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३०, वर्ष ३०, कि० ३-४
अनेकान्त
सर्वव्यापक कहा गया है।
पंचास्तिकाय (०४-७५) मादि अन्यों में जो पुद्गल दुसरे प्रजीवाधिकार में तत्वार्थसूत्र के अनुसार के स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु इस प्रकार धर्मादि द्रव्यों के उपकार को बतलाकर (१५-१७) आगे चार भेद निर्दिष्ट किये गये है तथा उनका स्वरूप भी यह कहा गया है
कहा गया है, वह उसी प्रकार प्रकृत ग्रन्थ में भी (२-१९) पदार्थानां निमग्नानां स्वरूप [-पे] परमार्थतः । सक्षेप से कहा गया है। इसकी व्याख्या में भाष्यकार ने करोति कोऽपि कस्यापि न किंचन कदाचन । उसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि सख्यात, असंख्यात,
यहां 'परमार्थतः' पद पर बल देते हुए व्य ख्या मे अनन्त अथवा अनन्तानन्त परमाणुमो के पिण्डरूप वस्तु उसका स्पष्टीकरण यह किया गया है कि यह जो उपकार को स्कन्ध कहा जाता है। स्कन्ध का एक-एक परमाणु का कथन है वह व्यवहार नय के आथित है । निश्चयनय करके खण्ड होते-होते जब वह प्राधा रह जाता है तब की अपेक्षा सभी द्रव्य अपने अपने स्वरूप में निमग्न होकर वह देश स्कन्ध कहलाता है । इसी क्रम से जब यह देश स्वभाव परिणमन ही करते है-उनमे से कोई भी द्रव्य ___ स्कन्ध प्राधा रह जाता है तब वह प्रदेश स्कन्ध कहलाता किसी अन्य द्रव्य का उपकार-अपकार नहीं करता । इन है। प्रदेश स्कन्ध के खण्ड होते-होते जब उसका खण्ड द्रव्यों में धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये चार द्रव्य तो होना सम्भव नहीं रहता तब वह परमाणु कहलाता है । सदा ही अपने स्वभाव मे परिणत रहते है, इसलिए वे इस प्रकार, मूल स्कन्ध के उत्तरवर्ती और देश स्कन्ध के वस्तुतः किसी का भी उपकार नहीं करते । जीव प्रौर पर्बवर्ती जितने भी खण्ड होंग उन सबको स्कन्ध ही कहा पुद्गल ये दो द्रव्य वैभाविकी शक्ति से सहित होने के जाता है। इसी प्रकार, देश स्कन्ध मादि नामों का क्रम कारण स्वभाव और विभाव दोनो प्रकार का परिणमन भी जानना चाहिए। करते है । जीवो मे जी विभाव परिणमन होता है वह इन उदाहरणो से स्पष्ट है कि मस्तार सा० ने जितने कर्म तथा शरीरादि के सम्बन्ध से समागे जीवो मे ही ग्रन्थों का भाष्य लिखा है वह उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य का होता है-मुक्त जीवों में कर्म और शगर का प्रभाव हो परिचायक है --वे इस महत्वपूर्ण कार्य मे सर्वधा सफल जाने के कारण वह नही होता, उसमे केवल स्वभाव परि- रहे है । उनके इन भाष्यो से ग्रन्थो वा महत्व और भी णमन ही होता है। पुद्गों में से परमाणुओ में स्वभाव बढ़ गया है। इन भाष्धो के प्राधार ले सर्वसाधारण उन परिणाम और कत्रो मे विभाव परिणमन होता है। ग्रन्थो के मर्म को भली भांति समझ सकते है। 500 १. इस व्याख्या का प्राधार प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की वृत्ति रही है-- ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्नसर्वद्रव्य-पर्यायरूपन्यव
स्थितविश्वज्ञेयाका रानाक्रामत् मवंगतमुकाम, तथाभतज्ञानमयी भय व्यवस्थितत्वाद् भगवानपि सर्वगत एव । एव सवंगतज्ञान विषयत्वात् सर्वेऽर्या अपि सर्वगतज्ञानाव्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया इति भणितत्वात् तद्गता एव भवन्ति । तत्र निश्चयनयेनानाकुलत्वलक्षण मौख्यसवेदनत्वाधिष्ठानत्वावच्छिन्नात्मप्रमाणज्ञानस्व. तत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकागननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्वगत इति व्यपदिश्यते । तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारानात्मस्थान वलोक्य सर्वेऽस्तिद्गता इत्युपर्यन्ते, न च तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति,
सबंद्रव्याणा स्वरूपनिष्ठत्वात् । अय क्रमो ज्ञानेऽपि निश्चयः । (प्रवचनसार १-२६)। २. इस व्याख्या का प्राधार पवास्तिकाय की यह जयसेनवृत्ति रही है--समस्तोऽपि विवक्षितघट-पटाद्यखण्डरूप:
सकल इत्युच्यते, तस्यानन्तपरमाणुपिण्डस्यस्कन्दसज्ञा भवति । तत्र दृष्टान्तमाह- षोडशपरमाणुपिण्डस्य स्कन्द. कल्पना कृता तावत् एककपरमाणोरपनयेन नवपरमाणुपिण्डे स्थिते ये पूर्वविकल्पा गतास्तेऽपि सर्वे स्कन्दा भण्यन्ते । अष्टपरमाणु पिण्डे जाते देशो भवति, तत्राप्येक कापनयेन पञ्चपरमाणपर्यन्तं ये विकल्पा गतास्तेषामपि देशसज्ञा भवति । परमाणुचतुष्टय पिण्डे स्थिते प्रदेशसज्ञा भण्यते, पुनरप्येकैकापनयेन द्वयणकस्कन्दे स्थिते ये विकल्प गतास्तेषामपि प्रदेशसज्ञा भवति ।............ परमाणुश्चवाविभागीति । (पंचास्तिकाय ७५)