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'बात्य' : जैन संस्कृति का पूर्वपुरुष
- डा. हरीन्द्रभूषण जैन, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन बेबों में न संस्कृति
'वात्य' वैदिक वाङ्मय की एक कठिन पहेली है। जैन संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है; इतनी प्राचीन कि ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों (१.१६३.५% ६.१४.२), यजर्वे जिसका समय निर्धारित करना कठिन है। वेद का चाहे की वाजसनेयी संहिता (३०.८) तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण जितना भी समय निर्धारित किया जाए, यह बात अत्यन्त (३४.५.१), अथर्ववेद (१५.१.१-६), पञ्चविश ब्राह्मण सम्भव प्रतीत होती है कि वेद के समकाल मे जैन सस्कृति
(१७१-४), कात्यायन श्रौत्रसूत्र (८.६), पापस्तब श्रौत्रसूत्र अवश्य रही होगी।
(२५.५; ४१४) तथा महाभारत (५.३५.४६) मे 'व्रात्य' ____ डा० राधाकुमुद मुकर्मी तथा श्री चन्दा जैसे भारतीय
का उल्लेख है। संस्कृति के निष्णात विद्वान्, वेदपूर्वकालीन सिंधुघाटी
ब्रात्य का स्वरूप सभ्यता में प्राप्त कायोत्मर्ग मुद्रा को मूतियों को प्राम जैन
उपर्यन रल्पों मे 'वात्य' का जो स्वरूप पोर तीर्थकर वृषभदेव की मूर्ति से तुलना करते है।'
प्राधार निर्धारित होता है वह पयस्त भी है पौर अप्रशस्त वेदों में ऐसे अनेक सकेत है जो जैन संस्कृति के प्रतीक
भी। यजुर्वेद की वातसनेगी महिता (३०.८) तथा तैत्तिरीय प्रतीत होने है। डा. राधाकृष्णन् जैसे प्रसिद्ध दार्शनिक मनीषी वेदों में ऋषभदेव, अजितनाय और अष्टिनेमि,
ब्राह्मण (३.४.५,१) के अनुगार नरमेध में जिन मनुष्यो का इन तीन तीर्थकरो के नाम होने की बात स्वीकार करते
बलिदान किया जाता था उनमे बाल भी थे। पञ्चविश है।' ऋग्वेद १० १२१) के 'हिरण्यगर्भ मम पर्तनाथ' मन्त्र
ब्राहाण (१७-१.) वास्यो को जाति बहिष्कृत, हीन,
दलित तथा निन्दित रूप में उल्लिवित करता है। महाका हिरण्यगर्भ, श्रमण सस्कृति का गुगपुरुप ऋषण ही है। ऋग्वेद के दो मूकनो (७०.2 नना १०.६६३) मे
__ भारत मे व्रात्यो को महापानकियो मे गिनाया गया है।
इसो विपरीत अथर्ववेद (१५.१) में प्रात्य के लिए 'शिश्नदेवा.' शब्द आया है। इनका गागान्यत: लिङ्गपूजक
अत्यन्त प्रशमनीय शब्दों का प्रयोग किया गया है-'व्रात्य अर्थ किया जाता है; किन्तु कुछ विद्वान् हट्टापा से प्राप्त
पासीदीयमान एव स प्रजापति समरया' अर्थात् पर्यटन दो नग्न मूर्तियों के सदर्भ में, शिश्नदेवा:' का अर्थ शिश्न
करते हुए व्रात्य ने प्रजापति को शिक्षा और प्रेरणा दी। युक्त देवता अर्थात् नग्नदेवता को पूजने वाले करते है।
सायण ने इसकी व्याख्या में लिखा है ---'कञ्चित् विद्वत्तमं डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, 'मुनयो वातरशना:
महाधिकारं पुण्यशील विश्वसम्मान्य कर्मपराह्मणविदिष्टं पिगङ्गा वसते मलाः', ऋग्वेद (१०.१३५.२) के इम मंत्र के वातरशना' का अर्थ, वायु जिनकी मेखला है अथवा
व्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम्' अर्थात् यहाँ किसी दिशाएँ जिनका वस्त्र है, अर्थान् दिगम्बर करते है।
विद्वानो मे उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील, विश्वपूज्य व्रात्य इस प्रकार वेद मे तीर्थकरों के नाम तथा हिरण्यगर्भ,
को लक्ष्य करके उक्त कथन किया गया है, जिससे कर्मशिश्नदेव, वातरशना प्रादि शब्द जैन दृष्टि से प्रत्यन्न काण्डी ब्राह्मण विद्वेप करते थे। व्रात्यो के संबंध में जो विचारणीय हैं। इसी प्रसंग का एक और वैदिक शब्द है अप्रशस्त भावना प्रकट की गई है उसका कारण संभवतः 'प्रात्य' जो हमारे लेख का विषय है।
कर्मकाण्डी ब्राह्मणों का निद्वेष होना चाहिए। १. डा. राधाकुमुद मुकर्जी, "हिन्दू सभ्यता' पृ २३-२४, ४. श्री टी. एन रामचन्द्रन्, 'अनेकान्त'; वर्ष १४,कि. ६,
तथा 'माउन रिव्यू' जून, १९३२ मे श्रीचन्दा का लेख । पृ. १५७, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली। २. 'भारतीय दर्शन का इतिहास' जिल्द १, पृ. २८७ ।
५. 'जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका'-प्राक्कथन
पृ.११। ३.पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, 'जैन साहित्य का इतिहास :
६. 'वेदिक इण्डेक्स' मैकडानल तथा कोय, हिन्दी अनुवादक पूर्वपीठिका', श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला,
रामकुमार राय, चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी, वाराणसी, पृ. ११८ ।
१९६२, भाग-२, 'व्रात्य' शब्द ।
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