५६ मे भगकला के सर्वोत्तम उदाहरणों मे गिनी जाती है। वान महावीर का जन्म हुमा। उनके पिता सिद्धार्थ इस भगवान् की शात. निश्चल मुद्रा को प्रदर्शित करने मे कुल के मुखिया थे। महावीर की माता त्रिशला विदेही कलाकारों ने अत्यधिक सफलता प्राप्त की। मूतियां वैशाली के चेटक नरेश को बहन थी। प्राचीन जैन ग्रंथो मे अधिकतर पदमासन में मिलती है। सिर पर कचित केश महावीर स्वामी की 'विदेहसुकुमार' तथा 'वैशालिक' नाम तथा वक्ष पर वयं मानक्य' चिन्ह मिलता है। अग-प्रत्यगो भी दिए गए है। उन्होने दक्षिण बिहार पर्वतीय तथा जागकी गठन बड़ी सुगढ होती है। लिक प्रदेश में अनेक वर्ष बिताये । इससे यह स्वभाविक था तीर्थकर महावीर स्वामी के मन्दिरो का निर्माण कब कि वह क्षेत्र महावीर स्वामी के उपदेशों का विशेष पात्र से प्रारम्भ हमा, यह एक विवादग्रस्त बात है। प्राचीन होता। जैन अनुश्रुतियो के अनुसार, राजगह महावीर जन प्रागमों में प्राय. तीर्थकर-मन्दिरो का उल्लेख नही स्वामी को मवमे अधिक पसंद था। उन्होंने चौदह वर्षामिलता। महावीर स्वामी प्रपने भ्रमण के समय मन्दिरो वास राजगृह तथा नालदा में किये । राजगह में महावीर मे नही ठहरते थे, बल्कि 'चैत्यो' मे विश्राम करते थे। के पूर्वज तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत का जन्म हम्रा था। मुनिइन चैत्यों को टीकाकारो ने 'यक्षायतन' (यक्ष का पूजा- सुव्रत का नाम मथुरा से प्राप्त द्वितीय शती की प्रतिमा स्थल) कहा है। भारत में यक्ष पूजा बहुत प्राचीन है। पर सर्वप्रथम उत्कीर्ण मिलता है। या पानों में की जाती थी। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान महावीर का भगवती सत्र नामक जैन ग्रंथ के अनुसार भगवान महावीर निवाण बहत्तर वर्ष की आयु में पावापुरी मे प्रा। ने 'पृथिवी-शिलापट्ट' के ऊपर बैठकर एक वृक्ष (शाल) अनेक विद्वान् बिहार प्रदेश के वर्तमान नालदा जिले में के नीचे तप किया, जहा उन्ह सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति हुई। स्थित पावा को प्राचीन पावापुरी मानते है। परन्तु इसे प्राचीन नगरी मानने में एक कठिनाई यह है कि यहा भगवान बुद्ध ने पीपल-वृक्ष के नीचे बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था । बुद्ध के उस पासन का नाम 'बोधिमड' प्रसिद्ध बहुत मानीन पुरातत्त्वीय अवशेष नही मिले हैं। विद्वानो हमा । उसका पंकन प्रारम्भिक बौद्धकला में बहुत मिलता का दूसरा वर्ग प्राचीन पावापुरी को स्थिति उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में मानता है। इस जिले के फाजिलनगर है, जिसकी पूजा का बड़ा प्रचार हुमा । बोधिमड तथा बद्ध से संबंधित बोधिवृक्ष, धर्मचक्र, स्तूप प्रादि की ही तथा साठियावं नामक गावो के मध्य प्रासमानपुर और प्रारम्भ में पूजा होतो थी। बुद्ध की मानुषी मूर्ति का उसके समीप अनेक प्राचीन टोले है। इन टीलो से ठोकरो, सिक्को, मूतियों आदि के रूप मे पुरातत्व की प्रचुर सामग्री निर्माण बाद में शुरूहमा । उसके पहले जैन तीर्थकगे की मानुषी प्रतिमाये पस्तित्व मे मा चुकी थी। मिली है । जैन साहित्य के भौगोलिक तथा अन्य विवरणो के माधार पर देवरिया जिले के इस स्थल को ही प्राचीन त्य-पक्ष की पूजा जैन धर्म का भी एक प्रग बन पावा मानना ठीक प्रतीत होता है। गई । विभिन्न तीर्थ करी से सबंधित चैत्य वृक्षो के विवरण -अध्यक्ष, पुरातत्व विभाग, जन साहित्य में उपलब्ध है। ऐसे तरुवरो में कल्पवृक्ष, सागर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्व के पंचमहात श्री पद्मचन्दशा एम० ए०. ० ए०, दिल्ली कारण बताना भी उचित प्रतीत नहीं होता । जहाँ तक मैं समझता हूँ 'चातुर्याम' की मान्यता की स्पष्ट घोषणा श्वेताम्बर धागों की है। इसी के अनुरूप सयम के प्रसंग में दिगम्बरो मे भी एक उल्लेख पाया जाता है' । दिगम्बरों की ओर में चातुर्याम की कई बार कई विद्वानों ने वृष्टि की है। जैसे पापमि का उपदेश दिया था।' दिगम्बर मान्यतानुसार जैन आगमों की वर्तमान श्रृंखला, युग के प्रादिनेता तीर्थकर ऋषभदेव मे अविच्छिन्न रूप में जड़ी हुई है। ऋषभदेव द्वारा प्रदर्शित मार्ग को सभी तीर्थंकरों ने समान रूप में प्रवर्तित किया है। इसके मुख्य कारण ये भी है कि १- सभी तीर्थकर सम-सर्वज्ञ थे अर्थात् सबका ज्ञान पूर्ण सदृशता को लिए था। २ - सभी की देशनानिरक्षरी थी। ३ -- सभी की सर्वज्ञावस्था की प्रवृत्ति मन के विकल्पों से रहित थी। उसमे होनाधिक वाचन को स्थान [ विकल्पों के प्रभाव में नहीं था तीर्थकरों ने साधुओ के मूलगुण २८ श्रावार्यो के ३६ और श्रावकों के व्रत १२ ही बतलाए । इन सबकी सख्या मे और सभी के लक्षणो मे कोई भेद नही किया । इसी प्रकार धर्म १० पाप ५, और राज्ञा ४ की संख्या और लक्षणो मे भी उन्होंने कोई भेद नहीं किया। ऐसी स्थिति में यह कहना कि 'भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम का उपदेश दिया' 'बीच के वार्डस तीर्थकरो के समय में भी चार हो महाव्रत थे' - - श्रादि, उपयुक्त नही जँचता । और ऐसी गाली लोगो की बतिया मदी या वे सरल और कूटना के भेद को लिए हुए वे याद १ 'महावीर मे भी विदेह उन्हीं की 'निरक्षरी' ...वाणी की अनुगूज वातावरण में है ।' --- समणसुत, भूमि०१६ 'गणधर - जो तोपदिष्ट ज्ञान को 'शब्दबद्ध' करते है । वही, पर० शब्दकोष पृ० २६४ । - समणसुत्त 'यह एक सर्व सम्मन प्रातिनिधिक ग्रन्थ है ।' - वही भूमिका पृ० १८ जो जो प देसी वड्ढमाणेस पासेण य महामणी ।। २. (उत्तरा० २३/१२) २ - 'चातुर्याम रूप धर्म के संस्थापक पार्श्वनाथ थे यह एक ऐतिहासिक तथ्य है ।' भगवान पार्श्वनाथ के द्वारा संस्थापित चातुर्यान धर्म के आधार पर ही भगवान महावीर ने पच महाव्रत रूप निर्ग्रथ मार्ग की स्थापना की।' आदि जहा तक मुझे स्मरण है— इन्दौर से प्रकाशित तीर्थकर-मासिक' के 'राजेन्द्रसूरिविशेषाक मे भी दो विद्वानों के लेखो मे ऐसी ही बातें दुहराई गई थी। इस समय मेरे समक्ष अक न होने उद्धरण नहीं लिख पा रहा हूं । यदि दिविद्वानों की बात को माना निम्न प्रश्नो पर जाय जैसा कि होना भी चाहिए तो बिचार कर लेना आवश्यक है - पुरिमा उभ्भुजाउ बनाया। मज्झिमा उज्जुपन्नाउ नेण धम्मे दुहा कए ।' (उत्तराध्ययन, २३।२६) ३. 'बावीस तिस्थयरा सामायिय सजम उवदिसति । छेदुवठावणिय पुण भगव उसहो य वीरो य ।।' (मुला० ७५३३) पुरिमा य पच्छिमा विहु कप्पाकप्प ण जाणति ॥' (मूला० ७।५३५) ४. 'युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।' Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27, 10, Pet अनेकांत १० मान्यता में चातुर्याम स्वीकार करने पर साधुनों के २८ मूलगुणों की सख्या कैसे पूरी होगी ? क्योंकि ब्रह्मचर्यं परिग्रह मे गर्भित होने से महाव्रतों में एक कम करना पड़ेगा। २ - क्या कहीं माधुनों के मूलगुण २७ होने का उल्लेख है ? १३- प्राचार्यों के मूलगुणो मे ३६ के स्थान पर ३५ की ही सख्या रह जायगी (एक महाव्रत तो कम हो ही जायगा पर ब्रह्मवयं धर्म का अन्तर्भाव (महावतों की भाति) प्राचिन्य में करना अनिवार्य हो जायगा। इस बात का निराकरण कैसे होगा ? ४ - क्या कही श्राचार्य के मूलगुण ३५ होने का उल्लेख है ? ५ चातुर्याम और पंचमहाव्रत की विभिन्न मान्यताथों में तीर्थ करो की देशना को विशेष ध्वनि रूप या अनक्षरी मानने मे वाघा उपस्थित न होगी ? - क्या विभिन्न स्वभाव और विभिन्न बुद्धि के लोगों की अपेक्षा से हुई ध्वनि मे मन का उपयोग न होगा ? ७-- क्या कही उन पापों की संख्या चार मानी गई है। जिनके परिहार रूप चातुर्याम होते है ? यदि बाईस तीर्थकरों ने चार पाप बतलाए हों तो उल्लेख ढूंढना चाहिए। शायद कही कुशील को परिग्रह में समिलित कर दिया हो ? ८ - सज्ञायें चार के स्थान में कही तीन बतलाई है क्या? ( यतः मंधून परिवह के अन्तर्भूत हो जाएगा) १- महावीर ने दीक्षा के समय चातुर्याम धारण किए या पंचमहाव्रत ? यदि पंचमहाव्रत धारण किए तो वे २२ तीर्थकरों की परम्परा मे कैसे माने जाएंगे ? यदि चातुर्याम में दीक्षित हुए तो आदि के तीर्थंकर की धर्म परम्परा में कैसे माने जायेंगे ? १० - क्या कहीं १० धर्मों के स्थान पर ब्रह्मचर्य को अचिम्य में गमित किया गया है और धर्मो की संख्या बतलाई गई है? ११ - स्त्री को परिग्रह मे गिनाया गया है या नही ? १. क्षेत्र यदि गिनाया गया है तो संख्या के परिमाण की दृष्टि से अथवा भोग की दृष्टि से ? इसी प्रकार के धन्य भी बहुत से प्रश्न उपस्थित हो जायेंगे। ऐसे प्रश्नों के निराकरण के प्रभाव में समस्त श्रागम ही सावरण ( सदोष ) हो जायेंगे । अतः दि० विद्वानों से मेरा निवेदन है कि वे विचार करें मेरी रहें हैं। कहीं भी किचित् भी अन्तर नही प्राया है। जो भी बुद्धि में तो ऐसा है कि सभी तो करो के उपदेश समान जो उन्होंने समय समय पर लोगों की दृष्टि से किया है । अन्तर दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्राचार्यों की देन है : ( १ ) यदि हम श्वेताम्बर परपराओ के उल्लेखो पर विचार करें तो हमे वहाँ ऐसे उल्लेख भी मिलत है जिनसे यह सिद्ध होता है कि पार्श्व से पूर्व भी पचमहाव्रतो का चलन रहता रहा है । श्राचार्य हेमचन्द जी पार्श्वनाथ द्वारा दिए उपदेश को जिस भाति बतलाते है उससे ब्रह्मवयं को अपरिग्रह मे गभित नही माना जा सकता। अर्थात् पार्श्वनाथ द्वारा ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक किया गया हो, ऐसा सिद्ध नही होता । यथा 'सद्विधा सर्वविरति देशविरति भेदतः । सयमादि दशविधो, अनगाराणां स प्रादिमः ।।' ( श्रि० श० पु ० च० पर्व ६, सर्ग ३) यह पार्श्वनाथ का उपदेश है। इसमे मुनिधर्म, संयम आदि के रूप में दश प्रकार का बतलाया है । ब्रह्मचर्य का अन्तर्भाव अपरिग्रह मे नही किया गया। यदि तीर्थकर को दोनों मे से एक ही रखना इष्ट होता तो वे दश के स्थान पर नौ का ही विधान करते । ग्रागमों में जो सयम कहे है। वे हैं : 'खंती य मद्दत्र प्रज्जव, मुत्ती तत्र मजमे य बोधवे । सच्चं सोयं प्राचिणच बंभ च जइ घन्तो ॥ ' (२) पार्श्व से पूर्व तीर्थंकर नमिनाथ ने वरदत्त को जो उपदेश दिया है उससे भी पच महाव्रतों की पुष्टि होती है। उन्होंने 'सावध योगविरति' को चारित्र कहा। और प्रवद्यो ( पापों) की सख्या सदा पाच वास्तु धन धान्य, द्विपद च चतुष्पदम् । बाह्यानां गोमहिष मणिमुक्तादीना चेतनाचेतनानाम् ।।' Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्व के पंचमहाव्रत २५ रही है। प्रतः पंच पापो की पृथक् पृथक् विरति रूप से गाई जाती रही है, अपरिग्रह गभित रूप में नहीं। पंच महाव्रतो को ही सिद्ध कर सकती है। श्लोक (६) भगवान पाश्वनाथ से पहिले के तीर्थकर अरिष्टइस प्रकार है--- नेमि ने थावर्चापुत्र को दीक्षा देकर अपना शिष्य 'सावध योगविरतिश्चारित्रं मुक्तिकारणम् । बनाया और उन्हे १००० शिष्यपरिवार वाला सर्वात्मना यतीन्द्राणा, देशतः स्यादगारिणाम् ॥ करके बिहार की प्राज्ञा दी। थावर्चापत्र अपने (त्रि० श० पु० चह पर्व ८ सर्ग 8) शिष्यो के साथ बिहार करते करते सौगन्धिका (३) दीक्षा ग्रहण करते समय तीर्थंकर पाचो पापों के नगरी मे पहचे । उस नगरी मे सुदर्शन नामक सेठ सर्वथा त्याग की घोषणा करते है। परिग्रह गभित रहता था। उस सेठ ने पहिले कभी किसी 'शुक' प्रव्रह्म जैसे चार के त्याग की घोषणा नही करते नामक मन्यासी से साख्यमत का उपदेश सुना था और न कही पापों की चार संख्या का विधान ही और वह मांख्य मत का श्रद्धानी हो गया था। जब किया गया है। तीर्थ करों की घोषणा है उसे थावर्चापुत्र के प्रागमन की बात मालुम हुई तो 'मन्वं मे अकरणिज्ज पावं कम्मं ।' वह उनके पास गया। थावर्चापुत्र को देखकर (४ तीर्थकर अरिष्टनेभि के समय मे ब्रह्मचर्य की सुदर्शन सेठ ने पूछा कि आपका धर्म कसा है ? तब गणना स्वतत्ररूप से होती रही है- अपरिग्रह मे थावर्चापत्र ने धर्मोपदेश में "पंचमहाव्रत रूप धर्म नही, ऐसे भी प्रमाण मौजूद है। उस समय भी पूर्ण का उपदेश किया । यदि बीच के तीर्थंकरों के समय ब्रह्मचर्य की बात (मनि अवस्था मे) पृथक रूप से में चातुर्याम ही थे तो बाईसवें तीीकर के साक्षात् निर्दिष्ट होती रही है। विवाह के प्रसंग मे (जव शिष्य ने पंचमहाव्रतों को धर्म क्यों कहा? वे चातुनेमिनाथ राजुल मे विवाह नहीं करना चाहते तब र्याम रूप में ही उनका व्याख्यान करते। इसका राजघराने की) अन्य रानिया नेमिनाथ से निष्कर्ष तो यही निकलता है कि पंचमहाव्रतों का कहती है पूर्व सभी तीर्थकरो के समय मे एक जैसा चलन ही 'समये प्रति यद्येथा ब्रह्मापि यथारुचिः । रहा है। प्रसग का मूल इस भांति हैगार्हस्थ्ये नोचित ब्रह्म, मंत्रोद्गार इवाशुचौ ।' 'तत्तेण थावच्चापुत्ते अणगारे अरहमो परि? नेमिस्स (त्रि० श० पु० च० पर्व ८।१०५ हैमचन्द्राचार्य) तहारूवाण थेराण प्रतिए सामाइयमाइयार चोद्दसपुवाइ (५) तीर्थ कर नमिनाथ की एक भविष्यवाणी मे भी अहिज्जति अहिज्जति बहूहिं जाव चउत्थ बिहरति ॥२६॥ ब्रह्मचर्य की बात स्पष्ट है और अपरिग्रह से उसे 'तत्तंण परहा अग्नेि मी थावच्चापुत्तस्स प्रणगारस्म नहीं जोडा गया है। इससे भी ज्ञात होता है कि तं इन्भाइयं प्रणगार सहस्सं सीसत्ताए दलयति ।। ३ ।। ब्रह्मचर्य पृथक रूप से स्वतन्त्र रूप में माना जाता ...... [जाताधर्मकथा, सेलगराजषि प्रध्ययन ५, पृ०२४४ रहा है : श्री अमोलक ऋषि, मिकंद्राबाद प्रकाशन] 'पुरा नमिजिनेनोक्तं नेमिरहन भविष्यति । सुदर्शन का थावच्चापुत्त से प्रश्नोत्तरकुमार एव सन्नव, नार्थो राज्यश्रियास्यतत् । ॥३५॥ 'तुम्हाणं कि मूलए धम्मे पणते ? ततेण थावच्चाप्रतीक्षमाणः ममय जन्मतो ब्रह्मचार्ययम् । पुत्ते सुदंमणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं वयासी--सुदंसणा प्रदास्यते परिव्रज्यां मान्यथा कृष्ण, चिन्तय ॥ ३६॥ विणयमुले घम्मे पणतं । सेविय विणए दुविहे पण्णसे उक्त प्राकाशवाणी है, जो अरिष्टनेमि के सबध में त जहा- प्रागार विणएय प्रणगार विणएय । २१वें तीर्थ कर नमिनाथ द्वारा कभी (पहिले) की गई तत्थणं जे से प्रागार विण सेवय पच अणुव्वया सत्त भविष्यवाणी को इगित करती है। इससे सिद्ध है कि सिक्वायाइ, एककारस उवासग पडिमापात्तो। तस्थणं जे ब्रह्मचर्य की महिमा २१वें तीर्थंकर के समय में भी पृथक से अणगार विणए सेणं पच महन्वपाई तं जहा-सव्वामी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०० १ पाणावायाश्रो वेरमण, सब्वा प्रो मुसावायनो वेरमणं, सवा दिन्नादाणाश्रो वेरमण, सध्वाश्रो मेहुणाम्रो वेरमणं सन्याची परिगहाथो वेरमण 1118811 ( वही पृ० २५० ) मे जहाँ परिग्रहों ( ७ ) यद्यपि अभिधान राजेन्द्रकोष ( बाह्य परिग्रहों का संकेत है वहाँ उनमें 'द्विपद' का उल्लेख है - स्पष्ट रूप में स्त्री का उल्लेख नही है यथा - 'धनं धान्यं क्षेत्र वास्तु रूप्यं सुवर्ण कुप्यं 'द्विपद:' चतुष्पदाश्च तथापि यदि यथाकथंचित् स्त्री को द्विपद रूप परिग्रह माना जाता है तो वह मात्र संख्या - परिमाण की दृष्टि से ही माना जा सकता है। मिथुन संबंधी भाव या कर्म से संबन्धित नही माना जा सकता। यह परिमाण की बात परिग्रह परिमाण नामक श्रावक व्रत के श्रतीचारो का वर्णन करने वाले सूत्र से भी पूर्ण स्पष्ट हो जाती है उस सूत्र में प्राचार्य ने 'प्रमाणातिक्रमः' पद देकर "संग्रह-मर्यादा" को हो इंगित किया है । अभिधान राजेन्द्र कोष में एक स्थान पर ऐसा भी लिखा है 'णाणामणिकणगरवण महरिहरिमल "सपुतदार" परिजन दासीदास ...... ।' उक्त पद मे प्राए 'सपुत्तदार' शब्द का विश्लेषण करते हुए कोचकार लिखते है 'सपुत्रदाराः गुलपुतल त्राणि । इससे भी "परिमाण" को ही बल मिलता है। जैसे किसी ने एक दासी या दास का परिमाण रक्खा तो वह उसके परिमाण में रहने के लिए 'सुतयुक्नदासी' को नहीं रख सकता । क्योंकि यदि वह रखेगा तो उसकी एक संख्या रूप परिमाण में दोष श्रा जायगा । यतः दासी के साथ रहने के कारण उसका पुत्र भी दास कार्य में सहायक सिद्ध होगा और व्रती के व्रत भंग का कारण होगा । इन प्रसगों से स्पष्ट है कि जिस भाव में ब्रह्मवयं है वह भाव अपरिग्रह से अछूता है । अतः एक मे दूसरे का समावेश नही हो सकता । हाँ, यदि खीचतान करके समादेश माना ही जाय तो चोरी आदि पाप भी परिग्रह में गर्भित किए जा सकते है अथवा एक महिसा महाव्रत में भी सभी व्रत सम्मिलित हो सकते है पर ऐसा किया नहीं गया। सभी महावत भादिनाथ युग से महावीर युग धनेशान्त तक चलते रहे है । भ्रतः चातुर्याम धर्म पार्श्व का है' ऐसा कथन निर्मन बैठता है। श्री तत्त्वार्थं राजवार्तिक में प्रथम अध्याय के सातवें सूत्र की व्याख्या में श्राया "चतुर्यामभेदात् " पद भी बिचारणीय है कि इसका समावेश कब और कैसे हुआ । हो सकता है बाद के विद्वानों ने (चातुर्याम धर्म पार्श्वनाथ का है ऐसी धारणा मे ) मूल पद संशोधन की चेष्टा की हो अन्यथा, प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिलिपियों से तो ऐसा सिद्ध नहीं होता। व्यावर वणवेनगोला पौर मूडबिद्री की ताडपत्रीय प्रतियों में 'चतुर्यमभेदात्' के स्थान मे 'चतु र्यति भेदात्' पाठ है । (८) अब प्राती है केशी- गौतम संवाद की बात । सो, यह विचारणीय है कि वे केशी पाप परपरा के वे ही बेशी है जिन्होंने प्रदेशी राजा को संवोध दिया था या अन्य कोई केशी है ? वे केशी चार ज्ञान के धारक थे और पार्श्व की शिष्य परम्परा के पट्टधर आचार्य थे । उन्होंने गौतम से प्रश्न किया हो यह बात जेंची नहीं । यतः संवाद के ( कथित) समय तक गौतम और केशी दोनों समान ज्ञान धारक ही सिद्ध हो सकते हैं। केशी के ज्ञान के संबंध में रायपसेणी में लिया है 'इच्चे णं पदेसी ! श्रहं तव "चउब्विणं नाणेणं" इमे या समत्थियं जाव समुप्पन जाण. मि" भगवती सूष से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है। इस संबंध में पाठकों के विचारार्थं श्रधिक कुछ न लिखकर यहां एक उद्धरण मात्र दिया जाना ही उपयुक्त है । 'भगवान् पार्श्वनाथ के पौधे पर प्राचार्य केशी श्रमण हुए जो बड़े ही प्रतिभाशाली बालब्रह्मचारी, चौदह पूर्वधारी और मति श्रुत एवं अवधिज्ञान के धारक थे। - पार्श्व संवत् १६६ से २५० तक प्रापका कार्यकाल बताया गया है। आपने ही अपने उपदेश से श्वेताम्बिका के महाराज 'प्रदेशी' को घोर नास्तिक से परम श्रास्तिक बनाया । ...... आचार्य केशिकुमार पार्श्वनिर्वाण संवत् ११६ से २५० तक र्थात् ८४ वर्ष तक प्राचार्य पद पर रहे और अन्त में मुक्त हुए।' इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथ ....N Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पाश्र्व के पंचमहावत के चार पदघर भगवान पार्श्वनाथके निर्वाणवाद के २५० कहा जा रहा है) पार्श्व से मिले हों पर, यह कैसे कहा जा वर्षों में मुक्त हुए । इस सबंध मे वास्तविक स्थिति यह सकता है कि जो पाश्व के थे वे सभी बद्ध ने अपना लिए है कि प्रदेशी राजा को प्रतिवोध देने वाले केशी और गौतम या जान लिए हो । हो सकता है और जसा देखा भी जा गणधर के साथ संवाद करने वाले केशीकुमार श्रमण एक रहा है कि बौद्धो मे चार संख्या की भरमार रही है। न होकर अलग अलग समय मे दो केशि श्रमण हा है। अतः उन्होंने पार्श्व के धर्म को भी चार की अपेक्षा मे 'प्राचार्य केशी जो कि भगवान पार्श्वनाथ के चौथे देखा हो और पाश्व के धर्म को चातुर्याम नाम दे दिया पट्टघर और प्रदेशी के प्रतिवोधक मार गए है उनका काल हो । अन्यथा वस्तुत. तो इसका स्पष्टीकरण 'चातुज्जाम 'उपकेशगच्छ पट्टावली' के अनुसार पार्श्व निर्वाण संवत् सक सवर संजुत्तो' प्रसग म जैसा हो रहा है, वैसा स्वीकृत होना चाहिए। १६६ से २५० तक का है । यह काल भगवान महावीर की अजात शत्रु ने बुद्ध का बतलाया कि वह स्वय निगछद्मस्थावस्या तक का ही हो सकता है। इसके विपरीत ठनाथपुत्त (महावीर) से मिले और महावीर ने उनसे श्रावस्ती नगरी में दूसरे केशीकुमार श्रमण और गौतम कहा कि -निर्गथ 'चातुर्याम सवर सवृत' होना है। अर्थात् गणधर का समिलन भगवान महावीर के केवलीचर्या के वह (१) जल के व्यवहार का वारण करता है, (२) सभी १५ वर्ष बीत जाने के पश्चात् होता है । इस प्रकार प्रथम पापों का वारण करता है (३) सभी पापो का वारण केशी श्रमण का काल महावीर के छद्मस्थकाल तक का करने से धुनपाप होता है (४) सभी पापो का वारण ''.''ठहरता है।' करने में लगा रहता है। अतः वस्तुस्थिति यह भी हो ____ इसके अतिरिक्त रायवसेणी सूत्र में प्रदेशी प्रति सकती है कि चातुर्यामसवर के स्थान में लोमा ने सवर' वोधक कैशिश्रमण को चार ज्ञान का घारक बताया शब्द छोड़ दिया हो और कालान्तर मे 'चातुर्याम' से गया है तथा जिन केशि श्रमण का गौतम गणघर के अहिंसा प्रादि को जोड़ दिया हो । अन्यथा चातुर्यामसंवर' साथ श्रावस्ती में संवाद हुमा, उनके उत्तराध्ययन के स्थान पर 'चतु. सवर' ही पर्याप्त था। 'याम' का सूत्र में तीन ज्ञान का धारक बताया गया है कोई प्रयोजन ही नही दिखाई देता। प्रत. फलित होता [केशीकुमार समणे, विज्जाचरणपारगे मोहिनाणसुए ' है कि ऊपर कहे गए 'चातुर्तामसंबर' के अतिरिक्त अन्य उत्तरा, अ० २३)। कोई चातुर्याम नही थे। ऐसी दशा में प्रदेशी प्रतिवोधक चार ज्ञानधारक केशी- बौद्ध ग्रन्थों में अनेक प्रसंगों में चार को सख्या उपश्रमण जोमहावीर के छास्थ काल में हो सकते है, उनका लब्ध होती है। कई में तो [कथित-प्रभिद्ध किए गए] नार महावीर के कंवलीचर्या के १५ वर्ष वाद तीन ज्ञान के यामों से पूरी पूरी समता भी दृष्टिगोचर होता है । जैसे घारक रूप में गौतम के साथ मिलना किसी तरह युक्ति चार कर्मक्लेश' 'चार पाराजिक' पोर चार प्राराम सगत और सभव प्रतीत नहीं होता।' पसन्दी इत्यादि । -जैनधर्म का मौलिक इतिहास प्रा० हस्तीमल जी (१) चार कर्मक्लेश-इनका वर्णन दीपनि काय' के सिलोमहाराज । पृ० ३२८-३३ गवाद सुत ३१८ में किया गया है। वहा चारों के नाम इसमे सदेह नही कि निर्ग्रन्थो का अस्तित्व बद्ध से इस प्रकार गिनाए गए है--१. प्राणिमारना २ पूर्व विद्यमान था। और जैसी कि कई इतिहास अन्वेषियों अदत्तादान ३. झूठ बोलना ४. काम । की धारणा है कि म. बुद्ध ने पार्श्वनाथ के धर्म को स्वी (२) चार पाराजिक-इनका वर्णन “विनयपिटक' में इस कार किया था, और बाद को छोड़ दिया। सो यह भी ठीक प्रकार है -१. हत्या, २ चोरी ३. दिव्यशक्ति हो सकता है। पर यह कहना नितान्त भ्रमपूर्ण है कि बुद्ध (अविद्यमान) का दावा, ४. मैथुन ।। ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम को अपनाया था। यह तो सभव (३) चार माराम पसदी-इनका वर्णन 'दीघनिकाय' है कि बुद्ध को महिंसा प्रादि के स्रोत (जिन्हें चातुर्याम (शेप १० २८ पर) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन दर्शन D श्री बाबूलाल जैन, दिल्ली जिनदर्शन का बहुत महत्व है। वास्तव मे जिनदर्शन अपने अच्छे-बुरे का पाप ही मालिक है। कोई ईश्वर क्या है, इसका बिचार करना है । जिनदर्शन का अर्थ मूर्ति ऐसा नही जो उसकी प्रेरणा करता हो, उसको फल देता का मात्र दर्शन करना नही। पहली बात तो यह है कि जो हो, उमका अच्छा-बुरा करता हो, या वह उसके अधीन लोगभगवान को कर्ता-सष्टा मानते है उनके जिन दर्शन हो । लोग ज्यादातर भगवान की भक्ति करते है । वह इसी हो ही नहीं सकता। जैन दर्शन को कुछ लोगो ने अभिप्राय को लेकर करते है कि भगवान प्रसन्न होने से नास्तिक बताया है। कहा गया है कि जैनी लोग भगवान हमें धन-वैभव देगा और नाराज होने से नरक में डाल को कर्ता नहीं मानते इसलिए नास्तिक है। परन्तु धीरे- देगा। इसी भय पोर लोभ के कारण भगवान की सत्ता धीरे ऐसा रूप हुमा कि जैनी लोग भी भगवान को कर्ता- बनी हुई है। जिस रोज यह भय और लोभ हट जाएगा सृष्टा मानने लगे और इसी प्रकार का रूपक चल पड़ा। उस रोज शायद भगवान की सत्ता भी न रहे। समूचे धर्म, फल यह हुमा कि वास्तविक अध्यात्मिक रूप हमारे हाथ समूची पूजा, समूचे पाचरण का आधार एक मात्र नरक से छट गया। जैन दर्शन वह दर्शन है जिसमे कि हरेक का डर और स्वर्ग का लोभ है। व्यक्ति को अपना भाग्य विधाता बताया गया है, वह - इसलिए सबसे पहलो बात यह है कि भगवान में (पृष्ठ २७ का शेषांश) पासादि सुत्त में है-भ० बुद्ध कहते है कि --१. कपिना नही होना चाहिए। अगर कोई जिनेन्द्र को कोई मर्ख, जीवो का वध करके आनंदित होता है का मानकर पून रहा है तो वह जिनेन्द्र की मूर्ति पूजते विनोना कोई हुए भी रागी देव का पूज रहा है, क्योंकि उसने अपनी मान्यता म उसे रागी माना है। एक कपड़े का धागा रखने चोरी करके प्रानंदित होता है ४. कोई पाच भोगों पर अगर वह जिनन्द्र प्रतिमा नहीं रहती तो कर्तापना से सेवित होकर पानंदिन होता है । ये चार प्राराम रहन पर वह जिनन्द्र प्रतिमा कैसे रह सकती है ? जिनेन्द्र पसन्दी निकृष्ट है। को कर्ता मानने वाले ने जिनेन्द्र की स्तुति नही की है, उक्त सभी प्रसंग चातुर्याम से पूर्ण मेल खाते है और उसकी निन्दा को है। वीतरागी की रागी कहना स्तुति यह मानने को वाध्य करते हैं कि चातुर्याम पार्श्वनाथ के कैसे हो सकती है ? यह तो निन्दा है। इसलिए सबसे नही अपितु भगवान बुद्ध के हो सकते है जो 'चातुर्यामगंवर जरूरी बात यह निर्णय करना है कि भगवान मेरा पूछ रूप में कहे गए है। जो भी हो उक्त स्थिति में इसी बात को बल मिलता है कि पार्श्व के पंच महावत थे, चातर्याम नहीं कर सकता । वस्तविक रूप से देखा जावे तो भगवान नही। विद्वान् विचार करें। जो शुद्ध प्रात्मा है वह तो सिद्ध शिला पर विराजमान है वीर सेवा मन्दिर, और अपने अनन्त प्रानन्द में मग्न है। अगर वह पर की २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ चिन्ता करने जाय तो उसका अनन्त प्रानन्द नष्ट हो जावे। सामने वेदी में हमने पाषाण पर उनके स्वरूप को स्थापना १. 'जहा तक हम जानते है कि पार्श्व और महावीर धर्म के उक्त भेद की चर्चा का दिगम्बर जैन साहित्य में कोई राकेत तक नहीं है।' .-जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ. २७६ (प्रथम सस्करण) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन दर्शन अपने प्रवलम्बन के लिए कर रखी है। वह भगवान दूसरी बात यह है कि स्तुति कुछ शरीर प्राश्रित की हमारा भला-बुरा कर दे यह सवाल पैदा ही नही होता, जाती है, कुछ बाहरी पदार्थों के प्राश्रित की जाती है, चाहे वह चांदनपुर का महावीर स्वामी हो, चाहे और कुछ आत्म पाश्रित गुणो के आधार की जाती है। यहां कोई हो। पर सभी बातो को मात्मा की मान लें तो असमान जातीय मानस कार की स्ततिया बड- दो द्रव्यों मे एकत्व-बुद्धि होकर मिथ्यात्व की पुष्टि हो बड़े विद्वानों ने पोर प्राचार्यों ने बनाई है। वे क्या गलत है? जाती है। इसी स्तुति को पढ़ते हुए, करते हुए, यह समझना उसका उत्तर है कि वे स्तुतिया गलत नही है, वे स्तुतिया चाहिए कि यह तो प्रात्मा का गुण है और यह 'पर' के व्यवहार दृष्टि से की गई है। जैसे अगर हम शिखर जी जी सयोग को लेकर कथन है, वह प्रात्मा का गुण नही है; के पहाड़ पर जावें और रास्ता भूल जावें पोर वहा कोई जसे किमी गजा का कथन करते हुए यह कहा जाता है निशान हो अथवा कोई प्रादमी खडा हो, वह हाथ का यह गुणवान है, दयालु है, न्यायप्रिय है। यह तो उसके इशारा कर रहा हो, उस इशारे को देखकर प्रगर हम रास्ता । गुणो का कथन है । परन्तु उसके शहर की सुन्दरता का समझ ले और उस रास्ते से नीचे अपने घर में प्रा जावें, वर्णन करना, बाग-बगीचो का कथन करना, वह राजा तब हम कहते है कि उस प्रादमी ने हमे घर पहचा दिया का कथन नही परन्तु उससे साबित यह होता है कि राजा और उस व्यक्ति का उपकार भी मानते है । वस्तुतः वह कलाप्रिय है। ऐसा ही अर्थ भगवान की स्तुति मे लेना प्रादमी हमको कन्धं पर उठाकर नही लाया है। हम अपने चाहिए। कही शरीराश्रित कथन है, कही मा-बाप के परों से चलकर पाए है, परन्तु कहते यही है कि उसने प्राश्रित कथन है, कही समोशरण के आधार कथन है, हमे घर पहुंचा दिया। इसी प्रकार ये हम जब जिनेन्द्र का ये सब भगवान की आत्मा के गुण नही है। इस प्रकार गुणानुवाद गाते है, उससे हमारे परिणामो मे स्तुति-पूजा करते हुए ठीक से समझकर करे तो ठीक है। मरलता पाती है, जिससे पाप-प्रकृति का नाश होकर भगवान की मूर्ति के द्वारा हमे उस मूतिवान को देखना है पुण्य प्रकृति का उदय पाता है। तब हम कहते है कि जो सिद्धशिला पर विराजमान है और शक्ति रूप में इस हे भगवान, प्रापन हमारा भला कर दिया अथवा अमुक शरीर में विराजमान है; जैसे चील उडती प्राकाश में है काम कर दिया। वहा पर हमे वस्तु को ठीक से समझ परन्तु लक्ष्यभेद करती जमीन पर है, इसी प्रकार देखना है कर अर्थ करना चाहिए । व्यवहार में प्रादमी बडा हो मूर्ति को और लक्ष्यभेद करना है अपने में जहा चैतन्य जाता है परन्तु कहते यही है कि कपड़ा छोटा हो गया। विराजमान है। इस मूर्तिदर्शन के द्वारा प्रात्मदर्शन करना वहा तो हम उसका अर्थ ठीक समझते है कि कपड़ा छोटा है। अगर प्रात्मदर्शन न करके मूर्तिदर्शन हो करता रहा नही हुग्रा, पहनने वाला बड़ा हमा है। अगर वहा पर तो कार्य की सिद्धि नही होगी। मीधा अर्थ करके यह समझे कि कपड़ा छोटा हो गया तो हम मन्दिर में मूर्ति पूजने नही पाते, हम तो जिनेन्द्र विपरीतता हो जाएगी। वैसी ही बात यहां पर है - यहा बनने को प्राते हैं। भीख मांगन को नही पाते। मूर्ति के पर हम सीधा प्रथं करके अनर्थ को प्राप्त हो जाते हैं। सामने खड़े होकर जिम रोज हम कहेगं कि भगवान ? हम नब सवाल उठता है कि मी स्तुति क्यो की? इसका भीभगवान बनकर रहे गं, उसी राज वास्तविक दर्शन होगा। उत्तर है कि तत्वज्ञानी तो कोई-कोई होता है, वह तो वह कहता है कि है भगवान ! फिर दर्शन देना। यहा पर एसी स्तुति करने पर भी अर्थ ठीक समझ जाएगा और बात यह है कि फिर दर्शन की जरूरत ही न रहे। जब प्रज्ञानी कम-से-कम कर्ता समझकर भी इसमे लगेगे तो तक अग्रेजो को कहते रहे कि हमे स्वराज्य दे दो, उन्होने मागे चलकर तत्व समझकर इसको ठीक समझ लेगे, एसा नहीं दिया। परन्तु जब यह कहा कि हम स्वराज्य लकर मन में प्रवधारण कर व्यवहार दृष्टि से स्तुति की रहगे, उस रोज स्वराज्य मिल गया । यहा भगवान सर्वज कहते है कि परमात्मा होना तेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, बर्ष ३०, कि० १ त परमात्मा हो सकता है। परन्तु वह मान रहा है कि नहीं हम चल भी सकते है और उससे किसी को मार महाराज! मझे तो अापकी सेवा ही करनी है। जो हैं, उसको जला भी सकते हैं। ये सब शक्तियां सस भगवान होना चाहता है, उसके हृदय में स्वाभाविक भक्ति की उसमें हैं, यह हमारा चुनाव है कि हम उसे किस का भगवान के प्रति होगी ही, परन्तु भिखमगापना नही मे निमित्त बनाते है। मानो यह कहा जा रहा है कि मैं भगवान बन भगवान की मूर्ति प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप है और कर रहूंगा वहां भीख मागना नहीं है। हमारी प्रात्मा अशुद्ध स्वरूप है। जैसे कसौटी पर एक अमली सोने की लकीर लगाई जाती है, एक मिलावटी मति के सामने जब हम जाते है तब जैसे किसी का की और जौहरी यह नक्की करता है कि इसमे कितना छाता देखकर या चश्मा देखकर हमे अपना छाता या बट्टा है। बड़ा माने खोट, जो ग्रहण करने योग्य नहीं है चश्मा याद आ जाता है और फिर हम उपकार से उसको और अगर वह खोट निकाल दी जावे तो दोनों लकीरें कहते है कि तुमने मके अपना चश्मा याद दिला दिया। समान हो जाएंगी। ऐसी मूर्ति के सामने जाकर हमें वस्तुतः देखा जाए तो वह कहता है कि मैने क्या किया? मैं देखना है कि हमारे मे कितना बड़ा है? जिस रोज वह तो अपना चश्मा लेकर जा रहा था, उसको देखकर अगर बट्टा समझ में प्रा जाएगा, भेद विज्ञान हो जाएगा। सोने तुम्हे अपना चश्मा याद पा गया अथवा तुमने अपना से खोट वही दूर कर सकता है जिसने पहले सोने और जरमा याद कर लिया तो इममे मेरा क्या है? इसी खोट के भेद को जान लिया है। प्रकार, हम भी उस मूति को देखकर अपन स्वरूप का एक वक्ष पर एक पका आम लगा है और एक कच्चा याद कर लें तो उपकार से कहते है कि हे भगवन् ! आम लगा है। कच्चा आम कह रहा है पके ग्राम को कि पापने मुझे अपना स्वरूप याद दिला दिया। इसलिए तुम और मैं एक ही वृक्ष के, एक ही जाति के प्राम है, रोज दर्शन करना जरूरी है जिससे उनका स्वरूप देखकर तुम भी पहले कच्चे थे और कच्चे से ही पक्के ग्राम हुए अगर अपने स्वरूप की याद आ जावे तो सम्यकदर्शन हो हो और मुझमे भी पका पाम होने की शक्ति है। पका जावे । जितने भी बाहरी निमित्त होते है वे कार्य कर दे ग्राम होकर रहगा। यहा भक भगवान को कह रहा है कि यह उनकी सामथ्र्य नहीं होती, उनको निमित्त बनाकर आपकी और मेरी एक ही जाति है, प्राप में और मुझमें क्या हम कार्य कर लें ऐसा वस्तुतत्त्व है। हमे सोचना है कि फर्क है ? द्रव्य दृष्टि से वस्तुत. तो कोई फर्क है नही, स्त्री ने राग करा दिया अथवा स्त्री का प्राश्रय लेकर गुणो की अपेक्षा भी कोई फर्क नहीं । पाप भी अनन्त हमने राग कर लिया है । दोष स्त्री का है कि हमारा? गुणात्मक है, मै भी अनन्त गुणात्मक ह; प्राप से मेरे में इस बात को जिस रोज समझेगे तब पुरुषार्थ जागृत एक गुण भी कम नहीं है। आप भी असंख्यात प्रदेशी है होगा। यहा निमित्तपन का निषेध नहीं, परन्तु गलती और मैं भी असंख्यात प्रदेशी है । आप मे और मुझ मे फर्क निमित्त को नही, हमारी है। इसलिए निमित्त से राग. मात्र इतना है कि प्रापके गुणो का पूर्ण विकास हो गया द्वेष अथवा उसको भला-बुरा कहने का कोई प्रयोजन नहीं है, आपकी पर्याय शुद्ध रूप हो गई है, मेरे गुणो का पूर्ण है। गलती हमारी हं, हमने उसका निमित्त बनाया है, विकास हुआ ही नही है, मरी पर्याय प्रशुद्ध है। परन्तु यह हमारा चयन है, चुनाव है। हम किसको निमित्त मुझमे भी अपनी पर्याय को शुद्ध करने की शक्ति है और बनावें यह हमारी स्वाधीनता है, पराधीनता नही। यही मै भी अपनी पर्याय शुद्ध करके रहूगा। प्रापमे पोर मुझमे बास देवदर्शन में है। हम उसको प्रात्मदर्शन में निमित्त समय की अपेक्षा से मात्र एक अंतर्मुहर्त का फर्क है। अगर बनावें अथवा अन्य किसी कार्य के लिए। सम्यकदर्शन मै अपना पूरा पुरुषार्थ करूं तो एक अतमुहुर्त में प्रशुद्ध तभी होगा जब हम प्रात्मदर्शन में उसको निमित्त बमा- पर्याय से शुद्ध पर्याय कर सकता है। इस प्रकार से जो यंगे । बनाना हमे पड़ेगा। लकड़ी है, उसका महाग लेकर कोई भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय के साथ अपना मिलान Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन पर्जन करता है, वह भेद विज्ञान को प्राप्त होता है। जब शेर और बहिरंग दोनों प्रकार के पच महाव्रत के स्वरूप को और हाथी का जीव भगवान पार्श्वनाथ और महावीर हो अगर एक दृष्टि में ममझना हो तो वह इस मति मे समझ सकते है तो हम अगर भगवान महावीर बन जावें तो सकता है। इसको समझने में कोई भाषा की जरूरत इसमें क्या प्राश्चर्य है ? नहीं; जैसे मोटर में जाते हुए अगर भोपू का निशान __ ये पंच परमेष्ठी हमे अपने प्रात्मतत्त्व की खबर देने लगाकर वहा पर क्रास लगाया गया है तो हरेक व्यक्ति उसे वाले है। इनके प्रति जो हमारी भक्ति है, वह वास्तव में अपनी-अपनी भाषा मे समझ लेता है कि यहां भोपू बजाना इनके प्रति नहीं, परन्तु अपनी चेतन प्रात्मा के प्रनि ही मना है। उसे समझने के लिए नि.गी भी भाषा के ज्ञान भक्ति है। जब हनुमान सीता की खबर लेने गये और वो जरूरत नही है। ऐसे ही य: जिनेन्द्र की मूर्ति के खबर लेकर प्राये तब उनका प्रसन्न मख देखकर राम दर्शन मे, जो भाषा का जानकार नही है वह भी पचमहासमझ गये कि खवर लग गई है। तब राम बैठे नही रह व्रत के स्वरूप को-दशलक्षण धर्म के स्वरूप को निश्चय सके, उठकर प्रागे चले और जाकर हनुमान को छाती में और व्यवहार रूप एक माथ समझ गकता है। कहा जाता लगा लिया । यहाँ पर यह अनुराग हनुमान के प्रति नही है कि भगवान उमास्वामी कही नहार लेने गये थे। वहां था, परन्तु यह अनुराग मीता के प्रति था और हनुमान दीवार पर लिखा था दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । उसकी खबर लाया था, इसलिए यह हनुमान के द्वाग प्राचाय न उसके प्राग सम्यक् शब्द जाड दिया। जब श्रावक व्यक्त किया जा रहा था। जैसे कोई पहले कलकत्तं से घर प्राया तो उस शुद्धि को देखकर बहुत प्रसन्न हुप्रा और राजस्थान जाना था तो गाव में कई रोज तक वे लोग उस साधु को खोजने जंगल में गया। वहाँ दोपहर के जिनके सम्बन्धी कलकत्ते रहते थे उसको अपने घर बुलाते समय भगवान उमास्वामी पाच मी शिष्यों के बीच बैठे थे और उमका बडा आदर सत्कार करते थे। वाम्सव में दोपहर की सामयिक कर रहे थे। उन्हें दूर से देखकर, वह पादर-सत्कार उमका नही था बल्कि उनके प्रिय जन यद्यपि उमास्वामी शब्दो मे कुछ नही कह रहे थे, उनके की खबर का था। इसी प्रकार ये पंच परमेष्ठी हमे स्वरूप को देखकर, उनकी आकृति में ही अन्तरग सम्यक् . अपने चैतन्य स्वभाव की खबर देने वाले है, उनमे भक्ति दर्शन का स्वरूप समझ पे पा गया। इस प्रकार, अपने दिखाकर उनके माध्यम से हम अपने चैतन्य के प्रति ही निज स्वभाव को जानकर जब प्रात्मा, ग्रात्मा में अन्तर अनुराग प्रगट कर रहे है। दृष्टि को प्राप्त होता है तो बाहर में ऐसा रूप रहना है । भगवान की मूर्ति को अगर अच्छे ढग से देखा जाए जब वह श्रावक इस बात को प्राकृति देखकर समझ तो यह पंच महाव्रत के स्वरूप को दिखा रही है। वह कह सकता है तो हम जिनेन्द्र की मूर्ति की प्राकृति देखकर रही है कि जो व्यक्ति अंतरग मे अपने निज स्वभाव मे रत्नत्रय के स्वरूप को क्यो नही समझ मकने । रमण करता है उसके बाहर में इस प्रकार का का रहता मूर्ति की नापाग्रदृष्टि है, वह बहिरंग दृष्टि नही है । है। कोई हिमारूप मन-वचन-काय की क्रिया नहीं रहती। वह दष्टि बना रही है कि बाहर मे कुछ नहीं, बाहर में जो वास्तविक सत्य, त्रिकालक मत्य स्वभाव मे रमण प्रानन्द नही, बाहर से मुख पाने का नही। परन्तु जब करता है, उसके वाहर सत्य और असत्य रूप कोई व्या- यह प्रात्मा शरीर मे भिन्न, शरीर से दष्टि हटाकर अपने पार नहीं रहता, वह दोनों से ऊँचा उठ जाता है। जो मार मे दृष्टि लगात है तो अनुल प्रानन्द को प्राप्त होता निज स्वभाव मे ठहरता है, उसके बाहर मे 'पर' छूट है। अगर हम ग्रानी कमोटी पर दुनिया क मभी भगवानो जाता है। जो निज ब्रह्म की चर्या को प्राप्त होता है को कसकर देने और एम दृष्टि से देखें कि हमे ऐसा उसके बाहर प्रब्रह्म नही रहता, वह उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य को बनना है का, तो हम अपन प्राप जवाब मिल जाएगा। प्राप्त होता है और जो निज प्रात्मनिष्ठ हो जाता है उसके सुख का वास्तविक स्वरूप समझना है नो गह मूर्ति बताती बाहर मे 'पर' का ससर्ग नही रहता। इस प्रकार, अतरग है कि जब स्व का प्राश्रय लेकर, बाहर से दृष्टि हटा कर, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, पर्व ३०, कि० १ अन्तर में मग्न होता है तो यह प्रारमा प्रनम्न मुख का मोका है कि मेरी असली पूजा तो यही है; तू मेरा सहारा लेकर होता है। असल में यह परम प्रानन्द की मूर्ति है। चल और फिर मेरे सहारे की भी जरूरत न रहे। परन्तु प्रात्मा बाहर से हटकर, अन्तरर्दष्टि होकर, निज से हमने जहा मूर्ति के द्वारा प्रात्मदर्शन करना था व । निजस्वरूप को वेदता है तब यह रत्नत्रय की एकता को उसकी मात्र जा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ प्राप्त होता है, अन्तर मे, स्वरूप में मग्न होता है, बाहर ली। यही है जो वैमा बनना चाहेगा उपके भीतर में 'पर' से हटता है। यही बात दशलक्षग धर्म की है। उसकी भकि नो पैदा होगी हो, परन्तु मात्र भक्ति करने उतम क्षमा म र्दव-पानव प्रादि का मारवाडी कसे वाला वैमा नहीं बन सकेगा। समझना हो तो इम मूनि को देखना होगा। वही व्यक्ति भगवान का दर्शन करते हुए यह वर्तमान होन उत्तमक्षमादि धर्म को प्राप्त हो सकता है जो भीतर मे पर्याथ अपने चैतन्य स्वभाव से कहती है कि हे चैतन्य, जो इस प्रकार अपने प्राप में मग्न होता है। इसके बाहर में पर्याय तेरे मम्म व होनी है वह दुःख रूप से, हीनता से, न कोई शत्रु है, न कोई मित्र है। बदली होकर उत्कृष्टता को प्राप्त हो जाती है। असल मूर्ति यह कह रही है कि हे संसार के प्राणी! अगर मे भगवान की जो स्तुति है वह भगवान के सम्मुख होकर, तुझे मेरा जैसा अनन्त सूख चाहिए तो मेरी तरह 'पर' से अपने चैतन्य स्वभाव की स्तुनि वर्तमान पर्याय करता है हटकर, बाहर से हटकर, अपने आप में मग्न हो जा। और वह कहती है कि जो तेरा याने निज स्वभाव का पात्रय मात्र मेरे पूजने में काम नही चलेगा। मेरी वास्तविक पूजा लेता है, उसकी पर्याप दू व रूप नहीं रहता, सुख रूप है। तो यही है कि तु मझे देखकर मेरी तरह अन्तरमग्न हो जाती है। भगवान के माध्यम से स्तुति तो निज स्वभाव जा; जैसे अगर हम एक लकडी को ऊँची जगह रख लें की ही करनी है। और उसके आगे दीप-धूप जलाते रहे तब भी हमे चलना पहले 'दामो प्रहम्' होता है, फिर 'दा' चला जाता नही पा सकता, हम अपने इष्ट स्थान को प्राप्त नही हो है 'सो अहम्' नह जाता है । यह अहम् 'पर' मे नही, निज सकते। उसकी जगह अगर हम लकडी का सहारा लेकर स्वाभाविक अहम होता है। . . . चलने का उपाय करें तो चल सकते है। लकड़ी कहती सम्मति विहार, दरियागंज, दिल्ली। वातरशना मनियों को परम्परा भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद (१०, १३६, २) में न केवल मुनियों का उल्लेख है किन्तु उनको, या उनकी एक विशेष शाखा को, वातरशता मुनि कहकर उनकी वृत्तियों का विवरण भी दिया गया है। ये मूनि मलधारी अर्थात शरीर को पसीने ग्रादि से मलिन होते हुए भी स्नानादि के प्रति उदासीन थे जिससे वे पिशंग, पिंगलवर्ण दिखाई देते थे। वे मौन रहते थे, और ध्यान में तल्लीन रहने के कारण उन्मत्त दिखाई देते थे। वे वाय 'श्वासोच्छवास को प्राणायाम द्वारा' रोककर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते थे। मर्त्यलोक उनके बाह्य शरीर मात्र को देख पाते थे, अतरात्मा को नहीं । मनियों के साथ 'वातरशना' विशेषण, ऋषि-पृथक वैराग्य, अनासक्ति मौनादि वत्तियों वाले मनियों को विशेष अर्थ देता है। वातरशना (वात-वायु. रशनामेखला) से अर्थ है जिनका वस्त्र वायू हो अर्थात नग्न । वातरशना जैन परम्परा के लिए नितान्त परिचित शब्द है। जिनसहस्रनाम में उल्लेख प्रोता है दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थे ज्ञोनिरम्बरः। -महापुराण २५, २०४ वस्तुतः वातरशना, दिग्वासा, निर्ग्रन्थ और निरम्बर पर्यायवाची शब्द है, और नग्न या दिगम्बर स्वरूप को प्रकट करते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद की रचना के समय दिगम्बर मनि परम्परा विद्यमान थी और ऐसे मनियों की ऋषि सम्प्रदाय में इतनी प्रतिष्ठा थी कि वे देवता तुल्य माने जाते थे और इन्द्रादि देवों के समान उनको स्तुति व वंदना की जाती थी। --डा. हीरा लाल जैन (जैनिज्म थ्र एजेज) Page #35 --------------------------------------------------------------------------  Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. साम्प्रदायिकता से ऊपर उठो - प० उदय जैन । प्रकाशक - श्री जैन शिक्षण संघ, कानोड ( उदयपुर ) राजस्थान | पृष्ठ संख्या: २४४, प्रकाशन वर्ष १९७६ ; मूल्य : पाच रुपया । · इस ग्रन्थ में जानेमाने समाजसेवी, अनुभवी अध्यापक एवं प्रबुद्ध विचारक पं० उदय जैन के धर्म समाज एवं शिक्षा से सम्बन्धित चालीस लेखों का उत्कृष्ट संकलन है । उनके इस संचयनगत प्रायः सभी लेख विभिन्न जैन पत्रिकाधों में प्रकाशित हो चुके है। इन लेखों में गिन पर म्परा एवं चिन्तन के प्रति विद्रोह, सम्प्रदायातीत समाज की स्थापना एवं प्राग्रह और रूढिमुक्त मंगलकारी समाज का स्वप्न निहित है । इन लेखो में एक ओर तो जनों की परस्पर मंत्री, उनके सामाजिक और वैयक्तिक चरित्रस्थान तथा सुधारोन्मय चेतना के स्वर विद्यमान है वहा ऐसे तेस भी निबद्ध है जिनका चिरनन और महत्व है, और स्वी रचनाकार की बहु प्रतिभा के परिचायक है। भागो नही पड़ोस् मुक्ति एक पदार्थ निर्वाण शताब्दी वर्ष की इतिथी साम्प्रदायिकता से ऊपर उठो, जैसे लेख निश्चय ही पं. उदय जैन की काति पर्मिता के योतक है। भ पा सरल प्रवाहमय एवं प्रभावोत्पादक है । पुस्तक का मूल्य उचित है। -- गोकुल प्रसाद जैन, सम्पादक २. नेमिनाथ महाकाव्यम् (हिन्दी अनुवाद सहित ) - मूल रचनाकार खरतरगच्छाचार्य श्री कीर्तिरत्न सूरि सम्पादक- अनुवादक- डा० सत्यव्रत; प्रकाशक श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर एवं नाहटा बदमे ४ जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता -- 3, पृष्ठ २४६; प्रकाशन वर्ष १६७५; मूल्य दस रुपया १५वी पाली में रचित यह महाकाव्य १२ स में विभक्त है। इससे पूर्व भी यह विजय की सरलार्थ प्रकाशिका टीका के साथ विजय घनचन्द्र सूरि ग्रन्थ माना से तथा यणो विजय जैन ग्रन्थ माला से प्रकाशित हो चुका है, किन्तु अब ये प्रकाशन अप्राप्य है । इस दृष्टि से भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित यह ग्रन्थ इस प्रकाशन के प्रभाव की पूर्ति करता है । यह महाकाव्य कविवर कीतिरत्न सूरि के लोकानुभव की दापकता और पूर्व साहित्यिक प्रतिभा का परि चायक है तथा इसमें कविवर के जीवन काल की सवत् १५०२ मे ति महिमा भक्ति ज्ञान भण्डार, बीकानेर की प्रति के श्राधार पर, प्रामाणिक सशोधित पाठ दिया गया है। साथ ही पुस्तक के अन्त में, मर्ग क्रम से हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है। इसके अतिरिक्त पुस्तक के आरम्भ में डा० सत्यव्रत ने इस महाकाव्य का व्यापक ३८ पृष्ठों में विश् वमीक्षात्मक विश्लेषण भी दिया है, तथा सुप्रसिद्ध मनीषी श्री अमरचन्द नाहटा ने आचार्य रत्न का जीवन परिचय धौर उनकी रचनाथों के नमूने दिए है। इसी प्रकार, पुस्तक के अन्त में इस महाकाव्य गत सुभाषितसंग्रह और प्रकाशदिक्रम में पानुकमणिका दी गई है। इस सब सामग्री के कारण इस ग्रन्थ की उपयोगिता एव उपादेयता में प्रतीव वृद्धि हुई है । गोकुल प्रसाद जैन, सम्पादक महौषधि दान ऋग्वेद में शिव को भेषज एवं श्रौषधिदाता वहा गया है। वृषभ को जैन शास्त्र-पुराणकारां में जन्म-जरा-मृत्यु आदि सांसारिक व्याधियों से पीड़ित जीवों को धर्मरूपी श्रौषधि प्रदान करने वाला कहा गया है। यहां तक कि महापुराण के अनुसार, जब उनका निर्वाण हुआ तब यह अनुभव किया गया कि एक महौषधि का वृक्ष मनुष्यों के जन्मादि रोगों को नष्ट कर पुनः स्वर्ग में चला गया। - डा० हीरालाल जैन (जेनिज्म थ्रू एजेज) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10591/82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन नवाक्य-सूची : पाकृत प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उदधृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक मुख्तार श्री जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ को प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नांग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका । (Introduction) से भुषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द। १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए. न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २.००, स्तुतिविद्या : स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पोर थी जुगलकिशोर मस्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । १-५० मध्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित। १.५० पक्रयनशासन : सत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... १-२५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। ... ३-६० जनप्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: मंस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों पोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य ' परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... ४.०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... १-२५ अध्यात्मरहस्य : पं पाशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० जैनग्रन्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पवपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं परमानन्द शास्त्री । सजिल्द। १२.०० ग्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० अन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणि सूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक 'पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृ., पक्की जिल्द ६.०० गैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित):संपादक ५० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-.. धावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोधिया ५-०० जैन लक्षणावली (तीन भागों में): (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५.००%3 द्वितीय भाग २५.०० Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500) (Under print) प्रकाशक - वीर सेथा मन्दिर के लिए प्रधाणी प्रिटिंग हा म दरियागज, नई दिल्ली-२ से द्विता . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध पत्रिका अनकान्ता वर्ष ३०: किरण २ प्रप्रेल-जून १९७७ विषयानुक्रमणिका सम्पादन-मण्डल डा. ज्योतिप्रसाद जैन बा०प्रेमसागर जैन श्री गोकुलप्रसाद न सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल.बी., साहित्यरत्न विषय १. पंच परमेष्ठियों का स्वरूप २. शुभ राग की हेयोपादेयता--विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ३. माधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में छन्द-योजना कु० इन्दु राय, एम. ए., लखनऊ ४. सारस्वत व्याकरण के टीकाकार और मफर उल-मलिक जराज धीमाल-श्री कुन्दन लाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली ५. महावीर ने कहा था-श्री रमाकान्त जैन, बी. ए., सा. र., त. को., लखनऊ ६. अनादि मूलमंत्रोऽयम्-श्री पाचन शास्त्री, एम. ए., दिल्ली ७. रयणसार के रचयिता कौन ?-श्री वंशीघर शास्त्री, एम. ए., सवाई माधोपुर ५४ ६. अग्रवाल जैन जाति के इतिहास की पावश्यकता -श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर ६. 'वात्य' : जैन संस्कृति का पूर्वपुरुष -डा. हरीन्द्र भूषण जैन, उज्जैन | १०. श्री पन्नालाल जैन अग्रवाल, दिल्ली -श्री जमेन्द्र कुमार मा.पृ. २ वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मस्य: १ रुपया ५० पैसा प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10591/82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन नवाक्य-सूची: पाकृत प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उदघृल दूसरे पद्यों की भी अनृत्रमगी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक मुस्तार श्री जगलकिशोरी की गवेषगणापूर्ण महत्व को ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदाय मांग, एम. ए., डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका । (Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द। १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुनाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । .... २-००. स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिमोर मस्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित।। १.५० मम्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित। १.५० एक्स्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... १-२५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ३-६० जनप्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: मस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक साहित्य ' परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । .. समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित अवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... प्रध्यात्मरहस्य : पं याशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पचपन ग्रन्थकारों के निहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक 'पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े भाकार के ३०० पृ., पक्की जिल्द जन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ५-०० ध्यानशतक (ध्यामस्तव सहित) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२.० धावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया जैन लक्षणावली (तीन भागों में): (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५-००; द्वितीय भाग २५.०० Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pagcs 2500) (Under print) प्रकाशक ----वीर रोबा मन्दिर के लिए रूपाणी प्रिटिंग हाम, दरियागज, नई दिल्ली-२ से मृद्रित । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध पत्रिका अनकान्त वर्ष ३० : किरण २ अप्रेल-जून १९७७ विषयानुक्रमणिका सम्पादन-मण्डल डा.ज्योतिप्रसाद जैन डा. प्रेमसागर जैन श्री गोकुलप्रसाद जैन ३४ सम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल.बी., साहित्यरत्न विषय १. पंच परमेष्ठियों का स्वरूप २. शुभ राग की हेयोपादेयता--विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ३. माधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में छन्द-योजना --कु० इन्दु राय, एम. ए., लखनऊ ४. सारस्वत व्याकरण के टीकाकार मोर मफर उल-मलिक पुंजराज श्रीमाल-श्री कुन्दन लाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली ५. महावीर ने कहा था-श्री रमाकान्त जैन, बी. ए., सा. र., त. को., लखनऊ ६. अनादि मूलमंत्रोऽयम्-श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, एम. ए., दिल्ली ७. रयणसार के रचयिता कौन ?-श्री बंशीधर शास्त्री, एम. ए., सवाई माधोपुर ८. अग्रवाल जैन जाति के इतिहास की पावश्यकता -श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर ६. 'व्रात्य' : जैन संस्कृति का पूर्वपुरुष - डा. हरीन्द्र भूषण जैन, उज्जैन १०. श्री पन्नालाल जैन अग्रवाल, दिल्ली -श्री जैनेन्द्र कुमार भा.पृ. २ वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य: १ रुपया ५० पैसा प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जागरण के प्रेरक-१ श्री पन्नालाल जैन असवाल, दिल्ली D श्री जैनेन्द्रकुमार श्री पन्नालाल जी अग्रवाल व्यक्ति नहीं, एक संस्था वर्मन, शीतलप्रसाद, श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी, पंडित हैं। वह विशेषकर दिल्ली के जैन मांस्कृतिक इतिहास के नाथूराम जी प्रेमी, बाबू छोटेलाल जी प्रादि अनेकानेक जीते जागते कोष है। इस दिशा में उनका काम अत्यन्त जैन ऐतिहासिक पुरुषों के पत्रों की उनके पास अमूल्य मूल्यवान और श्लाघनीय है। सन् १८७७ की जैन रथ- निधि है जिनसे जैन समाज और जैन जागरण का इतियात्रा देहली का इतिहास, उन्हीं की खोज के परिणाम हास प्रत्यक्ष हो सकता है। दिल्ली के लाल किले में हुए स्वरूप उपलब्ध हो पाया है। देहली की जैन संस्थानों की सांस्कृतिक सम्मेलन की साहित्यिक प्रदर्शनी में जैन सूची पूरे विवरण के साय अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भण्डारों के कुछ ममूल्य प्राचीन ग्रन्थों और चित्रों का भाषामों में अगर भाज प्राप्त है तो उन्हीं के सतत अध्यव- प्रदर्शन उन्ही के द्वारा सम्मव हुमा। दिल्ली की कई साय के कारण । इसके अतिरिक्त, उनकी एक अत्यन्त साहित्यिक, सामाजिक तथा शिक्षण संस्थाओं के माप उपयोगी कृति है 'प्रकाशित जैन साहित्य' । उसमें उन्होंने उत्साहशील कार्यकर्ता रहे हैं और अपने कर्तव्यों और जाने कहां-कहां से सूचनायें प्राप्त करके यह परिपूर्ण संक. दायित्वों का वहां पूरी परायणता से निर्वाह किया है। लन समाज को प्रदान किया है। शोधकर्तामों के लिए पाप में प्रारम प्रदर्शन का भाव एकदम नही है और 'गुणिषु यह बहुत ही काम का संग्रह है, और इसके लिए उनके प्रपोद' मापका स्वभाव बन गया है। प्रापके पसंख्य लेख, श्रम की जितनी स्तुति की जाय थोड़ी है। प्रनेकोनेक जैन नौट मादि प्रमुख जन पत्रों में प्रकाशित होते रहे है। एवं जैनेतर विद्वानों से श्री पन्नालाल जी ने निरसर अपना प्रापके सहयोग और सहायता का उल्लेख तो अनगिनत सम्पर्क रखकर नवीन रचनाओं और निर्माणों की भूमिका ग्रन्थों में मिलता है। फुटकर रूप से किये गए उनके सेवा प्रस्तुत की है। देश विदेश के विद्वानों एवं पर्यटकों को कार्यों की तो गिनती ही क्या ? उनकी सूची देने बनें तो उन्होंने यथावश्यक सामग्री सुलभ की है और यथोचित एक स्वतंत्र प्रन्थ का ही निर्माण हो सकता है। मार्गदर्शन में उनके सहायक हुए हैं। भापके सहयोग से पापका जन्म माघ शुक्ला द्वादशी संवत् १९६० को वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली; माणिक वन्द दिगम्बर जैन प्रन्य- हमा। पिता ला० भगवानदास जी मापके जन्म के माला, बम्बई; भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, चवरे दिगम्बर समय नमीराबाद छावनी में थे, पर लालन पालन बचग्रन्थमाला, कारंजा; जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर; मद्रास पन से दिल्ली में ही होता रहा। पाप निर्लोभ, धर्म परायण विश्वविद्यालय, प्रयाग विश्वविद्यालय (हिन्दी परिषद) और परिवार मादि की मोर से सुखी एवं निश्चिन्त हैं। एवं दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत द्वारा अनेकानेक ग्रन्थ यशः कामना में प्रस्त न होने के कारण प्रापकी रचनात्मक प्रकाशित हुए हैं। उनके पास उन जैन-प्रजन, देशी-विदेशी प्रवृत्तियों में कभी बाधा नहीं पड़ सकी और अपने युवाविद्वानों, लेखकों तथा सुधारकों के सैकड़ों पर सुरक्षित हैं काल के समान प्राज भी पार साहित्य सेवा एवं साहित्य जिन्होंने पिछले पचास वर्षों में जैन समाज अथवा साहित्य सेवियों की सेवा में पूर्ववत तत्पर मोर दतवित्त बने की सेवा में अपना योग दिया है। बैरिस्टर चम्पतराय जी, हुए है। जे. एल. जनी, बाबू मूरजभान वकील, मपि शिवव्रतलाल Page #42 --------------------------------------------------------------------------  Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् प्रहम परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ३० किरण २ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवन् २५०३, वि० स० २०३३ । अप्रेल-जन १९७७ पंच परमेष्ठियों का स्वरूप ग्रहन्त स्वरूप घण-घाइकम्म-रहिया केवलणाणाइ-परमगुण-सहिया। चोत्तिस-अविसन-जुत्ता अरिहंता एरिसा होति ॥ नियमसार, ७१ ॥ घन-घातिकर्म से रहित, केवलज्ञानादि परम गुणो से सहित और चौतीस अतिशयों से युक्त अर्हन्त होते हैं। सिद्ध का स्वरूप णट्र-कम्मबंधा प्रद-महागुण-समणिया परमा। लोयग-ठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति ॥ नियमसार, ७२॥ जिन्होंने पाठ कर्मों के बन्ध को नष्ट कर दिया है, जो पाठ महागुणों से संयुक्त, परम, लोक के अग्रभाग में स्थित और नित्य है, वे सिद्ध है।। प्राचार्य का स्वरूप पंचाचार-समग्गा पंचिदिय-दंति-दप्प-णिद्दलणा। धीरा गुण-गंभारा पायरिया एरिसा होति ।। नियमसार, ७३ ।। जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य इन पत्र प्राचारो से परिपूर्ण, पाँच इन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलने वाले, धीर और गण-गम्भीर हैं, वे प्राचार्य है। उपाध्याय का स्वरूप रयणत्तय-संजत्ता जिण-कहिय-पयत्थ-देसया सूरा। णिक्कंखभाव-सहिया उवज्झाया एरिसा होति ॥ नियमसार, ७४।। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान र सम्यकचारित्र इन तीन रत्नो रो युक्त, जिनेन्द्र के द्वारा कहे गए पदार्थो का उपदेश करने में कुशल और ग्राकाक्षा रहित है, वे उपाध्याय हैं। साधु का स्वरूप वावार-विप्पमुक्का चउव्विहाराणासगरत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साह एदेरिसा होति । नियमसार, ७१।। जो सभी प्रकार के व्यापार से रहित हैं, राम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और तपरून चार प्रकार की पाराधना में लीन रहते हैं. बाहरी-भीतरी परिग्रह से रहित तथा निर्मोह है, वे ही साध हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ राग की हेयोपादेयता D विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ गत् १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, कसबा चिलकाना एक वन मे एक घने वृक्ष के नीचे बिल में एक चहा (सुलतानपुर- चिलकाना), जिला सहारनपुर (उ० प्र०) रहता था, जो बढ़ा दीर्घदर्शी, विज्ञ, विचक्षण और गुणके निवामी अग्रवाल जातीय दिगम्बर जैन पं० ऋषभदास ग्राही था। देवयोग से एक दिन अपने बिल से निकल कर जी एक अच्छे प्रबुद्ध विद्वान, मुकवि एव सुलेखक हो गये भोजन की खोज मे वह वन में यत्र-तत्र फिरने लगा, कि है। पुराने लोगो से उनकी बहुत प्रशंमा सुनी है। देव- अकस्मात् सामने की मोर से एक बिलाव को प्राता देख योग से ३४-३५ वर्ष की अल्पायु मे ही उनका निधन हो कर चकित-चिन हो लौटने के लिए मुडा, तो देखा कि गया था। हिन्दी और संस्कृत के साथ ही साथ वह उर्दू पीछे से उसकी ताक मे एक नेवला चला पा रहा है। और फारसी के भी अच्छे विद्वान थे, धर्मज तो वह थे ऊपर की ओर निगाह की तो देखा कि उसी की धात में ही। उर्दू मे उन्होने 'मिस्वात्वनाशक नाटक' नाम की एक कौना लगा है। बड़ी सकटापन्न स्थिति थी-देवा एक बहुत सुन्दर एव मनोर नक पुस्तक लिखी थी। हिन्दी कि अब मरण निश्चित है। सोचने लगा कि किस प्रकार गद्य एव पद्य में भी कई रचनाये बताई जाती है। वि० जीवन की रक्षा हो ---आगे बढ़ता हु तो बिलाव वा स. १६४३ (सन् १८८६) गं उन्होने अपने पितामह जायेगा, पीले लोटता हू तो नेवला भक्षण कर जायेगा। ला० सुखदेव जी, पिता कवि म गलसेन जी तथा एक अन्य यही ठहरना हू तो कौना नहीं छोड़ेगा, कही भी कोई बुजुर्ग प० सन्तलाल जी की प्रेरणा से मरस हिन्दी पद्य शरण स्थान दिग्वायी नहीं पड़ता ? इम असमंजस मे मे 'पचबालयति-पूजापाठ' की रचना की थी। उक्त पाठ सोचता हमा चारो योर दृष्टि दौड़ा रहा है कि देखा कि की उत्थानिका के रूप मे उन्होने ३१ पद्यो में जैनी पूजा एक शिकारी ने बिलाव को अपने जाल में फैमा लिया विषयक एक रोचक शका समाधान प्रस्तुत किया है, जो है। अब च हे ने धर्य धारण किया और चतुराई से बिलाव मूलरूा में स्व० प्राचार्य जगल किशोर मुम्नार ने 'स्व. के निकट पहुचा। बिलाव प्रसन्न हुमा मोर पूछा, 'कहो सम्पादित 'अनेकान्त' (वर्ष १३. कि० ६ दिसम्वर १९५४ को पाना हुपा ?' चूहा वाला, हे मार्जार सुन ! यद्यपि पृ० १६५-१६६) में प्रकाशिा की थी। तुझे जाल मे बँधा देखकर मैं प्रसन्न होता और तेरे पास प्रथम ३ गोरठो में विद्वान लेगा ने यह शका उठाई फटकता भी नही, किन्तु यदि तू मेरी शर्त स्वीकार करे है कि जिनागम में राग और ढेप दोमो को हो कर्म-बन्ध तो मैं अभी तेरे सारे बन्धन काट दूं। मेरे शत्रु काग और का मूल कारण, प्रतएव त्याज्य कहा है, किन्तु माथ ही नेवला मेरी घात में लगे है, उनसे तुम्ही मुझे बचा सकते जिन पूजा को, जो प्रकट ही 'राग-समाज' अर्थात् बहुलता हो।', मार्जार ने कहा-'चतुर मित्र, उपाय तो बतायो । के साथ गगपूर्ण है, उपादेय एवं कार्य-माधक सिद्धि मुझे तुम्हारी शतं स्वीकार है, मेरी बात का विश्वास प्रदाता प्रतिपादित किया है। यह विसगति एव परस्पर करो।' मूपक बोला-मित्र, जब मै तेरे पास पाऊँ तो विरोध क्यो ? इसका क्या समाधान है ? तू नई हितकारी वचनों के साथ मेरा सन्मान करियो । अागे के २८ पद्यो मे, जिनमे से ८ दोहे है और शेष तेरे ऐसे व्यवहार से वे काग पोर नेवला मेरी पाशा प्रडिल्ल छन्द मे है, एक रूपक द्वारा सुन्दर समाधान त्यागकर भाग जायेंगे, और मैं प्रफुल्लित मन से तेरे प्रस्तुत किया है समस्त बन्धन काट दूंगा, विश्वास कर। हम दोनों की Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ राग की हेयोपादेयता प्राण रक्षा का यही उपाय है ।' विलाव ने यह सोचकर कि इस चूहे के रक्षा नहीं है, उनकी बात स्वीकार कर ली, उसे अपने पास बुला कर उसका आदर सम्मान काग और नकुल भाग गये । चूहा उस ओर से हुधा, पोरस विनाव का जान काटने लगा, किन्तु फिर उसके मन में श्रात्मरक्षा के लिए शका जागी कि यह बिलाव तो दोरा जातिविरोधी घोर शत्रु है, स्वयं बन्धन मुक्त होते ही क्या यह मुझे छोड़ देगा ?, मार्जार वोला, 'मित्र क्यो शिथिल हो गये ? क्या अपना वह वचन भूल गये और मन में द्रोह करने की ठान ली है ?" मूपक उत्तर दिया, भाग से कमल भले ही उत्पन्न हो जाय, तो भी मैं कभी भी द्रोह नहीं ठानुगा तुमसे ही मुझे का है, इसी से काम मे होना पड़ गया हूं। मैं सच कहता हूं. ने बिना जीवन प्रेम से बड़े किया । सुरक्षित लेखक कहता है कि - 'हे भव्य विचार कर देखो । उक्त प्रश्न का समस्त भ्रान्ति का निरसन करने वाला यह दृष्टान्त ही उत्तर है । इसका भावार्थ है कि यद्यपि सब ही शत्रु स्पाय है तथापि उनमे से किसी एक का जिनसे कार्य सघ सके) पक्ष ग्रहण करके अन्य रायको तज दे, और जब कार्य सघ जाय तो आत्मरक्षा को मुख्यता देकर प्रत्युपकार कर दे, जंमा कि चूहे ने बिलाव के साथ किया । इस सम्बन्ध मे बुद्धिमानों के गुने समते योग्य जो विशेष है, जिससे विवाद बुद्धि छोड़, भ्रम गिरता है, श्रीर श्रात्मा मे खोज बुद्धि उत्पन्न होती है, वह कहता हैको जीव समझो, जगत को उगका बिल, सूचक नकुल को द्वेष और काम को मोह मान लो । मार्जार राग है जो धर्म रूपी जाल में बधा है। पूजा, दानादि उस जाल के बन्धन है। यह जीव भांग की योगमयति रूपी वन मे भटकता है। दो शत्रुओं से डरकर बन्धन मे पड़े तीसरे शत्रु का उसने सहारा लिया। पूजादि राग के प्रभाव से द्वेष मोर गोह का क्षय हो गया और उनके साथ ही दुख, दोष आदि शेप शत्रु भी पलायन कर गये । पुनः जीव सोचता है कि यदि इस शुभराम का भी पूरा विश्वास करूँ तो यह भी पिंड नहीं छोडगा और भववास को और अधिक मायेगा मुकार भी करता है किन्तु तभी जब वह मुझे भवभ्रमर में न डाग सके । तू धीरज रख मैं तेरे समस्त बन्धन काट दूंगा ।' बिलाव ने कहा- मैंने तो सौ खाकर तुमने मित्रता की है। फिर भी तेरे मन मे नहीं गई तेरा मन शक्ति रहेगा तो मेरे वन कैसे कटेगा ? अतः मेरा कहा मान और विश्वास न ।' ३५ इस पर चतुर ग्रुप ने कहा- 'मैने तो तेरे से प्रयोजनवा कार्यार्थ प्रेम किया है। निश्चय ही तू मेरा जातिविरोधी और निर्दय है । सो मेरा कर्तव्य तो आत्मरक्षा है उस प्रयोजन की विद्धि होने तक ही मेरी तेरी यह कार्या प्रीति परिमित है से अपने वचन का निर्या भी मुझे करना ही है | अतः इस द्विविध विषमता से पार पाने के लिए मैंने यह निश्चय किया है कि एक कठिन बन्धन को छोड़कर तेरे अन्य सव बन्धन तो अभी काट देता हूं, तुझे पकड़ने के लिए जब वधिक श्रायेगा तो तू मुझे भूलकर अपने संकट से व्याकुल हो जायेगा । उस समय में वह बन्धन भी काट दूंगा। छूटते ही तू भाग जायेगा, और मेरे दुख का भी भ्रन्त हो जायेगा । श्रतएव मूषक ने ऐसा ही किया और मार्जर ने भी प्रयत्न हो अपनी स्वीकृति दे दी। उतने में बधिक प्राया, उसे प्राता देख अपने-अपने कार्य सिद्धि की आशा से सभी प्रगन्न हुए जैसे ही शिकारी पकड़ने के लिए निकट पाया, बिलाव श्रासन्न विपत्ति से व्याकुल हो गया। चूहे ने वह बन्धन भी काट दिया और अपना दाव देख तुरन्त भाग गया । इस प्रकार चिन्तवन करता हुआ यह जीव निश दिन अवसर की ताक में रहता है, और स्वपुरुषार्थ द्वारा पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य को प्राप्त कर लेता है तो ( अन्तरूप में ) आर्य देश में विहार करता हुआ रासार के प्राणियो को हित- उपदेश देता है, तथा जिन पूजा का अतिशय जग मे प्रगट करता है वह नहीं कहता, लोग स्वयं ही जान जाते है कि यह प्र पद सातिशय जिनपूजा का ही प्रभाव है उक्त प्रशस्त राग के प्रति यही जीव का प्रकार है। जो पुरन्नमति है वे इस प्रकार मोक्षपद प्राप्त कर लेते है और जो अनुमति है वे राग-प-गो के जड़ों में फँसे रहते है । जो लोग जिनपूजादि शुभराग की शरण ( शेष पृ० ४२ पर) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में छन्द-योजना 0 कु० इन्दुराय एम. ए., लखनऊ महाकाव्य को महत्ता एव गरिमा प्रदान करने के प्रोज भी सर्वमान्य है, केवल अन्त्यनुप्रास का निर्देश मुक्त लिए जैसे भावगत सौदर्य अपेक्षमान है, वैसे ही उसका एवं अतुकांत छन्दों पर चरितार्थ नहीं होता है। कात्मक वैभव एवं शिल्प-सौष्ठव भी कम अपेक्षणीय आधुनिक हिन्दी काव्यों की छन्द योजना का विशद नहीं। महाकाव्य के शिला को सुप्ठ, सुप्रलकृत तथा सुग्राह्य अध्ययन करने वाले विद्वान् डा. पुत्तूलाल शुक्ल के शब्दों बनाने के लिए भावानुकल छन्दो का गठन नितांत वांछ- मे-"छन्द वह वग्वरी धनि है, जो प्रत्यक्षीकृत निरंतर नीय है। छन्द कविता का परम्परागत एवं अतिरिक्त तरंग भगिमा से आह्लाद के साय भाव और अर्थ की अलकार मात्र न होकर, काव्यात्मा की एक महत्वपूर्ण अभिव्यंजना कर सके' तथा 'छन्द नियमित मुखध्वनि सृष्टि है । यह सृष्टि एक मधुर बन्धन की है जो काव्य के रचना है" | तात्पर्य यह कि प्रत्येक छन्द मनुष्य की प्रवाह को नियंत्रित कर, भावों में सुव्यवस्था का प्रचार सौदर्य बोध वृत्ति के परिणामस्वरूप सायास रचा जाता है, करती है। वस्तुतः 'छन्दोदना काटा का वह गूलभूत वह स्वत: उदमन नहीं होता । तत्त्व है जो गद्य मे उसका पावर्तन करता है । पतएव उपर्यवत विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि 'छन्द' काव्य और छन्द का महज एव अविछिन्न सम्बन्ध है।" काव्य का अलकरण मान नहीं, उसका अाधारभूत तत्व भारतीय माहित्य में 'छन्द' शब्द का प्रयोग नया है। मक्षपत: छन्द काव्य का अतरग पक्ष तथा कविता का नही है। सच तो यह है कि 'छन्द' शब्द वेद के पर्याय सहज माध्यम है । छन्द का नियत्रण भावावगजन्य रूप में प्रयुक्त हुपा है। वो के जो छ: अग स्वीकार विखलता में व्यवस्था का संचार करता है। छन्द के किए गए है--शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा अभिन्न उपकरणों, यति, गति, लय, तुक आदि से ही ज्योतिष, इनमे छन्द भी एक अंग माना गया है। 'छन्द' काव्य मे समुचित प्रवाह, शब्द विन्यास में भावाद्बोधन शब्द की व्युत्पत्ति 'चदि' धातु से निष्पन्न हुई है, जिसे की शक्ति तथा अर्थ में प्राणवत्ता व जीवन्तता उद्भुत महर्षि पाणिनी ने 'चदेरादेश्चछः' सूत्र द्वारा व्यक्त किया होती है। है। उनकी दृष्टि में, जो हर्प और दीप्ति प्रदान करता है छन्द दो प्रकार के होते है-वाणिक छन्द तथा वही 'छन्द' है। मात्रिक छन्द । जिस छन्द में केवल मात्रामों की संख्या हिन्दी काव्य साहित्य के सन्दर्भ में छन्द की परिभाषा का विधान हो, अर्थात् चारो चरणों में एक समान मात्रा व्यक्त करते हुए श्री जगन्नाथप्रगाद 'भानु' ने लिखा है- हो परन्तु वर्ण क्रम एक-सा न हो वही 'मात्रिक छन्द' है। मत्त बरण गति यति नियम, यहि ममता बंद। इसके विपरीत, जिस छन्द के चारों चरणों में वर्ण-क्रम जा पद रचना में मिले, भानु भनत स्वइ छंद ॥ समान हो और वर्णों की संख्या भी समान हो वही अर्थात् जिस पद-रचना में मात्रा, वर्ण, यति, गति वणिक छन्द' है।' वणिक छन्दों को वृत्त कहने की प्रथा का निश्चित नियम हो एव अंत में तुक साम्य हो अर्थात् है क्योंकि 'क्त गणों द्वारा क्रमबद्ध हैं जबाँक मात्रिक छन्द अन्त्यप्राम हो वही छन्द है। 'भानु' जी की परिभाषा मुक्त अर्थात् स्वच्छन्द विहारी है। १. प्रतिमा कृष्ण बल-छायावाद का काव्य शिल्प, पृ. ३२५. क्रम पर सस्पा वरण की, चह चरणनि सम जोय । २ जगन्नाथ प्रसाद, 'भानु'---छन्द प्रभाकर, पृ. सोई वणिक वृत्त है, अन्य मातरिक होय ।। ३. डा० पुत्तूलाल शुक्ल-माधुनिक हिन्दी काव्य में छन्द -जगन्नाथप्रसाद 'भानु'-छन्द प्रभाकर, पृ. ६ (भूमिका) योजना, पृ० २१ ४. वही पृ० २३ ६. वही पृ०७ (भूमिका) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में छन्द योजना वर्णवतों तथा मात्रिक छन्दों के भेद उपभेद है-इन्हें निम्नलिखित तालिका में स्पष्टत: प्रकट किया गया है।' वणिक मात्रिक सम अर्द्धसम विषम मदंसम दिषम । जातिक सवैया दण्डक सयुक्त प्रबंधित जातिक दण्डक संयुक्त प्रबंधित साधारण मुक्तक साधारण मुक्तक छन्द चाहे वणिक हो अथवा मात्रिक, सभी का मूला- मे वर्णवत्तों की स्वल्प रचना हुई है। कवि पनप शर्मा ने पार है स्वरो का लघु अथवा गुरु उच्चारण । श्रवणीय 'बर्द्धमान' महाकाव्य मे प्रायोपात वृत्तो की सर्जना की है, स्वर स्पन्दन से लेकर एक-एक निश्चित उच्चारण तीव्रता महाकवि रघबीर शरण मित्र ने भी महाकाव्य 'वीरायन' तक लघु स्वर (1) माना गया है और उसके ऊपर गुरु मे एकाध स्थलो पर वणिक वृत्त का उपयोग किया है। (5) । यद्यपि लघु एवं दीर्घ मध्य निश्चित विभाजक अवशिष्ट हिन्दी जैन महाकाव्यो में केवल माधिकों का रेखा खीचना कठिन है, तदपि लघु-गुरु के निर्णय का प्रयोग दृष्टिगत होता है। प्राधार कालमान या बालभार है। इन्ही लघ, दीर्घ वर्णवृत्त मात्राओं की गणना द्वारा छन्द के प्रकार का निर्णय किया वर्णवत्त के प्रध्ययन क्रम में 'गण' का ज्ञान आवश्यक जाता है। है। तीन प्रक्षरों के संयुक्त "त्रिक' को गण कहते हैं। आधुनिक हिन्दी महाकाव्यो की भांति ही प्राधुनिक विस्तार भेद की दृष्टि से 'त्रिकल' या त्रिक के पाठ सप हिन्दी जैन महाकाव्यो में भी वर्णवत्तो तथा मात्रिक छन्दो हो सकते है। इन पाठ रूपों को सुविधा की दृष्टि से दोनो का सफल वा सुष्ठ प्रयोग हुमा है। यह सत्य है ___ गण नाम दे दिए गए है जो निम्नलिखित है :कि वर्णवत्तों का प्रायोजन मात्रिकों की विपुलात्मक सख्या मगण (15) यगण (155) रगण (175) सगण (15) के समक्ष नगण्यप्राय है। इसका कारण है खड़ी बोली तगण() जगण (151) भगण (51) नगण (m) हिन्दी की विश्लिष्टात्मक वृत्ति । 