________________
५२ ,बर्ष ३०, कि० २
अनेकान्त
चाहिए । अर्थात् पूरा पाठ इस भांति ६८ अक्षरों का मूलमंत्र का अंग नहीं है। हां, यदि इस पद को मंत्र मानना बोलना चाहिए
इष्ट हो तो अन्य बहुत से मंत्रों की भांति पाठ प्रक्षरों 'ण मो अरिहं ता णं, ण मो सिद्धाणं, ण मो पाइरियाणं। वाला एक पृथक् मत्र स्वीकार किया जा सकता है। ण मो उ व उझा या णं, ण मो लोए स व्व साहूण ॥ एक बात और, भगवती जी मे [जैसा कि पहिले मंत्र ए सोपं च न मोक्का (या) रो, स व्व पाव पणा स णो। के द्वितीयरूप मे बतलाया जा चुका है] मंत्र के अंतिम पद मंगला णं च सव्वे सि, पढ मं ह व इ मंगल ॥' में 'लोए' पद के न होने की बात इससे भी सिद्ध होती है
यदि उक्त पदो के स्थान में प्रधूरारूप---'णमो सव्व. कि वहां मंत्र में गभित 'सव्व' पद के प्रयोजन को तो साहणं' बोला जाता है, तो 'लोए' ये दो अक्षर कम हो सिद्ध किया गया है, जो कि अन्य चार पदों की अपेक्षा जाते है और यदि णमो बभीए लिवीए' बोला जाता है तो विशेष है। पर, लोए का प्रयोजन नही बतलाया गया । एक अक्षर कम हो जाता है। दोनो ही भांति मंत्र वसा यदि वहां 'लोए' शब्द होता तो सूत्रकार उसका भी प्रयोयुक्तिसंगत नही बंटता जैसा कि इप्ट है। अत:
जन बतलाते । क्योंकि 'लोए' भी 'सब' की भांति-- अन्य निष्कर्ष निकलता है कि-अभि० राजेन्द्रकोष को पदों से विशेष है । तथाहिपंक्तियां इस दिशा मे स्पष्ट है
'यहा पर 'सवसाहणं' पाठ मे 'मन्व' शब्द का प्रयोग 'पायरिय हरिभद्देणं जं तत्थायरिसे दिळं, त सव्वं
करने से सामायिक विशेष, अप्रमत्तादिक, जिनकल्पिक, समतीए मोहिऊण लिहिअंति अन्नेहि पि सिद्धसेण दिवायर
परिहारविशुद्धिकल्पिक, यथालिंगादि कल्पिक, प्रत्येक बुद्ध, बडवाइजक्खसेण देवगुत्त जस बद्धण खमासमण सीस रवि
स्वयबुद्ध, बुद्धबोधित, प्रमुख गुणवंत साधुनों को भी ग्रहण गुत्त नेमिचदजिणदास गणि खवग सच्चसिरिसमुहेहि जगप्प- किये है। हाण सपहरेहि बहुमनियमिण ति [महा० ३ अ.] अन्यत्र - विवाहपण्णत्ति [भगवती०] पृ० २, अमो० ऋ० तु संप्रति वर्तमानागमः, तत्र मध्ये न कुत्राप्येव नवपदाष्ट
हा, 'क्वचित् नमो लोए सवसाहणं' इति पाठ:-के सपदादि प्रमाणो नवकार उक्तो दृश्यते । यतो भगवत्यादा- सदर्भ में यह उल्लेख अवश्य मिलता है कि-'लोए' का वेवं पचपदान्युक्तानि.-'नमो मरिहताण, नमो मिद्धाण, ग्रहण, गच्छ-गण प्रादि मात्र का ही ग्रहण न माना जाय, नमो पायरियाण, नमो उवज्झायाण, नमो बंभीए लिवीए' अपितु समस्त साधुनों का ग्रहण किया जाय-इस भाव मे इत्यादि।' -[अभि० रा० भाग ४, पृ० १८३७] किया गया है। इसमे क्वचित्' का अर्थ भगवती से अन्यत्र
इसका अर्थ विचारने पर यही सिद्ध होता है कि मभी स्थलों में ही लिया जायगा-भगवती मे नहीं। प्राचार्य-हरिभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षमेन, एक स्थान पर 'बंभीलिवी' का अर्थ ऋषभदेव किया देवगुप्त, जसवर्धन, क्षमाश्रमण शिष्य रविगुप्त, नेमिचद, गया है। अनुमान होता है कि ऐमा अर्थ किसी प्रयोजन जिनदासगणि प्रादि, ६८ अक्षरो वाले पाठ को युक्तिमगत खास की पूर्ति के लिए किया गया होगा। अन्यथा, लिपि मानते है और वही षट्खडागम के पाठ तथा अन्य भागमों तो, लिपि ही है उसे ऋषभदेव के अर्थ में कैसे भी नही के पाठों से [पचपद व पंतीम अक्षर की मान्यता से भी] लिया जा सकता है । 'लिपि' मूर्ति-मात्र है और उसे नमन ठीक बैठता है और मत्र की एकरूपता को भी सिद्ध करता करना मूर्तिपूजा का द्योतक होता है शायद, इसी दोष है। जब कि श्री भगवती जी का पाठ उक्त श्रेणी मे अनु- के निवारण के लिए किन्ही से ऐसा अर्थ किया गया हो। कूल नहीं बैठता।
अस्तु, जो भी हो : स्थल इस प्रकार हैभापा और लिपि जो भी हो [दोनों ही परिवर्तन- 'यहा पर सूत्रकार ने अक्षर स्थापनारूप लिपि को शील है] पर, मत्रगठन और पात्रो की दृष्टि से मत्र के नमस्कार नहीं करते हुए लिपि बताने वाले ऋषभदेव युक्ति-संगत-अनादित्व को सिद्ध करने वाला रूप-प्रथम- स्वामी को नमस्कार किया है और भी वीरनिर्वाण पीछे रूप ही है, जो पचपरमेष्ठी गभित रूप है। 'बभीए लिवीए' ६८० वर्ष मे पुस्तकारूढ ज्ञान हुमा, इससे लिपि को