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________________ असाधारण प्रतिभा के धनी 0 श्री सुमेरचन्द्र जैन, एम० ए०, नई दिल्ली जैनधर्म भौर जैन संस्कृति के प्रचार का कार्य उन्हीं ऐसे ही कुशल मालोचकों, लेखकों और कवियों की मेधावी पुरुषो ने किया है जिनकी प्रात्मा में घहिसात्मक पंक्ति मे एक तेजस्वी असाधारण प्रतिभा-संपन्न नर-रत्न भावनामो को फैलाने और लोक कल्याण की तीव्र का ऐसी जगह उदय हुप्रा जिसकी सभावना बहुत कम माकांक्षा जन्मजात विद्यमान है। प्राचीनकाल में अनेक थी। परन्तु प्रवाह बहते देर नहीं लगती । एक दिन देवलोकोत्तर ऋषि पूजव हए जिन्होंने अपना जीवन प्रात्म बन्द के कानूनगो मोहल्ले में बठे हुए चार व्यक्ति चर्चा कल्याण और जन साधारण के हित के लिए अर्पित कर कर रहे थे। कचहरी के काम मे सचाई नहीं झूठ, बोलना दिया। जैन प्राचार्यों, मुनियो, उपाध्यायो और विद्वानो पड़ता है। ने जो प्रमतमयी साहित्य का निर्माण किया, उसका प्रमुख सबसे पहले श्रीमूरजभानु वकील बोले : मेरा मन तो उद्देश्य प्रात्मदशन और भात्म वैभव को प्राप्त करना इस कार्य से ऊब गया है। मुझे जनधर्म पर किए गए प्रारोपी था। का मुहतोड़ उत्तर देन में प्रानन्द प्राता है। श्री जगल त्याग, बीरता, लोक हित और सन्मार्ग की पोर किशोर मुख्तार जो वहीं उन्ही की देख-रेख मे कार्य करते प्रवृत्ति बनी रहे, यही कल्याणकारी लक्ष्य रहा। फलस्वरूप थे वकील सा, की वात का समर्थन करते हए कहने लगे : इतने विशाल साहित्य का निर्माण हुपा जिसको हम जैनधर्म के प्रचार की बड़ी आवश्यकता है। हमे अपना भली प्रकार सुरक्षित भी नही रख सके। उन गौरवशाली जीवन इस प्रकार के वातावरण से निकालकर, जिसमे मुनियों, कवियो और दिग्गज लेखकों के सम्बन्ध में पूर्ण पात्मा की आवाज का हनन होता हो, उसे छोड़कर निर्द्वन्द जानकारी प्राप्त न कर सके मोम उनकी अमूल्य निधियो रीति से धर्म प्रचार के कार्य में लग जाना चाहिए। मेरे से अपरिचित रहे। ऊपर आपका बड़ा प्रभाव है। इधर जब तक आपके नाम ___ साथ ही, कुछ ऐसे व्यक्तियो का प्रादुर्भाव हुमा की आवाज नही आती है तब तक आप कचहरी मे ही जिन्होंने हमारे देदीप्यमान रत्नो मे कांच की तरह बैठे जनधर्म पर होने वाले प्राक्षेपों का उत्तर लिखने मे चमकते हुए टुकड़ों को उस साहित्य में मिला दिया जिससे सलग्न रहते है । उघर अावाज पड़ी कि उस मुकद्दमे की उसके सौन्दयं मे विकार पा गया। जन साधारण श्रद्धा परवा म खड़ होकर बहस कर परवी में खड़े होकर बहस करने लगे। पापकी व्युत्पन्न के वश उस साहित्य की परीक्षा न कर सका। जब नए बुद्धि और तत्काल उत्तर देने की क्षमता अपूर्व है। मेरा युग का प्रादुर्भाव हुप्रा तो विद्वानो का ध्यान इस ओर मन भी अब इस प्रकार के कार्यों की ओर से शिथिल प्रावर्षित हुमा। उन्होने विचार किया कि हमारे यहां हो गया है। परीक्षा-प्रधानी और माशाप्रधानी दोनो में परीक्षा-प्रधानी श्री इश्कलाल पटवारी को जो पार्यसमाजी थे, को अधिक महत्व दिया है। क्यो न हम उस साहित्य का जैनधर्म के तत्त्वों की ओर आकर्षण था। वे उसके रसिक मूल्यांकन कर जो हमारे साहित्य को मलिन कर रहा है। थे । कहने लगे : पटवारीगिरी के कार्य में सही ढंग से उसे दूर कर भ० महावीर की दिव्य देशना का प्रचार सचाई अपना कार्य नहीं कर पाती। उनमें भी अपने कार्य अभिनव रूप से नवीन शैली से किया जाय । से विरक्ति का भाव पैदा हो गया। चौथे जैन प्रदीप (उर्दू
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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