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वर्ष ३०
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ जुलाई-दिसम्बर किरण ३-४ वीर-निर्वाण सवत् २५०३, वि० सं० २०३३
। १९७७ चउवीस-तित्थयर-भत्ति
(चौबीस तीर्थकरों को भक्ति) त्थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली प्रणंतजिणे। गरपवरलोयमहिए, वियरयमले महप्पणे ॥१॥ लोयस्सज्जोययरे, धम्म तित्थंकरे जिणे वंदे। परहंते कित्तिस्से चउधीमं चेव केवलिणो ॥२॥ उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च समईच। पउमप्पहं सपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥३॥ सविहिं च पुष्फयंतं, सीयल सेयं वासपुज्जं च । विमलमणतं भयवं, धम्म संति च वंदामि ॥४॥ कथं च जिणरिदं, अरं च मल्लिं च सव्ययं च णमि। वंदामि रिट्टनेमि, तह पागं वड्ढमाणं च ॥५॥ एवं मए अभिभया, वियरयमला पहीणजरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंत ॥६॥ कित्तिय वंदिय महिया, ए ए लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। प्रारोग्गणाणलाहं, दितु समाहि च मे बोहि ॥७॥ चंदेहि णिम्मलयरा, प्राइच्चेहि अहियपहा संता।
सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥८॥ -प्राचार्य कुन्दकुन्द अर्थ-मैं जिनवर, तीर्थकर, केवली और अनन्त जिनकी स्तुति करता है, जो लोक के नरवरों से पूजित, मलरहित और माहात्म्य से युक्त हैं ।।१।। लोकको प्रकाशित करने वाले तथा धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले जिन देव की वन्दना करता हूँ। अहंन्त तथा चौबोसों तीर्थकरों का कीर्तन करता हं ।।२।। मैं ऋषभ और अजितनाथ की वन्दना करता हूं, सम्भव, अभिनन्दन और सुमतिनाथ की वन्दना करता हूं, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभनाथ की वन्दना करता हूं ॥३।। सुविधिनाथ (पुष्पदन्त), शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ और शान्तिनाथ की वन्दना करता हूँ॥४॥ जिनवर श्री कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, अरिष्टनेमि (नेमिनाथ), पार्श्वनाथ पीर वर्द्धमान (महावीर) की वन्दना करता है ।।५।। इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, कर्म-मल-रजसे रहित, बुढ़ापा तथा मरण से रहित जिन वर, चौबीस तीर्थकर मुझपर प्रसन्न होवें ॥६॥ जो जो लोकोत्तम जिन, सिद्ध कीर्तन किए गये, वन्दित और पूजित हैं, वे मुझे प्रारोग्य, ज्ञान, समाधि और बोधि प्रदान करें ॥७॥ चन्द्रसे भी अधिक निर्मल और सूर्य से भी अधिक प्रभावान तथा सागर के समान गम्भीर सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान करें ।