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ऋषभ प्रतिमा का एक विशेष चिह्न : जटारूप केशराशि
इस केश-जटा के कारण ही भगवान् "केशी" नाम से वस्त्राभरण पहनाना, गले में फूल माला डालना, हाथों में प्रसिद्ध हुए।
__ फूल चढाना, चन्दन-केसर लगाना-यह सब योगिमुद्रा (८) अर्हद्दासकृत-"पुरुदेव चम्पू" सर्ग ८, पृ. १५७ - की विडंबना है, वीतरागता का प्रवर्णवाद है। जटीभूतः केशाविभशिरसि संस्कारविरहा,
जटाजूट वाली ऋषभ प्रतिमा का उल्लेख प्राचीन अदानी ध्यानाग्निप्रतपन विशद्धस्य बहधा ।।३। साहित्य मे भी काफी पाया जाता है। प्रमाण के लएि (६) वत्तीसुवरास मुणीसरह कुडिला उचियकेस ॥ देखिये :
-महापुराण (पुष्पदतकृत) ३७, १७ १-पादिजिणप्पडिमानो तारो जडम उड सेहरिलपाम्रो। इसी भाव को प्राधार बनाकर प्राचीन मूर्तिकारों ने
पडिमो परिम्मि गंगा अभिसित्तमणा व सा पडदि ॥२३० ऋषभ प्रतिमा के कंधों पर लबे लंबे केश प्रदर्शित किये पुफ्फिद पंकज पीडा कमलोदर सरिसवण्णवरदेहा। है । कुषाणकाल (२-३ शती) से लेकर आधुनिक युग तक
पढम जिणप्पडिमायो भरति जे ताण देंति णिब्वाणं ।२३१ इसका प्रचलन रहा है। ऐसी हजारो प्राचीन प्रतिमाये
-तिलोयपणत्ती (यतिवृषभाचार्यकृत) प्र. ४ पाई जाती है। बघेरा क्षेत्र पर भी ऐसी ८.१० प्रति- अर्थ- वे आदि जिनेन्द्र की प्रतिमायें जटामुकुटरूपी मायें है।
शेखर से युक्त है। उन प्रतिमानो के ऊपर गंगा नदी ___इन सब में अनेक पर प्रशस्ति लेख भी पाये जाते है मानों अभिषेक करती हुई गिरती है। फूले हुए कमलों जिनमे ऋषभदेव का स्पष्ट नाम भी दिया हुआ है। का जिनके पासन-पादपीठ है, सुन्दर देह वर्ण से युक्त हैं, किसी पर वृषभ चिह्न भी है। किसी पर न नाम है, न ऐसी प्रथम जिनेन्द्र की प्रतिमाये है। जो इनको सेवा पूजा चिह्न है फिर भी कंधो पर की केशराशि से वे निश्चित करता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है। ऋषभदेव की ही है।
२-सिरिगिह सीसठियंबुजकण्णिय सिंहासणे जडामउलं । च उपण्ण-महापुरिस-चरिय (शीलाकाचार्यकृत), त्रि- जिणमभिसेत्तुमणा वा मोदीण्णा मत्थरा गगा ॥५६॥ शष्टिशलाका-पुरुष-चरित (हेमचन्द्राचार्यकृत) आदि
--तिलोयसार (नेमिचन्द्राचार्य कृत) श्वेतांबर ग्रथों मे कही भी भगवान् की जटामों का वर्णन ३-पडमु जिणवरणाविव भावेण जड मउड विहसि ॥ नहीं है। इससे यह भी एक दि० श्वे० भेद रहा मालम
-सुकुमालचरित (अपभ्रंश) देता है। प्रतः जिन प्रतिमानो के कयो पर केशराशि ४-विवेश चिन्तयन्नेव भवनं तन्मनोहरं । हो, वे निश्चित रूप से एकमात्र दिगबरी ऋषभ प्रतिमा सत्फुल्लवदनाभोजो ददर्श च जिनाधिपं ॥१४॥ ही मानी चानी चाहिए क्योंकि ऐसी श्वे० प्रतिमायें उप- हुताशनशिखागौर पूर्णचन्द्रनिभानन । लब्ध भी नही होती।
पद्मासनस्थित तुगं जटामुकुटधारिणं ॥५॥ जिम तरह केशराशि से ऋषभ प्रतिमा पहचानी
-पद्मचरित (रविषेणाचार्यकृत), पर्व २८ जाती है उसी तरह ३, ७, ११ फणावली से पार्श्व प्रतिमा ५-दीहजडाम उडायसाह (दीर्घजट। मुकुटकृतशोभं)॥३॥ और १, ५, ६ फणावली से सुपाव-प्रतिमा एवं पावों मे
.-पउमचरिय (विमलसूरिकृत), पर्व २८ लिपटी बेल से बाहुबली-प्रतिमा की पहचान की जाती है।
अर्थ --प्रसन्न वदन वाले राजा जनक ने सुन्दर जिनाये ही इनके विशेष चिह्न-स्वरूप है।
लय में प्रवेश किया और वहा प्रग्निशिखा के समान पीतसभी जन प्रतिमायें ध्यानस्थ योगी-मुद्रा में होती है। वर्ण वाली, पूर्णचन्द्र के समान सुन्दर गोल मुख मण्डल चाहे वे पद्मामन हो या खड्गासन, सभी कायोत्सर्ग प्रवस्था वाली, जटा मुकुट से युक्त, विशाल मोर पद्मासन से स्थित मे ही होती है, जो वीतराग स्वरूप की द्योतक है। इन्हें प्रादि जिनेन्द्र की प्रतिमा के दर्शन किये। मुकुट पहिनाना, इनके पाखें लगाना, भंगियां रचना, इन प्रमाणो से भी सिद्ध है कि कंधो पर बिखरी