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________________ प्रोम् महम् চাণকান परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ३० किरण १ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत २५०३, वि० म०२०३३ जनवरी-मार्च १९७७ । अहिसा के प्रायाम विचारेऽनेकान्तश्चरितपरिपाटीस्ववधिकः । परिग्राह-ग्राह्यान्मथनपरिमाऽऽचारसरणौ ॥ समर्थः स्याद्वादो वचसि तनु सापेक्षसजुषां । समीचीनः पन्था जयति जिनसर्वोदयकृताम् ॥ अर्थ - सर्वोदय धर्म के प्राविष्कर्ता तीर्थकर जिनेन्द्र ने विचारो मे अनेकान्त, आचार में अहिसा तथा परिग्रह-रूप ग्राह को उन्मथन करने वाले समाज की रचना करने में चतुर अपेक्षा-दृष्टि से वचन (वाणी) में स्याद्वाद ममीचीन रूप तीर्थ को रचना की है, उसकी जय हो। सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोत । मार्जारी हसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भजंगम । वैराण्याजन्नजातान्यपि गलितमा जन्ततोऽन्ये त्यजन्ति । श्रित्वा साम्य करूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।। अर्थ -साम्यभाव पर प्रारूढ़, निष्पाप और मोहरहित योगी के पवित्र सान्निध्य से प्राणियों में निवेर अहिसा का सचार होता है। उसके समीप हरिणी सिंहशिशु को और गौ व्याघ्र के बालक को पुत्र-भाव से स्पा करती है। बिल्ली हसशावक को और मयूरी सपं को प्रम करने लगती है। इतना ही नहीं, और-और जन्तु भी स्वाभाविक जन्मजात बैर भूल जाते हैं। य लोका असकृन्नमन्ति ददते यस्म विनम्रांजलिम् । मार्गस्तीर्थकृतांस विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यहिसाभिधः ।। नित्थं चामरधारिणाविवबुधाः यस्यैकपार्वे महान् । स्याद्वादः परतो बभूवतुरथाऽनेकान्त-कल्पद्रुमः ।। अर्थ-जिसे संसार निरन्तर नमस्कार करता है, जिसे अपनी विनम्र अजलि सर्मा त करता है, वह तीर्थकरों द्वारा निदिष्ट सम्पूर्ण ससार का मान्य धर्म 'अहिसा' है। उस अहिंसा धर्म के एक पाव में स्याद्वाद और दूसरे पार्श्व में अनेकान्तरूप कल्पद्रम स्थित है। मानो, किसी सम्राट के दोनों ओर दो चामरधारी स्थित हों। 000
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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