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________________ शुभ राग की हेयोपादेयता D विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ गत् १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, कसबा चिलकाना एक वन मे एक घने वृक्ष के नीचे बिल में एक चहा (सुलतानपुर- चिलकाना), जिला सहारनपुर (उ० प्र०) रहता था, जो बढ़ा दीर्घदर्शी, विज्ञ, विचक्षण और गुणके निवामी अग्रवाल जातीय दिगम्बर जैन पं० ऋषभदास ग्राही था। देवयोग से एक दिन अपने बिल से निकल कर जी एक अच्छे प्रबुद्ध विद्वान, मुकवि एव सुलेखक हो गये भोजन की खोज मे वह वन में यत्र-तत्र फिरने लगा, कि है। पुराने लोगो से उनकी बहुत प्रशंमा सुनी है। देव- अकस्मात् सामने की मोर से एक बिलाव को प्राता देख योग से ३४-३५ वर्ष की अल्पायु मे ही उनका निधन हो कर चकित-चिन हो लौटने के लिए मुडा, तो देखा कि गया था। हिन्दी और संस्कृत के साथ ही साथ वह उर्दू पीछे से उसकी ताक मे एक नेवला चला पा रहा है। और फारसी के भी अच्छे विद्वान थे, धर्मज तो वह थे ऊपर की ओर निगाह की तो देखा कि उसी की धात में ही। उर्दू मे उन्होने 'मिस्वात्वनाशक नाटक' नाम की एक कौना लगा है। बड़ी सकटापन्न स्थिति थी-देवा एक बहुत सुन्दर एव मनोर नक पुस्तक लिखी थी। हिन्दी कि अब मरण निश्चित है। सोचने लगा कि किस प्रकार गद्य एव पद्य में भी कई रचनाये बताई जाती है। वि० जीवन की रक्षा हो ---आगे बढ़ता हु तो बिलाव वा स. १६४३ (सन् १८८६) गं उन्होने अपने पितामह जायेगा, पीले लोटता हू तो नेवला भक्षण कर जायेगा। ला० सुखदेव जी, पिता कवि म गलसेन जी तथा एक अन्य यही ठहरना हू तो कौना नहीं छोड़ेगा, कही भी कोई बुजुर्ग प० सन्तलाल जी की प्रेरणा से मरस हिन्दी पद्य शरण स्थान दिग्वायी नहीं पड़ता ? इम असमंजस मे मे 'पचबालयति-पूजापाठ' की रचना की थी। उक्त पाठ सोचता हमा चारो योर दृष्टि दौड़ा रहा है कि देखा कि की उत्थानिका के रूप मे उन्होने ३१ पद्यो में जैनी पूजा एक शिकारी ने बिलाव को अपने जाल में फैमा लिया विषयक एक रोचक शका समाधान प्रस्तुत किया है, जो है। अब च हे ने धर्य धारण किया और चतुराई से बिलाव मूलरूा में स्व० प्राचार्य जगल किशोर मुम्नार ने 'स्व. के निकट पहुचा। बिलाव प्रसन्न हुमा मोर पूछा, 'कहो सम्पादित 'अनेकान्त' (वर्ष १३. कि० ६ दिसम्वर १९५४ को पाना हुपा ?' चूहा वाला, हे मार्जार सुन ! यद्यपि पृ० १६५-१६६) में प्रकाशिा की थी। तुझे जाल मे बँधा देखकर मैं प्रसन्न होता और तेरे पास प्रथम ३ गोरठो में विद्वान लेगा ने यह शका उठाई फटकता भी नही, किन्तु यदि तू मेरी शर्त स्वीकार करे है कि जिनागम में राग और ढेप दोमो को हो कर्म-बन्ध तो मैं अभी तेरे सारे बन्धन काट दूं। मेरे शत्रु काग और का मूल कारण, प्रतएव त्याज्य कहा है, किन्तु माथ ही नेवला मेरी घात में लगे है, उनसे तुम्ही मुझे बचा सकते जिन पूजा को, जो प्रकट ही 'राग-समाज' अर्थात् बहुलता हो।', मार्जार ने कहा-'चतुर मित्र, उपाय तो बतायो । के साथ गगपूर्ण है, उपादेय एवं कार्य-माधक सिद्धि मुझे तुम्हारी शतं स्वीकार है, मेरी बात का विश्वास प्रदाता प्रतिपादित किया है। यह विसगति एव परस्पर करो।' मूपक बोला-मित्र, जब मै तेरे पास पाऊँ तो विरोध क्यो ? इसका क्या समाधान है ? तू नई हितकारी वचनों के साथ मेरा सन्मान करियो । अागे के २८ पद्यो मे, जिनमे से ८ दोहे है और शेष तेरे ऐसे व्यवहार से वे काग पोर नेवला मेरी पाशा प्रडिल्ल छन्द मे है, एक रूपक द्वारा सुन्दर समाधान त्यागकर भाग जायेंगे, और मैं प्रफुल्लित मन से तेरे प्रस्तुत किया है समस्त बन्धन काट दूंगा, विश्वास कर। हम दोनों की
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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