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________________ ४०, वर्ष ३०, कि०२ अनेकान्त प्रयुक्त हुई हैं। 'वीरायन' में कवि ने सर्वाधिक उपयोग 'पार्श्व प्रभाकर' में डिल्ला का प्रयोग दर्शनीय है, जिसके मिश्र छन्दों के योग से निर्मित गीतों का किया है, तथा प्रत्येक चरणान्त में भगण (I) रखा गया हैकथा वर्णन हेतु ३२ मात्रिक मत्त सवैया छन्द प्रत्युक्त जय मानवता के आभूषण किया है। 'तीर्थङ्कर महावीर' महाकाव्य में भी डा. जय उग्रवंश नभ के भूषण गुप्त ने स्वतन्त्र एवं मार्मिक गीतों की मृष्टि की है जिनमें जय विश्वसेन ब्राह्मी नन्दन मिश्र छन्द प्रयोग दर्शनीय है। जय पार्श्वनाथ शत शत वन्दन ।' साध्वी मंजला जी ने प्रबन्ध काव्य "बन्धन मुक्ति" इसी प्रकार, शृंगार छन्द चौपाइयो के मध्य आ गए में छन्दों का कौशल केवल पाठवें (उद्धार) मर्ग में प्रस्तुत है, परन्तु 'तीर्थकर महावीर' महाकाव्य में कवि ने चौपाकिया है। वस्तुत: सम्पूर्ण कृति में उद्धार सर्ग ही सर्वा इयों की अपेक्षा १६ मात्रिक शृगार छन्दों की ही अधिक धिक मर्मस्पर्शी, काव्यात्मक एवं भाव-गाम्भीर्यपूर्ण है, सजना की है। 'शृगार' का लक्षण है (३+२ मात्राएं जिसमें चन्दना सती के दुःखपूर्ण जीवन की मामिक कथा तथा चरणान्त में 5-३ मात्राए) निम्न पद में शृगार एवं भगवान महावीर द्वारा चन्दना उद्धार की अलौकिक छन्द प्रयोग देखिएघटना अनुस्यूत की गई है। शेष सगर्गों मे सिन्धु, रूपमाला, सुगन्धित पुष्पों का कर लेप गीतिका, सार एवं वीर आदि सममात्रिक छन्द प्रायोजित भाल पर तिलक लगाया एक शीश पर चूड़ामणि फिर बांध विभिन्न हिन्दी जैन महाकाव्यों में मात्रिक छन्दों की दिया नयनों में काजल प्रांज ।' योजना का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने के पश्चात् इन माधुनिक काल में कवियों ने समान मात्रिक दो छन्दों काव्यों में प्रयुक्त कतिपय छन्द-रूपों का संक्षिप्त विश्लेषण के प्रयोग से एक सममात्रिक छन्द की रचना भी की है। अभीष्ट होगा निम्नलिखित १६ मात्रिक छन्द के प्रथम दो चरणों १६ मात्रिक छन्द : 'चौपाई' के तथा अन्तिम दो चरण 'शृंगार' छन्द के हैमाधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्यो में प्रायः प्रत्येक मे उन्हे कुछ ममता कोह न था १६ मात्रिक छन्दों का विपुलात्मक प्रयोग किया गया है। नही कुछ मन मे राग व्यथा १६ मात्रिको में भी चौपाई छन्द सर्वाधिक प्रयुक्त है। .नही अभिलाषा मिले प्रसिद्धि चौपाई छन्द का लक्षण निर्दिष्ट करते हुए प्राचार्यों ने लक्ष्य बस योग ध्यान की सिद्धि' चरण के अन्त में जगण (151) तथा तगण (1) का २४ मात्रिक निषेध स्वीकारा है, अतः महाकाव्यकारो ने शास्त्रीय १६ मात्रिक की भांति ही २४ मात्रा के विभिन्न लक्षणानुसार चौपाइयों की सृष्टि की है, उदाहरणार्थ- प्रकार के सममात्रिक एवं प्रर्द्धसम मात्रिक छन्दों का प्रयोग वर्द्धमान की बालसुलभ ये। जैन महाकाव्यों में प्राप्य है। सममात्रिकों में रोला (११, शुभ चेप्टाएं हृदय मोहती ।। १३ मात्रामों पर यति)उनकी तुच्छ क्रियानो से भी। रोला-ग्यान किरन तें ऋषभ सूर्य प्रग्यान नसाया। ___ मौलिक बातें अमित सोहती।' कोटि कोटि भविजन को भवतें पार लगाया। चौपाई छन्दों के मध्य कही-कही आनायास डिल्ला, गुन अनत के नाथ प्रथम तीर्थकर स्वामी। शृंगार एवं पज्झटिका प्रादि छन्दो की सृष्टि हो गई है। सुर सुरेन्द्र बंद हि नित तिन्ह पद सीस नमामी। १. वीरेन्द्र प्रसाद जैन-तीर्थकर भगवान महावीर, पृ. ७१। ४. वही, पृ. १४५। २. वीरेन्द्रप्रसाद जैन-पाव प्रभाकर, पृ. २२२। ५. श्री मोतीलाल मार्तण्ड 'ऋषभदेव'--श्री ऋषभ ३. डा० छैल बिहारी गुप्त -तीर्थकर महावोर, पृ.२०। चरितसार, पृ. ११० ।
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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