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________________ ऋषभ प्रतिमा का एक विशेष चिह्न: जटारूप केशराशि है। इसी तरह मुपार्श्व-प्रतिमा की फणाकृति भी उनके प्रश्न - जटाकेश वाली ऋषभ प्रतिमा मोर फणाविशेष इतिहास की द्योतक है । मण्डप वाली पाश्व प्रतिमा का सही प्रासन क्या है ? जब इन सब बातों का उक्त प्रतिमानों मे अंकन उन ऋषमदेव ध्यान में बैठ और पाश्र्व प्रभु पर जब उपसर्ग मामलों के जीवन की विशिष्ट मागेको बताने में हुआ तब वे पद्मासन या खड्गासन जिस पासन में थे वही सही प्रासन उनकी ऐसी प्रतिमानो में होना चाहिए। लिए किया गया है। किन्तु उनकी ऐसी प्रतिमायें दोनो ही मासनों में पाई ____ इन कायोत्सर्ग अवस्था (ध्यान) में लीन प्रतिमानों जाती है। अतः दोनो ग्रासनो मे से कोई एक भासन को हम चाहे मुनि अवस्था की भी माने तो भी वे पंच वाली गलत है, अवास्तविक है।। परमेष्ठी मे गभित होने से परम पूज्य ही है। वैसे ये सब समाधान- (१) प्रतिमा सब अरिहंतो की है । इसी प्रतिमायें जो अरिहंत हुए है उन्ही की बनाई गई है। से दोनों प्रासनों में बनाई गई है। जटा भौर फणामंडप शास्त्रों में केवली के भेदों मे सोपसर्ग केवली भी। का अंकन भूतकालिक जीवन की विशिष्ट घटना के बताये गये है, जबकि केवली अवस्था मे उपसर्ग नही स्मारक रूप मे है। होता। उपसर्ग-युक्तो को केवली कहना जिस तरह (भूत या ना जिस तरह (भूत या (२) २४ तीर्थकरों के शरीर का जैसा प्राकार भावी) नैगमनय से निर्दोष है, उसी तरह इन प्रतिमानों को लंबाई-चौडाई) तथा रग था. वही जब प्रतिमाओं में भी अरिहत की कहने या मानने में कोई दोष नही है। नही है फिर भी वे उन्ही की वास्तविक मानी जाती है सभी जन प्रतिमायें कायोत्सर्ग अवस्था में लीन होती तो प्रासनो के अन्तर से प्रवास्तविकता नहीं हो सकता। है इनमे से अनेक प्रष्ट प्रातिहार्यादि से युक्त भी होती है। (३) अगर ये जटा और फणामडप किसी एक खास इसी कारण इन्हे समवशरण कालीन बताना सगत नहीं प्रामन मेश्री सम्बन्ध रखते. मरे ग्रासन से संभव नहीं है, क्योकि समवशरण मे के बली पद्मासन से ही विराज- होमकले होते. तब फिर भी अवास्तविकता की बात मान रहते है, जब कि अष्टप्रा तिहार्यादि से युक्त प्रतिमायें होती। किन्तु ऐसा है नही। इनके होने में कोई प्रासन खड्गासन मे भी पाई जाती है। अतः यह प्रष्ट प्रातिहा बाधक नही है; जैसे बाहबली स्वामी की प्रतिमा र्यादि भी तीर्थकरों के अतिशय को द्योतित करने की खड़गासन मे ही होती है। खड़गासन मे बेलों मादि का दृष्टि से ही अकित किये जाते है। अनेक प्रतिमाये अंकन ठीक हो जाता है, पद्मासन में नही। इसी से बाहसामान्य केवलियों की और सिद्धो की भी होती है। उनके बली प्रतिमा पद्मासन मे नही पाई जाती। बाहुबली कोई समवशरण और अष्टप्रातिहार्य होते ही नहीं है । तीर्थकर नही हुए है, अरिहत अवश्य हुए है, फिर भी स्वामी समन्तभद्राचार्य ने लिखा है : . इनके जीवन की दुर्धर तपस्या को प्रदर्शित करने की देवागमन भोयान चामरादि विभूतय । दृष्टि से ही इनकी प्रतिमायें बनाई जाती है। मायाविश्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ।। ये सब दिगम्बर कायोत्सर्गावस्था मे होती है। प्रतः अर्थात-देवताग्रो का पाना और चमर ढोरना, प्रापका परम पूज्य है। प्राकाश गमन मे प्रादि अतिशय तो मायावियों (चक्र. हम नित्य देव दर्शन करते है। हमारा मुख्य उद्दश्य वर्तियों) मे भी पाये जाते है, इसी से प्राप महान् नही है। वीतराग-स्वरूप दिगम्बर कायोत्सर्ग मुद्रा की मोर ही ___ बहुत सी तीर्थंकर-प्रतिम'यें भी प्रष्टप्रातिहार्यादि होना चाहिए, तभी दर्शन की सफलता है। प्रतिमा संगसे रहित पाई जाती है। (उनके तीर्थ करत्व की पहिचान मरमर की है या रत्नों की, पीतल की है या सोने की, उनके चिह्नो से होती है)। ग्राजकल की तो सभी प्रति- काली है या सफेद, खड्गामन है या पद्मासन, प्रष्टप्रातिमायें प्राय: प्रष्टप्रतिहार्यादि से रहित ही होती है। ये हार्य युक्त है या रहित, ऋषभनाथ की है या महावीर की, भी सब पूज्य है और अरिहत की ही है। छोटी है या बड़ी, सोने के छत्र-भामडलादियुक्त है या
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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