'सरका की भांति किसी छन्द मे उपर्युक्त विकलों के निश्चित प्रावर्तन संश्लिष्ट एवं सन्धिसमासबहुला भापा न होने के कारण के नियम के अनुकल ही वृत्तभेद निश्चित किया जाता है। हिन्दी में वर्णवृत्त का क्रम बध नही पाता, अतएव उसकी जैसा कि पूर्वोत्नेख किया जा चुका है, महाकाव्य कार प्रवृत्ति का सहित से व्यवहृत की पोर होना ही वास्तव में, अनूप शर्मा ने १७ सगों में निबद्ध अपने महाकाव्य 'वर्द्धउसमें वणिक की अपेक्षा मात्रिक छन्दों के प्रवान का मान मे प्राद्यत केवल वृत्तो का प्राश्रय लिया है। वर्द्धमान' मूल कारण है।" मे समस्त वर्णवतो की कुल मापा १६६७ है, जिनमें भापा की प्रतिकूलता के कारण ही जन महाकाव्यों १९२२ वंशस्थ, ७० दुतविलम्बित, २ मालिनी (प्रथम १. विस्तृत विवरण के लिए देखिए - रघुनन्दन शास्त्री-“छन्द प्रकाश", पृ० ४३-४७ । २. प्रतिमा कृष्णबल-छायावाद का काव्य शिल्प, पृ. ३२२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८, वर्ष ३०, कि०२ अनेकांत ISI 151 SIS सर्ग) एवं ३ शार्दूल-विक्रीड़ित (अन्तिम, १७वां सर्ग) कथावर्णन, प्रकृति चित्रण, दर्शन निरूपण, पात्र सृष्टि, उपवृत्त है। इस गणना से सिद्ध हो जाता है कि वशस्थ वृत्त देश कथन, वस्तु व्यजना, रसान्विति सभी के लिए वंशस्थ के प्रयोग में कवि ने नया कीत्तिमान स्थापित किया है। वृत्त को साधन बनाया है। डा० पुत्तूलाल शुक्ल के शब्दों अाज तक किसी हिन्दी कवि ने एक ही कृति में इतने में तो "मूर्तिकार के हाथों में जैसे मृदित मृदु मृत्तिका अधिक वंशस्थो का उपयोग नहीं किया है। होती है, वैसे ही अनप की प्रतिभा के करों में वंशस्थ वंशस्थ रहा है। यह १२ अाक्षरिक जगती वर्ग का समवृत्त छन्द है, तिविलम्बित प्रति इसके प्रत्येक पाद मे १२ प्रक्षर होते है, जिनका (नगण, भगण, भगण, रगण-111, SI, STI, sis) गणक्रम है (जगण, तगण, जगण, रगण), यथा निम्न- द्रतिविलम्बित वृत्त का प्रयोग वर्द्धमान के प्रत्येक सर्ग लिखित उदाहरण मे -- में हुमा है। विशेषत. सगन्ति में, छन्द परिवर्तन के महा त. ज. र० काध्यीय लक्षण के दष्टिकोण से इस वृत्त का प्रायोजन 5 5 15 (प्रथम एवं सत्रहवें सर्ग के अतिरिक्त) सभी सर्गों के अन्त प्रभात के पक्ष प्रसार 4 चढ़ी में हमा है। इम वृत्त द्वारा भावी कथा के प्रति जिज्ञासा 1515 __ISIS व्यक्त की गई है, यथागभस्तियां ज्यो रवि को प्रकाशती न. भ. भ. र. ISI डा कुमार की प्रस्तुत भाव शैलियां ॥ II || 5 5 इस प्रकार महा अनुराग से विराजती थी हृदयाभिरूढ़ हो जगत था करता जब प्रार्थना यद्यपि वंशस्थ वृत्त करुण, शृगार एवं शान्त रसों प्रभु प्रचंचल चित्त उठे, तथा, के अनुकल है परन्तु 'वशस्थ सिद्ध कवि' अनूप ने नवों चल दिए लखिए किस ओर ?' रसों के परिपाक का उपकरण वशस्थ को बनाया है। इसी वृत्त ने महाकाव्य में विश्रामदायी स्थल का पन्त्यानुप्रास मुक्त वशस्थ वृत्तो में कवि ने यति विधान दायित्व निर्वाहा है। कवि ने तिविलम्बित वृत्त का के क्षेत्र में भी स्वच्छन्दता का परिचय दिया है। प्रस्तुतीकरण संस्कृत प्रयोगों की भाति केवल दो चरणों साधारणतः, प्राचार्यों ने पाच वर्गों के पश्चात् यति लक्षण तक सीमित न रख, चारो चरणों तक प्रवाहमान रखा है। निदिष्ट किया है, किन्तु महाकवि ने सुविधानुसार कही शालविक्रीडित चार कही पाच तो कही छः वर्णों के बाद यति दी है। (मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगण, गुरु) निम्नलिखित वृत्त मे चार वर्णो पर यति है। इस वत्त में 555 H15151115551 551 S गुम्फित अन्त्यानुप्रास भी दर्शनीय है --- सम्पूर्ण महाकाव्य 'वर्द्धमान' में केवल तीन शार्दलप्रसन्नता, सुन्दरता, सुभाग्यता, विक्रीडित वृत्तों का प्रयोग हुआ है। तीनों वृत्त अन्तिम नपाल के प्रागन मे प्रफुल्ल थी, सर्ग के अन्त में स्थित है, जिनमें उपसंहार रूप मे कथा विमुग्धता, चचलता, मनस्विता, मन्तिम बार ज्योतित हुई है-- कुमार सेवा करती अजस्त्र थी।' भव्यो! है यह मेदिनी शिविर सो जाना पड़ेगा कभी, साराशतः कवि अनूप ने 'वमान' महाकाव्य मे मागे का पथ ज्ञान है न, इससे सद्बुद्धि आये न क्यो ? १. अनूप शर्मा-वद्धमान, पृ. ३५३ । ३. सम्पादक डा०प्रेमनारायण टण्डन-मनप शर्मा: २. अनूप शर्मा-- वर्द्धमान, पृ. २५२ । ___ कृतिया मोर कला, पृ. २०८ । ४. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. ५२१ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में छप योजना ले लो साधन धर्म के, न तुमको व्यापे व्यथा अन्यथा, वृत्तों का प्रयोग हुमा है, शेष सभी छन्द 'मात्रिक' है। है जैनेन्द्र-पदारविन्द-तरणी संसार-पाथोधि की।' वर्द्धमान महाकाव्य के अतिरिक्त समस्त हिन्दी जैन न त में भी विकलों का सम प्रवाह चारों महाकाव्यो मे मात्रिक छन्दो का विविधात्मक, विपल चरणों मे गतिमान है। महाकाव्य में इस वृत्त का उपयोग प्रयोग दृष्टिगत होता है। श्री मोतीलाल मातंण्ड ऋषभमल्प होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है। देव कृत 'श्री ऋषभचरितसार' तथा सौराष्ट्र के राजकवि मालिनी-(नगण, नगण, मगण, यगण, यगण) मूलदास मोहनदास नीमावत विरचित महाकाव्य 'वीरा111 III SSS 155 155 यण' मे गोस्वामी तुलसीदास की प्रमर कृति (रामचरित विपनप ने समीक्ष्य महाकाव्य वर्द्धमान में केवल दो मानस) को छन्द शैली का पूर्णतः अनुसरण करते हुए पायोजित किए है। एक प्रथम सगं के मध्य दोहा, चौपाई, सोरठा, रोला, वीर हरिगीतिका प्रादि में विश्राम व नवस्फति देने के लिए तथा एक प्रथम सर्ग छन्दों को ही स्थान दिया गया है। इन छन्द प्रयोगो में के अन्त मे है, छन्द परिवर्तन के शास्त्रीय लक्षण के अनु- कोई नवीनता नही। सार। वस्तुत: कवि की वृत्ति मालिनी वृत्त के प्रयोग मे कवि घन्य कुमार सुधेश ने "परम ज्योति महावीर" अधिक नही रही है । एक उदाहरण प्रस्तुत है महाकाव्य की रचना केवल चौपाई उन्द में निबद्ध कर दी 11 11 11 555 ISSISS है। बहुत प्रयत्न करने पर इन चौपाइयों के मध्य १६ जय रति पनि तेरी हो, तुझे सर्वदाही मात्रिक अन्य छन्द ढहें जा मको है परन्तु कपि का कुल गुम् अबलाएं मानती केलि मे है, अभीष्ट छन्द 'चौपाई ही रहा है। पर अन जिस प्राणी को, सखे ! जन्म देगा, ___कवि वीरेन्द्र प्रसाद जैन ने अपने दोनों महाकाव्यों वह विजित तुझे भी भूमि में प्रा करेगा। 'तीर्थकर भगवान महावीर" तथा "पाल प्रभाकर" मे उपेन्द्रवजा-(जगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु) समान छन्द शैली अपनाई है। उभय महाकाव्यों में एक 15 सर्ग में प्रायः एक ही प्रकार के मममात्रिक छन्दों की समस्त हिन्दी जैन महाकाव्यों मे, केवल कवि रघु- रचना हुई है त या प्रत्येक सर्ग के अन्त मे छन्द परिवर्तित बीर शरण मित्र ने उपेन्द्रवज्रा का प्रत्या प्रयोग 'वीरा- कर दिया गया है। सन्ति छन्द प्रायः प्रखंगम मात्रिक यन' महाकाव्य में किया है। हस्तिनापुर राज्य के पतन है। "तीर्थङ्कर भगवान महावीर" महाकाव्य के प्रामुख का चित्रण प्रस्तुत वृत्त के माध्यम से हुमा है, यथा- में कवि ने लिखा है -"यह भक्ति की ही शक्ति है जिसने नृशस स्वार्थी हर मोर छाये मुझमे मेरे पाराध्य के प्रति ११११ छन्द लिखवा लिए"" विद्वान ज्ञानी पग चूमते थे यह छन्द सख्या विवादास्पद है, क्योकि गणना करने पर विचित्र क्रीड़ा उस राज को थी छन्दों की संख्या ११२२ बैठती है। गुलाब काटों पर झूलते थे।' भगवान महावीर के २५ सौवें निर्वाण वर्ष में प्रका. एकादश अक्षरों वाले उपेन्द्रवज्रा वृत्तो की कुल शित होने वाले, श्री रघुवीर शरण 'मित्र' विरचित 'वीरासख्या महाकाव्य 'वीरायन' में केवल तीन है। ये तीन यन' तथा डा० छै लबिहारी कृत 'तीर्थकर महावीर' महावृत्त ही विपुल सख्यात्मक मात्रिक छन्दो के मध्य नगीने काव्यों मे वैविध्यपूर्ण छन्द सृष्टि हुई है। महाकाव्यकारों की भांति जड़े हुए है। ने स्वच्छन्तापूर्वक मममात्रिक, अद्ध सममात्रिक, विषम उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि प्राधु एवं मुक्त सभी प्रकार के छन्दो का चार प्रयोग किया है, निक हिन्दी जैन महाकाव्यो में पांच प्रकार के ही वर्ण. कही कही नवीन छान्दस् योजना भी सफलता सहित १. अनूप शर्मा - वर्द्धमान, पृ. ५८५ । ३. रघुवीर शरण मित्र-'वीरायन', पृ. ७३ । २. वही-पृ. ७०। ४. वीरेन्द्र प्रसाद जैन-तीर्थदूर भगवान महावीर 'पामग्व' Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०, वर्ष ३०, कि०२ अनेकान्त प्रयुक्त हुई हैं। 'वीरायन' में कवि ने सर्वाधिक उपयोग 'पार्श्व प्रभाकर' में डिल्ला का प्रयोग दर्शनीय है, जिसके मिश्र छन्दों के योग से निर्मित गीतों का किया है, तथा प्रत्येक चरणान्त में भगण (I) रखा गया हैकथा वर्णन हेतु ३२ मात्रिक मत्त सवैया छन्द प्रत्युक्त जय मानवता के आभूषण किया है। 'तीर्थङ्कर महावीर' महाकाव्य में भी डा. जय उग्रवंश नभ के भूषण गुप्त ने स्वतन्त्र एवं मार्मिक गीतों की मृष्टि की है जिनमें जय विश्वसेन ब्राह्मी नन्दन मिश्र छन्द प्रयोग दर्शनीय है। जय पार्श्वनाथ शत शत वन्दन ।' साध्वी मंजला जी ने प्रबन्ध काव्य "बन्धन मुक्ति" इसी प्रकार, शृंगार छन्द चौपाइयो के मध्य आ गए में छन्दों का कौशल केवल पाठवें (उद्धार) मर्ग में प्रस्तुत है, परन्तु 'तीर्थकर महावीर' महाकाव्य में कवि ने चौपाकिया है। वस्तुत: सम्पूर्ण कृति में उद्धार सर्ग ही सर्वा इयों की अपेक्षा १६ मात्रिक शृगार छन्दों की ही अधिक धिक मर्मस्पर्शी, काव्यात्मक एवं भाव-गाम्भीर्यपूर्ण है, सजना की है। 'शृगार' का लक्षण है (३+२ मात्राएं जिसमें चन्दना सती के दुःखपूर्ण जीवन की मामिक कथा तथा चरणान्त में 5-३ मात्राए) निम्न पद में शृगार एवं भगवान महावीर द्वारा चन्दना उद्धार की अलौकिक छन्द प्रयोग देखिएघटना अनुस्यूत की गई है। शेष सगर्गों मे सिन्धु, रूपमाला, सुगन्धित पुष्पों का कर लेप गीतिका, सार एवं वीर आदि सममात्रिक छन्द प्रायोजित भाल पर तिलक लगाया एक शीश पर चूड़ामणि फिर बांध विभिन्न हिन्दी जैन महाकाव्यों में मात्रिक छन्दों की दिया नयनों में काजल प्रांज ।' योजना का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने के पश्चात् इन माधुनिक काल में कवियों ने समान मात्रिक दो छन्दों काव्यों में प्रयुक्त कतिपय छन्द-रूपों का संक्षिप्त विश्लेषण के प्रयोग से एक सममात्रिक छन्द की रचना भी की है। अभीष्ट होगा निम्नलिखित १६ मात्रिक छन्द के प्रथम दो चरणों १६ मात्रिक छन्द : 'चौपाई' के तथा अन्तिम दो चरण 'शृंगार' छन्द के हैमाधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यो में प्रायः प्रत्येक मे उन्हे कुछ ममता कोह न था १६ मात्रिक छन्दों का विपुलात्मक प्रयोग किया गया है। नही कुछ मन मे राग व्यथा १६ मात्रिको में भी चौपाई छन्द सर्वाधिक प्रयुक्त है। .नही अभिलाषा मिले प्रसिद्धि चौपाई छन्द का लक्षण निर्दिष्ट करते हुए प्राचार्यों ने लक्ष्य बस योग ध्यान की सिद्धि' चरण के अन्त में जगण (151) तथा तगण (1) का २४ मात्रिक निषेध स्वीकारा है, अतः महाकाव्यकारो ने शास्त्रीय १६ मात्रिक की भांति ही २४ मात्रा के विभिन्न लक्षणानुसार चौपाइयों की सृष्टि की है, उदाहरणार्थ- प्रकार के सममात्रिक एवं प्रर्द्धसम मात्रिक छन्दों का प्रयोग वर्द्धमान की बालसुलभ ये। जैन महाकाव्यों में प्राप्य है। सममात्रिकों में रोला (११, शुभ चेप्टाएं हृदय मोहती ।। १३ मात्रामों पर यति)उनकी तुच्छ क्रियानो से भी। रोला-ग्यान किरन तें ऋषभ सूर्य प्रग्यान नसाया। ___ मौलिक बातें अमित सोहती।' कोटि कोटि भविजन को भवतें पार लगाया। चौपाई छन्दों के मध्य कही-कही आनायास डिल्ला, गुन अनत के नाथ प्रथम तीर्थकर स्वामी। शृंगार एवं पज्झटिका प्रादि छन्दो की सृष्टि हो गई है। सुर सुरेन्द्र बंद हि नित तिन्ह पद सीस नमामी। १. वीरेन्द्र प्रसाद जैन-तीर्थकर भगवान महावीर, पृ. ७१। ४. वही, पृ. १४५। २. वीरेन्द्रप्रसाद जैन-पाव प्रभाकर, पृ. २२२। ५. श्री मोतीलाल मार्तण्ड 'ऋषभदेव'--श्री ऋषभ ३. डा० छैल बिहारी गुप्त -तीर्थकर महावोर, पृ.२०। चरितसार, पृ. ११० । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षाधुनिक हिन्बी जैन महाकाव्यों में छन्द योजना ४१ तथा रूपमाला (१४, १० पर यति, अन्त में ) सारांशतः माधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में १२ छन्द अधिक दृष्टिगत होते हैं । कवि वीरेन्द्र प्रसाद जैन ने मात्रा से लेकर ३२ मात्रा तक के सममात्रिक तथा विविध रूपमाला छन्दों का प्रर्द्ध प्रयोग किया है, अर्थात् छन्द में प्रकार के प्रर्द्धसम मात्रिक छन्दों का सृष्टि कौशल देखा चार चरणों के स्थान पर केवल दो ही चरणों से एक पूरा जा सकता है। केवल इतना ही नहीं विषम छन्द, मुक्त छन्द निमित किया है, यथा छन्द एवं मिथ छन्द सम्बन्वी ननन छान्दस् प्रयोग भी हो गया समरस सबेरा फैलता पालोक। विश्लेषणीय है। राग तम छिपता दिखाता, चिर विरती का लोक ।' हिन्दी काव्यों में मुक्त छन्दों का प्रयोग अधुनातन है, २४ मात्रिक प्रर्द्धसम छन्दों में सोरठा एवं दोहे का जिस पर विदेशी एवं हिन्दीतर भारतीय भाषामों का प्रयोग परम्परा से होता चला पाया है। जैन महाकाव्यों स्पष्ट प्रभाव पड़ा है । बहुत समय तक अतुकात छन्दों को में भी इनकी स्थिति पर्याप्त सुदृढ़ है। रघुवीर शरण मुक्त छन्द माना जाता रहा, किन्तु यह धारणा पूर्णतः 'मित्र' जी ने 'दोहा' छन्द को दो प्रकार की लिपि-शैली मे भ्रान्त है। वस्तुतः 'मुक्तछन्द' वह छन्द विशेष है जो प्रस्तुत किया है, प्रत्येक रूप निम्न पंक्तियों मे अकित है- मात्रा, गण, गति, यति, तुक आदि के समस्त छन्दशास्त्रीय (१) विविध भाव प्राणी विविध, पूजा विविध प्रकार। बन्धनों से सर्वथा मुक्त हंता हुआ भी प्रत्येक पक्ति के स्याद्वाद के स्वरों से, अर्चन बारम्बार ॥' रूपगत प्रातरिक ऐक्य पर बल देने के कारण संगीतात्मक (२) अपने अपने धर्म है, अपने अपने कर्म । लय को सुरक्षित रखता है-प्रत. स्वच्छन्द होते हुए भी धर्म धर्म सब गा रहे, नही जानते मर्म ॥' वह 'मुक्त छन्द' है। मित्र जी ने 'वीरायन' में तीन चार प्राधुनिक काल में सममात्रिक छन्दों का प्रर्द्धसम स्थलों पर क्षिप्र प्रवाह युक्त 'मुक्त' छन्दों की योजना की प्रयोग अत्यधिक प्रचलित हो गया है। 'वीर छन्द' ३१ है। निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य हैमात्रानों का सममात्रिक छन्द है, जिसके प्रत्येक चरण में मस्तक पर ज्योति का तिलक । १६, १५ मात्राओं पर यति होती है। प्राधुनिक कवि यति भाल पर उषा की लाली। के स्थान से नवीन चरण प्रारम्भ कर, दो ३१ मात्रामों पाखों मे सारे युग। का प्रस्तार चार चरणों तक कर देता है कानों में सबके बोल। धन्य पिताजी धन्य जननि मम, १६ मात्राएं प्रघरो पर मौन, धन्य धन्य प्रादर्श ललाम । =१५ , कौन तुम कौन ?' धन्य भाग मम मिल पाप सम, १६ ,, 'मुक्त छन्द' प्रयोग की भाति प्राज का कवि नित्य ___ मात पिता अनुपम अभिराम ॥' =१५ , नवीन छान्दस् उद्भावनाएं करने में रत है। जैन महा ठीक इसी प्रकार डा० गुप्त ने २७ मात्रिक सरसी काव्यों में भी नुतन छन्द प्रयोगों का प्रभाव नहीं है। (१६, ११ पर यति) छन्द का अर्द्धसम प्रयोग किया है, महाकाव्यकारों ने तीन चरणात्मक विषम छन्दों का पर्याप्त यथा प्रायोजन किया है। इन प्रयोगो के दो स्वरूप प्रस्तुत हैंराजमहल में करती थी सब -१६ मात्राएं (१) मौन भक्त भगवान रहे, अपना अपना कार्य ११ । शब्दों से क्या भला कहे, कोई प्रभु की बनी सेविका चन्दन प्राज बनी उमला। कोई बनकर घाय १. वीरेन्द्रप्रसाद जैन-तीर्थकर भगवान महावीर, पृ. १२३ ५. डा० छैलबिहारी गुप्त, 'तीर्थकर महावीर, पृ. २७-२८ २. रघुवीर शरण मित्र -वीरायन, पृ. ४१ । ६. रघुवीर शरण मित्र, 'वीरायन', पृ. ३५१ । ३. वही० पृ. १३७ । ७. साध्वी मजुला, 'बन्धन मुक्ति', पृ. १३४ । ४. वीरेन्द्रप्रसाद जैन, तीर्थकर भगवान महावीर, पृ. १२२ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२, वर्ष ३०, कि०२ (२) रो उठा था देख कर माकाश, मात्रामों का नियोजन कर 'गीत निर्माण', बहुलता से बन रहा था मनुज, किया है। महाकाव्यकार ने १६, १८, २०, २१, २६ एवं धरती के मनुज का दास । २८ मात्रा प्रति पक्ति वाले प्रर्द्धछन्द एवं पूर्णछन्द के 'सहइसी प्रकार प्राधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में भावों योग से अनेकानेक गीतों की सृष्टि की है। निम्नलिखित की प्रभावोत्पादक शक्ति के वाक्य के लिए मिश्र छन्दो गीत मे २८ मात्रिक सार-छन्द के प्रर्द्ध एवं पूर्ण छन्द के योग से बने स्वतत्र गीतों की रचना अधिक हुई है। कमायोजन दष्टव्य हैमहाकाव्यकारों ने सममात्रिक छन्दो के योग से, सममात्रिकाये यहा अनार्य देश में सकट माये भारी। २८ मा० एव पद्धसम मात्रिक छन्दो के योग से प्रथवा दो से भी एक हाथ मे धर्म एक में थी तलवार दुधारी॥ , प्रषिक प्रकार के मात्रिको का उपयोग कर मार्मिक गीतों [शास्त्र जलाने लगे यहां के फैल गए पाखण्डी।। | चडी रुष्ट हम तुम से चढे नए पाखण्डी ।। की सृष्टि की है। निम्नलिखित गीत मे २२ मात्रिक | लुटो मडिया लुटी बेटियां टूटे मन्दिर मेरे। , सुखदा छन्द के अर्द्धसम रूप एव १२ मात्रिक तोमर तथा (गिन न सकोगे लिख न सकूगा डाले कितने घरे।।, नित्त छन्दों का मिश्रित प्रयोग दर्शनीय है मुट्ठी भर राजा बन बैठे शक्ति बट गई सारी।, सुखदा वन्य भाग जगे प्राज १२ मात्राएं पाये यहां मनार्य देश मे सकट आये भारी।।', (एक चरण धन्य दिवस आया १० , उपर्युक्त विश्लेषण के पश्चात्, निष्कर्ष रूप मे, नि.तोमर ए जे जे लोक्य नाथ १२ मात्राएं संकोच कहा जा सकता है कि छन्द वैविध्य के कलात्मक पसे जन हो सनाथ उत्कर्ष में प्राधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्य किसी अन्य ह नित र जन सौभाग्य मिला १२ ॥ 1 पुज्य कमल सहज खिला १२ । हिन्दी महाकाव्य से कम गरिमामय नही। छन्दों के दूर हुमा पाप तिमिर १२ मात्राएं विभिन्न प्रकारों की सफल प्रस्तुति समीक्षित महाकाव्यों सुखद नत्र प्रकाश छाया में स्थल स्थल पर प्राप्य है। वस्तुत: जैन महाकाव्य विविध (अर्द्धमम) धन्य भाा जगे माज १२ , प्रकारात्मक छन्दों के प्राधार है। न्य दिवस पाया' १० ॥ ३ सदर बाजार, जैन कुटीर, 'वीरायन' हाकाव्य में कवि ने प्रति चारण समान लखनऊ-२२०००२. 000 (पृष्ठ ३५ का शेषांश) नहीं लेते वे इस सपार में उक्त राग-द्वेष-मोह मादि शजनों और निमित्त को लेकर, प्रभवा जिन-दर्शन-पूजन-दान-व्रत द्वारा कृत नाना प्रकार के क्या-क्या दुःख नही सहते? प्रादि शुभरागात्मक क्रियानों की हेयोपादेयता को लेकर प्रतएव, नित्य ही चाव से जिन पूजा करनी चाहिए। जो भीषण द्वन्द्व चल रहा है, पोर फलस्वरूप कषायोद्रेक मनुष्य गति और श्रावक कुल मिला है तो यह अवसर तीव्र से तीव्रतर हो रही है, उसका कितना सुन्दर, सटीक नहीं चूकना चाहिए। एवं रोचक समाधान एक शास्त्र-मर्मज्ञ ने अबसे लगभग लघु-धी-सम उत्तर कहा, सशय रहे ज़ शेष । एक शती पूर्व किया था, वह उक्त रचना से स्पष्ट है और यह उसकी इस दृढ प्रास्था का परिणाम है किऋषभदास जिनशास्त्र बहु, देखहु भन्य विशेष । 'जिनमत परम मनप अनेकान्त सत्यार्थ है।' प्रस्तु, वर्तमान मे निश्चय और व्यवहार या उपादान ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ २. वही० पृ. २६६। १. डा० छलबिहारी गुप्त, 'तीर्थकर महावीर', पृ. ५। ३. रघुवीर शरण मित्र, 'वीरायन', पृ. ५४ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस्वत व्याकरण या सारस्वत प्रक्रिया की रचना अनुभूति स्वरूपाचार्य ने सं० १२५० मे पं० बोपदेव क्याकरण के बाद की थी। यह व्याकरण अपने समय में इतनी प्रचलित एवं प्रसिद्ध हुई कि लगभग ५३ विद्वानों ने इसकी विभिन्न नामों से टीकायें रची। इनमे से लगभग घा टीकाकार तो जैन विद्वान ही थे। यहां हम सारस्वत व्याकरण की सभी उपलब्ध टीकाघ्रों, टीकाकारों एवं उनके रचनाकाल की संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे है— क्रम सं० टीका नाम टीका १. २. ३. ४. ५. ६. सारस्वत व्याकरण के टीकाकार और मफर-उल-मलिक पंजराज श्रीमाल [C] श्री कुन्दनलाल जैन, प्रिन्सिपल, दिल्ली टीका १६७२ से पूर्व सारस्वत के तर्क तिलक ७. 33 21 .. " ८. ε. १०. ११. १२. १३. १४. ढूढिका " 33 ار १५. दीपिका १६. सारस्वत धातुपाठ टीकाकार का नाम क्षेमेन्द्र धनेश्वर अनुभूति स्वरूप अमृत भारती पुजराज श्रीमाल सत्य प्रबोध माधव भट्ट चन्द्रकीर्ति रघुनाथ मेघरत्न वि. सं. १२६० १२७५ चन्द्रकीति सूरि नागपुरीय तपागच्छ के हर्षकीर्ति, शिष्य चन्द्रकीति के नागपुरीय तपागच्छीय " 11 मडन वासुदेव भट्ट राम भट्ट मेघरत्न शिष्य विनय सुन्दर के बृहत्वरतर गच्छीय " 11 21 " 11 १६०० १६१४ से पूर्व " १६३२ . " 21 रचनाकाल " " १३०० १५५० से पूर्व १५५० १५५६ से पूर्व १५६१ १६०० १६३४ १६३५ के लग. १६४१ १६६४ १६६३ १७. १८. रूपान्तरकार भट्टाचार्य टीका भट्ट गोपाल माधव तर्क तिलक रि सहजकोति शिष्य हेमचन्द्र के खरतर गच्छीय १९. २०. २१. ढूढ़िका २२. २३. टिप्पणिका क्षेमेन्द्र शिष्य हरिभद्र के ज्ञान तिलक २४. सिद्धान्त चन्द्रिका टीका 13 "1 काशीनाथ भट्ट ज्ञानतीर्थ हंस विजयगण हर्ष की लोकेशकार ३२. चन्द्रकोद्वार स्वोपज्ञ रूप रत्नमाला ३३. ३४. न्यास ३५. न्यास ३६. ३७. पंजिका ३८. भाष्य विवरण " " " 11 37 ܕܕ २५. २६. २७. २८. 71 २६. ३०. १७४१ , १७४१ १७६६ ३१. शब्दार्थ चन्द्रिका हंस विजय शिष्य विजयानन्द सूरि तपागच्छीय के रामाश्रम सदानन्द हम विजय शिष्य विजयानन्द सूरि तपागच्छीय के " " 13 १६७२ से पूर्व १६७२ १६८० १६७७ ور १६८१ १६६२ १७०४ १७०४ १७०८ १७१७ नय सुन्दर शिष्य धनरतन के रत्न हर्ष और हेमरतन जगन्नाथ धर्मदेव भानुचन्द्र गणितथा उनके शिष्य सिद्धिचन्द्रमणि तपागच्छीय ने इसे राशोधित किया था । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४, बर्ष ३०, कि. २ अनेकान्त ३६. वृद्ध चिन्तामणि जितेन्दु केवल सूत्रों की टीका है, जिसे साधारण पाठक सरलता से नहीं पढ़ सकता है। ४०. सिद्धान्त चन्द्रिका रामाश्रम मझे ही प्रेस कापी तैयार करने में पर्याप्त समय लग गया ४१. सुबोधिनी सदानन्द गणि (देखें जिनरत्न था। पुंजराज श्रीमाल की शोध में प्रत्यधिक समय और कोष ले. डा. बेलंकर पृ. ४३६ शक्ति खर्च करने के बाद जो कुछ जानकारी एकत्र की ४२. टिप्पण चन्द्रकीति) देखें जिनरत्नकोष ले. जा सकी वह पाठकों की ज्ञानवृद्धि हेतु निम्न प्रकार डा. बेलंकर पृ. ४३६ : प्रस्तुत है। ४३. न्याय रत्नावली दयारतन पुंजराज अपने समय के एक कुशल प्रशासक, अर्थ४४. स्वावबोधिका अज्ञात शास्त्र के वेत्ता, संस्कृत व्याकरण एवं ध्वनि शास्त्र के ४५. सारदीपिका यतीस प्रकाण्ड पण्डित थे । अर्थ तंत्र विशेषज्ञ होने के कारण ४६. सिद्धान्त चन्द्रिका रामचन्द्राश्रम उन्हें मांडू (मालवा) के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी (सन् ४७. टीका प्रज्ञात १४६६ से १५०१ ई. तक) ने अपना अर्थमत्री नियुक्त ४८. सारस्वतोद्धार स्तोत्र नदिरत्न के शिष्य किया था। वे जहां लक्ष्मी के स्वामी थे वहा सरस्वती के ४६. सारसात चन्द्रिका मेघ विजय वरदपुत्र एवं युद्धकला और शासन व्यवस्था में बड़े पटु ५०. धातु तरगिनी या थे। जैसा कि प्रशस्ति में उल्लिखित "समरस मयरुद्र. पुंजस्वोपज्ञ पिपरण अज्ञात राजो नरेन्द्रः।" वाक्य से स्पष्ट विदित होता है। वे राज्य ५१. धातु पाठ अज्ञात के प्रति पूर्ण वफादार और प्रजा के प्रत्यधिक हितपी थे । ५२. धातु पाठ कल्याण कीति वे राज्य के राजस्व को बड़ी सावधानी और मितव्ययता ५३. व्युत्पत्ति साकार जितेन्द्रियाजिनरत्न निबंध से खर्च करते थे। अपव्यय उन्हे बहुत खलता था, यही ग्रन्थकम् । निष्ठा और प्रजा वत्सलता ही उन्हे अभिशाप बनकर ले उपर्युक्त टीकाकारों में से हमारे इस लेख का मूल बैठी। उद्देश्य इसी सूनी के तारांकित क्रमांक ५ पर अकित श्री सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी का पुत्र अब्दुल कादिर, पजराज श्रीमाल का जीवन परिचय प्रकट करना है। जिसे नासिरुद्दीन की उपाधि प्राप्त थी, बड़ा अपव्ययी दिल्ली के जैन ग्रन्थ भण्डारों को पांडुलिपियों का और विलासी था। वह राज्य के राजस्व को अपने भोगविस्तत सूचीपत्र (Discriptive Catalogue) तैयार विलास मे ही अपव्यय करना चाहता था जो पुजराज को करने के लिए जिसकी प्रेस कापी तैयार की गई है, का प्रभीष्ट न था। उन्होंने अब्दुल कादिर को प्रेम पूर्वक सर्वेक्षण करते हुए कि जैन पचायती मन्दिर नया मन्दिर सन्मार्ग पर लाना चाहा पर वह दुराग्रही था । फलतः धर्मपुरा के सरस्वती भण्डार में पुंजराज श्रीमाल कृत पुंजराज को सुलतान गयासुद्दीन से शिकायत करनी पड़ी, सारस्वत प्रक्रिया की टीका प्राप्त हुई। इसकी एक प्रति जिससे बाप-बेटे में खटक गई तथा वह इनका शत्रु बन जयपुर भण्डार (देो राजस्थान के जैन ग्रन्थों की सूची बैठा। वह इन्हे काफिर कहता था तथा साम्प्रदायिकता भाग २, पृष्ठ २६ पर) तथा एक प्रति श्री गरचन्द्र उभारने का सदैव प्रयत्न करता रहता था पर पिता के जी नाहटा के भण्डार मे विद्यमान है। इस टीका के अन्त भय से कोई ठोस कार्यकारी पग नही उठा पाता था में पजराज से सम्बन्धित २३ छन्दों की एक विस्तृत प्रतः मौन रहता था। इसके अतिरिक्त पुजराज का भी प्रशस्ति विद्यमान है। अपना विशिष्ट प्रभाव था मतः नासिरुद्दीन (अब्दुल कादिर) दिल्ली वाली प्रति प्राषाढ़ कृष्ण ६ गुरुवार सं० १६४५ ने षड्यंत्र रचा और एक दिन जब पुजराज राजदरबार में लिपिबद्ध की गई थो। इसकी पुस्तकालय क्रम स० से अपने घर लौट रहे थे कि अवसर पाकर दो मादमियों प्रजनन. १३८ है। यह प्रति पृष्ठ माला में लिखी हुई से इनकी हत्या करवा दी। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस्वत व्याकरण के टीकाकार और मकर-उल-मसिक पुंजराज श्रीमाल सुल्तान ग्यासुद्दीन को जब यह दुःखद घटना सुनाई गई तो वह बहुत व्यथित हुमा धौर उसने अपने पुत्र की इतनी तीव्र भर्त्सना की कि वह राज्य छोड़कर बाहर चला गया और पिता पर आक्रमण के लिए सैनिक तैयारी करने लगा और अवसर पाकर सन् १५०१ मे उसने अपने पिता सुलतान ग्यासुद्दीन पर चढ़ाई कर दी और उन्हें बन्दी बना लिया तथा स्वय मालवा का शासक बन बैठा । उपर्युक्त घटना 'तारीखे नासिर साही" नामक पुस्तक के पृ० ८-१० तक उल्लिखित है। इसकी फोटो का ब्रिटिश म्यूजियम लदन मे OR. १८०३ न० पर सुरक्षित है । इसकी नकल जार्ज इलियट ने सन् १६०८ में भोपाल मे कराई थी। इसकी मूल प्रति का कोई पता नहीं है। इस प्रति में पुंजराज को 'पुजावतकाल' शब्द का प्रयोग किया गया है। काल का अर्थ बनिया होता है जो प्रायः सभी जगह प्रचलित था। पुजराज भार गोत्रीय श्रीमान जाति के थे पति के निकार कोई मौलवी साहब थे जो उर्दू की मीग के नीचे नुक्ना लगाना भूल गए जिससे पुजा की जगह मुंजा पढ़ा जाता है । यथार्थ में वह पुजा ही है जो हमारे लेख के नायक है । इसके अतिरिक्त जैन भट्टारक कीर्ति (नन् १४१५६६) ने स्वरचित 'ह्निवंश पुराण' एव परमेट्ठीपयाससारो' नामक अप भाषा के ग्रन्थों की प्रशस्तियों मे भी पुजराज का उल्लेख किया है । यथा'दहपण सयतेवण्ण गय वासई पुण विक्कमणि संवच्छ रहे। लसावण मारा गुरुमि सह गंय पुष्णतय सहबत 'मालव देसई गढ माडव चलु वहद साहू गयासु महाव्वनु । साह नसीरूणाम तह णदणु रायबम्म प्रणरायऊ बहुगुण । पुजराजवणमंति पहाणई ईसरदास गयदहं श्राणइ ।' उपयुक्त ग्रन्थ सं० १५५३ के भावण का ५ गुरुवार को समाप्त किया गया। इस समय मालवदेश के मांडवगड ( मांडू) में सुलतान ग्यासुद्दीन नामक महाप्रतापी शासक था, उसका पुत्र नसीरुद्दीन था तथा उसके धन (अर्थ) मंत्री पुजराज प्रजाधर्म में अनुरागी एवं गुणवान् थे । इस तरह पुंजराज एक संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ थे ४५ का और उल्लेख मिलता है जो ईडर का राजा था मौर राजपूत या चतः इनसे उसकी कोई संगति नहीं बैठती है। पुंजराज की हत्या सं० १५५८ के लगभग की गई थी और उसी समय दो-चार माह के अन्तर से ग्यासुद्दीन खिलजी की भी मृत्यु हो गई थी, वह सन् १४६९ (सं० १५२७) में मांडू के सिंहासन पर बैठा था और ३२ वर्ष तक राज्य करता रहा। मांडू में खिलजी वंश के केवल चार ही शासक हुए थे - १. मुहम्मद शाह प्रथम, २. ग्यासुद्दीन, ३ नाविरुद्दीन ( कादिर ) ४. मुहम्मद अब्दुल शाह द्वितीय ऐतिहासिक पुरुष थे और पुंजराज नाम के एक राजा पुजराज की तीन रचनाएँ उपलब्ध है - १. सारस्वत की टीका २ कापातकार शिशुप्रबोध और ३. ध्वनिप्रदीप ये तीनों ही ग्रन्थ प्रकाशित ही प्रतीत होते है । तीनों में उनकी प्रशारित विद्यमान है। काव्यालकार शिशुप्रयोध की प्रशस्ति निम्न प्रकार है मोऽय श्री पुंजराज नृपतिः परोवकृति कौतुकी । व्यवत्त काव्यानकार श्रोतृव्युति सिद्ध ।। १०३॥ इति श्रीमान कुन श्री कुनमालभार मांडवगण्डलालंकार श्री जीवनेन्द्र नन्दन मफरल मलिक श्री पुजराज विवि कापाल कारेऽन काव्यावोऽष्टमः समाप्त (देखो - Search for Sanskrit M. S. S. 1882 83 by Dr. Bhandarkar P. 199 ) इसी ग्रथ मे डा० भण्डारकर ने टिप्पणी करते हुए जिया है 'Punj Raj was a son of Jivanendra and is spoken of as an ornament of the Malwa circle and as belonging to the family of Shrimal. He is therefore the same as an author of the commentry on the Saraswat Prakriya. Punj Raj mentioned another larger work of his entitled Dhwani pradeep (H. Appendix II ). डा० एस. के बेलवलकर ने अपनी कृति 'System of Sanskrit Grammer by Punj Raj' के पृष्ठ ९६ पर लिखा है 'Punj Raj belonged to the Shrimal family of malabar which sometimes or other settled in Malwa. The gives his ancestry in the Prasasti. At the end of his commentry, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६, वर्ष ३०, कि०२ अनेकान्त from which we learn that be was a minister पुंजराज की माता का नाम मक था जो कुटुम्ब भर to Gyasuddin khilji of Malwa (1449-1500 A. में अत्यधिक मादरणीय थी। पंजराज का जन्म मांड़ में D.) Punj Raj Seems to have carried on the ही हुमा था, इनकी जन्मतिथि का कोई उल्लेख नहीं administration very efficiently collecting round मिलता है। 'काव्यालकार शिशुप्रबोध' नामक ग्रंथ की him a band of learned admirer and indual- प्रशस्ति से प्रतीत होता है कि मफरल मलिक' की उपाधि ging in numerous acts of charity and relief. पुजराज को भी प्राप्त थी। ये भारगोत्रीय श्रीमाल The must have lived in the last qurter of the (बनिया) जाति के थे। हिन्दी के सर्वप्रथम श्रेष्ठ प्रात्म15th centuary. The also wrote a work an चरित 'मर्धकथानक' के रचयिता बनारसीदास भी इसी Alankar called 'शिशु प्रबोध' and another larger जाति के थे। work called of ध्वनि प्रदीप । पुंजराज बड़े दयालु ज्ञानवान् पराक्रमी एवं धनवान् ___ सारस्वत प्रक्रिया की टीका के अन्त में दी गई २५. थे। उनकी सभा सदा विद्वानों से भरी रहती थी। बडे२६ श्लोकों की विस्सत प्रशस्ति मे पजराज के पूर्वजों एवं बड़ मण्डलेश्वर राजा उनका सम्मान करते थे। वे विद्या उनके व्यक्तित्व का स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है। प्रस्तुत प्रेमी एव गुणग्राहक भी थे, वे नाट्यकला में भी प्रत्रीण प्रशस्ति में प्रजराज के पूर्वजों मे शाह देवपाल, सा. कोरा, ये। भिक्ष एव संकटकाल में तुलादान जैसे श्रेष्ठ उत्सव पोमा, गोवा एव वनीपक मादि सज्जनों का उल्लेख है। कराकर गरीबों व दुखियो की रक्षा किया करते थे। पुंजराज के पितामह वनीपक साह थे जिनकी पत्नी का कभी-कभी गरीबो के घर स्वय जाकर स्वर्णमुद्राओं से नाम पचो था। इनसे जीवन और मेष नाम के दो पुत्र भरे लड्डुमों का दान किया करते थे। उनके पराक्रम से उत्सन्न हुए थे। ये दोनो सोमसुन्दर मुरि के प्रति अत्यधिक भयभीत होकर शत्रु स्त्रियो की पाखे सदैव प्रश्रपूरित रहा अनुरागी थे, ऐमा मोहनलाल दलीच ने अपने ग्रन्थ 'जैन करती थी, इत्यादि उनके व्यक्तित्व एवं विशेषतामों साहित्य नो इतिहास" के पृष्ठ ५०१ पर लिखा है। जब की परिचायिका पूर्ण प्रशस्ति हम नीचे दे रहे है। पंजराज जीवन और मेध दोनो ही योग्य हुए तो माडू मे सुल्तान के पूर्वज जैन धर्मावलम्बी थे ऐसा 'जैन साहित्य नो इतिग्यासुद्दीन के मत्री बने, पर जीवन प्रारम्भ से ही वैरागी हाम" के पृ० ५०१ से प्रतीत होता है। प्रकृति के थे अतः अपना पद अपने छोटे भाई मेष को पुजराजकृत सारस्वत प्रक्रिया की टीका की प्रशस्तिसौपकर स्वयं सन्यासी बन गए थे, जैसा कि निम्न श्लोक प्रादि भागसे स्पष्ट है - प्रानन्दकनिधि देवमंतैराय तमोरविः । श्रीविलासमति मडपदुर्गे स्वामिनि खलिचीसाह ग्यासात् दयानिलयिनं वदे वरदं द्विरदाननम् ॥११॥ प्राप्य मंत्री पदवी भवि याभ्यामजितोपाजित परोपकृतश्री, वाग्देवतायाः चरणारविन्दमानन्दसान्द्रे हृदि सन्निधाय जीवनोभुवन पावनकोतिः मंत्रीभारमनुजे विनिवेश्य श्रीपुंजराजो कुरुते मनोज्ञा सारस्वत व्याकरणस्य टीकाम्॥१२ ब्रह्मवित् स जगदीश्वर पूजको कौतुकेन समयं समनैषीत्।। अन्त भाग हिमालयादामलयाचलाया: सशोभयामासमही यशोभि.। निम्न श्लोक से स्पष्ट ज्ञात होता है कि साह जीवन प्रासीन्नपालस्पृहणीय संपद साधु सदेपाल इति प्रसिद्धः ॥१ को ग्यासुद्दीन का अर्थ मंत्रित्व प्राप्त था। वे बड़े दानी, अर्येषु वर्यः पराकार्यधुर्यः स्मर्यः सता पौरुष राजसूर्यः । ज्ञानी, ध्यानी एव सन्तोषी थे : - तत्सुनुरौदार्य निधिर्बभूब काराभिधो दुहृद्धवार्य धर्यः ।।२।। नमदवनि समर्थस्तत्त्व विज्ञापनार्थः तत्सेवितो ललित लक्षणकान्तमूर्तिराशा प्रभुदिनकरः सुजनविहिततोषः श्रीनिधिर्वीतदोषः (रस्वीप्रसादनकरः) सदनकलानाम् । भवनिपति शरण्यात् प्रौढ़ धर्मार्थमत्री जिवातकः कुवलयः प्रथितोपकारः पामाभिधान मफरल मलिकाख्यं श्री ग्यासादवापः ।। उदयाय ततो नुसोमः ॥३॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस्वत ब्याकरण के टीकाकार और मकर-उल-मलिक पुंजराज श्रीमाल पृथित विपुल श्री श्रीमालान्वय वा विशेषक:, रसासित (रसोल्लसित) या गिरा चतुरचित्त मानन्दयन्, सकल जगती जाग्रतकीर्ति सुधीनर सूयकः । सकलामु कलासु यः कलित केलि केली। प्रमित विभवो गोवा साधस्ततोऽजनि, कौतुहलो विमस्मरतया दयनिखिल शास्त्र तत्वज्ञ(जाता, जानकी भाणवरण प्रेमानन्दाचित सात्त्विकः ।।४।। करोति करुणाकरो व (घ)न मनीस (पि) न्यनतां ॥१॥ तत्सुतः शोभित संपत् प्रीणितावनि वनीपक पासीत् । प्रतिगृहमभिगम्य स्वर्ण (निष्कानितानां) तिथापिताना विभवप्यविकृतीभवि मूर्तिः पुण्यराशिरिव यापच (एव) मुपचित कुन काना (कनकाना) मोदकाना प्रदानिः । विदलित दुःख (ग्वं.) स्थानाक्ष्य सस्थान् गृहस्थान्, प्रभात कटम्ब स्थितिभारधारिणी मदीयदीप सहधर्मचारिणी। प्रतलित महिमा यः श्याम (दुभिक्ष) कालेऽभ्पनंदत् ॥१६॥ सदादानाव नदीक्षयाजन कुशेशयाकारशिया पुपोष या ॥६॥ अनिवारित वाछितार्थ दानं रिति तन्नंदनो समिति (सभित) साधित पौरषार्थों, दुभिक्षतयोदिताना (बभूक्षयादितानां) । चापनिमग्न जनतोद्धरणे समर्थः । गणशः समुपेयुषो (येषा) जनानामकरोज्जनि ख्यातंर्गुणः जगति जीवन मेघ सज्ञा, तरति रक्षण यदेकः (जीवितरक्षणं यदक:) ॥१७॥ वशी वशीकृन्नपो सत्कृपावभूतम् ॥७॥ मने को (कशो) येन विधीयमानस्तुलादि श्रीविलासमति मंडपदुर्गे स्वामिनि खिलचीसाह ग्यासात् । दान रूपलब्ध मात् (स) प्राप्य मंत्री पदवीं भधियाभ्यामजितोऽजित परोपकृत विद्वज्जनो वीथि (दीपाति) विवंधमानः श्री भारनिधि (क्षत) श्री ॥८॥ शिष्यति (भारतिमनिधिमप) मोरूपम् । १८।। जीवनोभूवन पावन कीतिः मत्रीभारमनुजे विनिवेश्य । विवधानभिनदितो विपक्ष क्षितिभन ब्रह्मविस्मः जगदीश्वरपूजको कौतुकेन समय समनपीत् ।।६।। ज्ञातपरो (ग) प्रजमम्य यस्य । नमदनि ममर्थो तत्व विज्ञानपार्थः उदयाधि वा (व) प (4) माथुशमस्परि (र) सुजन विहिततोपः (तापः) धीनिधिर्वीत दोषः । नारि नरने भूरि वर्ष. ॥१९॥ अवनिपति शरपान (त) प्रौद्ध धर्मार्थ (घरमेघ) मत्री श्रीव्यास्या विशेपान्नयन प्रमगात थीप जगजो यदिहाभ्यधत्त मफरल मलिकाव्य श्री गयासादवापः ॥१०॥ अविस्तर (अविस्त) चारुनिवेशिताथं (विनिश्चितार्थ) पतिव्रता जीवन धर्मपत्नी धन्धामक नाम कुटम्बमान्या। सर्व समूलं (समपेक्षित) समयिक्तित तत् ।।२२।। श्रीष जगजायमसूत पूष मुजवतस्तः नरित: पवित्र ॥११॥ प्रात्मयक्ति बलशालिना वा विस्तारान्मम विभेति भारती। जयति मदन शुद्धः सज्जन प्रेम सान्द्रः (माधुः) तेन दुर्नय निवारणोचिते पूर्व कोविद मने निलयात् ॥२३॥ सगुणमणि समुद्रः कीति विद्योत चन्द्रः । गर्वोज्ञान निमीलिततया मालिन्य मर्थेषु ये नयन विनय निद्र. (नयाना) पुण्य लक्ष्मी ममुद्रः समृद्धष्वपि तत्त्वतेन तद्धाकारः परीक्षाविधी। समरसमयरुद्र. पुंजराजो नरेन्द्रः ॥१२॥ किन्त्येते गुणदोषयो., समदशो वैराग्य निष्ठा इव, यस्याः सभाभाति तिरस्कृतमदः प्रह्व (भू द्वि(प्र)भावोद्धरः। श्रेष्ठाः हत पराक्ति निष्पृह धियस्तस्मादमीभ्यो नमः ।।२४ क्षोणी मडित मडलेश्वर महाराजन्यमान्यात्विता । इति श्री मालभार श्री पुजराज विनिर्मिता सारस्वविद्यावृन्द विनोदमोद विभवद्रोमांच विद्वदचो. तस्य टीका समाप्ता। सं. १६४५ वर्षे प्राषाढ़ मासे कृष्ण जाग्रदूप सरस्वती निवसति लक्ष्मी विलासायिता ॥१३॥ पक्षे षष्ठ्यां तिथौ बुरुवासरे लिखित मिदम् । अनुजे गुणवत्युदारचित्ते गुरुदेव, नोट - कोष्टक मे पाठभेद लिखा है जो श्री प्रगरचन्द जी द्विजभक्तिभाजि पुजे (मुंजे) । नाहटा की प्रति से प्राप्त हुआ। यत्तुपहित (दुपाहित) राजकार्यभारः ६८ कुन्तीमार्ग, विश्वासनगर, प्रभुता सौख्यनाकुलं विमति ॥१४॥ शाहदरा दिल्ली-३२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने कहा था ॥ श्री रमाकान्त जैन, बी. ए., सा. र., त. को., लखनऊ प्रब से ढाई तहस्र वर्ष पूर्व एक भारतीय सन्त ने द्यूत (जुप्रा), मद्य (शराब) और मांस का सेवन, मानव को सम्बोचा था, 'सांपेक्खए अप्पगमप्पएण' स्वयं वेश्या गमन, शिकार, चोरी और परयार (पर स्त्री अथवा को जानो, स्वयं को पहचानो । उसका कहना था, पर पुरुष) का सेवन ये पाप कर्म दुर्गति प्राप्त होने के 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य' प्रात्मा स्वयं हेतुभूत अर्थात् कारण है। इसलिए उन्होंने लोगों को इन अपने दुःख और सुख का कर्ता और भोक्ता है। वह सम- पाप कर्मों से बचने तथा अपने चरित्र को बनाये रखने पर झता था, 'कतारमेव अणुजाई कम्म' कर्म सदैव करने बल दिया। वह शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र को बाले के पीछे-पीछे चलते है और यह भी कि 'जहां कडं चरित्रवान होने का लक्षण नहीं मानते थे। तभी तो कम्मतहासि भोए' जमा कर्म किया जाता है उसका वैसा उन्होंने कहाही फल भोगना होता है। 'जो पुण चरित्तहीणो कि तस्स सुदेण बहुएण ।' वर्णाश्रम व्यवस्था की जंजीरों से जकड़े यूग और जो व्यक्ति चरित्रहीन है उसके बहुत से शास्त्रों का समाज में एक क्षत्रिय सामन्त के यहां उत्पन्न सौर सुख. ज्ञान प्राप्त कर लेने से भी क्या लाभ है ? वह तो कहते समृद्धि में पला.पुमा वह विचारक जन्मतः वर्ण व्यवस्था मानने को तैयार नहीं था। उसका तो कहना था 'कम्मणा 'दया समो न य धम्मो, अन्नदानसमं नस्थि उत्तमंदाणं । वंभणो होइ, कम्मणा होइ खत्तिमी । वइमो कम्मणा होइ, सच्चसमा न य कित्ती, सीलसमो नत्थि सिगारो।।' सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥' कर्म (अपने पाचरण अथवा दया समान धर्म नही है, अन्न दान से उत्तम दान कार्यो) से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, नही है । सत्य के समान कीर्ति नहीं है और शील (चरित्र) कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है (जन्म से के समान कोई शृंगार नही है। अपनी लगभग साढ़े नही) । बारह वर्ष की साधना अवधि में उस साधक ने विभिन्न वह सिर मुडा लेने मात्र से किसी को ब्राह्मण, वन मे प्रयोगों द्वारा यह अच्छी तरह समझ लिया थारहने मात्र से किसी को मुनि और कुश-चीवर धारण 'घम्मु ण पढियई होइ, धम्मु ण पोत्था-पिच्छियई। करने मात्र से किसी को तापसी मानने को तैयार नहीं धम्मु ण मढ़िय पएसि, धम्मु ण मत्था-लुचियइ ॥' थे। उनका विश्वास था बहुत पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पोथियों और समयाए समणो होइ बंभचरेण बंभणो। पिच्छी को रख लेने से भी धर्म नही होता, मठ में रहने नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो॥' से भी धर्म नहीं होता मोर सिर का केश लौच करने से व्यक्ति समता अर्थात् सबके प्रति समान भाव रखने भी धर्म नही होता । अपितुसे श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से विणमो धम्मस्स मूलं । धम्मो वया विसुद्धो। अहिंसा मुनि होता है और तप करने से तापस होता है। मोर हि लक्खणो धम्मो, जीवाणं रक्खणो धम्मो।' यह कि अर्थात् बिनय (मान रहित होना) धर्म का मूल है । 'जूयं-मज्ज-मसं-वेसा, पारद्धि-चोर-परयारं। धर्म दया से विशुद्ध होता है। धर्म का लक्षण महिंसा है, दुग्गइगमणस्सेदाणि हेउभदाणि पावाणि ।।' मतः जीवों की रक्षा करना धर्म है । तथा यह कि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबीर ने कहा था YE 'खंती मद्दव मज्जव लाघव तव संजमो प्रकिंचणदा। समान रूप से जीव हैं और 'सध्वेसि जीवियं पियं' सभी तह होइ बम्हचेरं सच्च चागो य दस धम्मा ॥' को अपना जीवन प्रिय है, ऐसा मानने वाले उस जीव___ क्षमा, मार्दव, पार्जव, शुचिता, तप, संयम, पाकिचन्य, वन्धु करुणासागर का अपने अनुयायियों के लिए उपदेश ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग ये धर्म के दस रूप हैं। इसलिए था 'पाय तुले पयासु' सभी प्राणियों को अपने समान उस धर्मोपदेशक ने अपने अनुयायियों को धर्म के इन रूपो समझो, 'जह तेण पियं दुक्ख, तहेव तेमिपि जाण जीवाण' को स्पष्ट किया। वह अपनी धारणा जबरदस्ती किसी जिस प्रकार तुम्हें दुख प्रिय नही है, वैसे ही अन्य जीवों पर लादना नहीं चाहते थे। उनकी तो मास्था थी 'विवेग्गे के बारे मे जानो भौर इसलिए 'सम्वेहि भूएहि दयाणकंपी' धम्ममाहिय' मनुष्य का धर्म उसके सद् और प्रसद् विवेक सभी प्राणियो पर दया और अनुकम्पा करो। उन्होंने में निहित है तथा यह कि धम्मो सुखस्स चिट्टई' शुद्ध चित्त आगे बताया 'जीववहो अप्पवहो, जीवदया होइ अप्पणो में धर्म निवास करता है । वह जानते और मानते थे हु दया' किसी जीव (प्राणी) का वध करना प्रात्मवध है 'णाणा जीवा णाणाकम्म णाणाविहं हवेलद्धी। और किसी दूसरे जीव पर दया करना अपने पाप पर तम्हा वयण विसादं सगपर समएहिं वज्जिज्जो ।' दया करना है। यह भी कहा 'असंगिही य परिजणस्स लोक में अनेक जीव है, कर्म भी अनेक प्रकार के है। संगिण्हणयाए भब्भुट्ट्यव्वं भवइ' अनाधित और असहाय पौर प्रत्येक व्यक्ति की नाना प्रकार की उपलब्धिया होती व्यक्तियों को प्राश्रय एवं सहयोग-सहायता देने के लिए है । प्रतएव अपने मत अथवा दूसरे मत के मानने वाले सदा तत्पर रहना चाहिए तथा 'गिलाणस्स अगिलाए सदा तत्पर रहना चाहिए किसी भी व्यक्ति के साथ वचन-विवाद (वाद-विवाद) वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्ट्यत्व भवई' ग्लानियुक्त रोगी करना उचित नहीं है। मंत्रीपूर्ण सह-अस्तित्व के पोषक व्यक्ति को ग्लानि रहित नीरोग करने के लिए उसकी उस शास्ता ने 'यही ठीक है' के कदाग्रह के कारण संसार परिचर्या सेवा-सुश्रुषा उत्साह और तत्परता के साथ करनी . मे होने वाली अनेक कलहों को मिटाने का उपाय 'यह चाहिए । इस परोपकारी महात्मा का अपना विश्वास था :' भी ठीक हो सकता है' ऐसा समझने, स्वीकार करने से 'समाहिकारएणं तमेव समाहि पडिलब्भइ' जो दूसरों को संभव है, जानकर 'तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो प्रणेमंत सुख देने का प्रयत्न करता है वह स्वयं भी सुख पाता है वायस्स' लोक के उस एक मात्र (अप्रतिम) गुरु अनेकान्त तथा वेयावच्चेण तित्थयरनामगोय कम्मं विवधेई' सेवावाद को नमस्कार किया। धर्म का पालन करने से तीर्थदर-पद प्राप्त होता है। उन्तीस वर्ष की अल्प वय में घरबार त्याग देने के और उन्होंने इस विश्वास को अपने लिए चरितार्थ भी उपरान्त अपने निर्वाण पर्यन्त ७२ वर्ष की प्रायु तक वह कर लिया तभी तो वह तीर्थकर कहलाये। उन्होने जो कभी प्रमादो बनकर नहीं रहे। प्रात्मोद्धार और लोको- भी भी उपदेश दिया उसे पहले अपने प्राचरण में उतारा । द्वार के लिए सतत चिन्तन-मनन में लगे रहे और अपने प्रात्मा को परमात्मा तक ऊँचा उठने और मानव को तपःपूत ज्ञान और अनुभव का प्रसाद लोगों को घमघम महामानव बनने का मार्ग दिखाया। कर बांटते रहे। उनके अनुभव ने बताया 'सव्वतो पमत्तस्स इन परोपकारी शास्ता का जन्म ईसा मसीह से ५६९ भयं, सव्वतो अपमत्तस्स नत्थि भयं', प्रमत्त (प्रमादी वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन बिहार प्रदेश में अर्थात् पालसी) व्यक्ति को सब जगह भय है, अप्रमादी कृण्डग्राम नामक स्थान पर ज्ञात वंशी, काश्यपगोत्री (जो पालसी नहीं है) को कही भी भय नहीं होता। क्षत्रिय सरदार सिद्धार्थ के घर हुप्रा था। इनकी माता अपना प्रादर्श प्रस्तुत करते हुए इस कर्मवीर ने लोगों को त्रिशला वज्जिगणसघ के अधिनायक विदेहराज चटक की उद्बोधित किया, 'उट्ठिए, णो पमायए' उठो, प्रमाद मत पुत्री थीं। माता और पिता दोनो ही भोर से तत्कालीन करो। अनेक बड़े राज-परिवारों से उनका सबध था। उनके 'हत्थिस्स य कंथस्स य समेजीवे' हाथी और चीटी [शेष पृ. ५३ पर] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादि मूलमंत्रोऽयम् । जैन संसार में णमोकार मंत्र का प्रचलन समानरूप से है । सभी इसे 'सव्वपावपणासणी' और 'पढमं हवइ मंगलं', रूप में मानते, पढते भौर स्मरण करते हैं। मान्यता ऐसी है कि प्रसिद्ध यह मंत्र धनादिमूल और अपराजित है'अनादिमूलमंत्रोऽयम्', 'अपराजितमंत्रोऽयम् । इत्यादि । जहां तक मंत्र के अनादित्व की बात है - सिद्धान्तरूप में 'गमन' की अपेक्षा प्रर्थात् – 'जो सत् है उसका नाश नहीं' की रीति में, णमोकार को अनादि माना जायगा - हर चीज के मूल को अनादि माना जायगा । यतः 'सत्तामेतग्गा ही, जेणाऽऽइम नेगमो तम्रो तस्स । उप्पज्जइ नाभूयं भूयं न य नासए वत्थु ॥' गमनय सत्तामात्रग्राही होता है । इसकी अपेक्षा वस्तु सर्वदा सत्स्वरूप ही होती है चाहे वह किसी भी पर्याय में क्यों न हो। एतावता मंत्र और मनन के पात्र परमेष्ठी दोनों ही अनादि सिद्ध होते है । यतः -- जनमान्यतानुसार मात्मा ही परमात्मा- सिद्ध स्वरूप है । और प्रात्मा के विकासक्रम में साधु, उपाध्याय, भाचार्य भोर भरहंत भी प्रात्मा-परमात्मा की भाति अनादि हैं। ये क्रम प्रवाह रूप से कही न कहीं, किसी न किसी रूप में सदा वर्तमान रहता है । जैन मान्यतानुसार पाचों परमेष्ठी अनादि काल से होते रहे है, और अनन्तकाल तक इनके होते रहने में कोई सन्देह नहीं । तीर्थंकर क्रम में भूतकाल में अनंत चौबीसी हुई हैं और भविष्यतकाल मे अनतो होती रहेंगीं । विदेह क्षेत्र मे इनकी सत्ता सर्वकाल विद्यमान है ही । जो प्ररहंत भवस्था को प्राप्त हुए वे सिद्ध हुए, जो भरहंत अवस्था को प्राप्त होगे वे सिद्ध होगे इसमें भी सन्देह नहीं । अभ्यास दशा की श्रेणी मे विद्यमान ( भूत वर्तमान भविष्यतकाल सम्बन्धी ) प्राचार्य, उपाध्याय और साधु भी अनादि अनंत (सत्ता की अपेक्षा) रहे है और रहेगे। और जब जब ये हैं तब तब इनको नमन भी है। अतः इनके नमनभूत 'णमोकार' भी [सत्ता की अपेक्षा] मनादि है । इसीलिए कहा है - [] श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, ए. मए, दिल्ली 'स नमस्कारो नित्य एव वस्तुत्वात्, नभोवत् । नोत्पद्यते नापि विनश्यतीत्यर्थः ।' वह नमस्कार नित्य – सदाकाल है, वस्तु होने से । जो जो वस्तु है वह वह [ द्रव्य की अपेक्षा ] निश्य है, जैसे श्राकाश । द्रव्य की अपेक्षा प्राकाश न कभी उत्पन्न है और न कभी विनाश को प्राप्त है। हाँ, पर्यायों के परिवर्तनरूप से उसे अनित्य - घटाकाश, मठाकाश इत्यादि कहा जाता है। जो माकाश भी समयपूर्व घटाकाश कहलाता था वही, घट के मष्ट होने पर ( मठ में स्थित होने से ) मठाकोश कहलाया । पर प्रस्तित्व की अपेक्षा से 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यतेसतः । 'जो सत् है उसका नाश नहीं, नहि प्रसत् कभी पैदा होता!' - ऐसा नियम है । इसी परिधि की अपेक्षा णमोकार को प्रनादि माना गया है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि-माना णमोकार मंत्र के सभी पात्र और उनके लिए नमन, व्यक्तिश: एक एक की पृथक-पृथक सत्ता प्रादि की भपेक्षा अनादि हैं, पर यह निश्चय कैसे किया जाय ? कि णमोकार की शृङ्खला में प्ररहंत- सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और सर्वसाधु को ही निश्चित स्थान ( भी ) अनादि है । यदि इन्हीं का स्थान निश्चित है तो इस मंत्र के विभिन्न रूप देखने में क्यों प्राते है ? और यदि वे रूप सत्य है तो ऐसा मानना पड़ेगा कि-विविधता होने के कारण णमोकार मंत्र अनादि नहीं है । इस प्रश्न पर विचार करने के लिए हमे (नामों की अपेक्षा ) णमोकार मंत्र के सभी रूपों पर दृष्टिपात करना होगा। तथाहि प्रथमरूप - णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो प्रायरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्यसाहूणं ॥' - षट्खंडागम ( मंगलाचरण ) द्वितीयरूप ' णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो प्रायरियाणं । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनाविमुखमंत्रोऽयम् ।' णमो उवमायानं नमो बसाहूणं ॥' ' णमो लोए सबसाहूणं' इति क्वचित् पाठः ।' - श्री भगवती सूत्र ( मंगलाचरण) निर्णय सा. (सं. १९७४) अभियान राजेन्द्र (मागम कोष) के उल्लेख के धनुसार- भगवती का उद्धरण इस प्रकार है जो मंत्र के तृतीय रूप को इंगित करता है तथाहितृतीय रूप "यतो भगवत्यादावेवं पंचपदान्युक्तानि - नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो मायरियाणं । नमो उवज्झायाणं, णमो बंभीर लिमीए' इत्यादि । क्वचिद नमो लोए सम्यसाहूणं इति पाठ इति । " - प्रभिधान राजेन्द्र भाग ४, पृ. १८३७ उक्त तीनों रूपों में मंत्र के अन्तिम पद की विभिन्नता विचारणीय है। हमें तीनो ही रूपों को मान्य करने में थानाकानी करने की गुंजाइश नही है । यतः - षट्खंडागम कर्ता श्री पुष्पदन्ताचार्य व भगवती सूत्र कर्ता श्री सुषम स्वामी जी सभी हमारी श्रद्धा के पात्र है। फिर भी मंत्रगठन के निर्णय की दिशा मे कुछ मार्ग निकालना होगा। फलत: ५१ इंगित करता । परन्तु ऐसा मिलता नहीं है। माहात्म्य पाठ में जो भिन्न-भिन्न पांच प्रयोग मिलते है, वे निम्न भौति है प्रथमरूप --- रहंत नमोक्कारो, सव्वपाव पणासणो | मंगला च सति पढमं हवाइ मंगल || द्वितीयरूप- 'सिज्ञान नमोषकारो, सम्मपावपणासणी । मंगलाणं च सर्ववेसि, बीयं हवइ मंगलं ॥' तृतीयरूप 'मायरिय नमोक्कारो, सव्वपावपणासणो । मंगलाणं च सम्बेति तह वह मगलं ॥' चतुर्थरूप - 'उबभाय णमोक्कारो, सव्वपाव पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसि, चट्ठे हव६ मंगलं ॥' पंचमकप 'साहून नमोकारो, सम्यपादपणासणी । मंगलाणं च सम्मेसि पंचमं वद मंगलं ॥ उक्त प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि भगवती जी के पाठ को प्रचलित मूलमंत्र के सन्दर्भ में नहीं जोड़ा जा सकता । जब हम इस ऊहापोह को मांगे बढ़ाते है तब देखते है कि मंत्र के माहात्म्यरूप में पढ़े गये 'एसो पच मोक्का (या रो, सध्वपावपणासमो मंगलाच च सव्वंसि पदम हव मंगल' के हमें पाँच रूप [के] प्रयोग मिलते हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि - षट्खडागम तथा अन्य भागमों में वर्णित णमोकार का रूप स्थायी है धौर 'णमोबंभीए लिबीए' व णमोसव्वसाहूण' जैसे रूप प्रस्थायी भोर मधूरे व प्रसित है। यदि ' णमो बभीए लिवीए' रूप को मनादि माना जायगा तो प्रत्यक्ष बाधा उपस्थित होगी कि ब्राह्मी लिपि तो तीर्थंकर ऋषभदेव की पुत्री के काल से है, फिर श्रनादि मंत्र के साथ इसका सम्बन्ध कैसे ? यदि सम्बन्ध मानते हैं। तो मंत्र प्रनादि नहीं ठहरता। जैसा कि कहा जा रहा है - 'अनादि मूलमंत्रोऽयम् । - फिर, यदि णमोकार मंत्र में 'णमो बंभीए तिबीए का समादेश होता, तो मंत्र माहात्म्य के रूपों में एक छठवां रूप ऐसा भी मिलना चाहिए था जो 'बंभी लिवो' को भी इसके सिवाय एक कारण घोर भी है प्रोर वह हैनवकार मंत्र के उच्चारण के विधान का प्रसंग । एक स्थान पर कहा गया है कि 'वणsgसट्ठि नवपएं, नवकारे प्रट्टसंपया तत्थ । सगसंपदा सरवर मटुमी दुपया ।। २२६ ॥ - संप्रति भाष्यगाथा व्याख्यायते-वर्णा अक्षराणि भ्रष्टषष्टिः, नमस्कारे पचपरमेष्ठिमहामत्ररूपे भवन्तीतिशेषः । उक्तं च 'पंचपवाण पणती - सवण चूलाइवण तित्तीसं । एव इमो समय फुडमलरमदुमट्टीए ॥' 'सत्तपण सत्त सत्त य, नव श्रट्ठ य अट्ठ श्रट्ट नव पहुति । इय पय अक्खरसवा, प्रसहू पूरेद्द घडसट्टी ||' - प्रभि० रा० भाग ४, पृ० १५३६ उक्त पाठ प्रामाणिक स्थलों से उद्धृत हैं और इनमें कहा गया है कि मंत्र की पूर्णता ६८ प्रक्षर प्रमाण मंत्र के पढ़ने पर होती है। प्रत पत्र को ६८ में पढ़न Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ,बर्ष ३०, कि० २ अनेकान्त चाहिए । अर्थात् पूरा पाठ इस भांति ६८ अक्षरों का मूलमंत्र का अंग नहीं है। हां, यदि इस पद को मंत्र मानना बोलना चाहिए इष्ट हो तो अन्य बहुत से मंत्रों की भांति पाठ प्रक्षरों 'ण मो अरिहं ता णं, ण मो सिद्धाणं, ण मो पाइरियाणं। वाला एक पृथक् मत्र स्वीकार किया जा सकता है। ण मो उ व उझा या णं, ण मो लोए स व्व साहूण ॥ एक बात और, भगवती जी मे [जैसा कि पहिले मंत्र ए सोपं च न मोक्का (या) रो, स व्व पाव पणा स णो। के द्वितीयरूप मे बतलाया जा चुका है] मंत्र के अंतिम पद मंगला णं च सव्वे सि, पढ मं ह व इ मंगल ॥' में 'लोए' पद के न होने की बात इससे भी सिद्ध होती है यदि उक्त पदो के स्थान में प्रधूरारूप---'णमो सव्व. कि वहां मंत्र में गभित 'सव्व' पद के प्रयोजन को तो साहणं' बोला जाता है, तो 'लोए' ये दो अक्षर कम हो सिद्ध किया गया है, जो कि अन्य चार पदों की अपेक्षा जाते है और यदि णमो बभीए लिवीए' बोला जाता है तो विशेष है। पर, लोए का प्रयोजन नही बतलाया गया । एक अक्षर कम हो जाता है। दोनो ही भांति मंत्र वसा यदि वहां 'लोए' शब्द होता तो सूत्रकार उसका भी प्रयोयुक्तिसंगत नही बंटता जैसा कि इप्ट है। अत: जन बतलाते । क्योंकि 'लोए' भी 'सब' की भांति-- अन्य निष्कर्ष निकलता है कि-अभि० राजेन्द्रकोष को पदों से विशेष है । तथाहिपंक्तियां इस दिशा मे स्पष्ट है 'यहा पर 'सवसाहणं' पाठ मे 'मन्व' शब्द का प्रयोग 'पायरिय हरिभद्देणं जं तत्थायरिसे दिळं, त सव्वं करने से सामायिक विशेष, अप्रमत्तादिक, जिनकल्पिक, समतीए मोहिऊण लिहिअंति अन्नेहि पि सिद्धसेण दिवायर परिहारविशुद्धिकल्पिक, यथालिंगादि कल्पिक, प्रत्येक बुद्ध, बडवाइजक्खसेण देवगुत्त जस बद्धण खमासमण सीस रवि स्वयबुद्ध, बुद्धबोधित, प्रमुख गुणवंत साधुनों को भी ग्रहण गुत्त नेमिचदजिणदास गणि खवग सच्चसिरिसमुहेहि जगप्प- किये है। हाण सपहरेहि बहुमनियमिण ति [महा० ३ अ.] अन्यत्र - विवाहपण्णत्ति [भगवती०] पृ० २, अमो० ऋ० तु संप्रति वर्तमानागमः, तत्र मध्ये न कुत्राप्येव नवपदाष्ट हा, 'क्वचित् नमो लोए सवसाहणं' इति पाठ:-के सपदादि प्रमाणो नवकार उक्तो दृश्यते । यतो भगवत्यादा- सदर्भ में यह उल्लेख अवश्य मिलता है कि-'लोए' का वेवं पचपदान्युक्तानि.-'नमो मरिहताण, नमो मिद्धाण, ग्रहण, गच्छ-गण प्रादि मात्र का ही ग्रहण न माना जाय, नमो पायरियाण, नमो उवज्झायाण, नमो बंभीए लिवीए' अपितु समस्त साधुनों का ग्रहण किया जाय-इस भाव मे इत्यादि।' -[अभि० रा० भाग ४, पृ० १८३७] किया गया है। इसमे क्वचित्' का अर्थ भगवती से अन्यत्र इसका अर्थ विचारने पर यही सिद्ध होता है कि मभी स्थलों में ही लिया जायगा-भगवती मे नहीं। प्राचार्य-हरिभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षमेन, एक स्थान पर 'बंभीलिवी' का अर्थ ऋषभदेव किया देवगुप्त, जसवर्धन, क्षमाश्रमण शिष्य रविगुप्त, नेमिचद, गया है। अनुमान होता है कि ऐमा अर्थ किसी प्रयोजन जिनदासगणि प्रादि, ६८ अक्षरो वाले पाठ को युक्तिमगत खास की पूर्ति के लिए किया गया होगा। अन्यथा, लिपि मानते है और वही षट्खडागम के पाठ तथा अन्य भागमों तो, लिपि ही है उसे ऋषभदेव के अर्थ में कैसे भी नही के पाठों से [पचपद व पंतीम अक्षर की मान्यता से भी] लिया जा सकता है । 'लिपि' मूर्ति-मात्र है और उसे नमन ठीक बैठता है और मत्र की एकरूपता को भी सिद्ध करता करना मूर्तिपूजा का द्योतक होता है शायद, इसी दोष है। जब कि श्री भगवती जी का पाठ उक्त श्रेणी मे अनु- के निवारण के लिए किन्ही से ऐसा अर्थ किया गया हो। कूल नहीं बैठता। अस्तु, जो भी हो : स्थल इस प्रकार हैभापा और लिपि जो भी हो [दोनों ही परिवर्तन- 'यहा पर सूत्रकार ने अक्षर स्थापनारूप लिपि को शील है] पर, मत्रगठन और पात्रो की दृष्टि से मत्र के नमस्कार नहीं करते हुए लिपि बताने वाले ऋषभदेव युक्ति-संगत-अनादित्व को सिद्ध करने वाला रूप-प्रथम- स्वामी को नमस्कार किया है और भी वीरनिर्वाण पीछे रूप ही है, जो पचपरमेष्ठी गभित रूप है। 'बभीए लिवीए' ६८० वर्ष मे पुस्तकारूढ ज्ञान हुमा, इससे लिपि को Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रनादि मलमंत्रोऽयम् ।' नमस्कार करना नहीं संभवता है।' दक्षिणकरेण प्रदशितमतएव तदादित भारभ्य याच्यते ॥' - विवाह पण्णत्ति [वही] पृ० ३ टिप्पण, प्रमो. ऋ. -मभि. राजे. द्वि.पृ. ११२६ उक्त प्रसंग से यह तो स्पष्ट है कि षट्खंडागम एवं लिपिः पुस्तकाऽऽदो प्रक्षरविन्यासः सा अष्टादश प्रका रापि श्रीमन्नाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मी नामिकायावशिता, मागम परम्परा में सभी जगह [भगवती के अतिरिक्त] ततो ब्राझीनाम इत्यभिधीयते ।।' णमोकार मंत्र की एकरूपता अक्षुण्ण रही है--उसके रूप -अभि. राजे. पचम पृ. १२८४ में कही भिन्नता नहीं है। अर्थात् प्रागम-परम्परा की दृष्टि 'अष्टादशलिपि ब्राहम्या अपसव्येन पाणिना।' से भगवती का पाठभेद मेल नहीं खाता । सम्भद है -वे. श. पु. च. १।२।९६३ विद्वानों ने उस पर विचार किया हो; या 'नमो बंभीए- उक्त तथ्षो से स्पष्ट है कि ब्राह्मी लिपि का प्रादुर्भाव लिवीए' पद मानते हए और मूलमत्र में लोए' पद न तीर्थकर ऋषभदेव से हुअा जो उन्होने अपनी पुत्री ग्रामी मानते हुए भी मूलमंत्र की अनादि एकरूपता पर अपनी के माध्यम से संसार मे किया और ऋषभदेव युग की सहमति प्रकट की हो। यदि उनके ध्यान में हो तो पत्र प्रादि मे हुए उन्हे भी अनादि नही माना जा सकता। द्वारा दर्शाकर मुझे मार्गदर्शन दें। एतावता यह टिप्पण भी मत्र के अनादित्व की दिशा में स्मरण रहे कि उक्त सभी प्रसग णमोकार मत्र के निर्मूल बैठता है कि ब्राह्मी का पर्थ ऋपभदेव किया 'अनादित्व' की दिशा में प्रस्तुत किया गया है। स्वात्रम्प जाय । कयो। मंत्र के अनादित्व मे ऋपभ अर्थ का विधान भी (ऋषभ के सादित्व के कारण) वज्र्य है। यदि मत्र अनादि से जन-प्रागगो मे वणित सभी मत्रो का हम सम्मान करते है तो उसमें ऋषभ (व्यक्ति) को नमस्कार नहीं, और यदि है, चाहे वे (वीतराग मार्ग मे) किसी रीति से-किन्ही ऋषभ को नमस्कार है तो मंत्र अनादि नहीं। अत: निष्कर्ष शब्दों और गठनों मे बद्ध क्यो न किये गये हों। बाह्मी निकलता है कि-मूलमंत्र-परमेष्टी नमस्कारात्मक रूप है लिपि अनादि नही है इस सम्बन्ध में निम्न प्रसग ही और वही अनादि है -- जैसा कि षट्खंडागम तथा अन्य पर्याप्त है प्रागमों में कहा गया है'लेह लिवीविहाणं, जिणेण बंभीएदाहिणकरेण ।। णमो अरिहताण, णमो सिद्धाणं, णमो मायरियाणं, -प्रा. नि. भा. ४७ णमो उबझायाण, णमो लोए सव्वासाहणं ।' 'लेखनं लेखो नाम मूत्र नपुसकता प्राकृतत्वाल्लिपि --पट्पडागम-मगलाचरणम् विधानं तच्च जिनेन भगवता ऋषभस्वामिना ब्राहम्या वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ 000 [पृष्ठ ४६ का शेशाप] जन्म लेते ही घर-परिवार में सुख-समृद्धि होने के कारण हम उन्हे गच्ची श्रद्धांजलि तभी भेट कर सकते हैं जब उनको वर्द्धमान नाम मिला। अपने शौर्य कार्यों के कारण हम उनके बताये हुए उन शाश्वत सिद्धान्तों को व्यवहार बाल्यावस्था से ही वीर, महावीर, अतिवीर कहे जाने में लावें जिनसे आज भी हमारा और विश्व के सभी लगे। उनकी कुशाग्र बुद्धि को लक्षितकर लोग उन्हे सन्मति- प्राणियो का कल्याण सम्भव है। वीर भी कहने लगे। सासारिक भोगों से विरक्त हो प्रात्मोद्धार और लोकोद्वार के लिए स्वजनों और परि. टिप्पणी पर टिप्पणी-इम लेख में उपयोग में लाये गये प्राकृत पाठ जनों का मोहपाश तोड़ वन की राह पर लेने पर वह डा. ज्योतिप्रसाद जैन द्वारा सम्पादित 'श्री निष्परिग्रह, निर्ग्रन्थ, श्रमण साधु हो गये और निगण्ठनात्त महावीर-जिन-वचनामृत' नामक पुस्तक से पुत्त के नाम पुकारे जाने लगे। साभार उद्घन है। उन मात्मजयी, कर्मशील, अनेकान्तवादी, जीववन्धु, ज्योतिनिकुज, परसेवाभावी महामानव की शासन जयन्ती के अवसर पर चारबाग, लखनऊ-२२६००१ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार के रचयिता कौन ? - श्री बंशीधर शास्त्री, एम० ए०, विद्वान् लेखक ने पुष्ट युक्तियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रयणसार कुन्दकुन्दाचार्य की रचना नही हो सकती। पहले भी ऐसे ग्रन्थो का छानबीन द्वारा पता लग चुका है जो प्राचीन प्रसिद्ध प्रामाणिक प्राचार्यों के नाम से अन्यों ने लिखे हैं। संभवतः रयणसार भी ऐसी ही रचना हो। विद्वानों को शोषपूर्वक इसका निश्चय करना चाहिए, इसी पवित्र भावना से यह लेख हम यहाँ दे रहे हैं । यह पावश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल विद्वान् लेखक के सभी विचारों से सहमत हो। इस विषय में अन्य विद्वानों के सप्रमाण भी सादर आमन्त्रित है जो यथासमय 'अनेकान्त' मे प्रकाशित किए जाएंगे। -सम्पादक मुस्लिम शासनकाल में भारत में ऐसी परिस्थितिया साहित्य द्वारा उन नवीन प्रवृतियो का समर्थन किया गया। हो गई थी जिनके कारण दिगम्बर जैन साधु नग्न नहीं इन्होने विवर्णाचार, मूर्य प्रकाश, चर्चासागर, उमास्वामी रह सके और इन्हे वस्त्र धारण करने पड़े। ऐसे वस्त्र- श्रावकाचार प्रादि प्रागम-विरुद्ध ग्रन्थो का निर्माण किया पारी साधु भट्टारक कहलाते थे। प्रारम्भ मे कतिपय था। स्व. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, पं० परमेष्ठीदास जी भट्टारकों ने साहित्य सरक्षण एवं संस्कृति की परम्परा जैसे विद्वानों ने इनकी समीक्षा कर स्थिति स्पष्ट कर बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान किया था। किन्तु वे दी है। वस्त्र, वाहन, द्रव्यादि रखते हुए भी अपने पापको साधु यह ठीक है कि प्रागरा-जयपुर के विद्वानों द्वारा ज्ञान के रूप में ही पुजाते रहे। वे पीछी कमण्डल भी रखते थे। के सतत प्रसार से उत्तर भारत मे इन भट्टारकों का चंकि दिगम्बर परम्परा में वस्त्रधारी और परिग्रहधारी को अस्तित्व समाप्तप्राय हो गया है। तदपि कुछ भाई, साधु नहीं माना जा सकता, इसलिए इन भट्टारकों ने प्रधि- जिनमें विद्वान् एव त्यागी भी है, फिर भी भट्टारक परम्परा कांश साहित्य, जो कि उस समय हस्तलिखित होने के कारण को प्रोत्साहन देना चाहते है भोर उन भट्टारकों द्वारा मल्प संख्या मे ही था, अपने कब्जे मे कर लिया। इन रचित ग्रन्थों का प्रचार करते हैं । भट्रारकों ने प्रमुख केन्द्रों मे अपने-अपने मठ बना लिए, ऐसे ग्रन्थों में 'रयणसार' भी एक है । यद्यपि इसे विभिन्न प्रकारों से श्रावकों से धन संचय करने लगे और प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित बताया जाता है, किन्तु उन श्रावक-श्राविकानों को शास्त्रों मोर पागम परम्परा । इस ग्रन्थ को परीक्षा करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि से दूर रखा। उन्होंने धर्म के नाम पर मत्र-तंत्रादि का यह ग्रन्थ अपने वर्तमान रूप मे कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित लोभ या डर दिखाकर कई ऐसी प्रवृत्तिया चलायीं जो नही हो सकता। अपने विचार प्रस्तुत करने से पूर्व में दिगम्बर जैन मागम के अनुकल नही थी। इन्होने प्राचीन कतिपय साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों के मत उद्धत करना साहित्य अपने अधिकार मे कर लिया और नवीन साहित्य प्रावश्यक समझता हूँ:निर्माण करने लगे, वह भी कभी-कभी प्राचीन पाचार्यों स्व. डा० ए० एन० उपाध्याय ने प्रवचनसार की के नाम पर, ताकि लोग उन्हें प्रामाणिक समझ कर भूमिका में इस प्रकार लिखा हैउन प्रवृत्तियों का विरोध नहीं करें। ऐसे नव निर्मित "रयणसार ग्रन्थ गाथा विभेद, विचार पुनरावृत्ति, मप Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार के रचयिता कोन ? भ्रंश पद्यों की उपलब्धि, गण गच्छादि का उल्लेख और सम्मावना है, अथवा इतना तो कहना ही चाहिए कि बेतरतीबीमादि को लिए हुए जिस स्थिति में उपलब्ध है उसका विद्यमान रूप ऐसा है जो हमें सन्देह में डालता है। उस पर से वह पूरा ग्रन्थ कुन्दकुन्द का नहीं कहा जा इसमें अपभ्रंश के कुछ श्लोक है और गण-गच्छ भोर संघ सकता। कुछ प्रतिरिक्त गाथानों की मिलावट ने उसके के विषय में जिस प्रकार का विवरण है वह सब उनके मूल में गड़बड़ उपस्थित कर दी है और इसलिए जब तक अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलता। (पृ. २०) कुछ दूसरे प्रमाण उपलब्ध न हो जायं तब तक यह विचा- प. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने रयणसार को राधीन ही रहेगा कि कुन्दकुन्द इस रयणसार के कर्ता है।" 'कुदकुन्द भारती' नामक कुन्दकुन्द के समग्र साहित्य में पुरातन ग्रन्थो के पारखी स्व० ५० जुगलकिशोर जी इसलिए सम्मिलित नहीं किया कि इसमें गाथा सख्या महतार का रयणसार के सम्बन्ध मे भिन्न मत है- विभिन्न प्रतियों मे एकरूप नही है। कई प्राचीन प्रतियों "यह ग्रन्थ प्रभी बहुत कुछ संदिग्ध स्थिति में स्थित में कुन्दकुन्द का रचनाकार के रूप में नाम नहीं है। है। जिस रूप में अपने को प्राप्त हुप्रा है उस पर से न तो स्व. डा० नेमीचन्द जी ज्योतिषाचार्य ने तीर्थकर इसकी ठीक पद्य संख्या ही निर्धारित की जा सकती है महावीर और उनकी प्राचार्थ परम्परा के दूसरे खण्ड में और न इसके पूर्णतः मूल रूप का ही पता चलता है। पृष्ठ ११५ पर रयणगार के सम्बन्ध मे डा० उपाध्ये का मत ग्रन्थ प्रतियों में पद्य सख्या और उनके क्रम का बहुत बड़ा उद्धृत करते हुए लिखा है कि 'वस्तुत शैली की भिन्नता भेद पाया जाता है। कुछ अपभ्रश भाषा के पद्य भी इन और विषयों के सम्मिश्रण से यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द रचित प्रतियो में उपलब्ध है। एक दोहा भी गाथाम्रो के मध्य मे पतीत नही होता।' प्रा घुसा है। विचारो की पुनरावृत्ति के साथ कुछ बेतर- डा. लालबहादुर शास्त्री ने अपने 'कुन्दकुन्द पोर तीबी भी देखी जाती है, 'गण गच्छादि के उल्लेख भी उनका समयसार' नामक ग्रन्थ मे रयणसार का परिचय मिलते हैं, ये सब बातें कुन्दकुन्द के ग्रन्यो की प्रवृत्ति के । देकर लिखा है कि 'रयणसार की रचना गम्भीर नहीं है, साथ संगत मालूम नही होती, मेल नहीं खाती।" भाषा भी स्खलित है, उपमानों की भरमार है। ग्रन्थ -(पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना) पढ़ने से यह विश्वास नही होता कि यह कुन्दकुन्द की स्व. डा. हीरालाल जी जैन ने अपने भारतीय रचना है। यदि कुन्दकुन्द की रचना यह रही भी होगी संस्कृति में जैन धर्म का योगदान' शीर्षक ग्रन्थ मे रयण तब इसमे कुछ ही गाथाएं ऐसी होंगी जो कुन्दकुन्द की कही सार के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है : जा सकती है। शेष गाथाएं व्यक्ति विरोध में लिखी हुई ___ "इसमें एक दोहा व छ: पद अपभ्रश भाषा में पाये प्रतीत होती है। गाथानों की संख्या १६७ है । (पृ० १४२) जाते हैं। या तो ये प्रक्षिप्त है या फिर यह रचना कुन्दकुन्द दस ग्रन्थ का विमोचन उपाध्याय श्री विद्यानन्द जी के कृत न होकर उत्तरकालीन लेखक की कृति है; गण गच्छ प्राशीर्वाद से हुआ है)। मादि के उल्लेख भी उसको अपेक्षा कृत पीछे की रचना इस प्रकार उक्त विद्वानों व अन्य प्रमुख विद्वानों द्वार, सिद्ध करते हैं।" 2° १०२ भी रयणसार कुन्दकुन्द को रचना नही मानी गयी है। श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल ने 'कुन्दकृन्दाचार्य के तीन रत्न' शीर्षक पुस्तक में रयणसार के सम्बन्ध मे निम्न इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्दाचार्य कृत न मानने के कुछ मत प्रस्तुत किया है : और भी कारण है जिन पर ध्यान दिया जाना माय. यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य रचित होने की बहुत कम श्यक है। १. इसमें विषवों का व्यवस्थित वर्णन नहीं हैं। दान, सम्यग्दर्शन, मुनि, मुनिचर्या प्रादि का क्रमश. वर्णन न होकर कभी दान का, कभी सम्यग्दर्शन का, कभी पूजन का, कभी मुनि का वर्णन इधर-उबर अप्रासंगिक रूप से, असंबद्ध रूप से मिलता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६, वर्ष ३०, कि० २ अनेकांत १. कुन्दकुन्दके सभी 'सार' ग्रन्थों (प्रवचनसार, नियम- ही नहीं। उसका प्रचलन एवं प्रयोग कुन्दकुन्द के सैकड़ों सार और समयसार) पर संस्कृत टीकाएं उपलब्ध है वर्ष बाद हुआ है। फिर अपभ्रश की गाथायें रयणसार में जबकि इसी तथाकथित 'सार' (रयणसार) की सम्कृत कैसे प्रा गई। डा० लालबहादुर जी शास्त्री के शब्दों में, टीका नहीं है। प्राचीन काल में कुन्दकुन्द के उक्त तीनों इसकी भाषा स्खलित है। इससे स्पष्ट है कि यह रचना ग्रन्थ नाटकत्रयी के नाम से विख्यात है और यदि उनके कुन्दकुन्द के बहुत काल बाद जब अपभ्रंश का प्रयोग होने सामने यह 'रयणसार' उपलब्ध होता तो नाटकत्रयी ही लगा होगा, अन्य किसी द्वारा लिखी जाकर कुन्दकुन्दाचार्य क्यों कहते ? के नाम से प्रचारित की गई होगी: २. कुन्दकुन्दाचार्य से लेकर १७वीं शताब्दी तक न १७वी-१८वी शताब्दी मे अचानक इस ग्रन्थ का तो इसकी कोई हस्तलिखित प्रति मिलती है, न किसी भी प्रादुर्भाव कैसे हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। प्राचार्य या विद्वान् ने उस समय तक इसका कोई उल्लेख यह ठीक है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक मे कुन्दकुन्द का नाम या उद्धरण दिया है। कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र, बिना दिये 'रयणमार' की एक गाथा उद्धत की यई है। पद्मप्रभुमलधारी, जयसेन आदि टीकाकारो ने भी इसका पाठको को ध्यान रहे कि इस ग्रन्य में प्रजैन ग्रन्थों के कही भी उल्लेख नहीं किया। प० पाशाधर, श्रुतसागर उद्धरण भी यथा प्रसंग उद्धत किये गये है, अतः उसी प्रकार मादि टीकाकारो ने भी पानी टीकामो मे इसका उल्नख रयणसार की गाथा भी उद्धत की गई हो तो क्या प्राश्चर्य नहीं किया, जबकि उनकी टीकामो में प्राचीन ग्रन्थो के है ? १८वी १६वी शताब्दी मे हुए भूधरदास जी एवं ५० उद्धरण प्रचुरता से मिलते है। सदासुखजी ने इसे कुन्दकुन्द कृत कहा है । सम्भव है कि ३. १७वी शताब्दी से पूर्व की इसकी कोई हस्त- उस ममय कुन्दकुन्द का नाम होने के कारण इस ग्रन्थ का लिखित प्रति लगनकाल युक्त अभी तक नहीं मिली। कोई विषय, सिद्धान्त, ओली प्रादि का विशेष विवेचन न किया व्यक्ति किसी प्रति को अनुमान से किसी भी काल की गया होगा और इसे कुन्दकुन्द की रचना लिख दी हो, बता दे, वह बात प्रामाणिक नही कही जा सकती। जैसा कि शज भी हो रहा है। कुछ लोग इसके प्रचार ४. कुन्दकुन्दाचार्य की रचनायो मे विषय को व्यव- के कारण इसे कून्दकुन्द कृत मान लेते है और दूसरे से स्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है जबकि इसमे पं. ये पूछते है कि इसे क्यों नही मानते । जगलकिशोर जी मुख्तार के शब्दो मे, विषय बेतरतीबी से रयणसार को कुन्दकुन्द की रचना सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये है। वैसे कहा यह जाता है कि 'रयण. इसमे मगलाचरण, प्रन्तिम पद व कई विषय ऐसे लिखे सार' की रचना प्रवचनसार और नियमसार के पश्चात् गये है जो कुन्दकुन्द की रचना से साम्यता लिए हुए प्रतीत की गई थी (देखें रयणसार प्रस्तावना डा. देवेन्द्रकुमार हों और दूसरी ओर कुन्दकुन्द एवं दिगम्बर मान्यता से शास्त्री, पृ० २१)। किन्तु रयणसार एवं इन ग्रन्थों की असम्मत मत भी इसमें प्रस्तुत कर दिये गये है ताकि लोग तुलना से विदित हो जाता है कि प्रवचनसार और नियम- उन असम्मत मतो को भी कुन्दकुन्दाचार्य कृत मान लें। सार जैसे प्रोढ़ एव सुव्यवस्थित ग्रन्थों का रचयिता रयण- प्रब रयणसार की ऐसी गाथानों पर विचार किया सार जैसी संकलित, अव्यवस्थित, पूर्वापर-विरुद्ध और जाता है जो पागम परम्परा, कुन्दकुन्दाचार्य कृत अन्य मागम विरुद्ध रचना नही लिखेगा। (इसके पागम विरुद्ध रचनात्रों एवं रयणसार की ही अन्य गाथानों के विपरीत मंतव्यों का मागे विवेचन किया जायगा)। मान्यता वाली है। ५. इसकी विभिन्न प्रतियों में गाथा संख्याएँ समान दान के प्रसग मे पात्र और प्रपात्र का विचार न नहीं है, वे १५२ से लेकर १७० तक है । करने वाली निम्न गाथा उल्लेखनीय है: ६. कुन्दकुन्दाचार्य के प्रन्थों मे उच्चस्तरीय प्राकृत दाणं भीयणामेत्त दिप्णइ घण्णो हवेह सायारो। भाषा के दर्शन होते है, उनके काल में अपभ्रंश भाषा थी पत्तापत्तविसेस संदसणे कि विधारेण ॥४॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार के रचयिता कौन ? या यदि गृहस्थ पाहार मात्र भी दान देता है तो धन्य वस्तुत: ऐसी गाथा कोई भट्टारक या शिथिलाचारी हो जाता है । साक्षात्कार होने पर उत्तम पात्र-अपात्र का ही लिख सकता है जो चाहता है कि लोग उसे माहार विचार करने से क्या लाभ ? दान देते ही रहें, चाहे उसके प्राचरण कैसे ही क्यों न हों। इसी गाथा के प्रागे १५ से २०वी गाथा में उत्तम उनकी परीक्षा न करे और एक बार माहार देने पर पात्र को ही दान देने का फल बताया है, न कि प्रपात्र को उसकी फिर परीक्षा करना या शिथिलावारी या अनाचारी दान देने का फल । कुन्दकुन्दाचार्य कृत किसी भी रचना मान लेने पर भी उसको प्रकाश में लाना सम्भव नही हो में नहीं लिखा है कि अपात्र को दान देना चाहिए। सकेगा। प्रवचनसार की गाथा २५७ में अपात्र को दान देने यशस्तिलक चम्पू काव्य में उक्त १४वीं गाथा के का फल इस प्रकार बताया है: प्राशय का निम्न श्लोक मिलता हैजिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय भुक्तिमात्र प्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । कषायो में अधिक हैं, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा उपकार या ते सन्त, सन्त्व-सन्तो वा गृहीदानेन शुद्धयति ।।३३।। दान कुदेव रूप में पोर कुमानुष रूप में फलता है। उक्त चम्पू काव्य उत्तरकालीन रचना होने के साथ साथ एक काव्य ग्रन्थ है, जिसको प्राचार शास्त्र या दर्शन वसुनन्दी श्रावकाचार में २४२वीं गाथा में प्रपात्र की मान्यता नही दी जा सकती। वैसे सिद्धान्त की दृष्टि दान का फल निम्न प्रकार लिखा है : से उक्त श्लोक भी प्रागम परम्परा के प्रतिकूल ही है, जिस प्रकार ऊपर भूमि में बोया हमा बीज कुछ भी क्योंकि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ सच्चे साधु को ही वन्दनापूर्वक नही उगाता है उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी पाहार दे सकता है, वह अमाधु की वन्दना नहीं कर फल रहित जानना चाहिए। सकता । शास्त्रकारों ने मिथ्यादृष्टि को अपात्र कहा है और प्राज भी शिथिलाचारियों के विरोध की बात पर उसे दान देने का फल इस प्रकार बताया गया है। दर्शन उक्त गाथा की दुहाई दी जाती है और उनको दान देने पाहड की टीका मे लिखा है कि मिथ्था-दृष्टि को अन्ना का समर्थन किया जाता है । रयणसार की अन्य गाथाओं दिक का दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है मे उत्तम पात्र को दान देने वाली जो गाथायें है उन्हे मिथ्या दृष्टि को दिया गया दान दाता को मिथ्यात्व उद्धत नही किया जाता, किन्तु १४वी गाथा अवश्य उद्बढ़ाने वाला है। इसी प्रकार सागारधर्मामृत में लिखा घृत की जाती है। समणमूत्त में भी उक्त गाथा का समा. है-चारित्राभास को धारण करने वाले मिथ्पादृष्टियों वेश किया है, जब कि उत्तम पात्र को दान देने को प्रेरणा को दान देना सर्प को दूध पिलाने के समान केवल प्रशुभ देने वाली न केवल रयणसार में अपितु अन्य सभी शास्त्रों के लिए ही होता है। (२१.