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१४, वर्ष ३०, कि०१
अनेकान्त
कतिपय ऋषभ प्रतिमानों की भी ठीक यही हालत है। (१) कपदंवे वृषभो युक्त प्रासीद, उन्हें भी इसी प्रकार महावीर की मान लिया गया है।
अवावचीत् सारथिरस्य के शी। ५. अनेकांत, वर्ष २४, किरण १ मे जबलपुर हनुमान दुधेर्युक्तस्य द्रवत सहानस, ताल के बड़े जैन मन्दिर की एक कलचुरि कालीन प्राचीन ऋच्छति मा निष्पदो मुद्गलानी ॥ प्रतिमा को, जो खिले कमल पर विराजमान है, लेखक ने
(ऋग्वेद १०, १०२, ६) पदमप्रभु की बताई है, किन्तु वह भी ऋषभनाथ की ही (२) केश्यग्नि केशी विष, केशी विति रोदसी। है, क्योंकि उसके भी कधो पर केशराशि विकीर्ण है। यहां केशी विश्व स्वदशे, केशीद ज्योतिरुच्यते ॥ कमल प्रासन के रूप में दिया है चिह्न के रूप में नही ।
(ऋग्वेद १०,१३६, १) तिलोयपण्णत्ती'. प्र०४, गाथा २३१ (यह गाथा इसी (३) गगनपरिधानः प्रकीर्णकेशः परागवलम्बमान कटिलेख में पीछे उद्धृत है) में ऋषभ प्रतिमानो को 'पुफ्फिद- लजटिलकपिशवेशभूरिभारः ऋषभः । पंक-जपीढा" अर्थात् खिले हुए कमलो के पासन पर विराज
(भागवतपुराण ५, ६, २८-३१) मान बताया है। तदनुसार ही जबलपुर की उक्त प्रतिमा प्रश्न जैन साधुग्रो के २८ मूल गुणों में केश लौंच निर्मित हुई है।
भी १ मूल गुण है। २ मास का केश लोच उत्कृष्ट, ३ मास कारीतलाई से उपलब्ध ३॥ फुट ऊँची एक ऋषभ का मध्यम और ४ मास का जघन्य माना जाता है। प्रतिमा रायपर संग्रहालय में है। उसके पादपीठ पर सिह ज्यादा से ज्यादा ४ मास मे तो कंश लौच करना ही युग्म के साथ हस्तियुग्म भी उत्कीर्ण है। हस्ति के आधार पडता है। तब ऋषभदेव ने १ वर्ष तक केश लौच क्यो नहीं पर, उक्त ऋषभ प्रतिमा को अजितनाथ की नहीं माना किया जटा क्यो बढाई ? जा सकता। बहत-सी प्रतिमानों के प्रासन पर हिरण समाधान-तीर्थ'करों के लिए केशलौंच का कोई उत्कीर्ण है। हिरण के आधार पर उक्त प्रतिमाये शाति- नियम (समयावधि) नही है । दीक्षा लेते वक्त उन्हे केशनाथ की नही मानी जा सकती।
लौच अवश्य करना होता है फिर वे इच्छानुसार जब चाहे यह सब सिंह, कमल, गज, मृगादि का अकन सिंहासन, तभी कर सकते है । उनके शरीर में बाहर निगोद जीव कमलासन, गजासन मृगासन के रूप मे है, तीर्थङ्करो के प्रतिष्ठित नही होते । उनके नीहार नहीं होने से उनके के चिह्न रूप में नही।
शरीर में कभी पसीना आदि मल स्राव नहीं होता, जिससे . प्रासनो पर के अंकन के आधार पर प्रतिमा उनके केशों मे सम्मूर्छन जीवों की उत्पत्ति भी नही होती का निश्चय नही होना चाहिए। किन्तु उसके दूसरे एव उन में वीतगगता की उत्कटता होने से केशो में भंगार. साधारण या विशेष चिह्नों के आधार पर ही प्रतिमा । शोभा के भाव का भी प्रभाव होता है। अत: उनके जटाका निर्णय होना चाहिए, तभी वास्तविकता की उप- रूप केश किसी तरह दोषास्पद नहीं माने गये है। लब्धि हो सकेगी।
प्रश्न--लबी जटाग्रो वाली ऋपभ प्रतिमायें अरिहताऋषभदेव केशरियानाथ के नाम से भी प्रसिद्ध है। वस्था की है या मुनि अवस्था की ? । अरिहतावस्था मे यह नाम इनके केशर चटाई जाने की अपेक्षा केसर-जटा- तो लबी जटाये नही होती, अतः ऐसी प्रतिमानो मे पूज्यता धारित्व प्रर्थ में ज्यादा सुसगत है। केश-केसर जटा की दृष्टि से क्या कोई कमी है ? एकार्थवाची है। केशो की विशेषता से ही सिंह केसरी समाधान ऋषभ-प्रतिमा की लबी जटायें उनकी कहलाता है।
दीर्घकालीन तपस्या की सस्मारक है। जिस तरह बाहुबलीऋषभदेव के केशी और कपर्दी जटाजूट रूप (कपर्दो- प्रतिमा की परो में लिपटी बेले उनके एक वर्ष के दुर्धर तप ऽस्य जटाजट -- अमरकोष) का उल्लेख वदिक ग्रथो मे और निश्चल ध्यान की परिचायक है एव पार्श्व-प्रतिमा भी पाया जाता है देखिए :
पर की फणाकृति उन पर हुए घोर उपसर्ग की परिसूचक