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________________ १२, वर्ष ३०, कि०१ प्रमेकान्त केशराशि वाली प्रतिमायें ऋषभदेव ही की होती है। फिर किये । जिससे मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि यह प्रतिमा भी, कुछ दूसरे कारणों से भूल-भ्राति का शिकार होकर ऋषभदेव ही की है, महावीर स्वामी की नही। साधारण लोंगों ने ही नही किन्तु पुरातत्त्वज्ञ-मूर्तिविज्ञान- सारी बातें मैने श्रीमान् पं० भंवरलाल जी पोल्याविशेषज्ञ विद्वानों तक ने ऐसी प्रतिमाओं को महावीर का, श्री पं० भवरलाल जी न्यायतीर्थ, श्री प० कस्तूर. मादि अन्य तीर्थङ्करों की मान ली है। इन गलतियो का चन्द जी कासलीवाल एवं श्री १० अनपचन्द जी न्यायजितनी जल्दी सशोधन हो उतना ही श्रेयस्कर है ताकि तीर्थ, जयपुर को बताई तो उन्होने भी मेरी बात को सही इतिहास अक्षुण्ण रह सके। इसी सद्देश्य से नीचे स्वीकार करते हुए इस पर एक लेख लिखने की प्रेरणा ऐसी प्रतिमामो का समीक्षात्मक परिचय प्रस्तुत किया की । तदनुसार यह निबंध प्रस्तुत किया गया है। जाता है : ऐसा मालूम होता है कि उक्त प्रतिमा के प्रशस्ति लेख में कहीं ऋषभनाथ का नाम था, जब कि लोगों ने १. जयपुर मे गोपालजी के रास्ते में काला डेहरा दो सिहमति से इस प्रतिमा को महावीर स्वामी की के महावीर जी का एक प्रसिद्ध मन्दिर है । उसमे भव्य कायम कर ली थी। ऐसी हालत मे यह नाम स्पष्ट बाधा प्राचीन कलापूर्ण एक खड्गासन, करीब ८ फूट ऊँची लाल डालता था। प्रत तत्काल सारी प्रशस्ति को ही घिस काले पाषाण की प्रतिमा है । उसके कंधों पर केशराशि दिया गया, सिर्फ "सं० ११४८" रहने दिया गया। विखरी हुई है, किन्तु नीचे चरण चौकी पर दो सिंह मूर्तियां इस प्रतिमा के आजू-बाजू मे, सामने और दोनो पाड़े उत्कीर्ण है। इससे लोगों ने उसे महावीर स्वामी की पार्श्वभागों में कुल मिलाकर ४ खड़गासन प्रतिमायें और प्रतिमा मानकर मन्दिर को महावीर स्वामी के नाम से विराजमान है जिनके भी पादपीठ पर २-२ सिंह मूर्तियां प्रसिद्ध कर रखा है । इस प्रतिमा पर स० ११४८ खुदा उत्कीर्ण है। किन्तु इनमे की ३ प्रतिमाओं के सिर पर है। आगे का सारा प्रशस्ति लेख घिसा हुमा है। फणावलियाँ भी है जिनसे वे स्पष्टतया पाश्र्व या सुपार्श्व की यह प्रतिमा वास्तव मे ऋषभदेव भगवान की है, प्रतिमाये है । अगर दो सिंह वाली मूर्ति के होने से किसी जैसा कि उसके कधो पर बिखरी केशराशि से प्रमाणित प्रतिमा को महावीर स्वामी की मानी जाए तो इन सब प्रतिहोता है। नीचे जो दो सिह मूर्तिया है वे महावीर स्वामी मानों को भी महावीर स्वामी की ही मानना होगा, जबकि के चिह्न रूप में नहीं है किन्तु सिंहासन नाम को सार्थक इनके शिर पर फणावली होने से ये निश्चित ही पार्वकरने की दृष्टि से मूर्तिकार ने उत्कीर्ण की है । अगर एक सुपार्श्व की प्रतिमाये प्रमाणित है। अत. यह सिद्ध होता है सपा मूर्ति होती तो 'सिंह चिह्न' रूप मे कदाचित् मानी जा कि दो सिंहमूर्तिया महावीर का चिह्न नही है किन्तु वे सकती थी। लोग भूल-भ्रान्ति मे नही पड़ें इसी से मूर्ति- सिंहासन की प्रतीक है। कार ने २ सिंहो को मोर वह भी मूर्ति-प्राकार रूप में कालाडेहरा मन्दिर, जयपूर की प्रबंधकारिणी कमेटी उत्कीर्ण किया है, न कि रेखामय चिह्न रूप ने (मूर्ति से सादर निवेदन है कि वह इस मसले पर शाति और उभरे प्राकार रूप में होती है और चिह्न सिर्फ रेखारूप गम्भीरता के साथ विचार करे और शीघ्र ही सशोधनात्मक में चित्रित होता है । यह मूर्ति पौर चिह्न में खास अन्तर समचित कदम उठायें ताकि सही इतिहास का लोप न हो है।) फिर भी लोग भूल-भ्राति मे पड़ ही गये । अब तक और वास्तविक तथ्य सामने आए। उस पोर किसी का लक्ष्य नही जा पाया है, यह और भी २. केकड़ी से १५ मील दूर सावर ग्राम में नेमि प्रभु खेद की बात है। का एक चैत्यालय है, जिसमे काले पाषाण की एक पना___इस प्रतिमा का फोटो प्रब की 'महावीर जयती स्मा- सन प्रतिमा है जिसके कधो पर केशराशि है जिससे कि वह रिका ७६' के शुरू मे छपा है। जब मेरी दृष्टि इस पोर निश्चित रूप से ऋषभदेव की है, किन्तु यहा के बन्धुपो ने गई तो मैं जयपुर गया और प्रतिमा के अच्छी तरह दर्शन उसे नेमिनाथ स्वामी की कायम कर रखी है और उन्हीं
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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