SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुख्तार भी:पतित्व और कृतित्व ही शब्दों को जांच-तोल कर रखते थे। उनकी लेखनी व्याख्या-यहां इन्द्रियों से भी पहले मन को जीतने झटपट और चलता हुमा नहीं लिखती थी। लिखते समय का सहेतुक निर्देश किया गया है और यह बतलाया को उनको एकाग्रता मोर संलग्नता अनुकरणीय है। है कि मन को जीतने पर मनुष्य सहज ही जितेन्द्रिय हो 'तत्त्वानुशासन' का भाष्य लिखते समय प्राचार्य राम. जाता है। जिसने अपने मन को नहीं जीता वह इन्द्रियों सेन के मूल पद्यों का मूलानुगामी अनुवाद किया और को क्या जीतेगा ? मन के संकल्प-विकल्प रूप-व्यापार को बाद में भाष्य लिखा। भाष्य लिखते समय मूल ग्रंथकार रोकना अथवा मन को जीतना (मन की चंचलता को की दृष्टि को प्रक्षुण्ण रखते हुए पद्यों में पाये हुए विशे- दूर कर उसे स्थिर करना) कहलाता है। मन का व्यापार षणों का स्पष्टीकरण किया। पाठकों की जानकारी के रुकने अथवा उसकी चंचलता मिटने पर इन्द्रियों का लिए उसके दो पद्यों का अनुवाद और व्यारूपा नीचे दी व्यापार स्वत: रुक जाता है-वे अपने विषयों में उसी जाती है प्रकार प्रवृत्त नहीं होती जिस प्रकार कि वृक्ष का मूल संग-त्यागः कवायाना निग्रहो व्रतधारणम् । छिन्न-भिन्न हो जाने पर उसमे पत्र-पुष्पादिक की उत्पत्ति मनोक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजम्म नि । नहीं हो पाती। परिग्रहों का त्याग, कषायों का निग्रह-नियंत्रण, व्रतों तत्वानुशासन' की प्रस्तावना बहुत विचार-विमर्श के का धारण और मन तथा इंद्रियों का जीतना यह सब ध्यान बाद लिखी गयी है। उसके लिखने में मुख्तार साहब ने की उत्पति-निष्पति में सहायभूत सामग्री है । व्याख्या में मच्छा बम किया है। इस संबन्ध मे मैंने उन्हें पर्याप्त यहां संग-त्याग में बाह्य परिग्रहों का त्याग अभिप्रेत है: सामग्री दी थी। उन्होने मेरा उल्लेख भी किया है। क्योंकि अन्तरग परिग्रह में क्रोधादि कषायों का निग्रह में रामसेन के समय का निर्णय उन्होंने कितने सुन्दर और समावेश है। कुसंगति का त्याग भी संगत्याग में पा जाता सरल ढंम से किया, यह देखते ही बनता है। है। वह भी सध्यान में बाधक होती है। व्रतों में महिंसादि पापके ग्रंथों की प्रस्तावनाएं बड़ी मार्मिक और महावतों तथा अणुव्रतों मादि का ग्रहण है। अनशन शोषपूर्ण हैं। 'अध्यात्म-कमल मार्तण्ड' की प्रस्तावना में ऊनोदर प्रादि के रूप में अनेक प्रतिज्ञाएं भी व्रतों में १७वीं शताब्दी के विद्वान् तथा प्रथित ग्रन्थकार पारे शामिल है। इन्द्रियों के जय में स्पर्शन-रसना प्राण-चक्ष राजमल्ल का परिचय और उनकी कृतियों के संबन्ध में श्रवण ऐसी पांचों इन्द्रियों की विजय विवक्षित है । ध्यान अच्छा प्रकाश डाला गया है। की मोर भी सामग्री है। परन्तु यहाँ सर्वतो मुख्या पुरातन जैन वाक्य-सूची की प्रस्तावना और उसका सामग्री का उल्लेख हैं। शेष सामग्री का 'च' शब्द में संपादन मापने सहयोगी विद्वानों के साथ किया। अन्य मन्वेसमुच्चय चाहिए। उसे (अन्य ) ग्रन्थों के सहारे जटाना षण करने वाले विद्वानों के लिए वह उपयोगी है। मुख्तार चाहिये। इस ग्रंथ में भी परिकर्म मादि के रूप में जो साहब ने उसकी प्रस्तावना में प्रत्येक ग्रंथ पौर प्रथकार कुछ अन्यत्र कहा गया है उसे भी ध्यान की सामग्री के सम्बन्ध में अच्छा विचार किया है। खासकर सम्मति समझना चाहिए। सूत्र और सिद्धसेन के सम्बन्ध में जो विचार अथवा इंद्रियाणां प्रवृत्ती निवृत्तीच मनः प्रभु । निष्कर्ष दिया गया है वह मौलिक है। गोमम्टसार की मन एव जये-तस्मास्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः।। त्रुटि-पूर्ति पर भी प्रकाश डाला है और भी अनेक विद्वानों इन्द्रियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में मन प्रभु के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला गया है जो शोषक सामथ्र्यवान है, इसलिए (मुख्यतः) मन को ही जीतना विद्वानों के लिए उपयोगी है। चाहिए । मन को जीतने पर मनुष्य (वास्तव में)जितेन्द्रिय 'समन्तभद्र भारती' के ग्रंथों का अनुवाद मौर व्याख्या होता है-इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है। बहुत ही परिश्रम के साथ सम्पन्न की गई है। खासकर
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy