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________________ 'प्रनादि मलमंत्रोऽयम् ।' नमस्कार करना नहीं संभवता है।' दक्षिणकरेण प्रदशितमतएव तदादित भारभ्य याच्यते ॥' - विवाह पण्णत्ति [वही] पृ० ३ टिप्पण, प्रमो. ऋ. -मभि. राजे. द्वि.पृ. ११२६ उक्त प्रसंग से यह तो स्पष्ट है कि षट्खंडागम एवं लिपिः पुस्तकाऽऽदो प्रक्षरविन्यासः सा अष्टादश प्रका रापि श्रीमन्नाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मी नामिकायावशिता, मागम परम्परा में सभी जगह [भगवती के अतिरिक्त] ततो ब्राझीनाम इत्यभिधीयते ।।' णमोकार मंत्र की एकरूपता अक्षुण्ण रही है--उसके रूप -अभि. राजे. पचम पृ. १२८४ में कही भिन्नता नहीं है। अर्थात् प्रागम-परम्परा की दृष्टि 'अष्टादशलिपि ब्राहम्या अपसव्येन पाणिना।' से भगवती का पाठभेद मेल नहीं खाता । सम्भद है -वे. श. पु. च. १।२।९६३ विद्वानों ने उस पर विचार किया हो; या 'नमो बंभीए- उक्त तथ्षो से स्पष्ट है कि ब्राह्मी लिपि का प्रादुर्भाव लिवीए' पद मानते हए और मूलमत्र में लोए' पद न तीर्थकर ऋषभदेव से हुअा जो उन्होने अपनी पुत्री ग्रामी मानते हुए भी मूलमंत्र की अनादि एकरूपता पर अपनी के माध्यम से संसार मे किया और ऋषभदेव युग की सहमति प्रकट की हो। यदि उनके ध्यान में हो तो पत्र प्रादि मे हुए उन्हे भी अनादि नही माना जा सकता। द्वारा दर्शाकर मुझे मार्गदर्शन दें। एतावता यह टिप्पण भी मत्र के अनादित्व की दिशा में स्मरण रहे कि उक्त सभी प्रसग णमोकार मत्र के निर्मूल बैठता है कि ब्राह्मी का पर्थ ऋपभदेव किया 'अनादित्व' की दिशा में प्रस्तुत किया गया है। स्वात्रम्प जाय । कयो। मंत्र के अनादित्व मे ऋपभ अर्थ का विधान भी (ऋषभ के सादित्व के कारण) वज्र्य है। यदि मत्र अनादि से जन-प्रागगो मे वणित सभी मत्रो का हम सम्मान करते है तो उसमें ऋषभ (व्यक्ति) को नमस्कार नहीं, और यदि है, चाहे वे (वीतराग मार्ग मे) किसी रीति से-किन्ही ऋषभ को नमस्कार है तो मंत्र अनादि नहीं। अत: निष्कर्ष शब्दों और गठनों मे बद्ध क्यो न किये गये हों। बाह्मी निकलता है कि-मूलमंत्र-परमेष्टी नमस्कारात्मक रूप है लिपि अनादि नही है इस सम्बन्ध में निम्न प्रसग ही और वही अनादि है -- जैसा कि षट्खंडागम तथा अन्य पर्याप्त है प्रागमों में कहा गया है'लेह लिवीविहाणं, जिणेण बंभीएदाहिणकरेण ।। णमो अरिहताण, णमो सिद्धाणं, णमो मायरियाणं, -प्रा. नि. भा. ४७ णमो उबझायाण, णमो लोए सव्वासाहणं ।' 'लेखनं लेखो नाम मूत्र नपुसकता प्राकृतत्वाल्लिपि --पट्पडागम-मगलाचरणम् विधानं तच्च जिनेन भगवता ऋषभस्वामिना ब्राहम्या वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ 000 [पृष्ठ ४६ का शेशाप] जन्म लेते ही घर-परिवार में सुख-समृद्धि होने के कारण हम उन्हे गच्ची श्रद्धांजलि तभी भेट कर सकते हैं जब उनको वर्द्धमान नाम मिला। अपने शौर्य कार्यों के कारण हम उनके बताये हुए उन शाश्वत सिद्धान्तों को व्यवहार बाल्यावस्था से ही वीर, महावीर, अतिवीर कहे जाने में लावें जिनसे आज भी हमारा और विश्व के सभी लगे। उनकी कुशाग्र बुद्धि को लक्षितकर लोग उन्हे सन्मति- प्राणियो का कल्याण सम्भव है। वीर भी कहने लगे। सासारिक भोगों से विरक्त हो प्रात्मोद्धार और लोकोद्वार के लिए स्वजनों और परि. टिप्पणी पर टिप्पणी-इम लेख में उपयोग में लाये गये प्राकृत पाठ जनों का मोहपाश तोड़ वन की राह पर लेने पर वह डा. ज्योतिप्रसाद जैन द्वारा सम्पादित 'श्री निष्परिग्रह, निर्ग्रन्थ, श्रमण साधु हो गये और निगण्ठनात्त महावीर-जिन-वचनामृत' नामक पुस्तक से पुत्त के नाम पुकारे जाने लगे। साभार उद्घन है। उन मात्मजयी, कर्मशील, अनेकान्तवादी, जीववन्धु, ज्योतिनिकुज, परसेवाभावी महामानव की शासन जयन्ती के अवसर पर चारबाग, लखनऊ-२२६००१
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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