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________________ ६४, वर्ष ३०, कि० २ भनेकान्त जैन संस्कृति से सम्बन्ध व्रात्य, बौद्धधर्म जैसे किसी प्रब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। व्रात्य के सम्बन्ध में अभी तक जो अनुसंधान हुआ है यहां डा. बेवर का अभिप्राय जैनधर्म से रहा होगा क्योंकि उसके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वेदकालीन व्रात्य वेदकाल में बौद्धधर्म का अस्तित्व ही नहीं था। अथर्ववेद जैन संस्कृति का प्राचीन पुरुष है। का. १५ के प्रथम सूवत के भाष्य में सायण के द्वारा व्रात्य व्रात्य शब्द व्रत या बात से बना है। जैनधर्म में व्रतों के लिए प्रयुक्त कर्मपराह्मणविद्विष्टं'-कर्मकाण्डी ब्राह्मण का जो महत्त्व है वह माज भी ब्राह्मणेतर धर्म में नहीं है। जिससे द्वेष करते है, विशेषण भी जैनधर्म के पुरस्कर्ता पौर व्रात्य का अर्थ घुमक्कड़ भी होता है। सायण ने बात का अनुयायी के लिए सुसंगत बैठता है।' मर्थ घूमना किया है । प्रत: महाव्रती एव निरन्तर भ्रमण व्रात्य-अनुश्रुति से संबद्ध श्वेताश्वतरोपनिषद् (३.४.२) शील जैन साधु के लिए प्रास्य शब्द अत्यन्त उपयुक्त में हिरण्यगर्भ से व्रात्य का सम्बन्ध बताया गया है-'यो बैठता है।' देवानां प्रभवश्च उद्भवश्च विश्वाधिपोरुद्रो महर्षि हिरण्यजर्मनी के डा० हावर ने 'देर प्रात्य' नाम से व्रात्यों गर्भ जनयामास पूर्वम्'। जैन सस्कृति में प्रथम तीर्थकर के संबन्ध में एक पुस्तक लिखी है जिसमें उन्होंने बताया है ऋपभदेव को 'हिरण्यगर्भ' कहा गया है । जैन मान्यता के कि 'वात्य' शब्द वात से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है व्रत. अनुसार जब ऋषभदेव गर्भ में आये तो प्राकाश से स्वर्ण पुण्य-कार्य मे दीक्षित मनुष्य या मनुष्यों का समुदाय । वे (हिरण्य) की वृष्टि हुई । इसी से वे हिरण्यगर्भ कहलायेलिखते हैं कि-'अथर्व. का. १५, सूक्त १०-१३ मे लौकिक सैषा हिरण्यमयी वृष्टिर्धने शेन निपातिता । व्रात्य को प्रतिथि के रूप में देश मे घमते हए तथा राजन्यो निभोहिरण्यगर्भवमिव बोधयितुं जगत् ।। -प्राचार्य जिनसेन ; 'महापुराण' पर्व १२-६५ मौर जनसाधारण के घरों में जाते हुए दिग्वलाया गया है। अथर्ववेद के १५वें काण्ड के प्रथम सूक्त मे वास्य को .."अतिथि, घूमने-फिरने वाला साधु ही है, जो अपने साथ प्रादिदेव कहा है तथा तृतीय सूक्त मे कहा है कि व्रात्य मलौकिक बातो का ज्ञान लाता और अपना स्वागत करने पूरे एक वर्ष तक खड़ा रहता है । जैनो मे ऋषभ को प्रादि वालों को माशीष देता है । प्राचीन भारत में व्रात्य किसी देव कहा जाता है और वे प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् ब्राह्मणेतर धर्म के प्रतिनिधि थे। वे जहां जाते उनकी छ: माह तक कायोत्सर्ग मुद्रा मे सीधे खड़े रहे।" मावभगत बड़ी श्रद्धा-भक्ति से होती। यदि वह किसी घर अथर्ववेद (१०.१-२) में उल्लेख है कि जिस राजा में एक रात ठहरे तो गृही, पृथ्वी के सब पुण्यलोकों को के प्रतिथिगृह मे विद्वान् व्रात्य का आगमन हो वह उसे पा जाता है। अब तो वह 'एव विद्वान् व्रात्यः' है जिसके प्रपना कल्याण माने। ऐसा करने पर वह अपने क्षत्रधर्म ज्ञान ने अब पुराने कर्मकाण्ड की जगह ले ली है। प्राचीन मौर राष्ट्रधर्म से च्युत नही होताभारत में एक ही व्यक्ति ऐसा है जिस पर यह बात घट तद यस्यैव विद्वान् व्रात्यो राज्ञोऽतिथिगृहानागच्छेत् सकती है। वह है परिव्राजक, योगी या संन्यासी। योगियों श्रेयासमेनमात्मनो मानयेत् । तथा क्षत्राय नावृश्चते तथा संन्यासियों का सबसे पुराना नमूना व्रात्य है। राष्ट्राय नावृश्चते।' डा०हावर ने व्रात्य का जो चित्र उपस्थित किया है इतना ही नही, यदि कोई अव्रात्य व्यक्ति भी अपने को वह जैन परम्परा के अनुकूल है। उन्होंने व्रात्य के जिस व्रात्य बताकर किसी के भतिथिगृह मे प्रा जाए तो राजा ब्राह्मणेतर धर्म के प्रतिनिधि होने की बात कही है वह या गृहस्थ का कर्तव्य है कि उसको तिरस्कार न करेवस्तुतः जैनधर्म ही हो सकता है। 'प्रथ यस्याव्रात्यो व्रात्यब्रवो नाम निभ्रत्यतिथिगृहानावाक्ष्यों की मोर सबसे प्रथम जिस विदेशी विद्वान् का गच्छेत कर्षे देतं न चैन कर्फत ? न चन कर्षत।' ध्यान पाकृष्ट हुमा वह थे बेवर । बेवर का मत था कि -(अथर्ववेद १५.१३, ११.१२) ७. 'जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका–६० कैलाशचन्द्र, पृ. ११५ । ८. 'भारतीय अनुसंधान', हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, पृ. १६।। ६. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका':पृ. ११५ । १०. वही; पृ. ११३, ११५ तथा ११७ ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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