६४/१४६)। में गाथाएँ है, किन्तु वे गाथाएं समणमूत मे नही दी उपासकाध्ययन मे उस दान को सात्विक कहा गया गई है। है जिसमे पात्र का परीक्षण व निरीक्षण स्वयं किया गया इस प्रकार की गाथानों से अपात्रों-मिथ्याष्टि, हो मोर उस दान को तामस दान कहा गया है जिसमें शिथिलाचारी एवं अनाचारी को प्रोत्साहन एव समर्थन पात्र-अपात्र का ख्याल न किया गया हो। सात्विक दान मिलता है। ऐसी गाथा कुन्दकुन्द जैसे पागम परम्परा के को उत्तम एवं सब दानों में तामसदान को जघन्य कहा संस्थापक की नही हो सकती। गया है। (८२६-३१)। मुनि के आहार के पश्चात् प्रसाद दिलाने वाली निम्न पाठक विचार करें कि अपात्र के दान का इस प्रकार गाथा भी विचारणीय हैका फल होने पर कुन्दकुन्दाचार्य जैसा महान् प्राचार्य कैसे जो मुनिभुत्तवसेसं भुंजइ सो भुजए जिणुवदिछ । कह देता कि पात्र-अपात्र का क्या विचार करना? संसार-सार-सोक्खं कमसो णिश्वाणवरसोकाव ।।२।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८, वर्ष ३०, कि०२ अनेकान्त जो जीव मनियों के प्राहार दान देने के पश्चात् जिनदेव द्वारा कथित सप्तक्षेत्रों में बोता है वह तीन लोक अवशेष अंश को सेवन करता है वह ससार के सारभूत के राज्य फल-पंचकल्याणक रूप फल को भोगता है। उत्तम सुखों को प्राप्त होता है और क्रम से मोक्ष सुख को इन सप्तक्षेत्रों का किसी प्राचीन ग्रन्थ में उल्लेख प्राप्त करता है। देखने में नहीं आया। डा. देवेन्द्रकुमार जी ने भावार्थ में क्षुल्लक ज्ञानसागर जी ने अवशेष अंश के लिए लिखा सतक्षेत्र इस प्रकार लिखे है-१. जिन पूजा, २. मन्दिर है कि इसको प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए, इसका प्रादि की प्रतिष्ठा, ३. तीर्थयात्रा, ४. मुनि भादि पात्रों को दानसार में महत्व बताया गया है । दान देना, ५. सहमियों को दान देना, ६. भूखे-प्यासे अब तक मैंने रयणसार की ४-५ मद्रित प्रतियां देखी तथा दुखी जीवों को दान देना, ७. अपने कुल व परिवार है, उनमें यह गाथा उक्त रूप में ही लिखी गई है। समण- वालों को सर्वस्वदान करना। कुन्दकुन्दाचार्य, उनके टीकासुत्त मे भी उक्त गाथा इसी रूप में सम्मिलित की गई है कार व अन्य प्राचार्यों के प्रन्थों में क्षेत्र के ये भेद देखने किन्तु अभी डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित में नहीं पाए । प्राचीन ग्रन्थों में उत्तम, मध्यम एवं जघन्य रयणसार इस गाथा में प्रागत 'म निभत्तावमेंस' को मणि- पात्रो के नाम से तीन भेद पात्रों के है, फिर कुपात्र एव भुक्ताविसेंस लिखा गया है। यह परिवर्तन सम्भवतः इसी प्रपात्र है। ये सप्तक्षेत्र कब से किस शास्त्रकार ने मान्य लिए किया गया है कि प्रसाद साने का जैन परम्परा से किये है, इसका स्पष्टीकरण प्रावश्यक है। इनमें अतिम किसी प्रकार प्रौचित्य सिद्ध नही होता, अन्यथा इस परि. चार क्षत्र दात्तया (पात्रदात्त, समद चार क्षेत्र दत्तियो (पात्र दत्ति, समदत्ति, दयादत्ति और वर्तन का कारण उन्होंने नही बताया। अन्वयदत्ति) के नाम से आदिपुराण में भरत चक्रवर्ती ने निम्न गाथा में मुनि के लिए देय पदार्थों की सूची अवश्य बताये है। पुत्र-परिवार को समस्त धन संपदा दी गई है देना तीन लोक के राज्य फलस्वरूप पचकल्याण रूप फल हिय मिय-मण्णं पाण णिरवज्जोसहि णिराउल ठाणं । अर्थात् तीर्थकर पद देता है, ऐसा कुन्दकुन्द या अन्य किसी सयणासणभुवयरणं जाणिज्जा देइ मोक्खरग्रो ॥२३॥ आचार्य ने नही लिखा। सभी मनुष्य मरते समय या वैसे भी अपनी धन-संपदा पुत्र परिवार को दे जाते है। क्या मोक्षमार्ग मे स्थिर (गृहस्थ) (मुनि के लिए) हित व तीर्थकर प्रकृति के फल को पाते है ? ऐसा कथन कर्म कर परिमित अन्नपान, निर्दोष पौषधि, निराकुल स्थान, सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। यं डा० देवेन्द्रकुमार जी शयन, प्रासन, उ करण को समझकर देता है। (डा० भी उक्त गाथा से सहमत नही दिखते है, इसीलिए उन्होंने देवेन्द्र कुमार जी ने भावार्थ मे उपकरण के बाद कोष्ठक मे भावार्थ में 'पचकल्लाणफल' का अर्थ नही दिया। उत्तम "पादि" और लिखा है)। मुनि के लिए शयन, प्रासन, पात्र मुनि को धन देने के लिए कुन्दकुन्द जैसे निग्रंथ उपकरण और प्रादि क्या है ? अाज मुनिगण अपने इन तपस्वी कैसे कह सकते थे ? उनकी गाथाओं में तो मुनि शयन, प्रासन, उपकरण आदि के नाम पर इतना परिग्रह को द्रव्य देना पापमूलक ही बताया गया है। रखते है कि उन्हें लाने ले जाने के लिए बड़ी-बड़ी बसें गाथा सख्या २ में सम्यग्दष्टि का निम्न स्वरूप चाहिए। इतने परिग्रह को रखते हुए वे मुनि निग्रंथ दिगम्बर कैसे कहला सकते है ? बताया है - निम्न गाथा मे सप्त क्षेत्रों मे दान देने का फल इस पुव्वं जिणेहिं भणियं जहट्रियं गणहरेहिं वित्थरियं । प्रकार बताया गया है पुवाइरियक्कम त बोल्लइ सोह सद्दिट्ठी ॥२॥ इह णि यमुवित्तबीय जो ववइ जिणुत्तसत्त खेत्तेसु । (जो) पूर्वकाल मे सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए, गणघरों सो तिहुवण रज्जफल भुंगादि कल्लाणपंचफल ॥१६॥ द्वारा विस्तृत तथा पूर्वाचार्यों के क्रम से प्राप्त वचन को इस लोक में जो व्यक्ति निज श्रेष्ठ धन रूप बीज को ज्यों का त्यों बोलता है वह विश्चय से सम्यग्दृष्टि है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसार रचयिता कौन? सम्यग्दष्टि का ऐसा लक्षण इसी ग्रन्थ में मिलता है हैं। १२ व्रतों के ५-५ अतिचार होते हैं सो वे व्रत नियम अन्यत्र शायद ही मिले। के ५ अतिचार कौन से हैं यह स्पष्ट किये जाने की गृहस्थ के प्रावश्यक षटकर्मों में दान का अन्तिम भावश्यकता है। स्थान है, किन्तु रयणसार के कुन्दकुन्द्र दान को देव पूजा मुनि के लिए विभिन्न वस्तुपो में ममत्व का निषेध से भी पहले मुख्य स्थान देते है - इस प्रकार किया गया है: वसदी पडिमोवयरणे गणगच्छे समयमंधनाइकुले । दाणं पूया मुखं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । सिस्सपीड सिस्म छत्ते सुयजाते कप्पड़े पुत्ये ॥१४४।। श्रावक के षटकर्तव्यों का क्रम इस प्रकार है-देव पिच्छे संत्थरणे इच्छासु लोहेण कुणइममयारं । पूजा, गुरु उपामना, स्वाध्याय, सयम, तप और दान । यावच्च अट्टरुद्द ताव ण मुचेदि ण हु सोक्वं ॥१४६।। दान का अन्तिम स्थान होते हुए भी स्वाध्याय, संयम, तपादि की सर्वथा उपेक्षा कर दान को प्रथम स्थान देना (यदि साधु वसतिका, प्रतिमोपकरण मे, गणगच्छ में तथा १५५ गाथायों के ग्रन्थ में दान की व्याख्या एवं शास्त्र संघ जाति कुल में, शिष्य-प्रतिशिष्य छात्र में, सुत प्रशंसा मे ३०.३१ गाथाएँ लिखना बताता है कि इस प्रपौत्र मे, काड़े मे, पोथी में, पीछी मे, विस्तर मे, इच्छानों ग्रन्थकार को दान अतिषिय पा । भट्टारकगण नाना प्रकारो में लोभ से ममत्व करता है और जब तक आर्तरोद्र ध्यान से धन संग्रह किया करते थे। षट् कर्तव्यों मे दान को नहीं छोड़ता है तब तक सुखी नहीं होता है।) मुख्य एवं प्रथम स्थान देना उसका सर्वोच्च फल तीर्थकर ती क्या दिगम्बर जैन साधु कपड़े, प्रतिमोपकरण, विस्तर पद एवं निर्वाण अदि बताना केवल इसीलिए था कि मानवता प्रादि रखता है, जो उनके प्रति ममत्व का फल बताया भक्त लोग उन्हें दान देते रहें। गया है। ये गाथाएँ किसी अदिगम्बर द्वारा लिखी हुई हो मेरा प्राशय यह नहीं है कि दान का कोई महत्व तो कोई प्राश्चर्य नहीं है। उक्त गाथा में प्रयुक्त 'गण नही है। थावक के कर्तव्यो मे उराका अन्तिम स्थान है गच्छ' का गठन कन्दकुन्द के बहुत काल बाद हुआ है। (जो कि तर्क सिद्ध एवं बुद्धिगम्य भी है)। उसको उसके । उमास्वामी ने अपने मूत्र २४ अध्याय ६ मे गण शब्द का बजाय प्रथम स्थान कसे दिया गया ? इरा ग्रन्थ में श्रावक प्रयोग उवा गणगच्छ के अर्थ मे नही किया है। डा. के अन्य प्रावश्यकों, व्रतों, प्रतिमानों का नामोल्लेख मात्र देवेन्द्रकमार जी ने उमास्वामी के उक्त सूत्र का हवाला किया गया है देते हुए कुन्दकुन्द कृत ही माना है, किन्तु उनके काल में ___ इस ग्रन्थ की ७वी गाथा में सम्यग्दृष्टि के चवालीस गण या गच्छों का गठन नहीं हुमा यह तो निश्चित ही (सपादक के शब्दो मे) दूषण न होना बताया है। २५ है। उत्तरकालीन रचनायो में ही गण-गच्छ का प्रयोग दोष, ७ व्यसन, ७ भय एवं अतिक्रमण-उल्लघन ५ इम मिलता है। इसीलिए डा० ए० एन० उपाध्ये, डा० हीराप्रकार कुल ४४ दोष बताए गए है । परम्परा में सम्यग्दृष्टि लाल जी, प० जुगल किशोर जी मुमार सदृश अधिकारी के २५ दोषों का उल्लेख तो यथा प्रसग सर्वत्र मिलता है विद्वानों ने इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्द की रचना गानने में किन्तु इन ४४ दोपों का उल्लेख अन्यत्र देखने मे नही सन्देह व्यक्त किया है। प्राया। कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती किसी प्राचार्य या ग्रथकार ने इस रयणसार को न पढ़ने सुनने वाले को टीकाकार ने इनका उल्लेख नही किया। इसका कारण मिथ्यादृष्टि बनाया हैयही प्रतीत होता है कि उक्त प्राचार्यों के समक्ष यह गंधमिण जो ण दिइ ण हु मण्णइ ण हु रयणसार न रहा हो। अतिक्रमण-उल्लंघन के ५ प्रतिचार सुणेइ ण हु पढ़। कौन से है यह भी देखने मे नही पाया। डा. देवेन्द्र ण हु चितइ ण हु भावइ गो चेव हवेइ कुमार ने व्रत नियम के उल्लंघनस्वरूप ५ अतिवार लिमे कुट्ठिी ।।१५४।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, वर्ष ३०, कि०२ अनेकान्त जो व्यक्ति इस ग्रन्थ को नहीं देखता, नही मानता, सूचनानुसार सूची में "प्राकृत भाया के रयणसार के कर्ता नहीं सुनता, नहीं पढ़ता, नहीं चिंतन करता, नहीं भाता है का नाम वीरनन्दी है, न कि कुंदकंद।" जब तक इसे गलत वह व्यक्ति ही मिथ्यावृष्टि होता है। सिद्ध नहीं किया जावे इस सूची के वर्णन को सही मानना क्या कुन्दकुन्द जैसे महान् ग्रन्थकार इस रचना को समीचीन होगा। मध्यकाल में वीरनन्दी हुए हैं, उन्होंने न देखने, न पढ़ने, न सुनने, न मानने वाले को मिथ्यादृष्टि प्राचारसार लिखा था। सम्भव है रयणसार भी उन्हीं का बताते ? ऐसी गाथा की रनना तो अपने ग्रन्थ की महत्ता लिखा हा हो। दिखाने के लिए भट्टारक ही कर सकते है । न कि संसार- विद्वान सम्पादक डा० देवेन्द्रकुमार जी ने इसकी कई त्यागी मात्मसाधना मे लीन कुन्दकुन्दचार्य । गाथाएं प्रक्षिप्त बतलाकर मूल ग्रन्थ से अलग प्रस्तुत की इस ग्रन्थ में ऐसी ही अन्य गाथाएँ है जिनका सूक्ष्म हैं, किन्तु फिर भी ग्रन्थ में कुछ गाथाएँ ऐसी पोर हैं परीक्षण करने से इनमे विषमताएँ एव विपरीतता जिन पर क्षेपक लिखा हुआ है अत: इसके मूल अंश और मिलेगी। क्षेपकांश का निर्णय हो पाना सहज नहीं है। डा. देवेन्द्रकुमार जी ने अपनी प्रस्तावना में इसे प्रतः अंतरंग-बहिरंग परीक्षण से यह ग्रंथ वीतराग कन्दकन्द कृत मानने का प्रयास किया है। उन्होने परम तपस्वी दिगम्बर कुंदकुंदाचार्य द्वारा लिखा हमा प्रस्तावना के पृ० ९२ पर 'रचनाएँ" शीर्षक पैरा मे लिखा नहीं मालूम होता, अपितु किसी भट्टारक या और किसी कि श्री जगलकिशोर मख्तार ने प्राचार्य कुन्दकुन्द की के द्वारा उनके नाम पर लिखा हसा प्रतीत होता है। २२ रचनामों का उल्लेख किया है जो वहा उल्लिखित हैं। विद्वानों से मेरा नम्र अनुरोध है कि वे इस ग्रन्थ का इस सूची मे रयणसार का नाम भी है। इस सूची के साथ सम्यक् प्रकार से तुलनात्मक अध्ययन कर अपना मंतव्य रयणसार के सम्बन्ध में श्री मुख्तार साहब का उक्त मत प्रस्तुत करें ताकि लोगों को सही स्थिति ज्ञात हो जावे । उद्धृत नहीं किया जिससे पाठक यही समझे कि मुख्तार जयपुर उद्योग लि. साहब रयणसार को कंदकुंद कृत ही मानते थे, जबकि सवाई माधोपुर (राजस्थान) वास्तविक स्थिति दूसरी ही है। डा. देवेन्द्र कुमार जी ने अनेकान्त के जनवरी-मार्च 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण ७६ के प्रक में 'रयणसार-स्वाध्याय परम्परा मे' शीर्षक प्रकाशन स्थान-बोरसेवामन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली लेख में लिखा है-"रयणसार नाम की एक अन्य कृति का उल्लेख दक्षिण भारत के भण्डारों की सूची मे हम्त मुद्रक-प्रकाशन-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त प्रकाशन अवधि-मासिक श्री प्रोमप्रकाश जैन लिखित ग्रन्थों में किया गया है। थी दिगम्बर जैन म० राष्ट्रिकता-भारतीय पता-२३, दरियागंज, दिल्ली-२ चित्तामूर, साउथ प्रारकाड, मद्रास प्रात में स्थित शास्त्र सम्पादक-श्री गोकुलप्रसाद जैन भण्डार में क्रम सं०३६ मे प्राकृत भाषा के रयणमार | राष्ट्रिकता-भारतीय पता-वीर सेवा मन्दिर २१, ग्रन्थ का नामोल्लेख है और रचयिता का नाम बीरनन्दी दरियागंज, नई दिल्ली-२ है जो संस्कृत टीकाकार प्रतीत होते है। इस टीका की स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ खोज करनी चाहिए।" समझ में नही पाया कि डाक्टर __मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्द्वारा घोषित करता हूं कि गाहब ने प्रथ को बिना देखे ही कैसे मान लिया कि वीर मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपयुक्त नन्दी संस्कृत टीकाकार प्रतीत होते है जबकि उन्होंने | विवरण सत्य है। स्वय सूची में रचयिता के स्थान पर वीरनन्दी का नाम -मोमप्रकाश जैन, प्रकाशक स्पष्ट लिखा हुम्रा बताया है। चूंकि प्रति सामने नही है, प्रतः अन्य कल्पना करना ठीक नही है। फिर भी प्राप्त Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवाल जैन जाति के इतिहास की आवश्यकता 0 श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर भगवान महावीर के समय जैन समाज जातियो में अग्रवाल जाति के सम्बन्ध में छोटे-बड़े बीसों इतिहास विभक्त नही था। सभी वर्ण और जाति के लोग जैन ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें तीन ग्रन्थ विशेष रूप धर्म का पालन करते थे। एक ही घर में कोई जैन था तो से उल्लेखनीय है। कोई वैदिक व बौद्ध। पर मागे चलकर इससे एक बड़ी (१) डा. सत्यकेतु विद्यालंकार लिखित-'अग्रवाल पड़चन उपस्थित हो गई, क्योंकि घर में कोई मासाहारी जाति का प्राचीन इतिहास', प्रकाशक श्री सरस्वती सदन, था तो कोई शाकाहारी; कोई वैदिक धर्म पालता था, कोई मंसूरी. प्रथमावृत्ति सन् १९३८ । द्वितीयावृत्ति सन् १९७६ बौद्ध धर्म तो मापस मे एक खीचा-तानी होती रहती थी। मूल्य ५ रुपया। पता ए-१/३२ सफदरजंग एक्सटेंशन, नई फिर विवाह-सम्बन्ध में भी असुविधा होने लगी। अपने दिल्ली-१६ । अपने धर्म और समाज के प्राचार-विचार में कट्टरता (२) श्री परमेश्वरी लाल गुप्त लिखित-'अग्रवाल रखने वाले दूसरों के साथ द्वेष करने लगे। कभी-कभी तो जाति का विकास' सन् १९४२ । एक-दूसरे को मार डालने का भी प्रयत्न हुआ। तब जना- (३) श्री चन्द्रराज भण्डारी-'अग्रवाल जाति क चार्यों ने जहाँ-जहाँ हजारो लाखों लोगों को जैनी बनाया इतिहास' भाग १-२ । इनमें से सत्यकेतु की द्वितीया वृत्ति के वहां उनका एक अलग सगठन बना दिया, जिससे उन सब पृष्ठ ११६ मे लिखा है कि प्रग्रसेन के पुत्र विभु उसके पुत्र में धार्मिक और सामाजिक एकता और सद्भाव उपस्थित नेमिनाथ उसके बाद विमल, शुकदेव, धनजय और श्रीहो गया। स्वधर्मी वात्सल्य को प्रधानता दी गई, जिससे एक नाथ क्रमशः राजगद्दी पर बैठे। श्रीनाथ का पुत्र दिवाकर दूसरे को पूरी मदद करके धर्म मे स्थिर रखा जा सके । व्याव- था। इसने पुराने परम्परागत धर्म को छोड़कर जैनधर्म हारिक अर्थ उपार्जन व विवाह आदि मे भी अड़चन न हो। को दीक्षा ली। जन अग्रवालों में यह अनुश्रुति चली पाती वर्तमान में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदायों है कि श्री लोहाचार्य स्वामी प्रगरोहा गए भौर वहां में कई वंश या जातिया है जो स्थान विशेष के नाम से उन्होने बहत से अग्रवालो को जैनधर्म की दीक्षा दी। प्रसिद्ध है, जैसे प्रोसवाल, श्रीमाल, खण्डेलवाल, अग्रवाल, जैनों के अनुमार, उस समय अगरोहा में राजा दिवाकर बघेरवाल, पोरवाल, पद्मावती पुरवाल, परमार (परवार) राज्य करते थे। वे श्री लोहाचार्य स्वामी के शिष्य हो मादि । इनमें से कुछ जातियां तो मुख्यरूप से श्वेताम्बर गए, और उनके अनुकरण मे अन्य भी बहुत से भगरोहा और कुछ दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी है और कुछ निवासियों ने जैनधर्म को स्वीकार किया। अग्रवालों में दोनों सम्प्रदायों को मान्य करती है। इनमे से श्वेताम्बर बहसंख्या में लोग जैनधर्म के अनुयायी हैं। वे सब श्री सम्प्रदाय में प्रोसवाल मुख्य है पोर दिगम्बर सम्प्रदाय लोहाचार्य स्वामी को अपना गुरु मानते हैं। में खण्डेलवाल, अग्रवाल, परवार (परमार) पादि। इस अनुश्रति का प्रमाण जैन ग्रन्थों में ढूंढ़ सकना अग्रवाल जाति ऐसी है जिनमे जनेतर भी बहुत हैं सुगम नहीं है। जन पुस्तकों में दो लोहाचार्यों का उल्लेख और जैन भी। जैन में भी दिगम्बर सम्प्रदाय प्रधान है पाया है। पहले चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन भद्रवाह वैसे स्थानकवासी भोर तेरापंथी सम्प्रदाय के भी हैं। स्वामी के शिष्य श्री लोहाचार्य थे। ये प्राचार्य ईसा अग्रवाल जाति वालो की संख्या बहुत बड़ी है। की दूसरी शसाब्दी में हए। यह कहना बहुत कठिन Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, वर्ष ३०, कि०२ अनेकात है कि इन दो लोहाचार्यों में से किसने अगरोहा जाकर अग्रवाल जाति के इतिहास के सम्बन्ध में प्रकाश में पायेंगे। दिवाकर को जैनधर्म मे दीक्षित किया। पर 'अग्रवैश्यवंशा. 'अनेकान्त' पत्र में पं० परमानन्द शास्त्री के कई लेख प्रमनकीर्तनम' में भी राजा दिवाकर का उल्लेख होना और वाल जैनों सम्बन्धी प्रकाशित हुए हैं। वे बहुत ही महत्वउसे जैन बताना सूचित करता है कि जैन अग्रवालों में पूर्ण है। प्रचलित अमुश्रति ऐतिहासिक तथ्य पर प्राश्रित है। चन्द्रराज भण्डारी ने दो बड़ी-बड़ी जिल्दों में अग्रवाल भविष्यपुराण के केदारखण्ड के लक्ष्मी माहात्म्य जाति का इतिहास प्रकाशित किया है। उनका उद्देश्य प्रकरण मे अग्रवश्यवंशानुकीर्तन मे लिखा है व्यावसायिक था, इसलिए उन्होंने वर्तमान में अग्रवालो के दिवाकरो जनमते शिखिनं पर्वत गतः । विशिष्ट खानदानों व व्यक्तियों, उनका सचित्र विवरण तन्मतं पालयामास जनः सर्व गणैः वृतः ॥१५६।। प्रकाशित करने का ही विशेष ध्यान रखा है। पर उनमें भी अग्रवाल जैनो को बहुत ही कम स्थान मिला है, दिवाकर जैन मत में (गया), उसने पर्वत शिखर जबकि सैकड़ो विशिष्ट व्यक्ति और खानदान अग्रवाल पर जाकर जैनो के समूह से घिरा रहकर जैन मत का जनों के ग्राज भी है जिनका विवरण उनके बड़े ग्रन्थ मे पालन किया। नहीं आ पाया। जैन ग्रन्थो मे अग्रवाल जैन जानि के सम्बन्ध मे खोज के प्रभाव में स्वयं जैन समाज को ही मालम । विशेष विवरण किस ग्रन्थ में क्या मिलता है, प्रकाश में नहीं है कि उनमे कौन-कौन से विशिष्ट अग्रवाल जैन पाना चाहिए । अग्रवालो को जैन बनाने वाले लाहाचार्य कहां-वहा बस रहे है। बहुत से व्यक्तियो के नाम के के सम्बन्ध में भी दिगम्बर विद्वानों को विशेष प्रकाश भागे सरावगी या जैन शब्द रहते है, पर वे किस जाति के डालना चाहिए। है ये मुझे भी पता नही था। अभी अग्रवाल इतिहास को अग्रवाल जाति के इतिहास लेखकों ने जन प्रतिहासिक देखने पर मालम हा कि अपने को सरावगी व जैन सामग्री का उपयोग नही किया, इसलिए यहा तक लिख बतलाने वाले कई विशिष्ट व्यक्ति अग्रवाल जाति के है। देना पड़ा कि अप्रवाल शब्द का प्रयोग मुसलमानी दाला गवाल जैनो का __इसलिए अग्रवाल जैनो का स्वतत्र इतिहास प्रकाशित किया साम्राज्य के समय का है। पर वास्तव में इससे पहले के जामा भी प्रयोग जैन प्रशस्तियों में प्राप्त है। प्रशस्तियो और अग्रवाल जैनों ने सैकड़ो मन्दिर व मूर्तियां बनवायीं, पुष्पिकामो-लेखन प्रशस्तियो में मध्यकालीन अग्रवाल हजारो प्रतिया लिखवायी, कवियो से अनुरोध करके जैनों सम्बन्धी काफी ऐतिहासिक सामग्री मिलती है। काव्यादि ग्रन्थ बनवाये। साघार मादि कई जैन अग्रवाल उसके प्रभाव मे अग्रवाल इतिहास लेखको को लिखना कवि थे। इस तरह अग्रवाल जैनो का इतिहास बहुत पहा कि मध्यकाल की सामग्री नही मिलती। सत्यकेत सत्यपातु महत्वपूर्ण है। दिगम्बर समाज के मन्दिर व मूर्तियो के विद्यालंकार ने अपने ग्रन्थ के नये संस्करण में, मध्यकाल मे । लेख बहत कम प्रकाश में आये है, अन्यथा उनसे भी अग्रअग्रवाल जाति नामक चौथे परिशिष्ट में केवल सात वाल जैनो सम्बन्धी काफी महत्व की सामग्री मिल सकती . विशिष्ट खानदानों का ही विवरण दिया है। उनमें केवल लाला हरसूख राय दिल्ली वाले एक ही जन है, यह प्रथा अग्रवाल जाति की बहत ही अच्छी है कि जबकि जैन प्रशस्तियो में पच्चीसो विशिष्ट खानदानो का जन जनेतरो मे विवाह प्रादि सम्बन्ध खुले पाम होते है। विवरण मिलता है। जिस घर में कन्या जाती है वहीं के धर्म का पालन करती ___अग्रवालों के १८ गोत्र माने जाते है, पर जैन प्रशस्तियो है। में २ नये गोत्रों के नाम भी मिले है। वास्तव मे जैन नाहटा स्ट्रीट, बीकानेर सामग्री का ठीक से उपयोग करने पर बहुत से नये तथ्य (राजस्थान) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बात्य' : जैन संस्कृति का पूर्वपुरुष - डा. हरीन्द्रभूषण जैन, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन बेबों में न संस्कृति 'वात्य' वैदिक वाङ्मय की एक कठिन पहेली है। जैन संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है; इतनी प्राचीन कि ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों (१.१६३.५% ६.१४.२), यजर्वे जिसका समय निर्धारित करना कठिन है। वेद का चाहे की वाजसनेयी संहिता (३०.८) तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण जितना भी समय निर्धारित किया जाए, यह बात अत्यन्त (३४.५.१), अथर्ववेद (१५.१.१-६), पञ्चविश ब्राह्मण सम्भव प्रतीत होती है कि वेद के समकाल मे जैन सस्कृति (१७१-४), कात्यायन श्रौत्रसूत्र (८.६), पापस्तब श्रौत्रसूत्र अवश्य रही होगी। (२५.५; ४१४) तथा महाभारत (५.३५.४६) मे 'व्रात्य' ____ डा० राधाकुमुद मुकर्मी तथा श्री चन्दा जैसे भारतीय का उल्लेख है। संस्कृति के निष्णात विद्वान्, वेदपूर्वकालीन सिंधुघाटी ब्रात्य का स्वरूप सभ्यता में प्राप्त कायोत्मर्ग मुद्रा को मूतियों को प्राम जैन उपर्यन रल्पों मे 'वात्य' का जो स्वरूप पोर तीर्थकर वृषभदेव की मूर्ति से तुलना करते है।' प्राधार निर्धारित होता है वह पयस्त भी है पौर अप्रशस्त वेदों में ऐसे अनेक सकेत है जो जैन संस्कृति के प्रतीक भी। यजुर्वेद की वातसनेगी महिता (३०.८) तथा तैत्तिरीय प्रतीत होने है। डा. राधाकृष्णन् जैसे प्रसिद्ध दार्शनिक मनीषी वेदों में ऋषभदेव, अजितनाय और अष्टिनेमि, ब्राह्मण (३.४.५,१) के अनुगार नरमेध में जिन मनुष्यो का इन तीन तीर्थकरो के नाम होने की बात स्वीकार करते बलिदान किया जाता था उनमे बाल भी थे। पञ्चविश है।' ऋग्वेद १० १२१) के 'हिरण्यगर्भ मम पर्तनाथ' मन्त्र ब्राहाण (१७-१.) वास्यो को जाति बहिष्कृत, हीन, दलित तथा निन्दित रूप में उल्लिवित करता है। महाका हिरण्यगर्भ, श्रमण सस्कृति का गुगपुरुप ऋषण ही है। ऋग्वेद के दो मूकनो (७०.2 नना १०.६६३) मे __ भारत मे व्रात्यो को महापानकियो मे गिनाया गया है। इसो विपरीत अथर्ववेद (१५.१) में प्रात्य के लिए 'शिश्नदेवा.' शब्द आया है। इनका गागान्यत: लिङ्गपूजक अत्यन्त प्रशमनीय शब्दों का प्रयोग किया गया है-'व्रात्य अर्थ किया जाता है; किन्तु कुछ विद्वान् हट्टापा से प्राप्त पासीदीयमान एव स प्रजापति समरया' अर्थात् पर्यटन दो नग्न मूर्तियों के सदर्भ में, शिश्नदेवा:' का अर्थ शिश्न करते हुए व्रात्य ने प्रजापति को शिक्षा और प्रेरणा दी। युक्त देवता अर्थात् नग्नदेवता को पूजने वाले करते है। सायण ने इसकी व्याख्या में लिखा है ---'कञ्चित् विद्वत्तमं डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, 'मुनयो वातरशना: महाधिकारं पुण्यशील विश्वसम्मान्य कर्मपराह्मणविदिष्टं पिगङ्गा वसते मलाः', ऋग्वेद (१०.१३५.२) के इम मंत्र के वातरशना' का अर्थ, वायु जिनकी मेखला है अथवा व्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम्' अर्थात् यहाँ किसी दिशाएँ जिनका वस्त्र है, अर्थान् दिगम्बर करते है। विद्वानो मे उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील, विश्वपूज्य व्रात्य इस प्रकार वेद मे तीर्थकरों के नाम तथा हिरण्यगर्भ, को लक्ष्य करके उक्त कथन किया गया है, जिससे कर्मशिश्नदेव, वातरशना प्रादि शब्द जैन दृष्टि से प्रत्यन्न काण्डी ब्राह्मण विद्वेप करते थे। व्रात्यो के संबंध में जो विचारणीय हैं। इसी प्रसंग का एक और वैदिक शब्द है अप्रशस्त भावना प्रकट की गई है उसका कारण संभवतः 'प्रात्य' जो हमारे लेख का विषय है। कर्मकाण्डी ब्राह्मणों का निद्वेष होना चाहिए। १. डा. राधाकुमुद मुकर्जी, "हिन्दू सभ्यता' पृ २३-२४, ४. श्री टी. एन रामचन्द्रन्, 'अनेकान्त'; वर्ष १४,कि. ६, तथा 'माउन रिव्यू' जून, १९३२ मे श्रीचन्दा का लेख । पृ. १५७, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली। २. 'भारतीय दर्शन का इतिहास' जिल्द १, पृ. २८७ । ५. 'जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका'-प्राक्कथन पृ.११। ३.पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, 'जैन साहित्य का इतिहास : ६. 'वेदिक इण्डेक्स' मैकडानल तथा कोय, हिन्दी अनुवादक पूर्वपीठिका', श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, रामकुमार राय, चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी, वाराणसी, पृ. ११८ । १९६२, भाग-२, 'व्रात्य' शब्द । - - -- ------ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४, वर्ष ३०, कि० २ भनेकान्त जैन संस्कृति से सम्बन्ध व्रात्य, बौद्धधर्म जैसे किसी प्रब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। व्रात्य के सम्बन्ध में अभी तक जो अनुसंधान हुआ है यहां डा. बेवर का अभिप्राय जैनधर्म से रहा होगा क्योंकि उसके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वेदकालीन व्रात्य वेदकाल में बौद्धधर्म का अस्तित्व ही नहीं था। अथर्ववेद जैन संस्कृति का प्राचीन पुरुष है। का. १५ के प्रथम सूवत के भाष्य में सायण के द्वारा व्रात्य व्रात्य शब्द व्रत या बात से बना है। जैनधर्म में व्रतों के लिए प्रयुक्त कर्मपराह्मणविद्विष्टं'-कर्मकाण्डी ब्राह्मण का जो महत्त्व है वह माज भी ब्राह्मणेतर धर्म में नहीं है। जिससे द्वेष करते है, विशेषण भी जैनधर्म के पुरस्कर्ता पौर व्रात्य का अर्थ घुमक्कड़ भी होता है। सायण ने बात का अनुयायी के लिए सुसंगत बैठता है।' मर्थ घूमना किया है । प्रत: महाव्रती एव निरन्तर भ्रमण व्रात्य-अनुश्रुति से संबद्ध श्वेताश्वतरोपनिषद् (३.४.२) शील जैन साधु के लिए प्रास्य शब्द अत्यन्त उपयुक्त में हिरण्यगर्भ से व्रात्य का सम्बन्ध बताया गया है-'यो बैठता है।' देवानां प्रभवश्च उद्भवश्च विश्वाधिपोरुद्रो महर्षि हिरण्यजर्मनी के डा० हावर ने 'देर प्रात्य' नाम से व्रात्यों गर्भ जनयामास पूर्वम्'। जैन सस्कृति में प्रथम तीर्थकर के संबन्ध में एक पुस्तक लिखी है जिसमें उन्होंने बताया है ऋपभदेव को 'हिरण्यगर्भ' कहा गया है । जैन मान्यता के कि 'वात्य' शब्द वात से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है व्रत. अनुसार जब ऋषभदेव गर्भ में आये तो प्राकाश से स्वर्ण पुण्य-कार्य मे दीक्षित मनुष्य या मनुष्यों का समुदाय । वे (हिरण्य) की वृष्टि हुई । इसी से वे हिरण्यगर्भ कहलायेलिखते हैं कि-'अथर्व. का. १५, सूक्त १०-१३ मे लौकिक सैषा हिरण्यमयी वृष्टिर्धने शेन निपातिता । व्रात्य को प्रतिथि के रूप में देश मे घमते हए तथा राजन्यो निभोहिरण्यगर्भवमिव बोधयितुं जगत् ।। -प्राचार्य जिनसेन ; 'महापुराण' पर्व १२-६५ मौर जनसाधारण के घरों में जाते हुए दिग्वलाया गया है। अथर्ववेद के १५वें काण्ड के प्रथम सूक्त मे वास्य को .."अतिथि, घूमने-फिरने वाला साधु ही है, जो अपने साथ प्रादिदेव कहा है तथा तृतीय सूक्त मे कहा है कि व्रात्य मलौकिक बातो का ज्ञान लाता और अपना स्वागत करने पूरे एक वर्ष तक खड़ा रहता है । जैनो मे ऋषभ को प्रादि वालों को माशीष देता है । प्राचीन भारत में व्रात्य किसी देव कहा जाता है और वे प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् ब्राह्मणेतर धर्म के प्रतिनिधि थे। वे जहां जाते उनकी छ: माह तक कायोत्सर्ग मुद्रा मे सीधे खड़े रहे।" मावभगत बड़ी श्रद्धा-भक्ति से होती। यदि वह किसी घर अथर्ववेद (१०.१-२) में उल्लेख है कि जिस राजा में एक रात ठहरे तो गृही, पृथ्वी के सब पुण्यलोकों को के प्रतिथिगृह मे विद्वान् व्रात्य का आगमन हो वह उसे पा जाता है। अब तो वह 'एव विद्वान् व्रात्यः' है जिसके प्रपना कल्याण माने। ऐसा करने पर वह अपने क्षत्रधर्म ज्ञान ने अब पुराने कर्मकाण्ड की जगह ले ली है। प्राचीन मौर राष्ट्रधर्म से च्युत नही होताभारत में एक ही व्यक्ति ऐसा है जिस पर यह बात घट तद यस्यैव विद्वान् व्रात्यो राज्ञोऽतिथिगृहानागच्छेत् सकती है। वह है परिव्राजक, योगी या संन्यासी। योगियों श्रेयासमेनमात्मनो मानयेत् । तथा क्षत्राय नावृश्चते तथा संन्यासियों का सबसे पुराना नमूना व्रात्य है। राष्ट्राय नावृश्चते।' डा०हावर ने व्रात्य का जो चित्र उपस्थित किया है इतना ही नही, यदि कोई अव्रात्य व्यक्ति भी अपने को वह जैन परम्परा के अनुकूल है। उन्होंने व्रात्य के जिस व्रात्य बताकर किसी के भतिथिगृह मे प्रा जाए तो राजा ब्राह्मणेतर धर्म के प्रतिनिधि होने की बात कही है वह या गृहस्थ का कर्तव्य है कि उसको तिरस्कार न करेवस्तुतः जैनधर्म ही हो सकता है। 'प्रथ यस्याव्रात्यो व्रात्यब्रवो नाम निभ्रत्यतिथिगृहानावाक्ष्यों की मोर सबसे प्रथम जिस विदेशी विद्वान् का गच्छेत कर्षे देतं न चैन कर्फत ? न चन कर्षत।' ध्यान पाकृष्ट हुमा वह थे बेवर । बेवर का मत था कि -(अथर्ववेद १५.१३, ११.१२) ७. 'जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका–६० कैलाशचन्द्र, पृ. ११५ । ८. 'भारतीय अनुसंधान', हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, पृ. १६।। ६. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका':पृ. ११५ । १०. वही; पृ. ११३, ११५ तथा ११७ । Page #75 --------------------------------------------------------------------------  Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी यदि कोई, विद्वान व्रात्य का अपशब्द कहकर प्रसिद्ध इतिहासज्ञ काशीप्रसाद जायसवाल ने 'माडर्न तिरस्कार करता है तो वह देवतामों के प्रति चपराधी है- रिव्यू' १९२६, पृ. ४६६) में लिखा था : लिच्छवि 'देवेम्य पावृश्चते य एवं विद्वांसं व्रात्यमुपवति ।' पाटलिपुत्र के 'अपोजिट' मुजफ्फरपुर जिले में राज्य करते -(प्रथर्ववेद; वही) थे। वे व्रात्य प्रति प्रबाह्मण क्षत्रिय कहलाते थे। वे गणअथर्ववेद के उपर्युक्त उद्धरण व्रात्य को विद्वता एवं तंत्र राज्य के स्वामी थे। उनके अपने पूजा-स्थान थे, तथा समाज में उसकी प्रतिष्ठा मोर सम्मान के उनकी प्रवैदिक पूजा-विधि थी और उनके अपने धार्मिक संबर में अच्छा प्रकाश डालते है। जैन श्रमण सदैव इसी गुरु थे। वे जैनधर्म और बौद्धधर्म के प्राश्रयदाता ये। प्रकार समाज तथा राजकुल में प्रतिष्ठा प्राप्त करता रहा है। उनमे महावीर का जन्म हुआ। अथर्ववेद में मागधों का व्रात्यों के साथ निकट संबध उपर्युक्त उद्धरणों से यह बात संभव प्रतीत होती बताया गया है ; अतः व्रात्यो को मगधवासी माना जाता है। कि वैदिक 'व्रात्य' उस संस्कृति का पूर्वज या पूर्वपूरुषों का वैदिक साहित्य के उल्लेखों के अनुसार व्रात्य लोग न तो समुदाय था जिसका प्रादिदेव ऋषभ था और जो सभ्यता ब्राहाणों के क्रियाकाण्ड को मानते थे और न खेती तथा वैदिक काल रो भी पूर्व भारत मे विस्तृत थी। 00 व्यापार करते थे। अतः वे ब्राह्मण थे और न वैश्य, किन्तु योद्धा थे-घनुष बाण रखते थे । मनुस्मृति (प्र. १०) में लिच्छवियो को व्रात्य बतलाया गया है। लिच्छनि क्षत्रिय थे और मगघदेश के निकट बमते थे। भगवान महावीर की माता लिच्छवि गणतन्त्र के प्रमुख जैन राजा चेटक की पुत्री थी।" इस प्रकार, व्रात्यों को मगध का वासी गौर लिच्छवियो बीर सेवा मन्दिर के अधिष्ठाता एव बनेकान्त के को व्रात्य बनलाने में अन्य लोग क्षत्रिय तथा जनो के पूर्वज प्रतीत होते है। संस्थापक, प्राच्यविद्यामहार्णव प्राचार्य श्री जगलकिशोर अथर्ववेद (१५।१८।५) में व्रात्य की एक बहुत मुख्तार की प्रथम जन्म शती के पुनीत पवमर पर उनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता का वर्णन है -- 'ग्रह ला प्रत्यङ् व्रात्यो पावन स्मृति एव जैन सस्कृति को उनकी चिरस्थायी राध्या प्राह नमो व्रात्याय'; अर्थात् दिन मे पश्चिमाभिमुख | प्रमूल्य सेवाप्रो के पुण्य स्मरण स्वरूप, अनेकान्त के आगामी तथा रात्रि में पूर्वाभिमुख व्रात्य को नमस्कार है । पश्चिम दो प्रकों (वर्ष ३०, किरण ३ और ४) को सम्मिलित करके विशा सुषुप्ति (शयन) तथा पूर्व दिशा जागरण का प्रतीक प्राचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार स्मृति विशेषाक निकाला समझना चाहिए; अतः उक्त मन्त्र का मर्थ हुपा दिन मे जा रहा है । अवसरानुकूल ग्राकार-प्रकार के इस विशेपाक में स्व. प्राचार्य श्री के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध सोने तथा रात्रि में जागने वाले व्रात्य को नमस्कार है। सन्दों के अतिरिक्त जैन सरकृति, इतिहास, पुरातत्त्व प्रादि यदि हम भगवद्गीता के 'या निशः सर्वभूतानाम' के विविध पक्षो विषयक और सम्बद्ध विपयो के अधिकारी (२.६६) प्रादि श्लोक तथा प्राचार्य पूज्यपाद के समाधि विद्वानो द्वारा लिखित प्रामाणिक शोधपूर्ण सामग्री होगी। शतक (७८) के सभी यशरवी विद्वानो, समाज सेवियो, शोधकर्तामों 'व्यवहारे सुपुप्तो यः स जागत्मिगोचरे। जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे॥' एवं अनुमन्धित्वत्मनों तथा सुविज्ञ पाठको से सानुरोध निबेदन है कि उनके पास मस्तार श्री के जीवन एवं इस श्लोक पर ध्यान से विचार करें तो उक्त मन्त्र कृतित्व से सम्बन्धित जो भी महत्त्वपूर्ण सामग्री, सम्मरणादि का रहस्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है --अर्थात् उस ब्रात्य हो, उन्हें शीघ्र ही भेजने की कृपा करे, इस पुनीत कार्य को नमस्कार है जो संसार सरन्थी विषय-वासनामो से मे योगदान करें। विमुख एवं प्रात्मचिन्तन मे सतत सलग्न रहता है। - गोकुलप्रसाद जैन, सम्पादक अनेकान्त आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार स्मति विशेषांक ११. 'जयचन्द्र विद्यालकार : भारतीय इतिहास की रूपरेखा' पृ. ३४६ का पाद-टिप्पण । १२. "जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका; पृ. ११४ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10691,82 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन सनवाक्य-सूची: प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों को पद्यानुक्रमबी, जिसके साथ टीकादियों में पल दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, ग. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए.एन. उपाध्ये, एम.ए., डी.लिट.कीपिका Untroduction) से भूपित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए मनीय उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द। ५... प्राप्तपरीक्षा :श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कुति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा विर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८-०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुस्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा म की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २.०० स्ततिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पौर श्री जमल. किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अल कृत सुन्दर जिल्द-सहित । १.५० पायात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित। पुषत्यनुशासन : तत्त्वज्ञान गे परिपूर्ण, ममन्तभद्र की असाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुमा था। मुख्तार थी .के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... १-२५ एमीथीम धर्मशास्त्र : म्वामी ममन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुस्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनारमक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रण स्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । समाषितच पोर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, पं० परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित भवणबेलगोल पोर दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... १-२५ मध्यारमरहस्य : पं प्राशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० गन्ध-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । सं. पं परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १२०० ज्याय-वीपिका : मा. अभिनय धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७... न साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकामा : पृष्ठ सख्या ७४, सजिल्द । ५.०० कसायपाहुबसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणि सूप लिखे । सम्पादक हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । २०.०० Reality : भा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में मवाद बड़े माकार के ३०० पृ., पक्की जिल्द ६.०० जैन निवन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र मा श्री रतनलाल कटारिया ५.०० ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित):संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२.. धावक धर्म संत श्री दरयावसिंह सोषिया और लक्षणावली (तीन भागों में): (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५-००; द्वितीय भाग २५.०० Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500) (Under print) प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, नई दिल्ली-२ से मुद्रित । ४.०० Page #78 --------------------------------------------------------------------------  Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमासिक शोध-पत्रिका अनेकान्त प्राचार्य श्री 'युगवीर' जन्म-शताब्दी अंक मम्पादन-माजल डा. ज्योतिप्रसाद जैन हा०प्रमसागर जैन श्री गोकुलप्रसाद जैन गम्पादक श्री गोकुलप्रसाद जैन एम ए., पल-पल बो. माहित्यरत्न SM - वर्ष :: किरण : 200 - इलाई-दिसम्बर, १९७७ rati Amar . वाषिक मूल्य ६) रुपया इस किरण का मूल्य: ५) रुपया * प्राचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' (भा. दि. जैन विद्वद परिषद द्वारा अभिनन्दन के अवसर पर) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xxx विषयानुक्रमणिका क्र० विषय विषय प्रारम्भिका १६. श्रावस्ती का जन राजा सुहलदेव १. सम्पादकीय-डा. ज्योति प्रसाद जैन -श्री गणेशप्रसाद जैन २. च उवीस तित्थयर भत्ति : (चौबीस तीर्थकरों २०. राजस्थान में मध्ययुगीन जैन प्रतिमायें की भक्ति)-प्राचार्य कुन्दकुन्द -डा० शिवकुमार नामदेव २१. हेमचन्द्राचार्य की साहित्य साधना प्राचार्य श्री 'युगवीर': जीवन और कृतित्व -डा. मोहनलाल मेहता ३. असाधारण प्रतिभा के धनी २२. क्या 'रूपकमाला' नामक रचनाएं अलकार-श्री सुमेरचन्द्र जैन, नई दिल्ली शास्त्र सम्बन्धी है ?-श्री ए. सी. नाहटा ४. सरसावा के सन्त तुम्हे शत शत वन्दन २३. वाचक कुशललाभ के प्रेमाख्यानक काव्य -श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली -डा. मनमोहन स्वरूप माथुर ५. युगसृष्टा की साहित्य-साधना २४. जैनदर्शन की अनुपम देन : अनेकान्त दृष्टि -श्रीमती जयवन्ती देवी, दिल्ली -श्री श्रीनिवास शास्त्री, कुरुक्षेत्र ६. मेरी भावना-स्व० प्रा० जुगलकिशोर मुख्तार २५ जैन कला : उद्गम और प्रात्मा 'युगवीर' | -डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ७. सरल स्वभावी महान ग्राराधक २६. प्रशमरतिप्रकरणकार तत्त्वार्थ सूत्र तथा भाष्य --श्री रमाकान्त जैन, लखनऊ के कर्ता से भिन्न-डा0 कुसुम पटोरिया ८. अनुसन्धान के पालोक स्तम्भ २७. भगवान महावीर के उपासक राजा -डा० प्रेमसुमन जैन -मुनि श्री महेन्द्र कुमार (प्रथम) ९. जैन समाज के भीष्म पितामह २८. पार्श्वनाथ चरित में राजनीति और शासन -श्री देवेन्द्र कुमार जैन व्यवस्था-श्री जयकुमार जैन १०. साहित्य तपस्वी की अमर साधना २६ भगवान महावीर जी प्रजातान्त्रिक दृष्टि -श्री अगरचन्द नाहटा - डा. निजामुद्दीन । ११. मुख्तार श्री और समीचीन धर्मशास्त्र ३०. जन कला विषयक साहित्य -श्री सी. एल. सिंघई 'पुरन्दर' -डा० जे० पी. जैन १२. मुख्तार श्री की बहुमखी प्रतिभा ३१. मेघविजव के समस्या पूर्ति काव्य -पं० बालचन्द सिद्धान्त-शास्त्री -श्री श्रेयांसकुमार जैन १३. मुख्तार श्री : व्यक्तित्व और कृतित्व ३२. जैन ध्वज : स्वरूप और परम्परा -श्री परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली -५० पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली १४. युगसृष्टा की साहित्य साधना ३३. तीर्थकरो की प्राचीन रत्नमयी प्रतिमाए : -श्री गोकुलप्रसाद जैन, नई दिल्ली विविध सन्दर्भ-श्री दिगम्बरदास जैन जैन शोध और समीक्षा ३४. नोहर जैन देवालय की मादिनाय प्रतिमा १५. नेमिदूत काव्य के पूर्ववर्ती सस्करण -श्री देवेन्द्र हाण्डा, सरदार शहर -श्री अगरचन्द नाहटा १६. जैन साहित्य और शिल्प मे रामकथा ३५. वस्तु क्या है ? -श्री बाबूलाल जैन -श्री मारुतिनन्दन तिवारी ३६. धर्मचक्र-डा. गोपीलाल प्रमर १७. जैन कर्मसिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन ३७. बृषभ पाह्वान-प्रथर्ववेद -डा0 राममूर्ति त्रिपाठी ३८. ऋषभ वन्दना-ऋग्वेद १५. सोलंकी काल के जैन मन्दिरों में जंतर चित्रण ३६. ग्रन्थ समीक्षा-श्री गोकुलप्रसाद जैन प्रावरण पृ ३ -डा० हरिहर सिंह ४७ / ४०. श्रमण (जैन) के पर्यायवाची शब्द सावरण पृ. ३ अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पावन-मण्डल उत्तरदायी नहीं है। - सम्पादक नक " - " Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय प्राच्य-विद्या-महार्णव, सिदान्ताचार्य एवं सम्पादका- उच्च कोटि की कविता भी की। उनकी "मेरी भावना" चार्य स्व. पं. जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' को तो प्रत्यन्त लोकप्रिय हुई है। अपने अन्तिम समय में भी दिवंगत हुए गत २२ दिसम्बर १९७७ को १ वर्ष हो गये वह हेमचन्द्रीय योगशास्त्र की एक विरल दिगम्बर टीका, पौर दसवां प्रारम्भ हो गया। साथ ही उसके दो दिन पूर्व अमितगति के योगसार प्राभूत के स्वोपज्ञ भाष्य तथा मार्गशीर्ष शुक्ल १०, दि० २० दिसम्बर, १९७७ को उनकी कल्याणकल्पद्रुम स्तोत्र पर मनोयोग से कार्य करते रहेजन्म शताब्दी पूरी हुई थी। ६० वर्ष की प्रायु मे। वर्तमान शती के प्रारम्भ से लगभग ७० वर्ष पर्यन्त जिस विषय पर और साहित्य के जिस क्षेत्र में भी श्रद्धेय मुख्तार साहब ने जैन स कृति, साहित्य पोर समाज मुख्तार साहब ने कदम उठाया, बड़ा ठोस कदम उठाया। की तन-मन-धन से एकनिष्ठ सेवा की थी। अपने इस जैन जगत मे साहित्येतिहासिक अनुसधान में वे अपने सुदीर्घ कार्यकाल में उन्होने समाज की अनवरत महती समय मे प्रायः सर्वाग्र ही रहे और नए विद्वानों का मार्ग संवा की और विपुल साहित्य का सजन किया। उनका दर्शन किया। पत्र-सम्पादन कला मे तो उनके स्तर को साधना क्षेत्र पर्याप्त विशाल एव विविध रहा । शायद कोई अन्य जैन प्रभी तक पहुंच ही नहीं सका है, समन्तभद्राश्रम तथा वीर सेवा मन्दिर जैसी सस्थायो और पुस्तक समीक्षा तो वैसी कोई करता नही। अपने की प्रारम्भ मे प्रायः अपने ही एकाको बलबूते पर समय मे समाज मे उठने और चलने वाले प्रायः सभी उन्होंने स्थापना की और जैन गजट, जन हितषी एव सुधारवादी या प्रगतिगामी आन्दोलनों में उनका प्रत्यक्ष अनेकान्त जैसी पत्र-पत्रिकाओं का उत्तम सम्पादन किया। या परोक्ष योग रहा । कुरीतियो और भ्रान्त घारणामों के अनेकान्त तो स्वय उनकी ही पत्रिका थी जिसने उनके वे निर्भीक प्रलोचक थे। श्रीमत हो या पडित, मुनि हो सम्पादकत्व में जैन पत्रकारिता के क्षेत्र मे प्रायः सर्वोच्च या गृहस्थ, किसी के विषय मे भी खरी बात कहने में मान स्थापित किया। मुख्तार साहब ने अनेक शास्त्र- वे नही चूकते थे। भडारों मे से खोज-खोज कर कितने ही महत्वपूर्ण प्राचीन मुख्तार साहब स्वामी समन्तभद्र के अनन्य भक्त एवं प्रथों का उनकी जीर्ण शीर्ण पांडलिपियो पर से उद्धार अध्येता थे। स्वामी के हृदय को जितना और जैसा किया, संशोधन किया और उनमें से कई को सुसम्पादित उन्होने ममझा वसा शायद माधुनिक युग के विद्वानों में करके प्रकाशित किया। पुरातन जैन-वाक्यसूची, जनग्रन्थ- से अन्य किसी ने नही समझा। अपने अन्तिम वर्षों में प्रशस्ति संग्रह, जैन लक्षणावली जैसे प्रतीव उपयोगी ९०.६१ वर्ष का वह वृद्ध साधक एक अद्वितीय समन्तभद्र सदर्भ ग्रन्थ तैयार किये और कराये। कई ग्रथों के अद्वि- स्मारक की स्थापना का तथा 'समन्तभद्र' नामक प्रकाश तीय अनुवाद भाष्य प्रादि रचे और ग्रथों की मान पत्र द्वारा प्राचार्यप्रवर समन्तभद्र के विचारो का विद्वत्तापूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी। अनेक प्रचार-प्रसार देश-विदेश में करने का स्वप्न देखता रहातथाकथित प्राचीन ग्रंथों के मार्मिक परीक्षण लिख उसका वह स्वप्न चरितार्थ न हो सका। कर और प्रकाशित करके उनकी पोल खोली। कई अन्य अपनी जन्मभूमि सरसावा में मुख्तार साहब ने एक लेखकों की नवप्रकाशित कृतियों की गंभीर एवं विस्तृत विशाल वीर सेवा मदिर भवन का निर्माण कराया था। समालोचनाएं कीं। उनके अधिक उपयोगी लेख-निबधों उनके द्वारा संस्थापित 'वीर सेवा मंदिर' संस्था दरियागंज, में से लगभग डेढ़ सौ तीन सग्रहों में प्रकाशित हो चुके है। दिल्ली में अपने निजी चौमजने भवन मे चल रही है। मुख्तार साहब ने हिन्दी एवं संस्कृत, दोनों ही भाषामों में उनका 'भनेकान्त' भी वहीं से त्रैमासिक के रूप में प्रका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय शित होता है। मरते समय अपनी शेष निजी सम्पत्ति के उपकार को विस्मृत कर देना समाज की कृतघ्नता को का भी मुख्तार साहब एक ट्रस्ट -वीर-सेवा-मदिर-ट्रस्ट परिचायक कहा जाय तो क्या अनुचित है ? इम उपेक्षा बना गये थे । उससे भी गत ८-१० वर्षों में कई पुस्तके का एक परिणाम तो यह होता है कि हमारी वर्तमान प्रकाशित हुई है। तथा भावी पीढ़ियां अपने निकट प्रतीत के इतिहास से भी अनभिज्ञ रह जाती है। दूसरे, वे उन यशस्वी पूर्वमहान् पाश्चर्य और खेद का विषय तो यह है कि पुरुषों के कार्यकलापों से उपयुक्त प्रेरणा एवं मार्गदर्शन उस सुदीर्घकालीन साहित्यक तपस्थी और अनवरत ममाज प्राप्त करने से भी वचित रह जाती है। सेवी को हम इतनी जल्दी भूल गए । उनके द्वारा सस्थापित तथा उनके नाम से सम्बद्ध एक सुसमृद्ध मस्था, स्व० आचार्य ५० जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' एक सुसम्पन्न ट्रस्ट और एक सता उद्बद्ध गोव-पत्रिका की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में समाज पर उनका जो भी विद्यमान है, जो उनकी जीवन व्यापी माधना के ऋण है उगका स्मरण करते हुए उनके प्रति हम उज्ज्वल प्रतीक एक सच्चे स्मारक है जिनके कारण समाज विनम्र श्रद्धाजलि अर्पित करते है। उनकी चिरऋणी रहेगा । इस वर्ष हम उनकी जन्म शताब्दी मना रहे है। किन्तु ऐसा लगता है कि इतने अल्प समय कछ ममा पूर्व 'भनेवान्त' परिवार ने यह निर्णय मे ही समाज ने उन्हें विमृन पर दिया है । बनके उ गा था कि इस अवसर पर अनेकान्त का एक प्राय: समकालीनो या सहयोगियों में से प. पनालान उपयुक्त विशेपास थद्धेय मुग्नार साहब की स्मृति में बाकलीवाल, वा० सूरजभान वीत, कुमार देवेन्द्र प्रसाद, जिनाला जाय। वतिपय अनिवार्य कारणों से हम बैरिस्टर जगमन्दरलाल जैनी, बरिस्टर चम्पतराय, ५० गमयोचित कार्य में कुछ विनम्ब हो गया जिसका हमे नाथूराम प्रेमी, बशीतलप्रसाद प्रभूति प्रायः सभी जैन बंद है। प्रसन्नता की बात है कि उनके प्रति प्राशिक जागरण के प्रपनेतामो को हम भुला चुके है। इन महानु- तज्ञताज्ञापन-स्वरूप हम यह "श्रो 'युगवीर' जन्म शताब्दी भावो ने समाज की महती सेवाएं की थी। कई एक के ता अक" प्रस्तुत कर रहे है। निजकी सम्पत्ति से स्थापित ट्रस्ट भी है। इन उपकर्तामा -ज्योतिप्रसाद जैन अनेकान्त का साहू शान्तिप्रसाद जैन स्मृति-अंक जून, १९७८ में प्रकाश्य, 'अनेकान्त' का आगामी अंक 'साहू शान्तिप्रसाद जैन स्मृति-अंक' होगा। दो खण्डी में विभक्त, इस अक के प्रथम खण्ड में 'साह जी' के गौरवशाली व्यक्तित्व के विविध पक्षों एवं उनके परमार्थमय जीवन और अन्य कल्याण-कार्यो विषयक लेखादि तथा द्वितीय खण्ड में जन साहित्य, संस्कृति एव इतिहास पर मालिक गवेपणापूर्ण सामग्री सम्मिलित होगी। 'अनेकान्त' के वर्ष ३१ की किरण १ और २ इसी अंक में समाहित होंगी। सभी सम्मान्य विद्वानों, मनीषियों, लेखकों एवं सुविज्ञ पाठकों से सानुरोध निवेदन है कि इस अंक के लिए कृपया शीघ्रातिशीघ्र अपने लेख, सस्मरण, पत्र, चित्र प्रादि भेजकर अनुगहीत करें। --गोकुल प्रसाद जैन, सम्पादक Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' (जन्म २० दिसम्बर, १८७७ : मृत्यु २२ दिसम्बर, १९६८ ) श्री वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली का शिलान्यास समारोह (१७ जुलाई, १९५४) । ( समाज - शिरोमणि साहू शान्तिप्रसाद जी भाषण कर रहे है ।) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' (५ दिसम्बर, १९४३ को सहारनपुर में सम्मान समारोह के समय लिया गया चित्र) Far 2 4 .COAT SGARH . दक्षिण भारत की तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थान करते समय का चित्र Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् प्रहम AM वर्ष ३० परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ जुलाई-दिसम्बर किरण ३-४ वीर-निर्वाण सवत् २५०३, वि० सं० २०३३ । १९७७ चउवीस-तित्थयर-भत्ति (चौबीस तीर्थकरों को भक्ति) त्थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली प्रणंतजिणे। गरपवरलोयमहिए, वियरयमले महप्पणे ॥१॥ लोयस्सज्जोययरे, धम्म तित्थंकरे जिणे वंदे। परहंते कित्तिस्से चउधीमं चेव केवलिणो ॥२॥ उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च समईच। पउमप्पहं सपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥३॥ सविहिं च पुष्फयंतं, सीयल सेयं वासपुज्जं च । विमलमणतं भयवं, धम्म संति च वंदामि ॥४॥ कथं च जिणरिदं, अरं च मल्लिं च सव्ययं च णमि। वंदामि रिट्टनेमि, तह पागं वड्ढमाणं च ॥५॥ एवं मए अभिभया, वियरयमला पहीणजरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंत ॥६॥ कित्तिय वंदिय महिया, ए ए लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। प्रारोग्गणाणलाहं, दितु समाहि च मे बोहि ॥७॥ चंदेहि णिम्मलयरा, प्राइच्चेहि अहियपहा संता। सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥८॥ -प्राचार्य कुन्दकुन्द अर्थ-मैं जिनवर, तीर्थकर, केवली और अनन्त जिनकी स्तुति करता है, जो लोक के नरवरों से पूजित, मलरहित और माहात्म्य से युक्त हैं ।।१।। लोकको प्रकाशित करने वाले तथा धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले जिन देव की वन्दना करता हूँ। अहंन्त तथा चौबोसों तीर्थकरों का कीर्तन करता हं ।।२।। मैं ऋषभ और अजितनाथ की वन्दना करता हूं, सम्भव, अभिनन्दन और सुमतिनाथ की वन्दना करता हूं, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभनाथ की वन्दना करता हूं ॥३।। सुविधिनाथ (पुष्पदन्त), शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ और शान्तिनाथ की वन्दना करता हूँ॥४॥ जिनवर श्री कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, अरिष्टनेमि (नेमिनाथ), पार्श्वनाथ पीर वर्द्धमान (महावीर) की वन्दना करता है ।।५।। इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, कर्म-मल-रजसे रहित, बुढ़ापा तथा मरण से रहित जिन वर, चौबीस तीर्थकर मुझपर प्रसन्न होवें ॥६॥ जो जो लोकोत्तम जिन, सिद्ध कीर्तन किए गये, वन्दित और पूजित हैं, वे मुझे प्रारोग्य, ज्ञान, समाधि और बोधि प्रदान करें ॥७॥ चन्द्रसे भी अधिक निर्मल और सूर्य से भी अधिक प्रभावान तथा सागर के समान गम्भीर सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असाधारण प्रतिभा के धनी 0 श्री सुमेरचन्द्र जैन, एम० ए०, नई दिल्ली जैनधर्म भौर जैन संस्कृति के प्रचार का कार्य उन्हीं ऐसे ही कुशल मालोचकों, लेखकों और कवियों की मेधावी पुरुषो ने किया है जिनकी प्रात्मा में घहिसात्मक पंक्ति मे एक तेजस्वी असाधारण प्रतिभा-संपन्न नर-रत्न भावनामो को फैलाने और लोक कल्याण की तीव्र का ऐसी जगह उदय हुप्रा जिसकी सभावना बहुत कम माकांक्षा जन्मजात विद्यमान है। प्राचीनकाल में अनेक थी। परन्तु प्रवाह बहते देर नहीं लगती । एक दिन देवलोकोत्तर ऋषि पूजव हए जिन्होंने अपना जीवन प्रात्म बन्द के कानूनगो मोहल्ले में बठे हुए चार व्यक्ति चर्चा कल्याण और जन साधारण के हित के लिए अर्पित कर कर रहे थे। कचहरी के काम मे सचाई नहीं झूठ, बोलना दिया। जैन प्राचार्यों, मुनियो, उपाध्यायो और विद्वानो पड़ता है। ने जो प्रमतमयी साहित्य का निर्माण किया, उसका प्रमुख सबसे पहले श्रीमूरजभानु वकील बोले : मेरा मन तो उद्देश्य प्रात्मदशन और भात्म वैभव को प्राप्त करना इस कार्य से ऊब गया है। मुझे जनधर्म पर किए गए प्रारोपी था। का मुहतोड़ उत्तर देन में प्रानन्द प्राता है। श्री जगल त्याग, बीरता, लोक हित और सन्मार्ग की पोर किशोर मुख्तार जो वहीं उन्ही की देख-रेख मे कार्य करते प्रवृत्ति बनी रहे, यही कल्याणकारी लक्ष्य रहा। फलस्वरूप थे वकील सा, की वात का समर्थन करते हए कहने लगे : इतने विशाल साहित्य का निर्माण हुपा जिसको हम जैनधर्म के प्रचार की बड़ी आवश्यकता है। हमे अपना भली प्रकार सुरक्षित भी नही रख सके। उन गौरवशाली जीवन इस प्रकार के वातावरण से निकालकर, जिसमे मुनियों, कवियो और दिग्गज लेखकों के सम्बन्ध में पूर्ण पात्मा की आवाज का हनन होता हो, उसे छोड़कर निर्द्वन्द जानकारी प्राप्त न कर सके मोम उनकी अमूल्य निधियो रीति से धर्म प्रचार के कार्य में लग जाना चाहिए। मेरे से अपरिचित रहे। ऊपर आपका बड़ा प्रभाव है। इधर जब तक आपके नाम ___ साथ ही, कुछ ऐसे व्यक्तियो का प्रादुर्भाव हुमा की आवाज नही आती है तब तक आप कचहरी मे ही जिन्होंने हमारे देदीप्यमान रत्नो मे कांच की तरह बैठे जनधर्म पर होने वाले प्राक्षेपों का उत्तर लिखने मे चमकते हुए टुकड़ों को उस साहित्य में मिला दिया जिससे सलग्न रहते है । उघर अावाज पड़ी कि उस मुकद्दमे की उसके सौन्दयं मे विकार पा गया। जन साधारण श्रद्धा परवा म खड़ होकर बहस कर परवी में खड़े होकर बहस करने लगे। पापकी व्युत्पन्न के वश उस साहित्य की परीक्षा न कर सका। जब नए बुद्धि और तत्काल उत्तर देने की क्षमता अपूर्व है। मेरा युग का प्रादुर्भाव हुप्रा तो विद्वानो का ध्यान इस ओर मन भी अब इस प्रकार के कार्यों की ओर से शिथिल प्रावर्षित हुमा। उन्होने विचार किया कि हमारे यहां हो गया है। परीक्षा-प्रधानी और माशाप्रधानी दोनो में परीक्षा-प्रधानी श्री इश्कलाल पटवारी को जो पार्यसमाजी थे, को अधिक महत्व दिया है। क्यो न हम उस साहित्य का जैनधर्म के तत्त्वों की ओर आकर्षण था। वे उसके रसिक मूल्यांकन कर जो हमारे साहित्य को मलिन कर रहा है। थे । कहने लगे : पटवारीगिरी के कार्य में सही ढंग से उसे दूर कर भ० महावीर की दिव्य देशना का प्रचार सचाई अपना कार्य नहीं कर पाती। उनमें भी अपने कार्य अभिनव रूप से नवीन शैली से किया जाय । से विरक्ति का भाव पैदा हो गया। चौथे जैन प्रदीप (उर्दू Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असाधारण प्रतिभा के धनी मासिक पत्र) के सम्पादक श्री ज्योतिप्रसाद जी है जो सम्बन्धी स्थायी कार्य सदैव मुख्तार सा० की कीर्ति को गुरुकुल पंचकूला के संस्थापक के यहां पाम कारिंदा थे। प्रक्षण्ण बनाए रक्नेगा। उनका मन भी इस प्रकार के कार्यों से झकझोर उठा । जिस व्यापार से सत्य का सौन्दर्य मलिन हो जाता है और परन्तु वेद है कि ऐसी रमणीक साहित्य वाटिका असत्य बद्धि का चमत्कार दिखाकर अपना प्रभाव इसरों और साहित्य सृजन के उद्गम की धारा को देखकर भी पर डाल देना चाहता है, उस मार्ग को प्रोर कब तक महतार सा० को हार्दिक पानन्द नहीं पाया, क्योंकि चलेंगे ? वह संस्था राजनैतिक दांव-पेच की तरह नेतागिरी के चक्कर में फंस गई। मुख्नार सा. दिल्ली से दूर हमारे __ कौन जानता था कि उस दिन की बैठे-विठाए चारों जिले एटा में अपने भतीजे के पास रहकर तपस्वियों को मित्रों की बातचीत उनकी दिशा ही बदल देगी। फल- तरह प्रस्मी वर्ष की वृद्धावस्था में भी साहित्य सृजन के स्वरूप चारों ने एक-साथ अपने-अपने कार्यों से छट्री ले कार्य मे दत्तचित्त रहे । ली। तीन तो हमारे समाज के थे पोर तीनों ने अपने अपने ढंग से जैनधर्म और जैन सस्कृति की महत्त्वपूर्ण मुख्तार सा० के द्वारा जितना साहित्य निर्माण सेवा की। कार्य हुमा उसका हम सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। उनकी प्रतिभा अालोचक, कवि, समाज-सुधारक, सुलेखक देववन्द (सहारनपुर) उनके प्रचार का केन्द्र बना। और नवीन लेखकों का निर्माण करने वाले कुशल शिक्षक श्री जनीलाल जी के प्रयत्न से छापे के ग्रथ छपने लगे के में प्रम पौर सुविधानुसार सरलतापूर्वक लोगों को मिलने लगे। मुख्तार सा० ने अब अपना कार्यक्षेत्र देवबन्द से हटा विधिवत् सस्कृत का शिक्षण प्राप्त न करने पर भी कर सरसावा बनाया । अपनी एक लाख की सम्पत्ति का सकल ताकिक, चक्रचूड़ामणि, प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी के जो स्वयं निज पुरुषार्थ से सचित की थी, उपयोग ग्रंथों का रहस्य सरल और सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया। अर्थात् अपना सर्वस्व दान वीर सेवा मदिर की स्थापना उन्होने अपने ग्रन्थों में एकान्तवाद का खंडन करके में लगा दिया। अनेकान्तवाद का मंडन किया है। न्याय और सिद्धान्त सम्बन्धी विषय का युक्ति और तर्क सम्मत शैली में प्रतिग्रांड ट्रंक रोड के समीप भव्य भवन की बिल्डिंग का पादन किया है। ऐसे धुरंधर और दिग्गज प्राचार्य क निर्माण कराया, जहा प्रतिवर्ष विद्वानों को बुलाकर वीर रचनामों को सर्व साधारण के लिए सुलभ बना दिया शासन के उत्कर्ष के लिए मंत्रणा की जाती । विद्वानो को और दिव्य संदेशों को जनता जनार्दन तक पहुंचा दिया। माने-जाने का मार्गव्यय प्रदान करना और उत्तम रीति से। वे उनके अनन्य भक्त थे। समन्तभद्र भारती व्याख्याता सभी को सम्मानित करने की भावना वहां पर विद्यमान के रूप में मस्तार सा० सदैव स्मरणीय बने रहेंगे। थी। प्रबल ताकिक होने के कारण उन्होने उन विषयों पर उस स्थान को कतिपय सहयोगियो और समाज के कोरो नालीन समय में कतिपय व्यक्तियों नेतामों ने प्रचार जैसे महान कार्य के लिए छोटा समझा। के द्वारा अनार्ष परम्परा का अनुकरण करने के कारण जैन समाज के मूर्धन्य मनभिषिक्त नेता साहू शातिप्रसाद हमारे यहा विकार का कारण बने । मुख्तार सा० के जी और प्रसिद्ध इतिहासज्ञ एवं जन सस्कृति के पदचिह्नों पर कई विद्वान चले और उन्होंने उन विषयों मूर्तिमान रूप बाबू छोटेलालजी कलकत्ते वालों के प्रयत्न को अच्छी समीक्षाए की जिनका उत्तम सुफल निकला। से दिल्ली में विशाल भवन बनकर तैयार हो गया जहां से प्रकाशित होने वाला साहित्य पीर अन्वेपण जब हम उन्हें कवि के रूप में देखते हैं तो उन्हें केवल Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व ३०, कि० ३-४ अनेकान्त कल्पना की उड़ान उड़ाते हुए न पाकर, जीवन में उतारने अनेकों उदीयमान विद्वान् युवकों को कुशल पर्यवेक्षक बाली जनता के कंठस्थ रहने वाली उत्तम रचनाएकरने और समीक्षा करने वाले प्राचार्य जैसे पद के योग्य बना बामा पाते हैं। दिया। उनकी लोकप्रिय रचना 'मेरी भावना' कैसे रची उनकी पनी सूझ, अनवरत लगन, जिन शासन की गई, यह विचारणीय है। एक दिन उनकी विदुषी भक्ति, जैनधर्म प्रचार की अद्भुत कामना, विषय का तल बहिन ने कहा कि माप तो संस्कृत में सामायिक पाठ, स्पर्शी ज्ञान पौर चुने हुए मोतियों को छांट छांटकर निकास्तोत्र प्रादि पढ़ते है। हम हिन्दी में उन्हें कैसे पटे। लनेकी प्रवृत्ति ने उन्हें प्राचीन ऋषियो पौर विद्वानों की उन्होंने बात को समझा पोर ग्यारह पद्यो मे इतनी परम्परा में सलग्न कर दिया, जिन्होने अपनी भक्ति और रोचक, मूललित, प्रसाद-गुण-युक्त रचना को जिसका सभी कार्य करने की अद्भुत क्षमता के कारण वीर शासन की भाषामों में अनुवाद हो गया है। उसकी लाखो प्रतिया महसगुणी वद्धि की है। प्रकाशित हो चुकी है। उनकी मेरी भावना' ने घर-घरमे हम भाकाक्षा करते थे कि ऐसे साहित्य मनस्वी, बच्चों को प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहन दिया। ने तापमष्टमुनिरिव सरस्वती के सच्चे साधक हमारी काल अन्वेषक और सूनेखक थे। उनके इन्ही गुणो समाज में पैदा होते हे जो काशश की धवल चांदनी से प्रभावित होकर प्राज से तीस वर्ष पूर्व हमने एक साल की तरह जिन शासन को सदैव उद्योत करते रहे। विश्व लिखकर उन्हे अभिनन्दन-ग्रंथ भेट करने के लिए गमाज विज महिमा मोर अनेकान्त इन दो मल्लों की तरह का ध्यान प्राकर्षित किया। हर्ष है निनाला राजेन्द्र कुमार उनका बीजारोपण किया हुमा भनेकान्त' सदैव फूलता और जी की, जो विद्वानो के महान प्रेमो थे, अध्यक्षमा म फलना रहे, जिसकी छाया में जन साधारण विश्राम, शांति सहारनपर मे मस्तार सा०को ग्रथ भट किया गया। गौर सुख का अनुभव करे मोर विज्ञान परिमाजित मुरुमार सा. कलम के धनी भार जैन वाइमय के ___ मार्ग को प्रशस्त बनाते रहे। OOD यशस्वी प्रस्तोता थे। छोटे से लेख में हम उनकी माहित्य मर्मज्ञता और विषय के अधिकारी रूप का सर्वाङ्गपूर्ण म० नं० २४७, एफ ब्लाक, दिग्दर्शन नही कर सकते, पर एक बात अवश्य कहेगे कि पाडवनगर, पटपड़गंज, उन्होंने सरस्वती की निस्पृहभाव से सेवा ही नही की बल्कि नई दिल्ली वषम-अाह्वान अंहोमुचं वृषभं यज्ञियानं विराजन्तं प्रथममस्वाराणाम् । अपां नपातमस्विना हुवे धिय इन्द्रियेण तमिन्द्रियं दत्तभोजः ।। अथर्ववेद १६।४।४ सर्व पापों से सदा जो मुक्त, मेरे सह बन्धुनो! देवतामों में सर्व शीर्षस्थ, तुम पात्मबल और वन्दनीय, वृषभ है नाम जिनका, तेज को धारण करो पात्म साधको में प्रथम हैं मैं हृदय से प्राह्वान करता हूं पौर इस भवसिन्धु से वृषभ का। पोत जैसा तारना है काम जिनका, प्रस्तोता : श्री मिश्रीलाल जैन, गुना Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरसावा के संत तुम्हें शत-शत वन्दन - श्री कुन्दन लाल जैन, दिल्ली १० जून सन् १९४६ की उस पुनीत संध्या का पुण्य- सन्तृष्ट न कर सका मोर छ: माह बाद मुझे वहाँ से स्मरण मझे माज भी रोमाचित कर देता है, जब कि मैने चला पाना पड़ा। उन दिनों डा. ज्योतिप्रसादजी, लखनऊ सरसावा स्थिति वीर सेवा मदिर के विशुद्ध विशाल वहा थे । स्व. बा. जयभगवान जी, पानीपत प्रायः पाते प्रांगण मे पग धरा था। उपयुक्त भवन के विशाल द्वार रहते थे । स्व. बा. छोटेलाल जी कलकत्ता वालों का के बद फाटक की ग्निड़की से अपना बिस्तर-पेटी निकाल इस मंस्था पर वरद हस्त धा। मुख्तार सा० और उनमें कर जब यहाँ के सत बाबू जुगल किशोर जी मुख्तार के पिता-पुत्र का संबंध था। ला. सिद्धोमल जी कागजी कमरे के सामने वाली सीढियो पर रखा तो बाबू जी मुख्तार सा० का वड़ा पादर करते थे। कमरे से निकलकर पाए उनका सुन्दर सुगठित शरीर था। प्रादरणीय महनार सा० कितने अध्ययनशील. कठोर उन्होने बदन मे तनी वाली अगरखी और धोती पहन परिश्रमी, मितव्ययी और साहित्यसेवी थे, यह मैं उस रखी थी, नगे सिर थे, परो में खड़ाऊ डाले थे। कमरे मे समय रामय तो अनुभव - रग का था, पर जब मझे साहित्य बाहर पाकर पूछा कहा से आए हो?" "बीना से" मैंने का चम्का लगा और उनके शोधारक, युक्तियुक्त, प्रकाट्य रूखा-सा सक्षिप्त सा उत्तर दिया, क्योकि थका हुया था। साहित्यिक निबंधो का अध्ययन किया तो हृदय श्रद्धा से जन मास का ११ या १२ बजे का समय था। भूख लग गदगद हो उठा। मुन्नार सा० १६ से १८ घटे तक रही थी। अध्ययन एव लेखन कार्य किया करते थे। उनकी टेबिल मुख्तार सातुरन्त ही कपरे के भीतर गए और सदा ही ग्रयों से भरी रहती थी। मुख्तार सा० जरूरत से चाबियों का गुच्छा ले पाये और जो कमरा मुझे देना ज्यादा मितव्ययी थे। फलतः उनके प्रकाशन कार्यों मे प्रायः चाहते थे उसका ताला खोल दिया और स्नेह से कहा कि बाधा मा जाती थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि उन यह रहा प्रापका कमरा । इममे अपना सामान रख लीजिए; दिनों कागज पर कन्ट्रोल था और अनेकान्त के प्रकाशन के मौर तरन्त ही पं०परमानदजी को प्रावाज देकर भोजन लिए सरकार से कागज का कोटा मिला करता था। प्रायः की व्यवस्था करादी । बीना का नाम सुनते ही मुख्तार शासकीय कारणो से कागज समय पर नहीं पा पाता था सा. मेरी नियुक्ति की वाबत सब कुछ जान गये थे, क्योकि तो अनेकान्त की किरण लेट हो जाया करती थी और .पं० दरबारीलाल जी कोठिया से उनका पत्र व्यवहार ग्राहकों के उत्सुकता भरे पत्र प्राने लगते थे, क्योंकि उन हो चुका था जिसमें मेरी नियुक्ति बावत सब कुछ निश्चित दिनो अनेकान्त की प्रतिष्ठा जैन जगत मे ही नहीं अपितु हो गया था। जनेतर अनुसधित्सुनों में बहुत अधिक थी और वे लोग इस समय मैं सर्वथा अनुभवहीन, अपरिपक्वबुद्धि का वड़ी उत्सुकता से प्रत्येक किरण की प्रतीक्षा किया करते २० वर्षीय युवा छात्र ही था। इसी वर्ष स्याद्वाद् विद्यालय थे। छोड़ा था। मम्रता, कार्यकुशलता, सेवाभाव मादि मानवीय मख्तार सा० मुख्तार सा. जैन पुरातत्व एव संस्कृति के वैज्ञानिक गुणो की सर्वथा कमी थी। केवल मेट्रिक और साहित्यशास्त्री सशोधक के रूप मे युग-युगों तक साहित्यानुरागियों द्वारा पास था। फलतः मैं अपनी कार्यकुशलता से मुख्तार सा० बदनीय रहेगे। मुख्तार सा० यद्यपि दिगम्बर माम्नाय के जैसे कठोर परिश्रमी और सर्वश्रेष्ठ साहित्यान्वेषक को कट्टर अनुयायी थे, पर उसमें जो कूड़ा-करकट, अनुचितता Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त या मागम-विरुद्ध मान्यताएं होती थीं उनकी वे प्रबल युक्ति- नब्बे वर्ष की प्रायु प्राप्त कर अस्थिर शरीर से मुक्त हैए, पूर्ण प्रकाट्य तर्को से धज्जियां बिखेर दिया करते थे। पर अपना यशःशरीर स्थिर भोर चिरस्थायी बना गए। उनके प्रमाण एवं तर्क इतने प्रबल और प्रकाट्य होते थे वे उच्चकोटि के विचारक, चिन्तक एवं लेखक थे। उनका कि मच्छे-मच्छ विद्वानों के दांत खट्ट हो जाते थे। सारा समय चिन्तन, लेखन, मध्ययन एवं मनन में ही समाज का बडे से बड़ा विद्वान भी उनकी युक्तियो का व्यतीत होता था। उन्हें मिमी तरका: व्यतीत होता था। उन्हें किसी तरह का भी व्यसन नहीं खंडन करने से कतराता था। भट्टारकीय परपरा एवं था। यदि व्यसन था तो केवल ग्रंथों एवं पुस्तकों के मध्यउनकी विलासिता तथा प्रागम-विरुद्ध अनौचित्य का यन का। उनका एक शब्द "हैजी, हैजी" बड़ा ही मस्सार सा. ने जिस खुबी से भंडाफोड़ किया था, तकिया कलाम था जिसे वे बोलते समय हर वाक्य में उससे रूढ़िवादी जैन समाज में बड़ा तहलका मच गया प्रयोग किया करते थे और मुझे इस पर बड़ी हसी माती पा और अंधभक्तों ने मुख्तार सा० पर बड़ा कापड थी, पर वे इसका तनिक भी बुरा नहीं मानते थे । उछाला था, पर मुख्तार सा० स्थितप्रज्ञ की भांति अपने तकों पर सर्वथा अटल रहे। मुख्तार सा० का शरीर ८५ वर्ष की अवस्था तक भी पूर्णतया सक्षम एवं कार्यरत रहा । अन्तिम समय तक मुख्तार सा. जो कुछ लिखा करते थे वह बड़ा उनकी पाखें काम देती रही। कानों से प्रलवना कम सुनाई माप-तोल कर एवं सोच-समझकर लिखा करते थे। उनके देने लगा था, जिसके लिए वे यंत्र का प्रयोग करने लगे लिखे हए वाक्य में से एक शब्द का भी परिवर्तन करना थे। बादाम, मुनक्का और खसखस का सेवन उनका नित्य संभव नहीं होता था। मुख्तार सा. की लेखनी बडी नियम का काम था। जब सन् १९५७ में मैं दिल्लीमा गया प्रबल और तर्कपूर्ण होती थी। उस समय की यह और दरियागंज नं०७ मे रहा करता था तो प्रायः त्रिमूर्ति (बा. जुगलकिशोर जी मुख्तार, ५० नाथू प्रतिदिन उनसे भेंट किया करता था। वे प्रतिदिन राम जी प्रेमी तथा बा० सूरजभान जी वकील) जैन साहित्य गगन में जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाति सदा-सदा दरियागंज नं० ४ मे स्थित वीर-सेवा-मंदिर के चार मंजिले भवन से उतर कर मनाथाश्रम के मंदिर में दर्शन के लिए मालोकित होती रहेगी और पानेवाली पीढ़ी का मार्गदर्शन उनका प्रकाशित साहित्य करता रहेगा। वे करने जाया करते थे और अपनी बहिन जयवंती के यहां लोगों के सदा-सदा के लिए बंदनीय रहेंगे। इन्होंने जैन भोजन कर इतनी ही सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाया करते साहित्य के क्षेत्र में जो अभूतपूर्व शोध-खोज एवं नये-नये । थे । बादाम, मुनक्के की चटनी का प्रयोग मैंने उन्हीं से अन्वेषण के तथ्यात्मक मायाम प्रस्तुत किए है वे किसी साखा था। से छिपे नहीं हैं । यद्यपि उपयुक्त त्रिमूर्ति प्राज पृथ्बी-तल पर नहीं है पर हर समझदार साहित्यानुरागी उनके प्रति मुख्तार सा० अपने प्राचार-बिचार से निश्चय ही मादर और श्रद्धा से नतमस्तक है। उच्च कोटि के संत थे और यदि यह कहं कि वे सवस्त्र मुनि तुल्य थे तो कोई प्रत्युक्ति न होगी। उन्होंने जैनधर्म, मुख्तार सा० का शिक्षण-दीक्षण यद्यपि पडिताऊ ढंग जैन सस्कृति एवं जैन समाज को जो कुछ दिया है पर हुमा था, पर उनकी शैली इतनी वैज्ञानिक एवं तथ्य उससे जैन समाज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतीय परक थी कि स्व. डा. उपाध्ये, स्व. हीगलालजी प्रभृति साहित्य-जगत युग-युगों तक उऋण नहीं हो सकता। अनेकानेक विद्वान उनकी लेखनी का लोहा मानते थे, यह सब पर जैन समाज ने प्रतिदान में उन्हें कुछ भी नहीं दिया। उन्होंने स्वाध्याय से ही अजित किया था। मुख्तार सा० उनके अभिनंदन-पथ की कई बार योजना तैयार की गई बड़े संयमी एवं सादगी-पसद प्रकृति के व्यक्ति थे। इसी पर सदा ही ठप रही। अंतिम दिनों में उनकी परिचर्या का परिणाम था कि वे इस घनघोर कलिकाल मे भी के लिए एक सेवक की भी व्यवस्था यह कृतघ्न समाज न Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सरसावा के सन्त तुम्हें शत-शत बन्धन . कर सका और फलस्वरूप उन्हें वीर सेवा मंदिर, दिल्ली हए, जिसकी वे पिछले कई दिनों से तलाश में थे। वे उस छोड़कर अपने भतीजे श्री श्रीचंद के पास एटा जाकर पंसारी से सारा का सारा बस्ता खरीद लाये और घर रहना पड़ा और वहीं उनके प्राण विसर्जित हुए। जिस लाकर जब उन्होंने उनकी छटनी की तो उसमें उन्हें बड़ी संस्था के जन्म, निर्माण एवं चरम उत्थान में मुख्तार सा० महत्वपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई। ने अपना तन-मन-धन सभी कुछ लगाया और अपनी मन्तिम खून की बिंदु भी मर्पित की, उससे उन्हें अंतिम मुख्तार सा० पंसे के विषय में बड़े बारीक थे तथा दिनों में मात्मसंतोष न मिल सका, भले ही प्राज लोग हिसाब-किताब में बड़े साफ थे। मैं उनके साथ ही भोजन उन्हें श्रद्धा से स्मरण करते हों। करता था। किसी भी माह भोजन खर्च को एकमुस्त पूरी रकम नहीं देनी पड़ी, अपितु हर मास रुपये माने वीर सेवा मंदिर जब तक सरसावे में रहा, तब तक पाइयों में भोजन खर्च पाता था, जिसे काटकर वे मेरा उसकी संपूर्ण साहित्य-जगत में बड़ी प्रतिष्ठा रही और वेतन दिया करते थे। मुख्तार सा० स्वयं कठोर परिश्रम वहां साहित्यिक शोध-खोज का काम भी पर्याप्त एवं किया करते थे और दूसरों से भी उतने ही कठोर परिश्रम सुचारू रूप से सम्पन्न होता रहता था, पर जब से यह की अपेक्षा रखा करते थे । यही कारण था कि दो एक संस्था दिल्ली में प्राई तब से इसका क्रमशः ह्रास होता विद्वानों को छोड़कर कोई भी विद्वान वीर सेवा मंदिर में चला गया और यह राजनीति का अखाड़ा बनकर परस्पर स्थायी रूप से नहीं टिक सका। वैसे वीर सेवा मदिर में मनोमालिन्य पौर द्वेष एव कटुता का केन्द्र बनती चली अनेकों विद्वान और कार्यकर्ता रहे, पर श्रम बाहुल्य एवं गई और सारी प्रगति अवरुद्ध हो गई, जिससे मुख्तार पैसे को बारीकी के कारण लोग वहा लम्बे समय तक सा० बहुत ही खिन्न और मन ही मन दुखी रहते थे। कार्य न कर सके । वस्तुतः सरसावा के संत बा० जुगल अपनी मन्तव्य॑था किसे सुनाते । वीर सेवा मंदिर जैसा किशोर जी मस्तार ने जैन साहित्यिक शोष-जगत में जो पुस्तकालय एवं सर्वश्रेष्ठ ग्रथों का भंडार जैन जगत मे कीर्तिमान और प्रतिष्ठा स्थापित की उससे भावी पीढ़ी तो शायद ही कहीं मिले। जो भी उच्च कोटि का ग्रंथ युग-युगों तक कृतज्ञता अनुभव करेगी मोर उनके प्रति कहीं भी प्रकाशित होता था, मुख्तार सा. उसे अपने श्रद्धा से नतमस्तक रहेगी। पता चला है कि वीर सेवा पुस्तकालय में अवश्य ही मंगा लिया करते थे। अनेकों मदिर से बहुत से बहुमूल्य पलभ्य ग्रंथ यत्र-तत्र चले गये श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएं तो भनेकान्त के प्रत्यावर्तन में एकत्रित हैं जो मब उपलब्ध भी नहीं हो सकते हैं। वीर प्रभु से हुमा ही करती थी। प्रार्थना है कि वीर सेवा मंदिर पुनः प्रगति और उन्नति के पथ पर अग्रसर हो, जिससे स्वर्गस्थ मुख्तार सा. की मुख्तार सा० पयूषण पर्व, महावीर जयंती मादि के मात्मा को संतोष और शांति लाभ हो सके। उनके रिक्त अवसरों पर जब कभी बाहर जाते थे तो प्राचीन पांड स्थान को भरने वाला समाज में प्राज कोई भी विद्वान लिपियों, गुटकों मादि की तलाश अवश्य ही किया करते दिखाई नहीं देता है। 000 थे। एक बार पयूषण पर्व में वे कानपुर गये हुए थे। अचानक उन्हें किसी पंसारी की दुकान में कुछ हस्त श्रुत कुटीर, लिखित पत्र दिख गए, जिनसे वह सामान की पुड़ियां ६८, कुन्तीमार्ग, बना बनाकर बेचा करता था, मुख्तार सा० ने उन पत्रों विश्वासनगर, शाहदरा, को उलटा-पलटा तो वे उन्हें किसी जैन ग्रंथ के प्रतीत दिल्ली-३२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगसृष्टा की साहित्य-साधना ॥ श्री मती जयवन्ती देवी प्राच्यविद्या महार्णव श्रद्धेय पं० जगल किशोर जी का प्रायु में वह भी न रही। इन सब संकटों के बावजूद भी जन्म सरसावा (जि. सहारनपुर) निवासी ला० नत्समन मुख्तार साहब साहित्य-निर्माण में और भी अधिक संलग्न जी के यहां हरा था। रिश्ते में ये मेरे भाई लगते थे। हो गए। उनकी स्मृति में इन्होंने एक ग्रंथमाला बचपन में ही इनकी प्रतिभा-बद्धि की प्रखरता ने सबको भी निकालने का विचार किया था, उसका पूरा विवरण चकित कर दिया था। प्रत्येक स्कूल में इन्हे मान्यता अनेकान्त में प्रकाशित है। मेरी भावना, द्रव्य पूजा, प्राप्त थी। स्कालरशिप मिलते थे। घापिक परिणति पश्चात्ताप प्रादि छोटे रूप में होते हुए भी बड़ी स्वभाव से ही थी। जब ये १० वर्ष के थे तो मध्याह्न में महत्त्वशाली है । स्तुति विद्या, स्वयभूस्तोत्र, सिद्धभक्ति, इमशान भूमि में जाकर ध्यान लगाते थे। उन दिनो समाधितंत्र प्रादि अनेको प्रथों का सरल अनुवाद करके संस्कृत का विशेष प्रचार नहीं था। ये स्वय के बुद्धि-बा मल्पज्ञानियो को धर्म का प्रकाश दिया। से संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान हो गए। इन्होन देवकर ये पूज्य प्राचार्य रामन्तभद्र के परम भक्त थे। इन्हें ही जि. सहारनपुर में मुख्तारगीरी की प्रैक्टिम शुरू करती। माना गुरु मानकर, समस्त कार्यों के करने से पहले यही पर प्रसिद्ध समाज-सेवी श्री मूरजभान वकील एवं आचार्य श्री का स्मरण-वन्दन करते थे। इनके प्रति अपार श्री ज्योतिप्रसाद जी, सम्पादक 'प्रदीप' भी रहा थे। तीनो भक्ति व श्रद्धा थी। स्वामी समन्तभद्र' नाम का ग्रंथ भी में घनिष्ठ मित्रता थी और थी सा1ि समाज संवा लिखा है, जिसमे स्वामी जी के जीवन चरित्र व उनके की सच्ची लगन । घंटो तक इसी पर तीना का विचार- अनुपम धर्म, धर्मप्रचार, चमत्कार प्रादि का विशद वर्णन विमर्श चलता रहता। इधर गावी जी का सत्याग्रह- है। कदम २ पर वे समन्तभद्र जी का स्मरण करते थे। आन्दोलन भी शुरू हो रहा था। फलस्वरूप सन् १९१४ उनकी कृतियों पर गवेषणापूर्ण कई लेख लिखे हैं। मे ला० सूरजभान जी व मुख्तार साहब ने वकालत और जैनियों में जो दस्सा, बीसा, प्रोसवाल, परवार मुख्तारगीरी करना छोड़ दिया और प्राण-पण से समाज ग्रादि भेद चल रहे थे उन सबको एक करने की उनमें मे फैली अबत्रद्धा, कुरीतियो आदि का उन्मूलन करन म प्रबल भावना थी। वे निर्भीकता से यथार्थ बात कहने जुट गए। हस्तिनापुर क्षेत्र पर दस्सा-वीसा के जार भारी में नहीं हिचकते थे, भले ही वह कितना ही विद्वान या झगड़ा होने पर भी ये पीछे नही हटे। उसे निबटाकर धनवान, प्रतिष्ठावान हो। ही छोड़ा । समय २ पर मासिक पत्री व साप्ताहिक पत्रों कानजी स्वामी, स्वामी सत्यभक्त, आदि के कुछ मे निरन्तर समाज-सुधारक लेख निकलते थे। स्वय का कथनों का इन्होंने डटकर विरोध किया। साहित्य सेवी 'जैन हितैषी' पत्र निकालकर समाज का बड़ा उपकार श्री नाथराम प्रेमी जी से इनकी घनिष्ट मित्रता थी। ये किया। इनके दो लड़किया-सन्मति और विद्यावती-हुई भी कई बार बम्बई गए और वे भी इनके पास पाए थे। जिनमे सन्मति वेवल आठ वर्ष की भायु में ही काल- साहित्य- निर्माण मे परस्पर परामर्श होते रहते थे। प्रायः कवलित हो गई । सन् १९१८ में इनकी धर्मपत्नी का सभी लेखक इनको अपने लेख दिवाकर इनकी सम्मति लेते देहान्त हो गया। उस समय छोटी पुत्री विद्यावती केवल थे, क्योंकि ये अपने समय महान दिग्गज विद्वान थे । सन् तीन मास की थी। उसका पालन-पोषण घर पर धाय १६ में उन्होंने सरसावा मे ही वीर सेवा मंदिर संस्था रखकर हमारे पास ही हुआ । दुर्भाग्यवश तीन साल की स्थापित की, जिसका उद्देश्य सत्साहित्य की खोज-शोध Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगसृष्टा की साहित्य-साधना एवं प्राचीन महाग्रंथों का सरल भाषा में अनुवाद प्रादि कराकर धर्म का प्रचार व प्रसार करना था। कई साल तक यह क्रम सुचारू रूप से चलता रहा। इसी बीच उद्योग पति श्री छोटेलाल जी ने सलाह दी कि सरसावा जैसे छोटे कस्बे में अपने उद्देश्य की पूर्ति होना कठिन है। प्रेस आदि की असुविधा है। अतः इस उपयोगी सस्था को देहली में स्थापित किया जाय, जहां नित्य ही विद्वानो का समागम स्वयमेव होता रहेगा और अनेक सुविधाएं उपलब्ध होंगी । 1 फलतः २१ नं० दरियागंज मे वीर सेवा मदिर का एक निजी भवन बनाकर संस्था का कार्य चालू किया गया । इतना सब कुछ करते हुए भी ये धर्म में बड़े दत्तचित्त थे । घंटों तक ध्यान, स्वाध्याय व अनेको पाठ नित्य करते इन्होने श्री महावीर जी क्षेत्र पर जाकर वर्धमान स्वामी की प्रतिमा के समक्ष सातवी प्रतिमा धारण की जिगका अन्त समय तक पालन किया । ग्राजकल के त्यागियों जैसा उनका त्याग नही था । जो भी त्याग किया केवल वाह्यन हो प्रातरिक ज्यादा रहा। दिल्ली के विद्वानों, श्रीमानों का सहयोग प्राप्त हुआ, इसके गंतवा छोटेलाल जी व मुख्तार साहब के मन में जैन लक्षणावली बनाने की प्रबल उत्कण्ठा हुई । परन्तु इतना महान कार्य प्रासानी से होने वाला नहीं था "बादृशी भावना यस्य सफलीभवनि तादृशी" के अनुसार यह दुःसाध्य कार्य प्रारम्भ कर ही दिया, परन्तु खेद है कि उनके जीवन काल में यह प्रकाशित न हो सका । काश हो जाता तो वे कितना प्रफुल्लित होते । फिर भी उन्हें सन्तोष था कि कभी न कभी अवश्य प्रका शित हो जायगा । इस कार्य पूर्ति के लिए ग्रंथो का विशाल संग्रह किया गया तथा प्रति परिश्रम से यह कार्य सम्पन्न हुआ । मुख्तार साहब के हृदय में वीर भगवान की वाणी का प्रसार करने की उत्कट भावना थी। इससे प्रेरित होकर उन्होंने 'वीर सेवा मंदिर मे वीर-शासन- जयन्ती महोत्सव बड़े समारोहपूर्वक मनाया जगह २ से विद्वान बुलाए जिन्होने वीर शासन का महत्व बतलाया । यही तक नही, वा० छोटेलाल जी व मुख्तार साहब ने राजगृही ये हो, जहाँ भगवान की लीद विरोधी, यह ११ महोत्सव बड़े पैमाने पर मनाया । फिर कलकत्ते में भी घूमधाम से मनाया, बाद में भी दिल्ली में मनाते रहे। बीच मुख्तार साहब प्रोर वा० छोटेलाल जी में कुछ मतभेद होने के कारण विशेष योजना कार्यान्वित न हो सकी। मे भाई साहब हमारे यहा बहुत प्राते थे। हमारी दादी जी उनसे अत्यन्त प्रेम रखती थी, यहां तक कि उन्हें गोद लेने को तैयार थी. परंतु कानून न होने से गोद तो नहीं लिया, फिर भी पुत्रवत स्नेह करती थी। वे भी मां के बराबर ही समझते थे। मेरे माता-पिता का देहान्त होगया था। मैं दादी बुम्रा कि संरक्षण में रही। उन्होने म् के पढ़ने के लिए इन्ही भाई साहब के पास देववन्द भेज दिया। ये मुझे बड़े प्यार से रखते तथा शिक्षा देते रहे। जब इनकी पत्नी का देहान्त हो गया तब इन्होंने शिक्षा प्राप्त करने पं० चन्द्रावाई जी के पास भेज दिया। वहा रहकर मैंने १३ बर्ष की उम्र में संस्कृत प्रथमा तथा धर्म मे विशारद पास की। यह सब श्रेय भाई साहब को ही था, जिन्होंने इतनी शिक्षा प्राप्त कराई। मेरा जन्म, शिक्षा, विवाह तथा वैधव्य प्रादि सभी इनके ही सान्निध्य में हुआ । जब आपने वीर सेवा मंदिर स्थापित किया, तब मैं महीनों वहाँ रहती थी। वहां पर एक कन्याशाला स्थापिता की जिसमें बालिकाओं को स्वयं पढ़ाती थी। एक महिला सभा कायम की, जिसमे स्थानीय महिलायें भाग लेती थी भौर बहुत-कुछ भाषण देना सीख गई थीं। भाई साहब के संस्था के कार्यों में मैं महायता करती थी, जैसे ग्रंथों की अनुक्रमणिका का बनाना, लेख आदि की प्रेस कापी बनाना, पत्र-व्यवहार करना यादि २ । जब संस्था दिल्ली में आ गई, मैं तब भी इनके पास रही और वीर सेवा मंदिर की सदस्या होकर संस्था के कार्यों में यथाशक्य लगी रहती थी। अब ये वृद्धावस्था के कारण अशक्त रहने लगे, तब इस स्थिति मे डाक्टरों की श्रावश्यकता पड़ने लगी । प्रतः इनके छोटे भाई के लड़के डाक्टर श्रीचन्द इन्हें अपने साथ एटा ले गए। वहां परि चर्चा होती रही । अन्त मे रोग ने जोर पकड़ा और वे समाधिपूर्वक हम सबको छोड़कर चल दिए । 000 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी भावना 0 स्व प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर' [इस प्रमर कृति 'मेरी भावना' की रचना स्व० प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ने सन् १९१६ में की थी। तब से यह उत्तरोत्तर लोकप्रिय और सर्वप्रिय होकर 'सार्वजनीन भावना' बन गई है। अब तक 'मेरी भावना' का अनुवाद अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, बंगला, गुजराती, मराठी, कन्नड़ पादि सभी प्रमुख भाषाओं में हो चुका है और विविध रूपों में सैकड़ों सस्करणों में इसकी लाखों प्रतियां प्रकाशित होकर जन-जन में प्रचारित हो चकी हैं। इस दृष्टि से, 'मेरी भावना' वस्तुतः अपने रचयिता का सच्चा स्मारक बन गई है और यहां पुनरुद्गान एवं पुनःप्रस्तुतीकरण की प्रार्हता रखती है तथा यह इसी प्रकार चिरकाल तक अपने अमर उद्गाता का पुण्य-स्मरण कराती रहेगा। -सम्पादक] (१) जिसने राग-द्वेष-कामादिक जीते, सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्ष-मार्ग का, निस्पह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर जिन, हरि, हर. ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो।। रहे सदा सत्संग उन्हींका, ____ ध्यान उन्हींका नित्य रहे, उनही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे। नहीं सताऊँ किसी जीवको, झठ कभी नहीं कहा करू, परधन-वनिता पर न लभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ ॥ (२) विषयों की प्राशा नहिं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं, निज-परके हित-साधनमें जो, निश-दिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ-त्यागकी कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुख-समूह को हरते हैं। महंकार का भाव न रक्खं, नहीं किसी पर क्रोध करूँ, देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्षा-भाव धरू। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य-व्यवहार करूँ, बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी भावना मंत्री - भाव ( ५ ) जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, दीन-दुखी जीवों पर मेरे, उरसे करुणा-स्रोत दुर्जन- क्रूर- कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको साम्यभाव मैं रक्खूँ उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ॥ बहे श्रावे, ( ६ ) गुणी-जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ श्रावे, बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे । होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, ब्राह न मेरे उर श्रावे, गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ॥ ( ७ ) जावे, या कोई बुरा कहो या श्रच्छा, लक्ष्मी आवे लाखों वर्षों तक जीऊँ, या मृत्यु आज ही भाजावे । अथवा कोई कैसा हो भय या लालच देने प्रावे, तो भी न्यायमार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे || ( ५ ) होकर सुख में मग्न न फूले, दुख में कभो न घबरावे, पर्वत - नदी -स्मशान - भयानक श्रटवी से नहीं भय खावे । 000 रहे डोल कंप निरन्तर, यह मन, बुढ़तर बन जाये, इष्ट वियोग-प्रनिष्टयोग में, सहनशीलता दिखलावे ॥ (ε) सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कभी न घबरावे, बंर पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे । घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जायें, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्म-फल सव पावें ॥ ( १० ) ईति-भीति व्यापे नहि जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे, धर्म निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे । रोग-मरी-दुर्भिक्ष न फैले. प्रजा शान्ति से जिया करे, परम अहिंसा धर्म जगत में, फैल सर्वहित किया करे || ( ११ ) फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर पर रहा करे, श्रप्रिय-कटुक-कठोर शब्द नहि, कोई मुखसे कहा करे । बनकर सब 'युगवीर' हृदय से देशोन्नतिरत रहा करें, वस्तुस्वरूप विचार खुशी से, सब दुख-संकट सहा करें || १३ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरल स्वभावी महान आराधक 0 श्री रमाकान्त जैन, लखनऊ अपने बाल्यकाल मे जो कविताएं मुझे पढ़ने को निवास के लिए चुना था और वहां भगवान महावीर की मिली उनमें एक थी 'मेरी भावना' । प्रात्म-विकास में सेवा करने, अथवा यूं कहिये, उसके बहाने अपनी साहित्य सहायक और एक अच्छे नागरिक बनने की भावना को साधना के लिये काफी बड़ी भूमि पर जो सादा किन्तु प्रस्फुटित करने वाली इग रचना के रचयिता थे प० भव्य भवन बनवाया हुअा था वह मंदिर तो नहीं प्राथम जुगलकिशोर मुख्तार । घर मे जो पत्र-पत्रिकाए माती थी। या गुरुकुल सरीखा था। उस भवन की चहारदीवारी के उनमें एक था सरसावा जिला महारनपुर से प्रकाशित भीतर केवल भगवान महावीर के उपासक साहित्यसाधकों होने वाला मासिक पत्र 'अनेकान्त' । इस गामिक पत्र के का ही निवास था। पं० जुगलकिशोर जी गुरु और सम्पादक भी प० जुगलकिशोर मुख्तार थे। अतः अपने अन्य अनेक विद्वान उनके शिष्य समान प्रतीत होते थे। बालपन में ही मैं मख्तार श्री के नाम से परिचित हो भवन के मुख्य खण्ड में जिसमे पंडित जी निवास करते थे, गया था। संयोग में सन् १९८७ मे जब मै ग्यारह वर्ष तीन कक्ष थे-बीच में एक बहुत बड़ा हाल तथा दो का बालक था तभी उनके दर्शनो का भी सौभाग्य मझे बगली कमरे । बीच के बड़े हाल में पंडित जी का पुस्तक प्राप्त हुप्रा । उन दिनों मेरे पिता जी डा० ज्योतिप्रसाद मंग्रह था और उसमें पं० परमानन्द शास्त्री और न्यायाजी उनकै मान्निध्य में सरसावा में रहकर साहित्य-साधना चार्य पं. दरवारी लाल कोठिया बैठकर कार्य करते थे । कर रहे थे। अपना ग्रीगायका। पिता जी के पास दाहिनी ओर का बगली कक्ष पिताजी का कार्यस्थल और व्यतीत करने मैगी पनऊ में गरगावा गगा था। चार्या ग्रोर का बगली कक्ष मुरूनार साहब का विश्राम एवं वहीं ग्रांड ट्रक रोड पर स्थित वीर मेवा मन्दिर में, नो माधना स्थल था । इन कक्षो के मागे चबूतरा था और प्रचलित अर्थ मे मन्दिर न होकर उनका निजी भवन था, उग उमके पागे बड़ा खुला हृमा माँगन था। चारदीवारी से विद्वाम-पत्रकार-कवि की सौम्ब प्राकृति को देखा। उम लगदा अन्दर की मोर खुलने वाले कमरों में हमारा समय लगभग सत्तर वर्ष उनकी प्रायुर ही होगी। देखने में और प० परमानन्द जी शास्त्री का परिवार रहता था। वद्ध थे, किन्तु मानसिक अथवा शारीरिक किगी भी बडा शान्तिपूर्ण वातावरण था। भवन में पानी का बम्बा प्रकार से शिथिल नही थे। उन वयोवद्ध को, निन्हे पिता नही था अपितु एक हैण्ड पम्प था। भवन से लगी हुई जी भी बुजुर्ग का सम्मान दे रहे थे, मैंने प्रथम दर्शन में नीब और नारंगी के पेड़ो की एक बगिया भी थी, बावा जी कहकर सम्बोधित किया था, ऐसा मझ स्मरण जिसका दरवाजा प्रायः बन्द रहा करता था। पड़ता है। गरमी के दिन थे । प्रतः तड़के ही उठकर स्नानादि मस्तार साहब तब केवल नाम के महतार थे । देव- से निवत्त हो कस्वे के मदिर में दर्शन कर पिताजी सात वन्द मे मुख्तारी छोड़े उन्हें एक प्रर्सा बीत चुका था। बजे तक अपने कक्ष में पहुंच जाते थे और मैं भी उनका पत्नी मोर पुत्री के काफी दिनो पहले ही विदा ले चुकने साथ देता । अन्य विद्वान भी अपने कक्ष में पा जाते थे। के कारण घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो एकाको पंडित जगलकिशोर जी भी अपने कक्ष में अपने कार्य पर जीवन अतीत करते करते हुए वे खुद-मुख्तार हो गये थे। लगे दीखते । पिता जी दस बजे तक अनवरत रूप से __ कदाचित् शहर के कोलाहलपूर्ण वातावरण से बचने अपने कार्य में लगे रहते । मैं भी समय काटने हेतु उनके के लिए ही तब उन्होंने सरसावा जैसे कस्बे को अपने पास बैठा हप्रा कुछ न कुछ अध्ययन-मभ्यास करता मार Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरल स्वभावो महान माराधक कुछ नहीं तो पंडित जी के पुस्तकालय से निकलवाकर रुचि से मैंने कुछ घटाया-बढ़ाया है, जैसे उस पद में जहाँ कोई रोचक किताब ही पड़ता रहता था। दस बजे उठ मैंने यह कहा है "अथवा कोई कैसा ही भय या लालच कर मैं पंडित जी को भोजन के लिये बुलाने चला जाता देने पावे" उसका कोई उल्लेख तुम्हारे श्लोक में नही है था। उन दिनों वह हमारे यहां ही भोजन करते थे। और वैसे भी कई शाब्दिक हेरफेर है।' पंडित जी के भोजन के समय वह प्रायः मौन रहते थे। वैसे भी मित- स्थान पर कोई अन्य व्यक्ति होता तो कदाचित मझसे भाषी थे। 'भनेकान्त' के सम्पादकाचार्य मझे तो एकान्त- रुष्ट हो जाता और बिगड़कर कहता कि छोटे मह बड़ी प्रिय मोर स्वकेन्द्रित प्रकृति के ही लगे। अधिकांशत: वह बात करते हो, किन्तु पडित जी ने जिस सहज भाव से अपने कक्ष में बैठे हुए लेखनी ही चलाते रहते थे । मेरी बात सुनकर उसे सराहते हुए अपनी बात समझाई वह उनके विनम्र स्वभाव और बड़प्पन की परिचायक है। मायंकाल के भोजनोपरान्त कभी-कभी हम लोगो के पास भी प्रा बैठते और पिताजी से इधर-उधर की विविध वीर सेवा मन्दिर मे मैं लगभग डेढ माह रहा। इस बीच विषयों पर चर्चा होती और मैं मौन श्रोता का कार्य पहाँ दो एक साधु-मन्तोको, जो जनेतर थे, पाते-ठहरते करता । किन्तु एक दिन मैने भी चर्चा में भाग लेने का देवा। श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को वीर शासन-जयन्ती का साहस किया। कक्षा सात को सस्कृत की पोथी में प्रायोजन हमारप्रभात-फेरी के उपरान्त ध्वजारोहण हुमा । सुभाषितानि में मैने इनक पढ़ा था--- जम अवसर पर बाहर से भी कई सज्जन पधारे थे जिनमे निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वास्तचन्त, . दिल्ली के श्री माईदया न जंन के नाम का मझे अब भी सारण है, और मुख्तार गाहब की ओर से सबके सामूहिक लक्ष्मी समाविशन गच्छनु वा यथेष्टम्, प्रघंव मरणमरतु युगान्तरे वा भोजन का प्रबन्ध हुमा था। न्यायात्वथः प्रविचलन्ति पद न धोगः ॥ ग्रीष्मावका समाप्त होने पर मैं लखनऊ वापस मुझे लगा कि पडित जी की मेरी भावना का निम्न चला पाया और कुछ दिनो वाद पिताजी भी सरनावा से पद उनकी मौलिक रचना न होकर उपयुक्त श्लोक का लखनऊ चने आये । अब तीस वर्ष पुगनी वह प्रवास कथा अनुवाद मात्र है हो गई है और उसके मम्मरण भी स्मृतिपटल पर धूमिल कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी प्रावे या जावे, हो चले है । अभी तीन-चार दिन पूर्व पिताजी से यह लाखों वर्षों तक जीऊं या मृत्यु प्राज ही पा जावे। सुनकर कि पडित जगल किशोर मसार को जन्मशती आगामी २० दिसम्बर को और उनकी नौवी पुण्यतिथि अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने पावे, तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे । २२ दिसम्बर को पड रही है, मझे भी अकस्मात् पडितजी के साथ बीता वह डेढ माह का प्रवास और अपने बालहल्दी की गांठ लेकर पंसारी बन बैठने की कहावत मन पर पड़ी उनकी छाप की याद ताजा हो पाई। को चरितार्थ करते हुए मैने एक सायंकाल पडित जी का फलस्वरूप प्रस्तुत सस्मरण द्वारा उन सरल स्वाभावी ऋषिछेड़ ही दिया कि उनकी 'मेरी भावना' के पद तो संस्कृत तुल्य, सरस्वती के महान पाराधक के प्रति इस सुअवसर सुभाषितो के अनुवाद मात्र हैं, जैसे 'कोई बुरा कहो या पर अपनी श्रद्धाजलि अपित करने हेतु लेखनी को नहीं मच्छा' वाला पद निन्दातु नीतिनिपुणाः' श्लोक का रोक सका। अनुवाद है। विना बुरा माने वह सहज भाव से बोले-'तुमने यह बात सही पकड़ी है कि 'मेरी भावना' के पद सस्कृत OOD सुभापितों के अनुवाद है, किन्तु वे मात्र शब्दानुवाद न ज्योति निकुज, होकर भावानुवाद या छायानुवाद है मोर, उनमे अपनी चारबाग, लखनऊ-१ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान के आलोक-स्तम्भ 0 डा. प्रेमसुमन जैन श्रदेय. जगलकिशोर जी मस्तार जैन समाज क पर 'जैनाचायो तथा जैन तीर्थंकरों में शासनभेट' सानों में से हैं, जो समाज व देश को जगाने के नाम से एक लेखमाला का प्रारम्भ किया, जिसमें प्राप के लिए ही जन्मते है। मुख्तार जी का सम्पूर्ण जीवन ने प्रमाणित किया कि बीरशासन (जैन me जैन-साहित्य के अध्ययन-अनुसंधान में ही व्यतीत हुआ रूप एकान्त मौलिक नहीं है। उसमें बहुत कुछ मिश्रण के प्रधिकांश विद्वानो के वे प्रेरणास्रोत थे। पत्र. हमा है पौर संशोधन की मावश्यकता है। यद्यपि इसके कारिता के क्षेत्र में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया है। विरुद्ध भी भावजें उठायी गयीं, लेकिन श्री मस्तार जी मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे उनके दर्शन प्राप्त करने का अवसर अपनी स्थापनामों पर अटल रहे और शान्त भाव से प्राप्त नही हुमा। यद्यपि उनके गवेषणापूर्ण लेखो एवं मध्ययन करने रहे। भाप अपनी स्थापना के प्रति ग्रन्थों का अवलोकन मैं मननपूर्वक करता रहा हूं। विश्वत रहते थे, क्योंकि कोई बात विना प्रमाण के नहीं विsan RA उनकी गवेषणात्मक निष्पक्ष दृष्टि ने मुझे अधिक प्रभावित लिखते थे। श्री नाथुराम जी प्रेमी ने भाप की प्रमाणिकता किया है। के विषय में लिखा है-'माप बड़े ही विचारशील लेखक श्री मुख्तार जी में अनुसंधान की प्रवृति १९०७ में हैं। माप की कलम से कोई कच्ची बात नहीं निकलती। जैन गजट के सम्पादक होने के बाद प्रारम्भ हुई । इसी को लिखते हैं बरम वर्ष में १ सितम्बर के अंक में प्रकाशित प्रापके लेख 'हर्ष समाचार' से अनुसन्धान के प्रति पाप की बढ़ती हई 'ग्रन्थपरीक्षा' का तीसरा भाग अब १९२८ में प्रकामभिरुचि का पता चलता है तथा ८ सितम्बर, १६.. शित हुमा तो मुख्तार जी के गहन अध्ययन एवं प्रमाके अंक म सम्मेद शिखर तीर्थ के सम्बन्ध में लिखा गया णिकता से अधिकाधिक लोग परिचित हुए। जो लोग जैन पापका अग्रलेख इस प्रवृति की पुष्टि करता है। जैन गजट' धर्म को प्रक्षेत्रों से दूषित कर रहे थे, सत्यता प्रकट होते ही शान्त हो गये । श्रीमान् प्रेमी जी ने उक्त ग्रंथ की भूमिका के सम्पादक कार्य से जो समय बचता था, मुख्तार जी उसे जन-साहित्य के गम्भीर अध्ययन में लगाते थे। इस में लिखा है-'मैं नहीं जानता है कि पिछले कई सौ वर्षों से किसी भी जैन विद्वान ने कोई इस प्रकार का समामध्ययन का यह सुफल हुआ कि भट्टारको द्वारा जैन शास्त्रों मे जो जन-धर्म के विरुद्ध बातें लिख दी गयी थी, उनका लोचक अप इतने परिश्रम से लिखा होगा...... - इस प्रकार के परीक्षा लेख जैन साहित्य में सब से पहिले निराकरण करना मुख्तार जी ने प्रारम्भ कर दिया। केवल इतना ही नहीं, उन्होने अपने अध्ययन के प्राधार पर एक हैं ............."जांच करने का यह ढंग बिल्कुल नया है और मौलिक खोज यह भी की कि जैन-शास्त्रो के प्रक्षिप्त प्रशों इसने जैन धर्म का तुलनात्मक पद्धति से अध्ययन करने वालों के लिए एक नया मार्ग खोल दिया है।' के मूल स्रोत भी खोज निकाले । बाद में यही खोज 'ग्रन्थपरीक्षा' नामक पुस्तक के चार भागो मे प्रकाशित हुई। श्री मुख्तार जी की इन सूक्ष्म भोर मौलिक दृष्टि __ मख्तार जी ने जैन-साहित्य के अध्ययन और अनु- से मैं तभी परिचित हमा जब किसी वसुनन्दि नाम के सन्धान के लिए मुख्तारगिरी को भी छोड़ दिया। प्राचार्य द्वारा लिखित प्राकृत रचना 'तत्व-विचार' का एकचित्त होकर वे जैन-साहित्य की सेवा में लग गये। परीक्षण कर रहा था। यह ग्रन्थ ३०० गाथामों का है। १९१६ के लगभग पापने अपने गम्भीर अध्ययन के माधार माचार सम्बन्धी जैन धर्म के प्रमुख तत्वों का इसमें सुन्दर Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान के पालोक-स्तम्भ नहीं होता। इसके लिए गहनार साहव के इस वर्णन है। श्री मुख्तार जी ने बम्बई प्रवास में इसकी प्राधार पर पुनराकलन । प्रापने विशाल जैन-साहित्य में पांडुलिपि देखी थी। वहां से पाकर पाप ने अनेकान्त मे लिखे उल्लेखों के प्राधार पर ऐसे बहुत से अप्राप्य ग्रन्थों एक लेख लिखा, जिसमें यह सम्भावना व्यक्त की कि की एक सूची तैयार की थी। कुछ ग्रन्थों की प्राप्ति भी 'तत्व विवार' मौलिक ग्रन्थ प्रतीत नही होता। इसे उन्हें हुई थी। किन्तु यह अधिकांश कार्य अधूरा ही पड़ा सग्रह ग्रन्थ होना चाहिए। मस्तार जी की इस सूचना ने है। इसके लिए गहन अध्ययन एवं अथक परिश्रम की मुझे सतर्क कर दिया और जब मैंने सूक्ष्म दृष्टि से ग्रन्थ अावश्यकता है। फिर भी मुख्तार साहव के इस कार्य को का परीक्षण किया तो सचमुच 'तत्वविचार' की लगभग पूरा करने से, मैं समझता हूँ, उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि २५० गाथायें अन्यान्य २०-२२ प्राकृत के प्रथों से संग्रहीत ही मर्पित नहीं होगी, अपितु जैन-साहित्य की बहुत बड़ी की गयी मिली, जिनमें कुछ श्वेताम्बर ग्रन्थ भी है। श्री सेवा भी। मुख्तार सा० के 'पुरातन जैन वाक्य सूची' प्रन्थ से इस सम्बन्ध में मुझे पर्याप्त सहायता मिली। श्री मुख्तार सा. श्री मुख्तार साहब की अनुसंधान प्रवृत्ति के विकास का यह प्रयत्न अपने ढंग का अकेला रहा है। वे कितने का फल 'अनेकान्त' है। अनेकान्त के प्रकाशन से केवल परिश्रमी थे यह जानने के लिए अकेला यही एक अन्य जन-साहित्य ही प्रकाश में नहीं पाया, बल्कि जैन विद्वानों पर्याप्त है। की एक लम्बी परम्परा प्रारंभ हुई। मुख्तार सा. के अनुसंधान के क्षेत्र में श्री मुख्तार सा० का दूसरा सम्पादकीय टिप्पणों से कोई अच्छे से अच्छा लेखक भी प्रशंसनीय कार्य जैनाचार्यों के विषय में खोजवीन करने नहीं छूट सका। उन्होंने लेख को हमेशा देखा है, लेखकों का है। पात्र केसरी और विद्यानन्द की पथकता प्राप के को नहीं । शायद इसी का यह परिणाम है कि लेखन में प्रयत्न से ही मान्य हो सकी। पंचाध्यायी के कर्ता की दिनोदिन प्रामाणिकता की वृद्धि होती गयी और कई मापने खोज की तथा महान प्राचार्य स्वामी समन्तभद्र लेखक मुख्तार सा० को इस कृपा से पाठकों में उनसे भी के इतिहास एवं साहित्य के विषय में तो आपने अपना ऊँचा स्थान प्राप्त कर सके। जीवन ही लगा दिया है। श्री मुख्तार सा० को जैन शासन इस तरह स्वर्गीय श्री मुख्तार सा० की जैन-साहित्य के प्रति इस सेवा को देखते हुए प० राजेन्द्रकुमार जी के अनुसंधान के क्षेत्र में पूर्व देन है । जीवन के अन्तिम का कथन यथार्थ है कि 'मुख्तार साहिब यह काम न करते दिनों में भी वे उसी उत्साह और लगन के साथ साहित्य तो दिगम्बर-परम्परा ही प्रस्त-व्यस्त हो जाती। इस साधना में रत रहे। वे अनुसंधान के एक ऐसे पालोककार्य के कारण मैं उन्हें दिगम्बर परम्परा का संरक्षक स्तम्भ थे, जिससे निरन्तर अनेक दीपक प्रज्वलित होते मानता हूं।' इसी तरह महावीर भगवान के समय मादि रहे है। मुख्तार सा० ने हनेशा सबको गति प्रदान की के सबन्ध में जो मतभेद एवं उलझनें उपस्थित थीं उनका है। ऐसा लगता है कि अपने मन्तिम दिनो में भी वे इस प्रत्यन्त गम्भीर अध्ययन करके आपने सर्वमान्य समन्वय स्वभाव को नहीं भूले तथा जब अपनी अन्तिम सांसों के किया और वीर शासन-जयन्ती की खोज तो आपके जीवन कारण गतिरोध हो रहा था तो मुख्तार सा० ने अपनी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है। सांसें उन्हें प्रदान कर दी। समय भी उनसे उपकृत हो श्री मुख्तार साहव ने एक और महत्वपूर्ण कार्य का गया। ऐसे महान तपस्वी के चरणों में मुझ अकिंचन के सूत्रपात्र किया। वह है विलुप्तप्राय ग्रन्थों का सन्दर्भो के अनन्त प्रणाम । 000 १. अनेकान्त, वर्ष प्रथम, किरण ५, पृ० २७५. २. इस विषय का लेखक का एक लेख अनेकान्त की वर्ष २१ की किरण ७ में प्रकाशित हुमा है। ३. 'जैन जागरण के अग्रदूत' में प्रकाशित परिचय के माधार पर । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के भीष्मपितामह श्री देवेन्द्रकुमार जैन उन्नीसवी शताब्दी का वह अरुण युग जिसमे सभ्यता को सदा अकेले ही झेल कर राष्ट्र का पथ प्रशस्त किया। भोर संस्कृति ही नही शिक्षा और संस्कार पश्चिमोदय के वे संघर्षों से अकेले जूझते रहे और सदा समाज को कुछ प्रभात में इस देश के जन-मानस पर अकित हो रहे थे, न कुछ नहीं अपितु बहुत ही प्रमूल्य लत्न देते रहे । उनके ससी युग में भारतीय श्रमण संस्कृति में प्राप्यायित, पूर्व जीवन में प्रवरोधक बहुत रहे, किन्तु उनकी उन्होंने कभी जन्म के सुसंस्कारों से समन्वित बालक 'किशोर' ने जैन चिता नहीं की। उनकी जीवन-व्यापिनी चिता एक ही कुल में जन्म लिया। बचपन से ही उसकी प्रतिभा तथा रही और वह थी साहित्य की गवेषणा तथा नसिद्धान्त सुसंस्कारों का विकास हो चला था, यह उनके जीवन की की प्रतिष्ठा । उनका जीवन ऐसे ही पार्थ धनधरों के लिए विजिष घटनामों से प्रमाणित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के समर्पित था। वे प्रासन्न काल तक कभी इस भीष्म व्रत से जीवन का वास्तविक उन्मेष संघर्षों के बीच होता है। विचलित नही हए, सदा अटल ही रहे। उनकी जीवनजिसके जीवन में और जिस समाज मे सघर्ष न हो उसे साधना जितनी सरल पौर निश्छल थी उनका महान मृतप्राय समझना चाहिए । जुगलकिशोर मुख्तार के रूप उनको व्यक्तित्व भी। युग-युगो के अनुभवों तथा कर्ममें जैन समाज को एक ऐसा ही व्यक्ति मिला था जो निरत साधना में सपृक्त हो उन्होंने समाज को जो दिया जन-जीवन को झकझोर कर उसे वास्तविक रूप मे ला वह प्रपरिमेय तथा प्रमूल्य है। उन्होने साहित्य सम्बन्धी देना चाहता था। बाबू सूरजभानु वकील, अर्जुनलाल जी जितना कार्य अकेले किया उतना एक सस्था भी सम्भवतः सेठी और जुगलकिशोर जी ऐसे ही परम्परा के प्रवर्तक थे, न कर पाती। बीरसेवा मन्दिर के प्रकाशनों से स्पष्ट है विसे प्राज की भाषा में समाजसुधारक कहते हैं। वास्तव कि उस महान् साहित्यकार ने किसना अधिक कार्य किया। में इस परम्परा का प्रवर्तन जैन समाज के अनुपम विद्वान कठिन से कठिन तथा अप्रकाशित ग्रन्थों को सरल भाषा गुरुवर्य पं. गोपालदास जी बरंया ने किया था। ममय- में प्रकाशित कर जनसुलभ बनाने में पापको कर्मठ साधना समय पर इन विद्वानों के लेखों ने तथा वक्त तायो ने जन तथा कठोर श्रम एवं विद्वत्ता इलाघनीय है। इतना ही समाज मे जागति का शवनाद फका, इसमें कोई सदेह नहीं, मौलिक साहित्य का सर्जन कर पाप ने समाज को नही है। पं. मुख्तार जी इमी पीढ़ी के विद्वानो मे से थे। एक चेतना तथा जागति प्रदान की। 'मेरी भावना' तो किन्तु अपनी पीढी में उन्होंने सबसे अधिक कार्य किया। एक राष्ट्रीय गौरव की कृति बन गई है। अकेली इस क्या इतिहास, कशा दर्शन, क्या साहित्य और क्या धर्म- रचना ने ही प्रापको पर्याप्त यश तथा लोकाश्रय प्रदान संस्कृति तथा राष्ट्रीयता सभी क्षेत्रों में मुख्तार जी की किया। इसी प्रकार, साहित्य के मनाघ्रात क्षेत्र में जैन ग्रंथ प्रवृत्तियां सलग्न रही है । उन समस्त प्रवृत्तियों के कार्य परीक्षा' पौर चिन्तन-मनन के साथ प्रकाशित 'जैन साहित्य कलापो के मध्य 'युगवीर' का प्रबल व्यत्तित्व संलक्षित और इतिहास पर विशद प्रकाश' जैसे ग्रन्थ लिख कर होता है। मापने अनुसन्धान जमत् में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया असाधारण व्यक्तित्व की भांति पं. मुख्तार जी का है। कृतित्व भी प्रसाधारण रहा है । इसलिए वे जैन समाज में सम्पादन तथा अनुवाद : भाष्मपितामह के तुल्य थे, जिसने समाज की झंझावातों 'जैन नजट', 'जैन हितैषी' तथा 'भनेकान्त' जैसे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के भीष्मपितामह समाज के मुख्य पत्रों के सम्यक् सम्पादन के अतिरिक्त पाप के मोलतोल वाले युग को ही महंगी नहीं मालूम होगी, ने कई ग्रन्थों का सम्पादन तथा हिंदी अनुवार भी किया जब वह थोड़ा-सा भी अन्तर्मुख होकर इस तस्त्री की है। ये सभी ग्रन्थ संस्कृत से हिन्दी में अनदित किए गए निष्ठा का अनुसद को पति-पक्ति पर दर्शन करेगा । हैं। इनके नाम इस प्रकार है : स्पष्ट ही, लेखक की साहित्य-साधना महान है। इस (१) प्राचार्य प्रमाचन्द्र का तत्वार्थसूत्र, (२) युक्त्य साहित्य देवता की सभी विशेषतामों पर प्रकाश डालना नुशासन, (३) स्वयम्भूस्तोत्र, (४) योगसार प्रामृत संभव भी नहीं है। इस छोटे से लेख मे स्तिना लिखा (५) समीचीन धर्मशास्त्र, (६) अध्यात्म रहस्य, (७) जा सकता है? किन्तु साहित्यिक मूल्याकन की दृष्टि से अनित्यभावना, (८) तत्वानुशासन, (६) देवागम यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रापका बितना (णप्त-मीमांसा), (१०) मिद्धिसोपान (प्रा. पूज्यपाद साहित्य सजन का कार्य है वह प्रत्यन्त श्रमसाध्य निष्ठा विरचित पिद्धभक्ति का भावात्मक हिन्दी पद्यानुवाद), तथा लगन से परिपूर्ण है। सम्पादन तथा मनुवाद-जगत् (११) सत्साब स्मरणमंगलपाठ (संकलन तथा पिन्दी मे ऐसी रचनाए प्रत्यन्त प्रल्प है। इनके महत्व को वही मनुवाद)। समझ सकता है जो ऐसे दुरूह ग्रथों का अनुवाद करने बैठा हो और अपनी सच्चाई तथा ईमानदारी के सम्पादन तथा अनुबाद में लेखक ने मूल भाव को बनाये रखने का पूरा यत्न किया है और यही उनकी मुरूप कारण सफल न हो सका हो। इससे अधिक इस सम्बन्ध विशेषता है । मूल लेखक के भावो को हृदयगम कर उसके में और क्या कहा जा सकता है ? वास्तविकता यही है भावों को सरल भाषा में प्रकट करना मुख्तार जी का ही कि विद्वानों के वास्तविक महत्व का मूलां मन उस विषय का विशेषज विद्वान् ही कर सकता है। कार्य है। 'युक्त्यनुशासन' जैसे जटिल, दार्शनिक तथा महान् ग्रन्थ का प्रामाणिकता के साथ हिन्दी अनुवाद कर मुख्तारश्री बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता, यथार्थ मर्म को प्रकाशित करना मस्तारश्री को प्रतिभा लख, निबन्ध तथा समाजसुधारक से सम्बन्धित सामयिक का ही कार्य है। इसी प्रकार 'देवागम' तथा 'मध्यात्म. साहित्य पर सफल तथा सरल रचनाए प्रस्तुत कर उन्हान रहस्य' जैसे कठिन ग्रन्थों की गुत्थियां सुलझा कर हिन्दो जैन समाज मे मभिट स्थान बना लिया है। मैं समझता अनुवाद प्रस्तुत करने की सामर्थ्य प्राप में ही लक्षित हई है कि उनक लगभग पाच सा स भा माधक निवष है विस्तार से यहा पर सम्पादन तथा हिन्दी अनवाट प्रकाशित हो चुके है और लगभग दो दर्जन पुस्तके विवेचना न करके इतना कहना ही पर्याप्त समझताह प्रकाशित हो चुकी है। उन सब का विवेचन यहां अपेक्षित प्रकाशित हो चुका ह । उन। कि सम्पादन तथा अनुवाद कार्य के क्षेत्र मे माप जैन नही है। समाज के विरले ही विद्वान् है। दर्शनशाात्र के प्रकाण्ड वस्तुन. जैन समाज के एक महान व्यक्तित्व मुख्तारश्री विद्वान् प० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के शब्दो मे : साहित्य जगत के कीर्तिमान नक्षत्र थे. इसमे कोई सदेह 'युक्त्यनुशासन जैसे जटिल और सारगर्भ महान ग्रन्थ का नही। प्राश्चर्य तो यह है कि उन्होंने जीवन की अन्तिम सुन्दरतम अनुवाद, समन्तभद्र के अनन्यनिष्ठ भक्त साहित्य- सास तक लेखन-पठा वायों में व्यवधान नही माने दिया। तपस्वी पं. जगकिशोर जी महतार ने जिस प्रकल्पनीय बाहर से कोई न कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ मगवाकर उसका सरलता से प्रस्तुत किया है वह पाय-विद्या के अम्यापियों श्रवण-मनन चिन्तन करना उनके जीवन का सहज के लिए प्रालोक देगा। सामान्य-विशेष, यूतसिद्धि प्रयून- व्यापार हो गया था। समाज ऐसे विद्या धनी तपःपून, सिद्धि, क्षणभंगवाद, संतान प्रादि परिभाषिक दर्शन शब्दों माहित्यसेवी और विर तथा जैन समाज के भीष्मपितामह का प्रामाणिकता से भावार्थ दिया है। प्राचार्य जगल- की जन्म शताब्दी पर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित किशोर की मुस्तार की यह एकान्त साहित्य-साधना प्राज करता हूं। 000 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य तपस्वी की घमर साधना स्वतन्त्र मनुष्य जन्म के समय तो प्राय: एक समान बालक होता है । यद्यपि पूर्व जन्म के सस्कार और अपने समय के वातावरण द्वारा उसका विकास भिन्नता लिए होता है, पर छोटी उम्र तक इतना अधिक प्रन्तर नही दिखाई देता 1 ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता चला जाता है, गुणों का विकास अधिक स्पष्ट हो जाता है। फिर भी कई बालक बाल्यावस्था में तो साधारण से लगते है, पर भागे लकर तेज निकल भाते है। उनकी प्रतिभा, परिचम, संयोग पोर परिस्थितियां अपना रंग दिखाती है। कभीकभी तो किसी ग्राकस्मिक संयोग से जीवन-धारा पूर्णतः बदल जाती हैं; एक विलासी व्यक्ति परित्यागी बन जाता है एक मूर्ख व्यक्ति पंडित बन जाता है। शारीरिक विकास भी इतना अधिक प्रन्तर वाला होता है कि एक ही व्यक्ति के समय-समय पर लिए हुए चित्रों से उसे पहचानना कठिन हो जाता है । बाल्यावस्था मे जो दुबला-पतला होता है, वह बड़ा होने पर काफी स्थून याने मोटा-ताजा हो जाता है। नेहरू जी प्रादि अनेक व्यक्तियों के बाल्याबस्था युवावस्था और बुद्धावस्था के अनेक चित्रों को देखते है तो यह कल्पना में भी नहीं खाता कि ये सभी एक ही व्यक्ति के चित्र हैं । कुछ इसी तरह का प्रान्तरिक चित्र स्वर्गीय श्री जुगल किशोर जी मुख्तार का भी मुझे दिखाई देता हैं । साधारणतया मुस्तारगिरी याने मुख्तारपने का काम या पेशा करने वाले व्यक्ति भिन्न प्रकार के होते है। मुख्तार साहब इस दृष्टि से एक निराले ही व्यक्ति ये जिन्होंने अपने जीवन के करीब ४० वर्ष साहित्य सेवा में लगा दिये। मुख्तार साहब की सक्षिप्त जीवनी डा० नेमिचन्द शास्त्री के द्वारा मिली हुई जैन विद्वत्परिषद से प्रकाशित हुई है उससे भी जो बातें ज्ञात नहीं थीं, वे प्रकाश में आई है। उनके निकट सम्पर्क में रहने वाले व्यक्ति और भी बहुत से प्रज्ञात श्री मगर चन्द नाहटा तथ्य बता सकते हैं। मुस्तार साहब की बहुमुखी प्रतिभा सतत अध्ययनशीलता मौर विशिष्ट लेखन अवश्य ही हमारे लिए एक स्पृहणीय व्यक्तित्व का भव्य चित्र उपस्थिति करता है मुस्तार साहब का परिचय हो मुझे बहुत पीछे मिला। पर जब मैं जैन पाठशाला में पढ़ता था तभी उनकी 'मेरी भावना' नामक कविता देखने को मिली और यह बहुत ही पच्छी लगी ऐसो सुन्दर भावना वाले व्यक्ति वीर' संज्ञक कौन हैं, इसका उस समय कुछ भी पता नही था । जब साहित्य शोध रुचि पनपी तथा अनेक नये नये ग्रंथों का अध्ययन चालू हुमा तभी मुख्तार साहब की 'ग्रन्थपरीक्षादि' पुस्तकें पढ़ने में भाई । कहाँ 'मेरी भावना ' के लेखक मुख्तार साहब और कहाँ 'ग्रन्थपरीक्षा' के लेखक मुस्तार साहब कुछ भी ताल-मेल नहीं बैठ सका। 'ग्रंथ-परीक्षा' मे गहरी छानवीन करके सत्य को बड़े नग्न रूप मे उपस्थित किया गया है जो श्रद्धाशील व्यक्तियों के लिए ममन्तिक प्रहार पोरकटू सत्य-सा कहा जा सकता है, क्योंकि जिन ग्रन्थों को जिन श्राचार्यों की रचना मानते रहे, उनको उन्होंने बहुत पर वर्ती रचनाएँ सिद्ध किया, और जिन विधि-विधान वाले ग्रन्थों को श्रद्धा एवं चादर की दृष्टि से देखा जाता था उनमें से रोमाचक बातों को प्रकाश में लाना जिससे उन ग्रंथो के प्रति धारणा ही बदल जाय इस प्रकार का क्रान्तिकारी कदम बहुत विरले व्यक्ति ही उठा पाते हैं। कई व्यक्ति सही बात को जानते भी है पर समाज के विद्रोह एवं निन्दा के भय से साहसपूर्वक उन्हें प्रकट नहीं कर पाते, जबकि मुख्तार साहब ने ' ग्रन्थपरीक्षा' में बड़ा निर्भीक और साहसिक कदम उठाया श्रीर परीक्षा का एक पादर्श उपस्थित किया । वास्तव में परीक्षक पक्षपात से काम नहीं ले सकता । उसे तो तथ्य पर ही पूर्ण निर्भर रहना पड़ता है । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-तपस्वी की अमर साधना मुख्तार साहब का वास्तविक परिचय तो मुझे जबसे से मिलना होता ही रहता था। मुख्तार साहब के वे बड़े उनका 'पनेकान्त' पत्र प्रकाशित होना प्रारम्भ हमा, तभी भक्त थे और उन्होंने मुख्तार साहब को काफी सहयोग मिला । 'पनेकान्त' प्रपने ढंग का निराला मासिक पत्र भी दिया। पर आगे चलकर कुछ बातों में मतभेद हो जाने देखने में पाया । उसमें सम्पादक की सत्य संशोधक वृत्ति, से उन दोनों को मैंने दुःखी-सा अनुभव किया। मन्तिम बार विशाल मध्ययन, गम्भीर चिन्तन,जैन साहित्य पोर शासन जब मुख्तार साहब से मिला तो उन्हें काफी परेशान-सा की सेवा भावना प्रादि कई बातें एक साथ देखने को पाया। उनकी इच्छा के अनुरूप कार्य नही हो रहा था, मिलीं, जिससे मैं बहुत प्रभावित हुप्रा । उनके सूचित इससे वे बड़े व्यग्र थे और संस्था के प्रति उदासीन भी पलभ्य ग्रन्थों की खोज का काम भी मुझे बहुत प्रावश्यक नजर पाये। मुख्तार साहव बहुत कर्मठ व्यक्ति थे और लगा। मुख्तार साहब ने ऐसे कई ग्रन्थों की सूची 'मने वीर सेवा मन्दिर की स्थापना द्वारा उन्होंने बहुत सुन्दर कान्त' में प्रकाशित की थी जिनका उल्लेख तो मिलता है स्वप्न देखे थे, अतः इच्छानुरूप कार्य न होते देख उन्हें पर प्रतियों के पस्तित्व का पता नहीं चलता। इसी तरह दुख होना स्वाभाविक भी था। यद्यपि वीर सेवा मन्दिर मुख्तार साहब के कई लेख तो बहुत ही पठनीय लगे। द्वारा अनेकान्त पत्र भी प्रकाशित होता है, दो विद्वान् भी उनसे मिलने का प्रसंग तो दिल्ली में वीर सेवा मंदिर वहां कार्यरत हैं, पर मुख्तार साहब के वहाँ रहते हुए जो व कार्यरत है की स्थापना के समय ही मिला। अपने व्यापारिक केन्द्र प्राकर्षणप्रद बात वहां थी वह उनके बाद दिखाई न देना कलकत्ता व प्रासाम जाते-पाते समय मैं दिल्ली में प्रायः स्वाभाविक ही है। मनेकान्त को जो रूप उन्होने दिया ठहर जाता और 'वीर-सेवा-मदिर' मे जाकर मुख्तार था उसमें भी परिवर्तन हुमा मौर अन्य कार्य जितनी साहब से मिलने की उत्सुकता रहती। इतने बड़े विद्वान् तेजी से हो रहे थे, उनकी गति भी मन्द पड़ गई। फिर होने की छाप तो मुझ पर पहले से ही भनेकान्त मोर भी उनके द्वारा स्थापित संस्था अच्छा कार्य कर रही है। उनके ग्रन्थों से पड़ चुकी थी, पर वे इतने सरल और प्रेम मुख्तार सा. के प्रारम्भ किये हुए 'लक्षणावली' ग्रंथ के मूति होंगे, इसकी कल्पना नहीं थी। मेरे लेख 'अनेकान्त' तृतीय(अन्तिम) भाग का प्रकाशन अब पूर्ण होने वाला है। में छपने लगे। इससे वे मेरी शोष प्रवृत्ति भोर रुचि से मुख्तार साहब वृद्धावस्था में भी जिस तरह कार्यरत भली भांति परिचित हो चुके थे। प्रतः प्रथम मिलन मे ही थे, दूसरे व्यक्ति विरले ही नजर पाते है । ६२ वर्ष की उन्होंने बहत हर्ष व्यक्त किया और इससे मुझे भी बड़ा उम्र में भी उनका स्वाध्याय और लेखन बराबर चलता मानन्द हुमा। फिर तो वीर सेवा मन्दिर उनसे मिलने के रहा, यह बहुत ही उल्लेखनीय है। अनेक ग्रन्थों पर उन्होंने लिए जाना एक जरूरी कार्य हो गया और प्राय. जब तक गम्भीर विवेचन लिखा । इन वर्षों मे उन सा झुकाव अध्यावे दिल्ली में रहे, मैं उनसे मिलने पहुंचता ही रहा। त्मिक ग्रन्थों की भोर अधिक नजर पाया। 'पुरातन वाक्य. नये-नये ग्रन्थों की खोज और उन पर प्रकाश डालने सूची' को तैयार करने और लेखकों का विस्तृत परिचय के लिए वे सदा तत्पर रहते थे। एक बार मैं जब वीरसेवा देने में उन्हें बहत मधिक अध्ययन पौर श्रम करना पड़ा मन्दिर गया तो उन्होंने मुझे अजमेर के भट्टारकीय भण्डार है। विविध विषयों पर उन्होंने काफी लिखा है। उनकी से लाई हुई कुछ प्रतियां दिखाई । छोटी या बड़ी कोई भी सत्यनिष्ठा, मध्ययनशीलता, अटूट लगन और गम्भीर रचना उन्हें अच्छी लगती तो उसके सम्पादन, अनुवाद चिन्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दान को उन्होंने एवं प्रकाशन में वे जुट जाते । प्रारम्भ मे वे मुझे कुछ परिग्रह का प्रायश्चित बतलाया। इस तरह के भनेक नये सम्प्रदायनिष्ठ लगे, पर मेरे साथ उनका व्यवहार सच्चे विचार उनके द्वारा हमे मिले । शारीरिक स्वास्थ्य भी स्वधर्मी-वात्सल्य के रूप में ही रहा। अच्छा था, अतः विचार भी उच्च थे। उन्होंने अपनी सम्पत्ति बीच में मैं एक बार मिलने गया तो कलकत्ते के बाबू का बहुत अच्छा सदुपयोग किया। समाज और साहित्य के छोटेलाल जी जैन भी बहीं थे। कलकत्ता में छोटेलाल जी [शेष पृष्ठ २५ पर] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तारश्री और समीचीन धर्म शास्त्र 0 श्री सी. एत. सिंघई 'पुरन्दर' स्वतन्त्र भारत ने सारनाथ स्थित प्रशोक स्तम्भ के मीमांसा की ताइपत्रीय प्रति में राजकुमार प्रकट किया शीर्षस्थ सिंहों को राज्य चिह्न के रूप में अपनाकर सम्राट गयाप्रशोक द्वारा धर्म विजप को युद्धविजय से श्रेष्ठ प्रदर्शित 'तिमी फणिमण्डलालंकारस्योरगपुराधिप सुनोः, करने वाली नीति का महत्व प्रतिपादित किया। इस श्रीस्वामीसमन्तभनमुनेः कृती भाप्तमीमांसायाम् ।' देश में दिग्विजयी सम्राों के स्वर्ण-मकुट धर्मविजयी संतों उन्हें धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र और साहित्यशास्त्र के के चरणों में झुकते रहे हैं लगभग दो सहस्र वर्ष पूर्व ऐसी साथ ज्योतिषशास्त्र, मायुर्वेद, मन्त्र, सन्त्रादि विषयों में धर्मविजय फणिमण्डलांतर्गत उरगपुर (पांड्य प्रदेश की भी निपुणता प्राप्त थी, जैसा कि निम्नांकित मात्म-परिचय राजधानी) के संन्यस्त राजपुत्र ने की थी। करहाटक की से प्रकट है :राजसभा में उसने निम्नाकित श्लोक के रूप मे ग्रात्मपरि "प्राचार्योह, कविरहमहं, वाविराट्, पंडितोह, चयादि दिया था, जो श्रवण वेल्गोल के शिलालेख देवशोह, भिषगहमह, मान्त्रिकस्तांत्रिकोहं । (शिला लेख क्र. ५४) मे उत्कीर्ण है। राजन्नस्यां जलषिवलयामेखलायाभिलायाम, "वं पाटलिपुत्रमध्य नगरे भेरीमया ताडिता, प्राज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिखसारस्वतोहम् ॥" पश्चान्मालव सिंघु-ठक्क-विषये कांचीपुरे बंदिश । उक्त पद्य में प्राचार्य प्रवर के १० विशेषणों का प्राप्तोऽपि हं करहाटकं बहुभट विद्योत्कट सकटं, उल्लेख हुआ है :वावार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥" (१) प्राचार्य, (२) कवि, (३) वादिराट्, (४) इस गर्वोक्ति से प्रकट होता है कि न केवल दक्षिण पडित, (५) देवज्ञ (ज्योतिषी), (६) भिषक, (७) भारत की कांची नगरी के वादथियों को स्वामी समन्त- यांत्रिक, (८) तात्रिक, (६) प्राज्ञासिद्ध, (१०) सिद्ध भद्र ने पराजित किया था, अपितु उत्तर भारत स्थित सारस्वत । पाटलिपुत्र (पटना), मालवा, सिन्धु, ठक्क (पजाब का एक स्वामी समन्तभद्र की तुलना में निर्भीक एवं प्रभावक भाग), विदिशा (माजकल मध्यप्रदेश में है) प्रादि में भी अन्य प्राचार्य नही ठहरते। इसी से स्व०प० जुगलकिशोर विजयपताका फहराई थी। उक्त श्लोक तो विख्यात है। उन पर मग्ध थे। मुख्तार साहब ने समीचीन धर्मशास्त्र की प्रस्तावना मे श्री समन्तभद्र की दो अन्य गर्वोक्तियां भी अकित की है जिनका उन्होंने २१ अप्रेल, १६२६ को दिल्ली में समन्तभद्रामधिक प्रचार नहीं हो सका है - श्रम की स्थापना की थी। प्रागे चलकर यही वीर मेवा मन्दिर कहलाया। उन्होंने प्राचार्यश्री के अनेक ग्रन्थों पर "कांच्या नग्नाटकोऽहं. मलमलिनतनुलुंविशे पडिपिडा, भाष्य लिखे और उन्हें सटीक प्रकाशित कराया। उनकी पुण्ड्रोई शाकभक्षी, बशपुरनगरे मिष्टभोजीपरिवाट । अन्तिम इच्छा एक मासिक पत्र पौर निकालने की थी, वाराणस्थामभूवं शशधरघवलः, पांडुरागस्तपस्वी, जिसका नाम भी समन्तभद्र' प्रस्तावित किया था। राजन् यस्याऽस्तिशक्तिः , सबवति पुरतो जननियवावी।" प्रस्तावित मासिक-पत्र की पावश्यकता की पूति, वीर सेवा कांची के इस नग्नाटक (विगम्बर साधु) को प्राप्त मन्दिर से प्रकाशित अनेकान्त ही करेगा, ऐसी माशा है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तारी और समीचीन धर्मशास्त्र श्री समन्तभद्र के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक ग्रन्थकर्ता के अन्यान्य ग्रन्थ कठिन भाषा में है भौर लोकप्रियता उनके उपासकाचार को प्राप्त होने का कारण, विषय भी दुरुह है। प्रतः कुछ विद्वानों को संदेह हुमा इस ग्रन्थ की सरल संस्कृत भाषा और अधिकतर अनुष्टप कि देवागम, युक्त्यनुशासन जैसे ग्रन्लों के कर्ता उभट छन्दों में गृहस्थाचार का विशद विवेचन है। 'गागर मे विद्वान प्रसिद्ध प्राचार्य समन्तभद्र ने यह ग्रन्थ नहीं लिखा। सागर' भर दिया है। विषयवस्तु पोर शैली दोनों ही इसके कर्ता कोई दूसरे ही समन्तभद्र होंगे। इस संदेह का उत्कृष्ट है। प्रधान कारण है इस ग्रन्थ में उस तर्कपद्धति का प्रभाव सर्वप्रथम इसको संस्कृत टीका श्री प्रभा चन्द्राचार्य ने जो प्रन्य ग्रन्थों में प्राप्त है। स्व. मुख्तार सा० ने इसे लिखी। कन्नड़, मराठी प्रादि भाषामों में अनेक टोकायें सप्रमाण श्री समन्तभद्राचार्य प्रणीत सिद्ध किया है। इसी लिखी गई। हिन्दी मे सर्वप्रथम विस्तत भाष्य पंडित सम्बन्ध में डा. हीरालाल जैन ने १९४४ ई० में एक सदासुख कासलीवाल (जयपुर निवासी) ने लिखा जो निबन्ध लिखा था-'जैन इतिहास का एक विलुप्त ढूंढारी गद्य में है। जयपुर के प्रासपास का क्षेत्र हुँदार प्रध्याय । इसका विस्तृत और सप्रामाण उत्तर मुख्तार कहलाता है । यह भाष्य वि० सं० १९२० मे लिखा गया। सा० ने अनेकान्त द्वारा १९४८ में दिया था, जिसे विस्तारमुख्तार सा० ने श्रावकाचार की विस्तृत व्याख्या २०० पूर्वक इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में दिया है। प्रस्तावना में पृष्ठों में की है और ११६ पृष्ठों मे तो केवल प्रस्तावना ६ अन्य समन्तभद्रों का उल्लेख करने के पश्चात् यह ही लिखी, जिसे माघ सुदी ५ स. २०११ वि० को पूर्ण निष्कर्ष निकाला है कि ये अन्य उन्ही समन्तभद्र स्वामी किया। जीवन के बहमूल्य १२ वर्ष इसमें लगाये। यह की रचनाएँ हैं जिनकी कृतियाँ प्राप्तमीमासादि है। प्रन्थ वीर सेवामन्दिर से प्रल १९५५ ई० में प्रकाशित वास्तव में प्राचार्यश्री ने ये ग्रन्थ लिखकर बालकों हुमा है। एवं बालचुद्धि गृहस्थों पर प्रत्यन्त अनुग्रह किया है। प्रत्येक परीक्षालय ने इसे पाठ्यक्रमो मे स्थान दिया है, प्रत्येक स्व० मुख्तार सा० ने ग्रन्य का बहुप्रचलित नाम रत्न- पाठशाला में इसका पठनपाठन होता है, प्रत्येक जिनमन्दिर करड श्रावकाचार न रखकर 'समाचीन धर्मशास्त्र' रखा तथा मशिक्षित गस्थ के गढ़ में यह प्राप्तव्य है। है। प्रन्यकर्ता श्री समन्तभद्र ने ग्रन्थारम्भ मे सकल्प किया है कि इस ग्रन्थ की अनेक बालबोधटीकाएं हिन्दी में हुई देशयामि 'समीचीन धर्म-कर्म-निवहणं । है। सोनगढ से भी हिन्दी टीका सहित यह ग्रन्थ प्रकाशित संसारदु:खतः सत्वान् यो परत्युत्तमे सुखे ॥२॥ हुप्रा है। 'समीचीन धर्मशास्त्र' क प्राक्कथन डा. वासुदेवशरण मुख्तार सा० ने रत्नकरण्ड नाम प्रन्यांत के निम्न अग्रवाल एव (भामुख) डा० मा० ने० उपाध्ये महोदय लिखित इलोक से फलित किया है : से लिखा कर गौरववृद्धि की गई है। समर्पण पत्र थी येन स्वयं बीत कलंक विद्या-ष्टि-क्रिया- रत्नमरंट'-भावं। समन्तभद्रं स्वामी के नाम हैं :नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिविष्टपेषु ॥१४६ स्ववीयं वस्तु भोः स्वामिन् ! तुम्यमेव समर्पितम् ।' ग्रन्थकर्ता ने अन्य ग्रन्थों के भी दो-दो नाम गिनाये हैं, जैसे-देवागम का प्रपरनाम प्राप्तमीमांसा, स्तुति ग्रन्थ को ७ सात अध्यायों में विभक्त करना मुख्तार विद्या का प्रपर नाम जिनस्तुतिशतक या जिनशतक, स्व- सा० की सूझबूझ है। यह विभाजन बड़े अच्छे डग से यंभस्तोत्र का अपर नाम समन्तभद्र स्तोत्र, और यह भी किया गया है। लिखा है कि वे सब प्रायः अपने-अपने प्रादि या अन्त के स्व. पं. पन्नालाल बाकलीवाल ने १८९८ ई. में पद्यों की दृष्टि से रखे गये हैं। अन्य के २१ पद्यों के क्षपक होने का संदेह व्यक्त किया Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष ३०, कि०३-४ था। मराठी भाषा के विद्वान पं० नाना रामचन्द्र नाग ने श्लोक क्र. ५६ में 'परदार-निवृत्ति' की व्याख्यातो केवल १०० श्लोक मान्य करके ५० कम कर दिये। जो स्वदार नही, वह परदार है। कुछ लोग परदार का मखतार सा० को जैन सिद्धान्त भवन, पारा मे ताडपत्रीय अर्थ पर की स्त्री करते हैं। एकमात्र उसी का त्याग करके ऐसी प्रतियां भी प्राप्त हुई हैं जिनमे १६० श्लोक है परन्तु कन्या तथा वेश्या सेवन की छूट रखना संग प्रतीत नहीं उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया कि वास्तव मे १५० श्लोक होता । होना चाहिए। उन्होंने श्री प्रभाचन्द्राचार्य एवं पं० सदा- इलोक क्र. ७७ में हिसादान की व्याख्या-हिंसा के सुख कासलीवाल के चरणचिन्हो पर चल कर समीचीन : ये उपकरण यदि कोई गृहस्थ इसलिए मांगे देता है कि धर्मशास्त्र मे १५० श्लोक ही रखे ।। उसने भी मावश्यकता के समय उनसे वैसे उपकरणों को श्री समन्तभद्राचार्य का विस्तृत परिचय २५ पृष्ठो में मांग कर लिया है और मागे भी उसके लेने की सम्भावना दिया है जिसे मुख्तार सा० ने 'सक्षिप्त परिचय' कहा है। है तो ऐसी हालत में उसका वह देना निरर्थक नहीं कहा इसका कारण यह है कि उन्होंने भाचार्य प्रवर के सम्बन्ध जा सकता। उस में भी यह कुछ वाधा नही डालता । जहाँ में बहुत शोध की थी, इसलिए इतना लिखने पर भी लगता इन हिंसोपकरणों को देने में कोई प्रयोजन नही है, वही था कि बहुत कम लिखा है। यह व्रत वाधा डालता है। श्री प्रा० ने० उपाध्ये ने भूमिका में लिखा है कि इलोक क्र. ८५ मे वे ही कंदमूल त्याज्य हैं फो प्रासुक 'हिन्दी व्याख्या केवल मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद नहीं है, प्रथया प्रचित्त नही है। प्रासुक कंदमूलादि वे कहे जाते हैं बल्कि जैन न्याय सम्मत विषयो पर कुछ सदृश प्रकरणों जो सूखे होते है, अगम्यादिक मे पके या स्खूब तपे होते है, को श्री समन्तभद्र तथा उनके पूर्ववर्ती ग्रन्थकारो के ग्रन्थों खटाई तथा लवण से मिले होते है अथवा यंत्रादि से छिन्नसे लेकर गुण-दोष-विवेचिका विचारणा को भी प्रस्तुत भिन्न किये होते है, जैसा कि निम्न प्राचीन प्रसिद्ध गाथा करती है।' से प्रकट है :व्याख्या के क्रम मे कुछ शब्दो की शोधपूर्ण विवेचना "सक्कं पक्कं तत्तं, विल लवणेण मिस्सियं दध्वं । दृष्टव्य है। यथा - लोक क्र. २८ मे 'पाषंडि' का प्रचलित अर्थ घर्त, जं जंतेण य छिण्णं, तं सध्वं फासयं भणियं ॥" टमी या कपटी अमान्य करके पाप का खडन करने वाला नवनीत मे अपनी उत्पत्ति से अंतर्मुहर्त के बाद ही तपस्वी किया है। इसी प्रर्थ मे श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत सम्मूच्छंन जीवों का उत्पाद होता है। अत: इस कालसमयसार की गाथा ऋ० १०८ प्रति प्राचीन साहित्य में मर्यादा के बाहर का नवनीत ही वहाँ त्याज्य कोटि में है, प्रयुक्त होना बताया है। इसके पूर्व का नही। __ श्लो० ऋ० २८ में 'मातगदेहजम्' का अर्थ चाडाल लोक ८६ मे 'अनुपसेव्य' की व्याख्या-स्त्रियो को का काम करने वाला ही नहीं, चाण्डाल के देह से उत्पन्न ऐसे प्रति महीन एव झीने वस्त्र नही पहनना चाहिए अर्थात् जन्म या जाति से चाण्डाल भी किया है। जिनसे उनके गुह्य अंग स्पस्ट दिखाई पड़ते हों। श्लोक क्र. ५८ मैं 'विलोम' की व्याख्या है अल्प श्लोक ऋ. ११६ में द्रव्यपूजा की व्याख्या-वचन मूल्य में मिले हुए द्रव्यो को अन्य राज्य मे बहुमूल्य बनाने तथा काय को अन्य व्यापारों से हटा कर पूज्य के प्रति का प्रयत्न । इससे अपने राज्य की जनता उन द्रव्यों के प्रणामांजलि तथा स्तुति पाठादि के रूप में एकाग्र करना उचित उपयोग से वंचित रह जाती हैं। इसलिए यह एक ही द्रव्यपूजा है । जल, चन्दन, अक्षतादि से पूजा न करते प्रकार का अपहरण है। विलोप में दूसरे प्रकार का अप- हुए भी पूजक माना है। श्री अमितगति प्राचार्य के उपाहरण भी शामिल है जो किसी की सम्पति को नष्ट करके सकाचार से भी द्रव्यपूजा के इसी मथं का समर्थन होता स्तुत किया जाता है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तारी और समीचीन धर्मशास्त्र बचो-विग्रह-संकोचो, द्रव्यपूजा निगद्यते। संयुक्त किरण ११-१२ में प्रकाशित हुआ था। तत्र मानससंकोचो, भावपूजा पुरातनः।" इसी श्लोक में 'गृहतो मुनिवनमित्वा' से मूचित किया श्लोक क्र. १४७ में 'भक्ष्य' को व्याख्या-भक्ष्य का है कि मुनिजन तब वनवामी थे, चैत्यवासी नहीं थे। श्री मर्थ भिक्षासमूह है। उत्कृष्ट श्रावक अनेक घरों से भिक्षा पं० नाथूराम प्रेमी ने 'वनवासी और चत्यवासी' शीर्षक लेकर मन्त के घर या एक स्थान पर बैठकर खाता है, शोषपूर्ण लेख १९२०ई० में जनहितषी में प्रकाशित कर जिसका समर्थन श्री कुंदकुंदाचार्य के सुत्तपाहुड में पाए हुए इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। 'भिक्खं भमेह पत्तों से होता है (पात्र हाथ में लेकर भिक्षा उक्त दृष्टांतों से प्रकट होता है कि स्व०६० जुगलके लिए भ्रमण करना)। ग्यारहवीं प्रतिमा के क्षुल्लक किशोर का जान तल था और ऐलक भेद श्री समन्तभद्र स्वामी के समय में नहीं थे। नाए' बेजोड़ थीं । वाङ्मयाचार्य की उपाधि से वे विभूषित श्री मस्तार सा. क्षुल्लक पद को पुराना और ऐलक पद किये गये थे । काश! जैन समाज ने कोई यिश्वविद्यालय को पहचादर्ती मानते थे, जैसा कि उनके गवेषणापूर्ण निबंध स्थापित किया होता तो निश्चयरूपेण वे डाक्टरेट की ऐलक पद-कल्पना' स्पष्ट है, जो अनेकान्त, वर्ष १० की मानद उपाधि से विभूषित किये गये होते। 000 [पृष्ठ २१ का शेषांश] लिए उनका सर्वस्व दान प्रशंसनीय ही नहीं, अनुकरणीय जाय । अन्त में उनकी जन्म शताब्दी के पुण्य अवसर पर भी है। जैसा कि मैंने अपने 'जैन सन्देश' वाले लेख मैं माननीय मुख्तार साहब को सादर श्रद्धांजलि अर्पित में लिखा था उनकी प्रतिम भावनामों को हमें शीघ्र ही करते हुए मेरे प्रति उनका जो वात्सल्य भाव था उसे मूर्त रूप देना चाहिए । अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हो स्मरण कर गद्गद् होता है। वास्तव में मुख्तार साहब ने सका तो अनेकान्त का 'स्मृति-प्रक' ही निकला। वीर सेवा अपने जीवन मे इतना काम किया कि वे व्यक्ति ही नहीं मन्दिर को एक शोध केन्द्र का रूप दिया जाय । दिल्ली में संस्था बन गये । पुण्य प्रभाव से मुख्तार साहब ने मृत्यु भी ऐसी संस्था उचित व्यवस्था करने पर बहुत उपयोगी हो अच्छी पाई और स्वास्थ्य भी ठीक रहा । लगन थी ही, सकती है। उसके ग्रंथालय कोस मृद्ध बनाया जाय और प्रतः वे काफी कार्य कर सके। लोग अधिकाधिक लाभ उठा सकें, ऐसी सुव्यवस्था की [100 ऋषभ वन्दना अग्निमीड़े पुरोहितं यक्षस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम् । अग्निः पूर्वभिऋषिभिरी उत्रो नतनैरुत स देवो एह वक्षषि ।। ऋग्वेद १.१.१.२ ऋषभ वन्दना जन्म-मृत्यु से भरे संसार को अग्र-नेता प्रादि ब्रह्मा की हवि के प्रदाता, वन्दना के स्वर जगाता हूँ। दिव्य शक्तिवाँ वे मेरे सानिध्य में लायें, विश्व के जो हैं हितेषी, प्रात्म वैभव जागृत करके सर्व कार्यों के शुभारम्भ में मुझे पावन बनाय। जिन्हें प्राह्वान करना है जरूरी, मैं ऋषभ की वन्दना के स्वर जगाता हूँ। मुक्ति पथ के यात्रियों को जो सदा प्रादर्श, प्रस्तोता : श्री मिश्रीलाल जैन त्रिरत्नधारी, एडवोकेट, गुना Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार श्री की बहुमुखी प्रतिभा 0 पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री साहित्य के अनन्य उपासक स्व. पं० जुगलकिशोर अध्ययन से जो उत्कृष्ट प्राध्यात्मिक और सैद्धान्तिक जी मुख्तार एक ख्यातिप्राप्त इतिहासकार थे। उनका ज्ञान प्राप्त किया, वह पाश्चर्यजनक था। इस प्रकार से लौकिक शिक्षण हाई स्कूल तक ही हो मका था। घानिक जो उ होने प्रपर पाण्डित्य प्राप्त किया उसके बल पर शिक्षण भी एक स्थानीय (सरसावा) छोटीसी पाठशाला ही स्वयभूरतोय, युक्त्तनुशासन, रत्नकरण्डश्रावकाचार, में साधारण ही हया था। परन्तु वे बाल्यावस्था से ही तत्त्वानुशागन, देवागभस्तोत्र, कल्याण कल्पद्रुम (एकीभावभतिशय प्रतिभाशाली रहे है, तणाशक्ति भी उनकी स्तोत्र) और योगसार प्राभूत जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रथों पर पदभत थी। इसीलिए वे मुरुचिपूर्ण सतत अध्यवसाय से भाष्य लिने है । यथ के अन्तर्गत रहस्य को प्रस्फुटित करने एक प्रादर्श माहित्य स्रष्टा और समीक्षक हो सके। उन्होने वाले उनके इन भाष्यों की गापा भी तदनुरूप सरन मोर जीवन में वह महान कार्य किया है जो उच्च शिक्षा प्राप्त सुबोध है । इन भागो के परिशीलन से ग्रयकार के अभिकरने वाले विद्वानों से सम्भव नही हुमा । प्राय को समझने मै किमी की कोई कहिनाई नही हो जिस समय समाज में रूढिवाद प्रबल था, उस समय सकती। उसकी पद पति यह रही है कि प्रथमत. ग्रथ क उन्होंने घोर सामाजिक विरोध का दृढता में सामना करते विवक्षित लोक प्रादि का नपे तुरे शब्दों में शब्दानुवाद हए, भट्रारकों के द्वारा भद्र बाह, कुन्द कुन्द, पूज्यपाद और करते हुए यदि उममे कही कुछ विशेष शब्दार्थ की पावप्रकलंक जैसे प्रतिष्ठाप्राप्त पुगतन प्राचार्यों के नाम पर श्यकता दिखी तो उसे दो डंगो(--) के मध्य मे स्पष्ट जो भद्रबाहुसंहिता, कुन्दकुन्द-थावकाचार, पूज्यपाद श्रावका- कर देना और तत्पश्चात् वाक्यगत पदों की गम्भीरता को चार और प्रकलंकप्रतिष्ठा-पाठ प्रादि ग्रन्थ लिख गये है देखकर व्यारूपा के रूप मे तद्गत ग्रन्थाकार के प्राशय को उनका अन्त.परीक्षण कर उन्हे जैनागम के विरुद्ध सिद्ध उदघाटित कर देना। किया। समय-समय पर लिखे गये उनके इस प्रकार के म. सा. कुशाग्रबुद्धि तो थे ही, साथ ही वे अध्ययननिबन्ध 'ग्रन्थ-ममीक्षा' के नाम से पुस्तकरूप में ४ भागो मे शील भी थे। जब तक वे किमी ग्रथ का मननपूर्वक पूर्ण. प्रकाशित हुए है। उनके इस दृढतापूर्ण कार्य को देखकर तया अध्ययन नहीं कर लेते तब तक उसके अनुवादादि मे यह कहना अनुचित न होगा कि उन्होंने ग्राचार्य प्रभाचन्द्र प्रवत्त नहीं होते थे । अावश्यकतानमार वे एक-दो बार ही की 'त्यजति न विदधानः कार्यमुद्विज्य धीमान् खल जनपरि. नी.बीसो बार ग्रंथ को पढते थे। साथ ही ग्रंथ में जहांवृत्तेः स्पर्वते किन्तु तेन ।' इस उक्ति को पूर्णतया चरितार्थ तहां प्रयुक्त विभिन्न शब्दों के अभीष्ट प्राशय के ग्रहण किया है। उन्होने जिम विरोधी वातावरण में इस कार्य इस कार्य करने का भी पूरा विचार करते थे। कारण कि इसके बिना को सम्पन्न किया है उसमे अन्य किमी को यह माहम नहीं गंव के मर्म का उदघाटित नही किया जा सकता। हो गकता था कि उार्यक्त प्रयो को इस प्रकार से अप्रा. माणिक घोषित कर सके। उदाहणार्थ समीचीन-धर्मशास्त्र-उनके रस्नकरण्डभाष्यकार के रूप में : श्रावकाचार के भाष्य---को ही ले लीजिए। वहां श्लोक उन्होने सलग्नतापूर्वक निरन्तर चलने वाले अपने २४ मे 'पापण्डी' द्यब्द का प्रयोग हमा है। इसका प्राचीन १. योगसार-प्राभूत की प्रस्तावना (पृ० २५) मे उन्होने स्वयं उस ग्रथ के सौ से भी अधिक बार पूरा पढ़ जाने की सूचना की है। २. सग्रन्थारम्भ-हिसानां संसाराऽऽवर्तवर्तिनाम् । पापण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् ॥ (स. घ.शा. २४, पृ. ५६) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार श्रीकी बहुमुखी प्रतिभा मयं मूल में 'पाप का खण्डन करने वाला (साधु)' रहा में परिचय करा देना चाहता हूं। यह भाष्य उन्होने लगभग है। पर बाद में वह 'पूर्त' या 'ढोगी' अर्थ में रूढ हो गया। ८५.८६ वर्ष की अवस्था मे लिखा है। उसके पढ़ने से मनु. प्रब यदि उसके उपर्यत माशय को न लेकर वर्तमान म मान किया जा सकता है कि इस वृद्धावस्था मे भी-उब प्रचलित 'धृतं' अर्थ को ले लिया जाय तो प्रकृत श्लोक का कि बहुतो की वृद्धि व इन्द्रियां काम नहीं करतीं-- उनकी पर्थ ही प्रसगत हो जाता है। कारण कि वहां पाखण्डियों ग्रहण-धारण शक्ति कितनी प्रबल रही है । के पादर-सत्कार को पाखण्डिमूढ़ना-जो पाखण्डी रही है इसकी प्रस्तावना (पृ० १७-१६) में उन्होने ग्रन्थ के उहें पाखण्डी समझ लेना-~बतलाया है । अब यदि पाखडी 'योगसार-प्राभत' इस नाम की सार्थकता को प्रकट करते का अर्थ 'धतं' ग्रहण कर लिया जाता है तो उसका अभि• हए बतलाया है कि यह नाम योग, सार और प्राभत इन प्राय यह होगा कि जो वास्तव मे घूर्त नहीं है, उन्हे धूर्त तीन शब्दो के योग से निष्पन्न हना है । इनमे योग शब्दके मानकर उनका धर्ती जमा प्रादर-सत्कार करना, इसका अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए नियमशार (गा० १३७-३६) नाम पाखण्डिमुढना है। यह अर्थ प्रकृत में कितना के प्राचार में नजला, के प्राधार से बतलाया है कि प्रात्मा को गगादि के परिप्रसगत व विपरीत हो जाता है यह ध्यान देने के योग्य त्याग और ममस्त मकल्प-विकल्पो के अभाव मे जोड़नाहै और जब उसका यथार्थ अर्थ 'पाप का खण्डन करने उससे सयुक्त करना, इसका नाम योग है। साथ ही विपवाला समीचीन साधू' किया जाना है तब वह प्रकृत में संगतीत अभिप्राय को छोडकर जिनोपदिष्ट तत्वों मे अात्मा होता है जो प्रथकार को प्रभीष्ट भी रहा है । यथा-- को सयुक्त करना, यह भी योग कहलाता है। योग शब्द का "जो परिग्रह, प्रारम्भ और हिमा में निरत है तथा यह अर्थ 'उनकि प्रात्मानिमिति योगः' इम निरुक्ति के अन्भ्रमण कराने वाले कुस्मित क.यं रूप पावत - जल का सार किया गया है। इसका फलितार्थ यह हया कि रागादि जसने रूप भंवर --मे फसे हा हे, ऐस बेषधारी के साथ समस्त सका विकल्पो को छोड़कर तस्वविचार मे साधनो को यथार्थ साधु समझकर उनका यथार्थ साधुग्रा के सलग्न होना, इस प्रकार की प्रशस्त ध्यातरूप प्रवृत्ति का समान आदर-सत्कार करना, इसका नाम पाखण्डिमूढ़ता- नाम योग है। पसक यथार्थ साधूविषयक प्रज्ञान- है'।" दसरा जो सार शब्द है, उसका अर्थ विपपीतता का इससे पाठक समझ सकते हैं कि श्रद्धेय मुख्तार साहब परिहार-यथार्थता - है (नि० सा० ३)। इस प्रकार लस्पर्शी मध्येता थे । विवक्षित ग्रथ की व्याख्या के 'योगसार' का अर्थ हुप्रा - विपरीतता से रहित योग का म हीने उसके समक्ष अन्य अनेक ग्रयो का गम्भी- यथार्थ स्वरूप । इसके अतिरिक्त श्रेष्ठ, स्थिराश, सत् और पण अध्ययन किया है। इस स वे व्याख्येय ग्रथो में नवनीत, इन प्रों में भी उक्त सार यात्रा का प्रयोग देखा नातलनात्मक रूप से अन्य कितने ही प्रथा के उद्धरण जाता है। तदनुनार 'योगसार' का अर्थ 'योगविषयक दे सके है। साथ ही उन्होन महत्वपूर्ण प्रस्तावनामो में भी कथन का नवनीत' ममझना चाहिए। जिस प्रकार दही को इस ममको उद्घाटित किया है। पर्याप्त चिन्तन के साथ बिलोकर उसके सारमन अश नवनीत को निकाल लिया ही उन्होंने विवक्षित इलोक आदि की व्याख्या की है। ग्रथ जाता है, उमी प्रकार अनेक योगविषयक प्रथो का मंथन के मर्म को प्रस्फुटित करने के लिए जहा जिगना प्रावश्यक करके उनका सागशम्प प्रकृत योगमार ग्रंथ है। था उतना ही उन्होंने लिखा है -अनावश्यक या ग्रंथ के तीसरा शब्द प्राभूत है, जिसका अर्थ 'भेट' होता है। बाह्य उन्होने कुछ भी नही लिख।। तदनुसार जिस प्रकार किसी राजा आदि के दर्शन के लिए __ मुख्तार सा० का यह कार्य इतना विस्तृत है कि उस जाने वाला व्यक्ति उसे भेंट करने के लिए कुछ न कुछ सारसबका परिचय कराना अशक्य है। यहा मैं केवल उनके भूत वस्तु ले जाता है, उसी प्रकार परमात्मारूप राजा का अन्तिम भाष्य-योगसार-प्राभूत की व्याख्या--का संक्षेप दर्शन करने के लिए भेटरूप यह ग्रंथकार का प्रकृत ग्रंथ है। २. देखिए समीचीन-धर्मशास्त्र मूल पृ. ५६ और प्रस्तावना पृ० ६-११ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ वर्ष ३० कि० ३-४ मनेकान्त निष्कर्ष यह हुआ कि यथार्थ योगस्वरूप का प्ररूपक यह योगसार प्राभृत ग्रन्थ अध्येता के लिए परमात्मा का साक्षास्कार कराने वाला है । जयधवला (१, पृ० ३२५ ) के अनुसार प्राभृत (प्र+घाभूत) यह होता है जो प्रकृष्ट पर्यात् सर्वोकृष्ट तीर्थंकर द्वारा प्रस्थापित हुआ है, अथवा प्रकृष्ट अर्थात् विद्यास्वरूप थन से सम्पन्न ऐसे भारतीय श्राचार्यो के द्वारा धारण किया गया - जिसका व्याख्यान किया गया हैया पूर्व परम्परा से जो लाया गया है । यह है मुख्तार सा० की सूक्ष्म दृष्टि जो ग्रन्थकार के हृदय को स्पर्श कराती है । इम ग्रन्थ-नाम की यथार्थता मे ग्रंथकार को योग शब्द से उपर्युक्त प्रशस्त ध्यान ही अभीष्ट रहा है। यथा है- (१) जीवाधिकार (२) जीवाधिकार, (३) घाल वाधिकार, ( ४ ) बन्धाधिकार, (५) संवराधिकार ( ६ ) निर्जराधिकार, (७) मोक्षाधिकार और (८) चारित्राविकार प्रतियों में नौवें अधिकार का कोई विशेष नाम नहीं उपलब्ध हुआ उसका उल्लेख प्राय: 'नवमाधिकार' - के नाम से हुआ है । भाष्यकार ने उसका निर्देश 'चूलिका धिकार' नाम से किया है। इसका स्पष्टीकरण उन्होंने इस प्रकार से किया है- "दूसरे अधिकारों की तरह उसका कोई खास नाम नही दिया गया, जबकि ग्रंथसन्दर्भ की दृष्टि से उसका दिया जाता आवश्यक था। वह अधिकार सातों तत्त्वों तथा सम्यक्चारित्र जैसे आठ अधिकारों के अनन्तर 'चूलिका' रूप में स्थित है - अधिकारों के विषय को स्पर्श करता हुआ उनकी कुछ विशेषताओंों का उल्लेख करता है और इस लिए उसका नाम यहां 'चूलिकाकार' दिया गया है। जैसे किसी मन्दिर (भवन) की वृलिका चोटी उसके कलशादि के रूप में स्थित होती है, उसी प्रकार 'योगसार प्राभूत' नामक इस ग्रंथ भवन की चूलिका चोटी के रूप में यह नवमा अधिकार स्थित है, अतः इसे 'चूलिकाधिकार' कहना समुचित जान पड़ता है ।" विविकारमपरिज्ञान योगात् संजायते यतः । योगो योगभितो योगनिपातः ॥ -यो० सा० प्रा० ६-१० अर्थात योग से कर्म कालिमाको पो डालने वाले योगियों ने योग उसे ही कहा है जिसके प्राश्रय से विविक्त - समस्त पर भावों से भिन्न शुद्ध - श्रात्मतत्त्व का बोध होता है। इस प्रकार, चूकि वह ग्रात्माववोध प्रशस्त ध्यान से ही सम्भव है, अतः वही प्रकृत मे ग्राह्य रहा है । इस प्रकार अपने उक्त सार्थक नाम के अनुसार योगस्वरूप की प्ररूपणा करने वाला प्रस्तुत ग्रंथ अतिशय मनोमोहक है उसकी भाषा सरल व मूलित है। विषय के प्रतिपादन की शैली भी उत्कृष्ट है । ग्रंथकार श्री श्रमितगति ने भगवान् कुन्दकुन्द के समस्त साध्यात्मिक साहित्य का मनन कर तदनुसार ही इस ग्रंथ की रचा है। उसके बहुत से लोकों में समयसारादि ग्रंथोंकी छाया स्पष्टतया दृष्टि गोचर होती है। इसे भाष्यकार तुलनात्मक रूप से कहीं अपनी व्याख्या के मध्य में प्रोर कही टिप्पणी के रूप मे इतर ग्रथगत समान उद्धरणो को देकर स्पष्ट भी कर दिया है। ग्रंथ का प्रमुख विषय योग है। उसके विवेचन के लिए जिन प्रासंगिक विषयों का जीवाजीवादि तत्वों का विवेचन श्रावश्यक प्रतीत हुम्रा, उनका भी वर्णन ग्रंथ मे कर दिया गया है। तदनुसार ग्रंथ इन नो अधिकारों में विभक्त १. मादा णाणपमाण णाण शेयष्यमाणमुद्दिट्ठ । णेय लोगालोगं तम्हा णाण तु सव्वगय || - (प्रस्तावना पृ० २५) ग्रंथगत समस्त श्लोक संख्या ५४० है । विषय का विवेचन अधिकारों के नागानुसार यथास्थान रोचक प्राध्यात्मिक पद्धति से किया गया है। उसका परिचय भाष्यकार ने प्रस्तावना पृ० २५-३१ मे श्लोक संख्या के निर्देशपूर्वक स्पष्टता से करा दिया है । प्रथम जीवाधिकार के अन्तर्गत प्रात्मा और ज्ञान के प्रमाण तथा ज्ञान की व्यापकता को बतलाने वाला निम्न श्लोक प्राप्त होता है ज्ञानप्रमाणमात्मानं ज्ञानं ज्ञेयप्रमं विदुः । लोकालोक तो यज्ञानं सर्वगतं ततः ॥१९॥ यह श्लोक प्रवचनसार, गा० १ २३ का प्रायः छायानुवाद है' इस श्लोक की व्याख्या मुख्तार सा० ने सरलतापूर्वक विस्तार से की है । श्रात्मा ज्ञानप्रमाण क्यों है. इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होने यह बतलाया है कि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार श्री की बहुमुखी प्रतिभा २६ यदि मात्मा को ज्ञान से-क्षायिक अनन्त केवलज्ञान से- यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रागम में जब बडा माना जाय तो उसका वह बढ़ा हुमा अंश ज्ञानविहीन जहां-तहा प्रात्मा-संसारी प्रात्मा-को अपने प्राप्त होने से प्रचेतन (जड़) ठहरेगा। तब वैसी अवस्था में वह शरीर के प्रमाण ही बतलाया गया है, तथा मक्त जीवों के ज्ञानस्वरूप कसे माना जा सकता है ? इसके विपरीत, यदि प्रात्मप्रदेश मन्तिम शरीर के प्रमाण से कुछ हीन ही रहते उसे जान से छोटा माना जाता है तो उस पात्मा से ज्ञान है, यह भी कहा गथा है; तब उस प्रात्मा को सर्वगत का जितना अंश बढ़ा हुमा होगा वह श्वाश्रयभूत प्रात्मा के कहना कैसे संगत होगा ? इसके समाधान स्वरूप व्याख्या बिना निराश्रय ठहरता है । सो यह सम्भव नहीं है, क्योकि में यह स्पष्ट किया गया है कि मुक्तात्मायें सभी वस्तुतः गण कभी गूणी (द्रव्य) के बिना नहीं रहता है। इससे स्वात्मस्थित-अपने अन्तिम शरीर के प्राकार में विद्यसिद्ध है कि प्रात्मा ज्ञान के प्रमाण हैन उससे बड़ा है मान प्रात्मप्रदेशों में ही स्थित - हैं, उनके बाहर उनका मोर न छोटा भी। प्रवस्थान नहीं है, फिर भी प्रात्मा को जो सर्वगत कहा गया आगे यह गान ज्ञेय-अपने विषयभूत लोक-प्रलोक है वह प्रौपचारिक है। -प्रमाण है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए व्याख्या में लोक इम उपचार का कारण यह है कि ज्ञान उस दर्पण के और अलोक के स्वरूप को दिखलाकर कहा गया है कि ममान है जिसमें पदार्थ प्रतिविम्बित होते है', अर्थात् औरतच लोक और प्रलोक है, कारण कि उनसे भिन्न अन्य दर्पण जैसे न तो पदार्थों के पास जाता है और न उनमें किसी ज्ञेय पदार्थ का अस्तित्व ही सम्भव नही है । इसका प्रविष्ट ही होता है, तथा वे पदार्थ भी न तो दर्पण के पास भी कारण यह है कि जो ज्ञान का विषय है वही तो ज्ञेय आते हैं और न उससे प्रति कहा जाता है। इस प्रकार की ज्ञान को सीमा के बाहर पदार्थ उसमें प्रतिबिम्बित होकर तदगत से दिखते अवश्य लोक और अलोक को छोड़कर अन्य किसी जय का जव है. इसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान भी न तो पदार्थो के पास अस्तित्व सम्भव नहीं है तब यह स्वयंसिद्ध है कि ज्ञान जाता है और न उनमे जाता है और न उनमे प्रविष्ट ही होता है, तथा पदार्थ अपने विषयभूत लोक-प्रलोक के ही प्रमाण है। भी न ज्ञान के पास पाते है और न उस में प्रविष्ट भी होते इस प्रकार, जब यह सिद्ध हो गया कि प्रात्मा ज्ञान हैं। फिर भी वे उस ज्ञान के विषय अवश्य होत है जग के प्रनाण और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है तब चूकि भलोक सर्व- द्वारा निश्चित ही जाने जाते है। यह वस्तु स्वभाव ही है व्यापक है, अतएब उसको विषय करने वाला ज्ञान भी सर्वः -जिस प्रकार दर्पण और पदार्थो की इच्छा के बिना ही गत सिद्ध होता है। इसका यह तात्पर्य निकला कि प्रात्मा उसमे उनका प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसी प्रकार ज्ञान और अपने ज्ञान गुण के साथ सर्वव्यापक होकर लोक के साथ पदार्थों की इच्छा के बिना ही उस कवलज्ञान के द्वारा प्रलोक को भी जानता है। यह स्थिति सर्वज्ञता को प्राप्त प्रलोक के साथ लोक में स्थित सभी पदार्थ जाने जाते है। सभी केवलज्ञानियों को समझना चाहिए। इस प्रकार, विषय को व्यापकता से विषयो ज्ञान को भी इसका १. इस स्पष्टीकरण की प्राधारभूत प्रवचनसार की अगली ये तीन गाथायें रही है णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स तो प्रादा। हीणो वा अधिगो वा जाणादो हवदि धुवमेव ॥२४॥ हीणो जदि सो मादा तण्णाणमचेद" ण जाणादि । मधिगो वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥२४॥ सम्वगदो जिणवसहो सम्वे विय तग्गया जगदि ग्रट्ठा । णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ॥२६|| २. स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसगः । प्रवद्धकालोऽप्यजरो वरेण्य : पायादपायात पुरुषः पुराणः ।। (विषापहार १) ३. नमः श्रीवर्धमानाय निर्घतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्यादपणायते ।। (र० के० श्रा० १) तज्जयति पर ज्योतिः समं समस्तै रनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफनति पदार्थ मानिका यत्र ॥