________________
रयणसार के रचयिता कौन ?
- श्री बंशीधर शास्त्री, एम० ए०,
विद्वान् लेखक ने पुष्ट युक्तियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रयणसार कुन्दकुन्दाचार्य की रचना नही हो सकती। पहले भी ऐसे ग्रन्थो का छानबीन द्वारा पता लग चुका है जो प्राचीन प्रसिद्ध प्रामाणिक प्राचार्यों के नाम से अन्यों ने लिखे हैं। संभवतः रयणसार भी ऐसी ही रचना हो। विद्वानों को शोषपूर्वक इसका निश्चय करना चाहिए, इसी पवित्र भावना से यह लेख हम यहाँ दे रहे हैं । यह पावश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल विद्वान् लेखक के सभी विचारों से सहमत हो। इस विषय में अन्य विद्वानों के सप्रमाण भी सादर आमन्त्रित है जो यथासमय 'अनेकान्त' मे प्रकाशित किए जाएंगे।
-सम्पादक
मुस्लिम शासनकाल में भारत में ऐसी परिस्थितिया साहित्य द्वारा उन नवीन प्रवृतियो का समर्थन किया गया। हो गई थी जिनके कारण दिगम्बर जैन साधु नग्न नहीं इन्होने विवर्णाचार, मूर्य प्रकाश, चर्चासागर, उमास्वामी रह सके और इन्हे वस्त्र धारण करने पड़े। ऐसे वस्त्र- श्रावकाचार प्रादि प्रागम-विरुद्ध ग्रन्थो का निर्माण किया पारी साधु भट्टारक कहलाते थे। प्रारम्भ मे कतिपय था। स्व. पं० जुगलकिशोर मुख्तार, पं० परमेष्ठीदास जी भट्टारकों ने साहित्य सरक्षण एवं संस्कृति की परम्परा जैसे विद्वानों ने इनकी समीक्षा कर स्थिति स्पष्ट कर बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान किया था। किन्तु वे दी है। वस्त्र, वाहन, द्रव्यादि रखते हुए भी अपने पापको साधु यह ठीक है कि प्रागरा-जयपुर के विद्वानों द्वारा ज्ञान के रूप में ही पुजाते रहे। वे पीछी कमण्डल भी रखते थे। के सतत प्रसार से उत्तर भारत मे इन भट्टारकों का चंकि दिगम्बर परम्परा में वस्त्रधारी और परिग्रहधारी को अस्तित्व समाप्तप्राय हो गया है। तदपि कुछ भाई, साधु नहीं माना जा सकता, इसलिए इन भट्टारकों ने प्रधि- जिनमें विद्वान् एव त्यागी भी है, फिर भी भट्टारक परम्परा कांश साहित्य, जो कि उस समय हस्तलिखित होने के कारण को प्रोत्साहन देना चाहते है भोर उन भट्टारकों द्वारा मल्प संख्या मे ही था, अपने कब्जे मे कर लिया। इन रचित ग्रन्थों का प्रचार करते हैं । भट्रारकों ने प्रमुख केन्द्रों मे अपने-अपने मठ बना लिए, ऐसे ग्रन्थों में 'रयणसार' भी एक है । यद्यपि इसे विभिन्न प्रकारों से श्रावकों से धन संचय करने लगे और प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित बताया जाता है, किन्तु उन श्रावक-श्राविकानों को शास्त्रों मोर पागम परम्परा । इस ग्रन्थ को परीक्षा करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि से दूर रखा। उन्होंने धर्म के नाम पर मत्र-तंत्रादि का यह ग्रन्थ अपने वर्तमान रूप मे कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित लोभ या डर दिखाकर कई ऐसी प्रवृत्तिया चलायीं जो नही हो सकता। अपने विचार प्रस्तुत करने से पूर्व में दिगम्बर जैन मागम के अनुकल नही थी। इन्होने प्राचीन कतिपय साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों के मत उद्धत करना साहित्य अपने अधिकार मे कर लिया और नवीन साहित्य प्रावश्यक समझता हूँ:निर्माण करने लगे, वह भी कभी-कभी प्राचीन पाचार्यों स्व. डा० ए० एन० उपाध्याय ने प्रवचनसार की के नाम पर, ताकि लोग उन्हें प्रामाणिक समझ कर भूमिका में इस प्रकार लिखा हैउन प्रवृत्तियों का विरोध नहीं करें। ऐसे नव निर्मित "रयणसार ग्रन्थ गाथा विभेद, विचार पुनरावृत्ति, मप