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________________ २४ वर्ष ३०, कि० ३-४ अनेकान्त प्रापने गुरुवर्य गोपाल दास जी वरैया ने दस्सों को प्रोर से इस तरह मुख्तार साहव के ये चारों परीक्षा ग्रन्थ महत्व गवाही दी थी, तब पाप स्थिति पालकों के रोष के भाजन पूर्ण कृतियां है । बनें, तथा धर्म विरोधी घोषित किये गये और जाति इन परीक्षा ग्रन्थो के प्रकाशन के समय जैन समाज बहिष्कार की धमकी के पात्र हुए। उस समय मापने "जिन में जो बवंडर उठा, उसमें मुख्तार साहब को धर्म विघातक प्रजाधिकार-मीमांसा' नाम की एक पुस्तक लिखी थी, बतलाया गया, अनेक घमकी भरे पत्र मिले, पर मस्तार जिसमे जिनपूजा, पूजक और उसका अधिकार पोर फल पर मार घबड़ाये नही, बिना सोचे-रामझे ही समाज मे क्षोभ यथेष्ट प्रकाश डाला गया है। जहाँ वे प्रबल सुधारक थे, की लहर फैली, अनेक स्थिति-पालकों ने विविध प्रकार के वहाँ कर्मठ अध्यवसायी भी थे और अपने विचारो मे दोषारोपण किये । उम समय भी प्रापने साहस और धर्य चट्टान की तरह अडिग रहने वाले थे। सन् १९१७ मे से काम लिया। उनकी सहनशीलता ने उन्हें जो शक्ति ग्रन्थ परीक्षा के दो भाग प्रकाशित हुए। इनमें से प्रथम प्रदान की, उससे विरोधियों को मुंह की खानी पड़ी और भाग मे उमास्वामी श्रावकाचार, कुन्दकुन्द श्रावकाचार धीरे-धीरे वे विरोधी जन भी उनके प्रशसक बन गए। और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थो को परीक्षा को सन् १९२२ मे जब विवाह-समद्देश नाम का ट्रेक्ट गई है और दूगरे भाग मे भद्रबाहुसहिता को परीक्षा को प्रकाशित हया, तब उसके उत्तर मे "शिक्षाप्रद शास्त्रीय गई है। इसमें ग्रन्थ के अन्तरग परीक्षण के साथ प्रत्येक उदाहरण' नाम का लेख लिखा गया, जिसके उत्तर में अध्याय का वयं विषय, तुलनात्मक अध्ययन और ग्रन्थ में मुख्तार साहब ने सन् १९२५ में 'विवाह-क्षेत्र प्रकाश' असम्बद्ध, अव्यवस्थित तथा विरोधी तथ्यो का स्पष्टीकरण नाम की पुस्तक लिखी, जिसमें 'शिक्षाप्रद शास्त्रीय किया गया है। इसमे लेखक की तटस्थ वृत्ति और विषय उदाहरण' का जोरदार खण्डन करते हुए अनेक प्रमाणों का प्रतिपादन इलाघनीय है। द्वारा अपनी पूर्वमान्यता को पुष्ट किया। सन् १९२२ मे ग्रन्थ परीक्षा, तनीय भाग मे, जो सन १९५१ में 'जैनाचार्यों और जैन तीर्थकरो का शासन भेद' नाम की प्रकाशित हुया है, भट्टारक सोमसेट के त्रिवर्णाचार, पुस्तक लिखी, जिसमे जैनाचार्यों और जैन तीर्थंकरों के धर्म परीक्षा, प्रकलंक प्रतिष्ठा पाठ और पूज्यपाद उपास- शासन भेद का स्पष्ट विवेचन किया। पर किसी विद्वान काचार की परीक्षा अकित है। सोमसेन द्वारा इस त्रिवर्णा- को मुख्तार साहब के खिलाफ लिखने का साहस नही हमा, चार मे वैदिक संस्कृति के हारीति पाराशर और मन क्योंकि मुख्तार साहब ने अपनी लौह लेखनी से जो भी प्रादि विद्वानों के ग्रन्थो के अनेक पद्य ज्यो के त्यो उठाकर लिखा वह मब सप्रमाण और सयुक्तिक लिखा था। इस रक्खे गए है। मुख्तार साहब के गम्भीर अध्ययन ने ग्रन्थ कारण बिरोधी जनों को अप्रिय एवं अरुचिकर होते हुए की प्रामाणिकता पर यथेष्ट प्रकाश डाला है। भट्टारक भी वे उसका प्रतिवाद करने में सर्वथा असमर्थ रहे। सोमसेन ने जैन मंस्कृति के याचार मार्ग को कलकित उनके यक्ति-पुरस्सर लेख को देखकर विरोधियों को विरोध किया था। मुख्तार माहब ने ग्रन्श परीक्षा द्वारा उस करने के करने का साहस भी नहीं होता था। इससे पाठक मुख्तार कलक को धोकर जैन सस्कृति को पुन समुज्ज्वल किया। साहब की लेखनी की महत्ता को सहज ही समझ सकते है । ग्रन्थ परीक्षा की उनकी यह स्वतत्र विचारधारा विद्वानो मुख्तार साहब की महत्ता जैन धर्म पर उनकी के द्वारा अनुकरणीय है। प्रगाढ़ श्रद्धा पौर संयमाराघन की उत्कट भावना में है। __ ग्रन्थ परीक्षा का चतुर्थ भाग सन् १९३४ मे वे ज्ञान के साथ चारित्र को भी महत्व देते थे और प्रकाशित हुया है। इसमें 'सूर्य प्रकाश' ग्रन्थ का परीक्षण जितना उनसे हो सकता था उसे वे जीवन में करते रहे। किया गया है जिसमे प्रार्य विरुद्ध एवं असबद्ध बातो का वे स्वामी समन्तभद्रोदित सप्तम प्रतिमा का अनुष्ठान करते दिग्दर्शन कराते हुए तथा अनुवाद सम्बन्धी त्रुटियों थे और त्रिकाल सामयिक करना अपना कर्तव्य मानते थे। का उद्घाटन करते हुए उसे अप्रामाणिक ठहराया है। वे रात-दिन साहित्य-साधना में संलग्न रहते थे। इसी से
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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