(पु०सि०१) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त सर्वव्यापक कहा गया है। पंचास्तिकाय (०४-७५) मादि अन्यों में जो पुद्गल दुसरे प्रजीवाधिकार में तत्वार्थसूत्र के अनुसार के स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु इस प्रकार धर्मादि द्रव्यों के उपकार को बतलाकर (१५-१७) आगे चार भेद निर्दिष्ट किये गये है तथा उनका स्वरूप भी यह कहा गया है कहा गया है, वह उसी प्रकार प्रकृत ग्रन्थ में भी (२-१९) पदार्थानां निमग्नानां स्वरूप [-पे] परमार्थतः । सक्षेप से कहा गया है। इसकी व्याख्या में भाष्यकार ने करोति कोऽपि कस्यापि न किंचन कदाचन । उसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि सख्यात, असंख्यात, यहां 'परमार्थतः' पद पर बल देते हुए व्य ख्या मे अनन्त अथवा अनन्तानन्त परमाणुमो के पिण्डरूप वस्तु उसका स्पष्टीकरण यह किया गया है कि यह जो उपकार को स्कन्ध कहा जाता है। स्कन्ध का एक-एक परमाणु का कथन है वह व्यवहार नय के आथित है । निश्चयनय करके खण्ड होते-होते जब वह प्राधा रह जाता है तब की अपेक्षा सभी द्रव्य अपने अपने स्वरूप में निमग्न होकर वह देश स्कन्ध कहलाता है । इसी क्रम से जब यह देश स्वभाव परिणमन ही करते है-उनमे से कोई भी द्रव्य ___ स्कन्ध प्राधा रह जाता है तब वह प्रदेश स्कन्ध कहलाता किसी अन्य द्रव्य का उपकार-अपकार नहीं करता । इन है। प्रदेश स्कन्ध के खण्ड होते-होते जब उसका खण्ड द्रव्यों में धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये चार द्रव्य तो होना सम्भव नहीं रहता तब वह परमाणु कहलाता है । सदा ही अपने स्वभाव मे परिणत रहते है, इसलिए वे इस प्रकार, मूल स्कन्ध के उत्तरवर्ती और देश स्कन्ध के वस्तुतः किसी का भी उपकार नहीं करते । जीव प्रौर पर्बवर्ती जितने भी खण्ड होंग उन सबको स्कन्ध ही कहा पुद्गल ये दो द्रव्य वैभाविकी शक्ति से सहित होने के जाता है। इसी प्रकार, देश स्कन्ध मादि नामों का क्रम कारण स्वभाव और विभाव दोनो प्रकार का परिणमन भी जानना चाहिए। करते है । जीवो मे जी विभाव परिणमन होता है वह इन उदाहरणो से स्पष्ट है कि मस्तार सा० ने जितने कर्म तथा शरीरादि के सम्बन्ध से समागे जीवो मे ही ग्रन्थों का भाष्य लिखा है वह उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य का होता है-मुक्त जीवों में कर्म और शगर का प्रभाव हो परिचायक है --वे इस महत्वपूर्ण कार्य मे सर्वधा सफल जाने के कारण वह नही होता, उसमे केवल स्वभाव परि- रहे है । उनके इन भाष्यो से ग्रन्थो वा महत्व और भी णमन ही होता है। पुद्गों में से परमाणुओ में स्वभाव बढ़ गया है। इन भाष्धो के प्राधार ले सर्वसाधारण उन परिणाम और कत्रो मे विभाव परिणमन होता है। ग्रन्थो के मर्म को भली भांति समझ सकते है। 500 १. इस व्याख्या का प्राधार प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की वृत्ति रही है-- ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्नसर्वद्रव्य-पर्यायरूपन्यव स्थितविश्वज्ञेयाका रानाक्रामत् मवंगतमुकाम, तथाभतज्ञानमयी भय व्यवस्थितत्वाद् भगवानपि सर्वगत एव । एव सवंगतज्ञान विषयत्वात् सर्वेऽर्या अपि सर्वगतज्ञानाव्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया इति भणितत्वात् तद्गता एव भवन्ति । तत्र निश्चयनयेनानाकुलत्वलक्षण मौख्यसवेदनत्वाधिष्ठानत्वावच्छिन्नात्मप्रमाणज्ञानस्व. तत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकागननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्वगत इति व्यपदिश्यते । तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारानात्मस्थान वलोक्य सर्वेऽस्तिद्गता इत्युपर्यन्ते, न च तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति, सबंद्रव्याणा स्वरूपनिष्ठत्वात् । अय क्रमो ज्ञानेऽपि निश्चयः । (प्रवचनसार १-२६)। २. इस व्याख्या का प्राधार पवास्तिकाय की यह जयसेनवृत्ति रही है--समस्तोऽपि विवक्षितघट-पटाद्यखण्डरूप: सकल इत्युच्यते, तस्यानन्तपरमाणुपिण्डस्यस्कन्दसज्ञा भवति । तत्र दृष्टान्तमाह- षोडशपरमाणुपिण्डस्य स्कन्द. कल्पना कृता तावत् एककपरमाणोरपनयेन नवपरमाणुपिण्डे स्थिते ये पूर्वविकल्पा गतास्तेऽपि सर्वे स्कन्दा भण्यन्ते । अष्टपरमाणु पिण्डे जाते देशो भवति, तत्राप्येक कापनयेन पञ्चपरमाणपर्यन्तं ये विकल्पा गतास्तेषामपि देशसज्ञा भवति । परमाणुचतुष्टय पिण्डे स्थिते प्रदेशसज्ञा भण्यते, पुनरप्येकैकापनयेन द्वयणकस्कन्दे स्थिते ये विकल्प गतास्तेषामपि प्रदेशसज्ञा भवति ।............ परमाणुश्चवाविभागीति । (पंचास्तिकाय ७५) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार श्री : व्यक्तित्व और कृतित्व मुख्तार श्री जुगल किशोर जी का जन्म का नूनगोयान वंश में मगसिर सुदी एकादशी ० १८३४ मे सरसावा मे हुप्रा था। उनके पिता का नाम चौधरी नत्थूमल था और माता का नाम भूदेवी था। मुख्तार साहब बाल्यकाल से पढ़ने में चतुर थे उन्होंने उर्दू फाभी और ग्रेजी में मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। पढ़ने की रुचि अधिक थी । अतएव धार्मिक ग्रन्थो का भी अध्ययन किया। शुरू मे मुख्तारकारी का काम सहारनपुर में किया, किन्तु बाद मे देवबन्द चले गए और वहां अपना कार्य करने लगे । उनका विवाह हो गया और वे गार्हस्थ जीवन बिताने लगे । कुछ समय बाद उन्हें वकायत से घृणा हो गई और उन्होने उसका परित्याग कर दिया । . मानार्य जुगल किशोर मुस्तार इस युग के साहित्य तपस्वी और जैन साहित्य और इतिहास के वयोवृद्ध विद्वान लेखक थे। वे पनके सुधारक, स्वाभिमानी, अपनी बात पर अडिग प्रतिभा के धनी धौर समीक्षक थे उनकी प्रतिभा तर्क की कसौटी पर कसकर ही किसी बात को स्वीकार करती थी। वह जो कुछ भी लिखते, निडर होकर लिखते, दूसरे के लेख में कमी या विरुद्धता पाते तो उसका निराकरण करते। उनकी भाषा कुछ कठोर होती तो भी वे उसे सरल नहीं बनाते हा वे जो कुछ लिखते थे उसे बराबर सोच समझकर लिखते । उसमे विलम्ब भले ही हो जाता, पर वह सम्बद्ध विचारधारा से प्रतिकूल नहीं होता था। मुझे उनके साथ सरसावा घोर दिल्ली मे वीर सेवा मन्दिर में काम करने का वर्षों अवसर मिला है जो लेख में लिखना चाहते थे उन पर से पहले चर्चा कर लेते थे, धौर फिर लिखने बैठते लेख पूरा होने पर या कभी-कभी तो अधूरा लेख ही सुना देते या पढ़ने को दे देते थे । उसके सम्बन्ध मे वे जो कुछ पूछते व प्रमाण मांगते वह यथा संभव मैं उन्हें तलाशकर देता था । I श्री परमानन्द जैन शास्त्री कभी कभी वे रात को दो बजे लिखने बैठ जाते, तब मुझे आवाज देकर बुलाते और मैं खाकर उन्हे यथेष्ट ग्रंथ या प्रमाण निकालकर दे देता। वे लिखना प्रारम्भ करते और उसे पूरा करने में लगे रहते, उठने-बैठने सदा उसी का विचार करते रहते थे। उसके पूरा होने पर ही वे विराम नेते फिर मुझे उसकी कापी करने को देते और कापी होने पर वे उसे छपने को भिजवाते थे । जब मै कोई लेख लिखता तो उन्हें जरूर सुनाता | सुनकर वे जो कुछ निर्देश करते उसके अनुसार ही उसे पूरा कर उन्हें दे देता। इससे लेख में प्रामाणिकता आ जाती और अशुद्धिवा भी नही रहती थीं। I षद्यपि मुख्तार साहब की प्रकृति मे नीरसता थी और वह कभी-कभी कठोरता मे भी परिणत हो जाती थी तथा कपाय का प्रवेशमी उनमें झुंझलाहट उत्पन्न करता, पर वे उसे बाहर प्रकट नहीं करते थे । अवसर प्रा पर उसका प्रभाव अवश्य कार्य करता था। वे इतिहास की दृष्टि में सम्प्रदायिक थे। उन्हें सम्प्रदाय से इतना व्यामोह नही था, वे सत्य को पसन्द करते थे । प्रमाण व युक्ति से जो बात सिद्ध होती थी, उसे कभी भी बदलने को तैयार नहीं होते थे अनेक अवसरों पर वे इस बात मे खरे थे । प्रमाण-विरुद्ध बात को कभी स्वीकार नहीं करते ये घोर न सुनी सुनाई बातों पर प्रास्था ही करते थे। जैसे कोई दार्शनिक या वकील अनेक तरह की दलीलें देकर मुकदमा वा विवाद को जीतने का प्रयत्न करता है, वैसे ही मुख्तार साहब भी आधार पर अपना श्रभिमत व्यक्त करते श्रथवा लेख का निष्कर्ष निकालते थे इसलिए उनके लेख विद्वत जगत में ग्राह्य और प्रमाण रूप मे माने जाते है । वे अपनी सूक्ष्म विचार पारा एवं मालोचना और समीक्षात्मक दृष्टि से पदार्थ पर गहरा चिन्तन तथा मनन करते थे। उनके समीक्षा प्रथ भी इसी बात के द्योतक प्रमाणों के Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष ३०, कि० ३-४ भनेकान्त हैं। भट्टारकों की प्रधार्मिक प्रवृत्तियों और माम्नाय का प्रभाव, जैन तीर्थंकरों मोर जैनाचार्यों का शासन भेद, विरुद्ध चर्चाओं पर उन्होंने जो समीक्षाए लिखी है, वे जैन आदि लेख भी वस्तुतत्त्व के उद्बोधक हैं। लेखों की समाज में प्रमाण रूप से मानी जाती है और अभी समाज भाषा भी प्रौढ़ पोर सम्बद्ध एवं स्पष्ट है। में उनकी प्रवश्यकता बनी हुई है। यद्यपि वे अप्राप्य हैं उपासना सम्बन्धी लेख भी उनके कम महत्वपर्ण किन्तु भावी पीढ़ी के लिए वे अधिक प्रमाणभूत होंगी नहीं हैं। वे भक्तियोग पर अच्छा प्रकाश डालते है और भविष्य के विचारकों को वे पथ प्रदर्शन का काम अवश्य निष्काम-भक्ति की महत्ता के हार्द को प्रस्फुटित करते हैं। करेंगी। समीक्षा ग्रन्थ लिखकर उन्होने विद्वानों के लिए भक्तिपरक निबन्धों में उपासनातत्त्व, उपासना का ढंग, मालोचना का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अब कोई भी भक्तियोगरहस्य, वीतराग की पूजा क्यों? और वीतराग विद्वान निर्भय होकर प्रार्प मार्ग के विरुद्ध ग्रन्थो की की प्रार्थना क्यो है, जिनमे भक्ति के स्वरूप का सुन्दर समीक्षा कर सकता है। विवेचना किया गया है और निष्काम भक्ति से होने वाले आपने कभी कोई लेख झट-पट नहीं लिखा। सुखद परिणाम का अच्छा चित्रण किया गया है। उन्होंने सन्मति तर्क के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पर जो 'सम्मति. सिद्धि को प्राप्त शुद्धात्मानो की भक्ति द्वारा प्रात्मोसूत्र और सिद्धसेन' नाम का निवन्ध मस्तार मा० ने लिखा त्कर्ष साधने का नाम 'भक्तियोग' अथवा भक्ति मार्ग है और वह अनेकान्त वर्ष ६ की किरण ११-१२ में बतलाया है वह यथार्थ है। पूजा, भक्ति, उपासना. प्रकाशित हुया है। वह कितना युक्ति-पूरस्सर है इसे प्राराघना, स्तुति, प्रार्थना, वन्दना और श्रद्धा सब उसी बतलाने की आवश्यकता नही, पाठक से पढ़कर स्वयं के नामान्तर हैं । अन्तर्दृष्टि पुरुषों के द्वारा आत्मगुणों के अनुभव कर सकते है। उसम जो युक्तिया दी गई है, विकास को लक्ष्य में रखकर गुणानुराग रूप जो भक्ति उनका उत्तर अाज तक भी नहीं दिया गया । खीचा-तानी की की जाती है वही प्रात्मोत्कर्ष की साधक होती है। लौकिक जा सकती है, पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर मख्तार लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा, यश, भय और रूढ़ि प्रादि के वश साहब का लिखना युक्ति-सगत और प्रमाणभूत है यह स्वयं होकर जो भक्ति की जाती है उसे प्रशस्त मध्यवसाय की अनुभव में आ जाता है। उसमे तथ्यो को तोड़ा-मरोडा साधक नहीं कहा जा सकता, पोर न उससे संचित पापों का नहीं गया है प्रत्युत वास्तविक तथ्यों को देने का उपक्रम नाश, या प्रात्म गुणो का विकास ही हो सकता है। स्वामी किया गया है । मुख्तार सा० की समीक्षात्मक दष्टि बड़ी समन्तभद्र जैसे महान् दार्शनिक प्राद्यस्तुतिकार ने भी पनी पौर तर्कशालिनी है। समीक्षा लेखो के अतरिक्त परमात्मा की स्तुति रूप भक्ति को कुशल परिणाम की हेतु शोध-खोज लेख भी उनके महत्वपूर्ण है; उदाहरण के बतलाकर उसके द्वारा श्रेयोमार्ग को सुलभ और स्वाधीन लिए 'स्वामी पात्रकेशरी और विद्यानन्द' वाला लेख बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि वीतराग परमात्मा की कितने विचारपूर्ण और नवीन तथ्यों को प्रकाश में लाने यथार्थ भक्ति केवल परिणामों की कुशलता को ही सूचक वाला है। उसमे उन दोनों को एक समझने वाली भ्रांति का नही, प्रत्युत प्रात्म-सिद्धि की सोपान है-घातिकर्म का उन्मूलन कर वस्तुस्थिति को स्पष्ट किया गया है। इसी विनाश कर निरंजन भाव की साधिका हैं। प्रस्तु, मुख्तार तरह भगवान महावीर और उनका समय वाला लेख भी साहब ने जो कुछ लिखा, वह प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित सम्बद्ध और प्रामाणिक है । यद्यपि उनके लेख कुछ विस्तृत परम्परा से लेकर लिखा है। उन्होंने उसमें अपनी तरफ से हैं पर वे रोचक और वस्तुस्थिति के यथार्थ निदर्शक है। कुछ भी मिलाने का प्रयत्न नही किया; किन्तु उसके भाव इसी तरह श्वेताम्बर-तत्त्वार्थ सूत्र और उसके भाष्य की को अपने शब्दों एव भावों के भाषा-सौष्ठव के साथ जाँच, तत्त्वार्थाधिगम सूत्र की एक सटिप्पण प्रति, समन्त- प्रकट किया है। भद्र का मुनि जीवन और पापात्काल, समन्तभद्र का समय आपके सामाजिक लेख क्रांति के जनक है। आप के मौर डा. के. वी. जो पाठक, सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र उन लेखों से जैन समाज में क्रांति की धारा बह चली। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार पी : व्यक्तित्व और कृतित्व उनसे समान में कांति तो जरूर हुई किन्तु वह अस्थायी किया गया था और जिसका प्रकाशन सन् १९२५ में हमा रही। सामाजिक लेखों में, जैनियों में दया का प्रभाव, था। सन् १९२५ से पहले किसी भी जैन विद्वान ने किसी जैनियों का प्रत्याचार, नौकरों से पूजा कराना, जैनी भी प्राचार्य के सम्बन्ध में ऐसा खोजपूर्ण इतिहास प्रन्थ कौन हो सकता है, जाति-पंचायतों का दण्ड-विधान, लिखा हो, यह मुझे ज्ञात नहीं, जैसा कि मुख्तार साहब ने जातिभेद पर प्राचार्य अमितगति, विवाह समद्देश मादि स्वामी समन्तभद्र का इतिहास प्रन्थ लिखा। मुख्तार लेख समाज में जागृति लाने वाले हैं। इन लेखों में उस साहब को रत्नकरण्ड-श्रावकाचार की प्रस्तावना पौर समय की कुत्सित प्रवृत्तियों की मालोचना करते हुए समन्तभा के इतिहास को लिखने में पूरे दो वर्ष का समय समाज में नव जीवन लाने के लिये प्राडम्बरयुक्त लगा । प्रस्तावना और इतिहास दोनों ही शोधपूर्ण हैं। प्रवृत्तियों को अनुचित बतलाया तथा यह भी लिखा कि उसके लिए मुख्तार साहब ने अनेक ग्रन्यों का अध्ययन हृदय की शुद्धि के बिना बाह्म प्रवृत्तियां मिथ्या हैं, किया। दिल्ली की प्राकिलाजिकल डिपार्टमेंट की लाइब्ररी निस्सार है, उनका जीवन में कुछ भी उपयोग नहीं। से एपिनाफिया इंडिका मौर कर्णाटिका, अनेक जरनल पत्र सम्पादक : मौर कनियम के मादि पुरातस्व-विषयक प्रन्थों का मुख्तार साहब सन् १९०७ में 'जैन गजट' के सम्पादक मालोडन कर अनेक उपयोगी नोट्स लिये मोर सरसावा बनाये गये। उस समय के पापके सम्पादकीय लेख देखने में बैठकर बड़े भारी परिश्रम से समन्तभद्र का इतिहास से पता चलता है कि उस समय माप में लेखन कला और लिखा । इसमें लेखक ने प्राचार्य समन्तभद्र के मुनि जीवन सम्पादन कला का विकास हो रहा था। उसके बाद वे पर अच्छा प्रकाश डाला। भस्मक व्याधि के समय 'जैन हितैषी' के सम्पादक बनाये गए। उस समय आपकी आपात्काल में उन्होंने अपनी साधुचर्या का किस कठोरता बिचार धारा प्रौढ़ और लेखों की भाषा भी परिमाजित थी और दृढ़ता से पालन किया और रोगोपशांति के बाद तथा विचारों में गहनता और ऐतिहासिकता प्रा गई थी। जैन शासन की सर्वोदयी धारा को कैसे प्रवाहित किया और उस समय आपने 'पुरानी बातों की खोज' शीर्षक भगवान महावीर के शासन की हजार गुणी वृद्धि की, से अनेक लेख लिखे । सन् १९२९ में पापने दिल्ली के मादि का विस्तृत वर्णन है। साथ में, उनकी महत्वपर्ण करोलबाग में 'समन्तभद्राधम' की स्थापना की और 'अने. कृतियों का भी परिचय कराते हुए उनके समयादि पर कान' पत्र को जन्म देकर उसका सम्पादन-प्रकाशन किया। विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्राचार्य समन्तभद्र का प्रापकी सम्पादन कला निराली है। वह अपनी ही समय विक्रम को दूसरी-तीसरी शताब्दी है। इस इतिहास विशेषता रखती है। 'अनेकान्त' के प्रथम वर्ष में प्रकाशित के प्रकाशित होने के बाद भी वे उनके सम्बन्ध मे अन्वेषण पापके लेख ऐतिहासिक दृष्टि से वस्तु तत्त्व के विवेचक करते हुए लिखते रहे हैं। समन्तभद्र पर उनकी बड़ी पौर मल-भ्रांतियों के उन्मूलक थे। उस समय माप की मास्था जो यौ। समन्तभद्र का यह इतिहास प्रश्य अप्राप्य ऐतिहासिक विचारधारा प्रौढ़ बन गई थी। 'प्रनेकान्त' में है। प्रत. इसका पुनः प्रकाशन होना चाहिए, और मापके अनेक शोषपूर्ण लेख प्रकाशित हुए। कितने ही लेख परिशिष्ट में समन्तभद्र के सम्बन्ध में जो सामग्री प्रकाश मे समीक्षात्मक, उत्तरात्मक, दार्शनिकौर विचारात्मक लिखे माई है उसे यथा स्थान दिया जाना चाहिए। गये। पाप के ये सब लेख पुस्तकाकार प्रकाशित हो व्यक्तित्व: चुके हैं । पाठकों को उनका अध्ययन कर अपने ज्ञान की मुख्तार साहव का व्यक्तित्व महान है। उनमे सहिष्णुता वृद्धि करनी चाहिये। और कार्य क्षमता अधिक है। वे श्रम करने मे जितने दक्ष इतिहास लेखन: मोर उत्साही थे, विरोधियों के विरोध सहने या पचाने में मुख्तार साहब ने प्राचार्य समन्तभद्र का इतिहास उतने ही सक्षम थे । सन् १९१० मे खतौली के दस्सो पौर खा, जो पं. नाथूराम जी प्रेमी, बम्बईको समर्पित बीसों के पूजाधिकार-विषयक ऐतिहासिक मुकदमे मे Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त प्रापने गुरुवर्य गोपाल दास जी वरैया ने दस्सों को प्रोर से इस तरह मुख्तार साहव के ये चारों परीक्षा ग्रन्थ महत्व गवाही दी थी, तब पाप स्थिति पालकों के रोष के भाजन पूर्ण कृतियां है । बनें, तथा धर्म विरोधी घोषित किये गये और जाति इन परीक्षा ग्रन्थो के प्रकाशन के समय जैन समाज बहिष्कार की धमकी के पात्र हुए। उस समय मापने "जिन में जो बवंडर उठा, उसमें मुख्तार साहब को धर्म विघातक प्रजाधिकार-मीमांसा' नाम की एक पुस्तक लिखी थी, बतलाया गया, अनेक घमकी भरे पत्र मिले, पर मस्तार जिसमे जिनपूजा, पूजक और उसका अधिकार पोर फल पर मार घबड़ाये नही, बिना सोचे-रामझे ही समाज मे क्षोभ यथेष्ट प्रकाश डाला गया है। जहाँ वे प्रबल सुधारक थे, की लहर फैली, अनेक स्थिति-पालकों ने विविध प्रकार के वहाँ कर्मठ अध्यवसायी भी थे और अपने विचारो मे दोषारोपण किये । उम समय भी प्रापने साहस और धर्य चट्टान की तरह अडिग रहने वाले थे। सन् १९१७ मे से काम लिया। उनकी सहनशीलता ने उन्हें जो शक्ति ग्रन्थ परीक्षा के दो भाग प्रकाशित हुए। इनमें से प्रथम प्रदान की, उससे विरोधियों को मुंह की खानी पड़ी और भाग मे उमास्वामी श्रावकाचार, कुन्दकुन्द श्रावकाचार धीरे-धीरे वे विरोधी जन भी उनके प्रशसक बन गए। और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थो को परीक्षा को सन् १९२२ मे जब विवाह-समद्देश नाम का ट्रेक्ट गई है और दूगरे भाग मे भद्रबाहुसहिता को परीक्षा को प्रकाशित हया, तब उसके उत्तर मे "शिक्षाप्रद शास्त्रीय गई है। इसमें ग्रन्थ के अन्तरग परीक्षण के साथ प्रत्येक उदाहरण' नाम का लेख लिखा गया, जिसके उत्तर में अध्याय का वयं विषय, तुलनात्मक अध्ययन और ग्रन्थ में मुख्तार साहब ने सन् १९२५ में 'विवाह-क्षेत्र प्रकाश' असम्बद्ध, अव्यवस्थित तथा विरोधी तथ्यो का स्पष्टीकरण नाम की पुस्तक लिखी, जिसमें 'शिक्षाप्रद शास्त्रीय किया गया है। इसमे लेखक की तटस्थ वृत्ति और विषय उदाहरण' का जोरदार खण्डन करते हुए अनेक प्रमाणों का प्रतिपादन इलाघनीय है। द्वारा अपनी पूर्वमान्यता को पुष्ट किया। सन् १९२२ मे ग्रन्थ परीक्षा, तनीय भाग मे, जो सन १९५१ में 'जैनाचार्यों और जैन तीर्थकरो का शासन भेद' नाम की प्रकाशित हुया है, भट्टारक सोमसेट के त्रिवर्णाचार, पुस्तक लिखी, जिसमे जैनाचार्यों और जैन तीर्थंकरों के धर्म परीक्षा, प्रकलंक प्रतिष्ठा पाठ और पूज्यपाद उपास- शासन भेद का स्पष्ट विवेचन किया। पर किसी विद्वान काचार की परीक्षा अकित है। सोमसेन द्वारा इस त्रिवर्णा- को मुख्तार साहब के खिलाफ लिखने का साहस नही हमा, चार मे वैदिक संस्कृति के हारीति पाराशर और मन क्योंकि मुख्तार साहब ने अपनी लौह लेखनी से जो भी प्रादि विद्वानों के ग्रन्थो के अनेक पद्य ज्यो के त्यो उठाकर लिखा वह मब सप्रमाण और सयुक्तिक लिखा था। इस रक्खे गए है। मुख्तार साहब के गम्भीर अध्ययन ने ग्रन्थ कारण बिरोधी जनों को अप्रिय एवं अरुचिकर होते हुए की प्रामाणिकता पर यथेष्ट प्रकाश डाला है। भट्टारक भी वे उसका प्रतिवाद करने में सर्वथा असमर्थ रहे। सोमसेन ने जैन मंस्कृति के याचार मार्ग को कलकित उनके यक्ति-पुरस्सर लेख को देखकर विरोधियों को विरोध किया था। मुख्तार माहब ने ग्रन्श परीक्षा द्वारा उस करने के करने का साहस भी नहीं होता था। इससे पाठक मुख्तार कलक को धोकर जैन सस्कृति को पुन समुज्ज्वल किया। साहब की लेखनी की महत्ता को सहज ही समझ सकते है । ग्रन्थ परीक्षा की उनकी यह स्वतत्र विचारधारा विद्वानो मुख्तार साहब की महत्ता जैन धर्म पर उनकी के द्वारा अनुकरणीय है। प्रगाढ़ श्रद्धा पौर संयमाराघन की उत्कट भावना में है। __ ग्रन्थ परीक्षा का चतुर्थ भाग सन् १९३४ मे वे ज्ञान के साथ चारित्र को भी महत्व देते थे और प्रकाशित हुया है। इसमें 'सूर्य प्रकाश' ग्रन्थ का परीक्षण जितना उनसे हो सकता था उसे वे जीवन में करते रहे। किया गया है जिसमे प्रार्य विरुद्ध एवं असबद्ध बातो का वे स्वामी समन्तभद्रोदित सप्तम प्रतिमा का अनुष्ठान करते दिग्दर्शन कराते हुए तथा अनुवाद सम्बन्धी त्रुटियों थे और त्रिकाल सामयिक करना अपना कर्तव्य मानते थे। का उद्घाटन करते हुए उसे अप्रामाणिक ठहराया है। वे रात-दिन साहित्य-साधना में संलग्न रहते थे। इसी से Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तारोन्यक्तित्व और कृतित्व सामाजिक और व्यक्तिगत बुराइयों से बचे रहते थे। मैंने अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने प्रादे, उन्हें कभी दूसरों की निन्दा करते हुए नहीं देखा। वे तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पर गिने पावे । कर्मठ अध्यवसायी पौर साहित्य तपस्वी थे, साहित्य x x x x सूजन के प्रति उनकी अद्भुत लगन थी। यद्यपि उनके सुखी रहें सब जीव जगत के कोई कभी न घबरावे, जीवन में रूक्षता और कृपणता दोनों का सामंजस्य था, वे बैर-पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । एक पैसा भी फिजूल खर्च नही करते थे। यद्वातद्वा खर्च घर-घर चर्चा रहे धर्म को दुष्कृत दुष्कर हो जायें, करना उनकी प्रकृति के विरुद्ध था, वे उपयोगिता को देख ज्ञान चरित उन्नति कर अपना मनुज जन्म फल सबपावे ।। कर खर्च करते थे । वे मितव्ययी थे और जो खर्च करते थे, मुख्तार साहब ने 'मेरी भावना' के पद्यो में अनेक उसका पाई-पाई का पूरा हिसाब भी खत थे। राष्ट्र एवं पार्षग्रन्थों का सार भर दिया है। पद्यों में जहां शब्द देश के नेताओं के प्रति उनकी महनी प्रास्था थी। महात्मा योजना उत्तम है वहां भाव भी उच्च और रमणीय है। गांधी के निधन पर 'गांधी स्मारक निधि' के लिए मापने मुख्तार साहब केवल गद्य लेखक हो नहीं थे किन्त स्वयक सा एक रुपया दिया और पाच-पाच दिन का कवि भी थे। पापकी कविता हिन्दी और रास्त दोनो और अपने विद्वानो से भी दिलवाया था। काग्रेस के प्रति भाषाओं में मिलती है। कवि भावुक होते है और वे भी उनकी अच्छी निष्ठा थी। वे मूत कातकर चर्या मघ कविता की उड़ान में अपने को भूल जाते है। पर मुख्तार को देते और बदले मे खादी लेकर कपड़ा बनवाते थे। माहब की गणना उन कवियों में नही होती; क्योकि कृतित्व: उनकी कविता केवल कल्पना पर प्राधारित नहीं है। उनका रहन-सहन सादा था। अधिकतर वह गाढे मुख्तार साहब की कवितामों का प्राधार सस्कृत के वे का प्रयोग किया करते थे। राष्ट्र की सुरक्षा में भी उन्होंने पद्य है जो विभिन्न प्राचार्यों द्वारा रचे गये है। घटना. राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी के पास एक सौ रुपया भेजा क्रम की कविता 'अज सम्बोधन' है जिसमें बध्य भमि को था । वे साहित्य रसिक थे और उसमे हो रचे-पचे रहते जाते बकरे का चित्रण किया। सजीव भाव समाया हुआ है। आपकी हिन्दी की कवि. उन्होने सन् १९१६ मे 'मेरी भावना' नाम की एक तानों में मानव धर्म वाली कविता में, अछूतोद्धार को विता लिखी. जो राष्ट्रीय गीत के रूप में पढी जाती है। भावना का सजीव चित्रण है- उसमे बतलाया गया है कि यह कविता बड़ी लोकप्रिय हुई। इसके विविध भाषाप्रो मल के स्पर्श से कोई अछूत नहीं होता। गल-मुत्र साफ में अनुवादित अनेक संस्करण निकले । लाखो प्रतिया करने का कार्य तो मानव अपने जीवन काल में कभी न छपी। उसके कारण लाखो व्यक्ति मुख्तार साहब के कभी करता ही है। फिर बेचारे इन अछ्नों को ही मलपरिचय में पाये और वे सदा के लिए अमर बन गये। मूत्र उठाने के कारण अपवित्र क्यों माना जाता है---- पाठकों को जानकारी के लिए मेरी भावना के तीन पद्य गर्भवास और जन्म समय में कौन नही अस्पृश्य हमा? नीचे दिये गये है : कौन मलों से भरा नहीं किसने मल-मत्र न साफ किया? मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे, किसे अछुत जन्म से तब फिर कहना उचित बताते हो? दीन-दु.खी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे। तिरस्कार भंगी-चमार का करते क्यों न लजाते हो ।।४।। दुर्जन कर-कुमारतों पर क्षोभ नहीं मुझको प्रावे, संस्कृत की कविता, 'मदीया द्रव्य पूजा', वीर स्तोत्र और साम्यभाव रखू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ॥ समन्तभद्र स्तोत्र प्रादि हैं। समन्तभद्र स्तोत्र की कविता xxxx का एक पद्य नीचे दिया जाता हैकोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी पावे या आवे, वैवज्ञ-माग्त्रिक भिषग्वर-तान्त्रिको यः लाखों वर्षों तक जीऊ या मृत्यु पाज हो मा जावे । सारस्वतं सकलसिद्धिगत च यस्य । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ वर्ष ३०, कि० ३-४ भनेकान्त मान्यः कषिगर्भकवाग्मिशिरोमणिः है, मूल ग्रन्थकार के भावों को प्रक्षुण्ण रखते हुए उनको वावीश्वरो जयति बीरसमन्तभद्रः॥ सरल और स्पष्ट व्याख्या करनी पड़ती है, मूल अन्य की 'भनित्य भावना' माचार्य पद्मनन्दी की कृति है जिसका तह में (गहराई में) छिपे हुए तथ्यों को प्रकाश मे लाने मापने सन् १९१४ में पद्यानुवाद किया था। उसके एक के लिए भाष्यकार को तलस्पर्शी पाण्डित्य के साथ तथ्यों श्लोक का पद्यानुवाद नीचे दिया जाता है- का विश्लेषण करना अनिवार्य होता है। मूल प्रन्थकार एक दिवस भोजन न मिले, या नींद न निशि को प्रावे, के द्वारा प्रयुक्त शब्द किन-किन स्थानों में और किस-किस अग्नि समीपी अम्बुज बल सम, यह शरीर मुरझावे। मर्थ मे प्रयुक्त हुप्रा है, इसके लिए मूल ग्रन्थ का गहराई शास्त्र च्याधि जल प्रादिक से भी, यह शरीर मुरझावे, से पारायण करना पड़ता है। भाष्य लिखते समय मूल चेतन क्या घिर बतिदेह में, विनशत प्रचरज को है। ग्रंथ के शब्द को सामने रखते हुए वाच्य-वाचक सम्बन्ध, इसी तरह प्राचार्य देवनन्दी की 'सिद्ध-भक्ति' का पद्या- अभिधेय, सवेदन और वाक्यार्थ को भभिव्यंजना का परिनुवाद भी सुन्दर हया है, जो 'सिद्धि-सोपान' के नाम से ज्ञान प्रावश्यक होता है। तभी भाष्यकार मुल ग्रंथ के पुस्तकाकार प्रकाशित हुमा है। वह सुन्दर और कण्ठ गंभीर प्रर्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ हो सकता है। करने योग्य है। यथा मुख्तार साहब ने अनुवाद करने से पूर्व स्वामी समन्त. स्वात्मभाव की लम्धि सिद्धि' है, होती वह उन दोषों के भद्र भारती के ग्रंथों का एक शब्दकोष पं. दीपचन्द जी उच्छेदन से, अच्छवाक जो ज्ञानादिकगुण-वृन्दों के। पाण्डया, केकड़ो से तैयार कराया था। मूल ग्रंथ के पाठ योग्य साधनों को सयुक्ति से, अग्नि प्रयोगादिक द्वारा, संशोधन के पश्चात् अनुवाद प्रारम्भ किया। अनुवाद हो हेम-शिला से जग मे जैसे हेख किया जाता न्यारा ।। जाने के बाद भाष्य लिखने के लिए ग्रंथ और अनुवाद का ___इस तरह मुख्तार साहब को पद्य रचनाएं सभी सुन्दर पारायण तथा संशोथन किया और भाष्य लिखने से पूर्व और भावपूर्ण है। मूल ग्रंथकार की दृष्टि को स्पष्ट करने के लिए विविध व्याख्याकार या भाष्यकार: ग्रंथों का परिशीलन किया तथा लिखते समय उन्हें सामने मापकी समस्त कृतियों की संख्या ३०-३५ है जिनमें रखा। मुख्तार साहब का दृष्टिकोण मूल के हाई को कुछ छोटे छोटे ट्रेक्ट भी है। उनमे से मापने जिनका मनु स्पष्ट करना था, प्रतएव उन्होंने मूल अथ के पद्यों के अन्दर वाद तथा सम्पादन किया है, उनके नाम इस प्रकार हैं:- अन्तनिहित प्रथं को उसकी गहराई में जाकर, तलदृष्टा पुरातन जैन-वाक्य-सूची, बृहत्स्वयंभस्तोत्र युक्त्यन- बन, मूल को स्पष्ट करने वाली व्याख्या या भाष्य लिखा। शासन, अध्यात्मरहस्य, समीचीनधर्मशास्त्र, सत्साधुस्मरण अनुवाद और भाष्य लिखने में मुख्तार साहब ने प्रथक मंगलपाठ, प्रभाचन्द्र का तत्त्वार्थ सूत्र कल्याणकल्पद्रुम, श्रम किया, तभी वह मूल ग्रन्थ के अनुकूल और उपयोगी तत्त्वानुशासन, देवागम, (माप्तमीमांसा) योगसार प्राभूत हो सका है। उसमे उन्होंने अपनी प्रोर से कुछ भी पौर जैन ग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह (प्रथम भाग), समाधितत्र। मिलाने का प्रयत्न नही किया। प्रतएव वह भाष्य लिखकर पापको इन कृतियों का अध्ययन करने से स्पष्ट पता वे उममें कितने सफल हुए इसका निर्णय विद्वान् पाठक ही चलता है कि मुख्तार साहब ने इन ग्रन्थो के अनुवाद, कर सकते है कि स्वामी समन्तभद्र के प्रथों का जो अनुवाद सम्पादन, प्रस्तावनादि लिखने में पर्याप्त श्रम किया है। और भाष्य लिखा, वह कितना परिमार्जित और मूल ग्रंथमूलानुगामी पनुवाद के साथ व्याख्या या भाष्य द्वारा कार की दृष्टि का अभिव्यंजक है। मैंने उसे लिखते ग्रन्थ के मर्म को स्पष्ट किया गया है। भाष्यकार को समय पढ़ा और बाद मे प्रेस कापी करते हुए भी पढ़ा है। मूल लेखक की अपेक्षा उसके हदं को स्पष्ट करने के लिए मुझे तो उसमें कोई स्खलन प्रतीत नही हुपा। कारण कि विशेष परिश्रम और प्रतिभा का उपयोग करना पड़ता महतार साहब लिम्वने में बहुत सावधानी रखते थे। साथ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार भी:पतित्व और कृतित्व ही शब्दों को जांच-तोल कर रखते थे। उनकी लेखनी व्याख्या-यहां इन्द्रियों से भी पहले मन को जीतने झटपट और चलता हुमा नहीं लिखती थी। लिखते समय का सहेतुक निर्देश किया गया है और यह बतलाया को उनको एकाग्रता मोर संलग्नता अनुकरणीय है। है कि मन को जीतने पर मनुष्य सहज ही जितेन्द्रिय हो 'तत्त्वानुशासन' का भाष्य लिखते समय प्राचार्य राम. जाता है। जिसने अपने मन को नहीं जीता वह इन्द्रियों सेन के मूल पद्यों का मूलानुगामी अनुवाद किया और को क्या जीतेगा ? मन के संकल्प-विकल्प रूप-व्यापार को बाद में भाष्य लिखा। भाष्य लिखते समय मूल ग्रंथकार रोकना अथवा मन को जीतना (मन की चंचलता को की दृष्टि को प्रक्षुण्ण रखते हुए पद्यों में पाये हुए विशे- दूर कर उसे स्थिर करना) कहलाता है। मन का व्यापार षणों का स्पष्टीकरण किया। पाठकों की जानकारी के रुकने अथवा उसकी चंचलता मिटने पर इन्द्रियों का लिए उसके दो पद्यों का अनुवाद और व्यारूपा नीचे दी व्यापार स्वत: रुक जाता है-वे अपने विषयों में उसी जाती है प्रकार प्रवृत्त नहीं होती जिस प्रकार कि वृक्ष का मूल संग-त्यागः कवायाना निग्रहो व्रतधारणम् । छिन्न-भिन्न हो जाने पर उसमे पत्र-पुष्पादिक की उत्पत्ति मनोक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजम्म नि । नहीं हो पाती। परिग्रहों का त्याग, कषायों का निग्रह-नियंत्रण, व्रतों तत्वानुशासन' की प्रस्तावना बहुत विचार-विमर्श के का धारण और मन तथा इंद्रियों का जीतना यह सब ध्यान बाद लिखी गयी है। उसके लिखने में मुख्तार साहब ने की उत्पति-निष्पति में सहायभूत सामग्री है । व्याख्या में मच्छा बम किया है। इस संबन्ध मे मैंने उन्हें पर्याप्त यहां संग-त्याग में बाह्य परिग्रहों का त्याग अभिप्रेत है: सामग्री दी थी। उन्होने मेरा उल्लेख भी किया है। क्योंकि अन्तरग परिग्रह में क्रोधादि कषायों का निग्रह में रामसेन के समय का निर्णय उन्होंने कितने सुन्दर और समावेश है। कुसंगति का त्याग भी संगत्याग में पा जाता सरल ढंम से किया, यह देखते ही बनता है। है। वह भी सध्यान में बाधक होती है। व्रतों में महिंसादि पापके ग्रंथों की प्रस्तावनाएं बड़ी मार्मिक और महावतों तथा अणुव्रतों मादि का ग्रहण है। अनशन शोषपूर्ण हैं। 'अध्यात्म-कमल मार्तण्ड' की प्रस्तावना में ऊनोदर प्रादि के रूप में अनेक प्रतिज्ञाएं भी व्रतों में १७वीं शताब्दी के विद्वान् तथा प्रथित ग्रन्थकार पारे शामिल है। इन्द्रियों के जय में स्पर्शन-रसना प्राण-चक्ष राजमल्ल का परिचय और उनकी कृतियों के संबन्ध में श्रवण ऐसी पांचों इन्द्रियों की विजय विवक्षित है । ध्यान अच्छा प्रकाश डाला गया है। की मोर भी सामग्री है। परन्तु यहाँ सर्वतो मुख्या पुरातन जैन वाक्य-सूची की प्रस्तावना और उसका सामग्री का उल्लेख हैं। शेष सामग्री का 'च' शब्द में संपादन मापने सहयोगी विद्वानों के साथ किया। अन्य मन्वेसमुच्चय चाहिए। उसे (अन्य ) ग्रन्थों के सहारे जटाना षण करने वाले विद्वानों के लिए वह उपयोगी है। मुख्तार चाहिये। इस ग्रंथ में भी परिकर्म मादि के रूप में जो साहब ने उसकी प्रस्तावना में प्रत्येक ग्रंथ पौर प्रथकार कुछ अन्यत्र कहा गया है उसे भी ध्यान की सामग्री के सम्बन्ध में अच्छा विचार किया है। खासकर सम्मति समझना चाहिए। सूत्र और सिद्धसेन के सम्बन्ध में जो विचार अथवा इंद्रियाणां प्रवृत्ती निवृत्तीच मनः प्रभु । निष्कर्ष दिया गया है वह मौलिक है। गोमम्टसार की मन एव जये-तस्मास्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः।। त्रुटि-पूर्ति पर भी प्रकाश डाला है और भी अनेक विद्वानों इन्द्रियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में मन प्रभु के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला गया है जो शोषक सामथ्र्यवान है, इसलिए (मुख्यतः) मन को ही जीतना विद्वानों के लिए उपयोगी है। चाहिए । मन को जीतने पर मनुष्य (वास्तव में)जितेन्द्रिय 'समन्तभद्र भारती' के ग्रंथों का अनुवाद मौर व्याख्या होता है-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है। बहुत ही परिश्रम के साथ सम्पन्न की गई है। खासकर Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८, बर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त युक्त्यनुशासन का हिन्दी अनुवाद उन्होंने कितनी सरल लेखनी से प्रभावित हो बाब छोटेलाल जी कलकत्ता ने भाषा मे प्रस्तुत किया है, यह उनकी महत्वपूर्ण देन है उन्हे पार्थिक सहयोग स्वयं दिया और अपने दूसरे जो दार्शनिक विषय पर भी अच्छा प्रकाश डालती मित्रों से दिलाया; मुख्तार साहब के व्यक्तित्व को उभारने है। देवागम का अनुवाद भी उन्होंने सरल ढंग से प्रस्तुत का भी प्रयत्न किया। वीर शासन-जयन्ती के अवसर पर किया है, जो पठनीय है। सरसावा मे अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया था उसमे इसी तरह, समीचीन धर्मशास्त्र (ग्नकरण्ड श्रावका- उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि 'मैं मुख्तार साहब चार) का अनुवाद, भाष्य और प्रस्तावना बडी महत्वपूर्ण को वर्तमान मुनियों से भी कही अच्छा मानता हूँ जो है। वह मूल ग्रन्थ पर अच्छा प्रकाश डालती है, और सामाजिक झगड़ों से दूर रहकर ठोस साहित्य के निर्माण 'टीकाकार प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध मे भी ऐतिहासिक दृष्टि द्वारा जिन शासन और समाज की सेवा कर रहे है।' से यथेष्ट प्रकाश डालतो है। बाबू छोटेलाल जो की उदारता, उत्साह और परिश्रम से प्रापका प्रन्तिम भाष्य प्रमितगति प्रथम का 'योगसार तथा पूज्य प० गशेश प्रसाद जी वर्णी की प्रेरणा से वीर प्राभूत' है जिसका उन्होने बोसो बार प्रध्ययन किया है सेवा मन्दिर का भवन दिल्ली में बन गया। मुख्तार सा० पोर बहुत-कुछ चितन के बाद उसका मूलानुगामी अनुवाद का दाबू छोटेलाल जी के साथ पिता-पुत्र जैसा सदढ प्रेमपौर भाष्य प्रस्तुत किया है। यह उनको अन्तिम कृति है। सम्बन्ध बहुत वर्षों तक रहा, पर कुछ कारणों से परस्पर इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हुमा है। प्राशा है। मतभेद उत्पन्न हो गया था। बाद में उसमे पत्र व्यवहारादि समाज उससे विशेष लाभ उठाने का प्रयत्न करेगा। द्वारा कुछ सुधार हो गया और उनका परस्पर पत्रव्यवहार भी चालू हो गया था, किन्तु दुर्भाग्य है कि सन् १९६२ के मरुतार साहब का जीवन सादा रहा है। वे सदा बाद उन दोनों का परस्पर मिलन नही हो सका। सिपाही की भांति कार्य करने के लिए तत्पर रहते थे। परावलम्बी होना उन्हें तनिक भी पमद नही था। वे अपना मम्तार साहब का अन्तिम जीवन भी सानन्द व्यतीत सब काई स्वय करके प्रसन्न रहते थे। उनके इस सेवा हुअा। वे बोर सेवा मन्दिर, दिल्ली से अपने भतीजे कार्य को देखते हुए यह स्वाभाविक लगता है कि ऐसे डा० श्रीचन्द्र जो संगल के पास एटा चले गए थे। संगल नि:स्वार्थ सेवाभावी विद्वान का समाज ने कोई सार्वजनिक जी ने अपने ताऊजी की सेवा प्रसन्नता से की। डा० साहब सम्मान नहीं किया, इसका हमें खेद है। पर कुछ व्यक्ति का सारा परिवार उनकी सेवा मे संलग्न रहता था। वे विशेष को अपनी कमजोरिया भी होती है जो उसे आगे बढ़न उनकी सेवा से प्रसन्न भी थे । डा. साहब ने लिखा है कि नही देती। मुख्तार साहब का जीवन एकांगी या । व जितना उनका अन्त समय बड़ी शाति के साथ व्यतीत हुमा और मै साहित्यिक विषयों पर विचार करते थे उतना उन्होने रातभर उनके पास बैठा रहा । णमोकार मत्र और समतसमाज के बारे मे कभी चिन्तन नही किया। समाज के प्रति भद्रस्तोत्र का पाठ करते हुए उन्होंने अपने शरीर का उनका वृष्टिकोण प्रायः अनुदार सा रहा प्रतीत होता है। परित्याग किया। उनका देहावसान २२ दिसम्बर को ११ इस कारण उनके कितने ही कार्य अधूरे पड़े रहे, जिन्हें वे वर्ष २२ दिन की प्रायु में प्रातःकाल हुमा। उनके रिक्त स्वय सम्पन्न करना चाहते थे। वे वीर सेवा मन्दिर जैसी स्थान की पूर्ति होना असभव है। मैं उन्हें अपनी हादिक उच्चकोटि को संस्था के सस्थापक थे। उन्हें अच्छे कार्य- श्रद्धांजलि अर्पित करता हमा उनकी प्रात्मा को परलोक कर्ता विद्वानों का सहयोग भी मिला था। उनकी प्रौढ़ में सुख-शान्ति की कामना करता हूँ। 00 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगसृष्टा को साहित्य साधना श्री गोकुलप्रसाद जैन, नई दिल्ली प्राचार्य श्री जुगल किशोर मुख्तार साहित्य-तपस्वी, किया तथा संस्कृत में बढ़ती अभिरुचि के कारण माप स्वाध्याय योगी, समाज सुधारक, कुरीतियो एवं जैन शास्त्रों के स्वाध्याय के प्रति उन्मुख हुए। अंधविश्वासों के निराकर्ता एव यथार्थ मार्षमार्ग के प्रणेता आपने स्थानीय अग्रेजी स्कूल से नौवीं कक्षा तक थे। अापमे सत्य के प्रति अपूर्व निष्ठा थी तथा प्रापने विधिवत प्रध्ययन कर स्वाध्यायी छात्र के रूप से मैट्रिक जिनवाणी की रक्षा का जीवनव्रत लिया था। प्रातन जैन परीक्षा दी। इतिहास, साहित्य और पुरातत्व को गुफापों, मन्दिरो और जीवन संघर्ष सरस्वती भण्डारों की घुटन से बाहर निकाल कर उमे आपने मैट्रिक परीक्षा पास करने के पश्चात् स्वयं जन-जन के लिए सुलभ बनाया। जीविका निर्वाह करने का विचार किया, क्योकि अभिभट्रारक प्रायः अपनी यशोगाथा फैलाने की भावना भावकों पर निर्भर रहना अापने प्रकर्मण्यता समझी। से वं कवित्व प्रदर्शन के हेतु विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों के प्रतः १८६६ मे मापने प्रान्तिक सभा की ओर से उपअंश चराकर, भानुमती का कुनबा तैयार कर देते थे। देशक का कार्य प्रारम्भ किया। परन्तु दो मास के बाद प० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इस साहित्यक चोरी को यह विचार पाया कि धर्मप्रचार जैसा पवित्र कार्य बेतन पकडा प्रौर दिन-रात अथक परिश्रम कर के ग्रन्थ-परीक्षा कर न किया जाए। मत: उपदेशक-वृत्ति से त्यागपत्र देकर के नाम से एक शोध-खोज ग्रथ प्रकाशित करवाया, जिससे स्वतन्त्र वृत्ति के रूप में प्रापने मुख्तार-गीरी प्रारम्भ की। समाज को वास्तविकता का पता चला। इस वृत्ति मे आपने सदा न्याय और सत्य का प्राधार वस्तृत: मुख्तार साहब का जीवन प्रारम्भ से ही लिया। लगभग १० वर्ष मुख्तारी करके प्रापने धन और यश प्रादर्श, साधनापूर्ण एव त्यागमय रहा । सरसावा (जिला दोनों अजित किये । वैसे तो पापका अधिकांश समय जैन सहारनपुर) मे मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी, वि० स० साहित्य, जैन कला एवं जैन पुरातत्त्व के अध्ययन-अनु१९३४ को प्रापका जन्म हुआ। मापके पिता चौधरी सन्धान मे व्यतीत होता ही था, किन्तु बाद मे प्राप नत्थूमल जैन एव माता भुई देवी थी। शिव से ही इस मुख्तारगीरी छोड़कर मात्र ज्ञान साधना में लीन हो बालक मे ऐसी चुम्बकीय शक्ति थी कि माता-पिता, पास- गये। पड़ोस तथा सभी सम्पर्की व्यक्तियों को यह अनुरंजित किए पारिवारिक जीवन रहता था। श्री 'मुख्तार' साहब के कार्यों में उनकी धर्मपत्नी बालक जुगल किशोर ने पांच वर्ष की आयु में उर्दू बड़ा योगदान करती थी। प्रापने पत्नी की यथार्थ सेवा फारसी की शिक्षा प्रारम्भ की। शिक्षा दीक्षा में वह बालक प्राप्त कर अपना बौद्धिक विकास किया । पापके मौलवी साहब की दृष्टि मे दूसरा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ७ अक्तूबर, १८६६ में एक कन्या का जन्म हुमा किन्तु सन् था। उसकी विलक्षण प्रतिभा देवी-शक्ति-सम्पन्न लगती १९०७ मे फैली प्लेग की बीमारी से ८ वर्ष की यह थी। उसका दूसरा विशेष गुण था उसकी तर्कणा शक्ति। बालिका कालकवलित हो गयी। सन् १९१७ में प्रापको मध्ययन के अलावा वह खेल-कूद के भी प्रेमी थे। दूसरी बेटी का सौभाग्य प्राप्त हुआ, परन्तु ठीक सवा प्रापने सरसावा में हकीम श्री उग्रसेन जी द्वारा तीन माह पश्चात् पाप पर दूसरा वचपात हुमा पौर स्थापित पाठशाला में हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन पच्चीस वर्षों की जीवन-संगिनी मापका साथ छोड़ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०, वर्ष १० कि. कर चल बसी । पत्नी के इस वियोग ने पंडित जी को से वे ग्रन्थ और भी अधिक उपयोगी बन गये हैं। झकझोर दिया। बाद में यह बालिका भी चल बसी। समीक्षक: भापके साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ (वीर सेवा मन्दिर) समन्तभरमाधम-२१ अप्रैल, ग्रंथ परीक्षा मोर समीक्षा से ही होता है। ग्रंथ परीक्षा के १९२६ को दिल्ली में मुख्तार श्री ने समन्तभद्रा- दो भागों का प्रकाशन १९१६ मे हमा था। श्रम की स्थापना की और यहीं से 'अनेकान्त' मासिक इतिहासकार : विभिन्न ऐतिहासिक शोष निबन्ध पत्रिका का प्रकाशन मारम्भ किया। बाद में यही प्राधम लिखकर मापने अपनी सच्ची इतिहासकार की प्रतिभा वीर सेवा मन्दिर में परिवर्तित होकर दिल्ली से सरसावा का परिचय दिया है। ऐसे निबन्धों में, 'वीर शासन की चला गया और एक शोध संस्थान के रूप में जैन साहित्य उत्पत्ति और स्थान', 'श्रुतावतार कथा', 'तत्त्वार्याधिगम की विभिन्न शोष प्रवृत्तियों का प्रकाशन और अनुसंधान भाष्य और उनके सूत्र', 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा मोर 'स्वामिकरने लगा। मुख्तार साहब ने अपनी समस्त सम्पत्ति का कुमार' प्रादि विशेष उल्लेखनीय है। ट्रस्ट कर दिया और उस ट्रस्ट से वीर सेवा मन्दिर अपनी सम्पादक : प्राचार्य श्री ने स्वयम्भू स्तोत्र, युक्त्यनुबहुमुखी प्रवृत्तियों का संचालन करने लगा। शासन, देवागम, अध्यात्म रहस्य, तत्वानुशासन, समाधि पूज्यपाद पं० गणेशप्रसाद जी वर्णी, ५० नाथूराम जी तन्त्र, पुरातन जैन वाक्यसूची, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह प्रेमी, बाबू सूरजभान वकील, पं० चन्दाबाई मारा, बाबू (प्रथम भाग), समन्तभद्र भारती प्रादि ग्रंथों का सम्पा राजकृष्ण जी दिल्ली, साहू शान्ति प्रसाद जी प्रादि प्रमुख दन किया और उनकी महत्वपूर्ण प्रस्तावनायें लिखी, जो व्यक्तियों ने मुख्तार सा. के अगाध पांडित्य और ज्ञान- अत्यन्त उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक है। साधना की भूरि-भूरि प्रशसा की। बाबू छोटेलाल जी जैन पत्रकार : श्री मुख्तार साहब प्रथम कोटि के ने तो कलकत्ते में 'वीर शासन महोत्सव' के अवसर पर सम्पादक रहे । मापका पत्रकार जीवन साप्ताहिक पत्र उन्हें वाङमयाचार्य की उपाधि से विभूषित किया। 'जैन गजट' के सम्पादन से प्रारम्भ हमा। समाज ने कवि : मुख्तार साहब की काव्य रचनामों का संग्रह मापको सम्पादन कला की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। 'युग भारती' के नाम से है। आपकी सबसे प्रसिद्ध पौर नौ वर्ष तक इसका सफल सम्पादन करने के बाद श्री मौलिक-रचना 'मेरी भावना' तो वस्तुतः 'राष्ट्रीय भावना' नाथरामजी प्रेमी ने पापको "जैन हितैषी" का सम्पादक नियुक्त किया, जिसका सम्पादन उन्होंने सन् १९३१ तक ही बन गई है। निबन्धकार : प्रापके निबन्धो का संग्रह 'युगबीर किया। मापने वीर सेवा मन्दिर के मुख पत्र 'भनेकान्त' निबन्धावली' के नाम से दो खण्डों में प्राप्त है, जिसमें का सम्पादन एवं प्रकाशन भी प्रारम्भ किया जो जैन समाज सुधारात्मक एवं गवेषणात्मक निबन्ध है। इसके शोध और समीक्षा विषयक प्रामाणिक एवं सर्वश्रेष्ठ अलावा मापने 'जैन साहित्य और इतिहास पर विशद पत्रिका है। प्रकाश' नामक ग्रंथ प्रकाशित किया, जिसमें ३२ निबन्ध मापका सारा जीवन वस्तुतः चिरन्तन साधना, हैं। मापके निबन्धों में सामयिक, राष्ट्रीय, प्राचारमूलक, मध्यवसाय एवं तपस्या का जीवन रहा है। भाप वस्तुतः भक्तिपरक, दार्शनिक एवं जीवनशोधक निबन्ध हैं जो जितेन्द्रिय, सयमी, निष्ठावान् एवं ज्ञान तपस्वी थे। पापके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को पालोकित करते हैं। भाप पाप प्रकाण्ड ज्ञानी, दृढ़ प्रव्यवसायी एव महान साहिप्य एक सामाजिक क्रान्तिद्रष्टा थे। साधक थे। पापका व्यक्तित्व उदास था। मापने लोक सेवा एवं साहित्य सेवा द्वारा ऐसे शानालोक की सष्टि भाष्यकार: मुख्तार साहब केवल मौलिक लेखक की है जो युगयुगान्तर तक जैन परम्परा को पालोकित ही नहीं एक मेधावी भाष्यकार भी थे। मापने मा० 000 समन्तभद्र की प्रायः समस्त कृतियों पर ग्रन्थ लिखे है। २. राम नगर, भाष्य ग्रंथों में लिखित पापकी महत्वपूर्ण प्रस्तावनामों मई दिल्ली-५५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिदूत काव्य के पूर्ववर्ती संस्करण 0 श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर जैन विद्वानों ने संस्कृत साहित्य की बहुत बड़ो सेवा सम्वत् १९८६ में लक्ष्मण भट्टजी ने किया । वास्तव मे यह की है । छोटे-मोटे हजारों ग्रन्थ एवं स्तोत्र प्रादि फुटकर बहुत कठिन कार्य है और हिन्दी टोका द्वारा यह ग्रन्थ काव्य जैनों के लिखे हुए, संस्कृत में आज भी प्राप्त हैं, पर सब के समझने योग्य हो गया है। पर मालूम होता है जैन संस्कृत साहित्य का उल्लेख संस्कृत साहित्य के इति- कि लेखक, प्रकाशक आदि को यह जानकारी नहीं थी कि हास में बहुत ही कम होता रहा । हर्ष है कि इधर कई ऐसे इससे पहले भी इस काव्य का एक अच्छा संस्करण, संस्कृत ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं जिनसे विशाल और महत्त्वपूर्ण जैन टीका और हिन्दी पद्यानुवाद के साथ, करीब ३० वर्ष पहले संस्कृत साहित्य की काफी जानकारी प्रकाश में पायी है। प्रकाशित हो चुका है। इसलिए इस लेख मे प्रावश्यक गुजराती मे प्रो० हीरालाल कापडिया ने 'जैन सस्कत जानकारी दी जा रही है। साहित्य का इतिहास' लिखा, वह ३ भागों में प्रकाशित विक्रम कवि का नेमिदूत काफी वर्ष पहले काव्य हो चुका है। डा० नेमिचन्द्र जैन का भी एक महत्त्वपूर्ण माला के द्वितीय गुच्छक में मर्व प्रथम प्रकाशित हा ग्रन्थ हिन्दी में भारतीय ज्ञानपीठ' से प्रकाशित हया है। था। स्वर्गीय पडित उदयलालजी कासलीवाल ने इसका जैन सस्कृत महाकाव्यों पर जनेतर विद्वानों ने शोध हिन्दी अनुवाद भी किया और वह भी प्रकाशित हो चुका प्रबन्ध लिखे है, जिनमे से डा. श्यामसुन्दर दीक्षित के है। सन् १९१६ मे, अर्थात् ६० वर्ष पहले स्वर्गीय शोध प्रबन्ध का एक भाग जयपूर से छप भी चकाई। नाथरामजी प्रेमी ने जैन हितैषी पत्रिका में 'विक्रम का डा० सत्यव्रत का शोध प्रबन्ध अभी अप्रकाशित है। जैन नेमि चरित्र' लेख प्रकाशित किया था जो उनके जैन स्तोत्र साहित्य आदि पर भी शोध कार्य हा है, पर वे साहित्य पोर इतिहास' नामक ग्रन्थ में सुलभ है। उन्होंने शोध प्रबन्ध अभी तक प्रकाशित नही हुए। प्रभी भनेको विक्रम कवि को दिगम्बर पाम्नाय का श्रावक व १४ वी शोध प्रधान पथ संस्कत साहित्य पर लिखे जाने अपेक्षित है। शताब्दी का अनुमानित किया था। वगे उन्होने स्वयं लिख जैन विद्वानों ने पाद प्रति काव्य भी काफी बनाये है, दिया था कि “यों काव्य के विषय से तो कवि श्वेताम्बर जिनके सम्बन्ध में काफी वर्ष पहले मेरा खोजपूर्ण लेख या दिगम्बर किस सम्प्रदाय का था, इसका कुछ पता 'जैन सिद्धात भास्कार' मे प्रकाशित हपा था। ऐसे काव्यों नही चलता, क्योकि काव्य मे जो कुछ कहा गया है वह मे मेघदूत के चतुर्थ पाद पूर्ति रूप विक्रम कवि का नेमिदूत सम्प्रदाय की सीमा से बाहर है।" प्रेमीजी ने खभात के काव्य भी उल्लेखनीय है। वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन सवत् १३५८ के शिलालेख में जो सागण का नाम प्राया है, समिति, इन्दौर से नेमिदूत काव्य का नया सस्करण प्रभी उसे नेमिदूत के कर्सा विक्रम का पिता सागण मान लिया मई ७६ में ही प्रकाशित हुप्रा है जिसकी प्रति मझे हाल है।'हुकार वंश' को हूंबड़ और सिंहपुरवश को नरसिंहपुरा ही में प्राप्त हुई है। प्रकाशन सुन्दर है। इस में मूल मान लिया, पर ये तीनो ही बातें उनके अनुमान पर ही काव्य के अतिरिक्त स्वर्गीय लक्ष्मण अमरजी भट्ट का प्राधारित समझनी चाहिये, मेरी राय मे ये वास्तविक समश्लोकी हिन्दी अनुवाद और उन्हीं के पोते भंवरलाल नहीं हैं। कवि ने तो अतिमपद्य में अपने को केवल सागण भट्ट 'मधुप' का हिन्दी अनुवाद या टीका भी प्रकाशित का पुत्र विक्रम ही बतलाया है । इसमे अधिक जाति, स्थान है। पूज्य उपाध्याय विद्यानन्द जी की प्रेरणा से प्रकाशित या रचनाकाल का कोई उल्लेख नही किया । यह संस्करण अवश्य ही बहुत उपयोगी और महत्त्व का नेमिदत का एक उल्नेखनीय मंकरण विनयमागरजी है। समश्लोकी अनुवाद और टीका नेतर विद्वानों की ने संवत २००४ में सम्पादित करके श्री हिन्दी जैनागम रचना है। इसे प्रकाश में लाना अवश्य ही निर्वाण समिति प्रकाशक सुमति कार्यालय, जैन प्रेप, कोटा द्वारा सवत् का एक उल्लेखनीय व उत्तम कार्य है। समश्लोकी भनुवाद २००५ में प्रकाशित करवाया था, जिसका मूल्य रु०१-५० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त है। यह ग्रंथ कई वर्षों तक संस्कृत के पाठ्यक्रम में भी पौर काव्य भी लिखे हैं, अर्थात् ये अच्छे कवि थे। रहा है। इसके प्रारम्भिक 'दो शब्द' में विनयसागरजी ने विनयसागरजी को नेमिदूत की प्राचीनतम प्रति तो कवि विक्रम को खंभात के रहने वाले १४ वीं शताब्दी के संवत् १४७२ और १५१६ की प्राप्त हुई थी। उन्होंने श्वेताम्बर खरतरगच्छाधीश जिनेश्वर मूरि के भक्त श्रावक तीन मून प्रतियो और २ टीका की प्रतियों के प्राधार से थे, लिखा है। उन्होने मुनि विद्याविजय जी के नेमिदूत उपरोक्त संस्करण का सम्पादन किया था। संस्कृत टीका पद्यानुवाद की प्रस्तावना में कवि विक्रम को १२ वी सदी और हिन्दी पद्यानुवाद के साथ-साथ उन्होने काव्य की के कर्णावती के मपी "मागण का पुत्र कहा है," इसका भी प्रकारादि पद्यानुक्रमणिका भी दे दी थी। इस तरह यह उल्लेख किया है परन्तु उल्लेखित नेमिदूत पद्यानुवाद और सस्करण काफी उपयोगी बन गया था, पर हिन्दी टीका मनि विद्या विजय जी का वक्तव्य मेरे देखने में नहीं पाया। या गद्य में अर्थ इस संस्करण मे नही छपा था जोकि कोटा के उपरोक्त सस्करण में डा० फसिह लिखित इन्दौर वाले मंस्करण में छपा है । उदयलाल कासलीवाल 'नेमिदन का काव्यत्व' और सवत् २००४ म लिखा हु ने जो इसका हिन्दी अनुवाद किया था, वह अब प्राप्त नहीं मेरी 'प्रस्तावना' प्रकाशित हुई थी। मैंने नेमिदूत की है। इन्दौर वाले संस्करण में पहले समश्लोकी अनुवाद, सस्कृत टीका की २ प्रतियाँ विनयसागरजी को भेजी थीं उसके बाद उसकी हिन्दी टीका (१-१ पद्य के नीचे) छपी और टीकाकार गुणविनय के सम्बन्ध मे प्रस्तावना में है और अन्त मे मूल संस्कृत काव्य छपा है। समश्नोकी विशेष प्रकाश डाला था। इस संस्करण मे गुणविनय की पद्यानुवाद मे चौथा चरण नेमिदूत वाला सस्कृत में ही अज्ञात टीका सर्व प्रथम प्रकाशित हुई, जोकि सउत १६४४ ज्यो का त्यो रख दिया है, अर्थात् उसका हिन्दीकरण में बीकानेर में रची गई थी। इस मस्करण की दूपगे। नही किया गया। मेरी गय मे. उसका भी हिन्दी पद्यानुविशेषता यह थी कि इससे भैसगेड गढ (मेवाड) के वाद कर दिया जाता तो अच्छा होता, अन्यथा हिन्दी महाराज श्री हिम्मत महजी साहित्य रजन' का किया । टीका के विना उन पक्तियो को समझना हिन्दी पाठको हुमा नेमिदून का हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रकाशित हुप्रा के लिए कठिन ही होता। था। यह पद्यानुवाद समश्लोकी तो नही, पर महत्त्वपूर्ण इौर वाले नये संस्करण के प्रकाशकीय मे श्री है। चडावत वा के ठाकुर एक जनेतर कवि हिम्मत- बाबलाल जी पाटोदी ने, जो प्रकाशन समिति के मत्री है, मिहनी ने नेमिदून का पद्यानुवाद करके अवश्य ही एक कवि विक्रम के प्रागे 'मनिवर' और 'मनिधी' विशेषण उल्लेखनीय काय किया है। इस पद्यानुवाद का पहला लगा दिए है और हिन्दी टीकाकार भंवरलाल भट्ट ने भी और अन्तिम पद्य पाठको की जानकारी के लिए नीचे कवि को जैन मुनि लिख दिया है, वह ठीक नहीं है। उद्धत किया जा रहा है। वास्तव में कवि विक्रम मुनि नहीं थे, विद्वान् श्रावक ही 'जीवत्राण मे दतचित्त हो, बन्धुवर्ग परिजन भव-भोग। थे। उन्होने स्पष्ट रूप से अपने को सांगण का पुत्र ही उग्रसेन तनुजा को भी तज, लिया उन्होने विचल योग | लिखा है । अतः उसे मुनि बतलाना भ्रमोत्पादक है। श्री मन्नेमिनाथ प्रभो वह, मोक्ष मार्ग में करके प्रेम। पूज्य उपाध्याय विद्यानन्दजी की प्रेरणा से स्थापित छायावाले रम्य रामगिरी, पर जा रहे धार दृढ़ नेम ॥" । इन्दौर की श्रीवीर-निर्वाण-प्रथ प्रकाशन समिति ने वास्तव अन्तिम पद्य में बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसके सभी प्रकाशन 'मेदपाट भू के अन्तर्गत, दुर्ग एक प्रत्यात ललाम । सुन्दर एव उपयागी है। विशेषतः वीरेन्द्रकुमार जैन का चर्मणपनी नदी-तट गिरि पर भेसरोडगढ़ जिसका नाम। महाकाव्यात्मक उपन्यास 'मनुत्तरयोगी तीर्थकर महावीर' किया यहाँ पर 'हिम्मत' ने यह सस्कृत से भाषा अनुवाद । (तान खण्ड) जैमा वितीय नथ प्रकाशित करके समिति काव्य रसिक पढ करके इसको लेवें काव्य कला का स्वाद ॥ न एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। २५०० वें वीर प्रस्तुत पद्यानुवाद के पद्यानुवाद कवि ठाकुर हिम्मत- निर्वाण महोत्सव की यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी सिंहजी ने महिषासुर वध और शनिश्चर कथा नामक २ जायेगी। 000 नाहटा भवन, बीकानेर (राज.) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और शिल्प में रामकवा मर्यादा पुरुोत्तम राम प्राचीन काल से ही हिन्दू देवसमूह के लोकप्रिय देवता रहे हैं। हिन्दू देवकुल के अतिरिक्त राम को जैन एवं बौद्ध देवकुलो मे भी विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी। राम, लक्ष्मण और सीता के जीवन की विस्तृत विवेचना करने वाली वाल्मीकि की रामायण सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के इतिहास में सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रही है । परवर्ती युगो मे भी रामकथा से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचे गए। महाभारत और पुराणो के अतिरिक्त भास, कालिदास, भवभूति और राजशेखर जैसे रचनाकारो ने भी अपने ग्रन्थो में रामकथा के प्रेरक प्रसंगों के उद्धरण दिए है। अद्भुतरामायण, अध्यात्मरामायण और आनन्दरामायण जैस ग्रंथ सीधे रामकपा से सम्बन्धित है। विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में भी रामयण की रचना की गई थी, जिनमे तुलसीकृत रामचरितमानस सर्व प्रमुख है। हिन्दुओ के अतिरिक्त बौद्धी एवं जैन ने भी रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की थी। बौद्ध ग्रंथ दशरथ जातक मूलतः रामकथा से ही सम्बन्धित है । । कृष्ण, गणेश, लक्ष्मी एवं सरस्वती जैसे हिन्दू देवताओं के समान ही राम को भी हिन्दू देवकुल से जन देवकुल मे ग्रहण किया गया है। जैन ग्रंथों में राम और कृष्ण को विशेष प्रतिष्ठा प्रदान की गई थी इसकी पुष्टि उक्त देवों पर स्वतन्त्र जैन ग्रन्थो की रचना से होती है । उत्तराव्ययनसूत्र, अंतगडदसाओं विपशिलाका पुरुषचरित्र और हरिवंशपुराण जैसे जैन ग्रंथ कृष्ण के जीवनचरित्र के विस्तृत निरूपण से सम्बन्धित है। राम-लक्ष्मण और कृष्ण-बलदेव के प्रति प्रारम्भ से ही जनमानस का पूज्य भाव रहा है और इन्हें अवतारपुरुष स्वीकार किया गया है। जैनों किनान्यताओं के सम्मान की दृष्टि । ने ही उक्त देवों को अपनी परम्परा में सम्मिलित किया है। यही नहीं, जैन ग्रन्थों में रावण और जरासंघ जैसे श्री मारुतिनन्दन तिवारी अत्याचारी व्यक्तित्वों को भी सम्मानित स्थान प्रदान किया गया था। इन अनाक को अपने देवन में सम्मिलित कर जैनो ने सम्भवत. अनार्य जातियों की भावनाओं की रक्षा की थी। रामकथा के तीन प्रमुख चरित्रों राम, लक्ष्मण और रावण को जैन देवकुल के तिरसठ शलाकाgrat की सूची में सम्मिलित किया गया है। राम (पद्म), लक्ष्मण और रावण क्रमश. आठवें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवामुदेव रहे हैं। रामकथा से सम्बन्धित जैन ग्रंथों की रचना तीसरी शती ई० से निरन्तर सोलहवी शती ई० तक होती रही है। रामकथा के निरूपण से सम्बन्धित कुछ प्रमुख जैन ग्रंथ विमलसूरिकृत पउमचरिय ( तीगरी शती ई० ), संघदासकृत वमुदेवहिडी (५०६ ई०) रविषेणकृत पद्मपुराण (६७८ ई०), स्वयंभूकृत पउमचरिउ (आठवी शती ई०) शीलांकाचार्यकृत चउपन्न महापुरिमचरिय ( ८६८ ई०), गुणभद्रकृत उत्तरपुराण (नवी शती ई०), पुष्पदन्तकृत महापुराण (६६५ ई०), भद्रेश्वरकृत कहावली (ग्यारहवी शती ई०), हेमचन्द्रकृत त्रिष्टिशलाकापुरुषचरित्र (बारहवी शती ई० ) एव देवविजयगणिकृत रामचरित ( २५९६ ई०) रहे है । स्पष्ट है कि विमलमूरिकृत पउमचरिय ही रामकथा से सम्बन्धित प्राचीनतम जैन कृति है । जैन परम्परा में निरूपित रामकथा की कुछ मुख्य बातें निम्नलिखित है: अयोध्या के इक्ष्वाकु शासक दगर के राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न नाम के चार पुत्र थे । राम का विवाह विदेह के शासक जनक की पुत्री सीता के साथ हुआ था। लंका के शासक रावण ने सीता के सौन्दर्य के वशीभूत होकर उसका अपहरण किया। इससे राम अत्यन्त दुखी हुए सीता की खोज के कार्य के अन्तर्गत ही राम-लक्ष्मण की भेंट वानरराज सुग्रीव से हुई। राम Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त लक्ष्मण ने किष्किन्धा के राज्य को प्राप्त करने में सुग्रीव जैन ग्रन्थों में रामायण का निरूपण जहाँ अत्यन्त की सहायता की। बाद में सुग्रीव की सेना के साथ ही लोकप्रिय विषय रहा है, वहीं मूर्त अंकनों में रामकथा या राम-लक्ष्मण ने लंका की ओर प्रस्थान किया। रावण के राम के स्वतंत्र चित्रणों के उदाहण अत्यन्त सीमित हैं। अनुज विभीषण ने रावण को अपहृत सीता ससम्मान राम किसी श्वेताम्बर स्थल से राम के मूर्त अंकन के उदाहरण को लौटा देने का परामर्श दिया, जिसे रावण ने अस्वीकार नहीं प्राप्त होते है। राम के मूर्त चित्रणों के उदाहरण कर दिया । परिणामस्वरूप सीता की मुक्ति के लिए राम केवल खजुराहो के पार्श्वनाथ जैन मन्दिर से ही प्राप्त होते को रावण मे युद्ध करना पड़ा। राम और रावण की हैं। चन्देल शासकों के काल में निर्मित ६५४ ई० का यह सेनाओं के मध्य हुए भयंकर युद्ध में रावण की मृत्यु हुई। पार्श्वनाथ मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध है। मन्दिर अन्ततः राम ने सीता को प्राप्त किया और लंका के सिंहा- के मण्डप की उत्तरी भित्ति पर राम-सीता की मूर्ति सन पर विभीषण को प्रतिष्ठित किया। उत्कीर्ण है। त्रिमंग मुद्रा में अवस्थित राम-सीता के पाव मे कपिमुख हनुमान आमूर्तित है। चतुर्भुज राम की दो लंकाविजय के पश्चात् राम और लक्ष्मण सीता के भुजाओ में लंबा शर है। ऊर्ध्व वाम भुजा से राम वाम साथ अयोध्या लौट आए । जैन परम्परा के अनुसार, राम पार्श्व में अवस्थित सीता का आलिगन कर रहे हैं, जिसमें की ८००० रानियाँ थी जिनमें सीता और तीन अन्य उनकी उंगलियां सीता का स्तन स्पर्श करती हई प्रदर्शित प्रमुख थी। लक्ष्मण की १६००० रानियाँ थी, जिनमे हैं। राम की निचली दाहिनी भुजा हनुमान के मस्तक पर पृथ्वीसुन्दरी प्रमुख थी। स्मरणीय है कि हिन्दू परम्परा मे आशीर्वाद देने की मुद्रा (पालित मुद्रा) मे है। किरीटमुकुट, राम और लक्ष्मण दोनों को एकपत्नीक बताया गया है। कर्णफूल, चेन्नवीर, मेखला, वनमाला और धोती आदि से जैन परम्परा के अनुसार, लक्ष्मण की मृत्यु के बाद राम शोभित राम की पीठ पर तूणीर चित्रित है। द्विभुज सीता साधु हो गए। सतत साधना के पश्चात् राम को केवल की वाम भुजा में नीलोत्पल प्रदर्शित है, जब कि दक्षिण ज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति हुई। जैन तीर्थ करो (या भुजा आलिगन की मुद्रा मे राम के कंधों पर स्थित है। जिनों) द्वारा उद्बोधित मार्ग का अनुसरण न करने के सीता स्तनहार, अल कृत शिरोभूषा, धोती आदि से कारण ही मृत्यु के बाद लक्ष्मण को नरक मे जाना पड़ा। सुशोभित है। राम के दक्षिण पाश्र्व की हनुमान आकृति शास्त्रविरुद्ध कार्यों को करने के कारण रावण भी नरक में कौपीन एवं अन्य आभूषणो से सज्जित है । हनुमान की उत्पन्न हुआ। जैन आयिका का जीवन व्यतीत कर सीता एक भुजा राम की उंगलियों का स्पर्श करने की मुद्रा मे ने मोक्ष प्राप्त किया। ऊपर उठी है। उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि कुछ बातों के अति उपर्युक्त चित्रण के अतिरिक्त पार्श्वनाथ मन्दिर के रिक्त अन्य दृष्टियों से जैन परम्परा का रामकथा हिन्दू दक्षिणी शिखर के समीप रामकथा का एक दृश्य भी परम्पग पर ही आधृत है। राम आर लक्ष्मण का अनक चित्रित है । दृश्य में रावण द्वारा अपहृत सीता को अशोकपत्नियों, लक्ष्मण द्वारा रावण के वध, राम द्वारा जिन-मार्ग वाटिका में एक वृक्ष के नीचे आसीन दरशाया गया है। का अनुसरण कर मोक्ष प्राप्त करने जैसे उल्लेख स्पष्टत कपिमुख हनुमान क्लांतमुखी सीता को राम का सन्देश । हिन्दू परम्परा से भिन्न है। जैन परम्परा मे रावण को ओर मुद्रिका देने की मुद्रा में प्रदर्शित हैं। हनुमान दशमुखी राक्षम के स्थान पर विद्याधरवंशी शासक बताया खड्गधारी राक्षस आकृतियों से वेष्ठित है। गया है जो मनुष्य था। ग्रीवा के हार की नौ मणियो में पड़ने वाले प्रतिबिवों के कारण ही उसे दशानन बताया गया है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कर्म-सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन - डा० राममूर्ति त्रिपाठी हिन्दू संस्कृति का प्रत्यभिज्ञापक प्रतिमान है पुनर्जन्म- कम पर्याय रूप में भी समझे जाते हैं, कभी-कभी क्रिया वाद में आस्था। पुनर्जन्मवाद का मूल है कर्मवाद । हिन्दू आत्मा के द्वारा प्राप्य 'कर्म' कहा जाता है। पाणिनी ने संस्कृति के अन्तर्गत परिगणित होने वाली तीनो धाराएं- 'कर्म', जो कर्ता की क्रिया से ईप्सिततम रूप में प्राप्त ब्राह्मण (शैव, शाक्त तथा वैष्णावादि), जैन और बौद्ध होता है-उसे कहा है। विवेकशील मानव के सन्दर्भ में कर्मवाद में आस्था रखती हैं । ब्राह्मण अथवा वैदिक धर्म मीमांसा दर्शन ने 'कर्म' के नित्य, नैमित्तिक, काम्य और के अन्तर्गत परिगणित होने वाला मीमांसा दर्शन तो 'कर्म' निषेध्य रूपों पर पर्याप्त विचार किया है। मानव जी को सब कुछ मानता है-'कति मीमामकाः'। बोद्ध केही सन्दर्भ में प्रारब्ध, सचित और क्रियमाण संष्टिमत समस्त वैचित्र्य का मूल कर्म को स्वीकार करते कर्मचक्र का विचार उपलब्ध होता है। गीता में 'कर्म' है और जैन कर्म तथा जीवात्मा का अनादि सम्बन्ध शब्द का विशिष्ट और सामान्य, संदर्भ-सापेक्ष तथा संदर्भस्वीकार करते हैं। तीनों ही धाराओ मे सृष्टि का मूल निरपेक्ष अनेक रूपो मे प्रयोग मिलता है। शाकर अद्वैत'कम' मानने वाले उपलब्ध है-मानवेतर किसी सर्वोपरि वेदात की दृष्टि से, 'गीताकार' के 'मतभाबोदभवकरः सत्ता 'ईश्वर' को अस्वीकार करते है। तीनों अनादि विसर्गः कर्मस गितः' की व्याख्या करते हुए लोकमान्य तिलक वासना, कषाय और तण्हा को कर्मबन्ध का मूल मानते है। ने जो कुछ कहा है, उसका आशय यह है कि निस्पंद ब्रह्म तीनों ही इनका समुच्छेद स्वीकार करते है। इन तमाम मे मायोपाधिक आद्यस्पंद या हलचल ही 'कर्म' है। इस समानताओं के बावजूद 'कर्म' के स्वरूप के सम्बन्ध मे प्रकार, सारी सृष्टि ही गत्यात्मक होने से क्रियात्मक या जैनदर्शन की धारणा सर्वथा भिन्न है। कर्मात्मक है। स्थिति तो केवल ब्रह्म है। 'स्थिति' के वक्ष जनेतर दर्शनों मे वैशेषिक दर्शन 'कर्म' को एक पर ही 'गति' है-हलचल है-बनना बिगड़ना हैस्वतन्त्र पदार्थ मानता है। उनकी दृष्टि मे, 'कर्म' वह है संसार है । वैशेषिक दर्शन का कर्म भी वही है-वैसे उसे जो द्रव्य समवेत हो, जिसमे स्वयं कोई गुण न हो और जो माया अथवा मायोपाधिक स्पद का पता नही है। जैन संयोग तथा विभाग में करणान्तर की अपेक्षा न रखता दर्शन भी जब कायवाड मना कर्म को योग' कहता है, तब हो । गण की तरह यहाँ कर्म भी द्रव्याश्रित धर्म विशंप वह काय, वाक् तथा मन प्रदेश मे होने वाले आत्मपरिस्पंद है। गुण द्रव्यगत सिद्ध धर्म का नाम है जबकि क्रिया को ही क्रिया या योग कहता है । यहां योग, क्रिया तथा 'साध्य' है। कर्म मूर्त द्रव्यो में ही रहता है और मूर्त द्रव्य कर्म को सामान्यतः पर्याय रूप में लिया गया है -वैसे वे होते है जो अल्प परिमाण वाले होते है। वैशेपिको के अन्यत्र 'कम' का स्वरूप सर्वथा भिन्न रूप में कहा गया है। यहां आकाश, काल, दिक तथा आत्मा विमु या व्यापक जैन दर्शन में 'कर्म' के स्वरूप पर विचार करते है अतः इनमें कर्म नही होता । पृथ्वी, जल, वायु, तेज हुए यह माना गया है कि कर्म और जीवात्मा का अनादि तथा मन इन्ही मूर्त पाच द्रव्यों में कर्म की वृत्ति रहती सम्बन्ध है। कर्म ही के कारण जीव व शरीर एक साथ है। यह कर्म पांच प्रकार का है-उत्प्रेक्षण, आकुचन, होता है यानी जीव एवं शरीर होता है। कर्मों के ही प्रसारण तथा गमन । अन्य सर्वाविध क्रियाओं का अन्तर्भाव कारण जीव में कषाय आती है और कपाय के ही कारण गमन' में ही हो जाता है। यहां कभी-कभी क्रिया और कर्म के योग्य पुद्गलों का आत्मा में उपश्लेष होता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६, वर्ष ३०, कि० ३-४ इस प्रकार जो पौद्गलिक, मूर्त तथा द्रव्यात्मक है-भौतिक करते । हां, विदेहमुक्त-सिद्ध' में घातिया 'अधातिया को है-बह आयतन घेरता है । जिस प्रकार पात्र विशेष में की स्थिति नहीं रहती। जैन कर्म सिद्धान्त में इन कर्म फल-फूल तथा पत्रादि का मदिरात्मक परिणाम विशेष होता भेदों का बड़े विस्तार से वर्णन मिलता है। लेकिन सामान्य है, उसी प्रकार आत्मा में एकत्रयोग, कषाय तथा योग्य से समझने के लिये कर्म के १४८ मेद हैं। ज्ञानावरण के पदगलों का भी जो परिणाम होता है-वही 'कर्म' है। पांच, दर्शनावरण के नव, वेदनीय के दो, मोहनीय के कषायवश काय, वाक्, मनःप्रदेश मे आत्मपरिस्पंद होता है अट्ठाईस. आयु के चार, नाम के बयालीस, गोत्र के दो और इसी परिस्पदवश योग्य पुद्गल खिच आते है। इस तथा अन्तराय के चार भेद हैं। फिर इनके अवान्तर प्रकार कर्म से आत्मा का बन्ध या सम्बन्ध होता है और भेद हैं। इस कर्मबन्ध का जिस प्रकार ब्राह्मणदर्शनों या बौद्ध सम्बन्ध होने से विकृति या गण प्रच्यति होती है । प्रवचन दर्शन में 'चक्र' मिलता है-वह कर्मचक्र यहां भी सार के टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि का कहना है कि आत्मा आचार्यों ने निरूपित किया है । ब्राह्मण दर्शनों में माना द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते है। उस क्रिया गया है कि कर्म अपने मूक्ष्म रूप में जो संस्कार (अदृष्ट या के निमित्त से परिणाम विशेष को प्राप्त होने वाले पदगल अपूर्व रूप मे) छोड़ते है--वे 'सचित' होते जाते हैं। इस को भी कर्म कहा जाता है। जिन भादो के द्वारा पद्गल 'संचित' भण्डार का जो अंश फलदान के लिये उन्मुख हो आकृष्ट होकर जीव मे सम्बद्ध होते है-वे भाव जाता है-वह 'आरब्ध या प्रारब्ध' कहा जाता है और जो कर्म कहलाते है और आत्मा में विकृति उत्पन्न करने वाले तदर्थ उन्मुख नहीं है-वह 'अनारब्ध' या 'सचित' कहा पद्गलपिड को द्रव्य कर्म कहा जाता है। पचाध्यायी मे तो जाता है। किया जा रहा कनं 'क्रियमाण' है। इस प्रकार यह भी बताया गया है कि आत्मा मे एक वैभाविक शक्ति 'क्रियमाण' से 'संचित' और 'संचित' से 'प्रारम्प' और फिर है जो पगलपुज के निमित को या आत्मा मे विकृति 'प्रारब्ध' योग के रूप में क्रियमाण' कर्म और फिर इससे उत्पन्न करती है । यह विकृति कर्म और आत्मा के संबंध से उत्पन्न होने वाली एक अन्य ही आगन्तुक अवस्था है। आगे-आगे का चक्र चलता रहता है । बौद्ध दर्शन में उसे 'अविज्ञप्ति कर्म' कहते हैं, जिसे ऊपर वैशेषिक दर्शन के इस प्रकार, आत्मा शरीर रूपी कावड में कम रूपी भाग अनुसार 'अदष्ट' तथा मीमासा दर्शन के अनुसार 'अपर्व' को निरन्तर वहन करता रहता है। इसी से राहत पाना है, कहा गया है। साख्य कर्मजन्य सूक्ष्म बात को 'संस्कार' आत्मा को निरावृत करना है। नाम से जानता है । अविज्ञप्तिकर्म का ही स्थल रूप 'विज्ञप्ति ____ आत्मा से कर्म का मम्वन्ध 'बन्ध' का कारण बनता कर्म' है। वस्तुतः बौद्ध दर्शन मे धर्म, चित्त और चैतसिक है। यह कर्म या तन्मूलक बन्ध चार प्रकार का होता है सूक्ष्म तत्त्व है जिनके घात-प्रतिवात से समस्त जगत् उत्पन्न प्रकृति, स्थिति, अनुभव या अनुभाग और प्रदेश । कर्म या होता है। एक अन्य दृष्टि से इन्हे 'संस्कृत' और 'असंस्कृत'बन्ध का स्वभाव ही है-आन्म की स्वभावगत विशेषताओ दो भेदों में विभक्त किया जाता है। इन्हे 'सासव' और का आवरण करना । 'स्थिति' का अर्थ है -अपने स्वभाव 'अनास्रव' नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत धर्म हेतु से अच्युति । स्वभाव का तारतम्य अनुभव है और 'इयत्ता' प्रत्ययजन्य होते हैं। इसके भी चार भेदो में दो मे से एक प्रदेश । स्वभाव की दृष्टि से 'कर्म' आठ प्रकार के कहे गये है-रूप । रूप के ग्यारह भेद हैं-पाँच इन्द्रिय और पाँच ह-शानावरण, दशनावरण, वदनाथ, माहनाय, आयु, विषय तथा एक अविज्ञप्ति । चेतना जन्य जिन कर्मों का नाम, गोत्र तथा अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरण, दर्शना फल सद्यः प्रकट होता है--उन्हें 'विज्ञति' कर्म कहते हैं बरण, मोहनीय तथा अन्तराय को घातिया कर्म कहते है, और जिनका होता है जो अविति' क्योकि ये आत्मगुण-ज्ञान, दर्शनादि का घात करते है। कहते हैं। इन्हे 'संचित' 'प्रारब्ध' के समानान्तर रख कर अवशिष्ट चार बघातिया है। जीवनमुक्त के शरीर से ये परख सकते है । सामान्यतः यह विवेचन वैभाषिक बौद्धों सम्बद्ध रहकर भी उसके आत्मगत गुणों का घात नही के अनुसार है। (शेष पृ० ४८ पर) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलंकी-काल के जैन मन्दिरों में जनेतर चित्रण डा. हरिहर सिंह गजरात में ११वी से १३वी मदी तक सोलंकी कुम्भारिया स्थित शांतिनाथ-मन्दिर (१०८१०)के गजाओं का प्रभुत्व था। इम काल में गजगत एक भक्ति- गर्भगृह द्वार तथा उत्तरी मुखचतुष्की द्वार पर गंगा-यमुना शाली राज्य बना। इसक्री गजांतिक मीमाओं का विग्तार की मूर्तियां प्रदर्शित है। चागें मूर्तियाँ त्रिभंग मुद्रा में खडी तो हआ ही, आथिक एवं मिक क्षेत्र में भी काफी है। इनके एक हाथ में जलपात्र और दूमरा कट्यवलंवित उन्नति हुई। इस काल में य: वनाम्बर जैनधर्म का है। पहचान के लिए इनके वाहन भी अफिन है अर्थात बोलबाला था। कलिकाल मर्वन आ० हेमचन्द्र के प्रभाव गगा के माय मकर और यमना के साथ कूर्म । तत्कालीन गे मारपाल जमे प्रतापी राजा ने जैनधर्म अगीकार कर हिन्दू मन्दिरो में भी ये इसी प्रकार प्रदगित है, परन्तु लिया और परमाईन् विन्द गे अनिहित हुआ । गुजगन के गजगत के अन्य किसी भी जैन मदिर की द्वारशाखाओ अधिकाश मुन्दर एव विशाल जैन पन्दिर इमी काल में पर इनको मुनियाँ नहीं है यद्यपि मध्यभारत (व जराहो निर्मित हुए । तत्कालीन सभी जैन मन्दिर श्वेताम्बर है। आदि) के जैन मन्दिरो में इन्हे याचिन स्थान प्राप्त है। ये कला एवं स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने है। आबू (मम्प्रति गजगत के अन्य जैन मन्दिगं में इनके स्थान पर प्रायः मिरोही, राजस्थान) और कुभारिया (बनाम काटा, जनपात्र धारण की ई नारी को आमूनित किया गया है। गजगत) के जैन मन्दिर तो न केवल गुजगत प्रत्गुन जनधर्म मे नदी-पूजा का कोई महत्व नहीं है और सम्भवत. सम्पूर्ण भारत की शान है। इमीलिए अन्य जैन मन्दिगे में इन्हें प्रगित नहीं किया गया विन्यास की दृष्टि से जैन मन्दिर सामान्यतया सम- है। प्रस्तुत जैन मन्दिर में इन नदी-देवियों का अंकन मामयिक हिन्दू मन्दिरो से माभ्य रखते है, तथापि जैन आकस्मिक ही है। सम्भवतः कलाकार हिन्दू धर्मावलम्बी मन्दिरों की कुछ अपनी विशेषताए हैं जमे गूडमण्डप और था और उसने अपने धर्म का उद्घाटित करने के लिए रंगमण्डप के बीच मे त्रिकमण्डप का निर्माण, मन्दिर के जलपात्र धारण की हुई नारियो के माथ देवियों के वाहन चारो ओर देवकुलिकाएं, मन्दिर के सामने बलानक की अंकित कर उन्हे गंगा-यमुना का रूप दे दिया। यह भी मरचना इत्यादि। उनके अलंकरण मे भी थोडी भिन्नता सम्भव है कि सूत्रधार ने भल से इन्हे यहाँ प्रदर्शित किया हो। है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जैनधर्म का अपना आब के आदिनाथ-मन्दिर मे देवकूलिकाओं के सामने देवकूल है। अत. मन्दिर की साज-सज्जा में जैन-मूर्तियो एवं निर्मित पट्टशालिका (भमती या भ्रमन्तिका) के तीन प्रतीकों का ही भरपूर उपयोग किया गया है। परन्तु जैन वितानों मे हिन्दू चित्रण है। देवकुलिका संख्या ११ में जैन देवकुल में सभी देवता जैन ही हों ऐसी बात नहीं है। विद्यादेवी रोहिणी के तीन ओर गणेश, वीरभद्र और अष्टदिकपाल, गणेश इत्यादि हिन्दू देवताओ को जैन देव- औरत के साथ मातकाओं कुल में ज्यो का त्यों आत्मसात् कर लिया गया है। जैन सभी मूर्तियां चार मुजावाली है और ललितासन मुद्रा में मन्दिरों में कुछ ऐसे भी चित्रण है जो निश्चित रूप से आसीन है। प्रत्येक को उसके वाहन एवं आयुधों के साथ हिन्दू ही है जिन्हे प्रायः मन्दिर के भूषण स्वरूप ही स्वी. उत्कीर्ण किया गया है। इनमे वैष्णवी, चामुण्डा और कार किया गया है। ऐसे चित्रण कुम्भारिया के शांतिनाथ माहेश्वरी की पहचान स्पष्ट है। जैन देवकुल में सप्तमातमन्दिर में और आबू के आदिनाथ-मन्दिर (विमलवसही) काएं नही है, अतएव इनके हिन्दू होने में किचित् भी में सुरक्षित हैं। संदेह नहीं है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त देवकुलिका संख्या २६ में कालीय नाग-पाश का दृश्य आयुधों से युक्त वह दैत्यराज हिरण्यकश्यप को अपने दोनों चित्रित है । संपूर्ण वृश्य को तीन भागों में दर्शाया गया पैरों के बीच दबाकर उसके पेट को पैने नाखून से फाड़ है। वर्गाकार मध्यभाग में वृत्त में कृष्ण द्वारा कालीय के रहे हैं । खड्ग एवं ढाल धारण किये हुए दैत्यराज बिलबाँधने का चित्रण है। कालीय तीन फणों से युक्त है, उस- कुल बेबस मालूम पड़ता है। सम्पूर्ण चित्रण सोलह पंखका ऊपरी भाग मानवाकार तथा निचला नाग जैसा है। ड़ियों वाले गोल पद्म के बीच प्रदशित है। यद्यपि मूर्ति उसे अनेक गिरहों में समूचे वृत्त मे रखा गया है। कृष्ण एक समतल शिलाखण्ड पर बनाई गई है, तथापि उसमें उसके कंधे पर सवार होकर एक हाथ से उसे नाथ रहे है पर्याप्त उभार है और कला का एक उत्कृष्ट नमूना है । तथा दूसरे में चक्र धारण किये हुए हैं। कालीय शांतमुद्रा परन्तु दैत्यराज के मुख से उसके भयमीत होने का कोई में दोनों हाथ जोडे हुए है जो उसकी पराजय का द्योतक चिन्ह नही दिखता। इसे मूर्तिकार की कमजोरी ही कह है । इगी दृश्य में हाथ जोटा गाT नागिनियों का भी सकते हो नि चित्रण है। आयताकार पादत्र भागों में एक आर वृष्ण नमिह को विष्ण का अवतार कहा है। अन्य खिलाड़ियों के साथ कन्दुक खेल रहे है तथा दूगरी ओर कृष्ण (विष्णु के अवतार) शेषनाग पर गयन कर रहे विमलवमही के उपर्य क्त दोनों वैष्णव चित्रण है, लक्ष्मी चंवर ला रही है और एक गण उनके कर का (कालियादमन व नृमिहावतार) भ्रमंतिका के प्रमुख मर्दन कर रहा है। दगी दृश्य में कृष्ण चाणर का द्वन्द्व भी आकर्षण है । जहाँ सब कुछ जैन ही वहाँ इस प्रकार के प्रणित है। हालांकि कालीय पाग की कथा जैन पुराणों में चित्रणो को कैसे स्थान मिला, यह एक विचारणीय प्रश्न काफी मशहर है परन्तु प्रस्तुन दृष्य हिन्दू कथा की ही है। मभवतः कलाकार वैष्णव धर्मावलम्बी था। जहां उसने अनुकृति है, क्योकि कृष्ण के शेपणावी होने तथा कन्दक सैकड़ो जैन चित्रण प्रदर्शित किये वहाँ उसे कुछ-एक वैष्णव खेलने की कथा क्वल हिन्दू पुराणों में ही है। चित्रण उत्कीर्ण करने में किचित् भी हिचकिचाहट नहीं हुई । मन्दिर के सरक्षक ने भी इसका विरोध न कर देवकलिका सम्या ४६ मे मिहावतार का चित्रण समर्थन ही किया होगा, क्योंकि इससे न केवल मन्दिर के है। नसिह भगवान का ऊपरी भाग सिंह जैसा और गौरव में ही अपितु जनेतर लोगों को आकर्षित करने में निचला मानवाकार है। उनकी मोलह भुजाए है। विभिन्न भी सहायता मिली होगी। 