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३८, बर्ष ३०, कि० ३-४
अनेकान्त
युक्त्यनुशासन का हिन्दी अनुवाद उन्होंने कितनी सरल लेखनी से प्रभावित हो बाब छोटेलाल जी कलकत्ता ने भाषा मे प्रस्तुत किया है, यह उनकी महत्वपूर्ण देन है उन्हे पार्थिक सहयोग स्वयं दिया और अपने दूसरे जो दार्शनिक विषय पर भी अच्छा प्रकाश डालती मित्रों से दिलाया; मुख्तार साहब के व्यक्तित्व को उभारने है। देवागम का अनुवाद भी उन्होंने सरल ढंग से प्रस्तुत का भी प्रयत्न किया। वीर शासन-जयन्ती के अवसर पर किया है, जो पठनीय है।
सरसावा मे अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया था उसमे इसी तरह, समीचीन धर्मशास्त्र (ग्नकरण्ड श्रावका- उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि 'मैं मुख्तार साहब चार) का अनुवाद, भाष्य और प्रस्तावना बडी महत्वपूर्ण को वर्तमान मुनियों से भी कही अच्छा मानता हूँ जो है। वह मूल ग्रन्थ पर अच्छा प्रकाश डालती है, और सामाजिक झगड़ों से दूर रहकर ठोस साहित्य के निर्माण 'टीकाकार प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध मे भी ऐतिहासिक दृष्टि द्वारा जिन शासन और समाज की सेवा कर रहे है।' से यथेष्ट प्रकाश डालतो है।
बाबू छोटेलाल जो की उदारता, उत्साह और परिश्रम से प्रापका प्रन्तिम भाष्य प्रमितगति प्रथम का 'योगसार तथा पूज्य प० गशेश प्रसाद जी वर्णी की प्रेरणा से वीर प्राभूत' है जिसका उन्होने बोसो बार प्रध्ययन किया है
सेवा मन्दिर का भवन दिल्ली में बन गया। मुख्तार सा० पोर बहुत-कुछ चितन के बाद उसका मूलानुगामी अनुवाद का दाबू छोटेलाल जी के साथ पिता-पुत्र जैसा सदढ प्रेमपौर भाष्य प्रस्तुत किया है। यह उनको अन्तिम कृति है। सम्बन्ध बहुत वर्षों तक रहा, पर कुछ कारणों से परस्पर इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हुमा है। प्राशा है।
मतभेद उत्पन्न हो गया था। बाद में उसमे पत्र व्यवहारादि समाज उससे विशेष लाभ उठाने का प्रयत्न करेगा।
द्वारा कुछ सुधार हो गया और उनका परस्पर पत्रव्यवहार
भी चालू हो गया था, किन्तु दुर्भाग्य है कि सन् १९६२ के मरुतार साहब का जीवन सादा रहा है। वे सदा बाद उन दोनों का परस्पर मिलन नही हो सका। सिपाही की भांति कार्य करने के लिए तत्पर रहते थे। परावलम्बी होना उन्हें तनिक भी पमद नही था। वे अपना मम्तार साहब का अन्तिम जीवन भी सानन्द व्यतीत सब काई स्वय करके प्रसन्न रहते थे। उनके इस सेवा हुअा। वे बोर सेवा मन्दिर, दिल्ली से अपने भतीजे कार्य को देखते हुए यह स्वाभाविक लगता है कि ऐसे डा० श्रीचन्द्र जो संगल के पास एटा चले गए थे। संगल नि:स्वार्थ सेवाभावी विद्वान का समाज ने कोई सार्वजनिक जी ने अपने ताऊजी की सेवा प्रसन्नता से की। डा० साहब सम्मान नहीं किया, इसका हमें खेद है। पर कुछ व्यक्ति का सारा परिवार उनकी सेवा मे संलग्न रहता था। वे विशेष को अपनी कमजोरिया भी होती है जो उसे आगे बढ़न उनकी सेवा से प्रसन्न भी थे । डा. साहब ने लिखा है कि नही देती। मुख्तार साहब का जीवन एकांगी या । व जितना उनका अन्त समय बड़ी शाति के साथ व्यतीत हुमा और मै साहित्यिक विषयों पर विचार करते थे उतना उन्होने रातभर उनके पास बैठा रहा । णमोकार मत्र और समतसमाज के बारे मे कभी चिन्तन नही किया। समाज के प्रति भद्रस्तोत्र का पाठ करते हुए उन्होंने अपने शरीर का उनका वृष्टिकोण प्रायः अनुदार सा रहा प्रतीत होता है। परित्याग किया। उनका देहावसान २२ दिसम्बर को ११ इस कारण उनके कितने ही कार्य अधूरे पड़े रहे, जिन्हें वे वर्ष २२ दिन की प्रायु में प्रातःकाल हुमा। उनके रिक्त स्वय सम्पन्न करना चाहते थे। वे वीर सेवा मन्दिर जैसी स्थान की पूर्ति होना असभव है। मैं उन्हें अपनी हादिक उच्चकोटि को संस्था के सस्थापक थे। उन्हें अच्छे कार्य- श्रद्धांजलि अर्पित करता हमा उनकी प्रात्मा को परलोक कर्ता विद्वानों का सहयोग भी मिला था। उनकी प्रौढ़ में सुख-शान्ति की कामना करता हूँ।
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