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क्षाधुनिक हिन्बी जैन महाकाव्यों में छन्द योजना
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तथा रूपमाला (१४, १० पर यति, अन्त में ) सारांशतः माधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में १२ छन्द अधिक दृष्टिगत होते हैं । कवि वीरेन्द्र प्रसाद जैन ने मात्रा से लेकर ३२ मात्रा तक के सममात्रिक तथा विविध रूपमाला छन्दों का प्रर्द्ध प्रयोग किया है, अर्थात् छन्द में प्रकार के प्रर्द्धसम मात्रिक छन्दों का सृष्टि कौशल देखा चार चरणों के स्थान पर केवल दो ही चरणों से एक पूरा जा सकता है। केवल इतना ही नहीं विषम छन्द, मुक्त छन्द निमित किया है, यथा
छन्द एवं मिथ छन्द सम्बन्वी ननन छान्दस् प्रयोग भी हो गया समरस सबेरा फैलता पालोक।
विश्लेषणीय है। राग तम छिपता दिखाता, चिर विरती का लोक ।' हिन्दी काव्यों में मुक्त छन्दों का प्रयोग अधुनातन है,
२४ मात्रिक प्रर्द्धसम छन्दों में सोरठा एवं दोहे का जिस पर विदेशी एवं हिन्दीतर भारतीय भाषामों का प्रयोग परम्परा से होता चला पाया है। जैन महाकाव्यों स्पष्ट प्रभाव पड़ा है । बहुत समय तक अतुकात छन्दों को में भी इनकी स्थिति पर्याप्त सुदृढ़ है। रघुवीर शरण मुक्त छन्द माना जाता रहा, किन्तु यह धारणा पूर्णतः 'मित्र' जी ने 'दोहा' छन्द को दो प्रकार की लिपि-शैली मे भ्रान्त है। वस्तुतः 'मुक्तछन्द' वह छन्द विशेष है जो प्रस्तुत किया है, प्रत्येक रूप निम्न पंक्तियों मे अकित है- मात्रा, गण, गति, यति, तुक आदि के समस्त छन्दशास्त्रीय (१) विविध भाव प्राणी विविध, पूजा विविध प्रकार। बन्धनों से सर्वथा मुक्त हंता हुआ भी प्रत्येक पक्ति के
स्याद्वाद के स्वरों से, अर्चन बारम्बार ॥' रूपगत प्रातरिक ऐक्य पर बल देने के कारण संगीतात्मक (२) अपने अपने धर्म है, अपने अपने कर्म । लय को सुरक्षित रखता है-प्रत. स्वच्छन्द होते हुए भी
धर्म धर्म सब गा रहे, नही जानते मर्म ॥' वह 'मुक्त छन्द' है। मित्र जी ने 'वीरायन' में तीन चार
प्राधुनिक काल में सममात्रिक छन्दों का प्रर्द्धसम स्थलों पर क्षिप्र प्रवाह युक्त 'मुक्त' छन्दों की योजना की प्रयोग अत्यधिक प्रचलित हो गया है। 'वीर छन्द' ३१ है। निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य हैमात्रानों का सममात्रिक छन्द है, जिसके प्रत्येक चरण में
मस्तक पर ज्योति का तिलक । १६, १५ मात्राओं पर यति होती है। प्राधुनिक कवि यति
भाल पर उषा की लाली। के स्थान से नवीन चरण प्रारम्भ कर, दो ३१ मात्रामों
पाखों मे सारे युग। का प्रस्तार चार चरणों तक कर देता है
कानों में सबके बोल। धन्य पिताजी धन्य जननि मम, १६ मात्राएं
प्रघरो पर मौन, धन्य धन्य प्रादर्श ललाम । =१५ ,
कौन तुम कौन ?' धन्य भाग मम मिल पाप सम, १६ ,, 'मुक्त छन्द' प्रयोग की भाति प्राज का कवि नित्य ___ मात पिता अनुपम अभिराम ॥' =१५ , नवीन छान्दस् उद्भावनाएं करने में रत है। जैन महा
ठीक इसी प्रकार डा० गुप्त ने २७ मात्रिक सरसी काव्यों में भी नुतन छन्द प्रयोगों का प्रभाव नहीं है। (१६, ११ पर यति) छन्द का अर्द्धसम प्रयोग किया है, महाकाव्यकारों ने तीन चरणात्मक विषम छन्दों का पर्याप्त यथा
प्रायोजन किया है। इन प्रयोगो के दो स्वरूप प्रस्तुत हैंराजमहल में करती थी सब -१६ मात्राएं (१) मौन भक्त भगवान रहे, अपना अपना कार्य ११ ।
शब्दों से क्या भला कहे, कोई प्रभु की बनी सेविका
चन्दन प्राज बनी उमला। कोई बनकर घाय १. वीरेन्द्रप्रसाद जैन-तीर्थकर भगवान महावीर, पृ. १२३ ५. डा० छैलबिहारी गुप्त, 'तीर्थकर महावीर, पृ. २७-२८ २. रघुवीर शरण मित्र -वीरायन, पृ. ४१ ।
६. रघुवीर शरण मित्र, 'वीरायन', पृ. ३५१ । ३. वही० पृ. १३७ ।
७. साध्वी मजुला, 'बन्धन मुक्ति', पृ. १३४ । ४. वीरेन्द्रप्रसाद जैन, तीर्थकर भगवान महावीर, पृ. १२२