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________________ वस्तु क्या है? प्राप्त हो रही है। मात्मा दुःखी होती है इसलिए विकार का प्रभाव करना माम के स्पर्श-रस-गंध-वर्ण प्रादि सब गुणों का कार्य इष्ट है। संसारी प्रात्मा मे विकारी परिणमन रहता है भिन्न है इसलिए वे गुण भी भिन्न-भिन्न है । परन्तु और शुद्ध प्रात्मा याने परमात्मा में स्वाभाविक परिणमन प्रगर हम चाहें कि किसी गुण को भाम से अलग कर लें होता है। तो वह अलग नहीं हो सकता। मलग जाना जा अभी संसार में हम विभाव रूप परिणमन कर रहे है सकता है। उसी प्रकार से किसी भी वस्तु का कोई गुण जिससे हम दुःखी है। इसका कारण यह है कि हमने सामान्य उससे अलग नहीं किया जा सकता, परन्तु अलग-अलग स्वरूप को भूल कर परापेक्ष पर्याय स्वरूप में अपना निजजाना जा सकता है। माम के एक इंच के टुकड़े में भी पना माना है । अगर हम निज द्रव्य स्वभाव का, सामान्य स्पर्श-रस-गंध-वर्ण सब उपलब्ध होते है, यद्यपि घाम एक म्वरूप का, आश्रय ले, उसमे अपनापन निश्चित कर, प्रखण्ड वस्तु है। वह तो अंतत: पुद्गलों का पिण्ड है। उमका निजरूप अनुभव करे तो पर्याय का विकार दूर हो इसी प्रकार से वस्तु में भी वस्तु के एक छोटे से छोटे प्रश कर स्वभाव रूप परिण मन होने लगे और जीव शुद्ध की अलग कल्पना की जावे तो उसमे भी वस्तु के सर्वगुण होकर क्रम से परमात्मा अवस्था को प्राप्त हो। अशुद्ध उपलब्ध होग, यद्यपि वस्तु का एक प्रश अलग नही किया विकारी पर्याय का आश्रय लेने से, उसमे महम् बुद्धि जा सकता है क्योंकि वस्तु प्रखण्डरूप है। यह बात चैतन्य रखने से उसको अपने रूप अनुभव करने से विकार बढ़ेगा पीर पुद्गल दोनों में लागू होती है। पौर गुर्गों का विकास कम होने लगेगा। द्रव्य स्वभाव का प्रात्मा भी अनन्त गुणों का पिण्ड है--उन्हे गुण कहो प्रथवा अपने स्व का प्राश्रय लेने से पर्याय का विकार या धर्म कहो। उनमे कुछ गुण सामान्य है जो जीव में भी दूर होगा और गुणों का पूर्ण विकास होगा। पर्याय रूपता मिलते है और अजीव में भी मिलते है। कुछ गुण विशष भी हमारे पास है द्रव्य स्वरूप भी हमारे पास है और हमें है जो खास उसी जाति की वस्तु में मिलते है। प्रात्मा में ही अपने द्रव्य स्वभाव रूप अपने को देखना है। हम दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य प्रादि विशेष गुण है । वह उमी में चाहे तो अपने को अपने द्रव्य स्वभाव रूप देख सकते उपलब्ध है और द्रव्यत्व-प्रेमवत्व-वस्तुत्य आदि जो है हम चाहे तो अपने को विकारी पर्याय रूप देख सामान्य गुण है वे अन्य वस्तुओं में भी है। इसी प्रकार सकते है। दोनों देखने में 21 : से यह प्रात्मा अनन्त गुणों का पिण्ड रूप एक अखण्ड स्वाधीनता है । अपने को विकारी पर्याय रूप अथवा पर दृष्य है और हर समय उसके हर गुण में परिणमन हो रूप तो देख ही रहे है और उसका फल संसार है, दुख है। रहा है। पहली भवस्या का त्यय होता है, दूसरी अवस्था अगर अपने को निज स्वभाव रूप देखे व अनुभव करे का उत्पाद होता है और वस्तु, वस्तु रूप से ध्रुव रहती तो पर्याय की अशुद्धता मिटकर गुणों का पूर्ण विकास हो जावे । जब हम अपने को पर रूप देख सकते है तो निज मात्मा के गुणों का दो प्रकार का परिणमन होता है, रूप देखना क्यों मुश्किल हो रहा है। परन्तु हम निज रूप एक-स्वाभाविक और दूसरा-विकारी। यद्यपि परिण मन देखना नहीं चाहते । आजतक निज रूप देखने का कभी करने की शक्ति वस्तु को प्रपनी है परन्तु स्वाभाविक परि- पुरुषार्थ ही नही किया। इससे मालूम होता है कि हमने णमन 'पर' निरपेक्ष होता है और विकारी परिणमन 'पर' ससार का और दुःख का चुनाव किया है, हम परसाक्षेप होता है । प्रात्मा में राग-द्वेश, क्रोध-मान- मात्मा बनना नही चाहाते । अपने को पर रूप देखना माया-लोभ रूप जो परिणमन है वह विकारी है और यही ससार है । अपने को अपने रूप देखना यह मोक्ष का उससे पात्मा दुःखी है। प्रात्मा का केवल ज्ञान, केवल मार्ग है, यही प्रानन्द का मार्ग है। 000 दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य रूप जो पमिणमन है वह स्वाभाविक है, क्योकि विकारी परिणमन होने पर सन्मति- विहार, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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