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________________ मुख्तार श्री की बहुमुखी प्रतिभा २६ यदि मात्मा को ज्ञान से-क्षायिक अनन्त केवलज्ञान से- यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रागम में जब बडा माना जाय तो उसका वह बढ़ा हुमा अंश ज्ञानविहीन जहां-तहा प्रात्मा-संसारी प्रात्मा-को अपने प्राप्त होने से प्रचेतन (जड़) ठहरेगा। तब वैसी अवस्था में वह शरीर के प्रमाण ही बतलाया गया है, तथा मक्त जीवों के ज्ञानस्वरूप कसे माना जा सकता है ? इसके विपरीत, यदि प्रात्मप्रदेश मन्तिम शरीर के प्रमाण से कुछ हीन ही रहते उसे जान से छोटा माना जाता है तो उस पात्मा से ज्ञान है, यह भी कहा गथा है; तब उस प्रात्मा को सर्वगत का जितना अंश बढ़ा हुमा होगा वह श्वाश्रयभूत प्रात्मा के कहना कैसे संगत होगा ? इसके समाधान स्वरूप व्याख्या बिना निराश्रय ठहरता है । सो यह सम्भव नहीं है, क्योकि में यह स्पष्ट किया गया है कि मुक्तात्मायें सभी वस्तुतः गण कभी गूणी (द्रव्य) के बिना नहीं रहता है। इससे स्वात्मस्थित-अपने अन्तिम शरीर के प्राकार में विद्यसिद्ध है कि प्रात्मा ज्ञान के प्रमाण हैन उससे बड़ा है मान प्रात्मप्रदेशों में ही स्थित - हैं, उनके बाहर उनका मोर न छोटा भी। प्रवस्थान नहीं है, फिर भी प्रात्मा को जो सर्वगत कहा गया आगे यह गान ज्ञेय-अपने विषयभूत लोक-प्रलोक है वह प्रौपचारिक है। -प्रमाण है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए व्याख्या में लोक इम उपचार का कारण यह है कि ज्ञान उस दर्पण के और अलोक के स्वरूप को दिखलाकर कहा गया है कि ममान है जिसमें पदार्थ प्रतिविम्बित होते है', अर्थात् औरतच लोक और प्रलोक है, कारण कि उनसे भिन्न अन्य दर्पण जैसे न तो पदार्थों के पास जाता है और न उनमें किसी ज्ञेय पदार्थ का अस्तित्व ही सम्भव नही है । इसका प्रविष्ट ही होता है, तथा वे पदार्थ भी न तो दर्पण के पास भी कारण यह है कि जो ज्ञान का विषय है वही तो ज्ञेय आते हैं और न उससे प्रति कहा जाता है। इस प्रकार की ज्ञान को सीमा के बाहर पदार्थ उसमें प्रतिबिम्बित होकर तदगत से दिखते अवश्य लोक और अलोक को छोड़कर अन्य किसी जय का जव है. इसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान भी न तो पदार्थो के पास अस्तित्व सम्भव नहीं है तब यह स्वयंसिद्ध है कि ज्ञान जाता है और न उनमे जाता है और न उनमे प्रविष्ट ही होता है, तथा पदार्थ अपने विषयभूत लोक-प्रलोक के ही प्रमाण है। भी न ज्ञान के पास पाते है और न उस में प्रविष्ट भी होते इस प्रकार, जब यह सिद्ध हो गया कि प्रात्मा ज्ञान हैं। फिर भी वे उस ज्ञान के विषय अवश्य होत है जग के प्रनाण और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है तब चूकि भलोक सर्व- द्वारा निश्चित ही जाने जाते है। यह वस्तु स्वभाव ही है व्यापक है, अतएब उसको विषय करने वाला ज्ञान भी सर्वः -जिस प्रकार दर्पण और पदार्थो की इच्छा के बिना ही गत सिद्ध होता है। इसका यह तात्पर्य निकला कि प्रात्मा उसमे उनका प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसी प्रकार ज्ञान और अपने ज्ञान गुण के साथ सर्वव्यापक होकर लोक के साथ पदार्थों की इच्छा के बिना ही उस कवलज्ञान के द्वारा प्रलोक को भी जानता है। यह स्थिति सर्वज्ञता को प्राप्त प्रलोक के साथ लोक में स्थित सभी पदार्थ जाने जाते है। सभी केवलज्ञानियों को समझना चाहिए। इस प्रकार, विषय को व्यापकता से विषयो ज्ञान को भी इसका १. इस स्पष्टीकरण की प्राधारभूत प्रवचनसार की अगली ये तीन गाथायें रही है णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स तो प्रादा। हीणो वा अधिगो वा जाणादो हवदि धुवमेव ॥२४॥ हीणो जदि सो मादा तण्णाणमचेद" ण जाणादि । मधिगो वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥२४॥ सम्वगदो जिणवसहो सम्वे विय तग्गया जगदि ग्रट्ठा । णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ॥२६|| २. स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसगः । प्रवद्धकालोऽप्यजरो वरेण्य : पायादपायात पुरुषः पुराणः ।। (विषापहार १) ३. नमः श्रीवर्धमानाय निर्घतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्यादपणायते ।। (र० के० श्रा० १) तज्जयति पर ज्योतिः समं समस्तै रनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफनति पदार्थ मानिका यत्र ॥(पु०सि०१)
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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