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________________ आधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में छन्द-योजना 0 कु० इन्दुराय एम. ए., लखनऊ महाकाव्य को महत्ता एव गरिमा प्रदान करने के प्रोज भी सर्वमान्य है, केवल अन्त्यनुप्रास का निर्देश मुक्त लिए जैसे भावगत सौदर्य अपेक्षमान है, वैसे ही उसका एवं अतुकांत छन्दों पर चरितार्थ नहीं होता है। कात्मक वैभव एवं शिल्प-सौष्ठव भी कम अपेक्षणीय आधुनिक हिन्दी काव्यों की छन्द योजना का विशद नहीं। महाकाव्य के शिला को सुप्ठ, सुप्रलकृत तथा सुग्राह्य अध्ययन करने वाले विद्वान् डा. पुत्तूलाल शुक्ल के शब्दों बनाने के लिए भावानुकल छन्दो का गठन नितांत वांछ- मे-"छन्द वह वग्वरी धनि है, जो प्रत्यक्षीकृत निरंतर नीय है। छन्द कविता का परम्परागत एवं अतिरिक्त तरंग भगिमा से आह्लाद के साय भाव और अर्थ की अलकार मात्र न होकर, काव्यात्मा की एक महत्वपूर्ण अभिव्यंजना कर सके' तथा 'छन्द नियमित मुखध्वनि सृष्टि है । यह सृष्टि एक मधुर बन्धन की है जो काव्य के रचना है" | तात्पर्य यह कि प्रत्येक छन्द मनुष्य की प्रवाह को नियंत्रित कर, भावों में सुव्यवस्था का प्रचार सौदर्य बोध वृत्ति के परिणामस्वरूप सायास रचा जाता है, करती है। वस्तुतः 'छन्दोदना काटा का वह गूलभूत वह स्वत: उदमन नहीं होता । तत्त्व है जो गद्य मे उसका पावर्तन करता है । पतएव उपर्यवत विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि 'छन्द' काव्य और छन्द का महज एव अविछिन्न सम्बन्ध है।" काव्य का अलकरण मान नहीं, उसका अाधारभूत तत्व भारतीय माहित्य में 'छन्द' शब्द का प्रयोग नया है। मक्षपत: छन्द काव्य का अतरग पक्ष तथा कविता का नही है। सच तो यह है कि 'छन्द' शब्द वेद के पर्याय सहज माध्यम है । छन्द का नियत्रण भावावगजन्य रूप में प्रयुक्त हुपा है। वो के जो छ: अग स्वीकार विखलता में व्यवस्था का संचार करता है। छन्द के किए गए है--शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा अभिन्न उपकरणों, यति, गति, लय, तुक आदि से ही ज्योतिष, इनमे छन्द भी एक अंग माना गया है। 'छन्द' काव्य मे समुचित प्रवाह, शब्द विन्यास में भावाद्बोधन शब्द की व्युत्पत्ति 'चदि' धातु से निष्पन्न हुई है, जिसे की शक्ति तथा अर्थ में प्राणवत्ता व जीवन्तता उद्भुत महर्षि पाणिनी ने 'चदेरादेश्चछः' सूत्र द्वारा व्यक्त किया होती है। है। उनकी दृष्टि में, जो हर्प और दीप्ति प्रदान करता है छन्द दो प्रकार के होते है-वाणिक छन्द तथा वही 'छन्द' है। मात्रिक छन्द । जिस छन्द में केवल मात्रामों की संख्या हिन्दी काव्य साहित्य के सन्दर्भ में छन्द की परिभाषा का विधान हो, अर्थात् चारो चरणों में एक समान मात्रा व्यक्त करते हुए श्री जगन्नाथप्रगाद 'भानु' ने लिखा है- हो परन्तु वर्ण क्रम एक-सा न हो वही 'मात्रिक छन्द' है। मत्त बरण गति यति नियम, यहि ममता बंद। इसके विपरीत, जिस छन्द के चारों चरणों में वर्ण-क्रम जा पद रचना में मिले, भानु भनत स्वइ छंद ॥ समान हो और वर्णों की संख्या भी समान हो वही अर्थात् जिस पद-रचना में मात्रा, वर्ण, यति, गति वणिक छन्द' है।' वणिक छन्दों को वृत्त कहने की प्रथा का निश्चित नियम हो एव अंत में तुक साम्य हो अर्थात् है क्योंकि 'क्त गणों द्वारा क्रमबद्ध हैं जबाँक मात्रिक छन्द अन्त्यप्राम हो वही छन्द है। 'भानु' जी की परिभाषा मुक्त अर्थात् स्वच्छन्द विहारी है। १. प्रतिमा कृष्ण बल-छायावाद का काव्य शिल्प, पृ. ३२५. क्रम पर सस्पा वरण की, चह चरणनि सम जोय । २ जगन्नाथ प्रसाद, 'भानु'---छन्द प्रभाकर, पृ. सोई वणिक वृत्त है, अन्य मातरिक होय ।। ३. डा० पुत्तूलाल शुक्ल-माधुनिक हिन्दी काव्य में छन्द -जगन्नाथप्रसाद 'भानु'-छन्द प्रभाकर, पृ. ६ (भूमिका) योजना, पृ० २१ ४. वही पृ० २३ ६. वही पृ०७ (भूमिका)
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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