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________________ शुभ राग की हेयोपादेयता प्राण रक्षा का यही उपाय है ।' विलाव ने यह सोचकर कि इस चूहे के रक्षा नहीं है, उनकी बात स्वीकार कर ली, उसे अपने पास बुला कर उसका आदर सम्मान काग और नकुल भाग गये । चूहा उस ओर से हुधा, पोरस विनाव का जान काटने लगा, किन्तु फिर उसके मन में श्रात्मरक्षा के लिए शका जागी कि यह बिलाव तो दोरा जातिविरोधी घोर शत्रु है, स्वयं बन्धन मुक्त होते ही क्या यह मुझे छोड़ देगा ?, मार्जार वोला, 'मित्र क्यो शिथिल हो गये ? क्या अपना वह वचन भूल गये और मन में द्रोह करने की ठान ली है ?" मूपक उत्तर दिया, भाग से कमल भले ही उत्पन्न हो जाय, तो भी मैं कभी भी द्रोह नहीं ठानुगा तुमसे ही मुझे का है, इसी से काम मे होना पड़ गया हूं। मैं सच कहता हूं. ने बिना जीवन प्रेम से बड़े किया । सुरक्षित लेखक कहता है कि - 'हे भव्य विचार कर देखो । उक्त प्रश्न का समस्त भ्रान्ति का निरसन करने वाला यह दृष्टान्त ही उत्तर है । इसका भावार्थ है कि यद्यपि सब ही शत्रु स्पाय है तथापि उनमे से किसी एक का जिनसे कार्य सघ सके) पक्ष ग्रहण करके अन्य रायको तज दे, और जब कार्य सघ जाय तो आत्मरक्षा को मुख्यता देकर प्रत्युपकार कर दे, जंमा कि चूहे ने बिलाव के साथ किया । इस सम्बन्ध मे बुद्धिमानों के गुने समते योग्य जो विशेष है, जिससे विवाद बुद्धि छोड़, भ्रम गिरता है, श्रीर श्रात्मा मे खोज बुद्धि उत्पन्न होती है, वह कहता हैको जीव समझो, जगत को उगका बिल, सूचक नकुल को द्वेष और काम को मोह मान लो । मार्जार राग है जो धर्म रूपी जाल में बधा है। पूजा, दानादि उस जाल के बन्धन है। यह जीव भांग की योगमयति रूपी वन मे भटकता है। दो शत्रुओं से डरकर बन्धन मे पड़े तीसरे शत्रु का उसने सहारा लिया। पूजादि राग के प्रभाव से द्वेष मोर गोह का क्षय हो गया और उनके साथ ही दुख, दोष आदि शेप शत्रु भी पलायन कर गये । पुनः जीव सोचता है कि यदि इस शुभराम का भी पूरा विश्वास करूँ तो यह भी पिंड नहीं छोडगा और भववास को और अधिक मायेगा मुकार भी करता है किन्तु तभी जब वह मुझे भवभ्रमर में न डाग सके । तू धीरज रख मैं तेरे समस्त बन्धन काट दूंगा ।' बिलाव ने कहा- मैंने तो सौ खाकर तुमने मित्रता की है। फिर भी तेरे मन मे नहीं गई तेरा मन शक्ति रहेगा तो मेरे वन कैसे कटेगा ? अतः मेरा कहा मान और विश्वास न ।' ३५ इस पर चतुर ग्रुप ने कहा- 'मैने तो तेरे से प्रयोजनवा कार्यार्थ प्रेम किया है। निश्चय ही तू मेरा जातिविरोधी और निर्दय है । सो मेरा कर्तव्य तो आत्मरक्षा है उस प्रयोजन की विद्धि होने तक ही मेरी तेरी यह कार्या प्रीति परिमित है से अपने वचन का निर्या भी मुझे करना ही है | अतः इस द्विविध विषमता से पार पाने के लिए मैंने यह निश्चय किया है कि एक कठिन बन्धन को छोड़कर तेरे अन्य सव बन्धन तो अभी काट देता हूं, तुझे पकड़ने के लिए जब वधिक श्रायेगा तो तू मुझे भूलकर अपने संकट से व्याकुल हो जायेगा । उस समय में वह बन्धन भी काट दूंगा। छूटते ही तू भाग जायेगा, और मेरे दुख का भी भ्रन्त हो जायेगा । श्रतएव मूषक ने ऐसा ही किया और मार्जर ने भी प्रयत्न हो अपनी स्वीकृति दे दी। उतने में बधिक प्राया, उसे प्राता देख अपने-अपने कार्य सिद्धि की आशा से सभी प्रगन्न हुए जैसे ही शिकारी पकड़ने के लिए निकट पाया, बिलाव श्रासन्न विपत्ति से व्याकुल हो गया। चूहे ने वह बन्धन भी काट दिया और अपना दाव देख तुरन्त भाग गया । इस प्रकार चिन्तवन करता हुआ यह जीव निश दिन अवसर की ताक में रहता है, और स्वपुरुषार्थ द्वारा पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य को प्राप्त कर लेता है तो ( अन्तरूप में ) आर्य देश में विहार करता हुआ रासार के प्राणियो को हित- उपदेश देता है, तथा जिन पूजा का अतिशय जग मे प्रगट करता है वह नहीं कहता, लोग स्वयं ही जान जाते है कि यह प्र पद सातिशय जिनपूजा का ही प्रभाव है उक्त प्रशस्त राग के प्रति यही जीव का प्रकार है। जो पुरन्नमति है वे इस प्रकार मोक्षपद प्राप्त कर लेते है और जो अनुमति है वे राग-प-गो के जड़ों में फँसे रहते है । जो लोग जिनपूजादि शुभराग की शरण ( शेष पृ० ४२ पर)
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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