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माधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में छप योजना
ले लो साधन धर्म के, न तुमको व्यापे व्यथा अन्यथा, वृत्तों का प्रयोग हुमा है, शेष सभी छन्द 'मात्रिक' है। है जैनेन्द्र-पदारविन्द-तरणी संसार-पाथोधि की।' वर्द्धमान महाकाव्य के अतिरिक्त समस्त हिन्दी जैन
न त में भी विकलों का सम प्रवाह चारों महाकाव्यो मे मात्रिक छन्दो का विविधात्मक, विपल चरणों मे गतिमान है। महाकाव्य में इस वृत्त का उपयोग प्रयोग दृष्टिगत होता है। श्री मोतीलाल मातंण्ड ऋषभमल्प होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है।
देव कृत 'श्री ऋषभचरितसार' तथा सौराष्ट्र के राजकवि मालिनी-(नगण, नगण, मगण, यगण, यगण)
मूलदास मोहनदास नीमावत विरचित महाकाव्य 'वीरा111 III SSS 155 155
यण' मे गोस्वामी तुलसीदास की प्रमर कृति (रामचरित विपनप ने समीक्ष्य महाकाव्य वर्द्धमान में केवल दो मानस) को छन्द शैली का पूर्णतः अनुसरण करते हुए
पायोजित किए है। एक प्रथम सगं के मध्य दोहा, चौपाई, सोरठा, रोला, वीर हरिगीतिका प्रादि में विश्राम व नवस्फति देने के लिए तथा एक प्रथम सर्ग छन्दों को ही स्थान दिया गया है। इन छन्द प्रयोगो में के अन्त मे है, छन्द परिवर्तन के शास्त्रीय लक्षण के अनु- कोई नवीनता नही। सार। वस्तुत: कवि की वृत्ति मालिनी वृत्त के प्रयोग मे
कवि घन्य कुमार सुधेश ने "परम ज्योति महावीर" अधिक नही रही है । एक उदाहरण प्रस्तुत है
महाकाव्य की रचना केवल चौपाई उन्द में निबद्ध कर दी 11 11 11 555 ISSISS
है। बहुत प्रयत्न करने पर इन चौपाइयों के मध्य १६ जय रति पनि तेरी हो, तुझे सर्वदाही
मात्रिक अन्य छन्द ढहें जा मको है परन्तु कपि का कुल गुम् अबलाएं मानती केलि मे है,
अभीष्ट छन्द 'चौपाई ही रहा है। पर अन जिस प्राणी को, सखे ! जन्म देगा, ___कवि वीरेन्द्र प्रसाद जैन ने अपने दोनों महाकाव्यों
वह विजित तुझे भी भूमि में प्रा करेगा। 'तीर्थकर भगवान महावीर" तथा "पाल प्रभाकर" मे उपेन्द्रवजा-(जगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु)
समान छन्द शैली अपनाई है। उभय महाकाव्यों में एक 15
सर्ग में प्रायः एक ही प्रकार के मममात्रिक छन्दों की समस्त हिन्दी जैन महाकाव्यों मे, केवल कवि रघु- रचना हुई है त या प्रत्येक सर्ग के अन्त मे छन्द परिवर्तित बीर शरण मित्र ने उपेन्द्रवज्रा का प्रत्या प्रयोग 'वीरा- कर दिया गया है। सन्ति छन्द प्रायः प्रखंगम मात्रिक यन' महाकाव्य में किया है। हस्तिनापुर राज्य के पतन है। "तीर्थङ्कर भगवान महावीर" महाकाव्य के प्रामुख का चित्रण प्रस्तुत वृत्त के माध्यम से हुमा है, यथा- में कवि ने लिखा है -"यह भक्ति की ही शक्ति है जिसने नृशस स्वार्थी हर मोर छाये
मुझमे मेरे पाराध्य के प्रति ११११ छन्द लिखवा लिए"" विद्वान ज्ञानी पग चूमते थे
यह छन्द सख्या विवादास्पद है, क्योकि गणना करने पर विचित्र क्रीड़ा उस राज को थी
छन्दों की संख्या ११२२ बैठती है। गुलाब काटों पर झूलते थे।'
भगवान महावीर के २५ सौवें निर्वाण वर्ष में प्रका. एकादश अक्षरों वाले उपेन्द्रवज्रा वृत्तो की कुल शित होने वाले, श्री रघुवीर शरण 'मित्र' विरचित 'वीरासख्या महाकाव्य 'वीरायन' में केवल तीन है। ये तीन यन' तथा डा० छै लबिहारी कृत 'तीर्थकर महावीर' महावृत्त ही विपुल सख्यात्मक मात्रिक छन्दो के मध्य नगीने काव्यों मे वैविध्यपूर्ण छन्द सृष्टि हुई है। महाकाव्यकारों की भांति जड़े हुए है।
ने स्वच्छन्तापूर्वक मममात्रिक, अद्ध सममात्रिक, विषम उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि प्राधु एवं मुक्त सभी प्रकार के छन्दो का चार प्रयोग किया है, निक हिन्दी जैन महाकाव्यो में पांच प्रकार के ही वर्ण. कही कही नवीन छान्दस् योजना भी सफलता सहित १. अनूप शर्मा - वर्द्धमान, पृ. ५८५ ।
३. रघुवीर शरण मित्र-'वीरायन', पृ. ७३ । २. वही-पृ. ७०।
४. वीरेन्द्र प्रसाद जैन-तीर्थदूर भगवान महावीर 'पामग्व'