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अनादि मूलमंत्रोऽयम् ।
जैन संसार में णमोकार मंत्र का प्रचलन समानरूप से है । सभी इसे 'सव्वपावपणासणी' और 'पढमं हवइ मंगलं', रूप में मानते, पढते भौर स्मरण करते हैं। मान्यता ऐसी है कि प्रसिद्ध यह मंत्र धनादिमूल और अपराजित है'अनादिमूलमंत्रोऽयम्', 'अपराजितमंत्रोऽयम् । इत्यादि ।
जहां तक मंत्र के अनादित्व की बात है - सिद्धान्तरूप में 'गमन' की अपेक्षा प्रर्थात् – 'जो सत् है उसका नाश नहीं' की रीति में, णमोकार को अनादि माना जायगा - हर चीज के मूल को अनादि माना जायगा । यतः
'सत्तामेतग्गा ही, जेणाऽऽइम नेगमो तम्रो तस्स । उप्पज्जइ नाभूयं भूयं न य नासए वत्थु ॥'
गमनय सत्तामात्रग्राही होता है । इसकी अपेक्षा वस्तु सर्वदा सत्स्वरूप ही होती है चाहे वह किसी भी पर्याय में क्यों न हो। एतावता मंत्र और मनन के पात्र परमेष्ठी दोनों ही अनादि सिद्ध होते है । यतः -- जनमान्यतानुसार मात्मा ही परमात्मा- सिद्ध स्वरूप है । और प्रात्मा के विकासक्रम में साधु, उपाध्याय, भाचार्य भोर भरहंत भी प्रात्मा-परमात्मा की भाति अनादि हैं। ये क्रम प्रवाह रूप से कही न कहीं, किसी न किसी रूप में सदा वर्तमान रहता है ।
जैन मान्यतानुसार पाचों परमेष्ठी अनादि काल से होते रहे है, और अनन्तकाल तक इनके होते रहने में कोई सन्देह नहीं । तीर्थंकर क्रम में भूतकाल में अनंत चौबीसी हुई हैं और भविष्यतकाल मे अनतो होती रहेंगीं । विदेह क्षेत्र मे इनकी सत्ता सर्वकाल विद्यमान है ही । जो प्ररहंत भवस्था को प्राप्त हुए वे सिद्ध हुए, जो भरहंत अवस्था को प्राप्त होगे वे सिद्ध होगे इसमें भी सन्देह नहीं । अभ्यास दशा की श्रेणी मे विद्यमान ( भूत वर्तमान भविष्यतकाल सम्बन्धी ) प्राचार्य, उपाध्याय और साधु भी अनादि अनंत (सत्ता की अपेक्षा) रहे है और रहेगे। और जब जब ये हैं तब तब इनको नमन भी है। अतः इनके नमनभूत 'णमोकार' भी [सत्ता की अपेक्षा] मनादि है । इसीलिए कहा
है -
[] श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, ए. मए, दिल्ली
'स नमस्कारो नित्य एव वस्तुत्वात्, नभोवत् । नोत्पद्यते नापि विनश्यतीत्यर्थः ।'
वह नमस्कार नित्य – सदाकाल है, वस्तु होने से । जो जो वस्तु है वह वह [ द्रव्य की अपेक्षा ] निश्य है, जैसे श्राकाश । द्रव्य की अपेक्षा प्राकाश न कभी उत्पन्न है और न कभी विनाश को प्राप्त है। हाँ, पर्यायों के परिवर्तनरूप से उसे अनित्य - घटाकाश, मठाकाश इत्यादि कहा जाता है। जो माकाश भी समयपूर्व घटाकाश कहलाता था वही, घट के मष्ट होने पर ( मठ में स्थित होने से ) मठाकोश कहलाया । पर प्रस्तित्व की अपेक्षा से 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यतेसतः । 'जो सत् है उसका नाश नहीं, नहि प्रसत् कभी पैदा होता!' - ऐसा नियम है । इसी परिधि की अपेक्षा णमोकार को प्रनादि माना गया है ।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि-माना णमोकार मंत्र के सभी पात्र और उनके लिए नमन, व्यक्तिश: एक एक की पृथक-पृथक सत्ता प्रादि की भपेक्षा अनादि हैं, पर यह निश्चय कैसे किया जाय ? कि णमोकार की शृङ्खला में प्ररहंत- सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और सर्वसाधु को ही निश्चित स्थान ( भी ) अनादि है । यदि इन्हीं का स्थान निश्चित है तो इस मंत्र के विभिन्न रूप देखने में क्यों प्राते है ? और यदि वे रूप सत्य है तो ऐसा मानना पड़ेगा कि-विविधता होने के कारण णमोकार मंत्र अनादि नहीं है ।
इस प्रश्न पर विचार करने के लिए हमे (नामों की अपेक्षा ) णमोकार मंत्र के सभी रूपों पर दृष्टिपात करना होगा। तथाहि
प्रथमरूप -
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो प्रायरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्यसाहूणं ॥'
- षट्खंडागम ( मंगलाचरण )
द्वितीयरूप
' णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो प्रायरियाणं ।