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४२, वर्ष ३०, कि०२ (२) रो उठा था देख कर माकाश,
मात्रामों का नियोजन कर 'गीत निर्माण', बहुलता से बन रहा था मनुज,
किया है। महाकाव्यकार ने १६, १८, २०, २१, २६ एवं धरती के मनुज का दास ।
२८ मात्रा प्रति पक्ति वाले प्रर्द्धछन्द एवं पूर्णछन्द के 'सहइसी प्रकार प्राधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यों में भावों योग से अनेकानेक गीतों की सृष्टि की है। निम्नलिखित की प्रभावोत्पादक शक्ति के वाक्य के लिए मिश्र छन्दो गीत मे २८ मात्रिक सार-छन्द के प्रर्द्ध एवं पूर्ण छन्द के योग से बने स्वतत्र गीतों की रचना अधिक हुई है। कमायोजन दष्टव्य हैमहाकाव्यकारों ने सममात्रिक छन्दो के योग से, सममात्रिकाये यहा अनार्य देश में सकट माये भारी। २८ मा० एव पद्धसम मात्रिक छन्दो के योग से प्रथवा दो से भी एक हाथ मे धर्म एक में थी तलवार दुधारी॥ , प्रषिक प्रकार के मात्रिको का उपयोग कर मार्मिक गीतों [शास्त्र जलाने लगे यहां के फैल गए पाखण्डी।।
| चडी रुष्ट हम तुम से चढे नए पाखण्डी ।। की सृष्टि की है। निम्नलिखित गीत मे २२ मात्रिक
| लुटो मडिया लुटी बेटियां टूटे मन्दिर मेरे। , सुखदा छन्द के अर्द्धसम रूप एव १२ मात्रिक तोमर तथा
(गिन न सकोगे लिख न सकूगा डाले कितने घरे।।, नित्त छन्दों का मिश्रित प्रयोग दर्शनीय है
मुट्ठी भर राजा बन बैठे शक्ति बट गई सारी।, सुखदा वन्य भाग जगे प्राज १२ मात्राएं पाये यहां मनार्य देश मे सकट आये भारी।।', (एक चरण धन्य दिवस आया १० ,
उपर्युक्त विश्लेषण के पश्चात्, निष्कर्ष रूप मे, नि.तोमर ए जे जे लोक्य नाथ १२ मात्राएं
संकोच कहा जा सकता है कि छन्द वैविध्य के कलात्मक पसे जन हो सनाथ
उत्कर्ष में प्राधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्य किसी अन्य ह नित र
जन सौभाग्य मिला १२ ॥ 1 पुज्य कमल सहज खिला १२ ।
हिन्दी महाकाव्य से कम गरिमामय नही। छन्दों के दूर हुमा पाप तिमिर १२ मात्राएं
विभिन्न प्रकारों की सफल प्रस्तुति समीक्षित महाकाव्यों सुखद नत्र प्रकाश छाया
में स्थल स्थल पर प्राप्य है। वस्तुत: जैन महाकाव्य विविध (अर्द्धमम) धन्य भाा जगे माज १२ , प्रकारात्मक छन्दों के प्राधार है। न्य दिवस पाया' १० ॥
३ सदर बाजार, जैन कुटीर, 'वीरायन' हाकाव्य में कवि ने प्रति चारण समान
लखनऊ-२२०००२. 000
(पृष्ठ ३५ का शेषांश) नहीं लेते वे इस सपार में उक्त राग-द्वेष-मोह मादि शजनों और निमित्त को लेकर, प्रभवा जिन-दर्शन-पूजन-दान-व्रत द्वारा कृत नाना प्रकार के क्या-क्या दुःख नही सहते? प्रादि शुभरागात्मक क्रियानों की हेयोपादेयता को लेकर प्रतएव, नित्य ही चाव से जिन पूजा करनी चाहिए। जो भीषण द्वन्द्व चल रहा है, पोर फलस्वरूप कषायोद्रेक मनुष्य गति और श्रावक कुल मिला है तो यह अवसर तीव्र से तीव्रतर हो रही है, उसका कितना सुन्दर, सटीक नहीं चूकना चाहिए।
एवं रोचक समाधान एक शास्त्र-मर्मज्ञ ने अबसे लगभग लघु-धी-सम उत्तर कहा, सशय रहे ज़ शेष ।
एक शती पूर्व किया था, वह उक्त रचना से स्पष्ट है और
यह उसकी इस दृढ प्रास्था का परिणाम है किऋषभदास जिनशास्त्र बहु, देखहु भन्य विशेष ।
'जिनमत परम मनप अनेकान्त सत्यार्थ है।' प्रस्तु, वर्तमान मे निश्चय और व्यवहार या उपादान
ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ
२. वही० पृ. २६६।
१. डा० छलबिहारी गुप्त, 'तीर्थकर महावीर', पृ. ५। ३. रघुवीर शरण मित्र, 'वीरायन', पृ. ५४ ।