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________________ भगवान पार्श्व के पंचमहाव्रत २५ रही है। प्रतः पंच पापो की पृथक् पृथक् विरति रूप से गाई जाती रही है, अपरिग्रह गभित रूप में नहीं। पंच महाव्रतो को ही सिद्ध कर सकती है। श्लोक (६) भगवान पाश्वनाथ से पहिले के तीर्थकर अरिष्टइस प्रकार है--- नेमि ने थावर्चापुत्र को दीक्षा देकर अपना शिष्य 'सावध योगविरतिश्चारित्रं मुक्तिकारणम् । बनाया और उन्हे १००० शिष्यपरिवार वाला सर्वात्मना यतीन्द्राणा, देशतः स्यादगारिणाम् ॥ करके बिहार की प्राज्ञा दी। थावर्चापत्र अपने (त्रि० श० पु० चह पर्व ८ सर्ग 8) शिष्यो के साथ बिहार करते करते सौगन्धिका (३) दीक्षा ग्रहण करते समय तीर्थंकर पाचो पापों के नगरी मे पहचे । उस नगरी मे सुदर्शन नामक सेठ सर्वथा त्याग की घोषणा करते है। परिग्रह गभित रहता था। उस सेठ ने पहिले कभी किसी 'शुक' प्रव्रह्म जैसे चार के त्याग की घोषणा नही करते नामक मन्यासी से साख्यमत का उपदेश सुना था और न कही पापों की चार संख्या का विधान ही और वह मांख्य मत का श्रद्धानी हो गया था। जब किया गया है। तीर्थ करों की घोषणा है उसे थावर्चापुत्र के प्रागमन की बात मालुम हुई तो 'मन्वं मे अकरणिज्ज पावं कम्मं ।' वह उनके पास गया। थावर्चापुत्र को देखकर (४ तीर्थकर अरिष्टनेभि के समय मे ब्रह्मचर्य की सुदर्शन सेठ ने पूछा कि आपका धर्म कसा है ? तब गणना स्वतत्ररूप से होती रही है- अपरिग्रह मे थावर्चापत्र ने धर्मोपदेश में "पंचमहाव्रत रूप धर्म नही, ऐसे भी प्रमाण मौजूद है। उस समय भी पूर्ण का उपदेश किया । यदि बीच के तीर्थंकरों के समय ब्रह्मचर्य की बात (मनि अवस्था मे) पृथक रूप से में चातुर्याम ही थे तो बाईसवें तीीकर के साक्षात् निर्दिष्ट होती रही है। विवाह के प्रसंग मे (जव शिष्य ने पंचमहाव्रतों को धर्म क्यों कहा? वे चातुनेमिनाथ राजुल मे विवाह नहीं करना चाहते तब र्याम रूप में ही उनका व्याख्यान करते। इसका राजघराने की) अन्य रानिया नेमिनाथ से निष्कर्ष तो यही निकलता है कि पंचमहाव्रतों का कहती है पूर्व सभी तीर्थकरो के समय मे एक जैसा चलन ही 'समये प्रति यद्येथा ब्रह्मापि यथारुचिः । रहा है। प्रसग का मूल इस भांति हैगार्हस्थ्ये नोचित ब्रह्म, मंत्रोद्गार इवाशुचौ ।' 'तत्तेण थावच्चापुत्ते अणगारे अरहमो परि? नेमिस्स (त्रि० श० पु० च० पर्व ८।१०५ हैमचन्द्राचार्य) तहारूवाण थेराण प्रतिए सामाइयमाइयार चोद्दसपुवाइ (५) तीर्थ कर नमिनाथ की एक भविष्यवाणी मे भी अहिज्जति अहिज्जति बहूहिं जाव चउत्थ बिहरति ॥२६॥ ब्रह्मचर्य की बात स्पष्ट है और अपरिग्रह से उसे 'तत्तंण परहा अग्नेि मी थावच्चापुत्तस्स प्रणगारस्म नहीं जोडा गया है। इससे भी ज्ञात होता है कि तं इन्भाइयं प्रणगार सहस्सं सीसत्ताए दलयति ।। ३ ।। ब्रह्मचर्य पृथक रूप से स्वतन्त्र रूप में माना जाता ...... [जाताधर्मकथा, सेलगराजषि प्रध्ययन ५, पृ०२४४ रहा है : श्री अमोलक ऋषि, मिकंद्राबाद प्रकाशन] 'पुरा नमिजिनेनोक्तं नेमिरहन भविष्यति । सुदर्शन का थावच्चापुत्त से प्रश्नोत्तरकुमार एव सन्नव, नार्थो राज्यश्रियास्यतत् । ॥३५॥ 'तुम्हाणं कि मूलए धम्मे पणते ? ततेण थावच्चाप्रतीक्षमाणः ममय जन्मतो ब्रह्मचार्ययम् । पुत्ते सुदंमणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं वयासी--सुदंसणा प्रदास्यते परिव्रज्यां मान्यथा कृष्ण, चिन्तय ॥ ३६॥ विणयमुले घम्मे पणतं । सेविय विणए दुविहे पण्णसे उक्त प्राकाशवाणी है, जो अरिष्टनेमि के सबध में त जहा- प्रागार विणएय प्रणगार विणएय । २१वें तीर्थ कर नमिनाथ द्वारा कभी (पहिले) की गई तत्थणं जे से प्रागार विण सेवय पच अणुव्वया सत्त भविष्यवाणी को इगित करती है। इससे सिद्ध है कि सिक्वायाइ, एककारस उवासग पडिमापात्तो। तस्थणं जे ब्रह्मचर्य की महिमा २१वें तीर्थंकर के समय में भी पृथक से अणगार विणए सेणं पच महन्वपाई तं जहा-सव्वामी
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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