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________________ 'अनाविमुखमंत्रोऽयम् ।' णमो उवमायानं नमो बसाहूणं ॥' ' णमो लोए सबसाहूणं' इति क्वचित् पाठः ।' - श्री भगवती सूत्र ( मंगलाचरण) निर्णय सा. (सं. १९७४) अभियान राजेन्द्र (मागम कोष) के उल्लेख के धनुसार- भगवती का उद्धरण इस प्रकार है जो मंत्र के तृतीय रूप को इंगित करता है तथाहितृतीय रूप "यतो भगवत्यादावेवं पंचपदान्युक्तानि - नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो मायरियाणं । नमो उवज्झायाणं, णमो बंभीर लिमीए' इत्यादि । क्वचिद नमो लोए सम्यसाहूणं इति पाठ इति । " - प्रभिधान राजेन्द्र भाग ४, पृ. १८३७ उक्त तीनों रूपों में मंत्र के अन्तिम पद की विभिन्नता विचारणीय है। हमें तीनो ही रूपों को मान्य करने में थानाकानी करने की गुंजाइश नही है । यतः - षट्खंडागम कर्ता श्री पुष्पदन्ताचार्य व भगवती सूत्र कर्ता श्री सुषम स्वामी जी सभी हमारी श्रद्धा के पात्र है। फिर भी मंत्रगठन के निर्णय की दिशा मे कुछ मार्ग निकालना होगा। फलत: ५१ इंगित करता । परन्तु ऐसा मिलता नहीं है। माहात्म्य पाठ में जो भिन्न-भिन्न पांच प्रयोग मिलते है, वे निम्न भौति है प्रथमरूप --- रहंत नमोक्कारो, सव्वपाव पणासणो | मंगला च सति पढमं हवाइ मंगल || द्वितीयरूप- 'सिज्ञान नमोषकारो, सम्मपावपणासणी । मंगलाणं च सर्ववेसि, बीयं हवइ मंगलं ॥' तृतीयरूप 'मायरिय नमोक्कारो, सव्वपावपणासणो । मंगलाणं च सम्बेति तह वह मगलं ॥' चतुर्थरूप - 'उबभाय णमोक्कारो, सव्वपाव पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसि, चट्ठे हव६ मंगलं ॥' पंचमकप 'साहून नमोकारो, सम्यपादपणासणी । मंगलाणं च सम्मेसि पंचमं वद मंगलं ॥ उक्त प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि भगवती जी के पाठ को प्रचलित मूलमंत्र के सन्दर्भ में नहीं जोड़ा जा सकता । जब हम इस ऊहापोह को मांगे बढ़ाते है तब देखते है कि मंत्र के माहात्म्यरूप में पढ़े गये 'एसो पच मोक्का (या रो, सध्वपावपणासमो मंगलाच च सव्वंसि पदम हव मंगल' के हमें पाँच रूप [के] प्रयोग मिलते हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि - षट्खडागम तथा अन्य भागमों में वर्णित णमोकार का रूप स्थायी है धौर 'णमोबंभीए लिबीए' व णमोसव्वसाहूण' जैसे रूप प्रस्थायी भोर मधूरे व प्रसित है। यदि ' णमो बभीए लिवीए' रूप को मनादि माना जायगा तो प्रत्यक्ष बाधा उपस्थित होगी कि ब्राह्मी लिपि तो तीर्थंकर ऋषभदेव की पुत्री के काल से है, फिर श्रनादि मंत्र के साथ इसका सम्बन्ध कैसे ? यदि सम्बन्ध मानते हैं। तो मंत्र प्रनादि नहीं ठहरता। जैसा कि कहा जा रहा है - 'अनादि मूलमंत्रोऽयम् । - फिर, यदि णमोकार मंत्र में 'णमो बंभीए तिबीए का समादेश होता, तो मंत्र माहात्म्य के रूपों में एक छठवां रूप ऐसा भी मिलना चाहिए था जो 'बंभी लिवो' को भी इसके सिवाय एक कारण घोर भी है प्रोर वह हैनवकार मंत्र के उच्चारण के विधान का प्रसंग । एक स्थान पर कहा गया है कि 'वणsgसट्ठि नवपएं, नवकारे प्रट्टसंपया तत्थ । सगसंपदा सरवर मटुमी दुपया ।। २२६ ॥ - संप्रति भाष्यगाथा व्याख्यायते-वर्णा अक्षराणि भ्रष्टषष्टिः, नमस्कारे पचपरमेष्ठिमहामत्ररूपे भवन्तीतिशेषः । उक्तं च 'पंचपवाण पणती - सवण चूलाइवण तित्तीसं । एव इमो समय फुडमलरमदुमट्टीए ॥' 'सत्तपण सत्त सत्त य, नव श्रट्ठ य अट्ठ श्रट्ट नव पहुति । इय पय अक्खरसवा, प्रसहू पूरेद्द घडसट्टी ||' - प्रभि० रा० भाग ४, पृ० १५३६ उक्त पाठ प्रामाणिक स्थलों से उद्धृत हैं और इनमें कहा गया है कि मंत्र की पूर्णता ६८ प्रक्षर प्रमाण मंत्र के पढ़ने पर होती है। प्रत पत्र को ६८ में पढ़न
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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