000 (पृष्ठ ४६ का शेपाश) महपि कुन्दकुन्द ने 'पचास्तिकाय' मे जैन चिन्तनधारा इस कर्मचक्र से मुक्ति पाने के लिये तीनों ही धाराएं के अनुरूप 'कर्मचक्र' को स्पष्ट किया है। मिथ्यादृष्टि, यत्नशील है । तदर्थ कही शील, समाधि भीर प्रज्ञा का अविरति, प्रमाद, कपाय और योग-सभी बन्ध के कारण विधान है और कही सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा हैं। यह तो माना ही गया है कि जीव और कर्म का अनादि सम्यक्चारित्र का तथा कही श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन सम्बन्ध है, अर्थात् जीव अनादि काल से संसारी है और का उपदेश है । कही परमेश्वर अनुग्रह या शक्तिपात, जो संसारी है वह राग, द्वेष आदि भावों को पैदा करता दीक्षा तथा उपाय का निर्देश है । इस प्रकार, विभिन्न है, जिनके कारण कर्म आते है । कर्म से जन्म लेना पड़ता मार्गों से हिन्दू संस्कृति की विभिन्न धाराओं में कर्मचक्र है, जन्म लेने वाले को शरीर ग्रहण करना पड़ता है। से मुक्ति पाने और स्वरूपोपलब्धि तक पहुंचने का क्रम शरीर से इन्द्रिया होती है। इन्द्रियों द्वारा विषयों का निर्दिष्ट हुआ है। जैन-दर्शन तो सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन ग्रहण होता है और विषयों के कारण राग-द्वेष होते है और तथा सम्यक चारित्र को सम्मिलित रूप से मोक्ष मार्ग फिर रागद्वेष से पौद्गलिक कर्मों का पाकर्षण होता है। मानता है। 000 इस प्रकार यह चक्र चलता ही रहता है। अधिष्ठाता, कला संकाय, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावस्ती का जैन राजा सुहलदेव ॥ श्री गणेशप्रसाद जैन राजा सुहलदेव श्रावस्ती का राजा था। मुस्लिम मे शामिल थे। बहराइच का मैफुद्दीन, महोवा का हसन, इतिहासकारों ने राजा सुहलदेव का समय १०२३ ई० गोपामऊ का अजीजुद्दीन, लखनऊ का मलिक आदम, कड़े लिखा है । मीराते-मसऊदी (फारसी तवारीख) में चिश्ती मानिकपुर का मलिक फेज, मसऊद के मगे मामा साहब ने लिखा है : "निजद दरियाय-कुटिला (टेढ़ी) जेर रजबहठीले, सैयद इब्राहिम, सिकन्दर बरहना आदि सभी दरख्ता गलचिकाँ व जर्वनावक हमचू भी जान शहीद सु अपनी पूरी ताकत से युद्ध जीतने की कोशिश कर रहे थे। दन्द ।" अर्थात् कुटिला नदी के किनारे महुए के पेड़ के किन्तु राजा मुहलदेव के जोश-खरोश के सामने कोई टिक नीचे एक तीक्ष्ण बाण की मार मे सैयद सालार मसऊद न मका । मारा गया। एक भी मुस्लिम सैनिक जिन्दा नहीं बचा।" सालार-ममऊद हिन्दुओं मे युद्ध के समय हमेशा युद्ध चिश्ती साहब आगे लिखते हैं : "मसऊद (गाजीमियां) के नियमों के खिलाफ काम करके युद्ध जीतता था। वह अपनी भारी भरकम शाही सेना के माथ १७वी शावान हिन्दु सेना के समक्ष हरावल (गायों का बेडा) खडा कर ४२३ हिजरी (सन् १०३३ ई०) को बहराइच पहुंचा। देता। हिन्दू सैनिक गाय पर शस्त्र प्रयोग नहीं करते थे कोसल (कौड़ियाल) के निकट उसमें और हिन्दु सेना मे और ममलमान मैनिक हरावल के पीछे मे हिन्दू सेना पर युद्ध छिड़ा। हिन्दू-सेना पराजित हो रही थी, तभी राजा धऑधार शस्त्र प्रहार करते और विजयी होते । किन्तु 'सुहलदेव' भूकंप की तरह हिन्दू-सेना के बीच आ धमके। राजा सहलदेव ने बद्धि का प्रयोग किया। उन्होने बिना उन्होने युद्ध की कमान मम्हाली और मुस्लिम-वाहिनी मे भाले वाले बाणों की हलकी मार गे गायो के हरावल को मार-काट करते हुए घस गए। भुट्टे की तरह मुस्लिम हटा दिया। अब मैदान साफ था और सीधा सामना था । सैनिकों का सर काट रहे थे। हिन्दू सेना के उखड़े पाँव मस्लिम सैनिकः रणक्षेत्र में युद्ध लड़ने के अभ्यामी नहीं थे। जम गए। उन्होंने उत्साहपूर्वक युद्ध किया। मुस्लिम- गायों के पीछे से शरत्र का वार करने वाले सैनिकों को वाहिनी मैदान छोड़कर भागी। राजा सुहलदेव और उन- नेत्रों के सामने यमराज खड़े दिखने लगे। की सेना मुगलवाहिनी को खदेड़ती-खदेड़ती बहराइच मे राजा सुहलदेव के साथ जब सैयद सालार मसऊर का उसके पड़ाव तक लाई। वहाँ पुनः गहरा युद्ध हुआ। युद्ध हो रहा था, उसी समय वाराणसी में सुलतान महमद युद्ध में मसऊद के साथ उसकी सेना का प्रत्येक मुगल के पुत्र के नेतृत्व में (मसऊद र जब की १८ के लगभग) सनिक मारा गया। एक भी जीवित नहीं बचा। यह वाराणसी को ध्वस्त किया जा रहा था। रज्जकुल मुरज्जव के १८वी हिजरी ४२४ (सन् १०३४ ई०) मबक्तगीन की तवारीख १०५६ ई. सन की रचना की घटना है। रणक्षेत्र बहराइच से केवल ८ मील की है। उसमें इस युद्ध का वर्णन १०३४ ई० लिखा है। दूरी पर है।" चिश्र्ती साहब की मीराते-मसऊदी वाली घटना तवारीखे सैयद सालार मसऊद भारत सम्राट् (बादशाह) को महमूदी किताब से लेकर लिखी है । तवारीखेमहमूदी मुल्ला सगा भानजा था। वह महान योद्धा था। उस पर बादशाह गजनवी का लिखा हुआ है। मुल्ला गजनवी इस युद्ध में की विशेष मेहरबानी थी। उपर्युक्त युद्ध के लिए बादशाह सैयद सालार मसऊद की सेना के साथ था। की विशिष्ट-मुगल-वाहिनी मसऊद की सिपहसालारी में बम्बई की एशियाटिक सोसाइटी के जनल में 'फाइव आई थी। बड़े-बड़े सैनिक-योद्धा अपनी सेना सहित मदद हीरोज' शीर्षक से आर० ग्रीमेन का एक लेख प्रकाशित है, Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ५०, वर्ष ३०, कि० ३-४ जिसमें लिखा है कि मसऊद ने कौड़ियाल के मैदान में देशी राजाओं को पराजित किया था, किन्तु राजा सुहलदेव के आते ही युद्ध की स्थिति बदल गई । मसऊद 'रजब' की १८वी तारीख सन् ४२४ हिजरी को अपने साथियो सहित मारा गया । । एशियाटिक सोसाइटी के सन् १९०० के के प्रथम पृष्ठ पर मि० स्मिथ का लेख है उसमें लिखा है कि राजा सुहलदेव 'भर-पारू' जाति अथवा 'डोम' जाति का था । वह सहेट- महेठ अथवा अशोकपुर का शासक था। सालार बहराइच मे राजा सुहलदेव के हाथों मारा गया। अशोकपुर में भी सुहलदेव और सालार से युद्ध हुआ था। राजा सुहलदेव जैन था । जनरल कनिघम ने सुहलदेव को गोंडा का 'थारू' राजा लिखा है । वंश परिचय में लिखा है कि उसका आदि पुरुष मोरध्वज (सन् १०० ई० में) था। उसके बाद इस वश में हंसध्वज ( हंसधज) सन् ६२५ ई० मे, मकरध्वज ( मकरधज ) सन् ६४० ई० में और सुनन्यध्वज सन् ६७५ ई० मे तथा सुहृदलध्वज सन् १००० ई० मे हुए है । उस समय नगरी का नाम चन्द्रिकापुरी था । 'अकियालाजिकल सर्वे की रिपोर्ट मे लिखा है कि राजा सुहृदलध्वज वहाँ का अन्तिम जैन- राजा था । यह इतिहास में सुहिलदेव या सुदिलदेव एवं सुहिगल के नाम से विख्यात है। यह महमूद गजनी का समकालीन था और इसी सुहिलदेव का सालार मसऊद से युद्ध हुआ था । अन्यत्र वर्णित है कि आठवी शताब्दी में 'सुधन्वा' नाम का श्रावस्ती का राजा था। यह जैनधर्मी था। इस राजा के दरबार में स्वामी शंकराचार्य एवं जैन विद्वानों का शास्त्रार्थं हुआ था । शंकराचार्य विजयी हुए और ने वैदिकधर्म स्वीकार कर लिया था। तभी से सुधन्वा उसके वंशज वैदिकधर्म का पालन कर रहे हैं, किन्तु उन की सहानुभूति अभी तक बराबर जैन धर्म के प्रति बनी हुई है । इसीलिये १२वीं शताब्दी तक भी जैन धर्म का हास नहीं हुआ । मखकृत श्रीकण्ठवरित में राजा सुहलदेव के सम्बन्ध में लिखा है कि 'भंख' के प्राता अलंकार ने अपने यहां उच्चकोटि के साहित्यिकों की एक गोष्ठी आयोजित की थी। उस गोष्ठी में राजा सुहलदेव पधारे थे। (राजतरंगिणी ८.३३५४.२ ) । उस समय अलंकार विदेश मन्त्री था। राजतरंगिणी में उसे सन्धिविग्रहिक लिखा है। (श्रीचरित, अ० २५ ) अलंकार और मंख दोनो कश्मीर के दो राजाओं के समय उच्च पदाधिकारी थे । प्रथम राजा सुसाल था और दूसरा जयसिह सुमाल का समय १११२ ६० सन् से । लेकर ११२८ ई० सत् तक और जयसिह का ११२८ से ११४६ ई० सन् तक था। श्रीकण्ठचरित का रचनाकाल सन् १९३५ से ११४५ के मध्य माना जाता है। राजतरंगिणी का रचयिता कल्हण मंख और अलंकार का सम्बन्धी था । बोदग्रन्थो में 'अनाथपिण्डद' नाम से श्रावस्ती के सबसे बड़े धनी सुदन सेठ का कथन है। उस सेठ ने १८ करोड स्वर्ण मुद्राएं देकर प्रसेनजित राजकुमार से जेतवन का बगीचा उपागत गौतम बुद्ध के लिए खरीदा था। इसी उदार प्रवृत्ति के कारण सेठ 'मुदरा' की उपाधि 'मन' प्रचारित हुई। सेठ सुदन का परिचय बौद्ध ग्रन्थों मे 'सेट्ठि' उपाधि से है। इसी सेट्ठि' का अपभ्रंश 'सहेट' है और सेठ की उपाधि महन का 'महेट' प्रचलित हो गया है । अब 'श्रावस्ती' सहेट-महेट के नाम से जानी जाने लगी है। राजा सुहलदेव ने 'गोडा-फैजाबाद' मार्ग पर बसे आलोकपुर (टटीला ) ग्राम में एक दुर्ग का निर्माण कराया था। उन्होंने इस दुर्ग के निकट भी दो बार मुस्लिम सेना को परास्त किया था। बहराइच जिले का 'चदरा का किला' भी राजा सुहलदेव द्वारा ही निर्मित है । ( इण्डियन ऐंटीक्वेरी, पृ० ४६ ) । संयद सालार मसऊद के साथ हुए युद्ध में राजा मुहमदेव के विजयी होने के पश्चात् केवल श्रावस्ती ही नहीं, अपितु पूरा अवध क्षेत्र ही निष्कण्टक हो गया था। राजा के पुत्र, पौत्र एवं प्रपोत्रों आदि ने लगभग दो सौ वर्षों तक शान्ति और धर्मपूर्वक बावस्ती का शासन सूत्र सम्हाला । ई० सन् १२२६ में शमसुद्दीन अल्तमश के ज्येष्ठ पुत्र मलिक ने अवध के इस अंचल को जीतकार अपने अधीन किया। तबकाने नासिरी में यह (शेष पृष्ठ ५३ पर) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान में मध्ययुगीन जैन प्रतिमाएं डा० शिवकुमार नामवेव मध्यकालीन राजस्थान में कला के विकास को की भुजाओं में वरद, वज्र, पद्मकलिका, कृपाण, खेटक, विभिन्न राजा-महाराजाओं द्वारा समूचे रूप में प्रोत्साहित पद्यमालिका, घण्ट एवं फल प्रदर्शित है । यक्षी के पाने मे किया गया था। व्यक्तिगत ऐश्वर्य को लिरस्थायी रखने पारम्परिक आयुधो (पाश एवं अग) एव वाहन वाले शासक भवन-निर्माण एवं मन्दिर-निर्माण पर (कक्कुट सर्प) का अभाव है, परन्तु मां-फगो का चित्रण अत्यधिक ध्यान देते थे । राजस्थान के अत्यधिक भूभाग मे पद्मावती की पहचान का समर्थक है। दूसरी ओर भुजा मध्य-कालीन जैन प्रतिमाएं स्वतन्त्र रूप से एवं मन्दिरों मे सर्प की अनुपस्थिति एव सर्प फणो का मग उग देगी के पर उत्कीर्ण मिलती है। महाविद्या वैरोट्या से पटवाग के विरुद्ध है। प्रतं कनो जोधपूर से उ० ५० ५६ किलोमीटर की दूरी पर मे भजाओं मे सर्वदा सर्प से युक्त वैरोट्या के मरतक पर ओसिया नामक स्थान है। यह समृद्धिशाली नगर था, कभी गर्पफण का प्रदर्शन नहीं प्राप्त होता है। जहां ब्राह्मण एवं जनों के लगभग २० मन्दिर निमित हुए राजस्थान मे लूनी पुनाकाब लाइन पर नालोतरा थे। ओसिया का प्रमुख जैन मन्दिर भगवान् महावीर स्टेशन है। वहां मे ६ मील पर पहाडों मे नाकोडा का है। इस मन्दिर का निर्माण आठवी सदी के अन्तिम पार्श्वनाथ स्थान है । ग्यारहवी सदी मे नाकोडा नामक ग्राम काल में हुआ था तथा उसका पुननिर्माण दसवी सदी मे मे भूमि खोदते ममय पाश्वनाथ की मनोहर प्रतिमा मिली आ था। जोधपुर राज्य के इतिहास के प्रथम भाग मे थी जो अब वहा के मन्दिर में स्थापित है। ओसिया का विवरण देते हुए श्री गौरीशंकरजी ओझा ने जैसलमेर की पुरानी राजधानी लोहवा मे सात जैन लिखा है कि यहाँ एक जैन मन्दिर है जिसमें विशालकाय मन्दिर है। ये सातों मन्दिर तीन मंजिले हैं । यहा मुख्य महावीर स्वामी की मूति है। यह मन्दिर मूलतः सवत् मन्दिर सहस्रफण पार्श्वनाथ का है। यह मूर्ति अत्यन्त ८३० (ई० ७७३) के लगभग प्रतिहार राजा वत्सराज के भव्य एवं कलापूर्ण है। उदयपुर से ४० मील पर धलेव समय में बनाया गया है । मन्दिर की निकटवर्ती धर्मशाला गांव अतिशय क्षेत्र है। नदी के पास कोट के भीतर एक का पाया खोदते समय श्री पार्श्वनाथ की एक धातु प्रतिमा प्राचीन मन्दिर है। यहां आदिनाथ का मन्दिर है। यहां मिली थी, जो सम्प्रति कलकता के एक जैन मन्दिर मे केशर बहुत अधिक चढाई जाती है, इसी से इसका नाम विद्यमान है। केशरियानाथ पड गया। मन्दिर के सामने फाटक पर इस महावीर मन्दिर के मुखमण्डप के उत्तरी छज्जे गजारूढ़ महाराज नाभि और मरुदेवी की मूर्तियां है। पर पदमावती यक्षी की प्रतिमा उत्कीर्ण है। कुक्कुट सर्प चौहान जाति की उपशाखा देवडा के शासकों की पर विराजमान द्विमजी यक्षी की दाहिनी भुजा मे सर्प भूतपूर्व राजधानी सिरोही की भौगोलिक सीमाओं में और बायीं मे फल है। स्पष्ट है कि पद्मावती के साथ स्थित देलवाडा के हिन्दू और जैन देवालय प्रसिद्ध है। आठवी सदी में ही वाहन कुक्कुट-सर्प एवं भुजा में सर्प धगतल से एक मील उतर में पहाड़ी की चोटी पर स्थित को सम्बद्ध किया जा चुका था। देलवाड़ा के पांच जैन मन्दिर श्वेत संगमरमर से निर्मित ग्यारहवी सदी की एक अष्टभुजी प्रतिमा राजस्थान के है। ये मन्दिर आज भी उन पोरवाल जाति के महाजनों झालरापाटन के जन मन्दिर (सन १०४३) की दक्षिणी (विमलशाह, वस्तुपाल एवं तेजपाल) का स्मरण कराते हैं, वेदिका पर उत्कीर्ण है। ललितमुद्रा में विराजमान यक्षी जिन्होंने चाँदी के सिक्के व्यय करके परमार शालकों से Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२, वर्ष ३०, कि० ३-४ भनेकान्त देवालय के निर्माण के लिए देलवाड़ा की पहाड़ी पर जमीन है कि वाहन मकर का प्रदर्शन पार्श्व यक्ष के कूर्मवाहन खरीदी थी। से प्रभावित रहा हो। विमलवसही की देवकुलिका ४६ वस्तुपाल-तेजपाल का मन्दिर १२३१ ई० में निर्मित के मण्डप के वितान पर उत्कीर्ण षोडशमुजी देवी की हुआ है। इसमें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। सम्भावित पहचान महाविद्या रोट्या एवं यक्षी पद्मावती राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने इन दोनों से ही कर सकते हैं। सप्त सर्पफणों से मंडित एवं मन्दिरों की शैली पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ललितमुद्रा में विराजमान देवी के आसन के समक्ष तीन "इसके मण्डप और अन्तरालयों की पच्चीकारी अद्वितीय सर्पफणों से युक्त नाग (वाहन) आकृति को नमस्कार मुद्रा है। इस मन्दिर की शैली विशेष रूप से प्रशंसनीय है। में उत्कीर्ण किया गया हैं। नाग की कटि के नीचे का भाग गुम्बद ऐसे प्रतीत होते है जैसे अर्ध-कमल का फूल खिला सर्पाकार है। नाग की कुंडलियां देवी के दोनों पाश्वों में हो। इसकी नक्काशी को देखने वाला एकाएक अपनी उत्कीणित दो नागी आकृतियों की कुडलियों से गुम्फित आंख को नहीं हटा सकता।" फर्गसन ने इस मन्दिर की है। हाथ जोड़े एवं एक सर्प से मण्डित नागी आकृतियों शैली के सम्बन्ध में लिखा है-"ऐसा प्रतीत होता है कि की कटि के नीचे का भाग भी साकार है। देवी की हेनरी सप्तम के काल में जो गिरजाघर वेस्टमिन्स्टर में भुजाओ मे वरद, नागी के मस्तक पर स्थित त्रिशूल, बना, वह इन दोनों मन्दिरो की तुलना में बिलकुल घण्ट, षड्ग, पाश, त्रिशूल, चक्र (छल्ला), दो ऊपरी फीका है। भुजाओं में सर्प, खेटक, दण्ड, सनाल पाकलिका, वज्र, विमलशाह गुजरात के प्रतापी नरेश भीमदेव के मन्त्री सर्प, नागी के मस्तक पर स्थित एवं जलपान प्रदर्शित हैं। थे। उन्होंने विक्रम ११वीं सदी में विमलवसही का निर्माण दोनों पावों में दो कलशधारी सेवक एवं वाद्य करती किया। विमलशाह के मन्दिर मे जैन तीर्थकर आदिनाथ आकृतियां अंकित हैं । सप्त सर्पफणों का मण्डन जहां देवी की पीतल की मूर्ति है । कला की सुन्दरतम कृति बनाने के की पद्मावती से पहचान का समर्थन करता है, वही कुक्कटलिए मूर्ति की आँख में हीरा लगाया गया और हीरे व पन्ने सर्प के स्थान पर वाहन के रूप में नाग का चित्रण एवं जैसे कीमती चमकदार पाषाणों का हार बनवाया गया। भुजाओं में सर्प का प्रदर्शन महाबिद्या रोट्या से पहचान यह मूर्ति तीन फुट ऊंचे चबूतरे पर स्थित है । जेम्स टाड ने का आधार प्रस्तुत करता है। इस मंदिर के विषय मे लिखा है कि "भारतवर्ष के भबनों जयपूर के निकट चांदनगांव एक अतिशय क्षेत्र है। मैं यदि ताजमहल के बाद कोई भव्य भवन है तो वह है यहां महावीरजी के विशाल मंदिर में भगवान महावीर की विमलशाह का मन्दिर।" सुन्दर और भव्य मूर्ति है। जोधपुर के निकट गांधाणी विमलवसही के गढ़मण्डप के दक्षिणी द्वार पर तीर्थ में भगवान् ऋषभदेव की धातु-मूर्ति ६३७ ई० की चतुर्मुजी पद्मावती की मूर्ति (१२वीं सदी) उत्कीर्ण मिलती है । बूदी से २० वर्ष पूर्व कुछ प्रतिमाएं प्राप्त हुई थी। है। कुक्कुट-सपं पर आरूढ़ पद्मावती की भुजाओं में सनाल उनमें से तीन अहिच्छत्र मे ले जाकर स्थापित की गई हैं। पद्य, पाश, अंकुश एवं फल प्रदर्शित है। लूणवसही के तीनों का रंग हल्का कत्थई है एवं तीनों शिलापट्ट पर गढमण्डप के दक्षिणी प्रवेशद्वार की दहलीज पर चतुर्भुजा उत्कीर्ण हैं। बाई से दाई ओर को प्रथम शिला फलक ३॥ पद्मावती की एक लघु आकृति उत्कीर्ण है। मकरवाहना फीट है। मध्य में फणालंकृत पार्श्वनाथ तीर्थकर की यक्षी के हाथों में वरदाक्ष, सर्प, पाश एवं फल प्रदर्शित हैं। खड्गासन प्रतिमा है। इसके परिकर में नीचे एक यक्ष वाहन मकर का प्रदर्शन परंपरा के विरुद्ध है, पर सर्प एवं और दो यक्षियाँ हैं, जो चंवर धारण किये हुए हैं। उनके पाश का चित्रश पद्मावती की पहचान का समर्थक है। ऊपर कायोत्सर्ग मुद्रा मे ३० इंच आकार की एक तीर्थकर साथ ही दहलीज के दूसरे छोर पर पाश्र्व यक्ष का चित्रण प्रतिमा है तथा उसके ऊपर ७ इंच अवगाहना की एक भी इसके पद्मावती होने को प्रमाणित करता है । संभव पद्मासन प्रतिमा है। इसी प्रकार दाई ओर भी दो Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान में मध्ययुगीन जन प्रतिमाए प्रतिमाएं हैं। यह शिलाफलक पंच बालयति का कहलाता गोड़वाड़ जैन पंचतीर्थी, जहां जैनों के लिए धार्मिक था। पाषाण बलुआई है, लेख या लांछन नहीं है। श्रद्धास्थली बनी हुई है, वहां पर्यटकों, इतिहास वेत्ताओं मध्य में हल्के कत्थई रंग की पपासनस्थ पार्श्वनाथ और पुरातत्वज्ञों के लिए भी इसका बड़ा महत्त्व है। की प्रतिमा है, ऊपर सर्पफण है। अवगाहना । फीट है। राणकपुर, नाडोल, नारलाई, वरकाना एवं घाणेराव के सिंहासन में दो सिंह जिव्हा निकाले बैठे हैं। यक्षी पद्मावती पास स्थित मुंछाला-महावीर गोड़वाड़ जैन पंचतीर्थी का एक बच्चे को छाती से चिपटाये हुए है, जो उस देवी के मुख्य स्थान है जिसकी सूक्ष्म शिल्पकला अत्यन्त सुन्दर है। अपार वात्सल्य का सूचक है। भगवान के शिरो-पार्श्व में राणकपुर का प्रमुख जैन मन्दिर आदिनाथ का हैं जो दोनों ओर गज उत्कीर्ण है। उनके कछ ऊपर इन्द्र हाथों चौमुखी हैं । राणकपुर का जैन मन्दिर शिल्पकला एवं में स्वर्ण-कलश लिये क्षीरसागर के पावन जल से भगवान स्तम्भों के लिए जगत् विख्यात है। इसी जैन पंचतीर्थी की का अभिषेक करते प्रतीत होते हैं । फण के ऊपर त्रिछत्र है कड़ी के रूप में पाली जिले का श्री राता महावीर तीर्थअलंकरण सामान्य है। स्थान भी अपनी प्राचीनता एवं ऐतिहासिक महत्ता एवं ___अन्तिम प्रतिमा खड्गासन अवस्था में है। अवगाहना शिल्पकृतियों के लिए प्रख्यात है। मन्दिर का निर्माण वि. २॥ फीट है। अधोभाग में दोनों ओर इन्द्र और इन्द्राणी सं० ६२१ में आचार्य महाराज थी सिद्धिसूरि जी के उपदेश चंवर लिये हुए हैं। मध्य में यक्ष-यक्षी विनत मुद्रा में बैठे से श्रेष्ठि गोत्र के वीरदेव ने कराया था। मन्दिर शिल्पहैं । मूर्ति के सिरे के दोनों ओर विमानचारी देव हैं। एक कलाकृतियों का भंडार है। इसमें मूलनायक भगवान् विमान में देव एवं देवी है । दूसरे में एक देव है। छत्र के महावीर की प्रतिमा के अतिरिक्त अनेक छोटी-बड़ी जैन एक ओर हाथी का अंकन है। भामण्डल और छत्रत्रयी है। प्रतिमाएं विद्यमान हैं। राजस्थान का पाली जिला न केवल ऐतिहासिक एवं राणकपुर या राणापुर का नाम महाराणा कुंभा के व्यापारिक दृष्टि से विख्यात है, अपितु धार्मिक दृष्टि से नाम राणा पर रखा गया था। यह स्थान सादड़ी से १४भी अद्भुत महत्त्व भी रखता है । इस जिले में सभी धर्मों १५ मील की दूरी पर अरावली की पहाडी मे स्थित है। एवं सम्प्रदायों के दर्शनीय, पूजनीय एवं धार्मिक स्थान हैं। यहा के मंदिरों मे नेमिनाथ, आदिनाथ एवं पार्श्वनाथ के यह जिला जैनों का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहा बड़े-बड़े मदिर प्रमुख है । यहाँ के आदिनाथ मंदिर में ऋषभनाथ आचार्यों, विद्वानों, साधु-सन्तों एवं यति-मुनियों ने सत्य की विशाल पद्मासन मूर्ति अत्यंत मनोज्ञ है। कुल मिलाकर और अहिसा की मशाल जलाई है। पाली जिले की वेदिकाओं में ४२५ मूर्तिया प्रतिष्ठित है। 000 (पृष्ठ ५० का शेषांश) बात स्वीकार की गई है कि अवध के इस इलाके को घटना का वर्णन किसी हिन्दू इतिहासकार ने नहीं किया। जीतने में सुल्तान अल्तमश को एक लाख बीस हजार मुसलमान इतिहासकारों और कुछ विदेशियो ने ही इस पर मुसलमान योद्धाओं की बलि देनी पड़ी थी। प्रकाश डाला है। उपयुक्त ऐतिहासिक प्रमाण यह सिद्ध करते है कि आज भी भारतीय इतिहास के अनेक पृष्ठ अन्धकार राजा सुहलदेव अद्भुत वीर, साहसी, सुशील, धर्म-परायण, की कारा में पड़े शोधकर्ताओं की प्रतीक्षा कर रहे है। रणकुशल, राजनीतिज्ञ और चतुर शासक थे। साथ ही संयद सालार मसऊद गाजीमियां के नाम से साथ वह उच्चकोटि के कवि और साहित्यक थे। उनका मशहूर हो गया है। इसका जयन्ती-वर्ष जेष्ठ के कृष्ण पक्ष व्यक्तित्व बहुमुखी था। में प्रथम रविवार को कुछ मुसलमान-हिन्दुओं के द्वारा यह एक बड़ी विचित्र बात है कि राजा सुहलदेव और वाराणसी और बहराइच में मनाया जाता है। संयद सालार मसऊद के युद्ध की इस भारी ऐतिहासिक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्राचार्य की साहित्य-साधना 0 डा. मोहनलाल मेहता आचार्य हेमचन्द्र का जैन साहित्यकारों में ही नही. है। इसमें सात अध्याय संस्कृत के लिए हैं तथा एक समस्त संस्कृत साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है। इन्गेन अध्याय प्राकृत (एवं अपभ्रंश) के लिए है। इस व्याकरण साहित्य के प्रत्येक अंग पर कुछ न कुछ लिखा है। कोई की रचना इतनी आकर्षक है कि इस पर लगभग ६० ऐसा महत्वपूर्ण विषय नही जिस पर हेमचन्द्र ने अपनी टीकाएँ एवं स्वतन्त्र रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। लेखनी न चलाई हो। इन्होंने व्याकरण, कोश, छन्द, काव्यानुशासन-यह अलंकार शास्त्र है । इसमें काव्य अलंकार, काव्य, चरित्र, न्याय, दर्शन, योग, स्तोत्र, नीति के प्रयोजन, हेत, गण-दोष, ध्वनि इत्यादि सिद्धान्तों पर आदि अनेक विषयों पर विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ लिखे है। इन गहन एवं विस्तृत विवेचन किया गया है । इस पर स्वोपज्ञ सब ग्रन्थों का परिमाण लगभग दो लाख इलोक-प्रमाण अलंकार-चूडामणि नामक वृति एवं विवेक नामक है। समग्र भारतीय साहित्य में इतने विशाल वाद् मय का व्याख्या है। निर्माण करने वाला अन्य आचार्य दुर्लभ है। हेमचन्द्र की छन्दानुशासन-हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन और काव्याइसी प्रतिभा एवं ज्ञान-साधना से प्रभावित होकर विद्वानो नुशासन की रचना करने के बाद छन्दानुशारान लिखा है। ने उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि से विभूपित किया। इसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रश के छन्दों का सर्वांगीण हेमचन्द्र सूरि का जन्म विक्रम संवत् ११४५ की परिचय है। इस पर छन्दयन डामणि नामक स्वोपज्ञ वृत्ति कार्तिकी पूर्णिमा को गुजरात के धका ग्राम में हुआ था। भी है। इनका बाल्यावस्था का नाम चागदेव था। ११५४ में ये व्याधयमहाकाच्य-इस काव्य की रचना आचार्य ने देवचन्द्र सूरि के शिष्य बने एवं इनका नाम सोमचन्द्र रखा अपने व्याकरण ग्रन्थ शब्दानुशासन के नियनों को भापागत गया। देवचन्द्रसूरि अपने शिष्य के गणो पर बहुत प्रसन्न प्रयोग मे समझाने के लिए की है। जिस प्रकार शब्दानुथे एवं सोमचन्द्र की विद्वाना से अति प्रभावित थे। अतः । शासन संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में विभक्त है, उसी उन्होने अपने सुयोग्य शिष्य का ११६६ की वंशाख शुक्ल प्रकार यह महाकाव्य भी सस्कृत और प्राकृत दोनो भाषातृतीया को आचार्यपद प्रदान कर दिया। सोमचन्द्र के ओं में है। इसके २८ सर्गों में से प्रारम्भ के २० सर्ग शरीर की प्रभा एवं कान्ति स्वर्ण के समान थी, अतः उनका संस्कृत में है जो संस्कृत-व्याकरण के नियमों को उदाहृत नाम हेमचन्द्र रखा गया। वि० मवत् १२२६ में हेम करते हैं तथा अन्तिम ८ सर्ग (कुमारपाल चरित) प्राकृत मे है जो प्राकृत-व्याकरण के नियम उदाहृत करते हैं । इस चन्द्र का निधन हुआ। द्वयाश्रय काव्य के दो प्रयोजन हैं : एक तो व्याकरण के हेमचन्द्रविरचित विविधविषयक ग्रथों का संक्षिप्त नियमो को समझाना और दूसरा गुजरात के चौलुक्यवंश परिचय इस प्रकार है : का इतिहास प्रस्तुत करना। इस ऐतिहासिक काव्य में शब्दानुशासन-यह व्याकरण शास्त्र है। इस पर चौलुक्यवंश का और विशेषतः उस वंश के नृप सिद्धराज स्वोपज्ञ लघुवृत्ति, बहुत्ति , बहन्यास, प्राकृतवृत्ति, ___ जयसिह और कुमारपाल का गुणवर्णन किया गया है। लिंगानुशासन सटीक, उणादिगण विवरण, धातुपारायणविवरण आदि हैं। ग्रन्थकार ने अपने पूर्ववर्ती व्याकरणों त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित-इस चरित्र-ग्रन्थ में जैन में रही हुई त्रुटियों से रहित सरल व्याकरण की रचना की परम्परा के ६३ शलाकापुरुषों अर्थात् महापुरुषों का काव्या Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेमचमद्राचार्य की साहित्य-साधना त्मक जीवनवृत्त है। ये शलाकापुरुष इस प्रकार हैं-२४ कृत अयोगव्यवच्छेदिका और अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ वासुदेव, ६ बलदेव और ६ द्वात्रिशिकाएँ उत्तम रचनाएं हैं। इनमें बत्तीस-बत्तीस प्रतिवासुदेव । इस विशाल ग्रन्थ की रचना हेमचन्द्राचार्य ने श्लोक होने के कारण इन्हें 'द्वात्रिशिका' नाम दिया गया अपने जीवन की उत्तगवस्था में की थी। इसमें जैन पुराण, है। अयोगव्यवच्छेदिका मे जैन सिद्धान्तों का सरल प्रतिइतिहास, सिद्धान्त एवं तत्वज्ञान के सग्रह के साथ सम- पादन है। अन्ययोगव्यवच्छेदिका में जनेतर सिद्धान्तों का कालीन सामाजिक, धार्मिक और दार्शनिक प्रणालियों का निराकरण है तथा इस पर मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी प्रतिबिम्ब भी दृष्टिगोचर होता है। इसका परिशिष्ट पर्व नामक टीका लिखी है जो जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अर्थात् स्थविरावलिचरित जन इतिहास की दृष्टि से विशेष ग्रन्थ है। महत्त्वपूर्ण है। प्रहन्नीति-यह जैन नीतिशास्त्र की एक उत्तम कृति कोश -आचार्य हेमचन्द्र ने इन चार कोश बन्यो की है। इसमें राजा, मन्त्री, सेनापति तथा राज्य के विविध रचना की है-१. अभिधानचिन्तामणि, २. अनेकार्थ- अधिकारियों एवं प्रशाभको के कर्तव्यो और अधिकारी का मग्रह, ३. निधण्टर्शप, ४. देशीनामभाला । अभिधान- निर्दग है। इसे लघ-अहंन्नीति भी कहते है। चिन्तामणि में अमरकोज के समान एक अर्थ अर्थात् वस्तु इन महत्त्वपूर्ण कृतियों के अतिरिक्त वीतरागस्तोत्र, के लिए अनेक शब्दों का उल्दख है। इस पर स्वोपज्ञ महादेवस्तोत्र, द्विज नदनचटिका, अहन्नामसहस्त्रसमुच्चय टीका भी। अनेकार्थमग्रह में एक नाब्द के अनेक अर्थ आदि के रचयिता भी आचार्य हेमचन्द्र ही है। इनका दिये गये है। अभिधानचिन्तागणि एकार्थककाश है जब ज्ञान बहमुखी था, इनकी प्रतिभा विलक्षण थी। कि अनेकार्थमग्रह नानार्थककोश है । निघण्टुशेष मे सन्दर्भ-ग्रन्य वनस्पतियों के नामो का मग्रह है। यह कोश आयुर्वेदशास्त्र १ मिद्ध हेमचन्द्रव्याकरण-हेमचन्द्र, गेट आनन्दजी के लिए विशेष उपयोगी है। इसे अभिमानचिन्तामणि का कल्याणजी पेटी, अहमदाबाद, १९३४ पूरक कहा जा सकता है। देशीनाममाला मे ३५०० देशी २. प्राकृतब्याकरण-हेमचन्द्र, भाण्डारकर ओरियण्टल शब्दों का संकलन है। ये शब्द संस्कृत अथवा प्राकृत रिग इंस्टिट्यूट, पूना, १९५८ व्याकरण में सिद्ध नहीं होते। देशी शब्दों का सा अन्य ३ काव्यानुशामन-हेमचन्द, दो भाग, महावीर जैन कोश उपलब्ध नहीं है । इस पर रवोपज्ञ टीका भी है। विद्यालय, बम्बई, १९३८ प्रमाणमीमांसा-न्यायशास्त्र के इम ग्रन्थ में पहले ४. छन्दानुशासन-हेमचन्द्र, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, सूत्र है और फिर उन पर स्वोपज्ञ व्याख्या है। इस ग्रन्थ १९१२ की विशेषता यह है कि यह मूत्र और व्याख्या दोनों को ५. द्याश्रयकाव्य--हेमचन्द्र, दो भाग, गवर्नमेंट सेट्रल मिलाकर भी मध्यकाय है। यह न तो परीक्षामुख और प्रेस, बम्बई, १९१५-१६२१ प्रमाणनयतत्त्वालोक जितना संक्षिात ही है और न प्रेम ६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषनरित-हेमचन्द्र, छ: भाग, जैन कमलमार्तण्ड और स्याद्वादरत्नाकर जितना विस्तृत ही। आत्मानन्द सभा, भावनगर, १६३६-१९६५ इसमें प्रमाणशास्त्र के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का मध्यम प्रति- ७. परिशिष्टपर्व-हेमचन्द्र, एशियाटिक सोसायटी, पादन है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ पूर्ण उपलब्ध नहीं है। कलकत्ता, १८६१ ___ योगशास्त्र-इसमें जैन योग की प्रक्रिया का पद्यबद्ध ८. अभिधानचिन्तामणि-हेमचन्द्र, देवचन्द्र लालभाई प्रतिपादन है । यह श्रमण-धर्म एवं श्रावक-धर्म के सिद्धान्तों जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत, १९४६ की विवेचना करता हुआ ध्यानमार्ग के द्वारा मुक्तिप्राप्ति १. अनेकार्थसंग्रह-हेमचन्द्र, चोखम्बा सस्कृत सिरीज, का निरूपण करता है। इस पर स्वोपश टीका भी है। वनारस, १९२६ द्वानिशिकाएँ-स्तोत्र-साहित्य की दृष्टि से हेमचन्द्र (शेष पृष्ठ ७४ पद) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या रूपकमाला' नामक रचनाएं अलंकार-शास्त्र सम्बन्धी हैं? 0 श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर बहुत बार रचनामों के नाम एक बड़ा भ्रम पैदा कर रूपकमालादेते हैं। मूल रचना बिना देखे-पढ़े उसके नाम के प्राधार 'रूपकमाला' नाम की तीन कृतियों के उल्लेख मिलते पर अनुमान या कल्पना कर ली जाती है। 'रूपकमाला' हैं :-- नामक दो-तीन रचनायें प्राप्त है, जो प्रलंकार-शास्त्र १. उपाध्याय पुण्यनन्दन ने 'रूपकमाला' की रचना विषयक नहीं हैं, पर उनके नाम से वैसा भ्रम हो गया कि की है और उस पर समयसून्दरगणि ने वि. स. १६६३ उन्हे कई विद्वानो ने अलकार विषयक जैन रचनामो में में 'वृत्ति' की रचना की है। सम्मिलित कर दिया। (वास्तव मे रचयिता का नाम पुण्यनन्दन नही, पुण्य नन्दि है।) 'जैन-साहित्य का बहद इतिहास' का पाचवा भाग । २. पावचन्द्रमूरि ने वि० सं० १५८६ में 'रूपक्रमाला' 'लाक्षणिक साहित्य' संवन्धी है, जिसके लेखक प० अम्बा नामक कृति की रचना की है। लाल शाह जैन-साहित्य के अच्छे विद्वान् हैं। इस पांचवें ३. किसी प्रज्ञातनामा मुनि ने 'रूपकमाला' की रचना भाग के पृष्ठ १२३ में पहले रूपक-मंजरी का उल्लेख की। किया गया है। उसमें यह भी लिखा है कि जिनरत्नकाष ये तीनों कृतियां प्रलंकार बिषयक हैं या अन्य विषयक, के पृष्ठ ३३२ मे उसका नाम 'रूप-मंजरीनाममाला' दिया यह शोधनीय है।" हुमा है । ग्रन्थ का नाम देखते हुए उसमे रूपक अलंकार अभी-अभी इसी का अनुसरण डा० रुद्रदेव त्रिपाठी ने विषयक निरूपण होगा, यह अनुमान होता है। इस दृष्टि काव्यप्रकाश' की यशोविजयकृत टीका के उपोद्घात मे से यह ग्रन्ध प्रलकार विषयक माना जा सकता है । पर किया है। इसमें रूपकमंजरी के संबन्ध में तो यही लिख वास्तव मे गोपाल के पुत्र रूपचन्द ने रूपमंजरीनाममाला दिया है कि नाम के प्राधार पर यह कल्पना की जाती है ही रची है और उसकी प्रति बीकानेर की मनप संस्कृत कि इसमें रूपक अलंकार के विषय में विवेचन होगा। पर लाइब्रेरी में और अन्य कई ग्रन्थालयों में मैंने देखी है। रूपकमाला के सबन्ध में पं० अम्बालाल शाह की इस सका उसका नाम रूपकमंजरी किसी ने गलती से लिख दिया को कि 'ये तीनों कृतियां मलकार विषयक हैं या अन्य मालूम पड़ता है। इसी कारण, इसके अलंकार विषयक होने विषयक, यह शोधनीय है', डा. रुद्रदेव त्रिपाठी का अनुमान कर लिया गया। पर है यह वास्तव में नाममाला ने स्थान नही दिया। इससे उन्होंने रूपकमाला ही अर्थात् कोष विषयक है, अलंकार विषयक नहीं है। को प्रलंकार विषयक रचनायें ही मान लिया। पर वास्तव उपर्यक्त 'जैन-साहित्य के बहद इतिहास के पांचवें में यह भ्रमोत्पादक है । इसीलिए इसका स्पष्टीकरण और भाग के उसी पृष्ठ में रूपक-मंजरी के बाद रूपकमाला' ग्रंथ निर्णय यहां कर देना पावश्यक है। का उल्लेख है । उसे अलंकार विषयक रचना मान लिया पुण्यनन्दि की रूपकमाला नामक रचना मेरे समक्ष है। गया है, यद्यपि पं० अम्बालाल शाह को इसमें शंका प्रवश्य इसमें हिन्दी भाषा के ३२ पद्य हैं। इसमें 'शील' रही है। उन्होंने लिखा है धर्म का गुणवर्णन करने का उल्लेख प्रथम पद्य में ही कर (शेष पृष्ठ ७३ पर) १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृष्ठ १२३ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचक कुशललाभ के प्रमाख्यानक काव्य डा० मनमोहन स्वरूप माथुर सूफी कवियों की भाति ही जैन कवियों ने भी मध्य- हैं। कवि ने अपनी च उपइयों के साथ इन दोहों को काल में अनेक प्रेमाख्यानक काव्यों का प्रणयन किया। प्रसंगानुसार संगठिन किया, जिसे कवि ने इन शब्दों में इसमे सूफियों का उद्देश्य जहाँ दो भिन्न संस्कृतियों के स्वीकार किया है। :'दूहा घणा पुराणा प्रछह, चौपइवंध समन्वय का था वही जैन कवियों का उद्देश्य था समाज में कितो मैं पछह ।" शील एव मतीत्व के उपदेश तथा स्वामिभक्ति का प्रचार। इमी शृङ्खला के कवि है उपाध्याय अभयधर्म के शिष्य जिनपालित जिनरक्षित सधिगाथा' का रचना सवत् १६२१ है। इममे चंपापुरी के सेठ माकदा के दो पुत्रों वाचक कुशललाभ । कुशललाम ने अपने जीवनपर्यन्त जैन एवं जने तर कथानकों को ग्रहण कर निम्नलिचित जिनपालित और जिन राक्षित की रोमांचक यात्रा एवं जिनरक्षित की कामासक्तता के साथ जिनरक्षित राघ की प्रमाख्यानों की काव्यात्मक रचना की : स्थापना की कथा ८५ छदों में कही गई है। १. माधवानल काम कन्दला च रपई। २. ढोला मारवणी च उपई। ३. जिनपालित जिनक्षित सधिगाथा । जैन ऋषि परम्परा के प्रमुख चरित्र अगदत्त पर ४. अगडदत्त-रास । ५. तेजमार-रास चउपई। ६. भीम कवि ने ३१६ छदो मे 'अगड़दत्तराम' नाम से एक सुन्दर सेन हमराज च उपई। ७. स्थलिभद्र छत्तीसी, और रचना का निर्माण किया। प्राप्त हलिखित प्रतियो के ८. कनवसृन्दरी चउपई। पावार पर इस कृति का रचनाकात वि० सं० १६२५ माधवानल कामकंदला के प्रति प्राचीन लोकप्रचलित कार्तिक सुदी १५ गुरुवार है। इसमें मधिन अगड़दत्त प्रेमाख्यान पर कवि ने माधवानल कामकदला चउवई की ललित प्रवृत्तियो द्वारा नारी के विवागपाती चरित्र नामक रचना का निर्माण किया। इसका रचनाकाल वि. का कथन कर वैराग्य भावना कोरापना की है। स० १६१६ फाल्गुन शुक्ला १३ रविवार कहा गया है। इसी शैली का अन्य ग्रंथ है - तेजसार गस चउपई । इसमे माधव और कामकंदला के प्रेम की कहानी कही इसमें कुशललाभ ने तेजसार के बाहुबल और प्रेम कोड़ानों का वर्णन करते हुए उसके श्रावक रूप को ढोला-मारू के परंपरित पाख्यान पर कवि ने 'ढोला- प्रतिष्ठा की है। साथ ही, कवि ने तेजसार के जन्म और मारवणी चउपई' नामक कृति की रचना वि० स० १६१७ पूर्वजन्म की घटनाओं के प्राकलन द्वारा दीपपूजन के की अक्षण तृतीया को की। इसके दोहे अत्यन्त प्राचीन माहात्म्य को भी प्रस्तुत किया है।' १. इस रचना का कुछ सूचियों में 'गुणसुदरी च उपई' २. म. प्राच्य विद्या मन्दिर, पूना, हस्तनिखित ग्रथ नाम मिलता है। डा० के० सी० कासलीवाल द्वारा ६०५ गाथा ३१८ । निर्मित सूची में 'कनक सुदरी चउपई' नाम से वणित ३. डा० मनमोहन स्वरूप माथुर : दुशललाभ पौर है। किन्तु यह कुशललाभ की संदिग्ध रचना है। उनका साहित्य (अप्रकाशित शोध प्रय);पु. ६६ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त कुशललाभ द्वारा रचित 'भीमसेन हंसराज च उपई' को पुनर्जीवन देने के लिये अपने मस्तक को काटने की एक भावना विषयक प्रेमाख्यान है। इसमें भीमसेन के घटना' प्रादि मे ढ ढा जा सकता है । गौरव और मदनमजरी के प्रेम का सात्विक वर्णन करना 'ढोलामारवणी च उपई' की कथा देशज भाषामों की ही कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है। रचना की पुष्पिका के प्राण रही है। बारहवीं शताब्दी के प्रासपास 'ढोला' शब्द प्राधार पर यह वि. स. १६४३ श्रावण शुक्ला सप्तमी के प्रियतम और पति अर्थ मे रूढ़ हो जाने से इस कहानी की कृति घोषित होती है।' का प्रादि कवि प्रज्ञात ही है। यहीं से इस कथा-परम्परा स्थूलिभद्र छत्तीसी' मालोच्य कवि की ३७ छंदो मे का प्रारम्भ माना जा सकता है। लिखित एक लघु प्रेमाणन है। इसमें कुशललाभ ने जैन साहित्य में प्रगड़दत्त की कथा प्रति प्राचीन है जैन ऋषि स्थ लिभद्र और वेथ्या कोशा के प्रेम एवं उनके जो 'वसुदेव हिंडो' के उपविभाग 'धमिलहिंडी के माध्यम संयमी जीवन की कहानी कही है। से प्रसारित हुई । यही परम्परा प्राकृत में विकसित हुई कुशललाभ की उक्त सभी प्रेमारूपानक रचनाए' पोर उसी परम्परा को प्रागे बढ़ाने वाली कड़ी है कुशलपरम्परा से सम्बद्ध है। इन काव्यो का प्राधार लोक- लाभ कृत 'प्रगड़दत्तरास। प्रचलित कथाए , विक्रम चक्र की कथाए', प्राकृत अपभ्रश जैनधर्म मे ब्रह्मचर्य के उपदेश-निमित्त कोशा को के मानकग्रंथ 'कथासरित्सागर' एव जैन प्रागम साहित्य चित्रशाला में उसके प्रेमी स्थलिभद्र के चातुर्मास बिनाने की अधिगृहीत कथाए है। उक्त प्रयम दो कृतियां जनेत्तर की कथा प्राचीन काल से ही कही जाती रही है। प्रागमों प्रेमाख्यान हैं, शेष जन लोक तत्वो और सदाचारों से मे इसका वर्णन है। 'वसुदेवहिंडो', 'समराइच्चकहा' मे सम्पन्न है। सासारिक विषयभोगो की क्षणभगूरता सिद्ध करने के लिये 'माधवानल कामकंदला च उपई' कथासरित्सागर मे मधुबिदु दृष्टात का उपयोग किया है। यही सूत्र कुशल. ईल्लक नाम के वणिक की स्त्री के विरह से मृत्यु, श्रीधर लाभ को पालोच्य कृत्ति में वर्णित है। प्रतः इन्ही प्रथों की बात में कुमुदिका का श्रीधर का प्रेम' तथा क्षेमकर से 'स्थूलिभद्र छत्तीसी' रचना का संबन्ध जोड़ना की मिहासन द्वात्रिशिकी' की २६वी वात मे वणित धनह चाहिये : श्रेष्ठ द्वारा बताये गये द्वीप के देवालय मे लिखित लेख 'जिनपालितजिनरक्षित संधिगाथा' का प्राधार वजित को पढ़ कर विक्रम द्वारा खड़ग ग्रहण कर स्त्री तथा पुरुष दिशा और दो भाइयो के कथानन्तुप्रों वाले 'मोटिफ' है। ९. . १. "इति श्री भावनाविषये राजा श्री भीम मेन हम संबध चउपई समान"--एल. डी. इस्टीटयूट प्राफ इण्डोलोजी, अहमदाबाद, ग्र० १२१७ । २. सवत लोक-वेद सिणगार, वर्षा ऋतु जलधर विस्तार । श्रावण मास शुक्ल सप्तमी, रच्यो राय श्री गुरुपय नमी ।। चौः ६२० । लोक ३, वेद ४, सिणगार १६-१६४३ । ३ श्री अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ग्रं० ४२०६। ४. मोहालाल दलीचव देसाई, मानन्दकाव्य महोदधि, मौलिक ७, पृ. १५६ । ५. मोहनलाल दलीचंद देसाई, प्रानन्दकाव्य महोदधि, मो०७,१०१५६ । ६. डा० जे. सी. जैन, प्राकृत जैन कथा साहित्य, पृ० १६६ । ७. मुनि हस्तीन मेवाड़ी, प्रागम के अनमोल रत्न,। ८. डा. जे. सी. जैन, प्रकृत जैन कथा साहित्य पृ.१७७। उझारि अवकप अध तात ताल भयंग बध कठि एकविण हरक सीर सग्रही, मनुष्य दुक्ख स्यू रहा । गयंद मत्त रोसि तत्त, धूणी लाग सह सहस, मषियां चट्टक पीर ऊपजी सबही सरीर, वेदना सहहिं ।। परति मुख्की मद्द लरूक वरूक लाल विक्खई, माहार को पुरुष तेण वार, पाऊ ज्यूं उगार माप ही कहइ । सहत बिंदु तास मुरुक ना तजइ महत्त दुख्ख, देषि जे ससार सुरुख, जांणि जे विचार मुरूक, सुख्ख ज्यूं लहइ ।। श्री अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ४२०६, गाथा २३ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बाचकशलसामकेप्रमाक्ष्यमककाव्य इसका पूर्ववर्ती जैन कथा रूप हंसराज बच्छराज कथा' है। तत्पश्चात् नायक अपने बड़े पुत्र को राज्यभार संभलाकर में देख. जा सकता है। वही 'तेजसार रास चउपई' एव संन्यासी बनते चित्रित किया गया है, जबकि जैनेतर 'भीमसेन हंसराज च उपई' रचनामों का भी उद्गम प्रेमाख्यानक रचनामों मे सुखमय पारिवारिक जीवन के ऐसी ही जैन धर्म से सम्बन्धित रचनामों तथा कथानक साथ कथा का अन्त है । इस प्रकार, जहां जनेन्तर रचनामों रूढ़ियों से है। की कथावस्तु सुखान्त है, वही जैन चरित सम्बन्धी उक्त प्रेमाख्यानकों के नायक-नायिका राजकुल के प्र ही प्रेमाख्यानों की प्रसादान्त ।। राजकुमार-राजकुमारियाँ अथवा राजकुल से सम्बन्धित प्रायः सभी प्रेमाख्यानकों में प्रलौकिक शक्तियों में मत्री, पुरोहित, सामन्त; सेठ के पुत्र-पुत्रियां है। इनमें प्रास्था, जादू-टोने, मल-तंत्र में विश्वास, भविकावाणियों प्रेम का प्रारभ प्रत्यक्ष दर्शन और रूप-गुण-श्रवण द्वारा में श्रद्धा, म्वप्नफल और शकुनों में विश्वास रखने की हुमा है। नायक-नायिकानों में प्रमोद्दीपन एव उनके बातों का प्रचुर मात्रा में उल्लेख मिलता है। अविश्वास सयोग मे सहायक तोता, मत्री पुत्र, भाट, खवास (नाई), के कारण ही ढोलामारवणी च उपई का नायक ढोला सखियां आदि पात्र हुए है। ढोला मारवणी एव माघवा- अपने वियोग का कारण पूर्व जन्म के फलो को मानता नल कामकंदला एव भीमसेन हंसराज चउपई मे नायक हैने नायिका की प्राप्ति के लिये वैराग्य धारण कर राज- "पलें भव पाय में कीया, तो तुझ बिन इतरा दिन महल प्रादि का त्याग किया है। मार्ग में उन्हें अनेक संमुख बात कर वाषाण, जीवन जन्म प्राज सुप्रमाण ॥" कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। नायिका के मिलन और भविष्यवाणी द्वारा शकर पुरोहित को गगा घाट पर के पश्चात् उपयुक्त सभी काव्यों में घर लौटते हुए पुत्र माधव की प्राप्ति होती है । 'भीमसेन हंसराज भयकर कठिनाइयों (ोखा) का पुनः सामना करना चउपई' की नायिका मदनमंजरी को भी हंस की भविष्यपड़ता है; यथा, राक्षमियों द्वारा नायक को रोकना', वाणी पर २१ दिन बाद गर्भ प्राप्त होता है। जादूनायक-नायिका के विश्राम स्थल की छत का गिरना', टोनों की बात तो सभी रचनामों मे कदम-कदम पर नायिका की मृत्यु', प्रतिनायक द्वारा नायक का प्रातथ्य' वणित है। यह भाग्यवादिता एव अन्धविश्वासों के प्रति इत्यादि । किन्तु इन बाघानों को विद्याधरियों, विद्याधरो', प्रास्था साधारण पात्रों से लेकर राजा आदि में भी विद्य. वैताल', जोगी-जोगिनी' प्रादि ने दूर करके नायक मान है। नायिकामों को मिलाया है। घर लौटने पर नगरवासियो, कुशललाभ के सभी प्रेमाख्यानों में एक ही प्रकार की माता-पिता द्वारा स्वागत किया जाता है तथा प्रजा . लोक वार्तामों का समावेश हुप्रा है । इस समानता से मानन्द उत्सव मनाती है। इनकी प्रान्तरिक एकता को बल मिला है । तत्कालीन कुशललाम के जैनकथानक संबन्धी प्रेमाख्यानो में लोक-समाज की रीति नीति, सभ्यता और लोक संस्कृति इस उत्सव में कोई गुरु नायक को धर्म में दीक्षित करता का सहज चित्रण इन प्रेमाख्यानों की विशेषता है । १. तेजसार रास चउपई, जिनपालित जिनरक्षित संघि ७. ढोलामारवणी च उपई । गाथा। .. प्रानन्दकाव्य महोदधि, मौक्तिक ७, माघवानल काम२. भगड़दत्त रास । कंदला चउपई, चौ० ५६.६१ । ३. माधवानल कामकंदला चउपई, ढोलामारवणी चउपई, भीमसेन हंसराज चउपह। एह देह छ डी करी इण घरि मुझ अवतार । ४. ढोलामारवणी चडपई, तेजसार रास चउपई। मदनमंजरी नह उदरि, प्रवतरि मू निद्वारि ॥ ५. तेजसार रास चउपई, गड़दत्त रास । एल० डी० इंस्टीट्यट, अहमदावाद, प्र० १२१७ ६. माधवानल कामकंदला चउपई। छं० २५३ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी के अन्य प्रेमाख्यानकों की भांति ही कुशललाम के प्रेमाख्यानों में यों तो नवरस खोजे जा कुशललाम के प्रेमाख्यानकों में भी पात्रों का जीवन- सकते हैं । परन्तु प्रधानता शृंगार रस की ही है। जैन व्यापार एवं क्रियाकलाप मानव की मूल प्रवृत्तियों के कथात्मक प्रेमाख्यानों में शान्तरस सहायक एवं उद्देश्यपूर्ति अनुसार संचालित हैं। इन मूल प्रवृत्तियों में काम मोर के रूप में प्रयुक्त रस है। श्री श्रीचन्द जैन के अनुसार, मात्मप्रदर्शन की मूल प्रवत्तियों का चित्रण प्रमुख रूप से "जैन काव्य में शान्ति या शम की प्रधानता है अवश्य, हमा है । नायक-नायिकामों में डटकर मिलनोत्सुकता के किन्तु बह प्रारंभ नहीं परिणति है।.....'नारी के धंगारी मूल मे उनका रूपाकर्षण एवं मासल सुख-प्राप्ति की तीव्र रूप, यौबन तथा तज्जन्य कामोत्तेजना प्रादि का चित्रण लालसा है । विरहकाल मे भी यदि उन्हें कोई वेदना है इसी कारण जैन कवियो ने बहुत सूक्ष्मता से किया है।" तो मात्र उनके रसगधयुक्त यौवन के प्रभाव की। सभी प्रेमाख्यानो का प्रारंभ मगलाचरण द्वारा किया कवि ने अपनी काव्यवस्तु को हृदयंगम कराने के गया है। जैनेनर काव्यो मे यह मगलाचरण गणपति, लिये सादृश्यमूलक उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षादि अलंकारों का सरस्वती, शकर और कामदेव की स्तति द्वारा किया गया प्रयोग किया है। यह प्रयोग सहज, स्वाभाविक एवं है, जबकि जन रचनामों मे सरस्वती वदना के साथ भावोत्कर्षक है। इन प्रर्थाल कारों के अतिरिक्त इनमें राजस्थानी के वयण सगाई अलंकार' का भी सफल निर्वाह गुरुवंदना, जिनप्रभ, पाथ यदाता आदि की स्तुति के साथ हुया है। मगलाचरण के बाद इनमे जबूद्वीप, शत्रुजय गिरि, कवि परिचय का भी उल्लेख किया गया है । इनमें प्राडा खवाळा पापणा, घणे गमे बेसाड्या घणा । वर्णनात्मकता का बाहुल्य है। कवि ने इन रचनाओं का (ढोलामारवणी च उपई, चौ०६८)। मन्त पुष्पिका द्वारा किया है जिनमे कवि ने अपने गुरु रायह दीठो तेह सरूप । खरतरगच्चीय उपाध्याय अभयधर्म तथा स्वय का (भीमसेन हसराज चउपई, चौ०६८)। नामोल्लेख किया है। सोवन मइ-सुंदर आवास दुशललाभ की प्राधिकाश प्रेमाख्यानक रचनात्रों में (तेजसार रास चउपई, चौ० ३१७)। अधिकारिक कथा का प्रारभ प्राय: किसी नि.सन्तान कुशललाम ने अलंकारो के साथ ही विविध छंदों का राजा अथवा पुरोहित द्वारा संतान-प्राप्ति के प्रयत्न के भी प्रयोग किया है। ये छंद है-दूहा, चउपई, गाहा, वर्णन से हुआ है । देवी-देवता, ऋषि-मुनि के अभिमत्रित छप्पय, कवित्त, सर्वया, बेक्खरी, त्रोटक, वस्तु, काव्य, फल अथवा उनके बताये अनुसार पुष्कर या अन्य पवित्र छन्द, रोमकी, नाराच, त्रिभंगी, चावकी इत्यादि । इन स्थलो' की जाव देने पर उस गजा के यहा पुत्र अथवा छदो के अतिरिक्त कवि ने लोक प्रचलित ढालों को ग्रहण पुत्री का जन्म हुआ है । युवा होने हर किसी अपराध में कर इन रचनायो को संगीतात्मकता प्रदान की है। संगीत पिता से कहा-सुनी होने पर या राजाज्ञा से' नायक को को बनाये रखने की दृष्टि से अनेक स्थलों पर कवि द्वारा घर छोड़ना पड़ा है। इसी निष्कासन से नायक के प्रयुक्त उपयुक्त छद काव्यशास्त्रीय लक्षणों से मेल नहीं वैशिष्ट्य के द्वारा इन रचनाओं में प्रेम तत्त्व उभरा है। (शेष पृ०६०पर) १. माधवानल कामकंदला च उपई, ढोलामारवणी चउपई तेजसाररास चरपई, भीमसेन हंसराज चउपई । तेजसार रास, पारवनाथ दशभव-स्तवन प्रादि रचनाए। ३. माधवानल कामकदला च उपई, अगड़दत्तरास, स्थूलि भद्रछत्तीसी। ४. जैन कथानों का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. १३२-३३ । ५. 'वैण सगाई' कविता के किसी चरण के दो शब्दो में प्रायः करके प्रथम और अन्तिम शब्दो के संबन्ध स्थापित करती है। यह संबन्ध एक ही वर्ण अथवा मित्र वर्गों के द्वारा किया जाता है। ---नरोत्तमदास स्वामी- 'वण सगाई' लेख-राज स्थानी, दाल्यूम २, सं० १९६३ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन की अनुपम देन : अनेकान्त दृष्टि 0 श्री श्रीनिवास शास्त्री, कुरक्षेत्र जैनदर्शन भारतीय दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान असग है । बुद्धि ही कत्रों है और बुद्धिस्थ सुख-दुःख को है। इसमें अनेक नवीन उद्भावनाएं की गई है। तत्त्व- पुरुष अपना समझ लेता है, यही उसका भोग है; वस्तुतः विवेचन या प्रमाण-मीमांसा के क्षेत्र मे ही नहीं अपितु वह न कर है न भोक्ता है । अद्वैत वेदान्त की दृष्टि में कैवल्य के स्वरूप और साधन के विषय मे भी जन जीवात्मा माभास मात्र है, वस्तुतः ब्रह्म ही परमार्थ सत् दार्शनिकों ने अनूठी सूझ का परिचय दिया है। जैन दर्शन है। अविद्या के कारण ही जीव मे कतत्व और भोक्तत्व के रत्नत्र से भारतीय दर्शन के पाटक परिचित ही है। की कल्पना कर ली जाती है। इन सब परस्पर विरुद्ध उमा स्वाति ने न तलाया है कि सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान वादों के रहते जीव के वास्तविक स्वरूप का निश्चय तथा मम्यक् चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। करना कठिन है । फिर सम्यग्ज्ञान कैसे होगा? तब तो यहा बतलाये गये सम्यग दर्शन प्रादि तीनों ही जैन- मोक्ष-प्राप्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दर्शन मे रत्नत्रय के नाम से प्रसिद्ध है । ये तीनो मिलकर प्राय: सभी जीव आदि पदार्थों के स्वरूप के विपय में ही मोक्ष के साधन है। इनमें सम्यग दर्शन का स्थान प्रथम विवेचकों का मत भेद दृष्टिगोचर होता है। जिस प्रकार है। यह मोक्ष का प्रथम द्वार है। सम्यग् दर्शन क्या है अनेक अन्धे एक हाथी को टटोलते है, कोई उसके घड़ को यह बतलाते हुए उमा स्वाति कहते है कि पदार्थों के स्पर्श करके उसे दीवार सा कहता है और कोई उसके पर यथार्थ स्वरूप के प्रति श्रद्धा न करना हो सम्यग्दर्शन है ।२ को छूकर उसे खम्भे के समान बतलाता है और कोई पूंछ जनदर्शन के विविध प्राचार्यों ने तत्त्वो या पदार्थों का को पकड़कर रस्से के समान कह देता है; यही दशा विवेचन भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। उमा स्वाति के एकान्तवादी विवेचकों की है। जैसे कोई आखो वाला अनुसार जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और सभी अन्धों को एकत्रित करके यह समझा देता है कि तुम मोक्ष-ये सात तत्त्व है। इन जीव प्रादि पदार्थो का जो सभी का ज्ञान प्रांशिक रूप में सत्य है, हाथी के एक-एक स्वरूप है उन्हें उसी रूप मे मोह तथा सशय आदि से रहित अग का ही तुमने अनुभव किया है ; इन सब का समुदित होकर जानना 'सम्यग्ज्ञ'न' कहलाता है। जीव आदि रूप हाथी है; हाथी के शरीर मे ये सभी अनुभव सत्य है; पदार्थों के स्वरूप के विषय मे विविध वाद प्रचलित है। किन्तु पाशिक रूप में । इसी प्रकार, किसी तत्त्ववेत्ता की उदाहरण के लिये जीवात्मा को ही ले लीजिये । बौद्ध के मत भांति जैन दर्शन ने वस्तुप्रो के स्वरूप को समझने के लिए में, क्षणिक पञ्चस्कन्ध की सन्तति से भिन्न कोई प्रात्मा अनेसान्तवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। नहीं है। इसीलिये उसे अनात्मवादी कहा जाता है। अनेकान्तवाद क्या है ? इसका विचार कैसे हुमा? न्याय-वैशेषिक की दृष्टि मे मात्मा नित्य है, कर्ता और किसी भी वस्तु को उसके अनेक (सभी सम्भव) पहलुप्रों भोक्ता है। वह शरीर मादि से भिन्न एक तत्त्व है। से देखना, जांचना अथवा उस तरह देखने की वृत्ति रखकर सांख्य-योग के मत में पुरुष या प्रात्मा बुद्धि से परे है, वह वैसा प्रयत्न करना ही अनेकान्त दृष्टि है। १. सम्पग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः-तत्त्वार्थसूत्र ३. वही, १४ । (मारियन्टल लाइब्ररी पब्लिकेशन, मसूर विश्व- ४. द्र०, सर्वदर्शन संग्रह, जनदर्शन । विद्यालय, १९४४), १.१॥ ५. १० सुखलाल सघवी, प्रस्तावना, सन्मतिप्रकरण २. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । वही, १.२ । (ज्ञानोदय दृस्ट, महमदाबाद, १९६३), पृ०५४। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, ३०, कि०३.४ अनेकान्त भनेकान्तवाद का व्यवस्थित विवेचन भगवान महा. कि बौद्धिक अहिंसा ही अनेकान्तवाद के रूप में प्रतिफलित वीर का उपदेश माने गये जैन मागमों में मिलता है। हुई है । जब महिंसा के सिद्धान्त को बौद्धिक क्षेत्र में भी यह नहीं कहा जा सकता कि भगवान महावीर से पूर्व लागू किया जाता है तो यह अहिंसा हमें दूसरों के विचारों भनेकान्तवाद का संकेत ही नहीं मिलता। संसार के का मादर करने और उनकी सहानुभूतिपूर्ण परीक्षा करने उपलब्ध वाङ्मय में परम प्राचीन जो ऋग्वेद है उसमें भी की प्रेरणा देती है। वस्तुत: मानव की दृष्टि किसी एक 'एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" यह वेद का वचन तत्त्व ही पदार्थ के विषय में भिन्न-भिन्न हो सकती है; क्योंकी अनेक रूपता का प्रतिपादन करता है। इसी प्रकार, कि पदार्थ के अनेक पहल होते है। अन्य विचारकों की ऋग्वेद में कहा गया है-नासदासीनो सदासीत् तदा- दष्टि के प्रति आदर भाव रखकर हम वस्तु के तात्त्विक नीम'। उपनिषदों में भी 'तदे जति तन्नजति तद्दूरे रूप को अधिक समझ सकते है। इस प्रकार, जैन धर्म की तलन्तिके," 'प्रणोरणीयान् महतो महीयान्" 'सदसच्चामृतं अहिंसा जब दूसरों के विचारों के प्रति प्रादर भाव सिखच यत" इत्यादि वचनों द्वारा एक ही तत्व मे अनेक लाती है. अर्थात बौद्धिक अहिंसा के रूप में भाती है तो विरुद्ध पक्षों का कथन किया गया है। भगवान महावीर उसे अनेकान्तवाद कहते है। के समकालीन भगवान बद्ध के उपदेशों में जो अव्याकृत भारतीय दर्शन के जैनेतर प्राचार्यों ने अनेकान्तवाद प्रश्न कहे गये है उनमे भी अनेकान्तवाद की झनक देखी के मन्तव्य का तर्क तथा युक्तियों के माधार पर खण्डन जाती है। फिर भी जेनेतर वाड्मय में अनेकान्तवाद का निखरा स्वरूप दष्टिगोचर नही होता। जन भागमो में ही किया है, इसके मानने वालों पर नाना प्रकार के व्यग्य वह रूप मिलता है। भी किये है जिनमें शंकराचार्य, धर्मकीर्ति तथा जैन आगमों का विवेचन अत्यन्त संक्षिप्त है । प्रागमों वाचस्पति मिश्र आदि उल्लेखनीय हैं। इधर जैन विद्वानों के जो भाष्य प्रादि उपलब्ध होते है उनमे भी तक शैली ने प्रतिपक्षियो के प्राक्ष पों का उत्तर दिया है तथा अनेकासे विस्तृत विवेचन नही किया गया है । जैन वाड़मय के न्तवाद की अधिकाधिक युक्तिसगत व्याख्या करने का दार्शनिक प्रथों में ही इसका विस्तृत विवेचन मिलता है। प्रयास किया है । हरिभद्र सूरि के भनेकान्तवाद के विजयइसका विकसित रूप प्रथमतः उमा स्वाति के 'तत्त्वार्थाधि- पताका प्रादि ग्रथों में यह प्रवृत्ति स्पष्टतः लक्षित होती गमसूत्र' के भाष्य में प्राप्त होता है। आगे चलकर है। अनेकान्तवाद के विषय मे एक सामान्य माप यह सिद्धसेन दिवाकर, मल्लवादी, समन्तभद्र, हरिभद्र, प्रकलङ्क, है कि एक ही वस्तु मे विरुद्ध धर्म नहीं हो सकते । उदाविद्यानन्द, प्रभाचन्द्र आदि अनेक विद्वानो द्वारा अनेकानन- हरणार्थ, एक ही वस्तु युगपत् सत् और प्रसत कसे हो वाद की अधिकाधिक विशद व्याख्या की गई है । देवसूरि, सकती है ? इसका समाधान है-दृष्टि-भेद से, जैसे सांख्य प्राचार्य हेमचन्द्र तथा यशोविजय जी के साहित्य में की दृष्टि में कुण्डल उत्पति से पूर्व अपने कारण में सत अनेकान्तवाद को अधिक समन्वयात्मक व्याख्या है। है (सत्कार्यवाद); किन्तु न्याय वैशेषिक की दृष्टि मे सम्भवतः जन प्रागगों में भी प्रयमतः तत्त्व के स्वरूप कुण्डल उत्पत्ति से पूर्व प्रसत् है (असत्कार्यवाद) । का सम्यक् ज्ञान करने के लिये ही अनेकान्तवाद की खोज अनेकान्त दृष्टि के अनुसार, इन दोनों मतों में सत्यता है। की गई होगी। विद्वानों ने इस के उद्भव के विषय मे दोनों परस्पर-विरोधी नही हैं अपितु एक दूसरे के पूरक एक अन्य प्रकल्पना भी प्रस्तुत की है । उनका विचार है है, एक दूसरे की कमी को पूरा करते हैं। वस्तुत: कार्य १. ऋग्वेद, १.१६४.४६ । ५. प्रश्नोपनिषद् , २.५। २. वही, १०.२.१२६ । ६. मि०, इन्ट्रोडक्शन, अनेकान्तजयपताका (बड़ोदा ३. ईशावास्योपनिषद् , ५। मारियन्टल इन्स्टीट्यूट, १९४७), पृ.cXIV. ४. कठोपनिषद् , २.२० । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन दर्शन को अनुपम देन : अनेकान्त दृष्टि और कारण ये दोनों एक दृष्टि से भिन्न हैं और दूसरी किसी रूप में समन्वय और सह-मस्तित्व की भावना का से भिन्न भी हैं । जब हम दोनों को अभिन्न रूप में देखते प्रादर किया है। इस भावना का बीज वेदों तथा उपहै तो कुण्डल को सुवर्ण से अभिन्न समझते हुए (या कहिये निषदों में विद्यमान है । यह ऊपर दिखलाया जा चुका है। सुवर्ण का परिणाम या रुपान्तर मानते हुए) उत्पत्ति से पूर्व वेदान्त के 'अनिर्वचनीयवाद' में, बुद्ध के 'मव्याकृतबाद' में भी सुवर्ण में कुण्डल को सत् कहने लगते हैं, अथवा सुवर्ण तथा उत्तरवर्ती विभज्यवाद और सांस्य की में कुण्डल रचना की शक्ति है, इसी शक्ति की दृष्टि से नित्यता में इस समन्वय-भावना के संकेत मिलते हैं। कुण्डल को उत्पत्ति से पूर्व सत कह दिया जाता है। न्यायसूत्रों में भी नितान्त एकान्तवादियों के मतों का दूसरी दृष्टि मे सुवर्ण से कुण्डल भिन्न है। यदि भिन्न न निराकरण करके दृष्टि-भेद की ओर संकेत किया गया होता या पहले से ही सुवर्ण में कुण्डल विद्यमान होता तो है। फिर भी अनेक प्राचार्यों ने जो जनदर्शन के अनेकान्तसुवर्णकार उसे बनाने के लिये प्रयत्न क्यो करता? अतः वाद का जोरदार शब्दों मे खण्डन किया है उसके पीछे कहा जाता है कि कुण्डल प्रादि कार्य सुवर्ण मे असत् है। तत्कालीन प्रवृत्ति ही कही जा सकती है । वादों के विवाद इस प्रकार, दो विरुद्ध धर्म सत्त्व तथा असत्त्व युगपत् एक मे प्रतिपक्षी के मत का खण्डन करना और अपने सम्प्रदाय कुण्डल मे रहते है। दृष्टि भेद से सत् और असत का के युक्त या प्रयुक्त मत का प्रतिपादन करना मतवादी समन्वय करने पर तत्त्व का यथार्थ-बोध होता है। अपना कर्तव्य समझता था। अन्य दर्शनों के प्राचार्यों ने सिद्धसेन दिवाकर बतलाते है कि सदवाद और प्रसद्वाद ही नही, अनेकान्तवाद के पोषक प्राचार्यों ने भी इसी दोनो अनेकान्त दष्टि से नियमित हो तभी सर्वोत्तम प्रवत्ति का अनुमरण किया था। यदि सभी मतवादी सत्य सम्यग्दर्शन बनत है, क्योकि एक-एक व्यस्त होकर वे दोनों की खोज को लक्ष्य करके एक तत्त्वान्वेषी की भाति दूसरे संमार के दुख से मक्ति नही साधते।' की दष्टि का भादर करते तो सत्य के विवेचन में अधिक अनेकान्तवाद को संशयवाद कहकर भी इसका खण्डन सफल होते। किया गया है। यह ठीक है कि अनेकान्तवाद को स्याद् अनेकान्तवाद का मिद्धान्त तत्त्व विबेचन मे ही सहावाद से पृथक् नही किया जा सकता; किन्तु स्यावाद मे यक नहीं है, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी उपजो 'स्यान' शब्द है वह क्रियापद नही है और उसका अर्थ योगिता है । इसका व्यावहारिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक यह नहीं है-ऐसा भी सम्भव है। वस्तुतः यहा 'स्याद्' तथा प्राध्यात्मिक महत्व है। व्यावहारिक दृष्टि से यह शब्द अव्यय है, जिसका अर्थ है 'किसी प्रकार (कथञ्चित)। अनेकान्तवाद बहुत से विवादो और झगड़ों से मानवप्रत: 'स्यादस्ति' का अर्थ है 'वस्तु किसी प्रकार किमी समाज को बचा सकता है। विरोधी के विचारो के प्रति दृष्टि से है। इसी प्रकार, 'स्यान्नास्ति' का अर्थ होगा सहिष्णुता का भाव यदि प्रत्येक मानव में होगा तो 'वस्तु किसी दृष्टि से नही भी है। एक ही वस्तु में वृष्टि विवाद-प्रस्त विषयों में दूसरे के पक्ष को समझकर उसे भेद या अवस्था-भेद के अनुसार भाव और प्रभाव का । सुलझाने की प्रवृत्ति स्वय ही हो जायेगी। हमारे अनेक निर्णय किया जा सकता है, यह अभी ऊपर बतलाया गया विवादों, वैमनस्यों और मत-भेदों का मूल है दूसरे के है। प्रतः स्याद्वाद या अनेकान्तवाद संशयवाद नहीं है भाव को न समझना या विरोधी के विचारो के प्रति पोर न यह प्रज्ञानवाद ही है। वस्तुतः यह वाद वस्तु सहिष्णुता न रखना। के स्वरूप का निश्चयात्मक रूप में ही विवेचन करता है धार्मिक विवादों से बचने के लिये भी अनेकान्त और साथ ही विविध भाचार्यों के विरोधी वादों का दृष्टि उपयोगी है। धर्मसहिष्णुता का भाव रखकर ही भनेकान्त दृष्टि से समन्वय भी करता है। विविध सम्प्रदाय एक दूसरे के साथ सुख-शान्ति से रह भारतीय दर्शन के प्रायः सभी सम्प्रदायों ने किसी न सकते हैं। यदि किसी के तथाकथित धामिक माचरण से १. द्र०, सन्मतिप्रकरण, ३.५.१ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४, वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त समाज के अन्य व्यक्तियों के मन में दुख होता है या या बुद्धि की अवहेलना कर देता है और तर्क का पक्षपाती समाज की शान्ति एवं व्यवस्था भंग होती है या समाज श्रद्धा को केवल मन्ध-परम्परा मान लेता है। किन्तु की यथेष्ट प्रगति में बाधा पड़ती है अथवा समाज के विसी केवल श्रद्धा भाव से या केवल तर्क से किसी तथ्य का मन्य महित की प्राशङ्का है तो अनेकान्त दृष्टि मानव निर्णय करना कठिन है। श्रद्धा का अभिप्राय है मानव के को सन्मार्ग दिखला सकती है। ऐसी दृष्टि वाला व्यक्ति अजित ज्ञान के प्रति विश्वास तथा प्रास्था रखना । यदि अपने मन्तव्य पर प्राग्रह नहीं करता, दूसरों के हृदय को मानव जाति ने केवल इतना ही किया होता तो सभ्यता समझने का भी प्रयास करता है और मानवता-विरोधी भोर संस्कृति का विकास उत्तरोत्तर नहुमा होता। दूसरी मन्तव्य या पाचरण से विलग हो जाता है। प्रोर, केवल तर्क का क्षेत्र भी अत्यन्त सीमित है। वह प्राध्यात्मिक दृष्टि से भी अनेकान्तवाद स्वीकार्य ही प्रत्येक व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति, योग्यता और संस्कारों है। तत्त्वज्ञान या प्रात्मज्ञान प्रादि को प्राय सभी दर्शनों पर निर्भर है। किञ्च, मानव जाति के अजित ज्ञानने दुख-निवृत्ति या मक्ति का साधन माना है। किन्तु विज्ञान पर प्रास्था रखकर ही तर्क के द्वारा प्रागे बढ़ा जा तत्त्वज्ञान क्या है ? प्रात्मा का स्वरूप क्या है ? इत्यादि सकता है। प्रतः केवल श्रद्धा या केवल नर्क ज्ञान प्राप्ति विषयों मे विविध प्राचार्यों के भिन्न-भिन्म मन है- के अधूरे साधन है नितान्त अपूर्ण है। इनका समन्बय ही 'नेको मनिर्यस्य मत न भिन्नम्'। फिर तत्त्वज्ञान या मानव को समुन्नत कर सकता है। यह समन्वय अनेकान्त पात्मज्ञान कैसे गम्भव है ? इसका उत्तर है अनेकान्त दृष्टि दृष्टि से ही हो सकता है। से । जब जिज्ञासु जन तत्त्व-सम्बन्धो या प्रात्म-सम्बन्धी इस प्रकार, अनेकान्त दृष्टि वेवल तत्त्व निर्णय मे ही विविध वादो को एक ही सत्ता के अनेक पहलू मान ता सहाया नहीं है, यह वह दष्टि है जिसके द्वारा मानव का है, तो उन विवादों में उलझा नहीं रहता, वह तो माधना जीवन शान और सुखी हो सकता है, जिममे मनुष्य के मे मग्न होकर सत्य की खोज में तत्पर रहता है। पारस्परिक विवादो, सामाजिक संघपों का अन्त हो सकता ___ अनेकान्त दृष्टि का मनोवैज्ञानिक महत्त्व भी है। है। इन अनेकान्त दृष्टि का निरूपण करके भगवान् पानव-मन श्रद्धा और तक दोनों से युक्त है। किसी समय महावीर ने मानव जाति का महान् कल्याण किया है। श्रद्धा का भाव प्रबल होता है तो किसी समय तक की कुरुक्षेत्र विद्यालय, प्रवृत्ति उग्र हो जाती है। श्रद्धा से प्राप्लावित जन तक कुरुक्षेत्र हरियाणा) 000 (पृष्ठ ६० का शेषांश) खाते । तुक के प्राग्रह से कबि ने छंदो के पदान्त हकार, शब्द दृष्टव्य है -कितला. घरना, थई, मूकी, मोकलस्यां, इकार एव प्रकार रूप में कर दिये है। नगरनो, एतलू, वीजी, पामी, जूवा, मोकलई इत्यादि। इन प्रेमाख्यानो की भाषा मध्यकाल में प्रचलित इस प्रकार कुशललाभ के प्रेमाख्यानक काव्य मध्यलोक भाषा राजस्थानी है, जिसे विद्वानों ने 'जूनी गुजराती' कालीन राजस्थानी सस्कृति एवं साहित्यिक प्रवृत्ति के अथवा प्राचीन राजस्थानी कहा है। यह राजस्थानी- जीवन्त प्रतीक है। उनमे प्रकृति का खुलकर उपयोग हुमा व्याकरण सम्मत, गुजराती शब्दों और विभक्तियों की है। यह प्रयोग उद्दीपन को अपेक्षा प्रालंबन रूप में ही बहुलता लिये हुए है । इसका प्रमुख कारण गुजराती और अधिक हो पाया है। राजस्थानी भाषा का एक ही मूल शौरसेनी प्राकृत से प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, उद्गम तथा मध्यकाल में गुजरात और राजस्थान की जनता महाविद्यालय (कु० क्षे० वि० वि० भौगोलिक एवं सांस्कृतिक एकता का होना है। ऐसे कुछ से संबद्ध), बावल (हरियाणा) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : उद्गम और आत्मा D डा. ज्योतिप्रसाद जैन, ललनऊ जैन धर्म का उद्देश्य है मनुष्य की परिपूर्णता अर्थात् वह प्राध्यात्मिक चिन्तन एवं उच्च प्रात्मानुभूति की प्राप्ति संसारी प्रास्मा की स्वयं परमात्मत्व में परिणति । व्यक्ति में निमित्त है। मे जो अन्तनिहित दिव्यत्व है उसे स्वात्मानुभति द्वारा विभिन्न शैलियों और युगों की कला एवं स्थापत्य की अभिव्यक्त करने के लिए यह धर्म प्रेरणा देता है और कृतिया समूचे देश में बिखरी है, परन्तु जैन तीर्थ स्थल सहायक होता है । सामान्यत: इस मार्ग में कठोर अनु- विशेष रूप से, सही प्रर्थों में कला के भडार हैं ; और एक शासन, प्रात्मसयम, त्याग सौर तपस्या की प्रधानता जैन मुमुक्ष का प्रादर्श ठीक वही है, जो 'तीर्थयात्री' शब्द है। किन्तु एक प्रकार से कला भी 'दिव्यत्व की प्राप्ति का से व्यक्त होता है. जिसका अर्थ है ऐसा प्राणी जो और उसके साथ एकाकार हो जाने का पवित्रतम साधन सांसारिक जीवन में अजनबी की भांति यात्रा करता है। है', और कदाचित् यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा वह सांसारिक जीवन जीता है, अपने कर्तव्यो का पालन कि 'धर्म के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि मे यथार्थ कला- और दायित्वों का निर्वाह सावधानीपूर्वक करता बोध जितना अधिक सहायक है उतना अन्य कुछ नही।' है, तथापि उसकी मनोवृत्ति एक अजनबी दृष्टा या संभवतया यही कारण है कि जनों ने सदैव ललित कलाओं पर्यवेक्षक की बनी रहती है। वह बाह्य दृश्यों से अपना के विभिन्न रूपों और शैलियों को प्रोत्साहन दिया। एकत्व नहीं जोड़ता और न ही सांसारिक सम्बन्धो और कलाए निस्संदेह, मूलतः धर्म की अनुगामिनी रही किन्तु पदार्थों में अपने पाप को मोहग्रस्त होने देता है। वह एक उन्होंने इसकी साधना की कठोरता को मृदुल बनाने मे ऐसा यात्री है जो सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यग्चारित्र भी सहायता की। धर्म के भावात्मक, भक्तिपरक एव के विविध मार्ग का अवलम्बन लेकर अपनी जीवनयात्रा लोकप्रिय रूपों के पल्लवन के लिए भी कला स्थापत्य की करता है, और अपनी प्राध्यात्मिक प्रगति के पथ पर तब विविध कृतियों के निर्माण की प्रावश्यकता हुई, अतः उन्हें तक बढ़ता चला जाता है जब तक कि वह अपने लक्ष्य वस्तुतः सून्दर बनाने में श्रम मोर धन की कोई कमी नही अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति नही कर लेता। वास्तव मे, की गयी। जैन धर्म की प्रास्मा उसकी कला में स्पष्ट रूप जैन धर्म के पूजनीय या पवित्र स्थान को तीर्थ (घाट) से प्रतिबिम्बित है। यह यद्यपि बहुत विविधतापूर्ण और कहते हैं क्योंकि वह दुःखों और कष्टों से पूर्ण संसार को वैभवशाली है परन्तु उसमें जो शृंगारिकता, अश्लीलता या पार करने में मुमुक्ष के लिए सहायक होता है और सतहीपन का प्रभाव है, वह अलग ही स्पष्ट हो जाता है। निरन्तर जन्ममरण के उस भ्रमण से मुक्त होने में भी वह सौंदर्यबोध के भानन्द की सृष्टि करती है पर उससे सहायता देता है जो इस सहायता के विना कभी मिट कहीं अधिक, सशक्त, उत्प्रेरक प्रौर उत्साहवर्धक है और नहीं सकता। यही कारण है कि जैन तीर्थयात्रा का मात्मोत्सर्ग, शांति और समत्व की भावनामों को उभारती वास्तविक उद्देश्य प्रारमोत्कर्ष है । कदाचित् इसीलिए जनों है। उसके साथ जो एक प्रकार की प्रलौकिकता जुड़ी है, ने अपने तीर्थक्षेत्रों के लिए जिन स्थानों को चुना, बे पर्वतों Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ बर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त की चोटियों पर या निर्जन भौर एकान्त घाटियों मे हैं; यह भी एक तथ्य है कि जैन कला प्रधानतः घोन्मुख जो जनपदों और भौतिकता से ग्रसित सांसारिक जीवन की रही, और जैन जीवन के प्रायः प्रत्येक पहल की भांति प्रापाघापी से भी दूर हरे-भरे प्राकृतिक दृश्यों तथा शांत कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी उनकी विश्लेषात्मक मैदानों के मध्य स्थित हैं, और जो एकाग्र ध्यान और दृष्टि और यहां तक कि वैराग्य की भावना भी इतनी अधिक मात्मिक चिन्तन में सहायक एवं उत्प्रेरक होते है । ऐसे परिलक्षित है कि परम्परागत जैन कला में नीतिपरक स्थानों के निरन्तर पुनीत संसर्ग से एक अतिरिक्त निर्मलता अंकन अन्य प्रकनों पर छा गया दिखता है, इसीलिए का संचार होता है और वातावरण प्राध्यात्मिकता, किसी-किसी को कभी यह खटक सकता है कि जन कला मलौकिक्ता, पवित्रता और लोकोत्तर शांति से पुनर्जीवत में उसके विकास के साधक विशुद्ध सौदर्य को उभारने हो उठता है । वहाँ, वास्तु स्मारकों (मदिर देवालयों ग्रादि) वाले तत्वों का प्रभाव है ; उदाहरणार्थ, मानसार आदि की स्थापत्य कला और सबसे अधिक मूर्तिमान नार्थंकर ग्रयों मे ऐमी सूक्ष्म व्याख्याए मिलती है जिनमे मूर्ति शिल्प प्रतिमाएं अपनी अनन्त गांति, वीतरागता और एकाग्रता और भवन निर्माण की एक रूढ़ पद्धति दीख पड़ती है से भक्त तीर्थयात्री को स्वयं 'परमात्मत्व' के सान्निधान्य और कलाकार से उसी का कठोरता से पालन करने की की अनुभति करा देती है। मादचर्य नहीं यदि वह अपेक्षा की जाती थी। किन्तु, यही बात बौद्ध पौर ब्राह्मण पारमार्थिक भावातिरेक में फूट पड़ता है - घमों की कला मे भी विद्यमान है, यदि कोई अन्तर है तो 'चला जा रहा तीर्थ क्षेत्र में अपनाए भगवान का। वह धणी का है। सन्दरता की खोज में, अपनाए भगवान को॥' जन मूर्तियो मे जिनों या तीर्थंकरों की मूनिया तीर्थक्षेत्रो की यात्रा भक्त जोबन की एक अभिलाषा निरसंदेह सर्वाधिक है और इस कारण यह मालोचना तर्क है। ये स्थान, उनके कलात्मक मन्दिर, मूतियाँ प्रादि संगत लगती है कि उनके प्रायः एक जैसी होने के कारण जीवंत स्मारक है मक्तात्माग्रो के, महापुरुषो के, घामिक कलाकार को अपनी प्रतिभा के प्रदशन का अवसर कम तथा स्मरणीय घटनामों के । इनकी यात्रा पुण्यवर्धक पोर मिल सका । पर इनकी भी अनेक मूर्तियां अद्वितीय बन प्रारमशोधक होती है। यह एक ऐसी सचाई है पड़ी है, यथा--कर्नाटक के श्रवणबेलगोल की विश्वविख्यात जिसका समर्थन तीर्थयात्रियो द्वारा वहा बिताये जीवन से विशालकाय गोम्मट-प्रतिमा, जिसके विषय मे हैनरिख होता है। नियम, सयम, उपवास, पूजन, ध्यान, शास्त्र- जिम्मर ने लिखा है . 'वह प्राकार-प्रकार मे मानवीय स्वाध्याय, धामिक प्रबचनो का श्रवण, भजन-कीर्तन, दान है, किन्तु हिमखन्ड के सदश मानवोत्तर भी, तभी तो वह और माहारदान प्रादि विविध धार्मिक कृत्यो में ही उनका जन्म-मरण के चक्र, शारीरिक चिन्तामों, व्यक्तिगत अधिकांश समय व्यतीत होता है । विभिन्न व्यवसायो पौर नियति, वासनाप्रों, कष्टों और होनी-अनहोनी के सफल देश के विभिन्न प्रदेशों से प्राये पाबाल-वृद्ध नर-नारी वहा परित्याग की भावना को भलीभाति चरितार्थ करती है।" पूर्ण शांति और वात्सल्य से पुनीत विचारों मे मग्न एक अन्य तीर्थकर मूर्ति की प्रशंसा में वह कहता हैरहते है। __ "मुक्त पुरुष की मूर्ति न सजीव लगती है न निर्जीव, वह तो यह एक तथ्य है कि भारत को सास्कृतिक धरोहर अपूर्व मनत शाति से मोतप्रोत लगती है। एक अन्य द्रष्टा को समद्ध करने वालों में जैन प्रग्रणी रहे हैं। देश के वायोत्सर्ग तीर्थंकर-मूर्ति के विषय में कहता है कि सांस्कृतिक भन्डार को उन्होंने कला पौर स्थापत्य को 'अपराजित बल और अक्षय शक्ति मानो जीवंत हो उठे हैं, अगणित विविध कृतियो से सम्पन्न किया जिनमे से अनेकों वह शालवृक्ष (शाल-प्रांशु) की भाति उन्नत प्रौर विशाल की भव्यता और कलागरिमा इतनी उत्कृष्ट बन पड़ी है है।" अन्य प्रशसकों के शब्द है, "विशालकाय शांति', कि उनकी उपमा नहीं मिलती और उन पर ईष्या की जा 'सहज भव्यता', या परिपूर्ण काय-निरोध की सूचक सकती है। कायोत्सर्ग मुद्रा जिससे ऐसे महापुरुष का संकेत मिलता है Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकला का उद्गम और उसकी प्रात्मा जो अनन्त, अद्वितीय केवल ज्ञानगम्य सुख का अनुभव थे, प्रतः जनपदों से दूर पर्वतों के पाश्र्वभाग में या चोटियों करता है और ऐसे अनुभव से वह उसी प्रकार पवि वलित पर स्थित प्राकृतिक गुफाएँ उनके अस्थायी प्राश्रम तथा रहता है जिस प्रकार वायु-विहीन स्थान में प्रचंचल दोप- प्रावाम के उपयोग में पायी। यहाँ तक कि प्रारम्भ में शिखा। इससे ज्ञात होता है कि तीर्थंकर मूर्तियां उन निमित गुफाएँ स.