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________________ 27, 10, Pet अनेकांत १० मान्यता में चातुर्याम स्वीकार करने पर साधुनों के २८ मूलगुणों की सख्या कैसे पूरी होगी ? क्योंकि ब्रह्मचर्यं परिग्रह मे गर्भित होने से महाव्रतों में एक कम करना पड़ेगा। २ - क्या कहीं माधुनों के मूलगुण २७ होने का उल्लेख है ? १३- प्राचार्यों के मूलगुणो मे ३६ के स्थान पर ३५ की ही सख्या रह जायगी (एक महाव्रत तो कम हो ही जायगा पर ब्रह्मवयं धर्म का अन्तर्भाव (महावतों की भाति) प्राचिन्य में करना अनिवार्य हो जायगा। इस बात का निराकरण कैसे होगा ? ४ - क्या कही श्राचार्य के मूलगुण ३५ होने का उल्लेख है ? ५ चातुर्याम और पंचमहाव्रत की विभिन्न मान्यताथों में तीर्थ करो की देशना को विशेष ध्वनि रूप या अनक्षरी मानने मे वाघा उपस्थित न होगी ? - क्या विभिन्न स्वभाव और विभिन्न बुद्धि के लोगों की अपेक्षा से हुई ध्वनि मे मन का उपयोग न होगा ? ७-- क्या कही उन पापों की संख्या चार मानी गई है। जिनके परिहार रूप चातुर्याम होते है ? यदि बाईस तीर्थकरों ने चार पाप बतलाए हों तो उल्लेख ढूंढना चाहिए। शायद कही कुशील को परिग्रह में समिलित कर दिया हो ? ८ - सज्ञायें चार के स्थान में कही तीन बतलाई है क्या? ( यतः मंधून परिवह के अन्तर्भूत हो जाएगा) १- महावीर ने दीक्षा के समय चातुर्याम धारण किए या पंचमहाव्रत ? यदि पंचमहाव्रत धारण किए तो वे २२ तीर्थकरों की परम्परा मे कैसे माने जाएंगे ? यदि चातुर्याम में दीक्षित हुए तो आदि के तीर्थंकर की धर्म परम्परा में कैसे माने जायेंगे ? १० - क्या कहीं १० धर्मों के स्थान पर ब्रह्मचर्य को अचिम्य में गमित किया गया है और धर्मो की संख्या बतलाई गई है? ११ - स्त्री को परिग्रह मे गिनाया गया है या नही ? १. क्षेत्र यदि गिनाया गया है तो संख्या के परिमाण की दृष्टि से अथवा भोग की दृष्टि से ? इसी प्रकार के धन्य भी बहुत से प्रश्न उपस्थित हो जायेंगे। ऐसे प्रश्नों के निराकरण के प्रभाव में समस्त श्रागम ही सावरण ( सदोष ) हो जायेंगे । अतः दि० विद्वानों से मेरा निवेदन है कि वे विचार करें मेरी रहें हैं। कहीं भी किचित् भी अन्तर नही प्राया है। जो भी बुद्धि में तो ऐसा है कि सभी तो करो के उपदेश समान जो उन्होंने समय समय पर लोगों की दृष्टि से किया है । अन्तर दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्राचार्यों की देन है : ( १ ) यदि हम श्वेताम्बर परपराओ के उल्लेखो पर विचार करें तो हमे वहाँ ऐसे उल्लेख भी मिलत है जिनसे यह सिद्ध होता है कि पार्श्व से पूर्व भी पचमहाव्रतो का चलन रहता रहा है । श्राचार्य हेमचन्द जी पार्श्वनाथ द्वारा दिए उपदेश को जिस भाति बतलाते है उससे ब्रह्मवयं को अपरिग्रह मे गभित नही माना जा सकता। अर्थात् पार्श्वनाथ द्वारा ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को एक किया गया हो, ऐसा सिद्ध नही होता । यथा 'सद्विधा सर्वविरति देशविरति भेदतः । सयमादि दशविधो, अनगाराणां स प्रादिमः ।।' ( श्रि० श० पु ० च० पर्व ६, सर्ग ३) यह पार्श्वनाथ का उपदेश है। इसमे मुनिधर्म, संयम आदि के रूप में दश प्रकार का बतलाया है । ब्रह्मचर्य का अन्तर्भाव अपरिग्रह मे नही किया गया। यदि तीर्थकर को दोनों मे से एक ही रखना इष्ट होता तो वे दश के स्थान पर नौ का ही विधान करते । ग्रागमों में जो सयम कहे है। वे हैं : 'खंती य मद्दत्र प्रज्जव, मुत्ती तत्र मजमे य बोधवे । सच्चं सोयं प्राचिणच बंभ च जइ घन्तो ॥ ' (२) पार्श्व से पूर्व तीर्थंकर नमिनाथ ने वरदत्त को जो उपदेश दिया है उससे भी पच महाव्रतों की पुष्टि होती है। उन्होंने 'सावध योगविरति' को चारित्र कहा। और प्रवद्यो ( पापों) की सख्या सदा पाच वास्तु धन धान्य, द्विपद च चतुष्पदम् । बाह्यानां गोमहिष मणिमुक्तादीना चेतनाचेतनानाम् ।।'
SR No.538030
Book TitleAnekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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