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रिषभ प्रतिमा का एक विशेष चिन्ह : जटारूप केशराशि
D श्री रतनलाल कटारिया, केकड़ी (राजस्था ) निम्नाकित ग्रंथो मे इस प्रकार पाया जाता है : (१) जं ज उवणेइ जणो, त त नेच्छइ जिणो विगयमोहो । लबत जड़ा भागे, णरवइ भवण समणुपत्तो ||८|| - पउमचरिय ( विमलमूरिकृत ) प्र० ४. अर्थ - जो जो वस्तु मनुष्य लाते, वह वह मोहहीन भगवान् को अच्छी नही लगती । ऋषभदेव जिनकी लंबी जटाओ का भार था राजा श्रेयास के महल के पास हु
( २ ) पद्मचरित (रविषेणाचार्यकृत)
क. स रेजे भगवान् दीघं जटाजाल हृताशुमान् ||५|| पवं ४ ख. वातोद्धता जटास्तस्य रेज़राकुलमूर्तयः ॥ २८८ ॥ पर्व ३ ग. प्रलबित महाबाहुः प्राप्तभूमि जटाचयः ॥ २८६ ॥ प. ११
तीर्थंकरो के दाहिने पैर मे जो विशेष चिन्ह होता है वही उनकी प्रतिमाओ मे संयवहार के लिए प्रसिद्ध किया गया है। चिह्नों का प्रयोग करीव ८वी शती मे प्रारम्भ हुआ है । दाहिने पैर मे होने से ये चिह्न प्रतिमानों के पाद पीठ (चरण-चौकी) पर अकित किये जाते है । शास्त्रों मे २४ तीर्थकरो के २४ भिन्न-भिन्न चिह्न बताये गये है । ये चिह्न ऐसे है जिन्हे देखकर अशिक्षित मी तीथंङ्कर प्रतिमा की पहचान कर सकता है। ये चिह्न तीर्थङ्करों के वाहनरूप या ध्वजारूप नही है किन्तु सिर्फ प्रतिमा की पहचान के लिए कायम किये गये है ।
तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रंथो में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभनाथ का ह्नि वृषभ ( बन्न ) बताया गया है।
(१) नीर्थङ्कर जब माता के गर्भ मे आते है तो माता निद्रा मे अपने मुख के अन्दर प्रवेश करता हुआ हाथी देखती है । २३ तीर्थङ्करो के चरित्र में ऐसा ही बताया गया है किन्तु ऋषभदेव की माता मरुदेवी ने हाथी के बजाय मुह मे वृषभ प्रवेश करता हुआ देखा था ।
(२) युग के श्रादि मे ऋषभ ने वृषभ (बैल) से कृषि विद्या का उपदेश दिया था जिससे वे कुलकर कहलाये थे ।
(३) 'ऋषभ' और 'षृषभ' एकार्थवाची है । इनके नाम मे भी इनका चिह्न गभित है।
इस प्रकार प्रथम ( प्रादि) तीर्थंकर का चिह्न वृषभ प्रसिद्ध है ।
अतः
भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा लेते हो ६ माह की समाधि ले ली थी । समाधि पूरी होने पर जब वे माहार के लिए उतरे तो कही भी शास्त्रानुसार आहार का योग नही मिला। इससे उन्होने फिर ६ माह की और समाधि ग्रहण कर ली। इस तरह एक वर्ष तक समाधि में लीन रहने से उनके दीर्घ जटायें बढ गई। इसका उल्लेख
अर्थ - भगवान् ऋषभदेव के दीर्घं तपस्या के कारण जटायें इतनी वह गई थी मानो वे भूमि को ही छूने लग गई थी ।
(३) हरिवशपुराण ( जिनसेनाचार्यकृत) - स प्रबल जटाभारभ्राजिष्णुजिष्णु गबभी || २०४ || सर्ग ६ (४) महापुराण ( जिनसेनाचार्य द्वितीय कृत ) पर्व १८ संस्कारविरहात्केशा जटीभूतास्तदा विभो ॥७५॥ मुनेर्मूनि जटा दूर प्रशस्त्र पवनोद्धताः ॥७६॥ चिर तपस्यतो यस्य जटा मूर्ध्नि वभुस्तरां ॥ ६ ॥ पर्व १ ( ५ ) पउमचरिउ ( स्वय भूकृत ) सधि २, कडवक ११ छद ६ :
पवणद्भयउ जडाउ रिमह हो रेहति विसालउ || (६) दौलतराम जी कृत भजन
देखो जी प्रादीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है । श्यामलि अलकावलि शिर सोहे, मानों धुम्रां उड़ाया है ॥ (७) श्रादितीर्थङ्कर ऋषभदेव (कामताप्रसाद जी कृत) पृ० १२७ :