दी थी और सल्लेखना धारण करने विजेतामों की प्रतिबिम्ब है जो, जिम्मर के शब्दो में, वालों के लिए उनमे पालिशदार प्रस्तर शय्याएं प्रायः वना लोकान मे सर्वोच्च स्थान पर स्थिर है और क्योकि दे दी जाती थी। तीसरी-चौथी शती ईसवी से, जनपयो से रागभाव से प्रतीत है प्रत: सभावना नही कि उस सर्वोच्च हटकर बने मन्दिरों या अधिष्ठानों में लगभग स्थायी रूप पौर प्रकाशमय स्थान से स्खलित होकर उनका सहयोग से रहने की प्रवृत्ति जैन साधुओं के एक बड़े समूह मे चल मानवीय गतिविधियों के इस मेघाच्छन्न वातावरण में प्रा पटो, इससे शंगोत्कीर्ण गुफा मन्दिरों के निर्माणको पड़ेगा । तीर्थ सेतु के कर्ता विश्व की घटनामो और जैविक प्रात्साहन मिला । जैसा कि स्मिथ ने लिखा है. इस धर्म समस्यपो से भी निलिप्त है, वे प्रतीन्द्रिय, निश्चय, सर्वज्ञ, की विविध व्यावहारिक मावश्यकतानों ने, निस्सदेह, निष्कम और शाश्वत शांत है। यह तो एक प्रादशं है विशेष कार्यो के लिए अपेक्षित भवनो को प्रभावित जिसकी उपासना की जाये, प्राप्ति की जाये । यह कोई किया । तथापि, जैन साधु अपने जीवन से सयम धर्म को देवता नही जिसे प्रसन्न किया जाये, तृप्त या सतुष्ट किया कभी मलग न कर सके। सम्भवतया यही कारण है कि जाये, तृप्त स्वभावतः इसी भावना से जैन कला पौर अजन्ता और एलोरा के युगों मे भी, थोड़ी संख्या मे ही स्थापत्य को विषय-वस्तु प्रोतप्रोत है। जैन गुफामों का निर्माण हुमा, और पाचवी से बारहवी शताब्दियो के मध्य ऐसे लगभग तीन दर्जन मात्र गुफा किन्तु, दूसरी पोर, इन्द्र प्रौर इद्राणी, तीर्थकरों के मन्दिर ही निर्मित किये गये, वे भी केवल दिगम्बर माम्नाय अनुचर यक्ष प्रोर यक्षी, देवी सरस्वती, नवग्रह, क्षेत्रपाल द्वारा, श्वेताम्बर साधुपो ने पहले हो जनपदों में या उनके और सामान्य भक्त नर-नारी,जन देव निकाय के अपेक्षा समीप रहना प्रारम्भ कर दिया था। कृत कम महत्व के देवतामों या देवतुल्य मनुष्यो के मूर्तन मे, तीथंकरों और अतीत के अन्य सुविख्यात पुरुषो के मन्दिर-स्थापत्य कला का विकास प्रत्यक्षतः मूर्ति पूजा जीवन चरित्र के दृश्यांकनों मे और विविध प्रलकरण के परिणामस्वरूप हा जो जैनो से कम से कम इतिहास प्रतीकों के प्रयोग मे कलाकार किन्हीं कठोर सिद्धान्तो से काल के प्रारम्भ से प्रचलित रही है। बौद्ध ग्रन्थों में बंधा न था, वरन् उसे अधिकतर स्वतत्रता थी। इसके अतिरिक्त भी, कलाकार को अपनी प्रतिभा के पदर्शन का उल्लेख है कि वज्जि देश और वैशाली के महंत-चैत्यों का पर्याप्त अवसर था, प्राकृतिक दृश्यो तथा समकालीन अस्तित्व था जो बुद्ध-पूर्व अर्थात महावीर-पूर्व काल से जीवन को धर्म निरपेक्ष गतिविधियों के शिल्पांकन या विद्यमान थे, (तुलनीय महापरिनिवान-सुत्तन्त)। चौयी चित्रांकन द्वारा जो कभी-कभी विलक्षण बन पड़े, जिनसे शा इसा-पूर्व से हम जन मूतियों, गुफा-मन्दिरों और विपुल ज्ञातव्य तत्व प्राप्त होते है और जिनमे कलात्मक निमित देवालयों या मन्दिरों के अस्तित्व प्रत्यक्ष मिलने सौदर्य समाया हमा है। पर, इन सबमे भी कलाकार को लगते है। जैन धर्म की शुद्धाचार नीति को ध्यान में रखना था, इसीलिए उसे शृगार, अश्लीलता और अनैतिक दृश्यो की अपने मन्दिरों के निर्माण में जैनो ने विभिन्न क्षेत्रों अपेक्षा करनी पड़ी। मौर कालों की प्रचलित शैलियों को तो अपनाया, किन्तु उन्होंने अपनी स्वयं की सस्कृति और सिद्धान्तों की दृष्टि जहां तक स्थापत्य का प्रश्न है, प्रारम्भ में जैन साधु से कुछ लाक्षणिक विशेषतामों को भी प्रस्तुत किया जिनके क्योंकि अधिकतर वनों में रहते थे और भ्रमणशील होते कारण जैनकला को एक अलग ही स्वरूप मिल गया। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८, वर्ष ३०, कि० ३.४ भनेकान्त कुछ स्थानों पर उन्होंने समूचे 'मन्दिर-नगर' ही खड़े इसका प्रमाण मथुरा के कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त कर दिये। हुआ है । वहाँ एक ऐसा स्तूप था जिसके विषय में ईसवी सन् के मारम्भ तक यह मान्यता थी उसका निर्माण मानवीय मूर्तियों के अतिरिक्त, अलंकारिक मूर्तियों सातवें तीर्थकर के समय में 'देवों' द्वारा हुमा था और के निर्माण में भी जैनों ने अपनी ही शैली अपनायी, और पुननिर्माण तेईसवें तीर्थकर के समय में किया गया था। स्थापत्य के क्षेत्र में अपनी विशेष रुचि के अनुरूप यह स्तूप कदाचित् मध्यकाल के प्रारम्भ तक विद्यमान स्तंभाधारित भवनों के निर्माण में उच्च कोटि का कौशल रहा। किन्तु, गुप्त-काल की समाप्ति के समय तक जैनों प्रदर्शित किया। इन में से कुछ कला-समृद्ध भवनों की की रुचि स्तप के निर्माण में नही रह गयी थी। विख्यात कला-मर्मज्ञों ने प्राचीन और भारम्भिक मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य की सुन्दरतम कृतियों में गणना एक बात और, जैसा कि लांगहर्ट का कहना है, की है। बहुत बार, उत्कीर्ण और तक्षित कलाकृतियों मे स्थापत्य पर वातावरण के प्रभाव का यथोचित्त महत्व मानव-तत्त्व इतना उभर पाया है कि विशाल, निर्ग्रन्थ समझते हुए हिन्दुनों की अपेक्षा जैनों ने अपने मन्दिरों के दिगम्बर जैन मूर्तियों में जो कठोर संयम साकार हो उठा निर्माण के लिए सदैव प्राकृतिक स्थान को ही चुना।' लगता है उसका प्रत्यावर्तन हो गया। कला कृतियों को उन्होने जिन अन्य ललित कलामों का उत्साहपूर्वक सृजन प्रधिकता और विविधता के कारण उत्तरकालीन जैन कला । किया उनमें सुनेखन, अलंकार, लघुचित्र पौर भित्तिचित्र, ने इस धर्म की भावनात्मकता को अभिव्यक्त किया है। संगीत और नत्य है। उन्होंने सैद्धांतिक पक्ष का भी ध्यान रखा और कला, स्थापत्य, सगीत एव छन्दशास्त्र पर जैन मन्दिरों भौर वसदियो के सामने, विशेषत: मूल्यवान् ग्रंथों की रचना की है। दक्षिण भारत में, स्वतंत्र खड़े स्तंभ जैनो का एक अन्य योगदान है। मानस्तंभ कहलाने वाला यह स्तंभ उस स्तंभ कहने की आवश्यकता नही कि जैन कला और का प्रतीक है जो तीर्थकर के समवशरण (सभागार) के स्थापत्य में जैन और जैन संस्कृति के सैद्धातिक और प्रवेश द्वारों के भीतर स्थित कहा जाता है। स्वयं जिन- भावनात्मक मादर्श अत्यधिक प्रतिफलित हुए है, जैसा कि मन्दिर समवसरण का प्रतीक है। होना भी चाहिए था। जैन स्थापत्यकला के प्राद्य रूपों में स्तूप एक रूप है, ज्योति निकुंज, चार बाग, लखनऊ-१ C00 १. जिम्मर (हैनरिख). फिलासफीज़ माफ इन्डिया, ४. तुलनीय : जैन (ज्योति प्रसाद) : जैन सोर्सेज माफ १९५१ न्यूयार्क, पृष्ठ १८१-८२ । द हिस्ट्री माफ ऐश्चॅट इन्डिया १९६४ दिल्ली, अध्याय १०.। २. स्मिथ (बी. ए.) : हिस्ट्री माफ फाइन पार्टस इन जैन (ज्योति प्रसाद): रिलीजन एन्ड कल्चर माफ इन्डिया सीलोन १६३० माक्सफोर्ड पृष्ठ । जैन्स (मुद्रण मे), प्रध्याय और प्रस्तुत ग्रन्थ के ३. लांगहर्ट (ए. एच): हम्पी रूइन्स, मद्रास, पृष्ठ ६६ । विभिन्न अध्याय । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशमरतिप्रकरण- कार तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के कर्ता से भिन्न डा० कुसुम पटोरिया, नागपुर भवतीत्यन्यथापितानवितविशेषात् ॥ * तत्वार्थ सूत्र जैन तत्त्वज्ञान का संग्राहक, सुन्दर, सुव्यवस्थित और महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो दोनों ही सम्प्रदायों में प्रागम-ग्रन्थों की भांति ही समाहत है । तत्वार्थसूत्र का भाष्य स्वोपज्ञ है या अन्योपज्ञ यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है | श्वेताम्बर परम्परा स्वोपज्ञ भाष्य के अतिरिक्त प्रशमरतिप्रकरण प्रादि ग्रन्थों को उमास्वाति प्रणीत मानती है । प्रशमरतिप्रकरण ३१३ कारिकाओंों में रचित ग्रन्थ है, जिसमे सक्षेप मे जैन तत्वज्ञान को गुम्फित किया गया है। प्रायः सम्पूर्ण प्राचीन जैन साहित्य प्राकृत भाषा में प्रणीत है । तत्त्वार्थ सूत्रकार ही प्रथम आचार्य है, जिन्होंने संस्कृत सूत्र- शैली में जैन तत्त्वज्ञान को पिरोया है । प्रशमरतिप्रकरण भी संस्कृत में सक्षिप्त शैली में रचित है। प्रशमरतिप्रकरण का तत्त्वार्थसूत्र से कही कही शब्दशः साम्य है । साम्य प्रशमरति प्रकरण की चार कारिकाओं में तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र ज्यों के त्यों विद्यमान है । प्रशमरति - सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् । साकारोsनाकरच सोऽष्टभेदश्चतुर्धा तु ॥" तत्त्वार्थ सूत्र उपयोगो लक्षणम् । स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।।' प्रशमरैति उत्पादविगम तित्यत्वलक्षणं यत्तदस्ति सर्वमपि । १. प्रशमरतिप्रकरण, कारिका १६४ । २. तत्वार्थ सूत्र २ / ८ 1 ३. वही २ / ६ । ४. प्रशमरतिप्रकरण २०४ । ५. तत्त्वार्थ सूत्र ५ / २६, ५/३०, ५ / ३१, ५ / ३२ (दिगम्बर पाठानुसार) | सदसद्वा तत्त्वार्थ सूत्र - सद्द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययोग्ययुक्तं सत् । तडावाव्ययं नित्यम् । अर्पितानपित सिद्धेः ॥ प्रशमरति एतेष्वध्यवसायो योऽर्थेषु विनश्चयेन तत्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतच्च तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ तत्वार्थ सूत्र - तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा ।", प्रशमरति एषामुतरभेदविषयादिभिर्भवति विस्तराधिगमः । एकादीन्ये कस्मित् भाष्यानि स्वाचर्तुभ्यः इति ॥ तत्त्वार्थ सूत्र- एकादीनि माध्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः प्रशमरति सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसंपदः साधनाति मोक्षस्य । तस्विकतराभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यसिद्धिकरः ॥ " तत्त्वार्थ सूत्र - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" प्रशमरतिप्रकरण की उक्त कारिकाम्रों में तत्त्वार्थ सूत्र के सूत्र के सूत्र ज्यों के त्यों उद्धृत कर लिए गये है । उक्त साम्य प्रशमरतिप्रकरण भौर तत्वार्थसूत्र के एककर्तृत्व का प्राभास देता है । ६. प्रशमरतिप्रकरण, कारिका २२२ । ७. तत्वार्थसूत्र १/ २-३ । ८. प्रशमरति - २२६ । ६. १०. प्रशमरति २३० । ११. तवार्थसूत्र १/१ 1 तत्वार्थ सूत्र १ / ३० । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ३०,कि. ३.४ प्रशमरतिप्रकरण की भाष्य के साथ भी काफी समा. पदेशइत्यनर्थान्तरम् ।' नता है। प्रशमरति में उपयोग को द्विविध साकार एवं तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में मनाकार बताया है।' तत्त्वार्थ भाष्य में भी ज्ञानोपयोग अभिनिबोध को उल्लिखित किया है। प्रशमरति में भी को साकार तथा दर्शनोपयोग को मनाकार शब्दों से मतिज्ञान को मभिनिबोधक कहा है।" उल्लिखित किया है। प्रशमरति में कहा गया है : संसारानुप्रेक्षा का प्रशमरतिप्रकरण का वर्णन भाष्यासम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में से एक के भी प्रभाव में मुसारी हैमोक्षमार्ग प्रसिद्धिकर है। माता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । तास्वेकतराभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यमिद्धिकरः ।' व्रजति सुत: पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ।" इन्हीं शनों का भाष्य में प्रयोग है : भाष्य- माता हि भूत्वा भगिनी दुहिता माता च भवति । एकसराभावेऽप्यसाधनानि ।' भगिनी भूत्वा माता भार्या दुहिता च भवति...... सम्यग्दर्शन पौर सम्यग्ज्ञान के होने पर भी चारित्र इस प्रकार प्रशमरतिप्रकरण का तत्त्वार्थसूत्र व कभी होता है कभी नहीं, किन्तु चारित्र के होने पर सम्यग- तत्त्वार्थभाष्य से शाब्दिक साम्य है, जो मापाततः दोनों के दर्शन और ज्ञान का लाभ सिद्ध ही है। इस बात को कर्ता के ऐक्य की संभावना को जन्म देता है। प्रशमरतिप्रकरण तथा भाष्य मे लगभग एक से शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। वैषम्य प्रशमरतिप्रकरण तथा सभाष्य तत्त्वार्थ में महत्त्वपूर्ण प्रशमरति सैद्धान्तिक अन्तर है। पूर्वयसम्पद्यपि तेषां भजनीयमुत्तर भवति । पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्धः । १. द्रव्य संख्या-तत्त्वार्थसूत्रकार मुख्य ५ द्रव्य मानते हैं। काल द्रव्य के स्वतन्त्र अस्तित्व के विषय मे तत्त्वार्थभाष्य बे उदासीन है। श्वेतम्बर पाठ 'कालश्चेल्येके तो एषां च पूर्वलामे भजनीयमुत्तरम् । निश्चित कप से काल के स्वतन्त्र द्रव्यत्व के विषय मे उत्तरलाभे तु नियतः पूर्व लाभ: ।। सूत्रकार की तटस्थता को द्योतित कर रहा है। दिगम्बर प्रशमरति मे शिक्षा, पागम, उपदेशश्रवण अधिगम के पाठ 'कालश्च' के द्वारा भी सूत्रकार की मान्यता का तथा स्वभाव और परिणाम निसर्ग के पर्यायवाची शब्द विश्लेषण करें, तो यह कह सकते हैं कि सूत्रकार इस विषय दिये गये है। में तटस्थ थे। शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकार्थकाव्यधिगमस्य । मजीव द्रव्यों के वर्णन से पांचवे अध्याय का प्रारम्भ एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभावश्च ॥ होता है यहां प्रथम सूत्र में धर्म, अधर्म, प्राकाश और भाष्य में भी ये ही पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं पुद्गल इन चारों को प्रजीवकाय कहा गया है। यहां काल मागम: अभिगमः प्रागमो निमित्तं श्रवणं शिक्षा उप- के कायस्व का प्रभाव होने से उसका परिग्रहण नहीं किया देशइत्यनर्थान्तरम् ।..निसर्ग: परिणामः स्वभाव. अपरो- गया। व्याणि" जीवाश्च" इन दो सूत्रों के उपरान्त १. प्रशमरति, १६४। २. तत्त्वार्थसूत्र १/8 का भाष्य । ३. प्रशमरति २३०। ४. तत्त्वार्थसूत्र १/१ का भाष्य । ५. प्रशमरति, २३१ । ६. तस्वार्थसूत्र १/१ का भाष्य । ७. प्रशमरति २२३। ८. तत्त्वार्थसूत्र १/३ का भाष्य । ६. तत्त्वार्थसूत्र १/१३ । १०. प्रशमति २२५। ११. प्रशमरति १५६ । १२. तत्त्वार्थसूत्र २/७ का भाष्य । १३. तत्वार्थसूत्र५/३८ । १४. वही ५/२। १५. वही ५/३ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामरतिकरणकारतरवासून त्या भाष्यकता से भिन्न कालद्रव्य का उल्लेख संभव व आवश्यक था, किन्तु यहां प्रशमरतिकार निर्विवाद रूप से पद्धन्म इष्ट हैकालद्रव्य का वर्णन नहीं है । जीवद्रव्य का वर्णन पहले के धर्माधर्माकाशानि पुद्गलाः काल एव बाजीवाः । अध्यायों में हो चुका। पांचवे काल व्यतिरिक्त चार पुद्गलवर्णमस्पं तु रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः ।। प्रजीव द्रव्यों का वर्णन कर चुकने के पश्चात् सूत्रकार द्रव्य का सामान्य लक्षण करते हैं। गुणपर्ययवद् द्रव्यम्। जीवाजीवा द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोकपुरुषोऽयम् । इसके उपरान्त वे कालद्रव्य का उल्लेख करते हैं । यदि वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥" सूत्रकार काल को भी पथक द्रव्य मानते, तो अवश्य उसका इस प्रकार द्रव्यों के विषय में सैद्धान्तिक मतभेद है। उल्लेख भी अजीवद्रव्यों की गणना के साथ अर्थात २. जीव के भाष:'प्रजीवकाया धर्माधर्मकाशपुदगल के तुरन्त बाद 'द्रव्याणि' तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पांच भाव माने गये हैं। सूत्र के पहले करते अथवा जीवाश्च के साथ प्रति उसके वही भाव भाष्यकार को अभीष्ट हैं। तुरन्त बाद करते । इतना नही तो कम से कम द्रव्य का प्रौपशमिकक्षायिको भावी मिश्रश्च जीवस्य स्वक्त्वमीसामान्य लक्षण करने के पूर्व अवश्य करते । दयिकपारणामिको च । अाकाशदेकद्रव्याणि । निष्क्रियाणि च ।' इन दो सूत्रों प्रशमरतिप्रकरण कार ने छह भाव माने हैं। द्वारा धर्म, अधर्म और प्राकाश द्रव्यो को एक-एक तथा साग्निरातिकभाव का भी परिग्रहण किया है :निष्क्रिय कहा है। कालद्रव्य भी निष्क्रिय है, पर उसकी भावा भवन्ति जीवस्यौदायकः पारणामिकश्चैव । निष्क्रियता का सूत्री मे कहीं सकेत नही है। द्रव्यो के पौपशामकः अयोस्थ' क्षयोपशमणश्च पञ्चंते ।। प्रदेशो की सख्या' का विचार करते समय 'नाणो." अण त चकविंशतिवितिनवाष्टादश विधाश्च विज्ञयाः । को अप्रदेशी कहा है । काल भी अप्रदेशी है, परन्तु उसका षष्ठश्च सान्निपतिक इत्यन्यः पञ्चदशभेदः ॥" उल्लेख नहीं है । कालद्रव्य की यह उपेक्षा सिद्ध करती है ३ ऊध्र्वलोक :कि वे काल को स्वतन्त्र द्रव्य नही मानते । प्रशमरतिप्रकरण कार ने अर्जलीक को १५ प्रकार भाष्यकार ने तो सर्वत्र द्रव्य को पाच प्रकार का ही का कहा है। ये १५ भेद कौन से है, इनका विवरण नही है। कहा है। एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च यश्च द्रव्याणि देव चार प्रकार के है. इनमे भवनवाप्ती, व्यन्तर और च भवतीति ।' आकाशाद् धर्मादीन्येन द्रव्याण्येव ज्योतिष् मध्यलोक मे रहते है। वैमानिक ऊर्ध्वलोक मे भवन्ति । पुद्गलबीजावास्त्वनेकद्रव्याणि ।' रहते है। वे दो प्रकार के है: कोरपन्न और कलातीत । धर्म से प्राकाश त धर्म, मधर्म मोर माकाश एक कल्पोपपन्न १२ प्रकार के है। कल्पातीत मे नौ ग्रंवेयक, द्रब्य है। पुद्गल और जीव भनेक द्रव्य हैं। यहां भी (दिगम्बर परम्परानुसार नौ अनुदिश भी) तथा ५ अनुत्तर उन्होने काल द्रव्य का उल्लेख नहीं किया है। विमानवासी देव है। इनके अतिरिक्त, सिद्धशिला भी एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति .. न हि कदाचित् ऊर्ध्वलोक में है, जिसमें सिद्धों का निवास है । इस प्रकार पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति ।' १२ कल्पों के बारह, ग्रेवेयको का एक, अनुत्तर विमानों कालश्चेत्येके का भाष्य है-एके त्वाचार्या व्याचक्षते का एक तथा ईषत्प्रारभार या सिद्धशिला का एक भेद कालोऽपि द्रव्यमिति।" मिलाकर १५ भेद होते है। १. वही ५/३७ या ३८। २. वही ५/३६ । १०.५/५ का भाष्य । ३. बही ५/१। ४. तत्तर्थसूत्र ५/६-७ । ११.५/६ का भाष्य । ५. वही ५/८, ६, १०,११ । १२. ५/३८ का भाष्य । ६. वही ५/११। १३. प्रशमरति प्रकरण, कारिका २०७ व २१० । ७. सभाष्य तत्त्वार्थसूत्र, पृ. २४७ । १४. तत्वार्थसूत्र २/१ प्रशमरतिप्रकरण १६६ व १६७ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२, बर्व ३०, कि. ३४ अनेकांत टीकाकार ने १२ कल्पों के १. भेद किये हैं क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के कर्ता व प्रशमरति के कर्ता एक मनन्त-प्राणत तथा पारण-प्रच्युत इन युगलों का एक-एक नहीं हैं। इन्द्र होने से एक एक भेद है। नौ अवेयकों के प्रघो, मध्य तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार ने अपने सम्पूर्ण परिचय-परक तथा उपरितन के भेदानुसार तीन भेद, पाँच महाविमानों प्रशस्ति दी है, परन्तु प्रशमरतिकार ने अपना नामोल्लेख का एक भेद तथा ईषत्प्राग्भार का एक भेद मिलाकर कुल भी नहीं किया है। इससे दोनों का रुचि-भेद प्रकट होता १५ भेद होते हैं। इस प्रकार, इन दोन प्रकार की गण- है। नामों से ऊवलोक १५ प्रकार का होता है। इन ग्रन्थों का जो पारस्परिक भावगत साम्य है, तत्त्वार्थभाष्यकार तो ज्योतिष्क देवों के एक मेद उसका कारण तत्त्वज्ञान का एक ही स्रोत से उद्भूत होना प्रकीर्णक तारामों की स्थिति ऊर्ध्वलोक में मानते है। है। इसी कारण पारिभाषिक शब्दों में समानता है। सूर्याश्चन्द्र मसो ग्रहा नक्षत्राणि च तियंग्लोके, शेषास्तू- शब्दगत साम्य इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि तत्त्वार्थध्वंलोके ज्योतिष्का भवन्ति ।' सूत्र व भाष्य प्रशमरतिकार के समक्ष विद्यमान थे और वे इससे स्पष्ट है कि भाष्यकार उक्त १५ भेदो के जिन पूर्व कवियो द्वारा रचित प्रशमजननशास्त्र पद्धतियों अतिरिक्त ऊर्ध्वलोक का एक भेद पोर मान रहे है, जो का उल्लेख करते है मभाष्य-तत्त्वार्थ सूत्र उनमें से एक हैं। कि प्रकीर्णक तागों का है, जिसका समावेश उक्त १५ । प्रशमरतिप्रकरणकार स्वय कहत है कि जिन बचनरूप भेदो मे सभव नही है। समुद्र के पार को प्राप्त हुए महामति कविवरो ने पहले ४. संयम के भंवों में अन्तर : .. वैराग्य को उत्पन्न करने वाले अनेक शास्त्र रचे है । उनसे यपि प्रशमरति प्रकरण तथा तत्त्वार्थ भाष्य दोनो में निकले हुए श्रुतवचनरूप कुछ कण द्वादशाग के अर्थ के सयम के १. भेद प्रदर्शित किये गये है, सख्या में समानता अनुसार है । परम्परा से वे बहुत थोड़े रह गये है, परन्तु होने पर नाम अलग अलग है। मैंने उन्हे रथ के समान एकत्रित किया है। श्रृतवचनरूप प्रशमरतिप्रकरण में पांच प्रास्रवद्वारों से विरति, घान्य के कणों में मेरी जो भक्ति है, उस भक्ति के सामर्थ्य पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विलय तथा से मुझे जो प्रविमल, प्रल्प बद्धि प्राप्त हई है. अपनी उसी तीन दण्ड से उपरति १७ प्रकार का संयम माना गया है। बुद्धि के द्वारा वैराग्य के प्रेमवश मैंने वैराग्य-मार्ग की पञ्चासवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः। पगडंडीरूप यह रचना की है।' दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥' इन कारिकामों से स्पट' है कि उक्त प्रकरण की रचना तत्त्वार्थभाव्य मे ये भेद इस प्रकार है : जिन विभिन्न विशिष्ट ग्रन्थों को लक्ष्य में रखकर उनका योगनिग्रहः सयमः । ससप्तदशविधः । तद्यथा पृथिवी. सार ग्रहण कर की गई है, उनमे से एक तत्त्वार्थसूत्र व कायिकस यमः प्रकायिकसंयमः, तेजस्कायिकसंयमः, वायु- उसका भाष्य भी है। शब्दसाम्य का यही कारण है। कायिकसयमः, वनस्पतिकायिकसंयमः, द्वीन्द्रियसंयमः, त्री- प्रस्तु, इतना निश्चित है कि प्रशमरतिप्रकरण अन्यन्द्रियसंयमः, चतुरिन्द्रियसंयमः, पञ्चेन्द्रियसंयमः, प्रेक्ष्य- कर्तृक है क्योंकि एक ही व्यक्ति दो ग्रन्थों में दो भिन्न संयमः, उपेक्ष्यसंयमः, अपहृत्यसंयमः, प्रभृज्यसंयमः, काय- मतों का प्रतिपादन नहीं कर सकता। प्राचीन (सिद्धसेनसयमः, वाक्सयमः, मनः संयमः, उपकरणसयमः इति हरिभद्र मादि) तथा नवीन विद्वानों में दोनों के एकसयमो धर्मः। कर्तृत्व की जो भ्रान्ति है, उसका कारण उक्त शब्द साम्य तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के साथ प्रशमरतिप्रकरण का ही है। उक्त साम्य-वैषम्य इस बात को स्पष्ट करता है कि प्राजाद चौक, सदर, नागपूर (महाराष्ट्र) १. तत्वार्थसूत्र, ४/१४ का भाष्य । ३. तत्वार्थसूत्र ६/६ का भाष्य । २. प्रशमरति १७२। ४. प्रशमरतिप्रकरण, कारिका ५.७ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या रूपकमाला' नामक रचनाए अलंकार-शास्त्र सम्बन्धी है? (पृष्ठ ५६ का शेषांश) होज्यो नारि निराशमय, परमानंद उल्लास । दिया गया है। प्रतः मलकारशास्त्र से इस रचना का कोई भक्ति-भाव मझ मन भमर ने तूम पय-कमलि निवास ॥२६ संबन्ध ही नहीं है। छोटी-सी रचना है, इसलिए मूलरूप संवत पनर छयासिऐ, कोनी रूपकमाल । में भागे दी जा रही है। यह रचना खरतरगच्छ के मा० जिनसमुद्रसूरि के समय मे रची गई, प्रतः इसका रचनाकाल उत्तम ते कंठि घरै जसु मन सील रसाल ॥३०प्रा० सं० १५३० से सं० १५५५ के बीच का है। प्रा० सागर- जिस तीसरी रूपकमाला' का उल्लेख ५० प्रम्बलाल चन्द्र सूरि के शिष्य वाचनाचार्य रत्नकोति, उनके शिष्य शाह ने किया है, उसके लिए उन्होंने कोई उल्लेख नहीं समयभक्त के शिष्य पुण्यनन्दि थे। इस हिन्दी भाषा किया कि वह कहाँ प्राप्त है। मुझे इसकी कोई सूचना व की ३२ पद्यों वाली रचना पर मबसे पहले सं० १५८२ मे 'बालावबोध' रलरगोपाध्याय ने लिखा था। इसकी प्रशस्ति प्रति नही मिली है, पर मेरा ख्याल है कि वह भी अलंकार इस प्रकार है विषयक नहीं होगी। "पुण्य नापाध्यायेन शोलरूपकमालिका, प्रद हम पुण्यनदि की रूपकमाला का मूल पाठ यही विहिता भव्य जीवानां चित्त शुद्धविधायिनी। नेत्र' सिद्धि ज्ञान' चन्द्रे' वर्षे नभसि मासिना पुण्यनंदिरचित रूपकमाला श्री रत्नरगोपाध्यायः कृतावबोधिनी ॥" पादि जिणेसर प्रादिसउ । सरसति दसण दाखि । इति रूपकमाला वालावबोधः । शील तणा गुण गाइस्यं । तिहुयण सामंणि साखि ॥१॥ हमारे अभय जैन ग्रंथालय मे भी इस बालावबोध प्रातमराम शील घार । शीलइ परमाणद भा. की पंद्रह पोर ग्यारह पत्रों की दो प्रतियां है । मूल रचना इम प्रभणइ श्री पुन्यनंदि ॥२॥ प्रा० पांचली की अन्य चार प्रतियां भी हमारे संग्रह मे हैं। इनमें से सोह शील लाजइ लहइ । भूषण भारिम अंग । एक प्रति मे कुछ टिप्पण भी लिखे हुए है। कविवर समय- प्रसाधु वादिनी संस्कृता, किम गिरी गाह दुरंग ॥२॥ मा. सुन्दर ने सं० १६६३ में इस पर संस्कृत टीका लिखी है। मूस मंजारि मेला वदउ, किहा कुसल तणां ताह । उसकी भी प्रतिलिपि हमारे संग्रह में है। धन जिणि दिणि दीसइ नही, उत्तराध्ययन की बाह ।।शामा. इसके बाद दूसरी 'रूपकमाला' नामक रचना पाव किस ऊपरि धोवइ घसइ, मूडी मांडिम अंग। चन्द्रसूरि की बतलाई गई है। वह भी हिन्दी भाषा के मंडण माल प्रकमिया, दसवीकालिक कुरंग ॥४॥प्रा० ३० पद्यो की रचना है, जो सं० १५८६ में राणकपुर में धीसयणा सण फसणे, जह जयणा गुण गोढ़ । प्राबश्यक इम माइखइ, मठ कहीयउ कोढ ॥५॥प्रा० रची गई है । इसके प्रादि और अन्त के चार पद्य 'जैन कहिउँ कपिलइ केवली, राम राखि सी एह । गुर्जर कविश्नो,भाग १, पृष्ठ १४७ में प्रकाशित है। उन्हे पुरुष पलोभ पलोटियइ, दाखि म दाखसी एह ॥६॥मा. देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह रचना भो मलकार से लग लग जिन रखितउ खूतउ सवल जल पूरि। विषयक नही है। मादि और अन्त के पद्य नीचे दिये जा रयण दीव देवी दल्यऊ रिर सार सम समूरि ॥७॥ मा. वाषिणे वीर वेल घडो, भामणि भरवण भूल । प्रादि कंटइ कोथी कामिणो, प्रवचन पर क उ मूल ॥ामा० प्रापिई पाप सम्भालिये रे, जिबड़ा विचारि । धरि पूपलि का खाद की, अनइ पूपलिका खाद । प्राज्ञा जिननी पालिए, शिवमुखनी दातरी। वरजि वास मणि मोपिली, दुतीय पढम पद जाद प्रा० प्रात्मासार सीख सुणो! वय श्रुत जतन प्रमाणियइ, बुदि बलं बहंकाई । मन्त खीणा बदका केवली, ललना लिंग लुकाइ ॥१०॥मा. राणिकपुर रलियामणो, मादीश्वर जिनराउ । जे गुरु राग उदीरगा, जे जइ भनव वाडि । पापर्व चन्द्र प्रभु करि एह पसाउ ।। २८ प्रा०॥ बयरी वाहर थानक, ते पापो हे पाडइ छाडि॥११॥ग्रा. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धात ७४३०० ३-४ तिथि मंत्री नव मोडली, दीप मोगर बाउ । थी प्रसंग जिणि थापीयउ तिणि मारयउ सजय राऊ ।। १२ ।। खंड गंभीर मीर यह जह प्रसंग हुइ नारि । तेमालोयण छूटि परे पुर्णि पाप से मत संसारि ॥१३॥ सामेव कायर्क दोस मन वाचक व्यापक दोसि । मनसुन कृष्ण पाक्षिक होसि ॥१४० सादेखि कणि बीड, मकार विषय प्रसंग साधु चोर कंवर हुवइ तऊ, सुसिल्यई इस पतंग || १४ | ० ताते तात मेला वडउ भागां एक वटाउ । मुंड रंड रह गोतमी, ए मुझ बरो नसुहाई ॥१६॥ प्रा० साम है थाए भून, ते मुनिवर मनि हालि । तेजी से से विराणि कालि ॥१७॥ पा पंचा गाठि गोपालिंका, नल दव दति भांति मापो मापे बिलूरियउ, कनकमाला भवदाति ॥ १८० अमर कंक दोषई लर्ड, रायमई रह नेमि 1 बंधू समणि समाई सउ, अंवर डइ भरहर न एमि ।। १६ ।। प्रा० कूल बालमा गही गह्य उ समण संकावइ पेट | सिंह गुफा वासी करद्द, रयण मासु पवासि मोखी, मू भउ राम वल कल करउरिजे घरइ सा, सू सुं चल्य उ अछंद ॥ २१ ॥ श्र० भूल पयावर पुंत्रिका, भंभर भइणी भूल । पाल भूल जाइया जान जननी भूल ॥२२॥ म्रा० ऐसी बेसी माली मरद कुकाजी किसी काजी | कंवल की भेंट | २०|श्रा० राम कहि न दे । पांगस पसइ इहा जीवीया, मोठी मधू बिंदु नि ॥२२॥ाबा तेदु छद रजु वेढिला, गज न्हाण सिरि घूमि । परहट मालि विसुगि मा भणि जल इतरू मूर्ति ॥२४॥ वयई चतुर चुय छहिडी, घास पयहउ गोण बलि लीह म खोलडु, पंच मुहि दिति दोणि ॥ २५॥ ०० हुमा पहें छह बहू सोम मलie विलास । निश्वदहित जाणी की, जे करता येत विणास ॥२६॥ भ्रम भइ सिग डाली यउ विग्रह वंड जुडेत । खेत्रि न खल्यउ सुंर मणऊ, प्रगो अग भिडत || २०|० रमणे सहस चउरासि पारण पुण्य जुवीर । करति । सुकल विसण परिवदयति भोजनत फल होई ॥२८॥प्रा० गुरु गछा का करे सही, सीसा का करण जोग जे प्रापणा, ते साचा सिव बिति ।। २६॥ प्रा० सवन शील महिमा मिलउ, कुमील सूरि सिरि पार जिनसमुद्र सूरि सोहबइ, खरतर गुरु कऊ पार ॥ ३० ॥ श्र० कुसील उछापक सुसील, सस्थापक सागरचंद । सूरिराय वाणायरी, रयण-कीरत गणिचंद ॥ ३१ ॥ श्र० समय भगतवर वाचका वीर विनेयानद । रूपकमाला सोलनी, इम प्रमणइ श्रीपुण्यनन्द || ३२ ॥ प्रा० [१० ५५ का १०. निघण्टुशेष - हेमचन्द्र, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद, १९६८ ११. देशीनाममाला - हेमचन्द्र, भाण्डारकर घोरियण्टल रिसर्च इस्टिट्यूट, पूना, १६३८ १२. प्रमाणमीमांसा - हेमचन्द्र, तिलोकरत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी, धमदनगर, १६०० १३.मचंद्र जोहरी, दिल्ली, Pa १६६३ १४. स्याद्वामंजरी - मल्लिषेण, श्रीमद् राजश्चन्द्र माश्रम, अगास, १९३५ १५. नीति हेमचन्द्र, महमदाबाद, १९०६ १६. वीतरागस्तोष हेमचन्द्र देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड सूरत, १९४६ १७. महादेवस्तोष हेमचन्द्र जैन भारमानन्द सभा, भावनगर, १९३५ इति श्री रूपकमाला सम्पूर्ण । वाचनाचार्य श्री भुवनकीति गणि विनेय पं० भूवनविजय कृतेम लेखि पं० मानकीर्तिनाम् श्रीऽस्तु शुभ भवतु । 000 शेषांश ] १०. द्विजवदनचपेटिका हेमचन्द्र, हेमचन्द्र सभा, पाटन १९२२ १८ नामसमुचय हेमचन्द्र, साराभाई [नवाब (जैन स्लोव संगोह, भाग १.१० १-१३), महमदाबाद १९१२ २०. प्राचार्य हेमचन्द्र - वि० भा० मुसलगांवकर, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ प्रकादमी भोपाल, १२७१ २१. हेमचन्द्राचार्य जीवन चरित्र - जार्ज बुहलर, हिन्दी अनु० कस्तूरमल बांठिया, पौलम्बा विद्याभवन, वाराणसी १९६७ 22. Life of Hemacandracarya--G. Buhler, Singhi Jain Jnanpith, Santiniketan, 1936 23. Studies in Hemacandra's Desinamamala H. C. Bhayani, P. V. Research Instiute, Varanasi, 1966 DOOD Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर के उपासक राजा भगवान् महावीर इस भू-मण्डल पर बहत्तर वर्ष रहे। वे बारह वर्ष साधना पर्याय मे एवं अन्तिम तीस वर्ष तक केवली पर्याय में रहे । के साधन काल मे उन्हे जो उपलब्धियाँ प्राप्त हुई, उन्हें उन्होने तीस वर्षों तक मुक्त रूप से जनता को प्रदान किया। इस अवधि में शूद्र, अन्त्यज, किसान, कुम्भकार, थंडी, सामन्त राजकुमार, राजा महामात्य सेनापति प्रादि हजारों-लाखो व्यक्ति उनके निर्कमे पाये धौर वे साधना मे अग्रसर हुए। भगवान् महावीर के उपदेश उस समय व्यापक रूप ले चुके थे । समग्र मगध, सिन्धुसौवीर, अवन्ती, काशी, कोशल, वत्स श्रादि तत्कालीन राज्यों की जनता एवं राजबसाएं पूर्ण रूप से उनके प्रति बद्धाशील थी। उस समय के राजनैतिक इतिहास के सन्दर्भ मे यदि धार्मिक परम्पराठों का आकलन किया जाता है, तो ज्ञात होता है कि वर्तमान का पूरा बिहार प्रान्त उत्तर प्रदेश का अधिकांश भू-भाग, अवन्ती प्रदेश सिन्ध नदी का तटवर्ती प्रदेश, कर्णाटक आदि के राजा व प्रनेक राजा, राजकुमार तथा रानियाँ उनसे श्रमण-धर्म प्राप्त कर साधना मे अग्रणी रहे थे। ईरान के राजकुमार धाकुमार ने भारत प्राकर भगवान् महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति को स्वीकार किया था। शिशुनाग बंदा म साम्राज्य पर शिशुनाग वंश का ३३३ वर्ष तक एकछत्र पिस्य रहा। परन्तु बंभिक और जावा कौशिक का राज्य काल भगवान् महावीर की वर्तमानता में था। दोनों ने ही समीपता से उनके धर्म का गहरा मनुशीलन किया था। प्रजातशत्रु कौणिक की भगवान महावीर के प्रति गहरी भक्ति की झलक तो इस एक उदाहरण से ही प्राप्त हो जाती है कि वह प्रतिदिन उनके कुशल संबाद मगवाता था। इस कार्य के लिए उसने एक मुनिश्री महेन्द्रकुमार 'प्रथम' प्रवृत्ति- बादुक पुरुष के नेतृत्व में धनेक पाय धनुष की नियुक्ति कर रखी थी भगवान् महावीर जब कमी राजगृह पाते थे, बेणिक धोर कौणिक परयन्त के उनकी पर्युपासना करते थे। यह एकमात्र ऐसा नगर था जहाँ उन्होंने चौदह चातुर्मास किये थे । 1 राजा श्रेणिक की भगवान् महावीर के प्रति प्रगाढ़ भक्ति थी। एक बार उसने राज-परिवार, सामन्तों तथा मंत्रियों के बीच घोषणा की थी कि कोई भी व्यक्ति भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करना चाहे तो मैं उसमें बाधक नहीं बनूंगा, अपितु सहयोग करूंगा। इस उद्घोषणा मे प्रेरित होकर जालि, मयानि पादि श्रेणिक के तेईस पुत्र तथा नन्दा, नवमती यादि तेरह रानियों ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। केवलज्ञान प्राप्ति के अनन्तर जब सर्वप्रथम भगवान् महावीर राजगृह पधारे तो श्रेणिक ने सम्युक्त्व धर्म तथा महामात्य प्रभय कुमार ने श्रावक धर्म स्वीकार किया था। महामात्य प्रभम कुमार, राजकुमार मेव, नन्दीसेन तथा वारिषेण ने यथासमय दीक्षा ग्रहण कर उच्च साधना की थी । शिशुनाग वंश में राजा श्रेणिक ही निर्ग्रन्थ (जैन) धर्म का अनुयायी बना हो, इतना ही नहीं है, बल्कि यह वशानुगत भी निग्रंथ था । उनके पिता राजा प्रसेनजित भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के उपासक सम्यष्टि श्रावक थे । दशाश्रुत-स्कन्ध में, राजा श्रेणिक द्वारा प्रत्यन्त बडाभरित हृदय से पूरे परिवार व रानी देवना भगवान् महावीर के समवसरण में जाने एवं धर्म- देखना सुनने का सुविस्तृत वर्णन है । राजा श्रेषिक का वह प्रद्वितीय प्रकार था । उसे देखकर बहुत सारे साधुसाध्वियां भी चकित रह गई थीं। 'ज्ञाता धर्मकयांग' के १३ अध्याय में भी अत्यन्त समारोह के साथ पहना करने का रोचक वर्णन है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ष ३०, कि०३.४ अनेकान्त प्रजातशत्रु कौणिक भगवान् महावीर के प्रति विशेष मगध के साम्राज्य का कुशलतापूर्वक संचालन करता हुमा श्रद्धावनत था। जब भी उसे ऐसा अवसर प्राप्त होता, वह वह धर्माराधना में भो मनसा, वाचा व कर्मणा लीन था। उसका मुक्त उपयोग करता था। एक बार भगवान् महा- पारस्य (ईरान) देश के राजकुमार मादक (पशिर) बीर चम्पा के निकटवर्ती उपनगर में पधारे। प्रवृत्ति- को निग्रंथ धर्म की पोर प्राकर्षित करने का श्रेय अभयवादुक पुरुष ने कणिक को सूचित किया। राजा ने कुमार को ही है। मादक ईरान से चलकर भारत माया तत्काल राज-सिंहासन छोड़ा, पादुकाएं उतारी, खड्ग, और उसने भगवान महावीर के समवसरण में साधना की। छत्र, मुकुट, उपानत् पौर चामर प्रादि पांचों राज्य चिह्न अभय कुमार के समक्ष एक प्रसग उपस्थित हुमा कि वह दूर किये । एकसाटिक उत्तरासग किया। अंजलिबद्ध मगध का राजा बने या श्रमण । उस समय राज्य की पोर होकर मस्तक को धरणीतल पर लगाया। अंजलि को से वह मुड गया और श्रमण बन कर भगवान् महावीर मस्तक पर लगाकर 'णमोत्थुणं' से अभिवादन करते हुए द्वारा निरूपित साधना में प्रवृत्त हो गया। बोला-'प्रादिकर, तीर्थकर, सिद्ध गति के प्रमिलाषक वजी गणराज्य भगवान् महावीर मेरे धर्म गुरु, धर्मोपदेशक और धर्माचार्य गंगा के दक्षिण तटवर्ती राज्यों के प्रमुखों की तरह हैं। उन्हें मेरा नमस्कार है।' राजा पुनः गजसिंहासन पर । उत्तरीय गणराज्यों के प्रमुख भी भगवान महावीर के पारूढ़ हुमा। प्रवृत्ति-वादुक पुरुष को एक लाख प्रष्ट मनन्य श्रावक थे । महाराजा चेटक वज्जी सघ के अध्यक्ष सहस्र मुद्रामों का प्रीतिदान दिया। होने के साथ साथ धर्म-क्रियामो में भी अग्रणी थे । ७७.७ भगवान महाबीर जब चम्पा के पूर्णभद्र चत्य मे गणराजामो के प्रमुख चेटक भगवान महावीर के दढ़धर्मी पधारे, तो प्रवृत्ति-वादुक पुरुष ने पुन: राजा कौणिक को प्रमुख उपासक थे । 'मावश्यकचूणि' आदि में इनको व्रत. सूचित किया। उस समय कौणिक ने उसे साढ़े बारह घारी श्रावक व हा गया है । अनुश्रुति के अनुसार, वे इतने लाख रजत- मद्रामो का प्रीनिदान किया । राजा के प्रादेश कट्टर श्रावक थे कि सामिक राजा के अतिरिक्त अन्य से हस्तिरत्न सजाया गया, चतुरगिणी सेना सन्नद हई, किसी के साथ अपनी पुत्रियो के विवाह न करने का भी सनियो के लिए रथ तयार हुए, गलियो और गजमार्गो उनका प्रण था । श्रमणोपासक के बारह व्रतों की साधना को सजाया गया। राजा कौणिक सब प्रकार से सुसज्जित में वे दढ़मनस्क थे। अहिसा व्रत मे उनके एक विशेष होकर प्रपार वैभव व प्राडम्बर के साथ चम्पा के मध्य मभिग्रह था कि एक दिन में एक बाण से अधिक नही भाग से होता हुमा पूर्णभद्र चत्य के समीप पाया। मन चलाऊँगा। वे जो वाण चलाते थे, वह प्रमोघ होता था। में प्रत्यन्त उल्लास था। पांच अभिगमन के अनन्तर वैशाली में २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी का एक भक्तिपूर्वक वन्दन-नमस्कार किया, पर्युपासना की तथा स्तूप था। उसके प्रभाव से ही वैशाली सदैव प्रजेय रहती धर्मदेशना सुनी। प्रानन्दचित्त-कोणिक उठा पौर थी। कुणिक ने जव वैशाली के प्राकार को भग करना अन्तःकरण से प्रेरित होकर उसने निवेदन किया--'भन्ते । चाहा, तो सबसे पहले छद्म से उस स्तूप को ही तुड़वाया, • मापका निधन्य प्रवचन सु-प्राख्यात है, सुप्रज्ञप्त है, सुभा इस प्रकार भनेक प्रमाणों से जाना जा सकता है कि महा. पित है, सुविनीत है, सुभावित है, अनुत्तर है। आपने राजा चेटक श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, कुशल प्रशासक, महान .. धर्म को कहते हुए उपशम को कहा. उपशम को कहते हुए योद्धा तथा प्रत्यन्त न्यायप्रिय होने के साथ साथ भगवान विवेक कहा, विवेक को कहते हुए विरमण का कहा, महावीर के विख्यात श्रावकों में से भी थे। -विरमण को कहते हुए पाप-कमों के प्रकरण को कहा। सिहभद्र ग्रादि राजा चेटक के दश पुत्र थे। वे सभी - अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नही है, जो ऐसा धर्म कह वीर योद्धा. यशस्वी. दढ धामिक और भगवान महावीर सके। इससे अधिक की तो बात ही क्या ? के अनन्य भक्त थे। सिंहभद्र तो बज्जीसंघ के प्रधान सेना महामात्य प्रभयकुमार श्रेणिक का पुत्र था। भगवान् पति भी थे। मिहभद्र का उल्लेख त्रिपिटको में भी पाया महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति के प्रति उसका पूर्ण समर्पण था। जाता है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के उपासक राजा राजा चेटक की सात पुत्रियां थी, जिनका तत्कालीन राजा शख हतिनापुर के राजा शिव, बसन्तपुर के राजा प्रभावशाली राजारों के साथ विवाह हुमा था। वे सभी समरवीर, पावा के राजा हस्तिपाल एवं पुण्यपाल,पलाशराजा भगवान् महावीर के श्रद्धालु श्रावक थे । प्रभावती पुर के राजा विजयसेन व राजकुमार एमत्त, वाराणसी बीतमय के राजा उदाणय, पद्यावती अंग देश के राजा की राजकुमारी मुण्डिका पोदनपुर के राजा विद्रराज, दधिवाहन, मुगावती वत्सदेश के राजा शतानीक, शिवा कपिलवस्तु के राजा शाक्य बप्प, पांचाल नरेश जय प्रादि उज्जैन के राजा प्रद्योत, जोष्ठा भगवान महावीर के सैकड़ों राजामों एवं राजकुमारों ने भगवान महावीर के ज्येष्ठ बन्धु राजा नन्दीवर्धन, चेलणा मगध के राजा निर्देशन में श्रामण धर्म की साधना की थी। श्रेणिक को व्याही गई थीं। सुज्येष्ठा ने अविवाहित दक्षिण प्रदेश भवस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इन राजानों मे भगवान महावीर की विहार-भूमि यद्यपि भारतीय से अधिकांश जोवन के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध में अवश्य ही पूर्वाचल, पश्चिमाचल तथा उत्ताचल ही रही, पर उनकी भगवान महावीर की धर्म-प्रज्ञप्ति मे अनुरक्त हो गये थे। साधना से दक्षिण प्रदेश के राजा न केवल प्रभावित ही सातों पुत्रियां तो बाल्य-काल ही निर्ग्रन्थ धर्म की उपा- थे, अपितु उन्होंने निग्रंथ-साधना भी की थी। वर्षमान सिकाए थी। कर्णाटक का एक भू-भाग हेमागद देश के नाम से विख्यात अन्य राजा था। वहां का राजा सत्यन्धर परम श्रावक था। मन्त्री भारत के विभिन्न प्रदेशों के अधिशासी अधिकाश कुष्टांगार के शड्यंत्र से उसकी मृत्यु हो गई। राजकुमार राजामों ने उस समय भगवान महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति जीवन्धर पिता की मृत्यु के बहुत वर्षों बाद गजाहमा । स्वीकार की थी। भगवान महावीर के दिव्य उपदेश ने जीवन्धर का रोचक व साहसिक इतिहास तत्कालीन तथा प्रत्येक को प्रभावित किया था। उज्जयिनी के राजा उत्तरवर्ती संस्कृत, अपभ्रश, कन्नड़ तथा नमिल के साहित्य प्रद्योत के माता-पिता श्रावक थे। वह भी निर्ग्रन्थ धर्म कारा का मुख्य प्राकर्षण केन्द्र रहा। प्रलम्ब ममय तक का अनुयायी बना, किन्तु उस समय जबकि शतानीक की राज्य का कुशल संचालन करने के अनन्तर उमे भगवान रानी मगावती तथा प्रद्योत की शिवा प्रादि प्राट रानिया महावीर की पयंपामना ना स्वणिम अवसर प्राप्त भगवान महावीर के समवसरण में प्रव्रज्या ग्रहण करती और उसने श्रम-साधना प्रारभ कर दी। हैं, वह भी उस प्रव्रज्या समारोह में सम्मिलित था। कोटिवर्ष (लाढ़) के किरातराज चिलात श्रावक कौशाम्बी का राजा उदयन राजा कुणिक की तरह दृढ़ जिनदेव से प्रेरित होकर अमूल्य रत्न पाने की अभिलाषा श्रद्धालु श्रावक था। वीनभयपुर का राजा उद्रायण भगवान् से साकेत पाया और वहाँ भगवान् महावीर से भाव रस्त केवल मान प्राप्त कर ग्रहण किये, अर्थात् भागवती निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या स्वीकार की। मक्त हमा। राजा उद्रायण की प्रव्रज्या भावना को जान- ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत के विभिन्न प्रचलों मे कर उसको प्रजित करने के लिए भगवान महावीर जितना व्यापक प्रभाव भगवान् महावीर का था, इतिहास भयंकर गर्मी मे उन व प्रलम्ब विहार कर सिन्धुसौवीर की के प्रमाणों से यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि उतना राजधानी वीतभय पहुंचे थे । दशाणतुर के राजा दशार्णभद्र, प्रभाव अन्य किमी व्यक्ति का नही था। वह ज्योति बहत्तर हस्तिशीर्ष के राजकुमार सुबाहु कूमार, सौगन्धिका के बर्ष तक लाखों व्यक्तियो को पालोकित करती रही। राजा महाचन्द्र, सुधोस नगर के राजा अर्जुन के भद्रनन्दी कार्तिक अमावस्या की मध्यरात्रि के पनन्तर वह ज्योति कुमार, वाराणसी के राजा अलक्ख, पृष्ठचम्पा के राजा देहातीत हो गई। उस समत इन्द्र तथा अन्य देव भूतल गागलि. चम्पा के राजकुमार महाचन्द्र, ऋषभपुर के राजा पर पाये । उस प्रकाश में भ-मण्डल भालोकित हो गया। घनावाह के राजकुमार भद्रनन्दी, पोत्तनपुर के राजा प्रसन्न अठारह गण राजापो ने भाव (जान) ज्योति के प्रभाव में चाद, कनकपुर के राजा प्रियचन्द के गजकुकार वंश्रमण, द्रव्य ज्योति से प्रकाश किया। तब से उस उपलक्ष से महापुर के राजा बल के राजकुमार महाबल, मथुरा के दीपोत्सव की परम्परा चली पा रही है। ocm Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथचरित में राजनीति और शासन व्यवस्था [D] श्री जयकुमार जंत वह कलाओं से सम्पन्न था। धर्माराधना के साथ ही काम एवं पथं पुरुषार्थ का भौ भोग करता था। वह धनधान्यसम्पन्न, गुणवान् तथा कठोर दण्ड का धारक था, दानी था । वह समदर्शी था, परन्तु उन्नत पुरुषों में अधिक सहानुभूति रखता था । इसी प्रकार अन्य राजाओं के प्रसंग में भी उक्त गुणों का वर्णन किया गया है । २. राजा के कर्तव्य पार्श्वनाथचरितवादिराजसूरि का एक महाकाव्य है । यह राजनीतिशास्त्र नहीं है । यद्यपि इसमे राजनीति मोर शासन-म्पवस्था का क्रमबद्ध वर्णन नही हुमा है, तथापि प्रान्तरिक धनुशीलन से तात्कालिक छिटपुट राजनीतिक स्थिति और शासनव्यवस्था का प्राभास मिल जाता है । किसी भी देवा में पातिव्यवस्था के लिए राज्य संस्थापना भोर उसके संचालन की आवश्यकता होती है । समान्यतः राज्यसंचालन की दो प्रमुख पद्धतियां है-१. राजतन्ज्ञ, मोर २. प्रजातन्त्र वैदिक काल से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व के कुछ समय को छोड़कर हमारे देश में राजतंत्रीय शासन पद्धति ही रही है। पार्श्वनाथचरित के प्रणयर' के समय राजतंत्र ही था पादवनाथ चरित के मान्तरिक विश्लेषण से निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते है: १. राजा रजा (राजन) शब्द का शाब्दिक अर्थ 'शासक' होता है। लेटिन मे राजा के लिए रेक्स' (Rex) शब्द का प्रयोग हुआ है। यह भी उसी अर्थ का द्योतक है। भारतीय परम्परा मे राजा की एक विशिष्ट व्याख्या की गई है। शासक को राजा कहने का प्रयोजन यह है कि यह प्रजा का धनुरंजन करता है। पालि साहित्य मे भी राजा की यही सैद्धान्तिक व्याख्या उपलब्ध होती है । पार्श्वनाथ चरित के अनुशीलन से पता चलता है कि राजा अरविन्द मे रक्त सैद्धान्तिक व्यास्या पूर्णरूपेण घटित होती है। वह प्रजा का सदैव ध्यान रखता है । राजा अरविन्द बड़ा तेजस्वी था। अपने तेज के कारण उसने अखिल विमल पर विजय प्राप्त कर ली थी। १. पार्श्वनाथचरित का रचनाकाल ई० सन् १०२५ है । २. 'राजा प्रकृतिरञ्जनात्। रघुवंश, ५.१२ ३. दमेन परे जेतीति यो बासि राजा । -- दीपनि काय, खण्ड ३, पृ० १३ । ४. पार्श्वनाथ चरित १.६४-७८ ५. महाभारत, शांतिपर्व ५६. १२५ । प्रजा का अनुरंजन करना ही राजा का मुख्य कर्तव्य है। महाभारत मे भीष्म ने युधिष्ठिर को इसलिए राजा कहा है, क्योंकि वह समस्त प्रजा को प्रसन्न रखता था । राजा अरविन्द भी प्रजानुरंजक था। उसने अनी भुजाओं से प्रजा को दुखरूपी कूप से निकाला' को पराक्रम दिखाना, अपराधियों को कठोर दण्ड देना तथा सज्जनो की रक्षा करना राजा का घमं बताया गया है।" राजा अरविन्द में उक्त सभी गुण दिखाई पड़ते है ।" ३. राजा का उत्तराधिकार राजा का उत्तराधिकारी प्रायः उसका ज्येष्ठ पुत्र ही होता था। यही राजसत्र की मर्यादा रही है। पार्श्वनाथ चरित में भी प्ररविन्द एवं अन्य सभी राजाओंों के उत्तराधिकारी उनके ज्येष्ठ पुत्र ही हुए हैं। ४. मंत्री राजतत्र मे राजा सर्वोच्च सत्ता है, किन्तु किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय के पूर्व राजा मंत्रियों से सलाह जरूर लेता है। शुक्रनीति मे कहा गया है कि राजा चाहे समस्त विद्याओं में कितना ही दक्ष क्यों न हो, फिर भी उसे बिना मंत्रियों की सहायता के राज्य के किसी भी विषय पर विचार नहीं करा चाहिए।" ६. पार्श नाथचरित, १.७७ ७. नीतिवाक्यामृत ५.२ ६.३८ १. बही ३.५८ ८. पार्श्वनाथ चरित, १.६४, १.७० १०. सर्वविधासु कुशली नृपो ापि सुमंत्रवित् । मंत्रिभिस्तु विना मंत्र कोऽयं चिन्तयेत् क्वचित् ॥ - सुनीतिसार, २.२ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्र्वनानचरित में राजनीति और शासन-व्यवस्था पार्वनाषचरित में मो गुप्तचर जब कमठ के दुराचार राजा अपने पोरस पुत्र को ही युवराज पद अभिषिक्त की शिकायत करता है, तो मन्त्री मरुभूति उस शिकायत करते थे। युवराज ही राज्य का उत्तराधिकारी होता की सत्यता की जांच के लिए निवेदन करता हुमा कहता था। जब राजा वचवीर्य ने अपने पुत्र वचनाभ को राजहै-"हे देव ! यद्यपि तुम्हारे प्रचुचर असह्य दुःखदायक कीय गुणों से मण्डित देखा, तो मन्त्रियों की सलाहपूर्वक दण्ड के भय से मिथ्या बातें नहीं कहते हैं, किन्तु घटना का उत्सव के साथ उसे युवराज पद पर अभिषिक्तकर दिया। दृढ़ निश्चय प्राराध-विशेषज्ञों द्वारा कराया जाये। जब राजा वज्रवीर्य ने बहुत दिनों से धारण किये हुए इन्द्रियां भी निकटस्थ वस्तु के सम्बन्ध में धोखा दे देती है पृथिवी के भार को कुछ कम कर सुख से समय बिताया।" तो विषमाभिसन्धि मृत्यो की बात का क्या भरोसा ?" ७. सामन्त राजा मंत्री राजा का सद असद् देवो वाला तीसरे नेत्र के सामन्त राजा वे शासक कहलाते थे, जिन पर चढ़ाई समान माना जाता था।२ मन्त्री की मत्रणा से शत्रों करके राजा ने विजय प्राप्त कर ली हो, किन्तु राजा तक की सम्पत्तिया राजा को प्राप्त हो जाती थी।" की अधीनता स्वीकार कर लेने पर उन्हे पुन. राजपद पर पार्श्वनाथचरित से पता चलता है कि मन्त्री प्राय: ब्राह्मण प्रतिष्ठापित कर दिया गया हो। ये राजा एक निश्चित ही होते थे। धनराशि कर के रूप में अपने विजेता राजा को प्रदान ५. मन्त्री का उत्तराधिकार करते थे। शुक्रनीति में कहा गया है कि जिसमें प्रतिवर्ष मन्त्री का उत्तराधिकार भी प्राय: वंशानुक्रमिक होता प्रजा को पीड़ित किये बिना एक लाख रजतमुद्रामो से था। यदि कभी बड़े पुत्र में कोई प्रयोग्यता हो अथवा लेकर तीन लाख तक वार्षिक कर मिलता है, उसे सामन्त छोटा पुत्र अधिक गुणबान हो तो राजा छोटे पुत्र को भी राजा कहते है ।" पार्श्वनाथचरित में सामन्त राजामों का मन्त्री बना लेता था । कमठ के ज्येष्ठ होने पर मी राजा निर्देश मिलता है। वज्रवीर को जीतने के बाद राजा अरविन्द ने अपना मन्त्री अधिक गुणवान मरुभति को ही अरविन्द ने कर लगाकर उसे पुन: पमपुर का राजा बना बनाया।" यदि किमी प्राकस्मिक तथा प्रावश्यक कार्यवश दिया। अतएव वज्रवीर भी सामन्त राजा की श्रेणी में मन्त्री को राजा के साथ कहीं बाहर जाना पड़े तो राज्य- पा गया।" भार किसी मन्त्री परिवार के सदस्य को भी सौंपा जा ५. अधिकारी एवं सेवक सकता था। शत्रु राजा वनवीर पर युद्ध के लिए प्रस्थान राजा को उहायता के लिए अनेक अधिकारी एवं करते समय मन्त्री मरुभूति को साथ ले जाने में राजा सेवक होते थे। राजा कहीं जाता था तो वरिष्ठ अधिअरविन्द ने राज्यभार मन्त्री के अग्रज कमठ को सौंप कारी एवं सेवक उसके साथ जाते थे। मन्त्री पोर युवदिया।५ राज राआ की सर्वाधिक सहायता करते थे। यही कारण ६. युवराज पोर युवराज्याभिषेक है कि युवराज पोर मन्त्री को राजा का क्रमशः दक्षिण युवराज शब्द भावी राजा के लिए प्रयुक्त होता था। और वाम अङ्ग के दोनों बाहु, नेत्र तथा कर्ण माना राजतन्त्र में युवराज का महत्वपूर्ण स्थान होता था। गया है।" - - ११. पार्श्वनाथचरित, २.५५.५७ १२, पार्श्वनाथचरित, १.६७ १३. वही, १.६६ १४. वही, १.६४ १५. वही, १.१०० श्थ. यही, ५.२४ १७. लक्षकमितो भागो राजतो यस्य जायते । वत्सरे वत्सरे नित्यं प्रजानां स्वविपीडनः ।। सामन्तः स नृपः प्रोक्तो पावल्लभातावधिः । शुक्रनाति, १.१८३.८४ १८. पाश्वनाथचरित, १.१०२ १९. वही, १.११३ २०. वही १.७३ २१. शुक्रनीति, २.१२ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०, बर्ष ३०, कि. ३-४ अनेकान्त ६. गुप्तचर घोषित किया गया है।" पाश्र्वनाथचरित में भी राजा की प्राचार्य जिनसेन ने प्रादिपुराण मे गुप्तचरों को राजा आय के साधनों में प्रजा से कर लेने का उल्लेख किया का चक्ष कहा है । चक्षु तो केवल मुख की शोभा बढ़ाते गया है।"प्रजा के अतिरिक्त विजित राजानों पर भी हैं और वस्तुओं को देखने का कार्य करते है, पर गुप्तचर कर लगाया जाता था।" रहस्यपूर्ण तथ्यों का पता लगाकर राज्यशासन को सुदृढ़ १२. न्याय प्रौर दण्डव्यवस्था बनाते हैं। इसी प्रकार, सोमदेव ने गुप्तचरों को देश- अपराधियों को दण्ड देना और सज्जनों की रक्षा विदेश का ज्ञान कराने में राजा का चक्ष कहा है। करना राजा का धर्म बताया गया है।" पाश्र्वनाथ चरित गुप्तचर विभाग हमेशा ही शामन की सुदृढ़ता और के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अपराधियों को बण्ड न्याग की सत्यता के लिए कार्यरत रहा है। गुप्तचर प्रजा अत्यन्त कठोर और तिरस्कारपूर्वक दिया जाता था, की वास्तविक स्थिति के सम्बन्ध मे गूप्तवेश मे रहकर जिससे भविष्य में ऐसे अपराध की प्रजा पुनरावत्तिन कर जानकारी प्राप्त करते थे और इसकी मुनना गजा को क । जब तक अपराध की अच्छी तरह छानबीन नहीं देते थे। पार्श्वनाथ चरित में भी गुप्तचरी का निर्देश किया। कर ली जाती थी, तब तक अपराधी को दण्ड नही दिया गया है। कमठ के दुराचार की सुचना राजा अरविन्द को जाता था। कमठ के दुराचार का समाचार गुप्तचर एक गुप्तचर ने ही दी थी। द्वारा निवेदित करने पर मन्त्री की सलाह से राजा ने १०. राजा और प्रजा का सम्बन्ध अपराधविशेषज्ञों द्वारा पहले सत्यता की जांच कराई, तदन्तर कमठ को दण्ड दिया गया। पर स्त्री के साथ पाश्वनाथ चरित के अध्ययन से पता चलता है कि दुराचार के अपराध में कमठ को गधे पर बैठाकर नगरउस समय राजा और प्रजा के सम्बाप बडे मघर थे। निहकासन का दगड दिया गया। यद्यपि अपराधियों के प्रति बड़ी ही कठोर दण्डव्यवस्था १३. सैन्य-विभाग थी, तथापि सामान्य प्रजा के प्रनि राजा का मधुरभाव था। राजस्व के रूप मे जो धन पाता था, वह प्रजा की देश की रक्षा तथा राष्ट्रविरोधी ताकतों एव दुश्मन भलाई के कार्यों में ही खर्च किया जाता था। उस ममय दशो के दमन के लिए एक संन्य-विभाग होता था। इसका राजा ने साधनविहीन मार्गों में पानीयशालिका (Water प्रमुख अधिकारी सेनापति कहलाता था। जरूरत पड़ने hut) की व्यवस्था कर दी थी। प्रजा का दुख से उद्धार पर कभी-कभी राजा स्वय भी सेना संचालन करता था। पार्श्वनाथ वारत मे चतुर गिणी सेना-रथसेना, करना ही राजा का कार्य थ।।" प्रश्वसेना, हस्तिसेना और पैदलसेना का उल्लेख हमा है।33 ११. राजस्व इस प्रकार पार्श्वनाथ चरित में राजनीति, उसके राज्य के प्राधिक प्राय के साधना मे माज की तरह विविध अगो एव शासनव्यवस्था का वर्णन मिलता है, उस समय भी प्रजा से कर वसूल किये जाते थे। ऋग्वेद जिससे लगभग एक हजार वर्ष पूर्व की स्थिति का दर्शन मे राजा प्रजा से कर लेने का एकमात्र अधिकारी होता है। 000 २२. चक्षुश्चारो विचारश्च तस्यासोत्कार्यदर्शने । २८. ध्रुव ध्रुवेण हविषाभि सोसं मुशामसि । चक्षुषी पुनरस्यास्य मण्डने दृश्यदर्शने ।। अथो त इन्द्रः केवलीविशो बलिहतस्करत् ।। --प्रादिपुराण ४.१७० -ऋग्वेद, १० १७३.६ २३. स्वपरमण्डलका कार्यावलोकने चाराः खलु चक्षुषि २९. पाश्र्वनाथचरित, १.६६ क्षितीपतीनाम् ।' -नीतिवाक्यामृत, १४.१ ३०. वही, १.६७, १.११३ २४. पाश्वनाथचरित, २.४ ३१. नीतिवाक्यामृत, ५.१.२ २५. वही, १.६६ ३२. पाश्वनाथचरित, २.६० २६. पार्श्वनाथचरित, १.७४ २७. वही १.७७ ३३. बही, ७.११, १६१ - - Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की प्रजातान्त्रिक दृष्टि प्रजातन्त्र की सफलता स्वतन्त्रता, समानता, वैचारिक उदारता, सहिष्णुता, सापेक्षता तथा दूसरों को निकट से समझने की मनोवृत्ति के विकास पर अवलम्बित है, जिसके प्रभाव में गणतन्त्र का अस्तित्व सदैव संदिग्ध ही रहेगा । महावीर गणतन्त्र के प्रबल समर्थक है, उनके उपदेशों में व्यक्ति-स्वातन्त्र्य, सामाजिक साम्य, आर्थिक साम्य, धार्मिक साम्य प्रादि पर विशेष बल दिया गया है और ये ही गणतन्त्र के सुदृढ स्तम्भ है । यदि इनमें से कोई एक दुर्बल या शिथिल हो गया तो समझिये गणतन्त्र का भवन चरमराकर गिर जाएगा। महावीर ने एक गणतन्त्र राज्य में जन्म लिया था परन्तु वहाँ व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का सर्वथा लोप था; दास प्रथा इतनी व्यापक तथा दयनीय थी कि मनुष्य मनुष्य का क्रीत दास बना हुआ था, एक व्यक्ति दूसरे के अधीन था, स्वामी का सेवक पर सम्पूर्ण अधिकार था । दास, दासी, नारी सभी का उसी प्रकार परिग्रह किया जाता था जैसे वस्तुओं, पदार्थों और पशुओंों का परिग्रह करते है । उस युग में जातीय भेदभाव की कृत्रिम खाईं बहुत चोड़ी थी। सामाजिक और प्रार्थिक वैषम्य के कारण चतुर्दिक् प्रशान्ति और कलह का वातावरण था, मताग्रह की प्रचण्ड प्रांधी ने सम्यक् दृष्टि को धुंधला कर दिया था । यही सब कुछ देखकर महावीर ने व्यक्ति स्वातन्त्रय का उपदेश किया । स्वतंत्रता की सिद्धि के लिए प्रहिंसा, सत्य श्रीर ब्रह्मचर्य की त्रिवेणी में अवगाहन करना पड़ता है। हिंसा के द्वारा हम सभी के साथ मंत्री भाव रखते हैं धौर इस मंत्री में ही समानता की मनोवृत्ति विद्यमान है। महावीर ने सभी प्राणियों के साथ मंत्री रखने का प्रतिपादन मोर किसी का वध या प्रनिष्ट करने का निषेध किया है । यहाँ भाकर हम अपने दुख के समान दूसरों के दुःख का समान स्तर पर अनुभव करते है, यानी 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का चिरादर्श प्रस्तुत करते हैं । प्रजातन्त्र में भी अपने समान दूसरों की स्वतन्त्रता का प्रादर किया जाता है तथा डा० निजामुद्दीन 'स्व' की संकीर्ण नली छोड़कर 'पर' के राजमार्ग पर साथसाथ चलते हैं - दूसरों के महत्व को स्वीकार करते हैं। श्राज यदि बंबकों को मुक्त किया गया हैं, भूमिहीनों को भूमि प्रदान की गयी है, बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराने की समुचित व्यवस्था की जा रही है - बैंकों से प्रासान सूद पर ऋण की व्यवस्था की जा रही है तो यह दूसरों की स्वतन्त्रता की ही स्वीकृति है । यह मान्य है कि पराधीनता में सुख-सुविधाओं का मार्ग खुला रहता है, लेकिन ऐसी सुख-सुविधाएं अधिकतर शारीरिक आवश्यकताओं- भोजन, वस्त्र की उपलब्धियों तक ही परिसीमित रहती है, जबकि स्वतन्त्रता का मार्ग कष्ट और असुविधानों से श्रपूर्ण रहता है । कष्ट भोर असुविधाओं के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलकर ही स्वतन्त्रता का, मुक्ति का परम सुख शान्तिमय गन्तव्य हाथ श्राता है । परतन्त्रता में हमें घर मिलता है प्रावास सुख मिलता है लेकिन स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए घर से बेघर होना पड़ता है । घर व्यक्ति को बन्धन मे रखता है, स्वतन्त्रता मे हम घर का त्याग कर प्रशस्त चौराहे पर आकर खड़े हो जाते है -दूसरों के साथ रहते है, दूमरो को अपने साथ रखते है । जब देश स्वतन्त्रता के लिए जी-जान की बाजी लगाकर संघर्ष कर रहा था, तो लोगो ने घरो का परित्याग कर दिया था नोकरियाँ तक छोड़ दी थी । घर से बाहर माना- घर और परिवार के प्रति ममत्व के विसर्जन करना है और सभी मनुष्यों को अपने परिवार में शामिल करना है । यही है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का उच्चादर्श की प्राप्ति | महावीर की अहिंसा इसी स्वतन्त्रता - प्राणिजगत् की स्वतन्त्रता का कल्याणप्रद प्रादर्श प्रस्तुत करती है "हिंसा निवणा दिट्ठा सम्बभूएस संजमो ।” अर्थात् प्राणिमात्र के महिंसा है भौर जब तक प्रति जो संगम है, वही पूर्ण जीवन मे श्रसंयम रहेगा तब Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनेकौत ८२ वर्ष ३०० ३-४ तसा व परतन्त्रता रहेंगीं. सयन से पराङ्मुख रहना जीवन की स्वतन्त्रता-सुख शान्ति से हाथ धोना है। महावीर में ब्रह्म व्रत में को ही स्षीय माना है। ब्रह्मच प्रस्वाद का पाता है। अच्छा-बुरा, खट्टाi मीठा, नौरस सरस, प्राकर्षण विकर्षण के मध्य समरेना खींचना ब्रह्म है। यहाँ शरीर का ममत्व स्वतः सिज विसर्जित हो जाता है फिर की मंजिन भी हाथ मा जाती है। जब तक वैभव का सोखना कृत्रिम प्रदर्शन दिया जाएगा तब तक समाज मे ऊंच-नीच की दीवारें ऊँची ही रहेंगी और व्यक्ति व्यक्ति के बीच दूरी बनी रहेगी। उन बी-नी दीवारों को गिराये बिना मानवसमाज में शान्ति कहाँ, एकता कहाँ, स्वाधीनता कहाँ ? जहाँ एक धौर प्रपार वैभव होगा और दूसरी ओर पार विपन्नता होगी तो समाज मे विसंगतिय तथा वित के विपर लोगों को हराते ही रहेंगे, सकल वातावरण प्रदूषित और लंबित ही रहेगा। वैभव का विसर्जन समाज में, जाति में ऐक्य स्थापित करता है । प्रजातन्त्र में इसी का विसर्जन है।जय विसर्जन नहीं होगा स्यावृत्ति नहीं यायेगी और न ही सब मिलकर एक साथ चल सकेंगे। साधना या तर के मार्ग पर व्यक्ति अकेला चल सकता है; लेकिन धर्म का मार्ग व्यक्तिगत नही, समाजगत तथा समूहान मार्ग है। धर्म सबको साथ लेकर चता है । जब तक विसर्जन न होगा, त्यागवृत्ति न होगी, तब तक हमको नहीं चल सकते । त्याग-भाव ही से तो हम दूसरो को अपने साथ लेकर चल सकते हैं, दूसरों से तादात्म्य स्थापित कर सकते है, उनके प्रति संवेदनशील हो सकते है। महावीर का प्ररिग्रह समानता प्रोर तज्जनित विसंगतियों का निरसन कर समाजवाद के प्रादर्श की प्राप्ति में सहयोग देना है । प्रजातन्त्र समाजवादी भावना को ग्रात्ममात् त्रिये है, इसलिए संग्रहवृत्ति के स्थान पर त्यागवृत्ति को महत्व देना ही पड़ेना । संग्रवृत्ति वैभव-प्रदर्शन, महार और मनकार के साक्षात् रूप हैं जो प्रजातन्त्र में, समानता मेस्मे, समाजवाद में भारी बाधा बन कर खड़े हो जाते हैं। प्रजातन्त्र मे जहाँ महत्तर-वृति के पजे मजबूत हुए वहीं तानाशाही का भयावह रूप परिलक्षित होने लगेगा । जहाँ ममत्व है, होने लगेगा। जहाँ मगस्य है, मूच्र्छा है वही अधर्म है, वहीं तन्त्रता है । प्रजातन्त्र में सामाजिक ऐक्य को प्राथमिकता दी जाती है; मानव-जाति में ऐक्य की प्रतिष्ठापना प्रजातन्त्र । है यहाँ सामसेवक, स्त्री पुरुष को पृथक-पृथक कर्तव्य या अधिकार नही दिये जाते, भेद दृष्टि का निराकरण हो जाता है। इस प्रकार की भेद-दृष्टि का निराकरण महावीर के उपदेशों का मेरुदण्ड है। प्राचार्य उमास्वामी ने 'तत्वार्थ सूत्र' में सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्र के समन्वय पर विशेष बल दिया है। महावीर ने जब यह कहा कि 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है' ( श्राचारांग सूत्र १- ५ - ५ ), तो वह सगत्व का ही उच्चादर्श प्रस्तुत करता है - आत्मा के एकत्व पर ही बल दिया गया है । प्रजातन्त्र में जातीय भेद या वर्गभेद के लिए कोई स्थान नहीं; रगोनस्ल की वरिष्ठता निरर्थक है। जहाँ रगोनस्ल की वरिष्ठता की आकाश बेल फैलने लगेगी, वहां जातीय स्वतन्त्रता का विटप सुखता चला जाएगा तथा ऊपर से साम्प्रदायिकता की आधी उसे समूल उखाड़ फेंकेगीसमाज की प्रगति एकदम से ठप हो जाएगी, कहीं दाक्ति का नामोनिशान तक न रहेगा। महावीर ने अपने समयसरण में किसी भी सम्प्रदाय या वर्ग के प्रवेश पर कोई प्रतिबन्ध नही लगाया था। उनका धर्म मानवजाति का धर्म है, किसी सम्प्रदाय या जाति विशेष का धर्म नही । वह श्रात्मा की पवित्र गंगा है, जिसमें सब साथ मिलकर निमज्जन कर सकते है- वह सभी के पाप-कलुष को धोनेयात्रा निर्मल का है। महावीर सम्प्रदायातीत है और प्रजातन्त्र भी सम्प्रदायातीत है। यहां सभी को अपने मतो-विचारों को अभिव्यक्ति देने का समान अधिकार है तथा सभी को अपनी कुशलता-योग्यता के अनुकूल उप्रति के समान अवसर प्राप्त है। महावीर ने व्यक्ति में इस प्रकार के ग्रात्मस्वातन्त्र्य को हजारों वर्ष पूर्व जागृत किया था । घासक्ति है, अहंकार है, तानाशाही है, वही पर प्रजातन्त्र में हम अपने मत को मान्यता को जितना महत्व देते है उतना ही दूसरों के मत की मान्यता को महत्व देते है। यदि इसके विपरीत भाचरण करेंगे तो Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की प्रजातान्त्रिक दृष्टि ८३ प्रजातन्त्र का गला घुट जाएगा उसकी हत्या हो जागी। उसहार असा लोगों के रक्त गे न लिखा जाता । इस यहाँ सभी को समान स्तर पर एक ही मंच पर खड़ होकर प्रकार की विकट समस्यापो का निदान सज ही एक अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है, सभी को सदभावपूर्ण समझौते के द्वारा सभा हो सकता था। अपनी निष्ठानुसार धर्माचरण करने की स्वतन्त्रता । प्रजातन्त्र में वाद-विवाद के द्वारा सर्वमान्य सत्य की खोज इसी को हम महावीर के अनेकान्तवाद के परिप्रेक्ष्य में की जाती है । संसद् या विधान-मण्डल में विपक्षीदल के देख सकते है। सत्य किसी एक व व्यक्ति या सम्प्रदाय मत को भी मान्यता दी जाती है। विपक्ष की धारणाश्री की बपौती नही है, वह तो सबका है और सभी के पास में भी सत्यता का कोई-न-कोई अश विद्यमान रहता है। रात्यांश हो सकता है। हमे दुराग्रह को त्यागकर सम्यक् एक जैनाचार्य का मत है -- दृष्टित्व अपना कर सत्य का रूप जहा भी प्राप्त हो पक्षपातो न मे वीरो न द्वेषः कपिलादिषु । अगीकृत करना चाहिए । मनाग्रही सत्य के द्वार तक नही युक्तिमद्वचन यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।। जा सकता। सस्प का मार्ग प्रशस्त है, उसमे संकीर्णता नही, विस्तार और आपकता है । हमें अपना मत जितना अर्थात् मुझे न तो महावीर के प्रति कोई पक्षात है प्रिय है, दूसरे को भी प्राना मत उतना ही प्रिय है; और न कपिलादि मनिवन्द के प्रति कोई ईष्यपि है जो। फिर हमे का अधिकार है कि दूसरे के मत का खण्डन वचन तर्कसम्मत हो उसे ग्रहण करना श्रेयस्कर है । महाकरें। महावीर ने अनेकान्त द्वारा एक वैचारिक क्रांति वीर ने 'यही है' को मान्यता नही दी, उन्होने यह भी है' डत्पन्न की, उन्होंने वैचारिक माहिष्णता का परिचय को मान्यता प्रदान कर पारम्परिक विगेको तथा मताग्रहों घलन्द करके सभी को उके नीचे खड़े होने और अपना की लोह श्रृंखला को एक ही झटके मे विच्छिन्न कर अभिमत व्यक्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की। दिया। उन्होंने सत्य को सापेक्षता मे देखा, एकागीपन मे उन्होन बतलाया घरतु या पदार्थ मनेक धर्म अथवा गुण नहीं और उसे शब्द दिये स्यावाद की शैली में । प्रजातन्त्र विशेषता सम्पन्न होता है, उसमें एक ही गुण या विशेषता की पूर्ण सफलता और उसकी उपादेयता मनेकान्तदृष्टि में का प्राधान्य नहीं रहता। पत्नी केवल पत्नी ही नही होता ही सन्निहित है, जिसे माज की भाषा मे 'सर्व वर्म-समभाव' वह पत्नी के साथ-साथ एक ममतामयी माँ, प्यारी सहेली. कहा जा सकता है। प्राज का युग मतवादी होकर भी विश्वसनीय मित्र, लाड़ली बेटी, प्रिय भाभी भी होती है, मताग्रही नही है, वह वैचारिक सहिष्णुता एवं उदारता अर्थात वह विवियरूपा है। इसी प्रकार, अनेक धर्मों के का युग है, दुराग्रह का नहीं है। कारण प्रत्येक वस्तु अनेकान्त रूप में विद्यमान है, उसके प्रजातन्त्र मे लोकव्यवहृत भाषा को महत्व दिया नानाविध रूप होते है-'प्रनेके अन्ताः धर्माः यस्मिन् सः जाता है, उसे ही राष्ट्रभापा या राजभाषा का रूप दिया भनेकान्तः'। उपाध्याय यशोविजय ने कहा है-'सच्चा जा सकता है। किसी एक सीमित या विशिष्ट मम्प्रदाय अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नही करता, वह सम्पूर्ण की भाषा को बहुसख्यक भाषाभाषियों पर थोपा नहीं जा दृष्टिकोण को इसी प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे सकता। एक सार्वजनिक सभा में कोई मम्कृत में भाषण कोई पिता अपने पुत्रों को। माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का देने लगे तो उससे कितने लोग लाभान्वित होगे ? मट्रीभर गढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है।' जब विचारों में इस हो न । महावीर ने अपने उपदेशों को मट्टी भर लोगो तक प्रकार माध्यस्थ भाव रहेगा या हम दूसरों के विचारों नहीं पहुंचाना चाहा वरन् असंध लोगों तक, मानवऔर मतों को सहिष्णता से सनेंगे, समझेंगे, हृदयंगम जाति तक पहुंचाना चाहा और उसम्प्रेषित किया करेंगे तो सभी प्रकार के वैचारिक संघर्ष नष्ट हो जाएंगे। प्रसंस्थ लोगों की भाषा मे-लोकभाषा पबंगागधी मे । फिर राजनैतिक मानचित्र पर बड़े-बड़े मतबाद युद्वोन्मुखी प्राज किसी भी प्रजातन्त्र देश में जाकर देखिए, वहाँ शासन संघर्षों को जन्म न दे सकेंगे। यदि ऐसा होता तो वियत- का सर्वाधिक कार्य उसकी भरने देश की बहसपक लोगों नाम या इस्राइल-मरब की रक्तरंजित समस्याओं का [ शेष पृष्ठ ८६] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-कला विषयक साहित्य 0 डा० जे०पी० जन धर्म और संस्कृति की भांति 'कला' शब्द भी बहु- अर्थात् जीवन में सौंदर्य तथा समृद्धि का संचार, व्यक्तित्व परिचित. बहप्रचलित और बहचचित रहा है। बला की का संस्कार और चित्त-प्रसादन होता है। इस प्रकार अनेकविध परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ की गई है। 'कल' सक्षेप में कलाकार की निज की सौन्दर्यानति की लोकोनर घात से व्युत्पन्न होने के कारण 'कला' शब्द का अर्थ होता प्रानन्द-प्रदायिनी रसात्मक अभिव्यक्ति को 'कला' कर है करना, सृजन, रचना, निर्माण या रिष्पन्न करना' सकते है। पौर 'क लातीति कला सूत्र के अनुसार 'जो प्रानन्द दे सुदूर प्रतीत से चली प्राई तथा प्रायः सम्पूर्ण भारतवह कला है।' शवागम में उसे 'किचित्कर्तृत्वलक्षण' वर्ष में अल्पाधिक ब्याप्त जैन सस्कृति का विभिन्नयुगीन संचित कर्तत्वशक्ति माना है, और क्षेमराज के कलावैभव अतिश्रेष्ठ, विपुल एवं विविध है। अपने विविध पनसार 'कला मात्मा की वह कर्तृत्वशक्ति है जो वस्तुपो रूपों को लिये हुए काव्य और संगीत को छोड़ भी दे मोर व प्रमाता के स्व को परिमित रूप में व्यक्त करे । वात्स्या- केवल चित्र, मूर्ति एव स्थापत्यशिल्प को ही ले, जैसा कि बने कला का सम्बन्ध कामपुरुषार्थ के साथ जोड़ा है कलाविषयक माधुनिक ग्रन्थों मे प्रायः किया जाता है. तो और उसके ६४ मख्य भेद तथा ५१८ मवान्तर भेद किये भी इन तीनों ही से सम्बन्धित कलाकृतियों मे. बाहल्य और प्राचार्य जिनसेन के अनुमार, प्रादि पुरुष भगवान् एव विविधता की दृष्टि से जैन परम्परा किसी अन्य नपरुषों की ७२ और स्त्रियो की ६४ कलाओं परम्परा से पीछे नहीं रही है। अतएव भारतीय कला दी थी। इनमें गमस्त लौकिक साहित्य में भी जैनकला का अपना प्रतिष्ठित स्थान मान-विज्ञान, कला-कौशल, हस्तशिल्प, मनोरजन के साधन रहा है। मादि समाविष्ट हो जाते हैं । कला साहित्य दो प्रकार का होता है-एक तो उपर्यक्त समस्त कलाएँ मुख्यतया दो वर्गों में विभा- तकनीकी, जिसमे कलाविशेष की कृतियों के निर्माण के जित की जाती है-उपयोगी कला और ललित कला। सिद्धान्त, विधि, सामग्री प्रादि का वैज्ञानिक विवेचन उपयोगी कलामो में निर्मित वस्तु की उपयोगिता की दृष्टि होता है; दूसरा वह जिसमे विशेष कलाकृतियों का विवरण का प्राधान्य रहता है, जबकि काव्य-संगीत-चित्र-मूति- या वर्णन होता है, तुलनात्मक अध्ययन, समीक्षण और स्थापत्य नामक पाँचो ललितकलामो मे प्रानन्द प्रदान मूल्याङ्कन भी होता है। प्राचीन साहित्य में मानसार करने की दष्टि का प्राधान्य एवं महत्त्व रहता है। किसी समरागण सूत्रधार, वास्तुसार जैसे ग्रन्थो में प्रथम प्रकार देश, जाति या परम्परा की सास्कृतिक बपौती या समद्धि का कलासाहित्य मिलता है। मानसार को कई बार का मुल्याङ्कन उसकी ललित कलाकृतियो के प्राधार पर जैनकृति मानते हैं, ठक्करफेरु का वास्तुसार तथा मण्डन. ही बहुधा किया जाता है। वे संस्कृति विशेष के प्रति- मन्त्री के ग्रन्य तो जैन रचनाएँ है हो। रायपसेणय बिम्ब एवं मानदण्ड, दोनों ही होती है। जैसा कि एक प्रादि कतिपय प्रागमसूत्रों मे भी इस प्रकार की क्वचित विद्वान् ने कहा है, 'कला नागर-जीवन की समृद्धि का सामग्री प्राप्त होती है। प्रतिष्ठापाठों में जिनमतियों एवं प्रमुख उपकरण है और उसके द्वारा सुख-सौभाग्य की अन्य जैन देवी-देवताओं का प्रतिमाविधान वर्णित है। सिद्धि के साथ-साथ व्यक्तित्व का परिष्कार भी होता है, जैन पुराण एवं कथासाहित्य में अनेक स्थलों पर विविध Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन. कला विषयक साहित्य चित्र, मूर्ति एवं स्थापत्य कलाकृतियों के सुन्दर वर्णन या विवरण उपलब्ध हैं । आधुनिकयुगीन कला-साहित्य में : ( १ ) प्रथम तो पुरातात्त्रिक सर्वेक्षण, उत्खनन, शोध-खोज द्वारा विभिन्न प्रदेशों या प्राप्त पुरावशेषों, कलाकृतियों शादि के विवरण हैं । गत शताब्दी के उत्तरार्ध में जनरल अलेक्जेण्डर कनिंघम व उसके प्रायः समकालीन अन्य सर्वेक्षकों की बृहत्काय रिपोर्टों में भारतवर्ष के विभिन्न भागों में विश्वरी कलाकृतियों का प्राकलन हुआ। फुहरर ने १८९१ में तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रदेश (वर्तमान उत्तर प्रदेश) क पुरावशेषों का जिलेवार विवरण दिया था। अन्य कई विद्वानो ने उसी प्रकार अन्य कई प्रदेशों का विवरण दिया । तदनन्तर भी पुरातत्व विभाग की रिपोर्टों, बुलेटिनो प्रादि में नवीन जानकारी में आयी सामग्री दी जाती रही है । स्वभावत इन समस्त विवरणों में तत्तत् प्रदेशों में प्राप्त जैन कलावशेष भी समाविष्ट हुए । स्व० प्र० शीतलप्रसादजी ने वैसी रिपोर्टों के प्राधार से ही मद्रास, मैसूर, बम्बई, सयुक्त प्रान्त ( उ० प्र०) श्रादि कई प्रान्तों के प्राचीन जैन स्मारकों पर पुस्तकें लिखी थी व प्रकाशित की थी। (२) दूसरे, भारतीय इतिहास सम्बन्धी विविध प्राधुनिक ग्रन्थों में विभिन्न युगों की सांस्कृतिक झलक प्रस्तुत करने के निमित्त तत्सम्बन्धित कलावैभव की समीक्षा व उल्लेख भी रहता है, और उनमें भी जैन- कलाकृतियाँ अल्पाधिक सम्मिलित की ही जाती है । इस प्रकार इंडियन एन्टीक्वेरी, रायल एशियाटिक सोसाइटी की विभिन्न शाखाओ के जर्नल, अन्य ऐतिहासिक-सांस्कृतिक शोधपत्रिकाओं में भी प्रसंगवश जैनकला का विवेचन होता रहा है। (३) तीसरे, कई प्रौढ़ कला मर्मज्ञों ने भारतीय कला पर बृहत्काय विवेचनात्मक ग्रंथ रचे है, यथा बर्गेस, फर्गुसन, हैवेल, स्मिथ, कुमारस्वामी, पर्सी ब्राउन, स्टेला मरिश, बाखोफेर, फ्रैंकफोर्ट, हैनरिख जिमर, बेनजमिन शेडेफ, लुइसफ्रेडरिक श्रादि ने। इन सभी विद्वानों ने ब्राह्मण मोर बौद्ध के साथ ही साथ जैन- कलाकृतियों पर ८५ भी प्रकाश डाला समीक्षा की, तुलनात्मक अध्ययन किया और मूल्यांकन भी किया। (४) अनेक जनेतर एवं जैन कलामर्मज्ञों एवं विद्वानों ने विभिन्न स्थानीय जन-कलाकृतियों पर अथवा विविध या विशिष्ट जैन- कलाकृतियों पर अनगिनत लेख लिखे है । इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय नाम हैं- बोगेल, न्हूलर, बर्गेस, कनिन्स, क्लाउज खून, काशीप्रसाद जायसवाल, पार० डी० बनर्जी, ए० बनर्जी शास्त्री, भगवानलाल इन्द्रजी, बी० एम० बरुम्रा, डी० भार० भंडारकर, रामप्रसाद चंदा, वासुदेवशरण अग्रवाल, दयाराम साहनी, मोतीचन्द्र, एच० डी० साकलिया, कृष्णदत्त बाजपेयी, नी० पु० जोशी, एम० ए० ढांकी, भार० सो० अग्रवाल, बी० एन० श्रीवास्तव, देवला मित्रा, आर० सेनगुप्ता, रमेशचन्द्र शर्मा, शैलेन्द्र रस्तोगी, उ० प्र० शाह, मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, शिव कुमार नामदेव, विजय शंकर श्रीवास्तव, ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा, तेजसिंह गोड़ प्रभृति जैनेतर विद्वान् तथा बाबू छोटेलाल जैन, कामताप्रसाद जैन, विशभरदास गार्गीय, नीरज जैन, गोपीलाल अमर, मगरचन्द नाहटा, के० भुजबल शास्त्री, बालचन्द्र जैन, भूरचन्द जैन आदि जैन लेखक उल्लेखनीय है । स्वयं हमारे दर्जनों लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, स्मारिकाओंों, ग्रन्थों मादि में जैनकला पर प्रकाशित हो चुके हैं। जैन पत्रिकाओं में से जैन सिद्धान्त भास्कर, जैन एन्टीक्वेरी, अनेकान्त, अहिंसावाणी, वायस ग्राफ हिंसा, शोधाङ्क, श्रमण, जैन जर्नल में विभिन्न लेखकों के जैन कलाविषयक लेख, कभी-कभी सचित्र भी, बहुधा निकलते रहें है । (५) जैनकला विषयक विशिष्ट एव उल्लेखनीय ग्रन्थों में निम्नोक्त गिनाये जा सकते है - १. २. ३. विन्सेण्ट स्मिथ - जैन स्तूप एड ग्रदर एण्टीक्विटीज ग्राफ मथुरा ( इलाहाबाद, १६०१ । ए० एच० ल गहर्स्ट- हम्पी रूइन्स (मद्रास १९१७ ) एम० एम० गांगुली - उड़ीसा एण्ड हर रिमेन्स, एन्शेण्ट एण्ड मेडिवल (कलकत्ता १९१२ ) ४. नार्मन ब्राउन - १९१८ और १९४१ के बीच प्रकाशित जैन चित्रकला पर पाँच पुस्तकें । ५. साराभाई नवाब- जैन चित्र कल्पद्रुम, ३ भाग Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६, वर्ष ३०, कि० ३.