________________
ऋषभ प्रतिमा का एक विशेष चिह्न : जटारूप केशराशि
के नाम पर मन्दिर भी नेमि चैत्यालय के नाम से प्रसिद्ध समुचित संशोधन करें। अगर मेरी बात उन्हे ठीक प्रतीत कर रखा है।
हो तो वे प्रतिमा और मन्दिर को ऋषभदेव का प्रकट चम्पू क्लब, सावर द्वारा सन् १९७६ मे प्रकाशित 'श्री करें, जिससे सही इतिहास सामने प्राए । नेमि स्तवन' पुस्तिका मे लिखा है कि-"नींव से प्राप्त ३. वीर प्रेस, जयपुर मे इसी प्रसग पर मैं पं० भंवरहोने के कारण इस प्रतिमा का नामकरण श्री नेमिनाथ लाल जी न्यायतीर्थ से चर्चा कर रहा था तो उन्होंने किया गया तथा प्रतिमा की प्रशस्ति देखने से ज्ञात होता वहीं टगे कुंडलपुर (दमोह) के बड़े बाबा की प्रतिमा के है कि यह वीर निर्वाण संवत् २११ की प्रतिष्ठित है। चित्र की ओर मेरा ध्यान प्राकृष्ट किया। इस चित्र पर अतः यह २३०० वर्ष प्राचीन है।"
महावीर स्वामी लिखा हुमा था। इसमे भी पादपीठ पर समीक्षा-नीव से प्राप्त होने के कारण प्रतिमा को दो सिंह मूर्तियाँ दी हुई है, इससे इसे लोगों ने महावीर नेमिनाथ की मानना बिल्कुल गलत है। नीव से तो स्वामी की प्रतिमा समझ लिया है । किन्तु इसमें कानों के हजारों-लाखो प्रतिमाये निकलती है। क्या वे सभी नेमि. नीचे लटकती केशराशि द्योतित की है, इससे यह स्पष्ट ही नाथ स्वामी की है ? अगर नहीं तो यह हेतु प्रकार्यकारी ऋषभदेव की प्रतिमा ज्ञात होती है। दो सिंह तो सिंहाऔर मिथ्या है । नेमि का अर्थ नीव भी नही होता और सन के प्रतीक है, चिह्न रूप नही। इसके सिवाय इस न इस प्रतिमा पर कही नेमि प्रभु का चिह्न शख दिया प्रतिमा के आजू-बाजू मे जो यक्ष-यक्षिणी है, बे प्राशाघरहुपा है । प्रशस्ति मे भी कही नेमिनाथ नाम नही लिखा प्रतिष्ठापाठ के अनुसार, ऋषभदेव, ही के हैं महावीर के हुमा है। तब बिना किसी प्राधार के इस प्रतिमा को नही । नेमिनाथ की मानना स्पष्टतया भूल भरा है।
इस तरह कुण्डलपुर (दमोह) की यह प्रसिद्ध मनोज्ञ गत फाल्गुन मे इस मन्दिर का मेला था। तब मैं प्रतिमा भी महावीर स्वामी की नहीं है, ऋषभदेव (बड़े सावर गया था। मैने वहा इस प्रतिमा के अच्छी तरह बाबा) की ही है। आज तक लोग इसे बराबर महावीर दर्शन किये और प्रशस्ति लेख पढ़ा तो निम्नाकित तथ्य स्वामी को ही प्रतिमा प्रचारित करते पा रहे है। इस अवगत हुए ---
मोर भी सशोधन के लिए शीघ्र ध्यान दिये जाने की (१) प्रतिमा के कधों पर केशराशि होने से यह जरूरत है। निश्चित रूप से ऋषभदेव प्रतिमा है ।
४. प्रभी वीर निर्वाण रजत शती महोत्सव के प्रव. (२) प्रशस्ति लेख मे भी "ऋषभनाथ परमेष्ठिन" सर पर बीर-प्रचार को धुन मे अनेक प्राचीन मूर्तियो को, पढ़ने में प्राता है । इससे स्पष्ट है कि यह प्रतिमा ऋषभदेव जो ऋषभदेव की है, पाद-पीठ पर दो सिंह होने से की ही है।
उन्हें महावीर स्वामी को द्योतित कर दिया है, जो स्पष्ट (३) प्रशस्ति लेख में 'स. ११२१' से स्पष्ट चार प्रक भूल है। उदाहरण के लिए देखिए इन्दौर से प्रकाशित दिये हुए है. फिर भी लोगो ने प्रतिमा को प्रति प्राचीन अप्रेल, ७६ के सन्मति-वाणी (मासिक पत्र) का मुख पृष्ठ । बताने के लिए तीन ही अक (२११) कायम कर रखे हैं। इस पर खजुराहो की एक प्राचीन मूर्ति का चित्र दिया इसके सिवाय प्राचीनता में और भी वद्धि करने के लिए है और उसे महावीर जिनमूर्ति लिखा है, जबकि यह संवत् को वीर निर्वाण संवत् बता दिया है। इससे पांच सौ मूर्ति भगवान ऋषभदेव की है, क्योकि इसके कंधों पर वर्ष और बढ़ा दिये है। इस तरह नौ सौ वर्ष प्राचीन केशराशि उत्कीर्ण है एवं कघों के ऊपर दोनों बाजू में प्रतिमा को २३ सौ वर्ष प्राचीन कर दी गई है। यह सब वृषभ भी अंकित है। इससे स्पष्टत: यह ऋषभ प्रतिमा भति मोह का परिणाम है।
है । पाद-पीठ मे दो सिंहों के अंकन से भलभ्रांतिवश इसे सावर के बधुपो से नम्र निवेदन है कि वे इस पर महावीर मूर्ति लिख दिया गया है। पुनर्विचार करे और यथाशीघ्र विशेषज्ञों से परामर्श कर चांदखेडी, देवगढ़, गोलाकोट, चंदेरी प्रादि क्षेत्रों की