४ अनिकान्त (महमदाबाद १९३५) तथा जैन तीर्थाज इम इंडिया सग्रहालय, लखनऊहाराभायोजित जैन कला संगोष्ठी एण्ड देयर मार्किटेक्चर (महमदाबाद १९४४) का विवरण तथा जन कला पर विभिन्न विद्वानों १. डा. मोतीचन्द्र-जैन मिनियेचर पेन्टिग्स फाम द्वारा पठित निबन्धों का सार संकलित है। वेस्टर्न इण्डिया (महमदाबाद १९४६) . १५. जैन पार्ट एण्ड पाकिटेश्वर, ३ खण्ड (भारतीय ज्ञान७. मुनि पुण्य विजय-जेसलमेर चित्रावली (महमदा पीठ, १९७५)-जैनकला के विषय में प्रकाशित प्रब बाद १९५१) तक के ग्रन्थो में यह महामन्य सर्वाधिक विशाल, ८. मुनि जयन्तविजय --प्रावू पर्वत एवं उसके जैन सर्वांगपूर्ण एवं प्रामाणिक है। ग्रन्थ सचित्र है और मन्दिरों पर कई पुस्तके । अग्रेजी एवं हिन्दी दोनो भाषामों में प्रकाशित ६. मुनि कान्तिसागर- खोज की पगडंडियाँ और हुआ है। खंडहरों का वैभव, (दोनो भारतीय ज्ञानपीठ से इस प्रकार, जैन कला-साहित्य का यह संक्षेप में प्राय: प्रकाशित ।) सांकेतिक परिचय है। इस साहित्य की विद्यमानता मे जैन १०. टी० एन० रामचन्द्रन-जन मोन मेण्ट्स प्राफ इण्डिया कला के किसी भी अंग या पक्ष पर शोध करने वाले छात्र (कलकत्ता १६४४) को सामग्री का प्रभाव नही है। कलाममंज्ञों के लिए जैन ११. यू०पी० शाह - स्टडीज इन जैन पार्ट (वाराणसी कला के किसी भी अंग का तुलनात्मक अध्ययन, समीक्षा १९५५) एव मूल्यांकन करना अपेक्षाकृत सुगम हो गया है। जो १२. क्लास फिशर -वेठज एण्ड टेम्पल्स आफ दी जन्स कलारसिक अथवा सामान्य जिज्ञासु है, वे भी उपर्युक्त (जंन मिशन, अलीगंज १६५६) साहित्य से जैन कला विषयक सम्यक् जानकारी प्राप्त कर सकते है। इतना सब होने पर भी यह मान बैठना उचित १३. डा० भागचन्द्र जैन- देवगढ़ को जन कला (भारतीय नही होगा कि इस क्षेत्र में अब और कुछ करना शेष नहीं ज्ञानपीठ १९७५) है । अभी बहुत-कुछ किया जा सकता है, करने की प्राव. १४. शोवाङ्ग३१ (२६ दिस० १६७२) - में राज्य श्यकता है। 0.0 [ पृष्ठ ८३ का शेषांश ] की भाषा में होता है। यदि नही होता तो वहाँ प्रजातन्त्र और सम्मान ही नहीं बढ़ाया, अपितु उन्हेंसमानता के के होते हए भी पराधीनता है, परभाषा की पराधीनता। अधिकार से सशोभित किया। उनका अपरिग्रहवाद पाज का युग समानता का युग है। स्त्रिया माता माथिक समानता का प्रादशं प्रस्तुत कर समाजवाद को पुरुषों के समान अधिकारों की मांग कर रही है और जड़ों को ही मनबूत बनाता है। 100 उनकी मांगें पूर्ण भी हो रही है, न हों तो फिर प्रजातन्त्र का प्रादर्श-प्रादर्श मात्र ही रह जाएगा। शोषित वर्ग को प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, इस्लामिया कालेज, भी समाज में बराबरी के हक दिये जाते हैं। महावीर ने हजारों वर्ष पूर्व स्त्रियों को दीक्षा देकर उनका पादर श्रीनगर (काश्मीर) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघविजय के समस्यापूर्ति काव्य 0 श्री श्रेयांसकुमार जैन प्राचीन ऋषियों, मनीषियों, प्राचार्यों तथा कवियों ने विजयप्रभसूरि ने इन्हें 'वाचक" (उपाध्याय) पद से अपना परिचय देश, काल, कुल मादि की दृष्टि से समलंकृत किया था। इनकी न्याय', व्याकरण', साहित्य', अनावश्यक समझ कर नहीं दिया या अस्पष्ट रूप में ज्योतिष', अध्यात्म' मादि से सम्बन्धित भनेक रचनाएँ अत्यल्प प्रमाण में दिया है। उनका एकमात्र लक्ष्य या कि सम्प्रति समुपलब्ध हैं। उपाध्यायजी ने साहित्य-साधना लोग गुणों को ग्रहण करें। इस कारण वे न तो अपनी का प्रारम्भ वि० सं० १७०६ में 'विजयदेवमाहात्म्यविवरण' प्रशस्ति पसन्द करते थे और न अपने वैशिष्ट्य बोध केही नामक टीका से किया और उनकी अन्तिम रचना है भूखे थे। इसी परम्परा मे बहुश्रुत, बहुमुखी प्रतिभा के पाण्डित्यपूर्ण शब्दवविध युक्त प्रत्येक पद के सात-सात धनी, गम्भीर साहित्य साधक, अनेक शास्त्री के प्राज्ञ अर्थ निष्पन्न करने वाली समलकृत सप्तमन्धान महाकाव्य पण्डिन, ज्योतिष व्याकरण-दर्शन प्रादि परस्पर निरपेक्ष जो वि० स० १७६० में पूरी हुई। शारों के वेता महोपाध्याय मेघविजयमणि भी प्राते है, मेषविजयगणि की प्रतिभा और पाण्डित्य मादि का क्योंकि इन्होने अपने वश, समय तथा स्थान प्रादि का विशेष परिचय उनके द्वारा प्रणीत समस्यापूर्ति काव्यों से परिचय देने में संकोच किया। अपनी शिष्य-परम्परा को मिलता है, वोकि कवि की मौलिकता नतन काव्य-सुष्टि भी ऐसा नहीं करने दिया। मे उतनी नहीं निखरी, जितनी पुरानी काव्यसृष्टि को मेघविजयगणि तपागच्छ के प्राचार्य श्री हीरविजय नूतन चमत्कार प्रदान करने मे । कवि प्रकाण्ड पण्डित सूरि की परम्परा में अन्तिम गणमान्य प्रतिभासम्पन्न होते हुए भी अत्यन्त विनम्र है। यह प्रभ्युत्थान युग के प्राचार्य हुए है । यह परमारा-क्रम इस प्रकार है प्रतिनिधि कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष जैसे हीरविजय कवियो की कृतियों को समस्या बनाकर उनके भावों में स्व-भावो का साम्य स्थपित कर नवीन काव्यो का निर्माण कनकविजय करता है। ऐसी महती प्रतिभा से सम्पन्न होते हुए भी विनयावनत होकर माघ प्रादि के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते शीलविजय हुए वह कहता है कि-- नोकः कवितामदस्य न पुनः स्पर्धा न साम्यस्पृहा, कमल विजय सिद्धि विजय चारित्रविजय श्रीमन्माधवेस्तथापि सुगुराम भक्तिरेव प्रिया। कृशविजय तस्यां नित्यरतेः सुते । सुभगा जज्ञे समस्याऽद्भुता, मेघविजय सेयं शारदचन्द्रिकेव कृतिना कुर्याद् दृशाभुत्सवम् ।। १. शान्तिनाथचरित्र के अनुमार । सनसन्धान, भविष्यदत्तकथा, पञ्चाख्यान भादि । २. सत्सेवासक्तचेता अनवरततथा प्राप्त लक्ष्मीविशिष्य। ६. वर्षप्रबोध, रगलशारत्र, हस्तममीवन, उदयदीपिका, शिष्यः श्रीमत्कृपादेविजयपाभूत: सत्कवेर्वाचक श्रीः॥ प्रश्न सुन्दरी, वीसायन्त्र प्रादि । -देवानन्द महाकाव्य प्रशस्ति ३. (क) युक्तिप्रबोध नाटक, (ख) मणिपरीक्षा (ग) ७. मातृकाप्रसाद, ब्रह्मबोध, महद्गीता प्रादि । ___ धर्ममंजूषा । ८. वियद्रसमुनीन्दूना (१७६०) प्रमाणात परिवत्सरे। ४. चन्द्रप्रभा, हैमशब्दचन्द्रिका, हैमशब्दप्रक्रिया। कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्या प्रतिष्ठितः ।। ५. दिग्विजय महाकाव्य, लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, -सप्तसन्धान महाकाव्य, प्रशस्ति " चा : ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८, वर्ष ३०, कि० ३.४ भनेकान्त माघः सान्निध्यकृद् भपाद् मल्लिनाथस्तथक्ष्यताम् । परतन्त्र रहता है । भावों की स्पष्टता कम होती है। इस हास्येन मम दास्येऽस्मिन् यथाशक्त्युपजीविते ।। कार्य में स्वतन्त्र काव्य-निर्माण की अपेक्षा अधिक श्रमप्रस्या न मधुरा वाचो नालंकारा रसाबहाः। साध्य एवं प्रौढ़ पाण्डित्य की अपेक्षा होती है। बन्धन के पूर्वसंगतिरेवास्तु सतांपाणिग्रहश्रिये ॥' कारण कवि अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा का उपयोग कम कर पाता है। कुछ ही विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न कवि दूसरों के मेषविजयगणि ने महाकवि कालिदास विरचित मेध काव्यों के पदों तथा भावों का अपने भावों के साथ दूतम् के प्रत्येक पद्य के अन्तिम चरण को समस्या-रूप में सामञ्जस्य स्थापित कर पाते है । उन्हीं में मेघविजयगणि स्वीकार करके 'मेघदूतसमस्यालेख', भारवि के किरातार्जु पाते हैं । इनके समस्यापूर्ति काव्य इसके प्रमाण है । नीयम् को समस्या बनाकर 'किरातसमस्यालेख', महाकवि माघ के शिशुपालवध के सात सगों के प्रायः अन्तिम मेघदूतसमस्यालेख चरण को समस्या बनाकर 'देवानन्द महाकाव्य' तथा श्रीहर्ष 'मेघदूतसमस्यालेख' विज्ञप्ति-पत्र के रूप में लिखा गया के नैषधीयचरित के प्रथम सर्ग के सम्पूर्ण नोकों के प्रति. है। इस काव्य की रचना महाकवि कालिदास विरचित चरण को समस्या मानकर शान्तिनाथचरित नामक काव्य 'मेघदूतम्' के प्रत्येक श्लोक के अन्तिम चरण को समस्या की रचना की। मानकर की गयी है। समस्यापूर्ति शब्द समस्या और पूति का सयोग है। ___ कालिदास ने रामगिरि पाश्रम में स्थित किसी विरही इसमें पूर्ति शब्द का अर्थ पूर्णता है। समस्या का अर्थ यक्ष का सन्देश प्राषाढ़ मास के प्रारम्भ में मेघ को दूत कठिनाई या परेशानी है। यह परेशानी भी व्यक्ति के बनाकर उसकी कान्ता के पास अलकापुरी भेजने की लिए परीक्षा होती है। वैसे ही काव्य क्षेत्र मे किसी कल्पना मे मेघदूत की रचना की। उसी प्रकार विजय सार्थक शब्द, पद अथवा पाद को समस्या के रूप में कवि ने चातुर्मास के प्रथम प्राषाढ़ मास में अपना सन्देश श्री की शक्ति-परीक्षणार्थ अर्थसंगत रीति से पूरा करने के विजयप्रभसूरि के पास देवपाटण भेजने के लिए मेघदूत. लिए प्रस्तुत किया जाता है। कवि अपने मनोगत प्रर्थ व समस्यालेख की रचना की है। कवि ने नव्यरंगपुरी भावों की उस पाद अथवा पद के साथ सगति बैठाकर (ोरङ्गाबाद) से देवपाटण सन्देश भेजा था। मेघदूत में पद्य की पूर्ति करता है। इसी को समस्यापूर्ति कहते है। रामगिरि से अलकापुरी तक के मार्ग में विविध नगर, अमरकोश में भी कहा गया है कि पर्वत, नदी, प्रादि रम्य स्थानों का वर्णन है और फिर "या समासार्था पूरणीयार्था कविशक्तिपरीक्षणार्थम् अलकापुरी में स्थित यक्षिणी प्रादि का वर्णन किया है। अपूर्णतयव पठ्यमानार्था वा सा समस्या ।". इसी प्रकार इस काव्य मे नव्यरगपुरी से देवपाटण के मार्ग एक स्थिति मौर है जब कवि भिन्न अभिप्राय वाले के मध्य देवपर्वत तथा नगरी, एलोर पर्वत, तुंगिला पर्वत, प्रघरे पद्य की भिन्न अभिप्राय वाले अपने भावो के साथ तापी नदी, नर्मदा, मही प्रादि नदियों, शत्रुञ्जय पर्वत, संगति बैठाकर अर्थपूर्ति करता है । यह भी समस्यापूर्ति है।" सिद्धर्शल, जैनमन्दिरों, द्वीपपुरी (देवपाटण) में स्थित समस्यापूति मे पूरणीय चरण के शब्दों को परिवर्तित विजयप्रभसरि४ गुरु का तथा साथ में उस नगरी का भी न कर अर्थ की पूर्ति करनी होती है, प्रतएव इसमे कवि वर्णन किया है। ६. देवानन्द महाकाव्य प्रशस्ति. १०. अमरकोश, टीका १.६७. ११. शब्दकल्पद्र म, पञ्चमकाण्ड, पृ० २७०. १२. मेघदूतसमस्यालेख, १ १३. वही, ३४ १४. वही, ६२ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघविजय के समस्यापूर्ति काव्य किरात समस्या लेख इस काव्य का उल्लेख विद्वानो ने अपने निबन्धों में किया है। यह जगत्प्रसिद्ध भारवि के काव्य किरातार्जु - नोयम् की समस्यापूर्ति है इसकी एक प्रति माचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि के पास थी उन्होंने प्रेस कापी भी तैयार शान्तिनाथचरित की थी, किन्तु मिली नहीं। वह भी एकसर्गात्मक थी, पूरी नहीं ।" देवानन्द महाकाव्य था । देवानन्द महाकाव्य कवि का अनुपम समस्यापूर्ति काव्य है । माघ कवि के शिशुपालवध की समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गये इस काव्य में श्री विजयदेव सूरि का चरित्र वर्णित है, धानुषङ्गिक रूप से विजयप्रभसूरिजी का वृत्तान्त निबद्ध है । यह काव्य सं० १७२७ में मारवाड़ के सादड़ी नगर में विजयादश्मी के दिन पूरा हुआ १७ सप्तगत्मिक इस काव्य में कुल ७१६ पद्य है । यद्यपि काव्य में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से चरित वर्णित है तथापि इसमें काव्यत्व प्रधान है। इस काव्य में माघ के शिशुपालवध काव्य से साम्य है- माघ कवि का मुख्य विषय कृष्ण वासुदेव द्वारा शिशुपालयम है। मेघविजय ने भी अपने काव्य का नायक वासुदेवकुमार को चुना जो बाद मे विजयदेवसूरि श्राचार्य बनते हैं । कृष्ण को दिल्ली जाना पड़ा था, इसके नायक को भी दिल्ली के जहाँगीर .१८ १५. श्री प्रगरचन्द नाहटा, जैन पादपूर्ति साहित्य | १६. दिग्विजय महाकाव्य की हिन्दी भूमिका | १७. मुनिनयन पश्य इन्दुमिते वर्ष हर्ष सादड़ी नगरे ग्रन्थः पूर्णः समजनि विजयदशम्यामिति श्रेयः ॥ - देवानन्द म० प्रशस्ति दह बादशाह के पास जाना पड़ा था। रंवतक गिरि का दोनों काव्यों में समान वर्णन है। काव्य में शिशुपालवध काव्य के मात्र सात सर्गो के श्लोकों के अन्तिम पाद को समस्या बनाकर पूर्ति की गई है। १८. १.७१ १६. वही, १.१२ तथा ७.७८ २०. इतिथी ची महाकाव्य समस्यायां महामहोपाध्याय मेघविजयगण पूरिठाया पष्ठः सर्गः । -- शान्तिनाथचरित प्र० सर्वसमाप्ति मेघविजय समस्यापूर्ति काव्यों में इसका विशेष स्थान है, क्योंकि प्रथम सगं के प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरणको समस्या बनाकर पूर्ति की गई है और नंषध का जो चरण ग्रहण किया गया उसे प्रस्तुत काव्य में उसी चरण के रूप में भावों की संगति के साथ बैठाया गया है। इस काव्य की पूर्ति छः सर्गों मे की गयी है एवं अपरनाम नैषधीय समस्या भी है इसमें शान्तिनाथ प्रभु का चरित वर्णित है, श्रानुषङ्गिक रूप में विजयप्रभ का वर्णन है। इसमें ५६० श्लोक है । १२० यह काव्य काव्यत्व प्रधान है और भाव-साम्य परि सा है। श्रीहर्षचरित के प्रत्येक सर्ग के अन्त में अपना वशगत परिचय दिया है । प्रस्तुत काव्य में कवि ने अपनी गुरुपरम्परा का वर्णन किया है।" संयोग है कि श्रीहर्ष के पिता का नाम हीरा और काव्यकार की परम्परा के श्राद्य-संस्थापक का नाम भी हीरविजय था। अतएव काव्य मे नेपधीयचरित के प्रथम सर्ग का प्राद्यन्त समस्या-रूप में निर्वाह कृपा है। २१. यदीयपादाम्बुजभक्तिनिर्भरात्, प्रभावतस्तुल्यतया प्रभावतः । नलः सितच्छत्रित कीत्तिमण्डलः, क्षमापतिः प्रायशः प्रराम्यताम् ॥ बही १.११ २२. अयं दरिद्रो भवितेति वैधसी, क्रियां परामृश्य विशिष्य जापतः । विधेः प्रसत्यास्ववदान्यताकृते, नृपः सदार्थी भविते २३. वही, ६६२ ॥ -- वही, १.५० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ध्वज स्वरूप और परम्परा [यह घोषपूर्ण संगवेणा एवं सत्यानुसंधान की दृष्टि से जैन विषय में सप्रमाण तकं घोर सुसंगत प्राधार सामग्री प्रस्तुत किया जाना अभीष्ट है । -सम्पारक [ तीर्थंकर महावीर के में उपलब्ध उपलब्धियों में की उपलब्धि युग तक के निर्माण व प्रचार में सहायक महाशक्तियों को भुलाया नहीं धन्यवादाई रहेंगे। २५०० में निर्वाण के उपलक्ष्य पंच-वर्ण के सामाजिक ध्वज स्मरणीय रहेगी धौर ध्वज प्रथक यत्न करने वाली जा सकेगा। सभी भगवान महावीर के निर्वाण पश्चात् जैसे धार्मिक मान्यताम्रों में दृष्टि-भेद हुए - श्रनेक पथ बने, वैसे ही उसके पंच-गत-ध्वज भी भिन्न-भिन्न रूपों में निर्मित होने लगे । यहाँ तक कि किसी पथ के ध्वज का कोई निश्चित एक रूप भी नहीं रह गया जिसने जैसा चाहा, तब सा ही ध्वज, धर्म ध्वज के नाम से फहरा दिया। श्रीर यह सब हुआ तब, जब लोगों की दृष्टि से धर्म का मून महत्व तिरोहित हो गया या लोगो ने धर्म ध्वज को अपनीअपनी मान्यताओं और पथ-विशेषों का ध्वज स्वीकार करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी या देवी-देवताम्रो की उपासना का बाहुल्य हो गया । पं० पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली के वास्तविक स्वरूप परम्परा के करता है। छतः इस पर इसी दृष्टि से विचार 1 यदि किसी एक रूप मे निश्चित मान्य हो तो पयविशेष का निश्वित एक ध्वज होना कोई बुरी बात नहीं । पर यहाँ तो एक ही पक्ष के लोग कमी इकरंगा तो कभी दुरंगा तिरंगा यां कई-कई रंग का ध्वज फहराने लग गये ये इससे जहां किसी पंच-विशेष में ध्वज-संबन्धी अस्थिरता रही वहाँ किसी निश्चित ध्वज के प्रभाव में यह पंप-प्रदाय दूसरों की दृष्टि में अपने व्यावहारिक रूप का बोध कराने मे भी असमर्थ हो गया । अर्थात् ध्वज को देखकर कोई नहीं पहिचान सकता कि ये मनुक समाज-पथ या सम्प्रदाय के लोग हैं या यह उनका ध्वज है । यदि ध्वज का एक ही निश्चित रूप मान्य होता तो ध्वज देखकर सहज ही ज्ञान हो जाता कि यह प्रमुक पंथ का ध्वज है । उदाहरणार्थ -- जैसे चक्रयुक्त तिरंगा भारत का पौरव वाला तिरंगा काँग्रेस पार्टी का सहज-बोध करा देते हैं । हमारे ध्वज के विषय में ऐसा कुछ नहीं रह गया था। सामाजिक नवीन ध्वज की निश्चिति के संबन्ध मे मैं स्व० साहु श्री शान्तिप्रसाद जी जैन के इस कथन से पूर्ण सहमत हूँ कि 'मुझे इस बात की बहुत प्रसन्नता हैं कि सभी के आशीर्वाद से समग्र जैन समाज के एक ध्वज एवं एक प्रतीक का निर्णय हो गया ।" महावीर स्मारिका (प्रेम ७४) पृ० २५ ध्वज के पाँच रगों को प्रणुव्रत महाव्रत प्रादि का द्योतक मानना जैसी नई दिशायों की कल्पनाएं भी सुखद और प्रशस्त हैं इनसे सदाचार प्रचार को बल ही मिलेगा। ऐमी नवीन कल्पनायें होती रहना, मानव के सद्भावों को जाग्रत करने में पूर्ण सहायक होती है । मैं इनका स्वागत करता हूँ और निश्चित किए गए पंच-वर्ण-ध्वज का सामाजिक दृष्टि से सम्मान करता हूँ। जैनों के सब पंथों ने मिलकर ध्वज का एक रूप ( पंचवर्णवाला) स्वीकार कर प्रशस्त प्रयास ही किया है। I अब रही बात पंचरंगे ध्वज को जैन धर्म की प्राचीनता से जोडने और इसे पूर्व से प्रचलित जैन-धर्म का ध्वज सिद्ध करने की सो, इसके लिए शास्त्रों के प्रमाणों को एकत्रित करने में धम की मावश्यकता है। यह खोजना भी यत्न-साध्य है कि- जिनधर्म के ध्वज का प्राचीन रूप क्या है ? मुझे अभी तक एक-दो सज्जनों - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन वसपोर परम्परा के विचार जानने को मिले। उनमें तर्कसंगत और तथ्य. जैन-बज के प्रसंग में प्रतिष्ठातिलक में जो स्पष्ट पूर्ण दृष्टि नहीं मिली। अपितु यह तो अवश्य प्रतीन उल्लेख हैं उपके अनुसार जैन ध्वज सर्वथा श्वेत ही सिद्ध हया कि प्रस्तुत किए गए प्रमाणों के माथ मन्याय किया होता है और उस पर छत्र, पद्मवाहन, पूर्णकलश, स्वस्तिक गया है और उन्हें बलात् प्राचीन जैन ध्वज के साथ जोडने प्रादि चिह्न होते हैं । तथाहि - का प्रयत्न किया गया है। यतः-वे प्रमाण देवी-देवतामा 'सुधौतसूश्लिष्टश्वेतनतमवासः परिकल्पितस्यास्यके ध्वज-प्रसंगों से संबन्धित है । ध्वज के पवरंगा होने में पहली बात जो कही जा रही वह है "विजया पंच. 'ध्वजमस्तकास्याधः प्रथमे पदे छत्रत्रयं, द्वितीयपदे पपवर्णाभा पंचवर्णमिदं - ध्वजम् ।" बाहन, तृतीये पूर्ण कलशं तत्वालयो स्वस्तिक यथायोभ पर-उक्त उद्धरण जैन-ध्वज से सबन्धित नहीं अपितु शिल्पिना विलिख्य तदेतन्महा ध्वजं सद्यागमण्डलस्याग्रतो विजयादेवी के निजी वन से संबन्धित है। यतः- वेदिकातले पूर्वस्यां दिशि समवस्थाप्य दिकपालकेतूम्... नीचे दिए गए पूर्ण प्रसंग से विविध-देवियों और उनकी विवकम्यकाकेतन · तदध्वजपाचपोरवस्थाप्य सम्महाबध्वजामों के स्वरूपों का यथावत् निश्चय हो जाता है। जापतः.....।' तथाहि -प्रतिष्ठातिलक, पृ० १८५-१६ 'पीतप्रभातयादेवी पीतवर्णमिदंघ्बजम् ।' उक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि ध्वज धुले-सुश्लिष्ट, श्वेत 'पद्माख्यदेवी पद्माभा पद्मवर्णमिदं ध्वजम् ।' नूतन वस्त्र से बना होता है पोर छत्र, कलश, स्वस्तिक 'सा मेघमालिनीकृष्णा कृष्णवर्णमिदंध्वजम ।' प्रादि चिह्नो से चिह्नित होता है। यही मुख्य ध्वज, 'हरिन्मनोहरादेवी हरिद्वर्णमिदं ध्वजम् ।' महाध्वज नाम से भी कहा गया है। प्रतिष्ठा प्रादि के 'श्वेतामा चन्द्रमालेयं श्वेतवर्णमिदध्वजम् ।' अवसरों पर इस महाध्वज को प्रमुखरूप में स्थापित किया 'नीलाभासुप्रभादेवी नीलवर्णमिद ध्वजम् ।' जाता है और अन्य रंग-विरग (देवी-देवतामों के) ध्वज'श्यामप्रभा जयादेवी श्यामवर्णमिदं ध्वजम् ।' जो क्षुद्र-ध्वज के नाम से सम्बोधित किये जाते हैं। उन्हे 'विजया पंजवाभा पंचवर्णमिद ध्वजम् ।' इस महाध्वज के चारों भोर (उनके लिए ऊपर निर्दिष्ट दिशाभों के क्रम मे) स्थापित किया जाता है। इन क्षुद्र ध्वजापों को झड़ियों के नाम से भी जाना जा सकता है। उक्त प्रसंग से देवियों के पृथक-पृथक् रंगों और तदनु- यतः इनका परिमाण मुख्य ध्वज से पर्याप्त छोटा होता सार उनके ध्वज-रंगों की पुष्टि हो जाती है। जैसे- है। महाध्वज की लम्बाई ५ से १० बालिस्त और चौड़ाई १६ से २४ अंगुल तक की कही गई है। देवी का नाम देवी का वर्ण देवी के ध्वज प्वज को दिशा का वर्ण ___पंचदशाद्यन्तवितस्तिरूपविघदेन्यितमदय॑स्य, १ पीतप्रभा पीत पीत एकोनविंशत्यं गुलादिचतुर्विशत्यंगुलांतपड़िवधव्यासरन्यतम २ पपा पद्म पद्य आग्नेय व्यासस्य ।-(वही)। ३ मेषमालिनी कृष्ण कृष्ण भवाची प्राचार्य उमास्वामि कृत जैनियो के प्रामाणिक मारम४ मनोहरा हरित् हरित् नैऋत्य सूत्र तत्त्वार्थसूत्र से कौन परिचित नहीं है ? यह सूत्र ५ चन्द्रमाला श्वेत श्वेत प्रतीची परममान्य है और सभी विषयों में सष्ट निर्णायक है। ६ सुप्रभा नील नील वायव्य उससे ध्वज के श्वेत होने के प्रमाण --उसकी प्रामाणिक ७ जया श्याम श्याम उदीची टीकानों से उपलब्ध होते है। तथाहि-'अव ग्रहेणग्रहीतो. ८ विजया पंचवर्ण पंचवर्ण अधः, ऊर्ध्व, ईशान योऽर्थस्तस्य विशेषपरिज्ञानाकांक्षणमीहा कथ्यते । थया Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२, वर्ष ३०, कि० ३-४ हवं मया दष्ट तत्ति बल का-बकभार्या माहो- गई हैं; वे सब प्रायः श्वेत रंग की बस्तों या प्राणियों स्वित् पताका-ध्वजा वर्तते ।' से की गई हैं। इससे भी ध्वज का श्वेत होना सिद्ध होता -तत्त्वार्थवृत्ति (धुतसागर सूरि) १४१५ है। तथाहि 'इलक्षणांशुकध्वजा रेजः पवनान्दोलितोत्थिताः। व्यो--अर्थात् जो शुक्लरूप मैंने देखा वह बगुली है या मांबुनिधेरिवोद्भूता तरंगास्तुंगमूर्तयः ।।२२३॥ ध्वजा, ऐसी जानने की इच्छारूप-ज्ञान ईहा है । इसी प्रसग में पज्यपादाचार्य सर्वार्थ सिद्धि मे निम्न प्रकाश देते हैं- 'बहिर्वजेषुवर्हालिलीलयोक्षिप्तवहिणः । रेजर्गस्तांश'यथा शुक्लं रूपं कि बलाका पताकेति वा।'-- इसी प्रसंग का सर्पबुद्धयेव प्रस्तकृत्तयः ।। २२४|| को श्रीमदभयदेव सूरि ज्ञान मार्गणा मे मतिज्ञान के हंसध्वजे ध्वभहसाश्चच्या ग्रसितवासस । निजां प्रसावसर पर इस भांति निबद्ध करते है--'अवग्रहण रयन्तो या द्रव्यलेख्यां तदात्मना ।।२२८॥ वेतमिति ज्ञातेऽथ विशेषस्य बलाका रूपस्य पताका 'मृगेन्द्र केतनाग्रेषु मृगेन्द्राः क्रमदित्सया । कृतयत्नाविरूपस्य वा यथावस्थितस्य प्राकांक्षा ।' रेजुस्ते जेतुं वा सुरसागजान् ।।२३१।। उक्त प्रसगों से स्पष्ट है कि उन दिनों ध्वज का श्वेतपही प्रचलित रहा है, जो सहज-स्वभावनः प्राचार्यों के स्थूलमुक्ताफलान्येषां मुखलम्बीनिरेजिरे । गजेन्द्रकंभकथन में पाया और ध्वज की समता श्वेत-बगुली से की संवेदात् संचितानि यशांसि वा ॥२३॥ का रूप श्वेत न होता पीर पंचरणा होता 'उक्षा शृंगाग्रससक्त लंबमानध्वजांशुकाः । रेजुविपक्षमाल शब्द दिया जाता और ना ही बगुली से जित्येव संलब्यजयतना: ॥२३३॥ उसकी समता की जाती। 'उत्पुष्कर. कररूढाध्वजारेजुर्गजाधिपाः । गिरीन्द्र इव प्राचार्य जिनसेन ने ध्वज के श्वेत होने का बारम्बार उल्लेख किया है। जैसे-'यस्याः सीधावलीश्रृङ्गसगिनी कटाग्रनिपतत्पृथु निराः॥२३४॥ केतुमालिका। कैलाशकूटनिपत द्धं समाला बिलंघते।' 'चक्रध्वजासहस्रार: चक्ररुत्सर्पदंशुभिः। बमुनिमता महापराण ४११० ॥ तथा "सितपयोधरा नीलः करीन्द्रः साध स्पर्धा कर्तुमियोद्यता: ।।२३५॥ सितकेतनः। सबलाविनीलाभ्रः संगता इव रेजिरे॥' ~ महापुराण (जिनसेनाचार्य) पर्व २२ -वही १३२५२ -उक्त इलोकों मे ध्वज की समता या उत्प्रेक्षा उस नगरी के बड़े-बड़े पक्के मकानों के शिखरों पर जिनमे की गई है वे सभी श्वेत वर्ण है। यथा- तरंग, फहराती हुई पताकाएँ कैलाश शिखर पर उतरती हुई हंस केंचली, हंगों की द्रव्यलेश्या, ऐरावत या देव-गज, यश, माला को तिरस्कृत करती है। सफेद वादल सफेद पता. जय-विजय, निर्भर, और सूर्यकिरण प्रादि । यदि मूलकामों सहित हाथियों से मिलकर ऐसे शोभायमान हो मस्व.ध्वज अन्य किन्हीं रंगो का होता तो प्राचार्य श्वेत रहे थे मानो बगुला पक्षी सहित काले बादलों से मिल वर्ण की समता न दिखाते । रहे हों। उक्त उद्धरणों से सहज ही जाना जाता है कि ध्वज महापुराण पर्व २२ श्लोक २२३ के पर्थ में श्री पंडित श्वेत होते रहे हैं । केतुमालिका, हंसमाला, सित-पयोघर, पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा है-'ध्वजाएँ सफेद वस्त्रों सित-केतन और बलाका सफेद हैं इसे सहज ही जाना जा की बनी हुई थी।'-उसी प्रकार पर्व १६ के ३८ वें सकता है। श्लोक मे भी श्वेत ध्वज का स्पष्ट उल्लेख है-श्वेतकेतुइसी महापुराण में समवसरण के वर्णन के प्रसंग में पुरं भाति श्वेतः केतु भियततः ॥' पुरम जो उपमाएं ध्वज के लिए दी गई हैं या जो उत्प्रेक्षायें की इस विषय में अन्य उद्धरण भी दर्शनीय है। था 16हा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन य: स्वरूप और परम्परा १. 'तुंग-भवण मणि-तोरणावद्ध-अवल-पय वडुद्धब्यमाण।' इसी प्रकार इस संबन्ध में अन्य प्रमाण भी हैं -कुवलयमाला (उद्योतनसूरि) पृ०७ वो कुन्देन्दु तुषार हार धवलो द्वाविन्दनीलामी । २. 'रवि-तुरय-गमण-संताव-वाय मुह-फेण-पुंज पवलइए। द्वौ बन्धुक सम प्रभो जिन वृषो द्वौच प्रयंगुप्रभो। कोहि-पडागा-णिवहे जा मरुय-चंचले वहई ।' शेषा षोडश जन्म मृत्यु रहिता संतप्त हेमप्रभा-। - वही पृ. ३१ स्ते सज्ञान दिवाकरा सुग्नुता सिद्धिं प्रयच्छन्तु नः ।। ३. 'जाव सुक्किल्ल चामरज्मया अच्छा सहा रुप्यपट्टा 'वे रत्ता वे साँवला बे निलुप्पल वण्ण । वरामयदण्डा ।'-जम्वृदीबपण्णत्ति, सूत्र ७४ मरगज वण्णा वेवि जिण सेसा कंचनवण्ण ॥' मादि पृ० २८६ यदि उक्त माघार को ठीक मान लिया जाय तब ४. 'ते च सर्वेऽपि कथंभूता इत्याह-प्रच्छा प्राकाश प्रचलित किए हुए पंचरंगा ध्वज में काला-नीला दोनों ही स्फटिकवति निर्मलाः, इलक्षण पुद्गलस्कधनिर्मा रग मानने पड़ेंगे पोर प्रचलित ध्वज बिसंगति में पड़ पिता; रूप्यमयो वनमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येपा ते जाएगा क्योकि उसमें इन दोनों रंगों में से एक का ही तथा। वजमयो दण्डो रूप्यपट्ट मध्यवर्ती येषांते ग्रहण है । फिर रंगों के विषय में हरा रंग भी विवाद तथा।' का विषय है, जब कि एक स्थान पर हरे के उद्धरण को -वही, (टीका-वाचकेन्द्र श्री मच्छातिचन्द्र पृ. २६२ स्वीकार किया गया है और एक स्थान पर नहीं। इसके त्रिलोकसार' जी में ध्वजा के लिए अन्य वर्णों का सिवाय ध्वज का प्राचीन प्रचलित एक रूप भी स्थिर न सकेत नही मिलताः अपितु यह अवश्य मिलता है कि- हो सकेगा-वह सदा मस्थिर परिवर्तनशील ही रहेगा तत्कालीन नगरों में एक नगर 'श्वेत-ध्यज' नाम का था। अर्थात तीथंकरों की वद्धि के साथ ही ध्वज के रंग में अन्य बहुत से नगरों के नाम तो है-जो संभवत: उनके बद्धि माननी पड़ेगी मोर पंचरंगी ध्वज की प्राथमिक स्वामियों के चिन्ह से चिन्हित ध्वज का सकेत देते है। प्राचीनता सिद्ध न हो सकेगी। यथा-प्रथम पाँच जैसे-सिंहध्वज नगर, गरुणध्वज नगर आदि। पर, तीर्थंकरों के युग तक पीत ध्वज, छठवें के युग में पीतपीत-ध्वज रक्त-ध्वज नील-वज प्रादि ध्वज जैसे नाम रक्त ध्वज, सातवें के युग में पीत-रक्त-नील ध्वज, पाठ बाले नगर नहीं है। देखें गाथा ६६७। इसी ग्रन्थ की। के युग मे पीत-रक्त-नील-श्वेत ध्वज और वीसवें के युग गाथा १०१० से ये भी स्पष्ट होता है कि-ध्वजों से पीत-रक्त-नील-श्वेत-कृष्ण ध्वज । यदि हरा भी लिया की दो श्रेणियाँ हैं -मुख्यध्वज और क्षुल्लक ध्वज जाय (जैसा कि उल्लेख मिलता है) ता ध्वज पंचरंगा के [इसके संबन्ध मे ऊपर लिखा जा चुका है] मनीषी स्थान में छह रंगा ठहरेगा। इस प्रकार परिवर्तनशील बिचार करें। ध्वज की जैन धर्म जैसी स्थिर प्राचीन एक रूपता नहीं ध्वज के पंचरंगा होने में दूसरी बात कही जा रही मिलेगी और यह प्राचीन-जनधर्म जैसा प्राचीन, ध्वज है तीर्थंकरों के शरीर के वर्ण के प्रतिनिधित्व की। नही ठहरेगा मपितु परिवर्तनशील सामाजिक-ध्वज ही यतः ठहरेगा। 'पउमप्पह वसुपुज्जा रत्ता धवला हु चंदपह सुविही। ध्वज के पंचरंगा होने में तीसरी बात पंच-परमेष्ठियों णीला सुपास पासा णेमी मुणिसुब्बया किण्हा ॥ की प्रतिमाओं के रंगों की दृष्टि से कही जा रही है। सेसा सोलह हेमा...' ......त्रिलोक सार ८४७ श्वेताम्बर अथ 'मानसार' में लिखा है कि-पाचों - पद्मप्रभ, वासु पूज्य लाल वर्ण, चन्द्रप्रभ, सुविधि परमेष्ठियों की पांच प्रतिमाएँ यथाक्रम से इन वर्गों की धवलवर्ण, सुपावं, पावं नीलवर्ण, नेमि, मुनिसुव्रत होती हैं-१ स्फटिक (धवल) २ अरुणाम, ३ पीलाम, कृष्णवर्ण और शेष सोलह तीर्थकरपीतवर्ण के हैं। ४ हरिताभ, ५ नीलाम । तथाहि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४, वर्ष ३०, कि० ३-४ 'स्फटिक श्वेत रक्तं च पीत श्यामनिमं तथा। इसमें पर भी यदि कही कुछ प्रतिमाएं प्राचार्य, एततपंचपरमेष्ठि पंचवर्ण यथा क्रमम् ॥' उपाध्याय या साधुषों की मिलती हों तो उन्हें नबीन के उक्त मान्यता श्वेताम्वर रीति में है। दिगम्बर संदर्भ में ही लिया जायगा । ऐसी अवस्था में ध्वज में मान्यतानुसार तो सिद्ध अशरीरी हैं प्रतः यदि उनकी इन तीन परमेष्ठियों की प्रतिमानों के रंगों की कल्पना, प्रतिमानों की कल्पना भी की जाएगी-(जैसा कि प्रचलन कोरी कल्पना मात्र ही कोरी कल्पना मात्र ही है-तथ्य नहीं। भी है) तो वह भी निराकार-अशरीरी रूप में ही की जाएगी और कोई भी रंग न होगा। ऐसे में उनका रग कुछ ऐसे प्रमाण भी है जिनसे गुरुपों की मूर्ति केन लाल मान लेना सिद्धान्त का व्याघात करना होगा। हा के होने की बात और इनकी (छतरी) तथा चरण-स्थापना इसके सिवाय-प्राचार्य, उपाध्याय और साथ की प्रतिमानों आर पूजा की परम्परा सिद्ध होती है तथा के रंगों को क्रमशः पीताम, हरिताभ और नीलाभ मानना 'प्राचार्यादि गुणान् शस्य सतां वीक्ष्य यथायुगम् । भी दिगम्बर माम्नाय के विरुद्ध है जब कि सिद्धान्ततः गुर्वादः पादुके भक्त्या तन्यास विधिना न्यसेत् ॥'और पागमों व प्राचीनतमत्व की अपेक्षा इनकी -प्रति सारोद्धार ६३६ मूतियों का विधान ही सिद्ध नहीं होता। दिगम्बर परम्परा में पूर्ण वीतरागता की पूजा के उद्देश्य से महन्तों की घटयित्वा जिनगृहें तत्प्रतिष्ठा महोत्सवे । प्रतिमामों का विधान है और वीरागता के कारण सिद्धों निधिको प्रतिष्ठाय रक्षकांगो जनावनी ।।६।३७ का भी समावेश किया गया है। जहाँ तिल तुष मात्र 'वात्वा यथास्वं गुर्वादीन्यस्येत्तत्पादुका युगे। भी अन्तरंग बहिरंग परिग्रह है वहां जिन-रूप की कल्पना निषेषिकायां सन्यास समाधिमरणादि च ॥ नहीं है। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों ही श्रेणियां -वही १०८१ साधक की श्रेणियां है-पूर्ण वीतरागत्व की श्रेणियां नहीं। यही कारण है कि लोक मे जितने अकृत्रिम तेषां पदान्जानि जगडितानां वचो मनोमूर्धसु धारयामः ।। चैत्यालय है उनमें इनके विम्बों के होने का उल्लेख नहीं (प्रति० सा० सं०) है। शास्त्रों और लोक में भी जिन-मदिरों का चलन 'तुम्हं पायपयोतहमिह मंगलस्थि मे णिच्चं ।'-माचार्यभक्ति पाचार्य. उपाध्याय या साधु के मन्दिरी का विधान तेषां समेषां पदपंकजानि ....... ॥ प्रति. तिलक।। मी गौतम, सघर्मा जैसे गणधरों और जम्बू स्वामी ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र पवित्रतरगावचतुर भी चरण ही पूजे जाते रहे हैं। यद्याप कवला शोतिलक्ष गणगणधरचरण मागच्छत २...............। होने के बाद इनकी प्रतिमाएं बनाने में कोई प्रापत्ति नहीं। प्रतिष्ठा तिलक ॥ पूर्ण वीतरागी होने से सिद्ध परमेष्ठी को मन्दिरों में स्थान दिया गया है-उनको निराकार स्थापना की जाती इसके अतिरिक्त प्रतिष्ठासारोद्धार के निम्न पाठ भी है। मागमों में पसंख्यात प्रक्रत्रिम चैत्यालयों का वर्णन मायालयों का वर्णन चरण पूजा में स्पष्ट प्रमाण हैं। इसका निष्कर्ष ये हैं कि है वहाँ भी परहन्तों की मूर्तियों का ही विधान है-प्राचार्य प्राचीनतम युग में मुनि की मूर्तियां नहीं होती थीं अपितु उपाध्याय और साधूमों की मूर्तियों का नहीं। त्रिलोकसार उनके चरणों की ही स्थापना का विधान था। तथाहिमें भी मात्र परहंतों व सिद्धों की प्रतिमानों के होने का (गुरुपूजा से-) उल्लेख हैं-प्राचार्य उपाध्याय और साधु की प्रतिमानों 'तेषामिह गुणभृतां भानुचरणाः॥का नहीं। तथाहि 'कम भुवि गुरुणा प्रणिदधे ॥''बिन सिद्धाणं पटिमा प्रकिट्टिया किट्टिमा दु पदिसोहा। 'भवांभोधेसेतूनृषिवृषभपावान् ॥'रयणमया हेममया रुप्यमया ताणि वंदामि ॥१०१॥' 'माचार्यचरणानुपस्कुर्मो ॥, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन वन: स्वरूप और परम्परा 'मुनिपरिवृढ़ाघ्रीनवहतः ॥ श्री नानक चन्द खातौली का एक लेख प्रकाशित हुमा है। चरणकमलान्यार्य महताम् ॥' उसमें कुछ अंश निम्न प्रकार हैचरणघरपोरेयचरणान् ॥' 'हमें प्रतिमा का उल्लेख दो रूपों में मिलता है गणिचरणापीठाचरणीम् ॥' प्रकृतिम मौर कृत्रिम-नीचेभूलोक में, यहाँ मध्य लोक 'सूरिकमसरसिजोत्ताररुचिम् ॥' में, ऊपर देव लोक में । जितने भी प्रकृत्रिम चैत्यालय हैं 'विधिकृताराधनाः पारपद्याः ॥' उन सब में प्रकृत्रिम प्रतिमायें ही विराजमान हैं। गुरु की मूर्ति के निर्माण के संबंध में श्वेताम्बर ति० म० से ज्ञात होता है कि ये सब प्रतिमा प्रष्ट प्रातिविद्वानों के जो विचार हैं उनसे यह पाठवीं शताब्दी से हार्य सहित परहंतों की होती हैं-इस युग की मादि में पूर्व नहीं जाती। और यदि उत्खनन में कोई प्राचीन सौधर्मेन्द्र ने अयोध्या में मंदिर बनाए (पादि०१६-१५०) मति मिलती भी हो तो भी उन्हें हम जैन-ध्वज के समान इनमे प्रकृत्रिम प्रतिमाएं हो विराजमान की। भरत जी प्राचीनत्व नही दे सकते-यतःधर्म का ध्वज तो सदा से ने २४ मंदिर बनवाये (पदम०) उनमें ७२ प्रतिमाएं ही रहा है जबकि प्राचार्यादि की मूर्तियाँ की उपलब्धि निर्माण करवाई (उत्तर० ४८.७७) ये सब परहंतों को किसी बंधे निश्चित काल से ही हो रही है। थी--प्रतिमा तीथंकरों की बनाई जाती हैं (31. पन्ना लाल) प्रारंभ में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनती थी (देवगढ़ 'ग्यारहवी शताब्दि के बाद तो प्राचार्य व मनियों की जैन कला ७१) मूर्तियां देवों की बनती हैं देव होते है की स्वतत्र मूर्तियां बनने लगी थी। उपर्युक्त पंक्ति सूचक प्ररहत और सिद्ध । अकित लेख में उल्लिखित नाम से ही काल के बाद जिन जनाधित मूर्तिकला विषयक ग्रथों का तीर्थकर की पहचान होती थी (जैन सदेश-शोधांक) निर्माण हुमा उनमें प्राचार्य मूर्ति निर्माण करके किंचित प्रकाश डाला गया है।'--'गुरु मूर्ति का शास्त्रीयरूप प्राचार्य उपाध्याय पोर मुनियों को मूर्तरूप देने का विषान जैन प्रतिमा शास्त्र में नहीं मिलता है।'निर्धारित न होने के कारण उनके निर्माण में एकरूपता नहीं रह सकी है।'-खंडहरों का वैभव (मुनि कान्ति 'मुनि अवस्था की मूर्ति बनती नहीं है।'सागर) पृ०४८-५० । ऊपर दिए गए सभी प्रसंगों से पंचरंगे ध्वज का रूप जैन-धर्म जैसा प्राचीन नहीं ठहरता। अतः यह मानना 'पाटवी शताब्दी से गुरु मूर्तियां मिलने लग गई है। ही श्रेयस्कर है कि यह पंचरंगा ध्वज जैनधर्म का प्राचीन ११वी के बाद अधिक मिलती हैं। पहिले गणधरों मादि ध्वज नहीं, अपितु सर्वसम्मत सामाजिक ध्वज है जो वीर के स्तूप बनते ही थे। स्तूप ही मूर्ति में विकसित हो गए। निर्वाण के २५००वें वर्षोल्सव प्रकाश में भाया। 000 अगर चन्द जी नाहटा (१७-१२-७७) वीर सेवा मन्दिर इसके अतिरिक्त दिनांक १२-१-७७ के जैन संदेश में २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की प्राचीन रत्नमयी प्रतिमायें : विविध सन्दर्भ 0 श्री दिगम्बरवास जैन, एडवोकेट, सहारनपुर जैन वाङ्मय के विभिन्न ग्रन्थरत्नों में जैन तीर्थंकरों प्राप्त कर लेते हैं, कर पाते हैं। की भनेकानेक कृत्रिम और प्रकृत्रिम रत्नमयी बहुमूल्य -जयमालपंचमेरु पूजा प्रतिमानों के विविध सन्दर्भोल्लेख प्राप्त होते हैं। जिनमें ३. प्रारम्भिक कृषिकाल में स्वर्ग के इन्द्र ने चार भयोध्या कतिपय विशेष उल्लेखनीय हैं जी के चारों कोनों पर और एक बीच में भरहन्तों १. नंदीश्वर द्वीप मे भरहंतों के बावन प्रकृत्रिम चैत्या के पांच जैन मन्दिर निर्माण किए और उनमें रत्नों लय हैं। प्रत्येक में विशाल रत्नमयी प्रकृत्रिम परहंत की प्रत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा स्थापित की। भगवान की प्रतिमायें अनादिकाल से ऐसी मनोज्ञ हैं -हरीवंश पुराण कि जिनकी वन्दना का गौरव केवल स्वर्ग के सम्यग. ४. भरत चक्रवर्ती ने कृषिकाल मे प्रथम तीर्थंकर ऋषभ. दृष्टि देव ही कर सकते हैं । यदि उनके साथ कोई देव से चौबीस तीर्थंकरों के गुण सुनने से प्रभावित मिध्यादृष्टि देव चला जावे तो वह भी सम्यग्दृष्टि होकर ऋषभदेव को निर्वाणभूमि कैलाश पर्वत पर हो जाता है, इतनी अतिशयपूर्ण है। २४ तीर्थकरो के अलग अलग रत्नमयी मन्दिर बन__-- जयमाल नन्दीश्वर दीपपूजा वाये और उनमे रत्नों की चौबीस तीर्थंकर प्रतिमायें स्थापित की। २. पंचमेरु पर ५२ प्रकृत्रिम चैत्तालय हैं जिनमें रत्न दूसरे तीर्थकर अजितनाथ के तीर्थकाल में विश्व. मयी अत्यन्त मनोज्ञ प्रहन्तों की प्रकृत्रिम प्रतिमायें सम्राट सगर ने अपनी राजधानी में तीर्थकरों के हैं, जिनकी वंदना केवल स्वर्ग के देव, चारण मुनि व सोने के मन्दिर बनवाकर हीरों की प्रतिमायें विराजप्राकाशगामिनी विद्या के घारी विद्याघर तथा वे मान की। धर्मात्मा मनुष्य जो उनके साथ जाने का अवसर ६. राव ने लका में अपने महल में तीर्थकर शान्तिनाथ १(क) On Asta Pada (Kailash) mountain made images and used to warship them Risabha attained Nirvan. Near His and the 2nd universal monarch Sagar cremation ground Bharat (Universaj also warshipped these 24 Tirthankaras. King at whose name our country is -Maha Puran. called Bharat) created temples of Jewelled slabs with statues of 24 Jinas (Tir. १(ग) All knowing Risabha predicated birth thankaras). Dr. U. P. Shah : Studies in of 24 Tirthankaras before their advent Jaina Art. P. 216. centuries before. Consequently, Bharat १(ख) The first universal monarch Bharat after the paramount monarch first got cons as certaining accounts of 24 Tirthankaras tructed images of all the 24 Tirthankafrom the ominiscient Tirthankaras Ri- ras on the summit of Mount Kailas in sabha constructed 24 Jaina temples, one Hamalaya-v.0.A. Vol.x, Vol.x (1960) of each 24 Tirthankaras with their Jewel P. 305. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु क्या है ? श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली बस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है अथवा द्रव्य-पर्याय संयोगी भी नही है । वह तो हर हालत मे एक है, अकेला रूप होती है। वस्तु का एक सामान्य स्वरूप होता है जो है, सबसे भिन्न है अपने मे है, 'पर' रूप नहीं है। जैसे सोने त्रिकाल होता है, ध्रुव होता है। वस्तु किसी अवस्था मे, का बना हुमा जेवर है। सोना जेवर रूप है। जेवर सोने किसी रूप में, किसी सयोग में क्यों न रहे वह सामान्य को छोड़ कर नहीं है । जहाँ जेवरपना है वहाँ स्वर्णपना स्वरूप बराबर, हरदम एकरूप रहता है। उसी से उम है। एक समय में है, फिर भी दोनों का लक्षण अलगवस्तु की पहचान होती है। उसे सामान्य स्वरूप या अलग है । स्वर्णपना अपने स्वर्णत्व को लिए हुए है, हमेशा कालिक स्वरूप कहते है। इसी से वस्तु का वरतुत्व स्वर्णपने मे है । अगर वह चाँदी से मिला है तो भी स्वर्णकायम होता है। दूसरी उस वस्तु को समय-समयवर्ती पना स्वर्ण मात्र में है, चांदी में स्वर्णपना नही है। जेवर अवस्था होती है । वह प्रनित्य होती है। पर' से संबंधित को देखें तो वह चादी के योग से बना है। बदल कर होती है। यद्यपि वह भी वस्तु की अवस्था है, परन्तु उससे अन्य रूप हार या कड का रूप भी हो सकता है। सुनार वस्तु का निर्णय नहीं होता । वह परिवर्तनशील है। जैसे का सबन्ध भी है । सुनार का सम्बन्ध जेवर के साथ है। मनुष्य में एक मनुष्यत्व सामान्य धर्म है। वह सभी वह जेवर बनाने में सहायक बना है परन्तु स्वर्ण के स्वर्णमनुष्यों में मिलता है । उससे यह पहचान होती है कि वह पने मे वह सहायक नही है । जब जेवर बेचने को जाते है मनुष्य है । परन्तु वह मनुष्य वालक, जवान, वृद्ध मादि तो लेने वाले की दृष्टि सोने पर है और सोने के दाम अनेक परिवर्तित अवस्थामो मे रहता है। सुन्दर, कुरूप, देता है । परन्तु अगर पहनने वाले के पास जाये तो उसकी पागल, अपाहिज मादि भनेक अवस्थायें होते हुए भी हर दृष्टि जेवर पर है । वह उसकी सुन्दरता, असुन्दरता को प्रवस्था में प्रगर खोजा जाए तो मनुष्यपना दृष्टिगोचर देखता है। जेवर को सामने रखने पर दो वष्टिया बनती होता है । मनुष्य मनुष्यपने को कायम रखते हुए बालक से है-एक जेवर की सुन्दरता की पोर दूसरी स्वर्ण के जवान और वृद्ध हो रहा है परन्तु हर अवस्था में मनुष्यपना स्वर्णपने की। इससे सिद्ध होता है कि वस्तु एक दृष्टि कायम है । उसको छोड़कर बालक-वृद्धपना नही । मनुष्य- का विषय नहीं, पूरी वस्तु को समझने के लिए दोनों स्व अगर मिलेगा तो इन अवस्थामों मे ही मिलेगा। दष्टियों की जरूरत है, अथवा यह कहना चाहिए कि इस प्रकार से यह बात बनी कि भनेक प्रकार की एक दृष्टि दूसरी दृष्टि की पूरक है, निषेधक नही। पक्स्थायें अवस्थावान् के बिना नहीं और अवस्थावान इसलिए वस्तु को मात्र एक दृष्टि रूप ही मानने वाले ने अवस्थामों के बिना नही। दोनों बातें एक ही समय मे पूरी वस्तु का पूरा स्वरूप नहीं समझा। है, मागे पीछे नही। कहने में शब्दो में प्रागे पीछे कही इसी प्रकार से प्रात्मा के बारे में विचार किया जा जा सकती है। पूरी वस्तु को समझने के लिए प्रवस्थावान् सकता है। एक तो प्रात्मा का कालिक स्वरूप है जो, पौर प्रवस्थायें दोनों को जानना जरूरी है। अगर हम पात्मा चाहे किसी अवस्था मे क्यो न रहे, हमेशा, सभी एक को मुख्य करके कथन कर रहे है तो समझना चाहिए अवस्थानों में कायम रहना और जो हमेशा, एकरूप, कि दूसरा विषय है जरूर, परन्तु कहने वाले का प्रयोजन केला, 'पर' से रहित, त्रिकाल, ध्रौव्य वस्तु स्वरूप को अभी उससे नहीं है। दिखाने वाला स्वरूप है । वह उस प्रात्मा का चैतन्यपना अवस्थावान् तो किसी से भी प्रभावित नहीं है और है, ज्ञायकपना है अथवा ज्ञातादृष्टापना है। चतन्य अनेक Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२, वर्व ३०, कि०३.४ अनेकान्त प्रकार की प्रवस्थानों को प्राप्त हो रहा है। जैसे नाटक कर एक गोली बनाई गई है। वह गोली क्या है ? गोली में काम करने वाला अपने एकपने को कायम रखते हुए का अलग अस्तित्व नहीं, उन भनेक दवाइयों के समुदाय अनेक स्वांगों को प्राप्त होता रहता है। स्वांग बदलते का नाम ही गोली है। ऐसे ही मात्मा अनेक गुणों का हैं और वह वहीं एकरूप से, सब स्वागों में उपलब्ध समुदाय रूप है पोर हर एक गुण प्रपना कोई न कोई होता रहता है। वहां दो रूपता का ज्ञान होता है-एक तो गुणत्व कायम रखते हुए किसी अवस्था को प्राप्त हो यह वही है जो पहले स्वाग में था और दूसरा, यह स्वांग रहा है। वे अवस्थाएं उस गुण को अपने गुणपने को दूसरा है और पहला स्वांग दूसरा था। सर्व प्रकार के बिना छोड़े हुए है : वे उस गुण से अन्य गुणरूप नहीं हो स्वांगों में जो वही-वही का ज्ञान हो रहा है । वह वस्तु के सकतीं । कोई गुण कम विकसित है, कोई पूरा विकसित सामान्य धर्म का अथवा वस्तु के वस्तुत्व का अथवा वस्तु है। जैसे कल्पना करें कि श्राम नाम की वस्तु है, उसमें के द्रव्यत्व का बोधक है, और यह वह नहीं, यह अन्य है, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण गुण है। वह पाम उन स्पर्श-रस-गंधपहने अन्य था । यह अन्य-अन्यपने का जो ज्ञान हो रहा है वर्ण गुणों का पिण्ड है । इनको छोड़कर पाम कुछ अन्य वह वस्तु के पर्याय-धर्मत्व का प्रथवा विशेष स्वरूप का नही है। अब ग्राम का स्पर्श गुण कठोर अवस्था को प्राप्त बोधक है। यह दो रूपपने का ज्ञान होना ही साबित कर रहा हो रहा है, फिर बदली होने-होते वही स्पर्श गुण, अपने स्पर्शहै कि उसमे दो प्रकार का धर्म है : एक द्रव्यरूप और एक पने को कायम रखते हुए, स्पशंपने के अन्तर्गत, कठोर से पर्याय रूप । पर्याय माने जो समय-समय पर परिवर्तनशील नम्र अवस्था को बदल रहा है। रम गुण भी अपनी हो- चाहे अन्य रूप हो, चाहे उसी रूप हो। जैसे अवस्था में विद्यमान रहते हुए खट्टी से मीठी अवस्था को बिजली का बल्ब जल रहा है, हमें मालूम होता है कि वह प्राप्त हो रहा है। गंध गुण भी इसी प्रकार से एक-एक एक रूप से जल रहा है परन्तु हर समय के बिजली के अवस्था से अन्य अवस्था रूप परिवर्तित हो रहा है। वर्ण यूनिट भिन्न-भिन्न है। पहले समय के यूनिट दूसरे से, गुण भी हरेपने से पीलेपन को प्राप्त हो रहा है । यह हरे दूसरे समय के तीसरे समय से अन्य है। इसलिए भिन्नता से पीलापन एक रोज मे नही हुमा, परतु हर समय मे होने पर भी एक रूपला मालम हो रही है। अगर बीच हरापना मी परिवर्तित होता जा रहा है। सूक्ष्म परिवर्तन में ज्यादा और कम प्रकाश हो जाए तो पहले और दूसरे हमे दिखाई गहीं देता, जब बड़ा परिवर्तन हो जाता है तो समय में भिन्नता पकड़ मे प्रा जायेगी। इसी प्रकार, यह वह पकड़ में आने लगता है। परन्तु वह हुमा है क्रमशः मात्मा भी एक वस्तु है और वह भी अपने वस्तुत्व को हर एक समय ही। इस प्रकार, जो ग्राम के गुणों का कायम रखते हुए प्रतेक प्रवस्थानों को प्राप्त हो रही है। प्रवस्थान्तर हो रहा है, उन अवस्थानों को उन-उन गुणों अगर उन अवस्थाओं मे उस एक को खोजें तो वह एक- की पर्याय कहते है। पर गुण कोई न कोई अवस्था रूप से सब अवस्थानों में मिल रहा है और अवस्थामो लिए हुए ही मिलेगा और किसी वस्तु के किसी गुण का को देखे तो सब भिन्न-भिन्न मालम हो रही है। अगर कभी प्रभाव नहीं हो सकता। अगर गुणो का प्रभाव भगले समय की अवस्था पहले समय जैसी मालम हो रही होने लगे तो वस्तु का ही प्रभाव हो जाएगा। यह तो है तो या तो मोटे ज्ञान की वजह से है अथवा पहले समय गुणों की अवस्थाम्रो में परिवर्तन हुमा। एक परिवर्तन स समानता लिए हुए है इसलिए मालूम हो रही है। परन्तु होता है पूरी वस्तु मे, जैसे पाम का छोटे माकार से बड़ा है पहले समय से भिन्न । प्राकार का होना, वह पूरे माम मे हमा है। इससे पह हरेक वस्तु मे अनेक गुण होते है । प्रसन मे गुणों के साबित हुया कि हरेक वस्तु प्रनत गुणों का पिण्ड है और पिण्ड का नाम ही वस्तु है। ऐसा न समझना कि वस्तु हरेक गुण, हर समय किसी न किसी भवस्था को प्राप्त हो कोई थैले के समान है और गुण उस थैले मे भरे हुए है, रहा है मोर उन अवस्थामों और सारे गुणों के पिण्ड का परन्तु ऐसा समझना जैसे अनेक दवाइयों को कूट-पीस नाम वस्तु है और वह भी एक अवस्था से अन्य अवस्था को Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु क्या है? प्राप्त हो रही है। मात्मा दुःखी होती है इसलिए विकार का प्रभाव करना माम के स्पर्श-रस-गंध-वर्ण प्रादि सब गुणों का कार्य इष्ट है। संसारी प्रात्मा मे विकारी परिणमन रहता है भिन्न है इसलिए वे गुण भी भिन्न-भिन्न है । परन्तु और शुद्ध प्रात्मा याने परमात्मा में स्वाभाविक परिणमन प्रगर हम चाहें कि किसी गुण को भाम से अलग कर लें होता है। तो वह अलग नहीं हो सकता। मलग जाना जा अभी संसार में हम विभाव रूप परिणमन कर रहे है सकता है। उसी प्रकार से किसी भी वस्तु का कोई गुण जिससे हम दुःखी है। इसका कारण यह है कि हमने सामान्य उससे अलग नहीं किया जा सकता, परन्तु अलग-अलग स्वरूप को भूल कर परापेक्ष पर्याय स्वरूप में अपना निजजाना जा सकता है। माम के एक इंच के टुकड़े में भी पना माना है । अगर हम निज द्रव्य स्वभाव का, सामान्य स्पर्श-रस-गंध-वर्ण सब उपलब्ध होते है, यद्यपि घाम एक म्वरूप का, आश्रय ले, उसमे अपनापन निश्चित कर, प्रखण्ड वस्तु है। वह तो अंतत: पुद्गलों का पिण्ड है। उमका निजरूप अनुभव करे तो पर्याय का विकार दूर हो इसी प्रकार से वस्तु में भी वस्तु के एक छोटे से छोटे प्रश कर स्वभाव रूप परिण मन होने लगे और जीव शुद्ध की अलग कल्पना की जावे तो उसमे भी वस्तु के सर्वगुण होकर क्रम से परमात्मा अवस्था को प्राप्त हो। अशुद्ध उपलब्ध होग, यद्यपि वस्तु का एक प्रश अलग नही किया विकारी पर्याय का आश्रय लेने से, उसमे महम् बुद्धि जा सकता है क्योंकि वस्तु प्रखण्डरूप है। यह बात चैतन्य रखने से उसको अपने रूप अनुभव करने से विकार बढ़ेगा पीर पुद्गल दोनों में लागू होती है। पौर गुर्गों का विकास कम होने लगेगा। द्रव्य स्वभाव का प्रात्मा भी अनन्त गुणों का पिण्ड है--उन्हे गुण कहो प्रथवा अपने स्व का प्राश्रय लेने से पर्याय का विकार या धर्म कहो। उनमे कुछ गुण सामान्य है जो जीव में भी दूर होगा और गुणों का पूर्ण विकास होगा। पर्याय रूपता मिलते है और अजीव में भी मिलते है। कुछ गुण विशष भी हमारे पास है द्रव्य स्वरूप भी हमारे पास है और हमें है जो खास उसी जाति की वस्तु में मिलते है। प्रात्मा में ही अपने द्रव्य स्वभाव रूप अपने को देखना है। हम दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य प्रादि विशेष गुण है । वह उमी में चाहे तो अपने को अपने द्रव्य स्वभाव रूप देख सकते उपलब्ध है और द्रव्यत्व-प्रेमवत्व-वस्तुत्य आदि जो है हम चाहे तो अपने को विकारी पर्याय रूप देख सामान्य गुण है वे अन्य वस्तुओं में भी है। इसी प्रकार सकते है। दोनों देखने में 21 : से यह प्रात्मा अनन्त गुणों का पिण्ड रूप एक अखण्ड स्वाधीनता है । अपने को विकारी पर्याय रूप अथवा पर दृष्य है और हर समय उसके हर गुण में परिणमन हो रूप तो देख ही रहे है और उसका फल संसार है, दुख है। रहा है। पहली भवस्या का त्यय होता है, दूसरी अवस्था अगर अपने को निज स्वभाव रूप देखे व अनुभव करे का उत्पाद होता है और वस्तु, वस्तु रूप से ध्रुव रहती तो पर्याय की अशुद्धता मिटकर गुणों का पूर्ण विकास हो जावे । जब हम अपने को पर रूप देख सकते है तो निज मात्मा के गुणों का दो प्रकार का परिणमन होता है, रूप देखना क्यों मुश्किल हो रहा है। परन्तु हम निज रूप एक-स्वाभाविक और दूसरा-विकारी। यद्यपि परिण मन देखना नहीं चाहते । आजतक निज रूप देखने का कभी करने की शक्ति वस्तु को प्रपनी है परन्तु स्वाभाविक परि- पुरुषार्थ ही नही किया। इससे मालूम होता है कि हमने णमन 'पर' निरपेक्ष होता है और विकारी परिणमन 'पर' ससार का और दुःख का चुनाव किया है, हम परसाक्षेप होता है । प्रात्मा में राग-द्वेश, क्रोध-मान- मात्मा बनना नही चाहाते । अपने को पर रूप देखना माया-लोभ रूप जो परिणमन है वह विकारी है और यही ससार है । अपने को अपने रूप देखना यह मोक्ष का उससे पात्मा दुःखी है। प्रात्मा का केवल ज्ञान, केवल मार्ग है, यही प्रानन्द का मार्ग है। 000 दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप जो पमिणमन है वह स्वाभाविक है, क्योकि विकारी परिणमन होने पर सन्मति- विहार, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मचक्र 0 ना. गोपीलाल अमर धर्म एक भाव है। चक्र उसका दृश्य प्रतीक है। हजार प्रारों के नाम पर, एक-एक दिन छोड़कर एक मनुष्य का यंत्र-कौशल चक्र से प्रारम्भ होता है। चक हजार उपवास करने होते हैं । इससे यह व्रत २००४ दिन स्वयं गतिमान् है और गतिदायक भी। वह प्रकृति के प्रर्थात् साढ़े पांच वर्ष में पूरा होता है। निक्ट भी है और कला का प्रेरक भी। उसमें अलंकरण धार्मिक अनुष्ठानों में जो यंत्र स्थापित किये जाते हैं फबता है। उसके रूप भी अनेक हो सकते है। इसीलिए उनमे ये भी होते हैं : दशलाक्षणिक धर्मचक्रोदार, रत्नत्रय उसे धर्म का प्रतीक बनाया गया होगा। चक्र, शान्तिचक्र यंत्रोद्धार, षोडशकारण धर्मचक्रोद्धार, तीर्थकर के पाठ महा-प्रातिहायों मे धर्मचक्र पांचवां लघु सिद्धचक्र, बृहत् सिद्धचक्र, सुरेन्द्रचक । है। यह विहार के समय तीर्थंकर के आगे-पागे चलता है। धर्मचक्र के प्रारों को सख्या भिन्न-भिन्न मिलती है। तरु प्रसोक के निकट मे, सिंहामन छविदार । पाठ पारे श्रावक के, पाठ मूलगुणों के, या प्रष्ट कर्मों के, तीन छत्र सिर 4 लसें, भामंडल पिछवार ।। या पाठ दिशामों के प्रतीक हो सकते हैं। सोलह मारे धर्मचक्र प्रागे चले, पुष्पवृष्टि सुर होय । षोडशकारण भावनाओं के प्रतीक हो सकते है जिनसे ढोरै चौसठ चमर जब, बाजे ददुभि जोय ।। तीर्थकरत्व प्राप्त होता है । चौबीस पारे चौबीस तीर्थंकरों तीर्थकर समवसरण मे एक पीठिका पर पाठ मंगल के सूचक माने जा सकते हैं। पारो की संख्या बारह द्रव्य स्थापित होते है। इनमें एक धर्म चक्र भी होता है। बत्तीस प्रादि भी हो सकती है। इसे यक्ष जाति का देव अपने मस्तक पर धारण किये विष्णु के हाथो मे शख, गदा और कमल के साथ खड़ा रहता है। इसके एक हजार पारे होते है। उनमें चक्र भी होता है । बुद्ध के पश्चात् पाच सौ वर्ष तक रत्न जड़े रहते है। उनकी मूर्ति नही बनी, तब चक्र भी उनके प्रतीकों के रूप चक्रवर्ती के चौदह रत्नो मे सुदर्शन-चक प्रथम है। में पूजा जाता था। उनकी मूर्तियों पर भी धर्मचक्र बनाया इस प्रायुध से शत्रुओं का संहार किया जाता है। शस्त्ररूपी गया। तीसरी शताब्दी ई० पू० मे मौर्य सम्राट अशोक चक्र यदि एक छोर पर है तो मानवता के कल्याण का ने सारनाथ के स्तम्भ पर धर्मचक्र स्थापित किया था। प्रतीक धर्मचक्र दूसरे छोर पर है। यही धर्मचक्र आज भारत सरकार का राष्ट्रीय प्रतीक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की शासनदेवी या यक्षी बनाया गया है। भारत के बाहर भी प्राचीन कला मे चक्र चक्रेश्वरी है। यह गरुड़-वाहिनी गौरागी देवी पाठ हाथो का प्रकन मिलता है। में पाठ चक्र धारण करती है। चक्र धर्म का प्रतीक है, प्रात्म-साधन का माध्यम है, तीर्थकर मूर्ति के सिंहासन पर मध्य मे धर्मचक्र अंकित किन्तु वह मानव-कल्याण का प्रतीक भी बन चुका है। किया जाता है। यह प्रथा ईसा से दो-तीन सौ वर्ष पूर्व धर्मचक्र का प्रवर्तन मानवता के लिए सुख और शान्ति का मथुरा की कला में भी प्रचलित थी। पटना के समीप सन्देश है, तभी तो कहा गया है: चौसा से प्राप्त कांस्य प्रतिमाओं में एक चक्र भी है। इसके क्षेमं सर्वप्रजानां, प्रभवतु बलवान् धामिको भूमिपालः, साथ एक प्रशोक वृक्ष भी प्राप्त हुआ है । इससे प्रतीत होता काले काले च सम्यग् वर्णतु मघवा, व्याधयो यान्तु नाशम् । है कि ये दोनों प्रष्ट-महाप्रातिहार्यों के प्रतीकों में से हैं। दुभिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके, धर्मचक्र नाम का एक प्रत भी होता है। इसके एक जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रसरतु सतत सर्वसौख्यप्रदायि । 000 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीबंकरों की प्राचीन प्राचीन रत्नमयी प्रतिमायें :विविध सन्दर्भ का स्वर्णमयी मन्दिर बनवाकर शांतिनाथ की रत्न- १६. अमरावती के सोमेश्वर चौक के जंन मन्दिर मे मयी प्रतिमा विराजमान कर रखी थी। रत्नों की प्रतिमा है। -प्राचार्य रविसेन : पद्मपुराण पहिसावाणी, मार्च १९७०, पृ०८० ७. महाराजा श्रेणिक-बिम्बसार की पट्टरानी चेलना ने १७. देहलो दि जैन नये मन्दिर, धर्मपुरा में स्फटिक, रत्नों की मूर्तियां स्थापित करायी। नीलम मरक्त, रत्नो प्रादि की १०५२ ई० हो यसल - श्रेणिक चारित्र वंशी सम्राट् विनयदित्य के राजकाल की प्रतिष्ठित ८. चन्द्रगुप्त मौर्य ने तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमायें है। मूति रस्न को बनवाई। -देहली जैन डायरेक्टरी पृ० २८ -जन मूर्तियों का प्राचीन इतिहास १८. देहली दि० जैन बड़ा मन्दिर कूचा सेठ मे ऋषभदेव, ६. सोलकीवंशी सम्राट कुमारपाल ने अनेक जैन मन्दिर मल्लिनाथ, वासपूज्य, शातिनाथ, कुंथनाथ, अरहनाथ बनवाकर उनमे हीरे-पन्ने भादि की मूर्तिया स्थापित की। स्फटिक मादि बहुमूल्य पाषाण की कई प्रतिमाये हैं। यथापूर्वोक्त -- देहली जैन डायरेक्टरी १० ३० । १०. मौर्य सम्राट सम्प्रति ने अपने राज्य मे अनेक जैन १६. देहली की मस्जिद खजर गली का जैन मन्दिर मुगल मन्दिर बनवाकर हीरे-पुखराज, रत्न और स्वर्ण की सम्राट् मोहम्मद शाह के सेनापति का बनवाया हुमा प्रतिमायें विराजमान की। - यथापूर्वोक्त है जिसमे कई प्रतिमायें रत्नों की है। ११. हश्चिमीय चालुक्य वंश के महाराजा तेलप के सेना --देहली जन डायरेक्टरी २७ पति मल्लप की पुत्री प्रतिमव ने तीर्थकरों की सोने- २०. देहली मोडल बस्ती जैन मन्दिर मे अष्टधातु मति चांदी को हजारो मूर्तियाँ बनवाकर स्थापित की। है जिसमें स्वर्ण ही अधिक मात्रा मे है । -सक्षिप्त जैन इतिहास, भाग ३, खण्ड ३, पृष्ठ १५७-५८ -देहली जैन डायरेक्टरी पृ० ३३ २१ अचलगढ़ (प्राबु, राजस्थान) मे ११४० मन की १२. मूड बद्री (मैसूर) के जैन मन्दिर मे आज भी एक १२० पंचधातु की प्रतिमाये है जिसमें अधिक मात्रा चाँदी की, तीन स्वर्ण की, ६ स्पटिक की, ७ पन्ने में स्वर्ण ही है। - होली प्राब की, १ लकड़ी की, एक रत्न की, १ पुखराज की, ४ २२. श्रवणबेलगोल (ममूर) मन्दिर मे मूगा, मोती, नीलम की, २ मोतियो को, ३ मगे की भोर ३ माणक नीलम, मणी, स्फटिक, हीरे और रत्न की प्रतिमायें है। एवं ३ हीरे की इस प्रकार ३५ बहुमूल्य प्रतिमायें है। -रहनुमाए जन यात्रा, पृ० १६० -रहनमा-ए-जैन यात्रा, पु० १६० , २३. लुधियाना मे ६ इच ॐवी हरे रंग को जमुरद की १३. कारंजा (अमरावती) मे रत्नों, हीरे, पन्ने, नीलम एक बहुमूल्य मूर्ति पार्श्वनाथ की है। की अनेक दर्शनीय मूतिया १५२० ई० की लोदी राज की है। २४. वाराणसी के भाट मोहल्ले में सेठ धर्म चन्द जौहरी अहिंसावाणी १९७०, पृ००। के चैत्यालय में पार्श्वनाथ की हीरे की दर्शनीय १४. इसी अमरावती मन्दिर में मंग की ४, चादी की ३ प्रतिमा है। स्वर्ण की १, गरुणमणि की१, स्फटिक की ४,नीलमणि की २५. गोबिन्दपुर मोहल्ले में सेठ मूरजमल के चैत्यालय मे १-इस प्रकार १४ प्रतिमायें है। पार्श्वनाथ की बड़ी मनोज्ञ स्फटिक की प्रतिमा है। -देहली जैन डायरेक्टरी २४५ __ ---देहली जैन डायरेक्टरी पृ० २२६ १५. अमरावती के एक मन्दिर में १५ स्फटिक, १ पुखराज २६. मिदनापुर जिला तामलुक (बंगाल) के चैत्यालय में की ६ चांदी की, १ मूगे की, १ हीरे की और कई पार्श्वनाथ को रत्नमयी मूर्ति है। रत्नों की मूर्तियाँ है। -सम्मति सन्देश, सितम्बर १६६३, पृ० १५ -देहली जन डायरेक्टरी, पृ०, २४१ 100 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोहर जैन देवालय की प्रादिनाथ प्रतिमा उत्तर रेलवे के सादुलपुर-हनुमानगढ़ खण्ड पर श्रवरोल स्थान से ७५ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व मे स्थित नोहर राजस्थान के गंगानगर जिले का तहसील मुख्यालय है तथा भारत के प्राचीनतम नगरों में से है । वर्तमान नगर घग्घर नदी (प्राचीन दृषद्वती ? ) के शुष्क तल पर बसा हुआ है। एक ऊंचे टीले पर बनी जलदाय विभाग, नोहर की पानी की टंकी के पास खड़े होकर देखने से पता चलता है कि यह नदी किसी समय मोहर तथा इसके दक्षिणस्थ जोगी भासन चक के बीच में से होकर बहती थी । नोहर के चारों ओर पुराने पेड़ है जो सम्भवतः नदी मे बाढ़ प्राने से तटवर्ती वस्तियों के ध्वंसावशेष है या फिर नदी के प्रवाह के इवर-उधर होने के परिणाम स्वरूप तटवर्ती नगर के नदी के साथ-साथ स्थानान्तरित होने के प्रतीक हैं। नोहर से सिन्धु सभ्यता के प्रवशेष मृद्भाण्ड, मृण्मय पश्वाकृतियां, मिट्टी और शंख के वलय-खण्ड, मृगक्षेप गले बर्ट फलकादिमित्र है जिन पर पूर्ववर्ती सोपी सस्कृति' का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दी के पूर्वा मे सम्भवतः सिन्धु सभ्यता के विनाश के उपरान्त पर्याप्त समय तक नोहर गैर-आवाद रहा । पुन ईसा से कुछ पूर्व यहां बस्ती प्रारम्भ हुई, जैसा कि १. पाषाण युग के पश्चात् सोपी सकृति भारत की प्राचीनतम पार्वतिहासिक सरकृति है जिसके अवशेष कालीबंगा मे सिन्ध सभ्यता के स्तरों के नीचे मिले हैं। विस्तृत विवरण के लिए देखें Indian Archaeology, 196061 - A Review, p. 31; 196162 p.p. 39-14, 62-63, p p. 20-31 wife 1 २. Devendra Handa, A New Type of Arjunayana Coins' Journal of the Numismatic Society of India, Vol. XXXVII. Pt i. pp. 1-5. श्री देवेन्द्र हाण्डा, सरदार शहर यहां से प्राप्त ऐतिहानिक मृद्भाण्ड-खण्डों, इण्डो-ग्रीक राजा पालोडोटस की रजत मथुरा-शासक सूर्यमित्र एवं श्रार्जुनायन जनपद की ताम्र-मुद्रानों से पता चलता है ।" यहाँ से प्राप्त कुषाण, हूण, चौहान, दिल्ली सुल्तानों, मुगलों आदि की मुद्राओं से ऐसा प्रतीत होता है कि यह बस्ती कुषाण काल मे भी बनी रही और तत्पश्चात् समय के उतार-चढ़ाव के साथ अब तक विद्यमान है । हरमन गोल्ड ने नोहर का समीकरण फारसी ग्रंथ छानामा मे उल्लिखित कानुविहार नामक स्थान से किया है। जिनपालोपाध्याय कृत खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि में इसका नाम 'नवहर ग्राम' मिलता है'। 'नवहर शब्द ही कालान्तर में 'नोहर' हो गया । खरतरगच्छ - बृहद्गुर्वा बलि में 'नवहर' के उल्लेख से इसका जैन- सम्बन्ध स्पष्ट है इस सम्बन्ध की पुष्टि मोहर के जंन देवालय मे रखी पाषाण एवं धातुमी प्रतिमाम्रो से होती है। इन प्रतिमाओं मे सर्वाधिक प्राचीन एव महत्वपूर्ण है काले पत्थर की आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ की एक सुन्दर प्रतिमा जिसका वर्णन निम्न पतियों में किया जा रहा है। २७४१६ च प्रकार की इंच इस प्रतिभा मे जिन सिंहासन पर पद्मासन में बैठे दिखाए गए हैं, जिनके सिर पर बालों के छोटे २ घूंधरों का उष्णीष है ३. ये सभी मुद्रायें नौहर के पुरातत्व प्रेमी श्री मोजी राम भारद्वाज के सौजन्य से ज्ञात हुई है । Y. Hermann Goetz, The Art and Archite cture of Bikner State, Oxford, 1950, p. 31 ५. जिनपालोपाध्यायकृत खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि सं० मुनि जिनविजय, सिधी जैन ग्रन्थमाला, प्रयांक ४२, बम्बई वि० सं० २०१३ ० १६ । ६. प्रथम जैन तीर्थकर को पादिनाथ, ऋषभनाथ तथा वृषभनाथ के नाम से जाना जाता है । • Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोहर जैन देवालय की घादिनाथ प्रतिमा जिसपर शिखर-थि बनी है। मुख मण्डल शान्त है तथा नेत्र ध्यान-मुद्रा मे नाविकास पर केन्द्रित है लम्बे-लम्बे कान जिनके साथ लटकती हुई धनके दोनों कम्पों पर था टिकी हैं । कन्धे मजबूत हैं तथा बाहें लम्बी । वक्ष पर ἐξ करती है; जिसके पीछे प्रभा मण्डल अस्पष्ट है परन्तु सिर पर छत्र त्रय बहुत ही स्पष्ट है । इस प्रकार हम देखते हैं कि यह प्रतिमा प्रतिष्ठासारोद्धार (१, ६२) के निम्नांकित विवरण से मेल खाती हुई सी प्रतीत होती है श्रीवत्सक शोभायमान हो रहा है जिनके बाएँ जानु तथा स्कन्ध पर धोती की सिलवट सी दिखाई दे रही है जो प्रतिमा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्ध का संकेत प्राजानुलम्बबाहुः श्रीवात्सांगः प्रशान्तमूतिश्य । ७. तुलना करें शान्तप्रसन्नमध्यस्थनासावस्यविकारक | संपूर्ण भावारूढानुविद्वांगं लक्षणान्वितम् ॥ सिहासन के दोनों छोरों पर मिह प्रकित किए गए है दिग्वासस्तरुणो रूपयदिच कार्योऽसंतो देवः ॥ इत्संहिता ५७, ४५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००, ३०, कि० ३.४ जिनकी पीठे एक दूसरे की पोर हैं। बीच में धर्मचक्र दिखाई देती है। सम्भवतः ये परिचारक भरत एवं बाहबलि उत्कीर्ण है जिसकी नाभि से फंदना निकल रहा है। धर्म- है"। जिनके दोनों पोर कमों के ऊपर उड़न-मद्रा में माल्य-हस्तविद्याधर-युग्म प्रदर्शित है तथा उसके ऊपर दोनों चक्र के जार मिहासन-पीठ पर बिछे प्रास्तरण का __ोर गजारूढ़ शव एवं भेरी (२) वादक दर्शाए गए है। लटकता हपा भाग दिखाया गया है जिम पर लहरदार छावनी के दोनो योर पनः ।। २ माल्य धारी गन्धर्व अभिकलाना के साथ-माथ तरगित माल्पों महिन कीति- प्रदर्शित है। छत्र के ऊपर की प्राकृति कुछ अस्पष्ट है। प्रतिमा में चरण-गीठिका के निचले भाग के मध्य में मुवों से निकलते हा प्रलम्बित लटकन है। चरण चौकी वामाभिमुख नन्दी का प्रकन है जिनके दोनों ओर के बाएं उपान्त पर मुखागन में वृषभ-मुखी यक्ष गोमुख । अभिलेख है जो इस प्रकार है --- का प्रवन है जिसके दक्षिण जानु पर स्थित हस्त में पंक्ति १ ७॥ संवत् १०८४ फाल्गुन मुदि १३ रवोसयंथ बिजोग फल बहुत ही स्पष्ट है। पीटिका के दाएं अग्रान्त वाहडकेन पर न-रूप गरुड़ पर सुखासन में पासीन चतुरहस्ता २. करा पितः ।। सूत्रधार गो हर वलाइच सुतेन ॥११ चक्रेश्वरी यक्षिणी है जिसके पिछने हाथों में चक है पौर ३. सबद १६६० वैशाख सुदि ५. 'वई कुहाड़ वस(:) वामहस्त मे बीजपूर है। ४. तराय रे बेटे विटो च [-] द प्र [ति] ष्ठा कराई नौहर मध्ये २ यक्ष-यक्षिणी प्रतिमानों के ऊपर प्रप्रान्त रथिकानों विषय तथा लिपि की दृष्टि से ये दो पक्तियों के दो पर दोनों पोर क्रमशः पूर्ण घट लिए उहीयमान मुद्रा मे अलग-अलग अभिलेख है। मूति की स्थापना संवत् १०८४ किन्नरियां, उनके ऊपर छत्रावली एव केवल-वृक्षों के फाल्गुण सुदि १३ रविवार को सूत्रधार गोहर वलाइच नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में खड जिन, उनपर नृत्य तथा (?) के पुत्र वाहड के द्वारा कराई गई थी। ऐसा प्रतीत उडन मद्रा में पूनः किम्नरिया तथा सर्वोपरि पद्मासनस्थ लघु होता है कि किसी कारण से जिस मन्दिर में यह मति थी जिन प्रतिमाएँ है। मख्य प्रतिमा के बाहपो के साथ दोनो नष्ट हो गया या मति पजित नहीं हो पाती थी। पोर एक-एक परिचारक (चामरघर ?) दिखाया गया है। अतः कालान्तर में मवत् १६६० वैशाख सदि ५ को ये परिचारक कर्ण कुण्डल, हार, भुजबन्ध, ककण, नूपुर कुहाड (?) बसन्त राय के बेटे वृद्धिचन्द्र ने नौहर के प्रादि प्राभषणो से विभूषित है तथा क्रमशः दक्षिण वर्तमान जैन देवालय में या अन्यत्र इसे पुनः प्रतिष्ठित तथा वाम हस्त को तत्तत् जघा पर टिकाए सुन्दर करवाया। द्विभग मुद्रा में खडे जिन को निहार रहे है। दोनो के जो भी हो, लाञ्छन, प्रतिहार्यादि से युक्त यह अधोवस्त्रों की मध्यवर्ती लटकन जानु-पयन्त बीचोंबीच प्रतिमा" ग्यारवी शताब्दी में नोहर क्षेत्र में जैन धर्म की प्रवलम्बित है। दोनों ने वंजयन्ती माला पहन रखी है लोकप्रियता की प्रतीक है तथा जैन प्रतिमा-विज्ञान की जो पीछे से उनके वाहनों पर पाकर फिर भुजामों के दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। नाछ से नीचे पाती हुई घुटनों के कुछ नाचे स्पष्ट बी०टी०टी०कालेज, सरदार शहर (राज.) ८. तूलना कर ११. सिद्धि तथा मंगल सूचक यह चिन्ह प्रायः मभिलेखो (1) ऋषभे गोमुखो यक्षो हेमवर्णो गजाननः । के प्रारम्भ मे मिलता है। इसे 'भले' की संज्ञा वराक्षसूत्रापाशञ्च बीजपूर करेषु च ।। दी जाती है। सूत्रधार मण्डनकृत-वास्तु-शास्त्र १२. इस अभिलेख के प्रारम्भ मे 'भले' तथा मन्त मे (ii) चतुर्भुज: सुवर्णाभो गोमुखे वृषवाहनः । विरामादि चिन्हो का प्रभाव है। इसमें त के स्थान हस्तन, परशू धत्त बीजपूराक्षमूत्रकम् । पर द (सवद), अनुस्वार के प्रयोग का प्रभाव, वरदान पर: सम्यक् धर्मचक्रञ्च मस्तके । ब के स्थान पर व (वेट) प्रादि बाते ध्यानीय है। वसुनन्दि कृत प्रतिष्ठा सारोद्धार । १३. वर्तमान देवालय भवन बहुत पुराना नहीं है। इस ६. देखें -वाम चक्रेश्वरीदेवीस्थाप्याद्वादशपड्भुजा । देवालय मे यह जिन प्रतिमा अभी तक अलग्न पड़ी धत्ते हस्तद्वये व चक्राणि च तथाष्टसु ।। है। देवालय की ड्योढ़ी में दूसरे स्थान से लाकर एकेन बीजपूर तु वरदा कमलासना । कुछ मूर्तियाँ दीवार मे जड़ दी गई हैं। प्रतः सम्भव चतुर्भुजाऽथवा चक्र द्वयोर्गरुडवाहना ।। है कि यह प्रतिमा भी किसी दूसरे मन्दिर या -प्रतिष्ठासार संग्रह। स्थान से लाकर यहां रखी गई हो। १०. पाश्र्वयोर्भरतबाह बलिम्यामपसेवितः । १४. इस प्रतिमा से ग्यारवीं शती में इस क्षेत्र में लाञ्छन, राथीभ्यः (?) मिव पाथोधिर्बभासे वृषभध्वजः ॥ प्रातिहादियुक्त प्रतिमानों के प्रचलन का पता त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रादिश्वर, I-3, 58-v. चलता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ- समीक्षा १. सचित्र भक्तामर रहस्य - पं० शास्त्री एवं माशुकवि फूलचन्द पुष्पेन्दु सेन रतनलाल जैन कालका वाले, दिल्ली- ११०००६ मूल्य १५ रुपये आकार; १६७७ । स्तोत्र का यह इनमे से प्रथम प्राचार्य मानतुंग विरचित भक्तामर बृहत् संस्करण पांच खण्डों में विभक्त है। खण्ड मे भक्तामर सार्थक चित्रालोक, द्वितीय खण्ड में तत्सम्बन्धी सत्य कथाएं, तृतीय खण्ड में दिव्य मंत्र तथा चतुर्थ खण्ड में दिव्य यन्त्र समाविष्ट है । पचम खण्ड का विषय भक्तामर सरस अर्चनालोक है। सत्यकथालोक के अन्तर्गत पौराणिक कथायों को नवीन पन्यासिकी में प्रस्तुत किया गया है। इसमे ४८ प्रामाणिक यात्राकृतियां, श्री सोमसेनाचार्यकृत भक्तामर मंडल विधान, भक्तामर महिमा श्रादि यथास्थान निबद्ध हैं । कमलकुमार जैन प्रकाशक: भीकम १२८६, वकील पुरा, पृष्ठ ४४७ डिमाई यह ग्रन्थ भक्तामर स्तोत्र पर अब तक समय-समय पर रचित शताधिक व्याख्या-ग्रन्थों में सर्वाधिक व्यापक और सर्वागीण है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में डा० ज्योतिप्रसाद जैन विराङ्गः। प्राचीन भारतीय साहित्य में अनेक कोशकारो, या करण एवं साहित्यकारो ने 'भ्रमण' के पर्यायवाची श दिये है जो अपने-अपने युग मे जैनवाची रहे हैं एवं जैनवाची शब्दों की सुव्यापक एवं प्रविरल परम्परा के द्योतक है। ये पर्यायवाची शब्द इस प्रकार है - ऋग्वेद-१०-०५-२) - नि: वातरशन: वैदिक श्रमण (जैन) के पर्यायवाची शब्द - ने जैन मक्ति, जैन स्तोत्र साहित्य, भक्तामर और उसके रचयिता आचार्य मानतुंग, भक्ति परक साहित्य यादि का संक्षिप्त विवेचन किया है। यह ग्रन्थ सर्वोपयोगी स्वाध्येय एवं संग्रहणीय है । गोकुलप्रसाद जैन, सम्पादक २. प्राराधना सुमन - सम्पादक : प० हीरालाल जी जैन 'कौशल' संकलनकर्ता एवं प्रकाशक : श्री श्रीकृष्ण जैन, मंत्री श्री शास्त्र-स्वाध्याय वाला श्री पार्श्वनाथ दि० जैन मन्दिर, बाबा जी की बगीची (बचाने के पीछे, सब्जी मंडी. दिल्ली - ६; पृष्ठ संख्या १६२; मूल्य २ रु० ५० पैसे १९७७ । प्रस्तुत ग्रंथ में जैन भजनों, स्तुतियों, भावनाओंों, भारतियो चालीसा, जाप्यमंत्रों, उपयोगी विचारों पादि का सुन्दर संकलन है जो श्राध्यात्मिकता के प्रति प्रेरित करते है । ये विविध प्रवसरों एवं विविध प्रसगो के लिए उद्दिष्ट है। पुस्तक को सर्वोपयोगी बनाने के लिए ही इस मे विविध प्रकार की सामग्री संकलित की गई है जिसके लिए सकलनकर्ता एवं सम्पादक दोनों साधुवाद के पात्र है । पुस्तक सर्वथा उपयोगी एवं उपादेय है। - गोकुलप्रसाद जैन. सम्पादक भग्नाट, दिगम्बरः, श्राजीव:, मलघारी, जीवकः, जैन:, धमर्णय: बेलुकः (रुद्रसंहिता पार्वतीखण्ड-२४/३१)मधुव्रतः । (पञ्चतन्त्र १।१३) पाणिपात्र: । (पद्मपुराण - १३।३३ ) - योगी, मुण्डः, बहिपिच्छधरः, द्विजः । ( जिनदत्तसूरि : ) - लुञ्चितः, पिच्छिकाहस्तः । ( काव्यजिला- १४०) मारनिजी केशविकः (जिन सहस्रनाम ) - निष्किञ्चनः निराशंसः, ज्ञानचक्षुः, श्रमो मुहः । (मेदिनीकोश 'न' १३ ) - नग्नः, विवासा । (स्कप्राकृत (स्थाना]यूब - ३) समणो (पाइयलच्छीपुरा-२६-३२-३६) मुण्डी, मयूरपिच्छवारी, महानाममाला, ३२ ) - जइणो, तदस्सिणो, तावसा, रिसी, व्रतः । (हर्षचरित) - नग्नाटक, शिखिपिच्छलाञ्छनः । भिक्खुणो, मणी, समणा । (परमात्मप्रकाश - ११८२ ) (अपणक), सेवड (प) बन्द (बन्दकः) । (राज सिंह विदित-चरित ५० तथा ३६८) सवणु (भ्रमण), श्रमण (भ्रमण) । अपभ्रश खवण उ पालि (दीपनिकाय-३) पचेरनोपलको (तविक, किमनिकाय, महासिंहनाद सुत्त) नमो (प्रगुत्तर- चतुक्कनिपात ४।५ ) – निग्गठो । — संस्कृत -- ( श्रीमद् भागवत - ११.६.४७ ) - वातरशन:, ऋषि. मी (जिनसेन का महापुराण) - दिग्वास निर्ग्रन्थेशः, निरम्बरः । ( शाङ्करभाष्य ) - परिव्राट् व श्रमण का स्त्रीलिङ्ग (प्राकृत मे कल्पसूत्र ) ( निघण्टु ) - वातवसनः । (सूत्राथमुक्तावलिः - ५१-५२ ) समणी । सस्कृत मे - वाल्मीकि रामायण - ३.७४.७ तथा - ब्राह्मण, भिक्षु (महाभारत- पौष्यपर्व ३।१२६) अत्रचूडामणि ११.१६ ) श्रमणी श्रमणा । । - ( प्रभिधानक्षपणकः । ( शाश्वत कोष ) -क्षपगः, निष्परिच्छदः । ( कोष कल्पतरुः - ५२-५३ ) -- सर्वार्थसिद्ध, साद्यन्तः, भदन्तः, - ३.१६६) घवना, भिक्षुकी मुण्डा श्रमणा कुमारी साध्वी श्रमणी - सुहागन स्त्री साध्वी । - 3 हिन्दी - ( मलिक मोहम्मद जायसी - पद्मावत सि० द्वीपवन पृ० ३२ ) सेवरा ( क्षपणकः)। - Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B. N. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन नवाक्य-सूची: प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक: मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७ पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट. के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये, एम. ए.,डी. लिट. की भूमिका Introduction) से भूषित है। शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २.०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद भोर श्री जुगल. किशोर मुस्तार की महत्व की प्रस्तावनादि मे अल कृत सुन्दर जिल्द-सहित । मध्यात्मामलमातंण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित। १५० पक्रयनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हना था । मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... ३.०० मैनपन्ध-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण माहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और प० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । ... ४-०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति, प० परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित ४.०० भवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जन ... १-२५ मध्यात्म रहस्य : पं. आशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद सहित । नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह । विपन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित। सं.पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । १२.०० म्याय-दीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० बंन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवपभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त-शास्त्री। उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज मोर कपडे की पक्की जिल्द । २०.०० Reality : भा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी मे पनुवाद । बड़े प्राकार के ३०० प., पस्की जिल्द गंन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा श्री रतनलाल कटारिया ध्यानशतक (ध्यानस्तव सहित) : संपादक पं० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री १२-०० श्रावक धर्म संहिता : श्री दरयावसिंह सोषिया ५.०० जैन लक्षणावली (तीन भागों में) : (तृतीय भाग मुद्रणाधीन) प्रथम भाग २५.००; द्वितीय भाग । २५.०० Jain Bibliography (Universal Encyclopaedia of Jain References) (Pages 2500) (Under print) प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के लिए रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, नई दिल्ली-२ से मृद्वित। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- _